(18 मार्च 1994; समकालीन लोकयुद्ध, 15 अप्रैल 1994 से, प्रमुक अंश)

लगता है कि वे आए नहीं. मैं एक राज की बात बताता हूं आप लोगों को. इस मीटिंग में हमने जैसे तमाम लोगों को बुलाया था, वैसे ही हमने मुख्यमंत्री जी को बुलाया था. स्टेज पर बैठने के लिए नहीं, या सामने जो अतिथियों की कुर्सियां लगी हुई हैं उसपर बैठने के लिए भी नहीं. हमने बुलाया था कि अपना उड़नखटोला लेकर एक बार घूम जाइएगा गांधी मैदान. लगता है कि वे आए नहीं.

यह रैली नहीं है. यह एक घमंडी तानाशाह के मुंह पर एक तमाचा है. जिस आदमी ने आज से एक साल पहले घोषणा कर दी थी कि सीपीआई(एमएल) को हमने खत्म कर दिया है, आईपीएफ को हमने खत्म कर दिया है. सत्ता और पैसे के नशे में चूर उस घमंडी तानाशाह को आज हमने दिखा दिया है कि सीपीआई(एमएल) की क्या ताकत है, बिहार की क्रांतिकारी जनता की क्या ताकत है.

यह जो मुख्यमंत्री है, यह जो सरकार है, इनके साथ दिल्ली की सरकार का गुप्त समझौता था कि बाकी तुम जो कुछ करो, लेकिन तुम आईपीएफ को रोको, सीपीआई(एमएल) को रोको, बिहार के क्रांतिकारी आंदोलन को रोको. तब हम तुम्हें किसी तरह से परेशान नहीं करेंगे. और आपने देखा है कि पिछले चार सालों में यह सरकार जो यह कहकर आई थी कि वह दलितों-पिछड़ों के लिए काम करेगी, जो कहते थे कि हम कांग्रेस-भाजपा का विरोध करेंगे; उस मुख्यमंत्री ने, उस सरकार ने अपनी सारी ताकत लगा दी हमारी पार्टी को नेस्तनाबूद करने के लिए, बिहार से क्रांतिकारी आंदोलन को हमेशा-हमेशा के लिए मिटा देने के लिए. रामलखन सिंह यादव, ज्वाला सिंह जैसे लोगों के साथ गिरोह बनाया गया, भोजपुर-पटना जिलों में बड़े-बड़े नरसंहार कराए गए. हमारी ताकत को खत्म कर देने के लिए एमसीसी जैसे संगठन को शह देकर एक के बाद एक हमारे नेताओं-कार्यकर्ताओं की चुन-चुनकर हत्याएं कराई गईं. साथियो, हमने देखा कि रामलखन सिंह यादव तो इस पार चले गए और ज्वाला सिंह उस पार चले गए तथा एमसीसी से भी हम निपट ही लेंगे.

इस रैली ने यह साबित कर दिया है कि हमारी पार्टी की ताकत को खून और हत्या से, हमारे साथियों के हत्याकांडों से, हमारी जनता की हत्या से नहीं खत्म किया जा सकता है. हमारी पार्टी इस बिहार की धरती से जन्मी है, हमारी पार्टी बिहार की जनता की क्रांति की इच्छा से जन्मी है, परिवर्तन की जरूरतों से जन्मी हैं. और चूंकि तुम उस जरूरत को खत्म नहीं कर सकते, इसलिए हमारी पार्टी को भी खत्म नहीं कर सकते.

यह रैली बिहार के तमाम वामपंथी लोगों के लिए, बिहार की तमाम सामाजिक परिवर्तन की ताकतों के लिए और बिहार के हर आदमी, हर उस ईमानदार आदमी के लिए, चाहे वह जिस किसी जाति से आता है, हर उस आदमी के लिए जो चाहता है कि बिहार आगे बढ़े, बिहार का विकास हो, बिहार में माफियातंत्र खत्म हो, बिहार प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़े, बिहार के उन तमाम प्रगतिशील लोगों के लिए, यह रैली आशा की एक किरण है, आशा की लाल किरण है.

आज से 20 साल पहले, आज ही के दिन 18 मार्च 1994 को इस पटना की सड़कों पर दसियों हजार नौजवानों का जलूस निकला था. उन्होंने शासकों की इस एसेंबली से कुछ जवाब मांगे थे. भ्रष्टाचार के खिलाफ, बढ़ती हुई महंगाई के खिलाफ, बेरोजगारी के खिलाफ उन्होंने शासकों की सभा के पास, एसेंबली के सामने जाकर जवाब मांगा था. जवाब में उन्हें लाठियां मिली थीं, गोलियां मिली थीं और वहीं से शुरूआत हुई थी 1994 के आंदोलन की. आज फिर एक बार उस आंदोलन की आत्मा को जिंदा करना है. आज फिर उस रास्ते पर चलना है, आज फिर सारे बिहार में सामाजिक परिवर्तन की एक लहर बहानी है.

1994 का जो आंदोलन था उसकी शुरूआत बिहार में जरूर हुई थी, सबसे तेजी से वह बिहार में ही फैला था. लेकिन वह आंदोलन उस समय समूचे देश में जो तानाशाही थी उसके खिलाफ चला गया था. आइए, हम आज के हालात को देखें. कहा जा रहा है कि जेनेवा में कुछ दिनों पहले मानवाधिकार के मामले में पाकिस्तान को हरा दिया गया. भारत ने पाकिस्तान को अच्छी-खासी पटकनी दी. भारत को चीन और ईरान ने समर्थन दिया. समर्थन इस बात के लिए दिया कि सब पर अमरीका का खतरा है. अमरीका विभिन्न देशों में मानवाधिकारों का सवाल उठाकर दखलंदाजी करता है. इसलिए इन देशों ने अमरीका का विरोध किया और पाकिस्तान ने अपना प्रस्ताव वापस लिया. यह एक अच्छी बात है. अमरीकी दखलंदाजी के खिलाफ चीन, ईरान, भारत, पाकिस्तान – ये तमाम देश एक हों, हम यह चाहते हैं और इस लिहाज से हमारी पार्टी ने इसका स्वागत किया है. लेकिन एक बात हम कहना चाहेंगे कि मानवाधिकारों का सवाल तो फिर भी बाकी है. ठीक है, अंतरराष्ट्रीय मंच पर आप उसे नहीं उठा सकते हैं, अमरीकी दखलंदाजी की बात है, लेकिन सच्चाई तो यह है कि कश्मीर में आप मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं. अगर कश्मीर को आप अपने देश का हिस्सा कहते हैं, अगर कश्मीरी जनता हम भारतवासियों की अपनी जनता है, वे हमारे अपने भाई हैं, तो उनके साथ किस तरह का व्यवहार होना चाहिए? क्या यह सच्चाई नहीं है कि भारतीय सेना कश्मीर में विदेशी सेना की तरह आचरण कर रही है? जैसे लगता हो कि आपने किसी दूसरे देश की जमीन पर कब्जा कर रखा हो.

तो काश्मीर के लोगों के मानवाधिकारों के सवाल को कौन उठाएगा? सवाल सिर्फ कश्मीर की जनता के मानवाधिकारों का नहीं है. बिहार है, आंध्र है, महाराष्ट्र है, गुजरात है – देश के कोने-कोने में मानवाधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है. टाडा कानून के जरिए लोगों को, निर्दोष लोगों को जेलों में ठूंस कर बंद कर दिया जा रहा है. हम अपने देश में ही जैसे प्रवासी हो गए हैं, शासकों की पसंद की भाषा, उसकी जबान अगर हम बोलें तो इसको हमें इजाजत है, लेकिन अगर हम सच्चाई की बात, ईमानदारी की बात कहें तो हमें टाडा में जेलों में बंद कर दिया जाएगा. गोलियों से भून दिया जाएगा. आप कहते हैं कि आप अमरीकी दखलंदाजी को रोक रहे हैं कश्मीर में. लेकिन डंकल प्रस्ताव पर दस्तखत करके आप पूरे देश की संप्रभुता को उन्हीं पश्चिमी ताकतों के हाथों नीलाम कर रहे हैं. यह कैसा दोगलापन है? यह कैसा दोहरापन है?

मैं समझता हूं कि 1974 के आंदोलन को फिर से जो जिंदा करना है उसे सरकार की इन दोगली नीतियों के खिलाफ, केंद्र सरकार की इन दोगली नीतियों के खिलाफ भी जाना होगा. उसे भारत की संप्रभुता पर खतरों के खिलाफ भी आवाज उठानी होगी.

इस 1974 के आंदोलन को कुछ लोग, पुराने लोगों का, जो यहां-वहां बिखर चुके हैं, समागम करके और पुराने नारों को फिर उसी तरह दोहरा करके जिंदा करना चाहते हैं. यहां तक कि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सांप्रदायिकता की राजनीति को छोड़ना नहीं चाह रहे हैं और फिर भी 1974 के आंदोलन की बात कर रहे हैं. मेरा कहना है कि 1974 की आत्मा को सिर्फ उन पुराने नारों के जरिए वापस नहीं लाया जा सकेगा, पुराने लोगों का समागम करके भी वापस नहीं लाया जा सकेगा. 1974 की आहट सुननी होगी जनता की पदचाप में. हमने भोजपुर में देखा कि वहां की जनता अपने विधायक से हिसाब मांग रही है. हजारों की संख्या में जनता खड़ी हो रही है, वहां के जो विधायक हैं उनको घेर रही है. और जब उसके पास कोई जवाब नहीं है तो जनता उसे माफी मांगने के लिए बाध्य कर रही है. उसके खिलाफ सीधी कार्रवाई पर उतर जा रही है.  1974 की आहट को अगर सुनना है, 1974 को अगर समझना है  1994 में, तो जनता की, बुनियादी जनता की, आजतक हाशिए पर खड़ी रही जनता की, इस पदचाप को सुनों, उसकी इस पहलकदमी को देखो, उसकी इस कोशिश को देखो.

आंदोलन की यह जो शुरूआत भोजपुर की जनता ने की है, हालांकि इसके लिए उन्हें अपने सात-सात साथियों का बलिदान देना पड़ा है, लेकिन एक शुरूआत उन्होंने की है. आज जरूरत है इसे बिहार के कोने-कोने में फैला देने की. मैं अपने तमाम नौजवान दोस्तों से अपील करूंगा, तमाम छात्र-नौजवानों से अपील करूंगा कि 1974 की आवाज यहीं है आज. इस लड़ाई को, उन विधायकों और उन मंत्रियों के खिलाफ, उन्होंने जो 75 मंत्री और 40 कमीशनों के चेयरमैन बना रखे हैं, जिन्हें मैं 75 डाकू और 40 चोर कहता हूं, उनके खिलाफ चलाना है. हमारे छात्रों-नौजवानों को, हमारी आम जनता को उनसे जवाब मांगना चाहिए, उन्हें घेरना चाहिए. उनसे पूछना चाहिए कि चार साल पहले तुम्हारे पास कितनी संपत्ति थी और आज तुम्हारे पास कितनी संपत्ति है. उनसे भ्रष्टाचार का हिसाब हमे पूछना चाहिए और उनके खिलाफ सीधी कार्रवाई में उतरना चाहिए.

1974 में जो आंदोलन हुआ था उसमें छात्रों ने एसेंबली में जाकर शासकों से जवाब मांगा था. इस एसेंबली से, शासकों की इस विधानसभा से लोग बार-बार यह सवाल पूछेंगे. छात्रों ने कुछ महीने पहले उनसे यह पूछा. उनपर लाठियां बरसा दी गईं. उन्हें तितर-बितर कर दिया गया. किसानों ने अपना जलूस निकाला, उन्होंने सवाल पूछा था कि यह बिहार की विधानसभा है और भूमि सुधार का सवाल बिहार का एक अहम सवाल है तो क्यों नहीं इस विधानसभा में भूमि सुधार के सवाल पर बातें होती हैं? किसानों ने यह सवाल उठाया, वे वहां पहुंचे तो उनपर लाठियां चलाई गईं, उनपर गोलियां चलाईं गईं. और उसमें हमारे एक साथी शहीद हुए.

आज मैं देख रहा हूं कि पहले जो लकड़ी का घेरा होता था अब उसको पक्के लोहे का बैरिकेड बना दिया गया है. तो शासक अपने को घेर रहे हैं. वे अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. वे अपने-आपको घेर रहे हैं, लोहे की दीवार बना रहे हैं. लेकिन क्या इससे आप जनता के उस उभार को रोक सकेंगे? जनता बार-बार इस एसेंबली को घेरेगी. वह इस सरकार से जवाब मांगने बार-बार पटना आएगी और ये जो लोहे की दिवारें हैं उसे जरूरत पड़ने पर तोड़कर भी वहां पहुंचेगी.

मेरा यह कहना है कि जिस एसेंबली में बिहार की समस्याओं पर कोई बात नहीं होती, जिस एसेंबली में भूमि सुधार के सवालों पर बात नहीं होती, अलग झारखंड राज्य तो दूर की बात है, जिस एसेंबली में स्वायत्तता का एक बिल आजतक नहीं आया, जो विधानसभा यह भी नहीं कर सकती, जिस विधानसभा में महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार के खिलाफ, जिस विधानसभा में शिक्षकों, कर्मचारियों, छात्रों की तमाम समस्याओं को लेकर कोई बात नहीं होती, कोई बहस नहीं होती, जहां हर किस्म की गैरजरूरी बातें होती रहती हैं, यहां तक कि गंदे, फूहड़ मजाक भी किए जाते हैं महिलाओं को लेकर, तो मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि ऐसी विधानसभा को क्या ठप्प नहीं कर दिया जाना चाहिए? ऐसी विधानसभा से बिहार की जनता को क्या लेना-देना? आज 1974 का जो आंदोलन फिर से सिर उठाएगा वह एक ओर इन तमाम भ्रष्ट मंत्रियों, इन तमाम भ्रष्ट कमीशनखोरों, चेयरमैनों पर सवाल उठाएगा, उनसे पूछेगा, उन्हें घेरेगा और साथ ही साथ जनता की लहरें बार-बार इस एसेंबली पर आकर गिरेंगी और अगर इसका यही रवैया रहा, तो एक समय आएगा जब हम लाखों की यह भीड़ लेकर इस विधानसभा को ठप्प करने की ओर मार्च करेंगे. यही आज की जरूरत है. और यहीं से 1974 का आंदोलन, 1974 का नारा 1994 में एक नई जान लेकर, एक नई सांस लेकर उभरेगा. मैं बिहार की जनता से, तमाम तबके के लोगों से, नौजवानों से, ये चाहे जिस किसी भी जाति के हों, अपील करता हूं कि इस नए आंदोलन में आप सब शामिल हों, सांप्रदायिक ताकतों से दूर हटें, जातिवादी ताकतों के चक्कर में न पड़ें. आप सबों से मेरा यह आह्वान है, मेरी यह अपील है इस नए आंदोलन के लिए, 1994 में इस आंदोलन की शुरूआत के लिए, जिसकी शुरूआत इसी रैली के सिलसिले में और इसके कुछ दिनों पहले भोजपुर की जनता ने एक विधायक से जवाब पूछते हुए की है, इसे और आगे बढ़ाइए.

(17-18 दिसंबर 1993, समकालीन लोकयुद्ध, जनवरी 1994 से, प्रमुख अंश)

यह शुद्धीकरण आंदोलन हम एक ऐसे समय में चला रहे हैं, जबकि हमारी पार्टी जो पिछले कुछ समय से कुछ समस्याओं से, कुछ नकुसान से जूझ रही थी, वहां से आगे बढ़ी है, और हमने अपनी स्थिति बेहतर की है. दूसरी तरफ बिहार में फिलहाल हमारा जो मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी है जनता दल, वह सब तरफ से घिर रहा है. कल तक अखबार यह कहते थे कि लालू यादव के हमले के सामने आईपीएफ बिखर रहा है, सीपीआई(एमएल) बिखर रहा है, लेकिन आज अखबारों की भाषा भी बदलने लगी है. ‘लालू पर लाल हमला’ इस तरह के शीर्षक अभी आ रहे हैं. खासकर, हाल में देश में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए, चुनाव हुए, उसके बाद जनता दल का संकट और भी गहरा हुआ है. बिहार में भी उनकी पार्टी पर उसका एक बड़ा असर पड़नेवाला है.

यह एक खास परिस्थिति है, जबकि हम पिछले समय के घेराव, पिछले समय की समस्याओं से उबरते हुए, हमलावर रुख अपनाते हुए आगे बढ़ रहे हैं और हमारा जो मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी है वह संकटों से घिर रहा है. यह एक समय है, एक माहौल है, जिसमें हमने इस शुद्धीकरण अभियान को चलाने का फैसला लिया है.

इससे यह साफ हो जाता है कि हमारा लक्ष्य आनेवाले दिनों में इस प्रक्रिया को और तेज करने, पहलकदमी मजबूती से अपने हाथों में लेने और एक सशक्त राजनीतिक आंदोलन छेड़ देने का है. इसके लिए हमें तैयारी करनी है और इस तैयारी के लिए सबसे बड़ी बात है कि हमारी अपनी पार्टी एकताबद्ध हो, अनुशासनबद्ध हो. इस शुद्धीकरण आंदोलन का मुख्य मकसद मेरी समझ में यही है.

