(17-18 दिसंबर 1993, समकालीन लोकयुद्ध, जनवरी 1994 से, प्रमुख अंश)
यह शुद्धीकरण आंदोलन हम एक ऐसे समय में चला रहे हैं, जबकि हमारी पार्टी जो पिछले कुछ समय से कुछ समस्याओं से, कुछ नकुसान से जूझ रही थी, वहां से आगे बढ़ी है, और हमने अपनी स्थिति बेहतर की है. दूसरी तरफ बिहार में फिलहाल हमारा जो मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी है जनता दल, वह सब तरफ से घिर रहा है. कल तक अखबार यह कहते थे कि लालू यादव के हमले के सामने आईपीएफ बिखर रहा है, सीपीआई(एमएल) बिखर रहा है, लेकिन आज अखबारों की भाषा भी बदलने लगी है. ‘लालू पर लाल हमला’ इस तरह के शीर्षक अभी आ रहे हैं. खासकर, हाल में देश में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए, चुनाव हुए, उसके बाद जनता दल का संकट और भी गहरा हुआ है. बिहार में भी उनकी पार्टी पर उसका एक बड़ा असर पड़नेवाला है.
यह एक खास परिस्थिति है, जबकि हम पिछले समय के घेराव, पिछले समय की समस्याओं से उबरते हुए, हमलावर रुख अपनाते हुए आगे बढ़ रहे हैं और हमारा जो मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी है वह संकटों से घिर रहा है. यह एक समय है, एक माहौल है, जिसमें हमने इस शुद्धीकरण अभियान को चलाने का फैसला लिया है.
इससे यह साफ हो जाता है कि हमारा लक्ष्य आनेवाले दिनों में इस प्रक्रिया को और तेज करने, पहलकदमी मजबूती से अपने हाथों में लेने और एक सशक्त राजनीतिक आंदोलन छेड़ देने का है. इसके लिए हमें तैयारी करनी है और इस तैयारी के लिए सबसे बड़ी बात है कि हमारी अपनी पार्टी एकताबद्ध हो, अनुशासनबद्ध हो. इस शुद्धीकरण आंदोलन का मुख्य मकसद मेरी समझ में यही है.
मैं समझता हूं कि इस जनता दल सरकार से कैसे हम नए सिरे से या किन मुद्दों के माध्यम से और किस तरह से उसका मुकाबला करें, ये सवाल हमारे सामने थे. दिशा का सवाल भी हमारे सामने था. क्रमशः हमने इन सवालों को भी हल किया है और छात्रों का आंदोलन हो, भूमि सुधार का सवाल हो, झारखंड में स्वायत्तता की लड़ाई हो, इन तमाम मुद्दों को, इन तमाम पहलुओं को एक सूत्र में जोड़ते हुए आपको आंदोलन को पुनरुज्जीवित करना है. इस नारे के तहत हमने तमाम अलग-अलग आंदोलनों को एक समग्रता में, बिहार के लोकतंत्रीकरण की लड़ाई के रूप में शुरू किया है. और हमने अपनी दिशा ठीक की है, और इस दिशा में हम आगे भी बड़े हैं और यह भी बात साफ हो गई है कि जनता दल सरीखी सरकार से मुकाबले के लिए हमारा यह नारा, हमारी यह दिशा काफी कारगर साबित हो सकती है. क्योंकि इसी बीच हमारी इन कोशिशों ने जनता दल के अपने वैचारिक आधार पर भी चोट पहुंचाई है, उसके सामाजिक आधार को भी, उसकी समर्थक लोकतांत्रिक शक्तियों को भी हम प्रभावित कर पाए हैं. तो दिशा का सवाल हमने एक हद तक हल किया है और यह सिर्फ हमारी ही बात नहीं है, हमारे बाहर की भी जो तमाम सर्किल है उनको भी यह लग रहा है कि शायद बिहार में नए स्तर के लोकतांत्रिक आंदोलन का नेतृत्व यह पार्टी करेगी.
इस तरह से पहलकदमी हमने अपने हाथों में लेनी शुरू की है. दिशा का भी सवाल एक हद तक हमने अपने हाथों में लिया है. दूसरी तरफ हमारा जो मुख्य प्रतिद्वंद्वी है उसके सामने कोई खास मुद्दा नहीं रह गया है. मंडल का सवाल धीरे-धीरे पीछे चला जा रहा है. इसलिए कलतक जो लालू यादव कहते रहे कि आईपीएफ तो खत्म हो चुका है, है ही नहीं, आजकल वह कहते हैं कि आईपीएफ, सीपीआई और जनता दल मिलकर अगले चुनाव की तैयारी करें. नए सिरे से वह नए दोस्त को तलाशना चाहते हैं.
तो यह हालात हैं जिनमें हमने इस शुद्धीकरण आंदोलन की शुरूआत की है. जरुरी है इस राजनीतिक परिप्रेक्ष को समझना और इस खास परिस्थिति को समझना. इसके बिना शुद्धीकरण अभियान सच में कोई मायने नहीं रखेगा. यह खास परिस्थिति है जब पहलकदमी हमारे हाथों में आ रही है, यह खास परिस्थिति है जब हमने राजनीतिक दिशा का सवाल भी एक हद तक हल किया है.
