(18 मार्च 1994; समकालीन लोकयुद्ध, 15 अप्रैल 1994 से, प्रमुक अंश)
लगता है कि वे आए नहीं. मैं एक राज की बात बताता हूं आप लोगों को. इस मीटिंग में हमने जैसे तमाम लोगों को बुलाया था, वैसे ही हमने मुख्यमंत्री जी को बुलाया था. स्टेज पर बैठने के लिए नहीं, या सामने जो अतिथियों की कुर्सियां लगी हुई हैं उसपर बैठने के लिए भी नहीं. हमने बुलाया था कि अपना उड़नखटोला लेकर एक बार घूम जाइएगा गांधी मैदान. लगता है कि वे आए नहीं.
यह रैली नहीं है. यह एक घमंडी तानाशाह के मुंह पर एक तमाचा है. जिस आदमी ने आज से एक साल पहले घोषणा कर दी थी कि सीपीआई(एमएल) को हमने खत्म कर दिया है, आईपीएफ को हमने खत्म कर दिया है. सत्ता और पैसे के नशे में चूर उस घमंडी तानाशाह को आज हमने दिखा दिया है कि सीपीआई(एमएल) की क्या ताकत है, बिहार की क्रांतिकारी जनता की क्या ताकत है.
यह जो मुख्यमंत्री है, यह जो सरकार है, इनके साथ दिल्ली की सरकार का गुप्त समझौता था कि बाकी तुम जो कुछ करो, लेकिन तुम आईपीएफ को रोको, सीपीआई(एमएल) को रोको, बिहार के क्रांतिकारी आंदोलन को रोको. तब हम तुम्हें किसी तरह से परेशान नहीं करेंगे. और आपने देखा है कि पिछले चार सालों में यह सरकार जो यह कहकर आई थी कि वह दलितों-पिछड़ों के लिए काम करेगी, जो कहते थे कि हम कांग्रेस-भाजपा का विरोध करेंगे; उस मुख्यमंत्री ने, उस सरकार ने अपनी सारी ताकत लगा दी हमारी पार्टी को नेस्तनाबूद करने के लिए, बिहार से क्रांतिकारी आंदोलन को हमेशा-हमेशा के लिए मिटा देने के लिए. रामलखन सिंह यादव, ज्वाला सिंह जैसे लोगों के साथ गिरोह बनाया गया, भोजपुर-पटना जिलों में बड़े-बड़े नरसंहार कराए गए. हमारी ताकत को खत्म कर देने के लिए एमसीसी जैसे संगठन को शह देकर एक के बाद एक हमारे नेताओं-कार्यकर्ताओं की चुन-चुनकर हत्याएं कराई गईं. साथियो, हमने देखा कि रामलखन सिंह यादव तो इस पार चले गए और ज्वाला सिंह उस पार चले गए तथा एमसीसी से भी हम निपट ही लेंगे.
इस रैली ने यह साबित कर दिया है कि हमारी पार्टी की ताकत को खून और हत्या से, हमारे साथियों के हत्याकांडों से, हमारी जनता की हत्या से नहीं खत्म किया जा सकता है. हमारी पार्टी इस बिहार की धरती से जन्मी है, हमारी पार्टी बिहार की जनता की क्रांति की इच्छा से जन्मी है, परिवर्तन की जरूरतों से जन्मी हैं. और चूंकि तुम उस जरूरत को खत्म नहीं कर सकते, इसलिए हमारी पार्टी को भी खत्म नहीं कर सकते.
यह रैली बिहार के तमाम वामपंथी लोगों के लिए, बिहार की तमाम सामाजिक परिवर्तन की ताकतों के लिए और बिहार के हर आदमी, हर उस ईमानदार आदमी के लिए, चाहे वह जिस किसी जाति से आता है, हर उस आदमी के लिए जो चाहता है कि बिहार आगे बढ़े, बिहार का विकास हो, बिहार में माफियातंत्र खत्म हो, बिहार प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़े, बिहार के उन तमाम प्रगतिशील लोगों के लिए, यह रैली आशा की एक किरण है, आशा की लाल किरण है.
