(श्री थामस मैथ्यू के प्रत्युत्तर का जवाब. लिबरेशन, जनवरी 1995 से)
वर्ग और जाति के प्रतिसिद्धान्त के बारे में मेरे खंडनात्मक लेख पर श्रीमान थामस मैथ्यू का प्रत्युत्तर (लिबरेशन, नवंबर 1994 और समकालीन लोकयुद्ध, 31 दिसम्बर 1994 में प्रकाशित), अगर संक्षेप में कहा जाए तो उनकी पुस्तक कास्ट एंड क्लास डायनेमिक्स – रैडिकल आंबेडकराइट प्रैक्सिस में मौजूद बेतुकेपन को ही और ज्यादा मुखरित करता है. आइए, विस्तार से चर्चा करें.
1. मैथ्यू महोदय हमें बताते हैं कि उनके द्वारा प्रस्तावित मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद का संश्लेषण दरअसल माओवादी आदर्शवाद और बौद्ध द्वंद्ववाद का संश्लेषण है. इसके अतिरिक्त, यह संश्लेषण न केवल दसियों करोड़ भारतीय जनता के लिए, जैसा कि उन्होंने पहले दावा किया था, वरन् समस्त मानवता के लिए भी आशा की एकमात्र किरण है. सचमुच कितनी महान छलांग है यह!
अब, मैथ्यू महोदय ‘माओवादी आदर्शवाद’ शब्द के लिए, जिसका वास्तव में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया, मुझपर जरूर उंगलियां उठा सकते हैं. यथोचित क्षमायाचना के साथ, मैं फिर भी यही जोर देकर कहूंगा कि माओ-विचारधारा की उनकी व्याख्या से संभवतः कोई दूसरा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है. हमलोग जानते हैं कि मैध्यू महोदाय ने बुनियादी मार्क्सवादी प्रस्थापनाओं की भर्त्सना करने में के. वेणु से शिक्षा ले रखी है और इस परिप्रेक्ष में ‘मार्क्सवाद के पश्चिमी संस्करण के यांत्रिक व्यवहार’ के बरखिलाफ माओ द्वारा तथाकथित रूप से विचारधारा को ‘प्रतिष्ठित’ किए जाने के प्रति उनका उल्लास किसी भी भौतिकवादी के मस्तिष्क में वास्तविक संदेह पैदा करता है.
आधार और ऊपरी ढांचे के बीच द्वंद्वात्मक अंतर्सम्बंध मार्क्सवादी दर्शन की आधारशिला है, फिर भी अगर माओ को ही इस प्रशस्ति के लिए छांट कर अलग किया जाता है कि उन्होंने आधार पर ऊपरी ढांचे की क्रिया को केन्द्रीय महत्व दिया या दूसरे शब्दों में विचारधारा को ‘प्रतिष्ठित’ किया, तो यह पूरी कवायद द्वंद्वात्मक भौतिकवादी ढांचे के तहत माओ-विचारधारा की किसी सच्ची समझ के बजाय पेट्टी बुर्जुआ बुद्धिजीवी की अराजकतावादी-भाववादी सोच से ज्यादा मिलती-जुलती है.
खुद माओ ने चीनी परिस्थिति में ठोस रूप से मार्क्सवाद-लेनिनवाद को लागू करने से अधिक कोई दावा नहीं किया. अवश्य ही उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन की द्वंद्वात्मक अन्तर्वस्तु को सोवियत अधिभूतवाद के आच्छादित प्रभाव से मुक्त किया था.
बहरहाल, दुनिया भर में माओवाद के अतिउत्साही व्याख्याकार सांस्कृतिक क्रांति की चर्चा माओ को मार्क्सवादी मूल सिद्धान्तों के खिलाफ खड़ा करने और उन्हें आत्मनिष्ठ भाववादी के स्तर तक गिरा देने के लिए ही करते हैं. मैथ्यू महोदय भी इसी नस्ल के जीव हैं. मैथ्यू महाशय यह भी बताते हैं कि आम्बेडकर पहले पश्चिमी यांत्रिक भौतिकवाद से प्रभावित थे, लेकिन अपने जीवन के उत्तरकाल में ‘परिपक्व होकर’ उन्होंने बौद्ध द्वंद्ववाद को अपना लिया. ऐसा क्यों, कि पश्चिम की सबसे आधुनिक चिन्तन प्रक्रियाओं के अच्छे जानकर आम्बेडकर ने ‘परिपक्व होकर’ उस दौर में बौद्ध द्वंद्ववाद के उच्चतम विकास – मार्क्सवादी द्वंद्ववाद – को अपनाने के बजाए पुराकाल के बौद्ध द्वंद्ववाद को अपनाना पसन्द किया? इस प्रश्न के गंभीर व गहन अन्वेषण से पता लगेगा कि मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद दो बिलकुल भिन्न दार्शनिक-वैज्ञानिक प्रणालियों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
बेशक, भारतीय जनवादी क्रांति के फौरी संदर्भ में कार्यवाहियों का मार्क्सवादी कार्यक्रम आम्बेडकरवाद के रैडिकल पक्ष के साथ काफी कुछ साझेदारी कर सकता है. लेकिन किसी एकल दार्शनिक-वैचारिक धारा के अंतर्गत दोनों का मिश्रण न केवल असंभव है, बल्कि खास-खास समयों में वह प्रतिक्रियावादी प्रयासों में भी पतित हो जा सकता है.
2. मैथ्यू महोदय मेरे वक्तव्य की गवाही पेश कर यह साबित करते हैं कि आम्बेडकर समाजवाद के पक्षधर थे, लेकिन वे आगे कहते हैं कि आम्बेडकर की मान्यता थी कि दास वर्गों (अछूतों व शूद्रों) के शासक वर्ग में रूपान्तरित हो जाने के बाद ही समाजवाद आ सकता है.
