[5 मार्च 1997 को भाकपा(माले) द्वारा पटना में आयोजित हल्ला बोल जनसैलाब में दिया गया भाषण (संक्षिप्त);
समकालीन लोकयुद्ध, 16 मार्च – 15 अप्रैल 1997 से ]

बिहार के 53 जिलों से आई हुई संघर्षशील जनता और पटना शहर के प्रगतिशील सम्मानित नागरिकों को मैं अपना अभिवादन पेश करता हूं.

दोस्तो, इसी गांधी मैदान में सात दिन पहले एक तमाशा हो गया. भ्रष्टाचार-विरोध के नाम पर एक रैली की गई भारतीय जनता पार्टी के द्वारा. उसमें भूतपूर्वों की एक तिकड़ी आई थी जिसके जरिए भीड़ जुटाने की कोशिश की गई. उसमें एक थे – भूतपूर्व प्रधानमंत्री, वर्तमान में विपक्ष के नेता; दूसरे थे भूतपूर्व हीरो जो आजकल हीरो के बाद की भूमिका निभाने की स्थिति में आ गए हैं; और तीसरे थे ‘महाभारत’ सीरियल में श्री कृष्ण की भूमिका निभाने वाले कृष्ण जो वर्तमान में हवाला वाले लालकृष्ण की चमचागीरी करके संसद में पहुंचे हुए हैं. भूतपूर्वों की ये तिकड़ी आई थी, उनके जरिए भीड़ इकट्ठा की गई थी और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष की बातें की गई थीं. इस भीड़ में एक बहुत बड़ा हिस्सा था सफेदपोशों का, महिलाओं की संख्या नदारद थी. भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी मार जिस गरीब जनता को झेलनी पड़ती है, वो दलित-गरीब जनता उनकी इस रैली में शामिल नहीं थी. ऐसी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई सामाजिक संघर्ष, कोई गंभीर आंदोलन नहीं कर सकती. हां, उसमें कुछ भीड़ जमा हुई थी और कुछ अखबार लिखने लगे थे, नेताओं के वादे भी होने लगे थे कि अब भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाली सबसे बड़ी ताकत भारतीय जनता पार्टी है जिसके पास सबसे ज्यादा लोगों को गोलबंद करने की क्षमता है. उनकी ये घोषणाएं थीं कि रणवीर सेना के हमलों के सामने भाकपा(माले) का अस्तित्व खत्म-सा हो गया है. इसीलिए उन्हें ये उम्मीद थी कि भाकपा(माले) की रैली में शायद ही कुछ लोग आ पायेंगे.

ये घोषणाएं की गई थीं अखबारों में उनके सिद्धांतकारों के जरिए कि मध्य बिहार में भाकपा(माले) की उल्टी गिनती शुरू हो गई है. हम उन तमाम मुर्खों को कहना चाहते हैं कि आज आकर यहां तुम देख लो. यहां इस रैली में इस उमड़े हुए जनसैलाब ने इस बात को साबित कर दिया है कि भाकपा(माले) सिर्फ मध्य बिहार की पार्टी नहीं है, भाकपा(माले) पूरे बिहार की पार्टी है. भोजपुर के जिले में जहां से दसियों-हजार की संख्या में हमारे साथी यहां आए हैं उनको रोकने की ताकत उन रणवीर सेना के गुंडों में नहीं थी. भाकपा(माले) ने ही, जमीनी स्तर से भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष चलाया है. भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में यहां वो जनता शामिल है जिसको भ्रष्टाचार की मार सबसे बड़े पैमाने पर झेलनी पड़ती है.

लालू प्रसाद जी हमारी पार्टी को ‘मुड़कटवा’ पार्टी कहते हैं. वे तमाम जगहों पर जाते हैं और गरीबों से कहते हैं – माले मुड़कटवा पार्टी है, इस पार्टी में मत जाओ. ये प्रचार वो हमेशा करते रहते हैं और अपने-आप को गरीबों का नेता भी समझते हैं. लेकिन क्या कारण है कि गरीबों की संख्या हमारी रैलियों में, हमारी पार्टी के समर्थन में लगातार बढ़ती चली जा रही है? पिछले दिनों गृह-मंत्रालय की जो रिपोर्ट छपी उसने इस बात को साफ किया कि किस तरह भारतीय जनता पार्टी सामंती निजी सेनाओं को प्रश्रय दे रही है. किस तरह जनता दल तमाम अपराधियों को प्रश्रय दे रहा है. इस तरह बिहार की इस धरती पर जितनी राजनीतिक पार्टियां हैं, हिंसा के सहारे खड़ी हैं. हिंसा का जहां तक सवाल है, मैं ये बात दावे के साथ कहता हूं कि सबसे कम अगर हिंसा का कोई सहारा लेती है तो वह हमारी पार्टी भाकपा(माले) है. बाकी तमाम पार्टियों का वजूद हिंसा पर ही खड़ा है.

हमने रणवीर सेना के साथ भी लड़ाई लड़ी; उन्होंने जनसंहार किए लेकिन हम जाति संघर्ष नहीं करते. किसी जाति के खिलाफ युद्ध हम नहीं करते. इसलिए हमने उस जाति के लोगों को, जो छोटे-मंझोले गरीब किसान थे, धीरज और संयम के साथ समझाया कि हमारी लड़ाई आपके साथ नहीं है, हमारी लड़ाई कुछ गिने-चुने सामंतों के साथ है. आप उनका साथ छोड़ें, हमारे साथ आएं. हम आपको यह बताना चाहते हैं कि आज भोजपुर में बड़े पैमाने पर उस जाति के जो गरीब-मंझोले किसान है वे हमारे साथ जुड़ रहे हैं. वहां हालात बदले हैं.

साथियों, जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है हम यह बात आपसे कहना चाहेंगे कि बिहार हमारे देश की आजादी के समय भी देश का सबसे पिछड़ा हुआ राज्य था. आज आजादी के पचास साल गुजर गए; पचास सालों बाद बिहार आज भी देश का सबसे बड़ा पिछड़ा हुआ राज्य है. लेकिन इसी राज्य में शताब्दी का सबसे बड़ा घोटाला – एक अरब रुपये का चारा घोटाला हुआ. यह एक बहुत बड़ी विडंबना है. मैं समझता हूं यह जनता के साथ बहुत बड़ी गद्दारी है. जनता के साथ बहुत बड़ी धोखेबाजी है और इससे बड़ा अपराध कोई नहीं हो सकता. हम यह कहना चाहते हैं कि जिस दिन हिंदुस्तान में भाकपा(माले) का निजाम आएगा, जिस दिन हिंदुस्तान में भाकपा(माले) की सरकार बनेगी, उस दिन इन तमाम घोटालेबाजों को, इन तमाम हवालाबाजों को लैंपरोस्टों पर लटका कर फांसी दे दी जाएगी. हमें अपना वो निजाम बनाना है, अपनी हुकुमत बनानी है, अपनी सरकार बनानी है जिस हुकुमत में, जिस निजाम में हवालाबाजों के लिए, इन घोटालेबाजों के लिए कोई जगह नहीं होगी; उनकी जगह लैंपपोस्टों पर झूलने के लिए होगी, इसके सिवा कुछ नहीं होगा. यह लड़ाई हमें लड़नी ही होगी.

तो साथियों, देश में बनी है संयुक्त मार्चे की सरकार. उसमें हमारे वामपंथी भाई भी शिरकत कर रहे हैं. बड़ी-बड़ी बाते की गईं  कि सरकार के जरिए ऐसी नीतियां बनाई जाएंगी जिससे गरीब लोगों को फायदा होगा. अमीरी और गरीबी के बीच दूरियां कम होंगी. लेकिन आपने देखा कि पिछले दिनों एक बजट पेश किया गया – इस बजट में जो तमाम बड़े-बड़े उद्योगपति हैं, जो विदेशी पूंजी वाले लोग हैं, जो कालाधन कमाने वाले लोग हैं उन तमाम लोगों के लिए तमाम छूटें दी गईं, तमाम रियायतें दी गईं और आम गरीब जनता को इस बजट में कुछ भी नहीं मिला. इसी सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण में, जो बजट के तीन दिन पहले पेश किया गया था, यह लिखा था कि भारत के खेत मजदूरों की आय घटी है, चीजों की कीमतें बढ़ी हैं. इस बजट ने धनी और गरीब के बीच दूरी बढ़ाने का काम किया है और यह ऐसी सरकार के द्वारा किया गया है जिसमें हमारे वामपंथी दोस्त भी शिरकत कर रहे हैं. लेकिन इसके खिलाफ जोरदार ढंग से आवाज उठाने की ताकत भी आज वे खो चुके हैं.

अब देखिए, कश्मीर को लेकर हम झगड़ा चला रहे हैं. रोज 6 करोड़ रुपये वहां खर्च होते हैं. लेकिन हम जब इस बात को उठाते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती होनी चाहिए, कश्मीर के सवाल पर भी हमें लेन-देन के आधार पर समझौता करना चाहिए तो हमें देशद्रोही कहा जाता है. पाकिस्तान में भी माहौल बदल रहा है. पाकिस्तान की जनता भी नए सिरे से सोच रही है और हम यह उम्मीद करते हैं कि आने वाले समय में वह माहौल बनेगा जिसमें भारत और पाकिस्तान दोनों देश, दोनों दोशों की जनता, एक दूसरे के नजदीक आएगी और रोजाना 6 करोड़ रुपये जो कश्मीर में खर्च हो रहा है उन 6 करोड़ रुपयों को गांव में पीने के पानी के लिए, गांव में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए गरीब जनता के लिए लगाया जा सकेगा. लेकिन हम आपसे ये कहना चाहते हैं कि यह शासक वर्ग इन दिशाओं में नहीं जाना चाहते. इनके सारे खर्चे इस तरह से सजाए जाते हैं जिससे वे नए-नए ढंग के घोटाले कर पाएं.

इसलिए दोस्तो, तमाम आतंक को धता बताते हुए आज इस जनसैलाव में शामिल होकर आपने इस बात को साबित किया है कि गरीब जनता बिहार में तहेदिल से किसी को अगर अपनी पार्टी मानती है तो वो भाकपा(माले) को मानती है. ये रैली किसी सरकार के द्वारा प्रायोजित रैली नहीं है. लालू यादव की जहां तक बात है, गरीब उनकी राजनीति का मोहरा भर हो सकता है, इसके सिवा उन्हें गरीबों से कुछ भी लेना-देना नहीं. गरीब हमारी पार्टी की आत्मा है, गरीब हमारी पार्टी की शक्ति है, गरीब हमारी पार्टी की ताकत है.

आप देख रहे होंगे बिहार में इतनी गंभीर समस्याएं हैं लेकिन बिहार विधानसभा में बहसों का स्तर देखिए, आपको नफरत होने लगेगी कि ये किस तरह के राजनीतिक दल बिहार विधानसभा में हावी हैं. जिस विधानसभा में लोगों को जाने से रोकने के लिए बड़े-बड़े लोहे के बैरिकेड बनाए हुए हैं, वहां मांग करने के लिए जब हमारे छात्र पहुंचते हैं, उनपर लाठियां चलाई जाती हैं. मैं उस दिन पार्टी आफिस में मौजूद था मैंने अपनी आंखों के सामने देखा, वित्तरहित शिक्षक हजारों की तादाद में अपनी मांगे लेकर वहां खड़े हुए थे. उनके ऊपर, महिला शिक्षकों के ऊपर भी, किस निर्ममता के साथ, किस बेरहमी के साथ, पुलिस ने लाठियां बरसाईं. यह किसी भी सभ्य समाज में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. वे सारे शिक्षक दौड़-दौड़ कर भाग-भागकर एमएलए फ्लैटों में छिप रहे थे. जिस राज्य में शिक्षकों की ऐसी तौहीन होती हो, जिस राज्य में शिक्षकों को रास्तों पर दौड़ा-दौड़ा कर मारा जाता हो, सिर्फ इसलिए कि वे विधानसभा के ऐसे नेताओं के पास न जा सकें, जिन्हें सभ्य भाषा में बात करनी नहीं आती, जिन सबके ऊपर एक पर एक घोटालों के केस पड़े हुए हैं, वह बिहार एक राजनीतिक चौहारे पर आकर खड़ा है. आज बिहार परिवर्तन की मांग कर रहा है, सामाजिक क्रांति की मांग कर रहा है, आज बिहार आगे बढ़ने की मांग कर रहा है.

इसलिए अपने वामपंथी दोस्तों से हमने बार-बार अपील की है कि वामपंथ अगर इस चुनौती को स्वीकार नहीं करेगा तो आज लालू यादव की जो ताकत गिर रही है, उनके प्रति जनता का जो आक्रोश बढ़ रहा है, इसका विकल्प तब ये सांप्रदायिक पार्टियां देंगी. इसीलिए हमें इन दोनों मोर्चें पर लड़ाई लड़नी है. ये सामाजिक लूटतंत्र की जो ताकतें है इनके खिलफ भी और ये सांप्रदायिकता की जो ताकतें हैं इनके खिलाफ भी. बिहार वह राज्य है जहां वामपंथ यह चुनौती ले सकता है क्योंकि बिहार पूरे हिंदी प्रदेश का एकमात्र राज्य है जहां वामपंथ एक बड़ी ताकत रखता था. हमने पिछले सात वर्षों में अपने सीपीआई-सीपीएम के भाइयों से बार-बार ये अपील की है कि तुम अगर उनके पिछलग्गू बनोगे तो तुम सांप्रदायिकता को नहीं रोक पाओगे, तुम्हारी अपनी ताकत कमजोर होगी. उन्होंने पार्टी आत्मालोचना कर रही है. मैं यह बात कहना चाहता हूं, कि सात साल तक बिहार में वामपंथ की दो धाराओं ने यहां काम किया है. एक वह धारा है जिसने अपने स्वतंत्र अस्तित्व को कुर्बान कर दिया और जो जनता दल की पिछलग्गू बनकर रह गई.और दूसरी धारा थी जिसने तमाम दमन झेलते हुए भी, तमाम तिकड़में झेलते हुए भी अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रखा. वामपंथ अगर यहां इकट्ठा हो, एक साथ कूच करने के लिए तैयार हो तो हम इन सामाजिक लूटपंथी ताकतों को पीछे हटा सकते हैं और सांप्रदायिक ताकतों का बिहार में विकल्प बनने का जो सपना है वो सपना भी हम हमेशा-हमेशा के लिए चकनाचूर कर सकते हैं और इस रैली की ओर से उनसे एक बार फिर यह अपील है. दोस्तो, ये जनता यहां आई है और भी कुछ कहने के लिए. शायद बिहार में ऐसा कोई मुख्यमंत्री आज तक नहीं हुआ जिसने बिहार की जनता को इतने बड़े-बड़े सब्जबाग दिखाए हों और बिहार की जनता को इतना छला हो, मैं कहना चाहूंगा कि बिहार की जनता ऐसे लोगों को जिन्होंने उसको इतना बड़ा धोखा दिया, ऐसे गद्दारों को कभी माफ नहीं करेगी. आप मुख्यमंत्री रहें या न रहें, आप जेल जाएं या मत जाएं, आप विपक्ष में रहें या कहीं रहें लेकिन ऐसे व्यक्ति को, ऐसे नेता को बिहार की जनता कभी भी माफ नहीं करेगी.

साथियों, हमें इस लड़ाई को आगे बढ़ाना है, बिहार के हर जिले में फैलाना है, जिससे भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को हम और भी आगे बढ़ा सकें. यह हमारी पार्टी का आह्वान है. आप यहां से जा रहे हैं, आपके सामने फिर एक नया संघर्ष है, उस नए संघर्ष की तैयारियों के साथ आपको जाना है और आपको मेरे साथ फिर एक बार एक नारा लगाना है ‘माले ने ललकारा है, सारा बिहार हमारा है!’

(लिबरेशन, अक्टूबर 1996 से)

(...) यह जनसंहार अगले ही दिन राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियों में आ गया और प्रमुख दैनिक पत्रों में अनेक सम्पादकीय और विश्लेषण छापे गए. दूरदर्शन ने इस घटना को कम अहमियत दी और अपनी ओर से यह बताने पर खास ध्यान दिया कि रणवीर सेना और भाकपा(माले) के बीच घिसाव-थकाव वाले युद्ध में अबतक ढाई सो से ज्यादा लोग मारे गए हैं. संघ परिवार से वैचारिक प्रेरणा ग्रहण करनेवाले समाचार पत्रों की सम्पादकीय टिप्पणियों में बिहार की विधि-व्यवस्था की चरमराती स्थिति पर लानतें भेजी गईं, बिहार के 26 जिलों में वामपंथी उग्रवादियों द्वारा संचालित तथाकथित समानांतर सरकारों के बारे में रोचक कहांनिया लिखी गईं और इनपर अंकुश लगाने के लिए विशेष अर्धसैनिक कार्यवाहियों की सख्त जरूरत बताई गई. ‘द एशियन एज’ के उन्हीं पन्नों में सीबीआइ के एक पूर्व-निर्देशक ने भी अपनी कलम मारी. अनेक अन्य समाचार पत्रों में हिंसा और प्रतिहिंसा के दुश्चक्र के बारे में सनसनीखेज कहानियां लिखी गईं, उनमें सर से पांव तक हथियारबंद सामंतों द्वारा जन-आतंक फैलाने के औजार के बतौर महिलाओं व बच्चों, बूढ़ों व निर्दोषों के जनसंहारों तथा अपनी आत्मरक्षा व अपने न्यायप्रिय अधिकारों के लिए ग्रामीण गरीबों के जनप्रतिरोध के बीच के फर्क को मिटा दिया गया. तर्कों की विचित्र यात्रा के दौरान खुद पीड़ितों को ही भर्त्सना का पात्र बना दिया गया.

यह सुविदित तथ्य है कि कतिपय अराजकतावादी ग्रुपों से भिन्न भाकपा(माले) लिबरेशन एक जन राजनीतिक पार्टी है और बिहार विधानसभा में उनके छह सदस्य हैं, जिनमें दो सदस्य तो जनसंहारों के इलाके से ही निर्वाचित हुए हैं. 1989 में उसने आरा संसदीय सीट जीती थी और 1996 के संसदीय चुनाव में उसने वहां लगभग 1 लाख 46 हजार वोट पाए थे. पार्टी ने गरीब किसानों के शक्तिशाली जन आंदोलनों का नेतृत्व किया है और उसने पटना व दिल्ली के राजधानी-नगरों में वामपंथ के कतिपय विशालतम राजनीतिक प्रदर्शन भी संगठित किए हैं. पार्टी विवेकहीन हिंसा में विश्वास नहीं करती है और बिलकुल अपरिहार्य होने पर ही किसी बदले की कार्यवाही को अंजाम देती है. भाकपा(माले) पर कोई यह आरोप नहीं लगा सकता है कि उसने महिलाओं, बच्चों या निर्दोष लोगों की हत्या की है. प्रबल उकसावों के बावजूद इसने हर जातीय जवाबी कार्रवाई को शिथिल बनाने का ही सदा प्रयास किया है, और बथानी टोला भी इसका अपवाद नहीं.

दलितों के दो स्वघोषित प्रवक्ता – कांशीराम और रामविलास पासवान तो इस घटना की भर्त्सना करने की भी जरूरत नहीं महसूस करते हैं. दलितों को सबल बनाने के सर्वप्रमुख समर्थक वीपी सिंह को मुंबई में रमेश किणी के परिवार से मिलने का पर्याप्त मौका तो जरूर मिला लेकिन बथानी टोला की समूची परिघटना पर उन्होंने रहस्यमयी चुप्पी साधे रखी. कोई उल्लेखनीय मुस्लिम नेता घटना स्थल पर नही पहुंच सका- इस तथ्य के बावजूद के कि रणवीर सेना भाजपा का ही एका अग्रभाग संगठन है, कि बथानी टोला के पीडितों का एक बडा हिस्सा मुस्लिम समुदाय से आता है, कि वहां का फौरी मुद्दा कब्रगाह और कर्बला की जमीन की मुक्ति से जुड़ा हुआ था और यह कि उस जनसंहार में एक मजबूत साम्प्रदायिक तेवर परिलक्षित हो रहा था.

केन्द्र के कम्युनिस्ट गृहमंत्री इन्द्रजीत गुप्ता हवाई मार्ग से घटनास्थल पर अवश्य गए और वहां उन्होंने समस्या के मूल कारण के रूप में भूमि सुधार के अभाव का रोना रोया, और इसी कारण गृहमंत्री होने के नाते वे और कुछ कर भी नहीं सके. जब कुछ ठोस करने का इरादा न हो तो इस तरह के सैद्धांतीकरण की स्वतंत्रता किसी कम्यनिस्ट गृहमंत्री के लिए शायद विशेषाधिकार बन जाता है. बिहार में पुलिस बल को आधुनिक साजो-सामान से लैस बनाने और अर्धसैनिक बलों की नई इकाइयां गठित करने – जैसा कि मुख्यमंत्री और पुलिस महकमे के शीर्षस्थ अधिकारियों ने मांग की थी – का वादा करते हुए श्री गुप्ता दिल्ली वापस लौट गए. हर कोई आश्चर्य कर रहा था कि क्या पुलिस की निष्क्रियता के पीछे सचमुच हथियारों का अभाव ही मूल कारण था! केन्द्रीय गृहमंत्री ने संसद में अवकाश प्राप्त वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को लेकर एक टास्क फोर्स के गठन की घोषणा की, जो बिहार में उग्रवाद की वृद्धि के कारणों की जांच करेगा. अपने कर्तव्य की आपराधिक लापरवाही के लिए जिला प्रशासन के खिलाफ न तो कुछ कहा गया, न कुछ किया गया और सामान्यीकरणों की आड़ में यहां तक कि ऐसी गंभीर घटनाओं की जांच के लिए न्यायिक समिति गठित करने की परंपरा को भी त्याग दिया गया.

उदारवादी मीडिया ने इस बात की भूरि-भूरि प्रशंसा की कि श्री गुप्ता ने भूमि सुधार के अभाव को मूल कारण बताकर समस्या के मर्म को छू लिया है. लेकिन, गौर से देखने पर यह पता चलेगा कि अपने ठोस संदर्भ और समय में ऐसे वक्तव्य सबसे अधिक हास्यास्पद थे. ऐसे सम्पादकीय और सामाजिक विश्लेषण प्रायः पढ़ने को मिलते हैं, जो बताते हैं कि भूमि सुधार का अभाव ही नक्सलवाद की वृद्धि के पीछे मूल कारण है. श्री गुप्ता भी उसी ‘चिंता’ से ग्रस्त थे और इसीलिए उन्होंने भी वही सामान्य नुस्खा पेश कर दिया. गलत जगह पर अपने विद्वतापूर्ण अभियान संचालित करने के क्रम में वे यह नहीं समझ सके कि बथानी टोला बढ़ते सामंती प्रत्याक्रमण का उलटा मामला है.

भोजपुर में आमतौर पर, तथा खासकर बथानी टोला के निकट बड़की खड़ांव के प्रमुख गांव में अपनी संगठित ताकत और बढ़ते राजनीतिक सामर्थ्य पर भरोसा करते हुए लोगों ने मजदूरी और भूमि सुधार पहले ही हासिल कर लिए हैं. बिहार में विगत संसदीय चुनाव में भाजपा की बढ़त से प्रोत्साहन पाकर ये सामंती प्रत्याक्रमण स्पष्टतः इन उपलब्धियों को कुचल देने और पुनः सवर्ण वर्चस्व को स्थापित करने की ओर लक्षित हैं. संयोगवश, रणवीर पुराने समय के भूमिहारों के ‘हीरो’ रहे हैं जो राजपूत वर्चस्व के खिलाफ लड़े थे और, इसीलिए राजपूत आमतौर पर रणवीर सेना में शामिल होने से परहेज ही करते थे. बड़की खड़ांव में इन दो जातियों के बीच एकता भाजपाई तत्वों ने निर्मित की थी और इसके लिए उन्होंने उसी सहज साम्प्रदायिक बहाने का इस्तेमाल किया, क्योंकि वहां का मौजूदा संघर्ष कब्रगाह और कर्बला की भूमि को लेकर चल रहा है, जिसे सवर्ण भूस्वामियों ने बलपूर्वक कब्जा कर लिया है. इस टकराव की शुरूआत 1978 में ही हो चुकी थी, जब मुखिया पद के लिए हुए पंचायत चुनाव में युनुस मियां ने केशो सिंह को पराजित कर दिया था और जब उसके बाद इमामबाड़ा की जमीन काटी गई थी.

बथानी टोला खुले वर्गयुद्ध का एक विशिष्ट नमूना है – ग्रासरूट स्तर से शुरू होते हुए भी इसके मानदंड शिखर के राजनीतिक संघर्षों के जरिए निर्धारित हो रहे हैं. यह एक ऐसा विशिष्ट नमूना है जहां जातीय और साम्प्रदायिक शत्रुता – अर्थात् समकालीन भारतीय समाज के दो प्रमुख सामाजिक मानदंड – वर्ग संघर्ष के सांचे में घुलमिल से गए हैं. यह कोई संयोग नहीं कि समूचे भोजपुर को अपने आगोश में समेट लेने और बिहार के दूसरे इलाकों में भी तेजी से फैलते जानेवाले इस वर्गयुद्ध में क्रांतिकारी वामपंथ तथा चरम दक्षिणपंथ की फासिस्ट साम्प्रयादियक ताकतें आमने-सामने की लड़ाई में भिड़ गए हैं और यह भी कोई संयोग नहीं है कि खुले वर्गयुद्ध के शुरू होते ही मध्यमार्गी और सामाजिक जनवादी ताकतें नपुंसक हो गई हैं, जो प्रायः परभक्षी लुटेरों के ही हित में जानेवाली उदासीन स्थिति अपना लेती हैं.

जातीय व साम्प्रदायिक भेदभाव के मुद्दों को अपने अंदर समाहित कर लेने वाला यह वर्ग युद्ध, साथ ही साथ, उत्तर-आधुनिकतावादी एजेंडा का भी निषेध है, जिसका प्राथमिकता क्रम बिलकुल उल्टा है (अर्थात् उसके एजेंडे में वर्ग अंतरविरोधों को जातीय और साम्प्रयादिक अंतरविरोधों के मातहत रख दिया जाता है – अनु.)

मीडिया की खबरों को और इसके साथ-साथ दलित व अल्पसंख्यक सशक्तिकरण के तमाम पैरोकारों की चुप्पी को इसी पृष्ठभूमि में देखना होगा. प्रतिवाद आंदोलन फिर भी जारी हैं. जिला प्रशासन को दंडित करने और भोजपुर में भूस्वामियों को निःशस्त्र करने की मांग पर रामेश्वर प्रसाद ने आमरण अनशन शुरू किया है, जो भारतीय संसद में प्रवेश पाने वाले भाकपा(माले) धारा के पहले सदस्य और वर्तमान में भोजपुर के ही एक विधायक हैं और, इस अनशन को केंद्र करके प्रगतिशील और लोकतांत्रिक बुद्धिजीवियों की लगातार बढ़ती तादाद बथानी लोटा की इस मध्ययुगीन कार्यवाही और राज्य की निष्क्रियता के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रही है.

भोजपुर के पिछले 25 वर्षों का इतिहास यही बताता है कि यहां संघर्ष कभी आधी राह पर नहीं रुका है. 25 वर्ष पहले की स्थिति की तुलना में ग्रामीण गरीबों ने आज कई सामाजिक-आर्थिक उपलब्धियां छीन ली हैं और वे राजनीतिक रूप से भी काफी आगे बढ़ चुके हैं. कोई भी बथानी टोला उनकी उपलब्धियों के क्षुद्रांश से भी उन्हें वंचित नहीं कर सकता है. इसीलिए, यह लड़ाई जारी है और यह तबतक जारी रहेगी, जबतक कि सामंतवाद के अंतिम अवशेषों को भी अंततः दफना नहीं दिया जाता है.

(बथानी टोला जनसंहार पर भाकपा (माले) की केंद्रीय कमेटी द्वारा जारी फोल्डर)

जैसा कि आप जानते हैं भोजपुर के बथानी टोला में 11 जुलाई 1996 को रणवीर सेना के आदमखोर दरिन्दों ने बर्बर व वीभत्स हत्याकांड रचाया. इसमें 20 महिलाओं और 8 वच्चों को नृशंसतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया गया. एक गर्भवती महिला को तलवार से पेट चीरकर मारा गया. एक बच्चे के नारियल सरीखे सिर को न केवल तलवाल से फोड़ दिया गया बल्कि उससे पहले उसकी जुबान रेत दी गई. एक अबोध बच्चे के हाथ की उंगलियां काट दी गईं. मां की गोद में चिपके एक नवजात शिशु और मां दोनों को न केवल तलवाल से गोद-गोद कर मार डाला गया बल्कि घर में आग लगाकर उन्हें जला दिया गया. एक नौजवान हो रही लड़की के साथ बलात्कार करके, स्तन काट लेने जैसी नृशंसताएं की गईं. घायलों में दो बच्चों की बाद में मौत हो गई. बेशक, यह एक घोर वहशियाना हरकत है जिसकी दूसरी मिसाल आजाद हिंदुस्तान में शायद ही मिले. आखिर इस दिल हिला देने वाली घटना की पृष्ठभूमि क्या है? इसके पीछे की हकीकत क्या है?

