(लिबरेशन, अप्रैल 1994 से)
हाल के वर्षों में भारत एक महान सामाजिक उथल-पुथल का गवाह रहा है जिसमें जाति और धर्म ने एक प्रमुख उत्प्रेरक की भूमिका निभाई है. शुरूआत हुई वीपी सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार द्वारा 1990 में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों में आरक्षण के बारे में मंडल आयोग की रपट लागू किए जाने का निर्णय लिए जाने के साथ. यद्यपि जनता दल कांग्रेस-विरोध के आधार पर भाजपा की मौन सहमति से सत्ता में आया था. किन्तु यह संश्रय जल्दी ही मुश्किलों से घिर गया. मजेदार बात तो यह है कि दोनों भारत के समकालीन इतिहास में दो प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के सूत्रधार बन बैठे. एक-दूसरे से भिड़े ये आंदोलन आम जनता में मंडल और मंदिर के नाम से मशहूर हुए. प्रारंभ में जनता दल को भ्रष्टाचार (बोफोर्स) विरोधी जेहाद में भारी जनसमर्थन मिला था. बहरहाल, जब इसने मंडल का समर्थन करने के सामने हर चीज कुर्बान कर दी तो इसका समर्थन आधार बुरी तरह सिकुड़ गया तथा इसे एक-एक कर अनेक राजनीतिक संकटों में फंसना पड़ा जिनके चलते अंततः यह भारतीय राजनीति के हाशिए पर की शक्ति में तब्दील हो गया.
वीपी सिंह और उनके सहायकों द्वारा हांकी जारही शेखियों के अनुसार मंडल यथास्थितिवादी और रूढ़िवादी शक्तियों के खिलाफ, जिनके राजनीतिक प्रतिनिधि कांग्रेस(आइ) और भाजपा हैं, भारत में अभूतपूर्व सामाजिक क्रांति का उदघोष है.
इतिहास ने एक अजीब व्यंग्यात्मक करवट बदली और मंडल की सिफारिशों को कांग्रेस(आइ) ने लागू किया और इस प्रक्रिया में जनता दल की हवा निकल गई.
वीपी सिंह के अंदर मौजूद जेहादी की अंतिम परिणति दलित राष्ट्रपति अथवा पिछड़ा प्रधानमंत्री की हास्यास्पद मांग में हुई, चाहे वह किसी भी विचारधारा या राजनीति को क्यों न मानता हो. फिर, उन्होंने दिल्ली से तबतक बाहर रहने की चाल खेली जबतक कि किसी पिछड़े को आरक्षण कोटे के आधार पर नौकरी नहीं मिल जाती. इस प्रकार क्रांति दिखावटी सुधारों में पतित हो गई और आंदोलन सांकेतिकता के दायरे में पतित होकर रह गया.
जहां तक आरक्षण के मुद्दे का सवाल है तो जनता दल के सामने इसके सिवा और कोई चारा नहीं कि वह क्रीमी लेयर (धनाढ्य तबके) को आरक्षण न देने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का विरोध करे और आर्थिक आधार पर ऊंची जातियों के वास्ते 10 प्रतिशत आरक्षण का कोटा तय करन के लिए, (जिसका आश्वासन वीपी सिंह ने मंडल विरोधी आंदोलन को मंद करने के लिए दिया था), दबाव डाले. बहरहाल, इन दोनों में से किसी को स्पष्ट कारणों से वह सोत्साह हाथ में नहीं ले सकता.
वीपी सिंह और जनता दल को राजनीतिक ग्रहण लग जाने के चलते मुलायम सिंह और कांशीराम का उदय हुआ. मुलायम सिंह का दावा है कि वीपी सिंह जो पिछड़े नहीं हैं, की तुलना में, वे पिछड़ों के स्वाभाविक प्रतिनिधि हैं. उन्होंने लोहिया का इस्तेमाल करते हुए विरासत की वृहत्तर शक्ति और ईमानदार उद्देश्य के साथ अपनी राजनीति को समाजवादी मुहावरों में लपेटकर पेश किया. दूसरी ओर, दलित राजनीति के उभरते सितारे कांशीराम आम्बेडकर की विरासत लेकर खड़ा होते हैं. रैडिकल दलित मुद्रा ग्रहण कर और कम्युनिस्ट-विरोध के उन्माद के साथ वे खुद आम्बेडकर से भी आगे निकल जाने की हड़बड़ी में हैं.
इन नाटकीय घटनाओं का भारतीय वामपंथी और कम्युनिस्ट आंदोलन पर भारी असर पड़ा है. जहां मंडल ने बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में पिछड़े किसानों के बीच कम्युनिस्टों के आधार को बुरी तरह कुतर लिया, वहां बसपा ने उत्तरप्रदेश में परिस्थितियों में वामपंथियों और कम्युनिस्टों के दायरे में एक विवाद उभरा है. इस विवाद की मुख्य बात है कि भारतीय समाज में जाति परिघटना के प्रति एक नया रुख अपनाया जाए और, खासकर सोवियत संघ के विध्वंस के बाद, वर्ग की “सनातन” अवधारणा को पुनर्परिभाषित किया जाए. हाल ही में सीपीआई की प्रथम कतार नेताओं का उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में शामिल हो जाना, आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वार ग्रुप के नक्सलपंथियों का बड़ी तादाद में बसपा में चले जाना और बिहार में आईपीएफ के कुछ विधायकों का जनता दल में शामिल होना यह बतलाता है कि परिस्थिति कितनी गंभीर और जटिल है.
मेरे सामने एक किताब पड़ी है – जाति और वर्ग का गतिविज्ञान : रैडिकल आम्बेडकरवादी व्यवहार. लेखक हैं कोई डा. टामस मैथ्यू. लेखक ने जाति और वर्ग के अंतरसंबंधों का बड़ा दिलचस्प अध्ययन किया है. मैं जाति-वर्ग संबंधों की पहेली को इस पुस्तक में प्रस्तुत विचारों का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए सुलझाने कि कोशिश करूंगा.
लेखक का घोषित उद्देश्य है मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद का एक संश्लेषण प्रस्तुत करना. लेखक के अनुसार यह “भारत के करोड़ों-करोड़ उत्पादनकामियों की एकमात्र आसा-भरोसा है.” उन्होंने यह भारी कार्य एक ऐसी परिस्थिति में अपने हाथ में लिया है जबकि “मार्क्सवादी व्यवहार को, कम से कम इसके प्रमुख मॉडलों को, विश्व स्तर पर ऐतिहासिक विध्वंस का सामना करना पड़ा है,” किन्तु “आम्बेडकरवादी व्यवहार भारत की दांततोड़ समस्याओं को हल करता नजर आ रहा है.” तथापि इस संश्लेषण की व्याख्या “आम्बेडकरवाद को मार्क्सीय ढांचे में समाहित करने” के बतौर की गई है, इसके उल्टे रूप में नहीं, जैसी आशंका आमतौर पर उपरोक्त संदर्भ का उल्लेख किए जाने से रहती है. लेखक का मार्क्सवादी इतिहास श्री के वेणु के प्रति व्यक्त उनके आभार से स्पष्ट होता है. वे कहते हैं कि “मार्क्सवादी कट्टरपंथ और नेतृत्व के ‘क्रांतिकारी प्राधिकार’ की अवधारणा पर हमला करने में” श्री वेणु द्वारा किये गए “नेतृत्वकारी मार्गदर्शन के अभाव में अनेक मार्क्सवादी कठमुल्लासूत्रों पर सवाल खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं होता.” इसके बारे में और बातें बाद में.