मैंने यह स्पष्ट किया था कि तमाम सीमाबद्धताओं के बावजूद आम्बेडकर की दृष्टि रैडिकल बुर्जुआ दृष्टि थी और यह गांधी की रूढ़वादी बुर्जुआ दृष्टि के खिलाफ संघर्ष के दौरान मुखर हुई थी. उन दिनों समाजवाद एक लोकप्रिय नारा था और प्रगतिशील व लगभग-प्रगतिशील विचारधाराओं के तमाम व्याख्याकार खुद को समाजवादी कहलाना पसन्द करते थे. नेहरू पर यह लागू होता था और आम्बेडकर के साथ भी यही बात थी. मैथ्यू महोदय को यह जानना चाहिए कि जमीन के राष्ट्रीयकरण के साथ-साथ जातीय विभेद के खात्में की मांग रैडिकल बुर्जुआ जनवाद की परिसीमा के अंतर्गत ही आती है और पूर्ण विकसित पूंजीवाद जाति-उन्मूलन की क्षमता अवश्य रखता है. जनवादी क्रांति के कम्युनिस्ट कार्यक्रम की भी ये महत्वपूर्ण मांगें हैं क्योंकि आमूलचूल ढंग से सामंती जकड़नों से मुक्त हुए बिना सच्चा पूंजीवादी विकास भी संभव नहीं है. लेकिन एक रैडिकल बुर्जुआ के सफर का अंत यहीं हो जाता है, जबकि कम्युनिस्ट के लिए यह उस मंजिल की शुरूआत करना है, जहां समाजवाद के लिए महान वर्गयुद्ध निर्णायक तौर पर लड़ा और जीता जा सकता है.
जाति उन्मूलन किसी भी तरह वर्ग का विनाश नहीं करता है. इसके विपरीत, यह वर्ग निर्माण को सुगम बनाता है, वर्ग-ध्रुवीकरण के तेज करता है तथा वर्ग संघर्ष को खुला, व्यापक व प्रत्यक्ष बना देता है. पश्चिमी समाज को, जहां कोई जातीय विभेद नहीं है, देखने पर यह समझना आसान हो जाता है, जहां जातीय विभेद की अनुपस्थिति वर्ग संघर्ष को शुद्धतर रूप में सामने लाती है.
अगर अछूत व शूद्र जातियां शासक वर्गों (जातियों) के बतौर उभरती हैं, तो इससे किसी भी तरह समाजवाद नहीं आ जाएगा. इन जातियों का एक प्रतिनिधिक अंश भारत के अनेक राज्यों में शासक वर्गो के बतौर उभर चुका है. अधिकांश मामलों में उनके बीच की प्रभुत्वशाली जातियां निचले पायदानों पर खड़ी जातियों के प्रति वही ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति दिखलाने लग जाती हैं. उसके बाद फिर, पिछड़ी के बीच से शक्तिशाली कुलक लाबियां उभर उठी हैं जो अधिकांशतः दलित खेत मजदूरों और गरीब किसानों के प्रति गहरी शत्रुता प्रदर्शित करती हैं. अपनी पुस्तक में मैथ्यू महोदय केरल में कतिपय शूद्र जातियों की इस आरोही गति की ओर इशारा करते हैं और अपने ‘प्रत्युत्तर’ में भी वे दलित-शूद्र कृषकों के बीच वर्ग विभेदीकरण की चर्चा करते हैं. अनिच्छापूर्वक ही सही, उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि पिछड़ी जातियों का राष्ट्रीय बुर्जुआ बदलती विश्व आर्थिक व राजनीतिक संदर्भ में जनवादी क्रांति का सुसंगत संश्रयकारी नही भी हो सकता है. इस अनुभूति का स्वागत करते हुए मैं यह आशा करता हूं कि मैथ्यू महोदय यह भी समझेंगे कि इसका दूसरा अंश, अर्थात् ग्रामीण बुर्जुआ या पिछड़ी जातियों के कुलक भी जनवादी क्रांति की ‘मुख्य ताकत और मुख्य संश्रयकारी’ नहीं बनेंगे.
3. दलितों के पेट्टी बुर्जुआ हिस्से के वर्ग प्रतिनिधि के बतौर आम्बेडकर का चरित्रनिर्धारण करने के चलते मेरे खिलाफ मैथ्यू महोदय ने हथियार तान लिया है. आइए, देखें कि खुद उन्होंने आम्बेडकर की वर्ग स्थिति का कैसे निर्धारण किया है. वे शुरू में ‘आम्बेडकरवाद की पेट्टी बुर्जुआ सीमाओं’ को स्वीकार करते हैं, और तब दलित पेट्टी बुर्जुआ के अंदर ‘उनकी बुर्जुआ आकांक्षाओं के लगातार निष्फल होते जाने के वाद सर्वहारा मूल्य भर जाने’ की बड़ी संभावना की काल्पनिक मान्यता पेश कर देते हैं. फिर बुद्धोत्तर अवस्था में और इसके बाद दलित पैंथरोत्तर अवस्था में आम्बेडकरवाद के ‘परिपक्व होने’ की प्रक्रिया से मैथ्यू महोदय यह निष्कर्ष निकालते हैं कि ‘आम्बेडकरवाद दलित पेट्टी बुर्जुआ और दलित सर्वहारा के अंतर्द्वंद्व में फंस जाता है.’ मैथ्यू महोदय हमें परिपक्वता से पहलेवाली, आम्बेडकर की बुद्ध-पूर्व अवस्था में ले चलते हैं जो ‘दलित बुर्जुआ के बजाय दलित सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करती थी.’ मैथ्यू महोदय के वक्तव्यों में अस्पष्टता और उनकी काल्पनिक मान्यताएं सिर्फ यही सिद्ध करती हैं कि वे खुद सर्वहारा और बुर्जुआ के वर्ग प्रतिनिधि के बतौर आम्बेडकर के चरित्र निर्धारण के अंतर्द्वंद्व में फंस गए हैं.