मैं समझता हूं कि इस जनता दल सरकार से कैसे हम नए सिरे से या किन मुद्दों के माध्यम से और किस तरह से उसका मुकाबला करें, ये सवाल हमारे सामने थे. दिशा का सवाल भी हमारे सामने था. क्रमशः हमने इन सवालों को भी हल किया है और छात्रों का आंदोलन हो, भूमि सुधार का सवाल हो, झारखंड में स्वायत्तता की लड़ाई हो, इन तमाम मुद्दों को, इन तमाम पहलुओं को एक सूत्र में जोड़ते हुए आपको आंदोलन को पुनरुज्जीवित करना है. इस नारे के तहत हमने तमाम अलग-अलग आंदोलनों को एक समग्रता में, बिहार के लोकतंत्रीकरण की लड़ाई के रूप में शुरू किया है. और हमने अपनी दिशा ठीक की है, और इस दिशा में हम आगे भी बड़े हैं और यह भी बात साफ हो गई है कि जनता दल सरीखी सरकार से मुकाबले के लिए हमारा यह नारा, हमारी यह दिशा काफी कारगर साबित हो सकती है. क्योंकि इसी बीच हमारी इन कोशिशों ने जनता दल के अपने वैचारिक आधार पर भी चोट पहुंचाई है, उसके सामाजिक आधार को भी, उसकी समर्थक लोकतांत्रिक शक्तियों को भी हम प्रभावित कर पाए हैं. तो दिशा का सवाल हमने एक हद तक हल किया है और यह सिर्फ हमारी ही बात नहीं है, हमारे बाहर की भी जो तमाम सर्किल है उनको भी यह लग रहा है कि शायद बिहार में नए स्तर के लोकतांत्रिक आंदोलन का नेतृत्व यह पार्टी करेगी.

इस तरह से पहलकदमी हमने अपने हाथों में लेनी शुरू की है. दिशा का भी सवाल एक हद तक हमने अपने हाथों में लिया है. दूसरी तरफ हमारा जो मुख्य प्रतिद्वंद्वी है उसके सामने कोई खास मुद्दा नहीं रह गया है. मंडल का सवाल धीरे-धीरे पीछे चला जा रहा है. इसलिए कलतक जो लालू यादव कहते रहे कि आईपीएफ तो खत्म हो चुका है, है ही नहीं, आजकल वह कहते हैं कि आईपीएफ, सीपीआई और जनता दल मिलकर अगले चुनाव की तैयारी करें. नए सिरे से वह नए दोस्त को तलाशना चाहते हैं.

तो यह हालात हैं जिनमें हमने इस शुद्धीकरण आंदोलन की शुरूआत की है. जरुरी है इस राजनीतिक परिप्रेक्ष को समझना और इस खास परिस्थिति को समझना. इसके बिना शुद्धीकरण अभियान सच में कोई मायने नहीं रखेगा. यह खास परिस्थिति है जब पहलकदमी हमारे हाथों में आ रही है, यह खास परिस्थिति है जब हमने राजनीतिक दिशा का सवाल भी एक हद तक हल किया है.

हमें अपनी पार्टी को दृढ़ता से एकताबद्ध और अनुशासनबद्ध करना होगा. इस मामले में, बहुत सारे गलत विचार हमारे पार्टी संगठन में हैं, जिनकी चर्चा इस दस्तावेज में की गई है. मेरी समझ में एक है कि हम जब भूमि सुधार का सवाल उठाते हैं, हम जब किसान आंदोलन की बात करते हैं, हम जब किसान संगठन को मजबूत बनाने की बात करते हैं तो हमारे इस आंदोलन को, खास करके किसान आंदोलनों को सिर्फ लालू सरकार को उखाड़ फेंको या एक सरकार के खिलाफ एक तात्कालिक लड़ाई के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. हमें यह समझने की जरूरत है कि हम जिस क्रांति की बात करते हैं, कृषि क्रांति उसमें किसान संघर्ष की एक खास अहमियत है. एक खास सरकार है, कल नहीं रहेगी. कल कोई दूसरी सरकार आएगी. हमारा यह सारा का सारा किसान संघर्ष, यह सिर्फ किसी एक सरकार को टेंपरेरी तौर से परेशान करने के लिए या उसकी इस्तीफा देने के उद्देश्य से सत्ता से उसको हटाने के एक सीमित राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने भर के लिए नहीं है. इस बात को गहराई से समझना चाहिए. अक्सर मुझे यह लगता है कि भूमि सुधार आंदोलन को, किसान आंदोलन को, इन सारी चीजों का महत्व सिर्फ उतने भर में सीमित कर दिया जाता है. तात्कालिक नारे जरूरी हैं. इन नारों के जरिए जनता को गोलबंद करने में हमें तात्कालिक तौर से मदद मिलती है. लेकिन हमारे सारे के सारे किसान आंदोलन को अगर इतने ही सीमित अर्थों में समझ लिया जाए तो मैं समझता हूं कि परिणामवाद की एक वैचारिक विकृति यहां से शुरू होती है और इससे ये सभी आंदोलन कभी कभार के काम बन जाते हैं. हमेशा अपने किसान संगठन को मजबूत करते जाना, किसान संघर्षों पर जोर देते रहना यह जरूरी है. अक्सर हम देखते हैं हमारे किसान सभा की बॉडी डिफंक्ट हो जाती है, निष्क्रिय हो जाती है और फिर उसको कुछ कार्यभार देकर जिंदा किया जाता है. ऐसा क्यों होगा? हमें किसान क्रांति करनी है. इन हालात में हमारा किसान संगठन बार-बार ऐसी हालत में, ऐसी स्थिति में क्यों फंस जाता है और एक खास समय में किसी सरकार के किसी नारे के खिलाफ, किसी पॉलिसी के खिलाफ या एक घेराव आयोजित करके ही उसे जिंदा किया जाएगा – ऐसा क्यों होगा?

मैं समझता हूं कि जो परिणामपाद की एक वैचारिक विकृति है, वह कहीं न कहीं इन मामलों पर अपना असर डालती है, कि सिर्फ एक राजनीतिक हथकंडे के बतौर किसान संघर्षों का इस्तेमाल. यह सीपीआई-सीपीएम सरीखी पार्टियों का ही तरीका हो सकता है. क्योंकि उनके एक दोस्त की सरकार है और जनता दल से उनकी दोस्ती है. कभी उनके लिए किसान मुद्दा जोरदार बन जा रहा है, कभी नहीं बनता है. ... हमारे लिए यह नीति नहीं है. हमारे लिए बिहार जैसे राज्य में खास तौर से, किसान आंदोलन, किसान संघर्ष, क्रांतिकारी किसान संघर्ष यह सबसे महत्वपूर्ण चीज है और इसके जरिए हमें पूरे समाज का, पूरे बिहारी समाज का क्रांतिकारी रूपांतरण करना है. यह हमारे लिए दीर्घकालिक लड़ाई है और इस लड़ाई में संघर्षों की कोई सीमा हमने बांध नहीं रखी है. किसानों की सचेत भागीदारी के साथ, हजारों हजार किसानों की सक्रियता के साथ यह सामंतवाद विरोधी संघर्ष जितनी ऊंची मंजिलों पर जा सकता है, उसे हमारी पार्टी चलाएगी. यह पूरे समाज के परिवर्तन का सवाल है. किसी खास समय एक सरकार को उखाड़ फेंकने का यह कोई राजनीतिक हथकंडा नहीं है. इस बात को अच्छी तरह से, गहराई से समझा जाना चाहिए. परिणामवाद की एक बहुत बड़ी विकृति या भटकाव यहां से ही शुरू होता है.

इसी तरह आज हम छात्रों के आंदोलन 1974 की जो बात कर रहे हैं या हम झारखंड की स्वायत्तता के आंदोलन की जो बात कर रहे हैं और इस तरह से हम सारे के सारे आंदोलनों को एक सूत्र में पिरोकर जो एक आंदोलन की बात कर ही हैं, वह बिहार के लोकतंत्रीकरण का आंदोलन है. इस आंदोलन की प्रक्रिया में लालू सरकार का क्या हुआ, नहीं हुआ, वह अलग बात है. शायद वह सरकार गिर जाए, शायद वह सरकार चलती रहे. यह हमारे लिए बड़ी बात नहीं है, सबसे बड़ी बात है लोगों के अंदर एक लोकतांत्रिक चेतना का जन्म और समाज के लोकतंत्रीकरण के लिए आंदोलन.

इस समग्र परिप्रेक्ष्य को हमें दिमाग में रखना चाहिए और यह सच है कि तात्कालिक तौर से उस सरकार के खिलाफ लड़ाई, उसकी कमियों-उपलब्धियों के खिलाफ आंदोलन, सरकार की आलोचना-तात्कालिक राजनीति में ये चीजें होती हैं और इनके जरिए हमें अपनी बातों को ले जाने में और व्यापक लोगों की गोलबंदी में जरूर ही एक मदद मिलती है. लेकिन अगर हमारी वैचारिक राजनीतिक सोच ही इसी में सीमित हो जाए, तो मैं समझता हूं कि फिर एक कम्युनिस्ट पार्टी हम नहीं रह जाएंगे और एक तात्कालिक किस्म के जनवादी संगठन जैसे कहीं कुछ में बदल कर रह जाएंगे. इस संदर्भ में परिणामवाद का जो खतरा इस दस्तावेज में रखा गया है, हम समझते हैं कि वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और इसपर हमारे साथियों को ध्यान देना चाहिए. कुल मिलाकर कहा जाए तो एक वैचारिक क्षय हमारी पार्टी का, संगठन का लंबे समय से हुआ है.  परिणामवाद उसकी एक अभिव्यक्ति है.

यह जो वैचारिक क्षय है, इसके और भी कारण हैं, अभिव्यक्तियां हैं. इस दस्तावेज में जिन्हें चेक तो किया ही गया है. यह वैचारिक क्षय हमारी पार्टी का जो हुआ है, उसकी एक अभिव्यक्ति हमने हाल के समय में देखी, जबकि संसदीय चुनाव में हमने हिस्सा लिया और हमने एक नए प्रयोग की शुरूआत की कम्युनिस्ट आंदोलन में. हमारा लक्ष्य था हम विधानसभा में हो, संसदीय संघर्षों में हो एक नया क्रांतिकारी आदर्श प्रस्तुत करेंगे. लेकिन जैसा कि आप जानते हैं हमें इसमें एक काफी बड़ा धक्का पहुंचा. उस वक्त हमारे चुने हुए चार-चार विधायकों को जनता दल ने अपने पक्ष में जीत लिया. या यों कहें वे संसदीय राजनीति के जाल में जाकर फंस गए और फंसते हुए बिक गए. मैं समझता हूं कि हमारी पार्टी के इतिहास में हमसे और भी बड़ी कमियां हुई हैं, गलतियां हुई हैं, धक्के लगे हैं लेकिन शायद ही किसी गलती, कमी या धक्के ने हमारी पार्टी की मर्यादा को लोगों के सामने इतना गिराया हो. इसने हमारी पार्टी को देशभर में काफी नुकसान पहुंचाया है. क्योंकि लोग यह उम्मीद नहीं करते थे कि हमारी पार्टी के जो एमएलए हैं वह इतनी आसानी से, इतनी सहजता से और इस तरह से बिक जाएंगे. यह हमारी पार्टी के मामले में खास करके, कहिए कि एक कलंक है, एक काला धब्बा है, जो हमारे साथ जुड़ गया है. इसे दूर करने की कोशिशें हमारी पार्टी ने चलाई हैं और धीरे-धीरे हम इस बात को जनता के भीतर फिर से लागू कर रहे हैं, लोगों के बीच ले जा रहे हैं कि यह आंदोलन की पार्टी है और हमने एक तस्वीर भी अपनी फिर से बनाई है, लेकिन यह एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल यहां है. अच्छा-खासा सवाल है कि क्यों ऐसा हुआ? कहीं से अगर यह बात हो कि यह लोग ऐसे थे और उन्हें टिकट ही नहीं दिया जाना चाहिए था, तो भी सवाल खड़ा होता है कि क्यों दिया गया? अगर यह हो कि बाद में इनपर नियंत्रण नहीं रखा गया तो भी सवाल उठता है कि क्यों हम नहीं रख सके? सिर्फ उनको दोष देने से तो बात बनती नहीं है. यह बात रह ही जाती है कि हमारा पार्टी संगठन क्या कर रहा था? हम क्या कर रहे थे? टिकट देते वक्त हमने क्यों नहीं सावधानी बरती और आगे हमने क्यों असावधानी बरती? ये सारे सवाल हैं, जिनका जवाब हमें देना होगा. लेकिन मैं कहता हूं कि यह सवाल गहराई में इसलिए भी है कि यह चार-पांच एमएलए की बातें जो हैं, सो तो हैं. लेकिन एक सवाल हमारे सामने यह खड़ा होगा कि क्या हमारे पूरे के पूरे संगठन में, कहीं न कहीं से एक संसदीय भटकाव का असर नहीं पड़ा? भटकाव कम या ज्यादा क्या सारे संगठन में, सारे लोगों में नहीं आ गया था? मैं समझता हूं कि समस्या पर विचार करने का यही एक सही तरीका है.

मुझे लगता है कि यह बात सच है और ऐसा जरूर हुआ है. पूरे संगठन के अंदर एक टिकट पाने की लालसा उनके अंदर काफी हद तक फैली. इसमें सिर्फ नए लोग ही नहीं रहे. ऐसे भी बहुत सारे लोग, जो पुराने साथी रहे हैं, लंबे समय के साथी रहे हैं, कर्मठ लोग रहे हैं वह भी कहीं न कहीं से इस तरह के विचारों के शिकार हुए. इसके अलावा भी पूरे संगठन के अंदर एमपी-एमएलए की मर्यादा पार्टी के या संगठन के नेताओं की तुलना में ज्यादा करके आंकी जा रही थी. इस बात से लगातार हमने संघर्ष करने की कोशिश भी की थी. बहुत-सी जगहों में हमने देखा कि लोग मीटिंगों में एमएलए साहब को बुला रहे हैं. वहां जो पार्टी या संगठन का नेता है उसकी कोई पूछ ही नहीं रह गई. वह भी एमएलए-एमपी के बतौर इसलिए कि वे एमएलए-एमपी हैं. कोई एमएलए अगर हमारे संगठन का नेता है, इस लिहाज से कोई उसको बुलाए तो और बात है. पूरे संगठन में हमने देखा. आम लोगों के अंदर हमारे समाज में एमएलए-एमपी को वीआइपी समझा जाता है. हमारे संगठन में भी हमने देखा कि इस बात का असर है. विधायकों या संसद सदस्यों को भी लगने लगा कि वे ही पार्टी के संगठन के असली नेतृत्व हैं, वे ही सही लोग हैं, वे ही मॉडल हैं. और इसी मॉडल का हमें अनुकरण करना है और इसी तरफ चलना है. यह पूरा का पूरा एक रुझान क्या हमारे संगठन के अंदर पैदा नहीं हुआ? इसके खिलाफ हमने संघर्ष भी शुरू करने की कोशिश की. विभिन्न जगहों पर कहने की कोशिश की कि यह गलत हो रहा है, यह ठीक नहीं हो रहा है, पार्टी या संगठन के नेताओं की मर्यादा संगठन में पहले नंबर पर होनी चाहिए, एमएलए-एमपी के आधार पर यह नहीं सोचा जाना चाहिए. लेकिन इसका कोई खास असर पड़ते हुए हमने नहीं देखा. कितनी चिंता की बात है कि फाइट करने के बावजूद आसानी से लोग यह सुनना नहीं चाह रहे थे; बल्कि इस मामले में कहिए तो तीन-चार विधायकों का चले जाना – इसने फिर से पार्टी में माहौल बदला है.

एमएलए-एमपी की जो प्रेस्टीज इस तरह से बन गई थी वह खोते ही अब लोगों को यह लगने लगा यह तो मामला गड़बड़ है. पार्टी में जो संघर्ष चल रहा था उसमें यह बात ज्यादा साफ हुई और संगठन की मर्यादा, संगठन के नेताओं की मर्यादा फिर से धीरे-धीरे पार्टी में सामने आई और हम आंदोलन के रास्तों पर भी धीरे-धीरे आगे बढ़ सके. तो संसदीय भटकाव पूरी हमारी पार्टी में ऊपर से नीचे तक विभिन्न मात्राओं में आ गया था और जिसकी सर्वोच्च अभिव्यक्ति इन एमएलए लोगों के द्वारा हुई. इसके कारणों की और भी गहराई से तलाश जरूरी है क्योंकि एमएलए आज भी हैं और भविष्य में और भी बढ़ेंगे. एमएलए बढ़ेंगे-एमपी बढेंगे. इसकी हमें जरूरत भी होगी. लेकिन मामला यह है कि कैसे एमएलए-एमपी की सही-सही भूमिका जो है पार्टी आंदोलन में, उसको सही-सही रूप से स्थापित किया जाए और साथ ही साथ संगठन अपनी मर्यादा लेकर भी आगे बढ़े. यह एक बहुत बड़ा सवाल रहा है बिहार में वैचारिक क्षय का जिसकी वजह से संसदीय संघर्षों की एक मिसाल कायम करने के बजाय हमने शुरूआत ही, कहिए तो एक नकारात्मक मिसाल बनाकर की. यह पूरी पार्टी के लिए सोचने का विषय है और शुद्धीकरण का सवाल हमारे सामने इस विषय के साथ ही जुड़ा हुआ है. यह जो इतनी बड़ी घटना हुई, इसके लिए पूरी पार्टी को अपने अंदर की कमजोरियों को तलाश करने की भी जरूरत है कि समग्रता में हमारा वैचारिक क्षय कहां से और कैसे हुआ. आपलोगों ने इस विषय पर ढेर सारे विचार सामने रखे हैं. इससे हमारी तमाम कमजोरियां सामने आई हैं और हम इस बात को समझते हैं कि कहां से गलतियां और समस्याएं हमारे अंदर शुरू हुईं.

