(8 अक्टूबर 1998 को पटना में आयोजित राज्यस्तरीय कैडर कन्वेंशन में दिया गया भाषण;
समकालीन लोकयुद्ध, 1-15 नवम्बर 1998 से. प्रमख अंश)
सबसे पहले आपको हमारे महान नेता का. नागभूषण पटनायक को बारे में बताना चाहूंगा. उन्हें कैंसर हो गया है. डाक्टरों का कहना है कि उन्हें अब बचाया नहीं जा सकता. किसी भी क्षण, किसी भी दिन उनकी मृत्यु हो सकती है. जल्दी ही हम अपने प्रिय साथी नागभूषण जी को खो देंगे.
जहां तक वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का सवाल है, हमने राष्ट्रव्यापी स्तर पर ‘केसरिया हटाओ, देश बचाओ’ अभियान छेड़ रखा है, जो अभी जारी है. यह राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में पार्टी द्वारा तय किया गया अभियान है. यह राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में हमारा नारा है जिसे हर राज्य में लागू करना है.
दूसरी बात यह कि ‘केसरिया हटाओ’ के सवाल पर वामपंथी ताकतों के बीच आमतौर पर सहमति है. लेकिन सीपीआई एवं सीपीएम के अंदर इस प्रश्न के साथ एक सवाल जुड़ गया है. वह यह कि उनके नेतृत्व में केसरिया हटाने के लिए कांग्रेस के साथ जाने, उसके पीछे लगने का चिंतन है. कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ अतीत में बना उनका मोर्चा अब खत्म हो गया. अब ये भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने की सोच रहे हैं. इसलिए वे कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष पार्टी कह रहे हैं.
इस प्रश्न पर सीपीआई और सीपीएम के भीतर काफी मदभेद हैं. कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की लाइन पर सीपीआई को चेन्नई कांग्रेस के अपने राजनीतिक प्रस्ताव में काफी बदलाव करना पड़ा. प्रतिनिधियों के दबाव में उन्हें यह कहना पड़ा कि कांग्रेस के साथ हम मोर्चा नहीं बनाएंगे. जब माकपा ने यह देखा तो सीपीआई की कांग्रेस के बाद से वे भी मोर्चा न बनाने की बातें कहने लगे हैं. लेकिन यह सब वे दबाव में कह रहे हैं. इन दोनों दलों के नेतृत्व के मन में दरअसल कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की ही बात है. इसलिए वे व्यवहार में कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की ही तरफ जाएंगे. औपचारिक तौर पर न सही, अनौपचारिक तौर पर ही सही, पर काम वे यही करेंगे.
हमारी पार्टी के ‘केसरिया हटाओ’ का यह मकसद नहीं है. हम भाजपा को हटाकर कांग्रेस को बिठा देने के पक्ष में नहीं हैं. हम चाहते हैं कि वामपंथी ताकतें आपस में नजदीक आएं और जनवादी ताकतों के साथ मिलकर एक तीसरे मोर्चे की तरफ हम बढ़ें. केसरिया हटाओ की रणनीति को लेकर वामपंथी खेमे में फर्क है, दो तरह के विचार हैं, दो तरह की कार्यपद्धतियां हैं. हमारे लिए यह एक तीसरे मोर्चे का निर्माण करना है, जिसमें कांग्रेस के लिए कोई जगह नहीं होगी, जिसके कोर की भूमिका वामपंथ निभाएगा तथा जनांदोलन ही जिसका आधार होगा. सीपीआई-सीपीएम भी तीसरा मोर्चा बनाने की बातें करते हैं लेकिन वे ऐसा कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर करने को कहते हैं.