मैथ्यू महोदय की मेहनती कवायदें अंबेडकर के वर्ग चरित्र के बारे में मेरी धारणा की ही पुष्टि करती हैं, क्योंकि आम्बेडकर की स्थितियों में जिस अनिश्चयता की चर्चा वे करते हैं, वह पेट्टी पुर्जुआ का बुनियादी चरित्र लक्षण होता है. उन्हें यह तथ्य भी याद कराया जाना चाहिए कि दलित या अन्य पेट्टी बुर्जुआ तबकों की बुर्जुआ आकांक्षाओं के लगातार निष्फल होने से यह जरूरी नहीं कि उनके अंदर सर्वहारा मूल्य भर ही जाएंगे. अक्सरहा, इससे हताशा और अराजकता ही पैदा होती है. क्या आम्बेडकरवाद के दलित पैंथरोत्तर अवस्था पर इतनी आशा टिकानेवाले मैथ्यू महोदय इस सवाल पर विचार करेंगे कि उस समय के दलित पैंथर आज कहां खड़े हैं?
मैंने कहा है कि आम्बेडकर की भविष्यदृष्टि एक रैडिकल बुर्जुआ दृष्टि थी और यह गांधी की रूढ़िवादी बुर्जुआ दृष्टि के साथ वाद-विवाद के दौरान खासतौर पर मुखर हुई थी. ‘बुर्जुआ’ शब्द हमारे देश में इतना कुख्यात होचुका है कि लोग रेडिकल और रूढ़िवादी बुर्जुआ दृष्टि के बीच फर्क नहीं कर पाते और इस तथ्य को नजरअंदाज करने लगते हैं कि जनवादी क्रांति के हमारे फौरी संदर्भ में रैडिकल बुर्जुआ दृष्टि एक क्रांतिकारी दृष्टि का प्रतीक है. ‘बुर्जुआ’ के बतौर आम्बेडकर का चरित्र निर्धारण करने के चलते उनके अंधभक्तों ने मुझे काफी खरी-खोटी सुनाई, लेकिन एक रेडिकल बुर्जुआ के बतौर आम्बेडकर का चरित्र चित्रित कर मैंने कम्युनिस्ट आंदोलन में पहली बार उनका सकारात्मक पुनर्मूल्यांकन किया है, उन्हें उनके समकालीनों से ऊंचा स्थान दिया है और कम्युनिस्टों व रैडिकल आम्बेडकरपंथियों के बीच लंबे दौर तक संश्रय का मार्ग प्रशस्त किया है. मैथ्यू महोदय यह बात समझने में पूरी तरह चूक गए.
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि आम्बेडकर के क्रांति कारी जनवादी आदर्शों को बुलंद करने के साथ-साथ उनकी रैडिकल बुर्जुआ दृष्टि में मौजूद विसंगतियों को पहचानते हुए उनका आलोचनात्मक मूल्यांकन किया जाए. चीन के सुन यात-सेन भी आखिरकार एक रैडिकल बुर्जुआ ही थे -- आम्बेडकर की अपेक्षा कहीं ज्यादा सुसंगत.
4. मैथ्यू महोदय अपने इस सूत्रीकरण पर डटे हुए हैं कि बसपा की सर्वदलित एकता की अवधारणा रिपब्लिकन (आम्बेडकरपंथी) व्यवहार की तुलना में एक बड़ी सैद्धांतिक अग्रगति है और यह भी कि मंडल मुद्दे को अपनाकर जनता दल ने सर्वदलित एकता के बसपा के ढांचे को ही सकारात्मक और कारगर रूप से अपनाया है. पुस्तक के प्रकाशन के बाद की स्थितियों के दबाव ने मैथ्यू महोदय को आमतौर पर जनता दल और खासकर श्री रामविलास पासवान के बारे में अपनी खुशफहमी को काफी हद तक कम करने तथा महज ‘तथ्यगत वक्तव्य’ तक सीमित हो जाने को बाध्य कर दिया. लेकिन तथ्य तो कुछ दूसरी चीजें भी साबित करते हैं. बसपा ने जनता दल को उसके बाद मात दे दी और कांशीराम ने श्रीमान पासवान को किनारे कर दिया. मैथ्यू महोदय इस विपरीत गति की व्याख्या नहीं कर सके.
5. मैथ्यू महोदय के लिए मंडल उनकी आनेवाली प्रिय दलित क्रांति का ही प्रतीक था. लेकिन अफसोस! यह क्रांति बीच में ही भटक गई. उनकी निराशा काफी स्पष्ट है. पहले उन्होंने सवर्ण औद्योगिक मजदूर वर्ग के तथाकथित प्रतिनिधियों – मुख्यधारा के वामपंथियों – पर मंडलविरोध का आरोप लगाया; अब वे मंडल के प्रति सीपीआई की स्थिति की सराहना करते हैं और क्रीमी लेयर संबंधी फैसले के प्रति समर्थन के कारण हमारे और सीपीआई(एम) के खिलाफ अपना क्रोध उगलते हैं.
मैं नहीं कह सकता कि मंडल के मामले में वे सीपीआई कि स्थिति की कैसे व्याख्या करेंगे. क्योंकि हमारे या यहां तक की सीपीआई(एम) की अपेक्षा भी सीपीआई की जड़े तथाकथित आभिजात्य श्रमिक समुदाय या मैथ्यू महोदय के शब्दों में ‘सवर्ण औद्योगिक मजदूरों’ के पीच ज्यादा गहरी धंसी हुई हैं, या फिर इस मामले में बिहार के मंडल राज के अंतर्गत जनता दल के ‘स्वाभाविक संश्रयकारी’ के बतौर बिलकुल दृढ़तापूर्वक सीपीआई और सीपीआई(एम) के काम करने की परिघटना को वे कैसे देखते हैं.
