(17-18 फरवरी 1994 को दिल्ली में हुए आइसा के द्वितीय राष्ट्रीय सम्मेलन में दिया गया भाषण. समकालीन लोकयुद्ध, 15 मार्च 1994 से)

हाल के वर्षों में छात्र-राजनीति के क्षितिज पर जो सितारा तेजी से उभरा है उसी का नाम आइसा है. इस ऐतिहासिक मौके पर मैं इस लाल सितारे को सलाम करता हूं.

बीसवीं सदी के अंतिम छोर पर आज हम एक अजीब नजारा देख रहे हैं. इतिहास की घड़ी का कांटा पीछे की ओर लौट रहा है. मानो इतिहास खुद दो कदम पीछे जा रहा हो – समाजवाद पूंजीवाद की ओर और तीसरी दुनिया औपनिवेशीकरण की ओर. पुरानी परिभाषाएं भी बदल रही हैं. कल के कंजरवेटिव आज के सुधारक कहे जा रहे हैं और कल के रैडिकल आज के कंजरवेटिव.

इतिहास-ग्रहण की इस वेला में आप छात्रों की उस जमात के प्रतिनिधि हैं जिन्हें बहाव के खिलाफ तैरना है, जिन्हें सामने की ओर इतिहास के अगले कदम के लिए जमीन तैयार करनी है.

जिम्मेदारी कठिन है और इसीलिए चुनौती भरी भी. आपको इस रास्ते में कभी बहुतेरे दोस्त मिलेंगे तो कभी-कभी आपको अकेले भी यह राह तय करनी पड़ सकती है. जीत उन्हीं की होती है जो कठिन स्थितियों में अकेले भी चलते की हिम्मत रखते हैं.

’70 के दशक के शुरूआती वर्षों में हमने छात्रों का महान उभार देखा है. क्रांतिकारी आदर्श से लैस और क्रांतिकारी जोश-खरोश से भरपूर – रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में ‘जीवन-मृत्यु के पायरे भृत्य बानिए’, हजारों-हजार छात्रों को हमने राजसत्ता की क्रूर ताकत से टकराते देखा है. शौर्य व बलिदान की यह अमिट गाथा आपकी धरोहर है, आपकी परंपरा है.

बाद के अरसे में, परिस्थितियों ने हमें समाज की वर्तमान संस्थाओं के साथ तालमेल करने के लिए और उनके अंदर से ही सामाजिक परिवर्तन की गति को तेज करने के लिए मजबूर कर दिया. आप समग्र क्रांतिकारी आंदोलन के इसी दूसरे चरण की उपज है. इस दौर में भारत के विभिन्न हिस्सों में तमाम विफल कोशिशों की सरजमीन पर आपकी सफलता की कहानी रची गई है.

’70 के दशक की क्रांतिकारी भावना और आपकी टैक्टिकल दक्षता का सम्मिश्रण ही आपके आगे बढ़ने की कुंजी है. इसे आपको कभी नहीं भूलना चाहिए.

आज के संदर्भों में आपको हमारे देश में बढ़ते साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के खिलाफ व्यापक भारतीय जनता के संयुक्त मोर्चा के लिए काम करना है. सामाजिक परिवर्तन के लिए आपको मेहनतकश जनसमुदाय के साथ संघर्षों की अगली-कतार में खड़ा होना है और बेहतर शिक्षा व रोजगार की गारंटी के लिए आपको छात्र समुदाय का नेतृत्व करना है.

क्या ये सारे कार्य एक दूसरे का निषेध करते हैं? क्या इसका सहज अंकगणितीय योगफल एकल समग्र का निर्माण करेगा?

मेरी राय में दोनों ही बातें गलत हैं. व्यवहार के दौरान ही आप तमाम कार्यभारों में समन्वय स्थापित करने की समस्या का हल निकाल पाएंगे. लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्षों में हिस्सेदारी ही समस्या के सर्वांगीण समाधान की कुंजी है, हो सकती है.

जैसे एक छात्र-युवा का क्रांतिकारी चरित्र मेहनतकश जनसमुदाय से उसकी समरूपता द्वारा निर्धारित होता है उसी तरह एक छात्र-युवा संगठन का क्रांतिकारी चरित्र भी सामाजिक परिवर्तन के संघर्षों में उसकी सक्रिय भागीदारी पर निर्भर करता है.

ऐसे तमाम सर्वेक्षण व विचार, जो छात्र समुदाय की क्रांतिकारी ऊर्जा पर संदेह पैदा करते हैं, गलत हैं, सरासर गलत हैं. छात्र समुदाय समाज से अलग-थलग या समाज पर बाहर से थोपा हुआ कोई समुदाय नहीं होता. बल्कि छात्र समुदाय तो वो आईना है जिसमें समाज की अंदरूनी सतह पर चल रही सामाजिक हलचल साफ दिखाई पड़ती है. उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश (यूपी) के विश्वविद्यालयों में उसकी जीत सांप्रदायिकता के जुनून के उतरने की पहली निशानी थी.

तमाम उपभोक्तावादी प्रयत्नों के बावजूद, गहराते सामाजिक-राष्ट्रीय अंतरविरोधों की पृष्ठभूमि में, छात्र सबसे पहले व सबसे आसानी से इन तमाम प्रभावों से मुक्त हो सकते हैं. आपको छात्रों की क्रांतिकारी ऊर्जा पर भरोसा रखना चाहिए, भरोसा रखना चाहिए भारत के मेहनतकश जनसमुदाय पर.

हमारी पार्टी छात्र-युवा आंदोलन की आम दिशा तय कर देने में विश्वास रखती है. अपनी विशिष्टताओं के चलते, अपनी गतिमयता के चलते, छात्र-युवा इस दिशा पर अपने विशिष्ट तरीकों से ही बढ़ेंगे. पहले से सारे कदम ठीक कर देना न तो संभव ही है न उचित ही.

आपने अपनी लंबी कूच में कई किलों को ढहाया है, कई मठों को तोड़ा है. किंतु आज भी बहुतेरे किले ढहाने बाकी हैं, बहुतेरे मठ तोड़े जाने बाकी हैं.
आपकी नई-नई जीतों की उम्मीद के साथ मैं  पार्टी की केंद्रीय कमेटी की ओर से आपके सम्मेलन का अभिनंदन करता हूं.

(15 जुलाई 1993 को पटना में आइसा द्वारा आयोजित समानांतर छात्र-युवा असेम्बली में दिया गया भाषण.
समकालीन लोकयुद्ध, 15 जुलाई 1993 से)

मैं काफी लंबे अरसे के बाद किसी स्टूडेंट्स असेंबली से मुखातिब हूं. आपका जोश-खरोश पुराने दिनों की याद ताजा कर देता है. समाज में क्रांति की पदचाप, बदलाव के संकेत सबसे पहले छात्र-युवा ही सुनते हैं, देखते हैं. साठ के दशक के अंतिम वर्षों और सत्तर के दशक की शुरूआत में छात्र, विशेषतः बंगाल में, सीधे क्रांतिकारी संघर्ष में उतर पड़े थे. उस जमाने का नारा था ‘स्कूल-कलेज छोड़ो, क्रांति में कूद पड़ो’. हजारों-हजार छात्र इस लड़ाई में उतरे थे, सैंकड़ं ने कुर्बानियां दी थीं.

