(1991 में प्रकाशित एक लोकप्रिय पुस्तिका)

सीपीआई(एमएल) का अभ्युदय : एक नई राह की शुरूआत

कम्युनिस्ट-आंदोलन के भीतर अवसरवादी और क्रांतिकारी धाराओं के दीर्घकालीन संघर्ष के क्रम में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सन् 1964 में पहली बार विभाजित हुई और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के रूप में एक नई पार्टी अस्तित्व में आई. लेकिन बहुत कम समय में ही क्रांतिकारीयों ने यह महसूस कर लिया कि नई पार्टी के नेतृत्व पर भी मध्यमार्गी प्रवृत्ति ने कब्जा जमा लिया है और यह भी उसी पुरानी अवसरवादी लाइन पर चलने के लिए कटिबद्ध है. पूरी पार्टी में अंतःपार्टी संघर्ष फूट पड़ा. बहरहाल, यह चारु मजुमदार ही थे, जिन्होंने 1965 और 1966 के दरमियान लिखे गए अपने सुप्रसिद्ध आठ दस्तावेजों के जरिए इस संघर्ष को ठोस रूप से आगे बढ़ाया.

इसी दौर में, जबकि देशव्यापी जन आंदोलनों का ज्वार उमड़ा हुआ था, 1947 के बाद की भारतीय राजनीति में पहला महत्वपूर्ण मोड़ भी दिखाई पड़ा. पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) के वर्चस्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार को सत्ता मिल गई और इसके साथ ही नेतृत्व की अवसरवाद की ओर रणनीतिक यात्रा पूरी हो गई. इसके विरोधी पहलू के बतौर क्रांतिकारी धारा अंतःपार्टी संघर्ष की सीमाओं को लांघकर जन संघर्षों को, विशेषकर किसान संघर्षों को क्रांतिकारी रणनीतिक दिशा पर आगे बढ़ाने के प्रयासों में जुट गई. चारु मजुमदार के नेतृत्व वाले पार्टी धड़े द्वारा संगठित नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह ने पहली बार सीपीआई(एम) के भीतर दो रणनीतिक परिप्रेक्षों और दो कार्यनीतिक लाइनों के बीच लड़ाई को निर्णायक मुठभेड़ के मुकाम तक पहुंचा दिया.

सामाजिक जनवादियों की विश्वासघाती परंपरा के अनुरूप ही सत्ता पर काबिज पार्टी ने इसका जवाब गोलियों से दिया, और इसके साथ ही, पार्टी के अंदर सुलगता विद्रोह दावानल की तरह फैल गया. समूचे भारत में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के छोटे-छोटे उभरते केंद्र ऑल इंडिया कोआर्डिनेशन कमेटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज (एआइसीसीआर) के इर्द-गिर्द गोलबंद होने लगे और इसके साथ सीपीआई(एम) में पहली बड़ी फूट पड़ी. 22 अप्रैल, 1969 को सीपीआई(एमएल) की स्थापना ने, इस नए केंद्र को संगठित और केंद्रित आकार प्रदान किया, सीपीआई(एमएल) की पहली कांग्रेस मई 1970 में कलकत्ता में हुई और का. चारु मजुमदार 21-सदस्यीय केंद्रीय कमेटी के महासचिव निर्वाचित हुए.

इसके बाद अगले दो वर्षों का इतिहास बहादुराना बलिदानों की गौरव-गाथा है, जिसकी मिसाल भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में अन्यत्र नहीं मिलती. चीनी क्रांति की तर्ज पर चुनिंदा ग्रामीण इलाकों में छापामार युद्ध, लाल सेना और आधार क्षेत्र विकसित करने के गंभीर प्रयास किए गए, इसको बल प्रदान कर रहा था छात्र-युवा आंदोलन – खासकर पश्चिम बंगाल और कलकत्ता शहर में चलने वाला मजबूत छात्र-युवा आंदोलन. इस आंदोलन ने भारतीय शासक वर्गों की उस विचारधारा की चूलें हिला दीं, जिसने तथाकथित बंगाली पुनर्जागरण के आगमन के साथ आकार लेना शुरू किया था.

बहरहाल, आश्चर्यजनक क्रांतिकारी भावना और तीव्रता के बावजूद सीपीआई(एमएल) आंदोलन का यह पहला दौर भारतीय समाज के क्रांतिकारीकरण की जटिल समस्याओं का कोई विस्तृत और मुकम्मल हल पेश करने में सफल नहीं हो पाया. जल्दी ही आंदोलन को अभूतपूर्व सरकारी दमन के सामने गंभीर धक्का झेलना पड़ा.

सत्तर के दशक का मध्य : टूट-फूट और भ्रम के बीच भी पार्टी जिंदा रही

1972 के मध्य तक पार्टी लगभग पूरी तरह गतिहीन हो चुकी थी. बची हुई पार्टी-शक्तियाँ बिखरी हुई अलग-थलग पड़ी थीं और पार्टी लाइन के सवाल पर चारों तरफ भ्रम छाया हुआ था.

इसी मोड़ पर 28 जुलाई 1974 को कामरेड चारु मजुमदार की शहादत की दूसरी बरसी पर नई केंद्रीय कमेटी गठित की गई. कमेटी में केवल तीन लोग थे – महासचिव कामरेड जौहर, कामरेड विनोद मिश्र और कामरेड रघु. इस नई केंद्रीय कमेटी को भोजपुर और पटना जिले के अनेक प्रखंडों में विकासमान किसान संघर्षों का संचालन कर रही पुनर्गठित बिहार राज्य कमेटी, पार्टी को जिंदा रखने में जी-जान से जुटी नवगठित पश्चिम बंगाल राज्य नेतृत्वकारी कमेटी और पूर्वी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के कामरेडों से एक हिस्से का विश्वास हासिल था.

बहरहाल, जल्दी ही पार्टी को फिर एक बड़े धक्के का सामना करना पड़ा. बिहार में कई नेता, कार्यकर्ता और योद्धा पुलिस मुठभेड़ों में मारे गए. नवंबर 1974 में पार्टी के महासचिव कामरेड जौहर भी भोजपुर के एक गांव में दुश्मन के हमले का मुकाबला करते हुए शहीद हो गए. तब कामरेड वीएम ने महासचिव का पदभार ग्रहण किया और 1976 में बिहार के गया जिले के एक गांव में पार्टी की दूसरी कांग्रेस संपन्न हुई. कांग्रेस में ग्यारह सदस्यी केंद्रीय कमेटी का चुनाव हुआ और का. वीएम इसके महासचिव चुने गए. वही पार्टी आगे चल कर अपने अंग्रेजी मुखपत्र के नाम पर सीपीआई(एमएल) लिबरेशन ग्रुप के नाम से जानी गई.

1977 तक पार्टी पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों पर हथियारबंद छापामार आक्रमण चलाने और क्रांतिकारी कमेटियों के जरिए जनता की राजनीतिक सत्ता संगठित करने पर विशेष जोर देते हुए मूलतः पुरानी लाइन पर ही अमल करती रही. बिहार के भोजपुर और पटना जिलों, पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी और बांकुड़ा जिलों तथा उत्तर प्रदेश के गाजीपुर और बलिया जिलों में आंदोलन तेज करने के लिए एक-के-बाद-एक प्रयास किए गए. लेकिन वीरतापूर्ण कार्यवाहियों और महान बलिदानों के बावजूद, लाइन के मूलतः वाम-दुस्साहसवादी होने के कारण जन-पहलकदमी को किसी महत्वपूर्ण पैमाने तक उन्मुक्त नहीं किया जा सका और न ही पार्टी अपने गंभीर प्रयासों की उपलब्धियों को सुदृढ़ कर सकी.

सारे देश की जनता के लिए वे अंधकार के दिन थे, जब इमर्जेंसी के जरिए असीम दमन को संस्थाबद्ध कर दिया गया था. और ऐसे में हमारे बहादुराना प्रतिरोध, विशेषकर भोजपुर में, वस्तुतः इमर्जेंसी-विरोधी आंदोलन के अंग बन गए. सैद्धांतिक तौर पर भी, पार्टी कांग्रेस-विरोधी संयुक्त मोर्चे की अवधारणा पर अडिग तो थी, लेकिन इसे कोई अमली शक्ल नहीं दी जा सकी.

बहरहाल, जबकि सीपीआई ने खुद को कांग्रेस का दुमछल्ला बना रखा था, सीपीआई(एम) पूरी तरह से नाकारा हो गई थी और सीपीआई(एमएल) के अन्य खेमे मुकम्मल बिखराव की स्थिति में थे, उस दौर में समूचे वामपंथी खेमे में एकमात्र हमारे ग्रुप ने चरम दमन की उन परीक्षा भरी घड़ियों में भी लाल झंडे को ऊंचा उठाए रखा. स्वभावतः, 1977 में अंतिम रूप से पर्दा हटने ही भोजपुर के क्षितिज पर चमकते लाल सितारे और हमारे छोटे-से ग्रुप की ओर सारे देश के क्रांतिकारियों और नवजीवन से अनुप्राणित भारतीय मीडिया का भी ध्यान आकर्षित हुआ. इसी बीच असम और त्रिपुरा में भी पार्टी का काम फैला तथा आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु व केरल के कामरेड भी पार्टी में आ जुड़े. 1979 तक हमारी पार्टी ने एक अखिल भारतीय चरित्र ग्रहण कर लिया.

पुरानी गलतियों के शुद्धीकरण से हासिल नई ताकत

1978 में पार्टी ने एक शुद्धीकरण आंदोलन शुरू किया. शुरू तो यह महज कार्यशैली को दुरुस्त करने के सीमित उद्देश्य से हुआ था,  लेकिन शुद्धीकरण की प्रबल भावना ने राजनीतिक लाइन को भी अपने दायरे में समेट लिया. पार्टी-लाइन और व्यवहार में विराट परिवर्तन होने लगे, जिन्हें अंततः जुलाई 1979 में भोजपुर जिले के एक गांव में संपन्न विशेष पार्टि-सम्मेलन में ठोस रूप से सूत्रबद्ध किया गया. सम्मेलन ने जन संगठनों के जरिए खुली जनकार्यवाही चलाने का निर्णय किया.

इस मोड़ पर आंदोलन के भीतर दो धाराओं का वाद-विवाद तीखा हो गया. एक के प्रतिनिधि हम थे, जबकि दूसरी तरफ था प्रोविजनल सेंट्रल कमेटी (पीसीसी) नाम का गुट. पीसीसी उनके गुटों का एक अवसरवादी गठबंधन था और अतीत की सारी गलतियों से पीछा छुड़ाने का शोर मचा कर काफी ख्याति और समर्थन अर्जित कर चुका था. इसकी केंद्रीय हस्ती श्री सत्यनारायण सिंह ने 1970 में ही आंदोलन से पल्ला झाड़ लिया था और वे बुर्जुआ नेताओं से सांठगांठ करने में व्यस्त हो गए थे. इमर्जेंसी में वे जयप्रकाश के पीछे-पीछे चलने की वकालत करते रहे; 1977 में तत्कालीन गृहमंत्री चरण सिंह के साथ उन्होंने एक समझौता किया, जिसके अनुसार हिंसा छोड़ देने की शपथ लेने पर नक्सली बंदियों को छोड़ा जाना था; और अंततः कांग्रेस-विरोधी कुलकों और बड़े बुर्जुआ के साथ एकता के पैरोकार के बतौर उन्होंने विदाई ली.

हमने शुरू में ही बता दिया था कि पीसीसी की समूची अवधारणा विलोपवादी है और इसकी असली मंशा दरअसल आंदोलन की मूल क्रांतिकारी आत्मा को ही ‘शुद्ध’ कर देने की है. हमने यह भी भविष्यवाणी की थी कि विभिन्न कुंठित गुटों का यह गठजोड़ ज्यादा दिन नहीं चलेगा. बहरहाल, पीसीसी ने एकता का जो आभास दिया और संघर्ष तथा संगठन के क्षेत्र में बहुप्रतीक्षित सुधारों की जो प्रक्रिया शुरू की, उसके चलते क्रांतिकारी शक्तियों की एक भारी संख्या को यह अपनी ओर आकर्षित करने में सफल तो रही; लेकिन जल्दी ही यह अपने स्वघोषित सिद्धांतकारों की बेतुकी अवधारणाओं के जाल में जा फंसी और जितने गुटों से मिलकर बनी थी उससे ज्यादा गुटों में बिखर गई.

इसी बीच, हमारी पार्टी द्वारा एकीकृत व संगठित ढंग से चलाये गये शुद्धीकरण अभियान के सुपरिणाम आने शुरू हो गए. जन-कार्यवाहियों के विभिन्न खुले रूपों को ग्रहण करने के चलते किसानों का जुझारू प्रतिरोध आंदोलन विस्तार और तीव्रता दोनों ही लिहाज से नई ऊंचाइयों को छूने लगा और पीसीसी से क्रांतिकारी तत्व हमारी पार्टी की तरफ आने लगे. इस तरह पीसीसी की चुनौती समाप्त हो गई.

दूसरी विलोपवादी कलाबाजी नक्सलबाड़ी के एक महत्वपूर्ण नेता कानू सान्याल ने दिखाई. वे सीपीआई(एमएल) और उसकी विरासत की खुली निंदा करते हुए सीपीआई(एमएल)-पूर्व कोऑर्डिनेशन युग की वापसी की दलीलें देने लगे. बहरहाल, वे बचे-खुचे तत्वों को ही गोलबंद कर सके और हमारे संगठन के लिए कभी कोई गंभीर चुनौती नहीं पेश कर सके.

इन विलोपवादी हमलों के खिलाफ संघर्ष करते हुए ही, हम अंततः सीपीआई(एमएल) के सबसे बड़े ग्रुप के रूप में उभरे.

आईपीएफ का निर्माण राजनीतिक दावेदारी की दिशा में एक नई छलांग

अब तक पार्टी के अंदर राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में दावेदारी की आवश्यकता को शिद्दत के साथ महसूस किया जाने लगा था. केंद्र में पहले गैर-कांग्रेसी प्रयोग की असफलता और इंदिरा शासन की पुनर्वापसी के साथ राष्ट्रीय राजनीतिक विकल्प के सवाल पर राष्ट्रीय बहस की शुरूआत हो चुकी थी. इस जारी बहस में क्रांतिकारी जनवादी प्रस्थापना से हस्तक्षेप करने के लिए हमने एक जन राजनीतिक संगठन की स्थापना करने का निर्णय किया.

इस मंच के निर्माण में अन्य क्रांतिकारी संगठनों का सहयोग व उनकी भागीदारी हासिल करने के लिए द्विपक्षीय तथा बहुपक्षीय – सभी स्तरों पर गंभीर प्रयास चलाए गए. सभी महत्वपूर्ण गुटों समेत तेरह कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठनों की एक बैठक 1981 में हमारी पार्टी द्वारा बुलाई गई. यह प्रयास आंदोलन को एकताबद्ध करने का अब तक का पहला और अंतिम प्रयास रहा. इसी समय हमने गैर-पार्टी जन आंदोलनों की उभरती मध्यवर्ती शक्तियों के साथ बड़े पैमाने पर प्रारस्परिक क्रिया की शुरूआत की. इन सभी प्रयासों की परिणति इंडियन पीपुल्स फ्रंट के गठन में हुई – जो नई दिल्ली में 24 से 26 अप्रैल के दरमियान एक त्रिदिवसीय सम्मेलन के जरिए संपन्न हुआ.

1982 के दिसंबर में बिहार के गिरिडीह जिले के एक गांव में पार्टी की तीसरी कांग्रेस संपन्न हुई. इस कांग्रेस का चरित्र काफी हद तक व्यापक प्रतिनिधित्व वाला था. कांग्रेस ने सत्रह पूर्ण एवं आठ वैकल्पिक सदस्यों वाली एक केंद्रीय कमेटी का चुनाव किया. केंद्रीय कमेटी ने का. वीएम को पुनः अपना महासचिव चुना. तीखी बहस के बाद कांग्रेस ने चुनाव में भाग लेने की कार्यनीति को हरी झंड़ी दिखा दी. तथापि, किसान प्रतिरोध के संघर्षों को मुख्य कड़ी के बतौर ग्रहण करने के निश्चय की पुनः पुष्टि करते हुए संसदीय कार्यवाहियों को गैर-संसदीय जनसंघर्षों के मातहत रखने का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया गया. 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव, पार्टी द्वारा लड़े गए पहले चुनाव थे – बेशक, आईपीएफ के बैनर तले.

आईपीएफ के गठन ने पार्टी के सामने राजनीतिक पहलकदमी और अग्रगति के नए द्वार खोल दिए, विभिन्न राज्यों की राजधानियों में लगभग तमाम महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर बड़ी-बड़ी रैलियां व प्रदर्शन आयोजित करना हमारे पार्टी-व्यवहार का अभिन्न अंग बन गया. मूर्तीकरण की दुनिया से राजनीतिक कार्यवाहियों की ठोस दुनिया में पार्टी ने अपना पहला महत्वपूर्ण कदम रखा और इस प्रक्रिया में अपने न्यूनतम कार्यक्रम पर आधारित राजनीतिक संघर्षों के आगोश में व्यापक जनसमुदाय को खींच लिया. जहां जन राजनीतिक संगठन में पार्टी के राजनीतिक दिशा-निर्देश और दृढ़ कम्युनिस्टों को इसके विभिन्न नेतृत्वकारी पदों पर भेजने के जरिए इसमें कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व की गारंटी की गई; वहीं जन-राजनीतिक संगठन ने सामाजिक एवं राजनीतिक शक्तियों की विभिन्न धाराओं के साथ व्यापक पारस्परिक क्रिया का अवसर मुहैया कराया, जिससे पार्टी को अपने सामाजिक आधार एवं प्रभाव के विस्तार में मदद मिली.

एक लोकप्रिय जन-क्रांतिकारी पार्टी की शक्ल में संयुक्त मोर्चे का विशिष्ट रूप आईपीएफ – सिद्धांत और व्यवहार दोनों लिहाज से भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में हमारी पार्टी की एक अन्यतम उपलब्धि है. भारतीय राजनीति में यह अपनी जगह बना चुका है और पार्टी की सारी व्यावहारिक राजनीतिक गतिविधियों को इसके जरिए अंजाम दिया जाता है.

चौथी पार्टी कांग्रेस और वाम-महासंघ का आह्वान

चौथी पार्टी-कांग्रेस 1988 की जनवरी में बिहार के हजारीबाग जिले के एक गांव में संपन्न हुई. बदलती परिस्थितियों तथा अपनी विकसित समझदारी के अनुरूप, पार्टी ने पुराने पड़ चुके विचारों तथा घिसी-पिटी अवस्थितियों में आमूलचूल रद्दोबदल करके भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में प्रवेश करने और उसे बदल देने की राह खोल दी, कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों, यानी नक्सल गुटों के साथ एकता-प्रयासों के उबाऊ दौर को छोड़ते हुए पार्टी ने मुख्यधारा वामपंथी पार्टियों के साथ पारस्परिक क्रिया आरंभ करने का निश्चय किया तथा वाम-जनवादी महासंघ का आह्वान जारी किया. कांग्रेस ने 21 सदस्यीय केंद्रीय कमेटी का चुनाव किया और केंद्रीय कमेटी ने 7 सदस्यीय पॉलिट ब्यूरो तथा कामरेड वीएम को महासचिव निर्वाचित किया.

1970 के दशक का सीपीआई(एमएल) आंदोलन अब तक दो स्पष्ट धाराओं में विभाजित हो चुका था – एक वह, जिसका प्रतिनिधित्व हमारी पार्टी करती है, और जिसने सिद्धांत और व्यवहार दोनों क्षेत्रों में, अराजकतावादी भटकाव के खिलाफ सुसंगत और मुकम्मल संघर्ष के जरिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद को पुर्नस्थापित किया, तथा पार्टी को कम्युनिस्ट विरासत – क्रांतिकारी जन संघर्षों और सर्वांगीण राजनीतिक पहलकदमियों के रास्ते पर ला खड़ा किया; और दूसरे वह, जिसका प्रतिनिधित्व माओवादी कम्युनिस्ट केंद्र, सेकंड सेंट्रल कमेटी, पार्टी यूनिटी, पीपुल्सवार तथा पीसीसी के चंद गुटों जैसे ढेर सारे ग्रुप करते हैं और जिसने अराजकतावादी भटकावों को एक पूर्ण विकसित सैद्धांतिक जामा पहना दिया है. समग्र सीपीआई(एमएल) आंदोलन के भीतर इस अराजकतावादी प्रवृत्ति ने पिछले कुछ वर्षों में अपने-आपको सुदृढ़ कर लिया है और वह पार्टी की अग्रगति की राह में मुख्य चुनौती बनकर सामने आई है.

बहरहाल, पार्टी के भीतर अराजकतावादी भटकाव के खिलाफ संघर्ष के दौरान हमें विलोपवाद के खिलाफ भी गंभीर लड़ाई छेड़नी पड़ी. चौथी कांग्रेस के फौरन बाद विलोपवादी प्रवृत्ति ने पार्टी के भीतर अपना सिर उठाया. दक्षिणपंथी आत्मसमर्पणवादी दृष्टिकोण से आरंभ करते हुए, इस प्रवृत्ति ने अवसरवादी वामपंथ से हमारी पार्टी के बुनियादी फर्क को ही मिटा देने की कोशिश की. यह प्रवृत्ति यहीं आकर नहीं रुकी, बल्कि जल्दी ही क्रांतिकारी और उदारवादी जनवाद के बीच के तमाम फर्क को मिटा देने की हद तक चली गई, सोवियत यूनियन तथा पूर्वी यूरोप की घटनाओं से प्रोत्साहन पाकर यह प्रवृत्ति मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी को ही तिलांजलि देने की मांग करने लगी एवं घोर सुधारवादी कार्यक्रम की वकालत करने लगी, ताकि सरकारी और निजी एजेंसियों के विकास-कार्यक्रम की मदद के लिए एक सूचना-बैंक निर्मित किया जा सके.