जहां तक बिहार का सवाल है, तो बिहार में आनेवाला समय काफी तेज राजनीतिक उथल-पुथल से भरा होगा. इस उथल-पुथल की शुरूआत भी हो गई है. अभी-अभी राष्ट्रपति शासन लगाने की बातें हुईं. हमने मुजफ्फरपुर के अपने राज्य सम्मेलन के समय ही कहा था कि भाजपा द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने का हम विरोध करेंगे. यह विरोध किसी लालू के लिए नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिए है. इसलिए हम यह विरोध करेंगे. सीपीआई-सीपीएम ने तब हम पर लालू के साथ मिलने का आरोप लगाया, हमारे खिलाफ कुप्रचार चलाया. तब वे राजद सरकार की बर्खास्तगी की बाते करते थे. इसके बावजूद हमने कहा कि हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए राष्ट्रपति शासन का विरोधी करेंगे.
अभी जब बिहार में धारा 356 लगाने की बाते हुईं तो पूरे देश में इसका विरोध हुआ. यहां तक कि भाजपा के सहयोगियों ने भी इसका विरोध किया और भाजपा की कोशिश अंततः नाकाम रही. कल तक हमपर आरोप लगाने वाले सीपीआई-सीपीएम भी इस विरोध में शामिल हुए. हम धारा 356 के खिलाफ नहीं हैं. यह संविधान की एक धारा है, रहे. लोकतंत्र के सवाल को हम अमूर्तता में नहीं देखते. राष्ट्रपति शासन कोई अमूर्त शासन नहीं है. अभी इसका मतलब है भाजपा-समता शासन. राष्ट्रपति तो सिर्फ एक प्रतीक होता है, शासन तो वास्तव में केंद्र का ही चलता है. बिहार में प्रश्न यह नहीं था कि लालू-राबड़ी शासन हो या राष्ट्रपति शासन, बल्कि प्रश्न यह था कि लालू-राबड़ी राज रहे या भाजपा-समता राज, वह भी बिना चुने हुए. जिस दिन यह शासन हो जाएगा सारी अफसरशाही भाजपा के इशारे पर नाचेगी. इसी साल दशहरे के मौके पर हमने देखा कि एक तरफ लालू हिजड़ों का अश्लील नृत्य करवा रहे थे तो वहीं दूसरी ओर राजभवन में भाजपा के नेतागण शैम्पेन की पार्टी में मशगूल थे. राष्ट्रपति शासन का यह भी एक उदाहरण ही था. राष्ट्रपति शासन के पीछे और लोगों की मंशा चाहे जो हो, भाजपा-समता की मंशा यह है कि बचे हुए साल-डेढ़ साल के लिए पिछले दरवाजे से सत्ता में प्रवेश कर जाएं और अपने मन मुताबिक पूरी नौकरशाही को, पूरे सिस्टम को व्यवस्थित कर सकें. वास्तव में, राष्ट्रपति शासन की भी राजनीति हुआ करती है. भाजपा वाले यह कह रहे हैं कि अतीत में लगाए गए राष्ट्रपति शासन तो राजनीति से प्रेरित थे, लेकिन बिहार के पीछे कोई राजनीति नहीं. वे सरासर झूठ बोल रहे हैं.
हमारी पार्टी, जो देशभर में केसरिया हटाओ अभियान चला रही है, बिहार में केसरिया लाओ के पक्ष में भला कैसे खड़ी हो जाती. हां, यदि केंद्र में कोई वामपंथी सरकार होती जो लालू जैसे भ्रष्ट शासन को हटाने का प्रयास करती तो बात अलग थी. कब हम राष्ट्रपति शासन का समर्थन करेंगे, कब नहीं करेंगे – यह सब राजनीतिक परिस्थितियों और समीकरणों पर ही निर्भर करता है. हम एक राजनीतिक पार्टी हैं और अपनी राजनीतिक स्थितियों के अनुरूप, अपने वर्गीय हितों के अनुरूप ही हम कोई फैसला करेंगे. अभी की ठोस परिस्थिति में राष्ट्रपति शासन का मतलब पिछले दरवाजे से राज्य में भाजपा-समता का शासन लाना ही है और कुछ नहीं.