सरकारी झूठ का पुलिन्दा

यहां यह जानना जरूरी है कि यह आदमखोर रणवीर सेना पिछले डेढ़ सालों से प्रतिबंधित है और इससे आम जनता की सुरक्षा के नाम पर ही घटनास्थल के नजदीक तीन-तीन पुलिस कैंप तैनात थे. प्रशासन को भी मौखिक व लिखित रूप से सूचना देकर बार-बार जनसंहार की आशंका व्यक्त की गई थी. लेकिन आला अधिकारियों ने कोई भी एहतियाती कदम नहीं उठाया और पुलिसवाले तमाशबीन बने रहे. मुख्यमंत्री ने इलाके का दौरा किया और स्थानीय पुलिसवालों को निलंबित कर दिया. लेकिन जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक के खिलाफ उन्होंने कोई भी कदम उठाने से इनकार कर दिया. अपने भाषणों में उन्होंने बड़ी-बड़ी लफ्फाजी भरी बातें कीं. लेकिन व्यक्तिगत बातचीत में उन्होंने पत्रकारों से कहा कि ‘माले वाले आर्थिक नाकेबंदी करेगें तो वो सब क्या करेगा?’ देश के गृहमंत्री वहां पहुंचे. न उन्होंने घटनास्थल पर उपस्थित जनता से कुछ जानना चाहा न पटना में हमारे पार्टी प्रतिनिधि से मुलाकात की. मुख्यमंत्री व नौकरशाहों से ली गई जानकारी के आधार पर बिहार पुलिस के आधुनिकीकरण का वायदा करके वे दिल्ली लौट आए, गोया पुलिस व प्रशासन की निष्क्रियता का कारण हथियारों की कमी थी. पत्रकारों से उन्होंने फरमाया कि भूमि सुधार न होने की वजह ऐसी घटनाएं बिहार में होती रही हैं (और शायद होती रहेंगी). यह कहते वक्त गृहमंत्रीजी शायद भूल गए थे कि पिछले छः वर्षों से बिहार में उन्हीं की पार्टी द्वारा समर्थित लालू यादव की प्रगतिशील सरकार चल रही है. गृहमंत्री ने अवश्य ही बिहार प्रशासन को दोषी बताया और एक अखबारी रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने जिला प्रशासन की मिलीभगत की बात भी कही. लालू यादव के दबाव के सामने हालांकि बाद में वे इस वक्तव्य से मुकर गए.

गृहमंत्री द्वारा जिला प्रशासन पर इतना बड़ा आरोप लगाने के बावजूद, विधानसभा की सर्वदलीय कमेटी द्वारा डीएम-एसपी को दंडित करने की अनुशंसा के बावजूद बिहार सरकार ने कोई भी कदम उठाने से इनकार कर दिया है. उल्टे, इस मांग पर शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन करनेवालों पर उन्हीं आपराधिक जिला प्रशासकों द्वारा लाठियां बरसाई जा रही हैं, आमरण अनशन पर बैठे जनप्रतिनिधियों को जेलों में ठूंसा जा रहा है. अरवल जनसंहार की कहानी एक बार फिर दोहराई जा रही है जिसमें तमाम सरकारी व गैर सरकारी जांच रिपोर्टों में दोषी करार दिया गया हत्यारा एसपी कासवान लालू यादव की कृपा से आज भी अपने पद पर जमा हुआ है. रणवीर सेना के खिलाफ कोई पुलिस कार्यवाही नहीं हो रही है. दूसरी ओर पूरी सरकारी मशीनरी एवं शासक वर्ग की पार्टियां ऊलजलूल तर्कों के सहारे रणवीर सेना को बचाने और दोष हमारी पार्टी के मत्थे मढ़ने की साजिश रच रही हैं.

हमारे कुछ तथाकथित वामपंथी बंधुओं ने तटस्थता का रवैया अपना रखा है. आज गरीब भूमिहीन किसानों व सामंत कुलकों के बीच उन्हें फर्क नजर नहीं आता. दलितों-अल्पसंख्यकों और सवर्ण जाति दंभ की ताकतों के बीच भी उन्हें फर्क नजर नहीं आता. न ही इस घटना में जीता-जागता साम्प्रदायिक पहलू उन्हें नजर आता है और न ही दुधमुंहे शिशुओं और महिलाओं की यह नृशंस हत्या उनके विवेक को झकझोरते हुए उन्हें सड़कों पर उतरने की प्रेरणा देती है. उल्टे, वे भी प्रशासन के सुर में सुर मिलाकर, घटना की सही पृष्ठभूमि को ओझल करने व प्रगतिशील जनमत को भ्रमित करने में लगे हुए हैं. ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि हम इस घटना की पृष्ठभूमि की सही जानकारी आपको दें जो अखबारों के माध्यम से आप तक कम ही पहुंची है.

आदमखोर रणवीर सेना और नापाक राजनीतिक रिश्ते

भोजपुर के गरीब किसानों के सशक्त आंदोलन की चोट से सामंतशाही की ढहती इमारत को बचाने के उद्देश्य से ही आज से दो वर्ष पहले रणवीर सेना का जन्म हुआ जिसका घोषित उद्देश्य है, “भोजपुर को रूस या चीन नहीं बनने देंगे, बंदूकों के बल पर भोजपुर क्या, सारे देश से लाल झंडे को उखाड़ फेंकेंगे और पुरखों की बनाई हुई जो सामाजिक व्यवस्था व रीति-नीति चलती रही है उसे फिर से बहाल करेंगे.” अपने जन्म से अबतक इस सेना ने भोजपुर के सहार व संदेश इलाके में करीब एक सौ लोगों की हत्या की है जिसमें अधिकांश बच्चे, महिलाएं, बूढ़े एवं निरीह व निर्दोष लोग ही हैं जो सभी दलित, अति पिछड़ी जातियों व मुस्लिम सम्प्रदाय से आते थे. रणवीर सेना के खिलाफ प्रशासनिक कार्यवाही की मांग पर आरा शहर में हमारी पार्टी के धरने पर तथा दिल्ली रैली में जाते लोगों पर ग्रेनेड बरसाए गए जो पूरी तरह फट ना पाने की वजह से खास नुकसान नहीं पहुंचा सके, वरना सैकड़ो लोग मारे जा सकते थे. शुरूआत में इसके नेतृत्व में कांग्रेसी थे, बाद में नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी के हाथों में चला गया और इसी के साथ

अल्पसंख्यक संप्रदाय को खासतौर से निशाना बनाया जाने लगा. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के ताबडतोड़ दौरे हुए, मीटिंगें हुईं और पिछले लोकसभा चुनाव में रणवीर सेना ने लिखित फतवा जारी कर भाजपा को समर्थन देने का एलान किया, जिस फतवे की कापी खुद सरकार ने विधानसभा में पेश की.

लोकसभा चुनावों में भाजपा-समता गठजोड़ के अच्छे प्रदर्शन के बाद से ही हर जगह दबंग सवर्ण जातियां और कुलक-सामंती ताकतें हमलावर हो गई हैं. जनता दल का नपुंसक नेतृत्व इन ताकतों से सीधा मोर्चा लेने के बजाए इनके तुष्टीकरण की नीति पर चल रहा है. खासकर भोजपुर जिले में दलित व अति पिछड़ी जातियां पूरी तरह माले के साथ हैं और जहां सामाजिक न्याय का संघर्ष लाल झंडे के तले लड़ा जा रहा है, वहां जनता दल माले की ताकत को रोकने के लिए सामंतों के साथ खुलेआम हाथ मिलाता है. वहां आपको लालू यादव कुख्यात सामंत के साथ एक ही मंच पर नजर आएंगे. जनता दल सांसद और मंत्री चन्द्रदेव वर्मा रणवीर सेना पर से प्रतिबंध हटाने की मांग करते दिखाई देंगे और जनता दल के कई नेता एवं रणवीर सेना के गुंडे आपस में गलबहियां करते नजर आएंगे. यही वह राजनीतिक पृष्ठभूमि है जिसने रणवीर सेना का मनोबल बढ़ाया है और प्रशासन को उसके पक्ष में खड़ा कर दिया है.

जनसंहार की पृष्ठभूमि

1978 के ग्रामपंचायत चुनाव में मो. युनुस तत्कालीन मुखिया केशो सिंह को हरा कर मुखिया बने. उसके बाद घटित घटनाओं का सिलसिला देखने से यह बात साफ नजर आने लगती है कि मो. युनुस का मुखिया पद पर चुना जाना साम्प्रयादिक तनाव का कारण बन गया. सवर्ण सामंती मिजाज इस हार को बर्दाश्त नहीं कर सका. उसने मुसलमानों के साथ रगड़ा शुरू किया. पहले तो इमामबाड़ा के सामने पड़नेवाले रास्ते पर कब्जा किया और फिर इमामबाड़ा पर कब्जा जमाया. इसके खिलाफ अंचलाधिकारी के पास 13 अगस्त 1991 को एक केस किया गया. अंचलाधिकारी ने एक कर्मचारी को जांच की जिम्मेदारी सौंपी. उसने अपनी जांच रिपोर्ट में अतिक्रमण की पुष्टि की पर अंचलाधिकारी ने कोई फैसला नहीं दिया. 1992-93 में सामंतों ने इमामबाड़ा की ईंटें उखाड़ फेंकीं और वहां गड़े झंडे को फाड़-फोड़ कर उसे जला दिया. इसके खिलाफ स्थानीय थाने में प्राथमिक दर्ज कराई गई और मुकदमा किया गया. अभी इसी 23 जुलाई 1996 को यानी बथानी टोला जनसंहार के ठीक 13 दिन बाद अदालत से इस केस का फैसला हुआ. फैसले में कहा गया है कि तथ्यों से पता नहीं चलता कि यहां कोई इमामबाड़ा था.

वहां कब्रिस्तान की जमीन पर भी नाजायज ढंग से अतिक्रमण कर लिया गया है. इसको लेकर मो. नईमुद्दीन ने 1993 में 14 लोगों के खिलाफ मुकदमा दायर किया था और कब्रिस्तान की घेरेबंदी की मांग की थी. पैसे के अभाव में मुकदमे की पैरवी नहीं हो पाई और मुकदमा खारिज हो गया. परन्तु अतिक्रमण बदस्तूर बरकरार है.

रणवीर सेना के लोगों ने कनपहरी(सहार) एवं नवाजीह(तरारी) में कर्बला एवं कब्रिस्तान की जमीन पर कब्जा जमा रखा है जिसकी मुक्ति के लिए 10 जनवरी 1996 को ‘कर्बला मुक्ति जनजागरण मार्च’ का आयोजन किया गया था. सभा से लौट रही जनता पर कनपहरी (खड़ांव के निकट का गांव) में रणवीर सेना के लोगों ने हमला किया जिसका प्रतिरोध किया गया. वहीं से तनाव बढ़ा. गौर कीजिए, इस कर्बला व कब्रिस्तान को मुक्त कराने का कोई सरकारी प्रयास नहीं है. जबकि लालूजी ने घोषणा की है कि सभी कब्रगाहों की घेराबंदी की जाएगी. बहरहाल, रमजान के महीने में 25 अप्रैल को मो. सुल्तान की हत्या कर दी गई. उनकी लाश को रणवीर सेना के गुंडों ने खड़ांव के कब्रिस्तान में दफनाने नहीं दिया. वे वहां भी हत्याकांड के लिए गिरोहबंदी किए हुए थे. आखिर वहां से हटकर बगल के गांव छतरपुरा में लाश दफनाई गई. फिर भी गुंडों को सब्र नहीं हुआ. उसके बाद भी उनके द्वारा खड़ांव के मुस्लिम टोले तथा अन्य माले समर्थकों के घरों पर हमले किए गए और लूटपाट मचाई गई. इसमें 50 परिवार विस्थापित हो गए. उनमें 18 परिवार मुस्लिम थे. मो. नईमुद्दीन के परिवार सहित बहुतेरे लोग बथानी टोला पर जाकर बस गए. मगर ईद की नमाज पढ़ना उनके लिए मुश्किल हो गया क्योंकि मस्जिद रणवीर सेना के इलाके में पड़ती है. बहरहाल, पुलिस बंदोबस्ती में नमाज पढ़ी गई.

लेकिन मामला तब भी खत्म नहीं हुआ. अब बथानी टोला निशाना बन गया और मई से लेकर 11 जुलाई की घटना तक कोई सात बार भीषण हमले किए गए. पुलिस हर बार निष्क्रिय रही. मगर जनता प्रतिरोध कर गुंडों को भगाती रही. आखिर 11 जुलाई को गुंडे सफल हुए और मो. नईमुद्दीन के परिवार के पांच लोगों को कत्ल कर दिया तथा एक बच्चे को घायल कर दिया जिसने हाल ही में अस्पताल में दम तोड़ दिया. मो. नईमुद्दीन और उनकी पत्नी बाहर गए हुए थे, इसलिए बच गए.

कुछ लोग कहते हैं कि घटना की पृष्ठभूमि जमीन और मजदूरी संबंधी लड़ाई है. मगर सच्चाई यह है कि जमीन और मजदूरी का विवाद एक वर्ष पहले ही हल हो चुका था और उस गांव में कोई आर्थिक नाकेबंदी नहीं थी. लोकपक्ष के शंकर शरण जांच टीम की रिपोर्ट बताती है कि वहां जमीन और मजदूरी के झगड़े पहले हल किए जा चुके हैं. लड़ाई का सिलसिला उसके बाद शुरू हुआ है. इसलिए तथ्यगत तौर पर जमीन और मजदूरी का सवाल जनसंहार की पृष्ठभूमि नहीं है. दूसरी बात, हत्या के स्वरूप से जाहिर होती है कि इस तरह की हत्याएं साम्प्रदायिक उन्माद से होती हैं. तथ्यगत एवं तार्किक तौर पर स्पष्ट है कि बथानी टोला जनसंहार की पृष्ठभूमि एवं स्वरूप साम्प्रदायिक है.

शांति की पहल एवं रणवीर सेना का रवैया

हम हमेशा ही शांति व्यवस्था स्थापित करने के पक्षधर रहे हैं. इसीलिए शांतिकामी लोगों की आकांक्षाओं के मद्देनजर हमने शांति की पहल शुरू की. बिहटा (पटना) में स्वामी सहजानन्द सरस्वती किसान महासभा द्वारा आयोजित स्वामीजी के जयंती समारोह के अवसर पर बातचीत की शुरूआत हुई. इस बातचीत में श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा व श्री ललितेश्वर प्रसाद शाही के साथ-साथ भोजपुर के भूमिहास जाति के कुछ मानिन्द लोग थे. हमारी तरफ से केन्द्रीय कमेटी सदस्य व पूर्व राज्य सचिव का. पवन शर्मा थे. बातचीत काफी सकारात्मक थी. इस वार्ता के ठीक दो दिन बाद ही हमारे पार्टी महासचिव ने आरा में एक पत्रकार सम्मेलन में शांति की अपील जारी की. समाचार पत्रों में यह अपील छपी. तमाम शांतिकामी लोगों ने इसका स्वागत किया. हमें भी उम्मीद थी कि अपील का सकारात्मक जवाब रणवीर सेना की ओर से मिलेगा. मध्यस्थता की भूमिका निभा रहे एक मित्र के माध्यम से हमने संदेश भी भेजा कि उधर से बयान जारी करने को कहिए ताकि अगला कदम उठाया जा सके. उस मित्र ने संदेश चहुंचाया भी, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी. इस प्रकार शांति प्रयास की हमारी कोशिश विफल हो गई.

विकास संबंधी कार्यों को हाथ में लेने के लिए शांति व्यवस्था हमारी सख्त जरूरत थी. लिहाजा, हमने शांति प्रयास नहीं छोड़ा. हमारी कोशिश पुनः शुरू हुई. लेकिन इसबार दूसरी तरह से. हमने सोचा कि शांति के लिए जनमत संगठित किया जाए और दबाव पैदा किया जाए. इस कार्य में हमने प्रशासन से भी मदद की उम्मीद की थी. इस कार्य को करने के लिए हमने जून 1996 में शांति अभियान संगठित किया और दर्जनों बाजार व चट्टियों पर आम सभाएं कीं तथा लोगों को बताया कि शांति व्यवस्था क्यों जरूरी है और इसे कायम करने के लिए आप आगे आएं. इस दौरान पांच गांवों में रणवीर सेना से जुड़े आम किसानों के साथ समझौता वार्ता करके झगड़े निपटा लिए गए. इस शांति अभियान के तहत हमने विकास के मुद्दे को भी गंभीरता से उठाया और तरारी प्रखंड में हमने (घेरा डालो, डेरा डालो) आंदोलन चलाया. इस आंदोलन में भारी तादाद में लोगों की गोलबंदी हुई और आंदोलन सफल रहा.

हमने शांति स्थापना के सवाल को केन्द्र कर आरा में सेमिनार का आयोजन किया जिसमें गण्यमान्य बुद्धिजीबियों व शांतिकामी लोगों के अलावा आम लोगों की अच्छी भागीदारी थी.

मगर इसे विडंबना ही कहिए कि रणवीर सेना के लोगों ने शांतिकारी लोगों की आकांक्षाओं का निरादर किया और हमारे शांति अभियान का जवाब हिंसा से दिया. शांति अभियान के दरम्यान भी उन्होंने हिंसा की कार्यवाही जारी रखी. रणवीर सेना के लोगों ने अपने एक पर्चे में शांतिकारी लोगों को शांति आलाप छोड़ने तथा युद्ध में शामिल होने की नसीहत दी थी. शायद इसीलिए उन्होंने शांतिकामी लोगों के प्रयास का जवाब बथानी टोला जनसंहार से दिया.

लोकतंत्र के लिए आवाज बुलंद करें

बथानी टोला जनसंहार और सरकारी प्रतिक्रिया इस बात का जीता-जागता सबूत है कि लोकतांत्रिक आंदोलनों की कर्मभूमि बिहार को लोकतंत्र की कब्रगाह में बदलने की साजिश चल रही है. इस साजिश में समाज की वे सारी अंधकार की काली ताकतें एक साथ खड़ी हैं जिनका माफियातंत्र व घोटालों में निहित स्वार्थ जुड़ा हुआ है.

हम तमाम प्रगतिशील क्रांतिकारी, लोकतांत्रिक, समाजवादी व वामपंथी संगठनों एवं व्यक्तियों से अपील करते हैं कि हम एक साथ मिलकर लोकतंत्र की इस लड़ाई को आगे बढ़ाएं.

हमने बथानी टोला जनसंहार के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों को दंडित करने की मांग उठाई है. इस लड़ाई को हम जीत न पाए तो हमारे चारों ओर कासवान जैसे हत्यारे अधिकारी नजर आएंगे और आम जनता के हर संघर्ष को पुलिस व निजी सेनाओं की गोलियों से भून दिया जाएगा.

हमारी आपसे अपील है कि आप जिस तरह से हो, इस आंदोलन में शामिल हों. दोषी अधिकारियों को दंडित करने की मांग पर बुद्धिजीवियों की बैठक में प्रस्ताव पास करें, मार्च आयोजित करें, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री को टेलीग्राम भेजें, अखबारों में वक्तव्य दें.

(18 जनवरी 1996 को झारखंड स्तरीय कैडर कन्वेंशन में दिया गया भाषण;
समकालीन लोकयोद्ध, 29 फरवरी 1996 से, प्रमुख अंश)

मुझे बहुत अच्छा लगा कि साथियों के एक बड़े हिस्से ने बहस में भागीदारी निभाई और शायद समय की कमी की वजह से ही जो अन्य बहुत सारे लोग बोलना चाहते थे उन्हें मौका नहीं मिल पाया.

यहां बहुत सी बातें आयीं और मुझे इस बात की खुशी है कि आप सब लोग और आपके नेताओं ने भी और बाकी सभी साथियों ने इस कन्वेंशन में सक्रिय और सजीव रूप से हिस्सेदारी की.

अब वे कौन से नारे, कौन सी बातें होती हैं जिन्हें लेकर आपको बढ़ना होता है. मैं समझता हूं कि इस तरह का कोई कार्यक्रम या इस तरह का कोई नारा आप अपनी मनमर्जी से, अपनी सहूलियत के मुताबिक या अपनी इच्छा के मुताबिक ईजाद नहीं कर सकते. एक खास समय में एक देश के सामने आमतौर से ही कुछ बातें आ जाती हैं, कुछ नारे बन जाते हैं जो उस समय के तमाम प्रगतिशील लोगों के नारे बनते हैं, वहां की जनता की जरूरत बनते हैं. जैसे – जब हमारा देश गुलाम था तब देश की आजादी का सवाल सबके लिए ही नारा बना हुआ था. इसी तरह आज राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता का सवाल, धर्मनिरपेक्षता का सवाल और सामाजिक न्याय का सवाल – ये ऐसे सवाल हैं, जो कुल मिलाकर नए भारत के लिए समाज के प्रगतिशील, वामपंथी, जनवादी लोगों के आम एकता वाले नारे बने हुए हैं. ये समाज में, देश में जमीन से उभर चुके हैं. इस नाते कि ये नारे दूसरी पार्टियां भी इस्तेमाल कर रही हैं इसलिए इस नारे को छोड़ देना चाहिए या इस पर जोर नहीं देना चाहिए या ऐसे नारे खोजना चाहिए जो सिर्फ हमारे हों, किसी दूसरे ने न इसे पहले उठाया हो न बाद में कभी उठाएगा, मैं समझता हूं इस तरह के नारों की खोज महज कल्पना है और ऐसा संभव नहीं हुआ करता. एक देश, एक समाज एक ठोस समय में नारे उछालता है, स्वाभाविक रूप से वे नारे उस देश और समाज के सामने आ जाते हैं. अब सवाल उठता है कि हर पार्टी उस नारे की किस-किस तरीके से व्याख्या करती है, फर्क यहां होता है. आजादी की लड़ाई को ही कम्युनिस्ट कैसे लड़ना चाहते थे और दूसरे कैसे लड़ना चाहते थे. सवाल उस नारे की व्याख्या, उसके लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई और उसके चरित्र पर होती हैं. इसलिए मैं समझता हूं कि ये नारे ऐसे हैं जो भारत की आम जनता के नारे हैं. इसलिए सवाल इन नारों को छोड़ देने का नहीं है, सवाल इन नारों को मजबूती से पकड़ने का है. सवाल यह है कि हम इन नारों को किस ढंग से देखते हैं और हमारी व्याख्या क्या है? सवाल इसे लोगों को समझाने का और इस बारे में हमारी पार्टी की धारणा को लोगों तक ले जाने का है.

अब देखिए कि बिहार में अभी फिलहाल जनता दल के लालू जी की सरकार है. उसका एक ही नारा है औद्योगीकरण. वे कहते हैं कि मैंने बिहार में सामाजिक क्रांति पूरी कर दी है, कृषि क्रांति भी हो ही चुकी है और अब हम औद्योगिक क्रांति करने जा रहे हैं. तो इस नारे के तहत औद्योगीकरण हो रहा है. मैंने देखा कि कुछेक बुद्धिजीवी हैं, आद्री संस्था चलती ही पटना में और उसके निदेशक हैं शैवाल गुप्ता. ये लोग सरकार से लाखों रुपया खाते हैं और उसके बदले में इन सब लोगों ने अपना दिमाग भी बेच डाला है. तो उन्होंने लिखा है कि जैसे नेपोलियन ने फ्रांस में औद्योगीकरण की शुरूआत की, बिस्मार्क ने जर्मनी में औद्योगीकरण किया, आज बहुत वर्षों बाद वैसे ही लालू यादव बिहार में औद्योगीकरण की शुरूआत कर रहे हैं. तो इनके और लालू जी के हिसाब से बिहार में सामाजिक क्रांति खत्म हो चुकी है और कृषि क्रांति भी. और, अब बिहार औद्योगीकरण के दौर में प्रवेश कर रहा है. इस वजह से भी हमने इस बात पर जोर दिया क्योंकि जनता दल का जो सामाजिक न्याय का नारा था उस बाबत हमने पहले ही कहा था कि जनता दल मूलतः पिछड़ों की जो मलाईदार परत है, उसकी पार्टी है. उनके लिए जरूर पांच वर्षों में बहुत कुछ हुआ है. सरकार में लालू यादव के आने के बाद से उस हिस्से को बहुत फायदा मिला है. इसलिए अब उनकी नजर में सामाजिक न्याय का काम खत्म हो चुका है. लेकिन हम जानते हैं कि बिहार की जनता के व्यापक हिस्सों, दलितों-पिछड़ो और गरीबों के लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई अभी बाकी है. इस सिलसिले में हम यह महसूस करते हैं कि जनता दल सामाजिक न्याय के इस नारे को छोड़ रहा है, इस नारे पर से उनका जोर खत्म हुआ है. इसलिए और भी जरूरी है कि हम इस नारे को मजबूती से पकड़ें. हम इस बात को लोगों में ले  जाएं कि यह जो कहा जा रहा है कि सामाजिक क्रांति हो चुकी है, ये सब लफ्फाजी है और आज भी दलितों-पिछड़ो का बहुत बड़ा हिस्सा सामाजिक न्याय से वंचित है. उसको जीवन-मरण का संघर्ष करना पड़ रहा है. तो इस वजह से भी हमने महसूस किया कि सामाजिक न्याय का नारा हमें जोर से पकड़े रहना है. जनता दल के भंडाफोड़ के लिए भी इसकी आवश्यकता है. यही बात आत्मनिर्भरता के नारे के मामले में भी है. जनता दल भी नई आर्थिक नीतियों को ही लागू कर रहा है. जिस तरह से वह बहुराष्ट्रीय निगमों को बुलाकर, प्रवासी भारतीयों की पूंजी लगाकर औद्योगीकरण चला रहा है, हम समझते हैं कि राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता का नारा भी जनता दल जोर-शोर से ले नहीं पाएगा. इसलिए यह नारा एक ओर भारतीय जनता की इच्छाओं को अभिव्यक्त करता है और साथ ही साथ यहां तक कि मध्यमार्गी जो पार्टियां हैं जनता दल जैसी – उनके भी भंडाफोड़ के लिए महत्वपूर्ण है, बशर्ते इसे हम सही ढंग से जनता के बीच ले जा सकें और स्पष्ट कर सकें.

जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है, अवश्य ही भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा है हमारे देश के लिए. लेकिन पहली बात हम यह कहना चाहेंगे कि भ्रष्टाचार भी अपने आप में कोई ऐसा नारा नहीं है कि इसके खिलाफ लड़ाई पर कम्युनिस्ट पार्टी या सर्वहारा की पार्टी का एकाधिकार हो, जागीर हो. पिछले वर्ष हमने देखा है कि भ्रष्टाचार के नारे को एक बुर्जुआ पार्टी दूसरी बुर्जुआ पार्टियों के खिलाफ उठाती रही है, इस्तेमाल करती रही है, और वही बाजार में जीतती भी रही है. कभी वोफोर्स का सवाल उठाकर जनता दल या कभी कोई. इसलिए भ्रष्टाचार का नारा ऐसा जादू-मंतर नहीं है कि जिसे आप उठा लेंगे तो सारा का सारा जनमत आपके पक्ष में आ जाएगा और आपको सत्ता मिल जाएगी. मुझे लगता है कि मामला इतना सहज नहीं है. भ्रष्टाचार के सवाल पर भी तमाम खेल होते रहते हैं. जैसे अभी आप देखें कि संसद में टेलिकॉम के घोटाले पर पूरी बहस हुई और संसद बंद रही. अब इस पूरे भ्रष्टाचार के मुद्दे को घुमाने के लिए अचानक आप देखेंगे कि नरसिम्हा राव ने चाणक्य नीति चलते हुए, यहां तक कि अपने भी कुछ मंत्रीयों की बलि चढ़ाते हुए जैन हवाला कांड का मुद्दा उठा लिया और इसे उठाकर उन्होंने एक तीर से कई शिकार खेले. आडवाणी, अर्जुन सिंह जो उनके प्रतिद्वंद्वी हैं उनको भी उन्होंने भ्रष्ट साबित कर दिया लेकिन खुद वे बेदाग बच निकले. तो यह एक कोशिश है और इसको पूरा मुद्दा बनाने की कोशिशें होंगी. हम कहना चाहेंगे कि हवाला कांड का भ्रष्टाचार भी एक महत्वपूर्ण भ्रष्टाचार है और इसके खिलाफ लड़ने की जरूरत है. लेकिन ये भ्रष्टाचार पुराने टाइप का है अर्थात चुनाव के लिए कुछ इधर-उधर व्यापारियों से पैसा-वैसा लेने से जुड़ा हुआ. जैसे कुछ राजनीतिक लेते रहते हैं. टेलिकॉम वाला जो भ्रष्टाचार था वो नई आर्थिक नीतियों से जुड़ा हुआ भ्रष्टाचार था. इस तरह के भ्रष्टाचार के मुद्दे बहुराष्ट्रीय कंपनियों, आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण को बढ़ावा देने की जो नीति है, इसके साथ जुड़े हुए भ्रष्टाचार के मुद्दे हैं. टेलिकॉम घोटाला, एनरॉन हर्षद मेहता का फाइनेंशियल घोटाला, भ्रष्टाचार के सिलसिले में इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इन्हें उठाने के माध्यम से सरकार की वर्तमान आर्थिक नीतियों के बारे में हम जनता की चेतना बढ़ा सकते हैं. सवाल सिर्फ भ्रष्टाचार का ही नहीं था, भ्रष्टाचार के इन सवालों को उठाते हुए आप ये बता सकते थे कि किस तरह से नई आर्थिक नीति यहां काम कर रही है और किस तरह से इनकी सांठ-गांठ विदेशियों, अपराधियों से है और ये सारा का सारा मामला क्या है. लेकिन हवाला कांड जो कि एक पुराने किस्म का भ्रष्टाचार है और इसमें निशाना सिर्फ सत्तापक्ष ही नहीं होता है, जबकि टेलिकॉम का जो भ्रष्टाचार था वह सीधे-सीधे सत्तापक्ष और उसकी नीतियों पर चोट करता है. इसलिए भ्रष्टाचार के पीछे भी राजनीति हुआ करती है और हर भ्रष्टाचार के अपने गुणात्मक मामले हुआ करते हैं. मेरी समझ में हम मार्क्सवादियों को इन सवालों पर दिमाग रखना चाहिए.

