(छठी पार्टी कांग्रेस, 1997 की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से उद्धृत)

1. सार संक्षेप में, हम देखते हैं कि भूमि प्रश्न कई इलाकों में अब भी मुख्य प्रश्न बना हुआ है. तथापि, चूंकि भूमि सुधार को लागू करने की मात्रा भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है, अतः भूमि सुधार को आगे बढ़ाने का सामान्य नारा विभिन्न राज्यों में अलग-अलग होगा.

2. सार्वजनिक सम्पत्ति यानी आहर, पोखर, तालाब तथा लघु सिंचाई स्रोतों, नदी तथा बालू तट इत्यादि पर जन-नियंत्रण संघर्ष का एक प्रमुख मुद्दा है. आमतौर पर इनपर सामंती एवं माफिया गिरोहों का कब्जा रहता है.

3. मजदूरी, पुरुषों और महिलाओं को समान काम के लिए समाज मजदूरी, बेहतर कार्य-स्थितियां, वास भूमि और पक्के घर इत्यादि देशभर में ग्रामीण सर्वहारा की समान मांगें हैं. भूमि आबंटन के मामले में मांग की जानी चाहिए कि पट्टों को पुरुषों एवं महिलाओं के नाम समान रूप से आबंटित किया जाना चाहिए.

4. पंचायतों में तथा प्रखंड कार्यालयों में – जहां ग्रामीण गरीबों के बीच राहत के बतौर बांटने के लिए अथवा निम्न व मध्यम  किसानों के लिए आई धनराशि को, सत्ता पर नियत्रंण रखनेवाले शक्तिशाली भूस्वामी व कुलक समुदायों के साथ सांठगांठ में, भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा हड़प लिया जाता है – भ्रष्टाचार के मुद्दे जनगोलवन्दी के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं.

5. जनजातीय प्रश्न, चाहे झारखंड आंदोलन हो अथवा पर्वतीय जिलों में, तथा असम के अन्य आदिवासी इलाकों में होनेवाले आंदोलन, अथवा आंध्रप्रदेश के गिरिजन आंदोलन, सभी अंतर्वस्तु में कृषक प्रश्न हैं, और इसीलिए उनकी जमीनों का सूदखोरों -व्यापरियों द्वारा हड़पा जाना, जंगलात की जमीन और उपज पर उनका अधिकार इत्यादि प्रमुख प्रश्न हैं.

6. जहां कहीं आंदोलन तीव्र हो जाता है, भूस्वामियों की निजी सेनाएं अथवा प्रतिक्रियावादी राजनीतिक पार्टियों के गुंडे, पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं की हत्या करने तथा जनहत्या के उपायों का सहारा लेते हैं. पुलिस द्वारा भी अनिवार्य रूप से दमन ढाया जाता है.

7. अराजकतावादी संगठन, जो धनराशि उगाहने वाली मशीनों में पतित हो रहे हैं, हमारे कार्यकर्ताओं तथा जनसमुदाय की हत्या के अभियान में लिप्त हो रहे हैं; और अपने संदेहास्पद संबंधों को ढंकने के लिए, संगठित जनांदोलनों को नष्ट-भ्रष्ट करने के अपने घृणास्पद लक्ष्य को ढंकने के लिए, वे हर संभव अतिवाम लफ्फाजी का सहारा ले रहे हैं.

इन बिंदुओं पर गंभीरता से ध्यान देना जरूरी है :

(क) हमारा विचार है कि कृषि परिस्थिति में विचारणीय अंतर रहने के कारण, राष्ट्रीय स्तर पर कोई सामान्य किसान आंदोलन, और इसीलिए कोई सुसंगत अखिल भारतीय किसान संगठन कायम करने की कोई खास प्रासंगिकता नहीं है. अनुभव का आदान-प्रदान, कभी-कभार नीति संबंधी वक्तव्य जारी करने और सेमिनार/वर्कशाप आयोजन आदि के लिए अखिल भारतीय समन्वय समिति ही काफी है. यहां तक कि राज्यों में भी, जिला या आंचलिक स्तर के किसान सभा किस्म के संगठनों को काफी महत्वपूर्ण स्वायत्त भूमिका अदा करनी पड़ सकती है, क्योंकि बड़े राज्यों में भिन्न-भिन्न अंचलों में भी परिस्थितियां बेहद भिन्न रहती हैं. मांग की विशिष्टता पर आधारित अथवा क्षेत्र की विशिष्टता पर आधारित किसान संगठन भी व्यापक किसानों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं.

जिला और स्थानीय स्तरों पर किसान सभा के सांगठनिक कार्य संचालन को सुदृढ़ करने की ओर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए. कई इलाकों में किसान सभा की सदस्यता, किसानों के बीच हमारे प्रभाव की तुलना में तो बहुत कम है ही, अक्सर वह हमारे कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले लोगों की संख्या से भी काफी कम होती है. ग्राम कमेटियों का सजीव कार्य-संचालन, यहां तक कि दुश्मन के तीव्र दमन की स्थितियों में भी, किसान सभा संगठनों की सजीवता की कुंजी है. उन्हें नियमित रूप से किसान सभा की ग्राम स्तरीय जनरल बाडी मीटिंगें बुलानी चाहिए, आंदोलन की समस्याओं पर बहस करनी चाहिए और सदस्यता का नवीनीकरण (यहां तक कि भर्ती भी) जनरल बाडी में ही करना बेहतर होगा. ग्राम कमेटियों को जनता की राजसत्ता की स्थानीय संस्थाओं के बतौर विकसित करने के परिप्रेक्ष से सुदृढ़ करना चाहिए. स्थानीय मिलिशिया का प्रशिक्षण और ग्राम रक्षादस्तों का निर्माण योजनाबद्ध रूप से ग्रहण किया जाना चाहिए.

मुकदमों की देखरेख करने के लिए एक कानूनी सेल और जेल में बंद कामरेडों से सम्पर्क करने के लिए एक विशेष टीम का विकास करना आवश्यक है.
जहां सम्भव हो, किसान सभा में महिला सेल का गठन भी किया जा सकता है.

जनता के बीच के अन्तरविरोधों को देखते ही सीधासीधी पार्टी द्वारा हल किए जाने के बजाय, स्थानीय किसान सभा की इकाइयों द्वारा हल किया जाना बेहतर होगा. अन्यथा ऐसा कोई प्राधिकार नहीं रहेगा जिसके पास पीड़ित व्यक्ति अपनी फरियाद रख सके, और इसके कारण उनसे अलगाव पैदा होगा. हमारा अनुभव दिखाता है कि अराजकतावादी ग्रुप और रणवीर सेना जैसी शक्तियां ऐसे अंतरविरोधों का हमारे खिलाफ इस्तेमाल करने में माहिर हैं. अतः जनता के बीच के अंतरविरोधों का दक्षातापूर्वक हल निकालना चाहिए और इस काम को किसान सभा द्वारा किया जाना चाहिए.

(ख) खेतमजदूरों का सवाल कृषि के क्षेत्र में और राष्ट्रीय राजनीति में अधिकाधिक महत्व ग्रहण करता जा रहा है. उनसे संबंधित केन्द्रीय कानून की मांग शक्तिशाली होती जा रही है. उदारीकरण और वैश्वीकरण के राज में कृषि सुधारों की प्रक्रिया उनके सवालों को और भी ज्यादा सामने लाएगी. कृषि सुधार अनिवार्य रूप से कृषि में पूंजीवाद को, चाहे वह किसी भी किस्म का क्यों न हो, बढ़ावा ही देंगे, क्योंकि वह है तो पूंजीवाद ही.

इसके अलावा, पहले की मध्यम जातियों के कुछेक हिस्से जिस कदर सत्ता समुदायों के महत्वपूर्ण अंग बनते जा रहे हैं, कृषि आंदोलन को पूंजीवादी फार्मरों व धनी किसानों के व्यापक हिस्से को अपना निशाना बनाना ही पड़ेगा. अतः खेतमजदूरों के आंदोलन महत्वपूर्ण राजनीतिक अर्थ ग्रहण करेंगे. भविष्य के लिए प्रस्तुति के लिहाज से, हमें एक तैयारी समिति गठित करनी होगी जो इस मुद्दे का अध्ययन करे और एक खेतमजदूर संगठन का निर्माण करने की संभावना की तलाश करे.

(ग) जब हम निजी सेनाओं के खिलाफ खिसाव-थकाव के युद्ध में फंस जाते हैं, तो किसान मुद्दे पर किसान सभा का कार्यसंचालन या आंदोलन का कार्य पीछे छोड़ दिया जाता है. ऐसी स्थिति यकीनन हमपर लाद दी जाती है, और हम इससे कतरा नहीं सकते. मगर फिर भी किसान सभाओं के कार्य संचालन को कैसे जारी रखा जाए, यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिसका हल हम अभी तक नहीं खोज पाए हैं. हमने बार-बार ऐसे आंदोलनों को सक्रिय करने के लिए अपेक्षाकृत शिथिलता के किसी दौर का इस्तेमाल करने की कोशिश की, मगर हम किसी उपयुक्त कार्यविधि का विकास नहीं कर पाए. शायद ऐसे मोड़ों पर राज्य-स्तरीय किसान सभा नेतृत्व की पहलकदमी निर्णायक महत्व की चीज साबित हो सकती है. और मांग की विशिष्टता पर आधारित संगठन भी ऐसी स्थितियों से निपटने में मददगार हो सकते हैं.

(घ) हत्याकांडों की जिस बाढ़ का हमने पिछले कुछेक वर्षों में सामना किया है, उसने पार्टी के अंदर व बाहर कई सवाल खड़े कर दिए है. सबसे सहज सूत्रीकरण अराजकतावादियों तथा मीडिया की सबसे सुरक्षित दुनिया में रहनेवाले दक्ष टिप्पणीकारों द्वारा पेश किया गया, जिसके अनुसार जबसे सीपीआई(एमएल) ने हथियारबन्द संघर्ष त्याग दिया है, और संसदीय रास्ता अपना लिया है, तो भूस्वामी अब सत्तर दशक का, यानी 25 वर्ष पहले किए गए सफायों का बदला ले रहे हैं! यह बेहद बेवकूफी भरा, अनिष्टकारी और  परले सिरे का आत्मपरक चिन्तन है.  

मार्क्सवादी होने के नाते हम समझते हैं कि, एक नई किस्म की निजी सेना का उदय और हत्याकांडों की मौजूदा बाढ़, वर्तमान राजनीति की गत्यात्मकता से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई चीज है. अगर कोई गहराई से जांच करे, तो वह आसानी से देख सकता है कि निजी सेनाओं की गतिविधियों की तीव्रता मुख्ततः उन इलाकों में केन्द्रित है, जहां हमने प्रमुख शासक पार्टियों को संसदीय चुनौती दे डाली है. भोजपुर, सन्देश व सहार तथा सीवान, मैरवां व दरौली ऐसे ही क्षेत्र हैं. यहां तक कि एमसीसी द्वारा विष्णुगढ़ में झामुमो(मरांडी) की सरपरस्ती पर और बाराचट्टी की सीमा पर स्थित चतरा में राजद की सरपरस्ती पर की गई हत्याएं हमारी चुनावी संभावनाओं को ही दुर्बल करने के लिहाज से खेली गई धूर्त चालें हैं. चूंकि इन दोनों चुनाव क्षेत्रों में हम क्रमशः झामुमो(मारंडी) और राजद के लिए मजबूत खतरा बन चुके हैं. चतरा हत्याकांड के कुछ ही दिन बाद बाराचट्टी के इलाकों की ओर एमसीसी के अभियान से इस बात की और अधिक पुष्टि हुई है, जिसमें उन्होंने जनता को धमकी देकर माले का साथ छोड़ने के लिए कहा. इसके तुरंत बाद बाराचट्टी में राजद ने अभियान चलाया जिसमें उन्होंने जनता से सीपीआई(एमएल) से निकल आने को कहा. बगोदर पर निशाना केंन्दित करना इसी महायोजना का एक अंग है.

अगर एक ओर  प्रशासकीय मशीनरी के सक्रिय सहयोग से निजी सेनाओं को हत्याकांड रचाने की छूट दी जाती है, तो दूसरी ओर, इसके बाद लालू यादव वहां अपनी राहत की गठरी के साथ जा पहुंचते हैं, और जनता को हथियार न उठाने, पढ़ाई-लिखाई में मन लगाने इत्यादि की अपील करते हैं. इसी तरीके से कसाई और पुरोहित एक-दूसरे के पूरक बनते हैं. अराजकतावादी कानून व्यवस्था के लिए कितनी भी समस्याएँ क्यों न खड़ी करें, वे शासक वर्गों के राजनीतिक वर्चस्व के लिए कोई चुनौती नहीं बनते. अगर सत्तर के दशक में चुनाव के बहिष्कार का आह्वान चरम क्रांतिकारी अग्रगति की अभिव्यक्ति था, तो नब्बे के दशक में वह चरम अवसरवादी विश्वासघात में पतित हो चुका है. इसी तरह परिस्थिति के बदलाव से चीजें द्वन्द्वात्मक रूप से अपने विरोधी तत्वों में बदल जाती हैं. चुनाव बहिष्कार घाघ पूंजीवादी राजनीतिज्ञों के हाथों ऐसे अराजकतावादी ग्रुपों का इस्तेमाल करके अपना उल्लू सीधा करने का आसान जरिया बन चुका है. इसके असंख्य उदाहरण हैं, जहां एमसीसी और पार्टी यूनिटी कार्यकर्ताओं ने बिहार के चुनावों में जनता दल के उम्मीदवारों के लिए सक्रियतापूर्वक वोट जुटाए हैं.

फिर यह भी सम्पूर्णतः झूठा प्रचार है कि हमने सशस्त्र प्रतिरोध की नीति त्याग दी है. वास्तविकता यह है कि पहले के किसी भी वक्त की तुलना में जनसमुदाय का आमतौर से हथियारबन्द हो जाना कई गुना बढ़ गया है. बिहार के सैकड़ों गांवों में दोनों ओर से गोली चलने की नियमित घटनाएं संसदीय राजनीति के इन तमाम वर्षों में बढ़ती ही गई हैं. तमाम जिला कमेटी नेतृत्व सहित राज्य भर में हमारे हजारों कामरेड प्रतिरोध संगठित करने के चलते वारंटेड हैं, और उन्हें लगभग भूमिगत स्थिति में ही काम करना पड़ता है.

संक्षेप में, यह हमारा पीछे हटना नहीं बल्कि यथास्थिति की शक्तियों के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक प्रभुत्व को चुनौती देनेवाली एक प्रमुख शक्ति के बतौर हमारी अग्रगति है, जिसने हमारे खिलाफ इन तीखे आक्रमणों की स्थिति पैदा की है. यह कत्तई नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक पहलकदमियां, लोकप्रिय मुद्दें पर आंदोलन तथा जन-प्रतिरोध विकसित करना सामंती शक्तियों एवं राज्य के सम्मिलित आक्रमण की चुनौती का मुंहतोड़ जवाब देने के प्रमुख तत्व हैं. सवाल इस या उस सेना को किसी भी तरह छिन्न-भिन्न कर देने का नहीं है. बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण बात है जनता की राजनीतिक चेतना का मान ऊंचा उठाना, सामाजिक व राजनीतिक शक्ति-संतुलन में बदलाव लाना और इस प्रक्रिया में जनता की व्यापकतम गोलबन्दी की गारंटी करना. अन्यथा हम एक लड़ाकू जत्था मात्र रह जाएंगे. फिर भी, चूंकि दीर्घकालीन सशस्त्र मुठभेड़ें बिहार में किसान आंदोलन का अविच्छेद्य अंग बन गई हैं, पार्टी को अवश्य ही अपनी सतर्कता बढ़ानी होगी. खासकर, दुश्मन पर निर्णायक हमले करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें सशस्र जत्थेबंदियों को उच्चतर स्तर पर संगठित करना होगा.

(लिबरेशन के सितम्बर-अक्टूबर 1993 अंकों में प्रकाशित)

I

हमारी कृषि क्रांति की तीन बुनियादी प्रस्थापनाएं हैं :

1. यह जनवादी क्रांति का अंग है और इस क्रांति की अंतर्वस्तु है ग्रामीण क्षेत्रों को सामंती अवशेषों से मुक्त करना.

2. सामाजिक-आर्थिक रूप से यह कृषि क्रांति पूंजीवादी-जनवादी क्रांति होगी. यह पूंजीवाद और पूंजीवादी वर्ग विरोधों को कमजोर नहीं करेगी, अपितु उन्हें शक्तिशाली बनाएगी.

3. कम्युनिस्टों को इस क्रांति का सर्वाधिक दृढ़ता के साथ समर्थन और नेतृत्व करना चाहिए, किसी खास प्रतिबद्धता से अपने हाथ बांधे बिना उन्हें अपनी फौरी मांग इस प्रकार सूत्रबदध करनी चाहिए जिससे सामंती अवशेषों को पूरी तरह निर्मूल करने में, अथवा अन्य शब्दों में कहें तो, अधिकतम पूंजीवादी-जनवादी सुधार हासिल करने में, मदद मिले.

कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रम की दिशा के संबंध में लेनिन ने काऊत्सकी के निम्नलिखित उद्धरण के अनुसार आचरण करने की सिफारिश की है :

“कम्युनिस्टों का कार्यक्रम किसी घड़ी विशेष के लिए नहीं लिखा जाता. जहां तक संभव हो, इसमें मौजूदा समाज की तमाम संभावनाओं को समेटा जाना चाहिए. यह केवल हमारी व्यावहारिक कार्यवाही की ही सेवा न करे, अपितु यह प्रचार का भी कार्य करे, ठोस मांगों के रूप में यह निरपेक्ष कार्यक्रमों से अधिक साफ-साफ उस दिशा की ओर जितना ही इंगित करे उतना ही बेहतर, जिस दिशा की ओर हम किसी काल्पनिक अटकलबाजी में उलझे बगैर बढ़ सकें. इससे हम जिस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं वह दिशा जनसमुदाय के सामने – यहां तक कि उनके भी सामने जो हमारे सैद्धांतिक आधार को आत्मसात करने में असमर्थ हैं – पूर्णतया स्पष्ट हो जाएगी. कार्यक्रम को यह दिखलाना चाहिए कि हम मौजूदा समाज से अथवा मौजूदा राज्य से क्या मांगते हैं, यह नहीं कि हम उससे क्या उम्मीद रखते हैं.”

कृषि क्रांति की बुनियादी प्रस्थापनाओं का सवाल एवं कम्युनिस्ट प्रस्थापनाओं का सवाल और कम्युनिस्ट कार्यक्रम की दिशा निर्धारित हो जाने के बाद विकसित देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों तथा विकासशील अथवा अविकसित पूंजीवादी देशों की, जहां कृषि के क्षेत्र में सामंती अवशेष अभी तक अत्यंत शक्तिशाली बने हुए हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों के कृषि कार्यक्रमों के अहम फर्क को समझ लेना अप्रासंगिक नहीं होगा.

आइए, हम एक बार फिर लेनिन को उद्धत करें : “पश्चिम में कृषि कार्यक्रमों का उद्देश्य होता है अर्ध किसानों-अर्ध मजदूरों को पूंजीवाद विरोधी कम्युनिस्ट आंदोलन में खींच लाना, जबकि हमारे देश में ऐसे कार्यक्रमों का उद्देश्य है किसान जनसमुदाय को भूदासतावाली व्यवस्था के अवशेषों के खिलाफ जनवादी आंदोलन में खींच लाना. यही कारण है कि पश्चिम में कृषि पूंजीवाद जितना अधिक विकास करेगा, कृषि कार्यक्रम की अहमियत उतनी ही बढ़ जाएगी. हमारे कृषि कार्यक्रम का व्यावहारिक महत्व, जहां तक इसकी अधिकांश मांगों का संबंध है, कृषि पूंजीवाद का जितना अधिक विकास होगा उतना ही घट जाएगा, क्योंकि यह कार्यक्रम भूदासतावाली व्यवस्था के जिन अवशेषों के खिलाफ निर्देशित है वे खुद ब खुद और सरकारी नीति के नतीजे के तौर पर भी मर रहे हैं.”

यह परिस्थिति कम्युनिस्टों के सामने दो विकल्प पेश करती है जो उन्हें अवसरवादियों और क्रांतिकारियों के दो खेमों में बांट देते हैं.  अवसरवादी हिस्सा स्वतःस्फूर्तता की वकालत करता है और सरकार पर तेज गति से आगे बढ़ने के लिए दबाव डालने के बहाने उसके दुमछल्ले में भी बदल जाता है. कुछ लोग तो कृषि पूंजीवाद की प्रक्रिया को तेज करने के लिए कार्यकर्ताओं को उद्यमी बनने की सलाह देने की हदतक बढ़ जाते हैं. इस प्रकार वे कम्युनिस्ट खेमे को फांदकर स्वयंसेवी संस्थायों की छत्रछाया में और नौकरशाही के साथ सांठगांठ करके समाज सुधार के गैर राजनीतिक तरीके की ओर बढ़ जाते हैं.

दूसरी ओर, क्रांतिकारी हिस्सा राजनीतिक पहलकदमी छीनने के लिए तथा सामंती अवशेषों को तेज गति से और मुकम्मिल ढंग से निर्मूल कर देने के लिए किसान जनसमुदाय को गोलबंद करने हेतु क्रांतिकारी कृषि कार्यक्रम की वकालत करता है.

यहां हमें यह भी अवश्य याद रखना चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में सामंती संबंधों के अवशेष अक्सर पूंजीवादी संबंधों के साथ परस्पर घनिष्ठतापूर्वक गुंथे हुए हैं तथा किसान, यहां तक कि छोटे किसान भी, इस या उस मात्रा तक बाजार प्रणाली के साथ जुड़े हुए हैं जहां खास, सहायता, उगाही इत्यादि के जरिए राज्य बिचौलिए की भूमिका अदा करता है. लिहाजा, राजनीतिक परिवर्तनों के दौर में अक्सर देखा जाता है कि सरकारों  द्वारा  कर्ज माफी जैसी कुछ छूटों की घोषणा करके किसानों के बीच फूट पैदा कर देने और उनकी क्रांतिकारी भावना को कमजोर कर देने में समर्थ हो जाती हैं. अधिकांश मामलों में ये अत्यंत छोटी और उपेक्षणीय रियायतें हैं और सो भी केवल छोटे मालिकों की एक छोटी-सी संख्या के लिए. सरकार किसानों के अनुदारवादी हिस्से के साथ जितना अधिक समझौता करेगी हमारी मांगे उतनी ही ज्यादा रैडिकल होंगी जिससे किसानों के क्रांतिकारी हिस्से को जो थोड़ी-बहुत    रियायतें मिलती हैं उन्हें स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने के लिए जगाया जा सकता है.

किसानों की मुख्य मांगों में सबसे पहला स्थान है जमीन के आम पुनर्वितरण के सवाल का. यह अवश्य याद रखना चाहिए कि किसान समाजवाद की वकालत करनेवाले लोग, जो लोग समाजवादी क्रांति का वाहक मजदूरों को नहीं, किसानों को मानते हैं, इस मांग की व्याख्या समाजवादी कदम के बतौर भी करते हैं. उन्हें आशंका है कि जमीन के आम पुनर्वितरण के चलते लघु कृषक उत्पादन आम रूप ग्रहण कर ले सकता है और यह चिरस्थाई बन जा सकता है. हम किसान समाजवाद की इस प्रतिक्रियावादी काल्पनिक विचारधारा को ठुकराते हैं और यह कहते हैं कि जमीन का आम पुनर्वितरण केवल पूंजीवाद को ही, अर्थात किसानों के वर्ग-विभाजन व वर्ग-विरोधों को ही, बढ़ावा देगा. फिर भी, हम एस मांग का समर्थन करते हैं, क्योंकि इसमें किसान विद्रोह के जरिए सामंतवाद के अवशेषों को झाड़-बुहार देने का क्रांतिकारी तत्व निहित है.

II

सबसे पहले यह बात साफ कर दी जानी चाहिए कि पूंजीवादी जनवादी क्रांति में भूमि के राष्ट्रीयकरण का मूलतः अर्थ है राज्य के हाथों लगान का स्थानांतरण. यह ‘जमीन जोतनेवालों को’ के आम जनवादी नारे का विरोध नहीं करता है. भूमि के आम वितरण और भूमि के राष्ट्रीयकरण, इन दोनों ही मामलों में भूमि जोतनेवालों के हाथों हस्तांतरित कर दी जाती है. सवाल मुख्यतः मालिकाने के रूप से संबंधित है. पहले मामले में मालिकाना किसानों को हस्तांतरित कर दिया जाता है और दूसरे मामले में यह राज्य के हाथों चला आता है. राज्य फिर इस जमीन को एक नियत लगान पर एक निश्चित अवधि के लिए जमीन जोतनेवालों को लीज पर दे देता है. राष्ट्रीयकरण में राज्य और किसानों के बीच तमाम बिचौलियों का खात्मा हो जाता है.

भूमि के राष्ट्रीयकरण को अक्सर कृषि उत्पादन के समाजीकरण के साथ गड्डमड्ड कर दिया जाता है. समाजीकरण में न केवल भूमि बल्कि उत्पादन के अन्य तमाम साधनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है तथा राज्य के बड़े फार्मों में कृषि सामूहिक रूप से संगठित की जाती है. स्पष्ट है कि हम कृषि के पूंजीवादी राष्ट्रीयकरण के बारे में बातें कर रहे हैं जो तमाम सामंती अवशेषों का खात्मा कर देगा, कृषि को सर्वाधिक वैज्ञानिक ढंग से संगठित करने में मदद करेगा और इस प्रकार पूंजीवाद के पूर्णतम विकास को तेज करेगा.

पूंजीवाद पुराने सामंती भू-मालिकाने को अनिवार्यतः पुनर्गठित करता है. बहरहाल, ऐसा यह विभिन्न देशों में विभिन्न तरीकों से करता है.

जर्मनी में भूसंपत्ति के मध्ययुगीन रूपों को सुधारवादी ढंग से नया आकार दिया गया. सामंती इस्टेटों को धीरे-धीरे जुंकर इस्टेटों में रूपांतरित किया गया. इंगलैंड में नया आकार देने का काम क्रांतिकारी हिंसक तरीके से आगे बढ़ा. लेकिन हिंसा जमींदारों के हक में की गई, यह हिंसा किसान जनसमुदायों के खिलाफ की गई – टैक्सों के जरिए उनकी आंत तक दुह ली गई और उन्हें गांव से खदेड़ दिया गया.

अमरीका में दक्षिणी राज्यों के गुलाम फार्मों के संबंध में नया आकार देने का काम हिंसक ढंग से आगे बढ़ा. हिंसा गुलाम-मालिक जमींदारों के खिलाफ की गई उनके इस्टेट तोड़ डाले गए और विशालकाय सामंती इस्टेटों को छोटे पूंजीवादी फार्मों में रूपांतरित कर दिया गया.

लेनिन ने इस विचार का बार-बार खंडन किया है कि राष्ट्रीयकरण पूंजीवादी विकास की ऊंची मंजिल में ही संभव है.