हमारी पार्टी ने इस विलोपवादी प्रवृत्ति को दृढ़ता से पराजित किया तथा पार्टी में विभाजन पैदा करने के तमाम प्रयासों को नाकाम कर दिया, सच कहा जाए तो, चौथी पार्टी-कांग्रेस के बाद के वर्षों में हमारी पार्टी में गुणात्मक विकास हुआ है. 1989 के संसदीय चुनावों में हम पहला मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रतिनिधि संसद के अंदर भेजने में सफल रहे और 1990 के विधानसभा चुनावों में बिहार विधानसभा में अच्छा-खासा विधानसभाई ग्रुप निर्मित कर सके हैं.

आईपीएफ द्वारा राजधानी में आयोजित 8 अक्तूबर 1990 की राष्ट्रीय रैली हमारी सबसे उल्लेखनीय सफलता रही है. इसने क्रांतिकारी मार्क्सवाद की अमिट प्रासंगिकता को पुनःस्थापित किया तथा राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में क्रांतिकारी वामपंथ के बढ़ते कद को अभिव्यक्ति दी. लाखों लोगों के इस विशाल प्रदर्शन से वामपंथी खेमे में शक्तियों के पुनर्संयोजन की एक प्रक्रिया भी चल पड़ी है. इसने दो कार्यनीतिक लाइनों तथा वाम एकता की दो अवधारणाओं के बीच के संघर्ष को सतह पर ला दिया है कि क्या भारतीय समाज एवं राजनीतिक तंत्र के रूपांतरण के लिए वामपंथ को बुर्जुआ वर्ग और बुर्जुआ संस्थाओं पर भरोसा करना चाहिए?

बिहार, उत्तर प्रदेश तथा बंगाल में काफी बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट शक्तियां सीपीआई-सीपीआई(एम) छोड़कर क्रांतिकारी जनवाद के परचम तले एकजुट हो रही हैं; जबकि तकरीबन सभी प्रमुख वामपंथी पार्टियों के साथ औपचारिक संबंध विकसित किए जा रहे हैं तथा संयुक्त कार्यवाहियों व वाम-महासंघ के लिए सभी रास्तों की तलाश जारी है.

सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) के बीच बुनियादी फर्क की समझ

यहां पर हमारी पार्टी और सीपीआई(एम) के बीच के फर्क को दोहरा लेना उचित होगा. भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के अवसरवादी रास्ते की पहचान सर्वप्रथम भारतीय बुर्जुआ के चरित्र-निर्धारण से जुड़ी हुई है. वे लोग शब्दों और जुमलों की तरह-तरह की बाजीगरी की आड़ लेकर, मूलतः भारतीय बुर्जुआ के ‘राष्ट्रीय’ चरित्र पर ही जोर देते हैं और इसके जरिए उसके साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी संघर्षों का नेतृत्व करने तथा भारतीय समाज का रूपांतरण करने की क्षमता को रेखांकित करते हैं. इस सिद्धांत ने उन्हें सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के बीच के अंतरविरोधों को अत्यंत बढ़ा-चढ़ा कर देखने तथा विभिन्न बुर्जुआ-जोतदार पार्टियों का पिछलग्गू बनने की वकालत करने की हद तक पहुंचा दिया – कभी फासीवाद विरोधी मोर्चे के नाम पर, तो कभी जनवादी व धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के नाम पर.

यह अवसरवाद अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में (अमरीकी) साम्राज्यवाद और (रूसी) समाजवाद के बीच के अंतर्विरोधको प्रधान अंतर्विरोधमानता है. अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में यह प्रधान अंतर्विरोधदेश की अंदरूनी परिस्थिति में, भारतीय बुर्जुआ के तथाकथित साम्राज्यवाद-विरोधी चरित्र वाले सिद्धांत को जायज ठहराता है, क्योंकि भारतीय पूंजीपति वर्ग ने सोवियत ब्लाक के साथ हमेशा नजदीकी रिश्ते बरकरार रखे है.

तीसरे, और भारतीय बुर्जुआ के चरित्र-निर्धारण की उनकी समझ के स्वाभाविक अंग के बतौर, यह अवसरवादी धारा जनवादी रूपांतरण की मुख्य शक्ति के रूप में मेहनतकश किसानों के व्यापक जनसमुदाय को संगठित करने से मुकर जाती है. इसके विपरीत, कुलक लॉबी के साथ इसने एक समझदारी विकसित कर ली है – एक ऐसी समझदारी, जो विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों के साथ इसके स्थाई राजनीतिक रिश्तों का मुख्य आधार है.

अंत में, पहली तीन बातों के निष्कर्ष के बतौर ही, यह अवसरवादी धारा देश में आवश्यक सामाजिक सुधारों के लिए मौजूदा बुर्जुआ संस्थाओं पर भारी भरोसा करती है. इस निर्भरता ने अवसरवादी वामपंथ को उस मर्ज का शिकार बना दिया है, जिसे लेनिन संसदीय बौनापन कहा करते थे.

इसके विपरीत, क्रांतिकारी धारा ने भारतीय बुर्जुआ के दलाल चरित्र पर हमेशा जोर दिया है; अर्थात् इस बात पर जोर दिया है कि साम्राज्यवाद-विरोधी एवं सामंतवाद-विरोधी संघर्षों का नेतृत्व करना एकमात्र सर्वहारा का ही कार्यभार है और बुर्जुआ पर निर्भरता हमें कहीं का नहीं रखेगी. साम्राज्यवाद और तीसरी दुनिया के बीच के अंतर्विरोधकी प्रधानता की इसकी समझदारी ने इसे सोवियत ब्लॉक से नजदीकी के आधार पर नहीं, वरन् तीसरी दुनिया के हितों के साथ प्रतिबद्धता तथा क्षेत्रीय एकता की स्वतंत्र कसौटी पर भारतीय बुर्जुआ के ‘साम्राज्यवाद-विरोध’ को परखने में भी मदद पहुंचाई है. इसने कृषि क्रांति को जनवादी क्रांति की धुरी माना है तथा अपना मुख्य जोर खेतिहर मजदूरों व मेहनकश किसानों के जुझारू जनसंघर्षों को संगठित करने पर दिया है. संसदीय बौनेपन के ठीक विपरीत, इसने प्राथमिक रूप से गैर-संसदीय संघर्षों पर ही भरोसा किया है.

अवसरवादी और क्रांतिकारी धाराओं के बीच संघर्ष के ये अनिवार्य मापदंड हैं. हम इसे भारतीय परिस्थितियों में मेन्शेविक और बोल्शेविक कार्यनीतियों के बीच महाविवाद का जारी रूप कह सकते हैं.

1964 से आज तक का सीपीआई (एम) का विकास अवसरवादी रास्ते पर जारी उनकी यात्रा की गवाही दे रहा है. जबकि, सीपीआई द्वारा अपने अवस्थाओं में कुछ कार्यनीतिक समायोजन कर लेने, अंतरराष्ट्रीय मतभेदों के परदे के पीछे चले जाने, और लगभग सभी महत्वपूर्ण सवालों पर दोनों पार्टियों के मुश्तरका सफर के बाद, 1964 के विभाजन का समूचा तर्क ही आज सवालों के घेरे में आ गया है. दूसरी तरफ, सीपीआई(एम) आंतरिक विक्षोभ के एक नए दौर से गुजर रही है और पार्टी छोड़नेवाली लगभग सभी विक्षुब्ध ताकतें पार्टी-नेतृत्व पर 1964 के कार्यक्रम से भटकने एवं इस तरह 1964 के विभाजन को उसके राजनीतिक औचित्य से वंचित कर देने का आरोप लगा रही हैं.

दूसरी तरफ, क्रांतिकारी अवस्थिति को खींचकर इसके विपरीत ध्रुव पर पहुंचा दिया गया. भारतीय बुर्जुआ के दलाल चरित्र को इस कदर खींचा गया कि उसका मतलब बुर्जुआ के किसी भी हिस्से के साथ किसी भी तरह के कार्यनीतिक तालमेल का संपूर्ण नकार लगाया गया. तीन दुनिया के सिद्धांत के प्रति अंध-आस्था पैदा होने का संपूर्ण नकार लगाया गया. तीन दुनिया के सिद्धांत के प्रति अंध-आस्था पैदा होने के फलस्वरूप अंतरराष्ट्रीय नजरिया भी विकृति का शिकार हो गया और उसे सोवियत सामाजिक-साम्राज्यवाद के खिलाफ हर तरह की अमेरिकापरस्त शक्तियों और यहां तक कि कुछ विशेष परिस्थितियों में खुद अमेरिका के साथ गठजोड़ करके विश्वव्यापी मोर्चा बनाने की बेतुकी हद तक पहुंचा दिया गया. कृषि क्रांति की परिकल्पना हूबहू चीनी रास्ते पर की जाने लगी और गैर-संसदीय संघर्ष की प्राथमिकता का अर्थ संसदीय संघर्षों की समूची धारा का शाश्वत बहिष्कार मान लिया गया. यह समझ क्रांतिकारी उभार की परिस्थिति में तो कुछ हद तक भले ही काम कर गई, लेकिन आंदोलन की रक्षात्मक वापसी के बिलकुल बदले हुए दौर में भी जब इन नारों से चिपके रहने की हताश कोशिशें की गईं, तो कोरी अराजक लफ्फाजी के सिवा कुछ भी हासिल नहीं हुआ.

बहुआयामी गतिविधियां और खुले पार्टी-व्यवहार की दोबारा शुरुआत

समाजवाद के इस संकट के दौर में, बुर्जुआ के नित नए आक्रमण से मार्क्सवाद-लेनिनवाद की रक्षा करने की चुनौती जब सामने आई, तो उसे स्वीकार करने के लिए 1990 की जुलाई में दिल्ली में किए गए अपने विशेष सम्मेलन के जरिए पार्टी ने लगभग 20 वर्षों बाद पुनः खुले रूप में काम करने का निर्णय लिया. तदनुरूप, इसके केंद्रीय व प्रांतीय मुखपत्रों का खुला प्रकाशन शुरू हो चुका है; पार्टी बैनर तले खुली रैलियां व प्रदर्शन हो रहे हैं; मार्क्सवाद की रक्षा में सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं और अधिकाधिक लोगों को बुनियादी मार्क्सवादी शिक्षा प्रदान करने तथा जनसंघर्षों से उभरे तत्वों की भारी संख्या को पार्टी में भर्ती करने के अभियान शुरू किए गए हैं.

पार्टी ने ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस (एक्टू) नाम से अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन की भी शुरूआत की है तथा वह अपनी राज्य-स्तरीय किसान सभाओं की गतिविधियों के संयोजन के लिए एक राष्ट्रीय निकाय के निर्माण की तैयारी कर रही है. छात्र मोर्चे पर ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के नाम से अखिल भारतीय संगठन की शुरूआत पहले ही की जा चुकी है; जबकि महिला एवं सांस्कृतिक मोर्चे पर अखिल भारतीय संगठनों का गठन करना आगामी वर्षों की विषय सूची में शामिल है.

अपने मुखपत्रों, आईपीएफ के मुखपत्रों तथा पटना से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक – समकालीन जनमत जैसी लोकप्रिय जनवादी पत्रिकाओं के जरिए पार्टी ने एक प्रचार-तंत्र भी निर्मित किया है. 1986 में इसने बिहार के धधकते खेत-खलिहानों की दास्तान – राज्य की बदलती कृषि एवं सामाजिक परिस्थितियों की रोशनी में बिहार के विकासमान क्रांतिकारी किसान आंदोलन की एक आलोचनात्मक समीक्षा – का प्रकाशन किया था. पुस्तक देश-विदेश के क्रांतिकारी व अकादमिक क्षेत्रों में व्यापक रूप से सराही गई थी. फिलहाल, पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास का एक गहन अध्ययन करने में लगी हुई है, जिसे पांच खंडों में प्रकाशित करने की योजना है.

पार्टी ने असम के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक क्षेत्र कार्बी आंग्लांग में ‘ऑटोनॉमस स्टेट डिमांड कमेटी’ के नाम से एक जनराजनीतिक संगठन का भी निर्माण किया है तथा स्वायत्त जिला प्रशासन समेत सभी महत्वपूर्ण गतिविधियों का वह दिशा-निर्देश करती है. हम राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की विशिष्ट समस्याओं पर विशेष गौर करते हैं तथा विभिन्न राष्ट्रीयताओं, दलितों, पिछड़ों, धार्मिक अल्पसंख्यकों की सभी न्यायोचित मांगों का सम्मान करते हैं; लेकिन हम आंदोलन को किसी आंशिक दायरे में सीमित कर देने के प्रयास के बिलकुल खिलाफ हैं; तथा भारतीय जनता की विशाल बहुसंख्या की एकता एवं देश के रूप में भारत की एकता के लिए कटिबद्ध हैं.

पार्टी क्रांतिकारी किसान-संघर्ष चलाने और जमींदारों, कुलकों की निजी सेनाओं तथा राज्य के आक्रमण के खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध संगठित करने को सर्वोच्च प्राथमिकता देना जारी रखे हुई है. हमारी पार्टी का ध्येय वाक्य है – बुनियादी स्तर पर जनसमुदाय की क्रांतिकारी चेतना, गोलबंदी और जुझारूपन को लगातार उन्नत करना – और यही हर तरह के अवसरवाद, सामाजिक जनवादी और नौकरशाही भटकाव के खिलाफ एकमात्र गारंटी है.
आत्मनिर्भरता एवं परस्पर-अहस्तक्षेप की नीतियों पर आधारित बिरादराना रिश्ते

1970 दशक के मध्य से ही नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) से हमारा घनिष्ठ बिरादराना संबंध रहा है. परस्पर सम्मान और एक दूसरे से सीखने की भावना, परस्पर अहस्तक्षेप की नीति का कड़ाई से पालन और भारतीय प्रभुत्ववाद की प्रत्येक अभिव्यक्ति का विरोध करने की हमारी प्रतिबद्धता – इन रिश्तों की बुनियाद है.

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के आमंत्रण पर पार्टी के दो शिष्टमंडल 1979 एवं 1980 में चीन की यात्रा पर गए. फिलीपींस तथा पेरू की कम्युनिस्ट पार्टीयों व जनवादी संगठनों के साथ भी हम कामरेडाना रिश्ते रखते आए हैं. दूसरे देशों के अपने मित्रों के साथ संबंध विस्तार की अब कहीं ज्यादा संभवनाएं हैं और हम दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों व क्रांतिकारी जनवादी आंदोलनों के साथ घनिष्ठ रिश्तों की अवश्य ही आकांक्षा रखते हैं.

फिर भी, आत्मनिर्भरता के उस बुनियादी सिद्धांत को, जिसे हमने अतीत में हमेशा बुलंद किया है, भविष्य में भी बुलंद करना जारी रखेंगे. हमने किसी भी विदेशी ताकत अथवा विदेशी धन से चालित-संपोषित घरेलू स्वयंसेवी संगठनों से किसी प्रकार के आर्थिक सहयोग की पेशकश को लगातार व सचेतन ढंग से ठुकरा दिया है और भविष्य में भी हम इसे ठुकराते रहेंगे. हम किसी भी पार्टी से निर्देशित होने से इनकार करते रहे हैं और हम-हमेशा भारतीय परिस्थितियों के अपने स्वतंत्र अध्ययन के आधार पर ही अपनी योजनाओं, नीतियों एवं कार्यवाहियों को तय करते रहे हैं.

सीपीआई(एमएल) लिबरेशन : भारत की क्रांतिकारी कम्युनिस्ट विरासत का सच्चा वारिस

इन तथ्यों की रोशनी में कि सीपीआई(एमएल) लिबरेशन ऐसा एकमात्र सीपीआई(एमएल) ग्रुप है जिसने :

1. 1974 में अपने पुनर्गठन के बाद से अपनी एकता व निरंतरता बरकरार रखी है;

2. जिसके पास असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, दक्षिणी उड़ीसा (कोरापुट-गंजाम क्षेत्र), तटीय आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दक्षिण केरल, बंगलौर, बंबई, छत्तीसगढ़, दिल्ली,पंजाब, उत्तर प्रदेश, तथा बिहार तक विस्तृत एक अखिल भारतीय सांगठनिक ढांचा है;

3. जिसने क्षेत्रीय व जिला स्तरों तक नियमित कांग्रेस व सम्मेलन किए हैं तथा जो विभिन्न स्तरों पर बाकायदा निर्वाचित निकायों द्वारा संचालित होता है;

4. पार्टी कतारों की चेतना उन्नत करने तथा विभिन्न पार्टी-गतिविधियों के संचालन में उनकी अधिकाधिक भागीदारी की गारंटी करने के लिए नियमित पार्टी-शिक्षा, शुद्धीकरण तथा सुदृढ़ीकरण अभियान संचालित किए हैं;

5. अंग्रेजी व हिंदी में केंद्रीय मुखपत्रों के साथ-साथ प्रांतीय मुखपत्र, पार्टी-प्रचार पुस्तिकाएं एवं विभिन्न पत्रिकाओं का नियमित प्रकाशन जारी रखा है;

6. जो संसदीय कार्यवाहियों से सशस्त्र संघर्षों तक, संघर्ष के तमाम रूपों पर अमल करता है और गुप्त एवं भूमिगत संगठनों से लेकर व्यापकतम संभव खुले संगठनों के समूह को संचालित करता है; सभी मोर्चों एवं जीवन के सभी क्षेत्रों में जन-कार्यवाहियां संचालित करता है तथा विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के साथ संयुक्त कार्यवाहियां करता है, और सर्वोपरि, इन सबको जन संघर्षों की एक विकासमान धारा के साथ जोड़ देता है; और

7. जो अनेक देशों के कम्युनिस्ट एवं जनवादी आंदोलनों के साथ बिरादराना एवं मैत्रीपूर्ण संबंध रखता है – अतः, हम आमतौर पर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन और खासकर सीपीआई(एमएल) की क्रांतिकारी धारा के सच्चे वारिस होने का दावा करते हैं – एक ऐसी पार्टी के रूप में, जो सीपीआई(एमएल) का प्रतिनिधित्व करती है और उसकी ओर से कार्य करती है.

 [लिबरेशन के मई, जून और जुलाई 1993 के अंकों में तीन भागों में प्रकाशित पार्टी के संक्षिप्त इतिहास के अंश]

1960 के दशक के पूर्वार्ध में अंतररार्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में चल रहे महाविवाद के दौरान सीपीआई का पहला विभाजन 1964 में हुआ और सीपीआई (एम) का जन्म हुआ. आम जनता के लिए सीपीआई रूसपंथी और सीपीआई (एम) चीनपंथी थी. सीपीआई की विशिष्ट पहचान भी राष्ट्रीय जनवाद की लाइन. इसका मतलब था कि भारत के जनवादी रूपांतरण का नेतृत्व राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग करेगा. सीपीआई की नजरों में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग अर्थात् भारतीय पूंजीपति वर्ग के साम्राज्यवाद-विरोधी, इजारेदारी-विरोधी हिस्से का प्रतिनिधित्व नेहरू के नेतृत्ववाली कांग्रेस करती थी. लिहाजा कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यभार बना भारतीय पूंजीपति वर्ग के इजारेदार हिस्सों के खिलाफ राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के पीछे गोलबंद होना और बहुत हुआ तो उसके ढुलमुलपन के खिलाफ दबाव ग्रुप की भूमिका निभाना. दूसरी ओर सीपीआई(एम) की विशिष्ट पहचान थी उसकी जनता के जनवाद की लाइन. जिसका मतलब था लोकप्रिय जन आंदोलनों और खासकर किसान संघर्षों के निर्माण पर जोर देना तथा नेहरूपंथी कांग्रेस के साथ किसी भी किस्म के संश्रय को खारिज करना.

क्रांति के रास्ते के बारे में सीपीआई ने संसदीय बहुमत की प्राप्ति को एकमात्र व्यावहारिक विकल्प बतलाया, जबकि सीपीआई(एम) ने संसदीय जनवाद की केवल एक सीमित भूमिका स्वीकार की, जहां कम्युनिस्ट सरकारी सत्ता अधिक-से-अधिक कुछेक राज्यों में ही पा सकते हैं. सीपीआई(एम) का कहना था कि ऐसी सत्ता का इस्तेमाल आम जनता को पूंजीवादी राज्य व्यवस्था की सीमाबद्धताओं के प्रति सचेत करने और इस प्रकार वर्ग संघर्ष को तीखा करने के लिए किया जाना जाहिए. इसलिए नारा दिया गया, “वामपंथी सरकार वर्ग संघर्ष का हथियार है.”

1964 में जब विभाजन हुआ तो तमाम क्रांतिकारी कम्युनिस्ट स्वभावतः सीपीआई (एम) में शामिल हुए. किंतु स्थापना के समय से ही सीपीआई(एम) नेतृत्व ने ऊपर चर्चित प्रत्येक प्रश्न पर ढुलमुलपन दिखलाना शुरू किया. लिहाजा, सीपीआई(एम) के अंदर प्रारंभ से ही एक अंतःपार्टी संघर्ष शुरू हो गया. कामरेड चारु मजुमदार के सुप्रसिद्ध आठ दस्तावेज 1964 से 1967 के बीच चले इस अंतःपार्टी संघर्ष को सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त करते हैं. पश्चिम बंगाल में पहली संयुक्त मोर्चा सरकार कायम होते ही हर जगह कतारों में क्रांतिकारी जोश उमड़ पड़ा और पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों में भूमि संघर्ष फूट पड़े. यह संघर्ष खासकर नक्सलबाड़ी क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक ऊंची मंजिल तक उठा और राज्य मशीनरी के खिलाफ खड़ा हो गया. केंद्रीय सरकार की धमकियों के चलते सरकार ने, जिस पर सीपीआई(एम) ही हावी थी, खुद को बचाने की गरज से आंदोलन को कुचलने के लिए खूनी उपायों का सहरा लिया. इससे समूची पार्टी के अंदर प्रतिरोध भड़क उठा. उत्तर प्रदेश, दिल्ली तथा जम्मू और कश्मीर आदि की राज्य कमेटियों ने पार्टी ही छोड़ दी तो आंध्र प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल तथा कई अन्य राज्यों में हर स्तर पर पार्टी में बड़े पैमाने का विभाजन हुआ.