सत्तर के दशक के मध्य में राज्य व्यवस्था की बढ़ती निरंकुशता के खिलाफ बिहार में छात्रों ने जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा. आजादी के बाद यह पहली बार हुआ कि अगड़े-पिछड़े का भेदभाव भुलाकर कंधे से कंधा मिलाकर छात्र लड़े. आज भी जब सांप्रदायिक उभार बढ़ा है तो उत्तरप्रदेश के छात्र-नौजवान फिर आगे आए हैं. उत्तरप्रदेश में आइसा ने सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त दी है. लेकिन इस जीत का एक महत्व और भी है. मंडल विरोधी लहर ने उत्तर भारत के कैंपसों को मंडल विरोधी ताकतों का गढ़ बना दिया था और छात्र एकता टूट-फूट गई थी. आइसा ने प्रगतिशील मूल्यों के आधार पर छात्र एकता को फिर से कायम किया है और  ‘रोजगार का अधिकार मौलिक अधिकार’ के बुनियादी नारे को फिर से स्थापित किया है. रोजगार का अधिकार मतलब जीने का अधिकार.

हमारे देश में पहली पंचवर्षीय योजना के समय 55 लाख बेरोजगार थे. आज वह संख्या 4 करोड़ के आसपास है, वह भी इंप्लायामेंट एक्सचेंज में रजिस्टर्ड बेकारों की. सारे बेकारों की संख्या करीब 15 करोड़ होगी, जो 2000 ई. तक बढ़कर 20 करोड़ हो जाएगी. दुनिया के देशों में सबसे अधिक बेकार भारत में हैं. लेकिन अचरज की बात है कि सरकार इंट्री पालिसी नहीं एक्जिट पालिसी बना रही है. सरकारों के पास कोई रोजगार नीति रही ही नहीं है. रोजगार की लड़ाई को लड़ने और जीतने के लिए छात्र एकता को मजबूत करना होगा और मजदूरों-किसानों व अन्य तबकों से जुड़ना होगा. क्रांतिकारी वामपंथ के नेतृत्व में ही यह लड़ाई जीती जा सकती है.

जद जब सत्ता में आया तो उसने दो वायदे किए, एक बोफोर्स घोटाले की जांच का और दूसरा रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने का. जद ने ये दोनों वायदे तो पूरे नहीं किए, लेकिन छात्रों को आपस में बांट दिया. जद की कुल जमा दो सरकारों हैं, बिहार और उड़ीसा में. जद मुख्यमंत्री लालू प्रसाद और बीजू पटनायक स्वयं में पार्टी हैं और जद का मतलब ही इन राज्यों में लालू और बीजू से लगाया जाता है. इन दोनों में बहुत समानता है. ये दोनों अपने-अपने प्रदेशों के ‘स्वतंत्र तानाशाह’ हैं.

युवा जनता दल की एक बड़ी रैली थी. बीजू पटनायक संबोधित कर रहे थे. जब रैली में शामिल युवाओं ने बीजू पटनायक से रोजगार देने की बात की तो वे कुछ नहीं बोल सके और उनपर अंडों, टमाटरों और जूतों की वर्षा होनी शुरू हो गई. बिहार में लालू प्रसाद का फैसला कैसे होगा, आप पर है. छात्रों के उभार जब-जब हुए हैं, उन्होंने एंटि-इस्टेबलिशमेंट की पार्टियों से ही अपने को जोड़ा है. चाहे वह ’70 के दशक का बंगाल हो या बिहार का जेपी आंदोलन हो या आज के आइसा का आंदोलन हो, छात्र-नौजवानों का अपना उत्साह होता है, अपना जुझारूपन होता है, संघर्ष के अपने तरीके होते हैं. इसीलिए हमारी पार्टी उनकी सांगठनिक स्वतंत्रता को तरजीह देती है. वैचारिक-राजनीतिक मतभेदों को भी हम कामरेडाना बहसों के जरिए सुलझाते हैं. इसके विपरीत कुछ पार्टियां, जो कहीं-न-कहीं से मौजूदा तंत्र का हिस्सा बन गई हैं, अपने छात्र संगठनों की लगाम हमेशा खींचे रहती हैं. वामपंथी छात्र संगठनों को इस मामले में अपनी आवाज उठानी चाहिए और एकताबद्ध संघर्षों में उतरना चाहिए.

छात्रों का कारवां जब बढ़ता है तो सिंहासन हिल उठते है, ताज उछल जाते हैं. बिहार की सडकें किसी अभिनेत्री के गालों जैसी चिकनी बन पाएंगी या नहीं मैं नहीं जानता. लेकिन युवाओं के गरम खून से बिहार की सड़के लाल जरूर हो जाएंगी. हर संघर्ष कुर्बानियों की मांग करता है और आपको इसके लिए तैयार रहना है. मेरी पूरी उम्मीद है कि आपके संघर्ष और भूमि सुधार के लिए चल रहे किसानों के संघर्ष मिलकर एक दिन बिहार की तस्वीर जरूर बदलेंगे.

[छठी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक-संगठनात्मक रिपोर्ट से.]

असम के कार्बी आंग्लांग और नर्थ हिल्स जिलों में पार्टी काफी साख रखती है और नए युवकों का समूह पार्टी में तथा स्वायत्तता के लिये एएसडीसी के आंदोलन में भर्ती हो रहा है, जो जातीय अहंकारवाद से मुक्त है, असम के वैसे ही विघटित होते समाज में कई राष्ट्रीय अल्पसंख्यक समुदायों को एक ही छत्र-तले एकताबद्ध करता है, कम्युनिस्ट के उच्च आदर्शों से प्रेरित है और जिसमें उत्तर-पूर्व का चेहरा बदल देने की विराट सम्भावना मौजूद है.

हमें अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि पार्टी को सामने लाने का अर्थ केवल बैनर का बदलाव नहीं है. पार्टी की भूमिका को महज परिषद के कामकाज की देखभाल करने और स्बायत्तता आंदोलन परिचालित करने तक सीमित नहीं किया जा सकता. बल्कि पार्टी को भूमि सुधार के क्षेत्र में गरीब किसानों के मुद्दों पर मुख्य़ जोर देते हुए सचेत रूप से स्वायत्तता आंदोलन की सीमाएं तोड़ने पर केंद्रित करना होगा. सिर्फ तभी स्वतंत्र पार्टी आधार और दृढ़ कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं का निर्माण किया जा सकता है.

जिला परिषद में लम्बे अरसे सत्ता में रहने के कारण बहुतेरी जटिलताएं पैदा हुई हैं. सुविधापूर्ण जीवन शैली, जिला परिषद के सदस्यों और अधिशासी सदस्यों के इर्द-गिर्द नौकरशाहों-ठेकेदारों-व्यवसाइयों का जाल बन जाना, पार्टी और एएसडीसी का जिला परिषद का दुमछल्ला बन जाना, जनसमुदाय और जन आंदोलनों से अलगाव, गुटीय झगड़े, इत्यादि कुछेक ऐसी चीजें हैं. जिसका उल्लेख किया जा सकता है. यद्यपि हमने भारी बहुमत से चुनाव जीते हैं, लेकिन जनता की नजरों में संगठन का नैतिक प्राधिकार गिरा है. एएसडीसी और जिला परिषद की मौजुदा दुर्गति से, राष्ट्रीयता आंदोलनों का नेतृत्व निम्न पूंजीपति वर्ग द्वारा हड़प लिये जाने और धीरे-धीरे पूंजीवादी-भूस्वामी व्यवस्था में उसके समाहित हो जाने की परिघटना से सम्बंधित महत्वपूर्ण सैद्धांतिक सवाल उठे हैं.