आज से 20 साल पहले, आज ही के दिन 18 मार्च 1994 को इस पटना की सड़कों पर दसियों हजार नौजवानों का जलूस निकला था. उन्होंने शासकों की इस एसेंबली से कुछ जवाब मांगे थे. भ्रष्टाचार के खिलाफ, बढ़ती हुई महंगाई के खिलाफ, बेरोजगारी के खिलाफ उन्होंने शासकों की सभा के पास, एसेंबली के सामने जाकर जवाब मांगा था. जवाब में उन्हें लाठियां मिली थीं, गोलियां मिली थीं और वहीं से शुरूआत हुई थी 1994 के आंदोलन की. आज फिर एक बार उस आंदोलन की आत्मा को जिंदा करना है. आज फिर उस रास्ते पर चलना है, आज फिर सारे बिहार में सामाजिक परिवर्तन की एक लहर बहानी है.
1994 का जो आंदोलन था उसकी शुरूआत बिहार में जरूर हुई थी, सबसे तेजी से वह बिहार में ही फैला था. लेकिन वह आंदोलन उस समय समूचे देश में जो तानाशाही थी उसके खिलाफ चला गया था. आइए, हम आज के हालात को देखें. कहा जा रहा है कि जेनेवा में कुछ दिनों पहले मानवाधिकार के मामले में पाकिस्तान को हरा दिया गया. भारत ने पाकिस्तान को अच्छी-खासी पटकनी दी. भारत को चीन और ईरान ने समर्थन दिया. समर्थन इस बात के लिए दिया कि सब पर अमरीका का खतरा है. अमरीका विभिन्न देशों में मानवाधिकारों का सवाल उठाकर दखलंदाजी करता है. इसलिए इन देशों ने अमरीका का विरोध किया और पाकिस्तान ने अपना प्रस्ताव वापस लिया. यह एक अच्छी बात है. अमरीकी दखलंदाजी के खिलाफ चीन, ईरान, भारत, पाकिस्तान – ये तमाम देश एक हों, हम यह चाहते हैं और इस लिहाज से हमारी पार्टी ने इसका स्वागत किया है. लेकिन एक बात हम कहना चाहेंगे कि मानवाधिकारों का सवाल तो फिर भी बाकी है. ठीक है, अंतरराष्ट्रीय मंच पर आप उसे नहीं उठा सकते हैं, अमरीकी दखलंदाजी की बात है, लेकिन सच्चाई तो यह है कि कश्मीर में आप मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं. अगर कश्मीर को आप अपने देश का हिस्सा कहते हैं, अगर कश्मीरी जनता हम भारतवासियों की अपनी जनता है, वे हमारे अपने भाई हैं, तो उनके साथ किस तरह का व्यवहार होना चाहिए? क्या यह सच्चाई नहीं है कि भारतीय सेना कश्मीर में विदेशी सेना की तरह आचरण कर रही है? जैसे लगता हो कि आपने किसी दूसरे देश की जमीन पर कब्जा कर रखा हो.
तो काश्मीर के लोगों के मानवाधिकारों के सवाल को कौन उठाएगा? सवाल सिर्फ कश्मीर की जनता के मानवाधिकारों का नहीं है. बिहार है, आंध्र है, महाराष्ट्र है, गुजरात है – देश के कोने-कोने में मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है. टाडा कानून के जरिए लोगों को, निर्दोष लोगों को जेलों में ठूंस कर बंद कर दिया जा रहा है. हम अपने देश में ही जैसे प्रवासी हो गए हैं, शासकों की पसंद की भाषा, उसकी जबान अगर हम बोलें तो इसको हमें इजाजत है, लेकिन अगर हम सच्चाई की बात, ईमानदारी की बात कहें तो हमें टाडा में जेलों में बंद कर दिया जाएगा. गोलियों से भून दिया जाएगा. आप कहते हैं कि आप अमरीकी दखलंदाजी को रोक रहे हैं कश्मीर में. लेकिन डंकल प्रस्ताव पर दस्तखत करके आप पूरे देश की संप्रभुता को उन्हीं पश्चिमी ताकतों के हाथों नीलाम कर रहे हैं. यह कैसा दोगलापन है? यह कैसा दोहरापन है?