लेनिन का कहना है कि “सैद्धांतिक रूप से राष्ट्रीयकरण कृषि में पूंजीवाद का ‘आदर्श रूप’, विशुद्ध विकास है. परिस्थितियों का ऐसा मेल और विभिन्न शक्तियों के बीच ऐसा रिश्ता, जो पूंजीवादी समाज में राष्ट्रीयकरण की इजाजत दे, इतिहास में कभी उत्पन्न होते भी हैं या नहीं यह दीगर मसला है. लेकिन राष्ट्रीयकरण पूंजीवाद के तेज विकास का न केवल प्रभाव है, बल्कि उसकी शर्त भी. राष्ट्रीयकरण कृषि में पूंजीवाद के विकास की केवल एक अत्यंत ऊंची मंजिल में ही संभव है. ऐसा सोचने का अर्थ है राष्ट्रीयकरण को पूंजीवादी प्रगति का साधन मानने से इनकार करना, क्योंकि कृषि में पूंजीवाद के उच्च विकास ने हर जगह ‘कृषि उत्पादन के समाजीकरण’ अर्थात समाजवादी क्रांति को फौरी कार्य बना दिया है (और अन्य देशों में समय पाकर अनिवार्यतः फौरी कार्य बना देगा). पूंजीवादी कदम के बतौर पूंजीवादी प्रगति की कोई भी मात्रा, जब सर्वहारा और पूंजीवादी वर्ग के बीच वर्ग संघर्ष अत्यंत तीखा हो उस समय, स्वीकार्य नहीं हो सकती है. ऐसा कदम किसी नए पूंजीवादी देश में, जो अभी तक पूरी तरह ताकतवर नहीं बन सका है, जिसके अंतर्विरोधअभी पूर्ण विकसित नहीं हो सके हैं, जिसके अंदर अभी तक ऐसी शक्तिशाली सर्वहारा क्रांति का निर्माण नहीं हुआ है, जो सीधे समाजवादी क्रांति के लिए प्रयत्नशील हो, उठाया जाना ही अधिक संभव है. मार्क्स ने न केवल 1848 में पूंजीवादी क्रांति के युग में जर्मनी के लिए, बल्कि 1846 में अमरीका के लिए भी, जिसने – जैसा कि उन्होंने उस वक्त सौ फीसदी ठीक-ठीक कहा था – अभी-अभी ‘औद्योगिक विकास’ की शुरूआत की थी, राष्ट्रीयकरण की संभावना से सहमति व्यक्त की थी. कभी-कभी तो उन्होंने सीधे इसका प्रस्ताव भी किया था. भूमि के राष्ट्रीयकरण का कोई विशुद्ध उदाहरण किसी पूंजीवादी देश में नहीं मिलता. इससे कुछ-कुछ मिलता-जुलता उदारहण हम न्यूजीलैंड में पाते हैं जो कि एक नया पूंजीवादी जनवाद है और जहां कृषि में अत्यंत विकसित पूंजीवाद कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता. अमरीका में भी उन दिनों ऐसा हुआ था जब सरकार ने वासगीत कानून (होमस्टीड ऐक्ट) पास किया था और छोटे फार्मरों के बीच नाममात्र की लगान पर जमीन के प्लाट वितरित किए थे.” (लेनिन, सामाजिक जनवाद का कृषि कार्यक्रम)

मार्क्स ने यह कहीं नहीं कहा है कि ‘कृषि में पूंजीवाद का कम विकास राष्ट्रीयकरण की राह में रोड़ा होता है, अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत में उन्होंने कहा था कि पूंजीवादी उत्पादन में भूमि का मालिक निरपेक्षतः फिजूल जीव होता है और अगर जमीन राज्य के हाथों में होती है तो पूंजीवादी उत्पादन का उद्देश्य पूरी तरह पूरा होता है.’

यद्यपि क्रांतिकारी पूंजीपति वर्ग सिद्धांत में निजी भूसंपत्ति के खात्मे के निष्कर्ष तक पहुंचता है, लेकिन व्यवहार में वह राष्ट्रीयकरण से, जैसा कि मार्क्स ने बताया है, दो कारणों से डरता है.

पहले तो, क्रांतिकारी पूंजीपति वर्ग को तमाम निजी संपत्ति पर समाजवादी आक्रमण शुरू हो जाने के खतरे के डर से अर्थात् समाजवादी क्रांति के खतरे के डर से निजी भूसंपत्ति पर हमला करने की हिम्मत नहीं होती.

दूसरे, खुद निजी भूसंपत्ति में भी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली संस्थापित हो चुकी है अर्थात् निजी भूसंपत्ति विकसित पूंजीवादी देशों में सामंती संपत्ति से कहीं अधिक पूंजीवादी संपत्ति बन चुकी है. जब पूंजीपति वर्ग एक वर्ग के बतौर “अपने आपकी भूभागीकृत” कर एक कर लेता है, “उस धरती पर बस जाता है,” वहां की भूसंपदा को पूरी तरह अपने अधीन कर लेता है, तब राष्ट्रीयकरण के पक्ष में पूंजीपति वर्ग का सच्चा सामाजिक आंदोलन असंभव बन जाता है. यह असंभव है, क्योंकि, कोई वर्ग खुद अपने खिलाफ नहीं लड़ता है.

बहरहाल, रूस के बारे में बतलाते हुए लेनिन कहते हैं, “इन तमाम पहलुओं से रूसी पूंजीवादी क्रांति के लिए खासतौर पर अनुकूल परिस्थिति मौजूद है. विशुद्ध आर्थिक दृष्टिकोण से हम बेशक यह कबूल करते हैं कि रूस में सामंतवाद के अधिकतम अवशेष मौजूद हैं, जमींदारी इस्टेटों और किसानों को मिली इजाजतों, दोनों के अंदर जमीदारी प्रथा मौजूद है. ऐसी परिस्थितियों में उद्योग में अपेक्षाकृत विकसित पूंजीवाद और ग्रामीण क्षेत्रों के भयानक पिछड़ेपन के बीच का अंतर्विरोधतीखा बन जाता है तथा यह वस्तुगत कारणों से पूंजीवादी क्रांति को अत्यधिक दूरगामी बना देता है और सर्वाधिक तीव्र कृषि विकास की परिस्थितियां उत्पन्न करता है. बेशक, भूमि का राष्ट्रीयकरण हमारी कृषि में सर्वाधिक तीव्र पूंजीवादी विकास की शर्त है. रूस का ‘रैडिकल पूंजीपति वर्ग’ अभी तक अपने को भूभागीकृत नहीं कर सका है और फिलहाल वह किसी सर्वहारा ‘आक्रमण’ से भयभीत नहीं हो सकता है. रूस में क्रांतिकारी पूंजीपति वर्ग रुसी किसान हैं.”(वही)

भारतीय परिस्थितियां क्या रूसी परिदृश्य के इस विवरण जैसी ही नहीं हैं?

(चौथी पार्टी कांग्रेस, 1987 की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से)

मध्य बिहार का किसान आंदोलन सात जिलों में चल रहा है – भोजपुर, रोहतास, पटना, गया, जहानाबाद, औरंगाबाद और नालन्दा. हमारी पार्टी इन आंदोलनों की मुख्य नेतृत्वकारी शक्ति है. किसान आंदोलन का वर्तमान चरण, जिसकी उत्पत्ति 1972 से  1979 के दौरान भोजपुर और पटना में चले वीरतापूर्ण संघर्षों से हुई, तेलंगाना (1946-49) और नक्सलबाड़ी (1967-71) के बाद तीसरा मील का पत्थर है.

किसान संघर्ष का यह चरण 1980 दशक के आरंभ में पटना के ग्रामीण क्षेत्रों में शुरू हुआ और शीघ्र ही नालंदा तथा जहानाबाद में फैल गया. भोजपुर, औरंगाबाद, रोहतास और गया के कुछ हिस्सों में नया जागरण परिलक्षित हुआ. जवाब में सरकार ने व्यापक पुलिस कार्रवाइयां शुरू कीं जिसे कभी-कभी वह आपरेशन टास्क फोर्स की संज्ञा देती है. निजी सेनाओं के नाम से प्रचलित जमींदारों के हथियारबंद गिरोहों की मदद करना; कुछ प्रशासकीय व आर्थिक सुधार कार्य चलाना; विभिन्न राजनीतिक पार्टिर्यों, खासकर सीपीआई व सर्वोदयी ग्रुपों का समर्थन हासिल करना और साथ ही साथ समाचार तंत्र का इस्तेमाल करना -सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने का बहुमुखी प्रयास चलाया है. सरकार की इन कार्यवाहियों और हमारी अपनी कार्यनीतिक गलतियों के चलते हमें कुछ क्षेत्रों में धक्का लगा है तथा कुछ क्षति भी उठानी पड़ी है. इसके अलावा बहुतेरे अन्य कार्यक्षेत्रों में हमें पीछे हटना पड़ा है और नए सिरे से कार्य का संयोजन भी करना पड़ा है. लेकिन समग्र रूप में हमने इन कार्यवाहियों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है और निजी सेनाओं को छिन्न-भिन्न करने, कम से कम क्षति उठाने तथा अपने हाथों में पहलकदमी बरकरार रखने में कामयाबी हासिल की है.
वस्तुतः समूचा संघर्ष इन तीन मुद्दों के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा है :

(i) खेतिहर मजदूरों की मजदूरी में बृद्धि केलिए. इन क्षेत्रों की कुल ग्रामीण आबादी का 30-40 प्रतिशत खेतिहर मजदूर ही हैं. यह देखा जाता है कि भूस्वामियों का एक अच्छा-खासा हिस्सा सामंती परंपरा और साथ ही सस्ते श्रम की सुलभता के कारण खेतों में श्रम नहीं करता है. जाहिर है, खेतिहर मजदूरों के संघर्ष का निशाना काफी विस्तृत हो जाता है और इससे प्रतिक्रियावादी शक्तियों को जाति-आधारित गोलबंदी करने तथा निजी सेनाएं गठित करने का मौका मिल जाता है. संघर्ष के रूपों में हड़ताल सर्वप्रमुख है जो प्रायः हथियारबंद मुठभेड़ों में तब्दील हो जाती है. हमलोग हड़ताल-संघर्ष को साहस के साथ विशाल क्षेत्रों में, अगर संभव हो तो एक जिला के कई अंचलों में फैला देना चाहते हैं. खेतिहर मजदूरों के बीच वर्गचेतना और वर्गएकता विकसित करने के लिए यह एकदम जरूरी है और कम्युनिस्ट पार्टी की हैसियत से इस वर्ग को, गांवों में सबसे आगे बढ़े हुए इस क्रांतिकारी दस्ते को, संगठित करना हमारा प्रधान कर्तव्य है. तथाकथित व्यापक किसान एकता के नाम पर इस संघर्ष से कन्नी कटाने वाली उदारवादी मानसिकता के विपरीत, वास्तविकता यही है कि विस्तृत क्षेत्रों में हड़ताल संघर्ष संगठित करने के जरिए ही भूस्वामियों के प्रतिक्रियावादी गठबंधन को तोड़ा जा सकता है और मध्यम तबके के साथ समझौता को सुगम बनाया जा सकता है.

(ii) जमींदारों, महंतों और धनी किसानों के कब्जे में पड़ी अतिरिक्त गैरमजरुआ और रिहाइशी जमीन दखल करने तथा भूमिहीन-गरीब किसानों के बीच उसका वितरण करने के लिए संघर्ष. इस संघर्ष में गिने-चुने लोगों को ही निशाना बनाया जाता है. आमतौर पर गैरमजरुआ जमीन रखने वाले मध्यम तबकों को छोड़ दिया जाता है तथा धनी किसानों के मामले में समझाने-बुझाने और उनपर दबाव डालने का तरीका अपनाया जाता है. जमीन-वितरण के दौरान व्यापक लोगों को शामिल करने तथा उन्हें एकताबद्ध करने के प्रयास किए जाते हैं. जमीन, फसल, तालाब आदि दखल करने तथा नहर व नदियों में मछली मारने का अधिकार हासिल करने का संघर्ष प्रायः हथियारबंद मुठभेड़ों में तब्दील हो जाता है.

जमीन दखल करना और उसका वितरण करना, पट्टे का अधिकार प्राप्त करना, उत्पादन संगठित करना और अंततः जनता के बीच कुछ धूर्त तत्वों द्वारा सारी उपलब्धियां हड़प जाने की घटनाओं की रोकथाम करना – इस समूची प्रक्रिया में आमतौर पर संघर्ष कहीं-न-कहीं अवरुद्ध हो जाता है. अतः सफलताओं की तुलना में शायद विफलताएं ही ज्यादा हाथ लगी हैं. हाल में इसके लिए उपयुक्त नीति-निर्देश सूत्रबद्ध किए गए हैं और उन्हें कड़ाई से लागू किया जा रहा है, फलतः स्थिति में कुछ सुधार के आसार नजर आ रहे हैं.

(iii) दलितों और पिछड़ी जातियों की सामाजिक मर्यादा के लिए संघर्ष. चूंकि यह संघर्ष सामंती प्राधिकार की जड़ पर चोट करता है, इसीलिए प्रायः यह काफी तीखा हो उठता है और बाबू साहबों, बाभनों तथा बाबाजियों का पूरा समुदाय इसका निशाना बन जाता है. दूसरी ओर पिछड़ी जातियों में लगभग तमाम वर्गों के लोग इन संघर्ष के पक्ष में चले आते हैं. हालांकि दोनों पक्षों में कुछ-न-कुछ अपवाद हमेशा मौजूद रहते हैं. प्रायः सभी गांवों में ऊंची जातियों के प्रगतिशील लोगों का एक छोटा हिस्सा इस संघर्ष का साथ देता है और पिछड़ी जातियों के कुछ हिस्से ऊंची जातियों के प्रतिक्रियावादी लोगों से जा मिलते हैं. इतने वर्षों से चलने वाले इस संघर्ष के प्रभाव से अनेक क्षेत्रों में ऊंची जातियों के कुछ हिस्से अपना परंपरागत रवैया बदलने लगे हैं.

जनता के बीच वर्गीय ध्रुवीकरण को ज्यादा-से-ज्यादा अंजाम देने और व्यापक ग्रामीण जनसमुदाय को एकताबद्ध करने के लिए हमलोग बहुतेरे अन्य संबंधित मुद्दे भी उठा रहे हैं, जैसे – पट्टेदारों का नाम पंजीकृत करवाना, अंचल अधिकारियों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों को गोलबंद करना आदि. भ्रष्टाचार का सवाल भूमि-विकास से जुड़ा हुआ है क्योंकि ये अधिकारी स्थानीय प्रतिक्रियावादी तत्वों के साथ सांठगांठ करके लगभग सारी सुविधाएं हड़प जाते हैं. इसके अलावा, व्यापक लोगों को एकताबद्ध करने के लिए डकैतों के खिलाफ कार्रवाइयां, कुछ ग्राम विकास कार्यक्रम, राहत कार्य इत्यादि मुद्दे भी उठाए जाते हैं.

हमारी मान्यता है कि इन तमाम मुद्दें पर संघर्षों व कार्यवाहियों का एकीकृत कार्यक्रम लागू करने पर ही खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों के नेतृत्व में व्यापक किसान एकता की गारंटी की जा सकती है.

तमाम किस्म के अवसरवादी प्रायः हम पर यह आरोप लगाते हैं कि हम खेतिहर मजदूरों को किसानों के खिलाफ खड़ा करके व्यापक किसान एकता की राह में रोड़ा अटका रहे हैं. खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों के हितों को तिलांजलि देकर और उन्हें जनसंघर्षों में शामिल करने से कतराकर उनकी वर्गचेतना और वर्गएकता कदापि विकसित नहीं की जा सकती, और न किसान आंदोलनों में उनका नेतृत्व ही स्थापित किया जा सकता है. इसीलिए उनकी तथाकथित किसान एकता का सीधा मतलब है धनी किसानों के नेतृत्व में एकता. बीच का कोई रास्ता नहीं है.

हम अभी तक यह दावा नहीं कर सकते कि वर्ग और जाति का संतुलन हमारे पक्ष में आ गया है. लेकिन धीरे-धीरे हम एक नए आधार पर उनकी एकता बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. कुछ क्षेत्रों में मध्यम किसानों और ऊंची जातियों के मध्यम तबकों को भी किसान सभा के झंडे तले गोलबंद किया जा रहा है.

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि इन क्षेत्रों में पार्टी सुदृढ़ीकरण अभियान को काफी गंभीरतापूर्वक और कारगर ढंग से चलाया गया था. खासकर आंदोलन के उभार की स्थिति में पार्टी निर्माण के कार्यभार की उपेक्षा करना एक ऐसी कमजोरी है जो हमारी पार्टी के इतिहास में आमतौर पर मौजूद रही है. और यही कमजोरी अनेक क्षेत्रों में दीर्घकालिक धक्कों का मुख्य कारण भी बनी है. आंदोलन के दौर में उभरने वाली नकारात्मक प्रवृत्तियों पर काबू पाने, सही नीतियां सूत्रबद्ध करने और उनके क्रियान्वयन की गांरटी करने, आंदोलन के दौरान उभरने वाले सैकड़ों सक्रियकर्मियों को पार्टी की स्थायी संपदा में रूपांतरित करने और साथ ही संघर्षों को जारी रखने तथा हमेशा इसे नए स्तर में ले जाने के लिए पार्टी को शक्तिशाली बनाना अनिवार्य है.

अब, एक विचार-प्रवृत्ति ऐसी भी है जो सचेतन प्रयास की भूमिका को कोई महत्व नहीं देती; इस प्रवृत्ति के अनुसार सचेत प्रयास से लोगों की स्वतंत्र पहलकदमी का विकास बाधित होता है. लेकिन वस्तुतः सचेतन प्रयास की अधिकता से नहीं बल्कि इसके अभाव में ही संघर्ष दिशाहीन हो जाता है, संकीर्ण किसान मानसिकता मजबूत होती है, योद्धागण पतित होकर ङकैत बन जाते हैं, संघर्ष व्यर्थ की मुठभेड़ों में उलझ कर रह जाता है और अंततः जनता की स्वतंत्र पहलकदमी अवरुद्ध हो जाती है. औरंगाबाद के कुछ हिस्सों में एमसीसी का घिसाव-थकाव के जाति-युद्ध में लिप्त होना और जहानाबाद के कुछ क्षेत्रों में सीओसी(पीयू) की कार्यवाहियां इसी तथ्य की पुष्टि करती हैं. पटना, नालंदा और जहानाबाद के कुछ इलाकों में हमें भी इसी किस्म के कुछ अनुभव हासिल हुए हैं. सौभाग्य से, हमारे पार्टी संगठन ने इन नकारात्मक प्रवृत्तियों पर मुख्यतः काबू पा लिया है तथा अब पार्टी कार्य ज्यादा वैज्ञानिक ढंग से संगठित किया जा रहा है. और इस मामले में वस्तुतः पार्टी सुदृढ़ीकरण अभियान के चलते ही गतिरोध भंग करना संभव हो सका है.

पिछले कुछ वर्षों में हमारे व्यवहार के दौरान आंदोलन में अनेक नए पहलू सामने आए हैं जिन्हें पूरे अंचल में मिसाल के बतौर फैलाने की प्रक्रिया चल रही है. हम अपने समूचे काम को नए सिरे से संगठित कर रहे हैं. आइए, इस अध्याय में हम इन परिवर्तनों और नए विकासों पर संक्षेप में बहस करें.

ग्राम कमेटी गठन के बारे में

हमलोगों ने देखा कि भोजपुर के एक गांव में वहां के स्थानीय कामरेड ग्राम कमेटी के गठन का जो तरीका अपनाने जा रहे थे वह किसान सभा द्वारा अबतक अमल में लाये गए तरीके से भिन्न था. वह गांव स्थानीय संघर्ष का केंद्र था और ग्राम कमेटी के गठन के दौरान एक नई गतिशील धारणा लागू की गई. उनलोगों ने ग्राम कमेटी के गठन को जनसमूदाय के त्योहार में तब्दील करने का संकल्प लिया और कदम-ब-कदम लोगों को जनवादी ढंग से अपनी कमेटी निर्वाचित करने के लिए गोलबंद किया. हमलोगों ने अपने पिछले अनुभवों में भी देखा है कि आंदोलन में उभार के वक्त जनता अपनी तमाम कार्रवाइयों के केंद्र स्वरूप अपनी ग्राम कमेटी का गठन करती लेती है. इसके विपरीत, किसान सभा अपनी सबसे निचली इकाई के रूप में ग्राम कमेटी के गठन का जो तरीका अपनाती है वह बिलकुल घिसा-पिटा और एकदम औपचारिक तरीका है. अनेक मामलों में, यह ग्राम कमेटी वर्ग संघर्ष और किसान सभा से अलग-थलग होकर महज ग्रामीण विकास संस्था बनकर रह गई. भोजपुर के प्रयोग से शिक्षा लेकर पार्टी ने ग्राम कमेटी की धारणा को उन्नत किया. ग्रासरूट स्तर पर जनता की पहलकदमी उन्मुक्त करने की कुंजी के बतौर, उसकी जनवादी चेतना के स्तर को उन्नत करने और उसकी आत्मगत चेतना में क्रांतिकार जनवाद की धारणा समाविष्ट करने के जीवंत साधन के बतौर ग्राम कमेटी के निर्माण पर जोर दिया जा रहा है. किसानों के जुझारू आंदोलन या उनकी आम राजनीतिक गोलबंदी से व्यापक जनसमुदाय की चेतना के क्रांतिकारीकरण की समस्या हल नहीं होती है, और चेतना का क्रांतिकारीकरण किए बगैर उनके लिए औपचारिक जनवाद की पूंजीवादी संस्थाओं की असारता को समझ पाना संभव नहीं. वर्ग संघर्ष विकसित करने और हर मामले में जनवादी तौर-तरीकों पर अमल करने के आधार पर बनी ग्राम कमेटी ठोस अर्थों में हमारे जनवाद और पूंजीवादी जनवाद के बीच फर्क को जनसमुदाय के बीच उजागर कर देती है. कम्युनिस्ट पार्टी के सचेत निर्देशन में ये कमेटियां भविष्य में क्रांतिकारी कमेटियों में तब्दील की जा सकती हैं. इन कमेटियों के गठन की शर्तों को और कठोर बनाया जा रहा है ताकि उन्हें औपचारिकतावाद के चंगुल में फंसकर पतित होने से बचाया जा सके. भूमिगत पार्टी कार्यकर्ताओं को निर्देश दिए जा रहे हैं कि वे इन कामों की जिम्मेवारी खुद अपने हाथों में लें. आंदोलनों में जनता की सक्रिय और सचेत भागीदारी सुनिश्चित करना हमारा लक्ष्य है और ग्राम कमेटियां इस लक्ष्य की प्राप्ति का माध्यम हैं.

पॉकेट निर्माण

अपने पार्टी-संगठकों की घुमंतू कार्यशैली खत्म करने और ग्रासरूट स्तर पर पार्टी ढांचे को सुदृढ़ करने के लिए हमलोगों ने पॉकेट निर्माण की धारणा प्रस्तुत की है. प्रत्येक संगठक के लिए संबंधित पार्टी कमेटी द्वारा 10-15 गांवों के एक पॉकेट की जिम्मेवारी तय कर दी जाती है और उन्हें उस पॉकेट में एक पार्टी यूनिट और उससे जुड़े संगठनों का एक समूचा नेटवर्क तैयार करने का निर्देश दिया जाता है ताकि श्वेत आतंक की घड़ियों में भी वे अपने पॉकेट में टिके रह सकें, वहां जनसमुदाय के बीच अपना संपर्क बरकरार रख सकें और उन्हें प्रतिवादस्वरूप की जाने वाली कार्यवाहियों में संगठित कर सकें. वे अपना पॉकेट तभी छोड़ सकते हैं जब खुद पार्टी कमेटी उन्हें ऐसा निर्देश दे. इस धारणा की वजह से संगठकों के काम को ज्यादा गंभीरतापूर्वक ग्रहण किया गया है. पहले पार्टी संगठन की मुख्य कार्यवाही से दूर, परिधि पर रहने वाले कामरेड अब संगठकों के बतौर पार्टी कार्यों में बेहतर भागीदारी निभा रहे हैं. इस धारणा से उन्हें अपने कामों की योजना बनाने तथा बेहतर ढंग से उसे संगठित करने में मदद मिली है. ऐसे पॉकेटों के कामकाज का नियमित रूप से मूल्यांकन किया जा रहा है और उसी आधार पर उनका वर्गीकरण किया जा रहा है. ऐसे पॉकेटों की तादाद और गंभीर व सफल प्रयास करने वाले संगठको की तादाद बढ़ती जा रही है और इसी बीच कुछेक पॉकेटों में संगठकों ने मजबूत पार्टी यूनिट का निर्माण भी कर लिया है.

किसान सभा का पुनर्गठन

ब्लॉक स्तरों पर किसान सभा को संगंठित करने पर जोर दिया जा रहा है. इसके लिए पहले अपने काम को 30-40 गांवों की एक बेल्ट में केंद्रित किया जाता है, और तब धीरे-धीरे ब्लॉक के शेष भागों में भी फैलाया जाता है. चूंकि किसान सभा की स्थानीय इकाइयों को ही कठोरतम दमन का सामना करना पड़ता है, इसलिए स्थानीय नेतृत्व की संरचना में कुछ परिवर्तन करना जरूरी समझा गया. दुश्मन के सामने सभी नेताओं को खुला कर देना कोई विवेकपूर्ण नीति नहीं है. अतः इन नेताओं को अर्ध-भूमिगत ढंग से काम करने का तरीका सीख लेना चाहिए. दूसरी ओर, उन्हें यह भी निर्देश दिया गया है कि वे व्यापक रूप से सदस्यता अभियान चलाएं, अपने सम्मेलनों के दौरान भारी तादाद में जनसमुदाय को गोलबंद करें तथा ब्लॉक आफिस के कामों में ज्यादा-से-ज्यादा हस्तक्षेप करें, ताकि प्रशासन द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न सुधार-कार्यों का असली चरित्र बेनकाब किया जा सके.

किसान सभा ने कुछेक क्षेत्रों में बटाईदारों और मध्यम किसानों के सम्मेलन भी आयोजित किए हैं. कुछ जगहों पर उनलोगों ने विभिन्न गांवों के आम किसान प्रतिनिधियों के साथ बैठक आयोजित की है ताकि उनकी मांगों के एक प्रत्यक्ष जानकारी हासिल हो सके. आजकल अनेक जगहों में वे सैकड़ों-हजारों किसानों को लेकर ब्लॉक कार्यालय पर हल्ला बोल देते हैं, सरकारी अधिकारियों से जवाब-तलब करते हैं, उन्हें बाध्य करते हैं कि वे अपने राहत व सुधार शिविर गरीबों के टोलों में कायम करें और उनके सम्मुख जनसमुदाय की मांगें पेश करते हैं. उनका नारा है : ‘जो कुछ हो, किसान सभा के जरिए हो.’ यह तरीका अपनाने के कारण मुट्ठीभर राहत बांटकर संगठन को तोड़ देने की सरकारी साजिश को नाकामयाब करने में मदद मिली है.

ग्राम रक्षा दल संगठित करना

पिछले समय की तुलना में अब इस पहलू पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. भालों से लैस ये नौजवान दुश्मन के दिल में कंपकंपी पैदा कर देते हैं. प्रतिरोध संघर्षों में किसान नेताओं की सुरक्षा करने में ये रक्षादल ही मुख्य भूमिका निभाते हैं. ये ग्राम रक्षादल ग्राम कमेटियों के नियंत्रण में काम करते हैं.

स्थानीय स्तर पर संगठन के इन रूपों को पार्टी सुदृढ़ीकरण अभियान शुरू होने के बाद से बेहतर समझदारी के साथ और उन पर पहले से ज्यादा जोर देते हुए संगठित किया जा रहा है. भोजपुर में चरपोखरी, नालन्दा में इस्लामपुर और औरंगाबाद में दाऊदनगर – इन तीन इलाकों में उपरोक्त तमाम पहलुओं से कार्य को अच्छी हद तक संयोजित किया गया है. बहुत से पुराने इलाकों में भी इनमें से कुछेक पहलुओं पर अमल किया गया है तथा रोहतास और गया में अनेक स्थानों पर नये काम-काज के पॉकेट तैयार हुए हैं. नालंदा और औरंगाबाद में, जहां लंबे समय से पार्टी ढांचा कमजोर बना हुआ था, अब जिला पार्टी कमेटी और समूचा पार्टी ढांचा पहले से बेहतर ढंग से संगठित है.