(22 अप्रैल 1998 को गुवाहाटी में पार्टी की 29वीं वर्षगांठ के अवसर पर असम राज्य कमेटी द्वारा आयोजित कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर में दिया गया भाषण.
लिबरेशन, जून 1998 से उद्धृत)

सारा दिन आपलोग स्वायत्त राज्य आंदोलन तथा जिला परिषदों के कार्यकलाप समेत अनेक महत्वपूर्ण सवालों पर बहस-मुबाहिसा करते रहे हैं. देखिए, मार्क्सवाद की शास्त्रीय समझ में तो जनवादी क्रांति सारतः एक बुर्जुआ क्रांति है, अर्थात् यह तेज पूंजीवादी विकास के लिए रास्ता साफ करता है और इसका नेतृत्व अनिवार्यतः बुर्जुआ वर्ग ही करेगा. लेकिन, एक संगठित ताकत के बतौर सर्वहारा वर्ग के उदय और पेरिस-कम्यून में इसकी सत्ता दखल की कोशिशों ने बुर्जुआ को भयभीत कर दिया. उसके बाद से उसने अपनी क्रांतिकारी भूमिका का परित्याग कर दिया और इसके बजाय उसने सामंतवाद के शांतिपूर्ण रूपांतरण का रास्ता चुन लिया. इस प्रकार, उसने सामंती ताकतों के साथ एक नापाक रिश्ता बनाया. इसी मोड़ पर लेनिन समाने आए और उन्होंने बुर्जुआ क्रांति में सर्वहारा नेतृत्व की जोरदार हिमायत की. उन्होंने तर्क दिया कि जनवादी क्रांति समाजवाद में संक्रमण के पूर्व की एक अनिवार्य मंजिल है. और चूंकि बुर्जुआ अब इस क्रांति को इसकी तार्किक परिणति पर पहुंचाने में समर्थ नहीं रहा, इसीलिए यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी अब सर्बहारा के कंधों पर आ गई है. रूस के सर्वहारा और उसके बाद चीन, और फिर वियतनाम तथा अन्य देशों के सर्वहारा ने यही राह अख्तियार की.

इस शिविर में जो सवाल उठाए गए हैं वे इस बात से ताल्लुक रखते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी को राष्ट्रीयता, या ठीक-ठीक कहें तो राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के आंदोलन का नेतृत्व करना चाहिए या नहीं. आप देखें, कि ये आंदोलन देश के अनेक हिस्सों में, और खासकर असम में एक वस्तुगत परिघटना बन गए हैं और मैं तो यही कहूंगा कि जहां कहीं भी मौका मिले तो उनका नेतृत्व करना पूरी तरह तर्कसम्मत है. इसके नेतृत्व को दूसरों के हाथों में चले जाने देना और फिर स्थिति के परिपक्व होने की प्रक्रिया का इंतजार करना दरअसल एक पोंगापंथ होगा, जिसमें मार्क्सवाद की कोई सारवस्तु नहीं होगी.

कुछ लोगों के लिए यह आंदोलन तब अपना महत्व खो देता है, जब वे विधायक, सांसद या जिला पार्षद बन जाते हैं और उनके पास कार या बंगला हो जाता है. लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी का लक्ष्य बिलकुल भिन्न है. हम पाते हैं कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के आंदोलनों में बड़ी तादाद में गरीब किसान भाग लेते हैं और वे ही इसकी चालक शक्ति होते हैं. कम्युनिस्ट पार्टी को यह सुनिश्चित करना होगा कि गरीब किसान संगठित हों, वे एक वर्ग के बतौर दावा जतलाएं और राजनीतिक रूप से सचेत बनें. अब अगर इसे इस रूप में बताया जाए कि यह तो ग्रामीण गरीबों के लिए कुछ सुधार के उपाय करने और उन्हें कुछ आर्थिक सहायता देने जैसा काम है, तो यह बेवकूफी भरी बात ही होगी.

हमें यह भी देखना होगा कि किस तबके के लोग हमारे कार्यलयों में जुटते हैं, क्या वे ठेकेदार हैं या गरीब लोग हैं? किस तरह के लोग हमारे नेताओं के इर्द-गिर्द चक्कर काटते हैं? क्या वे ठेकेदार हैं या सामान्य जन हैं? अगर वे ठेकेदार हैं तो हमारी तमाम क्रांतिकारी जुमलेबाजियों के बावजूद हमारी सरकार ठेकेदारों के लिए सरकार में बदलती जा रही है.

आंदोलन के दौर में और सरकार चलाने की शुरूआती अवस्था में वहां ग्रामीण गरीबों को संगठित करने के गंभीर प्रयास किए गए थे. लेकिन फिलहाल हमलोग गतिरोध की स्थिति में फंस गए हैं और इसने गुटीय कलहों को जन्म दिया है. ऐसा लगता है कि वहां कम्युनिस्ट भावना का काफी क्षरण हुआ है. तेज आंदोलनों के दौर में वही कामरेड अनुकरणीय ईमानदारी से काम कर रहे थे, उन्होंने कुर्बानियां दी हैं और कठोर जीवन व्यतीत किया है. मैं यह नहीं कहता कि व्यक्तिगत रूप से वे बुरे आदमी बन गए हैं. बीमारी और गहरी प्रतीत होती है. दरअसल, कम्युनिस्ट दृष्टि को पुनः स्थापित करने तथा एक राजनीतिक वर्ग के रूप में ग्रामीण गरीबों को संगठित करने के जरिए ही पुनः एकता कायम की जा सकती है और गुटीय अंतर्कलहों की समस्या का स्थायी समाधान किया जा सकता है.

ऐसा लगता है कि कुछ लोगों ने गौरवशाली कार्बी आंदोलन से अधूरा सबक ही सीखा है. वे सोचते हैं कि सांसद, विधायक या जिला पार्षद बनने का यह आसान रास्ता है. लेकिन वे भयंकर भूल कर रहे हैं, कार्बी आंदोलन इतनी आसानी से नहीं विकसित हुआ है. बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं द्वारा कठिन-कठोर काम करने का एक लंबा इतिहास है जिन्होंने ग्रामीण गरीबों को संगठित किया. बहुत से लोग यह भूल जाना चाहते हैं कि यह आंदोलन क्रांतिकारी विचारधारा की बुनियाद पर संगठित किया गया है और इसने देश के अन्य लोकतांत्रिक आंदोलनों के साथ एकता कायम की है. हम अन्य राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के आंदोलनों को, मसलन मिशिंग आंदोलन के बारे में, ज्यादा नहीं जानते हैं. हम सिर्फ सुनते हैं कि कुछ बातचीत चल रही है, कोई प्रतिनिधिमंडल दिल्ली गया है, कुछ समझौता होनेवाला है आदि. लेकिन आंदोलन का क्या हाल है, पार्टी निर्माण के क्षेत्र में कैसी स्थिति है? वर्ताएं तो ठीक हैं, लेकिन अगर उनके पीछे शक्तिशाली आंदोलन न हों, तो वे गैर उसूली समझौतों में परिणत हो जाएंगी. कार्बी आंदोलन ने दक्षतापूर्वक आंदोलन को वार्ताओं के साथ जोड़ा था; दूसरों को इससे सीख लेनी चाहिए.

अब, हमलोग तथाकथित प्रगतिशील राष्ट्रवाद की चर्चा करते हैं. आप लंबे समय से असम में प्रगतिशील आंचलिकता की इन ताकतों की तलाश कर रहे हैं. आज हम जिसे प्रगतिशील आंचलिकतावादी कहते हैं, कल वह प्रतिक्रियावादी बन जाता है. हमलोगों ने निर्भीकतापूर्वक खुद को ही प्रगतिशील आंचलिकतावादी बना डाला. मैं तो यही सोचता हूं कि प्रगतिशील आंचलिक ताकतों की किसी स्थायी श्रेणी की तलाश ही बेकार है. हमारे आंदोलन की किसी विशेष अवस्था में जो भी आंचलिक ताकत हमारे साथ हाथ मिलाएगी, हम उसे ही प्रगतिशील मान लेंगे. और उनका यह चरित्र-निर्धारण तबतक बरकरार रहेगा, जबतक वे हमारे साथ बने रहेंगे, यही शायद हमारी कार्यनीतिक लाइन की समीक्षा की मांग कर रहा है.