मैथ्यू महोदय के अनुसार, क्रीमी लेयर संबंधी फैसले के प्रति हमारा समर्थन आरक्षण के लिए आर्थिक कसौटी को समर्थन देने के समतुल्य है. तब इसका मतलब आरक्षण को आर्थिक उन्नयन का एक साधन मान लेना होगा और तब इसका मतलब होगा ‘जन साझेदारी वाले लोकतंत्र और प्रशासन तंत्र के जनवादीकरण’ के आम्बेडकरवादी रुख के बरखिलाफ उन्नयन के गांधीवादी रुख की तरफदारी करना. मैथ्यू जी के तर्कशास्त्र का जवाब नहीं!
खुद मैथ्यू महोदय द्वारा उद्धृत मेरे अपने विश्लेषण में शासक वर्गों की सीमाओं के अंतर्गत पिछड़ों के कुछ तबकों को शामिल करके ‘जन साझेदारी वाले लोकतंत्र और प्रशासन तंत्र के जनवादीकरण’ की बात निहित है. मौजूदा सामाजिक-आर्थिक संरचना में कोई सुधार का उपाय भला और किस हद तक जा सकता है? क्रीमी लेयर संबंधी फैसले का समर्थन करके क्या हम जन साझेदारी वाले लोकतंत्र और प्रशासन तंत्र के जनवादीकरण के दायरे को और भी व्यापक आधार तक विस्तारित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं? – क्योंकि क्रीमी लेयर में जो लोग आते हैं वे कमोबेश मुक्त होड़ की क्षमता अर्जित कर चुके हैं और जो अन्यथा ओबीसी के लिए सम्पूर्ण आरक्षित कोटा हड़प कर जाएंगे.
इस प्रकार क्या हम सुधार प्रक्रिया में रैडिकल तत्व के लिए दबाव नहीं डाल रहे हैं? यह देखकर सचमुच आश्चर्य हो रहा है कि दलित सर्वहारा का एक स्वघोषित प्रतिनिधि इतनी मेहनत से क्रीमी लेयर के हितों को आगे बढ़ाने में लगा हुआ है. लेकिन तब, अपनी फंतासी की दुनिया में ही सही, मैथ्यू महोदय यह विश्वास करते हैं कि मंडलवादी संघर्ष की रहनुमाई अनुसूचित जातियां कर रही थीं और मंडल विरोध उन्माद की मार भी सबसे अधिक उन्हीं को झेलनी पड़ी थी. मंडल मुद्दे के गिर्द दलितों-पिछड़ों की एकता निर्मित करने का यह बड़ा मौका चूक जाने और इसके बजाय ग्रामीण सर्वहारा तथा पिछड़ी जातियों के कुलकों के बीच वर्ग-टकराव तेज करने जैसी वामपंथ की अदूरदर्शिता का रोना वे रोते हैं.
सबसे पहले तो मैं यही कहूंगा कि यह मान्यता सीपीआई और सीपीआई(एम) के लिए ठीक नहीं बैठती. ग्रामीण सर्वहारा और पिछड़े कुलकों के बीच वर्ग टकराव तेज करने का आरोप उनपर नहीं लगाया जा सकता है. अगर ऐसा होता तो वे जनता दल के साथ इतनी स्थाई बिरादरी कभी नहीं निभा पाते. यह आरोप हमारे लिए अवश्य ही सही है और मैथ्यू महोदय को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि बिहार में हमारे वामपंथी मित्र सीपीआई और सीपीआई(एम) रोजाना हमपर यही आरोप लगाया करते हैं.
दूसरे, मैथ्यू महोदय द्वारा प्रोयोजित दलित-पिछड़ा एकता आश्चर्यजनक ढंग से दलितों को कुलकों के सामने अपना वर्गहित कुर्बान कर देने और क्रीमी लेयर के लिए आरक्षण की खातिर संघर्ष करने, कुर्बानियां देने व यहां तक कि उसकी रहनुमाई करने के आह्वान के इर्द-गिर्द निर्मित होती है.
मैथ्यू महोदय को यह जानना चाहिए कि कुलक अपने संघर्ष की खुद रहनुमाई करने में बिलकुल सक्षम हैं और रामविलास पासवान जैसे कुलक-टहलुओं को छोड़कर, आम दलित उनकी इस सलाह पर कान नहीं देने वाले हैं. इस प्रक्रिया में मैथ्यू महोदय सिर्फ यह उजागर करते हैं कि किनके वर्गहित उनके दिमाग में प्रमुख स्थान रखते हैं.
हां, वे एक उपयुक्त सवाल जरूर उठाते हैं. अगर मंडल मुद्दा का लक्ष्य शक्तिशाली पिछड़ी जातियों को समायोजित करने के जरिए शासक वर्ग का आधार व्यापक बनाना ही था, तो क्रीमी लेयर को बहिष्कृत करके भी क्या यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है?
मैथ्यू महोदय आश्वस्त हो लें कि कोर्ट का फैसला सामाजिक यथार्थ को निर्देशित नहीं कर सकता. सामाजिक यथार्थ कोर्ट के फैसले को फंसाकर उसे सांकेतिकता में बदल देने के हजार रास्ते व साधन खोज निकालेंगे.
50% आरक्षण-सीमा रखने के फैसले से तमिलनाडु कतरा कर निकल गया और कुछेक अन्य राज्य भी ऐसा ही करने जा रहे हैं. बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में क्रीमी लेयर के लिए सूत्रबद्ध कसौटी के अनुसार शायद ही कोई क्रीमी लेयर दर्ज कराने लायक रह जाएगा. क्रीमी लेयर संबंधी फैसला वामपंथियों को सिर्फ यह मौका देता है कि वे जाति समुदायों के अंदर वर्ग चेतना बढ़ाएं और हम यह मौका कतई नहीं चूके हैं.