आइए आगे बढ़ा जाए, इस पुस्तक के पहले भाग में गांधी और गांधीवाद के खिलाफ आम्बेडकर के ऐतिहासिक संघर्ष पर चर्चा की गई है. इस भारी ऐतिहासिक महत्व के संघर्ष का वर्णन आम्बेडकर की पुस्तक कांग्रेस, गांधी और अछूत मे किया गया है जिसके मूल संस्कररण की एक पुरानी प्रति लेखक को दिल्ली के एक पुस्तकालय से मिली. यह तथ्य महत्वपूर्ण है, क्योंकि लेखक का दावा है कि परवर्ती संस्करणों में इसकी अन्तर्वस्तु में हेरफेर करने और कुंद बनाने के प्रयास किए गए हैं.
लेखक का दावा है कि शासक वर्गों, कांग्रेस और गांधीवाद के बारे में डा. आम्बेडकर के विश्लेषण और सूत्रीकरण आम्बेडकरपंथियों की आधिकारिक अवधारणाओं से बिलकुल भिन्न थे. इसके अतिरिक्त, “पश्चिमी संसदीय व्यवस्था के बारे में उनका मूल्यांकन तथा पेरिस कम्यून और सोवियत संघ के बारे में उनके प्रशंसात्मक उल्लेख उन तमाम सिद्धान्तों की धज्जियां उड़ा देते हैं जो आम्बेडकर को कम्युनिस्ट-विरोधी बतलाते हैं.”
गांधीवादी रुख, जैसा कि स्पष्ट हुआ, बुनियादी रूप से हिंदू धर्म के अंदर “रचनात्मक कार्य” के जरिए कुछ सुधार करना था, ताकि स्वतंत्रता संघर्ष में कांग्रेस के सवर्ण नेतृत्व के पीछे अछूतों का समर्थन बटोरा जा सके. दूसरी ओर, आम्बेडकर ने खुद जाति व्यवस्था का विनाश करने के लिए और उभरती दलिल आकांक्षा को एक राजनीतिक मंच प्रदान करने के लिये हिंदू धर्म के रेडिकल पुनर्गठन की कोशिश की. गांधी और आम्बेडकर के इन दो परस्पर विरोधी रुखों ने एक दूसरे के साथ, मुस्लिम सरीखे समुदायों के साथ और ब्रिटिश सरकार के साथ उनके संबंध को निर्धारित किया था.
गांधी के आर्थिक दर्शन पर टिप्पणी करते हुए आम्बेडकर लिखते हैं, “मशीन और उस पर निर्मित सभ्यता के चलते उत्पन्न आर्थिक बुराइयों के गांधीवादी विश्लेषण में कुछ भी नया नहीं था. ये पुराने सड़े-गले तर्क ही थे – रूसी, पुश्किन और टालस्टाय के तर्कों को दुहराना भर था. उनका अर्थशास्त्र भ्रांतिपूर्ण था, क्योंकि मशीन-आधारित उत्पादन व्यवस्था और सभ्यता से उत्पन्न बुराइयां वस्तुतः मशीन के चलते उत्पन्न नहीं हुई हैं ... वे वस्तुतः गलत सामाजिक संगठन से पैदा हुई हैं जिसने निजी सम्पत्ति और व्यक्तिगत लाभ हासिल करने को परम पवित्र बना दिया है ... लिहाजा, निदान मशीन और सभ्यता को कोसने में नहीं है, बल्कि सामाजिक संगठन को बदलते में है, ताकि मुट्ठीभर लोग फायदे को हड़प न लें और वह सब लोगों को मिल सके.”
आम्बेडकर गांधी के खिलाफ अपनी लड़ाई में निस्संदेह स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रैडिकल सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता बनकर उभरे.
हरिजन से दलित तक – इसी में अछूतों के आत्मबोध के रूपान्तरण की समूची प्रक्रिया निहित है और इस रूपान्तरण के पीछे आम्बेडकर ने ही गतिमान प्रेरणा का काम किया है. संभवतः वे पहले दलित नेता थे जिन्होंने दलितों के सामाजिक जागरण में और राजनीतिक रूप से उन्हें सामने लाने में खासी सफलता हासिल की.
आम्बेडकर का दूसरा महत्वपूर्ण योगदान था स्वतंत्र भारत के संविधान का मसविदा तैयार करना. आधुनिक भारत के बारे में उनका स्वप्न नेहरू के स्वप्न से मिलता-जुलता था. एक अर्थ में उन्होंने नेहरू की तुलना में गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया. भारत की खोज पर नेहरू के जोर के विपरीत उन्होंने घोषणा की, “यह मानकर कि हम एक राष्ट्र हैं, वस्तुतः हम एक मरीचिका के पिछे दौड़ रहे हैं. हम केवल निर्माणाधीन राष्ट्र होनेभर का दावा कर सकते हैं.”
वे संवैधानिक राजकीय समाजवाद के पक्षधर थे. वे शक्तिशाली केन्द्र चाहते थे और उन्होंने एक ऐसी आर्थिक कार्यक्रम की वकालत की जिसमें भूमि का राष्ट्रीयकरण और सामूहिक खेती के लिए किसानों के बीच उनका वितरण तथा मुख्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण सन्निहित था. वे मानते थे कि स्पष्टतः दलित वर्गों की पक्षधरता पर आधारित राज्य-संपोषित कल्याण कार्यों से जुड़कर यह आर्थिक कार्यक्रम उनके अंतिम लक्ष्य ‘जातियों के उन्मूलन’ की ओर बढ़ जाएगा.
दलितों की सामाजिक मुक्ति के लिए उनका जेहाद उनके लिए हमेशा केन्द्रीय वस्तु बना रहा और जब नेहरू ने हिंदू कोड बिल के विषय पर अनुदारवादी दबाव के सामने घुटने टेक दिए तो वे नेहरू से अलग हो गए. इसने आम्बेडकर को इस बात का और कायल कर दिया कि जातिवाद हिंदू धर्म की बुनियाद है और दलितों के लिए उसका परित्याग कर देने के अलावा और कोई चारा नहीं है और इस प्रकार उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया. उन्होंने इस धर्म की आधुनिक अर्थों में व्याख्या की – इस उम्मीद के साथ कि यह दलितों में एक नए सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का अग्रदूत साबित होगा. राजनीतिक कार्यवाही के क्षेत्र में उन्होंने उत्पीड़ित वर्गों की एक स्वतंत्र जनवादी पार्टी के बतौर रिपब्लिकन पार्टी के निर्माण की परिकल्पना की.
इस प्रकार आम्बेडकर अपने जेहाद के शिखर पर पहुंचे. दुर्भाग्यवश बौद्ध धर्म स्बीकारने में केवल उनकी जाति महारों ने उनका साथ दिया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी राजनीतिक धारा, जिसका प्रतिनिधित्व रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया करती थी, टुकड़ों में बंट गई और उसे कांग्रेस ने हड़प लिया.
