(27 अगस्त 1994 के सम्पन्न राज्यस्तरीय कैडर कन्वेंशन में दिया गया भाषण;
समकालीन लोकयुद्ध, 15 सितम्बर 1994 से, प्रमुख अंश)
सात महीने पहले भी इसी जगह एक कन्वेंशन हुआ था. उस समय ऐसा एक विचार था कि जनता दल और एमसीसी के दबाव में हमारी पार्टी खत्म होती जा रही है. इस तरह की बात अखबारों में, आम धारणा में थी. उस समय हमलोगों ने अपने कैडरों का एक कन्वेंशन किया था और उसमें यह बात कही थी कि आप एक सौ साथी पार्टी के नेतागण हैं, आप अगर कोशिश करें तो चेहरा बदल सकते हैं बिहार का. उसके बाद हमने देखा कि हमारे साथियों ने एकताबद्ध होकर पूरे जी-जान से कोशिश की और 18 मार्च को हमने एक ऐतिहासिक रैली इसी पटना में की. उसके बाद से सारे अखबारों का प्रचार बदल गया और ये बात सामने आने लगी कि जनता दल का महाभ्रम टूटा और सीपीआई(एमएल) फिर एक बड़ी ताकत के रूप में उभरी.
मैं ये कहना चाहता हूं कि हमारे साथियों में वो ताकत है. जरूरत सिर्फ इस बात की है कि हम एक सही नारे के तहत एकताबद्ध होकर पूरी कोशिश के साथ लगें. मैं समझता हूं कि बिहार में हमेशा ही एक ऐसी परिस्थिति मौजूद है जो कि यहां तेजी से क्रांतिकारी परिवर्तनों की तरफ आगे बढ़ सकती है. उस दौरान हमने एक और चीज देखी थी, जो एक बहुत अच्छी बात लगी थी कि हमारे तमाम नेताओं ने, ऊपर से लेकर नीचे तक, सबने एक नई कार्यशैली विकसित की थी. खुद व्यक्तिगत ढंग से हमारे तमाम नेतागण सीधे आम जनता में गए, कतारों के साथ रहे, जनता के साथ रहे और व्यक्तिगत ढंग से वे लोग झंडे हाथ में उठाकर प्रचार में उतरे. यह एक स्वस्थ कार्यशैली है. इसके पहले इसीलिए हम एक शुद्धीकरण अभियान चला रहे थे,क्योंकि नेता और कतारों के बीच कहीं एक दूरी-सी बन गई थी. शुद्धीकरण अभियान के जरिए हमने इस दूरी को पाटा और हमारे तमाम नेतागण खुद व्यक्तिगत ढंग से उस पूरे अभियान में लगे थे. एक स्वस्थ, नई, अच्छी कार्यशैली उस रैली के दरम्यान हमने जिसका विकास किया था, उस कार्यशैली पर आज भी हमें अडिग रहना चाहिए. मैंने उस समय अपने वक्तव्य में इसकी चर्चा भी की थी कि विभिन्न स्तरों पर हमारी पार्टी कमेटियों में बहुत-से विभाजन हैं जिससे काफी नुकसान होता है. मैंने बेगूसराय का जिक्र किया था और कहा था कि इस तरह का विभाजन और भी तमाम जगहों पर चल रहा है.