6. मैथ्यू महोदय मेरे इस सूत्रीकरण पर तत्परता से सहमत हो जाते हैं कि वर्ग एक बुनियादी कोटि है जिसके जड़े उत्पादन प्रणाली में निहित हैं और तब वे फौरन सैद्धांतिक ढांचे में द्वैधता का तत्व पेश कर देते हैं – यह घोषित करते हुए कि जातियों की जड़े भी उत्पादन प्रणाली में निहित हैं.
जब मार्क्स और एंगेल्स यह घोषणा करते हैं कि अबतक समस्त समाजों का इतिहास (आदिम साम्यवादी समाज को छोड़कर) वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है, तो वे समाज-विकास के एक बुनियादी नियम का उदघाटन करते हैं. बहरहाल, केवल पूर्ण विकसित पूंजीवादी समाज में ही वर्ग और उनके बीच के संघर्ष शुद्ध रूप में प्रकट होते हैं. दूसरे तमाम समाजों में वर्ग संघर्ष काफी जटिल रूप धारण करता है. खुद मार्क्स ने यह दिखाने के लिए अनेक अध्ययन किए कि धार्मिक जेहादों, औपनिवेशिक अभियानों, महल-विद्रोहों तथा सामाजिक संस्तरों के बीच टकराव आदि के पीछे किस तरह वर्ग स्वार्थों के आपसी टकराव और संघर्ष हो रहे थे. इस मार्क्सवादी आधारशिला पर खड़े होकर भारतीय कम्युनिस्टों को जाति-संघर्ष की आभासी परिघटना के अंदर प्रवेश कर हमारे समाज में मौजूद वर्ग-गत्यात्मकता के सार को उदघाटित करना होगा. लेकिन वर्ग-जाति द्वैधता की उपस्थिति बिलकुल शुरू से ही इस अध्ययन को नुकसान पहुंचाती है.
मैं समझता हूं कि खुद जाति व्यवस्था एक खास उत्पादन प्रणाली और तदनुरूप उत्पादन संबंधों के स्तर की उपज थी. यहां वर्ग संबंध जातियों का रूप ले लेते हैं, जिन्हें पुरोहितों द्वारा दैवीय मान्यता प्रदान कर दी गई. बहरहाल, उनका ‘स्थायित्व’ किसी दैवीय मान्यता के जरिए नहीं बल्कि ग्राम समुदाय के उस जड़ सामाजिक संगठन के जरिए मुख्यतः निर्धारित होता था, जो फिर उत्पादक शक्तियों के एक निश्चित स्तर की ही उपज था. यहां जाति और वर्ग एक आभासी सामंजस्य में प्रकट हुए. जाति और वर्ग का यह सामंजस्य, आधार और ऊपरी ढांचे की यह संगति आभासी है, क्योंकि ये दोनों बिलकुल भिन्न कोटियां हैं, जो क्रमशः आधार और उपरी ढांचा से, उत्पादन प्रणाली और वितरण-नियमन से पनपी हैं.
जैसे-जैसे उत्पादक शक्तियों का स्तर विकसित होता है और उत्पादन प्रणाली एक धीमे परिवर्तन के दौर से गुजरती है, यह सामंजस्य टूट जाता है; वर्ग और जाति, आधार और ऊपरी ढांचा आपस में टकराने लगते हैं, प्रत्येक दूसरे को निरूपित करने की कोशिश करता है. और आपके सामने एक लंबी संक्रमणकालीन अवस्था होती है जहां वर्ग दावेदारी मुखर होती जाती है, और काफी विचित्र ढंग से खुद को प्रायः जातीय गतिशीलता के भंवर में अभिव्यक्त करती है. विभिन्न जातियों के बीच उत्पादन-साधनों के बंटवारे का तथाकथित स्थायित्व दरक जाता है. बहरहाल, नए आधुनिक आर्थिक वर्ग राजनीतिक और प्रशासकीय, दोनों किस्म की सत्ता संरचनाओं में साझेदारी की खातिर आपसी लड़ाई में जातियों की संस्थागत पताका का इस्तेमाल करते हैं. औजार पुराना है, लेकिन सारवस्तु मूलतः बदली हुई है. प्रथम अवस्था के सामंजस्य का इस अवस्था में निषेध हो जाता है तथा वर्ग और जाति एक दूसरे को कहीं काटती और कहीं एक-दूसरे से लिपटती हुई एक जटिल स्थिति का निर्माण करती है. आखिरकार, ऐतिहासिक गति इस अवस्था का भी निषेध कर देगी तथा आधार व ऊपरी ढांचे के बीच पुनः सामंजस्य और संगति स्थापित कर देगी – अलबत्ता एक उच्चतर रूप में, जब जातियां समाप्त हो जाती हैं और वर्ग संबंध व वर्ग संघर्ष शुद्ध रूप में प्रकट हो जाते हैं. यह संगति महज आत्मगत रूप में सामने नहीं लायी जा सकती है. जैसा कि मैं पहले बता चुका हूं जाति व्यवस्था एक निश्चित उत्पादन प्रणाली और तदनुरूप उत्पादन संबंधों के स्तर से पैदा हुई थी. इसका खात्मा भी उत्पादक शक्तियों व उत्पादन संबंध के उच्चतर स्तर पर ही संभव हो सकेगा. मैंने कहा था कि पूंजीवाद का अबाधित विकास, जो उत्पीड़न के गैर-आर्थिक रूपों को खत्म करता है, वितरण प्रणाली में भी वर्ग को प्रत्यक्ष रूप से निर्णयकारी बना देता है. और इस प्रकार जाति-उन्मूलन की अत्यधिक क्षमता भी उसके अंदर निहित रहती है.