जनता की हथियारबंद शक्तियाँ

बहुत कम कामरेड यह जानते होंगे कि 1975 के अंत तक हमारे पास सिर्फ एक हथियारबंद यूनिट बची थी – भोजपुर में सहार की यूनिट. तिसपर, इस अकेली यूनिट में घुमंतू प्रवृत्ति भी घर कर गई थी और राजनीतिक सलाहकार के लिए भी इसे नियंत्रित रख पाना मुश्किल हो गया था. बाध्य होकर 1976 के अंत में यूनिट-सदस्यों को व्यक्तिगत संगठकों के रूप में बिखेर देना पड़ा. इसी समय काम के एक नए इलाके में कामरेड जिउत को केंद्र करके एक दूसरी सशस्त्र यूनिट बनने की प्रक्रिया चल ही रही थी. पटना में भी सिर्फ एक यूनिट बच रही थी और वह भी विघटन के कगार पर खड़ी थी. अधिकांश नेता और कार्यकर्ता शहीद हो गए थे या गिरफ्तार कर लिया गए थे. काम के समूचे इलाके में श्वेत आतंक व्याप्त था और जनता बिलकुल खामोश थी. लेकिन शेष पार्टी-संगठक उन कठिन स्थितियों में भी काम जारी रखे हुए थे और उनलोगों ने संघर्ष की ज्वाला कभी बुझने नहीं दी. 1978 में शुद्धीकरण आंदोलन के बिना और 1979 के विशेष सम्मेलन में राजनीतिक लाइन में भारी परिवर्तन किए बिना आज कोई किसान संघर्ष या सशस्त्र संघर्ष देखने को नहीं मिलता. 1977 के बाद से एक नए उत्साह के साथ सशस्त्र कार्यवाहियां शुरू हुई और सशस्त्र यूनिटों व आग्नेयास्त्रों एवं उनकी गतिविधि के दायरे के लिहाज से आज हम लोग अपनी पुरानी वाली स्थिति से काफी आगे हैं. आज की ग्राम कमेटियां उन दिनों की क्रांतिकारी कमेटियों की तुलना में ज्यादा प्राधिकार का उपभोग करती हैं और आज की लाल पट्टियां उन दिनों के लाल इलाकों की अपेक्षा ज्यादा सुर्ख हैं. वास्तविक जीवन में हमारी यह अग्रगति धारणाओं के क्षेत्र में पीछे हटने से संभव हो सकी जबकि उस समय धारणाओं के क्षेत्र में अग्रगति वास्तविक जीवन में हमें पीछे हटने को मजबूर कर रही थी.

अभी भी हमलोग बिहार में क्रांतिकारी किसान संघर्ष की अवस्था को प्राथमिक अवस्था ही कहना पसंद करेंगे. इसका मतलब यह है कि वर्ग शक्तियों के संतुलन को बदलने के लिए हमें अभी लंबी दूरी तय करनी है. हमें अपनी शक्तियों को सुरक्षित रखना है, और ज्यादा ताकत इकट्ठी करनी है तथा कदम-ब-कदम संघर्ष को फैलाते हुए उसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाना है.

हमारी सशस्त्र शक्तियों की स्थिति इसी सच्चाई से निर्देशित होती है. हमलोगों ने कई वर्षों तक अधिक-से-अधिक संख्या में नियमित सशस्त्र यूनिटें बनाने की जी-तोड़ कोशिशें की थीं. हमारे अनुभव बताते हैं कि यद्यपि बहुतेरे योद्धा इन यूनिटों में आकर भर्ती हुए लेकिन अंततः उनमें से चंद योद्धा ही टिक सके और ये ऐसे योद्धा थे जिन्हें बुनियादी रूप से पार्टी कार्यकर्ताओं के स्तर तक विकसित करना संभव हो सका था. हमारे तमाम प्रयासों के बावजूद नियमित व स्थायी सशस्त्र यूनिटों का विकास काफी धीमी गति से चलता रहा.

ऐसी स्थिति के चलते हमलोगों ने स्थानीय दस्तों के निर्माण पर जोर देने का फैसला लिया. नई परिस्थितियों में इन दस्तों के कार्यभारों को ठोस रूप से निर्धारित न कर पाने के चलते इस दिशा में अभी तक अधिक प्रगति नहीं की जा सकी है. शुरू में हमलोगों ने सफाया के उद्देश्य से और सफाया करने के जरिए दस्ता निर्माण के पुराने व्यवहार को हतोत्साहित किया. इसके बाद हमने सशस्त्र प्रचार दस्ते की धारणा को मजबूती से पकड़ा और ऐसे स्थानीय सशस्त्र दस्तों को नियमित सशस्त्र यूनिटों और ग्राम रक्षा दलों के बीच की कड़ी के रूप में परिभाषित किया गया. 15-20 गांवों को लेकर ऐसे क्षेत्र बनाए गए जहां ये दस्ते हर महीना एक निश्चित अवधि के लिए सशस्त्र प्रचार दस्तों के बतौर मार्च करेंगे. वैसे तमाम योद्धाओं को, जो नियमित सशस्त्र यूनिटों में नहीं टिक पाए थे, इन दस्तों में गोलबंद कर लिया गया. नियमित यूनिटें उनके साथ संपर्क बनाए रखती हैं और आवश्यकता होने पर उन्हें सशस्त्र कार्यवाहियों में गोलबंद करती हैं. ये दस्ते अपनी पहलकदमी से स्थानीय प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ कार्यवाही करते हैं और उनके आग्नेयास्त्र जब्त करते हैं. वे गांव के आम नौजवानों को ग्राम रक्षा दलों में संगठित भी करते हैं.

सशस्त्र संघर्ष के वर्तमान चरण में हम महसूस करते हैं कि इन सशस्त्र प्रचार दस्तों पर ही सर्वाधिक जोर दिया जाना जाहिए. वे नियमित सशस्त्र यूनिटों के लिए आवश्यक अधिसरंचना मुहैया करते हैं और भविष्य में इन्हीं दस्तों से चुनिन्दा योद्धाओं को शामिल कर बड़ी तादाद में नियमित सशस्त्र यूनिटों का विकास किया जा सकता है.

पिछले कुछ वर्षों में हमारी नियमित सशस्त्र यूनिटों को कैथी (औरंगाबाद), कुनई (भोजपुर) और गंगाबीघा (नालंदा) में कुछ गंभीर क्षति उठानी पड़ी है. इन तमाम घटनाओं के विश्लेषण से यह जाहिर होता है कि संबंधित गांव में रहने वाले दलाल ने ही जमींदारों के पास सूचनाएं भेजी थीं और इसी माध्यम से खबर पुलिस तक पहुंच सकी. हमलोग इन दलालों की गतिविधियों से नावाकिफ रहे और हमारी सशस्त्र यूनिटों की सुरक्षा की धारणा केवल भूस्वामियों व पहले से चिह्नित दलालों से सावधान रहने और रातभर पहरा देने के के इर्द-गिर्द घूमती रही.

इन घटनाओं के बाद, तमाम संबंधित दलालों को मौत की सजा दी गई. ये सजाएं अपने आप में मिसाल तो हो सकती हैं लेकिन महज इतने से ही दुश्मन का समूचा खुफिया तंत्र खतम नहीं हो जाता, यह संभव भी नहीं है. वर्ग संघर्ष बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और हमारा दुश्मन हमारे अपने गांवों से ही दलाल चुनने में सक्षम है. हमारी तीखी जवाबी कार्यवाहियों के समय दुश्मन प्रायः अपना जाल बुनने लगता है.

आत्मरक्षा के बारे में हमारी धारणा बेहद सरलीकृत थी, जो किसी भी आधुनिक युद्ध में काम नहीं आती. अब हम अपनी निजी खुफिया मशीनरी के निर्माण पर जोर दे रहे हैं. अपने शत्रु शिविर के अंदर ही सूचनाओं का स्रोत तैयार करना होगा और विशेष रूप से खुफियागिरी के काम के लिए प्रशिक्षितकर्मियों को भर्ती करना होगा. एक परिपूर्ण सैन्य-फॉरमेशन के लिए, यहां तक कि वर्तमान स्तर में भी, नियमित सशस्त्र यूनिट और स्थानीय सशस्त्र दस्तों की एक एकीकृत व्यवस्था के अवाला हमारे पास एक निजी खुफिया मशीनरी, आग्नेयास्त्रों का निर्माण करने और इन्हें जमा करने के स्रोत, मेडिकल विभाग और टोह लेने (स्काउट) की व्यवस्था रहना जरूरी है. केवल इस किस्म की परिपूर्ण व्यवस्था ही सशस्त्र यूनिटों को आवागमन में आवश्यक स्वतंत्रता मुहैया कर सकती है. हम यह आवश्यक समझते हैं कि इन क्षेत्रों में पार्टी की जिला कमेटियों को इस व्यवस्था के निर्माण के लिए जिला स्तर पर एक सक्षम कामरेड की नियुक्ति करनी चाहिए. सशस्त्र यूनिट और सशस्त्र कार्यवाहियां कोई हंसी-खेल नहीं हैं और उनके प्रति लापरवाही का रवैया कत्तई नहीं अपनाना चाहिए.

वर्तमान स्तर में नियमित सशस्त्र यूनिटों को शक्तिशाली सशस्त्र सामंती गिरोहों के खिलाफ निर्णायक सशस्त्र कार्यवाहियां चलानी चाहिए. उन्हें पुलिस-अत्याचारों से जनता की रक्षा भी करनी चाहिए और दोषी पुलिस अधिकारियों को उपयुक्त सजा भी देनी चाहिए.

यहां मैं आपको कामरेड केशो की मिसाल याद दिलाना चाहूंगा. जो हमारी तीसरी पार्टी कांग्रेस के लिए प्रतिनिधि चुने गए थे. वे भोजपुर के एक भूमिहीन किसान परिवार से आए थे और उन्होंने सशस्त्र यूनिटों के लिए प्रशिक्षण संस्थान से पार्टी कार्यकर्ता के बतौर प्रशिक्षण प्राप्त किया था. उन्हें रोहतास जिले के दक्षिणी भाग का पार्टी प्रभारी नियुक्त किया गया था. उन्हें यह विशिष्ट कार्य सौंपा गया था कि वे कैमूर पहाड़ी अंचल में कार्यकलाप चला रहे बागी गिरोह के अंदर काम करें. उन्होंने पूरी संजीदगी के साथ काम करना शुरू किया और बागियों के बीच रहने लगे. वहां उन्होंने बागियों को पार्टी की राजनीति से शिक्षित करने तथा उनकी जनविरोधी कार्यवाहियों व शरावखोरी की आदत के खिलाफ संघर्ष करने की पूरी कोशिश चलाई. वे राजा मोहन बिन्द और कुछेक अन्य बागियों को एक हद तक सुधारने में कामयाब हुए थे. वे जान का खतरा झेलते हुए बागियों के बीच काम कर रहे थे क्योंकि कई बागी उनकी उपस्थिति से हमेशा नाखुश थे. केशो ने वहां की जनता के साथ स्वतंत्र रूप से संपर्क भी विकसित कर लिए थे. मोहन बिंद के मारे जाने के बाद ‘दादा’, जो बागियों की जनविरोधी गतिविधियों के खिलाफ प्रतिवाद करने की वजह से कामरेड केशो से बेहद नाखुश रहता था, गिरोह का नेता बन गया और उसने कामरेड केशो तथा बागियों में से केशो के दो समर्थकों की हत्या करवा दी, जब ये साथी अप्रस्तुत स्थिति में थे. इस प्रकार कामरेड केशो ने पार्टी द्वारा दी गई विशेष जिम्मेवारी को पूरा करने में अपना जीवन न्योछावर कर दिया.

इसके बाद कामरेड जिउत को, जो एक ख्याति प्राप्त कमांडर थे, एक शक्तिशाली सशस्त्र ग्रुप के साथ पहाड़ी अंचल की ओर अभियान करने तथा कामरेड केशो की हत्या का बदला लेने का निर्देश दिया गया. प्रस्थान करने की पूर्ववेला में कामरेड जिउत व कामरेड शहतू एक पुलिस आक्रमण में मारे गए. कामरेड जिउत व शहतू की शहादत के बाद हमारी सशस्त्र यूनिटों ने इस क्षेत्र में सशस्त्र कार्यवाहियों का एक अभियान चलाया जिसमें 16 राइफलें छीनी गई. इन दोनों शहीद कामरेडों की स्मृति में स्मारक बनाने के लिए 5000 से अधिक जनता कुनई गांव में एकट्ठा हुई और उन्होंने भारी तादाद में जमा हुए पुलिस बल से समूचे दिन जमकर संघर्ष किया. पुलिस द्वारा गोली चलाने के दौरान तीन ग्रामीणों ने अपनी जान कुर्बान की.

हमारे व्यवहार की विविधताओं और प्रयोगों की मिसाल देने तथा भूमिहीन किसान योद्धाओं की राजनीतिक संगठनकों के बतौर क्या भूमिका है और जनसमुदाय के साथ उनका कितना घनिष्ठ संबंध है, यह दर्शाने के लिए मैंने इन घटनाओं की चर्चा की है.

निष्कर्ष के तौर पर मुझे यही कहना है की : हमारे इतिहास में यह पहली मिसाल है कि भारतीय कम्युनिस्ट इतने बड़े लंबे अरसे तक किसान संघर्ष को जारी रखने में और लगातार उसका कार्यक्षेत्र बढ़ाने जाने में कामयाब हुए हैं.

इतिहास में यह पहली मिसाल है कि भारतीय कम्युनिस्टों ने संघर्ष के तमाम रूपों – कानूनी व गैरकानूनी, संसदीय व गैरसंसदीय, सशस्त्र कार्यवाहियां व जन संघर्ष – का इस्तेमाल किया है और एक पहलू अपनाने के लिए दूसरे पहलू का त्याग किए बगैर दोनों पहलुओं के बीच तालमेल कायम करने का गंभीर प्रयास चलाया है.

इतिहास में यह मिसाल है कि भारतीय कम्युनिस्टों ने जाति संघर्ष और वर्ग संघर्ष – दोनों समस्यायों को हल करने की कोशिश की है, जातीय उत्पीड़न पर करारा आघात किया है और दलितों को सर ऊंचा करने योग्य बनाने के साथ-साथ खेत मजदूरों, गरीब व मध्यम किसानों को अपनी वर्गीय मांगों पर एकताबद्ध किया है.

इतिहास में पहली मिसाल है कि ग्रामीण गरीबों के बीच से अनगिनत नेता व कार्यकर्ता उभरे हैं और वे ही पार्टी की मुख्य रीढ़-शक्ति हैं. वे ही तमाम मोर्चों पर कार्य को संगठित करते हैं तथा संघर्षों का नेतृत्व करते हैं और राष्ट्रीय महत्व के प्रत्यक्ष राजनीतिक संघर्षों में ग्रामीण गरीबों की व्यापक बहुसंख्या को गोलबंद किया गया है.

और अंततः इतिहास में यह पहली मिसाल है कि भारतीय कम्युनिस्ट शासक वर्गों की तमाम चालबाजियों के बावजूद, विलोपबादियों और अर्धअराजकतावादियों की तमाम तोड़फोड़ की कार्यवाहियों के बावजूद, धक्कों और नुकसानों से उत्पन्न तमाम दबावों व तनावों के बावजूद संघर्ष का मार्गदर्शन करने वाले पार्टी संगठन की एकता की रक्षा करने में कामयाब रहे हैं. हमने अपनी लाइन व नीतियों में भारी किस्म के परिवर्तन किए हैं. हमारे अपने बीच गंभीर मतभेद व वाद-विवाद चलते रहते हैं, मगर हमने हमेशा एक अविचलित अनुशासनबद्ध तरीके से एकताबद्ध शक्ति के बतौर कार्य किया है.

(मई 13, 1986)

यदि एक विराट क्रांतिकारी संभावना के बिखर जाने के फलस्वरूप भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में सामाजिक जनवाद को फलने-फूलने का मौका मिल गया, तो इसमें भी संदेह नहीं कि सामाजिक जनवादियों को इस विजय की भारी कीमत चुकानी पड़ी. वे अंतर्वस्तु में महज एक आंचलिक शक्ति बनकर रह गए और हिंदी हृदयस्थल पर कभी अपनी छाप नहीं अंकित कर पाए. अब पडोंसी राज्य बंगाल में लगातार नौ वर्षों तक सामाजिक जनवाद के परिपूर्ण विकसित मॉडल का कर्ताधर्ता बने रहकर भी यदि सीपीआई(एम) बिहार में एक कदम नहीं बढ़ पाई, तो इससे भला और क्या नतीजा निकाला जाए?

पर नम्बूदरीपाद एण्ड कं. की दलील जरा सुनिए : “भारत में बिहार सबसे पिछड़ा हुआ राज्य है, जो जातिवाद के कट्टर ध्रुवीकरण में जकड़ा हुआ है. फिर यहां पूंजीवादी सुधारों का कोई उल्लेखनीय इतिहास नहीं रहा.” हां, सचमुच ये तथ्य उतने ही निर्विवाद हैं, जितना निर्विवाद यह नियम कि जिस पड़ाव पर सामाजिक जनवाद अपनी यात्रा पूरी करता है, वहीं से क्रांतिकारी जनवाद अपनी यात्रा शुरू करता है. यही बिहार जैसा पिछड़ा राज्य आज क्रांतिकारी जनवाद की अग्रवर्ती चौकी साबित हुआ है. समाज के सबसे निचले स्तर के लोग आज किसान संघर्षों के झंझावात में खिंच आए हैं. पिपरा हत्याकांड हो या अरवल जनसंहार, खून की प्यासी नवसामंतों की सेनाएं हों या गोली से बात करने वाले अर्धसैनिक बल, ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के पैरोकार हों या ‘शाही’ विपक्ष के झंडाबरदार, कोई भी शक्ति बिहार के धधकते खेत-खलिहानों में मरघट की शांति नहीं कायम कर पाई, और न ही कोई शक्ति इतिहास के रंगमंच से इन नवोदित अभिनेताओं को नेपथ्य में धकेल सकेगी.

लेकिन, बिहार का किसान संघर्ष क्या सचमुच कोई नई राह खोज सकेगा? या फिर, अपने पूर्ववर्ती किसान संघर्षों की तरह यह भी विनाश तक जा पहुंचेगा अथवा बीच राह में समझौता कर लेगा? तमाम सच्चे मार्क्सवादियों और क्रांतिकारी जनवाद के हमदर्दों के दिमाग में यही प्रश्न गूंज रहा है. यह पुस्तक दरअसल इसी प्रश्न से निपटने की दिशा में हमारा पहला कदम है. मगर इससे पहले कि हम इस पुस्तक की विषयवस्तु तक पहुंचें, आइए जरा भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर एक नजर डालते हुए बिहार के किसान संघर्ष द्वारा अपनाए गए विशिष्ट गतिपथ की जांच की जाय.

कृषि प्रधान पिछड़े देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों को कार्यनीति के क्षेत्र में दो बुनियादी सवालों को हल करना पड़ता है : किसानों के साथ संबंध और पूंजीपति वर्ग के साथ संबंध. 1921 में लेनिन ने पूरब के कम्युनिस्टों को यह सलाह दी थी कि वे रूस की बोल्शेविक क्रांति की आम शिक्षा के आधार पर अपने-अपने देशों की रणनीतियां स्वंय तय करें. लेनिन ने यह स्पष्ट चेतावनी दी थी कि उन्हें अपनी समस्याओं का हल संभवतः किसी भी कम्युनिस्ट किताब में नहीं मिलेगा.

जहां माओ त्सेतुंग ने पूरी संजीदगी के साथ इस काम को हाथ लगाया, वहीं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व इसका महत्व ही न समझ पाया. इसलिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी जनवादी क्रांति की विभिन्न मंजिलों में किसानों और पूंजीपति वर्ग के साथ अपने संबंधों की समस्या को सही ढंग से हल करने में कामयाब रही और राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का नेता बनकर उभरी. इस तरह उसने मार्क्सवाद-लेनिनवाद को पिछड़े देशों की ठोस स्थितियों के साथ मिलाने के क्षेत्र में मूल्यवान मार्गदर्शक सिद्धांत मुहैया किया. पर भारतीय कम्युनिस्ट इन दो समस्याओं को हल करने की कोई सुसंगत कार्यदिशा ही नहीं खोज पाए. परिणामतः भारत के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का पूरा श्रेय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बटोर ले गई, जबकि कम्युनिस्टों को उनका दुमछल्ला माना गया और इससे भी बढ़कर, उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति गद्दार कहा जाने लगा. यह सच है कि इस असफलता के पीछे कई चीजे जिम्मेवार थीं, जिनमें पहले तो खुद ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग का औपनिवेशिक शासन था. दूसरा यह कि कांग्रेस का उदय और विकास एक ऐसे मंच के बतौर हुआ, जो ऊपर से अत्यंत विकसित जनवादी कार्यवाहियां चलाने (नियमित रूप से सत्र बुलाना, हर बार अध्यक्ष बदलना, विभिन्न विरोधी विचारों के बीच होड़ रहते हुए भी सहअस्तित्व बना रहना, इत्यादि) और अंदर से लगभग अंधभक्ति पर आधारित गांधी का परा-सांगठनिक प्राधिकार मानने की कार्यविधियों का अनोखा सम्मिश्रण था. तीसरी चीज थी, खास किस्म के राष्ट्रीय, जातीय और सांप्रदायिक मसले. और चौथा यह कि कोमिन्टर्न के सुझाव और विदेश में रहकर पार्टी का मार्गदर्शन करने वाले कुछेक भारतीय नेताओं के सुझाव परस्पर विरोधी होते थे, इत्यादि-इत्यादि. मगर असली आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि पार्टी-नेतृत्व के प्रभावकारी हिस्से ने एक खास किस्म की चिंतनशैली ही अख्तियार कर ली, जिसके अनुसार वे आमतौर पर रूसी और चीनी क्रांतियों के अनुभवों को, और खासतौर पर, लेनिन और माओ को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने लगे. उन्होंने भारत और चीन की परिस्थितियों में मौजूद अंतर को समझाने में अपनी सारी शक्ति खर्च कर जाली. हाय रे भाग्य! भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने एशिया के सबसे बड़े देश, अपने पड़ोसी देश में हुई एक महान क्रांति से कोई भी सबक सीखने से इनकार कर दिया और, साथ ही, इस महान क्रांति के सर्वमान्य नेता माओ त्सेतुङ के विचारों से कोई सीख लेना कत्तई नामंजूर कर दिया. उल्टे, हमारे कम्युनिस्ट नेता इस महान नेता का बस मजाक उड़ाने लगे.

जब पीसी जोशी की लाइन परास्त हो गई तो तेलंगाना के उत्थान व पतन (1946-51) के संदर्भ में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में स्पष्टतः पृथक तीन लाइनें उभरकर आई. रणदिवे एण्ड कं. की लाइन में चीनी क्रांति के महत्व को ठुकरा दिया गया, माओ पर दूसरा टीटो बनने का इल्जाम लगाकर भीषण आक्रमण किया गया तथा शहरों में मजदूर वर्ग के विद्रोहों को आधार बनाकर जनवादी और समाजवादी क्रांतियों को साथ-साथ संपन्न करने की पैरवी की गई. यद्यपि यह वाम दुस्साहसवादी लाइन चीनी क्रांति और माओ त्सेतुङ के प्रति स्तालिन के प्रारंभिक संदेहों को पूंजी बनाकर टिकना चाहती थी, पर अंततः यह बुरी तरह पिट गई.

तेलंगना के बहादुराना संघर्ष के निर्माण में आंध्र सेक्रेटेरियट की लाइन काफी हदतक चीनी अनुभवों और माओ की शिक्षाओं पर निर्भर थी. यद्यपि आंध्र का पार्टी-नेतृत्व, आंध्र महासभा के साथ तालमेल कायम कर निजाम की सामंती निरंकुशता के खिलाफ आंदोलन चलाने में सफल रहा; पर नेहरू सरकार और उसकी फौजों का मुकाबला करने की जटिल समस्या को हल करने में उसे असफलता हाथ लगी. तत्कालीन परिस्थितियों में उनके लिए शायद इस लाइनों के संघर्ष को उसके तर्कसंगत परिणाम तक नहीं पहुंचाया जा सका. बहरहाल, कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में अबतक चले किसान संघर्षों के इतिहास में तेलंगाना एक गौरवमय अध्याय माना जाता है. यह पार्टी नेतृत्व के एक हिस्से द्वारा चीनी क्रांति के अनुभव से शिक्षा लेने का और भूमि-क्रांति को धुरी मानकर भारत की जनवादी क्रांति के लिए एक व्यापक कार्यदिशा तैयार करने का पहला गंभीर प्रयास था.

जमींदारी उन्मूलन जैसे लुभावने सुधारों के जरिए आवश्यक तैयारी पूरी कर नेहरू सरकार संसदीय जनवाद की राह पर चल पड़ी. तेलंगाना अबतक धक्के का शिकार हो चुका था, अतः वस्तुगत स्थिति ने इस बात की इजाजत दी कि अजय घोष और डांगे द्वारा पेश की गई मध्यमार्गी लाइन हावी हो जाय. इस लाइन ने चीन और भारत की परिस्थितियों के बीच अंतर को बहस का सबसे बड़ा मुद्दा बना लिया और पार्टी को संसदीय पथ पर ठेल दिया. 1957 में कम्युनिस्टों को केरल में सरकार बनाने में सफलता मिली. लेकिन ज्योंही इस सरकार ने बुनियादी किस्म के भूमिसुधार करने की कोशिश की, उसका तख्ता उलट दिया गया. संसदीय संघर्षों का इस्तेमाल करने की कार्यनीति के विकास में यह एक निर्णायक मोड़ था. अनुभव से एक बार फिर यह स्पष्ट हो चुका था कि किसान आंदोलनों का विकास करना और तमाम संसदीय संघर्षों को गैरसंसदीय संघर्षों के मातहत रखना कितना जरूरी है, पर पार्टी ने ऐसा कोई सबक लेने से इनकार कर दिया और घिसीपिटी लीक पर आगे बढ़ना जारी रखा. आनेवाले वर्षों में ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के उदय और भारत-चीन युद्ध के बाद पार्टी दो हिस्सों में टूट गई : डांगेवादी नेतृत्व ने अंधराष्ट्रवादी रवैया अख्तियार कर लिया और वह तथाकथित ‘गैरपूंजीवादी विकास के शांतिपूर्ण रास्ते’ के सिद्धांत का प्रचार करने लगा. राष्ट्रीय जनवादी क्रांति की इस लाइन ने कुछ ही वर्षों में सीपीआई को कांग्रेस का दुमछल्ला बना दिया. सीपीआई के ख्याल से सामंती अवशेष या तो भारत में मौजूद ही नहीं हैं, और अगर हैं भी, तो कांग्रेस सरकार खुद ही उनसे निपट सकती है.

दूसरा हिस्सा सीपीआई(एम) था, जो मध्यमार्गी लाइन लेकर आगे बढ़ा. रणदिवे की पुरानी परंपरा का अनुसरण करते हुए इस पार्टी ने स्तालिन को माओ के मुकाबले खड़ा करना जारी रखा और इसीलिए उसने ख्रुश्चेव को पूर्ण समर्थन नहीं दिया. यह पार्टी जनता के जनवाद की तो बात करती है, मगर इस विषय में उसकी धारणा पूर्वी यूरोप के देशों में मौजूद जनता के जनवाद से ज्यादा मेल खाती है. अतः उसने चीनी क्रांति के अनुभव की निंदा करना जारी रखा है; और साथ-ही-साथ वह माओ त्सेतुङ विचारधारा की भी खिल्ली उड़ाती है. अभी हाल के वर्षों में सीपीआई(एम) के सर्वप्रमुख सैद्धांतिक प्रवक्ता वासवपुन्नैया ने माओ पर आक्रमण को कुछ ज्यादा ही तीव्र कर दिया है. उन्होंने अंतर्विरोधके बारे में माओ की दार्शनिक स्थिति पर और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के प्रति उनके द्वारा अपनाई गई कार्यनीति पर काफी जहर उगला है. भारत और चीन की परिस्थितियों में फर्क दिखलाते हुए सीपीआई(एम) हमेशा यही उपदेश देती है कि भारत में छापामार युद्ध असंभव है. साथ-ही-साथ उसने चीनी क्रांति के बारे में सीपीआई के इस पुराने मूल्यांकन को दोहराना शुरू किया है कि आधार इलाकों और लाल सेना ने चीन में कोई खास महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई, बल्कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मन्चूरिया में सोवियत सेना का जमाव ही चीनी क्रांति की विजय के लिए मुख्यतः जिम्मेवार था.

सीपीआई के अंधराष्ट्रवादी नेतृत्व के खिलाफ संघर्ष में क्रांतिकारी कम्युनिस्टों ने सीपीआई(एम) के साथ संश्रय कायम किया था. विभाजन के बाद सीपीआई(एम) ने भी संसदीय कार्यवाहियां जारी रखीं और जन आंदोलनों की लहरों पर सवारी गांठकर उन्होंने एक अवसरवादी साझेदारी का सहारा लिया और पश्चिम बंगाल में संयुक्त मोर्चा सरकार कायम कर ली. इस सरकार ने नक्सलबाड़ी के संघर्ष का दमन करने में जो भूमिका निभाई, उससे पार्टी-नेतृत्व के संशोधनवादी चरित्र का पर्दाफाश हो गया और पार्टी के अंदर मुकम्मल तौर पर बगावत के लिए हर प्रकार से परिस्थिति परिपक्व हो गई. दरअसल बगावत हुई भी. और क्या गजब की बगावत थी – इससे पश्चिम बंगाल में और केरल में सीपीआई(एम) की ताकत काफी घट गयी, जबकि कुछेक राज्यों में तो पूरी-की-पूरी राज्य कमेटी ही सीपीआई(एम) को त्यागकर नक्सलबाड़ी के समर्थन में आ खड़ी हुई.

