(10 अगस्त 1997 को लखनऊ में ऑल इंडिया मुस्लिम फोरम द्वारा ‘भारतीय आजादी के 50 बर्ष और मुसलमान’ विषय पर आयोजित कन्वेंशन में दिया गया भाषण, लिबरेशन, सितंबर 1997 से)

भाइयो और बहनो,

आजादी की स्वर्ण जयंती बड़े तामझाम के साथ मनाई जा रही है. लेकिन आम लोगों के वास्तविक हालात कैसे हैं? आजादी के वक्त जितनी कुल आबादी थी, लगभग उतने लोग आज गरीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं. खासकर, मुसलमानों में 50-60% अवाम अत्यंत गरीबी में गुजारा कर रहे हैं. आधे से अधिक प्रौढ़ भारतीय निरक्षर हैं और मुसलमानों में निरक्षरों का अनुपात इससे कहीं ज्यादा हैं.

इस प्रकार, मुस्लिम आबादी, जो देश की कुल आबादी का 12% है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा तकलीफ और जेहातल की जिंदगी गुजार रहा है और 50 वर्षों की आजादी उनकी जिंदगी को कत्तई बेहतर नहीं बना सकी.

पाकिस्तान और बांग्लादेश, जो पहले भारत का ही हिस्सा थे, अब आजाद देश हैं और धर्म के लिहाज से मुसलमान वहां की सबसे बड़ी आबादी हैं. लेकिन भारत में हालांकि उनकी तादाद इन दोनों की तुलना में ज्यादा ही है, फिर भी वे धार्मिक अल्पसंख्यक हैं. भारत में बहुतायत लोग हिंदू हैं और हिंदुओं-मुलसमानों के बीच आपसी अविश्वास और शत्रुता-भाव काफी गहरे जड़ जमाए हुए है.

भारतीय राज्य एक संवैधानिक राज्य है, अर्थात् आधिकारिक रूप से राज्य का कोई धर्म नहीं है और यह तमाम मजहबों को बराबरी का दर्जा देने का दावा करते हुए धर्मनिरपेक्षता की घोषणा करता है. लेकिन राज्य का चरित्र संवैधानिक घोषणाओं से ज्यादा उन लोगों के चरित्र से निर्धारित होता है, जो उस राज्य के अंघ हैं. राज्य के तीनों अंगों – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में जो लोग हैं, वे आमतौर पर हिंदूवाद की तरफदारी करते हैं.

राज्य की दुसरी भूमिका है. एक ओर वह अल्पसंख्यकों के नाम पर मुसलमानों को इस-उस किस्म की सुविधाएं देता है और दूसरी ओर समाज के अन्य तमाम क्षेत्रों में वह ऐसी स्थिति पैदा करता है जिसमें वे दबाव महसूस करते हैं. नतीजे के बतौर, मुसलमानों के व्यवहार में राज्य के प्रति अलगाव का भाव पैदा होने लगता है और जो सच्ची राष्ट्रीयता के बरखिलाफ उनके द्वारा एक काल्पनिक राष्ट्रीयता खड़ी करने में अभिव्यक्त होता है.

इसीलिए, संवैधानिक राज्य में भी मुसलमानों की राजनीतिक मुक्ति अधूरी है. हमने देखा है कि कांग्रेस, जिस पर मुसलमानों ने सबसे अधिक भरोसा किया था, किस तरह उग्र हिंदू आक्रमण के सम्मुख नपुंसक हो गई. अपने कलकत्ता अधिवोशन में कांग्रेस बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की घटना पर माफी मांगने के अपने पुराने वादे से मुकर गई और उसने दुख व्यक्त करने तक खुद को सिमित कर लिया. लेकिन इसमें खास बात क्या थी? 1992 में मस्जिद ढहाए जाने के बाद भी उन्होंने तो सिर्फ दुख ही व्यक्त किया था.

धर्मनिरपेक्षता के वादे पर सत्ता में आने वाली संयुक्त मोर्चा सरकार भी बाबरी मस्जिद मुद्दे को भुनाने का कोई मौका नहीं चूकी और उन्होंने भी अबतक इस मसले पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया है; न्यूनतम साझा कार्यक्रम में धारा 138(2) के तहत इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में भेजने का जो वादा किया गया है, उसे भी अबतक पूरा नहीं किया गया है. मैं कहना यह चाहता हूं कि प्रभुत्वशाली हिंदू धर्म का दबाव ही ऐसा है कि उसके सम्मुख संवैधानिक राज्य और धर्मनिरपेक्ष दल भी नकारा साबित हो गए हैं.

उस स्थिति में हम आसानी से धर्मनिरपेक्षता के भविष्य की कल्पना कर सकते हैं, जब भाजपा जैसी पार्टी सत्ता संभालेगी, जो खुलेआम हिंदू राष्ट्र कि वकालत करती है, जिसमें हिंदूवाद राज्य का धर्म हो जाएगा. मुस्लिम अवाम की अपनी पहचान ही तब खतरे में पड़ जाएगी.

अब, इस चुनौती से निपटने के दो रास्ते हैं. एक है अपने खोल में सिमटे रहना और किसी किस्म की मुस्लिम कट्टरता के जरिए हिंदू कट्टरता का मुकाबला करना, लेकिन मेरी समझ से यह रास्ता उलटा नतीजा देगा. दूसरा रास्ता है सच्ची धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ हाथ मिलाना और भारत में सच्चे धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना के लिए संघर्ष करना.

एक मुसलमान और एक नागरिक या एक हिंदू और एक नागरिक की पहचान के बीच का विरोध राजनीतिक सत्ता और नागरिक समाज के बीच धर्मनिरपेक्ष विभाजन के जरिए ही हल किया जा सकता है. भारत में यह प्रक्रिया अधूरी रह गई है.

हिंदुत्व ने जो संकट पैदा किया है वह मुस्लिम समुदाय को अपनी पहचान जतलाने का भी ऐतिहासिक मौका मुहैया कर रहा है. अब, यह कैसी पहचान होनी चाहिए? मुस्लिम अवाम की इच्छाओं के खिलाफ राज्य द्वारा ऊपर से कोई चीज लाद दिए जाने के हम कम्युनिस्ट सख्त विरोधी हैं. लेकिन मेरी समझ से मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच आधुनिक संदर्भ में अपनी पहचान की दावेदारी के लिए काफी बहसें चल रही हैं.

इस संदर्भ में मैं समझता हूं कि मुस्लिम समाज में महिलाओं की हैसियत का प्रश्न, बहुविवाह और तलाक से पैदा होने वाली समस्याएं, काफी महत्वपूर्ण हैं. तुर्की और ट्यूनिशिया जैसे मुस्लिम देशों में बहुविवाह पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और  पाकिस्तान व बांग्लादेश में भी काफी प्रतिबंध लगे हैं. इसलिए यह ऐसा सवाल है जिसपर मैं सोचता हूं कि मुसलमानों के जागरूक हिस्से को गंभीरतापूर्वक चिंतन-मनन करना चाहिए.

अब, धार्मिक आधार पर मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग की जा रही है. लेकिन इसी के साथ-साथ, मंडल कमीशन में दर्ज पिछड़े मुसलमानों के लिए कारगर आरक्षण की मांग भी मुसलमानों के बीच से उठ रही है. यहां तक कि दलित मुसलमानों के लिए भी आरक्षण की मांग जोर पकड़ रही है. इसीलिए, इस सवाल पर भी गंभीर सोच-विचार की जरूरत है.

हिंदू सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए आप पहले कांग्रेस और बाद में विभिन्न मध्यमार्गी पार्टियों के साथ जुड़े. लेकिन अल्पकालिक फायदे की इस रणनीति ने समस्या को और उलझाया ही है.

नई पीढ़ी के मुस्लिम नौजवान वामपंथी ताकतों के साथ जुड़ रहे हैं. क्योंकि वे समझते हैं कि वामपंथ ही एकमात्र सुसंगत धर्मनिरपेक्ष ताकत है और यह भी कि धर्मनिरपेक्षता के लिए संघर्ष समूचे तौर पर देश के व्यापक जनवादी रूपांतरण का जरूरी हिस्सा है.

धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए संघर्ष जितना आगे बढ़ेगा, भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश के जनवादी महासंघ के लिए शर्तें उतनी ही परिपक्व होंगी और तब हमलोग 1947 में की गई भयंकर ऐतिहासिक भूल को सुधारने में सफल होंगे.

शुक्रिया!

(13 अप्रैल 1997 के इंक्लाबी मुस्लिम कांफ्रेंस के पटना जिला सम्मेलन में का० विनोद मिश्र का भाषण.
समकालीन लोकयुद्ध, 1-15 मई 1997 से)

दोस्तों, मैं एक कम्युनिस्ट हूं. कम्युनिस्ट होने के नाते मैं नास्तिक हूं. फिर भी मेरा मार्क्सवाद धर्म की भूमिका को खारिज नहीं करता. हम यह मानते हैं कि धर्म की भी अपने-अपने ऐतिहासिक समयों में विशिष्ट भूमिका रही है और नवजागरण के काल में दुनिया के पैमाने पर बहुत बड़े सामाजिक सुधार के लिए इस्लाम का इंक्लावी अवदान रहा है. आज भी कोशिशें हैं कि इन क्रांतिकारी संभावनाओं को आगे बढ़ाया जाए और एक नए परिप्रेक्ष में लोगों को इकट्ठा किया जाए.

अभी हमारे देश के हालात हैं कि केंद्र में जो एक सेक्युलर सरकार चल रही थी वह सरकार गिर गई है. इसके गिरने के पीछे कई कारण हैं. आप उन्हें जानते होंगे. लेकिन कुछ सवाल खड़े होते हैं. कांग्रेस सरकार के जमाने में बाबरी मस्जिद को सांप्रदायिक ताकतों ने ढहा दिया. इसके खिलाफ देश में प्रगतिशील और सेक्युलर ताकतों ने जोरदार आंदोलन खड़ा किया. बाद में अगर कांग्रेस सारे देश में इतनी बुरी तरह से पराजित हुई थी तो उसका एक बड़ा कारण था – बाबरी मस्जिद के मसले पर उसकी विरोध की भूमिका. मुस्लिम समाज और देश के लोकतांत्रिक समाज का जो आक्रोश था, उस वजह से कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी थी. एक नई सरकार आई जिसकी खुली घोषणा थी कि धर्मनिरपेक्षता ही उसकी मूल बात है. लेकिन, मैं यह कहना चाहता हूं कि दस महीनों में बाबरी मस्जिद के सवाल पर हमने एक कदम भी उसे आगे बढ़ते हुए नहीं देखा.

पिछली नरसिम्हा राव सरकार ने बाबरी मस्जिद के केस को शायद 142-ए धारा के तहत सुप्रीम कोर्ट में भेजा था जिसपर सुप्रीम कोर्ट सिर्फ राय दे सकता था. यूनाइटेड फ्रंट सरकार ने वायदा किया था कि हम 142-बी के तहत इसे सुप्रीम कोर्ट को भेजेंगे, जिसमें सुप्रीम कोर्ट सिर्फ राय नहीं देगा, उसका फैसला करेगा और वह फैसला सबको मानना होगा. उनके साझा न्यूनतम कार्यक्रम का एक वादा यह था. उन्होंने बहुत सारी बातें की भी नहीं थीं. सिर्फ एक छोटा-सा वादा था. लेकिन, दस महीने गुजर गए. यह छोटी-सी बात भी वे नहीं पूरा कर पाए. मैं यह जानना चाहता हूं कि नरसिम्हा राव की सरकार ने इस पूरे मामले को जहां छोड़ा था, दस महीने की सेक्युलर सरकार उससे एक कदम भी आगे क्यों नहीं बढ़ पाई और यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आज भी पुरानी धारा के तहत ही क्यों चल रहा है जिसमें नरसिम्हा राव सरकार ने ही भेजा था. हमने यह भी देखा कि प्रधानमंत्री गुपचुप ढंग से बाल ठाकरे से भी मिले, उस शखस से जो खुलेआम घोषणा करता है कि बाबरी मस्जिद हमने गिराया है और हम इसके लिए गर्वित हैं. (कम से कम भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता इतने खुलेपन से इतनी बेशर्मी नहीं दिखाते). इस तरह सेक्युलरिज्म के सवाल पर जो सरकार आई थी उसे सेक्युलरिज्म के सवाल पर एक भी कदम आगे बढ़ते हमने नहीं देखा. चाहे एक दूसरा मसला – दलित मुसलमानों के आरक्षण का सवाल भी, जो आम मुस्लिम समाज में बड़े पैमाने पर आंदोलन पैदा कर रहा है. जरूर, मुस्लिम समाज को अपनी धार्मिक आजादी चाहिए, अपनी माइनरिटी का स्टेटस चाहिए. उनके सिविल कोड में हस्तक्षेप न किया जाए. लेकिन, इसके साथ-साथ इसकी मांगें भी उठ रही हैं कि हम कई पैमाने पर पिछड़ेपन के शिकार है, चाहे शिक्षा का सवाल हो या नौकरी का सवाल हो. मुस्लिम समाज बड़े पैमाने पर गरीबी व भूखमरी का शिकार है. ये बुनियादी मांगें हैं, जिनपर हम आगे बढ़ना चाहते हैं. इसमें एक खास मांग उठ रही थी कि मुसलमानों में भी जो दलित हिस्सा है उसके लिए नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की जाए. तो इसमें तमाम किस्म की बहसें हैं, मैं उन बहसों में नहीं जाना चाहता. लेकिन मैं समझता हूं कि इस पर भी इस सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया. बुनियादी तौर से मैं यह कहना चाहूंगा कि दस महीने की इस सेक्युलर सरकार ने खोखले वादों के सिवा कोई भी ठोस कदम आगे नहीं बढ़ाया चाहे वो धार्मिक अस्मिता का सवाल हो, जो सवाल बाबरी मस्जिद के साथ जुड़ा हुआ है या समाज को आर्थिक तरक्की के लिए आगे बढ़ाने का. इसलिए यह सवाल हमारे सामने ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है कि आपका अगला पड़ाव क्या होगा? मुस्लिम समाज अपनी लड़ाई आनेवाले दिनों में और आगे कैसे बढ़ाएगा? बिहार में हमने एक सरकार देखी जिसने यह दावा किया कि उसने बिहार में दंगे रोक दिए हैं. सच्चाई है बिहार में राम जन्मभूमि के जमाने में जब बड़े पैमाने पर जुनून फैला हुआ था, बड़े पैमाने पर दंगे भी हो रहे था, आडवाणी की रथ यात्रा आ रही थी, उसे रोका गया. दंगे भी रुके. दंगों के खिलाफ कार्रवाइयां भी हुई. माहौल बदला और दलितों-पिछड़ो-मुसलमानों के बीच एक नई सामाजिक एकता भी बनी. यह इतिहास में आगे बढ़ने की ओर एक कदम था क्योंकि मुसलमान लंबे समय तक कांग्रेस के साथ थे और पिछड़े जनसमुदाय से उनका अलगाव था.

लेकिन सामाजिक न्याय की जो प्रक्रिया आगे बढ़ी उसमें पूरे समाज में नई गोलबंदियां हुईं. मुस्लिम समाज ने अपनी पूरी तादाद के साथ दलितों और पिछड़ों के साथ दोस्ती बनाई. कांग्रेस से हटकर जनता दल किस्म की मध्यमार्गी पार्टियों की ओर उसकी यात्रा शुरू हुई. इसे मैं एक अच्छी बात मानता हूं कि पिछड़े हिस्सों के साथ मुसलमानों ने अपने-आपकी जोड़ा और देश का मुसलमान एक नए सिरे से अपनी आवाज उठाने लगा – इस दावे के साथ कि हम हिंदुस्तानी हैं, हमें अपना हक चाहिए, हमें अपनी इज्जत चाहिए, हमें अपना अधिकार चाहिए. वह देश की मुख्यधारा के साथ जुड़ने लगा जो दलितों और पिछड़ो के उत्थान की ओर जा रही थी. मैं इसे आगे की ओर बढ़ा हुआ एक कदम मानता हूं. लेकिन क्या यह आपकी यात्रा की आखिरी मंजिल थी? या आप जिस मंजिल की ओर जाना चाहते हैं उसका यह पड़ाव भर था? यह सवाल है जिसपर आज बिहार के मुस्लिम समाज को सोचना चाहिए.

कुछ लोग यह कहते हैं कि बिहार में कांग्रेस से जनता दल की ओर, सवर्णों से पिछड़ो और दलितों की ओर, मुसलमानों की यात्रा है, यही उनका आखिरी पड़ाव है, यही उनकी मंजिल है और यहीं उनकी यात्रा खत्म होती है तथा जीना-मरना सबकुछ इसी के साथ है. लेकिन दूसरी एक बात आती है कि इसके बाद भी शायद आगे का कोई रास्ता है, इसके बाद भी आगे मंजिल है. पिछले सात वर्षों से यहां जो सामाजिक न्याय की हुकूमत चली – इन सात सालों में हमने उसे सामाजिक लूट की हुकूमत में बदल जाते देखा है. मैं इसे सामाजिक लूट इसलिए कहता हूं कि जो आपका पैसा था, किसी व्यक्ति से, किसी एक पूंजीपति से, किसी एक ठेकेदार से कमाया हुआ कमीशन नहीं था, उस सरकारी खजाने से एक हजार करोड़ रुपए का घोटाला किया गया. सामाजिक न्याय की जो सरकार थी, सामाजिक लूट की सरकार में बदल गई. अगर 1000 करोड़ रुपए इस तरह से कुछ लोगों की  ऐयाशियों में, बड़े-बड़े ‘ह्वाइट हाउस’ बनाने में बर्बाद हो जाएं तो इसका असर मुस्लिम समुदाय के विकास पर भी पड़ेगा जो हमारे समाज का सबसे पिछड़ा हुआ हिस्सा है, जिसमें ज्यादा गरीबी है, अशिक्षा है. तो हम यह कहना चाहते हैं कि जिस मुस्लिम समाज ने अपने-आपको मुख्यधारा की ओर जोड़ा, वह आज मुख्यधारा से हट जाएगा, इस बात को समझना है. आज इस घोटाले, भ्रष्टाचार व सामाजिक लूट के खिलाफ पूरे बिहार में तमाम गरीब लोग आंदोलन में खड़े हो रहे हैं. इस आंदोलन में मुस्लिम समाज को भी अपनी आवाज मिलानी होगी. क्योंकि अगर इसी तरह से लूट जारी रही तो बिहार आगे नहीं बढ़ सकता और बिहार अगर आगे नहीं बढ़ेगा तो एक खास समुदाय का – मुस्लिम समुदाय हो या कोई समुदाय हो – अलग से विकास नहीं हो सकता.

आपका राज्य पीछे चला जाएगा और आप अलग से विकसित हो जाएंगे, यह संभव नहीं है. इसलिए मै समझता हूं कि भ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ जमीन से जो संघर्ष हो रहा है उससे जुड़ना होगा. यह मैं इसलिए कहना चाहता हूं क्योंकि भ्रष्टाचार और घोटालों कि खिलाफ अदालतों में भी लडाइयां लड़ी जाती हैं. खासकर, भारतीय जनता पार्टी जैसी ताकतों इस पूरी लड़ाई को सिर्फ अदालत के गलियारों में लड़ना चाहती हैं. इसे आम जनता का आंदोलन नहीं बनाना चाहतीं. क्योंकि वे डरती हैं. वे जानती हैं कि व्यापक गरीब जनता अगर इस आंदोलन में उतर पड़े तो यह लड़ाई सिर्फ एक जगह रुकेगा नहीं. कल उनके नेताओं से भी हिसाब मांगेगी. वे ताकतें जनता को सांप्रदायिक दंगों के लिए राम मंदिर के सवालों पर गोलबंद करती हैं. लेकिन, वे कभी भी भ्रष्टाचार या इस तरह के मुद्दों पर आम जनता की लड़ाकू गोलबंदी नहीं करतीं, क्योंकि यह लड़ाकू गोलबंदी उन्हें डराती है. लेकिन, दूसरी ताकतें हैं जो भ्रष्टाचार और घोटाले के खिलाफ इस संघर्ष को जमीनी स्तर पर चला रही हैं. पूरे मुस्लिम समाज को इस लड़ाई में उनके साथ जुड़ना होगा.

दूसरी बात मुझे कहनी थी कि जब भी कोई नया निजाम आता है – कांग्रेस की सरकार गई, जनता दल की सरकार आई – मुस्लिम समाज के भी एक हिस्से को धीरे-धीरे वह अपने अंदर समाहित कर लेता है. हमने यह देखा कि कुछ अपराधी किस्म के जो लोग थे – मुसलमानों के बीच से नामी-गिरामी कुछ माफिया – वे जनता दल के साथ कहीं-न-कहीं जुड़े. मैं खास बात कहना चाहूंगा – सीवान के सांसद हैं मो. शहाबुद्दीन साहब. ये एक अपराधी के रूप में जाने जाते रहे हैं. हमारे साथ उनका सीधा कोई झगड़ा नहीं था. वहां के जो बड़े-बड़े जमींदार हैं उन्हीं के खिलाफ हम लड़ रहे थे. शहाबुद्दीन साहब का जो कांस्टिट्यूएंसी थी जीरादेई, वहां भी हमारे साथ उनकी कोई लड़ाई नहीं थी. हम लड़ रहे थे सामंतों के खिलाफ. लेकिन हमने बड़ी अजीबोगरीब चीज देखी कि धीरे-धीरे उन तमाम ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत जाति के सामंतों के साथ शहाबुद्दीन साहब की दोस्ती हो गई और हमारे खिलाफ उन्होंने हमले शुरू कर दिए. उनको यह डर लगने लगा कि माले जैसी पार्टी का उभरना आने वाले दिनों में उनके लिए खतरा बन सकता है. हम यह बात इसलिए कहना चाहते हैं क्योंकि बहुत-से लोगों को गलतफहमी है कि वह भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ लड़ते हैं. उनके ऊपर हत्या, लूट, बलात्कार, अपहरण के जो सैकड़ों मुकदमे हैं, उनकी लिस्ट उठाकर आप देख लें. उसमें मरने वाले कम-से-कम 95 प्रतिशत लोग दलित-पिछड़े, यहां तक कि खुद मुस्लिम बिरादरी से आने वाले लोग हैं. भारतीय जनता पार्टी का कोई गुंडा नहीं होगा जिसको उन्होंने मारा हो. मुझे लगता है 20-25 लोगों में कम-से-कम 22-23 लोग दलित, पिछड़े मुस्लिम लोग ही हैं. यह तो एक फैलाई हुई बात है कि वह वहां भारतीय जनता पार्टी की सामंती ताकतों से लड़ रहे हैं बल्कि उनका जो गुंडा-गिरोह है उसमें भी राजपूत व यादव गुंडे भरे पड़े हैं.

अभी आपने देखा होगा, सीवान में साथी चंद्रशेखर, हमारे साथी जिनकी हत्या सीवान में हुई, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एबीवीपी और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ते हुए हमेशा अध्यक्ष बनते रहे. जेएनयू और अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सारे मुस्लिम नौजवान चंद्रशेखर को नाम से पहचानते हैं. चंद्रशेखर के लिए होने वाली लड़ाइयों में वे उनके साथ खड़े हैं.