हमें अपने जनाधार को मजबूत बनाने पर प्राथमिक जोर देना होगा. असम में हमारे कुछ बहुत मजबूत इलाके हैं. तेल और विद्युत के क्षेत्रों में पार्टी के प्रभाव के अंतर्गत आधुनिक मजदूरों की एक शक्तिशाली वाहिनी हमारे पास है. चाय मजदूरों के बीच भी अच्छी शुरूआत हुई है, जो असम में मजदूर वर्ग का एक अच्छा-खासा हिस्सा हैं. कुछ वर्ष पहले तक कुछ लोग सोचते थे कि चाय मजदूरों के बीच पैठ बनाना काफी कठिन काम है. मैं सोचता हूं कि अब वहां वे काम की महती संभावनाओं को समझ चुके होंगे. चाय बगानों के एक कामरेड इस सवाल पर ढेर सारी शिकायतें लेकर आए हैं. उन्होंने कहा कि वे बिलकुल अकेले काम कर  रहे हैं. संबंधित जिले की पार्टी कमेटी उनकी कोई सहायता नहीं करती है. वह सिर्फ लेवी संग्रह में रुचि लेती है. एक दूसरे कामरेड ने काफी प्रासंगिक बात कही है : हमारे सांसद या विधायक, संसद या विधानसभा में चाय बगान से संबंधित सवाल क्यों नहीं उठाते हैं? हमारे सांसद ने आस्ट्रेलिया के हड़ताली गोदी मजदूरों का साथ दिया, यह अच्छी बात है. लेकिन क्या वे यहां हमारे देश की धरती पर मजदूर आंदोलनों में भाग लेते हैं या संसद में मजदूरों के मुद्दे उठाते हैं? यह एक महत्वपूर्ण बात है और मैं सोचता हूं कि हमारे सांसदों और विधायकों को मजदूर आंदोलनों में भाग लेना चाहिए. इससे मजदूरों का मनोबल ऊंचा होता है और प्रशासन आत्मरक्षा की स्थिति में चला जाता है. फिर हमारे नेतृत्व में महिलाओं का एक शक्तिशाली आंदोलन भी असम में चल रहा है. यहां के लोगों की मुख्यधारा में इसका अच्छा प्रभाव भी है. इसके अलावा अगर हम असम के मुख्यधारा के लोगों के बीच काम के विस्तार की योजनाएं बनाएं तो मेरी समझ से समाज के सबसे निचले पायदान पर रहनेवालों के बीच हमें सबसे ज्यादा ध्यान देना होगा.

अंत में, मैं आतंकवाद विरोधी मोर्चा के बारे में कुछ कहना चाहूंगा. यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम कम्युनिस्ट सिद्धांततः आतंक के विरोधी नहीं हैं. हमें यह देखना होगा कि कौन-सी ताकतें आतंक फैला रही हैं और वह किसके खिलाफ संचालित है? परिस्थिति की मांग पर आपको प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ आतंक का निर्माण करना भी पड़ सकता है. (लेकिन) ‘उल्फा’ जैसे संगठनों द्वारा संचालित जनविरोधी गतिविधियां आपराधिक कार्यवाहियों की श्रेणी में आती हैं और निश्चय ही उनका विरोध किया जाना चाहिए. लेकिन अगर हम आमतौर पर आतंक विरोधी मोर्चा बनाने के पीछे पड़ जाएं तो उसका मतलब होगा लाल आतंक समेत तमाम किस्म के आतंक का विरोध करना. यह अंततः हमारे ऊपर ही पलटकर वार करेगा. कामरेड अनिल बरुआ का नुकसान निस्संदेह त्रासद है. लेकिन हमें प्राथमिकतः राज्य आतंक को ही अपने हमले का निशाना बनाना होगा.

असम में पार्टी विकास की बड़ी संभावनाएं हैं. बदले राजनीतिक हालात में वाम एकता की संभावना भी लगातार बढ़ रही है. हमें भाकपा(माले) को असम की मुख्य वामपंथी ताकत बना देने पर अपनी समूची ताकत लगा देनी होगी. स्थितियां इसके लिए परिपक्व हो चुकी हैं.

(24 मार्च 1998 को कलकत्ता में कामरेड अनिल बरुआ की स्मृति में आयोजित एक शोकसभा में दिए गए भाषण के अंश.
लिबरेशन, अप्रैल 1998 से उद्धृत)

... इससे (‘उल्फा’ द्वारा कामरेड अनिल बरुआ की हत्या से) अनेक सवाल पैदा हुए हैं. कुछ लोग हैं, जो यह कहते रहते हैं कि आंचलिकता का प्रश्न बुनियादी रूप से राष्ट्रीयता के आत्मनिर्णय के मुद्दे से जुड़ा हुआ है और इसीलिए इसका समर्थन जरूर किया जाना चाहिए. सिद्धांतों के दृष्टिकोण से देखने पर यह प्रस्थापना उचित है. लेकिन यह जरूरी नहीं कि राष्ट्रीयता के आत्मनिर्णय का या आंचलिकता के लिए होनेवाला हर संघर्ष प्रगतिशील ही होगा. इस तरह का कोई फार्मूला नहीं है. इसीलिए, इन आंदोलनों के प्रति समर्थन या विरोध का सवाल जनवादी आंदोलनों के प्रति उनके रवैये के मूल्यांकन से ही तय किया जाना चाहिए. आज हम देखते हैं कि तेलुगू देशम, अगप, अकाली दल जैसी तमाम आंचलिक पार्टियां भाजपा की ओर झुकाव दिखला रही हैं, जो एक घोर साम्प्रदायिक ताकत है. हमने खालिस्तानियों को देखा है और अब हम ‘उल्फा’ को देख रहे हैं – आज इन दोनों का निशाना वामपंथी शक्तियां ही बनी हुई हैं. आज ये चीजें सतह पर आ रही हैं, क्योंकि अनिल दा की हत्या के खिलाफ व्यापक पैमाने पर प्रतिवाद हुआ है. लेकिन इसके पहले भी उनलोगों ने सीपीआई-सीपीएम के अनेक कार्यकर्ताओं की हत्या की है. पीसीसी के कार्यकर्ता भी मारे गए हैं. उनलोगों का आंदोलन आज ‘टाटा टी’ की वित्तीय सहायता का मुहताज हो गया है. उनके शिविर आज बांग्लादेश, रावलपिंडी और करांची में आयोजित किए जा रहे हैं. वे जोश-खरोश के साथ अंतर्राष्ट्रीय पासपोर्ट जुटा रहे हैं और करोड़ों रुपये का कोष जमा कर रहे हैं. और जैसे-जैसे उनके आंदोलन में ये पहलू बढ़ते हैं, वैसे-वैसे वे अधिकाधिक वामपंथ-विरोधी स्थिति अपना लेते हैं. कामरेड अनिल बरुआ की हत्या एक ऐसा लक्षण है, जो दिखाता है कि ‘उल्फा’ अब जनवादी या प्रगतिशील ताकत नहीं रह गया है. इसीलिए उनका ‘फ्री असम’ का वादा फासिस्ट असम के अलावा और कुछ नहीं है ... चुनाव बाद उन्होंने घोषणा की थी कि असम में रहनेवाले जिन 53% लोगों ने चुनाव में वोट डाला था, वे भारतीय नागरिक नहीं है और इसीलिए उन्हें असम में रहने का कोई अधिकार नहीं है. उन्हें एक महीना के अंदर असम छोड़ देना होगा. उन्होंने कम-से-कम 50 लाख असमी लोगों के लिए यह आदेश जारी किया है. इस बर्बरता के खिलाफ हमारी पार्टी और भी जोरदार ढंग से अपना संघर्ष जारी रखेगी.