वर्गीय अर्थों में आम्बेडकर दलितों के निम्न पूंजीवादी हिस्से का, जिसमें छोटे-मंझोले किसान शामिल हैं, प्रतिनिधित्व करते थे. उनकी विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक स्थितियां आम्बेडकर के आमूलवाद की बुनियादी जड़े थीं और उनकी सीमाबद्धताओं के स्रोत भी. तत्कालीन स्थितियों में वे केवल पूंजीवाद के पूर्ण विकास और शक्तिशाली पूंजीवादी कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए ही प्रयत्न कर सकते थे जो कि युगों पुराने सामाजिक गतिरोध और जड़ता को भंग करने के औजार का काम करते. कम्युनिस्ट व्यवहार के कुछ पहलुओं की प्रशंसात्मक टिप्पणियां और समाजवादी मुहावरों का इस्तेमाल उनकी रैडिकल पूंजीवादी जनवादी अन्तर्वस्तु को ही स्पष्ट करते हैं. यह आम्बेडकर का दोष नहीं है, उसके विपरीत इसी के चलते आम्बेडकर अपने दौर के अनेक ऐतिहासिक पुरुषों से, जो खुद आम्बेडकर के शब्दों में “ब्राह्मण-बनिया संश्रय” की रक्षा करते हुए पूंजीवादी विकास के अनुदारवादी मार्ग के पक्षधर थे, ऊंचा उठ जाते हैं.
आम्बेडकर के डुलमुलपन, उनके समझौते और उनके द्वारा अंततः धार्मिक व्यवहार को अंगीकार करना उनके अस्तित्व की उन्हीं सामाजिक-आर्थिक स्थितियों की उपज है. स्वाधीनता आंदोलन की वैकल्पिक रणनीति तैयार करने में दलित निम्न पूंजीपति वर्ग की अन्तर्निहित सीमाबद्धताएं उन्हें कभी-कभी गांधी और कांग्रेस के साथ समझौता करने और अन्य अवसरों पर अंग्रेजों पर भरोसा करने को बाध्य कर देती थीं. वैकल्पिक रणनीति केवल कम्युनिस्ट ही तैयार कर सकते थे जो भारत के शहरी और ग्रामीण सर्वहारा के प्रतिनिधि थे, जिस सर्वहारा की भारी बहुसंख्या दलितों से आती थी. इस वैकल्पिक रणनीति का एक जरूरी हिस्सा होना चाहिए था तमाम किस्म के रैडिकल पूंजीवादी जनवादियों से घनिष्ठ राजनीतिक संश्रय कायम करना. सीपीआई उस जिम्मेदारी को नहीं निभा सकी. लेकिन यह तो एक दूसरी कहानी है.
आइए, हम अपने लेखक महोदय की ओर वापस मुड़ें. वे आम्बेडकर के दुलमुलपन और उनके समझौतों की व्याख्या करते समय फिर आदर्शवाद की दलदल में डूबने-उतराने लगते हैं. वे कहते हैं, “यह लक्ष्य के प्रति ईमानदारी, मानवीय कमजोर और, ब्राह्मणी वर्गों के धूर्ततापूर्ण एवं स्वार्थी चरित्र के विपरीत दलितों, उत्पीड़ितों का ‘भूल जाओ और क्षमा करो’ वाला चरित्र ही था” जिसके चलते आम्बेडकर ने कांग्रेस के साथ बार-बार तालमेल कायम किया.
लेखक को बड़ा अफसोस है कि “आम्बेडकरवाद पूंजीवादी जनवादी चेतना की सीमाओं में जकड़ा रहा” क्योंकि वह “अपने किसान मूल द्वारा निर्धारित सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकता था.”
आम्बेडकर जिन सीमाओं को पार करने में असफल रहे उन सीमाओं को पार करने के लिए हमारे विशिष्ट लेखक महोदय एक जोखिम भरी सैद्धान्तिक यात्रा पर निकल पड़ते हैं. वे एक अजीब विश्लेषण से शुरू करते हैं.
“आम्बेडकरवाद की जड़े एक ऐसे वर्ग में नहीं थीं जो पूरी तरह ऊपर की ओर गतिशील हो और जो उस वर्ग अथवा यहां तक कि व्यक्तियों और छोटे-छोटे ग्रुपों को भी पूंजीवादी व्यवस्था में पूरी तरह विलीन हो जाने की इजाजत देता हो. यह एक ऐसे किसान समाज का प्रतिनिधित्व करता था जो आंशिक सर्वहाराकरण और आंशिक सम्पत्तिहरण की प्रक्रिया से गुजर रहा था और जिसके ऊपरी तबके की ऊपर उठने की आकांक्षा कुचल डाली गई थी. यही वह परिघटना थी जिसने अछूतों और शासक बुर्जुआ के बीच संश्रय कायम करने के तमाम प्रयत्नों को नष्ट कर दिया. यही कारण था कि डा.आम्बेडकर को शासक वर्गों ने, जब-जब उनका सामना हुआ, पीछे ढकेल दिया. इसी में पूंजीवादी समाज की सीमाओं से आम्बेडकरवाद के पार जा सकने की भारी संभावना छिपी हुई है.”
इस प्रकार इस संभावना को स्थापित करने के बाद लेखक मार्क्स, पेरिस कम्यून और सोवियत व्यवस्था के बारे में आम्बेडकर के प्रशंसापूर्ण उल्लेखों को सामने लाता है. यों ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के जुड़वां शत्रुओं की आम्बेडकर द्वारा की गई निंदा और “समाजवादी कार्यक्रम” की उनके द्वारा की गई वकालत को जोड़कर इन सबको आम्बेडकर की कम्युनिस्ट की ओर यात्रा का प्रतीक मान लिया जाता है. यहां तक कि बौद्ध धर्म में धर्मांतरण की व्याख्या भी आम तौर पर मार्क्सवाद और, खास तौर पर, भारत में इसके ठोस अमल के द्वारा उठाई गई समस्याओं के प्रत्तुत्तर के बतौर की गई है. उनका धार्मिक-राजनीतिक व्यवहार मार्क्सवादी सिद्धान्त और आंदोलन के अंतर्गत सांस्कृतिक क्रांति और जनवादी पुनरुत्थान का पूर्ववर्ती बन जाता है. “कुछ अर्थों में आम्बेडकर द्वारा बैद्ध धर्म का पुनरुत्थान माओ की सांस्कृतिक क्रांति का पूर्वाभ्यास था.” यह है मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद के संश्लेषण की वह नींव जिसे हमारे लेखक ने तैयार की है. अगले अध्यायों में उन्होंने यह काम बड़ी निपुणता से किया है.
लेखक को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि “(मंत्रिमंडल से) आम्बेडकर की विदाई के फौरन बाद पंचवर्षीय योजनाएं शुरू की गई और कांग्रेस ने ‘समाजवाद’ को स्वीकार किया. पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए काका कालेलकर आयोग की स्थापना की गई. लगभग इसी समय नेहरू सरकार ने दिल्ली में गौतम बुद्ध के महानिर्वाण क ढाई हजारवीं जयंती आयोजित की ... सोवियत संघ के साथ सहयोग भी बढ़ा.” इसके बाद एक अजीब व्याख्या दी गई है. “भारतीय शासक वर्गों के स्तालिन के साथ संबंध सुधरते ही आम्बेडकर को त्याग दिया.”