बहरहाल, मैथ्यू महोदय मानते हैं कि जाति व्यवस्था ने उत्पादन संबंधों को बुनियादी रूप से निर्धारित कर दिया और विभिन्न जातियों के बीच उत्पादन के सांधनों का स्थायी रूप से बंटवारा कर दिया. इस प्रकार, उनकी चिंतन प्रणाली में जाति व्यवस्था और इसका स्थायित्व एक पुरोहिताई षड्यंत्र प्रतीत होते हैं. यद्यपि वे इस बात से सहमत हैं कि जाति व्यवस्था ऊपरी ढांचे का मुख्य कार्य अर्थात् वितरण का नियमन करती है, फिर भी वे उत्पादन संबंधों के क्षेत्र में जाति व्यवस्था द्वारा अदा की जानेवाली भूमिका – दूसरे शब्दों में, आधार पर ऊपरी ढांचे की क्रिया – का यह अर्थ निकालते हैं कि जाति भी आधार का ही अंग होती है. यह चीज फौरन एक विरोधाभास को जन्म देती है कि ऐसी स्थिति में दूसरी बुनियादी कोटि, अर्थात् वर्ग का क्या होता है और जाति के साथ इसका संबंध कैसा रहता है. मैथ्यू महोदय वर्ग निर्माण की उस प्रक्रिया को नहीं देखते हैं जो भ्रूण रूप में ही सही, हमारे समाज में सिमित औद्योगीकरण के दौरान घटित हो रही है. इसके विपरीत, उन्हे लगता है, कि इससे जाति गठन ही मजबूत हुआ है. प्राक्-पूंजीवादी अवस्थाओं के मामले में मेरे इस सूत्रीकरण के विपरीत कि वर्ग खुद को जाति के रूप में अभिव्यक्त कर सकता है, मैथ्यू यह थीसिस पेश करते हैं कि शोषण के आर्थिक और गैर-आर्थिक रूपों को संयोजित करते हुए जाति ही आर्थिक वर्ग का स्वरूप ग्रहण कर लेती है. आगे वे तर्क करते हैं कि दूसरी ऐतिहासिक परिस्थितियों में वर्ग और जाति नहीं बल्कि वर्ग के आर्थिक और गैर-आर्थिक पहलू अंतर्ग्रंथित हो जाते हैं. दुसरे शब्दों मे , वर्ग और जाति दोनों के आर्थिक और गैर-आर्थिक पहलू होते हैं, दोनों ही बुनियादी कोटियां हैं जिनकी जड़े उत्पादन प्रणाली में निहित होती हैं और इस प्रकार दोनों के बीच कोई एंटिथीसिस नहीं है. मैथ्यू महोदय, विरोधाभास अभी भी हल नहीं हुआ; ये दो कोटियां अपनी-अपनी जगह पूर्ण बुनियादी कोटियां तब कैसे हुई? वे एक दूसरे से भिन्न फिर कैसे हैं? यह द्वैधता हमें और कहीं न ले जाकर तार्किक रूप से यही निष्कर्ष पेश करती है कि जाति ही वह बुनियादी कोटि है जो वर्ग का निर्धारण करती है. इस प्रकार वर्ग को कम्युनिस्ट नामक आधुनिक पुरोहितों द्वारा आविष्कृत ऊपरी ढांचे के क्षेत्र में धकेल दिया जाता है. जाति-व्यवस्था की एंटिथीसिस भी जाति व्यवस्था ही है और आगामी जाति संघर्ष में वर्ग का ही सफाया हो जाएगा! मैथ्यू महोदय की तथाकथित दलित जनवादी क्रांति की यही सारवस्तु है.
दलित जनवादी क्रांति की अवधारणा में आप सर्वहारा को एक अखंड वर्ग के बतौर नहीं, बल्कि दलित सर्वहारा और सवर्ण सर्वहारा के बतौर पाएंगे. उसी तरह, किसान और बुर्जुआ के विभिन्न वर्ग भी विभाजित हैं और अपनी जातीय निष्ठा के आधार पर एक दूसरे के विरोध में खड़े होते हैं. मैथ्यू महोदय भूल जाते हैं कि जातियों की भांति वर्ग का विखंडित अस्तित्व नहीं होता, हो भी नहीं सकता. कारखाना प्रणाली और पूंजीवाद ने सर्वहारा की वर्ग पहचान निर्मित करने की शर्तें तैयार कर दी हैं और इसी वजह से उन्हें वर्ग कार्रवाइयों में संगठित करने के अलावे कम्युनिस्ट पार्टी को चाहिए कि वह संगठित व असंगठित मजदूर वर्ग के विभिन्न हिस्सों के बीच मौजूद जातीय, साम्प्रयादिक, अंधराष्ट्रवादी पूर्वाग्रहों के खिलाफ संघर्ष करे.
मैथ्यू महोदय यह नहीं देखते कि पूंजीवाद और औद्योगिक मजदूर वर्ग का उदय जातीय प्रणाली की एंटिथीसिस है जो इसके उन्मूलन की क्षमता रखता है. वे यह भी भूल जाना चाहते हैं कि जाति उन्मूलन से संबंधित आम्बेडकर के विचारों समेत तमाम रैडिकल विचार पूंजीवाद के आगमन के बाद तथा पश्चिमी जगत से आनेवाले रैडिकल बुर्जुआ व सर्वहारा विचारों के साथ अंतःक्रिया के दौर में ही उभरे हैं. वे मान लेते हैं कि आत्मगत रूप से निर्मित जातीय व्यवस्था सांस्कृतिक क्रांति जैसे किसी किस्म के आत्मगत प्रयासों से ही समाप्त की जा सकती है. वे जातिवाद के खिलाफ आम्बेडकर के जेहाद और रैडिकल आर्थिक कार्यक्रम की उनकी वकालत के बीच मौजूद कड़ी को नहीं देख पाते हैं तथा निष्कर्ष निकालते हैं कि जाति के विनाश के बिना पूंजीवाद या औद्योगीकरण संभव ही नहीं है.