कम्युनिस्ट क्रांतिकारी शक्तियों ने सबसे पहले तो अपने को कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की अखिल भारतीय समन्वय समिति (एआइसीसीआर) में संगठित कया. जो 22 अप्रैल 1969 को सीपीआई(एमएल) में विकसित हो गई. 1980 के दशक की शुरूआत में सीपीआई (एम) को फिर विभाजन का सामना करना पड़ा, जब उसके भूतपूर्व महासचिव पी. सुंदरैय्या के अनुयाइयों ने पार्टी छोड़ दी और एक अलग पार्टी एमसीपीआई का निर्माण कर लिया. सीपीआई(एम) को उसके बाद भी लगातार अनेक छोटे-छोटे विभाजनों का सामना करते रहना पड़ा है और हर बार सवाल 1964 के कार्यक्रम के इर्द-गिर्द मंडराते रहे हैं.

पहले दौर में सीपीआई(एमएल) ने अपनी यात्रा की शुरूआत तमाम बुर्जुआ संस्थाओं को ठुकराने से की तथा चीनी क्रांति के शास्त्रीय नमूने की तरह आधार क्षेत्रों का निर्माण करने के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ने का आह्वान किया. भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में रूसी रास्ता बनाम चीनी रास्ता की प्रासंगिकता पर लंबे अरसे से बहस जारी थी. तेलंगाना संघर्ष के बाद इस प्रश्न पर अंतःपार्टी संघर्ष बीच रास्ते में ही रुक गया था. इस बार तय हुआ कि तेलंगाना से शिक्षा लेते हुए बीच में कहीं रुके बगैर इस मुद्दे को हमेशा-हमेशा के लिए निपटा लिया जाए.

1960 के दशक के अंतिम और 1970 के दशक के शुरूआती वर्षों में सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व में संचालित सशस्त्र संघर्ष को भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में भारत में सशस्त्र क्रांति संगठित करने के अब तक के प्रयासों में सर्वाधिक संजीदा प्रयास के रूप में याद किया जाएगा. सर्वोच्च नेतृत्व सहित हजारों-हजार पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा भारतीय क्रांति की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर करने की वीरता और दिलेरी की यह महागाथा भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विरासत है. भावी प्रयत्नों की खातिर इस थाती को अवश्य संजोये रखना चाहिए. तथापि सशस्त्र संघर्ष को गंभीर धक्का लगा और पार्टी भी बहुतेरे टुकड़ों में टूट गई. पुरानी अवसरवाद और पतन की दलदल में गले तक डूब गए, तो कुछ अन्य धड़े पक्के अराजकतावादी ग्रुपों में विकसित हो गए. पीपुल्सवार इन अराजकतावादी ग्रुपों में सबसे अग्रणी है. केवल हमारे पार्टी-अंश ने ही सबसे मुश्किल दौरों में भी बिहार के भोजपुर में नक्सलबाड़ी की मशाल को जलाए रखा. जब वस्तुतः अन्य सारे ग्रुप छोटे-छोटे धड़ों में बंटते जा रहे थे. उस समय हमारे पार्टी-अंश ने ही अपने को कदम-ब-कदम पुनर्गठित किया और एक दशक से अधिक की अवधि के कष्टसाध्य संघर्षों के बाद पार्टी और आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर एक बार फिर पुनर्जीवित किया.

हमारी पार्टी ने मार्क्सवादी द्वंद्ववाद पर खड़ा होकर यह सीखा है कि किसी आंदोलन को पुराने नारों के आधार पर कभी पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है. हमारी पार्टी ने उस नई मंजिल का भी गहरा अध्ययन किया जिसमें आंदोलन प्रवेश कर चुका था तथा उसने इस तथ्य पर खास तौर पर गौर किया कि इसका पुनरोदय एक हिंदीभाषी राज्य बिहार में हुआ है. पुनर्गठन की प्रक्रिया में पार्टी ने लचीली नीतीयों और कार्यनीतियों की एक पूरी शृंखला विकसित की, बुर्जुआ संस्थाओं के साथ धीरे-धीरे और सतर्कता के साथ सामंजस्य कायम किया और अनेक नए व साहसिक प्रयोग शुरू किए. घोर अराजकतावादी प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने के लिए पार्टी ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर अपनी जड़ें तलाशने पर जोर दिया. साथ ही साथ उसने वामपंथी और कम्युनिस्ट आंदोलन की मुख्यधारा के अंदर दो कार्यनीतिक लाइनों के बीच के संघर्ष को एक नए रूप में आगे बढ़ाने का निर्णय लिया.

अवसरवादी कार्यनीतिक लाइन के विरुद्ध प्रभावकारी प्रतिरोध विकसित करने के लिए उसने वामपंथ की मुख्य धारा के कुछ महत्वपूर्ण नारों को क्रांतिकारी ढांचे के अंदर आत्मसात कर लेने का लचीलापन भी प्रदर्शित किया है. हमारी पार्टी ने यह सब सफलतापूर्वक किया है और इस क्रम में उसने उसूलों को बुलंद रखा है, अपनी स्वतंत्रता सुरक्षित रखी है और अपनी एकता कायम रखी है. इससे अन्य वामपंथी पार्टीयों के साथ अधिक से अधिक समागम करना और वामपंथी कतारों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाना आसान बन गया है. इस प्रक्रिया में अपने अवसवादी नेतृत्व से विक्षुब्ध वामपंथी कतारों अधिक से अधिक संख्या में हमारे पक्ष में आती जा रही हैं.

कलकत्ता कांग्रेस के साथ-साथ हमारी पार्टी एक नई मंजिल में पहुंच गई है. मार्क्सवादी सिद्धांत के क्षेत्र में तथा भारतीय वामपंथ व कम्युनिस्ट एकीकरण के संबंध में, और सर्वोपरि, राष्ट्रवादी जनवादी संघर्षों के अंदर वामपंथी कोर को शक्तिशाली करने के मामले में, हमारी पार्टी को बहुत बड़ी भूमिका निभानी होगी.

प्रमुख सवालों पर सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) की स्थितियों का पुनरावलोकन

अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में

सीपीआई(एम) ने अपनी जीवनयात्रा चीनपंथी होने की पहचान के साथ शुरू की थी, लेकिन जल्दी ही उसने सोवियत संघ और चीन से समान दूरी का सिद्धांत विकसित कर लिया. यद्यपि चीन और सोवियत संघ के बीच फूट पैदा होने के बाद कोई समाजवादी खेमा अस्तित्व में नही रहा, लेकिन उसने सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी खेमे को मान्यता देना जारी रखा. उसने ख्रुश्चेवी संशोधनवाद का जरूर विरोध किया, लेकिन शांतिपूर्ण विकास की प्रक्रिया में समाजवादी देशों में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के खतरों के बारे में माओ के सिद्धांत को मानने से इनकार कर दिया. सीपीआई(एम) ने सोवियत संघ की अतिमहाशक्ति की हैसियत और चेकोस्लोवाकिया एवं अफगानिस्तान पर आक्रमण जैसी सामाजिक साम्राज्यवादी कार्यवाहियों का समर्थन करना जारी रखा. सीपीआई(एम) के नेताओं ने सर्वहारा अंतरराष्ट्रवाद के नाम पर इस “क्रांति के निर्यात” को जायज ठहराया और वे ब्रेजनेव के काफी करीबी बन गए, जबकि उसे सोवियत संघ के इतिहास में अब तक का सबसे भ्रष्ट शासन माना जाता है.

सीपीआई(एम) ने सोवियत संघ की तमाम आलोचनाओं को साम्राज्यवादी दुष्रचार कहकर खारिज कर दिया. वह सोवियत समाजवाद के विरुद्ध सीआइए की साजिशों तथा अन्य बाहरी खतरों का राग ही लगातार अलापती रही. समाजवादी समाज के अंदर से पूंजीवाद की ओर शांतिपूर्ण क्रमविकास के माओ के शानदार विश्लेषण के सैद्धांतिक धरातल को ठुकरा देने के बाद उसके पास और कोई चारा भी न था. लेकिन उसकी सारी सैद्धांतिक बाजीगरी सोवियत संघ में समाजवाद के ध्वंस को रोकने में नाकामयाब रही. यह केवल समाजवाद का ही ध्वंस नहीं था. पूर्वी यूरोप के देशों में उठे राष्ट्रवादी उभार के सामने समूचा सोवियत साम्राज्य ताश के पत्तों के महल की तरह भहरा पड़ा.

सोवियत संघ के ध्वंस ने सीपीआई(एम) की बड़ी खूबसूरती से संतुलित रूस और चीन से समान दूरी के सिद्धांत की भी धज्जियां उड़ा दीं और अब वह चीन के संबंध में फिर उसी “सर्वहारा एकजुटता” की जुगाली कर रही है जिसकी रोशनी में थ्येनआनमन त्रासदी जैसी घटनाओं को बाहरी कारणों और सीआइए की साजिशों का परिणाम समझा और समझाया जाता है.

यद्यपि सीपीआई(एम) के नेतागण अब कभी-कभी सोवियत संघ के ध्वंस के पीछे के कुछ आंतरिक कारणों की चर्चा करते हैं, तथापि वे पूंजीवाद की पुनर्स्थापना की गति के नियमों को पकड़ पाने में पूरी तरह असफल रहे हैं. व्यावहारिक राजनीति के स्तर पर वे सोवियत अतिमहाशक्ति की प्रभुत्ववादी कार्यवाहियों और अंततः कई राष्ट्रीय जातिसत्ताओं में उसके विखंडन के बीच के अहम संबंध को भी आत्मसात नहीं कर सके.

महाविवाद में हमारी पार्टी ने दृढ़ता के साथ खुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध माओ की स्थितियों का और सच्ची अंतरराष्ट्रवादी भावना के साथ समाजवादी चीन का समर्थन किया था. चीन के प्रति हमारा समर्थन उत्साह के अतिरेक का शिकार जरूर था, किंतु क्रांति के किसी किस्म के आयात अथवा निर्यात के साथ इसका कोई ताल्लुक न था, क्योंकि माओ ने ठीक इसी मुद्दे पर सोवियत संघ की हमेशा आलोचना की थी. इस प्रकार सोवियत संघ और उसकी सामाजिक साम्राज्यवादी कार्यवाहियों की हमारी आलोचना सोवियत संघ की समूची व्यवस्था को सामाजिक साम्राज्यवादी व्यवस्था बतलाने और दोनों अतिमहाशक्तियों के बीच सोवियत अतिमहाशक्ति को अधिक खतरनाक मानने जैसे अतिरेकों का शिकार जरूर हो सकती है, तथापि परवर्ती इतिहास ने पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के प्रश्न पर सोवियत संघ की हमारी आलोचना और उसकी प्रभुत्ववादी कार्यवाहियों के हमारे विरोध को ही सही साबित किया है.

आज चीन मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों से संबंधित कोई विवाद नहीं चला रहा है और न ही वह किसी साम्राज्यवादी घेरेबंदी का सामना कर रहा है. भारतीय शासक वर्ग भी आज चीन के प्रति दुश्मनी नहीं पाल रहा है. चीन समाजवाद का निर्माण करने के नए-नए प्रयोगों में लगा हुआ है जिसका सावधानी के साथ और आलोचनात्मक ढंग से अध्ययन किया जाना चाहिए. इसके अलावा, सोवियत संघ के पतन के बाद समाजवादी जनवाद के सवाल ने भारी अहमियत हासिल कर ली है. आज एक समाजवादी व्यवस्था को पूंजीवादी जनवाद से अपनी श्रेष्ठता साबित कर दिखानी होगी. इन सब कारणों से हमें चाहिए कि हम चीन का मूल्यांकन अपनी स्वतंत्र समझ के आधार पर समाजवादी देशों में से एक के बतौर करें जो अपनी परिस्थितियों के अनुरूप समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण करने के प्रयोगों में लगा हुआ है. मोटामोटी चीनी समाजवाद का समर्थन करते हुए भी हम उसकी, इस या उस विशिष्ट नीति की, खासकर समाजवादी जनवाद संबंधी नीति की, आलोचना करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं. इस अर्थ में हम निस्संदेह और ठीक ही चीन से थोड़ी दूर चले गए हैं. फिर भी हमें यकीन है कि इससे कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच एक नए ढंग के बिरादराना संबंधों की शुरूआत होगी जो सम्बंध पहले से कहीं अधिक निष्कपट और कहीं अधिक खुले होंगे.

समाजवादी देशों और विकसित पूंजीवादी देशों के मजदूर वर्ग आंदोलन का आम तौर पर समर्थन करना, आम तौर पर साम्राज्यवाद और खास तौर पर अमरीकी साम्राज्यवाद का विरोध करना तथा तीसरी दुनिया के देशों के मुक्ति संघर्षों की नियामक भूमिका को बुलंद करना -- नई विश्व परिस्थिति में अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की आम लाइन केवल यही हो सकती है. घटनाक्रम ने समूची दुनिया के कम्युनिस्टों को अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की कमोबेश एक ऐसी ही लाइन के इर्द-गिर्द एकताबद्ध होने के लिए बाध्य कर दिया है.

भारत में जनता के जनवाद की दो कार्यनीतियां

1960 के दसक के पूर्वार्ध में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में भारतीय क्रांति के कार्यक्रम को लेकर एक महाविवाद छिड़ा था जो एनडीआर (राष्ट्रीय जनवादी क्रांति) और पीडीआर (जनता की जनवादी क्रांति) के बीच के संघर्ष के बतौर मशहूर हुआ था. एनडीआर की लाइन पर बाह्यतः ख्रुश्चेव के विकास के गौर-पूंजीवादी रास्ते का और आंतरिक तौर पर नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था का असर था. यह लाइन राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग को (अर्थात् नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस को) साम्राज्यवाद-विरोधी, इजारेदारी-विरोधी और सामंतवाद-विरोधी मानती ती और उम्मीद करती थी कि भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र को विशाल मात्रा में दी जा रही सोवियत सहायता की मदद से भारत में अततः समाजवाद आ जाएगा. इस लाइन को सीपीआई ने अपनी अधिकारिक लाइन बना लिया और नतीजे के तौर पर वह कांग्रेस का दुमछल्ला बन गई. इसके विपरीत, पीडीआर की लाइन में कांग्रेस को मुख्य दुश्मन मानने पर जोर दिया गया था. यह लाइन नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था को पूंजीवाद का ही मोहक रूप मानती थी और इस लाइन में इस बात पर भी जोर दिया गया था कि अभी भी शक्तिशाली सामंती अवशेष ही भारत के विकास के रास्ते में मुख्य बाधा हैं. सीपीआई(एम) के नेताओं ने अपनी वफादारी पीडीआर के प्रति घोषित की. किंतु प्रारंभ से ही उसकी स्थितियां अस्पष्ट थीं. उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि भारत में आजादी पाने के साथ-साथ जनवादी क्रांति की एक मंजिल पूरी हो गई है. इसका अर्थ केवल यही हो सकता है कि जनवादी क्रांति का साम्राज्याद-विरोधी पहलू बुनियादी तौर पर पूरा हो चुका है और अब केवल उसके सामंतवाद-विरोधी पहलू को ही पूरा करना शेष है. इसी सूत्रीकरण के चलते सीपीआई(एम) ने भारत की विदेश नीति को प्रगतिशील कहा, किंतु उसकी घरेलू नीतियों को प्रतिक्रियावादी बतलाया. लिहाजा उन्होंने एक लंबे अरसे तक भारतीय विदेशी नीति का समर्थन किया. इस कारण और भी अधिक कि ये नीतियां सोवियत संघ की विदेश नीतियों से मेल खाती थीं. जब सोवियत संघ द्वारा अमेरिका को शिकस्त देने का उसका अरसे से पाला-पोसा गया मिथक ताश के पत्तों के घर की तरह ढह गया, तब कहीं भारत की साम्राज्यवाद-विरोधी नीति के संबंध में पाले गए उसके भ्रमों पर करारी चोट पड़ी. 1980 के दशक से भारत विदेश नीति के मामले में खुल्लामखुल्ला अधिक से अधिक साम्राज्यवादपरस्त स्थितियां अपनाता जा रहा है. भारतीय विदेश नीति के इस रूपांतरण की व्याख्या कर पाने में जहां सीपीआई(एम) को दांतों तले पसीना आ रहा है वहां इन प्रत्यक्ष परिवर्तनों ने सीपीआई(एमएल) की इस स्थिति की ही पुष्ट की है कि साम्राज्यवाद-विरोध अभी भी भारतीय जनवादी क्रांति का एक प्रमुख कार्यभार है.

1962 में सीपीआई के क्रांतिकारी हिस्से ने अंधराष्ट्रवादी भावनाओं के ज्वार में बह जाने से अपने को रोका और यहां तक कि 1965 के पाकिस्तान युद्ध के दौरान भी वामपंथी कम्युनिस्टों ने दोनों ही देशों के शासक वर्गों की निंदा की. तथापि 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय से सीपीआई(एम) पड़ोसी देशों, खासकर पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय शासक वर्गों के दृष्टिकोण का कट्टर समर्थक बन गई. उसने यह मानने से इनकार कर दिया कि दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा देश होने के कारण भारत के अंदर क्षेत्रीय प्रभुत्ववादी महत्वाकांक्षाए मौजूद हैं. अपने देश के शासक वर्गों के अंधराष्ट्रवाद का समर्थन करना हमेशा और हर जगह संशोधनवाद की सबसे विशिष्ट पहचान रही है. लिहाजा, भारतीय शासक वर्गों के क्षेत्रीय प्रभुत्ववाद का शक्तिशाली और दृढ़ विरोध निस्संदेह भारतीय क्रांति की कार्यसूची का अभिन्न अंग होगा. यह कहने की जरूरत नहीं कि अंधराष्ट्रवाद का अनुसरण करने वाली कोई पार्टी कभी जनवादी क्रांति का नेतृत्व नहीं कर सकती है.

सीपीआई(एमएल) ने अपने छोटे पड़ोसी देशों पर भारत द्वारा अपना प्रभुत्व लादने की तमाम अभिव्यक्तियों का हमेशा विरोध किया है और इसे हम सर्वहारा अंतरराष्ट्रवाद की कसौटी मानते हैं. यह एक ऐसी कसौटी है जो क्यूबा, दक्षिण अफ्रीका अथवा फिलस्तीन का समर्थन करने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.

भारतीय पूंजीपति वर्ग के बारे में सीपीआई(एम) का मूल्यांकन था कि वह साम्राज्यवाद के साथ अधिकाधिक समझौता करता जा रहा है. इन मुल्यांकन के अंदर यह धारणा छिपी हुई थी कि ढुलमुलपन और समझौतापरस्ती के कुछ लक्षण मौजूद रहने के बावजूद भारतीय पूंजीपति वर्ग मुख्यतः स्वतंत्र पूंजीपति वर्ग है. सीपीआई की तरह ही उसने भी सार्वजनिक क्षेत्र को बड़े पूंजीपतियों के नियंत्रणाधीन निजी क्षेत्र के प्रभाव को संतुलित करने वाली शक्ति मानने का भ्रम पालना तथा इंदिरा गांधी द्वारा किए गए बैंक राष्ट्रीयकरण जैसे राष्ट्रीयकरण के उपायों को बड़े पूंजीपतियों के विरुद्ध एक किस्म का संघर्ष मानकर उनका समर्थन करना शुरू किया.

इन स्थितियों का नतीजा हुआ कि विभिन्न संकटकालीन मोड़ों पर उसे कांग्रेस के साथ राजनीतिक सहयोग करना पड़ा जैसे, सिंडिकेट के खिलाफ इंदिरा कांग्रेस का पक्ष लेना, पिछले राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार का समर्थन करना और एकदम हाल में कांग्रेस(आइ) के साथ भाजपा-विरोधी धर्मनिरपेक्ष मोर्चे की वकालत करना. भारत सरकार की नई आर्थिक नीति विश्व बैंक और आइएमएफ के निर्देशानुसार लागू किए जाने के चलते सीपीआई(एम) के अंदर भारतीय पूंजीपति वर्ग के बुनियादी चरित्र के बारे में एक बार फिर सवाल उठ खड़े हुए हैं. सीपीआई(एम) की पिछली कांग्रेस में भारतीय पूंजीपति वर्ग को दलाल कहने का प्रस्ताव पेश हुआ जिसे नेतृत्व ने खारिज कर दिया.

सीपीआई(एम) का समूचा अवसरवाद “सामाजिक शक्ति संतुलन को बदलने के लिए शासक वर्गों के बीच के अंतरविरोधों का इस्तेमाल करने” के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है. इस इस्तेमाल की गुंजाइश को बेहद बढ़ा-चढ़ाकर देखा गया है, इतना ज्यादा कि यही सीपीआई(एम) का मुख्य केंद्रबिंदु बन गया है. इसके चलते वह पूंजीवादी राजनीति और राजनीतिक साजिशों के दलदल में आकंठ डूब गई है तथा उसके तमाम महत्वपूर्ण पार्टी नेताओं को हमेशा पूंजीवादी राजनीतिज्ञों के ऊपरी स्तर के साथ समझौता वार्ता चलाने में अथवा उनके बीच मध्यस्थता करने में व्यस्त रहना पड़ता है.

कार्यनीति के क्षेत्र में सीपीआई(एमएल) ने डीएमके, तेलुगू देशम, जद, अकाली दल जैसी क्षेत्रीय और मध्यवर्ती विपक्षी पार्टियों के साथ संश्रय कायम करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया. इन संश्रयों की कीमत के बतौर उसने कुलक वर्गों के खिलाफ, जो कि इन पार्टीयों के मुख्य सामाजिक आधार हैं, गरीब किसानों के संघर्षों को कुर्बान कर दिया. लिहाजा सीपीआई(एम) देश में कहीं भी सामंतवाद-विरोधी संघर्षों अथवा ग्रामांचलों में नवविकसित वर्ग संघर्षों की अगली पंक्ति में नजर नहीं आती है. इस प्रकार जनता की जनवादी क्रांति के आधार को ही पूरी तरह तिलांजलि दे दी गई है. सीपीआई(एम) के जनवादी कार्यक्रम का सारा जोर संघवाद, राज्यों को अधिक अधिकार, पंचायत स्तर तक सत्ता का विकेंद्रीकरण जैसे आम जनवादी मुद्दों तक सिमट गया है.