यहां जो एक दस्तावेज रखा गया है उस पर तमाम साथियों ने अपने विचार रखे हैं. बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें उसमें आई हैं. मैं समझता हूं कि उसपर राज्य नेतृत्व को विचार करना चाहिए. एक बात कुछ साथियों ने रखी है कि परचे में राजनीतिक शक्तियों का वास्तविक विश्लेषण होना चाहिए, जैसे कहीं अगर लिख दिया गया है कि जनता दल(ब) – लालू यादव वाला जनता दल – खत्म हो गया है या करीब-करीब इसका कोई असर नहीं रह गया है, तो ये वास्तविक स्थिति नहीं है, अभी भी वो एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी है. इसलिए अगर पर्चा में ऐसा जिक्र आ गया है कि जनता दल(ब) कुछ रहा ही नहीं, तो मैं समझता हूं कि इसको जरूर ठीक कर लिया जाना चाहिए; या इसी तरह से बसपा के बारे में भी अगर ऐसी बात है कि उसका कहीं कुछ नहीं है, अगर उसे एकदम से खारिज कर दिया गया है, तो मुझे लगता है कि उसे भी सुधारना चाहिए. क्योंकि ये सच्चाई है कि बसपा की भी कोशिशें जारी हैं और चुनाव जितना नजदीक आएगा बिहार में, वो कोशिशें बढ़ाएंगे भी. उत्तर प्रदेश में उनकी ताकत है, उसके बल पर जहां तक हो सकेगा यहां जरूर कोशिश करेंगे. इसलिए उनके बारे में भी हमें जरूर सतर्क रहना है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी हम बसपा के प्रभाव के खिलाफ लड़ रहे हैं और वहां हमें कुछ-कुछ सफलताएं भी मिल रही हैं. इसलिए ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ बिहार में आ रहे हैं, हमने भी उत्तर प्रदेश में उनके इलाकों में अपनी कोशिशें बढ़ाई हैं. हमें भी उसमें कुछ-कुछ सफलता मिल रही है. लेकिन जो हो, उनकी कोशिश है और वह बढ़ेगी. उनके पास साधन भी हैं, पैसे भी हैं. इसलिए अगर दस्ताबेज में उसको एकदम खारिज कर दिया गया है तो इसे भी ठीक कर लिया जाना चाहिए.
दूसरी बात यह कि जनता दल(जार्ज) या झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ अगर हम चुनावी संश्रय की बात सोचते हैं या यहां तक कि सरकार बनाने की बात कह रहे हैं, तो इस पर तमाम साथियों ने सवाल उठाए हैं. उनको लगता है कि ये ताकतें निर्भरयोग्य नहीं हैं. खासकर झारखंड मुक्ति मोर्चा ने पिछले समय कांग्रेस के साथ जिस तरह से खुलेआम गठजोड़ किया और जनता दल(जार्ज) की भी आज जिस तरह की स्थिति है, (उसे देखते हुए) मैं ममझता हूं कि हमारे साथियों के वक्तव्यों में एक सही भावना है. इस लिहाज से मुझे लगता है कि इन ताकतों के साथ दोस्ती या जो कुछ करना है, उसके बारे में अगर बढ़-चढ़ के कुछ बाते आ गई हैं दस्तावेज में, या सरकार-वरकार बनानेवाली कोई बात अगर आ गई हो तो अभी फिलहाल ये छांट दिया जाना चाहिए. इनके साथ ज्यादा से ज्यादा कुछ सीटों के बारे में कहीं तालमेल की कोई गुंजाइश हो सकती है कि नहीं इसको हम तलाशेंगे. अभी फिलहाल इस तरह का ही मूल्यांकन रखना ज्यादा ठीक होगा. कुछ साथियों ने एक आशंका जाहिर की है कि सीटों का तालमेल भी कहां तक हो पाएगा नहीं हो पाएगा कहा नहीं जा सकता. मुझे लगता है कि यह आशंका सही है, ऐसा संभव है कि शायद अंततः चुनावी संश्रय ही न हो, सीटों का तालमेल भी संभव न हो और हो सकता है कि हमें अकेले ही लड़ना पड़े. इस संभावना को भी हम नकार नहीं सकते हैं.