यह बहुत ही अफसोस की बात है कि सांप्रदायिक ताकतों के साथ लड़ने वाले इस नौजवान को ऐसी पार्टी के हाथों शहीद होना पड़ा जो अपने आपको सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाली ताकत कहती है. चंद्रशेखर जबसे सीवान में था, सीवान के जितने भी मुसलमान लड़के जेएनयू या अलीगढ़ मे पढ़ते हैं, सब उसके इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगे थे. मुस्लिम बुद्धिजीवियों का जो बड़ा हिस्सा सीवान में है, उनसे चंद्रशेखर का घुलना-मिलना शुरू हो गया था. चंद्रशेखर वहां स्थानीय मुस्लिम जनता में लोकप्रिय होने लगा था. शायद आने वाले दिनों का यही खतरा शहाबुद्दीन पर मंडरा रहा था. इसलिए उसको रास्ते से हटा दिया गया. इस उदाहरण के जरिए मैं यह कहना चाह रहा था कि मुसलमानों ने जिस समाजिक न्याय और सामाजिक विकास की ओर आगे कदम बढ़ाया था, वह रास्ता रुक गया. मुस्लिम समाज से जो राजनीतिज्ञ उभरे और जिन्हें सामाजिक न्याय की हुकूमत ने समेट लिया, उनका एक हिस्सा इस किस्म के अपराधियों का है. कहीं सांसद शहाबुद्दीन हैं, तो कहीं इस तरह के और भी लोग हैं. दूसरा हिस्सा ऐसे लोगों का है जिनकी अपनी कहीं कोई पहचान नहीं, जो सिर्फ चापलूसी करना जानते हैं. लालू यादव के घर में रसोइए हैं, उनके बच्चों को स्कूल पहुंचाते हैं. वे उनके एमएलसी बनाते हैं. इस किस्म के हिस्से को जिनकी न अपने समाज में कोई पहचान है, न कोई शख्सियत है, पावर स्ट्रक्चर में ले लिया गया है. हां, तीसरे कुछ लोग भी हैं जो अच्छे लोग हैं, प्रगतिशील विचार रखने वाले लोग हैं, जिनके अंदर सामाजिक संवेदना है, कुल मिलाकर सामने की ओर जिनकी सोच है. जिनमें कोई विधान परिषद में हैं, कोई कभी स्पीकर भी बनते हैं, कोई माइनॉरिटी कमीशन के चेयरमैन बनते हैं. वे खुद भी किन्हीं मजबूरियों के शिकार हैं. उन्हें हमेशा भारतीय जनता पार्टी का डर सताता है. कोई विकल्प नहीं नजर आता है. कैसे आगे बढ़ा जाए इस विषय में उनके सामने दिशा स्पष्ट नहीं है.

इन कारणों से ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो नहीं चाहते हुए भी मन में तमाम किस्म की कसक लिए हुए वहां हैं. वे हमारे साथ भी बातें करते हैं, हमारे साथ भी रिश्ते रखते हैं. ऐसे कई विधायक भी हैं. वे हमसे सिर्फ इतना कहते हैं कि हमलोग आपकी तरफ देख रहे हैं,  आपलोग आगे बढ़ें, आपलोग मजबूत हों, तमाम वामपंथी पार्टियां अपना साझा मंच बनाएं तो हमलोग भी कल फैसला लेने की स्थिति में आएंगे. जो मुस्लिम लीडर्स अभी सामाजिक सत्ता में समाहित हैं वे भी किसी के इंतजार में हैं. खुद और आगे बढ़कर पहलकदमी लेना अब उनके बस में नहीं है. वे इस इंतजार में हैं कि कोई और ताकत उभरे. मैं समझता हूं कि उन्हें फिलहाल हम यहीं छोड़ें. मुस्लिम समाज में, उसके दबे-कुचले, दलित-पिछड़े हिस्सों से, उसके नौजवानों के बीच से, एक नया नेतृत्व उभरे, एक नई पहचान के साथ, एक नई संस्कृति के साथ, त्याग और आत्म बलिदान की भावनाओं के साथ, और शायद मैं कहूं कि इस्लाम के उन क्रांतिकारी उद्देश्यों के साथ जिसकी संगति हो. ऐसे नए और जुझारू नेतृत्व के उभरने की आवश्यकता है. मुस्लिम समाज का जो सबसे पिछड़ा, सबसे दलित हिस्सा है, उसे अब आज हमें सामने लाने की आवश्यकता है.

इंक्लाब जिंदाबाद!

(7 नवम्बर, 1993 को पटना में इंकलावी मुस्लिम कान्फेंस द्वारा ‘हिंदुस्तानी मुसलमान किधर?’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय कन्वेंशन में दिया गया भाषण. समकालीन लोकयुद्ध, 15 नवम्बर 1993 से)


यहां आए हुए तमाम दोस्तो,

इतिहास में बहुत-सी घटनाएं घटती रहती हैं – छोटी-बड़ी. इनमें कुछ-कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनका बड़ा असर होता है और जिन घटनाओं के जरिए हम बहुत-सी चीजें जान पाते हैं, बहुत-से रहस्यों पर से पर्दे उठ जाते हैं. आज से तकरीबन एक साल पहले बाबरी मस्जिद को गिरा दिया जाना एक ऐसा ही वाकया है, एक ऐसी ही घटना है. इस मामले में जो बात अक्सर कही गई है कि बीजेपी ने, हिंदुस्तान की जो स्टेट की संस्थाएं हैं – पार्लियामेंट, जुडिशियरी, ला एंड आर्डर मशीनरी – इन सबको नहीं माना, इनका मखौल उड़ाया और बाबरी मस्जिद गिरा दी. लेकिन सवाल इससे भी बड़ा है. जो सवाल है, अहम सवाल यह है कि हमारे स्टेट की, हिंदुस्तानी हुकूमत की ये सारी संस्थाएं थीं, वे क्यों इस घटना को चुपचाप खड़ी देखती रहीं. हिंदुत्व, जब अपने पूरे हमलावर रुख के साथ सामने आया, तो हमने देखा कि हिंदुस्तान की हुकूमत, हिंदुस्तानी स्टेट की सारी इंस्टीच्यूशंस नपुंसक बनके रह गई, हिप्पोक्रेट बनकर रह गई, जुडिशियरी से लेकर, नेशनल इंटिग्रेशन काउंसिल से लेकर ला एंड आर्डर मशीनरी तक. सवाल सिर्फ एक प्राइम मिनिस्टर की हिचकिचाहट का, कमजोरी का नहीं था. वह तो एक सिंबल था इस बात का कि जब भी हिंदुत्व, अपने पूरे हमलावर रुख के साथ सामने आया है, हमारी सारी की सारी स्टेट इंस्टीच्यूशंस नाकारगर साबित हुई हैं.

हिंदुस्तानी मुसलमान, जिन्हें पार्टीशन के बाद काफी बड़े मानसिक धक्के का शिकार होना पड़ा था और बहुत-सी परेशानियां उठानी पड़ी थीं, धीरे-धीरे हिंदुस्तानी हुकूमत के जो मामले थे, जो सेकुलरिज्म की बाते थीं, उनपर भरोसा रखते हुए इस पूरी व्यवस्था के साथ अपने को जोड़ रहे थे. लेकिन बाबरी मस्जिद की घटना ने उनके सामने बड़ा सवाल खड़ा कर दिया कि हिंदुस्तानी स्टेट कहां तक सेक्युलर है. और, इस घटना ने फिर से उन तमाम पुराने सवालों पर, जो एक समय लगता था कि हल किए जा चुके हैं, उन सारे मुद्दों पर फिर से बहस छेड़ दी है. मैं इस बारे में फिर कहना चाहूंगा कि जिन्ना का जो मुस्लिम राष्ट्रवाद था, मुस्लिम नेशनलिज्म था वह किसी सावरकर या गोलवलकर के रिएक्शन में नहीं आया था. क्योंकि सावरकर-गोलवलकर की ताकतें उस जमाने में काफी कमजोर थीं. कहीं न कहीं उभरा था गांधी के जो इंडियन नेशनलिज्म, गांधी की जो भारतीय राष्ट्रवाद की परिभाषा थी, उसके रिएक्शन में. मेरा यह मानना है कि भारतीय राष्ट्रवाद की जो परिभाषा, इंडियन नेशनलिज्म की जो बात गांधी के जमाने में शुरू हुई, वह लिबरल थी, उदारवादी किस्म की थी. बाद में वह बढ़ते-बढ़ते हिंदुत्व की अल्ट्रा, एक उग्र धारा में बदलती चली गई. नेहरू एक पर्दे का काम करते थे, एक शील्ड का काम करते थे – हिंदुस्तानी स्टेट की असलियत को छिपाने में. वे हटे, इंदिरा गांधी आई और उन्होंने इंडियन नेशनलिज्म, भारतीय राष्ट्रवाद को जो हमलावर रुख दिया उससे भारतीय राष्ट्रवाद, हिंदुस्तानी राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद के बीच की दीवार खत्म हो गई. यह वह स्थिति थी, जिसकी अनिवार्य परिणति भारतीय जनता पार्टी के मजबूत होने में ही हो सकती थी. राम जन्मभूमि का ताला खोला गया. असलियत में बोतल से सांप्रदायिकता के जिन्न को बाहर निकाल दिया गया. आज वह जिन्न बाहर निकल चुका है और पूरे देश में तबाही मचा रहा है. उसे फिर से बोतल में बंद करने की सारी कोशिसें अभी तक नाकाम साबित हुई हैं.

तो इस तरह की समस्या है. आज हिंदुस्तान एक दोराहे पर खड़ा है, जहां से आप या तो एक हिंदू राष्ट्र की तरफ बढ़ सकते हैं या एक आधुनिक, मार्डन सेक्युलर स्टेट की तरफ. हमें सच्चे मायने में सेक्युलर स्टेट की तरफ बढ़ना है. मैं समझता हूं, भारतीय मुसलमानों के लिए यही राह है. हिंदुस्तान में सच्चे मायने का सेक्युलर स्टेट बनाने की लड़ाई में भारतीय मुसलमानों के लिए शामिल होना शायद बहुत ही अहम और जरूरी काम बनता है. इस लड़ाई के मामले में मैं एक और बात कहना चाहता हूं. वह यह कि पाकिस्तान जरूर एक मुस्लिम स्टेट बना, धार्मिक स्टेट बना. लेकिन साथ ही साथ जो हिंदुस्तानी स्टेट बना, उसमें भी एक प्रकार की विकृति पैदा हुई, जिसका नतीजा आज हम सब देख रहे हैं. इससे हमारा यह मानना है कि भारत में सही मायने में एक सेक्युलर स्टेट नहीं थी. हिंदुस्तानी समाज को एक सेक्युलर समाज बनाने की, हिंदुस्तानी स्टेट को एक सेक्युलर स्टेट बनाने की लड़ाई हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश का एक महासंघ बनाने की भी लड़ाई है क्योंकि शायद ऐसे भी, महासंघ का बनना ही भारतीय स्टेट की विकृति को हमेशा के लिए रोक पाएगा. ये जो हालात हैं और जिस तरह हिंदुस्तानी स्टेट की सारी फारेन पालिसी पाकिस्तान विरोध पर आधारित है, जिस तरह हिंदुस्तान की सारी राजनीति, विदेश नीति पाकिस्तान विरोध पर घूमती है, ये हालात जबतक बने रहेंगे तबतक हिंदुस्तानी स्टेट शायद कई मायने में सेक्युलर नहीं बन पाएगा. हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो रिश्ते हैं, शायद वे कभी स्वाभाविक नहीं बन पाएंगे.

इसलिए मेरा यह मानना है कि सेक्युलर सोसायटी, सेक्युलर स्टेट बनाने की लड़ाई के साथ ही साथ हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच फिर से समानता पर आधारित महासंघ बनाने की भी लड़ाई है. बड़े पैमाने पर हम सोचते हैं कि यह सेक्युलर स्टेट, सेक्युलर सोसायटी की लड़ाई का सवाल है. लेकिन अगर हम देखें तो भाजपा के उभरने से आज जो खतरा सामने आया है, वह खतरा सिर्फ कुछ दंगों का नहीं है, सिर्फ माइनारिटी राइट्स का या सिविल राइट्स का नहीं है, आज सवाल यह है कि वे हिंदू राष्ट्र की बातें कर रहे हैं. उसका मतलब है कि मुसलमानों को, हिंदुस्तानी मुसलमानों को अपनी पहचान छोड़नी होगी और उन्हें हिंदूवादी, हिंदू धर्म का ही एक सेक्ट बनकर रहना होगा – यह उनकी मांग है. इसे वे कल्चरल एसिमिलेशन करते हैं. इसलिए आज हिंदुस्तानी मुसलमानों की पहचान की लड़ाई काफी जरूरी भी बन गई है और इसके लिए कम्युनिटी रिएक्शन की बात है. मुसलमान सम्प्रदाय इस आइडिया पर रिएक्ट करता है. यह सवाल सामने आ गया है कि सम्प्रदाय के रूप में, कम्युनिटी के रूप में उसको रिएक्ट करना पड़ता है. तो फिर पूरी की पूरी मुस्लिम अस्मिता को ही, उसकी पहचान को ही खत्म कर देने की मांग इसमें शामिल है.

इस सवाल में ये बातें भी सामने आई हैं कि आज हिंदुस्तानी मुसलमान अपना रास्ता तलाश रहा है. नए रास्ते तलाश रहा है और इसलिए उसने देखा है कि हिंदुस्तान का झंडा बुलंद रखा है. ये ताकतें ही सही व सच्चे मायने में सेक्युलर ताकतें हैं. उसमें यह बात भी मुसलमानों के ज्यादातर हिस्से समझने लगे हैं कि वामपंथियों में भी क्रांतिकारी वामपंथी ताकतें जो नए सिरे से उभर रही हैं, उनके अंदर वह हिम्मत है कि बीजेपी के इस हमलावर हिंदुत्व के खिलाफ खड़ा हो सकें, उसका मुकाबला कर सकें. यही वजह है कि हाल के वर्षों में क्रांतिकारी वामपंथी ताकतें लगातार आगे बढ़ी हैं और उनके प्रति हिंदुस्तानी मुसलमानों का समर्थन लगातार बढ़ता जा रहा है.

आज यह सवाल  सामने है कि वामपंथी ताकतों और मुसलमानों के बीच बढ़ते हुए इस रिश्ते को कैसे एक संस्थाबद्ध रूप दिया जाए. इस सवाल को हल करना है और इसमें भी बहुत से सवाल हैं, बहुत-सी बातें हैं, बहुत-से एप्रिहेंसंस हैं, कांग्रेसियों के बारे में, वामपंथी ताकतों के बारे में. मैं तो समझता हूं कि इन्हें जहां तक हो सके, कोशिश करूंगा कि इन्हें हम साफ कर सकें.

हम तो कहते हैं कि आपको अपनी आइडेंटिटी, अपनी पहचान की रक्षा करनी है. और उस पहचान के सिंबल्स अगर आपके पास यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक सिंबल है. अगर आप यह मानते हैं कि उसका एक आटोनोमस स्टेटस है, उसमें बाहर से हस्तक्षेप न किया जाए, आप यह चाहते हैं कि उर्दू भाषा को उसकी न्यायपूर्ण जगह मिले, अगर आपकी यह मांग है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के मामले में बाहर से कोई भी एजेंसी, कोई भी एक्सटर्नल एजेंसी, हस्तक्षेप न करे तो हमारी पार्टी आपकी इन मांगों का, आपके एस्पीरेशंस का पूरा समर्थन करेगी. हम मानते हैं कि इन मामलों में बाहर से कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. दूसरी तरफ मैं एक बात कहूंगा कि हमने देखा है कि आज मुसलमानों के नौजवान लड़के बड़ी संख्या में सिर्फ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही नहीं पढ़ते, वे हिंदुस्तान के बहुत-से कालेजों में, यूनिवार्सिटी में, इंस्टीच्यूशंस में पढ़ते हैं, हिंदू लड़कों के साथ इंटेरेक्शन कर रहे हैं और उनके साथ वे पढ़ भी रहे हैं. आज मैं देखता हूं कि बहुत से नौजवान मुस्लिम लड़के हिंदी, इंग्लिश काफी अच्छी तरह से जानते हैं और ऐसे लड़कों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. आजकल हिंदी में भी बहुत-से अखबार निकाले जा रहे हैं. मुस्लिम पत्रिकाएं जहां से निकलती थीं वे संस्थाएं और प्रेस आजकल नए-नए हिंदी अखबार निकाल रहे हैं. बहुत-से मुस्लिम नौजवान हिंदी अखबारों के करेसपैंडेंट्स हैं. सोसायटी में यह जो एक इंटरैक्शन बढ़ रहा है, मैं समझता हूं, शायद ही कोई होगा जो इसे गलत समझता हो या इस प्रक्रिया को अच्छा न समझता हो. जहां तक मुस्लिम पर्सनल लॉ की बात है, मेरी जहां तक जानकारी है, आपकी कम्युनिटी में इसमें सुधार की बातें हो रही हैं. मैं यही उम्मीद जाहिर कर सकता हूं कि आप खुद इसका एक राजनीतिक सोल्यूशन निकालेंगे. बल्कि इस मामले में मुझे एक बात लगती है कि जबसे यह हिंदुत्व का उभार आया है, हम देख रहे हैं कि हिंदू समाज कंजरवेटिव होता जा रहा है. हिंदू समाज में दहेज के लिए घर की बहू-बेटियों को जिंदा जला दिया जा रहा है. सती प्रथा को फिर से जिंदा करने की कोशिश हुई है, बहसें हो रही हैं, यह एक पैराडाक्स है, विरोधाभास है. लेकिन यही शायद इतिहास की बात अगर छोड़ दी जाए तो मेनस्ट्रीम इस्लामिक कंट्रीज में मुसलमानों की सबसे बड़ी जनसंख्या हिंदुस्तान में है. हिंदुस्तान मुसलमानों का सबसे बड़ा देश है और यहां की जो हिस्टोरिकल सेटिंग है, यहां का जो राजनीतिक माहौल है, इसमें हम देख रहे हैं कि हिंदुस्तानी मुसलमान सेक्युलर, लेफ्ट पार्टियों के नजदीक होते जा रहा है. इसलिए मेरा यह पूरा विश्वास है कि हिंदुस्तानी मुसलमान पूरी मुस्लिम दुनिया में सबसे ज्यादा प्रोग्रेसिव, सबसे ज्यादा ङायनेमिक बनने की क्षमता रखता है. सारी मुस्लिम दुनिया में शायद भविष्य में हिंदुस्तान का मुसलमान ही सबसे प्रोग्रेसिव और सबसे डायनेंमिक कंटिंजेंट के रूप में जाना जाएगा. जनसंख्या के लिहाज से मुसलमान आज हिंदुस्तान की 12 से 15 प्रतिशत आबादी का निर्माण करते हैं. लेकिन शताब्दियों से जो हिंदुस्तान उभरा है, उसकी जो तहजीब, उसकी सभ्यता, उसकी जो संस्कृति उभरी है; उसमें हिंदुस्तानी मुसलमान साझा हिंदुस्तान का निर्माण करते हैं. मेरा विश्वास है, मेरी उम्मीद है कि आनेवाले हिंदुस्तान में भी, मार्डन सेक्युलर हिंदुस्तान बनाने में भी हिंदुस्तानी मुसलमान साझा हिंदुस्तान बनाने की भागीदारी निभाएंगे. इसी उम्मीद के साथ और आज के इस कन्वेंशन की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाओं के साथ अपना भाषण समाप्त करता हूं. शुक्रिया.

(छठी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से उद्धृत)

दलित प्रश्न, खासकर बसपा के बड़े पैमाने पर उदय के बाद, एक महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है. बसपा ने पंजाब से एक बेहतरीन शुरूआत की और फिर उत्तरप्रदेश में उसका तेजी से विकास हुआ. अब यह मध्यप्रदेश तथा कुछेक अन्य राज्यों में भी फैल गई है. एक समय तो लगा कि वह आंधी-तूफान की तरह आंध्रप्रदेश को फतह कर लेगी, उसे वहां विभिन्न नक्सलपंथी धड़ों की सहानुभूति भी हासिल हुई. रैडिकलों ने उनके लिए अपने प्रभाव में समर्थन की खुलेआम घोषणा तक कर ङाली, कुछ भूतपूर्व पीडब्लूजी नेता बसपा में शामिल हो गए और एक प्रमुख सिद्धांतकार ने कांशीराम को भारतीय परिस्थितियों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओ विचारधारा को सही ढंग से लागू करने का श्रेय तक दे डाला! इसी तरह माले आंदोलन में तथाकथित दलित चिन्तन ने प्रवेश किया और उसने आंदोलन की वर्ग परिमितियों को बदल डालने की कोशिश की.

हमारी पार्टी इन भटकावों के सख्त खिलाफ रही. उसने इस मार्क्सवादी दृष्टिबिंदु को बुलंद किया कि, जाति उत्पीड़न के खिलाफ और दलितों की सामाजिक समानता के लिए संघर्ष का बीड़ा उठाते समय वर्गसंघर्ष का दायरा बढ़ाना ही मार्क्सवादियों के लिए एकमात्र प्रस्थान बिन्दु हो सकता है. कांशीराम जैसे लोग इन मुद्दों को वर्ग संघर्ष के निषेध की प्रस्थापना पर उठाते हैं और अंततः वे वर्ग शांति का उपदेश देने लगते हैं तथा शासक कुलीन वर्ग का अभिन्न हिस्सा बन जाते हैं. बिहार के इलाकों में, जहां सामाजिक मर्यादा और समानता के लिए चलनेवाला दलित आंदोलन ग्रामीण गरीबों के वर्ग-संघर्षों का अभिन्न अंग बन गया है. बसपा तत्वों ने अपनी असली औकात जाहिर कर दी है. उन्हें रणवीर सेना के साथ सांठगाठ करते देखा गया और फिर खुद बसपा ने ही उत्तरप्रदेश में सामंती ब्राह्मणवादी पार्टी भाजपा के साथ संश्रय कायम कर लिया. बिहार में हमने अपने संघर्ष के इलाकों में बसपा की घुसपैठ को सफलतापूर्वक रोक दिया है और उत्तरप्रदेश में हमने सीपीआई के पुराने आधारों को, जिन्हें बसपा ने हड़प लिया है, वामपंथ के पहलू में वापस लाने की चुनौती स्वीकार की है.

बसपा का कांग्रेस और भाजपा के साथ मेलजोल, और उसके कट्टर वामपंथ-विरोधी रुख ने दलित बुद्धिजीवियों समेत प्रगतिशील बुद्धिजीवी समुदाय के बीच भ्रमों को दूर करने में मदद की है. मगर अभी तक बसपा को उत्तरप्रदेश में दलित किसान समुदाय के बीच तथा दलित निम्न पूंजीवादी हिस्सों के बीच काफी समर्थन हासिल है. मायावती का थोड़े समय के लिए सत्ता में आना और आम्बेडकर ग्राम योजना, दलित मुक्ति के मसीहाओं की मूर्तियां स्थापित करना, आम्बेडकर तथा दलित समुदाय के बीच प्रतिष्ठित अन्य नेताओं के नाम पर जिलों का नामकरण जैसी सांकेतिक कार्यवाहियों ने उनकी स्थिति सुदृढ़ की है. पंजाब में उसने कुलकों की पार्टी अकाली दल के साथ पूर्णतः अवसरवादी गठजोड़ बनाया और संसदीय चुनाव में अच्छी फसल बटोरी, मगर विधानसभा चुनाव में जब वह अकेले लड़ी, तो उसे एक भी सीट नसीब नहीं हुई.

उत्तरप्रदेश में बसपा को अपने विधायकों को साथ बनाए रखने में काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा है – उनमें से कई लोग तो अन्य पार्टियों से बसपा में आए हैं. और मजे की बात यह है कि उनमें काफी लोग सवर्ण हैं, जो केवल उस दलित आधार को भूनाने के लिए ही आए हैं जिसका कांशीराम मनमाफिक सौदा करते हैं. इसीलिए बसपा ने भाजपा से इस मांग पर जोर डाला था कि मायावती द्वारा कल्याण सिंह को मुख्यमंत्रित्व सौंपते वक्त बसपा के आदमी को विधानसभा अध्यक्ष बनाया जाए, यद्यपि अंततः उसे इस मामले में पीछे हटना पड़ा. उसके बाद बसपा द्वारा कल्याण सिंह सरकार से समर्थन वापस लिए जाने के बावजूद भाजपा उसके कम-से-कम दर्जन भर विधायकों को फोड़ने में कामयाब रही है. दक्षिण, पश्चिम और पूर्वी भारत में बसपा के दावे निष्फल रहे हैं.

जमीनी स्तर पर बसपा ने दलित जातियों के अंदर मर्यादा, समानता और राजसत्ता में भागीदारी की आकांक्षा विकसित की है. लेकिन उंचले स्तर पर उसने दलित कुलीनों का एक ऐसा तबका विकसित किया है, जो सम्पत्ति का भोंड़ा प्रदर्शन करता है और पतनशील पूंजीवादी जिन्दगी बिताता है. बसपा, जो अन्तर्वस्तु में उपरोक्त दलित-कुलीनों और निम्न-पूंजीपति वर्ग के वर्ग-हित का प्रतिनिधित्व करती है, का अंतिम भविष्य है कांग्रेस या भाजपा द्वारा निगल लिया जाना. लेकिन व्यापक दलित समुदाय की बढ़ी हुई राजनीतिक चेतना को अवश्य ही मजदूरी, जमीन, सामाजिक मर्यादा और राजनीतिक मुक्ति के लिए लाल झंडे के बैनर तले गोलबंद किया जा सकता है.

महाराष्ट्र में दलित आंदोलन पुनर्गठन की प्रक्रिया में है, जहां आम्बेडकर की मूर्ति का निरादर करने के बाद जो दलित विस्फोट हुआ, उसने उन तमाम पुराने दलित नेताओं को भी नहीं बख्शा, जो अब पतित हो चुके हैं. हाल के दौर में आम्बेडकर को नीचा दिखाने और उन्हें भारत की आजादी के विरोधी के बतौर प्रदर्शित करने की सोची-समझी योजाना सामने आ रही है. हाल में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने भी आम्बेडकर पर हमला करना शुरू किया है. इस बीच भाजपा अपने साम्प्रयादिक उद्देश्य से आम्बेडकर को हस्तगत करने की फिराक में है. हमें इन कार्यवाहियों का अवश्य ही विरोध करना चाहिए. सामाजिक-आर्थिक पहलू से आम्बेडकर गांधी से, और यहां तक कि नेहरू से भी ज्यादा रैडिकल थे. राजनीतिक रूप से भी वे भारत में राष्ट्र निर्माण की जटिलताओं के बारे में ज्यादा वाकिफ थे. उन्होंने कभी भी तमाम चीजों से ऊपर एक राष्ट्रीय नेता होने का दिखावा नहीं किया, और दलित मुक्ति को स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग बनाने की जोरदार पैरवी की. और यही वह सवाल है, जिससे भारत स्वतंत्रता के पचास वर्ष बाद भी जूझ रहा है.

वर्तमान संदर्भ में दलित प्रश्न को सपाट ढंग से, ‘दलित बनाम ब्राह्मणवादी सवर्ण’ समीकरण में नहीं सीमित किया जा सकता. समृद्धि की ऊपरी पायदान पर चढ़ती मध्यवर्ती जातियों से आए उदीयमान कुलक भी खेतमजदूरों व गरीब किसानों की मजदूरी और जमीन संबंधी मांगों को दबाने के लिए दलितों पर हमले करते हैं.

तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों में दलितों और तैवरों (एक पिछड़ी जाति) के बीच व्यापक पैमाने पर झड़पें, जिनमें राज्य मशीनरी ने खुलेआम तैवरों का पक्ष लिया, इस परिघटना की महत्वपूर्ण मिसाल है. यही परिघटना उत्तरप्रदेश व बिहार में भी जोर पकड़ रही है. मुलायम द्वारा दलितों के उत्पीड़न को रोकने से संबंधित केन्द्रीय अधिनियम को खारिज करने की मांग इसी दृष्टिबिन्दु से उभरी है.

हमने उत्तरप्रदेश में दलित प्रश्न पर बहस में बसपा के मुकाबले सक्रियतापूर्वक हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से दलित महासभा संगठित करने का प्रयास किया था. यह कोशिस शुरूआत से ही असफल रही और बाद में हमने इस योजना को ही त्याग देने का फैसला लिया. सही नीति होगी रैडिकल दलित संगठनों से एकताबद्ध होना और प्रगतिशील बुद्धिजीवी समुदाय के साथ, मसलन ‘दलित साहित्य’ के प्रस्थापकों के साथ अंतःक्रिया करना. हाल ही में तमिलनाडु के तिरुनिलवेलि में दलित-उत्पीड़न के खिलाफ एक कन्वेंशन आयोजित किया गया और जुझारू दलित संगठनों के साथ घनिष्ठ संबंध कायम किए गए. हमें अपने संगठन के अंदर दलितवादी विचारों की घुसपैठ के खिलाफ अवश्य ही सतर्क रहना होगा.

(श्री थामस मैथ्यू के प्रत्युत्तर का जवाब. लिबरेशन, जनवरी 1995 से)

वर्ग और जाति के प्रतिसिद्धान्त के बारे में मेरे खंडनात्मक लेख पर श्रीमान थामस मैथ्यू का प्रत्युत्तर (लिबरेशन, नवंबर 1994 और समकालीन लोकयुद्ध, 31 दिसम्बर 1994 में प्रकाशित), अगर संक्षेप में कहा जाए तो उनकी पुस्तक कास्ट एंड क्लास डायनेमिक्स – रैडिकल आंबेडकराइट प्रैक्सिस में मौजूद बेतुकेपन को ही और ज्यादा मुखरित करता है. आइए, विस्तार से चर्चा करें.

संश्लेषण पर पुनर्विचार

1. मैथ्यू महोदय हमें बताते हैं कि उनके द्वारा प्रस्तावित मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद का संश्लेषण दरअसल माओवादी आदर्शवाद और बौद्ध द्वंद्ववाद का संश्लेषण है. इसके अतिरिक्त, यह संश्लेषण न केवल दसियों करोड़ भारतीय जनता के लिए, जैसा कि उन्होंने पहले दावा किया था, वरन् समस्त मानवता के लिए भी आशा की एकमात्र किरण है. सचमुच कितनी महान छलांग है यह!

अब, मैथ्यू महोदय ‘माओवादी आदर्शवाद’ शब्द के लिए, जिसका वास्तव में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया, मुझपर जरूर उंगलियां उठा सकते हैं. यथोचित क्षमायाचना के साथ, मैं फिर भी यही जोर देकर कहूंगा कि माओ-विचारधारा की उनकी व्याख्या से संभवतः कोई दूसरा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है. हमलोग जानते हैं कि मैध्यू महोदाय ने बुनियादी मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं की भर्त्सना करने में के. वेणु से शिक्षा ले रखी है और इस परिप्रेक्ष में ‘मार्क्सवाद के पश्चिमी संस्करण के यांत्रिक व्यवहार’ के बरखिलाफ माओ द्वारा तथाकथित रूप से विचारधारा को ‘प्रतिष्ठित’ किए जाने के प्रति उनका उल्लास किसी भी भौतिकवादी के मस्तिष्क में वास्तविक संदेह पैदा करता है.

आधार और ऊपरी ढांचे के बीच द्वंद्वात्मक अंतर्सम्बंध मार्क्सवादी दर्शन की आधारशिला है, फिर भी अगर माओ को ही इस प्रशस्ति के लिए छांट कर अलग किया जाता है कि उन्होंने आधार पर ऊपरी ढांचे की क्रिया को केन्द्रीय महत्व दिया या दूसरे शब्दों में विचारधारा को ‘प्रतिष्ठित’ किया, तो यह पूरी कवायद द्वंद्वात्मक भौतिकवादी ढांचे के तहत माओ-विचारधारा की किसी सच्ची समझ के बजाय पेट्टी बुर्जुआ बुद्धिजीवी की अराजकतावादी-भाववादी सोच से ज्यादा मिलती-जुलती है.

खुद माओ ने चीनी परिस्थिति में ठोस रूप से मार्क्सवाद-लेनिनवाद को लागू करने से अधिक कोई दावा नहीं किया. अवश्य ही उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन की द्वंद्वात्मक अन्तर्वस्तु को सोवियत अधिभूतवाद के आच्छादित प्रभाव से मुक्त किया था.

बहरहाल, दुनिया भर में माओवाद के अतिउत्साही व्याख्याकार सांस्कृतिक क्रांति  की चर्चा माओ को मार्क्सवादी मूल सिद्धान्तों के खिलाफ खड़ा करने और उन्हें आत्मनिष्ठ भाववादी के स्तर तक गिरा देने के लिए ही करते हैं. मैथ्यू महोदय भी इसी नस्ल के जीव हैं. मैथ्यू महाशय यह भी बताते हैं कि आम्बेडकर पहले पश्चिमी यांत्रिक भौतिकवाद से प्रभावित थे, लेकिन अपने जीवन के उत्तरकाल में ‘परिपक्व होकर’ उन्होंने बौद्ध द्वंद्ववाद को अपना लिया. ऐसा क्यों, कि पश्चिम की सबसे आधुनिक चिन्तन प्रक्रियाओं के अच्छे जानकर आम्बेडकर ने ‘परिपक्व होकर’ उस दौर में बौद्ध द्वंद्ववाद के उच्चतम विकास – मार्क्सवादी द्वंद्ववाद – को अपनाने के बजाए पुराकाल के बौद्ध द्वंद्ववाद को अपनाना पसन्द किया? इस प्रश्न के गंभीर व गहन अन्वेषण से पता लगेगा कि मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद दो बिलकुल भिन्न दार्शनिक-वैज्ञानिक प्रणालियों का प्रतिनिधित्व करते हैं.

बेशक, भारतीय जनवादी क्रांति  के फौरी संदर्भ में कार्यवाहियों का मार्क्सवादी कार्यक्रम आम्बेडकरवाद के रैडिकल पक्ष के साथ काफी कुछ साझेदारी कर सकता है. लेकिन किसी एकल दार्शनिक-वैचारिक धारा के अंतर्गत दोनों का मिश्रण न केवल असंभव है, बल्कि खास-खास समयों में वह प्रतिक्रियावादी प्रयासों में भी पतित हो जा सकता है.

समाजवादी बनाम रैडिकल बुर्जुआ भविष्यदृष्टि

2. मैथ्यू महोदय मेरे वक्तव्य की गवाही पेश कर यह साबित करते हैं कि आम्बेडकर समाजवाद के पक्षधर थे, लेकिन वे आगे कहते हैं कि आम्बेडकर की मान्यता थी कि दास वर्गों (अछूतों व शूद्रों) के शासक वर्ग में रूपान्तरित हो जाने के बाद ही समाजवाद आ सकता है.

मैंने यह स्पष्ट किया था कि तमाम सीमाबद्धताओं के बावजूद आम्बेडकर की दृष्टि रैडिकल बुर्जुआ दृष्टि थी और यह गांधी की रूढ़वादी बुर्जुआ दृष्टि के खिलाफ संघर्ष के दौरान मुखर हुई थी. उन दिनों समाजवाद एक लोकप्रिय नारा था और प्रगतिशील व लगभग-प्रगतिशील विचारधाराओं के तमाम व्याख्याकार खुद को समाजवादी कहलाना पसन्द करते थे. नेहरू पर यह लागू होता था और आम्बेडकर के साथ भी यही बात थी. मैथ्यू महोदय को यह जानना चाहिए कि जमीन के राष्ट्रीयकरण के साथ-साथ जातीय विभेद के खात्में की मांग रैडिकल बुर्जुआ जनवाद की परिसीमा के अंतर्गत ही आती है और पूर्ण विकसित पूंजीवाद जाति-उन्मूलन की क्षमता अवश्य रखता है. जनवादी क्रांति  के कम्युनिस्ट कार्यक्रम की भी ये महत्वपूर्ण मांगें हैं क्योंकि आमूलचूल ढंग से सामंती जकड़नों से मुक्त हुए बिना सच्चा पूंजीवादी विकास भी संभव नहीं है. लेकिन एक रैडिकल बुर्जुआ के सफर का अंत यहीं हो जाता है, जबकि कम्युनिस्ट के लिए यह उस मंजिल की शुरूआत करना है, जहां समाजवाद के लिए महान वर्गयुद्ध निर्णायक तौर पर लड़ा और जीता जा सकता है.

जाति उन्मूलन किसी भी तरह वर्ग का विनाश नहीं करता है. इसके विपरीत, यह वर्ग निर्माण को सुगम बनाता है, वर्ग-ध्रुवीकरण के तेज करता है तथा वर्ग संघर्ष को खुला, व्यापक व प्रत्यक्ष बना देता है. पश्चिमी समाज को, जहां कोई जातीय विभेद नहीं है, देखने पर यह समझना आसान हो जाता है, जहां जातीय विभेद की अनुपस्थिति वर्ग संघर्ष को शुद्धतर रूप में सामने लाती है.

अगर अछूत व शूद्र जातियां शासक वर्गों (जातियों) के बतौर उभरती हैं, तो इससे किसी भी तरह समाजवाद नहीं आ जाएगा. इन जातियों का एक प्रतिनिधिक अंश भारत के अनेक राज्यों में शासक वर्गो के बतौर उभर चुका है. अधिकांश मामलों में उनके बीच की प्रभुत्वशाली जातियां निचले पायदानों पर खड़ी जातियों के प्रति वही ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति दिखलाने लग जाती हैं. उसके बाद फिर, पिछड़ी के बीच से शक्तिशाली कुलक लाबियां उभर उठी हैं जो अधिकांशतः दलित खेत मजदूरों और गरीब किसानों के प्रति गहरी शत्रुता प्रदर्शित करती हैं. अपनी पुस्तक में मैथ्यू महोदय केरल में कतिपय शूद्र जातियों की इस आरोही गति की ओर इशारा करते हैं और अपने ‘प्रत्युत्तर’ में भी वे दलित-शूद्र कृषकों के बीच वर्ग विभेदीकरण की चर्चा करते हैं. अनिच्छापूर्वक ही सही, उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि पिछड़ी जातियों का राष्ट्रीय बुर्जुआ बदलती विश्व आर्थिक व राजनीतिक संदर्भ में जनवादी क्रांति  का सुसंगत संश्रयकारी नही भी हो सकता है. इस अनुभूति का स्वागत करते हुए मैं यह आशा करता हूं कि मैथ्यू महोदय यह भी समझेंगे कि इसका दूसरा अंश, अर्थात् ग्रामीण बुर्जुआ या पिछड़ी जातियों के कुलक भी जनवादी क्रांति  की ‘मुख्य ताकत और मुख्य संश्रयकारी’ नहीं बनेंगे.

आम्बेडकरवाद का वर्ग चरित्र

3. दलितों के पेट्टी बुर्जुआ हिस्से के वर्ग प्रतिनिधि के बतौर आम्बेडकर का चरित्रनिर्धारण करने के चलते मेरे खिलाफ मैथ्यू महोदय ने हथियार तान लिया है. आइए, देखें कि खुद उन्होंने आम्बेडकर की वर्ग स्थिति का कैसे निर्धारण किया है. वे शुरू में ‘आम्बेडकरवाद की पेट्टी बुर्जुआ सीमाओं’ को स्वीकार करते हैं, और तब दलित पेट्टी बुर्जुआ के अंदर ‘उनकी बुर्जुआ आकांक्षाओं के लगातार निष्फल होते जाने के वाद सर्वहारा मूल्य भर जाने’ की बड़ी संभावना की काल्पनिक मान्यता पेश कर देते हैं. फिर बुद्धोत्तर अवस्था में और इसके बाद दलित पैंथरोत्तर अवस्था में आम्बेडकरवाद के ‘परिपक्व होने’ की प्रक्रिया से मैथ्यू महोदय यह निष्कर्ष निकालते हैं कि ‘आम्बेडकरवाद दलित पेट्टी बुर्जुआ और दलित सर्वहारा के अंतर्द्वंद्व में फंस जाता है.’ मैथ्यू महोदय हमें परिपक्वता से पहलेवाली, आम्बेडकर की बुद्ध-पूर्व अवस्था में ले चलते हैं जो ‘दलित बुर्जुआ के बजाय दलित सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करती थी.’ मैथ्यू महोदय के वक्तव्यों में अस्पष्टता और उनकी काल्पनिक मान्यताएं सिर्फ यही सिद्ध करती हैं कि वे खुद सर्वहारा और बुर्जुआ के वर्ग प्रतिनिधि के बतौर आम्बेडकर के चरित्र निर्धारण के अंतर्द्वंद्व में फंस गए हैं.

मैथ्यू महोदय की मेहनती कवायदें अंबेडकर के वर्ग चरित्र के बारे में मेरी धारणा की ही पुष्टि करती हैं, क्योंकि आम्बेडकर की स्थितियों में जिस अनिश्चयता की चर्चा वे करते हैं, वह पेट्टी पुर्जुआ का बुनियादी चरित्र लक्षण होता है. उन्हें यह तथ्य भी याद कराया जाना चाहिए कि दलित या अन्य पेट्टी बुर्जुआ तबकों की बुर्जुआ आकांक्षाओं के लगातार निष्फल होने से यह जरूरी नहीं कि उनके अंदर सर्वहारा मूल्य भर ही जाएंगे. अक्सरहा, इससे हताशा और अराजकता ही पैदा होती है. क्या आम्बेडकरवाद के दलित पैंथरोत्तर अवस्था पर इतनी आशा टिकानेवाले मैथ्यू महोदय इस सवाल पर विचार करेंगे कि उस समय के दलित पैंथर आज कहां खड़े हैं?

मैंने कहा है कि आम्बेडकर की भविष्यदृष्टि एक रैडिकल बुर्जुआ दृष्टि थी और यह गांधी की रूढ़िवादी बुर्जुआ दृष्टि के साथ वाद-विवाद के दौरान खासतौर पर मुखर हुई थी. ‘बुर्जुआ’ शब्द हमारे देश में इतना कुख्यात होचुका है कि लोग रेडिकल और रूढ़िवादी बुर्जुआ दृष्टि के बीच फर्क नहीं कर पाते और इस तथ्य को नजरअंदाज करने लगते हैं कि जनवादी क्रांति के हमारे फौरी संदर्भ में रैडिकल बुर्जुआ दृष्टि एक क्रांतिकारी दृष्टि का प्रतीक है. ‘बुर्जुआ’ के बतौर आम्बेडकर का चरित्र निर्धारण करने के चलते उनके अंधभक्तों ने मुझे काफी खरी-खोटी सुनाई, लेकिन एक रेडिकल बुर्जुआ के बतौर आम्बेडकर का चरित्र चित्रित कर मैंने कम्युनिस्ट आंदोलन में पहली बार उनका सकारात्मक पुनर्मूल्यांकन किया है, उन्हें उनके समकालीनों से ऊंचा स्थान दिया है और कम्युनिस्टों व रैडिकल आम्बेडकरपंथियों के बीच लंबे दौर तक संश्रय का मार्ग प्रशस्त किया है. मैथ्यू महोदय यह बात समझने में पूरी तरह चूक गए.

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि आम्बेडकर के क्रांति कारी जनवादी आदर्शों को बुलंद करने के साथ-साथ उनकी रैडिकल बुर्जुआ दृष्टि में मौजूद विसंगतियों को पहचानते हुए उनका आलोचनात्मक मूल्यांकन किया जाए. चीन के सुन यात-सेन भी आखिरकार एक रैडिकल बुर्जुआ ही थे -- आम्बेडकर की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुसंगत.

बसपा बनाम जनता दल

4. मैथ्यू महोदय अपने इस सूत्रीकरण पर डटे हुए हैं कि बसपा की सर्वदलित एकता की अवधारणा रिपब्लिकन (आम्बेडकरपंथी) व्यवहार की तुलना में एक बड़ी सैद्धांतिक अग्रगति है और यह भी कि मंडल मुद्दे को अपनाकर जनता दल ने सर्वदलित एकता के बसपा के ढांचे को ही सकारात्मक और कारगर रूप से अपनाया है. पुस्तक के प्रकाशन के बाद की स्थितियों के दबाव ने मैथ्यू महोदय को आमतौर पर जनता दल और खासकर श्री रामविलास पासवान के बारे में अपनी खुशफहमी को काफी हद तक कम करने तथा महज ‘तथ्यगत वक्तव्य’ तक सीमित हो जाने को बाध्य कर दिया. लेकिन तथ्य तो कुछ दूसरी चीजें भी साबित करते हैं. बसपा ने जनता दल को उसके बाद मात दे दी और कांशीराम ने श्रीमान पासवान को किनारे कर दिया. मैथ्यू महोदय इस विपरीत गति की व्याख्या नहीं कर सके.

खुदा, जो असफल हो गया

5. मैथ्यू महोदय के लिए मंडल उनकी आनेवाली प्रिय दलित क्रांति का ही प्रतीक था. लेकिन अफसोस! यह क्रांति बीच में ही भटक गई. उनकी निराशा काफी स्पष्ट है. पहले उन्होंने सवर्ण औद्योगिक मजदूर वर्ग के तथाकथित प्रतिनिधियों – मुख्यधारा के वामपंथियों – पर मंडलविरोध का आरोप लगाया; अब वे मंडल के प्रति सीपीआई की स्थिति की सराहना करते हैं और क्रीमी लेयर संबंधी फैसले के प्रति समर्थन के कारण हमारे और सीपीआई(एम) के खिलाफ अपना क्रोध उगलते हैं.

मैं नहीं कह सकता कि मंडल के मामले में वे सीपीआई कि स्थिति की कैसे व्याख्या करेंगे. क्योंकि हमारे या यहां तक की सीपीआई(एम) की अपेक्षा भी सीपीआई की जड़े तथाकथित आभिजात्य श्रमिक समुदाय या मैथ्यू महोदय के शब्दों में ‘सवर्ण औद्योगिक मजदूरों’ के पीच ज्यादा गहरी धंसी हुई हैं, या फिर इस मामले में बिहार के मंडल राज के अंतर्गत जनता दल के ‘स्वाभाविक संश्रयकारी’ के बतौर बिलकुल दृढ़तापूर्वक सीपीआई और सीपीआई(एम) के काम करने की परिघटना को वे कैसे देखते हैं.

मैथ्यू महोदय के अनुसार, क्रीमी लेयर संबंधी फैसले के प्रति हमारा समर्थन आरक्षण के लिए आर्थिक कसौटी को समर्थन देने के समतुल्य है. तब इसका मतलब आरक्षण को आर्थिक उन्नयन का एक साधन मान लेना होगा और तब इसका मतलब होगा ‘जन साझेदारी वाले लोकतंत्र और प्रशासन तंत्र के जनवादीकरण’ के आम्बेडकरवादी रुख के बरखिलाफ उन्नयन के गांधीवादी रुख की तरफदारी करना. मैथ्यू जी के तर्कशास्त्र का जवाब नहीं!

खुद मैथ्यू महोदय द्वारा उद्धृत मेरे अपने विश्लेषण में शासक वर्गों की सीमाओं के अंतर्गत पिछड़ों के कुछ तबकों को शामिल करके  ‘जन साझेदारी वाले लोकतंत्र और प्रशासन तंत्र के जनवादीकरण’ की बात निहित है. मौजूदा सामाजिक-आर्थिक संरचना में कोई सुधार का उपाय भला और किस हद तक जा सकता है? क्रीमी लेयर संबंधी फैसले का समर्थन करके क्या हम जन साझेदारी वाले लोकतंत्र और प्रशासन तंत्र के जनवादीकरण के दायरे को और भी व्यापक आधार तक विस्तारित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? – क्योंकि क्रीमी लेयर में जो लोग आते हैं वे कमोबेश मुक्त होड़ की क्षमता अर्जित कर चुके हैं और जो अन्यथा ओबीसी के लिए सम्पूर्ण आरक्षित कोटा हड़प कर जाएंगे.

इस प्रकार क्या हम सुधार प्रक्रिया में रैडिकल तत्व के लिए दबाव नहीं डाल रहे हैं? यह देखकर सचमुच आश्चर्य हो रहा है कि दलित सर्वहारा का एक स्वघोषित प्रतिनिधि इतनी मेहनत से क्रीमी लेयर के हितों को आगे बढ़ाने में लगा हुआ है. लेकिन तब, अपनी फंतासी की दुनिया में ही सही, मैथ्यू महोदय यह विश्वास करते हैं कि मंडलवादी संघर्ष की रहनुमाई अनुसूचित जातियां कर रही थीं और मंडल विरोध उन्माद की मार भी सबसे अधिक उन्हीं को झेलनी पड़ी थी. मंडल मुद्दे के गिर्द दलितों-पिछड़ों की एकता निर्मित करने का यह बड़ा मौका चूक जाने और इसके बजाय ग्रामीण सर्वहारा तथा पिछड़ी जातियों के कुलकों के बीच वर्ग-टकराव तेज करने जैसी वामपंथ की अदूरदर्शिता का रोना वे रोते हैं.

सबसे पहले तो मैं यही कहूंगा कि यह मान्यता सीपीआई और सीपीआई(एम) के लिए ठीक नहीं बैठती. ग्रामीण सर्वहारा और पिछड़े कुलकों के बीच वर्ग टकराव तेज करने का आरोप उनपर नहीं लगाया जा सकता है. अगर ऐसा होता तो वे जनता दल के साथ इतनी स्थाई बिरादरी कभी नहीं निभा पाते. यह आरोप हमारे लिए अवश्य ही सही है और मैथ्यू महोदय को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि बिहार में हमारे वामपंथी मित्र सीपीआई और सीपीआई(एम) रोजाना हमपर यही आरोप लगाया करते हैं.

दूसरे, मैथ्यू महोदय द्वारा प्रोयोजित दलित-पिछड़ा एकता आश्चर्यजनक ढंग से दलितों को कुलकों के सामने अपना वर्गहित कुर्बान कर देने और क्रीमी लेयर के लिए आरक्षण की खातिर संघर्ष करने, कुर्बानियां देने व यहां तक कि उसकी रहनुमाई करने के आह्वान के इर्द-गिर्द निर्मित होती है.

मैथ्यू महोदय को यह जानना चाहिए कि कुलक अपने संघर्ष की खुद रहनुमाई करने में बिलकुल सक्षम हैं और रामविलास पासवान जैसे कुलक-टहलुओं को छोड़कर, आम दलित उनकी इस सलाह पर कान नहीं देने वाले हैं. इस प्रक्रिया में मैथ्यू महोदय सिर्फ यह उजागर करते हैं कि किनके वर्गहित उनके दिमाग में प्रमुख स्थान रखते हैं.

हां, वे एक उपयुक्त सवाल जरूर उठाते हैं. अगर मंडल मुद्दा का लक्ष्य शक्तिशाली पिछड़ी जातियों को समायोजित करने के जरिए शासक वर्ग का आधार व्यापक बनाना ही था, तो क्रीमी लेयर को बहिष्कृत करके भी क्या यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है?

मैथ्यू महोदय आश्वस्त हो लें कि कोर्ट का फैसला सामाजिक यथार्थ को निर्देशित नहीं कर सकता. सामाजिक यथार्थ कोर्ट के फैसले को फंसाकर उसे सांकेतिकता में बदल देने के हजार रास्ते व साधन खोज निकालेंगे.

50% आरक्षण-सीमा रखने के फैसले से तमिलनाडु कतरा कर निकल गया और कुछेक अन्य राज्य भी ऐसा ही करने जा रहे हैं. बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में क्रीमी लेयर के लिए सूत्रबद्ध कसौटी के अनुसार शायद ही कोई क्रीमी लेयर दर्ज कराने लायक रह जाएगा. क्रीमी लेयर संबंधी फैसला वामपंथियों को सिर्फ यह मौका देता है कि वे जाति समुदायों के अंदर वर्ग चेतना बढ़ाएं और हम यह मौका कतई नहीं चूके हैं.

वर्ग और जाति

6. मैथ्यू महोदय मेरे इस सूत्रीकरण पर तत्परता से सहमत हो जाते हैं कि वर्ग एक बुनियादी कोटि है जिसके जड़े उत्पादन प्रणाली में निहित हैं और तब वे फौरन सैद्धांतिक ढांचे में द्वैधता का तत्व पेश कर देते हैं – यह घोषित करते हुए कि जातियों की जड़े भी उत्पादन प्रणाली में निहित हैं.

जब मार्क्स और एंगेल्स यह घोषणा करते हैं कि अबतक समस्त समाजों का इतिहास (आदिम साम्यवादी समाज को छोड़कर) वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है, तो वे समाज-विकास के एक बुनियादी नियम का उदघाटन करते हैं. बहरहाल, केवल पूर्ण विकसित पूंजीवादी समाज में ही वर्ग और उनके बीच के संघर्ष शुद्ध रूप में प्रकट होते हैं. दूसरे तमाम समाजों में वर्ग संघर्ष काफी जटिल रूप धारण करता है. खुद मार्क्स ने यह दिखाने के लिए अनेक अध्ययन किए कि धार्मिक जेहादों, औपनिवेशिक अभियानों, महल-विद्रोहों तथा सामाजिक संस्तरों के बीच टकराव आदि के पीछे किस तरह वर्ग स्वार्थों के आपसी टकराव और संघर्ष हो रहे थे. इस मार्क्सवादी आधारशिला पर खड़े होकर भारतीय कम्युनिस्टों को जाति-संघर्ष की आभासी परिघटना के अंदर प्रवेश कर हमारे समाज में मौजूद वर्ग-गत्यात्मकता के सार को उदघाटित करना होगा. लेकिन वर्ग-जाति द्वैधता की उपस्थिति बिलकुल शुरू से ही इस अध्ययन को नुकसान पहुंचाती है.

मैं समझता हूं कि खुद जाति व्यवस्था एक खास उत्पादन प्रणाली और तदनुरूप उत्पादन संबंधों के स्तर की उपज थी. यहां वर्ग संबंध जातियों का रूप ले लेते हैं, जिन्हें पुरोहितों द्वारा दैवीय मान्यता प्रदान कर दी गई. बहरहाल, उनका ‘स्थायित्व’ किसी दैवीय मान्यता के जरिए नहीं बल्कि ग्राम समुदाय के उस जड़ सामाजिक संगठन के जरिए मुख्यतः निर्धारित होता था, जो फिर उत्पादक शक्तियों के एक निश्चित स्तर की ही उपज था. यहां जाति और वर्ग एक आभासी सामंजस्य में प्रकट हुए. जाति और वर्ग का यह सामंजस्य, आधार और ऊपरी ढांचे की यह संगति आभासी है, क्योंकि ये दोनों बिलकुल भिन्न कोटियां हैं, जो क्रमशः आधार और उपरी ढांचा से, उत्पादन प्रणाली और वितरण-नियमन से पनपी हैं.

जैसे-जैसे उत्पादक शक्तियों का स्तर विकसित होता है और उत्पादन प्रणाली एक धीमे परिवर्तन के दौर से गुजरती है, यह सामंजस्य टूट जाता है; वर्ग और जाति, आधार और ऊपरी ढांचा आपस में टकराने लगते हैं, प्रत्येक दूसरे को निरूपित करने की कोशिश करता है. और आपके सामने एक लंबी संक्रमणकालीन अवस्था होती है जहां वर्ग दावेदारी मुखर होती जाती है, और काफी विचित्र ढंग से खुद को प्रायः जातीय गतिशीलता के भंवर में अभिव्यक्त करती है. विभिन्न जातियों के बीच उत्पादन-साधनों के बंटवारे का तथाकथित स्थायित्व दरक जाता है. बहरहाल, नए आधुनिक आर्थिक वर्ग राजनीतिक और प्रशासकीय, दोनों किस्म की सत्ता संरचनाओं में साझेदारी की खातिर आपसी लड़ाई में जातियों की संस्थागत पताका का इस्तेमाल करते हैं. औजार पुराना है, लेकिन सारवस्तु मूलतः बदली हुई है. प्रथम अवस्था के सामंजस्य का इस अवस्था में निषेध हो जाता है तथा वर्ग और जाति एक दूसरे को कहीं काटती और कहीं एक-दूसरे से लिपटती हुई एक जटिल स्थिति का निर्माण करती है. आखिरकार, ऐतिहासिक गति इस अवस्था का भी निषेध कर देगी तथा आधार व ऊपरी ढांचे के बीच पुनः सामंजस्य और संगति स्थापित कर देगी – अलबत्ता एक उच्चतर रूप में, जब जातियां समाप्त हो जाती हैं और वर्ग संबंध व वर्ग संघर्ष शुद्ध रूप में प्रकट हो जाते हैं. यह संगति महज आत्मगत रूप में सामने नहीं लायी जा सकती है. जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं जाति व्यवस्था एक निश्चित उत्पादन प्रणाली और तदनुरूप उत्पादन संबंधों के स्तर से पैदा हुई थी. इसका खात्मा भी उत्पादक शक्तियों व उत्पादन संबंध के उच्चतर स्तर पर ही संभव हो सकेगा. मैंने कहा था कि पूंजीवाद का अबाधित विकास, जो उत्पीड़न के गैर-आर्थिक रूपों को खत्म करता है, वितरण प्रणाली में भी वर्ग को प्रत्यक्ष रूप से निर्णयकारी बना देता है. और इस प्रकार जाति-उन्मूलन की अत्यधिक क्षमता भी उसके अंदर निहित रहती है.

बहरहाल, मैथ्यू महोदय मानते हैं कि जाति व्यवस्था ने उत्पादन संबंधों को बुनियादी रूप से निर्धारित कर दिया और विभिन्न जातियों के बीच उत्पादन के सांधनों का स्थायी रूप से बंटवारा कर दिया. इस प्रकार, उनकी चिंतन प्रणाली में जाति व्यवस्था और इसका स्थायित्व एक पुरोहिताई षड्यंत्र प्रतीत होते हैं. यद्यपि वे इस बात से सहमत हैं कि जाति व्यवस्था ऊपरी ढांचे का मुख्य कार्य अर्थात् वितरण का नियमन करती है, फिर भी वे उत्पादन संबंधों के क्षेत्र में जाति व्यवस्था द्वारा अदा की जानेवाली भूमिका – दूसरे शब्दों में, आधार पर ऊपरी ढांचे की क्रिया – का यह अर्थ निकालते हैं कि जाति भी आधार का ही अंग होती है. यह चीज फौरन एक विरोधाभास को जन्म देती है कि ऐसी स्थिति में दूसरी बुनियादी कोटि, अर्थात् वर्ग का क्या होता है और जाति के साथ इसका संबंध कैसा रहता है. मैथ्यू महोदय वर्ग निर्माण की उस प्रक्रिया को नहीं देखते हैं जो भ्रूण रूप में ही सही, हमारे  समाज में सिमित औद्योगीकरण  के दौरान घटित हो रही है. इसके विपरीत, उन्हे लगता है, कि इससे जाति गठन ही मजबूत हुआ है. प्राक्-पूंजीवादी अवस्थाओं के मामले में मेरे इस सूत्रीकरण के विपरीत कि वर्ग खुद को जाति के रूप में अभिव्यक्त कर सकता है, मैथ्यू यह थीसिस पेश करते हैं कि शोषण के आर्थिक और गैर-आर्थिक रूपों को संयोजित करते हुए जाति ही आर्थिक वर्ग का स्वरूप ग्रहण कर लेती है. आगे वे तर्क करते हैं कि दूसरी ऐतिहासिक परिस्थितियों में वर्ग और जाति नहीं बल्कि वर्ग के आर्थिक और गैर-आर्थिक पहलू  अंतर्ग्रंथित हो जाते हैं. दुसरे शब्दों मे , वर्ग और जाति दोनों के आर्थिक और गैर-आर्थिक पहलू होते हैं, दोनों ही बुनियादी कोटियां हैं जिनकी जड़े उत्पादन प्रणाली में निहित होती हैं और इस प्रकार दोनों के बीच कोई एंटिथीसिस नहीं है. मैथ्यू महोदय, विरोधाभास अभी भी हल नहीं हुआ; ये दो कोटियां अपनी-अपनी जगह पूर्ण बुनियादी कोटियां तब कैसे हुई? वे एक दूसरे से भिन्न फिर कैसे हैं? यह द्वैधता हमें और कहीं न ले जाकर तार्किक रूप से यही निष्कर्ष पेश करती है कि जाति ही वह बुनियादी कोटि है जो वर्ग का निर्धारण करती है. इस प्रकार वर्ग को कम्युनिस्ट नामक आधुनिक पुरोहितों द्वारा आविष्कृत ऊपरी ढांचे के क्षेत्र में धकेल दिया जाता है. जाति-व्यवस्था की एंटिथीसिस भी जाति व्यवस्था ही है और आगामी जाति संघर्ष में वर्ग का ही सफाया हो जाएगा! मैथ्यू महोदय की तथाकथित दलित जनवादी क्रांति की यही सारवस्तु है.

वर्ग का विनाश!

दलित जनवादी क्रांति की अवधारणा में आप सर्वहारा को एक अखंड वर्ग के बतौर नहीं, बल्कि दलित सर्वहारा और सवर्ण सर्वहारा के बतौर पाएंगे. उसी तरह, किसान और बुर्जुआ के विभिन्न वर्ग भी विभाजित हैं और अपनी जातीय निष्ठा के आधार पर एक दूसरे के विरोध में खड़े होते हैं. मैथ्यू महोदय भूल जाते हैं कि जातियों की भांति वर्ग का विखंडित अस्तित्व नहीं होता, हो भी नहीं सकता. कारखाना प्रणाली और पूंजीवाद ने सर्वहारा की वर्ग पहचान निर्मित करने की शर्तें तैयार कर दी हैं और इसी वजह से उन्हें वर्ग कार्रवाइयों में संगठित करने के अलावे कम्युनिस्ट पार्टी को चाहिए कि वह संगठित व असंगठित मजदूर वर्ग के विभिन्न हिस्सों के बीच मौजूद जातीय, साम्प्रयादिक, अंधराष्ट्रवादी पूर्वाग्रहों के खिलाफ संघर्ष करे.

मैथ्यू महोदय यह नहीं देखते कि पूंजीवाद और औद्योगिक मजदूर वर्ग का उदय जातीय प्रणाली की एंटिथीसिस है जो इसके उन्मूलन की क्षमता रखता है. वे यह भी भूल जाना चाहते हैं कि जाति उन्मूलन से संबंधित आम्बेडकर के विचारों समेत तमाम रैडिकल विचार पूंजीवाद के आगमन के बाद तथा पश्चिमी जगत से आनेवाले रैडिकल बुर्जुआ व सर्वहारा विचारों के साथ अंतःक्रिया के दौर में ही उभरे हैं. वे मान लेते हैं कि आत्मगत रूप से निर्मित जातीय व्यवस्था सांस्कृतिक क्रांति जैसे किसी किस्म के आत्मगत प्रयासों से ही समाप्त की जा सकती है. वे जातिवाद के खिलाफ आम्बेडकर के जेहाद और रैडिकल आर्थिक कार्यक्रम की उनकी वकालत के बीच मौजूद कड़ी को नहीं देख पाते हैं तथा निष्कर्ष निकालते हैं कि जाति के विनाश के बिना पूंजीवाद या औद्योगीकरण संभव ही नहीं है.

सर्वहारा नेतृत्व

मैथ्यू महोदय नव जनवादी क्रांति की माओवादी अवधारणा के बारे में अजीब विचार रखते हैं. मेरे इस दावे के बारे में, कि पश्चिमी देशों की पुरानी जनवादी क्रांतियों तथा पूर्व के अर्ध-औपनिवेशिक देशों की नई जनवादी क्रांतियों के बीच मौलिक फर्क इस तथ्य में निहित है कि नवजनवादी क्रांति पूंजिवाद पर न ठहर कर समाजवद की मंज़िल मे चली जाती है, मैथ्यू टिप्पणी करते हैं कि यह कोई मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी नहीं है. उनके अनुसार मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी यह है कि नई जनवादी क्रांति सर्वहारा के नेतृत्व में होती है. बहुत अच्छा, लेकिन नई सामाजिक व्यवस्था के लिहाज से सर्वहारा नेतृत्व का क्या तात्पर्य है? जनवादी क्रांति – नई हो या पुरानी – की आर्थिक अंतर्वस्तु, निश्चय ही, बुर्जुआ होती है. यह सामंती अवशेषों को उन्मूलित कर अबाधित पूंजीवादी विकास का मार्ग प्रशस्त करती है. लेकिन अर्ध-औपनिवेशिक देशों में, जहां ऐतिहासिक रूप से इस क्रांति का नेतृत्व सर्वहारा के कंधों पर आ पड़ा है, इसके साथ ही साथ एक मजबूत समाजवादी पहलू भी उभर उठता है और सर्वहारा नेतृत्व समाजवाद में संक्रमण की गारंटी करता है. माओ के चीन में चीजें इसी प्रकार घटित हुईं और माओ की थीसिस नवजनवाद के बारे में  का एक सरसरी अध्ययन भी इन सब बातों को सिद्ध कर देगा.

मैथ्यू महोदय के साथ समस्या यह है कि उनका सर्वहारा दलित सर्वहारा है – अर्थात्, ग्रामीण सर्वहारा, अनौपचारिक असंगठित क्षेत्रों के मजदूर – जो तथाकथित रूप से सवर्ण औद्योगिक सर्वहारा के विरोध में खड़े हैं. इसके अलावा; इस दलित सर्वहारा के मुख्य संश्रयकारी और मुख्य ताकत हैं पिछड़ी जातियों के कुलक और बुर्जुआ. मैथ्यू अच्छी तरह जानते हैं कि इस ‘वर्ग’ विन्यास के साथ समाजवाद में संक्रमण न तो संभव है और न वांछित. वे यह भी जानते हैं कि समाजवाद के निर्माण के लिए शक्तिशाली सर्वहारा राज्य की आवश्यकता होती है. इसके विपरीत उनकी अराजक मनोस्थिति राज्य की सामाजिक-आर्थिक भूमिका को खारिज कर देती है. इसीलिए, वे समाजवाद के प्रति अप्रतिबद्ध बने रहना पसन्द करते हैं और नई सामाजिक व्यवस्था के प्रश्न से कतराते हैं – कभी तो गोर्बाचेव के रूस तथा देंग के चीन की ओर संकेत करके और कभी आम्बेडकर के राज्यवादी नुस्खे से आगे बढ़ निकलने का बहाना बनाकर. मैथ्यू महोदय को यह जरूर जानना चाहिए कि जनता के बीच समान आधार पर सार्वजनिक (क्षेत्र की) शेयर परिसम्पत्तियों का तथाकथित बंटवारा निजीकरण का ही एक दूसरा नाम है.

मैथ्यू महोदय को यह भी जानना चाहिए कि नक्सलबाड़ी में ग्रामीण सर्वहारा और गरीब किसानों ने जो अगुवा भूमिका अदा की, वह कम्युनिस्ट पार्टी के जरिए उन तक पहुंचाए गए सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण से ही मार्गदर्शित थी. इस मार्गदर्शन और नेतृत्व से उन्हें अलग करने का सीधा मतलब होगा उन्हें बुर्जुआ की गिरफ्त में धकेल देना. बीच का कोई रास्ता नहीं है. सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण सारतः औद्योगिक सर्वहारा का विश्व दृष्टिकोण है. समाजवाद और साम्यवाद की ओर अग्रसर होने का इसका ऐतिहासिक मिशन – एक ऐसा मिशन जो इस वर्ग की वस्तुगत नियति है – वस्तुगत रूप से ही तयशुदा है. आत्मगत रूप से कहा जाए तो इस मिशन के लिए इस वर्ग को कम्युनिस्ट पार्टी तैयार करती है, जिस पार्टी में यह वस्तुगत नियति ठोस रूप से अभिव्यक्त होती है.

मैथ्यू महोदय की प्रिय विषयवस्तु है दलितों को क्रीमी लेयर के हितों के लिए पिछड़ी जातियों के कुलकों के स्वार्थ में संघर्ष करने का उपदेश देना. वे इस बहाने इसे उचित ठहराते हैं कि धनी किसान भी क्रांति के मुख्य संश्रयकारी हैं. आप फिर गलती कर रहे हैं, मैथ्यू महाशय. वर्ग के बतौर धनी किसान को एकता और संघर्ष की नीति के जरिए अधिक से अधिक तटस्थ भर किया जा सकता है. उनका एक छोटा हिस्सा ही क्रांति का समर्थन कर सकता है जबकि अन्य हिस्से इसका उग्र विरोध ही करेंगे. भारतीय परिस्थितियों में, फार्म-सेक्टर के अधिकाधिक विकास के साथ हमें कुलकों की ओर से होनेवाले अपेक्षाकृत बड़े प्रतिरोध के लिए तैयार रहना चाहिए.

मैथ्यू महोदय इस खतरे से सहमत हैं कि उनके संश्रय का नेतृत्व ‘राष्ट्रीय बुर्जुआ’ के हाथों चला जा सकता है और पिछड़ी जातियों के कुलक ग्रामीण गरीबों पर हावी हो जा सकते हैं. बहरहाल, वे इस खतरे को माओवादी मॉडल का सामान्य खतरा मानते हैं और यह भी घोषित करते हैं कि हमारी पार्टी का आंदोलन इस खतरे का शिकार हो चुका है. मैं मैथ्यू महोदय को सिर्फ यह याद दिलाना चाहूंगा कि हमारे आंदोलन के साथ अगर ऐसा हुआ होता तो हमारी पार्टी भी सीपीआई और सीपीआई(एम) की भांति बिहार में जनता दल का ‘स्वाभाविक संश्रयकारी’ बन गई होती. जनता दल की एकमात्र मंडलीकृत सरकार – बिहार सरकार – के खिलाफ लाल झंडा उठाए रखने का मतलब ही है ग्रामीण गरीबों की निरपेक्ष वर्गीय व राजनीतिक स्वतंत्रता को बुलंद रखना.

मैंने अपने लेख में बताया था कि मैथ्यू महोदय के संश्लेषण ने मार्क्सवाद के साथ-साथ आम्बेडकरवाद से भी उसकी रैडिकल सारवस्तु बाहर निकाल दी है और जो कुछ उन्होंने हासिल किया है, वह के. वेणु और रामविलास पासवान – अपनी-अपनी धाराओं के दो कुख्यात गद्दारों – का सम्मिश्रण (हाइब्रिड) ही है. ऐसा साबित हो जाने के बाद भी उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं होती, बल्कि उन्हें इस बात से गौरव होता है कि उनकी बौद्धिक कवायद बड़ी हद तक वास्तविकता को अभिव्यक्त करती है.

यह वास्तविकता क्या है? अपनी बौद्धिक कवायद के समर्थन में मैथ्यू महाशय मार्क्सवादी विचारधारा और नक्सलवाद के हितों के साथ गद्दारी के दो नमूने पेश करते हैं – पीडब्लूजी के पूर्व सचिव केजी सत्यमूर्ति का बसपा में सामिल होना तथा सीआरसी के पूर्व सचिव के. वेणु का केआर गौरी की लोकतंत्र सुरक्षा समिति (केरल) में शामिल होना.

अपनी थीसिस के समर्थन में वे 14 अप्रैल 1993 को रामविलास पासवान के साथ आम्बेडकर जयंती मंच पर हमारे शरीक होने का भी हवाला देते हैं. अव्वल तो, यह साम्प्रदायिकता के खिलाफ राष्ट्रीय अभियान समिति का कार्यक्रम था. उस तिथि की पसंद और श्रीमान पासवान द्वारा उसपर जोर दिए जाने से हमलोग उनकी नीयत के प्रति सशंकित हो उठे; हमने समिति में अपनी आशंकाओं को उठाया और हमें इस मामले में सकारात्मक आश्वासन भी दिया गया. मगर तमाम लोकतांत्रिक कायदे-कानून का उपहास उड़ाते हुए श्रीमान पासवान ने वस्तुतः समूचे कार्यक्रम को आम्बेडकर जयंती समारोह तक सीमित कर दिया. और, वहां अध्यक्षता कर रहे सुरजीत ने हमारी आपत्तियों पर कोई कान नहीं दिया. स्पष्टतः यही वह चरम बिन्दु था, जहां हमने राष्ट्रीय अभियान समिति से अलग हो जाने का फैसला कर लिया.

दूसरे, मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि रैडिकल आम्बेडकरपंथी शक्तियों के साथ किसी मंच में शामिल होना या आम्बेडकर जयंती समारोह में हमारे लोगों का शरीक होना किसी भी तरह हमारी पार्टी की नीति के खिलाफ नहीं जाता है. हम आम्बेडकर को एक रैडिकल जनवादी मानते ही हैं और अपने मुश्तरका जनवादी प्रयासों में हम रैडिकल आम्बेडकरपंथी शक्तियों के साथ हाथ मिलाने के बिलकुल पक्षधर हैं. मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद के तथाकथित संश्लेषण के साथ इसका घालमेल करना और सत्यमूर्ति व के. वेणु की गद्दारी के साथ इसकी बराबरी करना चरम दरजे का बैद्धिक दिवालियापन है.

मैं आशा करता हूं कि वाद-विवाद के क्रम में मेरे द्वारा कुछ खास शब्दों के प्रयोग से पैदा हो सकनेवाले तीखेपन का मैथ्यूजी बुरा नहीं मानेंगे.

मैं सोचता हूं कि मैथ्यू महाशय को इस बात पर सहमत करने में सफल हो गया हूं कि उनके मॉडल में ग्रामीण गरीबों पर कुलक नेतृत्व के हावी हो जाने का खतरा मौजूद है. इस खतरे का मुकाबला करने के लिए वे ‘हर समाज और युग की विशिष्टताओं व गत्यात्मकता के अनुरूप माओवादी मॉडल को अनुकूलित करने’ का प्रस्ताव देते हैं. मेरे मन में अभी भी उलझन है और मैं आशा करता हूं कि मैथ्यू महोदय इस सवाल पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे ताकि हमारे अपने-अपने विचारों का ‘संश्रेषण’ हासिल किया जा सके.

(लिबरेशन, अप्रैल 1994 से)

मुख्य विवाद

हाल के वर्षों में भारत एक महान सामाजिक उथल-पुथल का गवाह रहा है जिसमें जाति और धर्म ने एक प्रमुख उत्प्रेरक की भूमिका निभाई है. शुरूआत हुई वीपी सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार द्वारा 1990 में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों में आरक्षण के बारे में मंडल आयोग की रपट लागू किए जाने का निर्णय लिए जाने के साथ. यद्यपि जनता दल कांग्रेस-विरोध के आधार पर भाजपा की मौन सहमति से सत्ता में आया था. किन्तु यह संश्रय जल्दी ही मुश्किलों से घिर गया. मजेदार बात तो यह है कि दोनों भारत के समकालीन इतिहास में दो प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के सूत्रधार बन बैठे. एक-दूसरे से भिड़े ये आंदोलन आम जनता में मंडल और मंदिर के नाम से मशहूर हुए. प्रारंभ में जनता दल को भ्रष्टाचार (बोफोर्स) विरोधी जेहाद में भारी जनसमर्थन मिला था. बहरहाल, जब इसने मंडल का समर्थन करने के सामने हर चीज कुर्बान कर दी तो इसका समर्थन आधार बुरी तरह सिकुड़ गया तथा इसे एक-एक कर अनेक राजनीतिक संकटों में फंसना पड़ा जिनके चलते अंततः यह भारतीय राजनीति के हाशिए पर की शक्ति में तब्दील हो गया.

वीपी सिंह और उनके सहायकों द्वारा हांकी जारही शेखियों के अनुसार मंडल यथास्थितिवादी और रूढ़िवादी शक्तियों के खिलाफ, जिनके राजनीतिक प्रतिनिधि कांग्रेस(आइ) और भाजपा हैं, भारत में अभूतपूर्व सामाजिक क्रांति  का उदघोष है.

इतिहास ने एक अजीब व्यंग्यात्मक करवट बदली और मंडल की सिफारिशों को कांग्रेस(आइ) ने लागू किया और इस प्रक्रिया में जनता दल की हवा निकल गई.

वीपी सिंह के अंदर मौजूद जेहादी की अंतिम परिणति दलित राष्ट्रपति अथवा पिछड़ा प्रधानमंत्री की हास्यास्पद मांग में हुई, चाहे वह किसी भी विचारधारा या राजनीति को क्यों न मानता हो. फिर, उन्होंने दिल्ली से तबतक बाहर रहने की चाल खेली जबतक कि किसी पिछड़े को आरक्षण कोटे के आधार पर नौकरी नहीं मिल जाती. इस प्रकार क्रांति  दिखावटी सुधारों में पतित हो गई और आंदोलन सांकेतिकता के दायरे में पतित होकर रह गया.

जहां तक आरक्षण के मुद्दे का सवाल है तो जनता दल के सामने इसके सिवा और कोई चारा नहीं कि वह क्रीमी लेयर (धनाढ्य तबके) को आरक्षण न देने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का विरोध करे और आर्थिक आधार पर ऊंची जातियों के वास्ते 10 प्रतिशत आरक्षण का कोटा तय करन के लिए, (जिसका आश्वासन वीपी सिंह ने मंडल विरोधी आंदोलन को मंद करने के लिए दिया था), दबाव डाले. बहरहाल, इन दोनों में से किसी को स्पष्ट कारणों से वह सोत्साह हाथ में नहीं ले सकता.

वीपी सिंह और जनता दल को राजनीतिक ग्रहण लग जाने के चलते मुलायम सिंह और कांशीराम का उदय हुआ. मुलायम सिंह का दावा है कि वीपी सिंह जो पिछड़े नहीं हैं, की तुलना में, वे पिछड़ों के स्वाभाविक प्रतिनिधि हैं. उन्होंने लोहिया का इस्तेमाल करते हुए विरासत की वृहत्तर शक्ति और ईमानदार उद्देश्य के साथ अपनी राजनीति को समाजवादी मुहावरों में लपेटकर पेश किया. दूसरी ओर, दलित राजनीति के उभरते सितारे कांशीराम आम्बेडकर की विरासत लेकर खड़ा होते हैं. रैडिकल दलित मुद्रा ग्रहण कर और कम्युनिस्ट-विरोध के उन्माद के साथ वे खुद आम्बेडकर से भी आगे निकल जाने की हड़बड़ी में हैं.

इन नाटकीय घटनाओं का भारतीय वामपंथी और कम्युनिस्ट आंदोलन पर भारी असर पड़ा है. जहां मंडल ने बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में पिछड़े किसानों के बीच कम्युनिस्टों के आधार को बुरी तरह कुतर लिया, वहां बसपा ने उत्तरप्रदेश में परिस्थितियों में वामपंथियों और कम्युनिस्टों के दायरे में एक विवाद उभरा है. इस विवाद की मुख्य बात है कि भारतीय समाज में जाति परिघटना के प्रति एक नया रुख अपनाया जाए और, खासकर सोवियत संघ के विध्वंस के बाद, वर्ग की “सनातन” अवधारणा को पुनर्परिभाषित किया जाए. हाल ही में सीपीआई की प्रथम कतार नेताओं का उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में शामिल हो जाना, आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वार ग्रुप के नक्सलपंथियों का बड़ी तादाद में बसपा में चले जाना और बिहार में आईपीएफ के कुछ विधायकों का जनता दल में शामिल होना यह बतलाता है कि परिस्थिति कितनी गंभीर और जटिल है.

मेरे सामने एक किताब पड़ी है – जाति और वर्ग का गतिविज्ञान : रैडिकल आम्बेडकरवादी व्यवहार. लेखक हैं कोई डा. टामस मैथ्यू. लेखक ने जाति और वर्ग के अंतरसंबंधों का बड़ा दिलचस्प अध्ययन किया है. मैं जाति-वर्ग संबंधों की पहेली को इस पुस्तक में प्रस्तुत विचारों का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए सुलझाने कि कोशिश करूंगा.

लेखक का घोषित उद्देश्य है मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद का एक संश्लेषण प्रस्तुत करना. लेखक के अनुसार यह “भारत के करोड़ों-करोड़ उत्पादनकामियों की एकमात्र आसा-भरोसा है.” उन्होंने यह भारी कार्य एक ऐसी परिस्थिति में अपने हाथ में लिया है जबकि “मार्क्सवादी व्यवहार को, कम से कम इसके प्रमुख मॉडलों को, विश्व स्तर पर ऐतिहासिक विध्वंस का सामना करना पड़ा है,” किन्तु “आम्बेडकरवादी व्यवहार भारत की दांततोड़ समस्याओं को हल करता नजर आ रहा है.” तथापि इस संश्लेषण की व्याख्या “आम्बेडकरवाद को मार्क्सीय ढांचे में समाहित करने” के बतौर की गई है, इसके उल्टे रूप में नहीं, जैसी आशंका आमतौर पर उपरोक्त संदर्भ का उल्लेख किए जाने से रहती है. लेखक का मार्क्सवादी इतिहास श्री के वेणु के प्रति व्यक्त उनके आभार से स्पष्ट होता है. वे कहते हैं कि “मार्क्सवादी कट्टरपंथ और नेतृत्व के ‘क्रांतिकारी प्राधिकार’ की अवधारणा पर हमला करने में” श्री वेणु द्वारा किये गए “नेतृत्वकारी मार्गदर्शन के अभाव में अनेक मार्क्सवादी कठमुल्लासूत्रों पर सवाल खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं होता.” इसके बारे में और बातें बाद में.

आम्बेडकर की पुनर्परीक्षा

आइए आगे बढ़ा जाए, इस पुस्तक के पहले भाग में गांधी और गांधीवाद के खिलाफ आम्बेडकर के ऐतिहासिक संघर्ष पर चर्चा की गई है. इस भारी ऐतिहासिक महत्व के संघर्ष का वर्णन आम्बेडकर की पुस्तक कांग्रेस, गांधी और अछूत मे किया गया है जिसके मूल संस्कररण की एक पुरानी प्रति लेखक को दिल्ली के एक पुस्तकालय से मिली. यह तथ्य महत्वपूर्ण है, क्योंकि लेखक का दावा है कि परवर्ती संस्करणों में इसकी अन्तर्वस्तु में हेरफेर करने और कुंद बनाने के प्रयास किए गए हैं.

लेखक का दावा है कि शासक वर्गों, कांग्रेस और गांधीवाद के बारे में डा. आम्बेडकर के विश्लेषण और सूत्रीकरण आम्बेडकरपंथियों की आधिकारिक अवधारणाओं से बिलकुल भिन्न थे. इसके अतिरिक्त, “पश्चिमी संसदीय व्यवस्था के बारे में उनका मूल्यांकन तथा पेरिस कम्यून और सोवियत संघ के बारे में उनके प्रशंसात्मक उल्लेख उन तमाम सिद्धान्तों की धज्जियां उड़ा देते हैं जो आम्बेडकर को कम्युनिस्ट-विरोधी बतलाते हैं.”

गांधीवादी रुख, जैसा कि स्पष्ट हुआ, बुनियादी रूप से हिंदू धर्म के अंदर “रचनात्मक कार्य” के जरिए कुछ सुधार करना था, ताकि स्वतंत्रता संघर्ष में कांग्रेस के सवर्ण नेतृत्व के पीछे अछूतों का समर्थन बटोरा जा सके. दूसरी ओर, आम्बेडकर ने खुद जाति व्यवस्था का विनाश करने के लिए और उभरती दलिल आकांक्षा को एक राजनीतिक मंच प्रदान करने के लिये हिंदू धर्म के रेडिकल पुनर्गठन की कोशिश की. गांधी और आम्बेडकर के इन दो परस्पर विरोधी रुखों ने एक दूसरे के साथ, मुस्लिम सरीखे समुदायों के साथ और ब्रिटिश सरकार के साथ उनके संबंध को निर्धारित किया था.

गांधी के आर्थिक दर्शन पर टिप्पणी करते हुए आम्बेडकर लिखते हैं, “मशीन और उस पर निर्मित सभ्यता के चलते उत्पन्न आर्थिक बुराइयों के गांधीवादी विश्लेषण में कुछ भी नया नहीं था. ये पुराने सड़े-गले तर्क ही थे – रूसी, पुश्किन और टालस्टाय के तर्कों को दुहराना भर था. उनका अर्थशास्त्र भ्रांतिपूर्ण था, क्योंकि मशीन-आधारित उत्पादन व्यवस्था और सभ्यता से उत्पन्न बुराइयां वस्तुतः मशीन के चलते उत्पन्न नहीं हुई हैं ... वे वस्तुतः गलत सामाजिक संगठन से पैदा हुई हैं जिसने निजी सम्पत्ति और व्यक्तिगत लाभ हासिल करने को परम पवित्र बना दिया है ... लिहाजा, निदान मशीन और सभ्यता को कोसने में नहीं है, बल्कि सामाजिक संगठन को बदलते में है, ताकि मुट्ठीभर लोग फायदे को हड़प न लें और वह सब लोगों को मिल सके.”

आम्बेडकर गांधी के खिलाफ अपनी लड़ाई में निस्संदेह स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रैडिकल सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता बनकर उभरे.

हरिजन से दलित तक – इसी में अछूतों के आत्मबोध के रूपान्तरण की समूची प्रक्रिया निहित है और इस रूपान्तरण के पीछे आम्बेडकर ने ही गतिमान प्रेरणा का काम किया है. संभवतः वे पहले दलित नेता थे जिन्होंने दलितों के सामाजिक जागरण में और राजनीतिक रूप से उन्हें सामने लाने में खासी सफलता हासिल की.

आम्बेडकर का दूसरा महत्वपूर्ण योगदान था स्वतंत्र भारत के संविधान का मसविदा तैयार करना. आधुनिक भारत के बारे में उनका स्वप्न नेहरू के स्वप्न से मिलता-जुलता था. एक अर्थ में उन्होंने नेहरू की तुलना में गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया. भारत की खोज पर नेहरू के जोर के विपरीत उन्होंने घोषणा की, “यह मानकर कि हम एक राष्ट्र हैं, वस्तुतः हम एक मरीचिका के पिछे दौड़ रहे हैं. हम केवल निर्माणाधीन राष्ट्र होनेभर का दावा कर सकते हैं.”

वे संवैधानिक राजकीय समाजवाद के पक्षधर थे. वे शक्तिशाली केन्द्र चाहते थे और उन्होंने एक ऐसी आर्थिक कार्यक्रम की वकालत की जिसमें भूमि का राष्ट्रीयकरण और सामूहिक खेती के लिए किसानों के बीच उनका वितरण तथा मुख्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण सन्निहित था. वे मानते थे कि स्पष्टतः दलित वर्गों की पक्षधरता पर आधारित राज्य-संपोषित कल्याण कार्यों से जुड़कर यह आर्थिक कार्यक्रम उनके अंतिम लक्ष्य ‘जातियों के उन्मूलन’ की ओर बढ़ जाएगा.

दलितों की सामाजिक मुक्ति के लिए उनका जेहाद उनके लिए हमेशा केन्द्रीय वस्तु बना रहा और जब नेहरू ने हिंदू कोड बिल के विषय पर अनुदारवादी दबाव के सामने घुटने टेक दिए तो वे नेहरू से अलग हो गए. इसने आम्बेडकर को इस बात का और कायल कर दिया कि जातिवाद हिंदू धर्म की बुनियाद है और दलितों के लिए उसका परित्याग कर देने के अलावा और कोई चारा नहीं है और इस प्रकार उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया. उन्होंने इस धर्म की आधुनिक अर्थों में व्याख्या की – इस उम्मीद के साथ कि यह दलितों में एक नए सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का अग्रदूत साबित होगा. राजनीतिक कार्यवाही के क्षेत्र में उन्होंने उत्पीड़ित वर्गों की एक स्वतंत्र जनवादी पार्टी के बतौर रिपब्लिकन पार्टी के निर्माण की परिकल्पना की.

इस प्रकार आम्बेडकर अपने जेहाद के शिखर पर पहुंचे. दुर्भाग्यवश बौद्ध धर्म स्बीकारने में केवल उनकी जाति महारों ने उनका साथ दिया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी राजनीतिक धारा, जिसका प्रतिनिधित्व रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया करती थी, टुकड़ों में बंट गई और उसे कांग्रेस ने हड़प लिया.

वर्गीय अर्थों में आम्बेडकर दलितों के निम्न पूंजीवादी हिस्से का, जिसमें छोटे-मंझोले किसान शामिल हैं, प्रतिनिधित्व करते थे. उनकी विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक स्थितियां आम्बेडकर के आमूलवाद की बुनियादी जड़े थीं और उनकी सीमाबद्धताओं के स्रोत भी. तत्कालीन स्थितियों में वे केवल पूंजीवाद के पूर्ण विकास और शक्तिशाली पूंजीवादी कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए ही प्रयत्न कर सकते थे जो कि युगों पुराने सामाजिक गतिरोध और जड़ता को भंग करने के औजार का काम करते. कम्युनिस्ट व्यवहार के कुछ पहलुओं की प्रशंसात्मक टिप्पणियां और समाजवादी मुहावरों का इस्तेमाल उनकी रैडिकल पूंजीवादी जनवादी अन्तर्वस्तु को ही स्पष्ट करते हैं. यह आम्बेडकर का दोष नहीं है, उसके विपरीत इसी के चलते आम्बेडकर अपने दौर के अनेक ऐतिहासिक पुरुषों से, जो खुद आम्बेडकर के शब्दों में “ब्राह्मण-बनिया संश्रय” की रक्षा करते हुए पूंजीवादी विकास के अनुदारवादी मार्ग के पक्षधर थे, ऊंचा उठ जाते हैं.

आम्बेडकर के डुलमुलपन, उनके समझौते और उनके द्वारा अंततः धार्मिक व्यवहार को अंगीकार करना उनके अस्तित्व की उन्हीं सामाजिक-आर्थिक स्थितियों की उपज है. स्वाधीनता आंदोलन की वैकल्पिक रणनीति तैयार करने में दलित निम्न पूंजीपति वर्ग की अन्तर्निहित सीमाबद्धताएं उन्हें कभी-कभी गांधी और कांग्रेस के साथ समझौता करने और अन्य अवसरों पर अंग्रेजों पर भरोसा करने को बाध्य कर देती थीं. वैकल्पिक रणनीति केवल कम्युनिस्ट ही तैयार कर सकते थे जो भारत के शहरी और ग्रामीण सर्वहारा के प्रतिनिधि थे, जिस सर्वहारा की भारी बहुसंख्या दलितों से आती थी. इस वैकल्पिक रणनीति का एक जरूरी हिस्सा होना चाहिए था तमाम किस्म के रैडिकल पूंजीवादी जनवादियों से घनिष्ठ राजनीतिक संश्रय कायम करना. सीपीआई उस जिम्मेदारी को नहीं निभा सकी. लेकिन यह तो एक दूसरी कहानी है.

आइए, हम अपने लेखक महोदय की ओर वापस मुड़ें. वे आम्बेडकर के दुलमुलपन और उनके समझौतों की व्याख्या करते समय फिर आदर्शवाद की दलदल में डूबने-उतराने लगते हैं. वे कहते हैं, “यह लक्ष्य के प्रति ईमानदारी, मानवीय कमजोर और, ब्राह्मणी वर्गों के धूर्ततापूर्ण एवं स्वार्थी चरित्र के विपरीत दलितों, उत्पीड़ितों का ‘भूल जाओ और क्षमा करो’ वाला चरित्र ही था” जिसके चलते आम्बेडकर ने कांग्रेस के साथ बार-बार तालमेल कायम किया.

लेखक को बड़ा अफसोस है कि “आम्बेडकरवाद पूंजीवादी जनवादी चेतना की सीमाओं में जकड़ा रहा” क्योंकि वह “अपने किसान मूल द्वारा निर्धारित सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकता था.”

आम्बेडकर जिन सीमाओं को पार करने में असफल रहे उन सीमाओं को पार करने के लिए हमारे विशिष्ट लेखक महोदय एक जोखिम भरी सैद्धान्तिक यात्रा पर निकल पड़ते हैं. वे एक अजीब विश्लेषण से शुरू करते हैं.

“आम्बेडकरवाद की जड़े एक ऐसे वर्ग में नहीं थीं जो पूरी तरह ऊपर की ओर गतिशील हो और जो उस वर्ग अथवा यहां तक कि व्यक्तियों और छोटे-छोटे ग्रुपों को भी पूंजीवादी व्यवस्था में पूरी तरह विलीन हो जाने की इजाजत देता हो. यह एक ऐसे किसान समाज का प्रतिनिधित्व करता था जो आंशिक सर्वहाराकरण और आंशिक सम्पत्तिहरण की प्रक्रिया से गुजर रहा था और जिसके ऊपरी तबके की ऊपर उठने की आकांक्षा कुचल डाली गई थी. यही वह परिघटना थी जिसने अछूतों और शासक बुर्जुआ के बीच संश्रय कायम करने के तमाम प्रयत्नों को नष्ट कर दिया. यही कारण था कि डा.आम्बेडकर को शासक वर्गों ने, जब-जब उनका सामना हुआ, पीछे ढकेल दिया. इसी में पूंजीवादी समाज की सीमाओं से आम्बेडकरवाद के पार जा सकने की भारी संभावना छिपी हुई है.”

इस प्रकार इस संभावना को स्थापित करने के बाद लेखक मार्क्स, पेरिस कम्यून और सोवियत व्यवस्था के बारे में आम्बेडकर के प्रशंसापूर्ण उल्लेखों को सामने लाता है. यों ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के जुड़वां शत्रुओं की आम्बेडकर द्वारा की गई निंदा और “समाजवादी कार्यक्रम” की उनके द्वारा की गई वकालत को जोड़कर इन सबको आम्बेडकर की कम्युनिस्ट की ओर यात्रा का प्रतीक मान लिया जाता है. यहां तक कि बौद्ध धर्म में धर्मांतरण की व्याख्या भी आम तौर पर मार्क्सवाद और, खास तौर पर, भारत में इसके ठोस अमल के द्वारा उठाई गई समस्याओं के प्रत्तुत्तर के बतौर की गई है. उनका धार्मिक-राजनीतिक व्यवहार मार्क्सवादी सिद्धान्त और आंदोलन के अंतर्गत सांस्कृतिक क्रांति और जनवादी पुनरुत्थान का पूर्ववर्ती बन जाता है. “कुछ अर्थों में आम्बेडकर द्वारा बैद्ध धर्म का पुनरुत्थान माओ की सांस्कृतिक क्रांति का पूर्वाभ्यास था.” यह है मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद के संश्लेषण की वह नींव जिसे हमारे लेखक ने तैयार की है. अगले अध्यायों में उन्होंने यह काम बड़ी निपुणता से किया है.

सर्वदलित एकता की तलाश में

लेखक को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि “(मंत्रिमंडल से) आम्बेडकर की विदाई के फौरन बाद पंचवर्षीय योजनाएं शुरू की गई और कांग्रेस ने ‘समाजवाद’ को स्वीकार किया. पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए काका कालेलकर आयोग की स्थापना की गई. लगभग इसी समय नेहरू सरकार ने दिल्ली में गौतम बुद्ध के महानिर्वाण क ढाई हजारवीं जयंती आयोजित की ... सोवियत संघ के साथ सहयोग भी बढ़ा.” इसके बाद एक अजीब व्याख्या दी गई है. “भारतीय शासक वर्गों के स्तालिन के साथ संबंध सुधरते ही आम्बेडकर को त्याग दिया.”

आम्बेडकर के परवर्ती परिदृश्य का विश्लेषण करते हुए लेखक ने विभिन्न पिछड़े समुदायों के क्रमिक विकास की प्रक्रिया को ठीक ही नोट किया है.

“केरल में संख्यात्मक तौर पर शक्तिशाली शूद्र ऊपर उठकर सवर्ण बन गए, क्योंकि वहां ब्राह्मण-कायस्थ-बनिया आबादी अत्यंत कम है. नायर समुदाय जो ‘देवताओं’ के लिए भी अछूत थे आज ‘धरती के भगवान’ बन गये ... दूसरे अछूत समुदाय एझवा ने सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से काफी तरक्की की.”

केरल का यह सत्य विभिन्न मात्रा में भारत के विभिन्न हिस्सों के लिए भी सच है. भूमि सुधार और सामाजिक-आर्थिक विकास के विभिन्न किस्म के अन्य उपाय तथा नाना प्रकार के ब्राह्मणवाद विरोधी जनआंदोलनों ने मिलकर विभिन्न पिछड़े समुदायों के अंदर ऊपर की ओर यह गति पैदा की. हिन्दी क्षेत्र में इसका श्रेय मुख्यतः लोहियावादी समाजवादी आंदोलन को है.

समाज का प्रत्येक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक उभार अनिवार्यतः शासक वर्गों की सामाजिक संरचना के विस्तार से जुड़ा होता है. ब्रिटिशोत्तर भारत ब्रिटिश शासन के जमाने के पुराने सामाजिक संश्रय पर टिका नहीं रह सकता था. लिहाजा, कुछ पिछड़े समुदायों का विकास और इनके सुविधाभोगी सदस्यों को शासक वर्ग के अंदर जज्ब कर लेना अनिवार्य प्रक्रिया थी. कुछ राज्यों में अगड़ा-पिछड़ा ध्रुवीकरण पैदा होने के अतिरिक्त इस प्रक्रिया के चलते अबतक पिछड़े जनसमुदायों के बीच और उनके अंदर वर्ग-जाति भेदों का विकास भी हुआ. ऐसा ही एक गौरतलब विकास था दलितों, जो मुख्यतः खेत मजदूर थे, और खुशहाल मध्यवर्ती जातियों, जिन्हें कृषि विकास की नीतियों से सबसे ज्यादा फायदा हुआ था, के बीच की टक्कर का तीखा होना.

बहरहाल, लेखक शासक प्रणाली के भीतर कुछ दलित जातियों, ग्रुपों और व्यक्तियों को समाहित कर लिए जाने की समूची परिघटना को धूर्त ब्राह्मणवादी शासक वर्गों की “जोड़तोड़” की कला का परिणाम मानते हैं. दलित जातियों से लेखक का तात्पर्य है अछूतों और शुद्र जातियों का – सरकारी भाषा में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों का – समूचा वर्णपट. वे एक ऐसे सैद्धान्तिक व्यवहार की तलाश में हैं जिसमें तमाम दलितों की एकता समाहित हो. वे इसे बहुजन समाज पार्टी के अंदर पाते हैं.

“रिपाब्लिकन आंदोलन संयुक्त मोर्चा के सवाल पर लड़खड़ा गया था. पार्टी को वंचित वर्गों द्वारा शासक वर्ग बनने का, जो कि आम्बेडकर का राजनीतिक लक्ष्य था, आंदोलन कहा गया. लेकिन उत्पीड़ित हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक शक्तियों के साथ संश्रय कायम किए बगैर यह असंभव था. डा. आम्बेडकर यह दिशा नहीं प्रदान कर सके और पार्टी इस रणनीति को ईजाद नहीं कर सकी. उसका संश्रय जिनके साथ हुआ वे ब्राह्मणवादी शासक वर्गों की ही पार्टीयां थीं. वैकल्पिक रणनीति यह होती थी कि खुद पार्टी ढांचे को तमाम उत्पीड़ित व शोषित वर्गों व समुदायों का संश्रय बना दिया जाता. बहुजन समाज पार्टी ने यही किया है. इस प्रकार बसपा आम्बेडकरवादी व्यवहार में एक प्रमुख सैद्धान्तिक विकास बन जाती है. बसपा की दृष्टि एक व्यापक मंच तक जाती है जिसमें अनुसूचित जातियां, अनुसूचित जनजातियां, पिछड़े समुदाय और अल्पसंख्यक सभी शामिल हैं. यह ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीतियों का सबसे करारा सैद्धान्तिक जवाब है.”

बढ़ते सामाजिक विभेदों के समक्ष बसपा लेखक की आकांक्षा के अनुरूप इस सर्वदलित एकता का किस हद तक निर्माण कर सकेगी और बनाए रख सकेगी, यह देखना अभी बाकी है; मगर एक परिणामवादी भानुमती के पिटाई को आम्बेडकर के बाद के प्रमुख सैद्धान्तिक विकास के बतौर पेशकरना चरम सैद्धान्तिक बेहूदगी है. आंबेडकर पर यह आरोप लगाकर कि वे उत्पीड़ित हिस्सों की राजनीतिक शक्तियों के साथ संश्रय बनाने में असफल रहे और उल्टे ब्राह्मणवादी शासक वर्ग की पार्टियों के साथ चिपके रहे, लेखक ने आम्बेडकर का गैरऐतिहासिक विश्लेषण करने और तथ्यों की तोड़-मरोड़ करने, दोनों किस्म की गलतियां की हैं.

लेखक ने, जिन्होंने अभी-अभी “सबसे करारा सैद्धान्तिक जवाब” इत्यादि कहकर बसपा की बड़ाई की है, बड़ी दक्षता के साथ कलाबाजी खाते हुए फौरन जनता दल को यह श्रेय दे बैठते हैं कि उसने “मंडल-मस्जिद” सामने लाकर “वही (बसपा) मंच” अपना लिया है. और भी, जनता दल के ऊपर से किए गए आक्रमण ने कांशीराम के ग्रासरूट स्तर पर किए गए जेहाद की तुलना में काफी अधिक आवेग उत्पन्न किया. इसके अतिरिक्त, बसपा की (दलित) पक्षधरता को दलित बिरादरी के बाहर कोई दोस्त नहीं मिल सका (जोर हमारा). इस भव्य राजनीतिक प्रदर्शन के लिए जनता दल के नेतृत्व को एक ऐसा विशिष्ट और निश्चित सामाजिक न्याय का मंच अपनाना पड़ा जो तमाम उत्पीड़ित समुदायों के आम हितों का प्रतिनिधित्व करता था. यह उत्तर भारतीय क्षेत्र की जुझारू सोशलिस्ट परंपरा थी जिसने यह निर्णायक विचारधारात्मक आघात किया.

मंडल का उन्माद

अब करीब-करीब जनता दल के प्रवक्ता की भूमिका ग्रहण कर लेखक सामाजिक न्याय के क्षेत्र में जनता दल की विभिन्न उपलब्धियों को गिनाते हैं. जैसे, आम्बेडकर को भारत रत्न प्रदान करना; उनकी जन्मशताब्दी समारोहों का आयोजन; ग्रामीण क्षेत्रों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आनुपातिक योजना व्यय; बंधुआ मजदूर, ठेका मजदूर और खेत मजदूरों के लिए उल्लेखनीय राहत; संगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए राहत (प्रस्तावित); काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाना (प्रस्तावित); किसानों को भारी राहत; बड़े पैमाने पर साक्षरता कार्यक्रम (प्रस्तावित); उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को थोड़ी छूट देना; बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर साम्प्रयादिक शक्तियों के खिलाफ दृढ़ निश्चय के साथ आक्रमण आदि. आरक्षण को न्यायपालिका में भी लागू करने और अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए योजना निधि के आनुपातिक व्यय के सिद्धान्त को लागू करने के कारण बिहार की जनता दल सरकार की खासतौर पर बड़ाई की गई है. लेखक के अनुसार “इन सारे कदमों के परिणामस्वरूप मंडल का एजेंडा आया. इसके राजनीतिक नारे और इसकी दिशा यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए एक वास्तविक खतरा बन गए.” लिहाजा, शासक वर्गों ने जनता दल को अपदस्थ और नष्ट करने की साजिश की. अभी यह सवाल नहीं हल हुआ है कि मंडल का एजेण्डा उपर्युक्त कदमों के परिणामस्वरूप आया अथवा एक रैडिकल सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम की कीमत पर – खासकर काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के आश्वासन को हाशिए पर ढकेल देने के लिए. इस सवाल की भी छानबीन करना अभी बाकी है कि ये राजनीतिक नारे और यह दिशा यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए वास्तविक खतरा थे अथवा वे कुछ पिछड़ी जातियों के विकासशील सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक असर के अनुरूप सत्ता की संरचना में संतुलन बनाने के उपाय थे. कांग्रेस सरकार द्वारा मंडल की सिफारिशों को लागू करना बाद वाली मान्यता की ही पुष्टि करता है. जनता दल के साथ केवल यह फर्क है कि जनता दल क्रीमी लेयर की धारणा का विरोध करता है. इस प्रक्रिया में यह जनता दल की मान्यता की वास्तविक अन्तर्वस्तु का भंडाफोड़ भी कर देती है.

बहरहाल, हमारे लेखक मंडल को वह केन्द्रीय मुद्दा मानते हैं जिसने न केवल भारतीय समाज में बल्कि कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर भी ध्रुवीकरण पैदा किया है.

“दलितों के बीच अपनी जड़े जमाए इन सभी (नक्सलवादी) आंदोलनों ने मंडल आरक्षण को जनवादी कदम मानते हुए उसका समर्थन किया है, जबकि शहारी मजदूर वर्ग के बीच खड़े तमाम परम्परागत कम्युनिस्टों ने मंडल का विरोध किया है.”

“परम्परागत कम्युनिस्ट पार्टियां और यहां तक कि इंडियन पीपुल्स फ्रंट, जो कि एक नक्सलवादी संगठन है, कांग्रेस और भाजपा के ‘आर्थिक आधार’ के सिद्धान्त के इर्द-गिर्द ही घूमते रहे.”

स्पष्टतः यह तथ्यों को तोड़-मरोड़कर अपने सैद्धान्तिक ढांटे के अनुरूप सजाने जैसी बात हो गई. सीपीआई ने मंडल मुद्दे पर जनता दल का पूरी तरह साथ दिया तथा उसने क्रीमी लेयर संबंधी अदालती फैसले और तथाकथित आर्थिक आधार का भी विरोध किया. सीपीआई(एम) ने मंडल सिफारिशों का कभी विरोध नहीं किया तथा जिस आर्थिक आधार की वह बात करती थी, वह पिछड़े समुदायों के अंदर आर्थिक वर्गीकरण से ही संबंधित था. लिहाजा, उसने क्रीमी लेयर संबंधी फैसले का स्वागत किया. इंडियन पीपुलस फ्रंट ने तथाकथित आर्थिक आधार के गिर्द कभी चक्कर नहीं काटा. इसके विपरीत, इसने उच्च जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की वकालत करने के चलते वीपी सिंह की कड़ी आलोचना की. आईपीएफ ने दृढ़ता से कहा कि सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ापन आरक्षण का एकमात्र आधार हो सकता है.

हमारी पार्टी ने क्रीमी लेयर के फैसले का स्वागत किया, क्योंकि शक्तिशाली पिछड़े समुदायों के अंदर वर्ग विभेदीकरण के किसी भी उपाय का एक मार्क्सवादी स्वागत ही करेगा. हम जानते हैं कि सत्ता संरचना में पुनर्गठन की परिस्थितियां परिपक्व हो चुकी थीं. वीपी सिंह ने तो केवल उत्प्रेरक की भूमिका निभाई. इस प्रकार हमने मंडल को किसी सामाजिक क्रांति  का अग्रदूत मानने से इनकार कर दिया और जनता दल के पाखंड का भंडाफोड़ करना जारी रखा कि वह पूंजीपति वर्ग और जमींदारों की पार्टी है, तथा हमने अपनी विचारधारात्मक-राजनीतिक व सांगठनिक स्वाधीनता की उत्साहपूर्वक रक्षा की.

पिछड़ावाद के शक्तिशाली उभार के बावजूद, बिहार में हमारे खिलाफ जनता दल के केन्द्रित आक्रमण के बावजूद तथा हमारे कुछ विधायकों के दलबदल कर जनता दल में चले जाने की कीमत चुकाकर भी, हमारी पार्टी अपनी स्थिति पर डटी रही.

मंडल का बुखार उतरने के बाद बिहार में हमारी पार्टी तीव्र गति से विकास करने लगी है, जबकि सीपीआई, जिसने अपने को  जनता दल के पल्लू से बांध रखा था, वस्तुतः अपने परम्परागत जनाधार के विनाश और विघटन के खतरे के सामने पूरी तरह दिशाहीनता की स्थिति में आ खड़ी हुई है.

लेखक पीपुल्स वार ग्रुप की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, क्योंकि “उसने इस मामले में न्यायपालिका की स्वेच्छाचारिता का प्रतिरोध करने के लिए आंध्र बंद का आह्वान किया था ... मंडल मुद्दे पर जनता दल के नेताओं ने पीपुल्स वार ग्रुप द्वारा समर्थित जनसभाओं को संबोधित किया.” जिस अन्य नक्सलवादी ग्रुप की लेखक ने प्रशंसा की है वह निस्संदेह एमसीसी है जिसने “बिहार में ऊंची जातियों के आतंक के खिलाफ दलितों के प्रतिरोध का नेतृत्व किया.” हम इस पुस्तक में सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी का भी उल्लेख पाते हैं, जिसने मार्क्स, फूले और आम्बेडकर को अपना दार्शनिक मार्गदर्शक मानकर, कहा जाता है कि, “संसदीय कम्युनिस्ट आंदोलन को विचारधारात्मक चुनौती दी.”

इस प्रकार लेखक संश्लेषण की अपनी परियोजना की अंतिम मंजिल में जा पहुंचते है और वहां वे अपना सारा संतुलन खो बैठते हैं. इस अनमोल वक्तव्य पर गौर कीजिए “जब दलित विद्रोह के गीतों से आकाश गूंज रहा था, तभी दलित पैंथर, नक्सलवादियों और खड़ाकुओं-लड़ाकुओं (खालिस्तानियों और कश्मीरियों) के क्रोध और उन्माद ने सैद्धान्तिक रूपरेखा ग्रहण की. सिद्धांत और व्यवहार की इस उभरती एकता को ही रामविलास पासवान ने दलित सेना और आम्बेडकर शताब्दी समारोह के जरिए गिरफ्त में लेने की कोशिश की.”

आम्बेडकर से कांशीराम तक और फिर वहां से रामविलास पासवान तक! सचमुच बड़ी अजीब यात्रा है!

जाति-वर्ग वैपरीत्य

लेखक ने जाति के बारे में कुछ अनूठे विचार पेश किए हैं : “जहां मार्क्स ने जाति को भारत की शक्ति और प्रगति के लिए निर्णायक बाधा के बतौर देखा, वहीं वे (भारतीय मार्क्सवादी) जाति को ऊपरी ढांचे का मामला मानते हैं ... उत्पादन संबंध होने के नाते जाति ऊपरी ढांचे की चीज नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक आधार का अंग है. भारतीय मार्क्सवादियों की सबसे बड़ी सैद्धांतिक विफलता यह है कि उन्होंने जाति को समाज की उप-संरचना का हिस्सा नहीं समझा.” अब, मार्क्सवादी आख्यानों में हम आर्थिक आधार की बात तो सुनते हैं जिसपर पूरा ऊपरी ढांचा टिका होता है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक आधार के बारे में कभी नहीं सुना. लगता है कि लेखक स्वयं जाति को सामाजिक और साथ ही आर्थिक आधार से जोड़ते-जोड़ते फंस गए हैं. इस द्वंद्व की व्याख्या इस प्रकार की गई है :

“यहां उत्पादन और पेशा के साधन के स्थायी विभाजन की संस्था के बतौर जाति, तथा अस्पृश्यता व भेदभाव के रवैये के बतौर जाति, के बीच हमें फर्क करना होगा. जाति में ये दोनों पहलू विद्यमान रहते हैं – पहला वाला पहलू आधार से जुड़ा है और बाद वाला पहलू ऊपरी ढांचा से.”

वस्तुतः आर्थिक अधिशेष के बढ़ने के साथ समतामूलक समाज विभाजित होकर वर्ग-समाज में तब्दील हो गया और उसके बाद से तमाम समाज-व्यवस्थाओं का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है. प्राक्-पूंजीवादी समाज व्यवस्था में अधिशेष के कारण उत्पन्न असमानताओं को एक सामाजिक संस्तरीकरण (स्ट्रैटिफिकेशन) के जरिए समायोजित किया जाता था, जिसे सामाजिक कोटि (एस्टेट्स) कहा जाता था. तत्कालीन गोत्रों की आंतरिक सम्बद्धता ने शास्त्रीय अर्थों में वर्ग-निर्माण को बाधित किया था, और इसके अलावा, गैर आर्थिक उत्पीड़न पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं ने इन सामाजिक कोटियों की प्रणाली को स्थायी बना दिया. भारत में जाति व्यवस्था को दैवी मान्यता प्राप्त होने के कारण इस संस्तरीकरण को अपेक्षाकृत लंबा स्थायित्व मिला और इसका ज्यादा महत्वपूर्ण कारण यह था कि यहां निरंकुश केंद्रीय सत्ता के साथ-साथ आत्म-निर्भर ग्राम-समुदायों का सह-अस्तित्व था.

वर्गों की जड़े उत्पादन-प्रणाली में धंसी होती हैं और इनके अस्तित्व की अपनी-अपनी आर्थिक स्थितियां उन्हें एक दूसरे के साथ शत्रुतापूर्ण संघर्ष में धकेल देती हैं और इससे समाज में वर्ग-विभेदीकरण की प्रक्रिया त्वरित हो जाती ही. बहरहाल, सामाजिक संस्तरीकरण या जातियां वितरण की प्रणाली को नियंत्रित करते हैं और इस प्रकार ‘शुद्ध’ श्रेणी के बतौर वर्गों के निर्माण को रोक देते हैं. वर्ग संघर्ष हर-एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन में व्याप जाता है और इस प्रकार वह नाना किस्म के जटिल स्वरूप ग्रहण कर लेता है.

आधुनिक पूंजीवादी समाज वर्ग विभेदीकरण की प्रक्रिया को तेज बनाता है और इसमें पहली बार वर्गों के आत्म-बोध तथा खुले वर्ग युद्धों के लिए स्थितियां तैयार होती हैं. भारत में भी पूंजीवाद के आगमन और बड़े पैमाने के उत्पादन ने जाति को पेशा से अलग कर दिया और औद्योगिक सर्वहारा का नया वर्ग उभर उठा. चाय बागानों, खनन, टेक्सटाइल, जूट वगैरह में नियोजित सर्वहारा की पहली पीढ़ी में अधिकांशतः अछूत और शूद्र जातियों के लोग ही शामिल हुए थे, ऊंची जातियों के लोग बाद में ही शामिल हुए.

औद्योगिक कारखाने इस प्रकार सामाजिक कारखाने भी थे, जिनमें जातियों के विनाश की संभावनाएं निहित थीं. भारतीय पूंजीवाद के विकास के रूढ़िवादी रास्ते ने वर्ग विभेदीकरण की प्रक्रिया को मद्धिम जरूर बना दिया. संसदीय लोकतंत्र ने जातीय स्थायित्व को जीवन की एक नई खुराक पिलाई क्योंकि नए प्रभुत्वशाली सामाजिक वर्ग जातीय समीकरण बना कर ही राजनीतिक सत्ता में अपनी हिस्सेदारी के लिए संघर्ष में उतरे. और सामाजिक जनवादियों द्वारा अमल किए गए अर्थवाद और संसदवाद ने अपने-लिये-वर्ग के बतौर मजदूर वर्ग का लक्ष्य (विजन) भ्रष्ट कर दिया. फिर भी, अधिकांशतः ऊंची जातियों के सदस्यों से निर्मित बुद्धिजीवी समुदाय की तुलना में मजदूर वर्ग के बीच ही जातिगत पहचान आपस में घुलमिलकर तेजी से विनष्ट होती है. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के इस दौर ने मजदूरों के संगठित क्षेत्र को विसंगठित करना शुरू कर दिया है और एक बार फिर मजदूर वर्ग अपने ऐतिहासिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जाग रहा है.

इसीलिए, वर्ग ही बुनियादी श्रेणी है. कतिपय ऐतिहासिक परिस्थितियों में यह खुद को जातियों के रूप में अभिव्यक्त कर सकता है, दूसरी स्थितियों में ये दोनों साथ-साथ गुंथे भी रह सकते हैं, एक दूसरे को ढंक ले सकते हैं और उसी समय एक दूसरे को काट भी सकते हैं. फिर, एक भिन्न परिस्थिति में जातियां विखंडित होकर वर्गों का भी निर्माण करती हैं. इसी तरह से दोनों का वैपरीत्य तबतक आगे बढता है, जबतक कि वितरण की प्रणाली के नियामक की हैसियत में जाति का विनाश नहीं हो जाता.

लेकिन हमारे सम्मानित लेखक उलटी समझ रखते हैं. वे भारतीय स्थितियों में यांत्रिक ढंग से यूरोपीय श्रेणीयों को लागू करने के लिए भारतीय कम्युनिस्टों की भर्त्सना करते हैं, और भारत में औद्योगिक सर्वहारा की खोज पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते हैं. “भारतीय औद्योगिक मजदूर वर्ग, जिसे वे (मार्क्सवादी) सर्वहारा का प्रतिनिधि मानते हैं, दरअसल सर्वहारा नहीं है. इस वर्ग के लोग समृद्ध परिवारों से आए हैं और वे अधिकांशतः जातीय श्रेणीक्रम के ऊपरी हिस्सों के सदस्य हैं. उनके पास न केवल गांवों और शहरों में भू-संपत्ति है, बल्कि उन्होंने विरासत में बौद्धिक संपदा भी पाई है, जिससे आम जन वंचित हैं. वे संपत्तिहीन बना दिए गए वैसे सर्वहारा नहीं हैं, जिसके पास खोने के लिए बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं होता. वे ऐसा वर्ग हैं जिसका जुझारूपन और आमूलवाद धनी किसान चेतना के साथ जुड़ा हुआ है और जिसकी परिणति ग्रामीण भारत में कुलकीकरण के रूप में हुई है.”

लेखक ने भारतीय और पश्चिमी बुद्धिजीवियों के बीच एक विचित्र भेद बताया है. “पश्चिमी बुद्धिजीवियों के पास उसकी मानसिक श्रमशक्ति के अलावा और कुछ नहीं होता है. भारत में, ज्ञान धर्म और दर्शन की सीमा को पार कर भौतिक उत्पादन और समाज की अवस्था में प्रवेश कर जाता है. विज्ञान, ज्ञान और कुशलता भौतिक श्रम से अलग हो जाते हैं और उत्पादन में उसका वर्चस्व हो जाता है ... इसीलिए भारतीय बुद्धिजीवियों का वर्ग-त्याग काफी कठिन कार्यभार है.” इन अनर्गल बातों से आप जो नतीजा निकाल सकें, निकाल लीजिए. लेकिन पश्चिमी बुद्धिजीवियों की यह बेशर्म प्रशंसा लेखक महोदय के ‘वर्ग-त्याग’ को ही रेखांकित करती है. पश्चिमी बुद्धिजीवी – तथाकथित मानसिक श्रम शक्ति के स्वामी – बुर्जुआ समाज की सेवा में संलग्न मूलतः बुर्जुआ और पेट्टी बुर्जुआ बुद्धिजीवी रहे हैं. मजदूर वर्ग के खुले वर्ग युद्ध ने उनके बीच विभाजन पैदा किया और उसका एक हिस्सा मजदूर वर्ग के साथ जुड़ गया. मार्क्स, लेनिन और विशाल संख्या में अन्य लोग इस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं. लेकिन उनका वृहत्तर हिस्सा सर्वहारा क्रांतियों के तीखे प्रतिरोध में खड़ा था और आज भी वह ऐसा ही कर रहा है.

इसके विपरीत, भारत में पेट्टी बुर्जुआ बुद्धिजीवी अपने ङुलमुलपन और सवर्ण आग्रहों के बावजूद कहीं अधिक संख्या में प्रगतिशील जनवादी और वामपंथी आंदोलनों में शरीक हुआ है. खासकर, नक्सलवादी आंदोलन ने दलित भूमिहीन श्रमिकों के साथ बड़ी तादाद में पेट्टी-बुर्जुआ नौजवानों की एकरूपता को अंजाम दिया.

लेखक इस बात से काफी चिंतित हैं कि पढ़े-लिखे दलित ब्राह्मणवाद की ओर खिंच जाते हैं और खूदखोरी तथा राजकीय सुविधाओं पर पलने-बढ़ने वाले दलित अभिजात्यों में बदल जाते हैं. इस परिघटना की व्याख्या करते हुए वे पश्चिमी सर्वहारा के साथ भारतीय दलितों की तुलना में उतर पड़ते हैं. “जहां सर्वहारा अपने पास हाल-हाल तक मौजूद अपने औजारों और श्रम के उत्पादों पर अपना स्वामित्व पुनः प्राप्त करने के लिए लड़ता था, वहीं दलित कई पीढ़ियों पहले इनसे वंचित कर दिए गए है. क्रांतिकारी सर्वहारा की स्मृति में मान, प्रतिष्ठा और गौरव की बातों ताजी थीं, लेकिन दलितों की लड़ाई मानवीय व्यक्तित्व को पुनः हासिल करने के लिए हुई, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही गुलामी, अस्पृश्यता और दासता के भंवर में डूब गया था. यह वर्ग वैचारिक विनाश और सहयोजन की शासकवर्गीय रणनीति के सम्मुख काफी कमजोर पड़ गया और उसका शिकार हो गया.” विचित्र तर्क है! पश्चिम की हर चीज अच्छी है, हर भारतीय चीज बुरी है. तब, पश्चिम में अभिजात्य श्रमिकों का एक पूरा तबका, जो सामाजिक जनवाद का सामाजिक आधार बना, कैसे उभरा? भारत में वे दलित कहां से आए, जिन्होंने क्रांतिकारी संघर्षो में दृढ़तापूर्वक शौर्यपूर्ण भूमिका निभाई है? मेहनतकश अवाम का एक हिस्सा (शासक) व्यवस्था द्वारा हमेशा शामिल कर लिया जाता है और इसमें पूरब-पश्चिम जैसी कोई चीज नहीं है. लेखक के विश्लेषण में दलितों का समूचा वर्ग “शासकवर्गीय रणनीति के सम्मुख कमजोर पड़ जाने” के चलते निन्दनीय बन गया है. विड़ंबना तो यह है कि यही वह वर्ग है जिसके हाथों में लेखक महोदय अपने ही शब्दों में “दलित जनवादी क्रांति” का नेतृत्व सौंपना चाहते हैं.

दलित जनवादी क्रांति

लेखक के अनुसार, वे तमाम जातियां और तबके ‘दलित’ हैं, जिनके खिलाफ ब्राह्मणवादी शासक वर्ग भेदभाव बरतते हैं और इस प्रकार, वे दलित जनवादी क्रांति पर जोर देते हैं. संगठित क्षेत्र के मजदूर, बुद्धिजीवी और सवर्ण जातियों से आए पेशाकर्मी ङुलमुल और नाभरोसेमंद संश्रयकारी ही बन सकते हैं.

लेकिन राष्ट्रीय बुर्जुआ, जो पिछड़े वर्गों और उत्पीड़ित अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं के उदीयमान बुर्जुआ हैं, यकीनन एक दृढ़ संश्रयकारी हो सकते हैं – बढ़ते वैश्वीकरण तथा केंद्रीकृत राज्य-मशीनरी पर ब्राह्मणवादी शासक वर्गों की बढ़ती गिरफ्त के संदर्भ में तो यह बात और मजबूती से लागू होती है.

ग्रामीण सर्वहारा और असंगठित तथा अनौपचारिक क्षेत्रों के सर्वहारा तबके, जो दलित जातियों से आते हैं, इस क्रांति के नेता होंगे और, बेशक, गरीब किसान या अर्धसर्वहारा और दलितों व शूद्र जातियों से आने वाले व्यापक किसान इसके मजबूत संश्रयकारी होंगे.

इस प्रकार, समूची क्रांति को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है. मजदूर वर्ग नाभरोसेमंद संश्रयकारी है, जबकि राष्ट्रीय बुर्जुआ उसका दृढ़ संश्रयकारी है. लेखक का दावा है कि यह क्रांति ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था को नष्ट कर डालेगा और सच्चे जनवाद का रास्ता प्रशस्त करेगा. लेकिन यहां लेखक यह बताने से चतुराई पूर्वक कन्नी काट जाते हैं कि यह क्रांति किस समाज व्यवस्था की स्थापना करेगी – पूंजीवादी या समाजवादी!

लेखक महोदय इस तरह से “वर्ग रिडक्शनिज्म” तथा “मजदूर वर्ग की केंद्रीयता” के खिलाफ तमाम पिछड़े वर्गों और समुदायों के संयुक्त मोर्चा पर पहुंच जाते हैं. वे उदघोषित करते हैं कि मार्क्सवादी जड़सूत्राद में यह सबसे बड़ा गतिरोध-भंग साबित होगा. सचमुच, मार्क्सवाद का सबसे बड़ा भंग!

दलित जनवादी क्रांति के विशिष्ट आर्थिक कार्यक्रम पर पहुंचकर लेखक महोदय आम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित भूमि-राष्ट्रीयकरण और विशेष राजकीय सहायता के साथ भूमिहीन अछूतों समेत वास्तविक उत्पादकों को जमीन वितरित करने के कार्यक्रम को खारिज कर देते हैं. लेखक तर्क देते हैं कि “दलितों ने महसूस किया है कि उनकी मुक्ति जमीन के स्वामित्व में निहित है, जिसका मतलब है ग्रामीण भारत में ‘सत्ता’” और यह भी कि “राज्य द्वारा राष्ट्रीयकृत जमीन के वितरण का आम्बेडकरवादी नुस्खा एक मौलिक तत्व की, जन चेतना की, अनदेखी कर देता है, जो जमीन के लिए दलितों की प्रत्यक्ष कार्रवाई के जरिए जीवंत भौतिक ताकत में तब्दील हो जाती है.” वे “भूमिहीनों और अल्प भूमिवालों की जरूरतों के अनुसार(!) भूमि वितरण के जरिए कृषि क्रांति” की वकालत करते हैं. आबादी में अनुपात के आधार पर खेतिहर समुदायों के बीच जमीन वितरित की जानी चाहिए. उत्पादन के संगठन की प्राणाली को उन समुदायों के जनवादी निर्णयों पर छोड़ दिया जा सकता है.”

लेखक मुख्य उद्योगों के राष्ट्रीयकरण के आम्बेडकरवादी कार्यक्रम का भी इस बहाने विरोध करते हैं कि राजकीय क्षेत्र हमेशा शासक वर्गों के हित में इस्तेमाल किया जाता है. इसके बदले वे सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण की वकालत करते हैं, जिसके शेयर लोगों के बीच समान रूप से वितरित कर दिए जाएंगे.

लेखक यह नहीं समझ सके कि सिर्फ औद्योगिक मजदूर वर्ग ही बड़े उद्योगों पर अपने नियंत्रण के जरिए आमूलचूल कृषि रूपांतरण को अंजाम दे सकता है और राष्ट्रीय बुर्जुआ को भी नियंत्रित और रूपांतरित कर सकता है, और इस प्रकार जनवादी क्रांति से समाजवादी क्रांति में संक्रमण को साकार बना सकता है. इस तरह, नई जनवादी क्रांति में मजदूर वर्ग का नेतृत्व स्वाभाविक रूप से अंतर्निहित है और यह ‘नई’ इसलिए है कि इसे पूंजीवाद तक ही नहीं रुकना है, बल्कि समाजवाद तक आगे बढ़ना है. उत्पादन प्रणाली की पिछड़ी अवस्था से जुड़े होने के चलते ग्रामीण और असंगठित सर्वहारा अपने बल पर इस संक्रमण को अंजाम नहीं दे सकते हैं. उनकी सीमाबद्धताओं को लेखक स्वयं स्वीकार करते हैं जब वे भूमिहीन की जरूरतों के अनुसार सिर्फ जमीन के वितरण की चर्चा करते हैं और उत्पादन के समस्त संगठन को खुद किसान समुदायों के हवाले छोड़ देते हैं. यह ग्रामीण क्षेत्रों में यथास्थितिवाद का कार्यक्रम है जो पिछड़ी जाति के किसानों के ऊपरी तबके को – दलित जनवादी क्रांति के मजबूत संश्रयकारी को-ही फौरी तौर पर खुश कर सकता है.

निस्संदेह, राजकीय क्षेत्र शासक वर्गों की सेवा करता है, लेकिन यह राष्ट्रीय स्तर पर मजदूर वर्ग की एकजुटता को भी उन्नत करता है और उनके अंदर समाजवादी चेतना भी विकसित करता है – इस अर्थ में कि पूंजीवादी मालिकों से छुटकारा पाया जा सकता है और मजदूर वर्ग के नियंत्रण में वेतनभोगी प्रबंधन के जरिए उद्योग चलाए जा सकते है.

व्यापक संयुक्त मोर्चा अगर कभी साकर होता भी है, तो वह अपरिहार्य रूप से राष्ट्रीय बुर्जुआ के हाथों में नेतृत्व सौंप देगा और ग्रामीण गरीबों के ऊपर कुलकों और पिछड़ी जातियों का वर्चस्व स्थापित कर देगा. दलित जनवादी क्रांति का कार्यक्रम, दरअसल, जनता दल के सर्वाधिक रैडिकल किस्म के लोगों की अधिकतम सीमा हो सकती है और हमारे लेखक इस सीमा को पार नहीं कर सके हैं.

आम्बेडकर से यह संकेत लेते हुए, लेखक ने, “वर्ग संघर्ष के गतिविज्ञान के साथ जातीय समाज के व्याकरण के आधार पर” क्रांति का एक मॉडल बनाने की कोशिश की है. लेकिन वे जातीय समाज की सांख्यिकी के साथ वर्ग संघर्ष को पूर्ण विराम लगाकर सिर्फ सुधार का मॉडल बनाने में सफल हुए हैं.

बेजोड़ संश्लेषण

संश्लेषण की यह महत्वकांक्षी परियोजना एक ओर सिद्धांत और व्यवहार में मौजूद अर्थवाद, संसदवाद और औद्योगिक मजदूर वर्ग के नेतृत्व के जडसूत्रवाद के खंडन पर, और दूसरी ओर पेट्टी बुर्जुआ किसान राजनीति से मुक्ति की चेतना तक आम्बेडकरवाद के उत्थान पर आधारित थी. इस प्रक्रिया में, पहले तो मार्क्सवाद की बलि चढ़ी, फिर आम्बेडकर की वह रैडिकल आर्थिक दृष्टि भी क्षत-विक्षत हो गई जिस पर काफी हद तक आम्बेडकर ने दलित मुक्ति की अपनी आशाएं टिका रखी थीं.

लेखक की मानसिक श्रमशक्ति की कठोर कसरत का अंतिम परिणाम, जो 140 पृष्ठों में फैला हुआ है और जिसकी कीमत 150 रु. है, सिद्धांत के धरातल पर के. वेणु और रामविलास पासवान का वर्णसंकर है तथा व्यवहारिक राजनीति के धरातल पर जनता दल और पीपुल्सवार-एमसीसी का सम्मिश्रण है. लेखक को कोटि-कोटि धन्यवाद, कि उन्होंने उस नापाक गठबंधन को बेपर्द कर दिया, जिसकी ओर हम लंबे समय से इशारा कर रहे थे.

(आधी जमीन, अप्रैल-जुन 1993 से)

नारी मुक्ति आज भी करीब-करीब सारी दुनिया के नारी समाज का नारा है. इसका मतलब हुआ कि मानवता का आधा हिस्सा आज भी पराधीन है. हम सर्वहारा की मुक्ति की बात करते हैं, किसानों की मुक्ति की बात करते हैं, राष्ट्रों की मुक्ति की बात करते हैं. राष्ट्रों की मुक्ति से हमारा मतलब उपनिवेशवादी, नवउपनिवेशवादी ताकतों के आर्थिक-राजनीतिक शिकंजे से मुक्ति होता है. दुनिया के बहुत से राष्ट्र मुक्त हैं और बाकी में मुक्ति की लाड़ाई चल रही है. किसानों की मुक्ति से हमारा मतलब है सामंती जकड़न से मुक्ति. दुनिया के बहुत से देशों के किसान मुक्ति हासिल कर चुके हैं और अन्य स्थानों पर भी वे संघर्षरत हैं. सर्वहारा मुक्ति से हमारा मतलब है उजरती श्रम से मुक्ति. सर्वहारा ने भी कई देशों में अपनी लडाइयां जीति थीं या जीती हैं. महिलाएं राष्ट्र का, किसानों का, सर्वहारा का हिस्सा हैं. इसलिए इन सारे मुक्ति संघर्षों में वे इस या उस हद तक हिस्सेदार हैं. लेकिन इस सबके बाद भी नारी मुक्ति संघर्ष की अपनी विशेषताएं हैं, अपनी स्वायत्तता है.

नारी मुक्ति का सवाल जब उठता है तो यह स्वतः स्पष्ट है कि नारी पराधीन है, गुलाम है. वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का रेशा-रेशा पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए निर्मित है. पुरुषों द्वारा नारी पर थोपी हुई गुलामी का ठोस रूप है घर की चारदीवारी में नारी को कैद रखना और उसे संतान उत्पत्ति की मशीन समझना. सर्वहारा, किसान या राष्ट्र जहां अपनी मुक्ति अपने विरोधी तत्व का नाश करके ही अर्जित कर सकते हैं, वहीं नारी मुक्ति पुरुषों के विनाश के जरिए नहीं बल्कि नारी-पुरुष के बीच समानता के मानवीय संबंधों को स्थापित करने के जरिए ही हासिल हो सकती है.

कहते हैं एक समय ऐसा था जब नारी के घर के कामों का महत्व ज्यादा था, जब समाज मातृसत्तात्मक समाज के रूप में जाना जाता था, इस समाज में वर्ग विभाजन नहीं था, व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी. खेतों में लोहे के औजार का प्रचलन जब शुरू हुआ तब अतिरिक्त श्रम के लिए मनुष्य के एक हिस्से ने दूसरे हिस्सों को दास, यानी सर्वहारा बनाया. समाज वर्गों में बंट गया, व्यक्तिगत संपत्ति का जन्म हुआ और यहीं से पुरुष सत्ता का भी विकास हुआ. घर की मालिकिन की सामाजिक मर्यादा गिरती गई. सर्वहारा की गुलामी और नारी की गुलामी एक ही समय और एक ही तरह के कारणों से शुरू हुई. इन दोनों पीड़ितों के संघर्षों के बीच शायद इसीलिए एक स्वाभाविक समानता है. नारी सबसे ज्यादा मुक्त रही भी है तो सर्वहारा परिवारों में.

नारी से गुलामी मनवाने के लिए पुरुषों ने कितने धार्मिक रीति-रियाज बनाए, कितनी सामाजिक संहिताएं बनाई. हिंदू समाज में तो पति को ही परमेश्वर बना दिया गया और यहां तक कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी को सती तक होने को मजबूर कर दिया गया. आज जमाना काफी बदला है. तकनीकी विकास ने ऐसी परिस्थिति तैयार की है जिससे नारी और पुरुष के बीच शारीरिक क्षमता का फर्क उत्पादन प्रक्रिया में कोई अर्थ नहीं रखता. बड़े पैमाने पर महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर निकली हैं. नारी मुक्ति संघर्ष में भी महिलाओं ने काफी सफलताएं अर्जित की हैं. हमारे देश में भी बहुत से कानून बने हैं, सुधार हुए हैं जिन्होंने नारी मुक्ति संघर्ष को नई गति प्रदान की है.

बराबरी के लिए नारी का संघर्ष दरअसल एक ऐसी व्यवस्था के लिए संघर्ष है जिसमें बराबरी हासिल करने की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां मौजूद हों. ऐसा समाज एक समाजवादी समाज ही हो सकता है, जो व्यक्तिगत संपत्ति और वर्ग विभाजन को समाप्त करेगा, जिसमें नारी का प्रथम परिचय घर में उसकी भूमिका से नहीं बल्कि समाज में उसके योगदान से होगा. जहां संतानोत्पत्ति पर नारी का अपना नियंत्रण होगा. इसलिए कम्युनिज्म की विचारधारा के मार्गदर्शन में ही नारी मुक्ति का संघर्ष अपनी अंतिम मंजिल तक पहुंच सकता है. पश्चिम का नारीवादी आंदोलन जब यह महसूस करता है कि यूरोप में समाजवाद के पतन ने उसके आंदोलन को भी कमजोर किया है तब वह समाजवाद और नारी मुक्ति के बीच अभिन्न रिश्ते को ही उजागर करता है.

कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने अपने कार्यक्रम में कानून और वास्तविक जीवन में भी पुरुष और नारी के बीच सामाजिक समानता लाने, पति-पत्नी संबंधों व पारिवारिक संहिता में क्रांतिकारी परिवर्तन करने, मातृत्व को एक सामाजिक कार्य की मर्यादा देने, शिशु व किशोरों की देखभाल व शिक्षा की जिम्मेदारी समाज के हाथों में सौंपने और ऐसी तमाम विचारधाराओं एवं परंपराओं के खिलाफ अनवरत संघर्ष की घोषणा की थी, जो नारी को गुलाम बनाते हैं.

नारी मुक्ति संघर्ष में यही कार्यक्रम आज भी आप की बुनियादी दिशा निर्धारित करता है.

1. कम्युनिस्ट नारी संगठन को सर्वप्रथम पत्रिका और प्रचार के मौखिक माध्यमों के जरिए ऐसी सारी विचारधाराओं व परंपराओं के खिलाफ जिहाद छेड़ना होगा जो नारी को गुलाम बनाते हैं. आज के भारतीय संदर्भ में यह और भी जरूरी है क्योंकि धर्म की आड़ में समाज की सबसे प्रतिक्रियावादी ताकतों नारी को घर की चारदीवारी में कैद रखना चाहती हैं, पुराने सामाजिक-राजनीतिक मुल्यों को फिर से स्थापित करना चाहती हैं. पीछे की ओर इनकी यात्रा में यहां तक कि सतीप्रथा का गुणगान भी शामिल है. आपको याद रखना होगा कि सारे भगवान पुरुषों के बनाए हुए हैं जिनकी विशालकाय मूर्तियों के सामने नारी को भयाक्रांत और धर्मभीरु बनाया जाता है, यहां तक कि देवियों का आविष्कार भी पुरुषों ने किया है. नारी को नारी के रूप में सम्मान हासिल करने के लिए देवी रूप लेना पड़ेगा, जबकि सबसे अकर्मण्य पति भी नारी के लिए परमेश्वर है. सारी आचार संहिताएं पुरुषों ने बनाई हैं और उन्हें दैवी जामा पहना कर मानने के लिए नारी को मजबूर किया गया है.

2. कम्युनिस्ट नारी संगठन को पुरुष और नारी के बीच सामाजिक समानता के लिए प्रगतिशील कानून बनाने के लिए जिस तरह लड़ना है, उससे भी अधिक इस कानूनों को लागू करने के लिए संघर्ष करना है.

कानून चाहे जितने भी प्रगतिशील क्यों न हों, नौकरशाही और तमाम सामाजिक संस्थाओं के सामंती रुख के चलते अपने आप कुछ लागू नहीं होता. इन संस्थाओं में न्यायपालिका भी अपवाद नहीं है.

3. कम्युनिस्ट नारी संगठन महिलाओं को अपने घर की चारदीवारी के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरणा देगा, अपने-अपने क्षेत्र में नारी उत्पीड़न की खास-खास घटनाओं के खिलाफ महिलाओं को संगठित करेगा, समाज की निरंकुश ताकतों द्वारा जनसंघर्षों के दमन में नारी के विशेष उत्पीड़न को अपना निशाना बनाएगा. इसी तरह कदम-ब-कदम महिलाओं की चेतना और संघर्षशील मानसिकता आगे बढ़ेगी और नारी आंदोलन राजसत्ता से टकराएगा.

4. कम्युनिस्ट नारी संगठन को महिलाओं को किसानों-मजदूरों के जनांदोलनों में, राजनीतिक आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करना होगा. कोई भी जनांदोलन तबतक जनांदोलन नहीं बनता है जबतक महिलाओं की बड़ी संख्या उसमें हिस्सा न लेती हो. यह हिस्सेदारी नारी मुक्ति आंदोलन का निषेध नहीं करती है बल्कि महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा करती है और अपनी शक्ति का एहसास कराती है, पुरुषों के साथ सहज-स्वाभाविक संबंधों की ओर ले जाती है, घरेलू पारिवारिक रिश्तों में अनजाने में ही एक परिवर्तन लाती है इस तरह नारी मुक्ति संघर्ष को व्यापक आधार प्रदान करती है.

5. कम्युनिस्ट नारी संगठन महिलाओं के छोटे या बड़े हर प्रतिवाद को, चाहे वह किसी भी संगठन के झंडे तले हों, अवश्य ही समर्थन देगा. बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन का भी हमारे देश में विशेष सकारात्मक महत्व है. क्योंकि उसे भी सामंती जकड़नों को अपना निशाना बनाना पड़ता है और यहां वामपंथी संगठन ही उनके स्वाभाविक मित्र हो सकते हैं. सामंती-साम्प्रदायिक हमलों की रोशनी में इन आंदोलनों के साथ वामपंथी नारी संगठनों का मोर्चा बनाना अवश्य ही संभव है और जरूरी भी.

6. कम्युनिस्ट नारी संगठन पति-पत्नी संबंधों व पारिवारिक संहिता में क्रांतिकारी बदलाव को भी अपना नारा बनाएगा. रूसी क्रांति के बाद 1924 में कोमिन्तर्न ने अपनी घोषणा में कहा था – जब तक परिवार और पारिवारिक संबंधों की मान्यताएं नहीं बदलेंगी, क्रांति नपुंसक ही बनी रहेगी. आज मुस्लिम महिलाएं भी प्रचलित तरीकों के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए पर्दे से बाहर निकल रही हैं. आपको अवश्य ही उनका समर्थन करना चाहिए. मैंने बिहार में जनवादी शादियों के बारे में सुना है जिसमें पुरोहितों और आडंबरों की जगह सीधे-सादे तरीके से शादी की जाती है. यह जरूर अच्छी बात है. लेकिन जनवादी शादी का मतलब होता है नारी को अपना साथी खुद चुनने की स्वतंत्रता और शादी के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों में सहभागिता. इन जनवादी शादियों में, पार्टी के अंदर तथाकथित क्रांतिकारी शादियों में क्या यह बात लागू होती है? पार्टी के अंदर तथाकथित क्रांतिकारी शादियों के भी अधिकांश में ये नीतियां शायद ही लागू होती हैं.

7. आज तक महिलाओं की प्रगति के लिए किए गए सुधारों में शायद नारियों के अपने संघर्षों से पुरुषों के प्रगतिशील हिस्सों की भूमिका ही ज्यादा महत्वपूर्ण रही है. कम्युनिस्ट नारी संगठन का विशेष कर्तव्य है नारियों की अपनी भूमिका को बढ़ाना. कारण, अतंतः नारी को अपनी मुक्ति खुद हासिल करनी होगी. यहां तक कि हमारी पार्टी में भी महिला कार्यकर्ताओं की मर्यादा-हानि की घटनाएं घटित होती हैं. कुछ-कुछ पुरुष कार्यकर्ताओं द्वारा आम महिलाओं के प्रति बहुत ही गलत आचरणों की रिपोर्ट आती हैं. हम पार्टी संस्थाओं की ओर से अवश्य ही इन मामलों में कदम उठाते हैं. फिर भी, मुझे लगता है कि इन मामलों में कम्युनिस्ट नारी संगठन को पार्टी पर निगरानी रखने और दबाव पैदा करने की भूमिका का भी पालन करना चाहिए.

नारी-पुरुष के बीच प्राकृतिक विभाजन को छोड़कर बाकी सारे विभाजन कृत्रिम हैं. ऐतिहासिक विकास के एक दौर ने इन विभाजनों को संस्थाबद्ध रूप दिया है. ऐतिहासिक विकास का दूसरा दौर, जो शुरू हो चुका है, इन सारे विभाजनों का खात्म कर देगा और मानव प्रगति के दो रूपों के बीच का संबंध जब सहज, स्वाभाविक और बिरादराना हो उठेगा, तभी मानव जाति अपनी खोई हुई अखंड सत्ता को फिर से वापस पा सकेगी. इस मंजिल की ओर जानेवाला रास्ता एक ऐसी क्रांति से होकर गुजरेगा जिसके परचम पर लिखा होगा – ‘समाजवाद और नारी मक्ति.’

(छठी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से उद्धृत)

पेशेवर हत्यारों की इस घूमती टोली को भोजपुर के भूमिहारों का व्यापक समर्थन हासिल था. इसके अवाला, बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में भी भूमिहार जाति उसे मदद पहुंचा रही है. शक्तिशाली सरकारी अधिकारियों और पार्टी लाइन के परे सभी राजनेताओं ने इसे मदद पहुंचाई. भोजपुर के राजपूतों का भी थोड़ा-बहुत समर्थन इसे हासिल है. इसकी शुरूआत मुख्यतः कांग्रेस की पहल पर कुलकों की कृषि-संबंधी मांगों को उठाने के नाम पर हुई थी. लेकिन जल्द ही इसका नेतृत्व भाजपा के हाथों चला गया, और वह भोजपुर से माले को उखाड़ फेंकने के लिए घोषित लक्ष्य वाला हथियारबंद गिरोह में तब्दील हो गया. इसके शुरूआती दौर में तो जनता दल के नेताओं का भी इसके साथ मेलजोल रहा, और रणवीर सेना ने हमारे खिलाफ यादव कुलकों के साथ समीकरण बैठाने पर खासतौर पर ध्यान दिया. 1996 के लोकसभा चुनाव में हमारे खिलाफ इनका राजनीतिक साझा मोर्चा उभर कर सामने आया. उस दौरान भाजपा-समर्थित समता पार्टी के उम्मीदवार, कांग्रेस और जनता दल में रणवीर सेना का समर्थन हासिल करने के लिए होड़ मच गई. चुनाव जीतने के बाद जनता दल के सांसद ने रणवीर सेना पर पाबंदी हटाने की मांग की. बथानी टोला नरसंहार के बाद जब डीएम और एसपी के तबादले के खिलाफ इन सबने मिलकर आंदोलन चलाया, तो यह साझा मोर्चा फिर प्रत्यक्ष हुआ. भाकपा, माकपा की भूमिका भी काफी संदिग्ध और दोहरी रही. दोनों पार्टियां लगातार यह प्रचार करती रहीं कि माले द्वारा किसानों और मजदूरों के बीच अंतर्विरोधों को बढ़ावा देने तथा उसकी जातिवादी और दुस्साहसवादी कार्यवाहियों के कारण ही रणवीर सेना उभरी है.

हमारी पार्टी के खिलाफ रणवीर सेना के प्रचार अभियान में स्पष्ट रूप से भाजपाई तेवर नजर आते हैं. माले पर उसका आरोप है कि वह चीन और पाकिस्तान जैसी विदेशी ताकतों का एजेंट है और भारतीय सामाजिक ढांचे अर्थात ऊंच-नीच वाली जाति व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करना उसका उद्देश्य है. इसलिए रणवीर सेना ने लाल झंडे को न सिर्फ भोजपुर, बल्कि सारे भारत से उखाड़ फेंकने की कसम खाई है. रणवीर सेना का झंडा भी केसरिया है.

बेलाउर में जमींदारों के हमलावर गिरोहों के खिलाफ महीनों तक मोर्चाबद्ध युद्ध चलता रहा. हमारे हौसले अब भी बुलंद थे और आरा में हुए एक जोरदार प्रदर्शन में गगनभेदी नारे लगे कि – बिहटा-एकवारी की जीत हमारी है, अब बेलाउर की बारी है.

अब पीछे मुड़कर देखने पर हमारे कई कामरेड यह महसूस करते हैं कि अपनी रक्षा तक सीमित रहने के बजाय अगर हमने अपनी पूरी ताकत लगाकर हमला करके बेलाउर के हथियारबंद गिरोह को समाप्त कर दिया होता, तो शायद रणवीर सेना फलफूल नहीं पाती. यह सच है कि उस मोड़ पर हम इस परिघटना की गंभीरत को पूरी तरह आंक नहीं पाए थे और बेलाउर के संघर्ष को हमने उसी गांव तक सीमित रहने वाली स्थानीय परिघटना मान लिया था. लेकिन जातीय गोलबंदी का काफी तेजी से विस्तार हो रहा था. जल्द ही संदेश के कई गावों में झड़पें शुरू हो गई और अब तक शांत रहे सहार के जमींदारों में थी सुगबुगाहट होने लगी. उन्होंने अंधाधुंध हत्याएं शुरू कर दीं, पर वहीं, जनता की शक्तियों ने खुद को चुनिन्दा निशानों पर वार करने तक ही सीमित रखा.

इसके बाद 1995 में विधानसभा के चुनाव हुए. हमने सहार और संदेश दोनों सीटें जीत कर जमींदारों और कुलकों के राजनीतिक वर्चस्व को पहली बार चुनौती दी. हालांकि ये दोनों प्रखंड ऐतिहासिक रूप से भोजपुर में हमारे सबसे मजबूत गढ़ रहे हैं. इसके बावजूद 1990 में हम ये सीटें नहीं जीत पाए थे. नए घटनाक्रम ने जमींदारों और हमारी विरोधी राजनीतिक पार्टियों को हताशा से अंधा कर दिया. तनाव लगातार बढ़ता गया और आरा शहर में हमारी पार्टी के महाधरने पर एक हथगोला फेंका गया. इस हमले में हमारे एक साथी मारे गए और कई जख्मी हुए. इससे क्षुब्ध होकर एक आम आह्वान किया गया कि बच्चों और महिलाओं को छोड़कर, रणवीर सेना से दूर-दराज का भी संबंध रखने वाले भूमिहारों से बदला लिया जाय. सिर्फ एक दिन में रणवीर सेना के आठ सक्रिय तत्व जनता के कोप का शिकार बने. हत्याओं और जवाबी हत्याओं का दौर चलता रहा, और अंततः 1996 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नाढ़ी में रणवीर सेना के नौ सक्रिय तत्व जनता के कोप का शिकार बने. इस मोड़ पर प्रशासन ने हमारी पार्टी पर पाबंदी लगाने का प्रस्ताव भेजा और बड़े पैमाने पर दमन ढाया. मगर, 1996 के लोकसभा चुनाव में भी हमने सहार और संदेश में अपना वर्चस्व कायम रखा.

पुलिस के लगातार जारी दबाव को समाप्त करने के लिए जिला कमेटी ने इस दौरान संकेत दिया कि मामूली धाराओं में फंसे पार्टी के कुछ साथियों को अदालत में आत्मसमर्पण कराया जाय, और फिर जमानत पर उन्हें छुड़ा लिया जाय. लेकिन इससे भ्रम की स्थिति पैदा हो गई. कई साथी आत्मसमर्पण करने लगे. इससे हताशा बढ़ने लगी. लेकिन इस नुकसान पर जल्द ही काबू पा लिया गया. इस बीच बथानी टोला और आस-पास के गांव संघर्ष का केंद्र बनने लगे. कनपहरी और नावाडीह में करबला भूमि को मुक्त करने के लिए पार्टी ने आंदोलन छेड़ा. इस आंदोलन के दौरान दो प्रभावशाली राजपूत नेता जनता के कोप का शिकार बने. रणवीर सेना के संगठकों और भाजपा के राजनीतिक नेतृत्व ने सांप्रदायिकता का अपना मनपसंद कार्ड खेला और राजपूतों और भूमिहारों में एकता कायम कर ली. इसकी परिणति बथानी टोला नरसंहार में हुई. जनता के स्थानीय सशस्त्र दस्तों ने बथानी टोला, चंवरी और आसपास के कई गांवों में ऐसे हमलों को नाकाम कर दिया था. इस इलाके में सामंतों के हमलों के दौरान आसपास के गावों से लोग मदद के लिए दौड़े आते थे. बथानी टोला में भी उस हादसे के दिन स्थानीय दस्ते ने हमलावरों को रोके रखा, लेकिन संघर्ष के दौरान दस्ते के एक योद्धा को गोली लग गई (बाद में उनकी मौत हो गई) और गोलियां खत्म होने के कारण दस्ते को पीछे हटना पड़ा. कुछ गलतफहमियों के कारण दूसरे गांवों से मदद पहुंचने में देर हो गई. बथानी टोला प्रकरण पर एक शक्तिशाली राजनीतिक प्रतिवाद आंदोलन भी छेड़ा गया, जिसमें हमारे विधायक रामेश्वर प्रसाद द्वारा आमरण अनशन शामिल है.

बथानी टोला कांड के बावजूद जनता जुझारू तेवर में थी, लेकिन बहुतेरी गलतफहमियां रहने के कारण फौरन जवाबी हमला नहीं किया जा सका. दिशाहीनता की स्थिति बनी रही. शस्त्रों से सुसज्जित रणवीर सेना से लड़ने के लिए अधिक संख्या में तथा आधुनिक हथियारों की मांग ने जोर पकड़ लिया.

रणवीर सेना के हथियारबंद गिरोह को मटियामेट करने का एक साहसिक प्रयास किया गया. मगर यह पूरे तौर पर सफल न हो सका. जनता के किसी भी चुनिन्दा हमले के जवाब में रणवीर सेना की ओर से ताबड़तोड़ हत्याएं होती रहीं. बड़े पैमाने पर जातीय ध्रुवीकरण के चलते हमारे खुफियातंत्र पूरी तरह पंगु हो गया. हम उनके मुख्य सशस्त्र गिरोह की गतिविधियों की जानकारियों से वंचित रहे. इतना ही नहीं, एक सशस्त्र दस्ते ने काफी लापरवाही दिखाई और पुलिस ने उन्हें बगैर किसी प्रतिरोध के पकड़ लिया.

रणवीर सेना और उसका सामाजिक आधार उत्साहित था, जबकि जनता हतोत्साहित थी. यह धक्के की स्थिति थी और जैसा कि ऐसी स्थितियों में हमेशा होता है, गलतफहमिया और वाद-विवाद तेज हो गए, एक खास विचार यह था कि सवर्ण सामंती धाक को तोड़ने के हमारे नारे और व्यापक स्तर पर सवर्ण जमींदारों को निशाना बनाने के कारण ही रणवीर सेना के पक्ष में मजबूत जातीय गोलबंदी हुई है. यह विचार अति-सरलीकृत और एकपक्षीय मालूम पड़ता है. हमारा नारा भोजपुर में व्याप्त सामंतवाद की वास्तविक स्थिति के अनुरूप ही था. हमने ज्वाला सिंह की सवर्ण गोलबंदी को तोड़ा था, और इस नारे के बावजूद हमने बिहटा में बारंबार वर्गों के बीच फर्क करने की अपनी नीतियों को समझाते हुए राजपूतों के एक अच्छे-खासे हिस्से को निष्क्रिय बनाने में कामयाबी पाई है.

दरअसल रणवीर परिघटना के उभरने तक हमने अपना नारा बदल कर उसे सांप्रदायिक-सामंती वर्चस्व के खिलाफ केंद्रित कर दिया था, जो सवर्ण सामंतों के भाजपा की ओर रुख करने की राजनीतिक घटना को प्रतिबिंबित करता था. कुछ ज्यादतियां बेशक हुई, लेकिन उनकी निर्णायक भूमिका कत्तई नहीं रही. हमने पर्चों के माध्यम से भूमिहारों के बीच प्रचार अभियान चलाया और शांति अभियान के माघ्यम से मध्यवर्ती तबकों के साथ सम्मानजनक समझौता किए. हमने सेमिनार भी आयोजित किए जिसमें बड़ी संख्या में भूमिहार बुद्धिजीवियों ने भाग लिया. विपरीत परिस्थितियों में भी भोजपुर के बहादुर साथियों ने संघर्ष जारी रखा.

रणवीर सेना के हमलों में अब गतिरोध की स्थिति आ गई है. धीरे-धीरे हम अपने हाथ में पहल ले रहे हैं. लेकिन उनकी मुख्य सशस्त्र शक्ति अब भी बरकरार है. अब उन्होंने हमारी पार्टी के मुख्य नेताओं की हत्या को अपना लक्ष्य घोषित किया है. वे अब भी तबाही मचाने और नरसंहार करने में सक्षम हैं. इसीलिए इस मामले में ढिलाई बरतने की कोई गुंजाइश नहीं है. हमें हमलावर स्थिति में पहुंचने के लिए उन पर दबाव बनाए रखना है. जिला कमेटी ने व्यापक चर्चाओं और कार्यकर्ता सम्मेलनों के जरिये रणवीर सेना से संघर्ष के समूचे दौर की समीक्षा की है, अपनी एकता को सुदृढ़ किया है और जीत होने तक संघर्ष जारी रखने की ठानी है. भोजपुर ने कई बार यह कर दिखाया है, इस बार भी वह जीत हासिल करने के लिए कमर कस रहा है.

(छठी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से उद्धृत)

पिछले तीन साल से ज्यादा अरसे से भोजपुर में रणवीर सेना के खिलाफ हमारा संघर्ष जारी है. रणवीर सेना ने अबतक कुल 162 लोगों की हत्याएं की हैं, जिनमें से 20 हमारी पार्टी के सदस्य थे. उनमें से चार स्थानीय दस्तों के कमांडर और आठ स्थानीय कार्यकर्ता थे. मारे गए लोगों में से, कोई पन्द्रह-बीस लोग जनता दल या समता पार्टी से जुड़े थे. कई ऐसे लोगों की भी हत्याएं हुई हैं, जो किसी राजनीति से वास्ता नहीं रखते थे, बस दलित या पिछड़ी जाति का होने के कारण ही उनकी हत्या की गई. बदले में रणवी सेना के 76 समर्थक व कार्यकर्ता जनता के कोप का शिकार बने हैं. इसके बावजूद रणवीर सेना के मुख्य सरगने और उनकी असली फौजी ताकत अब तक बरकरार है.

भोजपुर में हमारे 25 साल से भी ज्यादा समय से जारी आंदोलन के दौरान, रणवीर सेना सामन्तों की सबसे कुख्यात और क्रूर निजी सेना के रूप में सामने आई है. उसके खिलाफ लड़ाई दीर्घकालीन और कठिन साबित हुई है. उसने जनता की अंधाधुंध हत्याएं की, सभाओं पर हथगोले फेंके, और यहां तक कि हमारी पार्टी के दफ्तर पर भी हमला किया. उसने हमारी पार्टी के महत्वपूर्ण नेताओं की हत्या करने की भी योजना बनाई थी.

इस तरह का नापाक गठजोड़ स्वाभाविक भी है, क्योंकि भोजपुर का ग्रामीण सर्वहारा “अपने लिए एक वर्ग” की हैसियत हासिल कर चुका है और पूरी तरह हाशिए में होने की स्थिति से उबरकर, भाकपा(माले) के नेतृत्व में जिले के राजनीतिक रंगमंच के केन्द्र में  आ चुका है. इतना ही नहीं, इसने जनता दल और भाजपा के वर्चस्व को चुनौती दी है, तथा भाकपा-माकपा के वैचारिक दिवालिएपन को भी उजागर किया है. भोजपुर के आंदोलन ने गांव के गरीबों की राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की जद्दोजहद के रूप में वर्गीय, और शोषित दलित जातियों की सामाजिक समानता हासिल करने के संघर्ष के रूप में, जनआंदोलन का चरित्र हासिल कर लिया है. यही वजह है कि सामंती वर्ग और जातियां जनता में आतंक फैलाने पर उतारू हो गई हैं तथा महिलाओं और बच्चों समेत निर्दोष लोगों की निर्मम हत्या की जा रही है. सामंती वर्गों द्वारा संघर्ष का जो रूप अख्तियार किया गया है, वह कोई अलग-थलग परिघटना नहीं, बल्कि वर्ग संघर्ष के व्याकरण से संचालित है.

राजनीतिक अर्थों में बथानी टोला कांड को हमने बड़ा आंदोलनात्मक मुद्दा बना दिया. इस दौरान विधानसभा के उग्र घेराव से लेकर देशभर के लोकतांत्रिक जनमत को गोलबन्द करना जारी रहा. अंत में सरकार डिएम और एसपी का तबादला करने और जांच कराने को मजबूर हुई. लेकिन जमीनी तौर पर रणवीर सेना के मुख्य सशस्त्र गिरोह को ध्वस्त करने की योजना कारगर नहीं हो पाई.

हमने अनगिनत गांवों में जनता को हथियाबन्द करने में प्रारंभिक सफलताएं पाई हैं. कई गांवों में प्रतिरोध करने में सक्षम लड़ाकू दस्ते उभरे हैं. पार्टी ने तीन तरह की निर्भरताओं के खिलाफ वैचारिक संघर्ष चलाया है : (1) उच्च स्तर के आग्नेयास्त्रों पर निर्भरता, हमारी पार्टी ने इसके बदले छापामार एक्शन की उस पुरानी परम्परा को फिर से जिन्दा करने पर जोर दिया है, जिसमें आधुनिक हथियारों से लैस दुश्मन को परम्परागत हथियारों से भी परास्त किया जाता था; (2) प्रशासन पर निर्भरता, इसके बदले हमने जनता का प्रतिरोध को विकसित करने पर जोर दिया; और (3) ऊपरी कमेटी से निर्देश पर निर्भरता, इसके बदले हमने व्यापक नीति-समूह के तहत स्थानीय पहलकदमियों पर, और खासकर फौरन जवाबी हमला करने पर जोर दिया है.

रणवीर सेना की ताकत बढ़ने के साथ ही उसने यादवों पर भी हमले शुरू कर दिए हैं. यादव किसानों और युवकों को गोलबन्द करके हमने धीरे-धीरे सामाजिक संतुलन को बदलना शुरू किया है. इससे कुछ सफल ऐक्शन भी हुए हैं. हमने भूमिहारों के बीच भी प्रचार तेज कर दिया है और ऐसा लगता है कि उनके बीच दरारें पैदा हुई हैं और तनातनी बढ़ी है. हमने सावधानी बरतते हुए राजपूतों के खिलाफ एक अन्य मोर्चा खोलने से परहेज किया है और इस वजह से हमारे खिलाफ उनकी सक्रियता घटी है. बाढ़ और दूसरे राहत कार्यों में किसान सभा की हाल की पहल के दौरान व्यापक स्तर पर गोलबन्दी देखी गई है. हाल की एक घटना में आरा शहर में रणवीर सेना द्वारा अगवा किए गए चार लोगों को छुड़ा लिया गया और रणवीर सेना के दो लोगों को पुलिस के हवाले कर दिया गया.

जनता के स्थानीय सशस्त्र दस्ते धीरे-धीरे अपनी आक्रामक गतिविधियां तेज कर रहे हैं और रणवीर सेना भी अब पहले की तरह तेजी से जवाबी हमले नहीं कर पा रही है. इसके बावजूद, खुफिया जाल फैलाने और असली सरगनों की गतिविधियों की खबर रखने पर अभी तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है.