हमें अपनी पार्टी को दृढ़ता से एकताबद्ध और अनुशासनबद्ध करना होगा. इस मामले में, बहुत सारे गलत विचार हमारे पार्टी संगठन में हैं, जिनकी चर्चा इस दस्तावेज में की गई है. मेरी समझ में एक है कि हम जब भूमि सुधार का सवाल उठाते हैं, हम जब किसान आंदोलन की बात करते हैं, हम जब किसान संगठन को मजबूत बनाने की बात करते हैं तो हमारे इस आंदोलन को, खास करके किसान आंदोलनों को सिर्फ लालू सरकार को उखाड़ फेंको या एक सरकार के खिलाफ एक तात्कालिक लड़ाई के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. हमें यह समझने की जरूरत है कि हम जिस क्रांति की बात करते हैं, कृषि क्रांति उसमें किसान संघर्ष की एक खास अहमियत है. एक खास सरकार है, कल नहीं रहेगी. कल कोई दूसरी सरकार आएगी. हमारा यह सारा का सारा किसान संघर्ष, यह सिर्फ किसी एक सरकार को टेंपरेरी तौर से परेशान करने के लिए या उसकी इस्तीफा देने के उद्देश्य से सत्ता से उसको हटाने के एक सीमित राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने भर के लिए नहीं है. इस बात को गहराई से समझना चाहिए. अक्सर मुझे यह लगता है कि भूमि सुधार आंदोलन को, किसान आंदोलन को, इन सारी चीजों का महत्व सिर्फ उतने भर में सीमित कर दिया जाता है. तात्कालिक नारे जरूरी हैं. इन नारों के जरिए जनता को गोलबंद करने में हमें तात्कालिक तौर से मदद मिलती है. लेकिन हमारे सारे के सारे किसान आंदोलन को अगर इतने ही सीमित अर्थों में समझ लिया जाए तो मैं समझता हूं कि परिणामवाद की एक वैचारिक विकृति यहां से शुरू होती है और इससे ये सभी आंदोलन कभी कभार के काम बन जाते हैं. हमेशा अपने किसान संगठन को मजबूत करते जाना, किसान संघर्षों पर जोर देते रहना यह जरूरी है. अक्सर हम देखते हैं हमारे किसान सभा की बॉडी डिफंक्ट हो जाती है, निष्क्रिय हो जाती है और फिर उसको कुछ कार्यभार देकर जिंदा किया जाता है. ऐसा क्यों होगा? हमें किसान क्रांति करनी है. इन हालात में हमारा किसान संगठन बार-बार ऐसी हालत में, ऐसी स्थिति में क्यों फंस जाता है और एक खास समय में किसी सरकार के किसी नारे के खिलाफ, किसी पॉलिसी के खिलाफ या एक घेराव आयोजित करके ही उसे जिंदा किया जाएगा – ऐसा क्यों होगा?
मैं समझता हूं कि जो परिणामपाद की एक वैचारिक विकृति है, वह कहीं न कहीं इन मामलों पर अपना असर डालती है, कि सिर्फ एक राजनीतिक हथकंडे के बतौर किसान संघर्षों का इस्तेमाल. यह सीपीआई-सीपीएम सरीखी पार्टियों का ही तरीका हो सकता है. क्योंकि उनके एक दोस्त की सरकार है और जनता दल से उनकी दोस्ती है. कभी उनके लिए किसान मुद्दा जोरदार बन जा रहा है, कभी नहीं बनता है. ... हमारे लिए यह नीति नहीं है. हमारे लिए बिहार जैसे राज्य में खास तौर से, किसान आंदोलन, किसान संघर्ष, क्रांतिकारी किसान संघर्ष यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है और इसके जरिए हमें पूरे समाज का, पूरे बिहारी समाज का क्रांतिकारी रूपांतरण करना है. यह हमारे लिए दीर्घकालिक लड़ाई है और इस लड़ाई में संघर्षों की कोई सीमा हमने बांध नहीं रखी है. किसानों की सचेत भागीदारी के साथ, हजारों हजार किसानों की सक्रियता के साथ यह सामंतवाद विरोधी संघर्ष जितनी ऊंची मंजिलों पर जा सकता है, उसे हमारी पार्टी चलाएगी. यह पूरे समाज के परिवर्तन का सवाल है. किसी खास समय एक सरकार को उखाड़ फेंकने का यह कोई राजनीतिक हथकंडा नहीं है. इस बात को अच्छी तरह से, गहराई से समझा जाना चाहिए. परिणामवाद की एक बहुत बड़ी विकृति या भटकाव यहां से ही शुरू होता है.