यह जो वैचारिक क्षय है, संगठन के भीतर में, सांगठनिक जीवन में भेद पैदा करता है. तो यह दो मूल विषय हो जाते हैं. वैचारिक क्षयरोग, जैसे हम जानते हैं कि टीबी हो जाती है. पार्टी संगठनों में भी टीबी का रोग ऐसा होता है जो कि धीरे-धीरे भीतर से उसको कमजोर करता रहता है. बाहर से तो उसका राजनीतिक स्वरूप, डीलडौल सही ही रहता है और पार्टी धीरे-धीरे खत्म होने की ओर चली जाती है. तो कहीं न कहीं हमारी पार्टी में भी वैचारिक क्षयरोग की शुरूआत हो चुकी थी, जिससे यह सारी गड़बड़िया आई और भीतर से हमारी पार्टी काफी कमजोर हो गई. इसके खिलाफ शुद्धीकरण अभियान, इस क्षयरोग के खिलाफ, एक इंजेक्शन है, एक लड़ाई है, एक दवाई है, ट्रीटमेंट है.

और टीबी रोग ऐसा होता है कि जब वह ठीक हो जाता है तो आदमी पहले से ज्यादा ताकतवर, पहले से ज्यादा मजबूत बनकर उभरता है. यह मेरा विश्वास है कि आप अपने अंदर के इन विषाणुओं को इस गंभीरता के साथ समझेंगे और अपनी पार्टी के अंदर जो क्षयरोग फैलना शुरू हुआ है, उसकी गंभीरता को समझेंगे और इसको दूर करके हम पार्टी को और भी स्वस्थ, और भी मजबूत बनाने की तरफ बढ़ेंगे.

संगठन के रूप में भी हमने इस वैचारिक क्षय की खास अभिव्यक्ति को देखा है. जैसे, एक तो बेगूसराय की बात आ रही थी जहां लंबे समय से दो-दो जिला कमेटियां चल रही हैं और हम इसका हल नहीं निकाल पाए हैं. यह सबसे गंभीर चिंता का विषय है. बेगूसराय में तो खैर खुलेआम आमने-सामने दो कमेटियां हैं और साफ-साफ पता चलता है, लेकिन ऐसी बहुत-सी कमेटियां हैं, जो हो सकता है कि बाहर से एक ही दिखती हैं लेकिन अंदर से वहां भी कुल मिलाकर इस तरह के विभाजन हैं. इस तरह का एक तो जैसे कि हमारे दो नेतृत्वकारी साथियों के बीच हो, तो कभी-कभी ऐसी समस्याओं को हल करने के लिए उन साथियों को हटाना पड़ता है. तो वह बात बराबरी ही होगी. बेगूसराय तो एक एक्सट्रीम है, चरम है. लेकिन छोटे-छोटे बेगूसराय बहुत-सी जिला कमेटियों के अंदर आपको मिलेंगे. मेरी समझ से यह भी सोचने के लिए बड़ा विषय है. दूसरे, मैंने कभी-कभी देखा है, कि जो वैचारिक तनाव रहता है वह कहीं न कहीं संगठन के जरिए आता है जिसे हमने संघवाद के नाम से चिह्नित किया है. इसमें हम देखते हैं कि जिला कमेटियां हैं जो कही न कहीं स्वतंत्र ढंग से काम करती हैं. हमारी जो पार्टी कमेटियां हैं उनके बीच वह रिश्ते हैं, जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के बीच होना चाहिए. मैं उसे एकीकृत ढांचा कहता हूं. जिला कमेटी और राज्य कमेटी के बीच जो रिश्ता होना चाहिए, जिला कमेटी और प्रखंड कमेटी के बीच जो रिश्ता होना चाहिए यह रिश्ता हो. राज्य कमेटी के ओर से भी जो रोल होना चाहिए वह हो और जिला कमेटी की तरफ से जो रोल होना चाहिए वह हो. क्योंकि ऊपर से तो देखने में राज्य कमेटी भी है जिला कमेटी भी है, प्रखंड कमेटियां भी हैं, सारी कमेटियां ही हैं. लेकिन यह होने पर भी मैं उसे एकीकृत ढांचा नहीं कह सकता. जनवादी केंद्रीयता के आधार पर विभिन्न पार्टी कमेटियों के बीच वह रिश्ता हो जो होना चाहिए. तभी उसे हम एक एकीकृत ढांचा कह सकते हैं. अगर कमेटी को अपने जिले के बारे में जानकारियां भी न दें, रिपोर्ट भी न दें या अपनी तरफ से पालिसी बनाकर चलें या आर्थिक तौर से पूरी अराजकता करती रहें तो यह सब गलत है और यह भी कोई एकीकृत ढांचा नहीं कहलाएगा. मुझे तो लगता है कि कहीं न कहीं हमारा जो पूरा पार्टी सिस्टम, पूरा जो पार्टी ढांचा है उस पार्टी ढांचे को भी ठीक करने की काफी जरूरत है. ऊपर से नीचे -- राज्य कमेटी से लेकर नीचे तक. नीचे तक तो बहुत-सा ढांचा बनाना भी अभी बाकी है. तो गहरे तौर से इस बात की खोज होनी चाहिए. कुछ साथियों की यह भी शिकायत है कि समस्या राज्य कमेटी में है या हेडक्वार्टर में है या ऊपर से नौकरशाही है या ऊपर से औपचारिकता है. हमारे जो राज्य कमेटी के नेतागण हैं वे नीचे अच्छी तरह से नहीं जाते हैं, जिलों को अच्छी तरह से नहीं देखते हैं, नीचे से जानकारियां ले लेते हैं और ऊपर से सिर्फ सर्कुलर वगैरह भेजते रहते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि कोई चेकअप नहीं होता. हो सकता है राज्य कमेटी में भी शायद कुछ समस्याएं हों. अगर यह सब बातें रही हैं तो मैं समझता हूं कि राज्य कमेटी के जो जिम्मेवार साथी हैं वे इस बात पर गहराई से विचार करेंगे कि इस तरह की समस्याएं कहां से हैं, किस हद तक हैं. और यह सच है कि अगर राज्य कमेटी से ही चीजों की शुरूआत सही ढंग से न हो तो शायद ही नीचे किसी किस्म का शुद्धीकरण आगे बढ़ सकता है.

दूसरी तरफ हमें यह भी जरूर देखना है जिला कमेटियों में या उनके नीचे के पार्टी संगठनों में कि वे पार्टी संगठन हैं कि नहीं.  कहां तक सच्चाई है कहां तक नहीं है. जैसे मुझे एक रिपोर्ट सुनते वक्त लगा. शुद्धीकरण पर जिला कमेटी की रिपोर्ट आनी थी. एक जिला सचिव रिपोर्ट रख रहे थे. उस रिपोर्ट में इस बात का ही जिक्र ज्यादा था कि कैसे वहां के लोग जिला सचिव को हटाना चाहते हैं, हराना चाहते हैं क्या करना चाहते हैं, नहीं करना चाहते हैं – इस तरह की बाते. मुझे यह बात नहीं समझ में आई कि यह जिला कमेटी की रिपोर्ट है या जिला सचिव के अपने संकट और अपनी समस्याओं का एक विलाप. ये चीजें ठीक नहीं हैं. कोई भी जिला सचिव, राज्य सचिव या राष्ट्रीय सचिव, जो हों, अगर आपको लोग समझते हैं, चुनते हैं और चाहते हैं, तभी आप सचिव रहने के हकदार भी हैं. यह देखना होगा कि आप अलगाव में क्यों है, या इसमें आपकी कमियां-कमजोरियां कहां हैं. इसको खोजना होगा. अगर आपको एक चुनाव में काफी कम वोट मिलते हैं तो आपको सोचना होगा. नहीं तो फिर लोकतांत्रिक चुनावों का कोई मतलब नहीं. इससे अपनी कमियां-कमजोरियां ढूंढ़ी जाएं, उनको दूर किया जाएं – लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव करके जो हम पार्टी कमेटियां बना रहे हैं उनका लक्ष्य तो यही है. वोट कम मिलना, ज्यादा मिलना, इससे समझ मे भी आएगा कि हमारा क्या लगाव है और नहीं है. बजाय इसके एक साजिश के रूप में इसकी व्याख्या कर दी जाए, तो इससे अपनी कमियों की सही तलाश नहीं हो पाएगी.

इसलिए यह भी सोचने की बात है कि आप पार्टी कमेटियों का सही-सही ढांचा बना रहे हैं या नहीं बना रहे हैं. या फिर कहीं ऐसा नहीं कि सेक्रेटरी लोग अपने मन से जो करना है किए जा रहे हैं और इस बात की चिंता नहीं कर रहे हैं कि सही पार्टी कमेटी बन रही है कि नहीं बन रही है. इसलिए वैचारिक क्षय के साथ-साथ उसका एक सांगठनिक रूप है – सांगठनिक एकता का अभाव (डिसयूनिटी). यह विविध रूपों में है. छोटा-मोटा बेगूसराय हर जगह है. दूसरी ओर राज्य कमेटी से नीचे का जो ढांचा है, इसमें काफी कमजोरी है. यह हमारे शुद्धीकरण आंदोलन का दूसरा महत्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिए. वैचारिक एकता के साथ-साथ एक एकीकृत संगठन का ढांचा बहुत ही जरूरी है. बिना इसके हम आगे नहीं बढ़ सकते.

हम जो यह कहते हैं कि हमें एक अनुशासनबद्ध पार्टी चाहिए, तो एकताबद्ध और अनुशासनवद्ध पार्टी की मांग, यह सिर्फ एक क्रांतिकारी पार्टी ही कर सकती है. एक पार्टी जिसके पास क्रांति का लक्ष्य न हो, वह जब अनुशासन की मांग करती है तो अक्सर वह नौकरशाही होती है, वह अपनी कमियों को छिपाने का और लोगों को जबर्दस्ती अपने विचारों के पीछे ले जाने का, पार्टी नेतृत्व के खिलाफ उठ रहे विक्षोभों को रोकने का जरिया हुआ करती है. इसलिए जो पार्टीयां क्रांतिकारी नहीं हैं, जिनका लक्ष्य क्रांतिकारी नहीं रहा है, वे चाह कर भी अनुशासित नहीं रह पातीं, अनुशासन स्थापित भी नहीं कर पातीं और अनुशासन स्थापित करने की उसकी सारी कोशिशें दरअसल लोगों की आवाज को दबाने का एक माध्यम बन के रह जाती हैं. ऐसी पार्टियों में तो विद्रोह करना ही न्यायसंगत है, सही है. लेकिन जो पार्टी क्रांतिकारी पार्टी है, क्रांतिकारी उद्देश्यों के लिए लड़ रही है, क्रांतिकारी लक्ष्य इसके हैं, ऐसी पार्टियों के लिए अनुशासन जरूरी है. क्योंकि बिना अनुशासन के यह कभी आगे नहीं बढ़ सकती. ऐसे भी क्रांति के मामले में, क्रांति संगठित करने के लिए हम कम्युनिस्टों के पास सबसे बड़ा हथियार संगठन ही है. और दूसरा हमारे पास हथियार ही क्या है? हम जिन शासक वर्गों से लड़ रहे हैं वे पूंजी के लिहाज से, हथियारों के लिहाज से और तमाम मामलों में हमसे हजारों-हजार गुना ज्यादा मजबूत हैं. इन ताकतों से मुकाबले के लिए, इतने बड़े शक्तिशाली दुश्मन से लड़ने के लिए हम कम्युनिस्टों के पास सबसे बड़ा हथियार है संगठन. संगठन छोड़ के हमारे पास दूसरा कोई हथियार नहीं है जिनमें हम उनका मुकाबला कर सकें. इसके लिए एकताबद्ध व अनुशासित एक कम्युनिस्ट पार्टी, एक ऐसा संगठन जो जरूरत पड़ने पर, वक्त आने पर एक आदमी की तरह, एक व्यक्ति की तरह खड़ा हो सके और उसकी सारी की सारी ताकतें एक आह्वान पर संघर्षों में कूंद पड़ें, अनुशासनबद्ध संगठन उसके अंदर यह भावना पैदा करे. यही तो ताकत है जिससे हम शासक वर्गों से लड़ सकते हैं, टिक सकते हैं और अपने संघर्षों को आगे बढ़ा सकते हैं. इसलिए हमारा जो बाहरी दुश्मन है, उसकी हमेशा यही कोशिश रहती है कि वह कैसे इस पार्टी के अंदर तोड़-फोड़ पैदा करे, कैसे इस पार्टी के अंदर लोगों में अविश्वास पैदा करे, उसके मजबूत पहलुओं के प्रति लोगों में अनास्था पैदा करे. इसके लिए जो भी वे कर सकते हैं, करते हैं. तोड़-फोड़ मचाते हैं. अभी आपने देखा ही, कैसे एक समानातंर आईपीएफ मुख्यमंत्री के घर में बैठकर बनाने की कोशिश हुई. क्योंकि वे जानते हैं कि हमारा क्या संगठन है और हमारे संगठन को भीतर से तोड़ देने की कोशिश में ऐसा करते हैं और इस तरह की तमाम तिकड़में होती रहती हैं. तो एक बात जरूर मैं कहूंगा कि हमारी पार्टी में 1974 से, जबसे हमारी पार्टी पुनर्गठित हुई है, तबसे आज तक यह तमाम कोशिशे जरूर हुई हैं हमारी पार्टी को तोड़ने की. लेकिन आजतक यह संभव नहीं हुआ है. हाल के समय में तो यह कोशिशें बड़े जोरदार ढंग से चलीं और दुनिया में ढेर सारे परिवर्तन होने के बावजूद यह सफलता उन्हें नहीं मिली है. सीपीआई-एमएल(लिबरेशन) आज भी एकताबद्ध है. और आईपीएफ या जो भी बनाने की कोशिश हुई थी उसका हश्र आप जानते हैं कि क्या हुआ. तो यह एक बहुत बड़ी चीज है जो प्रमाणित करती है कि हमारे पार्टी साथियों के बीच, हमारे साथियों में एक भावना है. वे इस बात को समझते हैं कि इस पार्टी को, इसकी एकता को बरकरार रखना जरूरी है. इसलिए यह संदेहवाद वगैरह के जो सवाल हैं यह शायद हमारी पार्टी में बहूत महत्वपूर्ण सवाल नहीं है. यह सच है कि बहुत-से मौकों पर बहुत-से सवाल आते हैं जो लोगों को कन्फ्युजन में डालते हैं, जानना चाहते हैं लोग. लेकिन हमारी पार्टी के अंदर एक ताकत है जो ताकत उसको एकताबद्ध कर पाती है. यह कोई बाहर से थोपी हुई एकता नहीं है. हमारी पार्टी के साथियों के अंदर जो ताकत है, वह उनके अंदर से ही आती है. इसलिए बिहार की स्थितियों में हमारी पार्टी के साथियों में संदेहवाद जैसी चीजें शायद ही कोई बहुत बड़ी परिघटना है. यहां-वहा ये जीजें हो सकती हैं. लेकिन खास तौर से मैंने बिहार में इतने सालों में यही देखा कि जब-जब पार्टी पर संकट आया है, हमारे सारे पार्टी कामरेड एकताबद्ध हो जाते हैं, इकट्ठा हो जाते हैं और संघर्ष करते हैं.

इसलिए यह कोई बड़ी बात नहीं है. पर अवश्य ही यह मुद्दा है. हम जब यह बात कहते हैं कि पार्टी पर आस्था रखो तो यह पार्टी पर ‘आस्था’ रखने की बात नहीं है. भरोसा, आस्था इस बात पर रखना है कि हमारी पार्टी है, उसका नेतृत्व है, उसकी केंद्रीय कमेटी है, संविधान है, हमारी कुछ मान्यताएं हैं, हमारे कुछ उसूल हैं और इस पर हमारी पार्टी चल रही है. कोई भी व्यक्ति अगर इन मान्यताओं, इन उसूलों, इन संविधान की नीतियों के खिलाफ जाएगा तो कोई भी हो, कुछ समय के लिए वह कुछ गड़बड़ियां भी पैदा कर सकता है, कुछ समस्याएं भी पैदा कर सकता है, लेकिन अंततः हमारी पार्टी की केंद्रीय कमेटी, इसकी नेतृत्वकारी संस्थाएं इस समस्या को दूर कर सकेंगी और इस पर काबू पाएंगी और इसका हल हम निकालेंगे. इस आस्था, इस भरोसा को एक चलायमान प्रक्रिया के बतौर हमें देखना होगा. आस्था, भरोसा का मतलब यह नहीं है कि हमारी पार्टी कभी कोई गलती नहीं करेगी, हमारे पार्टी नेतृत्व में से कभी कोई व्यक्ति कोई गलत काम नहीं करेगा या उससे नुकसान नहीं होंगे, इस तरह की कोई गांरटी हम नहीं कर सकते कि ऐसा होता ही नहीं. यह हो सकता है. पार्टी भी गलती करती है. पार्टी के अंदर के नेता भी गलती करते हैं और कभी-कभी बड़ी-बड़ी गलतियां भी करने लगते हैं. भरोसा और विश्वास इस बात का होना चाहिए कि हमारी पार्टी एक क्रांतिकारी पार्टी है. उसका व्यक्तित्व समग्रता में है, लोकतांत्रिक व्यक्तित्व है – कम्युनिस्ट नैतिकता है, कम्युनिस्ट मूल्यबोध, कम्युनिस्ट संविधान है – इस पर आधारित होकर वह चल रही है. कोई भी व्यक्ति अगर ऐसी गलतियां करेगा तो पार्टी इसको ठीक कर लेगी या पार्टी अगर गलतियां भी करेगी तो इन गलतियों से सीखकर वह बाद में अपने को दुरुस्त कर लेगी. आस्था और भरोसा इस बात का होना चाहिए. तो मैं समझता हूं कि इस आस्था, भरोसा की जरूरत है. इस मार्क्सवादी परिप्रेक्ष में आस्था, भरोसा रखना होगा और एकताबद्ध, अनुशासनबद्ध पार्टी हमें बनानी है.