[ यूनाइटेड लिरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई शुरू होने के ठीक पहले लिखी गई यह टिप्पणी सर्वाधिक प्रचार-संख्या वाले असमिया साप्ताहिक ‘सादिन’ में प्रकाशित हुई थी. समकालीन जनमत, 13 जनवरी 1991 से ]

बरसों पहले 1979 में, गर्मियों की एक सूहानी सुबह, जब मैं पेइचिङ में माओ त्सेतुङ के समाधि-स्थल पर उनके पार्थिव शरीर के सामने खड़ा हुआ, तो मेरे पांव जैसे अपनी जगह से हिलना भूल गए ...

यहां – इस सरजमीन पर – चिरनिद्रा में निमग्न था वह व्यक्ति, जिसने विश्व-जनता के एक चौथाई हिस्से की किस्मत बदल दी थी – जिसने यकीनी तौर पर बता दिया था कि पुरानी दुनिया फिर कभी वापस नहीं आएगी – और, जिसने सातवें दशक के उत्तरार्ध में इस छोर से उस छोर तक संसार की समस्त युवा पीढ़ी को जागृत-आंदोलित कर दिया था ...

गहरे विचारों में डूबा – नतशिर – मैं वहां तबतक खड़ा रहा, जबतक कि चीनी कामरेडों ने मुझे आगे बढ़ने का इशारा नहीं कर दिया. जाहिरन, मेरे पीछे लोगों की एक लंबी कतार थी और वे श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के लिए बड़ी बेसब्री से अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे.

अपनी चीनयात्रा के दौरान मैं चाङशा से चिङकाङशान पहाडों और फिर येनान की कंदराओं तक उन तमाम रास्तों से गुजरा, जिनसे होकर माओ ने चीनी क्रांति की मंजिलें तय की थीं.

युवा चीनी मार्गदर्शकों ने मुझे चीनी क्रांति की समूची अंतर्कथा से अवगत कराया, जबकि कुछ बुजुर्गों ने – जिनमें कई उम्रदराज किसान भी शामिल थे – जीते-जागते माओ से अपने संग-साथ की भावभीनी दास्तान सुनाई.

पेइचिङ में वरिष्ठ पार्टी-नेताओं के साथ बातचीत के दौरान मुझे ऊपर माओ की लीक से हटने के चाहे जो भी निशान नजर आए हों, पर नीचे-जमीनी स्तरों पर – व्यावहारिक रूप से कुछ भी नहीं बदला था. माओ अब भी एक फरिश्ते की तरह पूजे जा रहे थे.

चीन में तङश्याओ फिङ के उत्थान की, और इसी के साथ, चीनी राष्ट्र के भाग्य विधाता के रूप में माओ के इर्द-गिर्द बुने गए मिथकों के टूटने-बिखरने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो चली थी. लेकिन मैं माओ, उनकी क्रांति और उनकी विचारधारा पर एक नई आस्था के साथ अपने देश लौटा.

माओ त्सेतुङ-विचारधारा में हमारी शिक्षा-दीक्षा सातवें दशक के उत्तरार्ध के उन तूफानी दिनों में शुरू हुई थी, जबकि “महाविवाद” के गर्भ से चीन में सांस्कृतिक क्रांति और भारत में नक्सलबाड़ी का जन्म हुआ. उन दिनों हम जनरल ग्याप, चे गुएवारा, रेजी देवे आदि को पढ़ा करते थे और हर तरह के हथियारबंद संघर्ष से अभिभूत हो जाते थे – कुछ-कुछ उसी तरह, जैसे कि आजकल असम में उल्फा के युवा कामरेड अभिभूत नजर आते हैं – पर अंततः, माओ की विचारधारा और उनकी कृषि-क्रांति के रूप में हमें हमारा मार्गदर्शक उसूल मिल गया.

1971-72 के दौरान, जब मैं बहरमपुर सेंट्रल जेल में नजरबंद था, तब माओ की चुनी हुई रनचाओं का एक संग्रह मेरे हाथ लगा, जो गैरकानूनी तरीके से अंदर मंगवाया गया था; और कारण चाहे जो भी रहा हो, रोज-रोज की तलाशी के बावजूद, प्रशासन ने मुझसे वह किताब ले पाने की कभी कोई कोशिश नहीं की. महीनों तक मुझे चौबीसों घंटे कालकोठरी में बंद रखा गया. इस बीच मेरे पास उस किताब को बार-बार पढ़ने – और वस्तुतः कंठस्थ कर जाने के अलावा और कोई काम नहीं थी. अगल-बगल की कोठरियों में बंद अपने कामरेडों के लिए मैं हर शाम किताब के लेखों का अनुवाद जोर-जोर से सुनाया करता था. यहीं पर मैं पहली बार माओ के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं से – उनके दार्शनिक रूप से, अगली पांत के रणनीतिज्ञ और फौजी कमांडर के रूप में उनकी असाधारण प्रतिभा से – बाकायदा परिचित हुआ.

तीसरी दुनिया के देशों में माओ के विचार दमन-उत्पीड़न के विरुद्ध तमाम क्रांतिकारी संघर्षों में – चाहे ये संघर्ष साम्राज्यवादी प्रभुत्व के खिलाफ हों, या किसानों पर सामंती दबदबे के खिलाफ, या फिर देश के अंदर किसी एक राष्ट्रीयता के उत्पीड़न के विरुद्ध क्यों न हों – एक कारगर औजार की भूमिका निभाते रहे हैं. लिहाजा, यह उचित ही है कि असमिया राष्ट्रीयता के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठन उल्फा ने, भारतीय अति-राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध अपने संघर्ष में, माओ के विचारों को अपने विचारधारात्मक औजार के बतौर ग्रहण किया है – ठीक उसी तरह, जैसे कि हम सामंती जुए से किसानों की मुक्ति और साम्राज्यवादी शिकंजे से भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में माओ विचारधारा का अनुसरण करते हैं.

माओ के विचारों पर उनका विश्वास उन्हें भारत से असम के अलगाव की लड़ाई लड़ने की तरफ ले जाता है; जबकि ठीक इन्हीं विचारों पर हमारा विश्वास हमें एक ऐसे एकीकृत जनवादी और संघीय भारत की रचना के लिए लड़ना सिखाता है, जिसमें हर तरह के राष्ट्रीय उत्पीड़न का नामों-निशान मिटा दिया जाएगा. माओ के विचारों पर उनकी आस्था ने उन्हें पिछले असम आंदोलन को एक नया मोड़ देने – वस्तुतः एक वामपंथी मोड़ देने – की सामर्थ्य प्रदान की है. इससे आंदोलन के अंदर नवें दशक के प्रारंभ में जो कम्युनिस्ट विरोधी व वामपंथ-विरोधी सांम्प्रदायिक पूर्वाग्रह दिखाई पड़ा था, उसकी समाप्ति के आसार प्रबल हो गए हैं. माओ-विचारधारा पर हमारी आस्था ने हमें एकदम शुरू से और समान चिंता के साथ – अपने संसाधनों पर नियंत्रण कायम करने के असमिया जनगण की आकांक्षा से जुड़ने को प्रेरित किया है – आबादी की संरचना में हो रहे आमूल बदलाव की स्थिति में अपनी पहचान खो देने की उनकी आशंकाओं में हिस्सेदार बनाया है.