आम्बेडकर के परवर्ती परिदृश्य का विश्लेषण करते हुए लेखक ने विभिन्न पिछड़े समुदायों के क्रमिक विकास की प्रक्रिया को ठीक ही नोट किया है.
“केरल में संख्यात्मक तौर पर शक्तिशाली शूद्र ऊपर उठकर सवर्ण बन गए, क्योंकि वहां ब्राह्मण-कायस्थ-बनिया आबादी अत्यंत कम है. नायर समुदाय जो ‘देवताओं’ के लिए भी अछूत थे आज ‘धरती के भगवान’ बन गये ... दूसरे अछूत समुदाय एझवा ने सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से काफी तरक्की की.”
केरल का यह सत्य विभिन्न मात्रा में भारत के विभिन्न हिस्सों के लिए भी सच है. भूमि सुधार और सामाजिक-आर्थिक विकास के विभिन्न किस्म के अन्य उपाय तथा नाना प्रकार के ब्राह्मणवाद विरोधी जनआंदोलनों ने मिलकर विभिन्न पिछड़े समुदायों के अंदर ऊपर की ओर यह गति पैदा की. हिन्दी क्षेत्र में इसका श्रेय मुख्यतः लोहियावादी समाजवादी आंदोलन को है.
समाज का प्रत्येक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक उभार अनिवार्यतः शासक वर्गों की सामाजिक संरचना के विस्तार से जुड़ा होता है. ब्रिटिशोत्तर भारत ब्रिटिश शासन के जमाने के पुराने सामाजिक संश्रय पर टिका नहीं रह सकता था. लिहाजा, कुछ पिछड़े समुदायों का विकास और इनके सुविधाभोगी सदस्यों को शासक वर्ग के अंदर जज्ब कर लेना अनिवार्य प्रक्रिया थी. कुछ राज्यों में अगड़ा-पिछड़ा ध्रुवीकरण पैदा होने के अतिरिक्त इस प्रक्रिया के चलते अबतक पिछड़े जनसमुदायों के बीच और उनके अंदर वर्ग-जाति भेदों का विकास भी हुआ. ऐसा ही एक गौरतलब विकास था दलितों, जो मुख्यतः खेत मजदूर थे, और खुशहाल मध्यवर्ती जातियों, जिन्हें कृषि विकास की नीतियों से सबसे ज्यादा फायदा हुआ था, के बीच की टक्कर का तीखा होना.
बहरहाल, लेखक शासक प्रणाली के भीतर कुछ दलित जातियों, ग्रुपों और व्यक्तियों को समाहित कर लिए जाने की समूची परिघटना को धूर्त ब्राह्मणवादी शासक वर्गों की “जोड़तोड़” की कला का परिणाम मानते हैं. दलित जातियों से लेखक का तात्पर्य है अछूतों और शुद्र जातियों का – सरकारी भाषा में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों का – समूचा वर्णपट. वे एक ऐसे सैद्धान्तिक व्यवहार की तलाश में हैं जिसमें तमाम दलितों की एकता समाहित हो. वे इसे बहुजन समाज पार्टी के अंदर पाते हैं.
“रिपाब्लिकन आंदोलन संयुक्त मोर्चा के सवाल पर लड़खड़ा गया था. पार्टी को वंचित वर्गों द्वारा शासक वर्ग बनने का, जो कि आम्बेडकर का राजनीतिक लक्ष्य था, आंदोलन कहा गया. लेकिन उत्पीड़ित हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक शक्तियों के साथ संश्रय कायम किए बगैर यह असंभव था. डा. आम्बेडकर यह दिशा नहीं प्रदान कर सके और पार्टी इस रणनीति को ईजाद नहीं कर सकी. उसका संश्रय जिनके साथ हुआ वे ब्राह्मणवादी शासक वर्गों की ही पार्टीयां थीं. वैकल्पिक रणनीति यह होती थी कि खुद पार्टी ढांचे को तमाम उत्पीड़ित व शोषित वर्गों व समुदायों का संश्रय बना दिया जाता. बहुजन समाज पार्टी ने यही किया है. इस प्रकार बसपा आम्बेडकरवादी व्यवहार में एक प्रमुख सैद्धान्तिक विकास बन जाती है. बसपा की दृष्टि एक व्यापक मंच तक जाती है जिसमें अनुसूचित जातियां, अनुसूचित जनजातियां, पिछड़े समुदाय और अल्पसंख्यक सभी शामिल हैं. यह ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीतियों का सबसे करारा सैद्धान्तिक जवाब है.”
बढ़ते सामाजिक विभेदों के समक्ष बसपा लेखक की आकांक्षा के अनुरूप इस सर्वदलित एकता का किस हद तक निर्माण कर सकेगी और बनाए रख सकेगी, यह देखना अभी बाकी है; मगर एक परिणामवादी भानुमती के पिटाई को आम्बेडकर के बाद के प्रमुख सैद्धान्तिक विकास के बतौर पेशकरना चरम सैद्धान्तिक बेहूदगी है. आंबेडकर पर यह आरोप लगाकर कि वे उत्पीड़ित हिस्सों की राजनीतिक शक्तियों के साथ संश्रय बनाने में असफल रहे और उल्टे ब्राह्मणवादी शासक वर्ग की पार्टियों के साथ चिपके रहे, लेखक ने आम्बेडकर का गैरऐतिहासिक विश्लेषण करने और तथ्यों की तोड़-मरोड़ करने, दोनों किस्म की गलतियां की हैं.
लेखक ने, जिन्होंने अभी-अभी “सबसे करारा सैद्धान्तिक जवाब” इत्यादि कहकर बसपा की बड़ाई की है, बड़ी दक्षता के साथ कलाबाजी खाते हुए फौरन जनता दल को यह श्रेय दे बैठते हैं कि उसने “मंडल-मस्जिद” सामने लाकर “वही (बसपा) मंच” अपना लिया है. और भी, जनता दल के ऊपर से किए गए आक्रमण ने कांशीराम के ग्रासरूट स्तर पर किए गए जेहाद की तुलना में काफी अधिक आवेग उत्पन्न किया. इसके अतिरिक्त, बसपा की (दलित) पक्षधरता को दलित बिरादरी के बाहर कोई दोस्त नहीं मिल सका (जोर हमारा). इस भव्य राजनीतिक प्रदर्शन के लिए जनता दल के नेतृत्व को एक ऐसा विशिष्ट और निश्चित सामाजिक न्याय का मंच अपनाना पड़ा जो तमाम उत्पीड़ित समुदायों के आम हितों का प्रतिनिधित्व करता था. यह उत्तर भारतीय क्षेत्र की जुझारू सोशलिस्ट परंपरा थी जिसने यह निर्णायक विचारधारात्मक आघात किया.