मैथ्यू महोदय नव जनवादी क्रांति की माओवादी अवधारणा के बारे में अजीब विचार रखते हैं. मेरे इस दावे के बारे में, कि पश्चिमी देशों की पुरानी जनवादी क्रांतियों तथा पूर्व के अर्ध-औपनिवेशिक देशों की नई जनवादी क्रांतियों के बीच मौलिक फर्क इस तथ्य में निहित है कि नवजनवादी क्रांति पूंजिवाद पर न ठहर कर समाजवद की मंज़िल मे चली जाती है, मैथ्यू टिप्पणी करते हैं कि यह कोई मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी नहीं है. उनके अनुसार मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी यह है कि नई जनवादी क्रांति सर्वहारा के नेतृत्व में होती है. बहुत अच्छा, लेकिन नई सामाजिक व्यवस्था के लिहाज से सर्वहारा नेतृत्व का क्या तात्पर्य है? जनवादी क्रांति – नई हो या पुरानी – की आर्थिक अंतर्वस्तु, निश्चय ही, बुर्जुआ होती है. यह सामंती अवशेषों को उन्मूलित कर अबाधित पूंजीवादी विकास का मार्ग प्रशस्त करती है. लेकिन अर्ध-औपनिवेशिक देशों में, जहां ऐतिहासिक रूप से इस क्रांति का नेतृत्व सर्वहारा के कंधों पर आ पड़ा है, इसके साथ ही साथ एक मजबूत समाजवादी पहलू भी उभर उठता है और सर्वहारा नेतृत्व समाजवाद में संक्रमण की गारंटी करता है. माओ के चीन में चीजें इसी प्रकार घटित हुईं और माओ की थीसिस नवजनवाद के बारे में का एक सरसरी अध्ययन भी इन सब बातों को सिद्ध कर देगा.
मैथ्यू महोदय के साथ समस्या यह है कि उनका सर्वहारा दलित सर्वहारा है – अर्थात्, ग्रामीण सर्वहारा, अनौपचारिक असंगठित क्षेत्रों के मजदूर – जो तथाकथित रूप से सवर्ण औद्योगिक सर्वहारा के विरोध में खड़े हैं. इसके अलावा; इस दलित सर्वहारा के मुख्य संश्रयकारी और मुख्य ताकत हैं पिछड़ी जातियों के कुलक और बुर्जुआ. मैथ्यू अच्छी तरह जानते हैं कि इस ‘वर्ग’ विन्यास के साथ समाजवाद में संक्रमण न तो संभव है और न वांछित. वे यह भी जानते हैं कि समाजवाद के निर्माण के लिए शक्तिशाली सर्वहारा राज्य की आवश्यकता होती है. इसके विपरीत उनकी अराजक मनोस्थिति राज्य की सामाजिक-आर्थिक भूमिका को खारिज कर देती है. इसीलिए, वे समाजवाद के प्रति अप्रतिबद्ध बने रहना पसन्द करते हैं और नई सामाजिक व्यवस्था के प्रश्न से कतराते हैं – कभी तो गोर्बाचेव के रूस तथा देंग के चीन की ओर संकेत करके और कभी आम्बेडकर के राज्यवादी नुस्खे से आगे बढ़ निकलने का बहाना बनाकर. मैथ्यू महोदय को यह जरूर जानना चाहिए कि जनता के बीच समान आधार पर सार्वजनिक (क्षेत्र की) शेयर परिसम्पत्तियों का तथाकथित बंटवारा निजीकरण का ही एक दूसरा नाम है.
मैथ्यू महोदय को यह भी जानना चाहिए कि नक्सलबाड़ी में ग्रामीण सर्वहारा और गरीब किसानों ने जो अगुवा भूमिका अदा की, वह कम्युनिस्ट पार्टी के जरिए उन तक पहुंचाए गए सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण से ही मार्गदर्शित थी. इस मार्गदर्शन और नेतृत्व से उन्हें अलग करने का सीधा मतलब होगा उन्हें बुर्जुआ की गिरफ्त में धकेल देना. बीच का कोई रास्ता नहीं है. सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण सारतः औद्योगिक सर्वहारा का विश्व दृष्टिकोण है. समाजवाद और साम्यवाद की ओर अग्रसर होने का इसका ऐतिहासिक मिशन – एक ऐसा मिशन जो इस वर्ग की वस्तुगत नियति है – वस्तुगत रूप से ही तयशुदा है. आत्मगत रूप से कहा जाए तो इस मिशन के लिए इस वर्ग को कम्युनिस्ट पार्टी तैयार करती है, जिस पार्टी में यह वस्तुगत नियति ठोस रूप से अभिव्यक्त होती है.
मैथ्यू महोदय की प्रिय विषयवस्तु है दलितों को क्रीमी लेयर के हितों के लिए पिछड़ी जातियों के कुलकों के स्वार्थ में संघर्ष करने का उपदेश देना. वे इस बहाने इसे उचित ठहराते हैं कि धनी किसान भी क्रांति के मुख्य संश्रयकारी हैं. आप फिर गलती कर रहे हैं, मैथ्यू महाशय. वर्ग के बतौर धनी किसान को एकता और संघर्ष की नीति के जरिए अधिक से अधिक तटस्थ भर किया जा सकता है. उनका एक छोटा हिस्सा ही क्रांति का समर्थन कर सकता है जबकि अन्य हिस्से इसका उग्र विरोध ही करेंगे. भारतीय परिस्थितियों में, फार्म-सेक्टर के अधिकाधिक विकास के साथ हमें कुलकों की ओर से होनेवाले अपेक्षाकृत बड़े प्रतिरोध के लिए तैयार रहना चाहिए.