फिलहाल जो स्थितियां हैं, एक बात हमें माननी होगी, समझनी होगी कि दुश्मनों के बीच का जो अंतर्विरोधहै या जो मुख्य दुश्मन है उनके खिलाफ तमाम लोगों के साथ विभिन्न स्तरों के समझौते करने पड़ते हैं. किसी के साथ आप कार्यक्रम संबंधी समझौता करते हैं, कुछ स्थायी किस्म का समझौता करते हैं, तो कुछ लोगों के साथ कुछ दिनों का समझौता करते हैं. किसी के साथ एक दिन की भी दोस्ती होती है, किसी के साथ दो-चार घंटों की भी दोस्ती होती है. ये निर्भर करता है कि कौन किस तरह का है. तो संयुक्त मोर्चे का दायरा बहुत विस्तृत होता है. संयुक्त मोर्चे में, अंततः, कहिए समाजवाद तक जाते-जाते, साम्यवाद तक पहुंचते-पहुंचते तो कम्युनिस्ट पार्टी का किसी से कोई मोर्चा नहीं रहता है. उसको अकेले ही वो सफर तय करना है. बीच में मोर्चे बनते हैं, बिगड़ते हैं और इसका दायरा बहुत व्यापक होता है. कुछ ऐसे मोर्चे होते हैं जो कुछ दशकों तक चलते हैं, कुछ होते हैं जो सालों तक चलते हैं, और कुछ ऐसे भी मोर्चे होते हैं जो कुछ घंटों तक खास मुद्दे पर बनते हैं. किसी शहर में पुलिस का कुछ अत्यातार हुआ तो सर्वदलीय कमेटियां भी बन जाती हैं. तमाम पार्टियां उसमें आ जाती हैं और कोई एक प्रोटेस्ट हो जाता है, बाजार बंद हो जाता है, दो घंटे की दोस्ती हो जाती है. तो इस तरह से चीजें चलती हैं.
झारखंड में फिलहाल हमने देखा कि वहां जो दूसरी ताकत थी जिसे तुलनात्मक रूप में ज्यादा प्रगतिशील या वामपंथ की ओर झुका हुआ माना जाता था – कृष्णा मार्डी ग्रुप या कहें जो विनोद बिहारी महतो का ग्रुप था, वह जनता दल से क्रमशः जुड़ता चला गया और झारखंड राज्य की मांग भी उसने करीब-करीब छोड़ दी. और दूसरी जो ताकतें थीं ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन(आजसू) या इस किस्म की, वे भी आईं तो काफी बड़ी-बड़ी बातें कहती हुईं लेकिन अंततः या तो सब बिखर गईं या वे भी यहां-वहां अवसरवादी समझौतों में चली गईं.
झारखंड मुक्ति मोर्चा के दो पहलू हैं. आप लोगों ने जैसा कहा ठीक उसके नेता वगैरह उसी तरह के हैं, बदमाश हैं, माफिया हैं. लेकिन आम आदिवासियों में अभी भी उसका एक असर मौजूद है और उसी को लोग झारखंड राज्य की प्रतिनिधित्वकारी ताकत के रूप में देखते हैं. एक सवाल हमलोगों के सामने था कि अक्सर ये कांग्रेस की ओर या केंद्र की ओर चले जाते हैं या केंद्र वाले, कांग्रेस वाले इनको अपने पक्ष में, काम में लगा देते हैं. यह स्वाभाविक ही है, उनका जो वर्ग आधार है, उनकी जो वर्ग स्थितियां हैं, वे उधर जाएंगे. लेकिन इसमें दूसरी बात भी हो सकती है. एक कोशिश अगर हमारी तरफ से हो और हम भी वहां एक शक्तिशाली ताकत बनें अर्थात् इनके सामने हम एक सीधा सवाल खड़ा कर दें कि आपको चुनना है – आप कांग्रेस के साथ जाएंगे या सीपीआई(एमएल) के साथ आएंगे? बीच का कोई रास्ता नहीं है. दो में से उसको एक चुनना होगा. वे दोनों बातें कह रहे हैं. अपने सम्मेलन में और तरीकों से उन्होंने यह भी कहा है कि सीपीआई(एमएल) के साथ हम रिश्ता बनाना चाहते हैं और उधर कांग्रेस के