अब करीब-करीब जनता दल के प्रवक्ता की भूमिका ग्रहण कर लेखक सामाजिक न्याय के क्षेत्र में जनता दल की विभिन्न उपलब्धियों को गिनाते हैं. जैसे, आम्बेडकर को भारत रत्न प्रदान करना; उनकी जन्मशताब्दी समारोहों का आयोजन; ग्रामीण क्षेत्रों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आनुपातिक योजना व्यय; बंधुआ मजदूर, ठेका मजदूर और खेत मजदूरों के लिए उल्लेखनीय राहत; संगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए राहत (प्रस्तावित); काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाना (प्रस्तावित); किसानों को भारी राहत; बड़े पैमाने पर साक्षरता कार्यक्रम (प्रस्तावित); उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को थोड़ी छूट देना; बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर साम्प्रयादिक शक्तियों के खिलाफ दृढ़ निश्चय के साथ आक्रमण आदि. आरक्षण को न्यायपालिका में भी लागू करने और अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए योजना निधि के आनुपातिक व्यय के सिद्धान्त को लागू करने के कारण बिहार की जनता दल सरकार की खासतौर पर बड़ाई की गई है. लेखक के अनुसार “इन सारे कदमों के परिणामस्वरूप मंडल का एजेंडा आया. इसके राजनीतिक नारे और इसकी दिशा यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए एक वास्तविक खतरा बन गए.” लिहाजा, शासक वर्गों ने जनता दल को अपदस्थ और नष्ट करने की साजिश की. अभी यह सवाल नहीं हल हुआ है कि मंडल का एजेण्डा उपर्युक्त कदमों के परिणामस्वरूप आया अथवा एक रैडिकल सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम की कीमत पर – खासकर काम के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के आश्वासन को हाशिए पर ढकेल देने के लिए. इस सवाल की भी छानबीन करना अभी बाकी है कि ये राजनीतिक नारे और यह दिशा यथास्थितिवादी शक्तियों के लिए वास्तविक खतरा थे अथवा वे कुछ पिछड़ी जातियों के विकासशील सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक असर के अनुरूप सत्ता की संरचना में संतुलन बनाने के उपाय थे. कांग्रेस सरकार द्वारा मंडल की सिफारिशों को लागू करना बाद वाली मान्यता की ही पुष्टि करता है. जनता दल के साथ केवल यह फर्क है कि जनता दल क्रीमी लेयर की धारणा का विरोध करता है. इस प्रक्रिया में यह जनता दल की मान्यता की वास्तविक अन्तर्वस्तु का भंडाफोड़ भी कर देती है.
बहरहाल, हमारे लेखक मंडल को वह केन्द्रीय मुद्दा मानते हैं जिसने न केवल भारतीय समाज में बल्कि कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर भी ध्रुवीकरण पैदा किया है.
“दलितों के बीच अपनी जड़े जमाए इन सभी (नक्सलवादी) आंदोलनों ने मंडल आरक्षण को जनवादी कदम मानते हुए उसका समर्थन किया है, जबकि शहारी मजदूर वर्ग के बीच खड़े तमाम परम्परागत कम्युनिस्टों ने मंडल का विरोध किया है.”
“परम्परागत कम्युनिस्ट पार्टियां और यहां तक कि इंडियन पीपुल्स फ्रंट, जो कि एक नक्सलवादी संगठन है, कांग्रेस और भाजपा के ‘आर्थिक आधार’ के सिद्धान्त के इर्द-गिर्द ही घूमते रहे.”
स्पष्टतः यह तथ्यों को तोड़-मरोड़कर अपने सैद्धान्तिक ढांटे के अनुरूप सजाने जैसी बात हो गई. सीपीआई ने मंडल मुद्दे पर जनता दल का पूरी तरह साथ दिया तथा उसने क्रीमी लेयर संबंधी अदालती फैसले और तथाकथित आर्थिक आधार का भी विरोध किया. सीपीआई(एम) ने मंडल सिफारिशों का कभी विरोध नहीं किया तथा जिस आर्थिक आधार की वह बात करती थी, वह पिछड़े समुदायों के अंदर आर्थिक वर्गीकरण से ही संबंधित था. लिहाजा, उसने क्रीमी लेयर संबंधी फैसले का स्वागत किया. इंडियन पीपुलस फ्रंट ने तथाकथित आर्थिक आधार के गिर्द कभी चक्कर नहीं काटा. इसके विपरीत, इसने उच्च जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की वकालत करने के चलते वीपी सिंह की कड़ी आलोचना की. आईपीएफ ने दृढ़ता से कहा कि सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ापन आरक्षण का एकमात्र आधार हो सकता है.
हमारी पार्टी ने क्रीमी लेयर के फैसले का स्वागत किया, क्योंकि शक्तिशाली पिछड़े समुदायों के अंदर वर्ग विभेदीकरण के किसी भी उपाय का एक मार्क्सवादी स्वागत ही करेगा. हम जानते हैं कि सत्ता संरचना में पुनर्गठन की परिस्थितियां परिपक्व हो चुकी थीं. वीपी सिंह ने तो केवल उत्प्रेरक की भूमिका निभाई. इस प्रकार हमने मंडल को किसी सामाजिक क्रांति का अग्रदूत मानने से इनकार कर दिया और जनता दल के पाखंड का भंडाफोड़ करना जारी रखा कि वह पूंजीपति वर्ग और जमींदारों की पार्टी है, तथा हमने अपनी विचारधारात्मक-राजनीतिक व सांगठनिक स्वाधीनता की उत्साहपूर्वक रक्षा की.
पिछड़ावाद के शक्तिशाली उभार के बावजूद, बिहार में हमारे खिलाफ जनता दल के केन्द्रित आक्रमण के बावजूद तथा हमारे कुछ विधायकों के दलबदल कर जनता दल में चले जाने की कीमत चुकाकर भी, हमारी पार्टी अपनी स्थिति पर डटी रही.
मंडल का बुखार उतरने के बाद बिहार में हमारी पार्टी तीव्र गति से विकास करने लगी है, जबकि सीपीआई, जिसने अपने को जनता दल के पल्लू से बांध रखा था, वस्तुतः अपने परम्परागत जनाधार के विनाश और विघटन के खतरे के सामने पूरी तरह दिशाहीनता की स्थिति में आ खड़ी हुई है.
लेखक पीपुल्स वार ग्रुप की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, क्योंकि “उसने इस मामले में न्यायपालिका की स्वेच्छाचारिता का प्रतिरोध करने के लिए आंध्र बंद का आह्वान किया था ... मंडल मुद्दे पर जनता दल के नेताओं ने पीपुल्स वार ग्रुप द्वारा समर्थित जनसभाओं को संबोधित किया.” जिस अन्य नक्सलवादी ग्रुप की लेखक ने प्रशंसा की है वह निस्संदेह एमसीसी है जिसने “बिहार में ऊंची जातियों के आतंक के खिलाफ दलितों के प्रतिरोध का नेतृत्व किया.” हम इस पुस्तक में सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी का भी उल्लेख पाते हैं, जिसने मार्क्स, फूले और आम्बेडकर को अपना दार्शनिक मार्गदर्शक मानकर, कहा जाता है कि, “संसदीय कम्युनिस्ट आंदोलन को विचारधारात्मक चुनौती दी.”
इस प्रकार लेखक संश्लेषण की अपनी परियोजना की अंतिम मंजिल में जा पहुंचते है और वहां वे अपना सारा संतुलन खो बैठते हैं. इस अनमोल वक्तव्य पर गौर कीजिए “जब दलित विद्रोह के गीतों से आकाश गूंज रहा था, तभी दलित पैंथर, नक्सलवादियों और खड़ाकुओं-लड़ाकुओं (खालिस्तानियों और कश्मीरियों) के क्रोध और उन्माद ने सैद्धान्तिक रूपरेखा ग्रहण की. सिद्धांत और व्यवहार की इस उभरती एकता को ही रामविलास पासवान ने दलित सेना और आम्बेडकर शताब्दी समारोह के जरिए गिरफ्त में लेने की कोशिश की.”