मैथ्यू महोदय इस खतरे से सहमत हैं कि उनके संश्रय का नेतृत्व ‘राष्ट्रीय बुर्जुआ’ के हाथों चला जा सकता है और पिछड़ी जातियों के कुलक ग्रामीण गरीबों पर हावी हो जा सकते हैं. बहरहाल, वे इस खतरे को माओवादी मॉडल का सामान्य खतरा मानते हैं और यह भी घोषित करते हैं कि हमारी पार्टी का आंदोलन इस खतरे का शिकार हो चुका है. मैं मैथ्यू महोदय को सिर्फ यह याद दिलाना चाहूंगा कि हमारे आंदोलन के साथ अगर ऐसा हुआ होता तो हमारी पार्टी भी सीपीआई और सीपीआई(एम) की भांति बिहार में जनता दल का ‘स्वाभाविक संश्रयकारी’ बन गई होती. जनता दल की एकमात्र मंडलीकृत सरकार – बिहार सरकार – के खिलाफ लाल झंडा उठाए रखने का मतलब ही है ग्रामीण गरीबों की निरपेक्ष वर्गीय व राजनीतिक स्वतंत्रता को बुलंद रखना.
मैंने अपने लेख में बताया था कि मैथ्यू महोदय के संश्लेषण ने मार्क्सवाद के साथ-साथ आम्बेडकरवाद से भी उसकी रैडिकल सारवस्तु बाहर निकाल दी है और जो कुछ उन्होंने हासिल किया है, वह के. वेणु और रामविलास पासवान – अपनी-अपनी धाराओं के दो कुख्यात गद्दारों – का सम्मिश्रण (हाइब्रिड) ही है. ऐसा साबित हो जाने के बाद भी उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं होती, बल्कि उन्हें इस बात से गौरव होता है कि उनकी बौद्धिक कवायद बड़ी हद तक वास्तविकता को अभिव्यक्त करती है.
यह वास्तविकता क्या है? अपनी बौद्धिक कवायद के समर्थन में मैथ्यू महाशय मार्क्सवादी विचारधारा और नक्सलवाद के हितों के साथ गद्दारी के दो नमूने पेश करते हैं – पीडब्लूजी के पूर्व सचिव केजी सत्यमूर्ति का बसपा में सामिल होना तथा सीआरसी के पूर्व सचिव के. वेणु का केआर गौरी की लोकतंत्र सुरक्षा समिति (केरल) में शामिल होना.
अपनी थीसिस के समर्थन में वे 14 अप्रैल 1993 को रामविलास पासवान के साथ आम्बेडकर जयंती मंच पर हमारे शरीक होने का भी हवाला देते हैं. अव्वल तो, यह साम्प्रदायिकता के खिलाफ राष्ट्रीय अभियान समिति का कार्यक्रम था. उस तिथि की पसंद और श्रीमान पासवान द्वारा उसपर जोर दिए जाने से हमलोग उनकी नीयत के प्रति सशंकित हो उठे; हमने समिति में अपनी आशंकाओं को उठाया और हमें इस मामले में सकारात्मक आश्वासन भी दिया गया. मगर तमाम लोकतांत्रिक कायदे-कानून का उपहास उड़ाते हुए श्रीमान पासवान ने वस्तुतः समूचे कार्यक्रम को आम्बेडकर जयंती समारोह तक सीमित कर दिया. और, वहां अध्यक्षता कर रहे सुरजीत ने हमारी आपत्तियों पर कोई कान नहीं दिया. स्पष्टतः यही वह चरम बिन्दु था, जहां हमने राष्ट्रीय अभियान समिति से अलग हो जाने का फैसला कर लिया.
दूसरे, मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि रैडिकल आम्बेडकरपंथी शक्तियों के साथ किसी मंच में शामिल होना या आम्बेडकर जयंती समारोह में हमारे लोगों का शरीक होना किसी भी तरह हमारी पार्टी की नीति के खिलाफ नहीं जाता है. हम आम्बेडकर को एक रैडिकल जनवादी मानते ही हैं और अपने मुश्तरका जनवादी प्रयासों में हम रैडिकल आम्बेडकरपंथी शक्तियों के साथ हाथ मिलाने के बिलकुल पक्षधर हैं. मार्क्सवाद और आम्बेडकरवाद के तथाकथित संश्लेषण के साथ इसका घालमेल करना और सत्यमूर्ति व के. वेणु की गद्दारी के साथ इसकी बराबरी करना चरम दरजे का बैद्धिक दिवालियापन है.
मैं आशा करता हूं कि वाद-विवाद के क्रम में मेरे द्वारा कुछ खास शब्दों के प्रयोग से पैदा हो सकनेवाले तीखेपन का मैथ्यूजी बुरा नहीं मानेंगे.
मैं सोचता हूं कि मैथ्यू महाशय को इस बात पर सहमत करने में सफल हो गया हूं कि उनके मॉडल में ग्रामीण गरीबों पर कुलक नेतृत्व के हावी हो जाने का खतरा मौजूद है. इस खतरे का मुकाबला करने के लिए वे ‘हर समाज और युग की विशिष्टताओं व गत्यात्मकता के अनुरूप माओवादी मॉडल को अनुकूलित करने’ का प्रस्ताव देते हैं. मेरे मन में अभी भी उलझन है और मैं आशा करता हूं कि मैथ्यू महोदय इस सवाल पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे ताकि हमारे अपने-अपने विचारों का ‘संश्रेषण’ हासिल किया जा सके.