इसी तरह आज हम छात्रों के आंदोलन 1974 की जो बात कर रहे हैं या हम झारखंड की स्वायत्तता के आंदोलन की जो बात कर रहे हैं और इस तरह से हम सारे के सारे आंदोलनों को एक सूत्र में पिरोकर जो एक आंदोलन की बात कर ही हैं, वह बिहार के लोकतंत्रीकरण का आंदोलन है. इस आंदोलन की प्रक्रिया में लालू सरकार का क्या हुआ, नहीं हुआ, वह अलग बात है. शायद वह सरकार गिर जाए, शायद वह सरकार चलती रहे. यह हमारे लिए बड़ी बात नहीं है, सबसे बड़ी बात है लोगों के अंदर एक लोकतांत्रिक चेतना का जन्म और समाज के लोकतंत्रीकरण के लिए आंदोलन.
इस समग्र परिप्रेक्ष्य को हमें दिमाग में रखना चाहिए और यह सच है कि तात्कालिक तौर से उस सरकार के खिलाफ लड़ाई, उसकी कमियों-उपलब्धियों के खिलाफ आंदोलन, सरकार की आलोचना-तात्कालिक राजनीति में ये चीजें होती हैं और इनके जरिए हमें अपनी बातों को ले जाने में और व्यापक लोगों की गोलबंदी में जरूर ही एक मदद मिलती है. लेकिन अगर हमारी वैचारिक राजनीतिक सोच ही इसी में सीमित हो जाए, तो मैं समझता हूं कि फिर एक कम्युनिस्ट पार्टी हम नहीं रह जाएंगे और एक तात्कालिक किस्म के जनवादी संगठन जैसे कहीं कुछ में बदल कर रह जाएंगे. इस संदर्भ में परिणामवाद का जो खतरा इस दस्तावेज में रखा गया है, हम समझते हैं कि वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसपर हमारे साथियों को ध्यान देना चाहिए. कुल मिलाकर कहा जाए तो एक वैचारिक क्षय हमारी पार्टी का, संगठन का लंबे समय से हुआ है. परिणामवाद उसकी एक अभिव्यक्ति है.
यह जो वैचारिक क्षय है, इसके और भी कारण हैं, अभिव्यक्तियां हैं. इस दस्तावेज में जिन्हें चेक तो किया ही गया है. यह वैचारिक क्षय हमारी पार्टी का जो हुआ है, उसकी एक अभिव्यक्ति हमने हाल के समय में देखी, जबकि संसदीय चुनाव में हमने हिस्सा लिया और हमने एक नए प्रयोग की शुरूआत की कम्युनिस्ट आंदोलन में. हमारा लक्ष्य था हम विधानसभा में हो, संसदीय संघर्षों में हो एक नया क्रांतिकारी आदर्श प्रस्तुत करेंगे. लेकिन जैसा कि आप जानते हैं हमें इसमें एक काफी बड़ा धक्का पहुंचा. उस वक्त हमारे चुने हुए चार-चार विधायकों को जनता दल ने अपने पक्ष में जीत लिया. या यों कहें वे संसदीय राजनीति के जाल में जाकर फंस गए और फंसते हुए बिक गए. मैं समझता हूं कि हमारी पार्टी के इतिहास में हमसे और भी बड़ी कमियां हुई हैं, गलतियां हुई हैं, धक्के लगे हैं लेकिन शायद ही किसी गलती, कमी या धक्के ने हमारी पार्टी की मर्यादा को लोगों के सामने इतना गिराया हो. इसने हमारी पार्टी को देशभर में काफी नुकसान पहुंचाया है. क्योंकि लोग यह उम्मीद नहीं करते थे कि हमारी पार्टी के जो एमएलए हैं वह इतनी आसानी से, इतनी सहजता से और इस तरह से बिक जाएंगे. यह हमारी पार्टी के मामले में खास करके, कहिए कि एक कलंक है, एक काला धब्बा है, जो हमारे साथ जुड़ गया है. इसे दूर करने की कोशिशें हमारी पार्टी ने चलाई हैं और धीरे-धीरे हम इस बात को जनता के भीतर फिर से लागू कर रहे हैं, लोगों के बीच ले जा रहे हैं कि यह आंदोलन की पार्टी है और हमने एक तस्वीर भी अपनी फिर से बनाई है, लेकिन यह एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल यहां है. अच्छा-खासा सवाल है कि क्यों ऐसा हुआ? कहीं से अगर यह बात हो कि यह लोग ऐसे थे और उन्हें टिकट ही नहीं दिया जाना चाहिए था, तो भी सवाल खड़ा होता है कि क्यों दिया गया? अगर यह हो कि बाद में इनपर नियंत्रण नहीं रखा गया तो भी सवाल उठता है कि क्यों हम नहीं रख सके? सिर्फ उनको दोष देने से तो बात बनती नहीं है. यह बात रह ही जाती है कि हमारा पार्टी संगठन क्या कर रहा था? हम क्या कर रहे थे? टिकट देते वक्त हमने क्यों नहीं सावधानी बरती और आगे हमने क्यों असावधानी बरती? ये सारे सवाल हैं, जिनका जवाब हमें देना होगा. लेकिन मैं कहता हूं कि यह सवाल गहराई में इसलिए भी है कि यह चार-पांच एमएलए की बातें जो हैं, सो तो हैं. लेकिन एक सवाल हमारे सामने यह खड़ा होगा कि क्या हमारे पूरे के पूरे संगठन में, कहीं न कहीं से एक संसदीय भटकाव का असर नहीं पड़ा? भटकाव कम या ज्यादा क्या सारे संगठन में, सारे लोगों में नहीं आ गया था? मैं समझता हूं कि समस्या पर विचार करने का यही एक सही तरीका है.