दूसरी ओर, सीपीआई(एमएल) ने नवजनवाद के माओ के बताए रास्ते के आधार पर जनवाद को पुनर्परिभाषित किया. उसने भारत को अर्द्ध-औपनिवेशिक देश कहा, मतलब यह कि साम्राज्यवाद यद्यपि भारतीय राजसत्ता पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण नहीं करता है, तथापि भारतीय राज्य को प्रभावित करने और उसकी नीतियों का निर्देशन करने लायक यथेष्ट शक्ति उसके हाथों में है. भारतीय राजसत्ता पर नियंत्रण वह यहां के पूंजीपति वर्ग द्वारा करता है जो बुनियादी तौर पर निर्भरशील प्रकृति का है. इसकी तमाम आपेक्षिक स्वतंत्रताएं – विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों से मोलतोल करने की क्षमता – निर्भरशीलता के इस सामग्रिक चौखटे के अंदर कैद हैं. लिहाजा सीपीआई(एमएल) का अपने जन्म के समय से ही पक्का विश्वास रहा है कि भारतीय पूंजीपति वर्ग कोई ठोस जनवादी रूपांतरण करने में अक्षम है और सर्वहारा को नेतृत्व खुद अपने हाथों में ले लेना चाहिए. हम विदेश संबधों और घरेलू नीतियों, दोनों ही क्षेत्रों में भारतीय शासक वर्गों के पाखंड का हमेशा भंडाफोड़ करने का प्रयत्न करते रहे हैं. इसके चलते हमारी पार्टी अपने और भारतीय शासक वर्गों के बीच एक विभाजन रेखा खींचने में और सुसंगत जनवाद के समर्थक के बतौर उभरने में समर्थ रही है.

सीपीआई(एमएल) ग्रामंचलो मे सामांतवाद विरोधी संघर्ष और हरित क्रांति के पर्वर्ती दौर मे कुलकों के खिलफ खेत मज़दूरो और गरीब किसनों के वर्ग संघर्ष पर हामेशा सबसे ज्यदा ज़ोर देती रही है.

सीपीआई(एमएल) ने नागरिक अधिकारों से लेकर संघवाद तक के तमाम जनवादी मुद्दों को उठाया है और व्यापकतम संभव जनवादी संश्रयों का निर्माण करने की कोशिश की है. लेकिन ऐसा करते समय उसने हमेशा अपनी वर्गीय स्वतंत्रता और राजनीतिक पहलकदमी पर जोर दिया है.

सीपीआई(एम) के साथ हमारे वर्तमान वादविवाद में उसके दुमछल्लेपन के खिलाफ हमारी तीखी आलोचना तथा वामपंथ की स्वतंत्र अभिव्यक्ति और मजदूरों व किसानों की वर्गीय कार्यवाहियों पर आधारित वाम एकता पर हमारा लगातार जोर महज निरपेक्ष उसूलों से संबंधित सवाल अथवा महज कुछ कार्यनीतिक उपाय भर नहीं हैं. ये जनता की जनवादी क्रांति के लिए हम जो तैयारियां कर रहे हैं उसके आवश्यक उपादान हैं. इसलिए इन्हें आत्मसात किए बगौर कोई भारत में जनता के जनवाद की दो कार्यनीतियों के बीच के संघर्ष को आत्मसात नहीं कर सकता है.

संसदीय बौनापन बनाम संसदीय संघर्ष

पूंजीवादी संसद में बहुमत हासिल करने के जरिए सत्ता के शांतिपूर्ण संक्रमण के बारे में मार्क्सवादियों और संशोधनवादियों के बीच का विवाद काफी पुराना है. काफी पहले लेनिन द्वारा बर्नस्टीन और मेन्शेविकों के तर्कों को प्रभावशाली ढंग से खारिज कर दिए जाने के बाद मान लिया गया था कि यह विवाद हल हो चुका है. इसके अतिरिक्त व्यावहारिक जीवन में भी देखा गया कि पश्चिमी यूरोप के संशोधनवादी लोग सामाजिक जनवादियों में पतित हो गए और पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था के दुमछल्ले बन गए, जबकि रूसी और चीनी कम्युनिस्टों ने अपने नेतृत्व में क्रांतियां सफल कीं. बहरहाल, 1960 के दशक के पूर्वार्ध में ख्रुश्चेव ने इस प्रश्न को फिर जिंदा किया. बहाना था – समाजवादी खेमे के प्रचंड रूप से शक्तिशाली हो जाने के कारण विश्व शक्ति संतुलन में हुए मौलिक परिवर्तन के चलते एक ‘नई परिस्थिति’ उत्पन्न हुई है, जिसके फलस्वरूप समाजवाद आज शांतिपूर्ण प्रतिद्वंद्विता के जरिए साम्राज्यवाद को पराजित करने में पूरी तरह समर्थ है. लिहाजा कम्युनिस्टों के सामने संसदीय उपायों से सत्ता के शांतिपूर्ण संक्रमण के लिए प्रयत्न करने के नए अवसर उपस्थित हो गए हैं. ‘शांतिपूर्ण प्रतिद्वंद्विता’ और ‘शांतिपूर्ण’ संक्रमण को जायज ठहराने के लिए परमाणु युद्ध के खतरे की बातें भी उठाई गईं.

भारत में सीपीआई मानो इस विचार को ग्रहण करने के लिए तैयार ही बैठी थी. उसने आधिकारिक रूप से वह रास्ता अख्तियार किया जिसे संसदीय रास्ता कहा जाता है. इसमें एकमात्र जोर संसद में अधिक से अधिक सीटें जीतने और अंततः संसदीय बहुमत और इस तरह सत्ता हासिल करने पर जोर दिया जाता है. संसदीय बहुमत सीपीआई के लिए हमेशा मृग-मरीचिका बना रहा. इस बीच खुद ‘शांतिपूर्ण प्रतिद्वंद्विता’ का दुर्ग सोवियत संघ ढह चुका है और सीपीआई वस्तुतः एक सामाजिक-जनवादी पार्टी बन गई है.

समूची दुनिया के मार्क्सवादी-लेनिनवादियों ने ख्रुश्चेव द्वारा प्रतिपादित संसदीय रास्ते को ठुकरा दिया और भारत में सीपीआई से सीपीआई(एम) के अलग होने का यह एक प्रमुख कारण रहा है. सीपीआई(एम) ने संसदीय और गौर संसदीय संघर्षों को जोड़ने की वकालत की. उसने संसदीय बहुमत के जरिए सत्ता पाने की संभावना से इनकार कर दिया. चुनावों के जरिए कुछ राज्यों में सत्ता पाने को विश्वसनीय विकल्प माना गया, बशर्ते कि पार्टी केवल वहीं सरकार में शामिल हो जहां कि वह नेतृत्वकारी शक्ति हो. यहां सरकार की सत्ता और राजसत्ता के बीच फर्क किया गया. पार्टी का ठोस कार्यभार था आम जनता के सामने पूंजीवादी राज्य ढांचे के अंतर्गत बनी सरकारों की सत्ता की सीमाबद्धताओं को स्पष्ट करना. उम्मीद की गई थी कि इससे जनसमुदाय की राजनीतिक चेतना को ऊपर उठाने में और पूंजीवादी राज्य के खिलाफ हमला बोलने के लिए उन्हें तैयार करने में पार्टी समर्थ होगी. मुख्यतः इसी अर्थ में वामपंथी सरकार को वर्ग संघर्ष के हथियार का काम करना था.

1957 की केरल की कम्युनिस्ट सरकार के अनुभव ने यह दिखला दिया था कि केंद्रीय सत्ता ऐसी सरकार को नहीं चलने देगी. इससे कम्युनिस्टों को संसदीय व्यवस्था के पाखंड का भंडाफोड़ करने का मौका मिलेगा और इस तरह जनता की जनवादी क्रांति का रास्ता साफ हो जाएगा.

पार्टी कतारों ने संसदीय संघर्षों के मामले में सीपीआई और सीपीआई(एम) के बीच के फर्क को इसी रूप में समझा था.

सीपीआई(एम) शक्तिशाली जन आंदोलनों की लहरों पर सवार होकर क्रांतिकारी लफ्फाजियों के साथ 1967 में पश्चिम बंगाल में सत्ता में आई. लेकिन यह मिली-जुली सरकार चंदरोजा साबित हुई. 1969 में मिली सफलता भी अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी और पश्चिम बंगाल को 1977 तक श्वेत आतंक के साए में रहना पड़ा. मौजूदा वाम मोर्चा सरकार 1977 में राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रम में आए विशिष्ट मोड़ के चलते सत्ता में आई. बिड़ंबना ही थी कि तब तक वहां जन आंदोलनों की लहर थम चुकी थी और पार्टी संगठन गतिहीन बन चुका था. तबसे पिछले लगभग 15 वर्षों के दौरान केंद्र की कांग्रेस(आइ) सरकारों ने संसदीय खेल के नियमों का पालन किया है और शायद ही कोई ऐसी घड़ी आई कि जब केंद्रीय सत्ता द्वारा वाममोर्चा सरकार को उखाड़ फेंकने का सचमुच कोई संजीदा प्रयास किया गया हो. ‘वाममोर्चा सरकार वर्ग संघर्ष का हथियार है’ जैसे नारों को और केंद्र का मुकाबला करने की लफ्फाजियों को चुपचाप पार्टी के शब्दकोष से हटा दिया गया है. पूंजीवादी संसद के पाखंड का भंडाफोड़ करने की जगह अब ‘जनता की प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं’ के गुणों का बखान करने और पूंजीवादी राज्य ढांचे के अंदर इतने लंबे अरसे तक सत्ता टिकाए रखने के विशिष्ट मॉडल को बुलंद करने पर जोर दिया जा रहा है. सीपीआई(एम) विधानसभाओं और संसद में अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए जिस तरह विभिन्न पूंजीवादी संगठनों से प्रणय निवेदन कर रही है और यहां तक कि जिस तरह रामों-वामों संश्रय के जरिए केंद्रीय सरकार की सत्ता में हिस्सेदार बनना चाहती है उससे साफ-साफ यह झलकता है कि पार्टी संसदीय रास्ते पर बहुत दूर आगे निकल चुकी है.

नक्सलबाड़ी में क्रांतिकारी कम्युनिस्टों ने सीपीआई(एम) के अंदर संसदीय बौनेपन के प्रथम लक्षण दिखलाई पड़ते ही विद्रोह का झंडा उठा लिया. जल्दी ही सीपीआई(एमएल) संगठित की गई जिसने संसदीय रास्ते को ठुकरा दिया. बहरहाल, सीपीआई(एमएल) के अंदर संसदीय संघर्षों को पूरी तरह खारिज कर देने से संबंधित बहस कभी खत्म नहीं हुई. संयोगवश, यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी समूचे कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर मार्क्सवादी-लेनिनवादियों के बीच एक प्रमुख विवादास्पद मुद्दा रहा है. सीपीआई(एमएल) ने हमेशा संसदीय रास्ते को, अर्थात् पूंजीवादी संसद में बहुमत पाने के जरिए सत्ता दखल के रास्ते को ठुकराया है. लेकिन संसदीय संघर्षों का इस्तेमाल करने के सवाल पर उसने सचेत प्रक्रिया में एक व्यापक और लचीला रुख विकसित किया है. सीपीआई(एमएल) का परिप्रेक्ष है संसदीय और गैर-संसदीय संघर्षों को एक-दूसरे के साथ इस तरह जोड़ना कि गैर-संसदीय संघर्ष प्राथमिक भूमिका निभाएं, साथ ही साथ, सीपीआई(एमएल) मार्क्सवादी-लेनिनवादी कार्यनीति के बतौर क्रांतिकारी उभार की परिस्थिति में चुनावों का बहिष्कार करने तथा पीछे हटने के समय उनके एक अत्यंत विशिष्ट भूमिका ले लेने से इनकार भी नहीं करती है. इससे भी बड़ी बात यह है कि जब भारत की वस्तुगत परिस्थितियों में इस या उस राज्य में कम्युनिस्ट नेतृत्व वाली सरकार बनाने की संभावना मौजूद है तब हमारी पार्टी के लिए यह नितांत आवश्यक हो जाता है कि वह इस मौके का फायदा उठाए और वामपंथी सरकार का एक वैकल्पिक नमूना पेश करे जो सचमूच वर्ग संघर्ष के हथियार का काम करेगी.

रूसी रास्ता बनाम चीनी रास्ता के विवाद में सीपीआई(एमएल) ने चीनी रास्ते का पक्ष लिया. इसका मतलब था ग्रामीण क्षेत्रों में एक शक्तिशाली लाल सेना का निर्माण करके लाल राजनीतिक सत्ता की स्थापना करना तथा इस प्रकार शहरों को चारों ओर से घेर लेना और अंततः उनपर कब्जा कर लेना. इस रास्ते पर कदम बढ़ाते ही सीपीआई(एमएल) के सामने यह स्पष्ट हो गया कि क्रांति की समूची मंजिल में चुनावों में भाग लेने का प्रश्न ही नहीं उठता है और इस तरह चुनाव बहिष्कार को रणनीतिक अर्थ प्रदान किया गया.

चीनी रास्ते का प्रयोग एक दशक से अधिक तक चलाने के बाद सीपीआई(एमएल) ने अपने अनुभव का निचोड़ निकाला और वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि भारतीय परिस्थितियों में शास्त्रीय चीनी रास्ते की आंखें मूंदकर नकल करना गलत है. असली बात है मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओ विचारधारा को भारत की ठोस परिस्थितियों के साथ एकरूप करना. चूंकि चीन में कोई संसद ही नहीं थी, इसलिए वहां संसदीय संघर्षों का सवाल ही नहीं उठा. भारतीय परिस्थितियाँ भिन्न हैं. लिहाजा, अपनी अग्रगति के शुरूआती दौर में और एक नई क्रांतिकारी यात्रा प्रारंभ करने के विशेष संदर्भ में चुनाव बहिष्कार यद्यपि सही था, तथापि भारतीय कम्युनिस्ट संसदीय संघर्ष हमेशा-हमेशा के लिए नहीं ठुकरा सकते हैं और न उन्हें ऐसा करना ही चाहिए. इस प्रकार चुनाव बहिष्कार को एक कार्यनीतिक सवाल बना दिया गया. सीपीआई(एमएल) आज भी ग्रामीण क्षेत्रों पर और किसानों के जुझारू संघर्ष को विकसित करने पर प्राथमिक जोर दे रही है. विशेष राजनीतिक परिस्थिति में ये विशाल इलाके जन सशस्त्र शक्तियों की ताकत के बल पर समानांतर सत्ता केंद्रों में विकसित हो जा सकते हैं और इस तरह राष्ट्रीय स्तर पर शक्ति-संतुलन में आमूलचूल परिवर्तन कर सकते हैं.

सीपीआई(एमएल) संसदीय रास्ते को पूरी दृढ़ता के साथ ठुकराती है. हाल ही में संपन्न इसकी पांचवीं कांग्रेस ने इस बात को दोहराया है कि अंतिम विश्लेषण में केवल सशस्त्र संघर्ष ही भारतीय क्रांति की तकदीर का फैसला करेगा. सीपीआई(एमएल) इसी मौलिक आधार पर खड़ा होकर क्रांति की विभिन्न मंजिलों में संसदीय और गैरसंसदीय संघर्षों को एक-दूसरे के साथ विभिन्न रूपों में जोड़ने का प्रयोग जारी रखेगी और इसी तरह क्रांति का भारतीय रास्ता निर्धारित होगा.

(तीसरी पार्टी-कांग्रेस में स्वीकृत राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट, दिसंबर 1982)

जिस सवाल ने सबसे तीखे विवाद खड़े किए हैं वह कामरेड चारु मजुमदार (सीएम) द्वारा सूत्रबद्ध ‘सफाया’ का सवाल है. यह दलील पेश की गई कि इसमें मार्क्सवाद है ही नहीं, यह तो बस भोंड़ा व्यक्तिगत आंतकवाद है, इसने केवल नुकसान पहुंचाए हैं. यह कहा गया है कि हथियारबंद संघर्ष व जन संघर्ष को जरूरी तौर पर समन्वित किया जाना चाहिए और इसलिए ‘सफाया लाइन’ की निश्चित रूप से भर्त्सना की जानी चाहिए.

आइए हम पहले हथियारबंद संघर्ष व जन संघर्ष को समन्वित करने के सवाल पर विचार करें. एक अचूक औषधि के रूप में इस मुहावरे को दुहराते रहना व्यावहारिक कार्य में लगे मार्क्सवादियों के लिए कत्तई प्रासंगिक नहीं है. इतिहास का तथ्य यह है कि तमाम जन आंदोलन अपनी अग्रगति के क्रम में नए-नए रूप अख्तियार करते हैं; लगातार पुराने को छांटकर अलग करते और नए का सृजन करते जाते हैं तथा रूपांतरण या नए व पुराने रूपों का नया संयोजन चलता रहता है. हम कम्युनिस्टों का कर्तव्य है कि संघर्ष के उपयुक्त रूपों का विकास करने की इस प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभाएं, जैसा कि लेनिन ने कहा है, “उसूली तौर पर बल-प्रयोग व आतंक की आवश्यकता से रत्ती भर भी इनकार किए बिना, हमें संघर्ष के ऐसे रूपों का निर्माण करना चाहिए जिनमें जनसमुदाय की प्रत्यक्ष भागीदारी को स्वीकार किया गया हो और यह भागीदारी सुनिश्चित कर दी गई हो.”

नक्सलवाड़ी के बहादुराना संघर्ष के बाद नवसंशोधनवाद के बंधनों से छुटकारा पाकर और जन आंदोलनों को खड़ा करने के क्रांतिकारी व्यवहार में करीब दो वर्षों तक लगे रहने के बाद, भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारीयों को ऐसी ही परिस्थिति का सामना करना पड़ा और वे बड़ी बेचैनी से संघर्ष के एक नए रूप की तलाश करने लगे. इसी संदर्भ में श्रीकाकुलाम के संघर्ष के उफान के बीच जनसमर्थन पर आधारित ‘सफाया’ को सूत्रबद्ध किया गया, जिसके अंतर्गत हथियारबंद संघर्ष की शुरूआत को संघर्षों में जनसमुदाय की कदम-ब-कदम गोलबंदी के साथ समन्वित किया जाना अपेक्षित था और सीएम की लाइन की यही बुनियादी दिशा – यानी, हथियारबंद कार्यवाहियों को जनसंघर्षों के साथ समन्वित करने की दिशा – नक्सलबाड़ी संघर्ष के शुरूआती दिनों से लेकर सीएम के जीवन के अंत तक उनकी समूची राजनीतिक लाइन में व्याप्त रही है. जरूर इसमें कभी एक या कभी दूसरा पहलू प्रमुखता प्राप्त करता रहा है. उनके प्रयासों की सफलता और असफलता का मूल्यांकन करना एक अलग बात है और किसी भी वास्तविक अग्रगति के लिए बहुत महत्वपूर्ण भी है, लेकिन उन्हें एक ‘आतंकवादी’ करार देना बेहूदगी व बेवकूफी की हद है और गुलामी के रुख का द्योतक है. जनसमर्थन और आंदोलनों के साथ समन्वित करने के समग्र परिप्रेक्ष में संघर्ष के इस विशिष्ट रूप का लक्ष्य था – इलाके के आधार पर सत्ता दखल. इस संघर्ष के फलस्वरूप भारत के विभिन्न भागों में बहुतेरे किसान-स्क्वाडों का निर्माण हुआ और जन उभार भी पैदा हुए. इस जन उभार को कृषि-सुधार के चंद कार्यक्रमों के साथ क्रांतिकारी कमेटी के जरिए संगठित किया जाना था और इन स्क्वाडों को पुलिस और अर्ध-सैनिक व सैनिक शक्तियों के विरुद्ध छापामार कार्यवाहियां चलानेवाली पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मि यानी जन मुक्ति सेना) की यूनिटों के रूप में संगठित किया जाना था – इस तरह लाल सत्ता की ओर बढ़ना था. संक्षेप में, यही ‘सफाया’ लाइन की समूची प्रक्रिया और उसका समग्र परिणाम था. सफलता के लिहाज से इस ‘सफाया’ लाइन की बहुतेरी उपलब्धियां थीं और भोजपुर का आज तक का अस्तित्व इस पहलू का प्रमाण है. फिर भी, इसका एक नकारात्मक पक्ष भी था और जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, नकारात्मक पक्ष प्रधान होता गया. सफाया अनेक इलाको में एक अभियान की तरह चलाया गया, उसमें अनेक विवेकरहित व अनावश्यक हत्याएं हुईं; वह किसानों के वर्ग संघर्ष से अलग-थलग पड़ गया और पुलिस दमन के खिलाफ कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं किया जा सका तथा हमारे संघर्ष के क्षेत्र धराशायी हो गए. ऐसा वहां हुआ जहां पार्टी का नेतृत्व कायम नहीं रहा और जन आंदोलनों व प्रतिरोध संघर्षों का विकास नहीं किया जा सका. असीम से लेकर दीपक और अंततः महादेव तक, ‘सफाया’ के अति उत्साही समर्थकों ने गलतियों को उनकी पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया और कदम-ब-कदम एक वाम अवसरवादी लाइन सूत्रबद्ध की, जिससे जनता व क्रांति को जबर्दस्त क्षति पहुंची.

फिर, उस दौर को दुनिया भर में मौजूद फौरी व आम क्रांतिकारी परिस्थिति के दौर के बतौर चित्रित किया गया और सर्वत्र क्रांतिकारी आक्रमण की योजना बनाई गई. क्रांतिकारी परिस्थिति को इस तरह बढ़ा-चढ़ाकर आंकने के फलस्वरूप उतावलापन पैदा हो गया और आत्मगत शक्तियों की स्थिति का ख्याल नहीं रखा गया, जिसके चलते गलतियां और भी गंभीर होती गईं. यह सच है कि शासकवर्गों के गहरे आर्थिक व राजनीतिक संकट में फंसे होने की तत्कालीन स्थिति में क्रांतिकारी परिस्थिति हमारे अनुकूल थी और जहां कहीं भी संभव था वहां सर्वहारा को चाहिए था कि वह किसानों को हथियारबंद संघर्ष में खड़ा कर देता और राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के प्रयत्न करता. फिर भी, भारतीय क्रांति के असमान विकास पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया. इसलिए, आम कार्यक्रम और बुनियादी कार्यनीतिक लाइन के मूल तौर पर सही होने के बावजूद, क्रांतिकारी परिस्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर आंकने और भारतीय क्रांति के असमान विकास को मद्देनजर न रखने की वजह से, कुछ इलाकों के लिए उपयुक्त संघर्ष के रूप को और अग्रगति के रास्ते को देश के हरेक हिस्से के लिए आम बना दिया गया और इतना ही नहीं, उन्हें एक अभियान के रूप में लिया गया. निश्चित रूप से यह गंभीर वाम-भटकाव था. और विकास के वस्तुगत नियम ने जन उभार को महज कुछेक छोटे-छोटे पॉकेटों में और उनकी धारावाहिकता को महज एक ही इलाके में सीमित करके हमें दंडित किया.