नक्सलबाड़ी की तह में वही भावना छिपी थी, जो तेलंगाना में मौदूज थी, यानी भारत की जनवादी क्रांति में किसान संघर्ष की भूमिका को उजागर करने तथा चीन के अनुभव और माओ की शिक्षाएं ग्रहण करने की भावना. मगर समय पहले से काफी बदला हुआ था. नक्सलबाड़ी का उदय एक नई पृष्ठभूमि पर हुआ : अंरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन बड़े पैमाने की फूट का शिकार बन चुका था; देश में भूमिसुधार अपनी पहले वाली चकाचौंध खो बैठा था और कांग्रेस की जनवादी नकाब भी फट कर चिथड़े हो चुकी ती. देश एक गंभीर कृषि संकट का सामना कर रहा था जिसे हरित क्रांति की साम्राज्यवादी रणनीति के जरिए हल करने की कोशिश की जा रही थी. और सर्वोपरि, एक गहन राजनीतिक संकट मौजूद था, जो कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में पहली बार कांग्रेस की हार के रूप में जाहिर हो रहा था. दूसरे शब्दों में, नक्सलबाड़ी का उदय एक शानदार क्रांतिकारी परिस्थिति में हुआ था, जब शासक वर्ग पुराने तरीके से शासन नहीं चला पा रहे थे. नक्सलबाड़ी का विद्रोह एक ऐसी सत्ता पर किया गया सीधा प्रहार था, जो अपनी साख खो बैठी थी और पतन की दिशा में जा रही थी. इसके अतिरिक्त, इस बार पार्टी का संशोधनवादी नेतृत्व स्पष्टतः विभाजन रेखा के उस पार खड़े होकर किसानों और क्रांतिकारियों की हत्या कर रहे पुलिस बल का निर्देशन कर रहा था.

परिस्थितियां भिन्न थीं, सो प्रभाव भी भिन्न होना था. नक्सलबाड़ी का संघर्ष नक्सलबाड़ी के दायरे में सीमित नहीं रहा. पहले एआइसीसीसीआर और फिर सीपीआई(एमएल) के निर्माण के साथ-साथ यह भारत के अनेक भागों में दावानल की तरह फैलता गया. नई क्रांतिकारी पार्टी ने लेनिनवाद और अर्धऔपनिवेशिक देश चीन में माओ त्सेतुङ द्वारा लेनिनवाद के इस्तेमाल की संपूर्ण प्रक्रिया के बीच मौजूद कड़ियों के पहचानने पर जोर दिया. भारतीय मार्का संशोधनवाद से साफ तौर पर अपना नाता तोड़ने हुए इस पार्टी ने अपने विचारों के मार्गदर्शन सिद्धांत के बतौर मार्क्सवाद-लेनिनवाद के अतिरिक्त माओ त्सेतुङ विचारधारा को भी शामिल करने का निर्णय लिया तथा भारत और चीन की परिस्थितियों में मौजूद समानताओं पर अपेक्षाकृत ज्यादा जोर दिया. फिर भी खुद-ब-खुद माओवादी कम्युनिस्ट कहलानेवाले कुछ लोगों के विपरीत इस नई पार्टी ने कभी स्वयं को माओवादी पार्टी नहीं घोषित किया, बस भारत की सच्ची मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी ही कहलाना पसंद किया. शुरूआत के लिए, भारतीय क्रांति के एक सर्वथा नए रास्ते के पहले चरण में इस नई पार्टी के सामने चीनी मॉडल उस समय वियतनाम तथा अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की जनता के लिए संघर्ष का मुख्य रूप मुहैया कर रहा था.

एक बार फिर तेलंगाना की आत्मा अपने पूरे शौर्य के साथ जी उठी. छापामार युद्ध, लाल सेना और येनान के नारों तथा लंबे अभियान के गीतों से आकाश गूंजने लगा. संघर्ष देश के कई भागों में फैल गया और पश्चिम बंगाल व आंध्रप्रदेश उसके प्रमुख गढ़ बनकर उभरे. हजारों-हजार छात्र-नौजवान समरभूमि में कूद पड़े और ऐसा लगा कि क्रांति काफी नजदीक आ पहुंची है. नक्सलवाद एक नई किस्म का कम्युनिस्ट आंदोलन था, जो एक राष्ट्रीय परिघटना बन गया और राजनीतिक शब्दकोष में एक नया शब्द जुड़ गया.

बहरहाल, यह सुखद अध्याय जल्द ही समाप्त हो गया. जो मुठभेड़ क्रांति की अंतिम कार्यवाही लग रही थी, वह महज एक पूर्वाभ्यास साबित हुई. सैकड़ो साथियों ने जानें गवाई, हजारों को जेल की यातना भोगनी पड़ी और अंधेरा घिर आया. फिर तो जैसा हमेशा से होता आया है, इसके साथ-साथ भ्रम, फूट और विघटन का भी दौर शुरू हो गया. पार्टी के किस नेता ने कब क्या स्थिति अपना ली, इसका कोई ठिकाना न रहा. लोग अपनी स्थितियां इतनी तेजी से बदल लेते थे कि विश्वास ही न होता था. कल के मित्र व घनिष्ठ कामरेड अगले ही दिन विरोधी बन जाते थे.

कई लोगों के लिए तो मुक्ति का स्वप्न अब वाकई दुःस्पप्न बन गया. जेल से नेताओं द्वारा अपीलें जारी की गई. बिखरी शक्तियों को नए सिरे से संगठित करने की कोशिशें की गई. लेकिन किसी भी उपाय से बहाव को रोका नहीं जा सका. इतिहास नियत राह पर बढ़ता गया. आंदोलन के बहुतेरे भागीदारों के लिए अब आंदोलन न सिर्फ समाप्त, बल्कि सदा के लिए समाप्त हो चुका था. किछु अन्य लोग सत्तर-दशक की सुखद स्मृतियां संजोए यह निष्फल आस लगा बैठे कि पुराने नारों को बुलंदी से दुहराने पर पुरानी परिस्थिति भी लौट आएगी. कुछ ऐसे भी थे, जो इस बचकानी मान्यता पर डटे रहे कि ऐसी हालत से तभी उबरा जा सकता है, जब येन-केन-प्रकारेण तमाम पुराने हिस्सों को पुनः एकताबद्ध कर लिया जाय.

बिखराव की इस स्थिति में आंदोलन ने तमाम किस्म की प्रवृत्तियों और गुटबंदियों को जन्म दिया और उनके बीच वाद-विवाद का अत्यंत तीखा दीर्घकालीन युद्ध छिड़ गया. तमाम किस्म के लोग, यहां तक कि वे लोग भी जिन्हें लंबे अरसे से मृतप्राय या स्थायी रूप से मौन समझा जा रहा था, अज्ञातवास से निकलकर रणभूमि में लौट आए. और उनके साथ ही ऐसे तमाम सवाल भी लौट आए, जिनके बारे में समझा जाता था कि उन्हें हमेशा के लिए खुलझाया जा चुका है.

अब समस्या यह थी कि आंदोलन को पुनर्जीवित कैसे किया जाए. कुछ लोगों को महसूस हुआ कि ‘सफाया की लाइन’, चुनाव और ट्रेड यूनियनों का बहिष्कार इत्यादि की भर्त्सना करना काफी रहेगा. कुछ अन्य लोग इससे भी आगे बढ़कर खुद सीपीआई(एमएल) की ही भर्त्सना करने लगे और सोचने लगे कि एआइसीसीसीआर को पुनर्जीवित करने पर ही समस्या हल होगी.

आपातकाल के बाद जब एसएन सिंह और उनका पीसीसी रंगमंच पर हावी हुए तो अंतिम आघात आया कानु सान्याल की ओर से, जिन्होंने दुनिया को एक नई जानकारी दी कि नक्सलबाड़ी का संघर्ष उनके ही दिमाग की उपज था; चारु बाबू के वामपंथी दुस्साहसवादी हमलों का प्रतिरोध करके खुद उन्होंने ही इस संघर्ष का निर्माण किया था; और कानू बाबू ने जब संयुक्त मोर्चा सरकार के साथ एक कार्यनीतिक समझौता कर लेने का प्रस्ताव रखा (शायद 1951 में तत्कालीन पार्टी-नेतृत्व द्वारा तेलंगाना के संघर्ष को ‘वापस लेने’ की पुरानी शैली में) तो चारु मजुमदार ने उसे ठुकराकर नक्सलबाड़ी को सिर्फ विनाश के द्वार तक पहुंचाने का काम किया था.

जबकि पश्चिम बंगाल में सामाजिक जनवाद की छत्रछाया में ये तमाम घटनाएं घटती रहीं; और कमोबेश ऐसी ही घटनाएं आंध्र में भी घटीं (श्रीकाकुलाम में नेतृत्व का बचा-खुचा हिस्सा और सीपी रेड्डी ग्रुप अबतक एसएन सिंह के साथ शामिल हो चुके थे), वहीं बिहार को तो निस्संदेह काफी पहले से ही एक भिन्न कहानी सुनानी थी.

स्वतंत्रता संग्राम की गांधीवादी रणनीति के विपरीत और उसका विकल्प बनकर, जहां बंगाल में आतंकवाद और सुभाष मार्का ‘वामपंथ’ बढ़चढ़ कर उभरा और बंबई में मजदूर वर्ग की हड़तालों ने अग्रणी भूमिका निभाई, तो तीस के दशक से ही बिहार, किसान सभा का एक शक्तिशाली आंदोलन लेकर सामने आया.

इसी बिहार के चंपारण जिले में गांधी ने किसानों के बीच अपने प्रयोग की शुरूआत की, जिसके दौरान उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ किसानों को शांतिपूर्ण अहिंसक सत्याग्रह में गोलबंद करने की रणनीति का धीरे-धीरे विकाश किया. पर दूसरी ओर उन्होंने ‘स्वदेशी’ जमींदारों के खिलाफ होनेवाले किसी भी आंदोलन को निरुत्साहित किया. कांग्रेसी नेतृत्व जब कभी स्वतंत्रता संग्राम का आह्वान करता था, तो बिहार के किसान फौरन बड़े जोश-खरोश से उसपर अमल करना शुरू कर देते थे और हर बार वे कांग्रेसी आह्वान की लक्ष्मण रेखा पार कर उसे जमींदारों के खिलाफ सक्रिय एवं अक्सर हिंसक आंदोलन में बदल देते थे. चूंकि भारत में ब्रिटिश शासन का मुख्य स्तंभ थे जमींदार, सो किसानों द्वारा इस आह्वान का अपने ढंग से अर्थ लगाना स्वाभाविक था. वास्तविक जीवन में पैदा होने वाले इस वस्तुगत अंतर्विरोधके कारण बाध्य होकर बिहार के अंतरिम कांग्रेसी मंत्रिमंडल को, जो 1937 में हुए चुनाव के जरिए शासन में आया था, जमींदारों के साथ एक लिखित समझौता करना पड़ा. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में यह भी एक अभूतपूर्व घटना थी और इसके विपरीत, किसान सभा आंदोलन की शुरूआत यद्यपि कांग्रेस के ही एक बाजू के बतौर हुई, पर धीरे-धीरे उसने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया और क्रांतिकारी जनवादियों के आगोश में चला आया. आगे चलकर उसका एक अच्छा-खासा हिस्सा कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गया. इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि किसान सभा आंदोलन के दौरान जातीय ध्रुवीकरण कहां नदारद हो गए थे. स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दैर में, बिहार में न तो कभी ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन या आम्बेडकरवादी दलित आंदोलन को ज्यादा समर्थन मिला, और न जगजीवन राम के हरिजन कल्याण को. पर दूसरी ओर, सीपीआई और सोशलिस्टों को एक मजबूत आधार कायम करने में जरूर सफलता मिली. यदि सीपीआई के पास बिहार में आज भी एक शक्तिशाली आधार मौजूद है, तो इसका मुख्य कारण किसान सभा आंदोलन की विरासत में और पचास के दशक के तेलंगाना युग में शामिल चंद सकारात्मक उपलब्धियों में खोजा जा सकता है.

आजादी के बाद भी तेलंगाना जैसे संघर्षों का विस्फोट रोकने के लिए एक बार फिर बिहार को ही विनोबा भावे की सर्वोदयी रणनीति का केंद्र स्थल चुना गया. भूतपूर्व सोशलिस्ट जयप्रकाश, जो किसान सभा आंदोलन में भी सक्रिय रह चुके थे, बिहार में सर्वोदय के मुख्य प्रवक्ता बन गए, लेकिन उनकी लंबी-चौड़ी बातें बिहार में भूमि संबंधों की यथार्थ स्थिति के सामने नहीं टिक सकीं; और भूदान का अंत घोर असफलता में होने पर विनोबा तो वर्धा लौट गए और जेपी ने भी फिलहाल के लिए सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लिया. विनोबा और जेपी के वापस लौटते न लौटते साठ के दशक के मध्य में राजनीतिक संकट के बादल घिर आए. यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसमें नक्सलबाड़ी की प्रतिध्वनि उत्तर बिहार में मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी ब्लॉक में तुरंत गूंज उठी. लेकिन थोड़े ही समय में वहां का संघर्ष धक्के का शिकार हो गया और एक बार फिर जेपी मैदान में कूद पड़े -- इस बार वे नव-सर्वोदयी रणनीति से लैस थे, जिसे बाद में उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के सुप्रसिद्ध सिद्धांत में विकसित किया.

जहां एक ओर जेपी ‘नक्सलवाद के आतंक’ का मुकाबला करने की कसम खाकर आगे बढ़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर क्रांतिकारी कम्युनिस्ट भी बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में किसान संघर्षों का विकास करने की कोशिश कर रहे थे; हालांकि इसमें उन्हें आरंभ में ज्यादा सफलता नहीं मिली. लेकिन 1971 के अंत में, जब यहां भी तमाम चीजें हू-ब-हू पश्चिम बंगाल की राह पर बढ़ती प्रतीत हो रही थीं, तभी बिलकुल अप्रत्याशित रूप से दक्षिण बिहार के भोजपुर से, और दूसरे नंबर पर पटना से उत्साहवर्धक संकेत मिलने शुरू हुए. भोजपुर और पटना के ये संघर्ष, जिनकी जड़ें वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों की गहराई में हैं, एक नये ढरें पर शुरू हुए और वहां एक नई किस्म की स्थानीय नेतृत्वकारी शक्ति उभरकर सामने आई.

समूचे देश के खेतों और कारखानों में, टोलों और गलियों में, यातनागृहों और जेल की कोठरियों में गिरा हमारे बहादुर शहीदों का बेशकीमती खून आसमान में पुंजीभूत हो गया और भोजपुर के क्षितिज पर लालिमा बनकर छा गया. परवर्ती काल में साबित हो चुका है कि यह लालिमा किसी उल्का की नहीं, बल्कि सितारे की है, ऐसे लाल सितारे की, जो हमेशा के लिए यहां चमकता रहेगा.

दिलचस्प बात यह है कि एक बार एसएन ने भोजपुर के संघर्ष पर यह कहकर कीचड़ उछाला था कि यह संघर्ष जगजीवन राम के इशारों पर तथा उन्हीं के पैसों से चलता है और बाद में भी पीसीसी नेतृत्व के प्रभावशाली हिस्से ने भोजपुर को कोरा जातीय संघर्ष बताकर खारिज करना ही बेहतर समझा. मेरे साथ बातचीत के दौरान दिवंगत कामरेड सीपी ने यह बताया था कि भोजपुर के बारे में चीनी कामरेडों द्वारा बार-बार आग्रहपूर्वक पूछताछ करने के बावजूद भास्कर नन्दी ने इसी किस्म के आरोप दुहराना जारी रखा. मगर सीपी का विचार उनसे भिन्न था और वे तो यह भी मानने के लिए तैयार थे कि सफाये पर जिस रूप में भोजपुर में अमल हुआ है, उसका एक व्यावहारिक औचित्य है.

किसान संघर्ष का अपना स्वतंत्र गतिपथ और पार्टी द्वारा उसे चेतना प्रदान करने का प्रयास – ये दोनों चीजें एकता और संघर्ष के एक खास दौर से गुजरीं. पार्टी ने किसानों के बीच के हिरावलों को कम्युनिस्ट तत्वों में विकसित करने हेतु कठिन परिश्रम किया तथा वह हमेशा आंदोलन कि स्वतःस्फूर्त नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूर करने और उसे एक सुसंगठित स्वरूप प्रदान करने की कोशिश चलाती रही. पर दूसरी ओर, पार्टी ने संघर्ष और संगठन के रूपों के मामले में अपनी जड़सूत्रवादी धारणाओं को भी आंदोलन पर थोपने की पुरजोर कोशिशों कीं, और यकीनन ये सारी कोशिशों नुकसानदेह साबित हुई.

अंततोगत्वा आपातकाल के बाद बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में समूची पार्टी के अंदर चलाए गये शुद्धीकरण आंदोलन ने फिर से संतुलन कायम करने में मदद की, और लड़खड़ाते किसान संघर्ष को नया आवेग प्रदान किया. इसके साथ ही हम व्यापक किसान जागरण के मौजूदा दौर में आ पहुंचे. और विड़ंबना देखिए कि इस समूचे घटनाक्रम का शिकार बने एसएन सिंह, जो बिहार के ही रहनेवाले थे, और वह भी भोजपुर के. चारु मजुमदार के भूत ने उन्हें बिहार से खदेड़ दिया और राज्य के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी खेमे में उनको सर्वाधिक बदनाम व्यक्ति माना जाने लगा.

संयोग की बात है कि सीपीआई(एमएल) के प्रथम विभाजन का, और अबतक के एकमात्र बुनियादी विभाजन का ‘श्रेय’ भी किसी और को नहीं, स्वयं एसएन सिंह के नेतृत्ववाली बिहार राज्य कमेटी को ही मिलता है. बाकी तमाम विभाजन या तो बनावटी और अस्थाई हैं, या फिर उनका कोई खास महत्व नहीं है. यद्यपि चंद ग्रुपों द्वारा एक व्यापक ‘वामपंथी’ लाइन सूत्रबद्ध करने के प्रयास पहले किए जा चुके हैं और ये प्रयास अब भी जारी हैं, पर ऐसी कोई लाइन आज तक सामने न आ सकी. अर्धअराजकतावाद को आज भी हद-से-हद संघर्ष एवं संगठन के रूपों और तरीकों के सवाल पर बहस चला रही एक प्रवृत्ति ही कहा जा सकता है. इस प्रवृत्ति के शिकार बने लोगों का एक बड़ा हिस्सा समय बीतने के साथ और अधिक अनुभव हासिल करेगा और अंततः मार्क्सवाद-लेनिनवाद के आगोश में जरूर लौट आएगा. इसके विपरीत, एसएन ने स्पष्टतः एक वैकल्पिक कार्यनीतिक लाइन पेश की थी जिसमें सुपरिभाषित सामाजिक शक्तियों के साथ सुपरिभषित संबंधों की धारणा पेश की गयी थी. और इसी वजह से उनमें बार-बार जान फूंकी गयी, तथा आज उनकी मृत्यु के बाद भी वे हमारे आंदोलन के एक ध्रुव पर खड़े अपना अस्तित्व जतला रहे हैं. चारु मजुमदार के साथ उनका मतविरोध इसी सवाल पर था कि धनी किसानों के साथ कैसा संबंध रखा जाए. जहां चारु मजुमदार ने धनी किसानों के साथ संघर्ष के जरिए उन्हें तटस्थ बनाने पर जोर दिया, वहीं इसके विपरीत एसएन ने धनी किसानों के साथ एकता कायम करने पर जोर दिया. आगे चलकर यही लाइन जोतदार वर्ग के एक हिस्से के साथ तथा पूंजीवादी विपक्ष के साथ एका कायम करने की लाइन में बदल गई (भास्कर नन्दी ने इस एकता को पूर्णतः भिन्न प्रस्थापना के आधार पर सैद्धांतिक रूप देकर सामयिक तौर पर एसएन को भी छका दिया. पर जल्द ही एसएन ने नन्दी की इस गड़बड़ सैद्धांतिक कारगुजारी से अपना पिंड छुड़ा लिया).

बाद में संयुक्त मोर्चे के प्रश्न पर एसएन ने और हमने कांग्रेस शासन के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी विकल्प का निर्माण करने की समान प्रस्थापन से आरंभ किया. पर हमारी समानता यहीं खत्म हो गयी. क्योंकि एसएन ने हमसे बिलकुल भिन्न रास्ता चुना. वह था जेपी के साथ गठजोड़ करना, जनता पार्टी के नेताओं और तमाम उदारवादियों के साथ मेलजोल बढ़ाना, भूमि क्रांति की मुख्य भूमिका पर कीचड़ उछालना इत्यादि. नौबत यहां तक पहुंची कि वे यह विख्यात सूत्र सामने ले आए कि जनवादी क्रांति पर सर्वहारा का नेतृत्व हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता है. यह सच है कि कई किस्म के दबावों और बाध्यताओं के कारण बाद में एसएन को अपने कई वक्तव्यों पर समझौता भी करना पड़ा था. मगर यह समझौता मुख्यत: दांवपेंच की शक्ल में था और इससे उनकी बुनियादी स्थति में कोई रद्दोबदल नहीं हुआ.

दूसरी ओर, हमने साहसपूर्वक किसान संघर्षों का विस्तार करने की दिशा का पक्षपोषण किया, जो बेशक धनी किसानों के एक अच्छे-खासे हिस्से पर चोट करती है. क्योंकि बिहार में ये धनी किसान सामंती चालचलन पर ही अमल करते हैं और इन्हीं संघर्षों के आधार पर हमने कांग्रेसी शासन का विकल्प बनाने के लिए मजदूरों, किसानों और निम्नपूंजीपति वर्ग का एक क्रांतिकारी गठबंधन बनाने की कोशिश की. यद्यपि दूसरी ओर हमने पूंजीवादी विपक्ष की पार्टियों और गुटों के साथ कार्यनीतिक दांवपेंचों की गुंजाइश से भी इनकार नहीं किया.

दो कार्यनीतिक लाइनों के बीच चल रहे इस संघर्ष से घनिष्ठतः जुड़कर ही बिहार में किसान संघर्ष विकसित एवं विस्तृत हुआ है.

चूंकि बिहार का किसान संघर्ष अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की एक बदली हुई स्थिति में उभरा था, अतएव उसे खुले तौर पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन नहीं प्राप्त हुआ और देश में मौजूद तीखी गुटबंदियों के कारण, विभिन्न कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों ने इसके प्रति समर्थन तो दूर सहानुभूति तक न जाहिर की. यह परिस्थिति नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलाम के संघर्षों के दौरान मौजूद परिस्थिति से बिलकुल भिन्न थी. फिर भी, इस आंदोलन के प्रति कई हलकों में सचमुच भारी एकजुटता देखी गई. वास्तव में, यदि इसे भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के बहुतेरे अनुभवी कामरेडों और एकताबद्ध सीपीआई(एमएल) के महत्वपूर्ण नेताओं का बहुमूल्य मार्गदर्शन न मिला होता, यदि इसे विभिन्न कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों की कतारों तथा मार्क्सवादी शिक्षाविदों, क्रांतिकारी जनवादियों, नागरिक स्वतंत्रता संगठनों, खोजी पत्रकारों, प्रसिद्ध सांस्कृतिक हस्तियों और प्रगतिशील प्रवासी भारतीयों से सहायता और सहयोग न मिला होता, और यदि इसे चीन, नेपाल, फिलीपीन्स और पेरू की कम्युनिस्ट पार्टियों तथा अन्य विदोशी मित्रों का समर्थन न मिला होता, तो ऐसी हालत में इस आंदोलन को इतने लंबे अरसे तक बरकरार रख पाना संभव नहीं होता.

बिहार का संघर्ष आजकल उन तमाम जिलों में फैल रहा है जिनको पुरानी किसान सभा के जमाने की जुझारू विरासत प्राप्त है. ये वे जिले हैं जहां बड़ी जमींदारियां कम हैं; मगर जमींदारी का आधार विस्तृत है और इसके दायरे में न सिर्फ भूतपूर्व बिचौलिए, बल्कि पहले के शक्तिशाली रैयत भी शामिल हैं. बिहार के अन्य भागों की अपेक्षा इन जिलों में खेती के आधुनिक साधनों का अधिक इस्तेमाल किया जाता है, परिवहन की सुविधाएं बेहतर हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था अधिक स्पष्ट रूप से बाजार-केंद्रित है. इन जिलों में भूमि संबंधों के जो मुद्दे उभर आए हैं, वे समूचे भारत में ग्रामीण गरीबों को प्रभावित करते हैं. उदाहरणार्थ – न्यूनतम मजदूरी; पट्टेदारी का अधिकार; परती, बेनामी, सामुदायिक एवं सरकारी जमीन पर कब्जा; मजबूरी में फसल की बिक्री की रोकथाम; सस्ती दर पर और आसानी से तमाम लागत सामग्रियों का इंतजाम इत्यादि. संक्षेप में, यह अंचल काफी हदतक भारतीय कृषि के बदलते ढांचे का विशिष्ट प्रतिनिधि है.

भारतीय कृषि आज एक नए किस्म के संकट का सामना कर रही है. यह संकट हरित क्रांति की रणनीति के संतृप्त स्थिति में पहुंच जाने तथा ‘अति उत्पादन’ की स्थिति पैदा होने के फलस्वरूप आया है. इस संकट का सीधा परिणाम यह हुआ कि भारत के कुछ खास भागों में फार्मरों का एक नई किस्म का आंदोलन उभरा. खासकर शरद जोशी जैसा शक्तिशाली प्रवक्ता भी मिला. श्री शरद जोशी अपने सैद्धंतिक सूत्रीकरण में ग्रामीण गरीब भारत[1] और समृद्ध शहरी इंडिया के बीच मौजूद अंतरविरोध[2] को उजागर करते हैं. वे इस बात पर जोर देते हैं कि किसानों का आर्थिक उत्थान ही उन तमाम बीमारियों की एकमात्र दवा है, जिनका आज हमारा देश सामना कर रहा है. इसके लिए वे कृषि उत्पादों के लाभकारी मूल्य की एकसूत्री मांग पर अपना सारा जोर लगा देते हैं. वे इस बात पर विश्वास नहीं करते कि ग्रामीण आबादी के विभिन्न हिस्सों के बीच किसी बड़े किस्म के संघर्ष का कोई मुकम्मिल आधार मौजूद है. और कहना न होगा कि किसानों से उनका मतलब सिर्फ धनी व मध्यम फार्मर से है. खेतिहर मजदूरों पर आखिर वे कोई खास जोर क्यों नहीं देते? कारण, श्री जोशी यह मानते हैं कि किसानों को प्राप्त होनेवाले किसी भी आर्थिक लाभ का एक हिस्सा खुद-ब-खुद रिस कर मजदूरी की शक्ल में खेतिहर मजदूरों तक पहुंच जाएगा. दूसरी बात यह है कि इतिहास में, सामाजिक बदलाव लाने की प्रक्रिया में, सबसे निचले तबके की जनता ने कभी हिरावल भूमिका नहीं अदा की है.

आंदोलनात्मक कार्यपद्धति अपनाने के बावजूद, ग्रामीण विकास पर इस किस्म का जोर देना और उसके साथ-साथ गैर पार्टी राजनीति पर अड़े रहना तथा कम्युनिस्ट-विरोधी पूर्वाग्रहों पर कायम रहना ऐसे पहलू हैं, जिन्होंने श्री जोशी को सर्वोदयपंथियों का प्रिय पात्र बना दिया है, जो शायद विनोबा और जेपी के देहावसान के बाद एक नए मसीहा की तलाश में हैं.