मुझे लगता है कि यह बात सच है और ऐसा जरूर हुआ है. पूरे संगठन के अंदर एक टिकट पाने की लालसा उनके अंदर काफी हद तक फैली. इसमें सिर्फ नए लोग ही नहीं रहे. ऐसे भी बहुत सारे लोग, जो पुराने साथी रहे हैं, लंबे समय के साथी रहे हैं, कर्मठ लोग रहे हैं वह भी कहीं न कहीं से इस तरह के विचारों के शिकार हुए. इसके अलावा भी पूरे संगठन के अंदर एमपी-एमएलए की मर्यादा पार्टी के या संगठन के नेताओं की तुलना में ज्यादा करके आंकी जा रही थी. इस बात से लगातार हमने संघर्ष करने की कोशिश भी की थी. बहुत-सी जगहों में हमने देखा कि लोग मीटिंगों में एमएलए साहब को बुला रहे हैं. वहां जो पार्टी या संगठन का नेता है उसकी कोई पूछ ही नहीं रह गई. वह भी एमएलए-एमपी के बतौर इसलिए कि वे एमएलए-एमपी हैं. कोई एमएलए अगर हमारे संगठन का नेता है, इस लिहाज से कोई उसको बुलाए तो और बात है. पूरे संगठन में हमने देखा. आम लोगों के अंदर हमारे समाज में एमएलए-एमपी को वीआइपी समझा जाता है. हमारे संगठन में भी हमने देखा कि इस बात का असर है. विधायकों या संसद सदस्यों को भी लगने लगा कि वे ही पार्टी के संगठन के असली नेतृत्व हैं, वे ही सही लोग हैं, वे ही मॉडल हैं. और इसी मॉडल का हमें अनुकरण करना है और इसी तरफ चलना है. यह पूरा का पूरा एक रुझान क्या हमारे संगठन के अंदर पैदा नहीं हुआ? इसके खिलाफ हमने संघर्ष भी शुरू करने की कोशिश की. विभिन्न जगहों पर कहने की कोशिश की कि यह गलत हो रहा है, यह ठीक नहीं हो रहा है, पार्टी या संगठन के नेताओं की मर्यादा संगठन में पहले नंबर पर होनी चाहिए, एमएलए-एमपी के आधार पर यह नहीं सोचा जाना चाहिए. लेकिन इसका कोई खास असर पड़ते हुए हमने नहीं देखा. कितनी चिंता की बात है कि फाइट करने के बावजूद आसानी से लोग यह सुनना नहीं चाह रहे थे; बल्कि इस मामले में कहिए तो तीन-चार विधायकों का चले जाना – इसने फिर से पार्टी में माहौल बदला है.
एमएलए-एमपी की जो प्रेस्टीज इस तरह से बन गई थी वह खोते ही अब लोगों को यह लगने लगा यह तो मामला गड़बड़ है. पार्टी में जो संघर्ष चल रहा था उसमें यह बात ज्यादा साफ हुई और संगठन की मर्यादा, संगठन के नेताओं की मर्यादा फिर से धीरे-धीरे पार्टी में सामने आई और हम आंदोलन के रास्तों पर भी धीरे-धीरे आगे बढ़ सके. तो संसदीय भटकाव पूरी हमारी पार्टी में ऊपर से नीचे तक विभिन्न मात्राओं में आ गया था और जिसकी सर्वोच्च अभिव्यक्ति इन एमएलए लोगों के द्वारा हुई. इसके कारणों की और भी गहराई से तलाश जरूरी है क्योंकि एमएलए आज भी हैं और भविष्य में और भी बढ़ेंगे. एमएलए बढ़ेंगे-एमपी बढेंगे. इसकी हमें जरूरत भी होगी. लेकिन मामला यह है कि कैसे एमएलए-एमपी की सही-सही भूमिका जो है पार्टी आंदोलन में, उसको सही-सही रूप से स्थापित किया जाए और साथ ही साथ संगठन अपनी मर्यादा लेकर भी आगे बढ़े. यह एक बहुत बड़ा सवाल रहा है बिहार में वैचारिक क्षय का जिसकी वजह से संसदीय संघर्षों की एक मिसाल कायम करने के बजाय हमने शुरूआत ही, कहिए तो एक नकारात्मक मिसाल बनाकर की. यह पूरी पार्टी के लिए सोचने का विषय है और शुद्धीकरण का सवाल हमारे सामने इस विषय के साथ ही जुड़ा हुआ है. यह जो इतनी बड़ी घटना हुई, इसके लिए पूरी पार्टी को अपने अंदर की कमजोरियों को तलाश करने की भी जरूरत है कि समग्रता में हमारा वैचारिक क्षय कहां से और कैसे हुआ. आपलोगों ने इस विषय पर ढेर सारे विचार सामने रखे हैं. इससे हमारी तमाम कमजोरियां सामने आई हैं और हम इस बात को समझते हैं कि कहां से गलतियां और समस्याएं हमारे अंदर शुरू हुईं.