माओ के विचारों पर उनके विश्वास ने उन्हें शक्तिशाली भारतीय राज्य का मुकाबला करने के लिए एक चुस्त-दुरुस्त हथियारबंद संगठन का निर्माण करने की राह सुझाई है; जबकि इन्हीं विचारों पर हमारे विश्वास ने – कुल मिलाकर उसी भारतीय राज्य का मुकाबला करने के लिए – हमें मेहनतकश किसानों का व्यापक प्रतिरोध धाराओं-उपधाराओं में बंटने और अक्सर एक-दूसरे के साथ हिंसक प्रतिद्वंद्विता में उलझ पड़ने असमिया जनगण को, नए सिरे से व्यापक एकता के सूत्र में बांध लेने को प्रेरित किया है. हम भी असमिया जनता की एकता के लिए – एक ऐसी व्यापकतर एकता के लिए काम कर रहे हैं, जिसमें न तो असमिया मुख्यधारा के अंधराष्ट्रवाद के लिए कोई जगह होगी और न ही कबीलाई बहिष्करण और अलगाववाद को बढ़ावा दिया जाएगा. कार्बी आंदोलन पर हमारी पार्टी का जितना भी प्रभाव है, उससे इस आंदोलन के जनवादीकरण में और अन्य समुदायों के मेहनतकश अवाम के साथ इसकी एकजुटता बढ़ाने में ही मदद मिली है.

कोई शक नहीं कि उल्फा के युवा क्रांतिकारी पेटि बुर्जुआ क्रांतिवादी हैं; और संभवतः आज की परिस्थिति में वे इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकते. लेकिन तब, यह भी है कि वे असम आंदोलन का एक प्रगतिशील रूपांतर प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं; और उन्होंने असमिया युवकों की अदम्य गतिशीलता, साहस और शानदार सांगठनिक क्षमताओं का प्रदर्शन किया है. सवाल है : वास्तविक जीवन मे उन्हें जो सबक सिखाए हैं, क्या वे उन सबकों से माओ की विचारधारा को जोड़कर, खुद को कम्युनिस्टों में रूपांतरित करने की ओर अपना अगला तार्किक कदम उठा सकेंगे? क्या राजनीतिक विकास के किसी मोड़ पर हमारी और उनकी दो धाराएं मिलकर एक हो जाएंगी? मुझे विश्वास है कि इतिहास इन सवालों का जवाब सिर्फ हां में देगा.

उल्फा के कमारेडों ने देश के इस हिस्से में माओ की विरासत और उनकी विचारधारा को पुनर्जीवन प्रदान किया है. मैं उनको अपना लाल सलाम पेश करता हूं.

(लिबरेशन, दिसम्बर 1979 से)

हमारी पार्टी असमिया राष्ट्रीयता की पहचान, उसकी भाषा एवं संस्कृति की रक्षा करने के सम्बंध में आपकी चिंताओं में हिस्सेदार है और आपके संघर्ष का समर्थन करती है. हम असमिया नौजवानों के बीच फैली भारी बेरोजगारी के खिलाफ और असमिया जनता के सामने खड़ी अन्य समस्याओं के खिलाफ आपके संघर्ष का समर्थन करते हैं.

यह बिलकुल सच है कि बंगाली बुद्धिजीवियों के एक हिस्से में श्रेष्ठता का झूठा गुमान है और वे असमिया लोगों को पिछड़ा एवं असंस्कृत मानकर हेय दृष्टि से देखते हैं. यह अतीत की उसी परम्परा का अवशेष है जिसे ब्रिटिश शासकों ने जन्म दिया था.

ब्रिटिश शासकों ने कुछेक खास राष्ट्रीयताओं के बुद्धिजीवियों को, अन्य राष्ट्रीयताओं की कीमत पर, महत्वपूर्ण प्रशासकीय पद सौंपकर तथा अन्य उपायों से अपने नजदीक लाने की नीति अपनाई थी. उन्होंने भारत के विभिन्न स्थानों पर ऐसी ही नीतियां अपनाई थी. इस प्रकार, एक ओर उन्होंने कुछेक राष्ट्रीयताओं के अच्छे खासे हिस्सों को अपनी ओर खींच लिया और दूसरी ओर, अन्य राष्ट्रीयताओं के अंदर इस किस्म की भावना पैदा की कि वे (ब्रिटिश शासक) खुद नहीं बल्कि ये सुविधाप्राप्त राष्ट्रीयताएं ही उनकी दुश्मन हैं. इसी प्रकार उन्होंने जनता के बीच फूट के बीज बोए और इतने अधिक वर्षों तक हमारे देश पर राज किया. ब्रिटिश शासकों के खिलाफ साझा संघर्ष के दौरान ही विभिन्न राष्ट्रीयताओं में बंटी भारतीय जनता ने अपनी एकता विकसित की.

इस प्रकार असमिया-बंगाली झगड़े का एक इतिहास है और साझे दुश्मन के खिलाफ उनके एकताबद्ध संघर्ष का भी एक इतिहास है.

1947 के बाद, शासक वर्गों ने जनता की लड़ाकू एकता को तोड़ने के लिये हजारों तरीकों का इस्तेमाल किया है ओर चूंकि आज दुश्मन और भी पर्दे में ढका हुआ है इसलिये उनके लिये ऐसा करना ज्यादा आसान हो गया है. जब हमें “आजादी” मिली तब हमारी मातृभूमि को दो हिस्सों में चीर दिया गया और “स्वतंत्रता” के 32 वर्षों बाद भी हम जनता के विभिन्न हिस्सों के बीच अंतहीन आपसी कलह का सामना कर रहे है. असम में, अब तक सभी राजनीतिक पार्टियां असमिया-बंगाली दरार को भुनाकर फली-फूली हैं. भारत के दूसरे हिस्सों में वे हिंदू-मुस्लिम विभाजन अथवा जातीय विभाजन के मुद्दों पर फल-फूल रही हैं.

क्या असमिया जनता की कोई भी समस्या असम से बंगालियों और नेपालियों को खदेड़ बाहर करने से हल हो जायेगी? नहीं, केवल जनता की एकता को तोड़ेगी, उन्हें आपस में लड़ाकर उनकी शक्ति बर्बाद करायेगी और केवल साम्राज्यवादी एवं घरेलू प्रतिक्रियावादी शक्तियां इसका फायदा लूटेंगी. इससे असमिया जनता की जितनी समस्याएं हल न होगी उससे कहीं ज्यादा समस्याएं बढ़ जायेंगी.

बांग्लादेश और नेपाल से बड़ी तादाद में लोगों का असम में स्थानांतरण, या फिर भारत के एक प्रांत से दूसरे प्रांत में स्थानांतरण के अपने ऐतिहासिक एवं सामाजिक कारण रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे दसियों लाख भारतीयों के दुनिया के विभिन्न देशों में स्थानांतरण के पीछे कारण रहे हैं. खुद असम के चाय बागानों में बिहार, उड़ीसा और मध्य प्रदेश से आये लाखों आदिवासी मजदूर काम करते हैं. आप उन्हें बाहर नहीं खदेड़ सकते.

जब तक लोगों के सामने अस्तित्व का संकट नहीं आता, तब तक लोग अपने देश या जन्मभूमि को नहीं त्यागते. वे जीविका की तलाश में ही बाहर जाने को मजबूर होते हैं. आप इतिहास को नजरअंदाज नहीं कर सकते, आप सामाजिक कारणों को अनदेखा नहीं कर सकते. आप चाहें या न चाहें, दुनिया भर में बहुत सारी चीजें घटित हो रही हैं. स्थानीय राष्ट्रवाद के चरम रूप के सिद्धांतकार, जो इतिहास के बारे में अथवा समाज के नियमों के बारे में कुछ भी समझ नहीं रखते, या तो अनभिज्ञ इन्सान होते हैं, या फिर धोखेबाज. उनके इरादे चाहे जो हों, जाने या अनजाने, वे असमिया जनता से असली दुश्मन का बचाव करके और उसकी असली कारगुजारियों पर पर्दा डालकर असमिया जनता के हितों को नुकसान पहुंचाते हैं.