साथ तो कर ही रहे हैं. हम चाहते थे कि यह सवाल हम वहां तेजी से उठाने की कोशिश करें. इससे हम उम्मीद कर सकते हैं कि कांग्रेस से धक्का लगने पर वे हमारे साथ आएं अथवा उनके अंदर बहसें तेज हों. पिछले समय लालू यादव ने या जनता दल ने आरक्षण के सवाल पर, मंडल के सवाल पर, या बैकवर्डिज्म के सवाल पर एक लहर पैदा की थी, चुनाव जीता था. यह सच है कि एक बार फिर वे यही कोशिश करेंगे. लेकिन जैसी कि एक कहावत है कि नदी के एक ही पानी में दो बार नहीं नहाया जा सकता क्योंकि इस बीच पानी बह चुका होता है. इसलिए हम समझते हैं कि दुबारा वैसी ही हवा पैदा कर देने की उनकी जो उम्मीद है तो वह स्थिति अब वे दुहरा नहीं पा सकेंगे. इसके बहुत-से कारण हैं. उस समय उनकी पार्टी का राष्ट्रीय पैमाने पर भी एक उभार था, राष्ट्रीय पैमाने पर भी वह एक पार्टी के रूप में आगे बढ़ रही थी. उसके पास राष्ट्रीय नेता थे. आज राष्ट्रीय पैमाने पर तो करीब-करीब वह पार्टी खत्म हो चुकी है. विश्वनाथ प्रताप सिंह रिटायर कर रहे हैं राजनीति से. उनका अपना विभाजन भी है, उस बार की लहर के पीछे बहुत-से कारण थे, बहुत-सी राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियां थीं.
दूसरी बात, हमें क्रीमी लेयर के सवाल को उठाना चाहिए. क्रीमी लेयर का सवाल हमारे लिए इसलिए जरूरी है क्योंकि बिहार में जाति विभाजन है और कोई भी पार्टी इस जाति विभाजन को अस्वीकार नहीं कर सकती है. फर्क इतना ही है कि कुछ पार्टियां – जैसे सीपीआई-सीपीएम तक, जाति का जो वर्तमान ढांचा है या जो स्वाभाविक अंतर्विरोधहै उसी आधार पर या कुल मिलाकर जनता दल की जो अपनी पूरी जाति की राजनीति है, वे उसी के ही पिछलग्गू बन जाते हैं. हम भी जातियों की बात करते हैं. किन्तु हमारी हमेशा कोशिश होती है कि हमारा हर कदम हर जाति के बीच वर्ग विभाजन पैदा करे. किन्हीं जातियों में वर्ग विभाजन की स्थिति न हो, तो अलग बात है. ऐसी भी कुछ-कुछ जातियां हो सकती हैं कि पूरी की पूरी जाति ही गरीब किसान है, खेत मजदूर है तो वह अलग बात है. लेकिन जहां, जिन जातियों में वर्ग विभाजन की स्थितियां मौजूद हैं उस विभाजन को सामने लाया जाए. यही कम्युनिस्टों का दूसरों से फर्क होता है. इस सिलसिले में क्रीमी लेयर की यह जो धारणा है, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के रूप में भी आया है, यह हमारे लिए काम में लगाने वाला सबसे अच्छा हथियार है. इसके जरिए तमाम जातियों के बीच हम वर्ग विभाजन की धारणा को समझा सकते हैं, ले जा सकते हैं, वर्ग विभाजन तैयार कर सकते हैं.
एक सवाल यहां और आया है कि पहले हमने वामपंथी सरकार का नारा दिया था, वामपंथी पार्टियों के साथ हमें ज्यादा कोशिश करनी चाहिए बजाए इन पार्टियों के – जनता दल (जार्ज) के – इस मामले में हमारी जो बुनियादी नीति है उस बुनियादी नीति से हम नहीं हटे हैं. हम यह जरूर चाहते हैं, हमेशा हमारी यही कोशिस रही है, और रहेगी भी कि जो वामपंथी पार्टियां हैं, जो वामपंथी ताकतें हैं, हम उनके नजदीक आएं, उनके साथ मिलकर आगे बढ़ें.