आम्बेडकर से कांशीराम तक और फिर वहां से रामविलास पासवान तक! सचमुच बड़ी अजीब यात्रा है!
लेखक ने जाति के बारे में कुछ अनूठे विचार पेश किए हैं : “जहां मार्क्स ने जाति को भारत की शक्ति और प्रगति के लिए निर्णायक बाधा के बतौर देखा, वहीं वे (भारतीय मार्क्सवादी) जाति को ऊपरी ढांचे का मामला मानते हैं ... उत्पादन संबंध होने के नाते जाति ऊपरी ढांचे की चीज नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक आधार का अंग है. भारतीय मार्क्सवादियों की सबसे बड़ी सैद्धांतिक विफलता यह है कि उन्होंने जाति को समाज की उप-संरचना का हिस्सा नहीं समझा.” अब, मार्क्सवादी आख्यानों में हम आर्थिक आधार की बात तो सुनते हैं जिसपर पूरा ऊपरी ढांचा टिका होता है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक आधार के बारे में कभी नहीं सुना. लगता है कि लेखक स्वयं जाति को सामाजिक और साथ ही आर्थिक आधार से जोड़ते-जोड़ते फंस गए हैं. इस द्वंद्व की व्याख्या इस प्रकार की गई है :
“यहां उत्पादन और पेशा के साधन के स्थायी विभाजन की संस्था के बतौर जाति, तथा अस्पृश्यता व भेदभाव के रवैये के बतौर जाति, के बीच हमें फर्क करना होगा. जाति में ये दोनों पहलू विद्यमान रहते हैं – पहला वाला पहलू आधार से जुड़ा है और बाद वाला पहलू ऊपरी ढांचा से.”
वस्तुतः आर्थिक अधिशेष के बढ़ने के साथ समतामूलक समाज विभाजित होकर वर्ग-समाज में तब्दील हो गया और उसके बाद से तमाम समाज-व्यवस्थाओं का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है. प्राक्-पूंजीवादी समाज व्यवस्था में अधिशेष के कारण उत्पन्न असमानताओं को एक सामाजिक संस्तरीकरण (स्ट्रैटिफिकेशन) के जरिए समायोजित किया जाता था, जिसे सामाजिक कोटि (एस्टेट्स) कहा जाता था. तत्कालीन गोत्रों की आंतरिक सम्बद्धता ने शास्त्रीय अर्थों में वर्ग-निर्माण को बाधित किया था, और इसके अलावा, गैर आर्थिक उत्पीड़न पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं ने इन सामाजिक कोटियों की प्रणाली को स्थायी बना दिया. भारत में जाति व्यवस्था को दैवी मान्यता प्राप्त होने के कारण इस संस्तरीकरण को अपेक्षाकृत लंबा स्थायित्व मिला और इसका ज्यादा महत्वपूर्ण कारण यह था कि यहां निरंकुश केंद्रीय सत्ता के साथ-साथ आत्म-निर्भर ग्राम-समुदायों का सह-अस्तित्व था.
वर्गों की जड़े उत्पादन-प्रणाली में धंसी होती हैं और इनके अस्तित्व की अपनी-अपनी आर्थिक स्थितियां उन्हें एक दूसरे के साथ शत्रुतापूर्ण संघर्ष में धकेल देती हैं और इससे समाज में वर्ग-विभेदीकरण की प्रक्रिया त्वरित हो जाती ही. बहरहाल, सामाजिक संस्तरीकरण या जातियां वितरण की प्रणाली को नियंत्रित करते हैं और इस प्रकार ‘शुद्ध’ श्रेणी के बतौर वर्गों के निर्माण को रोक देते हैं. वर्ग संघर्ष हर-एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन में व्याप जाता है और इस प्रकार वह नाना किस्म के जटिल स्वरूप ग्रहण कर लेता है.
आधुनिक पूंजीवादी समाज वर्ग विभेदीकरण की प्रक्रिया को तेज बनाता है और इसमें पहली बार वर्गों के आत्म-बोध तथा खुले वर्ग युद्धों के लिए स्थितियां तैयार होती हैं. भारत में भी पूंजीवाद के आगमन और बड़े पैमाने के उत्पादन ने जाति को पेशा से अलग कर दिया और औद्योगिक सर्वहारा का नया वर्ग उभर उठा. चाय बागानों, खनन, टेक्सटाइल, जूट वगैरह में नियोजित सर्वहारा की पहली पीढ़ी में अधिकांशतः अछूत और शूद्र जातियों के लोग ही शामिल हुए थे, ऊंची जातियों के लोग बाद में ही शामिल हुए.
औद्योगिक कारखाने इस प्रकार सामाजिक कारखाने भी थे, जिनमें जातियों के विनाश की संभावनाएं निहित थीं. भारतीय पूंजीवाद के विकास के रूढ़िवादी रास्ते ने वर्ग विभेदीकरण की प्रक्रिया को मद्धिम जरूर बना दिया. संसदीय लोकतंत्र ने जातीय स्थायित्व को जीवन की एक नई खुराक पिलाई क्योंकि नए प्रभुत्वशाली सामाजिक वर्ग जातीय समीकरण बना कर ही राजनीतिक सत्ता में अपनी हिस्सेदारी के लिए संघर्ष में उतरे. और सामाजिक जनवादियों द्वारा अमल किए गए अर्थवाद और संसदवाद ने अपने-लिये-वर्ग के बतौर मजदूर वर्ग का लक्ष्य (विजन) भ्रष्ट कर दिया. फिर भी, अधिकांशतः ऊंची जातियों के सदस्यों से निर्मित बुद्धिजीवी समुदाय की तुलना में मजदूर वर्ग के बीच ही जातिगत पहचान आपस में घुलमिलकर तेजी से विनष्ट होती है. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के इस दौर ने मजदूरों के संगठित क्षेत्र को विसंगठित करना शुरू कर दिया है और एक बार फिर मजदूर वर्ग अपने ऐतिहासिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जाग रहा है.
इसीलिए, वर्ग ही बुनियादी श्रेणी है. कतिपय ऐतिहासिक परिस्थितियों में यह खुद को जातियों के रूप में अभिव्यक्त कर सकता है, दूसरी स्थितियों में ये दोनों साथ-साथ गुंथे भी रह सकते हैं, एक दूसरे को ढंक ले सकते हैं और उसी समय एक दूसरे को काट भी सकते हैं. फिर, एक भिन्न परिस्थिति में जातियां विखंडित होकर वर्गों का भी निर्माण करती हैं. इसी तरह से दोनों का वैपरीत्य तबतक आगे बढता है, जबतक कि वितरण की प्रणाली के नियामक की हैसियत में जाति का विनाश नहीं हो जाता.