हमारी पार्टी मेहनती असमिया जनता, उनकी मनोहर भाषा और समृद्ध एवं विविधतापूर्ण संस्कृति का, जिनकी अपनी विशिष्टताएं हैं, बहुत सम्मान करती हैं. हम ऐसे किसी भी  उग्रराष्ट्रवाद का विरोध करते हैं जो आसमिया जनता को नीची नज़र से देखता है और हम नव जनवादी दिशा में असमिया संस्कृति को विकसित करने के पक्ष में हैं. हमारी पार्टी असमिया छात्रों-नौजवानों पर पक्का भरोसा रखती है, जो सरल, बुद्धिमान और साहसी होते हैं. हम ईमानदारी से आशा करते हैं कि वे समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे, उनकी गहराई में जायेंगे और दुश्मनों व दोस्तों के बीच फर्क करना सीखेंगे और शासक वर्ग के फंदे में फंसने से बंचेंगे.

असमिया छात्रों एवं नौजवानों के एक हिस्से ने इसी बीच सच्ची प्रगति की राह को अपना लिया है और बाकी लोग भी उनकी ही राह पकड़ेंगे. आजकल की घटनाएं वेदनादायक हैं, मगर हम आशा करें कि ये घटनाएं किसी राष्ट्रीयता की शिक्षा को एक कदम और आगे बढ़ा देंगी, जिस राष्ट्रीयता के नौजवान लम्बे अरसे से विक्षोभ के शिकार हैं और अब वे अपना सिर उठाना चाहते हैं.

केन्द्रीय कमेटी
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी)

25 नवम्बर, 1979

(लिबरेशन, जुलाई 1984 से)

देशवासियो,

स्वर्ण मंदिर पर सैनिकों का घृणित हमला और सिखों के जनसंहार ने समस्याओं को सुलझाने के बजाय और बढा ही दिया है. जहां पहले मुट्ठी भर सिखों ने ही ‘खालिस्तान’ का रास्ता चुना था, आज वह समूचे सिख समुदाय की आकांक्षा बन गया है. भारत में हो या विदेश में हर जगह सिख समुदाय भारत सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है, हर छावनी में सिख सैनिक विद्रोह कर रहे हैं. और खुद पंजाब में सिख किसान भारतीय सेना के खिलाफ भयानक लड़ाइयों में उतर पड़े हैं. मरने वालों की संख्या बढ़ रही है और  हर मौत के साथ रवैया कठोर से कठोरतर होता जा रहा है.

जिन सिखों को हमेशा से ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ और ‘राष्ट्रीय अखंडता का दृढ़ सिपाही’ माना जाता रहा है, उन सब को आज अचानक सरकारी प्रचार में ‘देशद्रोही’ कहा जा रहा है. यह स्थिति कैसे पैदा हो गई? इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के पीछे मुख्य अपराधी कौन है? ये सवाल हर संवेदनशील और देशभक्त भारतीय के दिमाग में उमड़-घुमड़ रहे हैं.

प्रिय देशवासियों,

एमके गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की गलत नीतियों के चलते ही 1947 में हमारी प्रिय मातृभूमि का विभाजन हुआ था और अब, श्रीमती गांधी की नीतियाँ देश को दूसरे विखंडन की ओर ले जा रही हैं. औपचारिक स्वतंत्रता के 37 वर्षों बाद भी और केंद्र में ‘शक्तिशाली व्यक्तित्वों’ के नेतृत्व में कांग्रेसी हुकूमत के वस्तुतः एकाधिकार के बावजूद सांप्रदायिक टकराव, जातीय युद्ध, आंचलिकता, धार्मिक उन्माद और अलगाववाद रोज-ब-रोज तेज होते जा रहे हैं. भारत – हम सब जो यहां रहते हैं, उनकी पवित्र भूमि – आज हिंदू भारत में बदल गया है, ऐसे भारत में जो विदेशी लंपट राजनीतिज्ञों और समाज के तमाम कूड़े-कचरों का शिकारगाह बन गया है, अपने अधिकारों के लए लड़ने का साहस करने वाले मजदूरों, किसानों और नौजवानों का कब्रगाह तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों, पिछड़ी राष्ट्रीयताओं और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के लिए कैदखाना बन गया है.

ये इंदिरा गांधी ही थीं, जिन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थ में अकालियों के साथ कोई गंभीर और सार्थक वार्ता करने से इनकार कर दिया और पंजाब एवं हरियाणा के बीच तथा पंजाब के अंदर सिखों और हिंदुओं के बीच झगड़े को जानबूझकर स्थायी बना दिया. उन्होंने ही अकाली दल का मुकाबला करने के लिए भिंडरांवाले को भस्मासुर बनाया, जनता के शक्तिशाली आंदोलन के उभार को रोकने के लिए आतंकवाद को उत्साहित किया और उसे बेरोकटोक बढ़ने दिया, और अंततः भिंडरांवाले को शहीद बना दिया.

इंदिरा गांधी के हाथों में शासन की बागडोर रहते हुए राष्ट्र की एकता खतरे में पड़ गई है और संसदीय विपक्ष ने खुद को फालतू की चीज साबित कर दिया है. उनका कार्यभार है ‘सामान्य’ समयों में इंदिरा गांधी की भर्त्सना करना ताकि ‘संकट’ के समय उनके पीछे दृढ़तापूर्वक खड़ा हो सकें. न तो उनकी अपनी स्वतंत्र आवाज है और न उनका अपना कोई कारगर कार्यक्रम.

सांप्रदायिक सद्भाव बरकरार रखने तथा राष्ट्रीय एकता की हिफाजत करने का कार्यभार क्रांतिकारी कम्युनिस्टों, तमाम प्रगतिशील लोगों और सच्चे देशभक्तों के कंधे पर आ पड़ा है. और यह कार्यभार एक नए भारत, जनता के भारत, जनवादी भारत के निर्माण के संघर्ष के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है.

प्रिय देशवासियो,

स्वर्ण मंदिर पर जघन्य हमले की भर्त्सना करें, दुखी सिख भाइयों के साथ मजबूती से खड़े हों और पंजाब समस्या के त्वरित समाधान की मांग करें. झूठी देशभक्ति के सरकारी और विपक्षी प्रचार के बहकावे में मत पड़े. यह ‘खालिस्तान’ के जन्म को तेजी से करीब लाएगा.
अतीत में, हमने कांग्रेस और ‘कम्युनिस्ट’ नेताओं की ‘बहादुरीभरी’ बातों पर विश्वास किया था और सारी पहलकदमी उनके हाथों में छोड़ दी थी; लेकिन अंत में हम अपनी प्यारी मातृभूमि के विभाजन को नहीं रोक सके.

हम फिर से वही गलती नहीं दुहराएं.

भारत को बंदूकों और तोपों के जरिए एकताबद्ध नहीं रखा जा सकता है. विभिन्न समुदायों के लोगों के साझा संघर्षों में एकता और एकजुटता ही देश को अखंड बनाए रख सकती है.

अभिनन्दन के साथ –
11 जून 1984

(पांचवी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से उद्धृत)

चूंकि हमारे देश ने औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध दीर्घकालीन संघर्ष के क्रम में अपनी राष्ट्रीयता अर्जित की और चूंकि वह अभी भी साम्राज्यवाद की ओर से नवउपनिवेश बना लिए जाने के खतरे का सामना कर रहा है, लिहाजा एक ऐसे देश के कम्युनिस्ट होने के नाते हम राष्ट्रीय एकता को काफी महत्व देते हैं. सीपीआई(एमएल) ने अपने जन्मकाल से ही भारत के एकीकरण को अपना उसूली लक्ष्य घोषित किया है. यहां तक कि हम अपने महान देश के विभाजन को समाप्त करने के लिए भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को मिलाकर एक महासंघ बनाने का विचार भी रखते हैं. हमने किसी खालिस्तान अथवा किसी स्वतंत्र असम की मांग का कभी समर्थन नहीं किया है.