यह माओ त्सेतुंग की जन्मशताब्दी का वर्ष है और माओ त्सेतुंग का एक खास योगदान रहा है. उन्होंने चीन में एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण किया था, जिस कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चीन जैसे विशाल देश में उन्होंने क्रांति संपन्न की थी. उस पार्टी के बारे में उनका कहना था, उसका नामकरण उन्होंने किया हुआ था – महान, गौरवशाली और सही कम्युनिस्ट पार्टी. हम माओ विचारधारा पर विश्वास करते हैं और हमारी भी यही कोशिश है कि हम अपनी पार्टी को एक महान, गौरवशाली और सही पार्टी में बदल दें. इसी के लिए हमारे सारे प्रयास हैं और माओ त्सेतुंग विचारधारा से हमें यही खास शिक्षा मिलती है. माओ के अपने देश में भी आपने खुद देखा होगा कि अक्सर ही वहां जब पार्टी में गलत विचार भर जाते थे तो जरूरत पड़ने पर बीच-बीच में शुद्धीकरण जैसा आंदोलन वहां चलाया जाता था. इसके जरिए पार्टी को हमेशा नया जीवन मिला और पार्टी ने असंभव को संभव कर दिखाया. माओ त्सेतुंग विचारधारा पर आधारित होकर ही हमारी पार्टी चल रही है. इसलिए माओ त्सेतुंग के जन्मशताब्दी वर्ष में मैं समझता हूं कि मजबूत पार्टी बनाना, एक महान, गौरवशाली और सही कम्युनिस्ट पार्टी बनाना हमारा एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है और यह शुद्धीकरण आंदोलन इसी दिशा में चलाना चाहिए.

(समकालीन लोकयुद्ध, 30 नवम्बर 1993 से, प्रमुख अंश)

साथियो,

इन्हीं पन्नों पर कुछ महीने पहले हमने कठिन चुनौतियों का मुकाबला करने की बात कही थी. दो विधायकों के दलत्याग, आईपीएफ में तथाकथित विभाजन व खिसकते जनाधार की खबरों से अखबार रंगे जा रहे थे. एक ही समय जनता दल सरकार के दो दलालों – एमसीसी और सीपीएम – की तरफ से हमारे खिलाफ हमले तेज कर दिए गए थे. पुलिस-प्रशासन व सामंतों का हमला तो जारी ही था. इस चौतरफा हमले के सामने, जिसका लक्ष्य था बिहार से हमारी पार्टी और हमारे आंदोलन का सफाया कर देना, हम निस्संदेह एक कठिन परिस्थिति का मुकाबला कर रहे थे. कठिनाइयों का दौर परीक्षा का भी दौर होता है, कुछ पार्टी विरोधी तत्व जहां खुलकर सामने आ गए, वहीं पार्टी साथी आपसी मतभेदों को भुलाकर घनिष्ठ रूप से एकताबद्ध हो गए. पार्टी को तोड़ने की सरकारी साजिश का कुल मिलाकर उल्टा ही परिणाम हुआ. पार्टी एकता और भी मजबूत हो गई.

हमारे बहादुर साथियों ने महेनत और लगन के साथ दलत्यागी विधायकों के इलाकों में पार्टी कार्य को नए सिरे से सजाने व गहरे जनकार्य पर जोर दिया. नतीजे के तौर पर बाराचट्टी हो या हिलसा, जगदीशपुर हो या बिक्रमगंज – इन चारों इलाकों में पार्टी ने अपने को फिर से मजबूती से स्थापित किया है और गद्दार विधायकों के खिलाफ जनअभियान तेज कर दिया है. हमारा नारा था – गद्दार विधायकों को खाद बनाकर संघर्ष की फसल फैलाना है. हम इस दिशा में बढ़े हैं और अपने अपराधों को ढंकने के लिए पुलिस की छत्रछाया में हमारे नेताओं के खिलाफ ऊलजलूल व्यक्तिगत गालीगलौज के अलावा इन गद्दारों के पास कोई और कार्यक्रम नहीं बचा है. हमारी खबरों के मुताबिक ये गद्दार बौखलाकर हमारे उच्चस्तरीय नेताओं की हत्या करने की योजना बना रे हैं.

अराजकतावादी गुटों के हमलों का मुहंतोड़ जवाब दिया गया है और अब वे तिलमिलाकर सीपीआई(एमएल) लिबरेशन को उखाड़ फेंकने, उसे नेस्तनाबूद कर देने की धमकियां देते फिर रहे हैं. हम अराजकतावाद को बिहार की परिस्थितियों में एक सामाजिक-राजनीतिक परिघटना मानते हैं. हम यह भी मानते हैं कि यहां लंबे समय से इन गुटों का अस्तित्व है और रहेगा भी. राजनीतिक संघर्षों के एक दौर के बाद ही, जुझारू जन आंदलनों का निर्माण करके ही इनका खात्मा किया जा सकता है. इसलिए किसी सशस्त्र टकराव के जरिए इन्हें उखाड़ फेंकने या नेस्तनाबूद कर देने की बात न हम सोचते हैं और न इसपर यकीन ही करते हैं. हमारा प्रतिरोध सिर्फ आत्मरक्षात्मक है. वरना हम चाहते हैं कि जो भी समस्याएं हैं उनका निपटारा बातचीत के जरिए किया जाए. और चूंकि अर्द्ध सामंती समाज में अराजकतावादी संगठन भी एक हद तक सामंतवाद विरोधी कार्यवाहियों में शामिल रहते हैं, इसलिए स्थानीय स्तरों पर इनके साथ संयुक्त कार्यवाहियों से भी हमें परहेज नहीं है. लेकिन फिलहाल बिहार में ये संगठन हमें सशस्त्र तरीकों से खत्म कर देने पर तुले हुए हैं. इसलिए यह जरूरी हो गया है कि हम इनके हमलों का मुंहतोड़ जवाब दें. हमें याद रखना होगा कि अराजकतावादी संगठन अंततः क्रांति में तोड़-फोड़ मचानेवाले और कम्युनिस्ट नेताओं व कार्यकर्ताओं की राजनीतिक हत्याओं को अंजाम देनेवाले सिरफिरे आतंकवादी गिरोहों में और पुलिस के दलालों में बदल जाते हैं. दुनिया का इतिहास यही बतलाता है. बेशक इस प्रक्रिया में इसके अंदर के अर्धराजनीतिक व राजनीतिक ईमानदार तत्व अलग होते जाते हैं और क्रांतिकारी जन आंदोलनों से जुड़ते जाते हैं.

सीपीएम ने हमारे खिलाफ कुस्तापूर्ण प्रचार अभियान में आरोप लगाया है कि हमने अचानक जमीन के राष्ट्रीयकरण का नारा देकर संयुक्त भूमि संघर्ष से अपने पांव खींच लिए हैं. भारी हैरतअंगेज बात है! राष्ट्रीयकरण के सवाल पर हम लंबे अरसे से चर्चा कर रहे हैं, वर्कशाप कर रहे हैं, पार्टी सम्मेलनों में प्रस्ताव ले रहे हैं. इसमें अचानकवाली कोई बात ही नहीं है. इससे भी बड़ी बात तो यह है कि इस नारे के साथ निचले स्तरों पर चलनेवाले भूमि संघर्षों को रोक देने का सवाल भी आखिर कहां से पैदा हो सकता है. हकीकत भी यही है कि तमाम जिलों में हमारे साथी खून की कीमत पर बहादुरी के साथ भूमि संघर्षों में हमेशा डटे रहे हैं. झूठ की पराकाष्ठा पर जाकर उन्होंने हम पर आरोप लगाया कि दरभंगा में हम भूपतियों के पक्ष में खड़े होकर भूमिहीन-गरीब किसानों के भूमि संघर्ष का विरोध कर रहे हैं. यह एक सामान्य ज्ञान की बात है कि दरभंगा व अन्य सब जगह हमारा सारा का सारा जनाधार भूमिहीन-गरीबों में ही है. भूपति भला हमारी पार्टी के साथ आएंगे ही क्यों? सीपीएम सत्ता की पार्टी है, बिहार में सरकार का दलाल संगठन है, इसलिए एक आम आदमी भी समझ सकता है कि भूपतियों के लिए सीपीएम के साथ रहना ही तो ज्यादा मुनासिब है. जमीनी सच्चाइयों को सफेद झूठ में बदलते हुए सीपीएम के बड़े-बड़े नेता भी लगातार यही झूठ बोले जा रहे हैं और एक सामंती लंपट तत्व की हत्या का बहाना बनाकर, जिसे वे अपना पार्टी सदस्य बताते हैं – सच भी है, अब ऐसे लोग तो उनके पार्टी सदस्य होंगे ही – उन्होंने दरभंगा पुलिस की मुखबिरी करते हुए हमारी पार्टी के नेताओं को जेल भिजवा दिया. सीपीएम की इन खेत मजदूर-गरीब किसान विरोधी नीतियों को राम-राम कर हम जो राजनीतिक-विचारधारात्मक संघर्ष चला रहे हैं, उसकी वजह से रांची, दरभंगा, नवादा जैसे जिलों में उसका पुराना जनाधार क्रमशः हमारी ओर आकर्षित हो रहा है.

सबसे बढ़कर हमारे छात्रों-नौजवानों ने रोजगार के सवाल पर एक राज्यव्यापी जुझारू आंदोलन की शुरूआत की. पटना में मुख्यमंत्री को घेरने का अभियान व अरसे बाद बिहार बंद में मिली सफलता ने फिर से 1974 के आंदोलन की याद ताजा कर दी है. इसी के बाद किसान सभा ने पटना में दसियों हजार किसानों की जुझारू गोलबंदी करके भूमि सुधार के सवाल को राजनीतिक एजेंडे में ला खड़ा किया है. आज से बीस वर्ष पहले के 1974 के जनउभार से अगर हम अलगाव में थे तो आज दावे के साथ यह बात कही जा सकती है कि बिहार के आर्थिक-सामाजिक विकास व राजनीतिक व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण के लिए होने वाले किसी राज्यव्यापी आंदोलन का नेतृत्व हमारी पार्टी ही करेगी.

तकरीबन 20,000 लोगों की भागीदारी के साथ रांची में झारखंड के लिए समानांतर विधानसभा पर हमारी पहलकदमी भी नए स्तर के 1974 आंदोलन में एक नया आयाम जोडेगी. क्योंकि झारखंडी जनता की लोकतांत्रिक मांग को अपने में समाहित किए बगैर बिहार की राजनीतिक व्यवस्था का लोकतांत्रीकरण अधूरा ही रह जाएगा.

भूमि सुधार व झारखंडी जनता की स्वायत्तता लंबे समय से बिहार के लोकतांत्रिक आंदोलन के प्रमुख मुद्दे रहे हैं. 1974 की संपूर्ण क्रांति की धारणा में इन मुद्दे को गौण कर दिया गया था. पर क्रांति तभी संपूर्ण कही जा सकती है जब ये बुनियादी मुद्दे उसकी धुरी बनें, जब सबसे दलित-पीड़ित समुदाय उसके केंद्र में हो. इन्हीं धारणाओं के तहत हम आज वामपंथी नेतृत्व व संपूर्ण क्रांति की बातें कह रहे हैं और इसी के साथ वास्तविक कार्यवाहियों में भी उतर रहे हैं.

मुस्लिम जनता में वामपंथ के प्रति बढ़ते रुझान को संस्थाबद्ध रूप देने की कोशिश में इंकलाबी मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन किया गया है. बिहार सामंतवाद विरोधी संघर्षों का केंद्र है. इन संघर्षों का असर मुस्लिम जनसमुदाय पर भी पड़ रहा है. इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि मुस्लिम समुदाय में सबसे प्रगतिशील धारा की आधारभूमि बिहार ही बने.

हमारी यह तमाम कोशिशें, ये चौतरफा पहलकदमियां तभी कारगर हो सकती हैं, जबकि साथ ही साथ पार्टी को उन्नत विचारधारा से लैस किया जाए और एकीकृत व अनुशासित पार्टी संगठन का निर्माण किया जाए. इसके अभाव में सारी की सारी कोशिशें बेकार, यहां तक कि नुकसानदेह साबित हो सकती हैं तथा अलग-अलग जन संगठनों, तबकों के अपने-अपने संकीर्ण स्वार्थ में पार्टी ताकतों को टुकड़ों-टुकड़ों में बिखेर दे सकती हैं. बिहार राज्य कमेटी ने इसीलिए एक शुद्धीकरण अभियान की शुरूआत की है और मैं तमाम पार्टी कतारों का आह्वान करता हूं कि वे इसके तात्पर्य को गहराई से समझें, इसमें सक्रियता से हिस्सा लें और पार्टी के अंदर मौजूद तमाम गैरसर्वहारा प्रवृत्तियों व आदतों के खिलाफ जोरदार संघर्ष चलाएं. आज अगर विचारधारात्मक तौर से एक मजबूत और एकीकृत पार्टी हमारे पास होगी तो कल अवश्य ही हमारा होगा.

(बिहार विधानसभा चुनाव 1990 के अवसर पर जारी)

दोस्तो!

फिर एक बार चुनाव का नगाड़ा बज चुका हैं. वही जानी-मानी पार्टियां, जाने-माने झंडे, जाने-माने चेहरे फिर एक बार नए-पुराने नारों के साथ चुनावी दंगल में उतर चुके हैं.

राम से लेकर रोटी तक के शोरगुल माइकों की टकराती चीखों के बीच एक आम मतदाता के लिए कुछ तय कर पाना ही मुश्किल लगता है. मगर थोड़ी देर इत्मीनान से बैठिए और ठंडे दिमाग से सोचिए कि इस सारे शोरगुल का मतलब क्या है, कौन क्या कह रहा है और क्यों कह रहा है. अपना वोट किसी को देने से पहले अच्छी तरह सोच लेने में भला हर्ज ही क्या है!

एक आम मतदाता वैसे तो एक अकेला आदमी लगता है; लेकिन वह किसी-न-किसी वर्ग, जाति या धार्मिक समुदाय का हिस्सा होता है. आप शहरी या देहाती मजदूर हैं, गरीब या मंझोल किसान हैं, किसी पेशे से जुड़ गए मध्यमवर्गी हैं या व्यापारी हैं – अर्थात् किसी-न-किसी वर्ग से आते हैं. आप ब्राह्मण, कायस्थ, राजपूत, भूमिहार, यादव, कुर्मी, कोइरी, हरिजन – यानी किसी-न-किसी जाति के हैं. आप हिंदू, मुसलमान, या और किसी धार्मिक समुदाय के हैं. सारी-की-सारी राजनीतिक पार्टियां आपकी इसी वर्ग, जाति धर्म की चेतना पर अपील कर रही हैं और आपका वोट हासिल करने की जीतोड़ कोशिश कर रही हैं. सारे शोरगुल का, राम से लेकर रोटी तक के नारों का यही असली रहस्य है.

बिहार में चूंकि लोगों के सामाजिक जीवन और सोच में जाति-चेतना ही हावी है; इसलिए किसी राजपूत के प्रधानमंत्री बनने, किसी जाट के उपप्रधानमंत्री बनने, किसी यादव के मुख्यमंत्री बनने का सब्जबाग दिखाकर जातियों के बीच जोड़-तोड़ बैठाकर जनता दल आपका वोट पा जाता है, आपकी हिंदू धार्मिक चेतना को भड़काकर भाजपा राम-मंदिर के नाम पर आपका वोट बटोर लेती है. सामाजिक वर्ग-चेतना के पिछड़े रहने के कारण वामपंथियों को सबसे कम वोट मिलते हैं. उल्टे, सीपीआई-सीपीएम जैसे वामपंथी ज्यादा वोट बटोरने की लालसा में जात और यहां तक कि धार्मिक भावनाओं को भी उभारने में शरीक हो जाते हैं. इस तरह, हर चुनाव बिहार के पिछड़ेपन और पिछड़ी मानसिकता पर ही मुहर लगाता है – प्रगति और विकास के तमाम वायदों के बावजूद, हर चुनाव बिहार को पीछे धकेलता जाता है. धार्मिक विभाजन चुनावी हथकंडों की बदौलत धार्मिक उन्माद में बदल जाते हैं; और जातीय विभाजन और भी कट्टर होते जाते हैं. नए-पुराने सामंती सरगनों, माफिया गिरोहों, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों, गुंडे-बदमाश-रंगदारों और दलालों की जो पूरी जमात बिहार के सामाजिक जीवन पर छाई हुई है वही जमात जाति-धर्म  का ठेकेदार बनकर चुनावों में सरेआम नंगा नाचने लगती है. आम जनता से जैसे वे हर चीज छीन लेते हैं, उसी तरह चुनावों में झांसेबाजी करके, और नहीं हुआ तो बंदूक के बल पर वे आपका वोट भी आपसे छीन लिया करते हैं. आम मतदाता कांग्रेस, फिर जनता दल, फिर कांग्रेस, फिर जनता दल, फिर ... इसी गोरखधंधे में फंसकर रह जाता है. उसके लिए कहीं कुछ नहीं बदलता.

हमारी पार्टी इंडियन पीपुल्स फ्रंट की चुनावों में शिरकत मतदाताओं को इसी गोरखधंधे से निकालने के लिए है -- आम जनता को एक नई राह की ओर, एक नए बिहार की ओर ले जाने के लिए है.

