(लिबरेशन, जनवरी 1986 से)
नवंबर के तीसरे सप्ताह में बिहार के संघर्षरत इलाकों में हमें आदमी और हथियारों के मामले में अच्छी-खासी क्षति उठानी पड़ी. जिन लोगों ने शहीदों की मौत धारण की, उनमें कामरेड जीउत भी थे – कामरेड जीउत उन विशिष्ट कमांडरों में से एक थे जिन्हें पार्टी ने वर्षों की कड़ी मेहनत के दौरान तैयार किया था.
सभी कामरेड यह नहीं जानते कि 1975 के अंत में भोजपुर के पुराने इलाकों के संघर्ष को गंभीर जटिलताओं से गुजरना पड़ा था और सशस्त्र यूनिटें अस्त-व्यस्त हो गयी थीं. यह वह समय था जब संघर्ष की बागडोर हाथों में लेने के लिए जिले के दूसरे हिस्से में एक नया सितारा उभर रहा था. ब्रह्मपुर थाने के बरुहां गांव का भूमिहीन किसान नौजवान और कोई नहीं, यही जीउत थे. 1976 से ही उन्होंने राइफल दखल के लिए पुलिस कैंप पर कई सफल सशस्त्र ऐक्शनों की कमान संभाली. इन ऐक्शनों में चलायमान पुलिस दल पर वह प्रसिद्ध ऐम्बुश भी शामिल है, जिसमें पहली बार एक स्टेनगन छीना गया था. उन्होंने जोतदारों के निजी गुंडा गिरोहों के खिलाफ अनेक ऐक्शन संगठित किए और दुश्मन का घेरा तोड़ने में बहुतों बार यूनिट का नेतृत्व किया. क्रमिक तौर पर वे आंचलिक कमांडर की भूमिका में आ खड़े हुए और उन्होंने सशस्त्र यूनिटें संगठित करने में मदद पहुंचायी.
1976-78 की अवधि में उन्होंने जोतदारों पर निर्णायक आघात करने के लिए अपने गांव के लोगों को संगठित किया, विभिन्न जातियों के लोगों को एकताबद्ध किया तथा क्रांतिकारी कमेटी व जन मिलिशिया के निर्माण में मदद की. वे पार्टी लाइन में हुए परिवर्तनों के क्रम में अपने सामने आयी नयी जिम्मेवारियों के अनुरूप स्वयं को ढालने में तत्पर थे और उन्होंने जुझारू आंदोलनों में जनसमुदाय को गोलबंद करने का अपना सर्वोत्तम प्रयास किया.
लगातार लंबे दस वर्षों तक कामरेड जीउत ने, हाल के वर्षों में गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद, पार्टी द्वारा सौंपी गयी किसी भी जिम्मेवारी को उठाने में पलभर की भी हिचकिचाहट के बिना पार्टी के सुअनुशासित सैनिक के रूप में काम किया. कुछ ही दिनों के बाद वे कामरेड केशो के अधूरे कार्य की जिम्मेवारी संभालने के लिए जानेवाले थे.
कमरेड सहतू, महेंद्र तथा हीरा सभी पुराने कामरेड थे और अपने-अपने क्षेत्रों के सतत संघर्ष के स्तंभ थे. निःस्वार्थ तथा अथक भाव से उन्होंने हमेशा ही दमित-उत्पीड़ित जनता के लिए काम किया और अंत में भारतीय क्रांति की वेदी पर अपना जीवन कुर्बान कर दिया.
ऐसे कामरेड, जो कि भूमिहीन किसान परिवार से आते हैं तथा सामंती व्यवस्था और उसके युगों पुराने विकराल जातीय विभाजन के खिलाफ तीखी घृणा से ओतप्रोत हैं, बिहार के समतलों में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्ववाले किसान संघर्ष की रीढ़ हैं. सर्वहारा हिरावलों में रूपांतरित ऐसे कामरेडों के बगैर, संघर्ष की तीक्ष्णता तथा व्यापकतर इलाकों में इसका फैलाव कत्तई संभव नहीं था.
पिछले समय, 1975 में भोजपुर तथा पटना में हमारी सशस्त्र यूनियों को गंभीर क्षति उठानी पड़ी थी. 1977 के बाद से तथा इस बार और भी व्यापकतर इलाकों में अपूर्व जनगोलबंदी और जनता के सशस्त्र प्रतिरोध का आधार मुहैया करते हुए सशस्त्र यूनिटें पुनः विकसित होना शुरू हुई हैं.