मैं समझता हूं कि 1974 के आंदोलन को फिर से जो जिंदा करना है उसे सरकार की इन दोगली नीतियों के खिलाफ, केंद्र सरकार की इन दोगली नीतियों के खिलाफ भी जाना होगा. उसे भारत की संप्रभुता पर खतरों के खिलाफ भी आवाज उठानी होगी.
इस 1974 के आंदोलन को कुछ लोग, पुराने लोगों का, जो यहां-वहां बिखर चुके हैं, समागम करके और पुराने नारों को फिर उसी तरह दोहरा करके जिंदा करना चाहते हैं. यहां तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सांप्रदायिकता की राजनीति को छोड़ना नहीं चाह रहे हैं और फिर भी 1974 के आंदोलन की बात कर रहे हैं. मेरा कहना है कि 1974 की आत्मा को सिर्फ उन पुराने नारों के जरिए वापस नहीं लाया जा सकेगा, पुराने लोगों का समागम करके भी वापस नहीं लाया जा सकेगा. 1974 की आहट सुननी होगी जनता की पदचाप में. हमने भोजपुर में देखा कि वहां की जनता अपने विधायक से हिसाब मांग रही है. हजारों की संख्या में जनता खड़ी हो रही है, वहां के जो विधायक हैं उनको घेर रही है. और जब उसके पास कोई जवाब नहीं है तो जनता उसे माफी मांगने के लिए बाध्य कर रही है. उसके खिलाफ सीधी कार्रवाई पर उतर जा रही है. 1974 की आहट को अगर सुनना है, 1974 को अगर समझना है 1994 में, तो जनता की, बुनियादी जनता की, आजतक हाशिए पर खड़ी रही जनता की, इस पदचाप को सुनों, उसकी इस पहलकदमी को देखो, उसकी इस कोशिश को देखो.
आंदोलन की यह जो शुरूआत भोजपुर की जनता ने की है, हालांकि इसके लिए उन्हें अपने सात-सात साथियों का बलिदान देना पड़ा है, लेकिन एक शुरूआत उन्होंने की है. आज जरूरत है इसे बिहार के कोने-कोने में फैला देने की. मैं अपने तमाम नौजवान दोस्तों से अपील करूंगा, तमाम छात्र-नौजवानों से अपील करूंगा कि 1974 की आवाज यहीं है आज. इस लड़ाई को, उन विधायकों और उन मंत्रियों के खिलाफ, उन्होंने जो 75 मंत्री और 40 कमीशनों के चेयरमैन बना रखे हैं, जिन्हें मैं 75 डाकू और 40 चोर कहता हूं, उनके खिलाफ चलाना है. हमारे छात्रों-नौजवानों को, हमारी आम जनता को उनसे जवाब मांगना चाहिए, उन्हें घेरना चाहिए. उनसे पूछना चाहिए कि चार साल पहले तुम्हारे पास कितनी संपत्ति थी और आज तुम्हारे पास कितनी संपत्ति है. उनसे भ्रष्टाचार का हिसाब हमे पूछना चाहिए और उनके खिलाफ सीधी कार्रवाई में उतरना चाहिए.