झारखंड में जहां तक हमारी पहलकदमी का सवाल है तो वह तभी महत्व ले पाया सब झारखंड आंदोलन चलानेवाली प्रमुख ताकत खुद सत्ता की हिस्सेदार बन गई. यहां से एक नई परिस्थिति का जन्म हुआ है. मैदान खाली हुआ है. झामुमों अपनी खोयी पहलकदमी वापस लेने के लिए कुछेक मुद्दों पर दिखावे का आंदोलन करने की कोशिश कर रहा है. झारखंड बंद के जरिए इस विशेष समय में हमारी पार्टी के हाथों पहलकदमी आई है, झारखंड में इसका अच्छा रिस्पांस मिला है और इस बार जनता का व्यापक समर्थन मिला है. यह पहली बार हुआ है और इसे बढ़ाने की जरूरत है. इसे लेकर एक राजनीतिक अभियान चलाना चाहिए. परिषद के चुनाव की मांग को लेकर पार्टी नेताओं का दौरा होना चाहिए. बड़े पैमाने पर अपनी बात ले जानी चाहिए. हमें पार्टी के झंडे तले झारखंड की दूसरी ताकतों को भी साथ लाना होगा, उन्हें एक मंच पर लाना होगा.

जहां तक एमसीसी का मामला है. तो यह एक दीर्घकालिक लड़ाई है. हम कहना चाहते हैं कि एमसीसी के साथ हमारा संघर्ष, सिर्फ इस बात के लिए नहीं है कि उन्होंने हमारे साथियों को मारा तो हमको बदला लेना है या कुछ इलाका उनसे कब्जा करना है – ये लड़ाई कुछ इलाकों के कब्जे अथवा हमारे साथियों की हत्या का बदला लेने की लड़ाई नहीं है. अराजकतावाद का

एक दर्शन है, उसका मुकाबला आपको करना ही होगा. यह किसानों की एक स्वाभाविक विचारधारा है, बिना अराजकतावादी विचारधारा से लड़े किसानों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण असंभव है. अराजकतावाद की सबसे संगठित, सबसे ठोस अभिव्यक्ति के रूप में एमसीसी के साथ लड़कर ही हम सही मायने में संगठित जन आंदोलन का निर्माण कर सकते हैं और जनता की राजनीतिक चेतना का विकास कर सकते हैं. इसलिए एमसीसी को एक नकारात्मक शिक्षक मानकर उससे लड़ना है, उसके अराजकतावादी विचारों से, उसके अराजकतावादी व्यवहारों से.

क्योंकि लड़ाई सिर्फ इस बात के लिए नहीं है कि आप चुनाव में जाएंगे या नहीं. लड़ाई पूरे अराजकतावाद से है, जिसकी कोशिश है राजनीति से आम जनता को काट देने की, जनता को उसके राजनीतिक व्यवहार, राजनीतिक प्रक्रिया से या जनता की अपनी सत्ता बनाने की कोशिश से अलग कर देने की. क्योंकि अराजकतावाद किसी भी किस्म की राज्यव्यवस्था पर विश्वास नहीं करता – चाहे वो बुर्जुआ की हो या सर्वहारा की. इसलिए वे हमेशा मजदूर-किसानों को राजनीति की प्रक्रिया से दूर रखना चाहते हैं, राजनीति से हटाना चाहते हैं. इनके साथ लड़ने का अर्थ है राजनीतिक प्रक्रिया में जाना, जनता की राजनीतिक चेतना बढ़ाना और सही मायने में कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण करना. इसलिए मैं समझता हूं यह एक दीर्घकालिक लक्ष्य है और ये लड़ाई आपको लड़नी है.

जिन इलाकों में एमसीसी नहीं है वहां भी हमें किसानों के अंदर से आए हुए इस तरह के अराजकतावादी विचारों से लड़ना है. अराजकतावाद के विचारों से लड़ने से आप बच नहीं सकते, कहीं एमसीसी होगी कहीं नहीं होगी. ये विचार स्वभाविक रूप से बढ़ने वाले विचार हैं और इससे बिना लड़े कहीं भी दुनिया में न कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण हुआ है, न होगा. इसलिए एमसीसी को एक बोझ समझने की बजाए उसे एक तरह से नकारात्मक शिक्षक समझिए; उसका अगर कुछ सकारात्मक पक्ष है तो यही.

(7 जनवरी 1996 को पार्टी की बिहार राज्य कमेटी की ओर से पटना में आयोजित कार्यकर्ता सम्मेलन में दिया गया भाषण;
समकालीन लोकयुद्ध से, प्रमुख अंश)

नए वर्ष में यह हमारी पहली पहलकदमी है, इसलिए हमें यह सोच लेना चाहिए कि हमने पिछले वर्ष, यानी 1995 में क्या-क्या उपलब्धियां हासिल कीं और आने वाले चार-पांच महीनों में हमारे सामने क्या-क्या बड़ी जिम्मेदारियां आ रही हैं. राष्ट्रीय तौर पर देखें तो पिछले साल हमने आत्मनिर्भरता और सामाजिक न्याय के सवाल पर पूरे देश में एक राजनीतिक अभियान चलाया. इस अभियान के माध्यम से अपनी स्वतंत्र पहचान, अपने स्वतंत्र नारे के तहत हम उतरे और साथ ही साथ वामपंथ की तमाम किस्म की जो ताकतें हैं -- सीपीआई, सीपीएम जैसी या एमएल ग्रुप की कुछ और ताकतें – उन सबके साथ हमने अपनी एकता का विस्तार किया है और उसे बढ़ाने की कोशिशें की हैं.

दूसरी बात यह है कि राष्ट्रीय पैमाने पर तीसरी शक्ति या तीसरे मोर्चे के लिए हमारी पार्टी ने हस्तक्षेप करने की कोशिश की है कि जो भी तीसरा मोर्चा बने या तीसरी शक्ति जन्म ले उसका एजेंडा क्या हो, उसका कार्यक्रम क्या हो. क्या यह तीसरी शक्ति सिर्फ तमाम कांग्रेस-भाजपा विरोधी ताकतों की खिचड़ी होगी जिसका अपना कोई कार्यक्रम, कोई दिशा या कोई उसूल नहीं होगा, या फिर वे ताकतें किसी कार्यक्रम के आधार पर आपस में जुडेंगी. इस सवाल पर भी पिछले साल से हमने हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है. इस सिलसिले में कुछ वामपंथी पार्टियों, कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों, कुछ दूसरी पार्टियों जैसे मुलायम सिंह अथवा जनता दल के कुछ हिस्से, रामविलास पासवान आदि ने भी हमसे बातचीत करनी चाही है. आमतौर पर उनकी अपनी पहलकदमी के जरिए ही उनसे कुछ बातचीत हुई है.

हालांकि, जैसी देश की परिस्थिति है उसमें कोई तीसरा मोर्चा बन पाएगा या नहीं और अगर बनेगा भी तो उसकी शक्ल क्या होगी यह सब सवाल अभी भी साफ नहीं है और अभी भी इसका भविष्य अनिश्चित है. इस सिलसिले में एक खास बात यह भी है कि पिछले दिनों दिल्ली में कुछ पत्रकारों से मेरी बातचीत हुई. वे वीपी सिंह से हुई अपनी बातचीत का हवाला देकर कह रहे थे कि वीपी सिंह का कहना है कि इस चुनाव में रामो-वामो के पास दांव लगाने के लिए बहुत कुछ नहीं बचा है. कांग्रेस अथवा भाजपा अपने बलबूते सरकार नहीं बना सकती है. ज्यादा संभावना इस बात की है कि कांग्रेस एवं भाजपा गठबंधन की सरकार बने. यह सरकार 1999 आते-आते गिर जाएगी और मध्यावधि चुनाव की स्थिति आ सकती है. अगर ऐसा हो जाए तो कारगर तरीके से उनका भंडाफोड़ किया जा सकता है और 1999 का संभावित मध्यावधि चुनाव रामों-वामों के वास्ते काफी अनुकूल अवसर प्रदान करेगा. तभी तो वीपी सिंह का हालफिलहाल में एक प्रेस वक्तव्य आया है कि हम 1999 तक चुनाव नहीं लडेंगे. उनके बुद्धिजीवी सलाहकार रजनी कोठारी ने भी इस राय से अपनी सहमति जाहिर की है. तो हमने एक सवाल वहां उठाया कि हो सकता है कि ऐसा हो, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो दूसरी संभावनाए भी हो सकती है कि कांग्रेस या भाजपा दोनों अपनी सरकार बनाने के लिए रामो-वामो के बीच से भी अपने समर्थक जुटा सकती हैं. क्योंकि पिछले पांच वर्षों का अगर विश्लेषण किया जाए तो कांग्रेस की राव सरकार, जो कि एक अल्पमत सरकार थी, जब बहुमत में बदली तो इसलिए नहीं कि भाजपा की ओर से एमपी लोग उसकी तरफ गए, बल्कि बड़ी संख्या में नए-नए लोग जो उसको मिले वो जनता दल या राष्ट्रीय मोर्चा की जो पार्टियां थीं उन्हीं के अंदर से जाकर लोगों ने कांग्रेस को शक्ति दी और कांग्रेस अल्पमत से बहुमत में बदल गई. यहां तक कि उसी रामो का एक हिस्सा टूट कर बीजेपी की ओर भी गया है. तो आने वाले दिनों में भी यब संभावना हो सकती है कि जिसे आप वाम मार्चा या राष्ट्रीय मोर्चा अथवा तीसरी ताकत कहते हैं, कांग्रेस या भाजपा उन्हीं ताकतों के बीच से अपने लिए लोग खरीदे, अपने पक्ष में ले आए और इसी से वह अपना बहुमत बना ले जाए. इसकी जगह निष्क्रियता का एक जो पूरा दर्शन ले आया जा रहा है वह गलत है. बल्कि ऐसी किसी संभावना को रोकने के लिए भी तीसरी ताकत के बहुत ज्यादा सक्रिय होने की जरूरत है और बहुत ज्यादा भूमिका लेने की जरूरत है.

लेकिन जैसा कि मध्यमार्गी पार्टियों की स्थिति है और जैसी कि सूचनाएं हैं, अभी भी जनता दल के अंदर से रामकृष्ण हेगड़े, आइके गुजराल जैसे लोग इस बात की लगातार वकालत कर रहे हैं कि कांग्रेस के साथ मिलकर ही भाजपा का मुकाबला किया जाए. तो हमलोगों ने इसीलिए कहा कि इन चीजों को रोकने के लिए सही मायने में भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ तीसरा मोर्चा बन सके तथा टिक सके, एक सक्रिय विरोध पक्ष की भूमिका निभा सके, अपने अंदर के बिखराव को रोक सके –इन सब चीजों  के लिए भी जरूरी है कि सक्रिय रूप से पहलकदमी ली जाए. निष्क्रियता इसका जवाब नहीं हो सकता. लेकिन इस सिलसिले में उनके सबसे बड़े विचारक, दार्शनिक वीपी सिंह का जब यह हाल है तो उन मध्यमार्गी पार्टियों से आप बहुत ज्यादा आशा भी नहीं  कर सकते. इसलिए हम यह समझते हैं कि वामपंथ को, वामपंथी पार्टियों को इस सिलसिले में इस बार बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी. क्योंकि वे ही कांग्रेस एवं भाजपा के सवाल पर ज्यादा भरोसेमंद, ज्यादा दृढ़ और ज्यादा स्थायी ताकतें हैं. इसलिए इस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को परास्त करना जैसे जरूरी है शायद उससे भी ज्यादा जरूरी है कि वामपंथ की ताकतें मजबूत होकर उभरें, सामने आएं. तभी ऐसी किसी भी जीत को बरकरार रखा जा सकता है. आगे बढ़ाया जा सकता है. नहीं तो कांग्रेस और भाजपा को हराकर भी आप देखेंगे कि सरकार उन्हीं की बन रही होगी, क्योंकि आपके तीसरे मोर्चे में ही तमाम भटकाव होगा और उनके पक्ष में चीजें जाएंगी.

इन्हीं अर्थों में हम कहना चाहेंगे कि आज की राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथ की जबरदस्त भूमिका है और वामपंथ की भूमिका का मतलब ही होता है कि उसे किसी कार्मक्रम के साथ उतरना पड़ता है. उसका अपना एक एजेंडा होना चाहिए जिसके आधार पर ही वह जनता के पास जाए और कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी हो, उनकी नीतियों का, उनकी विचारधारा का मुकाबला करे. इसलिए तीसरी ताकत के सवाल पर हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है. राष्ट्रीय पैमाने पर ऐसा एक मोर्चा बन सके या उस मोर्चे की प्रक्रिया में हमारी पार्टी का भी असर हो और उसका कार्यक्रम बनने की तरफ चीजें आगे बढ़ें – यह हमारा एक संघर्ष है. यह जरूरी नहीं कि ऐसा हो जाए. लेकिन सवाल है कि ऐसा हो सके, इसके लिए हम जो संघर्ष करेंगे इसी संघर्ष की बदौलत हमारी पार्टी की प्रतिष्ठा बढ़ेगी, हमारी पार्टी का प्रभाव बढ़ेगा और व्यापक लोगों में इसका असर जाएगा कि तीसरी ताकत का एक आदर्शनिष्ठ, सिद्धांतनिष्ठ मोर्चा बनाने की कोई ताकत अगर है तो वह भाकपा-माले है. इसलिए हमारे सामने यह एक महत्वपूर्ण कार्यभार है जिसकी शुरूआत हमने पिछले वर्ष के अंत में की है और आने वाले कुछ महीनों में इस काम को हमें बहुत तेजी से आगे बढ़ाना है.

तो यह रही कुल मिलाकर राष्ट्रीय परिस्थिति की बात और उसके सामने आने वाली हमारी जिम्मेदारियां. अब जहां तक बिहार का सवाल है, राज्य की राजनीति का सवाल है, तो इसमें हमारी पार्टी ने पिछले वर्ष सबसे पहले चुनावों को केन्द्र करके राज्य भर में एक राजनीतिक अभियान चलाया. इस अभियान के जरिए हम अपनी बातें भी जनता के एक बड़े हिस्से में ले गए. यह बात भी स्थापित हुई कि अगर विरोध पक्ष की कोई ताकत है जिसने अपने बल पर चुनाव लड़ा, अपने बल पर जीतें हासिल कीं या कुल मिलाकर अपनी पुरानी स्थिति बरकरार रखने में कामयाब हुई तो वह हमारी पार्टी ही है. हमारा यह असर बिहार की राजनीति में गया. दूसरा, पिछले वर्ष जमीन के सवाल पर, अकेले हो या दूसरी वामपंथी पार्टियों के साथ मिलकर, हमने बड़े पैमाने पर संघर्ष चलाए हैं. यह संघर्ष कुछ-कुछ जगहों पर खासकर भोजपुर जैसे जिलों में काफी तीखा और लड़ाकू संघर्ष में बदला है. सामंतवाद विरोधी संघर्ष में सामंती ताकतों ने साम्प्रदायिक ताकतों से मिलकर हमसे लोहा लिया है. पूरे वर्ष हमने तमाम समस्याओं को झेलते हुए, प्रशासनिक दमन व सामंती ताकतों के हमलों को झेलते हुए यह लड़ाई चलाई. यह तो हम नहीं कहेंगे कि हमारी पार्टी ने यह लड़ाई जीत ली है लेकिन यह सच्चाई है कि इस लड़ाई में हमें जितना घेरा गया था, चारों तरफ से घेर कर हमें खत्म करने की जितनी कोशिशें हो रही हैं उस घेराव को हमने तोड़ा ही और पहले के मुकाबले वहां अपनी स्थिति हमने सुधारी है और दुश्मन के खेमे में ही संकट पैदा किया है.

तीसरी बात है कि पिछले वर्ष हमने कई राजनीतिक अभियान चलाए हैं. बेगूसराय में गोली चली. उसके खिलाफ पूरे बिहार स्तर पर एक बंद संगठित किया गया. इसके अलावा, झारखंड में ‘झारखंड स्वायत्त परिषद को भंग कर नया चुनाव कराने’ की मांग पर वहां पार्टी की ओर से एक बहुत ही सफल बंद का आयोजन किया गया. इसके अलावा भी चाहे भोजपुर हो, सीवान या चंपारण हो तमाम जगहों पर नरसंहारों के सवाल पर जिले के स्तर पर काफी सफल बंद अभियान चलाए गया. पटना में भी जो तथाकथित सैंदर्यीकरण हो रहा है उसके खिलाफ भी हमारी पार्टी ने पटना बंद कराकर पहलकदमी ली. इस तरह के राजनीतिक अभियान और जनसंहारों के खिलाफ, पुलिस की गुंडागर्दी के खिलाफ या अन्य लोकप्रिय सवालों पर भी हमने आंदोलन चलाए हैं.

इसके अलावा, पिछले साल चुनावों से जो हमें पता लगा था, खासकर जहानाबाद, रोहतास या इस तरह के कुछ जिलों में जहां पार्टी की स्थिति काफी खराब हो गई थी, जनता से अलगाव हो चुका था तो वहां भी पार्टी काम को नए सिरे से संगठित किया गया है और इस अलगाव को काफी हद तक दूर किया गया और कुछ नए-नए इलाकों में भी पार्टी के कामकाज को फैलाया गया है. इसके अलावा, पिछले वर्ष हमने वामपंथी ताकतों के साथ, वो चाहे सीपीआई हो या सीपीएम हो; यहां तक कि पार्टी यूनिटी जैसी भी ताकत हो, इनके साथ भी हमने रिश्ते सुधारे हैं; उनको कुछ व्यापक किया है. खासकर, औद्योगीकरण के सवाल पर सरकार की मजदूर विरोधी जो नीति है, उसके खिलाफ तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर संघर्ष बढ़ाए गए हैं. तो पिछले वर्ष की ये हमारी उपलब्धियां रही हैं.

इन तमाम सवालों से एक सवाल जो उभर कर आता है कि बिहार में जनता दल की इस सरकार के प्रति हमारा रुख क्या होना चाहिए, हमारी कार्यनीति क्या होना चाहिए. यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. जैसा कि कुछ साथियों ने कहा कि उनको पिछली बार 27 प्रतिशत वोट मिले या 25 प्रतिशत वोट मिले और बाकी वोट विरोधी पक्षों में बंट गए इसलिए वे जीत गए हैं. मैं एक बात नहीं समझ पा रहा. मान लीजिए जनता दल सत्ता में है. उसके खिलाफ हमारा संघर्ष रहेगा यह सही बात है. लेकिन हम समझते हैं कि इन परिस्थितियों में कांग्रेस या भाजपा के सत्ता में रहने के बजाय जनता दल जैसी ताकत का सत्ता में रहना ज्यादा बेहतर है. क्योंकि अगर हम ऐसा सोचें कि जनता दल किसी तरह से हार जाए और वामपंथ इस हालत में नहीं है कि जद की जगह वह आ जाए तो यहां कांग्रेस की सत्ता बनेगी या भाजपा की बनेगी. तो एक बात पर हमलोगों को साफ हो जाना चाहिए कि जनता दल से अथवा लालू यादव से हमारे विरोध का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि उसकी जगह कांग्रेस या भाजपा आ जाए. इस तरह का रुख हम नहीं रखते हैं. इस सिलसिले में हम यह चाहते हैं कि तुलनात्मक रूप से जनता दल यहां सत्ता में रहे और उसके साथ हमारा संघर्ष चले. यह संघर्ष लंबा खिंच सकता है लेकिन कुल मिलाकर, हमारे अपने आंदोलन के विकास के लिए यह अपने आप में एक बड़ी चुनौती भी है और बड़ी संभावना भी है.

जनता दल, मतलब यह कि मध्यमार्गी पार्टी का सत्ता में बने रहना, इसका मतलब कि वे तमाम लुभावने नारे और इस तरह की तमाम बातें या जिस सामाजिक आधार में आप काम कर रहे हैं उसी में जद द्वारा तोड़-फोड़ – तो यह एक बहुत बड़ी चुनौती है. अगर आप इस तरह की चुनौतियों का मुकाबला नहीं करेंगे; कोई कम्युनिस्ट पार्टी इस तरह की चुनौतियों के मुकाबले में नहीं उतरेगी, इस तरह की अग्निपरीक्षा से नहीं गुजरेगी तो वह कम्युनिस्ट पार्टी भविष्य में कभी क्रांति नहीं कर सकती है. कांग्रेस जैसी ताकतों के साथ लड़ाइयां ज्यादा सीधी-सीधी हैं, उनसे लड़ना एक अर्थ में आसान है और जद जैसी ताकतों से लड़ना कठिन है. हम समझते हैं कि इस कठिन लड़ाई को लड़ना ही हमें सीखना चाहिए. यह अग्निपरीक्षा है, यह आपकी परीक्षा है कि एक ऐसी मध्यमार्गी पार्टी या उसका नेता, जो तमाम लुभावने नारे देता है, जनता के बीच जिसने अपनी पहचान बना ली है, जो मसीहा के रूप में जाना जाता है, जिसने जनता के बीच इतना भ्रम फैला रखा है, ऐसी एक ताकत से जनता को कैसे अलग करें, इसका किस तरह भंडाफोड़ करें और किस तरह जनता को अपनी ओर खींच लाएं, यह एक बहुत बड़ी चुनौती है. इस चुनौती में जो पार्टी सफल होगी मैं समझता हूं कि आने वाले दिनों में वही पार्टी बिहार का भविष्य तय करेगी.

यह जो जनता दल की सरकार है उसका विरोध दो तरफ से हो रहा है. एक, इसका विरोध दक्षिणपंथी पार्टियां कर रही हैं – कांग्रेस और भाजपा. दूसरा, वामपंथ की तरफ से इसका एक विरोध है. दोनों विरोधों का चरित्र अलग है. दक्षिणपंथ का जो विरोध है वह चीजों को पुराने स्तर पर ले जाना चाहता है. जितने हद तक सवर्ण सामंती सत्ता पीछे हटी है, जितने हद तक गरीब दलित-पिछड़े सर उठा चुके हैं, जितने हद तक उन्हें अधिकार मिले हैं – वह उन्हें वहां से पीछे ले जाना चाहती है. स्वाभाविक है कि हम ऐसे किसी विरोध पक्ष के साथ नहीं जा सकते, ऐसे किसी विरोध पक्ष के साथ हम कभी हाथ नहीं मिला सकते.

दूसरा विरोध वामपंथ का है. जनता दल की सीमाएं जहां खत्म होती हैं, जनता दल जहां से आगे नहीं बढ़ सकता वहां से आगे बढ़ाने वाली जो पार्टी है, वह वामपंथ की पार्टी है, जनता दल के उस दृष्टिकोण से जो विरोध है वह वामपंथ का विरोध है. और वही हमारे सामने चुनौती है कि कैसे हम मध्यमार्गी सरकार की सीमाओं को उजागर करें. वे कहां तक जा सकते हैं, उनकी सीमाएं जनता के सामने दिखाएं और उनके दिए नारे की असियत का भंडाफोड़ करें और उन नारों को आगे बढ़ाते हुए हम जनता को अपने पक्ष में करें. यह आपके सामने बड़ी चुनौती है. और सही मायने में कहिए तो बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम एकमात्र जनता दल की नीतियों, इसकी कार्यनीतियों, उसकी पद्धतियों की सतत आलोचना के जरिए ही विकसित होगा. बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम आसमान से नहीं टपकेगा, बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम किताबों में लिखा हुआ नहीं मिलेगा, बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम आपके दिमाग से नहीं उपजेगा. बिहार के लिए वामपंथी कार्यक्रम सिर्फ और सिर्फ जनता दल के सिद्धांत, उसके व्यवहार की आलोचनाओं के जरिए ही, बिहार में उसके निषेध के जरिए ही सूत्रबद्ध होगा, रूप लेगा और आनेवाला भविष्य आपका होगा. इसलिए जनता दल का शासन में रहना, कुछ लंबे समय तक भी शासन में रहना – ये आपके लिए एक चुनौती भी है क्योंकि यह एक कठिन लड़ाई है; लेकिन यह आपके लिए एक बहुत बड़ी संभावना का दरवाजा भी खोलता है. क्योंकि इन मध्यमार्गी पार्टियों को एक सीमा के बाद जाकर बिखरना ही है. इनकी सीमाएं सामने आ रही हैं और आप अभी से उनकी आलोचनाएं विकसित करते रहें तो आनेवाले दिनों में, जब इसका संकट गहराएगा तब आप ही बिहार की जनता के सामने उसकी नई आशा के बतौर खड़े होंगे. आप अगर ऐसा नहीं कर पाएंगे तो दक्षिणपंथी ताकतें इसका फायदा उठाएंगी या फिर पूरी तौर पर एक अराजकता बिहार में फैल जाएगी. इसलिए मैं समझता हूं कि इस दीर्घकालीन लड़ाई को पूरे धीरज के साथ हमें चलाना है.

कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर भी कुछ लोग हो सकते हैं – सीपीआई, सीपीएम या हमारी पार्टी की कतारों का कुछ हिस्सा भी – जो इन मध्यमार्गी पार्टियों के भुलावे में आ सकते हैं; उनके पीछे-पीछे चलने वाली ताकत बन जा सकते हैं. यहां तक कि हमारी अपनी पार्टी में भी आईपीएफ के समय और बाद में भी टूट-फूट हुई. आपके एमएलए भी चले गए. तो एक हिस्सा ऐसा हो सकता है. सीपीआई-सीपीएम जैसी पूरी पार्टियां ही उनके पीछे चली गई. तो कुछ लोगों के सामने वह भविष्य नहीं है, वह धैर्य नहीं है, वह क्षमता नहीं है, वह लगन नहीं है. वे तमाम ताकतें इतिहास में कहीं नहीं टिकेंगी. इतिहास उन्हीं का होगा जो धीरज के साथ, लगन के साथ इन चुनौतियों का मुकाबला करते रहें, जनता दल का भंडाफोड़ करते रहें और अपना कार्यक्रम विकसित करते रहें.

ऐसी ही ताकते आनेवाले दिनों में आगे बढ़ेंगी और वह समय बहुत दूर होगा, ऐसी बात नहीं है. परिस्थिति किसी भी समय आपके पक्ष में तेजी के साथ मुड़ सकती है. यह बात सिर्फ मेरी अपनी बात नहीं है. आप अगर लालू यादव से बात करें तो वे खुद यह बात समझते हैं, महसूस करते हैं कि जिस दिन उनकी सीमाएं खत्म होगी – और यह खत्म होंगी – उस समय माले ही उनके लिए बड़ी चुनौती बन कर उभर सकता है. वामपंथ की कतारों में या प्रगति की ताकतों के बीच माले ही वह ताकत है जिससे वे डरते हैं, जिसको वह समझते हैं कि मेरी कब्र आने वाले दिनों में यही ताकत खोदेगी बल्कि आज से ही खोदना शुरू भी कर दिया है. यह समझदारी उनकी है. इसलिये आप देखेंगे कि हमेशा उनका हमला, अगर एक तरफ भाजपा के खिलाफ रहता है तो दूसरी तरफ उनकी हमेशा यह कोशिश होती है कि हमारी पार्टी को, हालांकि हम एक छोटी पार्टी हैं, कैसे कमजोर किया जाए, खत्म किया जाए. क्योंकि वह जानते हैं कि आज की इस छोटी पार्टी में कल की कितनी बड़ी संभावना छिपी हुई है. इसलिए वे इस छोटी ताकत को कभी नजरंदाज नहीं करते. तमाम तिकड़मों के जरिए, तमाम कोशिशों के जरिए हमेशा वे यह चाहते हैं कि माले को कैसे खत्म किया जाए.