राष्ट्रीय एकता तमाम प्रमुख राजनीतिक धाराओं के लिए, चाहे वह शासक कांग्रेस हो, भाजपा हो, अवसरवादी वाम हो अथवा क्रांतिकारी कम्युनिस्ट हो, निश्चय ही एक चिंता का विषय है. सवाल है कि उनकी विविध स्थितियों के बीच सुस्पष्ट विभाजन रेखा कैसे खींची जाए?

लगभग हमारे सभी छोटे पड़ोसी देश भारत को एक क्षेत्रीय प्रभुत्ववादी ताकत तथा एक खतरे के रूप में देखते हैं और उनकी यह सोच निराधार नहीं है. समूचा सरकारी प्रचारतंत्र पड़ोसी देशों, खासकर पाकिस्तान को भारत के खिलाफ हमेशा षड्यंत्र करते रहनेवाले के बतौर प्रदर्शित करता है. सीपीआई और सीपीआई(एम) के प्रचार भी इसी दर्जे के होते हैं. हमें यह अवश्य समझना चाहिए कि भारत के खिलाफ कोई भी साम्राज्यवादी षड्यंत्र केवल भारतीय खतरे के बारे में हमारे पड़ोसियों की अवधारणा के जरिए ही कार्य कर सकता है.

कम्युनिस्टों से सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयवाद की मांग है कि वे खुद ‘अपने’ पूंजीपति वर्ग के राष्ट्रीय अंधराष्ट्रवाद का विरोध करने का साहस करें. इस उसूली स्थिति की अनुपस्थिति में अस्थिरता के खतरे के बारे में की जा रही तमाम फिक्र कम्युनिस्टों को निस्संदेह पूंजीवादी विचारधारा और पूंजीवादी हितों का ताबेदार बना देगी.

फिर, कुछ खास मामलों में, जहां अलग होने के आंदोलनों को जनसमर्थन नहीं मिल रहा है और जिनके पीछे एक समूचा इतिहास है, उनमे बड़ी होशियारी के साथ निपटने और उनके लिए विशेष हल तलाशने की जरूरत है. इस प्रकार के तमाम आंदोलनों को राष्ट्रीय एकता के प्रति सचमुत खतरा मानकर उन्हें खारिज कर देना तथा उन्हें कानून और व्यवस्था की समस्याओं के रूप में देखना कम्युनिस्टों और सुसंगत जनवादियों का रुख नहीं हो सकता है.

ऊपर से राष्ट्रीय एकता थोपने के बहाने भारतीय राज्य सिर्फ अपने प्रतिक्रियावादी उपकरणों को ही शक्तिशाली बनाता रहा है, काले कानून गढ़ता रहा है और झुठे मुठभेड़ों और जनसंहारों को जायज ठहराता रहा है. कहने की आवश्यकता नहीं कि इस सबका इस्तेमाल जल्द ही निरपवाद रूप से जनवादी आंदोलनों के खिलाफ किया जाएगा.

हम ऊपर से राष्ट्रीय एकता निर्माण करने के बिस्मार्कवादी तरीके का डटकर विरोध करते हैं. हम नीच से राष्ट्रीय एकता का निर्माण करने के हिमायती हैं जहां तमाम राष्ट्रीय ग्रुपों और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों को व्यापकतम संभव एकता की गारंटी की जाएगी. जनवादी आधार पर भारत का राष्ट्रीय एकीकरण भारत की जनवादी क्रांति का एक महत्वपूर्ण कार्यभार है.

(छठी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से उद्धृत)

हमारे देश में मुस्लिम प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण है. जिस किस्म के धार्मिक उत्पीड़न को यह समुदाय झेल रहा है, उससे उनमें एक खास किस्म की अल्पसंख्यक लाक्षणिकता पैदा होती है, जो हिंदुत्व की शक्तियों के उत्थान के साथ और भी मजबूत होती जाती है. यह लाक्षणिकता अल्पसंख्यक समुदाय के उस रुख को परिभाषित करती है, जिसमें यह समुदाय अपने आपको एकदम भिन्न राष्ट्र या कौम समझने लगता है. यह रुख एकमात्र साम्प्रयादिकता के आयाम से अनुकूलित होता है, और जनवादी सुधार के लिए, भ्रष्टाचार के खिलाफ, अपराधीकरण की राजनीति के खिलाफ इत्यादि प्रश्नों पर आंदोलनों से इस समुदाय का नेतृत्व हड़पने की इजाजत भी देता है.

अपनी ओर से, मुस्लिम समुदाय से घनिष्ठ अंतःक्रिया करना तथा उनकी विशिष्ट समस्याओं को समझ लेना हमारी कमजोरियों का एक प्रमुख क्षेत्र है. बिहार में हमारे द्वारा गठित इंक्लाबी मुस्लिम कांफ्रेन्स ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ सम्पर्क विकसित करने, उनकी समस्याओं को समझने तथा हमारी कार्यविधि को सूत्रबद्ध करने में पार्टी की उल्लेखनीय रूप से मदद की है. यद्यपि अपने बल पर यह संगठन ज्यादा दूर तक आगे नहीं बढ़ सका और महिलाओं के सवाल पर, दलित मुस्लिमों के आरक्षण के सवाल पर अपने समुदाय के अंदर वाद-विवाद में हस्तक्षेप करने में अक्सर असफल रहा, तथापि इसने मुस्लिम समुदाय के अंदर पार्टी का कामकाज बढ़ाने के मामले में गंभीरता पैदा की है. उर्दू में प्रचार, मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ अंत:क्रिया और पार्टी नेताओं द्वारा मुस्लिमों के विशेष कन्वेंशनों व अन्य सभाओं में भाषण देने इत्यादि को काफी बढ़ावा मिला है. मगर यह आवश्यकता से अभी काफी पीछे है और खासकर उर्दू में प्रचार के लिहाज से अभी बहुत कुछ करना बाकी है.

हमारे अनुभव दिखलाते हैं कि, बिहार के कई इलाकों में भाकपा(माले) मुस्लिमों के अंदर अच्छा-खासा समर्थन हासिल कर रही है, और आजकल ‘लालू के बाद कौन?’ के सवाल का जवाब अक्सर भाकपा(माले) ही मिलता है. हमने लखनऊ में कायम आल इंडिया मुस्लिम फोरम तथा इंडियन नेशनल लीग की बिहार शाखा से घनिष्ठ सम्पर्क कायम किया है. जेएनयू और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के नौजवान मुस्लिम विद्यार्थियों का आइसा को समर्थन, और हत्यारे शहाबुद्दीन के खिलाफ शहीद चन्द्रशेखर के पक्ष में उनका खड़ा होना, काफी उत्साहजनक है और यह दिखाता है कि मुस्लिम छात्र व नौजवान मुस्लिम राजनीति के पुराने पैटर्न से नाता तोड़ने के लिए तैयार हैं और वामपंथी शक्तियों में अपने संश्रयकारी खोज रहे हैं. लालू और मुलायम अब मुस्लिम समुदाय के निर्विरोध नायक नहीं रहे. अब वह समुदाय बदलाव की दहलीज पर खड़ा है, और नौजवान छात्र इसी आकांक्षा के प्रतिनिधि हैं. उनमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को पार्टी की धारा में खींच लाना बेहद जरूरी कार्य बन गया है.