इसी सितंबर में नई आर्थिक नीतियों के सवाल पर अखिल भारतीय पैमाने पर रेल रोको आंदोलन है, भारत बंद करना है 29 सितंबर को. सारी संयुक्त कार्यवाहियां वामपंथी ताकतों के साथ मिलकर हम करेंगे, लेकिन बिहार की ठोस राजनीतिक स्थितियों में हम दोनों एक दूसरे के आर-पार खड़े हैं. वे जिस खेमे में हैं और हम जिस खेमें हैं, दोनों एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गए हैं. यह एक ठोस स्थिति है.
हमें चीजों को इस ठोस स्थिति में देखना है. जहां तक सीपीआई(एम) की बात है, हम यह देख रहे हैं कि दरभंगा हो, कटिहार हो, नवादा हो, रांची हो, कई जगहों पर ग्रामीण इलाकों में, हमारे साथ सीपीएम का संघर्ष हुआ है और वह खूनी संघर्ष में भी तब्दील हो गया है. हमने हर जगह एक बात पाई है कि बिहार में, सीपीएम ग्रामीण इलाकों में सामंती ताकतों के साथ जुड़ी हुई है. दरभंगा में भी हमने ये देखा, कटिहार में भी देख रहे हैं, रजौली में भी हमने ये देखा और रांची में भी हमने ये देखा कि सामंती ताकतों के पक्ष से वह हमारे ऊपर हमले कर रही है. तो इसलिए, बाहर से देखा जाए तो यह सीपीआई(एमएल) और सीपीएम का संघर्ष है. लेकिन गहराई में देखें तो ये वर्ग संघर्ष की घटनाएं हैं. गरीब-भूमिहीन किसान हमारे साथ हैं और सीपीएम वाले सामंती ताकतों के पक्ष से आकर लड़ रहे हैं. बिहार में सीपीएम की ऐसी ही स्थिति है.
यह कोई नई बात मैं नहीं कह रहा हूं. बंगाल में सीपीएम वालों की भी यह धारणा है कि बिहार में उनकी पार्टी सामंतवाद से नहीं लड़ती है और कहीं न कहीं सामंतवाद से उसका समझौता है. इसीलिए बिहार में सीपीएम बढ़ नहीं पा रही है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि उसके जो यहां सेक्रेटरी हैं, गणेश शंकर विद्यार्थी, वो खुद इस्टेट से आते हैं. यह यहां सीपीएम की एक खास बात है, कम-से-कम ग्रामीण अंचलों की. ट्रेडयूनियन वगैरह की बात अलग है, वहां जो भी हो, हमारे साथ संयुक्त कार्यवाहियां होती हैं, वहां ऐसा कोई संघर्ष भी नहीं दिखाई पड़ता है, ग्रामीण इलाकों में अभी तक हमने यह बात देखी है. फिर भी ग्रामीण इलाकों में भी, कहीं अगर उनके साथ एक साथ चलने की संभावनाएं हैं तो उनको हम जरूर तलाशेंगे.