यह जो वैचारिक क्षय है, संगठन के भीतर में, सांगठनिक जीवन में भेद पैदा करता है. तो यह दो मूल विषय हो जाते हैं. वैचारिक क्षयरोग, जैसे हम जानते हैं कि टीबी हो जाती है. पार्टी संगठनों में भी टीबी का रोग ऐसा होता है जो कि धीरे-धीरे भीतर से उसको कमजोर करता रहता है. बाहर से तो उसका राजनीतिक स्वरूप, डीलडौल सही ही रहता है और पार्टी धीरे-धीरे खत्म होने की ओर चली जाती है. तो कहीं न कहीं हमारी पार्टी में भी वैचारिक क्षयरोग की शुरूआत हो चुकी थी, जिससे यह सारी गड़बड़िया आई और भीतर से हमारी पार्टी काफी कमजोर हो गई. इसके खिलाफ शुद्धीकरण अभियान, इस क्षयरोग के खिलाफ, एक इंजेक्शन है, एक लड़ाई है, एक दवाई है, ट्रीटमेंट है.
और टीबी रोग ऐसा होता है कि जब वह ठीक हो जाता है तो आदमी पहले से ज्यादा ताकतवर, पहले से ज्यादा मजबूत बनकर उभरता है. यह मेरा विश्वास है कि आप अपने अंदर के इन विषाणुओं को इस गंभीरता के साथ समझेंगे और अपनी पार्टी के अंदर जो क्षयरोग फैलना शुरू हुआ है, उसकी गंभीरता को समझेंगे और इसको दूर करके हम पार्टी को और भी स्वस्थ, और भी मजबूत बनाने की तरफ बढ़ेंगे.
संगठन के रूप में भी हमने इस वैचारिक क्षय की खास अभिव्यक्ति को देखा है. जैसे, एक तो बेगूसराय की बात आ रही थी जहां लंबे समय से दो-दो जिला कमेटियां चल रही हैं और हम इसका हल नहीं निकाल पाए हैं. यह सबसे गंभीर चिंता का विषय है. बेगूसराय में तो खैर खुलेआम आमने-सामने दो कमेटियां हैं और साफ-साफ पता चलता है, लेकिन ऐसी बहुत-सी कमेटियां हैं, जो हो सकता है कि बाहर से एक ही दिखती हैं लेकिन अंदर से वहां भी कुल मिलाकर इस तरह के विभाजन हैं. इस तरह का एक तो जैसे कि हमारे दो नेतृत्वकारी साथियों के बीच हो, तो कभी-कभी ऐसी समस्याओं को हल करने के लिए उन साथियों को हटाना पड़ता है. तो वह बात बराबरी ही होगी. बेगूसराय तो एक एक्सट्रीम है, चरम है. लेकिन छोटे-छोटे बेगूसराय बहुत-सी जिला कमेटियों के अंदर आपको मिलेंगे. मेरी समझ से यह भी सोचने के लिए बड़ा विषय है. दूसरे, मैंने कभी-कभी देखा है, कि जो वैचारिक तनाव रहता है वह कहीं न कहीं संगठन के जरिए आता है जिसे हमने संघवाद के नाम से चिह्नित किया है. इसमें हम देखते हैं कि जिला कमेटियां हैं जो कही न कहीं स्वतंत्र ढंग से काम करती हैं. हमारी जो पार्टी कमेटियां हैं उनके बीच वह रिश्ते हैं, जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के बीच होना चाहिए. मैं उसे एकीकृत ढांचा कहता हूं. जिला कमेटी और राज्य कमेटी के बीच जो रिश्ता होना चाहिए, जिला कमेटी और प्रखंड कमेटी के बीच जो रिश्ता होना चाहिए यह रिश्ता हो. राज्य कमेटी के ओर से भी जो रोल होना चाहिए वह हो और जिला कमेटी की तरफ से जो रोल होना चाहिए वह हो. क्योंकि ऊपर से तो देखने में राज्य कमेटी भी है जिला कमेटी भी है, प्रखंड कमेटियां भी हैं, सारी कमेटियां ही हैं. लेकिन यह होने पर भी मैं उसे एकीकृत ढांचा नहीं कह सकता. जनवादी केंद्रीयता के आधार पर विभिन्न पार्टी कमेटियों के बीच वह रिश्ता हो जो होना चाहिए. तभी उसे हम एक एकीकृत ढांचा कह सकते हैं. अगर कमेटी को अपने जिले के बारे में जानकारियां भी न दें, रिपोर्ट भी न दें या अपनी तरफ से पालिसी बनाकर चलें या आर्थिक तौर से पूरी अराजकता करती रहें तो यह सब गलत है और यह भी कोई एकीकृत ढांचा नहीं कहलाएगा. मुझे तो लगता है कि कहीं न कहीं हमारा जो पूरा पार्टी सिस्टम, पूरा जो पार्टी ढांचा है उस पार्टी ढांचे को भी ठीक करने की काफी जरूरत है. ऊपर से नीचे -- राज्य कमेटी से लेकर नीचे तक. नीचे तक तो बहुत-सा ढांचा बनाना भी अभी बाकी है. तो गहरे तौर से इस बात की खोज होनी चाहिए. कुछ साथियों की यह भी शिकायत है कि समस्या राज्य कमेटी में है या हेडक्वार्टर में है या ऊपर से नौकरशाही है या ऊपर से औपचारिकता है. हमारे जो राज्य कमेटी के नेतागण हैं वे नीचे अच्छी तरह से नहीं जाते हैं, जिलों को अच्छी तरह से नहीं देखते हैं, नीचे से जानकारियां ले लेते हैं और ऊपर से सिर्फ सर्कुलर वगैरह भेजते रहते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि कोई चेकअप नहीं होता. हो सकता है राज्य कमेटी में भी शायद कुछ समस्याएं हों. अगर यह सब बातें रही हैं तो मैं समझता हूं कि राज्य कमेटी के जो जिम्मेवार साथी हैं वे इस बात पर गहराई से विचार करेंगे कि इस तरह की समस्याएं कहां से हैं, किस हद तक हैं. और यह सच है कि अगर राज्य कमेटी से ही चीजों की शुरूआत सही ढंग से न हो तो शायद ही नीचे किसी किस्म का शुद्धीकरण आगे बढ़ सकता है.