तो इस प्रकार, अब किसान आंदोलन के अंदर बिहार से चलने वाली पूर्वी हवा और महाराष्ट्र से चलनेवाली पश्चिमी हवा के बीच बरतरी की लड़ाई खुलकर सामने आ गई है. महाराष्ट्र के फार्मर आंदोलन के बिलकुल विपरीत, बिहार के किसान संघर्ष की अगली कतार में खड़े हैं विशाल बहुसंख्यक खेतिहर मजदूर, और उनके साथ गरीब व निम्न मध्यम किसान. कम-से-कम आंदोलन के वर्तमान दौर में तो कुलकों की एक अच्छी-खासी संख्या आक्रमण का सीधा निशाना बनकर विभाजन रेखा के उस पार खड़ी है. कुछेक इलाकों में तो इन कुलकों में पिछड़ी जातियों के लोग भी शामिल हैं. लेकिन यद्यपि बिहार का किसान आंदोलन सर्वांगीण भूमिसुधार पर सबसे ज्यादा जोर देता है; फिर भी, वह हरित क्रांति के संकट से उत्पन्न होनेवाले उन मुद्दों को अपने कार्यक्रम में जरूर स्थान देता है, जो मध्यम व उच्च-मध्यम किसानों की बहुसंख्या को प्रभावित करते हैं.

पूरब और पश्चिम से बहनेवाली इन दो हवाओं के बीच छिड़े संघर्ष का परिणाम अभी तक अनिश्चित है. भारतीय इतिहास के रंगमंच पर संभवतः सर्वाधिक दिलचस्प युगांतकारी नाटक के अंतिम दृश्यों का पर्दा उठना अभी बाकी है. फिर भी, जब एक अनजाने, गुमनाम, गर्द-गुबार से सने कीचड़ भरे रास्तों वाले छोटे से कस्बे अरवल में किसानों के सबसे गरीब तबके के लोगों की अन्यथा ‘मामूली सी मौत’ बिहार में सत्ताधारियों के राजनीतिक संकट का स्वरूप तय करने लगे, तो बेहिचक ऐलान किया जा सकता है कि आखिरकार नायक रंगमंच पर आ पहुंचे हैं.

पाद लेख :

1. ईमानदारी के लिहाज से यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि श्री शरद जोशी अपने ग्रामीण भारत में शहरी गरीबों के कुछ हिस्सों, मसलन झुग्गी-झोपड़ीवासियों को भी शामिल करते हैं; जिन्हें वे गरीबी की मार से देहात छोड़ने पर मजबूर हुए किसान मानते हैं.

2. दिलचस्प बात यह है कि श्री शरद जोशी अपने पक्ष में, लेनिन के विरुद्ध रोजा लक्जमबर्ग के वक्तव्य का हवाला देते हैं. वे स्तालिन द्वारा कुलकों से निपटने के लिए अपनाए गए तरीकों के सख्त खिलाफ हैं. पर माओ के बारे में उनके विचारों की कोई जानकारी नहीं मिलती.

(लिबरेशन: अप्रैल, मई, जून एवं अगस्त 1993 के अंकों से)

1942 में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका पर काफी कीचड़ उछाला गया है और कुछ ही साल हुए श्री अरुण शौरी ने राष्ट्रीय अभिलेखागार की धूल फांककर उस दौर में सीपीआई की तथाकथित गद्दारी का भंडाफोड़ किया था. हां, इस क्रम में यहां-वहां उन्होंने चंद मनगढ़ंत बातें भी घुसा दी थीं. हम मंजूर करते हैं कि उस दौर में कम्युनिस्ट पार्टी ने एक भयानक कार्यनीतिक गलती की  थी और भारत के तमाम कम्युनिस्ट संगठन इसे स्वीकार करते हैं. इस छोटे से व्यतिक्रम के सिवा कम्युनिस्ट हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा बने रहे. आजादी के सबसे लड़ाकू योद्धाओं को प्रेरणा या तो सोवियत संघ की विजयी अक्तूबर क्रांति और कम्युनिस्ट विचारधारा से अथवा भगत सिंह जैसे नेताओं से मिली और उन्होंने बड़ी संख्या में कम्युनिज्म की दीक्षा ली.

आधुनिक हिंदुत्व के पहले प्रचारक विनायक दामोदर सावरकार ने ब्रिटिश विरोधी संघर्ष की शैशवावस्था में जरूर बहादुराना भूमिका निभाई. लेकिन, 1920 के दशक के मध्य से हिंदू महासभा का नेता बनते ही उन्होंने अंग्रेजों के साथ साफ-साफ एक समझौता की लाइन अपनाई और इस दिशा में वे इस हद तक बढ़ गए कि 1942 के आंदोलन के दौरान उन्होंने स्थानीय स्वायत्तशासी संस्थाओं, विधानमंडलों और सरकारी नौकरियों में काम करनेवाले हिंदू महासभा के सदस्यों को साफ-साफ निर्देश दिया, “अपने-अपने पदों पर बने रहो और अपनी-अपनी नियमित ड्यूटी बजाना जारी रखो.” सावरकर और उनकी हिंदू महासभा ने जिस मुस्लिम विरोधी जहरीले प्रचार और ‘राजनीति का हिंदूकरण करने और हिंदूवाद का सैन्यीकरण करने’ के आह्वान का आश्रय लिया था, उसका व्यावहारिक अर्थ था अंग्रेजों के साथ पूर्ण युद्धकालीन गठबंधन. (देखिए, ऐतिहासिक वक्तव्य, विनायक दामोदर सावकर, अंग्रेजी संस्करण, 1957). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशवराम बलिराम हेडगेवार ने कांग्रेस के अंदर जरूर काम किया था किंतु हिंदुत्व से अपनी गांठ जोड़ते ही वे और उनका संगठन आजादी की लड़ाई की मुख्यधारा से दूर, और दूर भागता गया.

1920 के दशक के पहले वर्षों में असहयोग आंदोलन की जो आंधी उठी थी वह आजादी की लड़ाई के समूचे इतिहास में ब्रिटिश विरोधी एकता का चरम बिंदु थी. लेकिन गांधी और कांग्रेस नेतृत्व ने इससे गद्दारी की और 1922 में इसे वापस ले लिया. इस महान आंदोलन को गालियां देते हुए श्री हेडगेवार कहते हैं, “महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप देश का उत्साह ठंढा पड़ता जा रहा था और सामाजिक जीवन में उस आंदोलन के द्वारा पैदा की गई बुराइयां खतरनाक रूप से सिर उठा रही थीं ... असहयोग का दूध पीकर पले हुए यवननाग अपनी जहरीली फुफकारों से समूचे राष्ट्र में दंगे भड़का रहे थे.” (भिशिकर, 1979, पृष्ठः 7)

1927 में, जब स्वतंत्रता आंदोलन में पुनरुज्जीवन के ताजे लक्षण दिखने लगे और साइमन कमीशन के आगमन के विरुद्ध एक शक्तिशाली आंदोलन विकसित  हुआ, तो आरएसएस ने अपने को इस लहर से दूर ही रखा, बल्कि वह नागपुर में अपना पहला ट्रेनिंग कैंप लगाने में उलझा रहा. सितंबर 1927 में नागपुर में हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ और आरएसएस इस दंगे को और अधिक भड़काने में जी-जान से जुड़ा रहा.

लाहौर अधिवेशन द्वारा पूर्ण स्वराज को कांग्रेस का राष्ट्रीय लक्ष्य घोषित करने की पृष्ठभूमि में शुरू किए गए 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघी लापता हो गए. हेडगेवार ने आरएसएस की शाखाओं को हुक्म दिया कि वे कांग्रेस के निर्णयानुसार 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस के रूप में ही मनाएं, मगर ‘भगवा झंडा’ की पूजा करते हुए. और सबसे मजेदार बात तो यह है कि जहां देश में आमतौर पर हर जगह स्वाधीनता दिवस मनानेवालों को भीषण दमन का सामना करना पड़ रहा था, वहां आरएसएस के लठ्ठधर कार्यकर्ताओं को इस दिवस के संघी संस्करण को मनाते वक्त औपनिवेशिक पुलिस के साथ कहीं बतरस भी नहीं करनी पड़ी.

1940 में हेडगेवार के बाद माधवराव सदाशिव गोलवलकर सरसंघ चालक बने और उन्होंने हिंदूवाद की मुस्लिमविरोधी ब्रिटिशपरस्त धार पर और सान चढ़ाई. गोलवलकर कह्ते हैं, “भु-भागीय राष्ट्रवाद और साझा दुश्मन के सिद्धांत ने, जो राष्ट्र की हमारी धारणा की बुनियाद का निर्माण करत है, हमें हमारे सच्चे हिंदू राष्ट्रवाद की सकारात्मक व प्रेरक अंतर्वस्तु से वंचित कर दिया है तथा उसने आजादी की अनेक लड़ाइयों को वस्तुतः ब्रिटिश विरोधी लड़ाईयां बना दिया है. ब्रिटिश-विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के समतुल्य बना दिया गया है. इस प्रतिक्रियावादी विचार ने स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दौर में उसके नेताओं और आम जनता पर बड़ा हानिकारक प्रभाव डाला है.” (गोलवलकर, 1966, पृष्ठः 142-43)

शायद यह देशभक्ति और राष्ट्रवाद की आरएसएस की परिभाषा का सबसे बड़ा भंडाफोड़ है. देखने में यह बड़ा आजीब लग सकता है, लेकिन सच यह है कि हिंदूवाद का यह सिद्धांतकार औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने के लिए चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की उठती लहर के ऐन बीचोबीच ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रवाद की निंदा करता है. आरएसएस की तमाम ‘राष्ट्रवादी, देशभक्तिपूर्ण’ चिल्ल-पों और भावोद् गारों का निशाना निस्संदेह मुस्लिम प्रभुत्व की अतीत की स्मृतियां थीं. उसके लिए अंतिम महान मुगल बादशाह औरंगजेब के खिलाफ शिवाजी की लूटपाट के बाद इतिहास का चक्का थम-सा चुका था. ब्रिटिश विष्कंभक (नाटक के बीच-बीच में मूल कहानी को आगे बढ़ाने में मददगार प्रहसन दृश्य) ने चूंकि मुगलिया सल्तनत के आखिरी अवशेषों को धूल में मिलाने में मदद की थी, इसलिए वह मित्र था. शिवाजी की लड़ाई को तबतक जारी रखा जाना था, जबतक कि हिंदू राष्ट्र का निर्माण नहीं हो जाता. आरएसएस अपने होठों पर मराठी स्वरों का पुट लपेट महाराष्ट्र से उभरा और वह जानबूझकर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के हाथों में खेलने लगा, जिन्होंने हिंदू-मुस्लिम फूट को बढ़ावा देकर हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन में तोड़फोड़ करने की कोशिश की.

इसलिए अचरज करने की जरूरत नहीं कि बाद में आरएसएस कभी स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल नहीं हुआ, न 1940-41 के नागरिक अवज्ञा आंदोलन में और न 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में; न आजाद हिन्द फौज में और न आइएनए बंदियों की रिहाई तथा बंबई की नौसेना बगावत को केन्द्र कर 1945-46 में हुए राष्ट्रव्यापी उभार में ही.

आज, बदली परिस्थितियों में, फिर इतिहास की पुनरावृत्ति हो रही है. आज जब उन्हीं पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों की ओर से देश नवऔपनिवेशीकरण के गंभीर संकट के सामने खड़ा है तो संघ परिवार एक बार फिर अपने साम्राज्यवादी आकाओं का हुक्म पालन करने के लिए तत्पर है. भारत पर अमरीकी वर्चस्व तथा आइएमएफ-विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रभुत्व के विरोध से उनके राष्ट्रवाद और उनकी देशभक्ति का कोई लेना-देना नहीं. उनके तमाम जोश-खरोश के निशाने हैं मुस्लिम शासन के प्रतीक, जो शासन इतिहास में कब का खो चुका है. यह न केवल आर्थिक दासता, राजनीतिक स्वतंत्रता पर मंडराते खतरों तथा (जनता के जनवादी समाज के हक में) निरंकुश शासन व्यवस्था से मुक्ति के लिए भारत की दूसरी आजादी की लड़ाई को क्षतिग्रस्त करता है, बल्कि वह कम्युनिस्ट चुनौती के ध्वंस के बाद तथाकथित इस्लामी खतरों के नए इलहाम से लैस साम्राज्यवादी आकाओं का भी हितसाधन करता है.

हिंदू राष्ट्र का दर्शन नाजीवाद से उधार लिया गया है

आरएसएस और भाजपा के प्रचारक रात-दिन कम्युनिस्टों पर यह आरोप लगाते हुए नहीं थकते कि उन्होंने मार्क्स नामक एक जर्मन से एक विदेशी विचारधारा उधार ली है. जबकि वे अपने को खांटी देशी माल कहते हैं. लेकिन सच यही है कि एक जर्मन ने ही (हां, आस्ट्रियन मूल का) अपनी विचारधारा और अपने संगठन को आकार देने में गोलवलकर पर गहरा असर डाला था. इस जर्मन का नाम था एडोल्फ हिटलर.

हम अथवा हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा में गोलवलकर लिखते हैं, “आज जर्मनी का राष्ट्रीय गौरव चर्चा का मुख्य विषय बन गया है. राष्ट्र और उसकी संस्कृति की शुद्धता की रक्षा करने के लिए जर्मनों ने अपने देश को सेमिटिक नस्लवालों – यहूदियों – से मुक्त करके समूची दुनिया को हिला दिया है. यहां राष्ट्रीय गौरव अपने शिखर पर अभिव्यक्त हुआ है. जर्मनी ने यह भी दिखला दिया है कि एक-दूसरे से मूलतः पृथक नस्लों और संस्कृतियों को एक एकल समग्र में समेटना कितना असंभव है. हमारे लिए यह काफी शिक्षाप्रद है और हमें हिंदुस्तान में इससे खीखना और लाभ उठाना चाहिए.”

नाजीवाद के इस भारतीय प्रतिरूप का अर्थ है कि गैर हिंदुओं को अपनी पहचान का हर कतरा त्याग देना चाहिए – चाहे वह भाषा हो, संस्कृति हो, धर्म हो, या कोई और चीज. अगर वे ऐसा करने से इनकार करते हैं तब भी गोलवलकर इस देश में उन्हें रहने देना जरूर चाहते हैं मगर इस शर्त पर कि वे “इस देश में कुछ न मांगते हुए, किसी सुविधा का हकदार न होते हुए, किसी भी प्रकार की प्राथमिकता पाए बिना, यहां तक कि नागरिकता के अधिकारों के बिना ही हिंदू राष्ट्र के अधीन रहें.”

लिहाजा, हिंदू राष्ट्र का संपूर्ण दर्शन जर्मन नाजी राज्य से उधार लिए गए संस्करण के सिवा और कुछ नहीं है.

मिथकीय नायक राम को राष्ट्रनायक में बदलने के पीछे भाजपा की योजना

वाल्मीकि कि रामायण और तुलसीदास के रामचरितमानस, दोनों लोकप्रिय महाकाव्य बुराई पर अच्छाई की विजय को एक विशिष्ट रूप से चित्रित करते हैं – लोकप्रिय मिथकीय पात्र राम को भगवान के अवतार का दर्जा देते हुए. इस प्रकार राम हिंदू जनसमुदाय के आध्यात्मिक और धार्मिक दुनिया के अंग बन जाते हैं. उनके चरित्र की संपूर्णता– मर्यादा पुरुषोत्तम – और उनके शासन के मानदंड –रामराज्य– को अक्सर नैतिक मूल्यों और सामाजिक न्याय पर जोर देने के लिए जनभाषा में याद किया जाता है. आधुनिक हिंदूवाद के उत्थान के पूर्व किसी ने राम के राष्ट्रीय नायक में बदलने का ख्याल भी नहीं किया था. हिंदुत्व की विचारधारा के संस्थापक-जनक सावरकर हिंदू भारत के प्रतीक की उन्मादपूर्ण तलाश करते हुए लिखते हैं, “हमलोगों में से कुछ उन्हें अवतार मानते हैं, कुछ उन्हें वीर और योद्धा मानकर उनकी प्रशंसा करते हैं, सबके सब उन्हें हमारी नस्ल के सर्वाधिक यशस्वी प्रतिनिधि मानकर उनसे प्यार करते हैं.” तबसे हिंदुत्व के पैरोकार ‘हमारी नस्ल के इस सर्वाधिक यशस्वी प्रतिनिधि’ का राग अलापते रहे हैं. 1927 में विजयदशमी को आरएसएस के स्थापना-दिवस के बतौर चुना गया. भगवा झंडे को राम का झंड़ा मानकर आरएसएस के झंड़े के बतौर चुना गया.

अंत में, बाबरी मस्जिद, जिसके बारे में कहा गया कि राम के मंदिर को तोड़कर बनाया गया था, संघ परिवार के हाथों में एक गड़बड़झाला तैयार करने का बहाना बन गया – राम को बाबर के खिलाफ खड़ा कर दिया गया. इस प्रकार एक सांस्कृतिक-धार्मिक-मिथकीय पात्र से राष्ट्रनायक में राम का रूपांतरण पूरा हुआ, जिसके हाथों के धनुष-बाण मुस्लिम ‘हमलावरों’ की ओर निशाना साधे हुए हैं.

अगर रामकथा के रावण ने सीता को कैद कर रखा था तो संघ परिवार के रावणों ने अपनी राजनीतिक चालबाजियों के लिए खुद राम को कैद कर लिया है. राम को उनके चंगुल से आजाद कराना होगा ताकि उन्हें उनके पुजारियों के आध्यात्मिक-धार्मिक जगत में पुनर्स्थापित किया जा सके.

आरएसएस बार-बार मुसलमानों को उपदेश देता है कि वे राम को अपना नायक मानें और उन्हें आश्वस्त करता है कि तब उनकी सारी समस्याएं खतम हो जाएंगी. लेकिन यह मांग न केवल अत्यंत उद्दंडतापूर्ण और हास्यास्पद है जिसमें वह मुसलमानों से अपनी मान्यताओं को त्याग देने और मुर्तिपूजा अपनाने को कहता है – क्योंकि किसी अन्य तरीके से मुसलमान राम को अपना नायक नहीं मान सकते – बल्कि यह प्रतिगामी मांग भी है, खासकर उनके हिंदू प्रवृत्तियां जब एकेश्वरवाद की ओर बढ़ी हैं और भगवान को निराकार के रूप में देख रही हैं.

अन्य मिथकीय पात्रों के विपरीत, निम्न जातियों के बीच जीवन गुजारनेवाले और उनकी मदद से ब्राह्मण राजा रावण को हरानेवाले  निर्वासित राम का महाकाव्य राम के साथ आम जनसमुदाय का लोकप्रिय तादात्म्य स्थापित कर देता है. तथापि हिंदुओं के विभिन्न पंथों और धर्मों के बीच राम की छवि एक समान नहीं है. हिंदुओं के कुछ हिस्से, खासकर दलित, उनके कुछ कामों के प्रति आलोचनात्मक रुख रखते हैं और उन्हें उन कामों में सवर्ण लाक्षणिकता की बू आती है.

हिंदू और मुसलमान ठीक ही 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम और ब्रिटिश विरोधी संघर्षों के शहीदों को अपना राष्ट्रीय नायक मानते हैं. संघ परिवार से भी यही भावना प्रदर्शित करने की मांग की जानी चाहिए, क्योंकि गोलवलकर के लाख चिल्लाने के बावजूद भारतीय राष्ट्रवाद की उत्पत्ति केवल ब्रिटिश विरोधी संघर्ष से ही हुई है.

हिंदू गौरव का मिथक

संघ परिवार का एक लोकप्रिय नारा है ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’. इस नारे के जरिए हिंदुओं को प्रेरित किया जाता है कि वे गर्व के साथ अपनी हिंदू पहचान का ऐलान करें. संघ के सिद्धांतकारों के अनुसार एक के बाद दुसरे होने वाले विदेशी आक्रमणों के आगे हिंदुओं द्वारा दब्बुओं की तरह आत्मसमर्पण करते जाने का कारण हिंदू गौरव का विनाश ही था. लिहाजा हिंदू गौरव के पुनरुद्धार के लिए हिंदुओं के अपमान के प्रतीकों को नष्ट कर देना अत्यधिक जरूरी है. इस प्रकार, बीसवीं सदी के आखिरी छोर पर हिंदुओं का जेहाद बाबरी मस्जिद के विध्वंस से शुरू होता है. स्पष्टतः सूची लंबी है और इसमें काशी व मथुरा की मस्जिदों से लेकर जामा मस्जिद और यहां तक कि ताजमहल भी शामिल हैं.

आइए, हम इस तथाकथित हिंदू गौरव के सारतत्व की तलाश करने के लिए हिंदूवाद की उत्पत्ति के इतिहास पर दोबारा एक नजर डाल लें. विङबना ही है कि भारत पर पहले ज्ञात हमलावर खुद आर्य ही थे जो इसापूर्व लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले ईरान के पठार से आए थे. हिंदू भारत के अपने दावे की पुष्टि करने के लिए संघ परिवार खुद इतिहास को गलत ठहराने की गहरी साजिश में जुटा है और आर्यों को इसी देश का मूल निवासी सिद्ध करने के नए सिद्धांतो की पैरोकारी के क्रम में तमाम ज्ञात ऐतिहासिक तत्थों को झुठला रहा है.

वह सौ फीसदी गलत है. भारत के मूल निवासी सिंधु घाटी के मोहनजोदड़ी और हड़प्पा सभ्यता वाले लोग थे, जिनकी सभ्यता आर्यों की सभ्यता से उन्नत थी. भारत की आर्यपूर्व सभ्यता बहुत संभव है कि द्रविड़ सभ्यता थी. आर्य कबीले अर्द्धखानाबदोश पशुपालक कबीले थे और उनके अंदर विकसित पितृसत्तात्मक गोत्र प्रथा और सैनिक जनवाद मौजूद था. अन्य शब्दों में, वे वर्गपूर्व समाज से वर्गसमाज में संक्रमण की मंजिल में थे. सिंधु घाटी और उत्तर पश्चिम भारत से वे धेरे-धीरे गंगा के मैदान और उत्तर पूर्व भारत में फैले. तथापि इस फैलाव के दौरान उन्हें स्थानीय जनता के साथ अनगिनत लड़ाईयां लड़नी पड़ीं. इस समूचे संक्रमणकालीन दौर का प्रतिबिंब ऋग्वेद व अन्य वेदों में मिलता है.  

इस मंजिल में आर्यों के धर्म को वैदिक धर्म कहा गया है. शुरूआती अवस्थाओं के सुर और असुर दोनों दो परस्पर शत्रु खेमों के देवता थे. बाद में असुर दुरात्माएं बन गए – अन्य इंडो-आर्यन लोगों के ठीक उल्टा. स्थानीय शत्रुतापूर्ण द्रविड़ कबीलों को राक्षस कहा गया.

वैदिक आर्य अनेकेश्वरवादी थे, जहां देवता प्राकृतिक शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे और खासकर इंद्र को केंद्रीय स्थान मिला हुआ था. कोई मंदिर नहीं था, न ही कोई पेशेवर पुरोहित था और न मृत्यु के उपरांत कर्मफल भोगने की अवधारणा ही विद्यमान थी. तबतक शरीर से अलग आत्मा का विचार भी विकसित नहीं हुआ था. वर्ण व्यवस्था का उदय जरूर हो गया था जो सामाजिक श्रम विभाजन के ढांचे को प्रतिबिंबित कर रहा था. संक्षेप में, वैदिक धर्म आर्यों के समाज की संक्रमणकालीन मंजिल का प्रतिबिंब था और उसका रिश्ता मरणोपरांत जीवन की अपेक्षा धरती पर के जीवन से ही अधिक था.

जैसे ही आर्य कबीले स्थायी तौर पर बसे और कृषिजीवी समुदायों में विकसित हुए, ईसा पूर्व एक हजार की शुरूआत में अनेक निरंकुश, शुरुआती दास-मालिक राज्यों का उदय हुआ. इस मंजिल में वैदिक धर्म का स्थान ब्राह्मणवाद ने ले लिया.

वर्ण व्यवस्था ने एक सामाजिक कठोरता हासिल कर ली और ब्राह्मणों के, जो वेदों में पारंगत थे, एक अलहदा सामाजिक समूह का उदय हुआ जिनके हाथों में बड़ी मात्रा में विशेषाधिकार केंद्रित थे. ईसा पूर्व पांचवीं सदी में मनु के बनाए नियमों ने वर्ण और जाति प्रथा को ईश्वरीय घोषित किया और ब्राह्मण जाति को व्यवहारतः देवतुल्य बना दिया. वैदिक देवताओं को गौण स्थानों पर ढकेल दिया गया और नए देवता सामने चले आए, जिनमें सबसे आगे ब्रह्मा था. चूंकि धीर-धीरे स्थानीय आबादी विजेता आर्यों के साथ घुलमिल गई, इसलिए उनके देवताओं ने भी ब्राह्मण देवकुलों में प्रवेश पाया. जाति व्यवस्था के कठोर होते ही भिन्न-भिन्न देवता भी भिन्न-भिन्न जातियों के देवता बन गए. उपनिषदों के आगमन के साथ-साथ आत्मा के आवागमन का विचार हावी हुआ और कर्म का चिंतन पुनर्जन्म का सैद्धांतिक आधार बन गया. ब्राह्मण काल का वर्णन उपनिषद काल के बतौर भी किया गया है जिसके दौरान षडंदर्शन या शास्त्र विकसित हुए. वेदांत, जो आत्मा के ब्रह्म से मिलन की वकालत करता था जो कि एक गूढ़ रहस्यवादी दर्शन है, ब्राह्मणों का मुख्य सहारा था. क्षत्रियों ने, जो ब्राह्मणों के साथ प्रतिद्वंद्विता कर रहे थे, सांख्य का पक्ष लिया जो कि वस्तुवाद का करीबी दर्शन है.

शास्त्रीय दर्शन की परिधि के बाहर चार्वाक और लोकायत के भौतिकवादी दर्शन उभरे जिन्होंने यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व से भी इनकार कर दिया. वे ब्राह्मणी प्रभुत्व के आम जनता द्वारा ठुकराए जाने को प्रतिबिंबित कर रहे थे.

ब्राह्मणवाद खुद अपने वजन से चरमरा रहा था और व्यापक आम जनता ने उत्पीड़नकारी जाति प्रथा के विरुद्ध अचेतन प्रतिरोध के एक रूप में ईसापूर्व छठी और पांचवीं शताब्दी में प्रतिद्वंद्वी धार्मिक प्रवृत्तियों – बौद्ध धर्म और कुछ हद तक जैन धर्म के पीछे गोलबंद होना शुरू किया.

इन दोनों प्रवृत्तियों ने जाति प्रथा और संगठित पुरोहितकर्म को ठुकराया. मुख्यतः बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणवाद की जगह ले ली और ईसापूर्व तीसरी शताब्दी व पहली और दूसरी ईस्वी शताब्दी के बीच मौर्च एवं कुषाण वंशीय राजाओं के दौर में तो वह राजकीय धर्म भी बन गया. जटिल उपासना पद्धतियों और आम जनता से अलगाव के चलते ब्राह्मणी कुलीनतंत्र बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के सामने अत्यंत हल्का साबित हुआ.

बौद्ध धर्म के विरुद्ध अपने संघर्ष के दौरान ब्राह्मणवाद ने आदि शंकराचार्य के नेतृत्व में अपने स्वरूप में भारी रद्दो-बदल किया. इस प्रकार, वह दौर शुरू हुआ जिसे आज हिंदू धर्म के नाम से जाना जाता है. बौद्धों ने ही सबसे पहले मंदिरों की अवधारणा पेश की थी. जनसमुदाय को भावाभिभूत कर देने के लिए विशालाकाय हिंदू मंदिर बनाए गए और उनमें देवताओं की दैत्याकार प्रतिमाएं स्थापित की गईं. तीर्थ स्थानों की नींव ङाली गई तथा जनगोलबंदी की गारंटी करने के लिए सार्वजनिक महोत्सवों और धार्मिक जुलूसों की शुरूआत की गई. देवताओ को जनसमुदाय के करीब लाने के ख्याल से अवतारों की अवधारणा का जन्म हुआ. राम और कृष्ण जैसे लोकप्रिय वीरों को देवताओं के अवतार का और इस प्रकार मोक्षदाता का दर्जा दिया गया. बुद्ध को भी विष्णु का एक अवतार मान लिया गया. बड़े अचरज की बात है कि जहां बौद्ध धर्म चारों ओर फैला और विश्व धर्म बन गया, वहां खुद अपनी जन्मभूमि में वस्तुतः इसका नामोनिशान मिट गया.