इस संदर्भ में हमारी पहली पार्टीं-कांग्रेस की यह घोषणा निश्चित रूप से गलत थी कि “वर्ग संघर्ष, यानी सफाया, हमारी तमाम समस्याओं को हल कर देगा.” फिर भी, चंद छोट-छोटे हिस्सों में, जन उभारों के साथ समन्वित सफाया और कृषि-सुधार के नारों के साथ क्रांतिकारी कमेटियों के जरिए इस उभार को संगठित करने के प्रारंभिक प्रयत्न तथा छापामार स्क्वाडों से लाल सेना का निर्माण करने के प्रयत्न क्रांतिकारी अनुभवों के कोष में गौरवशाली उदाहरण बने हुए हैं. और यही वह बुनियाद थी जिस पर अपेक्षाकृत कम सचेत कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों द्वारा शुरू किया गया और आगे पार्टी-नेतृत्व द्वारा संगठित किया गया भोजपुर का किसान-संघर्ष उठ खड़ा हुआ. अधिकतम बलिदानों की कीमत पर कठिनतम समय में भी इसे बरकरार रखा गया तथा अब इसका विकास और भी व्यापक इलाकों व विविध रूपों में हो रहा है. इसी गौरवशाली परंपरा के कारण चारु मजुमदार भारत की लाखों-लाख उत्पीड़ित जनता के बीच जिंदा हैं और उनकी लाइन भारत की एकमात्र क्रांतिकारी लाइन का प्रतीक है. इसके विपरीत, विभिन्न मार्क्सवादी पंडित व अवसरवादी नेता हथियारबंद संघर्ष और जन संघर्ष को समन्वित करने के बारे में बकवास करते रहे, लेकिन हथियारबंद संघर्ष और तथाकथित समन्वय की बात तो दरकिनार, वे व्यापक जनसमुदाय तक कभी नहीं पहुंच पाए या कोई ऐसा जन संघर्ष नहीं विकसित कर सके जिसका कुछ भी खास महत्व हो. दुनिया भर का सारा काम करने और तमाम चीजों को समन्वित करने का स्वघोषित मार्क्सवादियों का पंडिताऊ रुख कोई समाधान नहीं, बल्कि समाधान का भोंड़ा स्वांग है, और किसी भी ठोस अनुभव से रहित विशुद्ध किताबी चीज है. क्रांतिकारी लाइन केवल एक प्रक्रिया में ही पूर्ण आकार ग्रहण कर सकती थी और संघर्ष के पुराने रूपों को ठुकराने से शुरूआत करके पार्टी एक प्रक्रिया में ही नए और पुराने रूपों का नया पुनर्संयोजन हासिल कर सकती थी.

मजदूर वर्ग के संघर्षों के बारे में चारु मजुमदार ने पुराने रूपों को ठुकराए बिना संघर्ष के नए रूप विकसित करने और ट्रेड यूनियन संघर्षों को न ठुकराते हुए राजनीतिक संघर्ष विकसित करने की आवश्यकता को सही रूप से रेखांकित किया था.

छात्र और युवा आंदोलन के सिलसिले में, उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में पहली बार मजदूरों व किसानों के साथ एकरूप होने का सवाल पेश किया और ऐसा करने के लिए यह जरूरी था कि युवा-छात्रों को कैंपस के संघर्षों से बाहर लाया जाए. युवा छात्रों ने उनके आह्वान का सर्वाधिक जोश-खरोश के साथ जवाब दिया. उन्होंने (सीएम ने) पुराने मूल्यों, पुरानी शिक्षा और पुरानी संस्कृति के खिलाफ युवा-छात्रों के आंदोलन का समर्थन किया, तत्कालीन चीनी नवयुवकों के रेडगार्ड आंदोलन और फ्रांस के ‘नव वाम’ (न्यू लेफ्ट) आंदोलन के साथ उनके आंदोलन के फर्क को रेखांकित किया, इस आंदोलन की सीमाओं को सामने रखा और युवा-छात्रों को इस आंदोलन के आधार – किसान संघर्षों – के साथ एकरूप होने को कहा. साथ ही उन्होंने बुद्धिजीवियों को भी 19वीं शताब्दी के भारत के इतिहास का गहरा अध्ययन करने को कहा – बहुतेरे प्रगतिशील व क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों ने यह काम हाथ में लिया और इसे आगे बढ़ाया है.

अपनी गलतियों के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के उन दिनों के विश्लेषण को दोषी ठहराना अथवा गलतियों से बचने की आशा में तथाकथित संयोजन का पंडिताऊ रुख अपनाना एक बीमार चिंतन प्रणाली को ही जाहिर करता है. कोई भी क्रांतिकारी उभार दक्षिणपंथी व वामपंथी भटकावों को जन्म देता है : ‘अतीत के साथ नाता तोड़ने में समर्थ न होने के रूप में दक्षिणपंथी’ और ‘वर्तमान से निपटने में समर्थ न होने के रूप में वामपंथी’. हम अपनी गलतियों के लिए खुद ही जिम्मेवार हैं और किसी क्रांतिकारी उभार में गलतियां होना लाजिमी है. इन गलतियों के आधार पर ही कम्युनिस्ट शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं तथा नेताओं व कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया जा सकता है. इसके अवाला और कोई रास्ता नहीं है.

सफाया के संघर्ष का सैनिक रूप – सैनिक लाइन – का उद्देश्य राजनीतिक लाइन की सेवा करना था और संपूर्ण क्रांतिकारी प्रक्रिया का लक्ष्य क्रांतिकारी जनदिशा विकसित करना था. “किसानों को अपने गांवों को मुक्त करने के लिए गोलबंद किया जाना चाहिए और उनसे कहना चाहिए कि गांव के मामलों का निपटारा करने के एकमात्र अधिकारी आप होंगे, जमींदार नहीं; जमीन आपकी होगी, तालाब आपके होंगे; जमींदारों का सफाया होने के बाद पुलिस इस बात का पता लगाने में समर्थ नहीं होगी कि कौन किसका खेत जोत रहा है, आदि” – किसानों की मानसिकता को मद्देनजर रखते हुए और उन्हें जागृत करने के लिए सर्वाधिक लोकप्रिय रूप में समझाते हुए किसानों की राजनीतिक सत्ता का यह प्रचार संशोधनवादी प्रचार के विरुद्ध कामरेड चारु मजुमदार का एक महत्वपूर्ण योगदान था. कामरेड चारु मजुमदार ने जनसमुदाय को कायरों के रूप में लेकर उनकी भूमिका का निषेध करने और कुछ हिरावल तत्वों को ‘व्यक्ति वीर’ के रूप में लेने के आधार पर ‘सफाया को सूत्रबद्ध नहीं किया था, बल्कि इसके विपरीत, यह सूत्रीकरण जनसमुदाय की अंतर्निहित विराट सृजनात्मक शक्ति में असीम विश्वास पर आधारित था. यह अभिप्राय उनकी रचनाओं में शुरू से अंत तक व्याप्त है, और इसीलिए पूरी पार्टी ने जनसमुदाय के प्रति संपूर्ण आस्था को आधार बनाया. यह एक ऐसी चीज है, जो उनके विरोधियों में रत्ती भर भी नहीं पाई जाती, जो कि जनसमुदाय पर अविश्वास की वजह से इस या उस बुर्जुआ पार्टी के साथ मोर्चा बनाने की वकालत करते हैं.’

तमाम बुर्जुआ एवं संशोधनवादी राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री जब यह घोषणा करते हैं कि नक्सलवाद देहाती गरीबों के असंतोष से पैदा हुआ, तब वे बस इसी तथ्य को स्वीकार कर रहे होते हैं कि कामरेड चारु मजुमदार का मुख्य योगदान है देश के राजनीतिक जीवन में भूमिहीन और गरीब किसानों को सामने ले आना. इसके अलावा, उनका मुख्य योगदान और उनकी क्रांतिकारी लाइन के मुख्य घटक हैं – कांग्रेस सरकार के भूमि-सुधार संबंधी कदमों को धता बताते हुए कृषि-क्रांति को तात्कालिक कार्यसूची के बतौर पेश करना, कम्युनिस्ट क्रांतिकारीयों व भारतीय सर्वहारा के चिंतन को संशोधनवादी राजनीति की चिकनी-चुपड़ी बातों से उठाकर देश की मुक्ति के स्वप्न देखने के स्तर तक पहुंचा देना, अंरराष्ट्रीय सर्वहारा व उत्पीड़ित जनसमुदाय के साथ एकताबद्ध होना, हजारों-हजार नवयुवकों को भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में भरती करना, और नक्सलवाद को मूर्त रूप देना जो कि नक्सलबाड़ी से जरूर पैदा हुआ, लेकिन जिसे बाद में भारत की एक ऐसी राष्ट्रव्यापी राजनीतिक धारा के बतौर ठोस रूप दिया गया और विकसित किया गया (जिसे कानू सान्याल नहीं समझते हैं और इसलिए वे अपनी विफलता का बुनियादी कारण ढूंढ़ पाने में असफल हो जाते हैं), जो यहां तक कि कामरेड चारु मजुमदार के बिना भी, गिर कर भी उठ खड़ी होती है, और सर्वोपरि, भारतीय सर्वहारा की क्रांतिकारी पार्टी सीपीआई(एमएल) का निर्माण करना.

तथापि, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, क्रांतिकारी परिस्थिति का बढ़ा-चढ़ा कर मूल्यांकन करने, भारत की वस्तुगत परिस्थितियों की अपर्याप्त पकड़ होने और ‘सफाया’ के संघर्ष का सामान्यीकरण करने के चलते, तथा साथ ही, पार्टी में फूट व सांगठनिक अस्तव्यस्तता और बंगलादेश व भारत-सोवियत सैनिक संधि की बदौलत भारतीय शासक वर्गों द्वारा सामयिक तौर पर स्थायित्व हासिल करने की स्थिति में दुश्मन के प्रचंड दमन के सामने हमें बहुत गंभीर धक्के झेलने पड़े.

यह महसूस करते हुए कि सफाया को हद से ज्यादा आगे ले जाया गया है और अधिकांश मामलों में उसे जन संघर्षों के साथ उचित रूप से जोड़ा नहीं जा सका है, कामरेड चारु मजुमदार ने धक्के व पार्टी की सांगठनिक अस्तव्यस्तता की स्थिति का मूल्यांकन किया और राजनीतिक रूप से एकताबद्ध पार्टी तथा कांग्रेस-शासन के खिलाफ मेहनतकश जनता – खासकर वामपंथी पार्टियों से जुड़ी मेहनतकश जनता – के संयुक्त मोर्चे का निर्माण करने का आह्वान किया. उन्होंने सशस्त्र संघर्ष के आधार पर नहीं, बल्कि आम तौर से एकताबद्ध संघर्षों के आधार पर संयुक्त मोर्चे की बात रखी और चुने हुए इलाकों में भूमि-सुधार संबंधी कदम उठाने पर जोर दिया. यह स्पष्ट रूप से नई परिस्थितियों में पीछे हटने की नीति थी – लेकिन योजनाबद्ध ढंग से और क्रमबद्ध तरीके से पीछे हटना नहीं हो सका. अव्वल तो इसलिए कि पीछे हटने को बहुत ही अस्थायी घटना के रूप में देखा गया और कार्यनीति अभी भी शीघ्र ही पुनः फूट पड़नेवाले व्यापक जन उभारों की उम्मीदों पर आधारित थी. दूसरे, इसलिए कि संघर्ष व संगठन के विभिन्न रूपों को अख्तियार करने के बतौर पीछे हटने की नीति व पद्धतियां स्पष्ट रूप से सूत्रबद्ध नहीं की गई थीं.

संघर्ष में धक्का, पार्टी में फूट और पार्टी की केंद्रीय कमेटी के पुनर्गठन के बीच के अंतराल की स्थितियों में कामरेड चारु मजुमदार के प्रति वफादार कतारों ने पार्टी की केंद्रीय कमेटी को पुनर्गठित करने की अल्पकालिक अवधि के लिए उन्हें संपूर्ण प्राधिकार सौंप दिया. उनके इर्द-गिर्द मौजूद कुछ कैरियरवादियों ने इस घटना को आम बना दिया. अपना स्वार्थ-साधन करने के लिए ‘व्यक्तिगत प्राधिकार’ का राग अलापा, पार्टी की केंद्रीय कमेटी को पुनर्गठित करने में बाधाएं उपस्थित कीं और अंततः पार्टी व कामरेड चारु मजुमदार के साथ विश्वासघात किया.

सारांश यह कि पार्टी ने संघर्ष के एक रूप – सफाया – को भारत के हर हिस्से के लिए आम बनाने, इसे एक अभियान के रूप में चलाने, समग्र दिशा और कुछ बिंदुओं पर सफलताओं के बावजूद इस संघर्ष को जन संघर्षों के साथ समन्वित करने की सर्वांगीण व दृढ़ नीति सूत्रबद्ध करने में विफल होने और धक्कों के गंभीर संकेतों के बावजूद सैनिक आक्रमण की स्थिति से राजनीतिक आक्रमण की स्थिति में योजनाबद्ध ढंग से व क्रमबद्ध तरीके से पीछे हटने की व्यवस्था न कर पाने की गलतियां कीं. ये गलतियां पैदा हुई थीं – भारत में मौजूद क्रांतिकारी परिस्थिति को कमोबेश स्थाई उभार के बतौर समझ लेने के अर्थ में बढ़ा-चढ़ाकर आंकने के कारण, भारत की ठोस स्थिति पर अपर्याप्त पकड़ के कारण, आत्मगत आकांक्षाओं से विशिष्ट को सामान्य बना देने की गलत पद्धति के कारण, पार्टी की शैशवावस्था और संशोधनवादी विश्वासघात के प्रतिक्रियास्वरूप पैदा हुए नेतृत्व के उतावलेपन के कारण.

कामरेड चारु मजुमदार की शहादत के साथ ही स्थिति ने जटिल मोड़ ले लिया और केवल उसके पांच साल बाद ही -- यानी, 1977 में – गलतियों को गंभीरतापूर्वक सुधारने की प्रक्रिया सचमूच शुरू हो सकी.

कामरेड चारु मजुमदार की शहादत के बाद 5-6 दिसंबर 1972 को शर्मा और महादेव ने बड़ी तड़क-भड़क के साथ पार्टी की केंद्रीय कमेटी की घोषणा की. लिन प्याओ की घटना के साथ 1973 के आरंभ में उन्होंने एक दूसरे से नाता तोड़ लिया और अपना गुटीय स्वार्थ साधने लिए अपनी-अपनी केंद्रीय कमेटी के नाम से कामरेड चारु मजुमदार की गैर-उसूली निंदा या प्रशंसा में लग गये. खासकर महादेव ने हर किस्म की बेवकूफी के साथ बेहूदगी का सहारा लिया और ‘चारु मजुमदार के प्रत्येक शब्द की विशुद्धता की रक्षा करने’ के नाम पर पार्टी को सीपीसी(चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) के खिलाफ खड़ा कर दिया तथा किसान-संघर्ष से अलग-थलग एक्शनों को तेज कर दिया. इस तरह उन्होंने खास तौर पर बंगाल में क्रांतिकारी शक्तियों को गंभीर नुकसान पहुंचाया और अंततः अपने को ही ले डूबे.

संकट की इस घड़ी में बिहार राज्य कमेटी और नवगठित पश्चिम बंगाल राज्य नेतृत्वकारी टीम के कामरेडों ने महादेव व शर्मा गुट के खिलाफ संघर्ष के अनुभवों का, बिहार में नए उभार के अनुभवों का और पश्चिम बंगाल में गंभीर धक्कों के बाद पुनर्गठन के अनुभवों का आदान-प्रदान किया; इसी बीच दिल्ली के कामरेड भी इस प्रकिया में जुड़े तथा 28 जुलाई 1974 को कामरेड जौहर के नेतृत्व में केंद्रीय कमेटी का पुनर्गठन किया गया. उस समय बिहार में, खासकर भोजपुर व पटना के क्षेत्रों में किसान संघर्ष चल रहे थे और पश्चिम बंगाल में किसान-संघर्ष को पुनः संगठित करने का प्रयास चल रहा था. इन संघर्षों का मार्गदर्शन करने व इन्हें नेतृत्व देने के लिए और धक्के पर विजय प्राप्त करने के लिए एक केंद्र की सख्त जरूरत महसूस की गई. इस केन्द्र की सर्वोच्च कार्यसूची बनी महादेव ऐण्ड शर्मा कं. द्वारा सीएम की लाइन में की जा रही तोड़-मरोड़ को देखते हुए उनकी लाइन के क्रांतिकारी सार की रक्षा करना. पुनर्गठित केंद्रीय कमेटी के घोषित लक्ष्य थे :

(1) कामरेड चारु मदुमदार की लाईन के क्रांतिकारी सार की रक्षा करना;
(2) इस आधार पर पार्टी को राजनीतिक रूप से एकताबद्ध करना;
(3) भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को एकताबद्ध करना.

उस समय इस केंद्रीय कमेटी का कार्यक्षेत्र बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के एक छोटे हिस्से तक ही सीमित था. बाद में असम के कई कामरेड भी इस केंद्रीय कमेटी के साथ आ मिले. उन दिनों आंध्र, तमिलनाडु और केरल के कामरेड भी किसानों के बीच काम कर रहे थे, कुछ जुझारू संघर्ष संचालित कर रहे थे और शर्मा व महादेव गुटों से मिलती-जुलती प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष चला रहे थे. ये कामरेड विभिन्न स्तरों की पार्टी-कमेटियों में संगठित थे. खासकर, तमिलनाडु के कामरेड प्रांतीय पार्टी कमेटी के मातहत एकताबद्ध थे. लेकिन पुनर्गठित पार्टी-केंद्र इन लोगों के साथ संपर्क स्थापित नहीं कर सका, जिसकी वजह से क्रांतिकारी दिशा के साथ पुनर्गठन की प्रक्रिया लंबी खिंच गई. देश के सभी हिस्सों में क्रांतिकारी आंदोलन कुचले जा रहे थे और बहुतेरे कामरेडों की हत्या कर दी गई थी या उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. कुछ समय के बाद शर्मा और महादेव की केंद्रीय कमेटियों में भी फूट पड़ गई, उनका विघटन और पतन हो गया. इन परिस्थितियों में क्रांतिकारी दिशा के साथ पार्टी-शक्तियों को एकताबद्ध करने और किसान-संघर्षों को संगठित करने की कोशिशें जारी रखने के लिए हमलोगों के पास केंद्रीय कमेटी का गठन ही एकमात्र विकल्प था.

केंद्रीय कमेटी के गठन के साथ, बिहार में किसान-संघर्ष को एक नया आवेग प्राप्त हुआ. उत्तर प्रदेश के गाजीपुर व बलिया जिलों में भी और प. बंगाल के नक्सलबाडी में भी सशस्त्र ऐक्शन और कुछेक किसान-संघर्ष संगठित किए गए. कामरेड जौहर ने हमेशा पार्टी और केंद्रीय कमेटी के सामूहिक नेतृत्व के हितों को सर्वोपरि स्थान दिया, भोजपुर के किसान-संघर्ष की व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्रदान किया, तीव्रतम वर्ग संघर्ष के बीच से उभरकर आनेवाली व्यापक शक्तियों को सैनिक कार्यवाहियों में संगठित करने व उनका नेतृत्व करने के लिए विशिष्ट संगठकों व कमांडरों को तैयार करने का कार्यभार प्रस्तुत किया, दुश्मन द्वारा चलाए गए घेराव-दमन अभियान को तोड़ने के लिए और जनता के मनोबल को ऊंचा उठाने के लिए फौजी स्क्वाडों द्वारा चलायमान दुश्मन सेना पर आक्रमण संगठित करने की जरूरत पर जोर दिया. उन्होंने संघर्ष के इन इलाकों को कांग्रेस-विरोधी संयुक्त मोर्चे के आधार की संज्ञा दी.

तथापि, आम तौर से केन्द्रीय कमेटी और खास तौर से कामरेड जौहर काफी हद तक अधिभूतवाद से ग्रस्त थे, जिसके चलते वे सर्वांगीण स्थिति को ध्यान में न रखने और औपचारिक व मनोगत रवैये से निर्देशित होकर विशिष्ट को सामान्य बना देने के गलत व्यवहार को जारी रखे हुए थे, इसलिए उन्होंने अपने दार्शनिक लेख ‘एक विभाजित होकर दो, दो मिलकर एक नहीं’ में सूत्रबद्ध किया कि ‘सही लाइन’ में केवल बुनियादी व विकासमान पहलू ही मौजूद रहते हैं. यह सही लाइन का एक यांत्रिक सूत्रीकरण है. इसने सैद्धांतिक स्तर पर हमारी गलतियों के किसी भी शुद्धीकरण का दरवाजा बंद कर दिया. और भी, चलायमान दुश्मन सेना पर आक्रमण को चलायमान युद्ध की शुरूआत – जिसे सफाया को यांत्रिक ढंग से और ऊंचे स्तर पर ले जाना था – के रूप में सूत्रबद्ध करने और इसे हर जगह के लिए आम बना देने के फलस्वरूप गलत सैनिक लाइन का जन्म हुआ. यद्यपि कई जगहों पर क्रांतिकारी कमेटियों के नेतृत्व में जनसमुदाय को पुलिस व जोतदारों के आक्रमण के खिलाफ बहादुराना प्रतिरोध-संघर्ष में संगठित किया गया और कृषि-संघर्षों को विकसित किया गया, फिर भी जन आंदोलनों को विकसित करने और कृषि-संघर्षों को गहराई में ले जाने के लिए कोई सर्वांगीण व दृढ़ नीति सूत्रबद्ध नहीं की जा सकी. इन गलत चिंतनों के नकारात्मक प्रभावों ने विभिन्न इलाकों में गंभीर नुकसानों तथा बड़े पैमाने पर जनसमुदाय की पहलकदमी के क्षीण होते जाने के रूप में अपने को अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया. नवंबर, 1975 में भोजपुर के संघर्ष के मैदान में कामरेड जौहर शहीद हुए, जब कुछ धूर्त लोग हमारी पार्टी को ध्वस्त करने की कोशिश में, पार्टी को पुनर्गठित करने और पार्टी के अंदर सामूहिक नेतृत्व व जनवादी केंद्रीकता को फिर से बहाल करने में – जिनके बिना भोजपुर के संघर्षों का अस्तित्व नामुमकिन था – कामरेड जौहर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका को नकार कर भोजपुर के नेता के रूप में उनकी प्रशंसा करते हैं, तो वे महज अपने गुट का स्वार्थ-साधन करने के लिए इस महान क्रांतिकारी नेता का अपमान ही करते हैं.