दूसरी तरफ हमें यह भी जरूर देखना है जिला कमेटियों में या उनके नीचे के पार्टी संगठनों में कि वे पार्टी संगठन हैं कि नहीं. कहां तक सच्चाई है कहां तक नहीं है. जैसे मुझे एक रिपोर्ट सुनते वक्त लगा. शुद्धीकरण पर जिला कमेटी की रिपोर्ट आनी थी. एक जिला सचिव रिपोर्ट रख रहे थे. उस रिपोर्ट में इस बात का ही जिक्र ज्यादा था कि कैसे वहां के लोग जिला सचिव को हटाना चाहते हैं, हराना चाहते हैं क्या करना चाहते हैं, नहीं करना चाहते हैं – इस तरह की बाते. मुझे यह बात नहीं समझ में आई कि यह जिला कमेटी की रिपोर्ट है या जिला सचिव के अपने संकट और अपनी समस्याओं का एक विलाप. ये चीजें ठीक नहीं हैं. कोई भी जिला सचिव, राज्य सचिव या राष्ट्रीय सचिव, जो हों, अगर आपको लोग समझते हैं, चुनते हैं और चाहते हैं, तभी आप सचिव रहने के हकदार भी हैं. यह देखना होगा कि आप अलगाव में क्यों है, या इसमें आपकी कमियां-कमजोरियां कहां हैं. इसको खोजना होगा. अगर आपको एक चुनाव में काफी कम वोट मिलते हैं तो आपको सोचना होगा. नहीं तो फिर लोकतांत्रिक चुनावों का कोई मतलब नहीं. इससे अपनी कमियां-कमजोरियां ढूंढ़ी जाएं, उनको दूर किया जाएं – लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव करके जो हम पार्टी कमेटियां बना रहे हैं उनका लक्ष्य तो यही है. वोट कम मिलना, ज्यादा मिलना, इससे समझ मे भी आएगा कि हमारा क्या लगाव है और नहीं है. बजाय इसके एक साजिश के रूप में इसकी व्याख्या कर दी जाए, तो इससे अपनी कमियों की सही तलाश नहीं हो पाएगी.
इसलिए यह भी सोचने की बात है कि आप पार्टी कमेटियों का सही-सही ढांचा बना रहे हैं या नहीं बना रहे हैं. या फिर कहीं ऐसा नहीं कि सेक्रेटरी लोग अपने मन से जो करना है किए जा रहे हैं और इस बात की चिंता नहीं कर रहे हैं कि सही पार्टी कमेटी बन रही है कि नहीं बन रही है. इसलिए वैचारिक क्षय के साथ-साथ उसका एक सांगठनिक रूप है – सांगठनिक एकता का अभाव (डिसयूनिटी). यह विविध रूपों में है. छोटा-मोटा बेगूसराय हर जगह है. दूसरी ओर राज्य कमेटी से नीचे का जो ढांचा है, इसमें काफी कमजोरी है. यह हमारे शुद्धीकरण आंदोलन का दूसरा महत्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिए. वैचारिक एकता के साथ-साथ एक एकीकृत संगठन का ढांचा बहुत ही जरूरी है. बिना इसके हम आगे नहीं बढ़ सकते.