इस सवाल पर हम दो-एक बाते कहें इसके पहले हम एक अन्य मुद्दे पर आएं. कुछ साथियों ने यहां कहा कि हमें किसी के साथ कोई समझौता नहीं करना जाहिए. सीपीआई-सीपीएम के साथ तो नहीं ही करना चाहिए क्योंकि ये सब बदमाश हैं, गद्दार हैं. उन लोगों ने हमारे कई साथियों की हत्याएं की हैं. फिर जनशक्ति, रेडफ्लैग, टीएनडी इन सब ग्रुपों को साथ करके भी क्या होगा. इन लोगों के साथ भी कुछ नहीं करना चाहिए. फिर वे यह भी कह रहे थे कि जो ताकतें लड़नेवाली हैं, जो क्रांतिकारी हैं उनके साथ एकता करनी चाहिए. तो स्वाभाविक तौर पर उनका इशारा था एमसीसी-पार्टी यूनिटी जैसी ताकतों की ओर. क्योंकि उन्होंने यह भी कहा था कि चुनाव इत्यादि से बहुत कुछ क्या होनेवाला है. तो मोर्चा बनाने की बात पर उनकी क्या स्थिति है?  उन्होंने सीपीआई, सीपीएम से लेकर तमाम ताकतों को खारिज कर दिया है. कुल मिला कर अगर फिर भी जो आंदोलन कर रहे हैं और क्रांतिकारी हैं तो उनकी नजर में वो पार्टी यूनिटी और एमसीसी ही बची रहे हैं. दूसरी कोई ताकत ही दिखाई नहीं देती उन्हें इस बिहार में. अगर यह सवाल उठता है कि हमारे साथियों की हत्या की है सीपीएम वालों ने या किसी और ने तो हमारे साथियों की हत्याएं एमसीसी वालों, पार्टीयूनिटी वालों ने क्या किसी से कम की हैं? तो ये तो कोई तर्क नहीं बनता. दूसरी बात यह है कि एमसीसी /पार्टी यूनिटी जैसी ताकतों के साथ मोर्चा बनाने का मतलब होगा कि इस पूरी की पूरी राजनीतिक प्रक्रिया से पीछे हट जाना, पूरी राजनीतिक प्रक्रिया को छोड़ देना. जिस सरकार के लिए, जिन ताकतों के लिए आप चूनौती बनना चाहते हैं उनके लिए यह सबसे खुशी की बात होगी. यह पूरा-का-पूरा मैदान आप उनके लिए खाली छोड़ दे रहे हैं. मैं समझता हूं कि इस तरह की जो सोच है शायद गलत है. जैसा कि मैने पहले कहा, हम वामपंथी एकता के विस्तार के पक्ष में हैं, हम व्यापक वामपंथी एकता के विरोधी नहीं हैं. आप आम राजनीतिक संघर्ष से कट जाएं और कुछ अलग-थलग अराजक कार्यवाहियों के लिए एकताबद्ध हो जाएं तो यह शायद गलत होगा. मुझे बहुत अफसोस है कि पिछले दश-पन्द्रह वर्षों से लगातार जिस राजनीतिक व्यवहार में हमारी पार्टी है, इसके बावजूद हमारे एक वरिष्ठ राजनीतिक साथी आज भी ऐसा विचार रखते हैं. तो यह राजनीतिक शिक्षा का भी बहुत बड़ा अभाव मुझे नजर आता है.

दूसरा, जैसा कि एक साथी ने कहा कि हमें किसी के भी साथ मोर्चा नहीं बनाना चाहिए. पिछली बार विनोद मिश्रा ने कहा कि जार्ज बहुत बढ़ीया आदमी है और इसीलिए उनके साथ मोर्चा बना लिया. मैं समझता हूं कि ये बातें सही नहीं हैं. किसी के साथ मोर्चा बनाना या नहीं बनाना बढ़िया आदमी या खराब का सवाल नहीं होता. मोर्चा केवल बढ़िया आदमी से बने यह गलत बात है. कभी-कभी खराब आदमियों से ही मोर्चा बनाया जाता है और बढ़िया आदमी से नहीं बनाया जाता. इसलिए हमने अगर समता पार्टी से किसी भी किस्म का कोई गठबंधन बनाने की कोशिश की थी, तो इसका तर्क यह नहीं है कि वे बढ़िया आदमी हैं. बल्कि जहां तक मुझे याद है पिछला जो कन्वेंशन हुआ था जिसमें मैं उपस्थित था, उसमें मैंने समता पार्टी के बारे में अगर कुछ कहा था तो आलोचनात्मक बातें ही कही थीं कि किस तरह से ये नीतीश कुमार वगैरह कुर्मी-यादव की राजनीति कर रहे हैं. हम इस राजनीति में शरीक नहीं हो सकते हैं या किस तरह से ये कुर्मी वगैरह की कुलक ताकतें हैं, इनके साथ इनकी हिस्सेदारी है.

मैं कह रहा हूं कि मोर्चा कम्युनिस्ट बनाते हैं. माओ त्सेतुंग को भी एक बार च्यांग काईशेक के साथ मोर्चा बनाना पड़ा था – वह कोई बढ़िया आदमी था इसलिए मोर्चा बनाना पड़ा यह बात नहीं है. संयुक्त मोर्चा कम्युनिस्ट पार्टी के लिए एक राजनीतिक कौशल है, एक कार्यनीति है. इसके जरिए वह तमाम कठिन घिरी हुई हालतों से, संकट की स्थितियों से निकलने की कोशिश करती है. आप एक-दो साल पहले की स्थिति का अंदाजा करें कि हमारी पार्टी, जो तब आईपीएफ के नाम से काम कर रही थी, उसमें तमाम टूट-फूट कर दी गई थी. चारों तरफ से हमें घेरा जा रहा था और उस हालत में हमें काम करना था. लालू यादव घमंड के साथ यह घोषणा करते फिर रहे थे कि हमने आईपीएफ खत्म कर दिया. ऐसी हालत में हमें वहीं से उबरना था. सवाल किसी समता पार्टी का, किसी रमता पार्टी का नहीं था. सवाल जनता दल के एक धड़े का था (उसका नाम कुछ भी हो सकता था), जनता दल के अंदर विभाजन का था. चूंकि यह एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी रणनीति है कि जो आपका प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी है उसके अंदर के किसी फूट का आप इस्तेमाल करें, उसका फायदा उठाएं. जैसा कि हमारे अंदर की टूट-फूट का वे फायदा उठाते हैं, उनके अंदर की टूट-फूट का हम फायदा उठाते हैं. मामला सिर्फ इतना ही था. हमने उनके अंदर की टूट-फूट का अंदाजा लगाया. उन्होंने हमारी पार्टी को तोड़ा था. हमने उनकी पार्टी को तोड़ने की तरफ कदम बढ़ाया. हम समझते हैं कि उसको तोड़ने की कोशिश की और जहां तक आप जानते हैं कि ठोस रूप से जब सीटों के तालमेल की बात आई तो हमारी पार्टी ने किन्हीं भी ताकतों से ऐसा कोई भी समझौता नहीं किया है जिसमें हमारे संघर्ष के इलाकों, हमारी मजबूत जगहों, इन तमाम चीजों को या हमारी राजनीतिक जरूरतों के आधार पर इन सीटों को छोड़ दिया हो. ऐसा हमने कभी नहीं किया. 1990 के चुनाव में सीपीआई के साथ हमारी चुनावी वार्ता, जो कि अंत तक चल रही थी, वह सारी चुनाव वार्ता इसलिए भंग हो गई क्योंकि न तो जहानाबाद के सवाल पर, न उधर हजारीबाग के सवाल पर हम समझौता करने को राजी हुए. इसलिए सीपीआई से हमारा समझौता नहीं हो पाया. बाद में समता पार्टी के साथ भी, कुल मिलाकर आप लोग जानते हैं कि, हम अपने संघर्ष के इलाके को कहीं भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. वार्ता भंग हो चुकी थी. इसकी खबरें अखबारों मे भी छप चुकी थीं. इसके बाद उनकी तरफ से बार-बार अनुरोध किया गया कि जैसे-तैसे हो लेकिन एक सांकेतिक किस्म का समझौता हो जाए. तो इसलिए मैं कह रहा हूं कि हमारी पार्टी किसी भी समझौता वार्ता में कहीं से भी अपनी स्वतंत्रता, अपनी अस्मिता, अपनी मजबूत जगहें जहां हमको लड़ना चाहिए उनको छोड़ कर हमने कोई समझौता नहीं किया है और न हम भविष्य में ऐसा समझौता करने जा रहे हैं.

कुछ और बातें. कुछ साथी कभी-कभी यह बात ले आते हैं कि हमलोगों को मार्क्सवाद की स्थापना करनी है. सीट-वीट जीतने से हम लोगों का कुछ लेना-देना नहीं है. तो मैं समझता हूं कि अगर हम लोग दो-चार सीट जीत लें तो उससे मार्क्सवाद की स्थापना में क्या कोई दिक्कत आएगी? उससे क्या मार्क्सवाद को कोई संकट आ जाएगा? मैं कहता हूं कि इन चीजों को एक-दूसरे के विपरीत नहीं खड़ा किया जाना चाहिए. मार्क्सवाद की स्थापना करना बहुत अच्छी बात है लेकिन उसके साथ हमें सीट हारना जरूरी है यह तो कोई बात नहीं है. मैं समझता हूं कि जब आप चुनाव लड़ते हैं तो अवश्य ही सीट जीतना है इसके लिए हमें कोशिश करनी पड़ती है. सवाल सिर्फ इतना है कि हम सीट जीतने के लिए कोई गैर उसूली तौर-तरीके न अपनाएं. हम गैर उसूली तौर-तरीका अपना लें, सामंतों से हाथ मिला लें या गलत तरीके अपना कर जैसे-तैसे कोई सीट जीत लें – निश्चय ही ये सब हमारी नीतियां नहीं  हो सकतीं. लेकिन अगर हम चुनाव के मैदान में उतरते हैं तो हमारी कोशिश ये जरूर रहती है कि हमको ज्यादा-से-ज्यादा वोट मिले. हमारी कोशिश ये जरूर रहेगी कि हम सीट जीतें. इसलिए बहस इस बात पर जरूर होनी चाहिए कि हम कहीं से कोई गैर उसूली रास्ते अपना रहे हैं कि नहीं अपना रहे हैं. ये कहना कि हमें सीट-वीट जीतने से कुछ लेना-देना नहीं है तो मेरी समझ से इससे पूरे चुनाव अभियान की गंभीरता नष्ट होती है. बार-बार व रोज यह कहते रहना कि हमें चुनाव लड़ने से कोई लेना-देना नहीं है, चुनाव तो वैसे ही लड़ना है, चुनाव का क्या है – हम समझते हैं कि अतिक्रांतिकारिता बहुत समय अच्छी नहीं होती है. चुनाव अगर पार्टी लड़ रही है तो कोई शौकिया नहीं. चुनाव भी हमारे लिए एक राजनीतिक जिम्मेदारी है. हम महसूस करते हैं, हमारी समझ है कि चुनाव भी पार्टी के विकास के लिए, आंदोलन के विकास के लिए, हमारे लिए महत्वपूर्ण है. चुनाव के माध्यम से बड़े पैमाने पर हम अपनी बातें जनता के बीच ले जाते हैं. चुनाव के माध्यम से वर्गीय गोलबंदियां तेज होती हैं. हमारा सारा का सारा चुनाव अभियान, चुनाव प्रचार क्या है? उन्हीं सामंती ताकतों के खिलाफ, कहिए तो लड़ाई का एक उच्चतर रूप है. बड़े पैमाने पर वर्गीय गोलबंदियां एक-दूसरे के खिलाफ हो रही हैं और चुनाव लड़े जा रहे हैं बंदूकों से, लाठियों और गोलियों से. तो ये हालात हैं. इसलिए चुनाव भी हमारे लिए वर्ग संघर्ष ही है, वर्ग संघर्ष का एक हिस्सा है. चुनाव हमारे लिए कोई शौकियां चीज नहीं है. हमारे वर्ग संघर्ष की योजना से कोई बाहर की चीज नहीं है. इसलिए चुनाव भी हम लोगों के लिए जीवन-मरण की चीज बन जाता है. इसे हमें पूरी गंभीरता से लेना है. चुनाव अगर लड़ना है तो पूरी गंभीरता के साथ. गंभीरता का अर्थ है कि हमें अपनी बातें, अपना राजनीतिक प्रचार जनता के बीच बड़े पैमाने पर ले जाना है. वर्गीय गोलबंदी चुनाव के माध्यम से बड़े पैमाने पर संगठित करनी है और इसके जरिए विधायक जीतते हैं तो वे विधायक भी विधानसभा के अंदर किसी सवाल पर, जनसंहार के सवाल पर या किसी सवाल पर हल्ला मचाते हैं, अपनी बातें रखते हैं, काम रोको प्रस्ताव लाते हैं तो वो अखबारों के जरिए प्रचारित होता है. इसलिए मैं समझता हूं कि चुनाव को भी गंभीरता से लिया जाना चाहिए. हां, उसमें भटकावों से अवश्य ही बचना चाहिए. और भटकावों से बचने का महत्व यही है कि गैर उसूली तौर-तरीके न अपनाए जाएं. तो मैं समझता हूं कि इस तरह के कुछ विचार यहां आए थे जिन पर कुछ बातें रखनी जरूरी थीं.

जहां तक लालू सरकार की बात है तो मैंने पहले ही कहा कि उनके व्यवहार, उनके सिद्धांत के खिलाफ व्यवहार में आलोचना करते हुए ही हम यहां के लिए वामपंथी कार्यक्रम बना सकते हैं. लालू यादव की सरकार, जो अभी इस दौर में आई है, मूलतः मैंने देखा, वह भूमि सुधार की बातें कर रही है. दूसरा, रोटी-कपड़ा-मकान जैसी बातें कर रही है. और तीसरा, औद्योगीकरण की बाते कर रही है. जहां तक भूमि सुधार का सवाल है तो भूमि सुधार को लेकर कोई नया कानून बना हो या उसको लागू करने के लिए नीचे से जनता को गोलबंद करते हुए या अपनी पार्टी को गोलबंद करते हुए कोई सही मायने का आंदोलन छेड़ा हो ऐसा कुछ करते  वो नजर नहीं आ रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा जो चीजें दिखाई दे रही है कि यहां वहां प्रशासन के जरिए कुछ मीटिंगे हो रही हैं जिसमें कुछ गैर मजरुआ जमीन, कुछ फालतू जमीन पर एक तरह के पर्चे बांट दिए जा रहे हैं. तो इस तरह का भूमि सुधार कांग्रेसी जमाने में भी हमलोगों ने बहुत देखा है. भूमि सुधार के मामले में जो गंभीरता होनी चाहिए कि पूरे बिहार की जमीन का सर्वे कराया जाए, इसके लिए बड़े पैमाने पर जनता को भी सूचित किया जाए, तैयारियां की जाएं, नए कानून बनाए जाएं, नए ट्रिब्यूनल बनाए जाएं, तमाम जो केस फंसे हुए हैं उनको वहां से हटाया जाए  – इस तरह की कोई गंभीर कोशिश नजर नहीं आ रही है. सरकार यहां-वहां जमीन का पर्चा बांट रही है लेकिन वो जमीन उनके हाथ में आई या नहीं, उस पर उसका कब्जा हुआ या नहीं, वह जमीन खेती करने लायक है या नहीं, खेती करने लायक उसकी स्थिति है या नहीं – इन तमाम सवालों से सरकार को कुछ लेना-देना नहीं है. इसलिए भूमि सुधार का सवाल जो लालू प्रसाद जी अभी लाए हैं मुझे लगता है उसमें हवा ज्यादा है, उसका बहुत बड़ा प्रभाव नहीं है. इसलिए भूमि के सवाल पर हम तो अपना संघर्ष जारी रखे ही हुए हैं और इसके साथ हमने ये बाते बार-बार जोड़ी भी हैं या किसान सभा को इन मुद्दों को लाना भी होगा कि भूमि सुधार के लिए इस तरह के कानून बनाने होंगे, जमीन का पूरा सर्वे कराना होगा. तभी लगेगा कि आप इस मामले में गंभीर हैं, नहीं तो पूरी बातें छलावा हैं. इस तरह से हम इसका भंडाफोड़ भी करेंगे और साथ ही साथ जमीन के सवाल पर विभिन्न स्तरों पर आंदोलन भी चलाएंगे.

जहां तक दूसरा सवाल है रोटी-कपड़ा-मकान वाला तो इस सवाल पर मुझे लगता है कि पहले तो हमें इसको विचारधारात्मक तौर पर भंडाफोड़ करना है कि रोटी-कपड़ा-मकान का पूरा सवाल ही जनता को कुछ राहत बांटने जैसा है. दो साड़ी, दो धोती बांट दिया, मकान के लिए कुछ पैसा दे दिया गया. अर्थात् बुनियादी संबंधों को छुए बिना. उसकी बुनियादी स्थितियों में परिवर्तन लाए बिना इस तरह कुछ धोती-साड़ी देना, कुछ मकान बना देना आदि इस तरह की कुछ बातें हो रही हैं. हमको इस बात पर जोर देना है कि अगर बुनियादी संबंधों में परिवर्तन हो, उनकी मजदूरी बढ़े, उनकी सार्वजनिक आय बढ़े, वे खेती कर सकें, तब साड़ी-धोती खरीदने के लिए उनकी खुद की कूबत हो सकती है. तब वे अपने मकान भी पक्के बनवा सकते हैं. इसलिए एक तो यह विचारधारात्मक सवाल हमें उठाना है कि किसी राहत की बात नहीं, सवाल ये है कि बुनियादी संरचना में परिवर्तन हो. दूसरी तरफ व्यवहार में जरूर हमको इस तरह के जो भी नारे हैं उनका भरपूर इस्तेमाल करना होगा. जैसा इस बार व्यवहार में हमने किया भी है. जद ने पक्का मकान का नारा दिया और पार्टी ने इस नारे को उठा लिया. इस नारे के आधार पर हमने चारो ओर जनता को गोलबंद किया. इस पर चारो तरफ आंदोलन भी हमने किए हैं और यही नारा उसके लिए सिरदर्द में बदल सकता है. जिस नारे को वो अपना सबसे महत्वपूर्ण शक्तिशाली नारा समझते हैं हम उसी नारे को उन्हीं के खिलाफ बदल दे सकते हैं. ये भी हमको साथ-साथ करना है.

जहां तक औद्योगीकरण की बात है, उसपर जो प्रवासी भारतीय हैं उनके जरिए वो पूंजी विनियोग वगैरह की बातें कर रहे हैं. यह जरूर सच्चाई है कि प्रवासी चीनी लोगों ने चीन में बड़े पैमाने पर पूंजी लगाई है और उसकी वजह से चीन के औद्योगिक विकास में एक बड़ी भूमिका उनकी रही है. लेकिन प्रवासी भारतीयों के बारे में जो खबरें मिली हैं, ऐसी कोई चीज दिखाई नहीं पड़ रही है. किसी देशप्रेम से प्रेरित होकर – जो कि कहा जा रहा है कि आप भारतीय हैं तो देशप्रेम में पूंजी लगाईए – ये प्रवासी भारतीय देश के औद्योगीकरण में लगे हों अभी तक ऐसी कोई मिसाल दिखाई नहीं पड़ी है. बल्कि ये सब यहां पर कुछ डालर जमा करते हैं और जब भी देखते हैं कि यहां कोई संकट आने लगा है तत्काल वे अपना पैसा निकाल लेते हैं. यही खबरें ज्यादा हैं इसलिए हमारे प्रवासी भारतीयों के बल पर औद्योगीकरण की जो कल्पना की जा रही है, अभी तक देश के तमाम हिस्सों में जो कोशिश चली है वो सही नहीं साबित हुई है. अभी तक तो इन प्रवासी भारतीयों को लाने, खिलाने-पिलाने, रखने में ही भारी पूंजी खर्च की गई है, उनकी तरफ से पूंजी विनियोग की ठोस बातें नहीं आई हैं. एक तो ये विषय है. दूसरा, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरिए भी विनियोग वगैरह की बातें हैं उसमें एक नंबर बात आप यह देखेंगे कि ये सारी कंपनियां औद्योगीकरण के लिए जो इलाका चुनती हैं वो वही झारखंड का इलाका है जहां सत्ते में कच्चा माल और चीजें मिल रही हैं. पर बाकी बिहार में? यह सवाल काफी महत्वपूर्ण रहा है कि बिहार में औद्योगीकरण में एक असाम्य है, एक विषमता है. एक खास इलाके में, झारखंड के इलाके में ही तमाम औद्योगीकरण है, विकास है. बिहार का बहुत बड़ा इलाका छूटा पड़ा है. तो ये जो बहुराष्ट्रीय निगम आने वाले हैं उनको भी आप देखेंगे कि उनका भी कोई स्वार्थ नहीं है बिहार के दूसरे इलाकों में, पिछडे हुए इलाकों में उद्योग-धंधा लगाने में. वे भी वहीं लगा रहे हैं क्योंकि जहां कच्चा माल है और सस्ते में चीजें उपलब्ध हैं. इसलिए ये औद्योगीकरण बिहार में जो विषमता है उसे बढ़ाएगा, दूसरा कुछ यह नहीं करने जा रहा है. सरकार भी यही कर रही है. वे लोग जहां चाह रहे हैं वहीं पर उनको करने दे रही है. दूसरी बात यह है कि इस औद्योगीकरण से रोजगार के कोई बड़े साधन नहीं खुलने वाले हैं. क्योंकि इसमें पूंजी बहुत लगेगी. ऐसी मशीनें, ऐसी तकनीक होगी कि इसमें मजदूरों की कम से कम जरूरत होगी. कुछ बडे बडे अफ्सर जरूर होंगे जिनको बडी बडी तनख्वाहें मिलेगी. साल में  पंच लाख,  दस लाख तक तनख्वाहें मल्टीनेशन दे रहे हैं , अपने मनेजर को. वहाँ मजदूरों की संख्य बहुत कम होगी.  

बिहार जैसे राज्य में इस पूरे औद्योगीकरण में रोजगार बढ़ाने वाला दृष्टिकोण गायब है और बिहार में हम समझते हैं कि बड़े पैमाने पर बेकारी है. अगर यह रोजगार-रहित औद्योगीकरण हो तो यह बिहार के लिए वरदान की बजाय शाप ही साबित होगा. ये इसकी खामियां हैं क्योंकि पुराने जो उद्योग-धंधे थे जो कि बीमार हो रहे हैं, बड़े पैमाने पर मजदूर जहां काम करते थे, वे सारे उद्योग-धंधे बंद होते जा रहे हैं. बजाय इसके कि औद्योगीकरण रोजगार लाएगा, पुराने उद्योग-धंधे बंद हो जाने की वजह से बड़े पैमाने पर बेरोजगारी ही फैलेगी. और लालू जी को उस दिन मैंने यही करते सुना भी. जब उनसे एक पत्रकार ने पूछा कि पुराने उद्योग-धंधे, बीमार उद्योग-धंधे के बारे में आप क्या कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि ‘छोड़िए उन्हें, बाप-दादा जो मर गए सो मर गए. जो मर जाता है उसको लेकर कोई पड़ा रहता है? सब नया-नया बनाना है.’ अब अगर कोई मर जाए तो अलग बात है, मगर बीमार बाप और बीमार दादा को मार डालना – यह भी कोई बात हुई. तो ये जो इनकी औद्योगिक नीति है, रोजगार-रहित औद्योगीकरण है जो बिहार में क्षेत्रीय विषमता को बढ़ाएगा, मुझे लगता है कि बिहार में इसका बड़े पैमाने पर भंडाफोड़ करना चाहिए.

जहां तक पटना के सौंदर्यीकरण का सवाल है तो उसका यह मतलब है कि शहर में जो नागरिक सुविधाएं हैं, आमलोगों को मिलनेवाली पानी, सप्लाई वगैरह की सुविधाएं, उनको बढ़ाना. यही सब सौंदर्यीकरण का असली मुद्दा है. लेकिन आप देखेंगे कि पटना में नागरिक सुविधाओं को बढ़ाने की कहीं कोई कोशिश नहीं हो रही है. सफाई मजदूर हैं, उन्हें पांच-पांच महीने से वेतन नहीं मिला है. सौंदर्यीकरण के नाम पर जो पूरी चीजें हो रही हैं वो कुछ जमीनें हैं जिन जमीनों की मार्केट में आज बहुत कीमत है. वो जमीनें खाली करवाई जा रही हैं. स्टेशन और उसके अगल-बगल और वो पुराना जेल तोड़ के जो जमीनें करोड़ों में, अरबों में बिकेंगी उनका लाखों-लाखों का कमीशन लालू यादव को मिल जाएगा. इसलिए इस पूरे सौंदर्यीकरण के पीछे असल में वो कीमती जमीनें हैं जिसको कहते हैं खास जमीनें. शहरों में इनकी कीमत बहुत ज्यादा होती है. उस जमीन को खाली कराके फिर वहां मार्केट लगवाकर और उससे लाखों-लाख  रूपए कमीशन कमाना, इसके अलावा इसके पीछे कुछ नहीं है; बाकी लोगों को धोखा देने के लिए बनाई गई बातें हैं.

दूसरी ओर, इनके राज्य में अभी एक साल के अंदर एक नई बात यह हुई है कि जितना वे औद्योगीकरण की बात कर रहे हैं उतना ही इनका मजदूर विरोधी, वामपंथ विरोधी रुख साफ होता जा रहा है. सीपीआई के खिलाफ विधानसभा के अंदर और बाहर भी, और कुछ सीपीएम के खिलाफ बहुत सी बातें होने लगी हैं. उससे सीपीआई वाले भी कुछ नाराज हो रहे हैं. तो ये दिखाई पड़ रहा है कि जितना ही प्रवासी बिहारी, मल्टीनेशनल्स की ये बात कर रहे हैं, उतना ही ये वामपंथ के खिलाफ, मजदूरों के खिलाफ सीधे-सीधे बातें भी कर रहे हैं और जिसकी वजह से ही कुछ माहौल बन रहा है कि वामपंथी ताकतें एक-दूसरे के कुछ नजदीक आएं. तमाम वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने ऐसी कोशिशें शुरू भी की हैं.

यह सच बात है कि अभी भी मुसलमानों में, पिछड़ों व दलितों के कुछ हिस्सों में इनकी पकड़ बरकरार है. लेकिन मुसलमानों के अंदर भी जो इनके साथ हैं बहुत से तनाव पैदा हो रहे हैं. उनके अंदर जो उनके तमाम लीडरान हैं उनके बीच तमाम झगड़े हैं; अपनी-अपनी अहमियत को लेकर, क्योंकि आम जनता से इन दलों का सीधा रिश्ता नहीं रहता है. कुछ हुआ करते हैं जो उस समुदाय पर कंट्रोल रखते हैं, नियंत्रण रखते हैं. उन्हीं के माध्यम से ये राजनीतिक दल जनता तक अपनी बातें ले जाते हैं. तो ये जो पावर ग्रुप हैं उनके अंदर तमाम किस्म के तनाव, झगड़े ये सब चीजें हैं. इसी तरह से दलित भी जो इनके साथ हैं – रमई राम हों, रामविलास हो या कुछ और – ये अलग से भी अपना ग्रुप बनाए रखना चाहते हैं. हमलोगों के साथ संबंध रखने की कोशिश करते हैं. उनके मुस्लिम पावर ग्रुप का भी जो विक्षुब्ध हिस्सा है वह भी हमलोगों की पार्टी के साथ संबंध बनाए रखना चाहता है. तो इस तरह के तनाव इनके अंदर बढ़ रहे हैं. अपनी तरफ से हमलोगों की रणनीति है कि उन सब लोगों से संबंध बनाए रखे जाएं. हो सकता है कि अभी-अभी वे काम में आएं या न आएं लेकिन ये रिश्ते बनाए रखे जाएं और लालू खेमे के अंदर बढ़ रहे इन तनावों के कारण हमारी पार्टी को आगे बढ़ने में ये चीजें कुछ मदद कर सकती हैं.

अब इन परिस्थितियों के विश्लेषण के बाद मैं अंतिम तौर पर यह कहना चाहूंगा – पहली बात तो हमलोग जरूर एक तीसरे मोर्चे के लिए कोशिश कर रहे हैं. वामपंथियों के साथ भी हम अलग से कोशिश करेंगे दोस्ती बढ़ाने की, लेकिन सबकुछ के बावजूद हमलोगों को आनेवाले चुनाव में स्वतंत्र ढंग से लड़ने के लिए ही मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए. कोई भ्रम नहीं पाल लेना चाहिए. इस सबसे बचना चाहिए. तालमेल की कोशिशें रहेंगी फिर भी कुल मिलाकर परिस्थिति शायद हमको वहीं ले जाए. क्योंकि सम्मानजनक चुनावी समझौता कर पाना यहां किसी के साथ मुश्किल हो जाता है. अगर वो समझौता की बात आए भी तो उनके आधार, हमारे आधार, उनकी सीटें, हमारी सीटें इसमें ही तरह-तरह के टकराव हैं. वास्तव में हम जब तक अपने को स्थापित नहीं कर लेते हैं तब तक उनके साथ चुनावी समझौता से हमको बहुत फायदा होनेवाला नहीं है. तो कोशिश तो हम करेंगे जरूर वामपंथियों के साथ ऐसे समझौतों की, लेकिन यही मानकर चलना बेहतर होगा कि आनेवाले चुनाव में हमें अपने बल पर अकेले लड़ना होगा. हां, देश के पैमाने पर जरूर हम कांग्रेस, भाजपा के खिलाफ एक तीसरी ताकत के हिस्सेदार के रूप में रहेंगे.