1974 में जो आंदोलन हुआ था उसमें छात्रों ने एसेंबली में जाकर शासकों से जवाब मांगा था. इस एसेंबली से, शासकों की इस विधानसभा से लोग बार-बार यह सवाल पूछेंगे. छात्रों ने कुछ महीने पहले उनसे यह पूछा. उनपर लाठियां बरसा दी गईं. उन्हें तितर-बितर कर दिया गया. किसानों ने अपना जलूस निकाला, उन्होंने सवाल पूछा था कि यह बिहार की विधानसभा है और भूमि सुधार का सवाल बिहार का एक अहम सवाल है तो क्यों नहीं इस विधानसभा में भूमि सुधार के सवाल पर बातें होती हैं? किसानों ने यह सवाल उठाया, वे वहां पहुंचे तो उनपर लाठियां चलाई गईं, उनपर गोलियां चलाईं गईं. और उसमें हमारे एक साथी शहीद हुए.
आज मैं देख रहा हूं कि पहले जो लकड़ी का घेरा होता था अब उसको पक्के लोहे का बैरिकेड बना दिया गया है. तो शासक अपने को घेर रहे हैं. वे अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. वे अपने-आपको घेर रहे हैं, लोहे की दीवार बना रहे हैं. लेकिन क्या इससे आप जनता के उस उभार को रोक सकेंगे? जनता बार-बार इस एसेंबली को घेरेगी. वह इस सरकार से जवाब मांगने बार-बार पटना आएगी और ये जो लोहे की दिवारें हैं उसे जरूरत पड़ने पर तोड़कर भी वहां पहुंचेगी.
मेरा यह कहना है कि जिस एसेंबली में बिहार की समस्याओं पर कोई बात नहीं होती, जिस एसेंबली में भूमि सुधार के सवालों पर बात नहीं होती, अलग झारखंड राज्य तो दूर की बात है, जिस एसेंबली में स्वायत्तता का एक बिल आजतक नहीं आया, जो विधानसभा यह भी नहीं कर सकती, जिस विधानसभा में महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार के खिलाफ, जिस विधानसभा में शिक्षकों, कर्मचारियों, छात्रों की तमाम समस्याओं को लेकर कोई बात नहीं होती, कोई बहस नहीं होती, जहां हर किस्म की गैरजरूरी बातें होती रहती हैं, यहां तक कि गंदे, फूहड़ मजाक भी किए जाते हैं महिलाओं को लेकर, तो मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि ऐसी विधानसभा को क्या ठप्प नहीं कर दिया जाना चाहिए? ऐसी विधानसभा से बिहार की जनता को क्या लेना-देना? आज 1974 का जो आंदोलन फिर से सिर उठाएगा वह एक ओर इन तमाम भ्रष्ट मंत्रियों, इन तमाम भ्रष्ट कमीशनखोरों, चेयरमैनों पर सवाल उठाएगा, उनसे पूछेगा, उन्हें घेरेगा और साथ ही साथ जनता की लहरें बार-बार इस एसेंबली पर आकर गिरेंगी और अगर इसका यही रवैया रहा, तो एक समय आएगा जब हम लाखों की यह भीड़ लेकर इस विधानसभा को ठप्प करने की ओर मार्च करेंगे. यही आज की जरूरत है. और यहीं से 1974 का आंदोलन, 1974 का नारा 1994 में एक नई जान लेकर, एक नई सांस लेकर उभरेगा. मैं बिहार की जनता से, तमाम तबके के लोगों से, नौजवानों से, ये चाहे जिस किसी भी जाति के हों, अपील करता हूं कि इस नए आंदोलन में आप सब शामिल हों, सांप्रदायिक ताकतों से दूर हटें, जातिवादी ताकतों के चक्कर में न पड़ें. आप सबों से मेरा यह आह्वान है, मेरी यह अपील है इस नए आंदोलन के लिए, 1994 में इस आंदोलन की शुरूआत के लिए, जिसकी शुरूआत इसी रैली के सिलसिले में और इसके कुछ दिनों पहले भोजपुर की जनता ने एक विधायक से जवाब पूछते हुए की है, इसे और आगे बढ़ाइए.