हम जो यह कहते हैं कि हमें एक अनुशासनबद्ध पार्टी चाहिए, तो एकताबद्ध और अनुशासनवद्ध पार्टी की मांग, यह सिर्फ एक क्रांतिकारी पार्टी ही कर सकती है. एक पार्टी जिसके पास क्रांति का लक्ष्य न हो, वह जब अनुशासन की मांग करती है तो अक्सर वह नौकरशाही होती है, वह अपनी कमियों को छिपाने का और लोगों को जबर्दस्ती अपने विचारों के पीछे ले जाने का, पार्टी नेतृत्व के खिलाफ उठ रहे विक्षोभों को रोकने का जरिया हुआ करती है. इसलिए जो पार्टीयां क्रांतिकारी नहीं हैं, जिनका लक्ष्य क्रांतिकारी नहीं रहा है, वे चाह कर भी अनुशासित नहीं रह पातीं, अनुशासन स्थापित भी नहीं कर पातीं और अनुशासन स्थापित करने की उसकी सारी कोशिशें दरअसल लोगों की आवाज को दबाने का एक माध्यम बन के रह जाती हैं. ऐसी पार्टियों में तो विद्रोह करना ही न्यायसंगत है, सही है. लेकिन जो पार्टी क्रांतिकारी पार्टी है, क्रांतिकारी उद्देश्यों के लिए लड़ रही है, क्रांतिकारी लक्ष्य इसके हैं, ऐसी पार्टियों के लिए अनुशासन जरूरी है. क्योंकि बिना अनुशासन के यह कभी आगे नहीं बढ़ सकती. ऐसे भी क्रांति के मामले में, क्रांति संगठित करने के लिए हम कम्युनिस्टों के पास सबसे बड़ा हथियार संगठन ही है. और दूसरा हमारे पास हथियार ही क्या है? हम जिन शासक वर्गों से लड़ रहे हैं वे पूंजी के लिहाज से, हथियारों के लिहाज से और तमाम मामलों में हमसे हजारों-हजार गुना ज्यादा मजबूत हैं. इन ताकतों से मुकाबले के लिए, इतने बड़े शक्तिशाली दुश्मन से लड़ने के लिए हम कम्युनिस्टों के पास सबसे बड़ा हथियार है संगठन. संगठन छोड़ के हमारे पास दूसरा कोई हथियार नहीं है जिनमें हम उनका मुकाबला कर सकें. इसके लिए एकताबद्ध व अनुशासित एक कम्युनिस्ट पार्टी, एक ऐसा संगठन जो जरूरत पड़ने पर, वक्त आने पर एक आदमी की तरह, एक व्यक्ति की तरह खड़ा हो सके और उसकी सारी की सारी ताकतें एक आह्वान पर संघर्षों में कूंद पड़ें, अनुशासनबद्ध संगठन उसके अंदर यह भावना पैदा करे. यही तो ताकत है जिससे हम शासक वर्गों से लड़ सकते हैं, टिक सकते हैं और अपने संघर्षों को आगे बढ़ा सकते हैं. इसलिए हमारा जो बाहरी दुश्मन है, उसकी हमेशा यही कोशिश रहती है कि वह कैसे इस पार्टी के अंदर तोड़-फोड़ पैदा करे, कैसे इस पार्टी के अंदर लोगों में अविश्वास पैदा करे, उसके मजबूत पहलुओं के प्रति लोगों में अनास्था पैदा करे. इसके लिए जो भी वे कर सकते हैं, करते हैं. तोड़-फोड़ मचाते हैं. अभी आपने देखा ही, कैसे एक समानातंर आईपीएफ मुख्यमंत्री के घर में बैठकर बनाने की कोशिश हुई. क्योंकि वे जानते हैं कि हमारा क्या संगठन है और हमारे संगठन को भीतर से तोड़ देने की कोशिश में ऐसा करते हैं और इस तरह की तमाम तिकड़में होती रहती हैं. तो एक बात जरूर मैं कहूंगा कि हमारी पार्टी में 1974 से, जबसे हमारी पार्टी पुनर्गठित हुई है, तबसे आज तक यह तमाम कोशिशे जरूर हुई हैं हमारी पार्टी को तोड़ने की. लेकिन आजतक यह संभव नहीं हुआ है. हाल के समय में तो यह कोशिशें बड़े जोरदार ढंग से चलीं और दुनिया में ढेर सारे परिवर्तन होने के बावजूद यह सफलता उन्हें नहीं मिली है. सीपीआई-एमएल(लिबरेशन) आज भी एकताबद्ध है. और आईपीएफ या जो भी बनाने की कोशिश हुई थी उसका हश्र आप जानते हैं कि क्या हुआ. तो यह एक बहुत बड़ी चीज है जो प्रमाणित करती है कि हमारे पार्टी साथियों के बीच, हमारे साथियों में एक भावना है. वे इस बात को समझते हैं कि इस पार्टी को, इसकी एकता को बरकरार रखना जरूरी है. इसलिए यह संदेहवाद वगैरह के जो सवाल हैं यह शायद हमारी पार्टी में बहूत महत्वपूर्ण सवाल नहीं है. यह सच है कि बहुत-से मौकों पर बहुत-से सवाल आते हैं जो लोगों को कन्फ्युजन में डालते हैं, जानना चाहते हैं लोग. लेकिन हमारी पार्टी के अंदर एक ताकत है जो ताकत उसको एकताबद्ध कर पाती है. यह कोई बाहर से थोपी हुई एकता नहीं है. हमारी पार्टी के साथियों के अंदर जो ताकत है, वह उनके अंदर से ही आती है. इसलिए बिहार की स्थितियों में हमारी पार्टी के साथियों में संदेहवाद जैसी चीजें शायद ही कोई बहुत बड़ी परिघटना है. यहां-वहा ये जीजें हो सकती हैं. लेकिन खास तौर से मैंने बिहार में इतने सालों में यही देखा कि जब-जब पार्टी पर संकट आया है, हमारे सारे पार्टी कामरेड एकताबद्ध हो जाते हैं, इकट्ठा हो जाते हैं और संघर्ष करते हैं.