इसी उद्देश्य से हमने पिछले लोकसभा-चुनावों में शिरकत की थी; और कांग्रेस, जनता दल, भाजपा, सीपीआई, सीपीएम आदि सभी पार्टियों के तमाम विरोधों के बावजूद अपने बलबूते पर हमने आरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीता और कुल मिलाकर 7 लाख 40 हजार मत प्राप्त किए.

विधानसभा चुनावों में फिर एक बार हम अकेले अपने बलबूते पर 86 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. हमने फिर एक बार पुरजोर कोशिश की, कि सीपीआई के साथ हमारा कोई राजनीतिक समझौता हो – कोई तालमेल बने. हमने सीपीआई के नेताओं से बार-बार कहा कि कुछ सीटों के मोह के लिए, सरकार में दो-एक मंत्री पद पाने के लिए जनता दल के पीछे-पीछे घिसटना छोड़िए. आप एक वामपंथी पार्टी हैं, अपने को कम्युनिस्ट पार्टी कहते हैं, वामपंथी राजनीति कीजिए. हम और आप मिलकर बिहार की राजनीति को नया मोड़ दे सकते हैं; वामपंथी आंदोलन को पूरे हिंदी क्षेत्र में एक नई छवि दे सकते हैं; आइए, हम दोनों मिलकर एक नई शुरूआत करें. पिछले चुनावों ने यह साबित ही कर दिया है कि जनता दल पर निर्भर रहकर भाजपा के विकास को भी रोका नहीं जा सकता. हम दोनों मिलकर सम्मानजनक संख्या में सीटें भी जीत सकते हैं और भाजपा के खिलाफ एक मजबूत दीवार भी खड़ी कर सकते हैं. आप इससे पहले लंबे अरसे तक कांग्रेस के पीछे घिसटते रहे. फायदा क्या हुआ? अब बड़ी मुश्किल से, बड़ी कीमत चुकाकर आप किसी तरह कांग्रेस से थोड़ा-बहुत पीछा छुड़ा पाए हैं. जनता दल के पीछे-पीछे घिसटने की फिर वही कीमत आपको चुकानी पड़ेगी. आइए, हम आप मिलकर विधानसभा में एक वामपंथी विपक्ष की भूमिका निभाएं; जनता दल की नई सरकार को बेशर्त समर्थन की जगह मुद्दा-दर-मुद्दा समर्थन की नीति पर चलें; और विधानसभा के बाहर, आइए, हम जनआंदोलनों को आगे बढ़ाएं.

लेकिन, सरकार में हिस्सा लेने के सपनों में मशगूल सीपीआई के नेताओं ने हमारी एक न सुनी. उल्टे, अपनी कतारों को बेवकूफ बनाने के लिए उन्होंने हमारे विचारों को तोड़-मरोड़कर पेश किया. हम जहां एक वाम विपक्ष की बात कर रहे थे, सरकार पर जनदबाव कायम करने की बात कर रहे थे; वहां उन्होंने कहना शुरू किया कि आईपीएफ कह रहा है चलो, आईपीएफ और सीपीआई मिलकर सरकार बनाएं. हमारे नाम पर यह बेवकूफी भरी बात अपने मन से उन्होंने खुद कह डाली और फिर लगे इसका मजाक उड़ाने. हमने कहा कि जनाब, मजाक उड़ाना है तो खूब उड़ाइए; लेकिन यह किसी राजनीतिक गंभीरता का परिचय नहीं है. उम्र के साथ-साथ यह आपकी बुद्धि के सठिया जाने का ही नतीजा है.

अब देखिए उनका अपना कार्यक्रम. जनता दल, सीपीआई और झारखंड मुक्ति मोर्चा की मिली-जुली सरकार वे बनाना चाहते हैं. यही उनकी नजर में सबसे व्यावहारिक और यथार्थ स्थिति है. मगर न तो यह जनता दल की मान्यता है, न झारखंड मुक्ति मोर्चा की. एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि बिहार की किसी भी सरकार में झारखंड मुक्ति मोर्चा के शामिल होने का मतलब है अलग झारखंड प्रांत की मांग को त्यागना – और ऐसा वे निश्चय ही नहीं करने जा रहे हैं. जहां तक जनता दल की बात है, अव्वल तो वह अकेले सरकार बनाना चाहेगा या फिर केंद्रीय सरकार की तर्ज पर सीपीआई और भाजपा के समर्थन से. हर हालत में उसे समर्थन देना सीपीआई की मजबूरी है – यहां तक कि अगर वे हरियाणा की तर्ज पर भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाएं, तब भी. सच्चाई यही है कि सीपीआई क्रमशः जनता दल ही क्यों, भाजपा के साथ भी घोषित-अघोषित रिश्ता बनाती जा रही है. अगर आपने ख्याल किया हो तो देखेंगे कि आडवाणी साहब कह रहे हैं, ‘सीपीआई-सीपीएम के साथ कई मुद्दों पर हमारी समानता है. पंजाब के मसले पर जनता दल के बजाए हमारी एकता सीपीआई-सीपीएम से ज्यादा है.’ अभी उस दिन राजेश्वर राव – सीपीआई के महासचिव जी ने कहा कि ‘भाजपा के साथ कई सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर हमारी समानता है और एक हद तक हम एक साथ चल सकते है.’ एक साथ चलिए, जरूर चलिए साहब, नरक के रास्ते पर अगर कोई चलना ही चाहे, तो भला हम उसे कैसे रोक सकते हैं!

लेकिन हम वामपंथी कतारों से जरूर अपील करेंगे कि जनता दल, भाजपा और सीपीआई-सीपीएम के इस नए गठजोड़ के खतरे को पहचानिए; यह वामपंथी आंदोलन का सर्वनाश कर देगा, सांप्रदायिकता के खिलाफ हमारी लड़ाई को कमजोर कर देगा, जन संघर्षों और जन आंदोलनों की वामपंथी राजनीति का सत्यानाश कर देगा.

हमें खुशी है कि बिहार में सरकारी कर्मचारियों की लड़ाकू शक्तियों – कटिहार, दरभंगा, मुंगेर, लोहरदग्गा, गिरिडीह और नाना जगहों से सीपीएम के ईमानदार कार्यकर्ताओं और नेताओं – ने इस खतरे को पहचाना है और सैकड़ों की संख्या में सीपीएम छोड़कर हमसे आ जुड़े हैं. इसी तरह राज्य के करीब-करीब हर जिले से सीपीआई का जनाधार, उसके वामपंथी कार्यकर्ता और नेता हजारों की संख्या में हमसे जुड़े हैं. दिन-ब-दिन यह साबित होता जा रहा है कि बिहार की वामपंथी राजनीति में सीपीआई और सीपीएम अतीत की ताकतें होती जा रही हैं; वामपंथ का भविष्य अब निश्चित रूप से आईपीएफ ही है.

वामपंथी विपक्ष की हमारी धारणा और जनता दल-सीपीआई-झारखंड मुक्ति मोर्चा की मिली-जुली सरकार की सीपीआई की धारणा के बीच कौन-सी धारणा व्यावहारिक है, कौन-सी धारणा जनशक्ति के उत्थान के स्वार्थ में है इसका फैसला हम आप मतदाताओं पर छोड़ते हैं.

बहरहाल, सीपीआई के इस मौकापरस्त रवैये की वजह से हमें मजबूर कर दिया गया है कि हम अकेले चुनाव लड़ें. हमने यह चुनौती स्वीकार भी कर ली है – कारण, किसी भी सूरत में हम अपने उसूलों से समझौता नहीं कर सकते.

हमारे देश के संसदीय जनवाद को दुनिया का सबसे बड़ा जनवाद कहा जाता है और दावा किया जाता है कि यहां हर पार्टी को चुनाव लड़ने के समान अवसर दिए जाते हैं. यह सब सरासर झूठ है. आइए देखें, कि कैसे हमारी पार्टी को – दबे-कुचले लोगों की पार्टी को – एक असमान लड़ाई लड़ने को मजबूर कर दिया गया है.

हमारे एक उम्मीदवार वीरेंद्र विद्रोही को, जो कि एक संस्कृतिकर्मी हैं, दो साल से जेल में बंद करके रखा गया है. भगवत झा आजाद के मुंह पर कालिख पोतने के ‘जुर्म’ में आज तक उन्हें जमानत भी नसीब नहीं हुई. देश भर के जागरूक बुद्धिजीवियों, जनवादी अधिकार रक्षा संगठनों की सारी मांगों को ठुकराते हुए सरकार आज तक उन्हें जेल में बंद किए हुए है. आरा, सहार और हिलसा क्षेत्र के हमारे उम्मीदवारों को झूठे मुकदमों में फंसाकर जेलों में बंद करके रखा गया है. हमारे और कई उम्मीदवारों के नाम फर्जी केस लादे गए हैं और किसी भी समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया जा सकता है. हमारे एक साथी दो साल से इसीलिए जेल में हैं कि उनका नाम ‘मजदूर किसान संग्राम समिति’ के नेता ‘अरविन्द’ से मिलता है. हजारों अपील के बावजूद न पुलिस अफसरों के कान पर जूं रेंगती है और न ही जज साहबान के. आप जानते हैं कि हमारा कोई भी उम्मीदवार अपराधी चरित्र का नहीं है. जनता के संघर्षों में आगे रहकर नेतृत्व देना ही इनका गुनाह है. ये सभी राजनीतिक बंदी हैं.

इसी तरह सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) – जो हमारा बिरादराना संगठन है – उसके नेताओं, कार्यकर्ताओं और योद्धाओं पर दुनियाभर के वारंट हैं. उनका अपराध यही है कि बिहार के क्रांतिकारी बदलाव के लिए वे सबसे दृढ़ व निर्भीक राजनीतिक लाइन के सूत्रधार हैं – दो दशकों से अपनी जान की बाजी लगाकर, सैकड़ों वीरों की शहादत देकर, उन्होंने बिहार के दबे-कुचले लोगों की आवाज को देश-दुनिया में मर्यादा दिलवाई है.

दूसरी ओर समाज के सारे सड़े-गले तत्व, खूंखार माफिया व गुंडा सरदार – खून, डकैती, बलात्कार, रिकार्डतोड़ भ्रष्टाचार, लूटपाट व जनसंहार के बावजूद – छुट्टे सांड़ की तरह खुला घूम रहे हैं. वे या तो गिरफ्तार ही नहीं होते या फिर किसी ‘अलौकिक शक्ति’ की बदौलत दूसरे ही दिन जेल से बाहर आ जाते हैं.

आप जानते हैं, बिहार में चुनाव बंदूक के बल पर लड़े जाते हैं. सामंत, माफिया और गुँडा-सरदार लाइसेंसी-गैरलाइसेंसी हजारों बंदूकों से लैस हैं, जिनके बल पर गरीबों-हरिजनों का वोट लूटा जाता है. पिछले लोकसभा चुनाव में आरा क्षेत्र के बिहटा गांव में प्रतिरोध की कोशिश में 17 गरीबों को – जिनमें बूढ़े, बच्चे और महिलाएं भी शामिल थीं – गोलियों से भून दिया गया.राजपूती शासन का क्या नजारा पेश किया राणा प्रताप और कुंवर सिंह सरीखे वीरों का वंशज होने का दावा करनेवाले इन कायरों ने! शोकसभा में हमारे सांसद पर भी गोलियां चलाकर उनकी हत्या की साजिश की गई. सारा प्रशासन और पुलिस अफसर इन गुंडों के सरगने ज्वाला सिंह के हाथ की कठपुतली भर हैं. किसी भी राजनीतिक पार्टी ने जनसंहार के इस मसले को उठाने की जरूरत ही नहीं समझी. अपने को कम्युनिस्ट कहनेवाली सीपीएम ने तो हद ही कर दी. उसने अपने हमले का निशाना सामंती गिरोह को नहीं, बल्कि उल्टे हमें ही बना डाला.

बंदूक की गोलियों, पैसे की ताकत और पुलिसिया आतंक के जिस माहौल में आज बिहार की आम जनता जी रही है, उसी माहौल में हमें भी चुनाव लड़ना पड़ रहा है. भारतीय संसदीय जनवाद का खोखलापन दिन-ब-दिन जगजाहिर होता जा रहा है.

जनता की जुझारू चेतना और संगठित प्रतिरोध ही हमारी ताकत है, जिसके बल पर हमने चुनाव में सभी पार्टियों के सामने चुनौती खड़ी कर रखी है और, आप क्या धार्मिक जुनून की ताकतों को वोट देंगे, जो हिंदुओं-मुसलमानों को आपस में लड़ाकर आम जनता की ताकत को कमजोर करना, और इस तरह, अपना उल्लू सीधा करना चाहती हैं? आप क्या जातीय उन्माद की ताकतों को वोट देंगे, जो मेहनतकश जनता की ताकत को बांटकर अपनी-अपनी जाति के सामंतों और कुलकों का स्वार्थ पूरा करना चाहती हैं; जो बदमाशों और लंपटों को जातीय नेताओं के रूप में स्थापित करना चाहती हैं? आप क्या ऐसे मौकापरस्त वामपंथियों को वोट देंगे, जो कभी कांग्रेस, कभी जनता दल और कभी भाजपा के पीछे-पीछे चलते हैं; जो धार्मिक और जातीय भावनाओं की बाढ़ में समा जाते हैं; जिनकी ताकत जन आंदोलनों में नहीं बल्कि सरकार और प्रशासन की जी हुजूरी में है?
ठंडे दिमाग से सोचिए और फैसला कीजिए, दोस्तों!

आपका वोट आपकी शान, आपकी इज्जत, आपका अधिकार, आपका हथियार है. अपना वोट बरबाद न करें, अपना वोट किसी को छीनने न दें. अपने वोट का इस्तेमाल करें उन सारी काली ताकतों को शिकस्त देने के लिए जो बिहार के पिछड़ेपन के जिम्मेवार हैं. आपका वोट बने एक नए बिहार के लिए – एक नई राह के लिए – आपके संकल्प का प्रतीक!

क्रांतिकारी अभिनंदन और लाल सलाम के साथ.

घोषणापत्र

धीमा और विकृत औद्योगिक विकास; माफिया गिरोहों व सामंती सरदारों का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक जीवन पर वर्चस्व; क्रूर पुलिसिया ढांचा जो न्यूनतम जनवादी अधिकारों के हनन के लिए देश भर में कुख्यात है; खेतमजदूरों, ठेका व कैजुअल मजदूरों का न्युनतम मजदूरी से भी वंचित होना तथा गरीब व मंझोल किसानों की खेती-बाड़ी की दुर्दशा; और महिलाओं का मध्ययुगीन शोषण – यह वो पांच बुनियादी समस्याएं हैं, जो बिहार की गिनती भारत के पिछड़े और असभ्य राज्य के रूम में कराती हैं. नए बिहार के लिए हमारा संघर्ष इन्हीं समस्याओं के खिलाफ केंद्रित है. संघर्ष के अन्य सारे रूपों के अलावा चुनाव भी हमारे लिए इसी संघर्ष को आगे बढ़ाने का एक साधन, अवश्य ही महत्वपूर्ण साधन है.

सरकार कोई भी बने, हम वादा करते हैं :

(1) बिहार के औद्योगिक विकास के स्वार्थ में केंद्र सरकार पर दबाव डालने, पूंजी विनियोग में स्थानीय व युवा उद्यमियों को प्राथमिकता देने, अपनी सांस्कृतिक अस्मिता बरकरार रखते हुए आदिवासी जनसमुदाय को आधुनिक विकास में हिस्सेदार बनाने के लिए हम हमेशा संघर्षरत रहेंगे.

(2) सामंती सरदारों व माफिया गिरोहों के खिलाफ कार्यवाही व तमाम सेनाओं को भंग करने व उनके हथियार जब्त करने की मांग पर संघर्ष जारी रखेंगे.

(3) जनता के जनवादी अधिकारों के लिए हमेशा संघर्षरत रहेंगे. सीपीआई(एमएल) के नेताओं, कार्यकर्ताओं और योद्धाओं के खिलाफ सारे वारंटों की वापसी, राजनीतिक बंदियों की रिहाई, जन संघर्षों में शामिल कार्यकर्ताओं के खिलाफ तमाम मुकदमों की वापसी, जनवादी संगठनों पर लगे प्रतिबंधों को हटाने, दोषी पुलिस अफसरों को कड़ी सजाएं देने और पुलिस के दमनात्मक ढांचे में जनवादी सुधारों के लिए हम संघर्ष करते रहेंगे.

(4) खेत मजदूरों को न्यायोचित मजदूरी, गरीब व मझोले किसानों, बटाईदारों को बेहतर जमीन व खेतीबाड़ी की उन्नत व्यवस्था, ठेका व कैजुअल मजदूरों की स्थाई नियुक्ति की मांगों पर हमारा संघर्ष जारी रहेगा.

(5) महिलाओं पर शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ हम हमेशा अपनी आवाज बुलंद करेंगे.

(समकालीन लोकयुद्ध, 15 मई 1993 से, प्रमुख अंश)

एक समय था जब बिहार में, आंध्र में, हर जगह हमारी पार्टी को धक्का लगा था और लग रहा था कि अब शायद क्रांतिकारी आंदोलन हिंदुस्तान में खत्म हो गया. ऐसा ही समय था जब चारों ओर निराशा छाई हुई थी. हमारे संगठन के ही बहुत सारे लोग उस समय हमें छोड़कर पार्टी के विरोध में चले जा रहे थे. फिर भी कुछ साथी डटे हुए थे. उस समय भोजपुर में एक मशाल जली थी. एक लड़ाई शुरू हुई थी और उसी लड़ाई ने धीरे-धीरे सारे देश में हमारी पार्टी को स्थापित किया और क्रांतिकारी आंदोलन की एक नई धारा कायम हुई और आज आप जानते हैं कि हमारी पार्टी कहां खड़ी है. इसलिए हमारी पार्टी को, यहां तक कि भोजपुर की पार्टी के रूप में ही लंबे समय तक जाना जाता था.