फरवरी 1976 में आयोजित दूसरी पार्टी-कांग्रेस ने, दुश्मन के प्रचंड आक्रमण की स्थिति में, क्रांतिकारी शक्तियों को एकताबद्ध रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लेकिन इसने तत्कालीन राजनीतिक लाइन की पुष्टि भर की. 1976 की पूरी अवधि के दौरान हमने कठिनतम स्थितियों में संघर्ष व पार्टी-संगठन बरकरार रखा. किसानों के विभिन्न हिस्सों को गोलबंद व संगठित करने के राजनीतिक अभियान के रूप में चलायमान ऐक्शन अभियान पर जोर, कभी-कभार ऐक्शन, खेतिहर मजदूरों की हड़ताल के रूप में जन संघर्ष और जनसमुदाय का प्रतिरोध संघर्ष जारी रहे. पटना व उत्तर बिहार के कुछ हिस्सों, उत्तर प्रदेश के गाजीपुर व बलिया तथा पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी व बांकुड़ा में संघर्षों को पुनः संगठित करने, क्रांतिकारी कमेटियों के जरिए जनसमुदाय को संगठित करने और मुख्यतः भोजपुर व नक्सलबाड़ी में सशस्त्र यूनिटों को नवजीवन प्रदान करने की कोशिशें जारी रहीं. 1974 से 1976 तक की पूरी अवधि के दौरान हमारी सबसे बड़ी त्रुटियां रही : पहला, बिहार में छात्रों, नौजवानों और जनता के सभी तबकों के कांग्रेस-विरोधी उभार के साथ जुड़ पाने में हमारी विफलता (बाद में इस उभार का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण द्वारा हथिया लिया गया और उभार नपुंसकता की स्थिति में जा गिरा); और दूसरा, आपातकाल की स्थितियों में, जबकि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, जनता पर दमन ढाया जा रहा था और आंदोलन बिखर गया था, तब हम आंदोलन को नई दिशा प्रदान करने और बची-खुची शक्तियों को संगठित कर पाने में हमारी विफलता. यद्यपि हमने कांग्रेस-विरोधी संयुक्त मोर्चे का निर्माण करने की राजनीतिक लाइन को बरकरार रखा था और अपने इलाकों को इस प्रकार के मोर्चे के नमूनों के रूप में पेश किया था, तथापि हम इसे कांग्रेस-विरोधी जनउभार के साथ जोड़ नहीं सके थे. ऐसा इसलिए हुआ कि हम सीएम की घोषणा पर आधारित संयुक्त मोर्चे के विकास की यांत्रिक धारणा के शिकार थे और इस यांत्रिक ढांचे के परे परिस्थिति का जिस विशिष्ट ढंग से विकास हो रहा था, हमने उसका विश्लेषण करने से इनकार कर दिया था. हमारे  भावी विकास के लिए यह शिक्षा काफी अहमियत रखती है.

1977 के आगमन के साथ ही अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय परिस्थिति और हमारे आंदोलन में बहुत से महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए. तमिलनाडु, आंध्र और केरल के कामरेडों के साथ संपर्क पुनः कायम हुआ, जिसने हमारी पार्टी को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया. आपातकाल के दौरान, जब सभी मोर्चे कमोबेश खामोश पड़े थे, तब कठिनतम घड़ियों का बहादुरी से सामना करते हुए सिर्फ हमलोग ही संघर्ष में डटे हुए थे और उसे जारी रखे हुए थे. इसलिए प्रेस-सेंसरशिप समाप्त होने के साथ ही भोजपुर सुर्खियों में आ गया. 1976 तक आते-आते व्यवहार की द्वंद्वात्मक गति सिद्धांत के क्षेत्र में मौजूद अधिभूतवाद के साथ उग्र रूप से टकराने लगी थी और अपेक्षित माहौल मिलने की स्थिति में, पार्टी एक विराट परिवर्तन के मोड़ पर खड़ी थी. यह सब शुरू हुआ सिर्फ सैनिक युनिटों से संबंधित ‘पार्टी में मौजूद गलत विचारों को सुधारने’ के साथ, जो महत्वपूर्ण राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय परिवर्तनों तथा जनसंघर्षों के विकास और सशस्त्र कार्यवाहियों के उफान – दोनों ही लिहाज से पुनः उमड़ पड़े किसान-संघर्षों के ऊंचे ज्वार के साथ जुड़कर समूची पार्टी में एक सर्वांगीण शुद्धीकरण अभियान के रूप में विकसित हो गया.

संक्षेप में यही है अतीत का हमारा मूल्यांकन, हमारी बुनियादी उपलब्धियों और प्रमुख गलतियों का मूल्यांकन. बहुतेरे अन्य छोटे-मोटे पहलुओं का या तो 1979 के पार्टी सम्मेलन में जिक्र किया जा चुका है या फिर वर्तमान के लिए उनकी प्रासंगिकता नहीं रह गई है. हमारे विश्लेषण से जाहिर होता है कि कैसे अतीत के मूल्यांकन के प्रति विभिन्न रवैयों के फलस्वरूप हमारे आंदोलन में विभिन्न विलोपवादी व अराजकतावादी रुझान पैदा हुए और किस प्रकार हम अतीत से प्राप्त शिक्षाओं को क्रांतिकारी कार्यों को आगे बढ़ाने की मौजूदा जरूरतों के साथ समन्वित कर रहे हैं.

(8 अक्टूबर 1998 को पटना में आयोजित राज्यस्तरीय कैडर कन्वेंशन में दिया गया भाषण;
समकालीन लोकयुद्ध, 1-15 नवम्बर 1998 से. प्रमख अंश)

सबसे पहले आपको हमारे महान नेता का. नागभूषण पटनायक को बारे में बताना चाहूंगा. उन्हें कैंसर हो गया है. डाक्टरों का कहना है कि उन्हें अब बचाया नहीं जा सकता. किसी भी क्षण, किसी भी दिन उनकी मृत्यु हो सकती है. जल्दी ही हम अपने प्रिय साथी नागभूषण जी को खो देंगे.

जहां तक वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का सवाल है, हमने राष्ट्रव्यापी स्तर पर ‘केसरिया हटाओ, देश बचाओ’ अभियान छेड़ रखा है, जो अभी जारी है. यह राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में पार्टी द्वारा तय किया गया अभियान है. यह राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में हमारा नारा है जिसे हर राज्य में लागू करना है.

दूसरी बात यह कि ‘केसरिया हटाओ’ के सवाल पर वामपंथी ताकतों के बीच आमतौर पर सहमति है. लेकिन सीपीआई एवं सीपीएम के अंदर इस प्रश्न के साथ एक सवाल जुड़ गया है. वह यह कि उनके नेतृत्व में केसरिया हटाने के लिए कांग्रेस के साथ जाने, उसके पीछे लगने का चिंतन है. कांग्रेस और भाजपा के खिलाफ अतीत में बना उनका मोर्चा अब खत्म हो गया. अब ये भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने की सोच रहे हैं. इसलिए वे कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष पार्टी कह रहे हैं.

इस प्रश्न पर सीपीआई और सीपीएम के भीतर काफी मदभेद हैं. कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की लाइन पर सीपीआई को चेन्नई कांग्रेस के अपने राजनीतिक प्रस्ताव में काफी बदलाव करना पड़ा. प्रतिनिधियों के दबाव में उन्हें यह कहना पड़ा कि कांग्रेस के साथ हम मोर्चा नहीं बनाएंगे. जब माकपा ने यह देखा तो सीपीआई की कांग्रेस के बाद से वे भी मोर्चा न बनाने की बातें कहने लगे हैं. लेकिन यह सब वे दबाव में कह रहे हैं. इन दोनों दलों के नेतृत्व के मन में दरअसल कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की ही बात है. इसलिए वे व्यवहार में कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने की ही तरफ जाएंगे. औपचारिक तौर पर न सही, अनौपचारिक तौर पर ही सही, पर काम वे यही करेंगे.

हमारी पार्टी के ‘केसरिया हटाओ’ का यह मकसद नहीं है. हम भाजपा को हटाकर कांग्रेस को बिठा देने के पक्ष में नहीं हैं. हम चाहते हैं कि वामपंथी ताकतें आपस में नजदीक आएं और जनवादी ताकतों के साथ मिलकर एक तीसरे मोर्चे की तरफ हम बढ़ें. केसरिया हटाओ की रणनीति को लेकर वामपंथी खेमे में फर्क है, दो तरह के विचार हैं, दो तरह की कार्यपद्धतियां हैं. हमारे लिए यह एक तीसरे मोर्चे का निर्माण करना है, जिसमें कांग्रेस के लिए कोई जगह नहीं होगी, जिसके कोर की भूमिका वामपंथ निभाएगा तथा जनांदोलन ही जिसका आधार होगा. सीपीआई-सीपीएम भी तीसरा मोर्चा बनाने की बातें करते हैं लेकिन वे ऐसा कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर करने को कहते हैं.

जहां तक बिहार का सवाल है, तो बिहार में आनेवाला समय काफी तेज राजनीतिक उथल-पुथल से भरा होगा. इस उथल-पुथल की शुरूआत भी हो गई है. अभी-अभी राष्ट्रपति शासन लगाने की बातें हुईं. हमने मुजफ्फरपुर के अपने राज्य सम्मेलन के समय ही कहा था कि भाजपा द्वारा राष्ट्रपति शासन लगाने का हम विरोध करेंगे. यह विरोध किसी लालू के लिए नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिए है. इसलिए हम यह विरोध करेंगे. सीपीआई-सीपीएम ने तब हम पर लालू के साथ मिलने का आरोप लगाया, हमारे खिलाफ कुप्रचार चलाया. तब वे राजद सरकार की बर्खास्तगी की बाते करते थे. इसके बावजूद हमने कहा कि हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए राष्ट्रपति शासन का विरोधी करेंगे.

अभी जब बिहार में धारा 356 लगाने की बाते हुईं तो पूरे देश में इसका विरोध हुआ. यहां तक कि भाजपा के सहयोगियों ने भी इसका विरोध किया और भाजपा की कोशिश अंततः नाकाम रही. कल तक हमपर आरोप लगाने वाले सीपीआई-सीपीएम भी इस विरोध में शामिल हुए. हम धारा 356 के खिलाफ नहीं हैं. यह संविधान की एक धारा है, रहे. लोकतंत्र के सवाल को हम अमूर्तता में नहीं देखते. राष्ट्रपति शासन कोई अमूर्त शासन नहीं है. अभी इसका मतलब है भाजपा-समता शासन. राष्ट्रपति तो सिर्फ एक प्रतीक होता है, शासन तो वास्तव में केंद्र का ही चलता है. बिहार में प्रश्न यह नहीं था कि लालू-राबड़ी शासन हो या राष्ट्रपति शासन, बल्कि प्रश्न यह था कि लालू-राबड़ी राज रहे या भाजपा-समता राज, वह भी बिना चुने हुए. जिस दिन यह शासन हो जाएगा सारी अफसरशाही भाजपा के इशारे पर नाचेगी. इसी साल दशहरे के मौके पर हमने देखा कि एक तरफ लालू हिजड़ों का अश्लील नृत्य करवा रहे थे तो वहीं दूसरी ओर राजभवन में भाजपा के नेतागण शैम्पेन की पार्टी में मशगूल थे. राष्ट्रपति शासन का यह भी एक उदाहरण ही था. राष्ट्रपति शासन के पीछे और लोगों की मंशा चाहे जो हो, भाजपा-समता की मंशा यह है कि बचे हुए साल-डेढ़ साल के लिए पिछले दरवाजे से सत्ता में प्रवेश कर जाएं और अपने मन मुताबिक पूरी नौकरशाही को, पूरे सिस्टम को व्यवस्थित कर सकें. वास्तव में, राष्ट्रपति शासन की भी राजनीति हुआ करती है. भाजपा वाले यह कह रहे हैं कि अतीत में लगाए गए राष्ट्रपति शासन तो राजनीति से प्रेरित थे, लेकिन बिहार के पीछे कोई राजनीति नहीं. वे सरासर झूठ बोल रहे हैं.

हमारी पार्टी, जो देशभर में केसरिया हटाओ अभियान चला रही है, बिहार में केसरिया लाओ के पक्ष में भला कैसे खड़ी हो जाती. हां, यदि केंद्र में कोई वामपंथी सरकार होती जो लालू जैसे भ्रष्ट शासन को हटाने का प्रयास करती तो बात अलग थी. कब हम राष्ट्रपति शासन का समर्थन करेंगे, कब नहीं करेंगे – यह सब राजनीतिक परिस्थितियों और समीकरणों पर ही निर्भर करता है. हम एक राजनीतिक पार्टी हैं और अपनी राजनीतिक स्थितियों के अनुरूप, अपने वर्गीय हितों के अनुरूप ही हम कोई फैसला करेंगे. अभी की ठोस परिस्थिति में राष्ट्रपति शासन का मतलब पिछले दरवाजे से राज्य में भाजपा-समता का शासन लाना ही है और कुछ नहीं.

जैसी रिपोर्ट मिल रही थी, भाजपा रामबिलास पासवान को सामने खड़ा करके और राजद में तोड़फोड़ करके वैकल्पिक सरकार बनाने की कोशिशें कर रही थी और रामबिलास पासवान भी इसके लिए तैयार बैठे थे. आपने देखा होगा सीपीआई के भीतर चतुरानन मिश्र की धारा को, जो भाजपा के प्रति नरम रुख रखते हैं. हमने इस बात को पहले भी चिह्नित किया था. सीपीआई इन अर्थों में विभाजित है. रामबिलास पासवान, चतुरानन मिश्र तथा जद के अन्य लोग भाजपा-समता के साथ मिलकर, राजद के भीतर तोड़फोड़ करके एक नई सरकार बनाने की कोशिशें जारी रखे हुए हैं.

वाजपेयी ने भी कहा है कि बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने का मामला अभी खत्म नहीं हुआ. राष्ट्रपति के पास दूसरी बार फाइल भेजने की तैयारियां वे कर रहे हैं. लेकिन इसके पहले वे अपने खेमे में मौजूद अंतरविरोधों को दूर करना चाहते हैं और नए तर्क देने के लिए नई परिस्थितियां पैदा करना चाहते हैं. आशंका है कि इसके लिए वे बिहार में कुछ नई घटनाएं भी घटाने की पूरी कोशिश करेंगे. कुछ और दंगे होंगे, घटनाएं होंगी. यह सब वे करेंगे. हम इस मामले में जद के रामबिलास पासवान और सीपीआई के चतुरानन मिश्र के अवसरवाद की कड़े शब्दों में निन्दा करते हैं. हमें अपने उसूलों पर खड़े रहना है.

जहां तक झारखंड का सवाल है, हम झारखंड के पक्ष में हैं. लेकिन साथ-साथ हमें बिहार में एक मांग उठानी चाहिए कि झारखंड के अलग हो जाने से जो राजस्व की क्षति होगी, उसकी भरपाई के लिए केंद्र सरकार कम से कम पांच वर्षों के लिए बिहार को सहायता दे. साथ ही साथ औद्योगिक इलाकों के झारखंड के साथ चले जाने से बिहार में औद्योगिक शून्यता पैदा हो जाएगी. इसलिए हमें केंद्र सरकार से बिहार के औद्योगीकरण के लिए एक कार्ययोजना की मांग भी उठानी चाहिए.

बिहार में दो राजनीतिक शक्तियों – राजद और भाजपा – के बीच ध्रुवीकरण है. लोग भी इसे इसी रूप में देखते हैं और मीडिया भी इसी रूप में प्रस्तुत करता है. किसी तीसरे स्टैंड की बात, तीसरी धारा की बात यहां आमतौर पर लोग महसूस नहीं करते और हमारे स्वतंत्र स्टैंड को भी इस या उस धारा के साथ जोड़कर देखा जाता है. इसलिए बिहार में अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ तीसरा ध्रुव बनाने की बात हमें करनी चाहिए. अभी तक हम यह स्थापित नहीं कर पाए हैं. हमें इसे तोड़ना है. भाकपा(माले) अपनी स्थितियों, अपनी समझदारी, अपने हितों के अनुरूप स्टैंड लेता है. हम एक विशिष्ट पार्टी हैं. संसदीय सीमाओं के दायरे में काम करनेवाले अन्य सभी दलों से भिन्न हमारी नजर संसदीय सीमाओं के बाहर तक रहती है. हमारे लिए यह जरूरी नहीं कि हम बुर्जुआ राजनीति की सीमाओं में ही खुद को बांधकर रखें. हमारा कोई स्टैंड किसी समय किसी खास पार्टी के निकट हो सकता है और दूसरे ही क्षण किसी दूसरी पार्टी के निकट. लेकिन वह हमारा स्वतंत्र स्टैंड ही होता है. इसीलिए हम जब एक ओर राष्ट्रपति शासन का विरोध कर रहे थे. ठीक उसी समय हम अलग झारखंड राज्य के भी पक्ष में खड़े थे और राबड़ी सरकार के विश्वास मत के खिलाफ भी. जबकि सीपीएम झारखंड के खिलाफ और लालू के साथ खड़ी हो गई थी. भाकपा(माले) कभी भी बुर्जुआ राजनीति के ध्रुवों के पीछे नहीं चली है और न चलेगी. यदि संसदीय राजनीति की सीमाएं हमारी स्वतंत्रता के झंडे को बुलंद रखने में बाधक बनती हैं तो उन सीमाओं को भी तोड़ देने से हम परहेज नहीं करेंगे.

बिहार में हमने राबड़ी राज को जंगल राज कहा है. वर्षों से हमारी पार्टी इनका दमन झेलती आई है. लेकिन इनके खिलाफ हमारा संघर्ष कभी नहीं रुका. यह जैसे जारी था, वैसे ही आगे जारी रहेगा. हम बिहार में तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश करते रहे हैं. इस दिशा में हमने सीपीआई के साथ प्रयास चलाए. लेकिन सीपीआई की हालत ‘रस्सी जल जाए, पर ऐंठन न जाए’ वाली है. वे गिरती हुई ताकत हैं, क्षयशील ताकत हैं. परंतु हर बात में वे अपना नेतृत्व बनाए रखने के लिए परेशान रहते हैं. चूंकि वे जनांदोलनों में नेतृत्व नहीं कायम कर सकते, इसलिए वे हर छोटी-छोटी बात में अड़ंगा डालते हैं. हर समय भाकपा(माले) के अलगाव में डालने की कोशिश वे करते रहते हैं. हमने बहुत सारे लोगों से तीसरे मोर्चे की दिशा में बढ़ने के लिए कहा. लेकिन कुछ लोग भाजपा-समता की तरफ चले गए और कुछ लालू की ओर.

इसलिए अभी हमें अकेले ही चलने की मानसिकता बनानी चाहिए. हमे अपना जनसंपर्क अभियान तेज करना चाहिए. मोर्चा बनाने की स्थिति अभी-अभी नहीं है. इसलिए फिलहाल जनसंपर्क अभियान को बड़े पैमाने पर पूरे बिहार में जारी रखा जाए.

इस दौरान राज्य नेतृत्व की पहलकदमी को लेकर जो आलोचनाएं आप सब की तरफ से आई हैं, उसपर राज्य नेतृत्व को गहराई से सोचना चाहिए. बाढ़ के सवाल पर हमें और पहलकदमी लेनी चाहिए थी. अन्य घटनाओं में भी हम सबसे बाद में पहुंचने वाली ताकत बने रहे. कुछ साथियों को इस मामले में जिम्मेवार बनाया गया था, उन्हें हर तरह की सुवीधा भी दी गई. लेकिन अभी भी इसमें कमियां रह जा रही हैं. आज का समय पहलकदमीयों का है. हर घटना में भाकपा(माले) को दिखना चाहिए. जिस तरह का उथल-पुथल का दौर है, उसमें बहुत कुछ हमारी पहलकदमी पर निर्भर करता है. जिस पार्टी की पहलकदमी होगी, उसी का भविष्य होगा. अभी-अभी जो बिहार की परिस्थिति है, उसमें हमें मोर्चा बनाने के चक्कर में न पड़कर सीधे जनता के बीच जाना चाहिए. नीचे से जनता को और अन्य कतारों को अपने साथ जोड़ते जाना है. अगले एक साल तक हमें इसी दिशा में कड़ी मेहनत करनी चाहिए. इसके बाद ही कोई तीसरा मोर्चा बनेगा.

हमें इस कन्वेंशन से यही संदेश लेकर जाना चाहिए कि हमें अपने पैरों पर खड़ा होना है. आने वाले दिनों में दमन-अत्याचार की घटनाएं तेजी से बढ़ेंगी. दमन-अत्याचार की हर कोशिश के खिलाफ हमें जन प्रतिरोध बढ़ाना है. हमारे नेताओं की कोई भी गिरफ्तारी शांतिपूर्ण तरीके से न हो, हजारों लोग इसका प्रतिरोध करें. फोन से, अधिकारियों से मिलने से चीजें नहीं बदलेंगी. अपने प्रतिरोध की ताकत को विकसित करिए. इसी आह्वान के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूं.

(25 मई 1998 के मुजफ्फरपुर में पांचवें बिहार राज्य सम्मेलन में उदघाटन भाषण; समकालीन लोकयुद्ध, 1-15 जून 1998 से. प्रमुख अंश)

नक्सलबाड़ी की चिंगारी बिहार में सबसे पहले इसी जिला मुजफ्फरपुर के मुसहरी में गिरी थी. तीस वर्ष बाद बिहार के सभी अगुआ क्रांतिकारी आज इसी शहर में इकट्ठा हैं, अपने आंदोलन की एक नई शुरूआत करने के लिए. इतिहास का यह नियम है – आंदोलन की शुरूआत, उसकी कुछ उपलब्धियां, फिर एक नई शुरूआत. बेशक, यह नई शुरूआत किसी शून्य से नहीं होती. पिछले अनुभवों से ही जन्मती और संवरती है. उसमें इतिहास की एक निरंतरता होती है. हमने वर्षों में तीखे संघर्ष चलाए हैं. इसमें हमें रणवीर सेना जैसी निजी सेनाओं और पुलिस का दमन आतंक झेलना पड़ा है. बहुतेरे जनसंहार रचाए गए और हमारे अगुआ कमारेडों की हत्याएं की गईं. लेकिन हमने आंदोलन का रास्ता नहीं छोड़ा. हमने बिहार में जो सत्तारूढ़ दल है, उसके भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाया. पिछले पांच वर्षों में हमने हर मोर्चे पर लड़ाइयां लडीं. आज हमें तमाम कामकाज का, उसमें आए गतिरोध का शोध करना चाहिए, ताकि बिहार में लोकतंत्र के लिए लड़ाई को हम नए सिरे से शुरू कर सकें. एक नई शुरूआत की बात इसलिए भी कि जनता को गोलबंद करने का काम कभी पूरा नहीं होता. हमें जनता को नए नए सिरे से जगाने, संगठित करने, नई पहल लेने, आंदोलन चलाने के लिये नए नारे और नई कार्यशैली विकसित करनी पड़ती है. यह चुनौती हमारे सामने है.

केन्द्र में एक नई सरकार आई है. नई सरकार अपने नेशनल एजेंडे के प्रति कितनी गंभीर है, यह हम नहीं जानते; पर यह जरूर है कि उस पर बात नहीं हो रही. वह जोर-शोर से आणविक विस्फोट करने में लगी हुई है. हमने सीटीबीटी पर दस्तखत करने की मुखालफत की थी. पश्चिमी देशों द्वारा आणविक बमों के एकाधिकार का भी हम विरोध करते हैं. भारत को परमाणविक बम बनाने का विकल्प खुला रखने के हम विरोधी नहीं हैं. पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का भी हम विरोध करते हैं और देश की आजादी पर कोई भी आंच आने से हम कम्युनिस्ट कुर्बानी देने में सबसे आगे रहेंगे. एकाध अपवादों को छोड़ कर – मसलन 1942 के आंदोलन को छोड़ कर – आजादी की लड़ाई में कम्युनिस्टों द्वारा दी गई शहादत इसकी गवाह है. आजादी की लड़ाई में भगत सिंह जैसे तमाम क्रांतिकारी या तो कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित थे या उसके नजदीक आए. लेकिन आरएसएस का ऐसा कोई इतिहास नहीं. माननीय प्रधानमंत्री का कोई इतिहास है भी तो अंग्रेज सरकार के लिए मुखबिरी करने का इतिहास रहा है. आडवाणी के तो समूचे खानदान में से कोई आजादी की लड़ाई में नहीं रहा.

फिर भी सवाल तो यह उठेगा कि भारत की प्रतिरक्षा को खतरा क्या था कि अणु बम बने? चीन से दोस्ती का माहौल बन रहा था. पंजाब, जम्मू-कश्मीर राज्यों में हुए सफल चुनाव पाकिस्तान की ओर से खतरे की तत्कालिकता नहीं साबित करते. तो फिर यह अचानक विस्फोट देश की रक्षा के लिए हुआ है कि गद्दी की रक्षा के लिए? हमारे देश में भाजपा एक ऐसी पार्टी है जो बिना उन्माद फैलाए अपने आधार को न टिकाए रख सकती है, न बढ़ा सकती है. अब चूंकि राममन्दिर कारगर नहीं रहा, सो अंधराष्ट्रवाद का उन्माद पैदा करना उनकी एक जरूरत थी. हमने परमाणु विस्फोट का विरोध इसलिए किया कि यह किन्हीं वास्तविक खतरे के मुद्देनजर नहीं, कृत्रिम खतरों के नाम पर किया गया. तमाम झूठ के सहारे जार्ज शुरू से और सुनियोजित ढ़ंग से चीन विरोधी माहौल बनाने में लगे. देश को परमाणविक विस्फोट के लिए मानसिक रूप से तैयार किया जाने लगा था.

इन्दिरा जी ने भी परमाणु विस्फोट कराया था लेकिन उसका हश्र क्या निकला – आपात्काल. ये भी संविधान समीक्षा के जरिए राष्ट्रपति प्रणाली के नाम पर ‘एक’ सुयोग्य व्यक्ति अर्थात् एक हिटलर को लाने जैसी बातें कर रहे हैं. भूलवश जो लोग इस उन्माद में बह रहे हैं, उन्हें यह जरूर याद रखना चाहिए. विस्फोट की खुशी रणवीर सेनावालों ने भोजपुर के नगरी बाजार पर चढ़ाई कर आठ गरीबों की हत्या करके मनाई. हमारी पार्टी ने इस विस्फोट के जरिए जो वर्गीय गोलबंदी की जा रही है, उसका विरोध किया है. आप देख रहे होंगे वामपंथ के खिलाफ इन्होंने निशाना साधना शुरू कर दिया है, हम हर कीमत पर इस चुनौती का सामना करेंगे. पोखरण विस्फोट पर प्रधानमंत्री ‘जय जवान! जय किसान!! जय विज्ञान!!!’ का नारा लगा रहे हैं. लेकिन ये नारा बाहरी खपत के लिए है. अन्दर खाते वे खुद – जय ललिता! जय ललिता!! का नारा दुहरा रहे हैं. जयललिता विस्फोट फिर एक नया आकार ले रहा है.

बिहार की राजद सरकार हमारे सामने दुहरी भूमिका में मौजूद है. राज्य की वह सत्ता पक्ष है और केन्द्रीय सरकार के मुकाबले में वह विपक्ष है. उसकी इस दुहरी चरित्र की सरकार के साथ हमारी कार्यनीति दुहरी होगी. अगर राजद सरकार को गिराया जाता है तो हम उसका विरोध करेंगे, लेकिन अंदरूनी तौर पर यह एक प्रतिक्रियावादी सरकार ही है. इसने पूरे बिहार का बंटाधार कर दिया है. उसके पास न कोई नया कार्यक्रम है, न नया नारा. इसके जनविरोधी चरित्र के खिलाफ हम डट कर लडेंगे.

पिछले लोकसभा चुनाव में वामपंथी दलों में हमारी पार्टी ही एक ऐसी पार्टी थी जिसने सबकुछ के बावजूद अपना आधार बढ़ाया है. सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी बनने के लिए हमारे सामने अनुकूल परिस्थिति है. हम राजद के सामाजिक न्याय के पाखंड का विरोध करके ही आगे बढ़ सकते हैं, लालू के पीछे-पीछे चल कर नहीं. सीपीआई-सीपीएम का यह रास्ता गलत साबित हो चुका है. हमारा रास्ता ही वामपंथ के विकास का सही रास्ता है. इसके और समृद्ध करने की जरूरत है.

हमें कम्युनिस्ट कार्यशैली को विकसित करना होगा. ऊपर के फैसलों को आंख मूंद कर लागू करना, शासन-प्रशासन से दाएं-बाएं करके, सोर्स-पैरवी लगाकर काम करा लेना कम्युनिस्ट कार्यशैली नहीं हो सकती. बड़ी एकता के लिए काम करना – एकता नजदीक के साथियों से ही नहीं; अपनी पूरी कमेटी, पूरी पार्टी कतारों और हर तबके के लोकतंत्र पसंद लोगों के साथ एकता कायम करना – यह बड़ी एकता हमारी कम्युनिस्ट कार्यशैली का अंग है.

सामाजिक जांच-पड़ताल के बगैर अपने प्रचार को सृजनात्मक और जीवंत बनाना संभव नहीं है. इस कार्यशैली के न होने से एक बड़ा लोकतांत्रिक आंदोलन का मोर्चा जो हमें खड़ा करना है हम नहीं खड़ा कर पा रहे हैं. आपका सम्मेलन कम्युनिस्ट कार्यशैली के इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर जरूर गौर करेगा. पूरे बिहार में लोकतंत्र की आकांक्षा को मूर्त रूप देने की जिम्मेदारी हमारी पार्टी पर है और इसका अवसर भी है.

हमारी नई शुरूआत का लक्ष्य इस बार एक ऐसी बड़ी छलांग लगाना होना चाहिए कि हम पूरे बिहार की आकांक्षाओं को मूर्त रूप देने वाली सबसे बड़ी, मजबूत और लड़ाकू पार्टी बन कर उभरें. दक्षिणपंथी सत्ताधारी ताकतों का धावा बढ़ गया है. उसका मुकाबला सिर्फ कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ही कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं. हमारी पार्टी को यह चुनौती कबूल करनी होगी.

(लिबरेशन, जनवरी 1998 से)

बिहार का इतिहास पिछले दशकों से जनसंहारों से भरा पड़ा है – दलित जातियों के ग्रामीण गरीबों के ऐसे जनसंहारों से, जिन्हें जमींदारों की विभिन्न सेनाओं ने अंजाम दिया है. ग्रामीण गरीबों की दिन-ब-दिन बढ़ती राजनीतिक दावेदारी को दबाने तथा अपने-अपने जातीय वर्गीय विशेषाधिकारों को कायम रखने की पागलपन भरी कोशिश में जमींदारों और कुलकों के नए वर्गों ने समूची आम जनता को आतंकित करने के एक हथियार के बतौर इस आतंक की कार्यनीति का अक्सर सहारा लिया है. फिर भी 1 दिसम्बर की रात जहानाबाद के लक्ष्मणपुर-बाथे में हुआ जनसंहार एक भिन्न मामला है और इसने भारतीय स्वाधीनता के ठीक पचासवें वर्ष में राष्ट्र की चेतना को झकजोर दिया है. निस्तब्ध रात्रि में ठंटे दिमाग से सम्पन्न इस हत्याकांड में कुल 61 लोग मारे गए. इनमें से दो तिहाई बच्चे, महिलाएं और बूढ़े थे. सभी मृतक खेत मजदूर वर्ग के थे और सामाजिक ढांचे के लिहाज से दलित थे. अपनी सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के संघर्ष में उन्होंने भाकपा(माले) की क्रांतिकारी पताका उठा रखी थी.

हत्यारे रणवीर सेना के लोग थे. यह सेना ऊंची जाति के जमींदारों की एक फौज है जिसे भाजपा ने राजनीतिक सहारा दे रखा है तथा राजद का एक हिस्सा भी जिसका समर्थन करता है.

इस बार जहानाबाद के एक ऐसे गांव को निशाना बनाया गया है जो भोजपुर, पटना और औरंगाबाद जिलों से सटा हुआ है. मूल उद्देश्य था – इसका संदेश समूचे बिहार में भेजना. वक्त भी मानीखेज था, क्योंकि केन्द्र में राजनीतिक संकट परिपक्व हो चुका था और सत्ता एक कामचलाऊ सरकार के हाथों में थी. इस प्रकार, दोनों ही उच्च जातियों – भूमिहार और राजपूत – को गोलबंद करके यह जनसंहार धुर प्रतिक्रियावादी शक्तियों के राजनीतिक प्रत्याक्रमण की शुरूआत का भी प्रतीक बन गया. जैसा कि रिपोर्टों से जाहिर होता है, यह चुनाव के पहले रचाए जानेवाले जनसंहार त्रयी में से पहला था. दो अन्य जनसंहार रोहतास और बक्सर जिलों में किए जाने की योजना बनी है.

समूची कार्यवाही बड़ी विलक्षणता के साथ पूरी की गई. समूचे जहानाबाद ही नहीं पड़ोस के सभी जिलों से पेशेवर हत्यारे इकट्ठे किए गए – रिकार्ड बनाने के लिए और अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में जगह पाने के लिए. हत्याओं की संख्या पहले से निर्धारित कर ली गई और इसीलिए औरतों और बच्चों को खासतौर पर निशाना बनाया गया. कार्यवाही सरलता से पूरी हो, इसके लिए एक नरम लक्ष्य चुना गया, जहां लोग सर्वाधिक बेखबर थे, ऐसी किसी आपदा से जूझने के लिए रत्तीभर तैयार न थे और लिहाजा, वहां प्रतिरोध का कोई खतरा न था.

रिकार्ड तो निस्संदेह कायम किया गया – न केवल हत्याओं की संख्या के लिहाज से, बल्कि बर्बरता और कायरता के पैमाने के लिहाज से भी. साथ ही साथ एक और रिकार्ड कायम किया गया – प्रचार माध्यम द्वारा. इसने, खासकर बिहार में पाखंड की सारी सीमाएं लांघ डालीं. जनसंहार के फौरन बाद संघ परिवार का प्रचारयंत्र धड़धड़ाने लगा और प्रचार माध्यम इसी की धुन पर राग अलापने लगा. पटना के एक प्रख्यात पत्रकार ने एक राष्ट्रीय दैनिक में लिखा कि यह रणवीर सेना और नक्सलियों के बीच झड़प की वही पुरानी कहानी है. फर्क केवल इतना है कि इस बार नक्सली निहत्थे थे. ठंढे दिमाग से किए गए महिलाओं और बच्चों के इस जनसंहार को कितनी चालाकी से आए दिन होनेवाली मुठभेड़ बना दिया गया! उन्हीं पत्रकार महोदय ने अपने परवर्ती लेखों में रणवीर सेना को विवेकहीन नक्सली हिंसा के विरुद्ध किसानों की तीव्र मानसिक यातना की अभिव्यक्ति बतलाया. ऊंची जाति के तमाम पत्रकारों ने यही रुख प्रदर्शित किया. एकाध ही अपवाद निकले. अखबारों में बड़ी हिम्मत के साथ उन ऊंची जाति बहुल गांवों की लंबी सूची छापी गई, जो तथाकथित नक्सली प्रतिरोध के मुहाने पर खड़े थे तथा पीपुल्स वार ग्रुप के दस्तों के बिहार में घुस आने की गप्पें फैलाई गईं. लक्ष्मणपुर-बाथे से प्रारंभ होनेवाले समाचार विश्लेषण का उपसंहार अंततः कानून और व्यवस्था की आमतौर पर बिगड़ती हालत के प्रति चिंता तथा नक्सली उग्रवादियों के विरुद्ध कार्यवाहियों की मांगों में हुआ, क्योंकि वे समानान्तर सरकारें की जुर्रत और पुलिस पर भी हमला करने की जुर्रत कर रहे हैं.

प्रतिरोध की खबरों को दबा दिया गया और भाजपा द्वारा की जा रही भूख हड़ताल और वाजपेयी की यात्रा को जमकर उछाला गया. यह सब बड़ी निपुणता से चली गई चाल थी ताकि लोगों का ध्यान रणवीर सेना की ओर से, भाजपा के साथ इसके हाड़-मांस के रिश्ते की ओर से, हटाया जा सके तथा प्रशासन पर दबाव डाला जा सके कि वह अपनी कार्यवाहियों का निशाना खुद जनसंहार के पीड़ितों को बनाए.

यह जनता के खिलाफ उठनेवाली युगों पुरानी कलम की दास्तान थी. फर्क केवल इतना है कि इस बार यह कलम बंदूक से सीधे-सीधे जुड़ी हुई थी! कहना फिजूल है कि राज्य मशीनरी ‘कलमधारी हत्यारों’ पर पसीजने के लिए बड़ी आतुर थी. लिहाजा, रणवीर सेना के विरुद्ध एक प्रतीकात्मक कार्यवाही के फौरन बाद – और सो भी मैदान से ज्यादा कागज पर – प्रतिरोध की रोकथाम करने के बहाने सारा जोर जनता की शक्तियों को नष्ट करने की ओर मोड़ दिया गया.

ग्रामीण गरीबों की मुक्ति यात्रा में इन सभी रंग-बिरंग भाड़े के टट्टुओं की साजिशें अभी भी खत्म नहीं हुई हैं. प्रतिरोध तेजी से बढ़ रहा है और विराट आकार ग्रहण करता जा रहा है.

5 दिसम्बर को 13 पार्टियों के वाम-लोकतांत्रिक मोर्चे ने बिहार बंद का आह्वान किया था. घटनावश, तमाम किस्म के बंदों पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई कुख्यात मुसलसल पाबंदी के बाद आयोजित किया जानेवाला यह पहला बंद था. ढेर सारी अन्य जनवादी शक्तियों ने इस बंद का समर्थन किया था और इसे हैरतअंगेज सफलता मिली. समूचे देश और यहां तक कि विदेशों के प्रगतिशील लोगों ने भी इस जनसंहार की निन्दा की. अनेक प्रख्यात बुद्धिजीवी प्रतिरोध में शरीक हुए.

इस जनसंहार से ग्रामीण गरीबों में घोर वर्गघृणा पैदा हुई. इसने अपनी कतारों को एकताबद्ध करने के उनके संकल्प को शक्तिशाली बना दिया और उनमें अधिकाधिक मात्रा में यह अहसास भर दिया कि आक्रमणात्मक कार्यवाहियां ही आत्मरक्षा के सर्बोत्तम उपाय हैं. अरवल में आयोजित पार्टी रैली को भारी सफलता मिली. रणवीर सेना के खिलाफ युद्धघोष से आकाश गूंज उठा. हजारों नौजवान क्रोध से उबल रहे थे और वे इस संकल्प के साथ घर लौटे कि वे इस युद्ध को खुद दुश्मन की भूमि पर लड़ेंगे.

रणवीर सेना के उदय के बाद अब वर्गयुद्ध मध्य बिहार के इस या उस अंचल तक सीमित नहीं रह गया है. इसकी लपटों  से समूचा मध्य बिहार घिर चुका है. इसने व्यापक वर्गीय एकता के निर्माण की शर्तें भी पैदा कर दी हैं, जिस एकता को लहू प्रगाढ़ बनाएगा. इस वर्गयुद्ध ने सामाजिक न्याय के पाखंडी मसीहा लालू यादव को भी अप्रासंगिक बना दिया है. जिन्होंने अपने पूर्वावतार में हमारी पार्टी को नेस्तनावूद करने की चाणक्य नीति (मैकियावेली साजिश) के तहत रणवीर सेना को प्रोत्साहित किया था. दरअसल, आज रणवीर सेना उनके लिए भस्मासुर बन गई है और आज के बदले हुए राजनीतिक वातावरण में, जबकि भाजपा का राजनीतिक प्रत्याक्रमण बढ़ता ही जा रहा है, यह खुद उनके अपने जनाधार को आंखें दिखा रही है. इसने सच पूछिए तो हमारी पार्टी की पहलकदमी पर एक नए सामाजिक समीकरण को अंजाम देने के लिए अनुकूल परिस्थिति तैयार कर दी है. पार्टी ने विभिन्न रूपों में अपने प्रत्याक्रमण तेज कर दिए हैं तथा भोजपुर में, खासकर, पार्टी कांग्रेस के ठीक पहले और बाद की कुछ कार्यवाहियों ने ग्रासरूट स्तर तक पहलकदमी उन्मुक्त करने में मदद की है.

रणवीर सेना की, ‘राष्ट्रीय शर्म’ से देश का सिर झुकाने वाले इन हत्यारों की, चुनौती का जवाब देना ही होगा. बिहार के ठोस संदर्भ में, क्रांतिकारी किसान संघर्ष को आगे बढ़ाने और केसरिया फौज के हमले को रोकने की राष्ट्रीय जिम्मेदारी एकाकार हो गई है और घुल-मिलकर एक ही कार्यभार बन गया है – वह है रणवीर सेना को उखाड़ फेंकना.

ग्रामीण सर्वहारा अपनी सामाजिक-आर्थिक मुक्ति और राजनीतिक स्वाधीनता के लिए अपना खून बहा रहा है. हमारा कर्तव्य है कि हम अपने वर्ग बंधुओं की हत्या का बदला लेने के लिए जनता को संगठित करें. इसके लिए हमें खासकर प्रचार माध्यम की बेरुखी को मद्देनजर रखते हुए व्यापक भंडाफोड़ अभियान चलाना होगा, तमाम किस्म के संकीर्णतावादी रुखों को त्याग देना होगा तथा तमाम सकारात्मक शक्तियों को एकताबद्ध करना होगा एवं अपनी तैयारियों को ऊंचे से ऊचे स्तर तक उठाना होगा ताकि कसाइयों और कायरों की इस सेना को मारक चोट दी जा सके.

यह युद्ध निस्संदेह जीता जा सकता और इसे अवश्य जीतना है. यह मानव प्रगति, जनवाद और सच्चे राष्ट्रवाद की पुकार है. यह आधुनिक दौर का तकाजा है.

(लिबरेशन, जुलाई 1997 से, प्रमुख अंश)

लालू प्रसाद यादव के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने के लिए सीबीआई को राज्यपाल की अनुमति मिल जाने के बाद लालू यादव बिहार पर शासन करने की नैतिक और राजनीतिक वैधता खो चुके हैं. इसी के साथ, उनके इस्तीफे की मांग कहीं ज्यादा मुखर व व्यापक हो गई है : वामपंथ के तमाम तबके और जनता दल का भी एक हिस्सा इसकी मांग कर रहे हैं. हर लिहाज से, यह उनके अंत की शुरूआत बन चुकी है. इस नई परिस्थिति में, वामपंथ की स्थितियों की समीक्षा करना जरूरी है.