इसलिए यह कोई बड़ी बात नहीं है. पर अवश्य ही यह मुद्दा है. हम जब यह बात कहते हैं कि पार्टी पर आस्था रखो तो यह पार्टी पर ‘आस्था’ रखने की बात नहीं है. भरोसा, आस्था इस बात पर रखना है कि हमारी पार्टी है, उसका नेतृत्व है, उसकी केंद्रीय कमेटी है, संविधान है, हमारी कुछ मान्यताएं हैं, हमारे कुछ उसूल हैं और इस पर हमारी पार्टी चल रही है. कोई भी व्यक्ति अगर इन मान्यताओं, इन उसूलों, इन संविधान की नीतियों के खिलाफ जाएगा तो कोई भी हो, कुछ समय के लिए वह कुछ गड़बड़ियां भी पैदा कर सकता है, कुछ समस्याएं भी पैदा कर सकता है, लेकिन अंततः हमारी पार्टी की केंद्रीय कमेटी, इसकी नेतृत्वकारी संस्थाएं इस समस्या को दूर कर सकेंगी और इस पर काबू पाएंगी और इसका हल हम निकालेंगे. इस आस्था, इस भरोसा को एक चलायमान प्रक्रिया के बतौर हमें देखना होगा. आस्था, भरोसा का मतलब यह नहीं है कि हमारी पार्टी कभी कोई गलती नहीं करेगी, हमारे पार्टी नेतृत्व में से कभी कोई व्यक्ति कोई गलत काम नहीं करेगा या उससे नुकसान नहीं होंगे, इस तरह की कोई गांरटी हम नहीं कर सकते कि ऐसा होता ही नहीं. यह हो सकता है. पार्टी भी गलती करती है. पार्टी के अंदर के नेता भी गलती करते हैं और कभी-कभी बड़ी-बड़ी गलतियां भी करने लगते हैं. भरोसा और विश्वास इस बात का होना चाहिए कि हमारी पार्टी एक क्रांतिकारी पार्टी है. उसका व्यक्तित्व समग्रता में है, लोकतांत्रिक व्यक्तित्व है – कम्युनिस्ट नैतिकता है, कम्युनिस्ट मूल्यबोध, कम्युनिस्ट संविधान है – इस पर आधारित होकर वह चल रही है. कोई भी व्यक्ति अगर ऐसी गलतियां करेगा तो पार्टी इसको ठीक कर लेगी या पार्टी अगर गलतियां भी करेगी तो इन गलतियों से सीखकर वह बाद में अपने को दुरुस्त कर लेगी. आस्था और भरोसा इस बात का होना चाहिए. तो मैं समझता हूं कि इस आस्था, भरोसा की जरूरत है. इस मार्क्सवादी परिप्रेक्ष में आस्था, भरोसा रखना होगा और एकताबद्ध, अनुशासनबद्ध पार्टी हमें बनानी है.
यह माओ त्सेतुंग की जन्मशताब्दी का वर्ष है और माओ त्सेतुंग का एक खास योगदान रहा है. उन्होंने चीन में एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण किया था, जिस कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चीन जैसे विशाल देश में उन्होंने क्रांति संपन्न की थी. उस पार्टी के बारे में उनका कहना था, उसका नामकरण उन्होंने किया हुआ था – महान, गौरवशाली और सही कम्युनिस्ट पार्टी. हम माओ विचारधारा पर विश्वास करते हैं और हमारी भी यही कोशिश है कि हम अपनी पार्टी को एक महान, गौरवशाली और सही पार्टी में बदल दें. इसी के लिए हमारे सारे प्रयास हैं और माओ त्सेतुंग विचारधारा से हमें यही खास शिक्षा मिलती है. माओ के अपने देश में भी आपने खुद देखा होगा कि अक्सर ही वहां जब पार्टी में गलत विचार भर जाते थे तो जरूरत पड़ने पर बीच-बीच में शुद्धीकरण जैसा आंदोलन वहां चलाया जाता था. इसके जरिए पार्टी को हमेशा नया जीवन मिला और पार्टी ने असंभव को संभव कर दिखाया. माओ त्सेतुंग विचारधारा पर आधारित होकर ही हमारी पार्टी चल रही है. इसलिए माओ त्सेतुंग के जन्मशताब्दी वर्ष में मैं समझता हूं कि मजबूत पार्टी बनाना, एक महान, गौरवशाली और सही कम्युनिस्ट पार्टी बनाना हमारा एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है और यह शुद्धीकरण आंदोलन इसी दिशा में चलाना चाहिए.