इसबार जब 22 अप्रैल का प्रोग्राम आया. मेरा बुलावा बहुत से जगहों से था. लेकिन जब मैंने सुना कि आपके यहां भोजपुर में भी मीटिंग होने जा रही है तो मैंने कहा कि मैं भोजपुर ही जाऊंगा. क्योंकि पार्टी तो भोजपुर में ही है. यह स्थिति लाने के लिए हमारे बहुत से साथियों ने अपना जीवन दिया है, शहीद हुए हैं. उनकी याद हम अपने दिल में संजोए हुए हैं और उनके बताए रास्ते पर हमेशा चलेंगे. आज 22 अप्रैल हमारे लिए यही शपथ लेने का दिन है. आज आप देख रहे हैं कि सांप्रदायिकता का खतरा पूरे देश पर छाया हुआ है. सारा देश सांप्रदायिकता के इस खतरे से लड़ रहा है, जूझ रहा है. हम यह मानते हैं कि सांप्रदायिकता से राजनीतिक तौर पर लड़ाई लड़ी जाए. इसीलिए जब यहां तक कि भाजपा की राजस्थान, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश की सरकारें गिरा दी गई तो हमारी पार्टी ने कहा कि यह तरीका सही नहीं है, हमें राजनीतिक चैलेंज देना चाहिए. जब 25 फरवरी को उनकी दिल्ली रैली को प्रतिबंधित किया गया तो हमने कहा कि हम इसके पक्ष में नहीं हैं. गैर जनवादी तरीकों से आप भाजपा से नहीं लड़ सकते. उनका राजनीतिक तौर पर मुकाबला करना चाहिए. हमारे कुछ लोग कहेंगे, आप कह तो रहे हैं किंतु आप राजनीतिक मुकाबला कर कहां रहे हैं? ठीक है, बनारस में, जिसे अयोध्या के बाद भाजपा अपना अगला निशाना बनाना चाहती थी, राजनीतिक तौर पर हम उनके चैलेंज के मुकाबले खड़े हुए. जिस रोज उनकी रैली थी, हमने कहा कि हम भी उसी दिन रैली करेंगे. उन्होंने कहा कि हम सड़कों पर उतरेंगे और आईपीएफ वालों को रैली नहीं करने देंगे. हमने कहा कि हम करेगें. हमारी रैली हुई और  उनका एक भी आदमी वहां नजर नहीं आया.

इसके बाद इलाहाबाद में चुनाव हुआ. उस चुनाव में हमारे छात्र लड़े और भाजपा के उम्मीदवार को हमारे छात्र नेता ने काफी बुरी तरह हरा दिया. मंडल वगैरह के समय में छात्रों का बंटवारा हो गया था. हमारे छात्र आंदोलन ने रोजगार के सवाल पर उन्हें फिर से एकताबद्ध किया है और हमने भाजपा को वहां शिकस्त दी है. उसी तरह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आरएसएस का गढ़ रहा है. हमेशा से हम भी वहां थे. वहां भी हमारी लड़ाई शुरू हुई. आरएसएस ने अपनी सारी ताकत लगा दी. हमारे खिलाफ सारी पार्टीयां वहां खड़ी थीं. वहां जनता दल का भी उम्मीदवार खड़ा था. मुलायम सिंह का भी उम्मीदवार खड़ा था. सीपीआई, सीपीएम वालों का भी खड़ा था. हम अकेले लड़ रहे थे. वह लड़ाई भी हमने जीत ली. चुनाव हमने जीत लिया. हमको दलितों, पिछड़ों ने भी वोट दिया, माइनरिटी ने भी वोट दिया और हर जाति से आने वाले हर अच्छे छात्र हमारे छात्र नेता के पक्ष में खड़े हुए. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में करीब 25-30 साल बाद पहली बार लाल झंडा छात्रसंघ भवन पर फहराया.

हम भाजपा के साथ राजनीतिक तौर पर ही लड़ाई लड़ना चाहते हैं. इस लड़ाई में भाजपा को हमने उसके गढ़ में ही, छोटे पैमाने पर ही सही, उसे शिकस्त दी. यहां भी हम उससे इसी तरह लड़ना चाहते हैं. लेकिन हम यहां देख रहे हैं कि भोजपुर में हो या दूसरी जगहों पर हो, पुरानी किस्म की सामंती ताकतें हैं, इनकी पुरानी निजी सेनाए हैं, उन सारी ताकतों में भाजपा अपना समर्थन एकट्ठा कर रही हैं. हमारे साथ इनकी लंबे समय तक जमीन के सवाल पर जो लड़ाई चलती रही है, उस लड़ाई में सामंती गुंडों के साथ भाजपा आ खड़ी हुई है. वे हमारे लोगों की हत्या कर रहे हैं. हम उनसे यह कहना चाहते हैं कि हम राजनीतिक तौर पर ही तुमसे लड़ना चाहते हैं. लेकिन अगर तुम समझते हो कि भोजपुर में इतने सालों से लड़ाई लड़ने के बाद जनता ने जो अपना हक बनाया है, उसको तुम फिर पीछे धकेल सकोगे तो तुम इस मुगालते में मत रहो. अब वह पुराना समय कभी नहीं लौटेगा. इस बात को तुम्हें समझ लेना चाहिए. अगर बंदूक से तुम्हें लड़ाई लड़ने का शौक है, तो तुम्हें यह भी जान लेना चाहिए कि भोजपुर सूरत, बंबई और अहमदाबाद नहीं है. भोजपुर भोजपुर है. यहां बंदूक का जवाब बंदूक से दिया जाता है.

बिहार में लालू यादव जी की सरकार चल रही है. कहते हैं, सामाजिक न्याय की सरकार है. सामाजिक न्याय! जिस समय लालू यादव पटना में सड़कों की राजनीति किया करते थे, सड़क छाप राजनीति करते थे, उसके पहले से भोजपुर में, वह लड़ाई बिहार के गांवों में, दलितों, पिछड़ों की सामाजिक न्याय की लड़ाई, कौन लड़ रहा था? उसे हमारी पार्टी लड़ रही थी. उस समय ये लालू यादव पटना में सड़क छाप राजनीति करते थे और गांवों में, झोपड़ियों में, सबसे ज्यादा गरीबों और दलितों के बीच रहके सामाजिक न्याय की लड़ाई, सामाजिक मर्यादा की लड़ाई और उनके लिए अपना खून-पसीना बहाना यह हमारी पार्टी बहुत पहले से करती आई है. अचानक ये सब सामाजिक न्याय के दावेदार बन गए और आकर इन्होंने बड़ी-बड़ी बातें करनी शुरू कर दीं. इनकी सरकार के तीन साल हुए. तीन साल के सामाजिक न्याय के शासन में इनको क्या मिला? एक तो लालू यादव जी को उड़नखटोला मिला. अब वे उड़नखटोला में घूमते हैं. वे कहते हैं एक चपरासी का बेटा अब उड़नखटोला में घूमता है. एक तो यह उपलब्धि है उड़नखटोला में घूमनेवाली, जिसमें वे हवा में ऊंचाई पर उड़ने लगे हैं. बातें भी उनकी हवाई होने लगी हैं. दूसरी उपलब्धि है कि जो बात वे कहते हैं, वह है चरवाहा विद्यालय. तो कुल मिलाकर ये दो उपलब्धियां हैं. इन दो सामाजिक न्याय की बातें वे करते हैं. कहते हैं कि अभी तक ये दो उपलब्धियां हुई. उन्होंने खुद एक बार कहा है कि मेरा पिछला तीन साल ऐसे ही बर्बाद हो गया और अगले दो साल में कुछ करूंगा. तो पिछले तीन साल में उन्होंने इतना ही किया. अगर आप इसके उपलब्धि मानते हैं, लालू यादव के उड़नखटोला में घूमने को उपलब्धि मानते हैं, अगर यह सामाजिक न्याय की उपलब्धि है, चरवाहा विद्यालय में भी कहां तक कितना हो रहा है मुझे उसपर संदेह है. तो कुल मिलाकर यही उनके सामाजिक न्याय की उपलब्धियां हैं. और जहां तक जनता की बात हो तो अब मैं देख रहा हूं कि लोगों में यह बहस चलने लगी है कि जगन्नाथ मिश्रा और लालू यादव में किसने ज्यादा पैसा बना लिया है. इसी पर बहस है. क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम. लेकिन जहां जाता हूं तो देखता हूं कि यही बहस है. उन्होंने पिछले चुनाव में यहां पर हमारे खिलाफ रामलखन यादव को खड़ा किया था. पिछले दिनों विश्वनाथ प्रताप सिंह से बातें हो रही थीं. बातचीत में वे कहने लगे कि कांग्रेस ने हमारे पांच एमपी को तोड़ लिया. हमने कहा कि उन्होंने तो तोड़ लिया, लेकिन बिहार में आपने क्या किया? वे कहने लगे कि हमें शर्मिंदा मत कीजिए. हमने कहा कि हमें तो खैर एमपी की एक सीट नहीं मिली. लेकिन हमारा संगठन रहा, हमारा उसूल रहा. लेकिन आपका तो एमपी भी गया और उसूल भी गए. सब कुछ गया. वे कहने लगे कि हमसे गलती हो गई. इसके लिए मैं शर्मिंदा हूं. विश्वनाथ प्रताप सिंह भले आदमी हैं, शर्मिंदा हैं. लेकिन लाहू यादव शर्मिंदा हैं या नहीं, ये मुझे नहीं मालूम. हमने देखा है कि किस तरह से उन्होंने आईपीएफ को खत्म करने के लिए, सीपीआई(एमएल) को खत्म करने के लिए, यहां तक कि एक कांग्रेसी आदमी को यहां लाकर खड़ा कर दिया और अंत में दिखाई पड़ा कि यह कांग्रेसी आदमी कांग्रेसी खेमे में ही जा खड़ा हुआ. फिर वे करने लगे कि वे हमारी पार्टी को खत्म कर देंगे. तो हमने कहा कि देखिए आप हमसे एक-दो विधायक ले गए. यहां-वहां से हमारे संगठन के दो-चार आदमी ले गए और कहने लगे कि आईपीएफ खत्म हो गया, सीपीआई(एमएल) खत्म हो गई. तो हम कहते हैं कि जब एक घर होता है तो उसमें अक्सर दो-चार दिन बाद कुछ धूल जमा हो जाती है, कूड़ा-कर्कट जमा हो जाता है तो उसको साफ करना पड़ता है. इसी तरह से एक पार्टी में भी धूल जमा हो जाती है और अगर लालू यादव ने हमारे घर की सफाई कर दी है, तो इसके लिए हम उन्हें धन्यवाद देते हैं. हमारी पार्टी इस तरह का कूड़ा-कर्कट खुद ही झाड़ती रहती है और समाज से नए-नए तत्वों की भर्ती करती रहती है. नई-नई ताकतें इसमें शामिल होती रहती हैं. जिंदा ताकतें इसमें शामिल होती रहती हैं और मुर्दा ताकतें निकलती रहती हैं. यही किसी भी क्रांतिकारी पार्टी का इतिहास है. इसलिए हमारी पार्टी को खत्म करने की बात जो वे कहते हैं तो मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि लालू यादव के राजनीति में आने से पहले या मुख्यमंत्री बनने से पहले भी हमारी पार्टी बिहार में थी. जब वो मुख्यमंत्री है तब भी हमारी पार्टी बिहार में है. वे कहते हैं कि वे 20 सालों तक मुख्यमंत्री रहेंगे. मैं नहीं जानता कि वे 20 सालों तक या 25 सालों तक मुख्यमंत्री रहेंगे. लेकिन यह जरूर जानता हूं कि उनके बाद भी मेरी पार्टी बिहार में रहेगी और वे शायद राजनीति से रिटायर हो जाएं, पर हमारी पार्टी पहले भी यहां थी, आज भी है और भविष्य में भी रहेगी. हमारी पार्टी को खत्म करने की ताकत किसी लालू यादव व किसी ऐरे-गैरे में नहीं है.

सामाजिक न्याय के नाम पर उनकी जो लड़ाई यहां पर है, उसकी यही उपलब्धियां रही हैं. असली जो लड़ाई रहीहै, सामंतों से लड़ने की, भूमि सुधार की, इस मामले में उन्होंने कुछ नहीं किया. कुछ दिनों पहले उन्होंने एक सर्कुलर निकाला था भूमि सुधार को लेकर. वह सर्कुलर भी उन्होंने वापस ले लिया. हमें आंदोलन करने पड़ रहे हैं और संघर्ष चलाना पड़ रहा है. इसलिए हम कह रहे हैं कि सरकार जो सामाजिक न्याय की बातें करती है, वह सब ढकोसला है और इस लड़ाई में जीत हासिल करने के लिए हमें अपनी ताकत पर भरोसा करके, अपने आंदोलन पर भरोसा करके आगे बढ़ना पड़ता है. उसी तरह से हम आगे बढ़ रहे हैं.

आज बिहार में एक तरफ पलामू में अकाल पड़ा हुआ है, लोग खाने-पीने बिना मर रहे हैं और दूसरी तरफ हमने देखा कि विधानसभा में वे बिल पास कर रहे हैं, एमएलए और एमपी का पैसा बढ़ाने की बातें कर रहे हैं. तो यह है हालत. इनके अंदर कोई संवेदना ही नहीं रह गई है. कम से कम पहले दिखावा तो करते थे. अब तो वह भी नहीं रह गया है. यहां लोग भूखों मर रहे हैं. पलामू को सोमालिया कहा जा रहा है. अफ्रीका में सोमालिया की जो हालत है, वही पलामू की हालत है. एक से एक लोग आ रहे हैं. दुनिया में इसकी चर्चा हो रही है और हमारे यहां के मुख्यमंत्री? उनको इसकी कुछ भी परवाह नहीं है. वे विधानसभा में बैठकर बिल पास करवा रहे हैं और यह बिल किसकी मदद से पास हो रहा है? कांग्रेस की मदद से उनको ये बिल पास करवाना पड़ा. वामपंथी पार्टियां उनकी सहयोगी थीं, उन सारी पार्टियों को भी उनका बायकाट करना पड़ा. जगन्नाथ मिश्रा और लालू यादव दोनों नें मिलजुलकर बिल पास करवाया है. तो उनके अंदर एक गठजोड़ भी है. जितनी इस तरह की बातें होती हैं उनमें वे साथ हो जाते हैं. ये तो हालत है. वामपंथी पार्टियों ने इस तरह से इसका विरोध किया इससे हम खुश हैं. हमने उनसे कहा कि यह अच्छी बात है. आपको जनता के सवालों पर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए. हमेशा सर झुका के और दब्बू बनकर मत रहिए. इससे वामपंथ की  मर्यादा खराब होती है. सर उठाइए, उसूलों के लिए लड़िए.

आज हम कहना चाह रहे हैं कि वामपंथियों के बीच लगातार दोस्ती बढ़ती चली जा रही है. हाल में दिल्ली में 14 तारीख को एक रैली हुई. इसके बाद 15 तारीख को वहां एक कन्वेंशन हुआ जिसमें जो सारे वामपंथी जनसंगठन हैं – छात्रों के, मजदूरों के, महिलाओं के, किसानों के, उन सबके लोग वहां जमा हुए. देश भर से आकर उन्होंने हिस्सा लिया. नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ, सांप्रयादिकता के खिलाफ उन्होंने सितंबर महीने में 9 तारीख को भारत बंद का फैसला किया. उसके बाद मुझसे, सीपीआई-सीपीएम की खेत मजदूर यूनियन के जो अखिल भारतीय प्रेसिडेंट और जेनरल सेक्रेटरी हैं, वे लोग कह रहे थे कि देश भर में तूफान पैदा करना चाहिए. खेत मजदूर संगठनों के एक राष्ट्रीय ढांचे का निर्माण किया जाए. हमने कहा कि यह बात ठीक है. हमारे लोग जरूर ऐसा करें, क्योंकि हम ऐसा महसूस करते हैं कि हमारी खेत मजदूर जनता, हमारे भूमिहीन किसान, मजदूर ही वह वर्ग है जो सारी कठिनाइयों को झेलते हुए हमारी पार्टी के पक्ष में खड़ा रहा है, तमाम मुश्किलों के बीच खड़ा रहा है और लाल झंड़े को थामें रहा है. इसलिए अखिल भारतीय पैमाने पर इन्हें संगठित किया जाए.

इस तरह से वामपंथी पार्टियों के बीच आपस में सहयोग बढ़ रहा है. बिहार में सीपीआई वाले इस बात से थोड़ा डरते हैं कि हमारे साथ अगर काम करेंगे तो शायद उनकी कतारों, शायद उनकी जनता, सब आईपीएफ में न चली जाए, सब सीपीआई(एमएल) में न चली जाए. इस डर के मारे वे थोड़ा हिचकिचाते रहते हैं. थोड़ी रुकावटें डालते रहते हैं. लेकिन कुल मिलाकर धीरे-धीरे हम यहां भी उनके साथ एकताबद्ध कार्यवाहियां कर रहे हैं और देश के पैमाने पर भी ये कार्यवाहियां चल रही हैं.