जैसी रिपोर्ट मिल रही थी, भाजपा रामबिलास पासवान को सामने खड़ा करके और राजद में तोड़फोड़ करके वैकल्पिक सरकार बनाने की कोशिशें कर रही थी और रामबिलास पासवान भी इसके लिए तैयार बैठे थे. आपने देखा होगा सीपीआई के भीतर चतुरानन मिश्र की धारा को, जो भाजपा के प्रति नरम रुख रखते हैं. हमने इस बात को पहले भी चिह्नित किया था. सीपीआई इन अर्थों में विभाजित है. रामबिलास पासवान, चतुरानन मिश्र तथा जद के अन्य लोग भाजपा-समता के साथ मिलकर, राजद के भीतर तोड़फोड़ करके एक नई सरकार बनाने की कोशिशें जारी रखे हुए हैं.
वाजपेयी ने भी कहा है कि बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने का मामला अभी खत्म नहीं हुआ. राष्ट्रपति के पास दूसरी बार फाइल भेजने की तैयारियां वे कर रहे हैं. लेकिन इसके पहले वे अपने खेमे में मौजूद अंतरविरोधों को दूर करना चाहते हैं और नए तर्क देने के लिए नई परिस्थितियां पैदा करना चाहते हैं. आशंका है कि इसके लिए वे बिहार में कुछ नई घटनाएं भी घटाने की पूरी कोशिश करेंगे. कुछ और दंगे होंगे, घटनाएं होंगी. यह सब वे करेंगे. हम इस मामले में जद के रामबिलास पासवान और सीपीआई के चतुरानन मिश्र के अवसरवाद की कड़े शब्दों में निन्दा करते हैं. हमें अपने उसूलों पर खड़े रहना है.
जहां तक झारखंड का सवाल है, हम झारखंड के पक्ष में हैं. लेकिन साथ-साथ हमें बिहार में एक मांग उठानी चाहिए कि झारखंड के अलग हो जाने से जो राजस्व की क्षति होगी, उसकी भरपाई के लिए केंद्र सरकार कम से कम पांच वर्षों के लिए बिहार को सहायता दे. साथ ही साथ औद्योगिक इलाकों के झारखंड के साथ चले जाने से बिहार में औद्योगिक शून्यता पैदा हो जाएगी. इसलिए हमें केंद्र सरकार से बिहार के औद्योगीकरण के लिए एक कार्ययोजना की मांग भी उठानी चाहिए.
बिहार में दो राजनीतिक शक्तियों – राजद और भाजपा – के बीच ध्रुवीकरण है. लोग भी इसे इसी रूप में देखते हैं और मीडिया भी इसी रूप में प्रस्तुत करता है. किसी तीसरे स्टैंड की बात, तीसरी धारा की बात यहां आमतौर पर लोग महसूस नहीं करते और हमारे स्वतंत्र स्टैंड को भी इस या उस धारा के साथ जोड़कर देखा जाता है. इसलिए बिहार में अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ तीसरा ध्रुव बनाने की बात हमें करनी चाहिए. अभी तक हम यह स्थापित नहीं कर पाए हैं. हमें इसे तोड़ना है. भाकपा(माले) अपनी स्थितियों, अपनी समझदारी, अपने हितों के अनुरूप स्टैंड लेता है. हम एक विशिष्ट पार्टी हैं. संसदीय सीमाओं के दायरे में काम करनेवाले अन्य सभी दलों से भिन्न हमारी नजर संसदीय सीमाओं के बाहर तक रहती है. हमारे लिए यह जरूरी नहीं कि हम बुर्जुआ राजनीति की सीमाओं में ही खुद को बांधकर रखें. हमारा कोई स्टैंड किसी समय किसी खास पार्टी के निकट हो सकता है और दूसरे ही क्षण किसी दूसरी पार्टी के निकट. लेकिन वह हमारा स्वतंत्र स्टैंड ही होता है. इसीलिए हम जब एक ओर राष्ट्रपति शासन का विरोध कर रहे थे. ठीक उसी समय हम अलग झारखंड राज्य के भी पक्ष में खड़े थे और राबड़ी सरकार के विश्वास मत के खिलाफ भी. जबकि सीपीएम झारखंड के खिलाफ और लालू के साथ खड़ी हो गई थी. भाकपा(माले) कभी भी बुर्जुआ राजनीति के ध्रुवों के पीछे नहीं चली है और न चलेगी. यदि संसदीय राजनीति की सीमाएं हमारी स्वतंत्रता के झंडे को बुलंद रखने में बाधक बनती हैं तो उन सीमाओं को भी तोड़ देने से हम परहेज नहीं करेंगे.