लेकिन हमारे सम्मानित लेखक उलटी समझ रखते हैं. वे भारतीय स्थितियों में यांत्रिक ढंग से यूरोपीय श्रेणीयों को लागू करने के लिए भारतीय कम्युनिस्टों की भर्त्सना करते हैं, और भारत में औद्योगिक सर्वहारा की खोज पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते हैं. “भारतीय औद्योगिक मजदूर वर्ग, जिसे वे (मार्क्सवादी) सर्वहारा का प्रतिनिधि मानते हैं, दरअसल सर्वहारा नहीं है. इस वर्ग के लोग समृद्ध परिवारों से आए हैं और वे अधिकांशतः जातीय श्रेणीक्रम के ऊपरी हिस्सों के सदस्य हैं. उनके पास न केवल गांवों और शहरों में भू-संपत्ति है, बल्कि उन्होंने विरासत में बौद्धिक संपदा भी पाई है, जिससे आम जन वंचित हैं. वे संपत्तिहीन बना दिए गए वैसे सर्वहारा नहीं हैं, जिसके पास खोने के लिए बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं होता. वे ऐसा वर्ग हैं जिसका जुझारूपन और आमूलवाद धनी किसान चेतना के साथ जुड़ा हुआ है और जिसकी परिणति ग्रामीण भारत में कुलकीकरण के रूप में हुई है.”
लेखक ने भारतीय और पश्चिमी बुद्धिजीवियों के बीच एक विचित्र भेद बताया है. “पश्चिमी बुद्धिजीवियों के पास उसकी मानसिक श्रमशक्ति के अलावा और कुछ नहीं होता है. भारत में, ज्ञान धर्म और दर्शन की सीमा को पार कर भौतिक उत्पादन और समाज की अवस्था में प्रवेश कर जाता है. विज्ञान, ज्ञान और कुशलता भौतिक श्रम से अलग हो जाते हैं और उत्पादन में उसका वर्चस्व हो जाता है ... इसीलिए भारतीय बुद्धिजीवियों का वर्ग-त्याग काफी कठिन कार्यभार है.” इन अनर्गल बातों से आप जो नतीजा निकाल सकें, निकाल लीजिए. लेकिन पश्चिमी बुद्धिजीवियों की यह बेशर्म प्रशंसा लेखक महोदय के ‘वर्ग-त्याग’ को ही रेखांकित करती है. पश्चिमी बुद्धिजीवी – तथाकथित मानसिक श्रम शक्ति के स्वामी – बुर्जुआ समाज की सेवा में संलग्न मूलतः बुर्जुआ और पेट्टी बुर्जुआ बुद्धिजीवी रहे हैं. मजदूर वर्ग के खुले वर्ग युद्ध ने उनके बीच विभाजन पैदा किया और उसका एक हिस्सा मजदूर वर्ग के साथ जुड़ गया. मार्क्स, लेनिन और विशाल संख्या में अन्य लोग इस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं. लेकिन उनका वृहत्तर हिस्सा सर्वहारा क्रांतियों के तीखे प्रतिरोध में खड़ा था और आज भी वह ऐसा ही कर रहा है.
इसके विपरीत, भारत में पेट्टी बुर्जुआ बुद्धिजीवी अपने ङुलमुलपन और सवर्ण आग्रहों के बावजूद कहीं अधिक संख्या में प्रगतिशील जनवादी और वामपंथी आंदोलनों में शरीक हुआ है. खासकर, नक्सलवादी आंदोलन ने दलित भूमिहीन श्रमिकों के साथ बड़ी तादाद में पेट्टी-बुर्जुआ नौजवानों की एकरूपता को अंजाम दिया.
लेखक इस बात से काफी चिंतित हैं कि पढ़े-लिखे दलित ब्राह्मणवाद की ओर खिंच जाते हैं और खूदखोरी तथा राजकीय सुविधाओं पर पलने-बढ़ने वाले दलित अभिजात्यों में बदल जाते हैं. इस परिघटना की व्याख्या करते हुए वे पश्चिमी सर्वहारा के साथ भारतीय दलितों की तुलना में उतर पड़ते हैं. “जहां सर्वहारा अपने पास हाल-हाल तक मौजूद अपने औजारों और श्रम के उत्पादों पर अपना स्वामित्व पुनः प्राप्त करने के लिए लड़ता था, वहीं दलित कई पीढ़ियों पहले इनसे वंचित कर दिए गए है. क्रांतिकारी सर्वहारा की स्मृति में मान, प्रतिष्ठा और गौरव की बातों ताजी थीं, लेकिन दलितों की लड़ाई मानवीय व्यक्तित्व को पुनः हासिल करने के लिए हुई, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही गुलामी, अस्पृश्यता और दासता के भंवर में डूब गया था. यह वर्ग वैचारिक विनाश और सहयोजन की शासकवर्गीय रणनीति के सम्मुख काफी कमजोर पड़ गया और उसका शिकार हो गया.” विचित्र तर्क है! पश्चिम की हर चीज अच्छी है, हर भारतीय चीज बुरी है. तब, पश्चिम में अभिजात्य श्रमिकों का एक पूरा तबका, जो सामाजिक जनवाद का सामाजिक आधार बना, कैसे उभरा? भारत में वे दलित कहां से आए, जिन्होंने क्रांतिकारी संघर्षो में दृढ़तापूर्वक शौर्यपूर्ण भूमिका निभाई है? मेहनतकश अवाम का एक हिस्सा (शासक) व्यवस्था द्वारा हमेशा शामिल कर लिया जाता है और इसमें पूरब-पश्चिम जैसी कोई चीज नहीं है. लेखक के विश्लेषण में दलितों का समूचा वर्ग “शासकवर्गीय रणनीति के सम्मुख कमजोर पड़ जाने” के चलते निन्दनीय बन गया है. विड़ंबना तो यह है कि यही वह वर्ग है जिसके हाथों में लेखक महोदय अपने ही शब्दों में “दलित जनवादी क्रांति” का नेतृत्व सौंपना चाहते हैं.
लेखक के अनुसार, वे तमाम जातियां और तबके ‘दलित’ हैं, जिनके खिलाफ ब्राह्मणवादी शासक वर्ग भेदभाव बरतते हैं और इस प्रकार, वे दलित जनवादी क्रांति पर जोर देते हैं. संगठित क्षेत्र के मजदूर, बुद्धिजीवी और सवर्ण जातियों से आए पेशाकर्मी ङुलमुल और नाभरोसेमंद संश्रयकारी ही बन सकते हैं.
लेकिन राष्ट्रीय बुर्जुआ, जो पिछड़े वर्गों और उत्पीड़ित अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं के उदीयमान बुर्जुआ हैं, यकीनन एक दृढ़ संश्रयकारी हो सकते हैं – बढ़ते वैश्वीकरण तथा केंद्रीकृत राज्य-मशीनरी पर ब्राह्मणवादी शासक वर्गों की बढ़ती गिरफ्त के संदर्भ में तो यह बात और मजबूती से लागू होती है.
ग्रामीण सर्वहारा और असंगठित तथा अनौपचारिक क्षेत्रों के सर्वहारा तबके, जो दलित जातियों से आते हैं, इस क्रांति के नेता होंगे और, बेशक, गरीब किसान या अर्धसर्वहारा और दलितों व शूद्र जातियों से आने वाले व्यापक किसान इसके मजबूत संश्रयकारी होंगे.
इस प्रकार, समूची क्रांति को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है. मजदूर वर्ग नाभरोसेमंद संश्रयकारी है, जबकि राष्ट्रीय बुर्जुआ उसका दृढ़ संश्रयकारी है. लेखक का दावा है कि यह क्रांति ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था को नष्ट कर डालेगा और सच्चे जनवाद का रास्ता प्रशस्त करेगा. लेकिन यहां लेखक यह बताने से चतुराई पूर्वक कन्नी काट जाते हैं कि यह क्रांति किस समाज व्यवस्था की स्थापना करेगी – पूंजीवादी या समाजवादी!