मूल हिंदू धर्म का मकसद था जनसमुदाय को प्रभावित करने और उसे नियंत्रित करने के नए तरीकों के साथ पुरानी जाति प्रथा को बनाए रखना. सामाजिक स्तरीकरण, जाति व नस्ली विविधता और वर्ग संबंधों की जटिलता के विकास के चलते हिंदू लोग परस्पर विभाजन की एक अनंत प्रक्रिया के जरिए विभिन्न पंथों में बंटते चले गए.

कुछ लोगों ने ‘सर्वपंथ समभाव’ – बाद में जिसे ‘सर्वधर्म समभाव’ बना दिया गया और जिसे भारतीय धर्मनिरपेक्षता का आधार घोषित किया गया – कायम करने के असफल प्रयत्न किए. परवर्ती दौर में इस्लाम और बाद में ईसाई धर्म के असर से धार्मिक सुधार आंदोलनों का उदय हुआ.

कबीर, नानक, चैतन्य और अन्य ढेरों सुधारकों ने – जिनका योगदान मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के नाम से जाना जाता है – जातिप्रथा पर और हिंदू धर्म के जटिल कर्मकांडों पर हमला किया.

कबीर इन तमाम सुधारकों के बीच सबसे विशिष्ट हैं. उन्होंने आम जनता की ओर से अंधविश्वास और ब्राह्मणों के पाखंड पर अत्यंत कटु प्रहार किए. ब्रिटिश दौर में राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती और विवेकानन्द सुधार के मुख्य प्रवक्ता थे. उन सबों ने वेदांत धारा के कर्वेश्वरवादी दर्शन की हिमायत की और जाति प्रथा की कठोरता को दूर करने का प्रयत्न किया.

तथापि, इनमें से प्रत्येक की उपलद्धि मात्र यही रही कि उन्होंने हिंदू धर्म में एक-एक पंथ और जोड़ दिए. अपनी इस तथाकथित ईश्वरीय कठोर जातिप्रथा के चलते हिंदू धर्म ने अपने दरवाजे सदा-सर्वदा के लिए बंद कर लिए हैं और वह मूलतः एक राष्ट्रीय धर्म बनकर रह गया है, जबकि बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म और बाद में इस्लाम धर्म विश्व धर्मों के रूप में विकसित हुए. लिहाजा विश्व हिंदू परिषद एक झूठा नामकरण है, हिंदू धर्म को एक विश्व धर्म के रूप में प्रदर्शित करने का एक स्वांग है.

हिंदू धर्म के तमाम प्रगतिशील सुधार आंदोलनों ने मिथ्या हिंदू गौरव को हवा देने से कहीं अधिक हिंदू धर्म को एक उदारवादी, आधुनिक चेहरा प्रदान करने की कोशिश की और उसके जाति ढांचे की कठोरता को दूर करने पर खासतौर से जोर दिया. हिंदू रूढ़िवादियों ने परंपराओं और परंपरागत संस्थाओं के बल पर इन सबों का कमोबेश सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया. जबकि पहली बार संघ परिवार की छत्रछाया में एक उल्टा आंदोलन उभरा है जिसका लक्ष्य है, सुधारों ने जो भी प्रभाव डाला है उन सबों को खारिज कर देना. अगर कोई हिंदुत्व के मौजूदा उभार से हिंदू धर्म में सामाजिक सुधार की उम्मीद करता है तो कहना होगा कि वह बज्रमूर्ख है. अबतक तो यह आंदोलन हमें केवल इतिहास की जानबूझकर की गई तोड़-मरोड़, साधुओं और महंतों की सामाजिक गिरफ्त और रानजीतिक घुसपैठ की बढ़ोतरी, ऊंची जाति के हिंदुओं का नए सिरे से आक्रामक बनना और, अधिक से अथिक बजरंग दल और शिवसैनिकों की लंपट सेना ही प्रदान कर सका है. संघ परिवार के सिद्धांतकार इसी की बड़ाई हिंदुत्व के उभार, खालसा की तरह हिंदू धर्म के अंदर क्षत्रियत्व के उत्थान और हां, हिंदू गौरव की अभिव्यक्ति के बतौर करते हैं.

जैसा कि ठीक ही कहा गया है, धर्म अपने परिवेश के समक्ष मुनष्य की शक्तिहीनता की अभिव्यक्ति है. धार्मिक फंतासी परिवेश द्वारा लादी गई सीमाओं और बंधनों को तोड़े जाने का भ्रम प्रदान करती है. लिहाजा आम जनता, खासकर विपत्तियों से  घिरने पर, धर्म की शरण में हमेशा दौड़ जाती है.

लेकिन भ्रम तो भ्रम ही होते हैं. वे यथार्थ का स्थान कभी नहीं ले सकते. हिंदू गौरव को उभार कर और एक बंदर-भगवान की अतिमानवीय भूमिका से प्रेरणा लेकर एक जीर्णशीर्ण ढांचे को ढाह देना तथा हजारों निहत्थे निर्देश लोगों की हत्या करना या उन्हें अपंग बना देना जरूर संभव है लेकिन उससे नवऔपनिवेशिक शक्तियों के आक्रमण को रोका नहीं जा सकता. यह आक्रमण अक्षुण्ण रूप से जारी है और विडंबना ही है कि हिंदू गौरव की धूनी रमानेवाली ये शक्तियां इस विदेशी आक्रमण में सहयोगी भूमिका ही निभा रही हैं.

‘धर्मनिरपेक्ष’ हिंदूवाद का मिथक

संघ परिवार द्वारा अक्सर दोहराया जानेवाला अन्य तर्क है कि भारत के धर्मनिरपेक्ष होने का कारण भारतीय आबादी की विशाल बहुसंख्या का हिंदू होना है. प्रसंगवश, भारत में आधिकारिक तौर पर ‘धर्मनिरपेक्ष’ कहे जानेवाले लोग भी हिंदू धर्म के अंदर तथाकथित अंतर्निहित सहिष्णुता को धर्मनिर्पेक्षता के समतुल्य करार  देते हैं. लिहाजा भारत में धर्मनिरपेक्षता के हर तरह के प्रचार में लगातार बुनियादी हिंदू विश्वासों की दुहाई दी जाती है.

हिंदुत्व के मौजूदा उभार के साथ-साथ हिंदू जनसमुदाय के अंदर धार्मिक उन्माद की दिल दहला देनेवाली मात्रा में वृद्धि, राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में साधुओं और महंतों की बढ़ती दखलंदाजी, समाज के हर तरह के कूड़े-कचरों का बजरंग दल और शिवसेना जैसे संगठनों में खतरनाक ढंग से सुसंगठित होते जाना, मुस्लिम विरोधी नरसंहारों की तेज होती बाढ़, राज्य की विभिन्न शाखाओं द्वारा सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों का खुला प्रदर्शन और शिक्षा जगत में किसी भी किस्म के विरोधी विचारों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता भी नजर आ रही है. यह पक्के तौर पर दिखाता है कि शुद्ध हिंदू राज्य का अर्थ केवल जनवाद और धर्मनिर्पेक्षता का निषेध ही हो सकता है.

दूसरे, अनेक विकसित देश जहां ईसाई धर्म अथवा बौद्ध धर्म बहुसंख्यकों के धर्म हैं, वे भारत से काफी अधिक धर्मनिरपेक्ष हैं. खासकर ईसाई धर्म पूरी तरह रूढ़िवादी और असहिष्णु धर्म था – धार्मिक अदालतों की याद थोड़ी ताजा कीजिए – और कतिपय युरोपियन देशों में चर्च अत्यंत शक्तिशाली संस्था थी. तथापि, आगे चलकर ईसाई धर्म के अंदर से विभिन्न प्रवृत्तियों का उदय हुआ और सफल पूंजीवादी क्रांतियों ने चर्च को राज्य से अलग कर दिया. दरअसल धर्म और राज्य के अलगाव पर आधारित धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा खुद पश्चिम की सफल पूंजीवादी क्रांतियों से उत्पन्न हुई.

तथापि, हिंदू धर्म के तथाकथित अंतर्निहित धर्मनिरपेक्ष चरित्र के प्रचारक इसकी तुलना में केवल इस्लाम धर्म की तथाकथित अंतर्निहित असहिष्णुता को खड़ा करते हैं. इस्लाम धर्म के बारे में हिंदुओं की विशाल बहुसंख्या की धारणा भी यही है. लिहाजा, इस्लाम धर्म के अभ्युदय की गहरी जांच-पड़ताल जरूरी है.

छठी शताब्दी में अरब में रहनेवाले कबीले परस्परघाती टकराहटों में उलझे थे. कारवां के जरिए होनेवाले व्यापार में गिरावट आ चुकी थी और नतीजे के तौर पर लोगों में जमीन की भूख बढ़ गई थी. इस परस्परघाती युद्ध के पीछे जमीन की यह भूख ही मुख्य कारक थी. इस्लाम का उदय उस सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति में परस्पर युद्धरत कबीलों को एक करने के आंदोलन के बतौर हुआ. इसी ऐतिहासिक परिस्थिति में मुहम्मद ने विभिन्न कबीलाई पंथों को एक दूसरे के साथ मिल जाने और एक ही सर्वोच्च भगवान – आल्लाह – के सामने नतमस्तक होने का उपदेश देना शुरू किया. प्रारंभ में खुद उनके अपने कुरैशी कबीले के सरदार और व्यापारी भद्रजन उनके विचारों के खिलाफ थे. लिहाजा उन्हें मक्का भाग जाना पड़ा. मदीना के लहलहाते खेतों से भरे मरुद्यानों की जनता की मक्का के रईसजादों के साथ ठनी हुई थी और उन्होंने मुहम्मद को एक शक्तिशाली समर्थन आधार प्रदान किया. अंततः उनकी मदद से मुहम्मद ने मक्का पर कब्जा कर लिया. मक्का के एक महत्वपूर्ण धार्मिक व राष्ट्रीय केंद्र बन जाने के बाद कुरैशी भद्रजनों ने न केवल इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया, बल्कि वे इसके नेता बन गए.

एंगेल्स ने लिखा है कि इस्लाम धर्म एक ऐसा धर्म था जो एक ओर शहरी व्यापारियों और कारीगरों का धर्म था तो दूसरी ओर यायावर बद्दुओं (अरब में लूटपाट करनेवाली एक जाति) का.

इस्लाम धर्म, जिसका उदय अरबों के राष्ट्रीय धर्म के बतौर हुआ था, जल्दी ही विश्व धर्म में बदल गया. 8वीं और 9वीं शताब्दी तक इस्लाम धर्म स्पेन से लेकर मध्य एशिया तक फैला और भारत की सीमाओं तक पसरे विशाल भूभाग में एकमात्र धर्म बन गया. परवर्ती शताब्दियों में यह उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर फैल गया. इसके बाद यह इंडोनेशिया, काकेशिया और बाल्कन राज्यों के कुछ लोगों के बीच भी फैल गया.

जेहादों में हासिल फतह और एकताबद्ध होने और नई धरती पर कब्जा करने की अरब आवश्यकता ने इस्लाम धर्म के प्रसार में  प्रमुख भूमिका निभाई. लेकिन अगर बैजेंटाइन और सिसमद साम्राज्य जैसे अनेक राज्यों के बाशिन्दों ने उनका कोई प्रतिरोध नहीं किया तो इसका कारण स्थानीय सामंती सरदारों द्वारा उनका भयानक शोषण था. अरबो ने जिन-जिन देशों को जीता वहां-वहां उन्होंने किसान जनसमुदाय – खासकर जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया – पर से देनदारियों का बोझ उल्लेखनीय तौर पर घटा दिया. भारत में अमानवीय ब्राह्मणवादी जाति-उत्पीड़न ने इस्लाम के प्रसार को सहज बना दिया. इस्लाम धर्म के इतने प्रसार का श्रेय कुछ इसकी सादगी को भी है जो पूरब के पितृसत्तात्मक सामंती राज्यों के किसान जनसमुदाय को अनायास आकृष्ट कर लेता था.

बाद में मुस्लिम धर्मज्ञों और धर्मनिरपेक्ष उलेमाओं ने जेहाद के ईश्वरादेशों की पुनर्व्यख्या की है. यहां तक कि एक पवित्र पुस्तक और राम व कृष्ण को अपने-अपने युगों के देवदूतों के रूप में पेश करते हुए हिंदू धर्म की भी पुनर्व्यख्या करने के प्रयत्न किए गए हैं. इस संदर्भ में पाठक भूले नहीं होंगे कि बिहार के मुस्लिम धर्मज्ञ मंडली के अंदर हाल में एक बहस चली थी जिसमें एक मुस्लिम उलेमा ने हिंदुओं पर चस्पां काफिर लेबुल को वापस ले लेने का आह्वान किया था.

इस्लाम ने धार्मिक कानूनों के आधार पर दीवानी और फौजदारी कानूनों को संहिता का रूप देने की कोशिश की है जो शरीयत के नाम से मशहूर है. पितृसत्तात्मक कबीलाई रुख ने इस्लाम धर्म में पारिवारिक नैतिकता पर सचमूच अपनी छाप छोड़ी है और महिलाओं को पुरुषों के मातहत रखा गया है. संभवतः सभी धर्मों में ऐसा ही किया गया है. तथापि, अरब की तत्कालीन ठोस सामाजिक परिस्थितियों में कुरान ने अपनी पत्नी के प्रति पति के क्रूर आचरण की निंदा करके और महिलाओं के संपति-संबंधी अधिकारो – देहज और विरासत – का ब्यौरा पेश करके वस्तुतः महिलाओं की हैसियत को बुलंद किया है.

हालांकि इस्लाम ने धर्म के झंडे तले बड़े पैमाने पर लोगों को एकताबद्ध किया, तथापि मुस्लिम देशों में राष्ट्रीय और वर्ग अंतर्विरोधतीखे होते गए. यह इस्लाम धर्म के अंदर विविध प्रवृत्तियों और पंथों के उदय के जरिए प्रतिबिंबित हुआ.

एक ऐसी ही सबसे शुरूआती और सबसे बड़ी प्रवृत्ति शिया पंथ रही है. यह मुहम्मद के वारिशों के बीच सत्ता संघर्ष के रूप में अरबों के आपसी संघर्ष के बतौर शुरू हुआ. लेकिन जल्दी ही इसने अपने अरब विजेताओं के खिलाफ फारसी (ईरानी) असंतोष की अभिव्यक्ति का रूप धारण कर लिया. शिया पंथ आजतक ईरान का राजकीय धर्म है. दुनिया के अधिकांश मुसलमान यद्यपि सुन्नी पंथ के अनुयायी है. 8वीं और 9वीं शताब्दियों में मोतजलों ने, जो कि सुन्नियों का एक पंथ हैं, मुस्लिम सिद्धांतों की वैज्ञानिक भावना से व्याख्या करने की कोशिश की और यह कहा कि कुरान आदमी द्वारा लिखी गई किताब है, अल्ला-ताला द्वारा नहीं तथा हर आदमी को अपनी स्वतंत्र इच्छा रखने का हक है. धार्मिक सूत्रों की शाब्दिक व्याख्या पर आधारित विचारधारा के खिलाफ खुद इस्लाम के अंदर कुछ ऐसी विचारधाराएं उभरीं जिन्होंने इस्लाम धर्म की बुनियादी बातों की अधिक उदारवादी व्याख्या की इजाजत दी. मुस्लिम विश्व के अपेक्षाकृत विकसित अंचलों में इसे अच्छा समर्थन मिला.

सूफी पंथ शिया पंथ से उत्पन्न हुआ लेकिन इसने सुन्नियों को भी समेटा. सूफी पंथ के अनुयायी सतही कर्मकांडों पर अधिक ध्यान नहीं देते थे और ईश्वर के साथ रहस्यवादी सम्मिलन की आकांक्षा रखते थे. सच कहा जाए तो भगवान के बारे में उनकी सर्वेश्वरवादी अवधारणा कुरान से दूर हट गई थी. प्रारंभ में रूढ़िवादी मुसलमानों ने उन्हें बड़ा सताया. लेकिन बाद में उनसे समझौता कर लिया गया.

19वीं और 20वीं शताब्दी में जनवादी क्रांतियों और साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों के युग से तालमेल करते हुए मुस्लिम परंपराओं में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए. कई मुस्लिम देशों में शरीयत के असर की हद बांध दी गई है, कानूनी मानदंडों को धर्मनिरपेक्ष बना दिया गया है और राज्य को मुस्लिम मौलवियों की गिरफ्त से आजाद कर दिया गया है. 1920 के दशक में तुर्की में कमाल पाशा के नेतृत्व में जनवादी क्रांति हुई और गणतंत्र की स्थापना के बाद क्रांतिकारी सुधार लागू किए गए.

भारत एक शास्त्रीय उदाहरण है जहां इस्लाम धर्म हिंदू धर्म के साथ-साथ शताब्दियों तक रहा जो कि मूर्तिपूजक व अनेकेश्वरवादी धर्म है. धार्मिक विश्वासों के स्तर पर इन दोनों के बीच शायद ही कोई मिलनबिंदु नजर आता है, लेकिन ग्रासरूट स्तर पर दोनों धर्मों के लोग मिलजूलकर जी रहे हैं, साझी अभिलाषाएं पाल रहे हैं और कई साझे विश्वासों की डोर से भी बंधे हुए हैं. देश को चूंकि हिंदू-मुस्लिम आधार पर बांटा गया इसलिए स्वभावतः भारत में रहनेवाले मुसलमानों के दिल में पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति रहेगी, ठीक वैसे ही जैसे कि कोई पाकिस्तानी अथवा बांग्लादेशी हिंदू भारत से सहानुभूति रखता है. तथापि, विभाजन के बाद भारतीय मुसलमानों की राजनीति आमतौर पर कांग्रेस के गिर्द चक्कर काटती रही है. अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए कांग्रेस ने मुस्लिम कट्टरपंथी शक्तियों के साथ – अक्सर उसने हिंदू कट्टरपंथियों के साथ जो समझौते किए हैं उन्हें संतुलित करने के लिए – राजनीतिक व सामाजिक समझौते किए. इस खेल की स्पष्टतः सीमाएं थीं और हाल में घटी घटनाओं ने मुस्लिम समुदाय के अंदर कांग्रेस के प्रति जो मोह था उसे दूर कर दिया है. जनता दल जैसी पार्टियां कांग्रेस की दुर्दशा से फायदा बटोरने आगे आई  हैं, तथापि वे भी उन्हीं मुस्लिम कट्टरपंथी शक्तियों के साथ गठजोड़ कर रही हैं.

भाजपा द्वारा की जा रही हिंदू राज्य की वकालत और उसका धार्मिक पागलपन केवल, हालांकि नकारात्मक रूप से, मुसलमानों के भीतर की कट्टरपंथी शक्तियों को ही ताकतवर बना रहा है. प्रगतिशील सामाजिक सुधार के बतौर द्विविवाह अथवा बहुविवाह का विरोध एक बात है, लेकिन उसे मुस्लिम आबादी की वृद्धि के साथ जोड़ना बिलकुल जुदा बात है. ज्यादा बच्चे पैदा करना सामंती समाज की विशेषता है और इसका धर्म के साथ कोई रिश्ता नहीं है. भारत में मुसलमानों की कोई बड़ी संख्या शायद ही एक से अधिक विवाह करती है. इससे भी बढ़कर, दिमाग से थोड़ा-सा भी काम लेने पर यह समझना मुश्किल नहीं है कि पुरुष और स्त्री आबादी का जो अनुपात है उससें किसी समाज में न तो यह आम परिघटना हो सकती है और न ही यह किसी प्रकार आबादी की वृद्धि के लिए उत्तरदायी ही हो सकती है. समरूप नागरिक संहिता और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के प्रति भाजपा की चिंता निपट धोखा है और मुस्लिम पहचान पर सामग्रिक आक्रमण का अंगमात्र है. शाहबानो के मुकदमे में टांग अड़ाकर इसने मुसलमानों के अंदर केवल रूढ़िवादी प्रतिगमन को ही निमंत्रित किया और एक प्रगतिशील सामाजिक सुधार को धक्का पहुंचाया अन्यथा उसे मुसलमानों के बीच भी अच्छा समर्थन हासिल था.

हिंदू भारत में मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की वकालत करके भाजपा मुसलमानों के अंदर केवल पाकिस्तानपरस्त भावनाओं को ही शक्तिशाली बना रही है. इसी प्रकार, मुस्लिम पहचान को हिंदू, ‘सांस्कृतिक’ पहचान में शामिल कर देने की मांग, हिंदू पहचान को भारतीयता की पहचान के समतुल्य बना देने की भाजपाई चालबाजी के बावजूद, मिश्रित भारतीय पहचान का सीधासीधी निषेध है. संघ परिवार के विचारधारात्मक आक्रमण भारतीय मुसलमानों के बीच पाकिस्तान के मिथक को शक्तिशाली बनाएंगे और उसे केवल अमरता ही प्रदान करेंगे.

भारतीय मुसलमानों के बीच पाकिस्तान और पाकिस्तानी मिथक भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के सुस्पष्ट हिंदू पूर्वाग्रह के चलते पैदा हुए थे और संघ परिवार की हिंदुत्व की सनक के बल पर आज भी जिंदा है और उससे यह नई खुराक पाता जा रहा है.

स्वतंत्रता संघर्ष में उन्होंने जैसी विश्वासघाती भूमिका निभाई थी, ठीक उसी तरह आज वे नवऔपनिवेशिक खतरों के खिलाफ भारतीय जनता के प्रतिरोध को विभाजित करने और उसे कमजोर करने के लिए फिर उसी विश्वासघाती भूमिका को दोहरा रहे हैं. संघ परिवार फिर अपने मालिक की खिदमत में हाथ जोड़े हाजिर है, आज ठीक उस घड़ी में जबकि उसके खिदमत की उसके मालिक को सबसे ज्यादा दरकार है. तथापि, भाजपा भारतीय मुसलमानों के तकदीर की आखिरी इबादत नहीं लिखने जा रही है. मुस्लिम नौजवानों की नयी पीढ़ियां पाकिस्तान के साथ कोई गहरा जज्बाती जुड़ाव नहीं रखती हैं और भारत में वे अपनी जगह भारतीय मुसलमानों के बतौर बनाना चाहती हैं. वे धर्मनिरपेक्ष राज्य के विचारों के प्रति बड़े आग्रही हैं. हाल की घटनाओं ने उन्हें वामपंथ के  करीब ला दिया है. प्रगतिशील और जनवादी मुस्लिम बुद्धिजीवी मुस्लिम समाज के अंदर जनवादी सुधार के लिए आवाज उठा रहे हैं तथा आधुनिक शिक्षा और खासकर मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को ऊंचा उठाने पर जोर दे रहे हैं. तमाम धर्मनिरपेक्ष शक्तियों को चाहिए कि वे भारतीय मुसलमानों के अंदर की इस विकासमान धारा को अवश्य शक्तिशाली बनाएं जो कि भारत के भाग्य का फैसला करने में उन्हें समान साझीदार बना देगा. एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य पाकिस्तान के अस्तित्व के मूलाधार को निस्संदेह नष्ट कर देगा और अगर तब भी पाकिस्तान बना रहा तो मुतमईन रहिए, भारतीय मुस्लिम नौजवान किसी क्रिकेट मैच में पाकिस्तान पर भारत की विजय का त्यौहार उसी जोश-खरोश से मनाएगा जिस जोश-खरोश के साथ कोई हिंदू भाई मनाएगा.

उपसंहार के बदले में

संभवतः मार्च में एक कामरेड ने मुझे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव के दौरान एबीवीपी द्वारा जारी एक प्रश्नावली दी और आग्रह किया कि मैं उन्हें ‘मुहतोड़’ जवाब दूं. प्रश्न कम्युनिस्टों के खिलाफ अक्सर दोहराए जानेवाले आरोपों, उनकी विदेशी जड़ों, भारत छोड़ो आंदोलन, भारत विभाजन और यहां तक कि इमर्जेंसी के दौरान उनकी भूमिका आदि की पुनरावृत्ति भर थे. एबीवीपी को बड़ा उचरज है कि सोवियत संघ के विध्वंस के बाद मार्क्सवाद की भला भारत में क्या प्रासंगिकता है. परम आश्चर्य! एबीवीपी को खुद बीएचयू में जल्दी ही करार जवाब मिलना था!

बीएचयू कैंपस की लड़ाई ने स्पष्टतः विचारधारात्मक आयाम ग्रहण कर लिया है. एबीवीपी को आइसा के हाथों करारी हार सहनी पड़ी. यह विजय एकमात्र आइसा की विजय थी, क्योंकि सीपीआई और सीपीआई(एम), जनता दल, मुलायम यादव और यहां तक कि भूतपूर्व नक्सलपंथियों के छात्र संगठन, सभी आइसा को हराने के लिए कार्य कर रहे थे. बीएचयू की जीत नैनीताल और इलाहाबाद में मिली जीतों की अगली कड़ी के बतौर हुई थी और इसने प्रचार माध्यम का बड़े पैमाने पर ध्यान आकृष्ट किया.

संघ परिवार के सिद्धांतकार कल तक मार्क्सवाद की ‘मृत्यु’ का रसास्वादन कर रहे थे और इस तथ्य की पुष्टि में पश्चिम बंगाल और केरल में अपने प्रभाव विस्तार की शेखियां बघार रहे थे. उत्तरप्रदेश के बौद्धिक केंद्रों में मार्क्सवाद के पुनरुत्थान ने उन्हें बड़ी सांसत में डाल दिया. इस तरह प्रत्याक्रमण के लिए परिस्थिति परिपक्व थी. और यों इस लोकप्रिय लेखमाला के विचार का जन्म हुआ.

दुर्भाग्यवश संघ परिवार के सांप्रदायिक दर्शन के विरुद्ध लिखे गए अधिकांश लेख उदारवादी हिंदू विचार प्रणाली के चौखटे में फंसे हुए थे. धर्मनिर्पेक्ष आत्मरक्षा की मुख्यधारा थी राम के गुणें का बखान, हिंदू सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव की विषयवस्तु तथा इसी के साथ-साथ गांधी और विवोकानंद की उदार हिंदू छवि को सामने लाना तथा संप्रदायवादियों के विवेक को झकझोरना. वामपंथी नेताओं ने भी धर्म की भूमिका के हाल में हुए अहसास की आड़ में इसमें योगदान किया. यहां तक कि सीपीआई और सीपीआई(एम) वालों के अतिप्रिय नेहरू भी प्रतिबंधित हो गए और धर्मनिरपेक्ष वाम साहित्य में उनकी जगह चुपचाप गांधी ने दखल कर ली. निस्संदेह यह छद्म धर्मनिरपेक्षता है!

बेशक, हिंदू राष्ट्र के फासिस्ट मतलब को ठीक ही पहचाना गया और इसी तरह धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की व्यापक एकता का निर्माण करने की आवश्यकता भी ठीक ही महसूस की गई. लेकिन वाम केंद्रक को शक्तिशाली बनाने पर नए सिरे से जोर डालने के अभाव  में इसने विचारधारात्मक और राजनीतिक अवसरवाद की बाढ़ आने का रास्ता साफ कर दिया. कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्याक्रमण की तीक्ष्ण धार से वंचित समूचा धर्मनिरपेक्ष प्रचार सांप्रदायिक आक्रमण की पराकाष्ठा के सामने निष्फल हो जा सकता है. तब चुनौती कौन स्वीकार करेगा? जवाबदेही निस्संदेह मार्क्सवादी-लेनिनवादियों के कंधों पर आ जाती है.

सांप्रदायिक फासिज्म के विरुद्ध अपने लोकप्रिय प्रचार के दौरान हमने सवाल खड़ा किया –

(क) स्वतंत्रता संघर्ष में हिंदू प्रतीकों, खासकर रामराज्य को लाने के गांधीवादी तरीके पर, और कहा कि मुसलमानों को विमुख करने के पीछे यही मुख्य कारण था.

(ख) सर्वधर्म समभाव के रूप में धर्मनिरपेक्षता की राधाकृष्णन द्वारा की गई परिभाषा पर – जो सरकारी मत भी बन गया है – और कहा कि धर्म के प्रति आधुनिक राज्य की नीति केवल ‘सर्वधर्म विवर्जिते’ ही हो सकती है.