जहां तक रही सीपीआई की बात, तो सीपीआई पर अभी हमने कुछ हमले किए हैं, राजनीतिक हमले. इसका उद्देश्य सीपीआई को छोड़ देना नहीं है. हमने इसलिए ये हमला किया है कि सीपीआई के अंदर जो एक बहस है उसको तेज कर दिया जाए. उसको तेज करने के लिए हमने कुछ-कुछ बयानबाजी की है. इसका उद्देश्य उनके अंदर की बहसों को तेज करना है और इसका कुछ फायदा हमें हुआ भी है. उनके नेताओं का एक हिस्सा हम लोगों से मिला भी है और उसने यह बात कही है कि हमारी पार्टी में बहस है और एक हिस्से की एक मांग है, खुद उनलोगों की, कि हमलोग बजाए यह फैसला लेने के कि लालू यादव के साथ जाएं कि जार्ज के साथ जाएं, सबसे पहले हमलोगों को सीपीआई(एमएल) के साथ हाथ मिलाना चाहिए और हम दोनों पार्टियों को बैठकर यह ठीक करना चाहिए कि किसके साथ जाना ठीक रहेगा. उनके अंदर यह जो बहस है इस बहस को तेज करना हमारा लक्ष्य है. उनके साथ संपर्क काट लेना हमारा लक्ष्य नहीं है. हम सीपीआई के साथ दोस्ती बढ़ाने की कोशिश करेंगे. जहां-जहां संयुक्त कार्यवाहियां होंगी, वहां-वहां हम उनके साथ जाएंगे. क्योंकि सीपीएम वाले इस मामले में ज्यादा कट्टर होते हैं, सीपीआई वाले अक्सर बदलते रहे हैं. इसलिए उनके लिए यह बहुत कठिन नहीं है. वे कभी कांग्रेस के साथ गए हैं, कभी इसके साथ, कभी उसके साथ. सीपीआई का यह जो चरम अवसरवाद है, यही उसका सबसे सकारात्मक पहलू भी है. यही उम्मीद बंधाता है कि वह फिर एक छलांग लगा सकती है. अगर हमारी ताकत आगे बढ़े तो ये उम्मीद की जा सकती है. सीपीआई वालों को अगर ऐसा लगे कि लालू यादव की स्थिति डगमगा रही है और यह संश्रय मजबूत हो सकता है तो सीपीआई पहली पार्टी होगी जो अपनी स्थिति बदल कर उधर से इधर आ सकती है. इसलिए सीपीआई के साथ हमारी बातचीत, कोशिशें तमाम स्तरों पर जारी रहनी चाहिए.
एक अन्य सवाल जो साथियों ने रखा है कि हमारे बुनियादी सवालों के अलावा भी, बिहार में बाढ़ का सवाल है, डायरिया का सवाल है, जनता की जो तमाम समस्याएं हैं, उनपर हमारी तरफ से पहलकदमी कम रहती है, या नहीं रहती है. मैं समझता हूं कि यह एक काफी जायज आलोचना है. उस पर राज्य नेतृत्व को गहराई से सोचना चाहिए कि हम यहां एक ऐसी राजनीतिक ताकत बनें जो बिहार की जनता की हर समस्या पर पहलकदमी ले और इसलिए हमारे साथियों को बल्कि नेतृत्व के कुछ साथियों को खास करके नियुक्त करना चाहिए कि वे इस तरह के मामलों में वक्तव्य दें, टीम बनाकर दौरा करें, नहीं तो हमलोगों की पहचान एकतरफा बन जाती है कि जहां पुलिस दमन है या इस तरह की घटना है वहीं भर ये लोग पहलकदमी लेते हैं और जनता की बाकी समस्याओं पर नहीं सोचते हैं. हमको लगता है कि यह ठीक नहीं है. यह एक आलोचना आई है, वह सही है और इसपर पहलकदमी लेने की जरूरत है.
एक अन्य सवाल है मुस्लिम जनता का. यह बहुत जरूरी सवाल है. अर्थात् मुसलमानों के बीच, मुस्लिम जनता के बीच हम कोई पैठ बिहार में बना पाएंगे कि नहीं, इसपर बहुत कुछ निर्भर करता है. देश की राजनीति में भी हमारा असर तभी बढ़ेगा. मुस्लिम संप्रदाय सिर्फ बिहार में ही नहीं, हिंदुस्तान में काफी बड़ी संख्या में है, और बिहार में, जहां हमारे लिए एक मौका है, किसी एक राज्य में अगर हम मुसलमान जनता के बीच अपनी पैठ बना सके और वो अपनी पार्टी के रूप में हमारी पार्टी को देखने लगे तो इसका एक बहुत बड़ा असर सारे देश में फैलेगा. मैं समझता हूं कि यह संभव है और इसके लिए जोरदार कोशिशों की जरूरत है.