लेखक महोदय इस तरह से “वर्ग रिडक्शनिज्म” तथा “मजदूर वर्ग की केंद्रीयता” के खिलाफ तमाम पिछड़े वर्गों और समुदायों के संयुक्त मोर्चा पर पहुंच जाते हैं. वे उदघोषित करते हैं कि मार्क्सवादी जड़सूत्राद में यह सबसे बड़ा गतिरोध-भंग साबित होगा. सचमुच, मार्क्सवाद का सबसे बड़ा भंग!
दलित जनवादी क्रांति के विशिष्ट आर्थिक कार्यक्रम पर पहुंचकर लेखक महोदय आम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित भूमि-राष्ट्रीयकरण और विशेष राजकीय सहायता के साथ भूमिहीन अछूतों समेत वास्तविक उत्पादकों को जमीन वितरित करने के कार्यक्रम को खारिज कर देते हैं. लेखक तर्क देते हैं कि “दलितों ने महसूस किया है कि उनकी मुक्ति जमीन के स्वामित्व में निहित है, जिसका मतलब है ग्रामीण भारत में ‘सत्ता’” और यह भी कि “राज्य द्वारा राष्ट्रीयकृत जमीन के वितरण का आम्बेडकरवादी नुस्खा एक मौलिक तत्व की, जन चेतना की, अनदेखी कर देता है, जो जमीन के लिए दलितों की प्रत्यक्ष कार्रवाई के जरिए जीवंत भौतिक ताकत में तब्दील हो जाती है.” वे “भूमिहीनों और अल्प भूमिवालों की जरूरतों के अनुसार(!) भूमि वितरण के जरिए कृषि क्रांति” की वकालत करते हैं. आबादी में अनुपात के आधार पर खेतिहर समुदायों के बीच जमीन वितरित की जानी चाहिए. उत्पादन के संगठन की प्राणाली को उन समुदायों के जनवादी निर्णयों पर छोड़ दिया जा सकता है.”
लेखक मुख्य उद्योगों के राष्ट्रीयकरण के आम्बेडकरवादी कार्यक्रम का भी इस बहाने विरोध करते हैं कि राजकीय क्षेत्र हमेशा शासक वर्गों के हित में इस्तेमाल किया जाता है. इसके बदले वे सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण की वकालत करते हैं, जिसके शेयर लोगों के बीच समान रूप से वितरित कर दिए जाएंगे.
लेखक यह नहीं समझ सके कि सिर्फ औद्योगिक मजदूर वर्ग ही बड़े उद्योगों पर अपने नियंत्रण के जरिए आमूलचूल कृषि रूपांतरण को अंजाम दे सकता है और राष्ट्रीय बुर्जुआ को भी नियंत्रित और रूपांतरित कर सकता है, और इस प्रकार जनवादी क्रांति से समाजवादी क्रांति में संक्रमण को साकार बना सकता है. इस तरह, नई जनवादी क्रांति में मजदूर वर्ग का नेतृत्व स्वाभाविक रूप से अंतर्निहित है और यह ‘नई’ इसलिए है कि इसे पूंजीवाद तक ही नहीं रुकना है, बल्कि समाजवाद तक आगे बढ़ना है. उत्पादन प्रणाली की पिछड़ी अवस्था से जुड़े होने के चलते ग्रामीण और असंगठित सर्वहारा अपने बल पर इस संक्रमण को अंजाम नहीं दे सकते हैं. उनकी सीमाबद्धताओं को लेखक स्वयं स्वीकार करते हैं जब वे भूमिहीन की जरूरतों के अनुसार सिर्फ जमीन के वितरण की चर्चा करते हैं और उत्पादन के समस्त संगठन को खुद किसान समुदायों के हवाले छोड़ देते हैं. यह ग्रामीण क्षेत्रों में यथास्थितिवाद का कार्यक्रम है जो पिछड़ी जाति के किसानों के ऊपरी तबके को – दलित जनवादी क्रांति के मजबूत संश्रयकारी को-ही फौरी तौर पर खुश कर सकता है.
निस्संदेह, राजकीय क्षेत्र शासक वर्गों की सेवा करता है, लेकिन यह राष्ट्रीय स्तर पर मजदूर वर्ग की एकजुटता को भी उन्नत करता है और उनके अंदर समाजवादी चेतना भी विकसित करता है – इस अर्थ में कि पूंजीवादी मालिकों से छुटकारा पाया जा सकता है और मजदूर वर्ग के नियंत्रण में वेतनभोगी प्रबंधन के जरिए उद्योग चलाए जा सकते है.
व्यापक संयुक्त मोर्चा अगर कभी साकर होता भी है, तो वह अपरिहार्य रूप से राष्ट्रीय बुर्जुआ के हाथों में नेतृत्व सौंप देगा और ग्रामीण गरीबों के ऊपर कुलकों और पिछड़ी जातियों का वर्चस्व स्थापित कर देगा. दलित जनवादी क्रांति का कार्यक्रम, दरअसल, जनता दल के सर्वाधिक रैडिकल किस्म के लोगों की अधिकतम सीमा हो सकती है और हमारे लेखक इस सीमा को पार नहीं कर सके हैं.
आम्बेडकर से यह संकेत लेते हुए, लेखक ने, “वर्ग संघर्ष के गतिविज्ञान के साथ जातीय समाज के व्याकरण के आधार पर” क्रांति का एक मॉडल बनाने की कोशिश की है. लेकिन वे जातीय समाज की सांख्यिकी के साथ वर्ग संघर्ष को पूर्ण विराम लगाकर सिर्फ सुधार का मॉडल बनाने में सफल हुए हैं.
संश्लेषण की यह महत्वकांक्षी परियोजना एक ओर सिद्धांत और व्यवहार में मौजूद अर्थवाद, संसदवाद और औद्योगिक मजदूर वर्ग के नेतृत्व के जडसूत्रवाद के खंडन पर, और दूसरी ओर पेट्टी बुर्जुआ किसान राजनीति से मुक्ति की चेतना तक आम्बेडकरवाद के उत्थान पर आधारित थी. इस प्रक्रिया में, पहले तो मार्क्सवाद की बलि चढ़ी, फिर आम्बेडकर की वह रैडिकल आर्थिक दृष्टि भी क्षत-विक्षत हो गई जिस पर काफी हद तक आम्बेडकर ने दलित मुक्ति की अपनी आशाएं टिका रखी थीं.
लेखक की मानसिक श्रमशक्ति की कठोर कसरत का अंतिम परिणाम, जो 140 पृष्ठों में फैला हुआ है और जिसकी कीमत 150 रु. है, सिद्धांत के धरातल पर के. वेणु और रामविलास पासवान का वर्णसंकर है तथा व्यवहारिक राजनीति के धरातल पर जनता दल और पीपुल्सवार-एमसीसी का सम्मिश्रण है. लेखक को कोटि-कोटि धन्यवाद, कि उन्होंने उस नापाक गठबंधन को बेपर्द कर दिया, जिसकी ओर हम लंबे समय से इशारा कर रहे थे.