(ग) एक धार्मिक चरित्र राम को राष्ट्रीय नायक घोषित करने की वैज्ञानिकता पर, और कहा कि यह मर्यादा केवल जननायक भगत सिंह को दी जा सकती है.

(घ) देश की एकताकारी शक्ति के बतौर हिंदू राष्ट्र की उपयुक्तता पर, और कहा कि अगर इतिहास से सीखा जाए तो हिंदू राष्ट्र निश्चित रूप से देश को छोटे-छोटे रियासतों में तोड़ देगा. हिंदू राष्ट्र के साथ-साथ विकास कर रहा शिवसेना का मराठा राष्ट्रवाद इसी का सूचक है.

(च) 1942 सहित स्वतंत्रता संघर्ष के समूचे दौर में, भारत विभाजन को प्रेरित करने और समर्थन करने में, उस दौरान समूची मुस्लिम आबादी को पाकिस्तान भेज देने की मांग में, इमर्जेंसी के आखिरी दिनों में इंदिरा कांग्रेस के साथ मेलजोल बढ़ाने में आरएसएस ने खुल्लामखुल्ला एक विदेशी विचारधारा नाजीवाद से प्रेरणा ग्रहण की है.

(छ) मुसलमानों का हौआ खड़ा करके स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान औपनिवेशिक मालिकों के खिलाफ लड़ाई के निशाने को कमजोर करने की आरएसएस की शैली पर, और कहा कि आज भारत जब नवऔपनिवेशीकरण के गंभीर खतरे के सामने खड़ा है तब एक बार फिर ठीक वही इतिहास दोहराया जा रहा है.

(ज) भारतीय विदेश नीति की पाकिस्तान विरोधी धुरी पर, और कहा कि पाकिस्तान के साथ दोस्ताना रुख और जम्मू-कश्मीर के द्विपाक्षिक विवादों का सकारात्मक निपटारा भारत में सांप्रदायिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए अहम है. हमने यहां तक कि भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश के स्वतंत्र राज्यों का राष्ट्रकुल बनाने का भी प्रस्ताव रखा.

अपने जवाबी हमले में हमने बताया कि भाजपा का सर्वाधिक अनुदार पूंजीपति व जमींदार वर्ग और उच्च जाति वाला सामाजिक संयोजन, नागरिक व राजनीतिक जीवन में साधुओं और महंतों का बढ़ता हस्तक्षेप, कारसेवकों की नकाब में समाज के बुरे तत्वों का जुझारू संगठन तथा इतिहास को झुठलाने पर तुले, नफरत फैलाने में लगे और अकादमिक क्षेत्र में विरोध की तमाम आवाजों को बलपूर्वक दबा रहे उद्धत बुद्धिजीवियों के झुंड आपस में जुड़कर फासिज्म के लिए एक आदर्श सम्मिश्रण का निर्माण करते हैं.

पुनश्च  

बाबरी मस्जिद को ढाह दिया गया है. हर तरह के जनवादी तत्वों ने ठीक ही मांग की है कि ऐतिहासिक न्याय के लिए ठीक उसी स्थान पर बाबरी मस्जिद का पुनर्निर्माण किया जाना चाहिए. बहरहाल, इसमें संदेह है कि इस मंजिल में यह संभव अथवा  व्यावहारिक होगा अथवा नहीं.

एक कामचलाऊ राम मंदिर वहां मौजूद है. राव सरकार जिस तरह आगे बढ़ रही है – ‘धर्म को राजनीति से अलग करने’ की विशिष्ट कांग्रेसी शैली में – चंद्रस्वामी और शंकराचार्यों के जरिए केवल पर्दे के पीछे सक्रिय रहते हुए – उससे ऐसा लगता है कि राम मंदिर का मामला मजबूत होते जा रहा है. मंदिर बनाने का श्रेय कौन लेगा – कांग्रेस अथवा भाजपा, एकमात्र यही मुद्दा हल होना शेष है.

संघ परिवार के सिद्धांतकार बार-बार कह रहे हैं कि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद केवल धार्मिक विवाद नहीं है. उनके अनुसार बाबरी मस्जिद चूंकि राष्ट्रीय अपमान – मुस्लिम आक्रमण और हिंदू भारत पर मुस्लिम शासन – का प्रतीक था, लिहाजा यह राष्ट्रीय मर्यादा का प्रश्न कहीं अधिक है.

राष्ट्रवाद और देशभक्ति के हित में वहां क्यों नहीं एक राष्ट्रीय स्मारक का निर्माण किया जाए? न बाबरी मस्जिद और न राम मंदिर, 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायकों की याद में एक राष्ट्रीय स्मारक. आखिरकार, अवध इस महाविद्रोह का केंद्र था. अयोध्या में राष्ट्रीय स्मारक उस इतिहास का उचित सम्मान होगा.

अगर हिंदू धर्म केवल धर्म नहीं, बल्कि भारत में रहनेवाले तमाम लोगों की संस्कृति है, अगर हिंदू धर्म भारतीयता का पर्याय है और अगर बाबरी मस्जिद को राष्ट्रीय अपमान का प्रतीक मानकर तोड़ा गया, तो संघ परिवार को राष्ट्रीय गौरव का स्मारक बनाने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. संघ परिवार के अतिराष्ट्रबादी और अति देशभक्त इस प्रस्ताव को स्वीकार तो करें और देखें कि मुसलमान ‘राष्ट्रविरोधी’ इसपर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं. श्रीमान मलकानी और गोविंदाचार्य क्या मेरी बात आपके कानों में घुस रही है?

मेरी बात वे सुनें अथवा मत सुनें, धर्मनिरपेक्ष व देशभक्त शक्तियों द्वारा इस प्रस्ताव को पेश करने का यही सही समय है, ताकि वहां राम मंदिर के निर्माण को रोका जा सके. राम मंदिर भारतीय मुसलमानों के अपमान और अलगाव का स्थायी स्रोत होगा. और इस अर्थ में यह राष्ट्रीय विघटन का प्रतीक है.

वर्तमान में एक राष्ट्रीय स्मारक इस मंजिल में एकमात्र उसूली और व्यावहारिक मांग होगा तथा राष्ट्र, अगर जरूरी हुआ तो, एक राष्ट्रीय विपत्ति को दूर करने के लिए तमाम किस्म के कट्टरपंथियों की अनसुनी करके इसे अवश्य करे.

(पांचवीं पार्टी कांग्रेस में पारित राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से)

पिछले कुछ वर्षों से भारत का सांप्रदायिक तापमान बढ़ता ही रहा है तथा बाबरी मस्जिद के ध्वंस और उसके पश्चात राष्ट्रव्यापी आघात के चलते, जिसमें हजारों की जानें गईं और इससे भी बहुत अधिक घायल हुए. सांप्रदायिकता राजनीतिक एजेंडा के शीर्ष पर आ गई है. नेहरूवादी आर्थिक मॉडल की विफलता, राजनीतिक व्यवस्था से बढ़ता असंतोष, राष्ट्रीय एकता के लिए काल्पनिक व वास्तविक खतरे तथा दक्षिणपंथी और कट्टरपंथी उभार के अंतरराष्ट्रीय माहौल सरीखे तमाम कारकों ने वातावरण को सांप्रदायिक विचारधारा और राजनीति के फलने-फूलने लायक बना दिया है. मुख्यधारा की समस्त राजनीतिक पार्टियां -- कांग्रेस(आइ), जद, सीपीआई और सीपीआई(एम) ने भाजपा के साथ संबंधों के मामले में इस या उस मोड़ पर जिस राजनीतिक अवसरवाद पर अमल किया है, उसने भाजपा की ताकत को बढ़ाया ही है.

यह बहुत साफ तौर पर समझा जाना चाहिए कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच महज कोई मंदिर और मस्जिद का विवाद नहीं है. आरएसएस और भाजपा के धूर्त नेतृत्व ने बाबरी मस्जिद को सदैव हिंदू भारत पर मुस्लिम आक्रमण के एक ऐसे प्रतीक के बतौर उछाला है जिसे हिंदू गौरव की पुनर्स्थापना के लिए ढहाना जरूरी है. इस प्रकार राम जन्मभूमि आरएसएस के लंबे समय से चले आ रहे हिंदू राष्ट्र के दर्शन के लिए एक विशिष्ट प्रतीक बन गई, सीधे-सादे हिंदू अवाम को भारी पैमाने पर आकर्षित करने लगी और इस मुद्दे ने सचमुच ही संघ परिवार द्वारा दक्षता से गठित एक जनआंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया. धर्म के ढोंग के पीछे दरअसल जो बात थी वह थी राजनीति और विचारधारा. राम के नाम ने भाजपा को देश के कोने-कोने में पहुंच दिया और कुछ ही समय में उसे मुख्य विपक्षी पार्टी की हैसियत हासिल करने में काफी मदद पहुंचाई. और, भाजपा के चार राज्यों में सत्ता हासिल कर लेने के साथ ही आरएसएस ने स्कूलों को हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के प्रचार केंद्रों में तब्दील करने के लिए स्कूली पाठ्यक्रमों में रद्दोबदल कर दिए.

भाजपा अपने को एक सांप्रदायिक फासीवादी विकल्प के बतौर उभारने के लिए मार्क्सवादी व अन्य समाजवादी आदर्शों के पीछे हटने की वजह से और कांग्रेस को लगे धक्के से उत्पन्न शून्य को भरने के लिए आगे बढ़ी.

पूंजीपति वर्ग के सर्वाधिक दकियानूस हिस्सों और सामंतों की प्रतिनिधि विचारधारा फासीवाद स्वभाव से ही आक्रामक होता है. भाजपा ऐसी पार्टी नहीं है जो एक या दो राज्यों में सत्ता हासिल करके संतुष्ट रहे. वह केंद्रीय सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए एड़ी-चोटी का दम लगा रही है. लिहाजा उसने अयोध्या के मसले पर अपना दबाव बनाए रखा है, बाबरी मस्जिद का विध्वंस संगठित किया है, और अब वह नए सिरे से काशी और मथुरा के मुस्लिम इबादतगाहों को रौंद देने की धमकियां दे रही है.

इस सांप्रयादिक हमले पर सरकारी प्रतिक्रिया उदारवादी हिंदू विचारों के इस्तेमाल और कानूनी उपायों का सहारा लेने तक ही सीमित रही. मुख्यधारा के वाम की प्रतिक्रिया भी इस सीमा रेखा को कभी पार करने में सक्षम नहीं हुई है. और अंततः “मंदिर बने, मस्जिद रहे, सब कानून का पालन करें” तक पहुंच गई. अगर मार्क्स जीवित होते तो यही टिप्पणी करते कि भारत एक ऐसा देश है, जिसमें तमाम संघर्ष, चाहे वे वर्गों के बीच अथवा विचारों के बीच हों, समझौतों में समाप्त होते हैं. धर्मनिरपेक्षता के साथ भी यही बात सच है.

बहुत से लोग भाजपा के एक अन्य किस्म के प्रचार में फंस जाते  हैं जो कहता है कि हिंदुस्तान इसलिए धर्मनिरपेक्ष है कि यहां हिंदुओं का बहुल्य है. इसका तात्पर्य हुआ कि इस्लाम धर्म के अंदर तथाकथित तौर पर निहित कट्टरपंथ के विपरीत हिंदू धर्म सहिष्णु और उदार है.

अव्वल तो, अयोध्या के घटनाक्रम ने इस मिथक को पूरी तरह चकनाचूर कर दिया है. एक बार जब हिंदुत्व ने विश्व हिंदू परिषद के हाथों एक संगठित स्वरूप ग्रहण कर लिया और अयोध्या उसका तथाकथित हिंदू “वेटिकन” बन गया, तब हिंदू धर्म के महंत किसी भी अन्य धर्म के कट्टरपंथियों की तरह ही उन्मादियों और धर्मान्धो की शक्ल में सामने आए.

दूसरे, धर्मनिरपेक्षता का भारतीयकरण करने के नाम पर आधुनिक भारतीय सामाजिक चिंतकों द्वारा इसे प्रदान किए गए आशय – अर्थात् सभी धर्मों के सकारात्मक समन्वय या “सर्वधर्म समभाव” – से इसका कोई लेना-देना नहीं है. सारतः धर्मनिरपेक्षता का मतलब है राजकाज के मामले का धर्म से संपूर्ण अलगाव.

तीसरे, हर जगह धर्मनिरपेक्ष राज्य एक सफल जनवादी क्रांति की उपज रही है और भारत में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को कमजोर करने की मजबूरी भारतीय जनवादी क्रांति के अधूरे चरित्र की एक और स्वीकारोक्ति के सिवा और कुछ नहीं है. किसी भी धर्म का कौन-सा स्वरूप प्रधानता ग्रहण करेगा – कट्टरपंथी या उदार, यह एक नागरिक समाज के क्रमविकास की मंजिल के साथ जुड़ा हुआ सवाल है. चाहे ईसाई धर्म का कट्टरपंथ से उदारता की ओर बढ़ना हो या सिख धर्म में तथाकथित रूप से निहित उदारवाद का खालिस्तान के उदय के साथ कट्टरपंथ में तब्दील होना हो, ये सभी इसी सामाजिक नियम के उदाहरण हैं.

बाबरी मस्जिद के ढाहाए जाने से उदार हिंदू बुद्धिजीवी समस्याग्रस्त हैं. क्योंकि वह हिंदू मान्यताओं के विरुद्ध जाता प्रतीत होता है. साथ-ही-साथ उनके दिमाग में यह भी सवाल उठता है कि मुस्लिम नेता आखिर एक ऐसे जीर्ण-शीर्ण ढांचे पर अपना दावा छोड़ क्यों नहीं देते जो कि व्यवहारतः एक मस्जिद रह भी नहीं गया है. वे बड़ी आसानी से यह भूल जाते हैं कि मुसलमानों के लिए भी बाबरी मस्जिद एक ऐसा स्मारक है जो उनके भारत आने और इस उपमहाद्वीप का अभिन्न अंग बन जाने का प्रतीक है. चुनांचे उसका अस्तित्व भारत की जटिल सामाजिक-ऐतिहासिक स्थितियों में उनकी पहचान और अस्तित्व का प्रतीक बन गया है.

भारत के धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी का सड़क के आदमी से अलगाव और इसके फलस्वरूप सांप्रदायिक हमलों से उसके भय ने अक्सर उसे मंदिर के बरखिलाफ मंडल को खड़ा करने की नकारात्मक रणनीति पर निर्भर बना दिया है. पिछले चुनाव में यह रणनीति बुरी तरह विफल साबित हुई. इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज के सांप्रदायिक हमले के खिलाफ व्यापक जनमत को गोलबंद करने के लिए हिंदू और इस्लाम धर्मों के उदारवादी मूल्यों, पुरातत्व संबंधी खोजों और कानूनी फैसलों का बेहतर इस्तेमाल किया जाना चाहिए; तथापि, एक स्वतंत्र वाम प्लेटफार्म से आधुनिक धर्मनिरपेक्ष आदर्शों का व्यापक प्रचार ही जवाबी हमले का बुनियादी आधार बन सकता है. इसके अलावा धर्मनिरपेक्षता को जनवादी क्रांति के कार्यभार के विपरीत खड़ा नहीं करना चाहिए अथवा एक धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के नाम पर तमाम किस्म के अवसरवादी राजनीतिक गठबंधनों को उचित नहीं ठहराना चाहिए. बल्कि इसे जनवादी क्रांति का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए. बजाय इसके कि एक धर्मनिरपेक्ष मोर्चा हो जो कि जनवादी प्रश्नों को उठाए, हमें एक जनवादी मोर्चे की नितांत आवश्यकता है जिसका प्राथमिक एजेंडा हो धर्मनिरपेक्ष राज्य का निर्माण – महज एक नैतिक प्रश्न के रूप में नहीं अथवा ऐतिहासिक परंपराओं की पुष्टि के लिए नहीं. बल्कि व्यावहारिक राजनीति के सवाल के रूप में, जो कि आधुनिक भारत के निर्माण की पूर्वशर्त है.

(28 दिसम्बर, 1992 को ब्रिगेड मैदान में दिया गया भाषण)

बहुत साल पहले मैंने एक सपना देखा था. 1970 के दशक के अंत में जब हम जनता से अलगाव झेल रहे थे, तब मैंने एक दिन सपने में कोलकाता के रास्ते पर लाखों लाख लोगों का जुलूस देखा था – हाथों में लाल झंडे लिये. मन में एक इच्छा जागी थी कि काश एक दिन ऐसा आये जब मेरी पार्टी के नेतृत्व में हमारी पार्टी का झंडा लिये लाखों-लाख लोग जुलूस की शक्ल में कोलकाता के रास्ते पर इसी तरह निकल पड़ें. आज वह सपना सफल हुआ है.

इसी कोलकाता ने 1970 के दशक में हमारे आंदोलन को देखा है. इसके अलावा देखा है कि कैसे हजारों नौजवानों को ठंडे दिमाग से गोली मारकर खून किया गया. इसी ब्रिगेड मैदान में कामरेड सरोज दत्त की नृशंसतापूर्वक हत्या की गई. कामरेड चारु मजुमदार की ठंडे दिमाग से लालबाजार की पुलिस हिरासत में हत्या की गई. समूचे पश्चिम बंगाल ने जाना, समूचे देश ने जाना, समूची दुनिया ने जाना कि 1970 कि दशक में कोलकाता में जिन हजारों-हजार नौजवानों ने अपनी जान कुर्बान की, वे नक्सलपंथी थे. मगर बड़े अचरज के साथ हमने देखा कि जब वाम मोर्चा सरकार सत्ता में आई तो उसके नेताओं ने कहा कि अर्ध-आतंक के दिनों में, अर्ध-फासीवादी दौर में, उनके 1100 कार्यकर्ता मारे गये हैं. और यही फासीवाद द्वारा किये गये जुल्मों की एकमात्र असली दास्तान है. सुनकर अचरज हुआ. उस कांग्रेसी आतंक के जमाने में सीपीआई(एम) के अथवा अन्य वामपंथी पार्टियों के जिन कार्यकर्ताओं ने अपनी जान दी, उन सभी को हम शहीद का दर्जा देते हैं. लेकिन जिन हजारों-हजार क्रांतिकारी नौजवानों ने उन्हीं दिनों कुर्बानी दी, उनको सीपीआई(एम) द्वारा उस संघर्ष के भागीदार के रूप में मर्यादा नहीं दी गई. उन्हें शहीदों के रूप में स्वीकार नहीं किया गया. हमने देखा कि उन मामलों की जांच तक नहीं की गई. आज भी सरोज दत्त की हत्या एक रहस्य ही बनी हुई है. चारु मजुमदार की हत्या का रहस्य – एक रहस्य ही बना रह गया. और हमने सुना कि यहां बंगाल में 15 वर्षों से एक वामपंथी मोर्चे का शासन चल रहा है. कम्युनिस्ट पार्टी शासन चला रही है. फिर भी कांग्रेसी आतंक के दौर में हुए वे सारे आत्याचार और उनकी पृष्ठभूमि में मौजूद कहानियां आज भी क्यों पृष्ठभूमि में ही छिपी रह गई, इस सवाल का कोई जवाब हमें नहीं मिला.

1970 के दशक में इसी पश्चिम बंगाल की धरती पर एक तूफान आया था. उस तूफान में काफी कुछ जमींदोज हुआ था. बहुतेरे विद्वानों के मूल्यांकन के अनुसार हम एकतरफा सोच का शिकार हो गये थे. हमने गलतियां की थी. धीरे-धीरे हमने वे गलतियां सुधार ली हैं. हर राष्ट्र की एक विचार-भावना होती है, एक मर्यादा होती है. कई बार हम उन मनीषियों को उपयुक्त सम्मान नहीं दे सके. हमने उनकी जो आलोचना की थी, उसके कई पहलू सही होने पर भी उनको पूरी तरह से खारिज कर देने का रुझान एक गलती थी. शायद किसी क्रांतिकारी आंदोलन के उभार की शुरूआत इसी तरह से होती है. मगर आज हम अपनी उन गलतियों को सुधार कर पश्चिम बंगाल की धरती पर उठ खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं. और आज की यह रैली दिखला रही है कि हमने पश्चिम बंगाल की धरती पर सिर ऊंचा कर खड़े होना पुनः आरम्भ कर दिया है.

अब मैं वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति के बारे में दो-चार बातें कहना चाहता हूं. बाबरी मस्जिद गिरा दी गई है. आप सभी जानते हैं कि इसके बाद हमारे देश का चेहरा बहुत बदल गया है. इस मामले में हमने देखा कि कांग्रेस सरकार कह रही है कि उसने भाजपा पर विश्वास किया और यही उसकी गलती थी. लेकिन यहां मुझे एक बात कहनी है. राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में केंद्र सरकार ने केवल एक ही प्रस्ताव दिया था कि पूरे मामले को सर्वोच्च न्यायालय पर छोड़ दिया जाय. इस प्रस्ताव में भाजपा के खिलाफ लड़ने की कोई बात ही नहीं थी. और इस बैठक में हमारे कामरेड जयंत रंगपी भी उपस्थित थे. उन्होंने हमारी पार्टी का वक्तव्य रखा. उन्होंने कहा कि राव साहब, आप गलत रास्ता चुन रहे हैं. साम्प्रदायिक फासीवादी शक्तियों का इस प्रकार तुष्टीकरण करने से उनके अंदर आक्रामक भावना और तेज होगी. यह समझौते का रास्ता छोड़िये, उनके खिलाफ मजबूती से कदम उठाइये. कामरेड रंगपी ने  यह भी कहा कि राष्ट्रीय एकता परिषद को चाहिये कि राव सरकार को कड़े कदम उठाने का निर्देश दे. लेकिन वहां हमारे कामरेड की बातें नहीं सुनी गई. बल्कि हमने देखा कि सीपीआई(एम) के प्रतिनिधि ने वहां यह प्रस्ताव पेश किया कि केन्द्र सरकार पर हमारा भरोसा है, इसलिये राव साहब जो कुछ करेंगे हम उसी का समर्थन करेंगे.

इसके बाद क्या हुआ यह आप सभी लोग जानते हैं. अब वही नरसिम्हा राव सरकार कह रही है कि हमने भाजपा पर भरोसा किया था, लेकिन उन्होंने विश्वासघात किया है और सीपीआई(एम) कह रही है कि हमने राव साहब पर भरोसा किया था, लेकिन उन्होंने हमें कहीं का न छोड़ा. इस प्रकार एक राजनीतिक खेल चल रहा है. बहुत दुविधा दिखलाने के बाद, देर करके चंद कदम उठाने के बाद, कांग्रेस अब भाजपा के साथ सम्बंध स्वाभाविक करने की कोशिश कर रही है. सीपीएम भी कांग्रेस के साथ सहयोग करने का रास्ता खोज रही है. यहां तक कि कांग्रेस के साथ एक धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने की बातें भी सुनाई पड़ रही हैं.

मैं जानना चाहता हूं कि मोर्चा तो आपने बना ही रखा था. राष्ट्रीय एकता परिषद तो एक किस्म का मोर्चा ही था. ऐसा मोर्चा बना लेने के बाद भी क्या हुआ? बाबरी मस्जिद पर हमला तो आप नहीं रोक सके. तो फिर उन्ही लोगों के साथ मोर्चे का निर्माण करके साम्प्रदायिकता की लहर को आप रोक सकेंगे, ऐसा क्यों सोच रहे हैं?  

जरूर, इसके साथ-साथ और एक कोशिश भी चल रही है. वामपंथी खुद आपस में और अधिक एकताबद्ध हों और अन्य लोकतांत्रिक शक्तियों को शामिल करके मोर्चा का निर्माण करने की कोशिश करें. इस कोशिश में हम निश्चय ही शामिल रहेंगे, हाल में गठित राष्ट्रीय अभियान समिति में हम शामिल भी हैं. लेकिन हमारी सोच यही है कि कांग्रेस को साथ लेकर साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई सच्ची लड़ाई कत्तई नहीं लड़ी जा सकती.

असली सवाल यह है कि वामपंथ का उचित कर्तव्य क्या है? कभी जनता दल के पीछे और कभी कांग्रेस के पीछे चलने का फैसला लेना ही हमारा एकमात्र कर्तव्य हो गया है? हमारी पार्टी का कहना है कि अब इस रास्ते को त्याग देना चाहिये. बहुत दिनों से भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन और वामपंथी आंदोलन इसी दुष्चक्र में फंसा चक्कर काट रहा है. हमारे अभी-अभी सम्पन्न पार्टी महाधिवेशन में हमने यही कहा है. वामपंथी आंदोलन को एक नई दृष्टि के साथ, वामपंथी विकल्प की धारणा के साथ आगे बढ़ा ले जाना होगा. और यही वर्तमान राजनीति की मुख्य बात है, असली बात है – हमें साहस के साथ आगे बढ़ना होगा. हमने अपने पार्टी महाधिवेशन में इस विषय पर चर्चा की है और इसके लिये हम समूची ताकत लगाकर काम करते जायेंगे.

इसी प्रकार मजदूर वर्ग के मोर्चे पर वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने मिलकर भारतीय ट्रेड यूनियनों की स्पांसरिंग कमेटी का गठन किया है. इस कमेटी के आह्वान पर चंद दिनों पहले दिल्ली में हजारों की तादाद में मजदूर एकत्रित हुए थे. यह सचमुच एक सकारात्मक घटना है. लेकिन साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ने के नाम पर वामपंथी पार्टियां आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष में शिथिलता ला सकती हैं और कांग्रेस के प्रति नरम रवैया अख्तियार कर सकती हैं – यह खतरा हमेशा बना रहता है. हमें इस किस्म के सभी रुझानों के खिलाफ अवश्य ही सतर्क रहना होगा.

किसानों और मजदूरों, छात्रों और महिलाओं के इस किस्म के संघर्षों की बुनियाद पर हम तमाम वामपंथी शक्तियों की एक दृढ़, शक्तिशाली एकता का निर्माण करना चाहते हैं. एकता से हमारा मतलब नेताओं की एकता नहीं है, चुनावी सीटों की एकता या मंत्रालय वितरण की एकता नहीं हैं. इस किस्म की संकीर्ण और सतही एकता से हमारा कोई लेना-देना नही. हम जन आंदोलनों की बुनियाद पर बनी एकता, वर्ग संघर्ष की आग में ढलकर इस्पात बनी एकता ही चाहते हैं.

इस किस्म की एकता का निर्माण करने में संभवतः समय ज्यादा लगेगा, लेकिन धैर्य खो बैठने से काम नहीं चलेगा. हम जैसे-तैसे, सामयिक रूप से कुछ भी बना लेने की ओर नहीं भागेंगे. स्थायी और दृढ़ एकता का निर्माण करने हेतु जरूरी समय हमें देना ही होगा.

ओर एक बात कहना चाहता हूं. हमारे पार्टी महाधिवेशन ने नब्बे के दशक को क्रांतिकारी संघर्षों के दशक में बदलने का आह्वान किया है. हम इसी (बीसवीं) सदी में ही अपने देश का चेहरा बदल देना चाहते हैं. हम चाहते हैं कि अगली सदी – इक्कीसवीं सदी में जो भारत प्रवेश करे वह एक नया भारत हो. इस काम को पूरा करने के लिये हमारी पार्टी ने कम्युनिस्ट एकता की बात – यानी तमाम भारतीय कम्युनिस्टों को एक ही कम्युनिस्ट पार्टी के पताका तले लाने की बात भी उठाई है. सच है, भारत में इतनी कम्युनिस्ट पार्टियां क्यों रहेंगी? हम, भारत के कम्युनिस्ट, आपस में मिलजुलकर एक ही पार्टी में क्यों नहीं काम कर सकते?

लेकिन हम यह भी जानते हैं कि इस लक्ष्य को केवल तभी हासिल किया जा सकता है, जब हम अपने-आपकों भारत की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी में बदल सकेंगे. केवल तभी हम मातृभूमि का चेहरा बदल सकेंगे. केवल तभी हम लेनिन के सपने – बीसवीं सदी को उत्पीड़ित जनता की मुक्ति की सदी में बदलने के सपने को – अंशतः हो तो भी, पूरा कर सकेंगे. केवल तभी हम क्रांति का एक नया ज्वार पैदा कर सकेंगे, जो ज्वार गंगा से वोल्गा की ओर बहेगा.