बिहार में हमने राबड़ी राज को जंगल राज कहा है. वर्षों से हमारी पार्टी इनका दमन झेलती आई है. लेकिन इनके खिलाफ हमारा संघर्ष कभी नहीं रुका. यह जैसे जारी था, वैसे ही आगे जारी रहेगा. हम बिहार में तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश करते रहे हैं. इस दिशा में हमने सीपीआई के साथ प्रयास चलाए. लेकिन सीपीआई की हालत ‘रस्सी जल जाए, पर ऐंठन न जाए’ वाली है. वे गिरती हुई ताकत हैं, क्षयशील ताकत हैं. परंतु हर बात में वे अपना नेतृत्व बनाए रखने के लिए परेशान रहते हैं. चूंकि वे जनांदोलनों में नेतृत्व नहीं कायम कर सकते, इसलिए वे हर छोटी-छोटी बात में अड़ंगा डालते हैं. हर समय भाकपा(माले) के अलगाव में डालने की कोशिश वे करते रहते हैं. हमने बहुत सारे लोगों से तीसरे मोर्चे की दिशा में बढ़ने के लिए कहा. लेकिन कुछ लोग भाजपा-समता की तरफ चले गए और कुछ लालू की ओर.
इसलिए अभी हमें अकेले ही चलने की मानसिकता बनानी चाहिए. हमे अपना जनसंपर्क अभियान तेज करना चाहिए. मोर्चा बनाने की स्थिति अभी-अभी नहीं है. इसलिए फिलहाल जनसंपर्क अभियान को बड़े पैमाने पर पूरे बिहार में जारी रखा जाए.
इस दौरान राज्य नेतृत्व की पहलकदमी को लेकर जो आलोचनाएं आप सब की तरफ से आई हैं, उसपर राज्य नेतृत्व को गहराई से सोचना चाहिए. बाढ़ के सवाल पर हमें और पहलकदमी लेनी चाहिए थी. अन्य घटनाओं में भी हम सबसे बाद में पहुंचने वाली ताकत बने रहे. कुछ साथियों को इस मामले में जिम्मेवार बनाया गया था, उन्हें हर तरह की सुवीधा भी दी गई. लेकिन अभी भी इसमें कमियां रह जा रही हैं. आज का समय पहलकदमीयों का है. हर घटना में भाकपा(माले) को दिखना चाहिए. जिस तरह का उथल-पुथल का दौर है, उसमें बहुत कुछ हमारी पहलकदमी पर निर्भर करता है. जिस पार्टी की पहलकदमी होगी, उसी का भविष्य होगा. अभी-अभी जो बिहार की परिस्थिति है, उसमें हमें मोर्चा बनाने के चक्कर में न पड़कर सीधे जनता के बीच जाना चाहिए. नीचे से जनता को और अन्य कतारों को अपने साथ जोड़ते जाना है. अगले एक साल तक हमें इसी दिशा में कड़ी मेहनत करनी चाहिए. इसके बाद ही कोई तीसरा मोर्चा बनेगा.
हमें इस कन्वेंशन से यही संदेश लेकर जाना चाहिए कि हमें अपने पैरों पर खड़ा होना है. आने वाले दिनों में दमन-अत्याचार की घटनाएं तेजी से बढ़ेंगी. दमन-अत्याचार की हर कोशिश के खिलाफ हमें जन प्रतिरोध बढ़ाना है. हमारे नेताओं की कोई भी गिरफ्तारी शांतिपूर्ण तरीके से न हो, हजारों लोग इसका प्रतिरोध करें. फोन से, अधिकारियों से मिलने से चीजें नहीं बदलेंगी. अपने प्रतिरोध की ताकत को विकसित करिए. इसी आह्वान के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूं.