(7 नवम्बर, 1993 को पटना में इंकलावी मुस्लिम कान्फेंस द्वारा ‘हिंदुस्तानी मुसलमान किधर?’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय कन्वेंशन में दिया गया भाषण. समकालीन लोकयुद्ध, 15 नवम्बर 1993 से)


यहां आए हुए तमाम दोस्तो,

इतिहास में बहुत-सी घटनाएं घटती रहती हैं – छोटी-बड़ी. इनमें कुछ-कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनका बड़ा असर होता है और जिन घटनाओं के जरिए हम बहुत-सी चीजें जान पाते हैं, बहुत-से रहस्यों पर से पर्दे उठ जाते हैं. आज से तकरीबन एक साल पहले बाबरी मस्जिद को गिरा दिया जाना एक ऐसा ही वाकया है, एक ऐसी ही घटना है. इस मामले में जो बात अक्सर कही गई है कि बीजेपी ने, हिंदुस्तान की जो स्टेट की संस्थाएं हैं – पार्लियामेंट, जुडिशियरी, ला एंड आर्डर मशीनरी – इन सबको नहीं माना, इनका मखौल उड़ाया और बाबरी मस्जिद गिरा दी. लेकिन सवाल इससे भी बड़ा है. जो सवाल है, अहम सवाल यह है कि हमारे स्टेट की, हिंदुस्तानी हुकूमत की ये सारी संस्थाएं थीं, वे क्यों इस घटना को चुपचाप खड़ी देखती रहीं. हिंदुत्व, जब अपने पूरे हमलावर रुख के साथ सामने आया, तो हमने देखा कि हिंदुस्तान की हुकूमत, हिंदुस्तानी स्टेट की सारी इंस्टीच्यूशंस नपुंसक बनके रह गई, हिप्पोक्रेट बनकर रह गई, जुडिशियरी से लेकर, नेशनल इंटिग्रेशन काउंसिल से लेकर ला एंड आर्डर मशीनरी तक. सवाल सिर्फ एक प्राइम मिनिस्टर की हिचकिचाहट का, कमजोरी का नहीं था. वह तो एक सिंबल था इस बात का कि जब भी हिंदुत्व, अपने पूरे हमलावर रुख के साथ सामने आया है, हमारी सारी की सारी स्टेट इंस्टीच्यूशंस नाकारगर साबित हुई हैं.

हिंदुस्तानी मुसलमान, जिन्हें पार्टीशन के बाद काफी बड़े मानसिक धक्के का शिकार होना पड़ा था और बहुत-सी परेशानियां उठानी पड़ी थीं, धीरे-धीरे हिंदुस्तानी हुकूमत के जो मामले थे, जो सेकुलरिज्म की बाते थीं, उनपर भरोसा रखते हुए इस पूरी व्यवस्था के साथ अपने को जोड़ रहे थे. लेकिन बाबरी मस्जिद की घटना ने उनके सामने बड़ा सवाल खड़ा कर दिया कि हिंदुस्तानी स्टेट कहां तक सेक्युलर है. और, इस घटना ने फिर से उन तमाम पुराने सवालों पर, जो एक समय लगता था कि हल किए जा चुके हैं, उन सारे मुद्दों पर फिर से बहस छेड़ दी है. मैं इस बारे में फिर कहना चाहूंगा कि जिन्ना का जो मुस्लिम राष्ट्रवाद था, मुस्लिम नेशनलिज्म था वह किसी सावरकर या गोलवलकर के रिएक्शन में नहीं आया था. क्योंकि सावरकर-गोलवलकर की ताकतें उस जमाने में काफी कमजोर थीं. कहीं न कहीं उभरा था गांधी के जो इंडियन नेशनलिज्म, गांधी की जो भारतीय राष्ट्रवाद की परिभाषा थी, उसके रिएक्शन में. मेरा यह मानना है कि भारतीय राष्ट्रवाद की जो परिभाषा, इंडियन नेशनलिज्म की जो बात गांधी के जमाने में शुरू हुई, वह लिबरल थी, उदारवादी किस्म की थी. बाद में वह बढ़ते-बढ़ते हिंदुत्व की अल्ट्रा, एक उग्र धारा में बदलती चली गई. नेहरू एक पर्दे का काम करते थे, एक शील्ड का काम करते थे – हिंदुस्तानी स्टेट की असलियत को छिपाने में. वे हटे, इंदिरा गांधी आई और उन्होंने इंडियन नेशनलिज्म, भारतीय राष्ट्रवाद को जो हमलावर रुख दिया उससे भारतीय राष्ट्रवाद, हिंदुस्तानी राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद के बीच की दीवार खत्म हो गई. यह वह स्थिति थी, जिसकी अनिवार्य परिणति भारतीय जनता पार्टी के मजबूत होने में ही हो सकती थी. राम जन्मभूमि का ताला खोला गया. असलियत में बोतल से सांप्रदायिकता के जिन्न को बाहर निकाल दिया गया. आज वह जिन्न बाहर निकल चुका है और पूरे देश में तबाही मचा रहा है. उसे फिर से बोतल में बंद करने की सारी कोशिसें अभी तक नाकाम साबित हुई हैं.

तो इस तरह की समस्या है. आज हिंदुस्तान एक दोराहे पर खड़ा है, जहां से आप या तो एक हिंदू राष्ट्र की तरफ बढ़ सकते हैं या एक आधुनिक, मार्डन सेक्युलर स्टेट की तरफ. हमें सच्चे मायने में सेक्युलर स्टेट की तरफ बढ़ना है. मैं समझता हूं, भारतीय मुसलमानों के लिए यही राह है. हिंदुस्तान में सच्चे मायने का सेक्युलर स्टेट बनाने की लड़ाई में भारतीय मुसलमानों के लिए शामिल होना शायद बहुत ही अहम और जरूरी काम बनता है. इस लड़ाई के मामले में मैं एक और बात कहना चाहता हूं. वह यह कि पाकिस्तान जरूर एक मुस्लिम स्टेट बना, धार्मिक स्टेट बना. लेकिन साथ ही साथ जो हिंदुस्तानी स्टेट बना, उसमें भी एक प्रकार की विकृति पैदा हुई, जिसका नतीजा आज हम सब देख रहे हैं. इससे हमारा यह मानना है कि भारत में सही मायने में एक सेक्युलर स्टेट नहीं थी. हिंदुस्तानी समाज को एक सेक्युलर समाज बनाने की, हिंदुस्तानी स्टेट को एक सेक्युलर स्टेट बनाने की लड़ाई हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश का एक महासंघ बनाने की भी लड़ाई है क्योंकि शायद ऐसे भी, महासंघ का बनना ही भारतीय स्टेट की विकृति को हमेशा के लिए रोक पाएगा. ये जो हालात हैं और जिस तरह हिंदुस्तानी स्टेट की सारी फारेन पालिसी पाकिस्तान विरोध पर आधारित है, जिस तरह हिंदुस्तान की सारी राजनीति, विदेश नीति पाकिस्तान विरोध पर घूमती है, ये हालात जबतक बने रहेंगे तबतक हिंदुस्तानी स्टेट शायद कई मायने में सेक्युलर नहीं बन पाएगा. हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो रिश्ते हैं, शायद वे कभी स्वाभाविक नहीं बन पाएंगे.

इसलिए मेरा यह मानना है कि सेक्युलर सोसायटी, सेक्युलर स्टेट बनाने की लड़ाई के साथ ही साथ हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच फिर से समानता पर आधारित महासंघ बनाने की भी लड़ाई है. बड़े पैमाने पर हम सोचते हैं कि यह सेक्युलर स्टेट, सेक्युलर सोसायटी की लड़ाई का सवाल है. लेकिन अगर हम देखें तो भाजपा के उभरने से आज जो खतरा सामने आया है, वह खतरा सिर्फ कुछ दंगों का नहीं है, सिर्फ माइनारिटी राइट्स का या सिविल राइट्स का नहीं है, आज सवाल यह है कि वे हिंदू राष्ट्र की बातें कर रहे हैं. उसका मतलब है कि मुसलमानों को, हिंदुस्तानी मुसलमानों को अपनी पहचान छोड़नी होगी और उन्हें हिंदूवादी, हिंदू धर्म का ही एक सेक्ट बनकर रहना होगा – यह उनकी मांग है. इसे वे कल्चरल एसिमिलेशन करते हैं. इसलिए आज हिंदुस्तानी मुसलमानों की पहचान की लड़ाई काफी जरूरी भी बन गई है और इसके लिए कम्युनिटी रिएक्शन की बात है. मुसलमान सम्प्रदाय इस आइडिया पर रिएक्ट करता है. यह सवाल सामने आ गया है कि सम्प्रदाय के रूप में, कम्युनिटी के रूप में उसको रिएक्ट करना पड़ता है. तो फिर पूरी की पूरी मुस्लिम अस्मिता को ही, उसकी पहचान को ही खत्म कर देने की मांग इसमें शामिल है.

इस सवाल में ये बातें भी सामने आई हैं कि आज हिंदुस्तानी मुसलमान अपना रास्ता तलाश रहा है. नए रास्ते तलाश रहा है और इसलिए उसने देखा है कि हिंदुस्तान का झंडा बुलंद रखा है. ये ताकतें ही सही व सच्चे मायने में सेक्युलर ताकतें हैं. उसमें यह बात भी मुसलमानों के ज्यादातर हिस्से समझने लगे हैं कि वामपंथियों में भी क्रांतिकारी वामपंथी ताकतें जो नए सिरे से उभर रही हैं, उनके अंदर वह हिम्मत है कि बीजेपी के इस हमलावर हिंदुत्व के खिलाफ खड़ा हो सकें, उसका मुकाबला कर सकें. यही वजह है कि हाल के वर्षों में क्रांतिकारी वामपंथी ताकतें लगातार आगे बढ़ी हैं और उनके प्रति हिंदुस्तानी मुसलमानों का समर्थन लगातार बढ़ता जा रहा है.

आज यह सवाल  सामने है कि वामपंथी ताकतों और मुसलमानों के बीच बढ़ते हुए इस रिश्ते को कैसे एक संस्थाबद्ध रूप दिया जाए. इस सवाल को हल करना है और इसमें भी बहुत से सवाल हैं, बहुत-सी बातें हैं, बहुत-से एप्रिहेंसंस हैं, कांग्रेसियों के बारे में, वामपंथी ताकतों के बारे में. मैं तो समझता हूं कि इन्हें जहां तक हो सके, कोशिश करूंगा कि इन्हें हम साफ कर सकें.

हम तो कहते हैं कि आपको अपनी आइडेंटिटी, अपनी पहचान की रक्षा करनी है. और उस पहचान के सिंबल्स अगर आपके पास यह है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक सिंबल है. अगर आप यह मानते हैं कि उसका एक आटोनोमस स्टेटस है, उसमें बाहर से हस्तक्षेप न किया जाए, आप यह चाहते हैं कि उर्दू भाषा को उसकी न्यायपूर्ण जगह मिले, अगर आपकी यह मांग है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के मामले में बाहर से कोई भी एजेंसी, कोई भी एक्सटर्नल एजेंसी, हस्तक्षेप न करे तो हमारी पार्टी आपकी इन मांगों का, आपके एस्पीरेशंस का पूरा समर्थन करेगी. हम मानते हैं कि इन मामलों में बाहर से कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. दूसरी तरफ मैं एक बात कहूंगा कि हमने देखा है कि आज मुसलमानों के नौजवान लड़के बड़ी संख्या में सिर्फ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही नहीं पढ़ते, वे हिंदुस्तान के बहुत-से कालेजों में, यूनिवार्सिटी में, इंस्टीच्यूशंस में पढ़ते हैं, हिंदू लड़कों के साथ इंटेरेक्शन कर रहे हैं और उनके साथ वे पढ़ भी रहे हैं. आज मैं देखता हूं कि बहुत से नौजवान मुस्लिम लड़के हिंदी, इंग्लिश काफी अच्छी तरह से जानते हैं और ऐसे लड़कों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. आजकल हिंदी में भी बहुत-से अखबार निकाले जा रहे हैं. मुस्लिम पत्रिकाएं जहां से निकलती थीं वे संस्थाएं और प्रेस आजकल नए-नए हिंदी अखबार निकाल रहे हैं. बहुत-से मुस्लिम नौजवान हिंदी अखबारों के करेसपैंडेंट्स हैं. सोसायटी में यह जो एक इंटरैक्शन बढ़ रहा है, मैं समझता हूं, शायद ही कोई होगा जो इसे गलत समझता हो या इस प्रक्रिया को अच्छा न समझता हो. जहां तक मुस्लिम पर्सनल लॉ की बात है, मेरी जहां तक जानकारी है, आपकी कम्युनिटी में इसमें सुधार की बातें हो रही हैं. मैं यही उम्मीद जाहिर कर सकता हूं कि आप खुद इसका एक राजनीतिक सोल्यूशन निकालेंगे. बल्कि इस मामले में मुझे एक बात लगती है कि जबसे यह हिंदुत्व का उभार आया है, हम देख रहे हैं कि हिंदू समाज कंजरवेटिव होता जा रहा है. हिंदू समाज में दहेज के लिए घर की बहू-बेटियों को जिंदा जला दिया जा रहा है. सती प्रथा को फिर से जिंदा करने की कोशिश हुई है, बहसें हो रही हैं, यह एक पैराडाक्स है, विरोधाभास है. लेकिन यही शायद इतिहास की बात अगर छोड़ दी जाए तो मेनस्ट्रीम इस्लामिक कंट्रीज में मुसलमानों की सबसे बड़ी जनसंख्या हिंदुस्तान में है. हिंदुस्तान मुसलमानों का सबसे बड़ा देश है और यहां की जो हिस्टोरिकल सेटिंग है, यहां का जो राजनीतिक माहौल है, इसमें हम देख रहे हैं कि हिंदुस्तानी मुसलमान सेक्युलर, लेफ्ट पार्टियों के नजदीक होते जा रहा है. इसलिए मेरा यह पूरा विश्वास है कि हिंदुस्तानी मुसलमान पूरी मुस्लिम दुनिया में सबसे ज्यादा प्रोग्रेसिव, सबसे ज्यादा ङायनेमिक बनने की क्षमता रखता है. सारी मुस्लिम दुनिया में शायद भविष्य में हिंदुस्तान का मुसलमान ही सबसे प्रोग्रेसिव और सबसे डायनेंमिक कंटिंजेंट के रूप में जाना जाएगा. जनसंख्या के लिहाज से मुसलमान आज हिंदुस्तान की 12 से 15 प्रतिशत आबादी का निर्माण करते हैं. लेकिन शताब्दियों से जो हिंदुस्तान उभरा है, उसकी जो तहजीब, उसकी सभ्यता, उसकी जो संस्कृति उभरी है; उसमें हिंदुस्तानी मुसलमान साझा हिंदुस्तान का निर्माण करते हैं. मेरा विश्वास है, मेरी उम्मीद है कि आनेवाले हिंदुस्तान में भी, मार्डन सेक्युलर हिंदुस्तान बनाने में भी हिंदुस्तानी मुसलमान साझा हिंदुस्तान बनाने की भागीदारी निभाएंगे. इसी उम्मीद के साथ और आज के इस कन्वेंशन की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाओं के साथ अपना भाषण समाप्त करता हूं. शुक्रिया.