इसलिये आइये, हम अपने-आपको भारत की सबसे बड़ी पार्टी बनाने के काम में न्यौछावर कर दें. वामपंथी शक्तियों की दृढ़ और जुझारू एकता का निर्माण करने के काम में, अपने देश का चेहरा बदल देने के काम में न्यौछावर कर दें. साम्प्रदायिकता की जहरीली हवा से हमारी महान मातृभूमि को मुक्त करने के काम में न्यौछावर कर दें.

आज मैं अपनी बात यहीं खत्म कर रहा हूं. लाल सलाम.

का० विनोद मिश्र के अंतिम लेख के प्रमुख अंश ( इसे उन्होंने 15 दिसंबर 1998 को समकालीन लोकयुद्ध के विशेषांक के लिए लिखा था)

बदलता अंतराष्ट्रीय माहौल

भारी अनिश्चयता के इस काल में 1998 का वर्ष उथल-पुथल से भरा एक और वर्ष रहा. हालांकि, अगर गहराई से जांच की जाए तो चारों ओर फैली इस अव्यवस्था की तह में छिपी कुछ ऐसी प्रवृत्तियों का पता चलेगा जो बहुत संभव है, शताब्दी का मोड़ आते-आते जबर्दस्त उथल-पुथल का रूप ले लें.

भूमंडलीकरण के पैरोकार कल तक शेखी बघार रहे थे कि पूंजीवाद का ‘स्वर्णिम युग’ अब स्थायी रहेगा और उनके पास विश्व अर्थव्यवस्था की सारी समस्याओं का हल मौजूद है. लेकिन 1998 ने सब कुछ बदल डाला. दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के ‘शेयर’ अर्थतंत्रों के भहराकर गिरने तथा इस संकट के तेजी से लातिन अमरीका तक फैल जाने से सबके चेहरों पर हवाइयां उड़ रही हैं. अब विश्वव्यापी मंदी का साया मंडराते देख अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के नीति-निर्माता संशय में पड़ गए हैं, और अब वे पुराने आत्मविश्वास के साथ जाने-पहचाने नुस्खे नहीं पेश कर पा रहे हैं. विश्व अर्थतंत्र के इन व्यवस्थापकों को न तो संकट का कोई कारण समझ में आ रहा है, न उसके समाधान का रास्ता सूझ रहा है. ऐसे में ये व्यवस्थापक कई विकल्प सुझा रहे हैं, जिनमें आर्थिक नियोजन में राज्य की बढ़ी भूमिका भी शामिल है. अभी हाल तक नव-उदारवाद के कट्टर सूत्रकारों को यह बात कितनी नागवार गुजरती थी! पिछले लगभग एक दशक से कायम मानदंड को धता बताते हुए इस साल अर्थशास्त्र का नेबोल पुरस्कार अमर्त्य सेन को दिया गया. यह महाशय ऐसे दार्शनिक आर्थशास्त्री हैं, जो ‘कहीं कुछ गड़बड़ हो जाने’ की स्थिति में गरीब और धनी दोनों के लिए सुरक्षा कवच बनाने की पैरवी करते हैं. कोई ताज्जुब नहीं कि 1930 के दशक के संकट का खौफ और पहले से बचाव की तैयारी की जरूरतों के मद्देनजर नोबेल कमेटी ने कीन्स के तीसरी दुनिया के अवतार को महिमामंडित करने का फैसला लिया हो!

भूमंडलीकरण परियोजना को लगे इन आघातों के चलते दुनिया का वैचारिक व राजनीतिक माहौल एक बार फिर बदल रहा हैं. हालांकि मौजूदा दौर में मार्क्सवादी विचारधारा की सामाजिक जनवादी व्यवस्था ही जोर पकड़े हुए है, लेकिन समूची दुनिया में गहराते संकट और नौजवानों व श्रमिक वर्गों की जोर पकड़ रही राजनीतिक कार्रवाइयां क्रांतिकारी मार्क्सवाद की ताकतों के फिर से एकजुट होने के लिए यकीनन अनुकूल स्थिति मुहैया करा रही हीं.

मौजूदा राष्ट्रीय परिस्थिति में वामपंथ की दो कार्यनीतियां

इस साल की शुरूआत में स्थिरता, जो अभी तक छलावा बनी हुई है, की तलाश में चुनाव कराए गए. लेकिन महज आठ महीने बीतते-बीतते राजनीतिक माहौल फिर एक और मध्यावधि चुनाव की संभावना से सरगर्म हो उठा है. संयुक्त मोर्चे की खिचड़ी सरकार का मजाक उड़ाने वाली भाजपा आज उससे भी रद्दी खिचड़ी गठजोड़ के जरिये सत्ता में आई. ‘स्थिर सरकार और योग्य नेता’ का उसका नारा साल का बेहतरीन मजाक माना गया है. सोनिया गांधी के नेतृत्व में पुनरुज्जीवित कांग्रेस जहां एक ओर सत्तारूढ़ गठबंधन को अपदस्थ करने की धमकी दे रही है वहीं दूसरी ओर ‘तीसरी ताकतों’ को, जो कांग्रेस के ध्वंसावशेषों पर पली-बढ़ी थीं, हाशिये पर ठेल रही है. परिस्थिति ने नए सिरे से वामपंथ की कार्यनीति पर बहस को सामने ला दिया है.

संयुक्त मोर्चा के पतन और भाजपा के गद्दीनशीन होते ही वामपंथ के मौकापरस्त हिस्से ने फौरन अपना सुर बदल दिया और उसने कांग्रेस से दोस्ती का राग अलापना शुरू कर दिया. सच तो यह है कि चुनाव के अंतिम परिणाम आने से पहले ही कामरेड सुरजीत कांग्रेस से अनुनय-विनय करने लगे थे कि वह सरकार बनाने में पहल करे. केंद्र में बनने वाली कांग्रेस सरकार को सीपीआई(एम) के समर्थन की व्याख्या तो कार्यनीतिक कदम के बतौर की गई, लेकिन उसके बाद से दोनों पार्टियों के बीच रिश्ते जिस तरह गहरे हो रहे हैं ओर सीपीआई(एम) के सिद्धांतकार जिस तरह इसे वैचारिक रंग दे रहे हैं, उससे साफ जाहिर है कि दोनों पार्टियां एक किस्म के रणनीतिक सहयोग की ओर बढ़ रही हैं. सीपीआई और सीपीआई(एम) दोनों के महाधिवेशनों में प्रतिनिधियों के बड़े हिस्से ने नेतृत्व के इस कदम का विरोध किया था और यहां तक कि भाकपा(माले) तथा इसी तरह की अन्य ताकतों के साथ तीसरा मोर्चा बनाने के औपचारिक प्रस्ताव भी इन कांग्रेसों में पारित हुए. लेकिन ऐसा लगता है कि नेतृत्व उसी घिसी-पिटी लीक पर चलते रहने के लिए आमादा है.

अक्तूबर 1997 में संयुक्त मोर्चा सरकार के सत्तारूढ़ रहते-रहते संपन्न हुई हमारी पार्टी की छठी कांग्रेस में हमने कहा था, “मौजूदा राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थिति में हमें दृढतापूर्वक भाजपा-विरोधी, कांग्रेस-विरोधी दिशा आख्तियार करनी चाहिए. फिर भी, हम मानते हैं कि भारत में केसरिया शक्तियों के सत्ता हड़पने का खतरा मौजूद है. ऐसा होने पर व्यापक भाजपा-विरोधी संश्रय बनाने के लिए नीतियों में कुछ पुनर्संयोजन करने पड़ सकते हैं. लेकिन इन पुनर्संयोजनों को तीन बुनियादी शर्तों का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा – (1) पार्टी की स्वतंत्रता व पहल बरकरार रखनी होगी, (2) किसी भी धर्मनिरपेक्ष या लोकतांत्रिक भाजपा-विरोधी संश्रय से कांग्रेस को अलग किया जाना होगा, और (3) हमें गैर-भाजपा, गैर कांग्रेस सरकारों की तमाम जनविरोधी नीतियों और कदमों का विरोध करना जारी रखना होगा.”

क्रांतिकारी सर्वहारा की पार्टी के लिए एकमात्र यही सही नीति हो सकती थी और हमारी पार्टी इसी नीति पर डटी रही.

पुनरुज्जीवित कांग्रेस चंद मुख्य मध्यमार्गी पार्टियों के अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा कर रही है और इसीलिए हाल-फिलहाल इन पार्टियों ने भी कांग्रेस के खिलाफ अपनी आलोचना तीखी कर दी है. हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करते हुए यह भी कहा जा रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति भाजपा और कांग्रेस के दो ध्रुवों के बीच सिमटती जा रहा है और तीसरे मार्चे की पूरी अवधारणा ही अप्रासंगिक हो गई है. इससे संकटग्रस्त तीसरा खेमा आतंकित हो उठा है और हाल में पुराने संयुक्त मोर्चे के टुकड़ों को ही बटोर कर किसी तरह तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिशे तेज हो गई हैं. मौजूदा ठोस हालात में ऐसे मोर्चे का एकमात्र मकसद कांग्रेस के साथ अपनी सौदेबाजी की स्थिति को मजबूत बनाना है.

जाहिर है कि हमारी पार्टी इस तरह की कोशिशों में फंसने से इनकार करती है. संसद में पूंजीवादी विपक्ष की पार्टियों के साथ सदन के अंदर तालमेल, यहां तक कि खास समय व खास परिस्थितियों में अस्थायी किस्म के कार्यनीतिक संश्रय की इजाजत तो दी जा सकती है, लेकिन किसी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष या तीसरे मोर्चे में उनके साथ अनालोचनात्मक रणनीतिक संश्रय कायम करना क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की कार्यनीति नहीं हो सकती. ‘राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा’ के संदेहास्पद सिद्धांत की आड़ में सीपीआई लंबे अरसे यही कार्यनीति अपनाती रही और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की तलाश ने उसे कांग्रेस की गोद में बैठा दिया. नतीजा क्या निकला? कांग्रेस तो आज भी बरकरार है पर सीपीआई तेजी से अजायबघर की चीज में तब्दील हो रही है. तथाकथित धर्मनिरपेक्ष मोर्चे की राह से ‘जनता का जनवादी मोर्चा’ कायम करने का सीपीआई(एम) का सूत्रीकरण पार्टी को कांग्रेस के पंजे की ओर धकेल रहा है. और यही लाजिमी है, क्योंकि जब धर्मनिरपेक्ष मोर्चा आपकी कार्यनीति का लक्ष्य बन जाए तो कांग्रेस के सिवा भला कौन आपका स्वाभाविक मित्र बन सकता है! लेकिन तब सीपीआई का जो अंजाम हुआ, उससे भी आप नहीं बच सकते.

इसके विपरीत, हम ‘जनता के जनवादी मोर्चे’ की धुरी के बतौर वाम ध्रुव का निर्माण करना चाहते हैं और इसीलिए हमने वाम महासंघ का नारा दिया है – ऐसा महासंघ, जिसमें कम्युनिस्टों, सोशालिस्टों से लेकर नये सामाजिक आंदोलनों के वामपंथी दिशा वाले हिस्सों तक, क्रांतिकारी जनवाद की तमाम शक्तियां शामिल रहेंगी. रेडिकल जनवाद की शक्तियां जमीनी स्तर से उभर रही हैं और वे संसदवाद के दायरे में शायद ही मिलेंगी. इसके अलावा, सारी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकते लोकतांत्रिक ही होंगी, ऐसा कत्तई जरूरी नहीं है, बल्कि कई मामलों में वे चरम दक्षिणपंथी ताकतों भी हो सकती हैं. जब और जहां कहीं उन्हें अपने फायदे में दिखता है तो वे सांप्रदायिक राजनीति के पक्ष में अपना रंग बदल सकती हैं. अस्सी के दशक में और नब्बे के दशक की शुरूआत में कांग्रेस ने ऐसा ही किया था और पिछले साल चंद्रबाबू नायडू ने भी यही राह अख्तियार की.

संयुक्त मोर्चे की बेआबरू मौत के बाद हमने वाम महासंघ के निर्माण के लिए ताजा प्रस्ताव भेजा, लेकिन सीपीआई व सीपीआई(एम) नेतृत्व ने उसे ठुकरा दिया. ऐसा होना उम्मीद के कत्तई विपरीत न था. इसके विपरीत, हम वाम कतारों और मेहनतकश जनता के बीच पैदा हुई इस एकजुटता को वाम महासंघ की दिशा में बढ़ाने के पक्षधर हैं.

संयुक्त मोर्चे के पतन और इसके अलावा सीपीआई व सीपीआई(एम) की शक्ति बढ़ना तो दूर, उल्टे कुछेक राज्यों में उनके पुराने आधार के क्षय होने के चलते इन पार्टियों के अंदर पूंजीवादी विपक्ष के प्रति कार्यनीति को लेकर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं. फिर, कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के सवाल पर भी गहरा विक्षोभ मौजूद है. वाम कतारों के विशाल बहुसंख्यक हिस्से ने उनकी पार्टी कांग्रेसों में अपनी भावना इसी रूप में अभिव्यक्त की है कि वामपंथ को एकताबद्ध होना चाहिए और उसे स्वतंत्र रूप से काम करना चाहिए. इसीलिए वाम महांसंघ का नारा वामपंथी कतारों और व्यापक मेहनतकश जनता – दोनों की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता है.

यह बात साफ तौर पर समझ ली जानी चाहिए कि वाम महासंघ का नारा महज वामपंथ की तमाम ताकतों को जैसे-तैसे एक छतरी तले लाने की पवित्र आकांक्षा नहीं है. इसके विपरीत यह ‘संयुक्त मोर्चा’ किस्म की अवसरवादी कार्यनीति के खिलाफ क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की ओर से दिया गया विशिष्ट कार्यनीतिक जवाब है. इसीलिए हमें इस नारे पर डटे रहना चाहिए, और वामपंथ की दो कार्यनीतियों के बीच इस लड़ाई को व्यापक वामपंथी कतारों व महेनतकश जनता के बीच ले जाना चाहिए और उन्हें क्रांतिकारी कम्युनिस्ट के पक्ष में जीत लेना चाहिए. यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह लंबी प्रक्रिया है, लेकिन यह सामाजिक जनवाद के खिलाफ हमारे ऐतिहासिक संघर्ष का अविभाज्य हिस्सा है. साथ ही यह कार्यनीति अराजकतावाद के खिलाफ सबसे प्रभावकारी प्रतिरोधक का भी काम करेगी, क्योंकि सामाजिक जनवादियों की ‘संयुक्त मोर्चा’ कार्यनीति में जो संसदीय बौनापन छिपा हुआ है,  वही क्रांतिकारी नौजवानों को संगठित वामपंथी आंदोलन से परे हटाता है और उन्हें अराजकतावादी कतारों में शामिल होने के लिए प्रेरित करता है.

कृषि संघर्षों को मुख्य कड़ी के रूप में पकड़ो

बिहार के ग्रामीण इलाकों, खासकर भोजपुर व जहानाबाद जिलों में हमारे सामाजिक आधार पर जमींदारों की भाड़े की सेनाओं के हमलों के चलते हम काफी कठिन स्थिति का सामना करते आ रहै हैं. दिसम्बर 1997 में बाथे जनसंहार हुआ, जिसमें करीब 60 लोगों की नृशंस हत्या कर दी गई. लेकिन यही घटना आंदोलन की राह में एक मोड़ भी साबित हुई. राजनीतिक प्रतिवाद संगठित करने के अलावा चंद जवाबी कार्रवाइयां भी की गईं और उसके बाद हुए संसदीय चुनाव में हम ग्रामीण गरीबों के बीच अपने सामाजिक आधार को टिकाए रखने तथा उसे सक्रिय करने में कमोबेश कामयाब रहे. हाल के दिनों में रणवीर सेना अपने सामाजिक आधार में बढ़ते आपसी झगड़ों के कारण ठहराव एवं बिखराव का शिकार हो रही है. दूसरी ओर, भोजपुर जिले में हाल में हुई पुार्टी की ‘नवजागरण’ रैली काफी शानदार रही. इसका तात्पर्य है कि जन सक्रियता में फिर से उभार आ रहा है. लेकिन आत्मसंतोष की कोई वजह नहीं है क्योंकि रणवीर सेना की प्रहार क्षमता अभी तक बरकरार है. इस अतिदुष्ट सेना पर – जो बिहार में हमारे आंदोलन के लिए अब तक की सबसे बड़ी चुनौती बन कर आई है – आखिरी जीत हासिल करने के लिए हमें अभी भी लंबा संघर्ष चलाना है.

छठी कांग्रेस के फैसलों की रोशनी में बिहार तथा अन्य राज्यों में हमारे आंदोलन के कई क्षेत्रों में खेत मजदूर संगठन उभर रहे हैं. बिहार में इन इकाइयों को राज्य स्तर पर समन्वित करने के लिए पहलकदमी ली जा रही है. नए साल में राज्यस्तरीय संगठन खड़ा करना हमारा एक मुख्य कार्यभार होगा. कृषि क्रांति के दौरान ग्रामीण सर्वहारा को उनके अपने वर्ग-संगठन में संगठित करना और उनमें वर्ग-चेतना विकसित करना पार्टी के सामने एक बड़ी चुनौती है.

बिहार में पुरानी किसान सभा अभी भी मृतप्राय पड़ी है. लेकिन चंद इलाकों में व्यापक किसान समुदाय को स्थानीय स्तर पर और स्थानीय मुद्दों पर संगठित करने के कुछेक प्रयास जरूर चल रहे हैं. किसान प्रतिरोध के इलाके पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश व उड़िसा के हिस्सों में भी विकसित हो रहे हैं. उड़ीसा में का० नागभूषण पटनायक के देहांत के बावजूद जमींदारों के हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया गया है.

भारतीय कृषि पर विश्व व्यापार संगठन के बढ़ते दबाव के कारण उपजे कृषि संकट का बहाना बनाकर सामाजिक जनवादी लोग ग्रामीण गरीबों को अपना संघर्ष त्याग कर धनी किसानों के पीछे गोलबंद होने की नसीहत दे रहे हैं. इसी किस्म के तर्कों की आड़ लेकर अराजकतावादियों ने भी धनी किसान संगठनों के साथ साझा मंच बना लिया है. यह दो चरम धाराओं के एक ही बिंदु पर मिलने की एक शास्त्रीय मिसाल है. चंद भूतपूर्व मार्क्सवादी, जो पहले ही मार्क्सवाद के वर्ग दृष्टिकोण का परित्याग कर चुके हैं, अब जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई को ही अंतिम लक्ष्य बताते हैं. अतः वे तमाम चीजों की व्याख्या केवल जाति को श्रेणी मानकर करते हैं, बसपा मार्का राजनीति में फंस जाते हैं और गरीब उत्पीड़ित जनता का नेतृत्व दलित व पिछड़ी जातियों से उभरे सुविधाभोगी तबके के नेताओं को समर्पित कर देते हैं. और ये नेता संसदीय प्रतिष्ठान के अंदर लूट में अपना हिस्सा निकालने के लिए जनता का चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इस किस्म के रुझानों का आंध्र प्रदेश के मार्क्सवादी-लेनिनवादी हल्कों में खासा जोर रहा है और वहां इसके परिणामस्वरूप आंदोलन हाशिए पर चला गया और कुछेक ग्रुप बिखराव के शिकार हुए हैं. तामिलनाडु में भी इसी प्रवृत्ति ने अच्छा-खासा भ्रम फैला रखा है और वहां तमाम संभावनाओं के बावजूद आंदोलन जोर नहीं पकड़ पा रहा है तो उसके पीछे यह एक खास वजह है. बिहार में भी ऐसे विचारों के चलते एमसीसी व पार्टी यूनिटी जैसे ग्रुप पिछड़ी जातियों के शक्तिशाली गुटों व शासक पार्टी के मोहरे बन गए.

जातियां अविभेदीकृत वर्ग हैं और इसीलिए हर किस्म के जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई, जो लोकतांत्रिक आंदोलनों का अविभाज्य हिस्सा है, समूचे समाज में वर्ग विभेदीकरण की प्रक्रिया को तेज करता है. कम्युनिस्ट होने के नाते हमारी प्राथमिकता है इस महान सामाजिक मंथन के बीच से अपनी विशिष्ट पहचान के साथ उभरी सर्वहारा की वर्ग ताकतों को सुदृढ़ करना, और हमारी पार्टी यही काम कर रही है. वे सारे लोग, जो मंडल लहर की चपेट में आकर समाजवाद का संकट आते ही हमारा साथ छोड़कर भाग गए थे, आज पतित होकर या तो लालू लुटेरा के सिद्धांतकार बन बैठे हैं या फिर उसके कार्यकर्ता. हमने अपनी जमीन पकड़ी हुई है. हमने अपनी वर्ग शक्तियों को संगठित किया है, जन आंदोलनों की लपटों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण किया और धीरे-धीरे अब हम तथाकथित सामाजिक न्याय की शक्तियों के गढ़ों पर भी धावे बाले रहे हैं. कृषि संघर्षों के क्षेत्र में हमें हर किस्म के उदारतावादी विचारों का विरोध करना होगा और पार्टी की वर्ग दिशा पर मजबूती से डटे रहना होगा. ये संघर्ष ही पार्टी की आत्मा हैं और केवल यहीं से जनता की शक्तिशाली सेनाएं उभरेंगी, जो देश का नक्शा बदल देंगी.

चौतरफा पहल लेने की ओर बढ़ो

प्रधान शत्रु के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान संगठित करने की अपनी पार्टी की समृद्ध परंपरा के अनुरूप हमने इस साल के उत्तरार्ध में ‘केसरिया हटाओ देश वचाओ’ अभियान चलाया. ऐसे अभियानों का मुख्य मकसद जनता को राजनीतिक रूप से शिक्षित करना होता है. इसी के साथ ये अभियान समूची पार्टी को गोलबंद करते हैं कि वह राष्ट्रीय मुद्दे पर अपना ध्यान केंद्रित करे, और इस तरह पार्टी की अखंड एकता को सुनिश्चित किया जा सके. इसीलिए किसी राज्य इकाई या जन संगठन द्वारा राष्ट्रीय आह्वान को तथाकथित रचनात्मक तरीके से लागू करने के नाम पर उस आह्वान को शिथिल करने की इजाजत कत्तई नहीं दी जा सकती.

हालांकि अभियान समाप्त हो चुका है, मगर भाजपा शासन के विभिन्न पहलुओं का पर्दाफाश करने का काम बिना रुके जारी रखना चाहिए. हमें, खासकर, थोक भाव से भूमंडलीकरण और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय हितों के आगे समर्पण के उसके आर्थिक सिद्धांत को हमले का निशाना बनाना चाहिए. स्वदेशी की उसकी तिकड़म का पूरी तरह पर्दाफाश हो चुका है. अब समय आ चुका है कि वामपंथ आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था के उद्देश्य को जोरदार तरीके से बुलंद करे. मजदूर वर्ग की 11 दिसंबर की कार्रवाई इस दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम थी. हमें मजदूर वर्ग के बीच, जहां अब बर्फ पिघलने लगी है और हमें बेहतर समर्थन भी मिलना शुरू हुआ है, पहले से काफी बड़ी पहल लेनी होगी. मजदूर वर्ग आंदोलन का राजनीतिकरण करने का यही उपयुक्त समय है. हमारे ट्रेड यूनियन नेताओं को कागजी कार्रवाई कम करनी चाहिए और मजदूरों के साथ सीधी अंतःक्रिया में ज्यादा जाना चाहिए.

जबकि राजनीतिक परिस्थिति में काफी उलटफेर हो रहे हैं और 1999 के वर्ष में एक और मध्यावधि चुनाव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, तो पार्टी को ऐसी भी स्थिति का मुकाबला करने के लिए पूरी तरह से तैयार रहना चाहिए. इसके लिए हमारे तमाम जन संगठनों को – खासकर नौजवान संगठन को – जनता के हित से जुड़े तमाम मसलों पर साहसिक पहल लेनी चाहिए और अन्य सभी से आगे निकलने की कोशिश करनी चाहिए. बंद दरवाजे के वार्तालापों में फंसे रहने के दिन लद गए. यह चौतरफा पहल लेने का वक्त है. इतिहास में प्रमुख महत्व के सवालों का समाधान केवल सड़कों पर ही हुआ है.

पार्टी संगठन को सुदृढ़ करो

पार्टी की छठी कांग्रेस ने पार्टी निर्माण के लिए निम्नलिखित मुख्य कामों को चिह्नित किया था : (1) पार्टी सदस्यता को सजीव व गतिशील पार्टी शाखाओं में संगठित करना, (2) सबसे निचले स्तरों तक पार्टी शिक्षा को ले जाना, (3) पार्टी मुखपत्रों को जन लोकप्रिय पत्रिकाओं के रूप में विकसित करना, (4) तमाम किस्म की गुटबंदी के खिलाफ गंभीर संघर्ष चलाना और पार्टी में स्वस्थ जीवंत लोकतांत्रिक माहौल बनाना, (5) जहां तक संभव हो, पार्टी में क्षेत्रीय और नारी-पुरुष असंतुलन को दूर करना और पार्टी की मजदूर वर्ग संरचना को सशक्त करना.

पार्टी की छठी कांग्रेस ने हमें चेतावनी दी थी : “लेकिन खुली और जन-आधारित पार्टी का मतलब कम्युनिस्ट पार्टी के आधारभूत गुणों को शिथिल करना, उसके एकीकृत चरित्र को दुर्बल करना और उसकी केंद्रीयता एवं अनुशासन को क्षतिग्रस्त करना कत्तई नहीं है. इसलिए, ऐसे तमाम किस्म के उदारतावादी विचारों के खिलाफ, जो किसी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी को सामाजिक जनवादी संसदीय संगठन में तब्दील करना चाहते हों, लगातार संघर्ष चलाना अनिवार्य है.” इतना ही कहना काफी है कि यह चेतावनी आज ज्यादा प्रासंगिक हो उठी है.

क्रांतिकारी मार्क्सवाद की लाल पताका को दृढ़तापूर्वक बुलंद करने वाली एक मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण, ग्रामीण गरीबों के एक सशक्त आंदोलन का निर्माण और केसरिया ताकतों की साजिशों के खिलाफ एक चौतरफा पहलकदमी – नए साल में हमारे सामने ये तीन मुख्य चुनौतियां खड़ी हैं. सामाजिक जनवादी तथा रंग-बिरंगे अराजकतावादी अपनी गलत कार्यनीतिक लाइनों के चलते गंभीर आंतरिक गड़बड़ियों का सामना कर रहे हैं. हमारी हर अग्रगति उन्हें और भी ज्यादा गड़बड़ा देगी तथा हमें वाम आंदोलन के शीर्ष पर स्थापित कर देगी. एक जनवादी मोर्चा, जो पूंजीवादी विकल्प के तमाम संस्करणों के विपरीत सच्चे मायनों में जनता का विकल्प हो, के निर्माण के लिए ऐसा होना निहायत जरूरी है.

कामरेडो,

1998 में हमने ऐसे कई महत्वपूर्ण नेताओं और कार्यकर्ताओं को खोया है, जिन्होंने वर्ग-शत्रुओं के खिलाफ संघर्ष में अपने प्राण निछावर किए हैं. हत्यारों की गोली ने हमसे केंद्रीय कमेटी के सदस्य कामरेड अनिल बरुआ को छीन लिया, जो असमिया समाज में व्यापक रूप से सम्मानित व्यक्ति थे और पार्टी और जनता के हित में सर्वोत्तम समर्पण की भावना से लैस कामरेड थे. और जब साल खत्म होने को आ रहा था, तो कामरेड नागभूषण, जो उन चंद महान नेताओं में से एक थे जिन्हें भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपने लगभग 75 साल के इतिहास में पैदा किया है, और जिनकी मौत को धता बतानेवाली भावना भाकपा(माले) की बार-बार राख से उठ खड़ा होने की भावना का प्रतीक बन चुकी थी, हमें छोड़ चले गए. अपनी मृत्यु शय्या पर उन्होंने घोषणा की थी : “जीवन हो या मृत्यु, मैं पार्टी और क्रांति के लिए समर्पित हूं.” यही एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट की सच्ची भावना है और आने वाले दिनों में और भी बड़ी जीतें हासिल करने के लिए कठोर चेष्टा में यही भावना हमारा मार्गदर्शन करे.