इन यूनिटों को ऐसे समतल क्षोत्रों में काम करना पड़ता है जहां दुश्मन का अपना प्रशासनिक तंत्र व संचार व्यवस्था काफी विकसित है; जोतदार हथियारों से अत्यंत सुसज्जित हैं और जाति आधारित सामाजिक विभाजन अत्यंत कठोर है. यह स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में सशस्त्र यूनिटों को बरकरार रखना और उन्हें विकसित करना बहुत कठिन है तथा जनता के बीच के अंतरविरोधों को हल करने की गलत कार्यशैली और एक क्षण की भी शिथिलता घातक साबित होती है.
बहरहाल, पिछले आठ या नौ वर्षों में हमारी सशस्त्र यूनिटें सैकड़ों पुलिस कैंपों के बीच, नियमित पुलिस ऑपरेशन तथा जोतदारों की निजी सेनाओं के साथ प्रायः घंटों तक चलनेवाली निरंतर लड़ाई की स्थितियों में भी टिकी रही हैं और किसी महत्वपूर्ण क्षति से बचे रहने में समर्थ रही हैं. इस चीज ने 1969-71 तथा 1973-75 की संक्षिप्त अवधियों की तुलना में हमारे व्यवहार में नया आयाम जोड़ते हुए किसान संघर्ष को धारावाहिकता प्रदान की है.
हमारा अनुभव यह बतलाता है कि एक ओर तमाम मौजूद साधनों का इस्तेमाल करते हुए सामाजिक शक्तियों के पुनर्संश्रय के लिए सशस्त्र यूनिटों को उन्नत करने के जरिए प्रतिरोध संघर्ष के इलाके बरकरार रखना तथा क्रमिक तौर पर उन्हें प्राथमिक छापामार क्षेत्र में विकसित करना संभव है.
हाल में हुई क्षतियों के विश्लेषण से यह जाहिर होता है कि दुश्मन अपना खुफिया तंत्र विकसित करने में समर्थ रहा है, जबकि दुश्मन के भीतर अपना खुफिया तंत्र विकसित करने की बात तो जाने दीजिए, हम समय पर उसका पता लगाने और उसे नष्ट करने में भी असफल हुए हैं. कुछ आत्मसंतोष के भाव ने अपना सिर उठाया है. परिणामतः गतिशीलता समाप्त हो गयी है और सतर्कता ढीली पड़ गयी है.
हमे निश्चय ही गंभीरतापूर्वक यह खोजबीन करनी होगी कि सशस्त्र यूनिटों की गतिविधियों के वास्ते सूत्रबद्ध प्राथमिक नियम कायदों का सख्ती से पालन क्यों नहीं किया गया और इलाके के राजनीतिक संगठक अपनी जिम्मेवारी निभाने में कहां चूक गये.
दुश्मन को यह आशा थी कि पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी तथा कुछेक एमएल ग्रुपों की तरह, हमलोग भी खुले व कानूनी रूपों के इस्तेमाल और खासकर चुनाव में भागीदारी के साथ, संभवतः बंदूक फेंक देंगे. अब राजनीतिक रूप से हमें निरस्त्र करने में असफल होकर उसने बड़े पैमाने पर सैनिक अभियानों का सहारा लिया है और वह प्रतिक्रियावादी पार्टियों, जोतदारों व लंपट तत्वों को संगठित कर रहा है.
इन स्थितियों में हमारी पार्टी जो प्रयोग संचालित कर रही है, वह भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में एक अनूठा प्रयोग है. इस प्रयोग की सफलता, दुश्मन में फूट डालने और जनता को एकताबद्ध करने की लचीली नीति अख्तियार करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करती है. जनता के विभिन्न हिस्सों के बीच के विवादों को हल करने में बंदूक का कत्तई इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. क्योंकि इसके सिर्फ बुरे नतीजे निकलते हैं.
हमारे शहीदों के खून से रंगा रास्ता ही भारतीय क्रांति का एकमात्र रास्ता है. क्रांति का कोई शार्टकट, कोई निर्विघ्न रास्ता नहीं है. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने अपने जन्मकाल से ही यह चुनौती स्वीकार की है और इस धरती की कोई भी सैन्य शक्ति, राजनीतिक कुचक्र और बेशक, चाहे कितनी ही विराट क्षति क्यों न हो, हमें इस पथ से डिगा नहीं सकते.
पिछले दस वर्षों की ‘महानतम सफलता’ पर शत्रु शिविर में उल्लास अस्थायी है. यह जनता और सिर्फ जनता ही है, जो अंतिम रूप से तमाम खुशियों का स्वामी बनेगी.
अपने वीर शहीदों को मेरा लाल सलाम!