वामपंथी सरकार इस देश में एक सपना लेकर आएगी. चूंकि आम आदमी यह देख रहा है कि कांग्रेस की जो सरकार है उसके रहते पहले तो 4000 करोड़ रुपए का एक घोटाला हुआ. उसके बाद हमने देखा कि बाबरी मस्जिद वाली घटना के बाद बंबई में मुसलमानों का, इतना बड़ा कत्लेआम हो गया जिसका जवाब नहीं. फिर हमने देखा कि इतना बड़ा बम ब्लास्ट हुआ. अब वे कहते हैं कि इसमें विदेशी हाथ है. हमने कहा कि इसमें विदेशी हाथ है कि नहीं यह दूर की बात है. लेकिन विदेशी हाथ तो बिना देशी हाथ के काम नहीं कर सकता. ये देशी हाथ तो सामने आ रहे हैं. आपके सारे देशी हाथ दिखाई पड़ रहे हैं. ये सब अंडरवर्ल्ड वाले, माफिया, गुंडे, बदमाश वे ही हैं जिनको आप लोगों ने ही तैयार किया है और इनके हाथ क्या है? विदेशी हाथ कहां तक पहुंच रहे हैं? अभी तक संजय दत्त से सुनील दत्त तक पहुंचे हैं. अब ये देशी हाथ कहीं दिल्ली तक न पहुंच जाएं. देशी हाथों को खोजिए. कहीं देशी हाथों को दबाने के लिए तो विदेशी हाथों की बात नहीं उठा रहे हैं? मुझे लगता है कि यह सरकार के चलने की हालत नहीं है. यह सरकार दमखम खो चुकी है. इसलिए सांप्रदायिकता और उसके विरोध की, और धर्मनिरपेक्षता की जो ये सारी बातें हैं, इसको लेकर जनता के बीच जाया जाए. हम इसके पक्ष में हैं. भाजपा को हमने अगर इचरी में शिकस्त दी है तो हमें चुनावों में भी शिकस्त देनी है, इस बिहार में और भोजपुर में भी.
सभी शहीदों को लाल सलाम.

(10 मार्च 1989 को पटना में आयोजित आईपीएफ रैली के नाम लिखित संदेश)

साथियो,

हम आप सबका अभिनन्दन करते हैं!

बीसियों हजार की संख्या में पटना के राजपथ पर आपके बढ़ते कदम एहसास दिलाते हैं कि बिहार में क्रांतिकारी बदलाव लाने की लड़ाई शुरू हो गई है.

आज जिस बिहार में हम रह रहे हैं वहां जंगल राज चल रहा है. पुलिस जुल्म की वारदातों ने यहां सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. सामंती गुंडों की बंदूकें गरजती रहती हैं. आम आदमी की जान की कीमत नहीं. महिलाओं की अस्मत पर सबसे बड़ा खतरा जहां पुलिस और शासक दल के गुंडों से आता है, लूट-खसोट और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करना जहां जुर्म बन गया है, चुनाव की प्रक्रिया हो या ‘जन प्रतिनिधियों’ के असली चेहरे, सरकारें बनने-बिगड़ने का खेल हो या विधानसभा की बहसें, संसदीय जनवाद जहां अपने सबसे घिनौने रूप में नजर आता है, यह वही बिहार है. सचमुच ही बिहार क्रांतिकारी बदलाव की मांग कर रहा है. लाजिमी तौर पर क्रांतिकारी जनवाद की लड़ाई बिहार में ही अपने सबसे तीखेपन के साथ मौजूद है. पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि आनेवाले दिनों में जो क्रांतिकारी भूचाल सारे देश को पलट कर रख देगा, उसका केन्द्र बिहार ही है.

इस क्रांतिकारी संभावना को साकार करने के लिए जरूरी है कि हम मेहनतकश किसानों के जुझारू संघर्षों में डटे रहें. गरीब किसानों और खेत मजदूरों की किसी भी लड़ाई को कमजोर करने का मतलब है क्रांतिकारी जनवाद के उसूलों पर ही समझौता कर लेना. ऐसा करने पर हमारे और संसदीय बौनेपन की शिकार दूसरी वामपंथी पार्टियों के बीच कोई फर्क नहीं रह जाएगा. लंबे समय का अनुभव दिखाता है कि यही वह तबका है जो क्रांतिकारी जनवाद की लड़ाई में सबसे अधिक मजबूती के साथ और अंत तक डटा रह सकता है. सामंती जुल्म और राजसत्ता की क्रूरता के जवाब में जो बंदूकें गांव के गरीबों ने उठा ली हैं उन्हें झुकाना कत्तई मुमकिन नहीं. हमारी पार्टी का ऐलान है कि हम बिहार में तेलंगाना दुहराने नहीं देंगे. यहां हम जरूर स्पष्ट कर देना चाहेंगे कि सशस्त्र संघर्ष के नाम पर लूटपाट, जातीय दंगों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं व निर्दोष लोगों की हत्याओं के हम सख्त विरोधी हैं.

क्रांतिकारी संभावनाओं को साकार करने के लिए यह जरूरी है कि क्रांतिकारी जनवाद की सारी ताकतें एकजुट हो जाएं. आईपीएफ वह मंच है जो इस एकजुटता को अंजाम दे रहा है. पिछले कुछ वर्षों में इसका तेजी से हुआ विकास यह साबित करता है कि बिहार में जनवाद की अगली लड़ाई इसी के झंडे तले लड़ी जाएगी. बिहार के तमाम जनवादपसंद ताकतों और खासकर नौजवानों से हमारी अपील है कि वे बड़ी तादाद में इस फ्रंट में शामिल हों, इसे मजबूत बनाएं. आईपीएफ बिहार का गौरव है. चारों तरफ छाए अंधेरे के बीच प्रकाश की जगमगाती किरण है. हमें याद रखना चाहिए कि हमारे दुश्मन जब किसी क्रांतिकारी आंदोलन को सीधे दमन के जरिए कुचलने में नाकामयाब रहते हैं, तब उनकी कोशिश रहती है क्रांतिकारी मोर्चे में टूट-फूट पैदा करना. हाल के समय में हमने देखा कि कुछ लोगों ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद और कम्युनिस्ट पार्टी के औचित्य पर ही सवाल खड़ा किया. उन्हें जनवादी मूल्यों और जनवादी मोर्चे के खिलाफ बताते हुए आईपीएफ को हमारी पार्टी के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की और इसकेलिए उन्होंने हर तरह की तिकड़मों का सहारा लिया. हमें फखर् है कि आईपीएफ के नेताओं ने ऐसी सारी साजिशों पर पानी फेर दिया और वे क्रांतिकारी जनवाद की दिशा में सख्ती से डटे रहे. सरकारी शह पर ऐसी साजिशें बार-बार होंगी और हमें हमेशा सतर्क रहना होगा.

क्रांतिकारी संभावनाओं को साकार बनाने के लिए यह जरूरी है कि सारी क्रांतिकारी, वामपंथी और प्रगतिशील ताकतें एकताबद्ध हो जाएं. हमें अफसोस है कि हाल के महीनों में कुछ बिरादराना क्रांतिकारी संगठनों से हमारे रिश्ते खराब हो गए हैं. हमारी दिली ख्वाहिश है कि स्वस्थ राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में उतरने के साथ-साथ हम आपस में बातचीत के जरिए समस्याओं का हल निकालें, एक साथ कामकाज करने के तौर-तरीके खोजें और मुश्तरका दुश्मन के खिलाफ अपनी एकता का इजहार करें.

हम महसूस करते हैं कि आईपीएफ, सीपीआई और सीपीएम के बीच कोई भी एकता बिहार में वामपंथियों के एक स्वतंत्र और मजबूत ताकत के रूप में उभरने में काफी मददगार साबित होगी और इसका असर पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश पर भी पड़ेगा. हमें विश्वास है कि तीनों संगठनों की कतारें भी ऐसा चाहती हैं. यह सच है कि हमारे बीच गहरे मतभेद हैं और लंबे समय से चले आ रहे तनाव मौजूद हैं. लेकिन आज की राजनीतिक परिस्थितियों में ऐसे कुछ पुल जरूर बनते दिख रहे हैं जो हमें एक हद तक ही सही, नजदीक ला सकते हैं. हम एक वाम-जनवादी महासंघ के हिमायती हैं. हम सब अगर अपने अतीत से शिक्षा लें, राजनीतिक दुरदर्शिता का परिचय दें और धीरज से काम लें, तो आज असंभव सा दिखनेवाला यह लक्ष्य कल संभव हो सकता है. राजीव गांधी की कांग्रेसी सरकार को हटाने के लिए, साम्प्रदायिक ताकतों के बढ़ते हुए खतरे के खिलाफ और खासकर हिंदी भाषी क्षेत्र में विपक्ष के मुकाबले वामपंथी शक्तियों के स्वतंत्र उभार के लिए, ऐसी एकता निहायत जरूरी है और संभव भी. हमें विश्वास है कि सीपीआई के नेतृत्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा और उसकी व्यापक कतारें कांग्रेस और विपक्ष के मुकाबले वामपंथी ताकत के स्वतंत्र इजहार के पक्ष में है और वे हमारे साथ एकताबद्ध आंदोलन के हिमायती भी हैं. बिहार में सीपीआई के नेतृत्व ने एक नई सोच की पहल की थी. लेकिन पिछले कुछ महीनों से वे फिर पुरानी लकीर पर चलना चाह रहे हैं. हम नहीं जानते कि उनकी मजबूरियां क्या हैं. लेकिन कारण जो भी हो उनका यह कदम वामपंथी कतारों की भावनाओं के खिलाफ है, व्यावहारिक राजनीति में एक प्रतिगामी कदम है. सीपीआई(एम) के नेतृत्व से हम यही कहना चाहेंगे कि आईपीएफ बिहार में एक राजनीतिक असलियत है. कोरे सिद्धांतों के सहारे इस असलियत को नकारने की कोशिश शुतुरमुर्गीय आचरण है. अपना नेतृत्व, अपनी धारणाएं, अपना मॉडल हर किसी पर थोपने की कोशिश, खासकर महत्वपूर्ण हिंदी क्षेत्र में जहां आप भी एक कमजोर ताकत हैं, वामपंथी एकता की राह में गहरी रुकावटें ही पैदा करेगी. सात पार्टियों की हाल में बनी राष्ट्रीय अभियान समिति को अगर कागजी संगठन में नहीं तब्दील होना है तो जरूरी है कि आईपीएफ जैसी ताकतों को उसमें शामिल किया जाए और अमूर्त घोषणाओं के बजाए ठोस मुद्दों पर आंदोलन छेड़ने की पहल ली जाए.

क्रांतिकारी संभावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि हम अगले चुनाव में कांग्रेस को शिकस्त दे. बिहार में एकताबद्ध विपक्ष के साथ लोकसभा व विधानसभा चुनावों में सहयोग की हर संभावना को तलाशने के लिए हम तैयार हैं. झारखंड आंदोलन बिहार में एक अहम मुद्दा है. हम इस आंदोलन के हमेशा से समर्थक रहे हैं. लेकिन इस आंदोलन में कुछ संदिग्ध किस्म की राजनीतिक ताकतें सक्रिय हैं. अपना लक्ष्य हासिल करने के बजाए, जनवाद के लिए संघर्ष में अग्रिम चौकी पर तैनात आईपीएफ जैसी ताकतों को अलगाव में डालना जिनका पहला मकसद लगता है. इसके अतिरिक्त हाल में वनांचल की मांग लेकर बीजेपी ने इस इलाके में अपनी घुसपैठ बढ़ाई है. इन परिस्थितियों में झारखंड आंदोलन के अंदर प्रगतिशील ताकतों का समर्थन करते हुए, आदिवासी जनता के लिए स्वायत्त इलाकों की मांग करना, झारखंडी जनता को वर्गीय संगठनों में संगठित करना और उन्हें क्रांतिकारी जनवाद के लिए राजनीतिक आंदोलनों में गोलबंद करना हम अपना फर्ज समझते हैं. इन आधारभूत कर्तव्यों के बिना झारखंड आंदोलन को सही दिशा नहीं दी जा सकती.

साथियों, अठारह साल पहले हमने बिहार के भोजपुर जिला के समतलों में एक लड़ाई की नींव डाली थी. एक नई किस्म की लड़ाई – गांव के सबसे गरीब तबकों – गरीब-भूमिहीन किसानों की लड़ाई. ग्रामीण गरीबों ने सामंती सत्ता को सीधी चुनौति दी. दलित-पीड़ित जनता ने हजारों साल पुराने ब्राह्मणवादी ढांचे पर हल्ला बोल दिया. सशस्त्र किसान योद्धाओं ने राजसत्ता के क्रूर दमन-यंत्र से टकराने की हिम्मत दिखाई. पिछले आट्ठारह सालों में हमने उसी नींव पर आज की यह इमारत खड़ी की है. इस दौरान बिहार में कितनी सरकारें आई, कितने मुख्यमंत्री बने. हरएक ने आते ही हमारे आंदोलन को अपना पहला निशाना बनाया. सरकारें चली गई. चेहरे पर कालिख लेपटे मुख्य़मंत्री चले गए. मगर हम आज भी जिन्दा हैं और जिन्दा रहेंगे. हम जिन्दा रहेंगे क्योंकि हमारी ताकत का बुनियादी स्रोत बुनियादी जनता है और क्रूर-से-क्रूर तानाशाह भी जनता को खत्म नहीं कर सकता.

हम जिन्दा रहेंगे, क्योंकि हमारे संघर्ष के बगीचों को अनगिनत शहीदों ने अपने खून से सींचा है और जहां मौत एक नई जिन्दगी का पैगाम बन गई हो, वहां जान की बाजी लगाने वालों की कतार कभी खत्म नहीं होगी.

हम जिन्दा रहेंगे, क्योंकि हमने बिहार के किसानों की लड़ाई को भारत की दूसरी आजादी की लड़ाई से जोड़ दिया है.

बिहार को बदलने की, भारत को बदलने की लड़ाई शुरू हो चुकी है. आपके नारों की गूंज उस जंग का ऐलान है. आइए, दृढ़ संकल्प लिए हम बढ़ते चलें अपनी मंजिल की ओर!

(लिबरेशन, जनवरी 1986 से)

नवंबर के तीसरे सप्ताह में बिहार के संघर्षरत इलाकों में हमें आदमी और हथियारों के मामले में अच्छी-खासी क्षति उठानी पड़ी. जिन लोगों ने शहीदों की मौत धारण की, उनमें कामरेड जीउत भी थे – कामरेड जीउत उन विशिष्ट कमांडरों में से एक थे जिन्हें पार्टी ने वर्षों की कड़ी मेहनत के दौरान तैयार किया था.

सभी कामरेड यह नहीं जानते कि 1975 के अंत में भोजपुर के पुराने इलाकों के संघर्ष को गंभीर जटिलताओं से गुजरना पड़ा था और सशस्त्र यूनिटें अस्त-व्यस्त हो गयी थीं. यह वह समय था जब संघर्ष की बागडोर हाथों में लेने के लिए जिले के दूसरे हिस्से में एक नया सितारा उभर रहा था. ब्रह्मपुर थाने के बरुहां गांव का भूमिहीन किसान नौजवान और कोई नहीं, यही जीउत थे. 1976 से ही उन्होंने राइफल दखल के लिए पुलिस कैंप पर कई सफल सशस्त्र ऐक्शनों की कमान संभाली. इन ऐक्शनों में चलायमान पुलिस दल पर वह प्रसिद्ध ऐम्बुश भी शामिल है, जिसमें पहली बार एक स्टेनगन छीना गया था. उन्होंने जोतदारों के निजी गुंडा गिरोहों के खिलाफ अनेक ऐक्शन संगठित किए और दुश्मन का घेरा तोड़ने में बहुतों बार यूनिट का नेतृत्व किया. क्रमिक तौर पर वे आंचलिक कमांडर की भूमिका में आ खड़े हुए और उन्होंने सशस्त्र यूनिटें संगठित करने में मदद पहुंचायी.

1976-78 की अवधि में उन्होंने जोतदारों पर निर्णायक आघात करने के लिए अपने गांव के लोगों को संगठित किया, विभिन्न जातियों के लोगों को एकताबद्ध किया तथा क्रांतिकारी कमेटी व जन मिलिशिया के निर्माण में मदद की. वे पार्टी लाइन में हुए परिवर्तनों के क्रम में अपने सामने आयी नयी जिम्मेवारियों के अनुरूप स्वयं को ढालने में तत्पर थे और उन्होंने जुझारू आंदोलनों में जनसमुदाय को गोलबंद करने का अपना सर्वोत्तम प्रयास किया.

लगातार लंबे दस वर्षों तक कामरेड जीउत ने, हाल के वर्षों में गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद, पार्टी द्वारा सौंपी गयी किसी भी जिम्मेवारी को उठाने में पलभर की भी हिचकिचाहट के बिना पार्टी के सुअनुशासित सैनिक के रूप में काम किया. कुछ ही दिनों के बाद वे कामरेड केशो के अधूरे कार्य की जिम्मेवारी संभालने के लिए जानेवाले थे.

कमरेड सहतू, महेंद्र तथा हीरा सभी पुराने कामरेड थे और अपने-अपने क्षेत्रों के सतत संघर्ष के स्तंभ थे. निःस्वार्थ तथा अथक भाव से उन्होंने हमेशा ही दमित-उत्पीड़ित जनता के लिए काम किया और अंत में भारतीय क्रांति की वेदी पर अपना जीवन कुर्बान कर दिया.