फिलहाल मैं ये कहना चाह रहा था कि पिछली बार चुनौती थी एक रैली करने की, 18 मार्च को वह हमने किया. अभी हमारे सामने चुनौती है अगला चुनाव. इस चुनाव में कहिए तो हमारा सीमित लक्ष्य ही है. सीमित लक्ष्य से मेरा मतलब है कि हमें फिलहास एक मान्यता प्राप्त पार्टी का दर्जा पा लेना है. इस बार के चुनाव में हमें यह गारंटी करनी है. पिछली बार हमलोग चार-पांच लाख वोटों से पीछे रह गए थे. हमको लगता है कि इसके लिए हमलोगों को 14-15 लाख वोटों की जरूरत थी और हमको 8-10 लाख वोट मिले थे. इस बार हमको यह कमी जरूर पूरी करनी चाहिए और हमारी समझ में ज्यादा महत्वपूर्ण यही है अर्थात् हम कितने एमएलए सीट जीत जाएं, वह एक पहलू है. लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू हमारे सामने, मान्यताप्राप्त पार्टी बनने का है, क्योंकि एक राज्य की मान्यता प्राप्त पार्टी होने का एक राष्ट्रीय असर भी पड़ता है. बिहार जैसे राज्य में एक वामपंथी सरकार बनाना आपका एक लक्ष्य जरूर है, दूरगामी लक्ष्य. लेकिन शायद इसके बीच एक मध्यवर्ती रास्ते से आपको गुजरना होगा सरकार के मामले में, एक लेफ्ट-डेमोक्रेटिक सरकार, वामपंथी लोकतांत्रिक सरकार के दौर से गुजरना ही पड़ेगा. इसके बाद ही शायद अगले दौर में वामपंथी सरकार बन सकेगी, हालांकि इसका प्रचार आप हमेशा करेंगे. तो एक वामपंथी-लोकतांत्रिक सरकार की संभावना के नारे को लेकर भी हम चल सकते हैं.
कुल मिलाकर यही मेरी बातें थी और अंततः मैं फिर दोहराऊंगा कि यह सब कुछ निर्भर करता है ऊपर से नीचे तक आपस में एक फौलादी एकता बनाने पर. मैं फौलादी एकता शब्द कह रहा हूं. क्योंकि जब युद्ध का समय आता है तब सेनावाहिनी के अंदर एक अलग तरह के अनुशासन की जरूरत होती है. इसके पहले तक बहसें करने राय-विचार करने सबका मौका रहता है. लेकिन जब युद्ध सामने चला आता है तब हमको लगता है कि एक सेनावाहिनी जिस तरह से आगे बढ़ती है, उस तरह से चलना होगा. युद्ध के पहले तक योजना पर, दिशा पर जितनी बहसें करनी हैं कर लीजिए. और यह कन्वेंशन इसी के लिए था. जिसने जो कहा, हमने सब सुना. युद्ध में उतरने से पहले तक जितनी बहसें करनी थीं, आलोचनाएं करनी थीं, दिशा के बारे में बातें करनी थीं, वह सब हो गया. और इसके बाद हम जिस दिशा और जिस लाइन के आधार पर एकमत होकर निकलेंगे उसपर जिस तरह से सेनावाहिनी युद्ध में एकताबद्ध होकर मार्च करती है, उसी ढंग से पूरी पार्टी को चलना होगा. तभी हम जीतें हासिल कर सकते हैं. जिस कार्यशैली का विकास हमने पिछली रैली के दौरान किया था, तमाम जगहों पर तमाम रिस्क लेते हुए भी हमलोगों ने अपने भाषणों में सचेत रूप से आक्रामक रवैया अपनाया था, अपनी कतारों के मनोबल को बढ़ाया था. हमारे नेताओं ने मोटर साइकिलें किनारे रखकर खुद व्यक्तिगत रूप से गांव-गांव में पैदल मार्च किया, घूमे. यह जो कार्यशैली विकसित हुई थी, उसको अपना कर अगर हम चलें तो हमने जो चुनौती अपने सामने रखी है वह बहुत ही सीमित है और उसको पा लेना कुछ भी कठिन नहीं है.