दूसरी बात, पिछले चुनाव में या इसके पहले के चुनाव में हमलोगों ने बार-बार लक्ष्य रखा था कि हमें कम-से-कम चार प्रतिशत मत लाना चाहिए जिससे कि हमारी पार्टी को राज्य के स्तर पर मान्यता मिले. लेकिन हमलोग नहीं कर पाए. पिछले चुनाव में भी और इसके पहले भी हम तीन प्रतिशत तक जाकर रह जाते हैं. इसे हमें चार प्रतिशत तक पहुंचाना था. कोई भी पार्टी है तो वो मान्यता के लिए पहले राज्य के पैमाने पर फिर देश के पैमाने पर कोशिश करती ही है. आज भी हमारे सामने यह लक्ष्य है और मैं समझता हूँ कि हमारे साथियों को यह दिमाग में रखना होगा कि ये दर्जा हमें हासिल करना है. दूसरा कि अगले चुनाव में हमें कम-से-कम एक सांसद अवश्य जिताना है क्योंकि इसके साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में कुछ असर का सवाल बनता है. तीसरी बात मुझे यह कहनी थी कि तमाम लोकप्रिय मुद्दों पर – जनसंहार, सौंदर्यीकरण आदि मुद्दों पर हम जो पहलकदमी ले रहे हैं, उसे हमेशा बढ़ाते रहना है. राज्य के किसी भी हिस्से में कहीं भी पुलिस दमन या कोई भी इस तरह की घटना हो तो हम ऐसी घटनाओं में पहुंचनेवाली, पहलकदमी लेनेवाली पार्टी रहें. सबसे पहले नम्बर पर रहें इसकी हमें कोशिश करनी होगी. साथ ही मैं ये कहना चाहूंगा कि लोकप्रिय मुद्दों पर जो ये हमारी पहलकदमी होती है इन पहलकदमियों का उद्देश्य होना चाहिए माफिया, प्रशासन, राजनीतिज्ञ का जो गठजोड़ है उसका पर्दाफाश करना. ऐसे इधर-उधर दुनिया भर की पहलकदमियां लेने से कोई फायदा नहीं होता है. लेकिन सारी पहलकदमियां इस दिशा में निर्देशित होनी चाहिए कि हम उस घटना के केन्द्र में जो माफिया ताकतें हैं; उनके साथ जो जुड़ा हुआ प्रशासन है और उसके साथ कहीं-न-कहीं कोई राजनीतिज्ञ है तो इस तरह के गठजोड़ को जो बिहार के माथे पर रखा हुआ सबसे बड़ा बोझ है – माफिया, प्रशासन, राजनीतिज्ञों का गठजोड़ – हमारा संघर्ष हमेशा इस गठजोड़ के खिलाफ निर्देशित हो. अभी बहस हो रही थी कि विकास का सवाल बड़ा है या दूसरे सवाल बड़े हैं. मैं समझता हूं कि विकास का जो सवाल है, उस विकास की संस्थाओं में भी भ्रष्टाचार है. विकास के सवालों को भी आप इस तरह से उठाएं कि वह माफिया, प्रशासन और राजनेताओं के गठजोड़ के खिलाफ निर्देशित हो जाए. मैं समझता हूं कि यह आपका निशाना है और आपका हर वार इस निशाने की तरफ निर्देशित होना चाहिए. इस दृष्टिकोण से आप कोई भी मुद्दा उठाएं वह प्रासंगिक है, लाजिमी है और यह दृष्टिकोण उसमें न रहे तो बढिया-से-बढ़िया मुद्दा भी कोई मायने नहीं रखना. विशेष रूप से मैं ये कहूंगा कि उनकी जो श्रमिक विरोधी या श्रम विरोधी नीतियां हैं इनके भंडाफोड़ के लिए और इन्हें इस रूप में जनता के सामने साफ-साफ तौर पर लाने के लिए कि यह साबित हो कि ये पूंजीपतियों के दलाल हैं, इन मुद्दों को कस कर पकड़ना चाहिए. अंतिम तौर पर मैं यह कहूंगा कि सामंतवाद विरोधी लड़ाकू संघर्ष जो हम बिहार के कई जिलों, कई हिस्सों में चला रहे हैं उसे अवश्य ही हमें तेज करना है. मुझे लगता है कि बिहार में ये सब कार्यभार हमारे सामने हैं.

(लिबरेशन, अगस्त 1995 से, प्रमुख अंश)

लगभग तीन महीने बाद बिहार के चुनावों के बारे में लिखना आश्चर्यजनक लग सकता है. लेकिन विलंब से समीक्षा करने का एक अतिरिक्त फायदा यह होता है कि तब आप दूसरे विश्लेषकों द्वारा पेश किए गए विभिन्न तर्कों और निष्कर्षों की छानबीन कर सकते हैं. फिर, पार्टी के अंदर से उठनेवाली वैकल्पिक स्थितियां, जो पार्टी कतारों के बीच मौजूद भ्रमों के आधार पर फलती-फूलती हैं, इधर बिलकुल हाल में आकार ग्रहण करती दिख रही हैं. इस सबके चलते हमारे चुनावी व्यवहार और चुनावी नतीजों पर फिर से गौर करना आवश्यक हो जाता है.

पहले तो हम देखें कि कुछ विश्लेषकों ने हमारी स्थिति कि समीक्षा कैसे की है. सीपीआई के एक सिद्धांतकार श्री चतुरानन मिश्र ने एक हिंदी दैनिक में लिखते हुए टिप्पणी की कि जहां सीपीआई और सीपीआई(एम) के वोटों का एक हिस्सा जनता दल के साथ उनके संश्रय के जरिए आया, वहीं सीपीआई(एमएल) ने मुख्यतया अपने बल पर वोट हासिल किए. समता पार्टी के साथ संश्रय से उसे थोड़े-बहुत वोटों का ही फायदा हुआ. उन्होंने इस बात पर आश्चर्य जाहिर किया कि फिर भी सीपीआई(एमएल) ने सीपीआई(एम) के बराबर सीटें हासिल कर लीं. श्रीमान एके राय ने अपने बहुप्रचारित लेख में जनता दल पर वामपंथ की बढ़ गई निर्भरता का रोना रोया और उसी सांस में जनता दल से संश्रय बनाने से इनकार करने पर सीपीआई(एमएल) को ‘उद्धत’ कर दिया और फिर हम पर यह आरोप लगाया कि हम समता पार्टी तथा झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ गैरउसूली संश्रय में शामिल हुए – गैरउसूली इसलिए, क्योंकि उनके अनुसार वह संश्रय सीट व सत्ता के लालच से ही प्रेरित था.

पार्टी यूनिटी के एक भूतपूर्व नक्सलवादी और वर्तमान में एक पत्रकार श्री तिलक डी गुप्ता ने इकानमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली में लिखा : “सीपीआई(एमएल) अपने चुनावी प्रदर्शन पर संतोष जाहिर कर सकता है. हालांकि उसे अपनी बढ़ी-चढ़ी उम्मीदों से काफी कम नतीजे हासिल हुए हैं. तमाम पार्टियों के बीच सीपीआई(एमएल) को ही बड़े भूस्वामियों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए प्रशासनतंत्र की दुश्मनी सबसे अधिक झेलनी पड़ी. इसके अलावा उसे एक ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा जिसमें पार्टी द्वारा कृषि संघर्षों में गोलबंद किए गए मेहनतकश ग्रामीण जनसमुदाय का अच्छा-खासा हिस्सा चुनाव के समय जनता दल में चला गया. और फिर, सीपीआई एवं सीपीआई(एम) की अपेक्षा सीपीआई(एमएल) को अकेले अपने ही बलबूते चुनाव लड़ना पड़ा. इन स्थितियों में यह कहा जा सकता है कि पार्टी ने अपेक्षाकृत मुश्किल परिस्थिति में काफी अच्छा प्रदर्शन किया.”

इतनी प्रशंसा करने के बाद श्री गुप्ता आगे लिखते हैं, “इतना कहने के बाद, यह बता देना आवश्यक है कि समाजवादी रंग-रूप वाले किन्तु स्पष्टतया एक दक्षिणपंथी संगठन, जो गैर-यादव भूस्वामियों की आकांक्षाओं से जुड़ा हुआ था, के साथ संश्रय बनाने के गैरउसूली प्रयत्नों से एक ऐसे राजनीतिक अवसरवाद की बू आती है, जो अतीत के भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में हमेंशा परिलक्षित होता रहा है. इसके अलावा, जनता दल को बदनाम करने और उसे सत्ता से हटाने की चिन्ता में अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ-साथ सीपीआई(एमएल) ग्रुप भी बिहार में मुख्य चुनाव आयुक्त की मनमानी एवं पक्षपातपूर्ण कार्यवाहियों का तत्पर सहयोगी न होते हुए भी कुछ हद तक उसका समर्थक अवश्य बन गया.”

दो संश्रय, दो कार्यनीतियां

आइए, अब देखें कि इन सब वक्तव्यों का असली अर्थ क्या है. श्रीमान चतुरानन मिश्र का विश्लेषण जनता दल के साथ सीपीआई-सीपीआई(एम) के संश्रय तथा समता पार्टी के साथ सीपीआई(एमएल) के संश्रय को एक ही पलड़े पर रख देता है और इनके बीच सिर्फ परिमाणात्मक फर्क अर्थात् इनके संबंधित संश्रयों से मिले वोटों के फायदे के फर्क पर गौर करता है. वे इन संश्रय के चरित्र में निहित गुणात्मक फर्क को नजरअंदाज कर देते हैं. सीपीआई-सीपीआई(एम) ने सत्ता की पार्टी के साथ संश्रय बनाया था, जबकि सीपीआई(एमएल) ने विपक्ष की पार्टी के साथ. इसके अतिरिक्त, जहां पहला संश्रय पूर्णतः निर्भर किस्म का था वहीं दूसरा संश्रय पूर्णतः स्वतंत्र चरित्र का था. यह इस तथ्य से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि सीपीआई और सीपीआई(एम) को वोटों का एक बड़ा हिस्सा जद के समर्थन से प्राप्त हुआ था, जबकि इसके विपरीत सीपीआई(एमएल) को बिलकुल इसकी अपनी ताकत पर जीत हासिल हुई है. समता पार्टी के साथ महज टोकन किस्म का संश्रय हो पाने और दो-तीन सिटों को छोड़कर बाकी हर जगह समता उम्मीदवारों द्वारा हमारा विरोध किए जाने की स्थिति में यह कहना हास्यास्पद ही होगा कि हमारे वोटों का एक छोटा हिस्सा भी समता पार्टी के समर्थन से प्राप्त हुआ. ऐसा कहना इसलिए भी हास्यास्पद होगा क्योंकि समता खुद पूर्णतः विफल साबित हुई है. इसके बाद, सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) को मिली सीटों की बराबर संख्या के आधार पर उन्हें समान घोषित करना जमीनी सच्चाइयों का एक मखौल ही होगा. सीपीआई(एम) के वोटों का एक बड़ा हिस्सा जद के समर्थन से मिलने के बावजूद उसे हमें प्राप्त मतों की तुलना में आधे से भी कम मत प्राप्त हुए हैं.

दो संश्रय, दो चुनावी अभियान और हासिल वोटों की दो श्रेणियां गुणात्मक रूप से भिन्न चरित्र के थे. इस बात को समझे बगैर हर चुनाव विश्लेषण सतही साबित होगा और वह अपने खुद के अवसरवाद को छिपाने का एक चतुराई भरा प्रयास ही होगा.

जहां कि पहले वाले संश्रय में शुरू से आखिर तक इसके बुर्जुआ संश्रयकारी पर निर्भरता के सिवा और कुछ दिखलाई नहीं पड़ा, वहीं दूसरे संश्रय में सर्वहारा की पार्टी ने अपने बुर्जुआ संश्रयकारी के मुकाबले पूर्ण स्वतंत्रता प्रदर्शित की. इसे जाने-अनजाने जो कोई भी गड्ड-मड्ड करेगा, वह सामाजिक जनवाद और क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की चुनाव कार्यनीतियों के बीच बुनियादी फर्क को भूल जाने का ही अपराध करेगा.

श्रीमान एके राय यह स्वीकार करते हैं कि जनता दल के साथ संश्रय बनाने की वामपंथ की चुनावी कार्यनीति ने जनता दल पर निर्भरता को बढ़ाया ही है. वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं देते कि सीट और सत्ता की लालच के अलावा और किस प्रेरणा से वामपंथ ने जद के साथ संश्रय बनाया था? पहचान खोने या जद पर बढ़ती निर्भरता की बात पिछले पांच वर्षों के दौरान जद के साथ उनके संबंधों की प्रक्रिया में ही निहित है, यह अचानक नहीं हुई है. अगर सीपीआई(एमएल) ने तमाम विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए इस समूची अवधि में ‘उद्धत’ बने रहना पसंद किया और सीट व सत्ता की लालच में नहीं फंसा, तो क्या इसमें उसूलबद्धता की कोई भूमिका नहीं है? इन स्वघोषित नैतिकतावादियों द्वारा जनता दल के साथ उनकी अपनी मार्क्सवादी समन्वय समिति के सिद्धांतहीन संश्रय के बारे में अपनाई गई ठंडी खामोशी काफी रहस्यमय प्रतीत होती है.

झारखंड मुक्ति मोर्चा और समता पार्टी के साथ संश्रय बनाने के अपने प्रयासों के मामले में हम हमेशा स्पष्ट करते रहे हैं कि हम कभी भी किसी समता-झामुमो सरकार का अंग नहीं बनेंगे और अधिक से अधिक उसे सशर्त समर्थन भर दे सकते हैं. अगर ऐसी कोई परिस्थिति पैदा होती – जिसकी संभवना शुरू से ही काफी कम थी – तो यह बिलकुल स्पष्ट था कि आमूल बदलाव की लड़ाई में संलग्न हमारी पार्टी शीघ्र ही क्रांतिकारी विपक्ष की भूमिका अपना लेती, क्योंकि समता-झामुमो सरकार द्वारा हमारी शर्तों को स्वीकार करना और उसका अनुसरण करना नामुमकिन ही था. सत्ता की लालच में दौड़ने का सवाल शुरू से ही कहीं मौजूद नहीं था. अब देखें कि झामुमो के साथ हमारे संबंध के मामले में तथ्य क्या बताते हैं.

अव्वल तो यह कि झामुमो के साथ हमारे संबंध अचानक चुनाव की पूर्ववेला में और सीट व सत्ता में अवसरवादी साझीदारी के ख्याल से नहीं बने थे, यह तब हुआ, जब लालू यादव ने कलाबाजी खाई और झारखंड राज्य की मांग को ठुकरा दिया. झारखंड आंदोलन में एक नए आवेग के बीच हम एक संयुक्त मंच में झामुमो के साथ शामिल हुए. दूसरे, चूंकि झामुमो अभी भी झारखंड आंदोलन का अग्रणी प्रतिनिधि बना हुआ है, व्यावहारिक राजनीति में इसके साथ कोई संबंध नहीं बनाना वस्तुतः असंभव है. बहरहाल, हमने यह संबंध इस शर्त पर बनाए थे कि वे कांग्रेस के साथ किसी संयुक्त अभियान में न जाएं. लेकिन जब झामुमो कांग्रेस के साथ हेलमेल करने लगा, तो हम उस संयुक्त मंच से बाहर निकल आए. तीसरे, दोनों पक्षों की ओर से संश्रय बनाने की इच्छा जाहिर करनेवाले चंद राजनीतिक वक्तव्यों के अलावा संश्रय बनाने या सीटों का तालमेल करने के लिए कभी कोई औपचारिक वार्ता नहीं हुई थी और अंततः चुनाव की निर्णायक अवधि में जनता दल के साथ उनके बढ़ते हेलमेल को देखकर हमने उनके साथ कोई सांकेतिक संश्रय बनाने से भी इनकार कर दिया. बाद में, जब वे फिर वापस आए तो समता पार्टी ने उनके साथ संश्रय बनाया. हम उसमें भी कभी शामिल नहीं हुए.

क्या श्रीमान एके राय हमें बताएंगे कि यहां सिद्धांतों को कहां कुर्बान किया गया? इसके विपरीत, श्रीमान एके राय – जो अलग झारखंड राज्य के अग्रणी प्रवक्ता रहे हैं , जो बाहरी बिहारिओं के मुकाबले स्थानीय निवासिओं  के हितो को  बुलंद किए जाने के आधार पर झामुमो के निर्माण के पीछे मुख्य प्रेरणा-स्रोत रहे थे, और जो इस हद तक कहते थे कि ‘झारखंड बिहार का आंतरिक उपनिवेश है’ – तब भी लालू यादव से चिपके रहे, जबकि उन्होंने (लालू यादव ने) झारखंड के मामले में विशिष्ट ‘बिहारी उपनिवेशवादी’ की स्थिति अख्तियार कर ली थी. उसूलों को ताक पर रख देने के बाद अगर एके राय वामपंथ की पहचान खो जाने पर आंसू बहा रहे हैं, तो इसके लिए कौन दोषी है?

अब झामुमो राजी-खुशी राष्ट्रीय मोर्चा में वापस चला आया है, और रामो-वामो गठबंधन के जरिए श्रीमान राय समेत पूरा वामपंथ फिर से झामुमो के साथ संबंध बहाल करेगा, बगैर यह बताने की चिंता किए हुए कि यह संबंध कितना उसूली होगा.

कृषि संघर्षों का राजनीतिक महत्व

श्रीमान तिलक डी गुप्ता इस बात के लिए हमारी प्रशंसा करते हैं कि पार्टी द्वारा कृषि संघर्षों में गोलबंद किए गए मेहनतकश ग्रामीण समुदाय का एक अच्छा-खासा हिस्सा चुनाव के समय जनता दल के पक्ष में चला गया, फिर भी हमारी उपलब्धि बरकरार रही.

सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहूंगा कि हमारे पार्टी का अधिसंख्य हिस्सा, जो पांच वर्ष पहले हमें मिले वोटों के लगभग समतुल्य है, उसी मेहनतकश ग्रामीण समुदाय से आया है जिन्हें कृषि संघर्षों में गोलबंद किया गया है. जनता दल की ओर ऐसे वोट के खिसक जाने की परिघटना बुनियादी तौर पर जहानाबाद जिले तथा पटना जिले के एक-दो चुनाव क्षेत्रों तक ही सीमित रही. विक्रमगंज और बाराचट्टी में भी, जहां पहले हमने जीत हासिल की थी, हमारे वोटों में तेजी से गिरावट आई. लेकिन यहां मुख्यतः मध्यम तबकों का वोट खिसका, जो पिछली बार हमारे साथ आया था. इस बार वहां जो भी वोट हमें मिले, वह पूरी तरह भूमिहीन गरीब तबकों के थे.

शाहाबाद जोन में हमने अपनी स्थिति कमोबेश बरकरार रखी. दक्षिण बिहार में हम थोड़ा ऊपर उठे और पश्चिमोत्तर अंचल में हमने असरदार बढ़त हासिल की. जहानाबाद की पराजय वहां की गंभीर संगठनात्मक गड़बड़ियों से घनिष्ठ तौर पर जुड़ी हुई है. ये गड़बड़ियां हमारी राजनीतिक दिशा से विचलन, अर्थात् कृषि संघर्षों में महेनतकश जनता को गोलबंद करने की दिशा से विचलन,  के कारण पैदा हुई हैं. और, यह विचलन भी उस परिस्थिति में आया है, जबकि पार्टी को पीयू-एमसीसी के हमलों का मुकाबला करना पड़ रहा था. इन ताकतों को हमारे खिलाफ भड़काना लालू यादव की सुनियोजित रणनीति का ही एक अंग था और एमसीसी व पार्टी यूनिटी के साथ झगड़ों को बातचीत के जरिए हल करने के हमारे तमाम प्रयासों का उनकी ओर से कोई सकारात्मक जवाब हमें नहीं मिला. इसके अलावा, प्रशासनिक दुश्मनी तो जहानाबाद में अपने चरम पर थी.

चुनाव के बाद ही हम जहानाबाद में वरिष्ठ नेताओं का एक समूह भेज सके हैं और कतारों को एकताबद्ध करते हुए  पार्टी को   पुनरुर्ज्जीवित करने के लिये सशक्त सांगठनिक कदम उठा सके हैं  तथा कृषि संघर्षों में महेनतकश जनसमुदाय को गोलबंद करने के रास्ते पर लौट आए हैं       

जहानाबाद अत्यंत विशेष किस्म का अपवाद है और एक विशिष्ट उदारहण है, जो दिखाता है कि अराजकतावादी कैसे शासक वर्गों के हितों की सेवा करते हैं. एमसीसी-पार्टी यूनिटी जहानाबाद में जनता दल के हक में हमारी पार्टी को बड़ी हद तक नुकसान पहुंचाने में सफल रहे हैं, लेकिन क्या चुनाव बहिष्कार पर आधारित कोई वैकल्पिक राजनीतिक मॉडल विकसित करने में वे सफल हुए? उनका चुनाव बहिष्कार का आह्वान दुस्साहसबाद की ओर मुड़ा और अंततः बुरी तरह निष्फल साबित हो गया. जैसा कि अनेक पत्रकार भी बताते हैं, जमीनी रिपोर्ट साफ साबित करती है कि उनके कार्यकर्ताओं और समर्थकों के एक बड़े हिस्से ने जनता दल को वोट दिया. तीखे राजनीतिक उथल-पुथल के समय राजनीतिक रूप से इन ग्रुपों का कोई वजूद नहीं रह पाया.

इसके विपरीत, हमारे चुनावी समर्थन में बुनियादी रूप से हमारी पार्टी द्वारा संचालित कृषि संघर्षों की राजनीतिक झलक दिखाई पड़ती है. श्रीमान गुप्ता इस तथ्य को स्वीकार करते हैं, जब वे कहते हैं कि “यह काफी महत्वपूर्ण है कि लालू प्रसाद समर्थक लहर के सम्मुख उत्तर बिहार के समतल में सीपीआई(एमएल) ग्रुप ने पहली बार दो सीटें जीती हैं, जो संकेत करता है कि कृषि आंदोलन दक्षिण और मध्य बिहार के अपने परम्परागत नक्सलपंथी गढ़ से बाहर भी लगातार फैल रहा है.”

इसका मतलब यह नहीं कि मैं जहानाबाद में अपनी कमजोरियों को कम महत्व दे रहा हूं. पार्टी को चरम उकसावे की स्थिति में भी कृषि संघर्षों की अपनी दिशा पर अडिग रहना चाहिए. लेकिन जहानाबाद में हम इस मामले में बुरी तरह विफल रहे. मैं केवल यह बताना चाहता हूं कि यह सूत्रीकरण मूलतः गलत है कि “पार्टी द्वारा कृषि संघर्षों में गोलबंद किए गए मेहनतकश जनसमुदाय का एक अच्छा-खासा हिस्सा चुनाव के समय जनता दल में चला गया.” इसके विपरीत ऐसा केवल उन क्षेत्रों में हुआ जहां पार्टी इस या उस कारण कृषि संघर्षों में ग्रामीण जनसमुदाय को गोलबंद करने पर उचित ध्यान नहीं दे सकी.

श्रीमान गुप्ता ने हमारी “बढ़ी-चढ़ी उम्मीदों” का भी जिक्र किया है. यह सच है कि हमारे नतीजे हमारी आशाओं से काफी कम थे – हम 12-13 लाख वोट तथा 10-12 सीटों की उम्मीद कर रहे थे, जिससे हमें मान्यता मिल जाती. यह लक्ष्य पार्टी की पहुंच से बहुत दूर नहीं था. प्रशासनिक बैर, एक वरिष्ठ पार्टी नेता की हत्या, सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया में असामान्य बिलम्ब जिससे बड़ी-बड़ी पार्टियों को दांव-पेंच खेलने का पर्याप्त मौका मिल गया, महाराष्ट्र-गुजरात के चुनावी नतीजे जिसने जनता दल और भाजपा के बीच तीखे ध्रुवीकरण को अंजाम दिया और चुनाव धांधली आदि कारकों ने भी हमारी चुनावी संभावनाओं को काफी हद तक प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हमने शुरू में ही बताया था कि 25 क्षेत्रों में हमारी स्थिति मजबूत है और वहां हम प्रतिद्वंद्विता में रहेंगे. इनमें से छह सीटें हमें मिलीं, आठ स्थानों पर हम दूसरे स्थान पर रहे तथा अन्य दस जगहों पर हमें 15 से 28 हजार तक वोट मिले. 25 वां सीट हिलसा में चुनाव स्थगित हो जाने के कारण हमारी संभावनाओं पर बहुत बुरा असर पड़ा था समता पार्टी, जो प्रथम दौर के चुनावी दौड़ में कहीं नजर नहीं आती थी, दूसरी बार मुख्य प्रतिदंद्वी के बतौर सामने चली आई. हां, हमारे पहले की 25 सिटों में भोरे की जगह बाराचट्टी का नाम था और यही एकमात्र विसंगति थी. मैंने यह दिखाने के लिए विस्तार से चर्चा की है कि इन जमीनी हकीकतों के सम्मुख हमारी उम्मीदों को कहीं से भी “बढ़ी-चढ़ी” नहीं कहा जा सकता है.

इतना कह लेने के बाद मैं यह बताना चाहूंगा कि बढ़ी-चढ़ी उम्मीदें जरूर मौदूज थीं जो सतही मनोगत कारकों – जैसे, ऊंची जातियों का नकारात्मक वोट पा लेने की उम्मीद, जहां-जहां समता पार्टी प्रतिद्वंद्विता में नहीं थी वहां कुर्मियों का वोट पाने की उम्मीद, उम्मीदवार विशेष को उसकी अपनी जाति का वोट मिलने की आशा आदि – के आधार पर पनपी थीं. इस इच्छाजनित चिंतन ने स्वभावतः सीटों की उम्मीदों 25 से 30 तक और इससे भी अधिक बढ़ा दी. लेकिन ध्यान रहे, यह किसी भी तरह पार्टी की आधिकारिक स्थिति नहीं थी, बल्कि यह पेट्टीबुर्जुआ मनोगतवाद और संसदीय बौनेपन की ही अभिव्यक्ति थी, जिससे नेताओं का एक हिस्सा तथा बड़ी मात्रा में कतारें प्रभावित हो गई थीं. जब कभी चुनाव नजदीक आते हैं और चुनावी बुखार जोर पकड़ता है तो बहुत से लोग दिवास्वप्न देखने लगते हैं और किसी संयत मूल्यांकन पर गौर करने से इनकार कर देते हैं. यह एक गंभीर भटकाव है जो इसके बाद अनिवार्यतः हताशा और उदासी को जन्म देता है. पार्टी को लगातार इस प्रवृत्ति से लड़ना पड़ता है.

श्रीमान गुप्ता ने आलोचना के लिए एक विषय चुना है और वह है समता पार्टी के साथ संश्रय बनाने के हमारे तथाकथित गैरउसूली प्रयास. समता पार्टी के बारे में उनका ख्याल है कि वह जनता दल से ज्यादा दक्षिणपंथी है और इसीलिए वे हमारे प्रयासों को सीपीआई व सीपीआई(एम) मार्का राजनीतिक अवसरवाद करार देते हैं. श्री गुप्ता ने खुद यह स्वीकार किया है कि सीपीआई और सीपीआई(एम) की अपेक्षा हमने बिलकुल अपने बलबूते पर चुनाव अभियान संचालित किया है. वे यह भी मानते हैं कि उत्तर बिहार में हमारी जीत कृषि संघर्षों के बढ़ते विस्तार का सूचक है. संश्रय के मामले में भी, चतुरानन मिश्र और एके राय से अलग, उन्होंने “गैरउसूली प्रयासों” का ही हवाला दिया है क्योंकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह संश्रय महज एक टोकेन संश्रय बनकर रह गया था. अब जनता दल के साथ सीपीआई और सीपीआई(एम) ने जो “मुकम्मल संश्रय” कायम किया उसके विपरीत हमारे संश्रय का टोकेन संश्रय में बदल जाना अपने आप में इस बात का प्रतीक है कि हमारी पार्टी अपनी पूर्ण स्वतंत्रता को बुलंद रखने पर, कृषि संघर्षों के तामाम केंद्रों में – उन जगहों में भी जहां पार्टी कुर्मी कुलकों के खिलाफ ऐतिहासिक रूप से संघर्षों में संलग्न रही है – अपने उम्मीदवार खड़े करने पर एवं समता पार्टी के छुटभैये की भूमिका निभाने तथा एक मुश्तरका घोषणापत्र, मुश्तरका कार्यक्रम और मुश्तरका अभियान में शामिल होने से इनकार करने पर दृढ़तापूर्वक डटी रही.

समता पार्टी के साथ हमारे संबंध

समता पार्टी के बारे में मैंने राज्यस्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन (पटना, अगस्त 1994) में जो कुछ कहा था, उसे उद्धृत कर रहा हूं : “और जनता दल (जार्ज) के मामले में मैं एक बात साफ करना चाहता हूं कि नीतीश की धारणा या प्लैंक यही है कि जनता दल में यादवों की बहुलता है, यादव डॉमिनेशन है लालू यादव के माध्यम से, और हम उसके खिलाफ कुर्मी और दूसरी जातियों को संगठित कर रहे हैं. इस तरह की किसी धारणा से हमारी सहमति नहीं है. ... चूंकि यादव एक बहुत बड़ी संख्या में हैं बिहार में, और उनका एक बड़ा हिस्सा गरीब-मंझोल किसानों का है. ... हम यादव जाति के बीच भी विभाजन की कोशिश में लगे हुए हैं. ... और हम उम्मीद रखते है कि इसमें भी हमें सफलता मिलेगी. ... इसलिए नीतीश वगैरह की जो पूरी धारणा है उस पर तो हम नहीं चल सकते हैं. ये हमारा उनके साथ बुनियादी विरोध है. बल्कि उल्टे, वे जिस तरह से कुर्मी जाति को इकट्ठा कर रहे हैं, उसमें कुर्मी जाति के कुलक हिस्से से हमारा संघर्ष ही है इस मुद्दे पर.” (लोकयुद्ध, सितम्बर 1994)

फिर फरवरी 1995 में जब सीटों के तालमेल की वार्ता भंग हो गई तब मैंने लिखा : “हमने समता पार्टी के साथ चुनावी तालमेल करने का प्रयास वास्तव में इसलिये किया क्योंकि हम लालू बनाम नीतीश या यादव बनाम कुर्मी के विभाजन की राजनीति को दरकिनार करते हुए इस पार्टी को सामाजिक परिवर्तन के एजेंडे पर अपनी तरफ लाना चाहते थे. हालांकि इस जोखिमभरे काम में हमें सफलता नहीं मिली क्योंकि इस पार्टी के नेतागण जाति-आधारित जोड़तोड़ के द्वारा सत्ता पाने के इच्छुक हैं और हमारी पार्टी को हाशिये पर ढकेलने का प्रयत्न करते रहे हैं. हम कम्युनिस्टों के लिए बुर्जुआ लोकतंत्र की किसी भी ताकत के साथ तालमेल का अर्थ कत्तई अपनी स्वतंत्रता का विसर्जन नहीं हो सकता और न ही अपने विकास व विस्तार की कीमत पर हम किसी बुर्जुआ पार्टी को शासन में आने के लिए मदद कर सकते हैं.” (लोकयुद्ध, फरवरी 1995 से)

यहां मैं एक बार फिर स्पष्ट कर दूं कि जार्ज फ्रर्नांडीज के एचएमकेपी के साथ हमारे संबंध जनता दल में फूट के कई महीना पहले ही निर्मित हो चुके थे, जब हम डंकल प्रस्तावों के खिलाफ संयुक्त संघर्ष में शामिल हुए थे. फिर भी, बिहार में समता पार्टी के नेतागण हमारे साथ संयुक्त कार्यवाही चलाने या संश्रय बनाने को अनिच्छुक थे. उन्होंने सीपीआई और सीपीआई(एम) के साथ और फिर आनन्द मोहन के साथ कई दौर की वार्ताएं कीं. हमने यह स्पष्ट कहा कि जबतक वे बीपीपा के साथ अपने तमाम सम्पर्कों को समाप्त नहीं कर देते तबतक हमारे साथ कोई संश्रय नहीं बन सकता. जब उन्होंने बिपीपा की खुली भर्त्सना की तभी बुद्धिजीवियों के एक सेमिनार के रूप में औपचारिक वार्ता शुरू हो सकी, जिसमें दलितों के सवाल पर मेरे और नीतिश की अवधारणाओं में जो फर्क आया वह किसी भी सचेष्ट श्रोता के लिए बिलकुल स्पष्ट था. समता पार्टी के साथ हमारे संबंधों में कुछ भी छिपा हुआ नहीं था. और जब उनलोगों ने जनता दल-सीपीआई-सीपीआई(एम) संबंधों की तर्ज पर हमें भी छुटभैया के दर्जे में धकेलने की कोशिश की और ‘कौन कहां जीत सकता है’ इसे ही सीट बंटवारे का आधार बना लिया, तभी हमने उनके साथ संबंध तोड़ डालने का फैसला ले लिया. हमने उन्हें बिलकुल साफ लहजे में बताया कि हम उन तमाम सीटों पर लड़ेंगे जो हमारे आंदोलन की आवश्यकताओं के संदर्भ में हमारे लिए राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हैं. जीत या वोटों की संख्या कोई मायने नहीं रखती है. वार्ता भंग हो गई और हमलोगों ने अकेले ही लड़ाई में कूदने का फैसला लिया. अंतिम क्षणों में उनके केंद्रीय नेतृत्व द्वारा बार-बार आग्रह किए जाने के बावजूद हमलोग सिर्फ टोकन संश्रय के लिए राजी हुए. संश्रय निर्मित करने के दौरान और अंततः एक टोकन संश्रय तक इसके सीमित हो जाने की प्रक्रिया में समता पार्टी के साथ समूचे संघर्ष की गहरी छानबीन करने पर किसी भी तटस्थ पर्यवेक्षक को पता लगेगा कि हमारी कार्यनीति उस “राजनीतिक अवसरवाद” के निषेध पर ही आधारित है जो “अतीत के भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में हर हमेशा परिलक्षित होता रहा है.”

संश्रय की लेनिनवादी कार्यनीति

इस प्रकार संश्रय सम्पन्न करने तक की पूरी प्रक्रिया में कुछ भी गैरउसूली नहीं था. हां, समता पार्टी के वर्ग चरित्र आदि के चलते इसके साथ संश्रय बनाने के निर्णय के ही सवाल पर आप आपत्ति जरूर उठा सकते हैं. लेकिन यहां पर आपको व्यावहारिक राजनीति की कठोर सच्चाई को हरगिज नहीं भूलना चाहिए. जनता दल के पांच वर्षों के शासनकाल में एकमात्र हमलोग ही विपक्ष की भूमिका में रहे. सीपीआई और सीपीआई(एम) तो लालू यादव के साथ थे और एमसीसी व पार्टी यूनिटी हमें उखाड़ने पर ही तुले हुए थे. लालू यादव ने हमारे विधायक दल को तोड़ डाला और हमलोग अपने सात विधायकों में से चार को खो बैठे. मंडल मसले को उभार कर वे ओबीसी के मध्य हमारे समर्थक आधार को काटते जा रहे थे. पार्टी कतारों का एक हिस्सा हमें छोड़ कर जनता दल में शामिल हो गया. आम छवि यही बनती जा रही थी कि जनता दल और एमसीसी हमारे सामाजिक आधार को छीनते जा रहे हैं और लालू यादव ने घमंड में आकर यह घोषणा की कि हमारी पार्टी हमेशा के लिए खत्म हो चुकी है. एमसीसी-पार्टी यूनिटी भी उछलते हुए यही घोषणाएं करते फिर रहे थे. सचमुच हमलोग चारों ओर से घिरे हुए थे.

ठीक इसी मोड़ पर आकर हमलोगों ने संकट को दूर करने और पार्टी में नई जान फूंकने के लिए अनेक कदम उठाए. इनमें पहला कार्यभार था कृषि संघर्षों को तेज करने और उत्तर बिहार में लालू यादव के गढ़ तक नए-नए क्षेत्रें में इसे फैला देने का. दूसरे, हमलोगों ने सामाजिक न्याय के बरखिलाफ सामाजिक परिवर्तन का नारा दिया और पटना में एक विशाल रैली आयोजित की. तीसरे, जनता दल के खेमे तक युद्ध की सीमाओं का विस्तार करने के लिए हमने 1974 आंदोलन की भावना को फिर से जीवित किया तथा जनता दल के अंदर तमाम जनवादी तत्वों से आह्वान किया कि वे भ्रष्टाचार और 1974 आंदोलन के साथ गद्दारी के खिलाफ उठ खड़े हों. हमने जार्ज फर्नांडीज की पेशकश को स्वीकार किया क्योंकि इसमें हमने जनता दल के अंदर होनेवाले विभाजन को भांपा था. कुछ ही महीनों बाद इस विभाजन ने ठोस शक्ल ग्रहण किया और टूटकर अलग होनेवाले लोगों ने 1974 आंदोलन के मामले को ही अपना आधार बनाया. बिहार में मुख्य दुश्मन के बतौर जनता दल का सामना करने के संदर्भ में उसके अंदर किसी भी फूट का इस्तेमाल करने की हमारी कार्यनीति पूरी तरह उचित थी. यह और भी उचित इसलिए था कि चूंकि खुद हमलोगों ने इस विभाजन को तेज करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई थी. समता पार्टी की दक्षिणपंथी संभावना से इनकार न करते हुए उन ठोस स्थितियों पर गौर करना ही होगा, जिसके तहत उसके लिए ग्रामीण गरीबों के हितों की विरोधी नीतियों पर चलना काफी दुष्कर होता और जिसके तहत उसे मध्य-वाम स्थिति में लाया जा सकता था.
यह ध्यान रहे कि जद सरकार के खिलाफ पूरे पांच वर्षों के अपने संघर्ष के दौरान हमलोगों ने कांग्रेस और भाजपा जैसी किसी भी दक्षिणपंथी विरोधी पार्टी के साथ कोई रिश्ता नहीं बनाया. अपनी ओर से हम वामपंथ के साथ घनिष्ठतर रिश्ता बनाने को ही पहली प्राथमिकता देते रहे. हमने हर ऐसे मौके का इस्तेमाल करने की कोशिश की. लेकिन उस समय की ठोस राजनीतिक परिस्थितियों ने हमें करीब होने से रोक दिया. अब की बदली हुई परिस्थितियों में, जब जनता दल ने खुद ही बहुमत प्राप्त कर लिया है, सत्ता में शामिल होने की सीपीआई की इच्छा पर पानी फिर गया है और इसे बाध्य होकर विपक्ष के बेंच पर बैठना पड़ रहा है. इस तरह एक बार फिर राजनीतिक बाध्यताओं के अंतर्गत वामपंथी एकता की प्रक्रिया आवेग ग्रहण कर रही है.

अलगाव में बने रहने को स्वतंत्रता का दर्जा देकर महिमामंडित करना काफी क्रांतिकारी प्रतीत हो सकता है लेकिन यह महज एक बचकाना मर्ज है जिससे आंदोलन को सिर्फ नुकसान ही हो सकता है. जन आधारित संश्रयकारियों की तलाश, चाहे वे कितना भी तात्कालिक क्यों न हों, तथा अपने मुख्य दुश्मन के खेमे के अंदर हर टूट-फूट का इस्तेमाल मार्क्सवादी-लेनिनवादी कार्यनीति का एक अभिन्न अंग है. समता पार्टी और झामुमो के साथ संश्रय बनाने की अपनी कोशिशों के जरिए हम इसी कार्यनीति को लागू कर रहे थे और लालू यादव के पांच वर्षों के कैरियर की यही वह अल्प अवधि थी, जबकि हम उनपर हावी हो गए थे और हमने उन्हें करवट बदलते रात बिताने को मजबूर कर दिया था. संश्रय के अंदर रहते हुए भी सर्वहारा की पार्टी की निरपेक्ष स्वतंत्रता कायम रखना पार्टी व्यवहार की एक नवीनतर अवस्था थी और इस व्यवहार के दौरान सीपीआई(एमएल) पर कोई दाग नहीं लगा और वह विजयी होकर निकली. हमारे बदतरीन विरोधियों को भी यह मानना पड़ा कि सीपीआई(एमएल) के वोट इसकी अपनी शक्ति पर और ग्रामीण गरीबों के कृषि संघर्षों के बल पर आधारित थे.

शेषन परिघटना

यहां मैं यह भी कह दूं कि ‘बिहार में, जहां समूची चुनाव प्रक्रिया एक मखौल बना दी गई है,’ “स्वतंत्र निष्पक्ष” चुनाव कराने की शेषन की कोशिशों का हमने जरूर समर्थन किया था. लेकिन हम इसकी सीमाओं को भी जानते हैं. आदर्श बुर्जुआ अर्थ में ‘स्वतंत्र व निष्पक्ष’ चुनाव का मतलब बूथ कब्जा जैसी खुली उत्पीड़नकारी प्रक्रिया से इसे मुक्त कराना भर हो सकता है. दूसरे शब्दों में इसका तात्पर्य है नतीजों को निर्धारित करने में पूंजी को खुला खेल खेलने की छूट देना और इसीलिए बुर्जुआ समाज में ‘स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव’ अपनी मूल प्रकृति में बुर्जुआ ही बना रहता है.

बहरहाल, हमने चुनावी प्रक्रिया को कई चरणों में बांटने तथा इसमें बिलंब करने जैसी शेषन की मनमानी कार्यवाहियों का कभी समर्थन नहीं किया और हमने यह वक्तव्य जारी किया कि यह सब कांग्रेस(आइ) की मदद करने के लिए किया जा रहा है. विपक्ष की तमाम राजनीतिक पार्टियों के विपरीत तथा समता पार्टी के नेताओं की बारंबार अपीलों के बावजूद हमने बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग का कभी समर्थन नहीं किया. चुनावी गड़बड़ियों के बारे में चुनाव आयोग के सम्मुख कांग्रेस(आइ) और भाजपा के संग संयुक्त प्रतिनिधिमंडल में जाने से भी हमने इनकार कर दिया, हालांकि समता पार्टी के नेता यही सलाह दे रहे थे. इसलिए श्रीमान गुप्ता का हम पर लगाया गया यह आरोप गलत है कि हम इस मामले में अन्य विपक्षी पार्टियों का मौन समर्थन कर रहे थे.

श्री गुप्ता अच्छी-खासी संख्या में विधायकों की पराजय में प्रतिष्ठान (इस्टैबलिशमेंट) विरोध की प्रवृत्ति देखने की कोशिश कर रहे हैं. इस अवधारणा पर विवाद किया जा सकता है, लेकिन स्थानाभाव के कारण इस पर हम यहां बहस में नहीं जा रहे हैं. उन्होंने अपने दावे की पुष्टि के लिए हमारे सात विधायकों में से एक को छोड़कर बाकी तमाम लोगों की हार का उल्लेख किया है. यहां यह बताना आवश्यक है कि हमारे चार विधायक पहले ही जनता दल में शामिल हो गए थे. उन गद्दारों के खिलाफ व्यापक पार्टी अभियान के सम्मुख जनता दल ने उनमें से तीन को उम्मीदवार ही नहीं बनाया. हमारे तीन में से दो विधायक चुनाव हार गए किन्तु उनमें से एक विधायक को पहले से कुछ ज्यादा ही वोट मिले.

लालू चमत्कार के पीछे की असलियत

श्री गुप्ता लालू की विजय के कारण के बतौर उनके व्यक्तिगत चमत्कार, जनसाधारण के साथ उनकी एकरूपता और लंबे समय से उत्पीड़ित खामोश जनसमुदाय को उनके द्वारा आवाज प्रदान किए जाने की परिघटना का हवाला देते हैं. बहुत खूब! लेकिन उनकी विजय की व्याख्या कैसे की जाए? यह एक तथ्य है कि सीपीआई(एमएल) के गढ़ों को छोड़कर जनता दल ने ग्रामीण गरीबों की बहुसंख्या का समर्थन अवश्य प्राप्त किया और वे ग्रामीण करीब उनकी ढकोसलेबाजी में बहा लिए गए. ठीक उसी तरह जिस तरह कि पहले उन्होंने इंदिरा गांधी का समर्थन किया था और अभी एनटी रामाराव तथा जयललिता का समर्थन कर रहे हैं. हमारी पार्टी ने चुनावों में ग्रामीण गरीबों की दावेदारी का स्वागत किया, जो एक सम्मानित और बेहतर जीवन के लिए उनके प्रयासों की ही एक अभिव्यक्ति है. लेकिन इतने भर से जनता दल की विजय का पूरा अभिप्राय अभिव्यक्त नहीं हो जाता है. अगर जनता दल के साथ  प्रशासन के सक्रिय सांठगांठ के आरोप को ठुकरा भी दिया जाए तो लालू यादव समेत किसी ने भी बिहार प्रशासन पर यह आरोप नहीं लगाया कि वह किसी भी तरह जनता दल के हितों के खिलाफ काम कर रहा था. अगर बिहार प्रशासन बड़े भूस्वामियों के साथ घनिष्ठ रूप से संबंधित है, जैसा कि श्री गुप्ता खुद बताते हैं तो भला यह प्रशासन ‘गरीबों के मसीहा’ के प्रति दोस्ताना आचरण क्यों कर रहा था?

यह नहीं भूल जाना चाहिए कि जनता दल के बहुत सारे विधायक मशहूर अपराधी हैं. और उनमें से अनेक विधायक ऊंची जातियों से, खासकर राजपूत जाति से और कुख्यात सामंती पृष्ठभूमि से आते हैं. इस तथ्य को भी याद रखा जाना चाहिए कि वैशाली के उपचुनाव में जनता दल ने सत्येंद्र नारायण सिंह की पत्नी को ही अपना उम्मीदवार बनाया था. लालू यादव का दूसरा चेहरा तब खुलकर सामने आ गया, जब उन्होंने ऊंची जाति के कुलीन तबकों का समर्थन जुटाने का प्रयत्न किया, इस तर्क पर कि केवल वे ही हैं जो उन्हें नक्सलवादी हिंसा से बचा सकते हैं.

अपने पांच वर्षों के शासनकाल में उन्होंने अनेक शक्तिशाली सामंती तत्वों को, जो पहले कांग्रेस(आइ) और भाजपा में शामिल थे, खुले हाथ समर्थन और सुविधाएं जुटाकर अपने पक्ष में जीत लिया. राजपूत जद विधायक अशोक सिंह, जिनकी हाल ही में हत्या कर दी गई, और कोई नहीं बल्कि प्रभुनाथ सिंह के कुख्यात माफिया गिरोह के एक शक्तिशाली सदस्य थे और उनके रिश्तेदार भी थे. लालू ने उस गिरोह को तोड़ दिया और प्रभुनाथ सिंह के खिलाफ अशोक सिंह को संरक्षण दिया. यह तो एक प्रतिनिधि उदाहरण है, वास्तव मे ऐसे उदाहरणों की तादाद काफी बड़ी है.

मुस्लिम समर्थन हासिल करने के लिए धार्मिक रूढ़िवाद को चरम सीमा तक भड़काया गया और कुछेक अपवादों को छोड़कर मुस्लिम कुलीन तबका भी लालू यादव के पीछे मजबूती से खड़ा रहा.

संक्षेप में, लालू के व्यक्तिगत चमत्कार के पीछे विभिन्न शक्ति समूहों और ऊंची जातियों का एक अच्छा-खासा हिस्सा समेत कई प्रभुत्वशाली जातियों के भूस्वामी तबकों का एक सामाजिक गठबंधन छिपा हुआ है. अगर इस सामाजिक कारक को आप नहीं समझेंगे तो लालू यादव की विजय की एकतरफा, उदारवादी व सामाजिक जनवादी व्याख्या में आपको अनिवार्य रूप से फंस जाना होगा.

लालू यादव और कुछ नहीं बल्कि बिहार में बढ़ते क्रांतिकारी संघर्षों के प्रति शासक वर्गों का जवाब भर हैं. प्रशासन के साथ-साथ प्रभुत्वशाली शक्ति समूहों के बड़े हिस्से का जो समर्थन उन्हें मिल रहा है, उसके पीछे यही राज काम कर रहा है. लालू यादव अपने इस मिशन के बारे में काफी जागरूक हैं और आप उन्हें एक साथ सवर्ण भूस्वामी तबकों के सम्मुख खुद को हिंसक नक्सलपंथियों के विकल्प के बतौर उछालते हुए पा सकते हैं. जब वे यह दावा करते हैं कि नक्सलपंथियों ने गरीबों के हाथ में बंदूक थमाई हैं और उन्होंने उन्हें किताबें दी हैं तो वे अन्यथा बेहद हिंसक और हथियारबंद बिहारी समाज में जनता को मानसिक और भौतिक रूप से निहत्था बना देने के अपने मिशन का ही खुलासा कर रहे होते हैं.

‘लोकयुद्ध’ में लिखते हुए एक कामरेड ने हमारे चुनावी व्यवहार को इलाकावार सत्ता दखल से इलाकावार सीट दखल में संक्रमण कहकर इसकी खिल्ली उड़ाई है. लेकिन और गहराई में विश्लेषण करने पर पता चलेगा की कि हमारी चुनावी उपलब्धियां और हमारा सामंतवाद विरोधी संघर्ष घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं. जिन क्षेत्रों में हमने जीत हासिल की है वहां हमारा संघर्ष भी सबसे तीखा है और अगर पिछले तीन माह कोई सूचक हैं, तो वे यही बताते हैं कि हमारी जीत ने संघर्ष की तीव्रता को और बढ़ाया ही है. वस्तुतः ये क्षेत्र संसदीय और गैरसंसदीय संघर्षों को मिलाने के शानदार मॉडल का प्रतिनिधित्व करते हैं. विधानसभा में हमारी हाशिए पर की उपस्थिति के बावजूद हम पिछले पांच वर्षों के दौरान बिहार की राजनीति की मुख्यधारा के एक प्रमुख अंग बने रहे. अगला पांच वर्ष भी इसका अपवाद नहीं होगा.

(13 नवंबर 1995 को जहानाबाद में आयोजित मजदूर-किसान एकता रैली में दिया गया भाषण;
समकालीन लोकयुद्ध, 30 मवंबर 1995 से, प्रमुख अंश)

लालू प्रसाद दुबारा सत्तासीन होने के बाद बड़े-बड़े पूंजीपतियों के साथ और भी ज्यादा मधुर संबंध स्थापित करते जा रहे हैं. बिहार के विकास पर सम्मेलन में कांग्रेसी राज्यपाल बलिराम भगत भी इनकी पीठ थपथपाने लगे हैं. इनकी तो कांग्रेस के साथ भी गाढ़ी दोस्ती बनती जा रही है. वे सिंगापुर, न्यूयार्क गए. अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ इनकी खूब छन रही है. वे कभी अमरीका जाते हैं तो कभी अमरीकी राजदूत उनके पास आकर मीठी-मीठी बातें करते हैं. हमें यह तय करना है कि बिहार का विकास हो या बिहार की कीमत पर अमरीका का विकास हो. बिहार की गरीब जनता का क्या होगा? क्या तमाम ट्रेड यूनियनों से, किसान संगठनों से, खेत-मजदूर संगठनों से, गरीब जनता के पक्ष में आंदोलन कर रही क्रांतिकारी पार्टियों से यह पूछा गया कि बिहार का विकास कैसे हो? बिहार के विकास का नक्शा क्या न्यूयार्क में बनेगा. टाटा-बिड़लाओं से ही सलाह-मशविरा करके क्या नक्शा तैयार किया जाएगा? नए सिरे से ढकोसलेबाजी की जा रही है. गरीबों को धोखा देकर अमीरों की राजनीति की जा रही है. हमारी पार्टी ने बिहार के कोने-कोने से आवाज उठानी शुरू कर दी हैं. अब तुम्हें और भी ढकोसलेबाजी नहीं करने दी जाएगी. जहानाबाद की रैली हमारी पार्टी के आह्वान का मॉडल है. बिहार की जनता, बिहार के गरीब आवाज उठा रहे हैं. तुम्हें अपने वायदों को तुरंत पूरा करना होगा.

यहां सीपीआई के एक बुजुर्ग नेता ने वामपंथी एकता को लेकर अपनी चिंता हमसे जाहिर की. मैं उनसे कहना चाहता हूं कि एकता की दो ही शर्तें हो सकती हैं. या तो आप बदलें. या हम बदलें, क्या आप यह चाहते हैं कि हम आंदोलन छोड़ दें और लालू का पिछलग्गू बन जाएं? ऐसी वामपंथी एकता से बिहार का क्या भला होगा? सीपीआई-सीपीएम के ईमानदार कार्यकर्ता अपने बेईमान नेतृत्व के खिलाफ बगावत क्यों नहीं करते? पिछले पांच सालों के जनता दल के शासन में हमारे सैकड़ों साथियों की हत्याएं हुईं, मगर आप सब चुपचाप रहे. इतना ही नहीं, उनका मोहरा बनकर इसमें कहीं-न-कहीं से सहभागी ही बने रहे. रुकावट सिर्फ यहीं पर है. हमारी पार्टी सच्ची वामपंथी एकता की हिमायती है.

हमने पार्टी यूनिटी के जनसंगठन एमकेएसपी के पास नए सिरे से दोस्ताना संबंध स्थापित करने के लिए आमंत्रण भेजा है. हमारी उनसे यह गुजारिश है कि पुरानी बातों को भूल जाया जाए, पुराने मसलों को हल करने के लिए सबसे जरूरी है कि हम पहले दोस्ताना संबंध हासिल करें. बहुत से मुद्दे हैं जिन पर एक साथ संघर्ष किया जा सकता है. ये मसले लंबे समय के समागम और विचार-विमर्श के जरिए भविष्य में ही हल होंगे.

जहानाबाद का संघर्ष देश भर में चर्चित रहा है. यह चर्चा काफी सरगर्म रहा करती थी कि क्रांति का रास्ता जहानाबाद से होकर गुजरना है. इधर बीच में यहां पार्टी के अंदर कुछ भटकाव आए. कैरियरवाद, एमएलए बनने की आकांक्षा, गुटबाजी इत्यादि दुर्गुणों ने पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाया. इधर हमने इन सबको दुरुस्त कर लिया है. यहाँ सैकड़ों साथियों ने अपना खून बहाकर जहानाबाद की क्रांतिकारी जमीन को सींचा है. हमारे यहां कैरियरवाद का कोई स्थान नहीं है. संसदीय भटकावों की तमाम कोशिशों को ध्वस्त किया जाएगा. जहानाबाद में तेजी के साथ नया उत्साह पैदा हुआ है.

हमें यह पूरा विश्वास है कि जहानाबाद से होकर भारतीय क्रांति का रास्ता अवश्य ही बनेगा.

(9 नवम्बर 1995 की झारखंडस्तरीय रैली, रांची में दिया गया भाषण; समकालीन लोकयुद्ध, 30 नवम्बर 1995 से, प्रमुख अंश)

झारखंड की ऐतिहासिक लड़ाई एक जड़ता में फंस गई है. अबतक की सबसे बड़ी आंदोलनकारी पार्टी झामुमो ने बिहार की लालू सरकार और केंद्र की नरसिंह राव सरकार के साथ नापाक गठबंधन बना लिया है. झारखंडी जनता को लुभाने का प्रयास किया जा रहा है. हम ऐसा नहीं होना देंगे. हमारी पार्टी ने इस चुनौती को स्वीकार किया है. पहले वामपंथी ताकतें और वामपंथी विचारधारा इस आंदोलन पर हावी थीं. वही इस आंदोलन का स्वर्णिम दौर था. बाद में कांग्रेस, जद की घुसपैठ बढ़ती गई और यह आंदोलन भी कमजोर पड़ने गया. हमारी पार्टी इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए क्रांतिकारी शक्तियों से शिरकत करने का आह्वान करती है. झारखंडी शक्तियों में कई बार टूट-फूट हुई है मगर सबके सब समझौतावाद और अवसरवाद में पतित हो गई हैं. यह हमारी जिम्मेवारी है कि हम इस आंदोलन को आगे बढ़ाएं. आज की रैली इसी आह्वान की शुरूआत है. झारखंडी जनता का विशाल बहुमत इस आंदोलन को धोखा और झुनझुना मानता है. यह स्वायत्त परिषद अधिकार संपन्न नहीं है. इसका गठन करते हुए उसमें सक्रिय झारखंड आंदोलनकारी शक्तियों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है. हम इस अलोकतांत्रिक परिषद को जल्द-से-जल्द भंग कर चुनाव कराने की मांग करते हैं.

हमारे देश के ऊपर सांप्रदियाक फासीवाद का खतरा बढ़ चुका है. भाजपा ने बंबई के अपने महाधिवेशन में यह फैसला किया है कि अगर आगामी संसदीय चुनाव में हम सत्तासीन होते हैं तो एटम बम बनाया जाएगा और सेना को सर्वोत्तम और अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया जाएगा. ये पाकिस्तान विरोधी, चीन विरोधी प्रचार करते हुए देश के अंदर एक युद्धोन्माद पैदा करना चाहते हैं. हम पड़ोसी देशों के साथ भाईचारा और परस्पर सहयोग स्थापित करना चाहते हैं. हम अपने देश के सीमित संसाधनों को देश के विकास और यहां की जनता की भलाई में लगाना चाहते हैं. इन सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ आवाज उठाएं. ये शक्तियां झारखंड क्षेत्र में एक विशेष प्रभाव बनाए हुए हैं. हमारा नारा होना चाहिए ‘पड़ोसी देशों के साथ युद्ध नहीं समझौता’, ‘देश के संसाधनों का देश की गरीबी हटाने में उपयोग किया जाए’. हमारा देशप्रेम मुसमानों का कत्लेआम नहीं है. सच्चा देशप्रेम देश की गरीबी के खिलाफ लड़ाई है, साम्राज्यवादी शिकंजों के खिलाफ एलान-ए-जंग है.

हमारी पार्टी सीपीआई(एमएल) देश के क्रांतिकारी आंदोलनों की विरासत को संजोए हुए है चाहे वो बिरसा मुंडा की हो, सिद्धु-कानू की हो, देश के गरीब किसानों की हो. इस विरासत के झंडे को हम ऊंचा उठाए हुए हैं. यहां लालखंडियों(एमसीसी) ने हमारे तीन साथियों की हत्या कर दी है. यह क्रांतिकारी लफ्फाजियों से बढ़ते हुए आपराधिक कुकृत्यों में संलग्न होता जा रहा है. ये क्रांतिकारी आंदोलन में तोड़-फोड़ मचाकर लालू प्रसाद की, शासक वर्गों के हितों की चाकरी कर रहे हैं. उनकी सारी की सारी नफरत हमारी पार्टी के खिलाफ ही केंद्रित है. हमारी पार्टी ने अपने लंबे इतिहास में अनेकानेक निजी सेनाओं और गुंडावाहिनियों के खिलाफ संघर्ष किया है. उन्हें धूल चटाया है. इतिहास का विकास, आने वाला भविष्य हमारी पार्टी के साथ है. ये इतिहास को पीछे ले जाने वाली शक्तियां हैं. हम लालखंडियों से कहना चाहते हैं कि तुम इतिहास से सीखो. अंतिम जीत हमारी ही होगी. फिर भी हम बातचीत के जरिए समझौता करने, मिलजुल कर काम करने के विरोधी नहीं हैं. मगर वे हमेशा ही उल्टा बर्ताव करते हैं. अगर कोई बंदूकों से, हत्याओं के जरिए हमें आतंकित करने पर उतारू हो चुका है तो हम उसे उसी की भाषा में उत्तर देना जानते हैं. हमें इन तमाम प्रतिक्रियाओं से मुकाबला करना है. सीपीआई यहां से एकमात्र सीट पर जीती है और बाकी सीटों पर हार गई है. यह अंतराल हमारे लिए सबसे बड़ी और सशक्त वामपंथी शक्ति के बतौर उभरने के लिए बहुत ही माकूल अवसर प्रदान कर रहा है जिसमें हमें एकदम नहीं चुकना है.

(12 सितंबर 1994 को बिहार प्रदेश किसान सभा द्वारा आयोजित बिहार विकास सम्मेलन में भाषण;
समकालीन लोकयुद्ध, 30 सितंबर 1994 से प्रमुख अंश)

बिहार के विकास के सिलसिले में सिर्फ जड़ता है, इतना ही कहना काफी नहीं है; वस्तुस्थिति यह है कि बिहार पीछे की ओर जा रहा है. यह बिहार की एक खास विशिष्टता है. यहां जो राजकीय क्षेत्र में बड़े-बड़े कारखानों थे, वे क्रमशः बीमार उद्योगों में परिणत हो रहे हैं, अर्थात् पुरानी आर्थिक नीति के आधार पर राजकीय क्षेत्र में जो बड़े-बड़े कारखाने बने थे, वे बीमार होते चले जा रहे हैं. और दूसरी तरफ नई आर्थिक नीतियों के आधार पर जो पूंजी-विनियोग दूसरे राज्यों में या और जगह हो रहा है तो उस सिलसिले में भी बिहार में कहीं कुछ नहीं दिखाई दे रहा है. पुरानी हो या नई, दोनों ही आर्थिक नीतियों का परिणाम रहा है कि दोनों तरफ एक शून्य ही बिहार के पल्ले पड़ा नजर आ रहा है. यहां जो राज्य सरकार के कारपोरेशंस है – वह बिजली क्षेत्र हो या ट्रांसपोर्ट हो – सबकी हालत आप देख रहे हैं कि वे बड़े पैमाने पर घाटे वाली संस्थाओं में बदल चुके हैं. पूरे भारत के हिसाब से देखें तो सबसे कम प्रति व्यक्ति आय वाला राज्य बिहार है, और गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों का प्रतिशत भी बिहार में सबसे ज्यादा है और यह बढ़ता चला जा रहा है.

दूसरा पहलू यह है कि यहां की जो सरकार है, जो राज्य है, वह कोयले की रायल्टी हो या अन्य खनिज पदार्थों का सेस हो, केन्द्र सरकार की ओर से आनोवाला कुछ अनुदान हो या विश्व बैंक की तरफ से आनेवाला कुछ पैसा हो, या कर्मचारियों की, शिक्षकों की तनख्वाह न देकर और यहां तक कि प्राविडेन्ट फंड और अन्य तमाम जो उनके पैसे जमा थे – उन सबके आधार पर ये सरकार चल रही है. यानी, इस राज्य में किसी घरेलू पूंजी का निर्माण नहीं हो रहा है. बल्कि यहां-वहां से आनेवाले अनुदान या यहां-वहां के पैसों को खर्च करके यह सरकार चल रही है. पूरी तरह से एक परजीवी संस्कृति यहां विकसित हो रही है.

जो तीसरी विशिष्टता इस राज्य की हम देखते हैं, वह यह कि यहां का जो राजनीतिक नेतृत्व है, वह फिलहाल उन लोगों के हाथों में है जिनके पास बिहार के विकास की आर्थिक दृष्टि बिलकुल नदारद है. राजनीति अर्थनीति का ही प्रतिफलन हुआ करती है. इसलिए, जिसे हम राजनीति का अपराधीकरण कहते हैं, वस्तुतः वह यहां की आर्थिक प्रक्रिया के ही अपराधीकरण का प्रतिफलन है. राजनीति का अपराधीकरण तो उसका ऊपर से दिखनेवाला चेहरा है. अगर आप गहराई में जाएं तो आप देखेंगे कि जो आर्थिक प्रक्रिया यहां पर है, अपराधीकरण उसी में मौजूद है. उत्पादन की स्वाभाविक प्रक्रिया के जरिए धन इकट्ठा किया जाए, पूंजी इकट्ठा की जाए, उसका विनियोग हो – यह प्रक्रिया यहां नहीं दिखती है. बल्कि यहां लूट-खसोट, तमाम किस्म की रंगदारी, सरकारी खजाने की लूट वगैरह के जरिए आर्थिक समृद्धि हासिल की जाती है. इसलिए पूरी आर्थिक प्रक्रिया में ही जो अपराधीकरण है, उसी की छाप राजनीति पर पड़ती है. यहां जगन्नाथ मिश्र से ले कर लालू यादव तक का जो परिवर्तन हुआ है, कुल मिलाकर वह परिवर्तन अगड़ी जाति के अपराधी तत्वों से पिछड़ी जाति के अपराधी तत्वों के बोलबाले में ही जाकर सिमट गया है. यहां तक कि झारखंडी लोगों के बीच से भी जो आदिवासी नेता उभरे हैं उनके अंदर भी अच्छी-खासी संख्या में माफिया तत्व पैदा हो गये हैं, जो तमाम तरीकों से पैसा हड़प रहे हैं और अपनी पूंजी बना रहे हैं. यह प्रक्रिया चारों तरफ जारी है और यहां तक कि जो राजनीतिज्ञ हैं, वे भी अपने आप में एक किस्म का वर्ग बन गए हैं. जमींदारों के, कुलाकों के, तमाम किस्म के अपराधियों के पहाड़ बिहार की जनता पर पहले से ही लदे हुए हैं. और अब राजनीतिज्ञों का पूरा का पूरा वर्ग, एक और पहाड़, बिहार की जनता पर बोझ की तरह लद गया है. यहां आर्थिक प्रक्रिया के विकास की बजाए सारा झगड़ा इस बात को लेकर है कि सरकारी नौकरियां किसको ज्यादा मिलेंगी, कौन उन्हों ज्यादा हड़पेगा – यहां सारी राजनीति इसी के इर्द-गिर्द घूमती है और इसका कारण सिर्फ यह है कि सरकारी नौकरियों में हिस्सा पाकर लूट-खसोट का बाजार और गर्म बनाया जाए.

बिहार की त्रासदी की जो चौथी विशिष्टता है, वह यह कि यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था का सम्पूर्ण पतन हो चुका है. बिहार के चुनाव सर्वाधिक हिंसक होते हैं और पंचायत या इस किस्म की तमाम संस्थाओं के चुनाव ही यहां नदारद हैं. 1978 में आखिरी  पंचायत चुनाव हुआ था और उसमें दो हजार लोग मारे गए थे. उसके बाद से न तो पंचायतों का चुनाव हो रहा है, न म्युनिसिपैलिटी का. पूरी की पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही यहां सिरे से गायब है.

बिहार की त्रासदी का पांचवां रूप अगर आप देखें तो हिंसा यहां अपने सबसे उग्रतम रूपों में आती है. बड़े पैमाने पर नरसंहार यहां होते हैं. दो-चार-पांच लोगों का मरना यहां कोई समाचार ही नहीं रह गया है. जब तक 20-30-50-60 लोग न मारे जाएं, तबतक उसका कोई महत्व ही नहीं होता है, मनुष्य के जीवन का मूल्य यहां इतना सस्ता हो गया है.

और बिहार की त्रासदी की जो छठी विशिष्टता मेरी नजर में है, वह यह कि यहां के सांस्कृतिक मूल्यों का बड़ी तेजी से पतन हुआ है. सत्ता की चापलूसी करना, चाटुकारिता करना और यहां का जो राजनीतिक नेतृत्व है वह राजतंत्र या राजा के रूप में, कृष्णावतार के रूप में अपने आपको दिखाता है. फिर शिक्षा के क्षेत्र में, जो किसी भी देश-समाज की रीढ़ होती है, उसमें अराजकता छाई हुई है. इस तरह से आप देखते हैं कि बिहार में तमाम सांस्कृतिक मूल्यों का बड़ी तेजी से अधःपतन हुआ है.

बिहार के कृषि उत्पादन में जो ठहराव है, जो जड़ता है, वही इस सारे के सारे पतन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेवार है. बिहार में एक एकड़ जमीन पर औसत भारत की तुलना में 70%ज्यादा किसान, 120% ज्यादा खेतमजदूर और 60% ज्यादा पशुशक्ति का इस्तेमाल होता है. फिर भी एक एकड़ का उत्पादन भारत के औसत उत्पादन से कम होता है. कृषि उत्पादन में यह जो एक ठहराव है, जड़ता है, रुकावट है – ये सारे बिहार के पिछड़ेपन की जड़ है. इसपर जब और गहराई से हम देखते हैं, तब हम पाते हैं कि बिहार की कृषि मूलतः अपनी खपत के लिए होती है, सब्सिस्टेंस फार्मिंग जिसे कहा जाता है. बाजार के लिए नहीं, बल्कि खुद अपने घरेलू खर्च के लिए ही, कृषि का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी चल रहा है.

तो ऐसा क्यों है? कृषि उत्पादन में इतना ठहराव, इतनी गिरावट, इतनी कमी क्यों है? जब हम इसकी जांच-पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि मूल समस्या भूमि सुधार की है, जो आज भी बिहार में अधूरी है. लालू याहव जब सत्ता में आए, तो उन्होंने शुरू-शुरू में यह बात कही थी कि बिहार में 85 ऐसे परिवार है, जिनके पास 500 एकड़ से ज्यादा जमीन है और हम उनके नामों की घोषणा करेंगे. उन्होंने यहां तक धमकी दी थी कि हम इन तमाम लोगों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे और जरूरत पड़ी तो जमीन का राष्ट्रीयकरण भी करेंगे. उन्होंने बटाईदारों की रिकार्डिंग कराने की बात कही थी और एक सर्कुलर भी राज्य सरकार की ओर से इस सवाल पर निकला था. लेकिन जब उन्होंने ये बातें कहनी शुरू कीं, तो बिहार के दूसरे महारथी जगन्नाथ मिश्रा की ओर से प्रतिक्रिया आई. पहली बात उन्होंने कही कि इतनी रिकार्डिंग करवाने में कई हजार करोड़ रुपये, शायद चार हजार करोड़ रुपये का खर्च आएगा. और दूसरी बात ये कि इतना कुछ करने से बहुत बड़ा सामाजिक तनाव पैदा होगा. कुछ दिनों बाद हमने देखा कि धीरे-धीरे लालू जी ने ये बातें भी कहनी छोड़ दीं, जो सर्कुलर गया था उसे वापस ले लिया. एक ऐतिहासिक समझौता हो गया लालू और जगन्नाथ मिश्रा के बीच, जनता दल और कांग्रेस के बीच या आप कहिए कि अगड़ी जाति और पिछड़ी जाति के कुलक हिस्सों के बीच एक समझौता हो गया कि जमीन के बुनियादी सवालों पर हम झगड़ा नहीं करेंगे, झगड़ा करना है तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण के सवाल पर ही अपने झगड़े को सीमति रखो. लेकिन जमीन के बुनियादी सवाल पर झगड़ा करने से फायदा नहीं होगा. इससे एक सामाजिक तनाव पैदा होगा जिसका फायदा क्रांतिकारी ताकतें उठा  सकती हैं. इसलिए हम दोनों का भला इसी में है. हम दोनों ही समाज के क्रीमी लेयर के प्रतिनिधि हैं और हमारा भला इसी में है कि बुनियादी ढांचे को न छुआ जाए. हमने देखा कि यह समझौता हुआ और लालू यादव, जिन्होंने बड़ी-बड़ी घोषणाएं की थीं, अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल में एक भी कदम नहीं उठाया.

एक विचार है कुछ बुद्धिजीवियों का कि बिहार में भूमिसुधार की अब कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि जो भी भूमिसुधार होना था, वह अब करीब-करीब हो ही गया है. अगड़ों में जो रैयत थे और पिछड़ों का, मध्यवर्ती जातियों का भी जो एक हिस्सा था, जमींदारी प्रथा खत्म हुई और उसके बाद जमीन की मिल्कियत भी इन्हें मिल ही गई है और एक स्तर का भूमि सुधार हो  ही चुका है. इसलिए भूमि सुधार बिहार में अब कोई मुख्य बात नहीं है, कोई बड़ा एजेंडा नहीं है. और अब लालू यादव की सरकार के संदर्भ में वे बुद्धिजीवी कहते हैं कि ‘किसान राज’ आ गया है. इसीलिए अब भूमि सुधार वगैरह की बातें करना बेमानी है, इसकी कोई जरूरत नहीं है. और ये बात आई कि भूमि सुधार के एजेंडे को एक बचे-खुचे इधर-उधर कुछ छोटे-मोटे एजेंडे के तौर पर ही ले सकते हैं. जिस बात की जरूरत है वह यह कि लोगों में वह जो इंटरप्राइजिंग इनिशिएटिव होता है, उद्यमिता होती है, तो लोग निवेश का काम करें, खेती बढ़ाएं, बढ़िया से काम करें. ये सब उनको शिक्षित करना होगा. बिहारी नौजवान ‘बाबू’ बनने के बजाय पूंजी लगाएं, उद्योग खोलें और उनका कहना था कि ये सब किसी वर्ग की बात नहीं है, यह मनुष्य का गुण है, मानवीय गुणों को बढ़ाने की जरूरत है. ट्रेनिंग के जरिए, शिक्षा के जरिए ये किया जाए. खेती में सिर्फ चावल-गेहूं पैदा करने के बजाय आलू पैदा किया जाए, उसे बेचा जाए और मछली का उत्पादन किया जाए, वगैरह, वगैरह. इस ढंग से अब बिहार को आगे बढ़ना है और भूमि सुधार वगैरह की बात करना बेमानी है. इस तरह के विचार भी आते रहते हैं. मैं कहूगां कि इस तरह के विचार चाहे कितने भी वामपंथी रूप में क्यों न आएं, ये विचार गलत है. क्योंकि आप देखेगें कि यहां की जो यथास्थितिवादी ताकतें हैं – वह कांग्रेस हो, जनता दल हो – वह भी यही बात घुमा-फिरा कर कहती हैं कि अब बिहार में भूमि सुधार की आवश्यकता नहीं रह गई है, बिहार में सिर्फ अगर खेती-बाड़ी में नए-नए तरीकों को लेकर चला जाए और नौकरशाही को जनता के पक्ष में थोड़ी और ट्रेनिंग दी जाए तो शायद बिहार की समस्याएं हल हो जा सकती हैं तो हम समझते हैं कि कहीं न कहीं यथास्थितिवादी ताकतों, सरकारी ताकतों के ही पक्ष में ये सारे तर्क चले जाते हैं.

हम अगर इतिहास देखते हैं तो पाते हैं कि 1973 में बिहार में भूमि सुधार पर एक सेमिनार हुआ था, जिसमें जयप्रकाश जी थे, बिहार के मुख्यमंत्री थे, और भारत के तमाम नामी-गिरामी बुद्धिजीवी उपस्थित थे. उसमें तमाम चीजों पर विचार हुआ और उसमें कुछ सुझाव, कुछ बातें लाई गई थीं कि क्या-क्या करना चाहिए, खासकर, बिहार सरकार को. उसमें पहली बात आई थी कि जमीन के रिकार्ड ठीक नहीं हैं, सही नहीं हैं, उनको ठीक करने की जरूरत है. खासकर जो बटाईदार हैं, उनकी पूरी रिकार्डिंग बननी चाहिए. दूसरी बात आई थी कि बटाईदारी में सुधार होनी चाहिए ताकि बटाईदार ही अपने-अपने खेतों के मालिक बने. इसके लिए जरूरत हो तो खेत के मालिकों को थोड़ा-बहुत मुआवजा भी दिया जा सकता है. मुआवजा के लिए सरकार बटाईदारों को लोन दे, और इसको वे धीरे-धीरे किस्तों में अदा कर दें. लेकिन इस लक्ष्य की ओर बढ़ना है, पहले उनकी बटाई को सुरक्षित किया जाए और फिर क्रमशः धीरे-धीरे ऐसी स्थितियां पैदा की जाएं कि बिहार में सिर्फ ऐसे ही किसान रहें जो खुद अपनी जमीन के मालिक हों और धीरे-धीरे बटाईदारी-प्रथा का ही सफाया कर दिया जाए. ये बटाईदार लोग बेहतर ढंग से खेती कर सकें या गांव के जोतदारों का जो कर्ज उनपर रहता है, उससे वे मुक्त हो सके, इसलिए ये बात भी आई थी कि बैंकों के जरिए या इस किस्म की अन्य संस्थाओं के जरिए सरकार सस्ते ब्याज पर उन्हें ऋण भी मुहैया करे. इस तरह के प्रस्ताव उसमें थे. और तीसरी बात उसमें थी कि सीलिंग के नियम को और बढ़िया बनाया जाए तथा उनपर अच्छी तरह से अमल किया जाए. चौथी बात उसमें आई थी कि ये जो हाई कोर्ट है, वो सब चूंकि ब्रिटिश जमाने से ही चल रहा है और व्यक्तिगत संपत्ति को बचाए रखने को ही वो तरजीह देते हैं, इसीलिए ये कोर्ट भूमि सुधार के काम का आगे बढ़ाने के बजाय भूमि सुधार के मामले में सबसे बड़ी रुकावट बने हुए हैं और ये शायद हिंदुस्तान की अपनी खास विशिष्टता है. शायद ही किसी दूसरे देश का न्यायालय हो, जो सामाजिक प्रक्रिया के विकास में बाधक बने. लेकिन हमारे देश में हम देखते हैं कि सामाजिक प्रक्रिया के विकास में सबसे बड़ी बाधा के रूप में ये हाई कोर्ट वगैरह की भूमिका ही रही है. इन्होंने तमाम केसों को फंसा दिया और भूमि सुधार के काम को आगे नहीं बढ़ने दिया. वहां ये बात आई कि विशेष लैंड-ट्रिब्यूनल बनाए जाएं और इन मुकद्दमों को हाईकोर्ट वगैरह से निकालकर वहीं रखा जाए और उनका जल्दी से निपटारा किया जाए. ये कुछ प्रस्ताव थे कुछ सिफारिशें थीं जो 1973 के भूमि सुधार सेमिनार में उठाए गए थे. और जयप्रकाश नारायण ने उसमें कहा था कि इस काम के लिए, बिहार में इस सामाजिक परिवर्तन के लिए नौजवानों को बड़े पैमाने पर लगाने की जरूरत है.

और अभी हाल में, 1991 में, भूमि सुधार पर ही एक वर्कशाप इसी पटना में हुई, जिसमें भी तमाम बुद्धिजीवी थे और कुछ ऐसे लोग थे जो 1973 वाले सेमिनार में भी शामिल रहे थे. इस वर्कशाप ने विचार किया कि 1973 में जो बातें तय की गई थीं, इन 20 सालों में उनका क्या हुआ? वे जिन नतीजों पर पहुंचे वे ये थे कि बिहार में कृषि-सुधार का काम कुछ भी आगे नहीं बढ़ा इन बीस सालों में. और जमीन हदबंदी कानूनों का प्रयोग या जो जमीन निकली उसके वितरण का काम – ये सब कुछ भी आगे नहीं बड़ा. बल्कि जो हुआ, वह यह कि भूमिसुधार के एजेंडे को ही अप्रासंगिक बताकर उसे पीछे ढकेलने की कोशिशें लगातार की गई. इस वर्कशाप ने नए सिरे से फिर कुछ सिफारिशें राज्य सरकार के पास भेजीं और उससे उम्मीद की कि वह इस काम को करे. उसकी खास बातें थीं कि हदबंदी को नए सिरे से किया जाए. इसमें था कि अभी जो 6 किस्म से जमीन को वर्गीकृत किया जाता है, उसे 3 किस्म से ही किया जाए. एक सिंचित जमीन जिसमें 15 एकड़ की सीलिंग हो, जो असिंचित जमीन है उसमें साढ़े बाइस एकड़ की, तथा जो खराब जमीन है – बंजर या पहाड़ी जमीन है, उसके लिए 30 एकड़ की सीलिंग हो. दूसरी जो सिफारिश उन्होंने की, वह यह कि प्राइवेट ट्रस्टों के नाम से जो बहुत सी जमीनें हैं या फिर चीनी मिलों के नाम पर जो जमीन है, और इन्हें जो सीलिंग के मामले में रियायतें मिल जाती है, तो ऐसी कोई छूट इन्हें न दी जाए. तीसरी बात वहां आई कि जमीन को लेकर लैंड ट्रिब्यूनल बनाए जाएं. सरकार ने बनाने की कोशिश भी की थी, जिसे हाईकोर्ट द्वारा रोक दिया गया है, तो बात आई कि सुप्रीम कोर्ट से जल्दी इसके पक्ष में फैसला लिया जाए, और चौथी बात हुई ‘आपरेशन बटाई’ की, जैसा कि पश्चिम बंगाल में ‘अपारेशन बर्गा’ हुआ है, बर्गादारों की रिकार्डिंग हुई है, तो उस तर्ज पर बिहार में भी किया जाए. इस तरह की सिफारिशें थीं 1991 के वर्कशाप की. तो ये जो प्रस्ताव उन्होंने सरकार के पास भेजे, उसपर भी कहीं कुछ कार्यवाही नहीं हो पाई है.

ये स्थितियां हैं, और ये सिर्फ हमारी नहीं, देश के तमाम जो प्रमुख बुद्धिजीवी हैं, बिहार का भला चाहने वाले देशभर के प्रतिष्ठित, प्रबुद्ध लोग हैं, वे सभी यह मानते हैं कि बिहार में भूमि सुधार का काम अधूरा पड़ा हुआ है और इस काम को पूरा करना ही बिहार के विकास की कुंजी है. यह एक आम समझ और आम मान्यता है. सिर्फ जगन्नाथ मिश्रा या लालू यादव जैसी ताकतें या फिर ये जो कुछ दलाल बुद्धिजीवी किस्म के लोग हैं, वे ही ऐसी बातें कहते हैं कि अब बिहार में भूमि सुधार जैसी चीजों की आवश्यकता नहीं रह गई है और सिर्फ खेती की नई-नई तकनीकों के जरिए ही बिहार की समस्याओं को हल किया जा सकता है.

उसमें पहली बात यह, कि जो खेत मजदूर हैं, उनके बारे में सबसे पहले सोचना चाहिए कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी मिलनी चाहिए. इसके लिए हर खेती के सीजन के पहले वहां के जो स्थानीय फार्मर हैं, किसान हैं, तथा मजदूर हैं और जनता के जो किसान सभा जैसे संगठन हैं और प्रशासन की जो मशीनरी है, वे सब आपस में बैठकर हर सीजन के लिए हर बार क्या मजदूरी हो, इसका फैसला करें. यह एक सिस्टम होना चाहिए, क्योंकि हर साल चीजें बदलती हैं और मजदूरी की नई दर निर्धारित करने की जरूरत है. इसे लागू कराने की गारंटी की जानी चाहिए, क्योंकि उनके अंदर बहुत बेकारी है, उन्हें काम नहीं मिलता है सालभर. काम की गारंटी की जाए और उनके रहने के लिए जमीन का इंतजाम किया जाए, यह पहला कार्यक्रम होना चाहिए. दूसरा जो हम समझते हैं कि जमीन की रिकार्डिंग हो, उसका नए तरह से सर्वे हो और फिर जमीन का बंटवारा ही नहीं, जमीन की चकबंदी की भी बड़ी जरूरत है जिससे कि खेती को वैज्ञानिक ढंग से आगे बढ़ाया जा सके. इसके अलावा बटाईदारों के जो अधिकार हैं वे सुरक्षित हों और बटाईदारों को सरकारी संस्था के जरिए कम ब्याज-दर पर ऋण मिले जिससे वे बेहतर ढंग से खेती कर सकें और अंततः अपनी जमीन के मालिक बन सकें. यह दूसरा कार्यक्रम होना चाहिए. तीसरा कार्यक्रम यह होना चाहिए कि कृषि का जो ढांचा है बिहार में, उसे मजबूत करने की जरूरत है जैसे सिंचाई का सवाल. बहुत सी जो नहरें हैं, वे पुरानी पड़ रही हैं, खत्म हो रही हैं. जमीन की उत्पादकता बनाए रखने के लिए जरूरी है जमीन की सुरक्षा, या बहुत जगह पानी जमा हो जाता है. तो ये सब जो समस्याएं हैं, इन्हें दूर करने की जरूरत है. बिहार का जो ढांचागत विकास है, वह तीसरा एजेंडा बनता है. चौथा जो एजेंडा बनता है, वह जरूर है कि कृषि विविध रूप में विकसित हो. पोल्ट्री जैसी चीजों की शुरूआत की जाए. पांचवी बात यह है कि बिहार के जो परंपरागत उद्योग हैं – उत्तर बिहार में जूट मिलें हैं या चीनी मिले हैं, या हैंडलूम है – इन तमाम उद्योगों को पुनर्जीवित किया जाए. छठी बात ये है कि जनवादी जो संस्थाएं हैं उनका पुनर्जीवन हो – पंचायत और इस तरह की अन्य संस्थाओं का. और सातवीं बात मैं कहना चाहूंगा कि किसान सभा जैसे जो जनवादी, लोकतांत्रिक संगठन हैं, उन्हें इस पूरी प्रक्रिया में शामिल रहने की जरूरत है.

तो यह जो कार्यक्रम है, मैं समझता हूं कि बिहार के विकास के लिए यह जरूरी है. लेकिन इसे लागू करना कोई आसान बात नहीं है. इसके लिए लंबे संघर्ष के दौर से गुजरना होगा. इसमें सबसे पहला संघर्ष जमीन के जो मालिक हैं, जिनके हाथों में काफी जमीन है, या जो धनी कुलक तबका है, और जो कई बिजनेस से जुड़ा होता है, वह राजनीति का भी मैनुपुलेशन करता है, पीछे से इलाके की राजनीति चलाता है, उसके खिलाफ संघर्ष चलाना होगा. जैसे हमने देखा था भोजपुर के ज्वाला सिंह को, उसमें ये तीनों ही गुण थे. वे एक तरफ अच्छी-खासी जमीन के मालिक भी थे, दूसरी तरफ काले धंधे से कमाए धन से उनका तमाम बिजनेस चलता था और वे वहां की पूरी राजनीति को – कांग्रेस की हो, जनता दल की हो – संचालित करते थे. इस तरह की ताकतें बिहार के कोने-कोने में हैं, और इनके खिलाफ संघर्ष पहली बात है. दूसरी बात यह कि जो भ्रष्ट अफसरशाही है, जिला, ब्लाक, से लेकर नीचे तक – इस अफसरशाही के खिलाफ व्यापक संघर्ष हो. तीसरी बात जो मैंने कही कि राजनीतिज्ञों का एक पूरा-का-पूरा वर्ग पहाड़ बनकर जनता पर लद गया है, और उसे लूटपाट करने की तमाम सुविधाएं मिली हुई हैं. इस राजनीतिज्ञ वर्ग के खिलाफ, इस पहाड़ के खिलाफ भी संघर्ष की जरूरत है जिसमें इन्हें वापस बुलाने का अधिकार जनता के हाथों में हो. पांचवीं बात मैं कहूंगा कि जो पतनशील सांस्कृतिक मूल्य हैं, उनके खिलाफ संघर्षों की जरूरत है. और आखिरी बात जो कहनी है कि यहां बिहार में शिक्षा के मामले में जो अराजकता है, उसे दूर करने की जरूरत है. चरवाहा विद्यालय जैसी गैर-जरूरी चीजों पर समय बर्बाद करने के बजाय बिहार में कृषि की ट्रेनिंग की संस्थाएं खुलनी चाहिए, बिहार में जैसे निजी गैर-जरूरी महाविद्यालयों को बल्कि बंद करके उन्हें तकनीकी संस्थानों में बदल दिया जाए जिसमें तकनीकी शिक्षाएं दी जाएं. और इसी सिलसिले में मैं कहूंगा कि शिक्षा को पूरी तरह सेकुलर बनाया जाए, और ये तमाम जाति ग्रुप शिक्षा संस्थानों पर अपना कब्जा जमाए हुए हैं, इन चीजों को बदला जाए और शिक्षा को सेकुलर बनाया जाए. और आखिरी बात मैं ये कहूंगा कि आरक्षण दलितों के लिए तो है ही, जो दूसरी पिछड़ी जातियां हैं, उसमें जो क्रीमीलेयर है, उसको हटाकर बाकी के लिए आरक्षण हो और महिलाओं के लिए भी आरक्षण हो. इस आरक्षण 60-70% तक बढ़ाया जा सकता है और इसमें कम से कम 10% आरक्षण अवश्य महिलाओं के लिए होना चाहिए. क्योंकि बिहार के पिछड़ेपन को तोड़ने में अगर कोई गति पैदा करनी है, तो ये जरूरी है कि महिलाओं को समाज विकास के या अन्य कामों में आगे बढ़ाया जाए. एक तरफ आरक्षण के दायरे से क्रीमीलेयर को हटाया जाय तो दूसरी ओर किसी भी जाति की महिला के लिए आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया जाए.

(27 अगस्त 1994 के सम्पन्न राज्यस्तरीय कैडर कन्वेंशन में दिया गया भाषण;
समकालीन लोकयुद्ध, 15 सितम्बर 1994 से, प्रमुख अंश)

सात महीने पहले भी इसी जगह एक कन्वेंशन हुआ था. उस समय ऐसा एक विचार था कि जनता दल और एमसीसी के दबाव में हमारी पार्टी खत्म होती जा रही है. इस तरह की बात अखबारों में, आम धारणा में थी. उस समय हमलोगों ने अपने कैडरों का एक कन्वेंशन किया था और उसमें यह बात कही थी कि आप एक सौ साथी पार्टी के नेतागण हैं, आप अगर कोशिश करें तो चेहरा बदल सकते हैं बिहार का. उसके बाद हमने देखा कि हमारे साथियों ने एकताबद्ध होकर पूरे जी-जान से कोशिश की और 18 मार्च को हमने एक ऐतिहासिक रैली इसी पटना में की. उसके बाद से सारे अखबारों का प्रचार बदल गया और ये बात सामने आने लगी कि जनता दल का महाभ्रम टूटा और सीपीआई(एमएल) फिर एक बड़ी ताकत के रूप में उभरी.

मैं ये कहना चाहता हूं कि हमारे साथियों में वो ताकत है. जरूरत सिर्फ इस बात की है कि हम एक सही नारे के तहत एकताबद्ध होकर पूरी कोशिश के साथ लगें. मैं समझता हूं कि बिहार में हमेशा ही एक ऐसी परिस्थिति मौजूद है जो कि यहां तेजी से क्रांतिकारी परिवर्तनों की तरफ आगे बढ़ सकती है. उस दौरान हमने एक और चीज देखी थी, जो एक बहुत अच्छी बात लगी थी कि हमारे तमाम नेताओं ने, ऊपर से लेकर नीचे तक, सबने एक नई कार्यशैली विकसित की थी. खुद व्यक्तिगत ढंग से हमारे तमाम नेतागण सीधे आम जनता में गए, कतारों के साथ रहे, जनता के साथ रहे और व्यक्तिगत ढंग से वे लोग झंडे हाथ में उठाकर प्रचार में उतरे. यह एक स्वस्थ कार्यशैली है. इसके पहले इसीलिए हम एक शुद्धीकरण अभियान चला रहे थे,क्योंकि नेता और कतारों के बीच कहीं एक दूरी-सी बन गई थी. शुद्धीकरण अभियान के जरिए हमने इस दूरी को पाटा और हमारे तमाम नेतागण खुद व्यक्तिगत ढंग से उस पूरे अभियान में लगे थे. एक स्वस्थ, नई, अच्छी कार्यशैली उस रैली के दरम्यान हमने जिसका विकास किया था, उस कार्यशैली पर आज भी हमें अडिग रहना चाहिए. मैंने उस समय अपने वक्तव्य में इसकी चर्चा भी की थी कि विभिन्न स्तरों पर हमारी पार्टी कमेटियों में बहुत-से विभाजन हैं जिससे काफी नुकसान होता है. मैंने बेगूसराय का जिक्र किया था और कहा था कि इस तरह का विभाजन और भी तमाम जगहों पर चल रहा है.

यहां जो एक दस्तावेज रखा गया है उस पर तमाम साथियों ने अपने विचार रखे हैं. बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें उसमें आई  हैं. मैं समझता हूं कि उसपर राज्य नेतृत्व को विचार करना चाहिए. एक बात कुछ साथियों ने रखी है कि परचे में राजनीतिक शक्तियों का वास्तविक विश्लेषण होना चाहिए, जैसे कहीं अगर लिख दिया गया है कि जनता दल(ब) – लालू यादव वाला जनता दल – खत्म हो गया है या करीब-करीब इसका कोई असर नहीं रह गया है, तो ये वास्तविक स्थिति नहीं है, अभी भी वो एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी है. इसलिए अगर पर्चा में ऐसा जिक्र आ गया है कि जनता दल(ब) कुछ रहा ही नहीं, तो मैं समझता हूं कि इसको जरूर ठीक कर लिया जाना चाहिए; या इसी तरह से बसपा के बारे में भी अगर ऐसी बात है कि उसका कहीं कुछ नहीं है, अगर उसे एकदम से खारिज कर दिया गया है, तो मुझे लगता है कि उसे भी सुधारना चाहिए. क्योंकि ये सच्चाई है कि बसपा की भी कोशिशें जारी हैं और चुनाव जितना नजदीक आएगा बिहार में, वो कोशिशें बढ़ाएंगे भी. उत्तर प्रदेश में उनकी ताकत है, उसके बल पर जहां तक हो सकेगा यहां जरूर कोशिश करेंगे. इसलिए उनके बारे में भी हमें जरूर सतर्क रहना है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी हम बसपा के प्रभाव के खिलाफ लड़ रहे हैं और वहां हमें कुछ-कुछ सफलताएं भी मिल रही हैं. इसलिए ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ बिहार में आ रहे हैं, हमने भी उत्तर प्रदेश में उनके इलाकों में अपनी कोशिशें बढ़ाई हैं. हमें भी उसमें कुछ-कुछ सफलता मिल रही है. लेकिन जो हो, उनकी कोशिश है और वह बढ़ेगी. उनके पास साधन भी हैं, पैसे भी हैं. इसलिए अगर दस्ताबेज में उसको एकदम खारिज कर दिया गया है तो इसे भी ठीक कर लिया जाना चाहिए.

दूसरी बात यह कि जनता दल(जार्ज) या झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ अगर हम चुनावी संश्रय की बात सोचते हैं या यहां तक कि सरकार बनाने की बात कह रहे हैं, तो इस पर तमाम साथियों ने सवाल उठाए हैं. उनको लगता है कि ये ताकतें निर्भरयोग्य नहीं हैं. खासकर झारखंड मुक्ति मोर्चा ने पिछले समय कांग्रेस के साथ जिस तरह से खुलेआम गठजोड़ किया और जनता दल(जार्ज) की भी आज जिस तरह की स्थिति है, (उसे देखते हुए) मैं ममझता हूं कि हमारे साथियों के वक्तव्यों में एक सही भावना है. इस लिहाज से मुझे लगता है कि इन ताकतों के साथ दोस्ती या जो कुछ करना है, उसके बारे में अगर बढ़-चढ़ के कुछ बाते आ गई हैं दस्तावेज में, या सरकार-वरकार बनानेवाली कोई बात अगर आ गई हो तो अभी फिलहाल ये छांट दिया जाना चाहिए. इनके साथ ज्यादा से ज्यादा कुछ सीटों के बारे में कहीं तालमेल की कोई गुंजाइश हो सकती है कि नहीं इसको हम तलाशेंगे. अभी फिलहाल इस तरह का ही मूल्यांकन रखना ज्यादा ठीक होगा. कुछ साथियों ने एक आशंका जाहिर की है कि सीटों का तालमेल भी कहां तक हो पाएगा नहीं हो पाएगा कहा नहीं जा सकता. मुझे लगता है कि यह आशंका सही है, ऐसा संभव है कि शायद अंततः चुनावी संश्रय ही न हो, सीटों का तालमेल भी संभव न हो और हो सकता है कि हमें अकेले ही लड़ना पड़े. इस संभावना को भी हम नकार नहीं सकते हैं.

फिलहाल जो स्थितियां हैं, एक बात हमें माननी होगी, समझनी होगी कि दुश्मनों के बीच का जो अंतर्विरोधहै या जो मुख्य दुश्मन है उनके खिलाफ तमाम लोगों के साथ विभिन्न स्तरों के समझौते करने पड़ते हैं. किसी के साथ आप कार्यक्रम संबंधी समझौता करते हैं, कुछ स्थायी किस्म का समझौता करते हैं, तो कुछ लोगों के साथ कुछ दिनों का समझौता करते हैं. किसी के साथ एक दिन की भी दोस्ती होती है, किसी के साथ दो-चार घंटों की भी दोस्ती होती है. ये निर्भर करता है कि कौन किस तरह का है. तो संयुक्त मोर्चे का दायरा बहुत विस्तृत होता है. संयुक्त मोर्चे में, अंततः, कहिए समाजवाद तक जाते-जाते, साम्यवाद तक पहुंचते-पहुंचते तो कम्युनिस्ट पार्टी का किसी से कोई मोर्चा नहीं रहता है. उसको अकेले ही वो सफर तय करना है. बीच में मोर्चे बनते हैं, बिगड़ते हैं और इसका दायरा बहुत व्यापक होता है. कुछ ऐसे मोर्चे होते हैं जो कुछ दशकों तक चलते हैं, कुछ होते हैं जो सालों तक चलते हैं, और कुछ ऐसे भी मोर्चे होते हैं जो कुछ घंटों तक खास मुद्दे पर बनते हैं. किसी शहर में पुलिस का कुछ अत्यातार हुआ तो सर्वदलीय कमेटियां भी बन जाती हैं. तमाम पार्टियां उसमें आ जाती हैं और कोई एक प्रोटेस्ट हो जाता है, बाजार बंद हो जाता है, दो घंटे की दोस्ती हो जाती है. तो इस तरह से चीजें चलती हैं.

झारखंड में फिलहाल हमने देखा कि वहां जो दूसरी ताकत थी जिसे तुलनात्मक रूप में ज्यादा प्रगतिशील या वामपंथ की ओर झुका हुआ माना जाता था – कृष्णा मार्डी ग्रुप या कहें जो विनोद बिहारी महतो का ग्रुप था, वह जनता दल से क्रमशः जुड़ता चला गया और झारखंड राज्य की मांग भी उसने करीब-करीब छोड़ दी. और दूसरी जो ताकतें थीं ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन(आजसू) या इस किस्म की, वे भी आईं  तो काफी बड़ी-बड़ी बातें कहती हुईं लेकिन अंततः या तो सब बिखर गईं या वे भी यहां-वहां अवसरवादी समझौतों में चली गईं.

झारखंड मुक्ति मोर्चा के दो पहलू हैं. आप लोगों ने जैसा कहा ठीक उसके नेता वगैरह उसी तरह के हैं, बदमाश हैं, माफिया हैं. लेकिन आम आदिवासियों में अभी भी उसका एक असर मौजूद है और उसी को लोग झारखंड राज्य की प्रतिनिधित्वकारी ताकत के रूप में देखते हैं. एक सवाल हमलोगों के सामने था कि अक्सर ये कांग्रेस की ओर या केंद्र की ओर चले जाते हैं या केंद्र वाले, कांग्रेस वाले इनको अपने पक्ष में, काम में लगा देते हैं. यह स्वाभाविक ही है, उनका जो वर्ग आधार है, उनकी जो वर्ग स्थितियां हैं, वे उधर जाएंगे. लेकिन इसमें दूसरी बात भी हो सकती है. एक कोशिश अगर हमारी तरफ से हो और हम भी वहां एक शक्तिशाली ताकत बनें अर्थात् इनके सामने हम एक सीधा सवाल खड़ा कर दें कि आपको चुनना है – आप कांग्रेस के साथ जाएंगे या सीपीआई(एमएल) के साथ आएंगे? बीच का कोई रास्ता नहीं है. दो में से उसको एक चुनना होगा. वे दोनों बातें कह रहे हैं. अपने सम्मेलन में और तरीकों से उन्होंने यह भी कहा है कि सीपीआई(एमएल) के साथ हम रिश्ता बनाना चाहते हैं और उधर कांग्रेस के साथ तो कर ही रहे हैं. हम चाहते थे कि यह सवाल हम वहां तेजी से उठाने की कोशिश करें. इससे हम उम्मीद कर सकते हैं कि कांग्रेस से धक्का लगने पर वे हमारे साथ आएं अथवा उनके अंदर बहसें तेज हों. पिछले समय लालू यादव ने या जनता दल ने आरक्षण के सवाल पर, मंडल के सवाल पर, या बैकवर्डिज्म के सवाल पर एक लहर पैदा की थी, चुनाव जीता था. यह सच है कि एक बार फिर वे यही कोशिश करेंगे. लेकिन जैसी कि एक कहावत है कि नदी के एक ही पानी में दो बार नहीं नहाया जा सकता क्योंकि इस बीच पानी बह चुका होता है. इसलिए हम समझते हैं कि दुबारा वैसी ही हवा पैदा कर देने की उनकी जो उम्मीद है तो वह स्थिति अब वे दुहरा नहीं पा सकेंगे. इसके बहुत-से कारण हैं. उस समय उनकी पार्टी का राष्ट्रीय पैमाने पर भी एक उभार था, राष्ट्रीय पैमाने पर भी वह एक पार्टी के रूप में आगे बढ़ रही थी. उसके पास राष्ट्रीय नेता थे. आज राष्ट्रीय पैमाने पर तो करीब-करीब वह पार्टी खत्म हो चुकी है. विश्वनाथ प्रताप सिंह रिटायर कर रहे हैं राजनीति से. उनका अपना विभाजन भी है, उस बार की लहर के पीछे बहुत-से कारण थे, बहुत-सी राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियां थीं.

दूसरी बात, हमें क्रीमी लेयर के सवाल को उठाना चाहिए. क्रीमी लेयर का सवाल हमारे लिए इसलिए जरूरी है क्योंकि बिहार में जाति विभाजन है और कोई भी पार्टी इस जाति विभाजन को अस्वीकार नहीं कर सकती है. फर्क इतना ही है कि कुछ पार्टियां – जैसे सीपीआई-सीपीएम तक, जाति का जो वर्तमान ढांचा है या जो स्वाभाविक अंतर्विरोधहै उसी आधार पर या कुल मिलाकर जनता दल की जो अपनी पूरी जाति की राजनीति है, वे उसी के ही पिछलग्गू बन जाते हैं. हम भी जातियों की बात करते हैं. किन्तु हमारी हमेशा कोशिश होती है कि हमारा हर कदम हर जाति के बीच वर्ग विभाजन पैदा करे. किन्हीं जातियों में वर्ग विभाजन की स्थिति न हो, तो अलग बात है. ऐसी भी कुछ-कुछ जातियां हो सकती हैं कि पूरी की पूरी जाति ही गरीब किसान है, खेत मजदूर है तो वह अलग बात है. लेकिन जहां, जिन जातियों में वर्ग विभाजन की स्थितियां मौजूद हैं उस विभाजन को सामने लाया जाए. यही कम्युनिस्टों का दूसरों से फर्क होता है. इस सिलसिले में क्रीमी लेयर की यह जो धारणा है, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के रूप में भी आया है, यह हमारे लिए काम में लगाने वाला सबसे अच्छा हथियार है. इसके जरिए तमाम जातियों के बीच हम वर्ग विभाजन की धारणा को समझा सकते हैं, ले जा सकते हैं, वर्ग विभाजन तैयार कर सकते हैं.

एक सवाल यहां और आया है कि पहले हमने वामपंथी सरकार का नारा दिया था, वामपंथी पार्टियों के साथ हमें ज्यादा कोशिश करनी चाहिए बजाए इन पार्टियों के – जनता दल (जार्ज) के – इस मामले में हमारी जो बुनियादी नीति है उस बुनियादी नीति से हम नहीं हटे हैं. हम यह जरूर चाहते हैं, हमेशा हमारी यही कोशिस रही है, और रहेगी भी कि जो वामपंथी पार्टियां हैं, जो वामपंथी ताकतें हैं, हम उनके नजदीक आएं, उनके साथ मिलकर आगे बढ़ें.

इसी सितंबर में नई आर्थिक नीतियों के सवाल पर अखिल भारतीय पैमाने पर रेल रोको आंदोलन है, भारत बंद करना है 29 सितंबर को. सारी संयुक्त कार्यवाहियां वामपंथी ताकतों के साथ मिलकर हम करेंगे, लेकिन बिहार की ठोस राजनीतिक स्थितियों में हम दोनों एक दूसरे के आर-पार खड़े हैं. वे जिस खेमे में हैं और हम जिस खेमें हैं, दोनों एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गए हैं. यह एक ठोस स्थिति है.

हमें चीजों को इस ठोस स्थिति में देखना है. जहां तक सीपीआई(एम) की बात है, हम यह देख रहे हैं कि दरभंगा हो, कटिहार हो, नवादा हो, रांची हो, कई जगहों पर ग्रामीण इलाकों में, हमारे साथ सीपीएम का संघर्ष हुआ है और वह खूनी संघर्ष में भी तब्दील हो गया है. हमने हर जगह एक बात पाई है कि बिहार में, सीपीएम ग्रामीण इलाकों में सामंती ताकतों के साथ जुड़ी हुई है. दरभंगा में भी हमने ये देखा, कटिहार में भी देख रहे हैं, रजौली में भी हमने ये देखा और रांची में भी हमने ये देखा कि सामंती ताकतों के पक्ष से वह हमारे ऊपर हमले कर रही है. तो इसलिए, बाहर से देखा जाए तो यह सीपीआई(एमएल) और सीपीएम का संघर्ष है. लेकिन गहराई में देखें तो ये वर्ग संघर्ष की घटनाएं हैं. गरीब-भूमिहीन किसान हमारे साथ हैं और सीपीएम वाले सामंती ताकतों के पक्ष से आकर लड़ रहे हैं. बिहार में सीपीएम की ऐसी ही स्थिति है.

यह कोई नई बात मैं नहीं कह रहा हूं. बंगाल में सीपीएम वालों की भी यह धारणा है कि बिहार में उनकी पार्टी सामंतवाद से नहीं लड़ती है और कहीं न कहीं सामंतवाद से उसका समझौता है. इसीलिए बिहार में सीपीएम बढ़ नहीं पा रही है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि उसके जो यहां सेक्रेटरी हैं, गणेश शंकर विद्यार्थी, वो खुद इस्टेट से आते हैं. यह यहां सीपीएम की एक खास बात है, कम-से-कम ग्रामीण अंचलों की. ट्रेडयूनियन वगैरह की बात अलग है, वहां जो भी हो, हमारे साथ संयुक्त कार्यवाहियां होती हैं, वहां ऐसा कोई संघर्ष भी नहीं दिखाई पड़ता है, ग्रामीण इलाकों में अभी तक हमने यह बात देखी है. फिर भी ग्रामीण इलाकों में भी, कहीं अगर उनके साथ एक साथ चलने की संभावनाएं हैं तो उनको हम जरूर तलाशेंगे.

जहां तक रही सीपीआई की बात, तो सीपीआई पर अभी हमने कुछ हमले किए हैं, राजनीतिक हमले. इसका उद्देश्य सीपीआई को छोड़ देना नहीं है. हमने इसलिए ये हमला किया है कि सीपीआई के अंदर जो एक बहस है उसको तेज कर दिया जाए. उसको तेज करने के लिए हमने कुछ-कुछ बयानबाजी की है. इसका उद्देश्य उनके अंदर की बहसों को तेज करना है और इसका कुछ फायदा हमें हुआ भी है. उनके नेताओं का एक हिस्सा हम लोगों से मिला भी है और उसने यह बात कही है कि हमारी पार्टी में बहस है और एक हिस्से की एक मांग है, खुद उनलोगों की, कि हमलोग बजाए यह फैसला लेने के कि लालू यादव के साथ जाएं कि जार्ज के साथ जाएं, सबसे पहले हमलोगों को सीपीआई(एमएल) के साथ हाथ मिलाना चाहिए और हम दोनों पार्टियों को बैठकर यह ठीक करना चाहिए कि किसके साथ जाना ठीक रहेगा. उनके अंदर यह जो बहस है इस बहस को तेज करना हमारा लक्ष्य है. उनके साथ संपर्क काट लेना हमारा लक्ष्य नहीं है. हम सीपीआई के साथ दोस्ती बढ़ाने की कोशिश करेंगे. जहां-जहां संयुक्त कार्यवाहियां होंगी, वहां-वहां हम उनके साथ जाएंगे. क्योंकि सीपीएम वाले इस मामले में ज्यादा कट्टर होते हैं, सीपीआई वाले अक्सर बदलते रहे हैं. इसलिए उनके लिए यह बहुत कठिन नहीं है. वे कभी कांग्रेस के साथ गए हैं, कभी इसके साथ, कभी उसके साथ. सीपीआई का यह जो चरम अवसरवाद है, यही उसका सबसे सकारात्मक पहलू भी है. यही उम्मीद बंधाता है कि वह फिर एक छलांग लगा सकती है. अगर हमारी ताकत आगे बढ़े तो ये उम्मीद की जा सकती है. सीपीआई वालों को अगर ऐसा लगे कि लालू यादव की स्थिति डगमगा रही है और यह संश्रय मजबूत हो सकता है तो सीपीआई पहली पार्टी होगी जो अपनी स्थिति बदल कर उधर से इधर आ सकती है. इसलिए सीपीआई के साथ हमारी बातचीत, कोशिशें तमाम स्तरों पर जारी रहनी चाहिए.

एक अन्य सवाल जो साथियों ने रखा है कि हमारे बुनियादी सवालों के अलावा भी, बिहार में बाढ़ का सवाल है, डायरिया का सवाल है, जनता की जो तमाम समस्याएं हैं, उनपर हमारी तरफ से पहलकदमी कम रहती है, या नहीं रहती है. मैं समझता हूं कि यह एक काफी जायज आलोचना है. उस पर राज्य नेतृत्व को गहराई से सोचना चाहिए कि हम यहां एक ऐसी राजनीतिक ताकत बनें जो बिहार की जनता की हर समस्या पर पहलकदमी ले और इसलिए हमारे साथियों को बल्कि नेतृत्व के कुछ साथियों को खास करके नियुक्त करना चाहिए कि वे इस तरह के मामलों में वक्तव्य दें, टीम बनाकर दौरा करें, नहीं तो हमलोगों की पहचान एकतरफा बन जाती है कि जहां पुलिस दमन है या इस तरह की घटना है वहीं भर ये लोग पहलकदमी लेते हैं और जनता की बाकी समस्याओं पर नहीं सोचते हैं. हमको लगता है कि यह ठीक नहीं है. यह एक आलोचना आई है, वह सही है और इसपर पहलकदमी लेने की जरूरत है.

एक अन्य सवाल है मुस्लिम जनता का. यह बहुत जरूरी सवाल है. अर्थात् मुसलमानों के बीच, मुस्लिम जनता के बीच हम कोई पैठ बिहार में बना पाएंगे कि नहीं, इसपर बहुत कुछ निर्भर करता है. देश की राजनीति में भी हमारा असर तभी बढ़ेगा. मुस्लिम संप्रदाय सिर्फ बिहार में ही नहीं, हिंदुस्तान में काफी बड़ी संख्या में है, और बिहार में, जहां हमारे लिए एक मौका है, किसी एक राज्य में अगर हम मुसलमान जनता के बीच अपनी पैठ बना सके और वो अपनी पार्टी के रूप में हमारी पार्टी को देखने लगे तो इसका एक बहुत बड़ा असर सारे देश में फैलेगा. मैं समझता हूं कि यह संभव है और इसके लिए जोरदार कोशिशों की जरूरत है.

फिलहाल मैं ये कहना चाह रहा था कि पिछली बार चुनौती थी एक रैली करने की, 18 मार्च को वह हमने किया. अभी हमारे सामने चुनौती है अगला चुनाव. इस चुनाव में कहिए तो हमारा सीमित लक्ष्य ही है. सीमित लक्ष्य से मेरा मतलब है कि हमें फिलहास एक मान्यता प्राप्त पार्टी का दर्जा पा लेना है. इस बार के चुनाव में हमें यह गारंटी करनी है. पिछली बार हमलोग चार-पांच लाख वोटों से पीछे रह गए थे. हमको लगता है कि इसके लिए हमलोगों को 14-15 लाख वोटों की जरूरत थी और हमको 8-10 लाख वोट मिले थे. इस बार हमको यह कमी जरूर पूरी करनी चाहिए और हमारी समझ में ज्यादा महत्वपूर्ण यही है अर्थात् हम कितने एमएलए सीट जीत जाएं, वह एक पहलू है. लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू हमारे सामने, मान्यताप्राप्त पार्टी बनने का है, क्योंकि एक राज्य की मान्यता प्राप्त पार्टी होने का एक राष्ट्रीय असर भी पड़ता है. बिहार जैसे राज्य में एक वामपंथी सरकार बनाना आपका एक लक्ष्य जरूर है, दूरगामी लक्ष्य. लेकिन शायद इसके बीच एक मध्यवर्ती रास्ते से आपको गुजरना होगा सरकार के मामले में, एक लेफ्ट-डेमोक्रेटिक सरकार, वामपंथी लोकतांत्रिक सरकार के दौर से गुजरना ही पड़ेगा. इसके बाद ही शायद अगले दौर में वामपंथी सरकार बन सकेगी, हालांकि इसका प्रचार आप हमेशा करेंगे. तो एक वामपंथी-लोकतांत्रिक सरकार की संभावना के नारे को लेकर भी हम चल सकते हैं.

कुल मिलाकर यही मेरी बातें थी और अंततः मैं फिर दोहराऊंगा कि यह सब कुछ निर्भर करता है ऊपर से नीचे तक आपस में एक फौलादी एकता बनाने पर. मैं फौलादी एकता शब्द कह रहा हूं. क्योंकि जब युद्ध का समय आता है तब सेनावाहिनी के अंदर एक अलग तरह के अनुशासन की जरूरत होती है. इसके पहले तक बहसें करने राय-विचार करने सबका मौका रहता है. लेकिन जब युद्ध सामने चला आता है तब हमको लगता है कि एक सेनावाहिनी जिस तरह से आगे बढ़ती है, उस तरह से चलना होगा. युद्ध के पहले तक योजना पर, दिशा पर जितनी बहसें करनी हैं कर लीजिए. और यह कन्वेंशन इसी के लिए था. जिसने जो कहा, हमने सब सुना. युद्ध में उतरने से पहले तक जितनी बहसें करनी थीं, आलोचनाएं करनी थीं, दिशा के बारे में बातें करनी थीं, वह सब हो गया. और इसके बाद हम जिस दिशा और जिस लाइन के आधार पर एकमत होकर निकलेंगे उसपर जिस तरह से सेनावाहिनी युद्ध में एकताबद्ध होकर मार्च करती है, उसी ढंग से पूरी पार्टी को चलना होगा. तभी हम जीतें हासिल कर सकते हैं. जिस कार्यशैली का विकास हमने पिछली रैली के दौरान किया था, तमाम जगहों पर तमाम रिस्क लेते हुए भी हमलोगों ने अपने भाषणों में सचेत रूप से आक्रामक रवैया अपनाया था, अपनी कतारों के मनोबल को बढ़ाया था. हमारे नेताओं ने मोटर साइकिलें किनारे रखकर खुद व्यक्तिगत रूप से गांव-गांव में पैदल मार्च किया, घूमे. यह जो कार्यशैली विकसित हुई थी, उसको अपना कर अगर हम चलें तो हमने जो चुनौती अपने सामने रखी है वह बहुत ही सीमित है और उसको पा लेना कुछ भी कठिन नहीं है.