ऐसे कामरेड, जो कि भूमिहीन किसान परिवार से आते हैं तथा सामंती व्यवस्था और उसके युगों पुराने विकराल जातीय विभाजन के खिलाफ तीखी घृणा से ओतप्रोत हैं, बिहार के समतलों में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्ववाले किसान संघर्ष की रीढ़ हैं. सर्वहारा हिरावलों में रूपांतरित ऐसे कामरेडों के बगैर, संघर्ष की तीक्ष्णता तथा व्यापकतर इलाकों में इसका फैलाव कत्तई संभव नहीं था.

पिछले समय, 1975 में भोजपुर तथा पटना में हमारी सशस्त्र यूनियों को गंभीर क्षति उठानी पड़ी थी. 1977 के बाद से तथा इस बार और भी व्यापकतर इलाकों में अपूर्व जनगोलबंदी और जनता के सशस्त्र प्रतिरोध का आधार मुहैया करते हुए सशस्त्र यूनिटें पुनः विकसित होना शुरू हुई हैं.

इन यूनिटों को ऐसे समतल क्षोत्रों में काम करना पड़ता है जहां दुश्मन का अपना प्रशासनिक तंत्र व संचार व्यवस्था काफी विकसित है; जोतदार हथियारों से अत्यंत सुसज्जित हैं और जाति आधारित सामाजिक विभाजन अत्यंत कठोर है. यह स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में सशस्त्र यूनिटों को बरकरार रखना और उन्हें विकसित करना बहुत कठिन है तथा जनता के बीच के अंतरविरोधों को हल करने की गलत कार्यशैली और एक क्षण की भी शिथिलता घातक साबित होती है.

बहरहाल, पिछले आठ या नौ वर्षों में हमारी सशस्त्र यूनिटें सैकड़ों पुलिस कैंपों के बीच, नियमित पुलिस ऑपरेशन तथा जोतदारों की निजी सेनाओं के साथ प्रायः घंटों तक चलनेवाली निरंतर लड़ाई की स्थितियों में भी टिकी रही हैं और किसी महत्वपूर्ण क्षति से बचे रहने में समर्थ रही हैं. इस चीज ने 1969-71 तथा 1973-75 की संक्षिप्त अवधियों की तुलना में हमारे व्यवहार में नया आयाम जोड़ते हुए किसान संघर्ष को धारावाहिकता प्रदान की है.

हमारा अनुभव यह बतलाता है कि एक ओर तमाम मौजूद साधनों का इस्तेमाल करते हुए सामाजिक शक्तियों के पुनर्संश्रय के लिए सशस्त्र यूनिटों को उन्नत करने के जरिए प्रतिरोध संघर्ष के इलाके बरकरार रखना तथा क्रमिक तौर पर उन्हें प्राथमिक छापामार क्षेत्र में विकसित करना संभव है.

हाल में हुई क्षतियों के विश्लेषण से यह जाहिर होता है कि दुश्मन अपना खुफिया तंत्र विकसित करने में समर्थ रहा है, जबकि दुश्मन के भीतर अपना खुफिया तंत्र विकसित करने की बात तो जाने दीजिए, हम समय पर उसका पता लगाने और उसे नष्ट करने में भी असफल हुए हैं. कुछ आत्मसंतोष के भाव ने अपना सिर उठाया है. परिणामतः गतिशीलता समाप्त हो गयी है और सतर्कता ढीली पड़ गयी है.

हमे निश्चय ही गंभीरतापूर्वक यह खोजबीन करनी होगी कि सशस्त्र यूनिटों की गतिविधियों के वास्ते सूत्रबद्ध प्राथमिक नियम कायदों का सख्ती से पालन क्यों नहीं किया गया और इलाके के राजनीतिक संगठक अपनी जिम्मेवारी निभाने में कहां चूक गये.

दुश्मन को यह आशा थी कि पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी तथा कुछेक एमएल ग्रुपों की तरह, हमलोग भी खुले व कानूनी रूपों के इस्तेमाल और खासकर चुनाव में भागीदारी के साथ, संभवतः बंदूक फेंक देंगे. अब राजनीतिक रूप से हमें निरस्त्र करने में असफल होकर उसने बड़े पैमाने पर सैनिक अभियानों का सहारा लिया है और वह प्रतिक्रियावादी पार्टियों, जोतदारों व लंपट तत्वों को संगठित कर रहा है.

इन स्थितियों में हमारी पार्टी जो प्रयोग संचालित कर रही है, वह भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में एक अनूठा प्रयोग है. इस प्रयोग की सफलता, दुश्मन में फूट डालने और जनता को एकताबद्ध करने की लचीली नीति अख्तियार करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करती है. जनता के विभिन्न हिस्सों के बीच के विवादों को हल करने में बंदूक का कत्तई इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. क्योंकि इसके सिर्फ बुरे नतीजे निकलते हैं.

हमारे शहीदों के खून से रंगा रास्ता ही भारतीय क्रांति का एकमात्र रास्ता है. क्रांति का कोई शार्टकट, कोई निर्विघ्न रास्ता नहीं है. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने अपने जन्मकाल से ही यह चुनौती स्वीकार की है और इस धरती की कोई भी सैन्य शक्ति, राजनीतिक कुचक्र और बेशक, चाहे कितनी ही विराट क्षति क्यों न हो, हमें इस पथ से डिगा नहीं सकते.

पिछले दस वर्षों की ‘महानतम सफलता’ पर शत्रु शिविर में उल्लास अस्थायी है. यह जनता और सिर्फ जनता ही है, जो अंतिम रूप से तमाम खुशियों का स्वामी बनेगी.

अपने वीर शहीदों को मेरा लाल सलाम!

गत 6 जुलाई को 28 वर्ष की उम्र में कामरेड केशो ने शहीद की मौत धारण की.

केशो बिहार के भोजपुर जिले से आये एक किसान थे. पार्टी से उनका संबंध 1975 में हुआ था. पार्टी की सशस्त्र यूनिट के एक महत्वपूर्ण सदस्य के नाते उन्होंने वर्ग दुश्मन एवं पुलिस के खिलाफ कई सशस्त्र ऐक्शनों में भागीदारी निभाई थी. कालक्रम में वे पार्टी के एक महत्वपूर्ण संगठक बन चुके थे. वे पार्टी की तीसरी कांग्रेस के प्रतिनिधि भी थे.

पार्टी ने उन्हें एक विशेष काम की जिम्मेवारी दी थी. इसके अतिरिक्त वे रोहतास जिले में पार्टी की नेतृत्वकारी टीम के सचिव नियुक्त किये गये थे.

हरिजन जाति के बीच से आये एक अगुआ भूमिहीन किसान योद्धा ने किस तरह धीरे-धीरे अपनी सैद्धांतिक, राजनीतिक और सांगठनिक क्षमता को बढ़ाकर खुद को एक सचेतन सर्वहारा योद्धा और कम्युनिस्ट में रूपांतरित कर लिया, इसकी चमत्कारपूर्ण मिसाल हैं कामरेड केशो.

पार्टी के संपर्क में उन्होंने राजनीतिक और विचारधारात्मक शिक्षा प्राप्त कर एक कठिन लड़ाई संचालित की और एक दीर्घ प्रक्रिया के दौरान वे पार्टी के नेता बन चुके थे. इस प्रकार वे एक ऐसे पार्टी नेता थे जिनका जनता के साथ घनिष्ठ संबंध था और जिन्होंने खुद भी लड़ाई लड़ने की क्षमता का परित्याग नहीं कर दिया था.

वे पार्टी के एक कुशल योद्धा थे. एक अत्यंत कठिन और विशेष किस्म के काम को संपन्न करने के लिए पार्टी उनपर निर्भर थी. अपनी संपूर्ण क्षमता के साथ उन्होंने इस दायित्व को निभाया और इस दायित्व को पूरा करने के क्रम में ही अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया.

विगत कई वर्षों के बीच पार्टी को हुई अनेक क्षतियों में उनकी मृत्यु सबसे बड़ी क्षति है. उनकी बेमिसाल जीवन-यात्रा से सामान्यतः सभी कामरेडों को और विशेषकर भूमिहीन गरीब किसान योद्धाओं को अवश्य शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए.

हमारे घनिष्ठ कामरेडों के बीच वे अन्यतम थे. उनका प्रेमपूर्ण चेहरा, उनकी सर्वहारा दृढ़ता और सृजनशील चिंतनधारा मेरी स्मृति में हमेशा जीवित रहेगी.

उनके शोकमग्न परिवार और उनके सहयोद्धाओं के प्रति मैं अपनी हार्दिक सहानुभूति प्रकट करता हूं. उनकी मृत्यु के लिए उत्तरदायी शत्रुओं को निश्चित रूप से दंड देना होगा और उन्होंने जिस विशेष कार्यक्षेत्र में एक शक्तिशाली स्तंभ खड़ा किया है उस कार्य को हमलोगों को अवश्य ही पूरा करना होगा.

20.07.1985

(26 जुलाई 1994 के पटना में आइसा द्वारा आयोजित समानांतर छात्र असेम्बली में दिया गया उदघाटन भाषण,
समकालीन लोकयुद्ध, 15 अगस्त 1994 से)

करीब एक साल पहले इसी जगह छात्र असेम्बली हुई थी. मैं उसमें शामिल था. वहां आपके छात्र संगठन आइसा ने राज्यव्यापी छात्र आंदोलन शुरू करने का फैसला लिया था. उसके बाद से बिहार में छात्र आंदोलन की एक नई लहर आई. उसकी शुरूआत आइसा ने की थी. एक लड़ाकू छात्र आंदोलन बिहार की धरती से आइसा के नेतृत्व में उठना शुरू हुआ. आपने, आपके संगठन ने यह भी कोशिश की कि तमाम जो वामपंथी छात्र संगठन हैं, लोकतांत्रिक छात्र आंदोलन हैं, सबको एक साथ लेकर इस आंदोलन को और तेज किया जाए. आपकी हमेशा कोशिश रही कि सरकार के द्वारा वार्ता के नाम पर आपके आंदोलन को स्तब्ध करने की कोशिशों को नाकाम कर दिया जाए, आपकी एकता के बीच फूट डालने, दरार पैदा करने की साजिशों को खत्म कर दिया जाए. मैं यह कहूंगा कि इस मामले में आइसा ने सरकार की कोशिशों को नाकाम बनाया. इन तमाम प्रक्रियाओं के जरिए आइसा आज बिहार के छात्र आंदोलन में सबसे दृढ़, उसूली तौर पर खड़ा हुआ अग्रदूत संगठन बन चुका है.

आज के नए दौर में आपके सामने नए-नए कार्यभार भी हैं. आज आपकी बिहार के व्यापक आम छात्र समुदाय की इच्छा-भावनाओं, उनकी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा. आपको व्यापक छात्र एकता के लिए कोशिश करनी होगी. आज आपको एक संगठित आंदोलन की शुरूआत करनी होगी. दो-चार-दस छात्र-नौजवानों को लेकर कुछ बिखरे ऐक्शन एक शक्तिशाली छात्र आंदोलन की जगह नहीं ले सकते. आज इस बात की जरूरत है कि आप एक शक्तिशाली, एक संगठित छात्र आंदोलन की शुरूआत करें. एक साल पहले आपने जो कार्यक्रम इस असेम्बली के जरिए ठीक किए थे उन्हें आपने पूरी लगन-मेहनत के साथ पूरा किया. इसके लिए आपको पुलिस की लाठियां खानी पड़ी. मेरा विश्वास है कि इस असेम्बली के जरिए जो नए कार्यभार ठीक करेंगे उसे भी आप अवश्य पूरा कर दिखाएंगे. आपमें वह लगन है, आपमें वह हिम्मत है, मैं यह पूरा विश्वास करता हूं.

छात्र आंदोलन का सवाल जब भी आता है, उसकी दिशा का सवाल सबसे महत्वपूर्ण बनता है. बिहार की खास परिस्थितियों में छात्र आंदोलन को, छात्र संगठन को एक विशिष्ट दिशा लेकर चलना होगा. छात्र आंदोलन के जरिए जिस छात्र शक्ति का, छात्र-ऊर्जा का निर्माण, उसका इस्तेमाल आपको सामाजिक परिवर्तन के लिए करना होगा. बिहार में जो परिस्थिति है, चारों तरफ जो सड़ांध है, भ्रष्टाचार है, जातिवाद का माहौल है इस सबसे उबरने की ताकत सिर्फ इस छात्र आंदोलन में ही है. इस आंदोलन से निकलते वाली शक्ति को, ऊर्जा को एक आमूल बदलाव के लिए चालित करना होगा. यह आपके सामने बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यभार है, आपकी दिशा है. मैं यह कहना चाहूंगा कि छात्र आंदोलन को यथास्थितिवादी राजनीतिक शक्तियों की आपसी उठा-पटक का मोहरा नहीं बनने देना चाहिए. आपको इस आंदोलन में एक नई दिशा देनी होगी, इसकी दिशा बदलनी होगी.

जब हम 1974 की बात करते हैं, उसकी याद करते हैं, तो हम उन्हीं संदर्भों में उसको याद करते हैं. वह एक कोशिश थी, एक प्रयास था जिसने स्थापित राजनीतिक उठा-पटक के मोहरे के बतौर नहीं बल्कि छात्र आंदोलन में पूरी राजनीति को ही एक नई दिशा देने की कोशिश की थी. वह प्रयास असफल रहा, असंपूर्ण रहा. लेकिन बाद में जो प्रयास होंगे, उसमें यही कोशिश करनी होगी और जब मैं यह कहता हूं कि छात्र आंदोलन को यथास्थितिवादी राजनीतिक ताकतों का मोहरा बना लेने की साजिश के खिलाफ आगे बढ़ना होगा, मै इसमें यहां के वामपंथी आंदोलन की भी जो पुरानी धारा है, जिसके जरिए भी छात्र आंदोलन की क्रांतिकारी ऊर्जा को रोक दिया जाता है, मैं इस किस्म की वामपंथी राजनीति के खिलाफ भी विद्रोह करने की बात करता हूं.

छात्र आंदोलन को आपको आगे बढ़ाना है, राजनीति के वर्तमान मूल्यों के अंग बन जाने के लिए नहीं, बल्कि नए राजनीतिक मूल्यों की प्रस्थापना करने के लए. यह आपके सामने, बिहार के छात्र आंदोलन के सामने एक विशेष, एक खास जिम्मेदारी है. आपके सामने एक विशेष कार्यभार भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का है. भ्रष्टाचार का सवाल बिहार के संदर्भों में सिर्फ कुछ व्यक्तियों द्वारा कुछ संपत्ति कमा लेने, कुछ पैसे बना लेने की बात नहीं है. भ्रष्टाचार बिहार में जिस पैमाने पर, जिस दर्जे तक और जिस तरह चलाया जाता है, जिस तरीके से वह संस्थाबद्ध हो चुका है, वह पूरे बिहार के विकास की प्रक्रिया को ध्वस्त कर देता है, पूरे बिहार के विकास की प्रक्रिया में वह एक परजीवी के रूप में काम करता है और पूरे बिहार को पिछड़े हालातों में रखने और उसे और भी पीछे ले जाने का काम करता है. इसीलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का सवाल, कुछ व्यक्तियों के खिलाफ लड़ने भर की बात नहीं है. आप देखेंगे कि बिहार में जो भी पंचवर्षीय योजनाएं बनी हैं, उनकी राशि तक यहां नहीं आ पाती, उसका खर्चा नहीं हो पाता है. इसीलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का सवाल आपके सामने अहम है. बिहार के विकास के लिए अवश्यंभावी है. आपने आह्वान दिया था कि जो भ्रष्ट मंत्री हैं, भ्रष्ट विधायक हैं, जो कारपोरेशन के भ्रष्ट चेयरमैन हैं, जो भ्रष्टाचार की संस्था के नायक हैं, उनके खिलाफ आइसा जुझारू जन प्रतिरोध चलाएगी, उनसे सवाल पूछेगी. मैं समझता हूं कि वह समय आ गया है. आपका संगठन वह पहला संगठन था जिसने इस मुद्दे पर आवाज उठाई. आज यह सिर्फ आपकी नहीं, पूरे बिहार की आम जनता की आवाज बन चुकी है. आपने यह मांग उठाई थी, इसीलिए आपकी जिम्मेवारी बनती है इस मांग को अमली रूप देने के लिए सीधी कार्रवाई में उतरने की. जो मांग आपने उठाई थी, जिसका प्रचार आपने किया था – सारे बिहार की जनता ने उस मांग को अपनाया है. आज आपसे उनकी मांग है कि आप इस आंदोलन को आगे बढ़ाएं और इस संदर्भ में आप सीधी कार्रवाई में उतरने का फैसला लें. यह आपके सामने आने वाली दिशा है, कार्यभार है.

इतिहास के बड़े-बड़े सामाजिक-राजनीतिक मसले विधानसभाओं, संसदों की चहारदीवारियों के अंदर कभी हल नहीं हुआ करते. इतिहास में हमेशा महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक मसले सड़कों की लड़ाइयों के जरिए हल हुआ करते हैं और इन लड़ाइयों में संसदों और विधानसभाओं को कभी-कभी कहीं-कहीं इतिहास में बमबार्ड भी कर दिया जाता है. यही आंदोलन के बढ़ने का इतिहास है.

आपने अपने आंदोलन की शुरूआत की थी विधानसभा के समक्ष एक जुझारू प्रदर्शन के जरिए. मैं उम्मीद करूंगा कि आप एक बार फिर और भी बड़ी छात्र-गोलबंदी के साथ सत्ता की गद्दी के सामने सवाल उठाएंगे. तमाम भ्रष्ट लोगों के लिए और भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों के लिए आइसा का नाम एक आतंक बन जाना चाहिए, थरथराहट का पर्याय बन जाना चाहिए.

यही मेरी आपसे अपील है, यही मेरा विश्वास है.