दूसरे ही दिन, बिहार के एक प्रमुख वामपंथी विचारक ने टाइम्स ऑफ इण्डिया में लिखते वक्त, लालू के प्रति वामपंथ के रवैये को परिभाषित करने के लिए हेमलेट की प्रसिद्ध दुविधा – ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ (होने या न होने) – का प्रयोग किया. उन्होंने लिखा कि अगर वामपंथ ने पहले लालू यादव पर भरोसा करने की गलती की, तो अब लालू-विरोधी जंग की लहरों पर सवारी गाठकर वह फिर वही गलती दुहराएगा. कारण यह, कि जनसमुदाय के बीच लालू के प्रति पर्याप्त समर्थन अभी बरकरार है और भाजपा भी इस उथल-पुथल का फायदा उठाने को तैयार है. हालांकि उन्होंने वामपंथ की इस नई पहलकदमी का स्वागत किया है, लेकिन वे इस गुत्थी को नहीं सुलझा सके और अंत में यही आश्चर्य प्रकट किया कि लालू के पतन से फायदा किसको होगा?

वामपंथ से उनका मतलब स्पष्टतः सरकारी वामपंथ से था, जिसमें खुद उनका भी छोटा ग्रुप शामिल है और जो ‘राजा के प्रति अधिक निष्ठावान’ की कहावत चरितार्थ करते हुए, इन तमाम वर्षों में लालू के पीछे घिसटता रहा है.

स्पष्ट कारणों से उन्होंने भाकपा(माले) का कोई उल्लेख नहीं किया है. उनके लिए यह स्वीकार करना काफी दुश्वार हो जाता कि सात वर्षों के लालू शासन के दौरान भाकपा(माले) ने शुरू से ही एक बुर्जुआ नेता पर भरोसा कर लेने के खिलाफ कड़ी चेतावनी जाहिर की थी, इस तथाकथित मंडल-मसीहा के बारे में भंडाफोड़-अभियान आरंभ कर दिया था, कार्यवाही का अपना स्वतंत्र रास्ता बनाया था और उनके कुशासन के खिलाफ लोकप्रिय आंदोलनों की रहनुमाई की थी. इस बात के लिए भाकपा(माले) को लालू के करिश्मे से चमत्कृत सभी सरकारी कम्युनिस्टों का गुस्सा झेलना पड़ा, उसे प्रगति की राह में रोड़ा अटकाने वाला मंडल विरोधी करार दिया गया और यहां तक कि उसपर सामाजिक न्याय के शासन को गिराने के लिए साम्प्रदायिक ताकतों के साथ हाथ मिलाने का भी आरोप लगाया गया. बहुत कम लोग यह जानते हैं कि तथाकथित अति-वामपंथी संगठनों के द्वारा भी कमोबेश इसी तर्ज पर भाकपा(माले) की आलोचना की गई है. सरकारी कम्युनिस्ट, और साथ ही साथ सरकारी अराजकतावादी – इन दोनों ने आखिरकार लालू यादव के साथ घनिष्ठ रिश्ता विकसित कर लिया है, जिसने भाकपा(माले) को बदनाम करने और यहां तक कि इसके कार्यकर्ताओं को मरवाने में भी उनका भरपुर इस्तेमाल किया है.

इतिहास निश्चय ही एक भिन्न रास्ते पर आगे बढ़ा है. एक चक्र पूरा हो जाने के बाद ‘गरीबों का मसीहा’, जिसने देशी श्रोताओं को अपनी गंवारू शैली से मुग्ध कर लिया और जिसने खुद को ‘किंगमेकार’ घोषित कर रखा था, वह बेईमान घोटालेबाजों का सरगना साबित हुआ, जिसने अपने निजी स्वार्थों के लिए और अपने पूरे ब्रिगेड को खुश रखने के लिए सरकारी खजाने की लूट को ही अपना एकसूत्री कार्यक्रम बना लिया है. वामपंथी प्रवक्ता और साथ ही मीडिया के लोग लालू को महिमामंडित करने से अब अपना हाथ पीछे खींचने और बहती गंगा में हात धोने के तथ्य को छुपाने के लिए यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि लालू का पतन तब शुरू हुआ, जब उन्होंने काफी शक्ति अर्जित कर ली और वे उद्दंड बन गए. यह सफेद झूट है. जैसा कि तथ्य बताते हैं, लालू यादव चारा घोटाले में तब से शामिल हैं जब वे विरोध-पक्ष के नेता थे, और सत्ता में आने के बाद वे इस धंधे में नाक तक डूब गए. उनका समस्त सार्वजनिक प्रदर्शन उनके कुकृत्यों को ढंकने के आवरण के अलावा और कुछ नहीं.

उनकी सामंतवाद-विरोधी छवि भी बिलकुल झूठी थी. उनके गिरोह की पूरी संरचना ही इस सच्चाई को उदघाटित करनेवाली है जिसके 56 सदस्य घोटालों के आरोपी हैं और जिनमें सवर्ण सामंती हितों के कुख्यात शूरमाओं के नाम शामिल हैं. उनका प्रत्यक्ष एजेंडा तो यह था कि बिहार के राजनैतिक तंत्र पर सवर्ण सामंती पकड़ को कमजोर किया जाए और भाजपा की बढ़त को रोका जाए, लेकिन उनका परोक्ष एजेंडा यह था कि पिछड़ों और अगड़ों के संभ्रांत कुलीनों के बीच संतुलन कैसे कायम किया जाए और बिहार में बढ़ते क्रांतिकारी वाम आंदोलन पर अंकुश कैसे लगाया जाए. भारतीय शासक वर्गों के प्रखर प्रतिनिधि उनके इस परोक्ष एजेंडे को बखूबी समझते थे और इसी एकमात्र वजह से उनलोगों ने बिहार की अन्यथा विस्फोटक क्रांतिकारी परिस्थिति में एक प्रति-संतुलनकारी ताकत के बतौर लालू यादव का समर्थन किया.

बहलहाल, लालू यादव पिछड़ी जातियों पर अपनी पकड़ बनाए रखने में असफल हो गए और समता पार्टी के रूप में हुए विभाजन ने भाजपा को अगड़ा-पिछड़ा शक्ति संतुलन का एक वैकल्पिक फलक पेश करने का मौका मुहैया कर दिया. दूसरी ओर, भाकपा(माले) ने लालू की दाम-दंड (आर्थिक प्रलोभन देने और दमन करने) की नीति के आगे झुकने से इनकार कर दिया और वह ग्रामीण गरीबों तथा दलित सामाजिक तबके की लोकप्रिय गोलबंदी के साथ आगे बढ़ती रही. इनके ऊपर लालू का प्रभाव काफी हद तक खत्म हो गया. हालांकि बिहार में यह भाकपा(माले) के लिए सबसे रक्तरंजित दौर रहा है, जिसमें हमारी पार्टी को भोजपुर में सवर्ण सामंती लामबंदी की क्रोधाग्नि, सीवान में अगड़ा-पिछड़ा शक्तिसमूहों की ओर से संचालित संयुक्त हत्याकांडों तथा मध्य और दक्षिण बिहार में एमसीसी-पीयू के हमलों का सामना करना पड़ा और इन तमाम चीजें को लालू प्रशासन ने मदद पहुंचाई और उसे बेरोकटोक चलने दिया. मगर फिर भी पार्टी ने मजबूती से अपनी बंदूकें थामे रखीं और लालू शासन के खिलाफ ग्रामीण गरीबों की लोकप्रिय गोलबंदी का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं दिया. घोटाला से कलंकित शासन के खिलाफ पार्टी ने अबतक की सबसे बड़ी गोलबंदी संगठित की, जिसके मुकाबले विरोध पक्ष की तमाम राजनीतिक पार्टियां काफी पीछे छूट गईं.

सात वर्ष के शासन के बाद लालू के अपने सामाजिक आधार में क्षरण हुआ है. साथ ही उनकी राजनीतिक दांवपेंच की क्षमता भी कमजोर पड़ी है और, इस प्रक्रिया में, उन्होंने अपने वामपंथी संश्रयकारियों को भी हाशिए पर धकेल दिया है तथा झामुमो को विनष्ट किया है, जो भाजपा की बढ़त को रोकने के लिहाज से कम से कम एक ‘बफर’ की भूमिका तो निभा ही रही थी. दूसरी ओर, भाजपा ने अपनी ताकत में काफी इजाफा किया और भाकपा(माले) भी मुख्य धारा के वामपंथ के रूप में उभर उठी. अपने परोक्ष एजेण्डा को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाने में लालू की पूर्ण विफलता ने ही उन्हें शासक वर्गों की रणयोजना के लिए अप्रासंगिक बना दिया. शासक वर्गों के खिलाफ उनका तथाकथित जेहाद, जिसे छेड़ने और चलाने का वे खुद दावा करते हैं और उपरोक्त वामपंथी विचारक ने भी जिस ओर इशारा किया है, किसी भी तरह शासक वर्गों द्वारा उन्हें रद्दी की टोकरी में फेंक दिए जाने का कोई कारण नहीं है.

लफ्फाजी झाड़ने में हमारे लालूजी का कोई जोड़ नहीं. जहां तक वामपंथ के प्रति उनके रवैये का संबंध है, तो अपने एक प्रसिद्ध वक्तव्य में उन्होंने वामपंथ को एक विकृति बताया है और अपने खुद के वामपंथी संश्रयकारियों और लाल झंडा को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने का कोई मौका वे नहीं चूके हैं. अगर ‘वामपंथ’ तब भी उनके बारे में तमाम किस्म के भ्रमों का शिकार है और उनपर पूरा भरोसा करता है, तो इसका मूल कारण जनवादी क्रांति को अंजाम देने में ऐसी ताकतों पर विश्वास करने की उनकी भ्रामक कार्यनीतिक समझदारी में ही निहित है.

चारा घोटाला में लालू यादव के खिलाफ सीबीआइ द्वारा आरोप पत्र तैयार किए जाने से उत्पन्न नई परिस्थिति ने नए राजनीतिक संश्रयों को भी पैदा किया है, जिसके लिए हम वर्षों से प्रयासरत थे. लालू के इस्तीफे की मांग पर हमारी पहलकदमी से 15 वाम-जनवादी पार्टियों का ढीलाढाला महासंघ अस्तित्व में आया है. यद्यपि सीपीआई और कुछ अन्य ताकतें बाध्य होकर इस संरचना सें शामिल हुई हैं मगर उनकी दृष्टि महज लालू को हटाए जाने तक सीमित है और वे नए राजनीतिक विन्यास में बेहतर मोलतोल की आशा के साथ अपने पुराने परिवार में ही लौटने की बाट जोह रहे हैं. इसीलिए वे इस संश्रय में आधे-अधूरे मन से ही शामिल हो रहे हैं और इसके कुछ घटकों के साथ गुप्त और बेईमानी भरी समानान्तर कार्रवाई समेत अन्य तमाम तरीकों से इसके सुदृढ़ीकरण की राह में बाधा डाल रहे हैं. इसीलिए, यह संश्रय काफी क्षणभंगुर और तात्कालिक चरित्र का ही है.

फिर भी, इसके अभ्युदय से जनसमुदाय की आशाएं बढ़ी हैं और वे लालू शासन के वाम-जनवादी विकल्प की आकांक्षा पाल रहे हैं. यह चीज 48 घंटे के बंद आह्वान के प्रति उनके स्वतःस्फूर्त व्यापक समर्थन में परिलक्षित हुई है. इस तथ्य के बावजूद कि सीपीआई बंद के दूसरे दिन आधिकारिक रूप से पीछे हट गई और भाकपा(माले) को समूची जिम्मेदारी वस्तुतः अपने कंधे पर उठानी पड़ी, यह बंद काफी सफल रहा. अगर सीपीआई ने इस जमीनी सच्चाई को स्वीकार करने का साहस दिखलाया होता कि तामाम व्यावहारिक अर्थों में भाकपा(माले) बिहार की सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी के बतौर उभर उठी है – और यह एक ऐसी धारणा है जिसे मोर्चा के अधिकांश साझीदार स्वीकार करते हैं – तो यह संश्रय बिहार की राजनीति में भाजपा का एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी बन जा सकता था. हालांकि परिस्थितियों ने उन्हें हमारे साथ हाथ मिलाने को मजबूर कर दिया है, फिर भी वे इस सच्चाई को कबूल करने में समर्थ नहीं हुए हैं. जब समाचार विश्लेषकों ने यह लिखा कि अपने सात वर्षों के लागातार वैचारिक संघर्षों के बाद भाकपा(माले) अग्रिम पांत में खड़ी हो गई है, तो सीपीआई ने इसपर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की.

चाहे जो हो, आंदोलन के समूचे दौर ने निस्संदेह रूप से भाकपा(माले) के नैतिक प्राधिकार और उसकी वैचारिक वरीयता को स्थापित कर दिया है. इसी के साथ, विभिन्न किस्म की ताकतों को एकताबद्ध करते हुए तथा बहुआयामी पहलकदमियां लेते हुए व्यापक पैमाने पर स्वतंत्र जनगोलबंदी करने की भाकपा(माले) की क्षमता को बहुतेरे खेमों ने सराहा भी है.

एमसीसी के अति-क्रांतिकारियों का नकाब पूरी तरह फट चुका है और वे लालू यादव के समर्थन में खुलकर सामने आ गए हैं. पार्टी यूनिटी को जीवन्त राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर फेंके दिया गया है. राजनीतिक परिस्थितियों के महत्वपूर्ण मोड़ ऐसे ग्रुपों के मूलतः गैर-राजनीतिक, अराजक चरित्र के सर्वोत्तम प्रमाण मुहैया कर देते हैं.

बिहार की परिस्थिति निश्चित तौर पर हमारे पक्ष में मुड़ गई है. लालू का युग समाप्त होने जा रहा है और समूचे बिहार में भाकपा(माले) ने अपना विस्तार हासिल किया है. मध्यम वर्गीं ने भी हमारी ओर आशाभरी निगाहों से देखना शुरू किया है. लेकिन आगे का रास्ता काफी कठिनाइयों भरा है.

भाजपा और भाकपा(माले) एक दूसरे को पछाड़ने तथा लालू-विरोधी आंदोलन में अपनी पहलकदमी बरकरार रखने के लिहाज से  ‘सांप-सीढी’ के खेल में उलझे हुए हैं. प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी तथा शासक वर्गों की चहेती होने के नाते भाजपा को, जाहिरन, बरतरी  हासिल है. उनकी छोटी-मोटी पहलकदमियों को भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रिंट और विजुअल मीडिया में व्यापक जगह मिल जाती है. दूसरी ओर, हमारी बड़ी-बड़ी पहलकदमियों की भी अनदेखी कर दी जाती है. समता के रूप में उन्हें एक मजबूत संश्रयकारी मिला है, जबकि हमारे संश्रयकारी सीपीआई हमारी पीठ में छुरा मारने में ही ज्यादा रुचि दिखलाती है. फिर भी, हमने हर मसले पर भाजपा के साथ बराबरी की प्रतिस्पर्धा की कोशिश की है और 48 घंटे के बंद ने उन्हें पृष्ठभाग में धकेल दिया है. बिहार में आडवाणी की रथयात्रा पहुंचने के साथ ही भाजपा फिर से पहलकदमी लेने की योजना बना रही है, और हमने लोगों से इस रथयात्रा का बहिष्कार करने का आह्वान किया है. लालू के पतन के साथ ही भाजपा के साथ अनिवार्यतः टकराव का नया दौर शुरू होगा और इस साम्प्रदायिक विपत्ति का मुकाबला करने के लिए पार्टी को अपनी भूमिका ठीक से निर्धारित करनी होगी.

लालू को इस्तीफा के लिए मजबूर करने के आंदोलन बिहार में रोजमर्रा का मामला बन गए हैं. हमारी पार्टी 15 पार्टियों के संश्रय को मजबूत बनाने तथा इसे अधिकतम संभव हद तक एक कार्यक्रमात्मक दिशा मुहैया करने का भरसक प्रयास कर रही है. हमारा उद्देश्य है कि उदीयमान नए राजनीतिक विन्यास में इस संश्रय को एक विपक्षी ब्लॉक की हैसियत से बरकरार रखा जाए. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि हमारी स्वतंत्र पहलकदमी को शक्तिशाली बनाया जाए और साथ ही साथ सरकारी वामपंथ की ‘होने या न होने’ वाली दुविधा के खिलाफ लगातार संघर्ष चलाया जाए. अगर नई परिस्थिति में वामपंथ को अपनी पहल बरकरार रखनी है तो इसे छद्म सामाजिक न्याय तथा छद्म राष्ट्रवाद – इन दोनों मोर्चों पर चुनौती कबूल करनी होगी.

(25 अप्रैल 1997 को जेएनयू सिटी सेन्टर, दिल्ली में आयोजित सेमिनार में दिया गया भाषण; समकालीन लोकयुद्ध, 1-15 मई 1997 से)

अपने तीस वर्षों के राजनीतिक जीवन में मैंने अपने बहुतेरे करीबी साथियों को शहीद होते देखा है, उन अनगिनन साथियों की शहादत झेलते-झेलते आंखों के आंसू भी सूख चुके थे. फिर भी उस दिन जब मैं सीवान पहुंचा, चंद्रशेखर की मृत देह के सामने रोती-बिलखती मां ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा – “मिश्रा जी, मेरा चंदू चला गया,” तो मैं अपने आंसू रोक नहीं पाया. हमारे आंदोलन में एक ओर समाज के हाशिये पर खड़े दलितों-गरीब किसान के घरों के नौजवान अगुआ की भूमिका निभा रहे हैं तो दूसरी ओर देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से छात्रों का क्रीम हिस्सा अपने कैरियर का त्याग करते हुए आगे बढ़ता रहा है, समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों के साथ एकरूप होता रहा है. चंद्रशेखर उसी परंपरा की कड़ी है और शायद जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटि (जेएनयू) से निकला हुआ पहला वामपंथी छात्र नेता है, जिसने दिल्ली की चकाचौंध में डूब जाने के बजाय सीवान की जिस धरती पर वो जन्मा था, उसी में मिट जाना पसंद किया.

जेएनयू में ऐसे भी वामपंथी अध्यक्ष हुए हैं, जिन्होंने शायद ही कभी गरीब किसान-मजदूरों की झोपडियों में एक रात भी गुजारी हो, फिर भी वे किसी पार्टी के पॉलित ब्यूरो की शोभा बढ़ाते हैं, सत्ता के गलियारे में घूमते हुए दूरदर्शन के पर्दा पर अक्सरहा नजर आते हैं. चंद्रशेखर इन सबसे अलग था जिसने सीवान और दिल्ली के बीच की दीवार तोड़ दी.

30 मार्च के बाद जो राजनीतिक संकट जन्मा था उसमें बिहार बंद की प्रासंगिकता शहर के लोगों के बीच ले जाने के लिए प्रखर वक्ता की आवश्यकता थी. यही वह परिप्रेक्ष था जिसमें चंद्रशेखर 31 मार्च को सीवान की सड़कों पर नुक्कड़ सभाएं करने के लिए उतरे. अंधेरा होने के पहले ही लौट आने का निर्देश था. हम ये नहीं सोच पाए थे कि दिन के उजाले में, शहर के व्यस्ततम चौराहे पर, इस तरह से हमला होगा. जिन दरिंदों के खिलाफ हमारी लड़ाई थी, उनके बारे में यही नहीं सोच पाना जरूर हमारी कमजोरी थी.

बिहार में आज हम देख रहे हैं कि प्रशासन व पुलिस की ताकत अपराधी-माफिया गिरोहों को खुलेआम संरक्षण दे रही है. तथाकथित रणवीर सेना जब वीभत्सतम जनसंहार करती है तब पुलिस उन्हीं के साथ खड़ी नजर आती है. लेकिन अभी कुछ दिन पहले जब पार्टी यूनिटी के लोगों ने प्रतिशोध में हमला किया तो सरकारी मशीनरी तत्काल सक्रिय हो गई और 15 से 20 साल की उम्र के छः नौजवानों को मौत के घाट उतार दिया गया.

मैं, निकम्मा शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहता, क्योंकि इस शब्द के एक इस्तेमाल ने ऐसे ही काफी बवंडर खड़ा कर रखा है, लेकिन फिर भी ऐसे गृहमंत्री जी के बारे में क्या कहा जाए; चंद्रशेखर के हत्यारों की गिरफ्तारी के लिए कोई विशेष निर्देश देने के बजाय वे प्रधानमंत्री से कहकर चंदू की मां को एक लाख रुपए भिजवा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं.

शहाबुद्दीन से हमारी सीधी लड़ाई नहीं थी और न ही उससे लड़ना हमारी प्राथमिकता थी, क्योंकि यह हम भी जानते हैं कि चाहे जिन कारणों से हो, उसे मुस्लिम जनसमुदाय का समर्थन प्राप्त है. सीवान के दूसरे हिस्सों में हम सवर्ण सामंती ताकतों से लड़ रहे थे. ये ताकतें जब पस्त हो गईं तो शहाबुद्दीन खुद ही उनके संरक्षक के बतौर हमारे खिलाफ लड़ाई में उतर पड़ा. हम किसी से बेवजह लड़ाई मोल लेना नहीं चाहते लेकिन हम ये भी बता देना चाहते हैं कि हम पर अगर कोई लड़ाई थोप ही दी जाएगी तो हम उससे पीछे हटनेवालों में से भी नहीं हैं. हमारे कई साथियों ने शहादत दी है, चंदू ने शहादत दी है और मैं जानता हूं कि हमारे और बहुत से साथियों को शहादत देनी होगी, लेकिन जब तक सीवान की धरती से शहाबुद्दीन का आतंक राज खत्म नहीं हो जाता हमारी चुनौती जारी रहेगी.

शहाबुद्दीन के खिलाफ संघर्ष में चंदू की शहादत दो व्यक्तियों के बीच का मसला भर नहीं है. आज जिसे राजनीति का अपराधीकरण करते हैं, शहाबुद्दीन उसका मूर्त प्रतीक है जिसे सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों का वरदहस्त प्राप्त है. दूसरी ओर चंद्रशेखर समाज के उन तमाम स्वच्छ और ईमानदार लोगों का प्रतीक है जो देश की राजनीति को एक प्रगतिशील दिशा देना चाहते हैं. चंद्रशेखर की इस चुनौती को जिंदा रखना इसीलिए आप-हम-सब का सम्मिलित कर्तव्य है. साझा लड़ाई के साझे मंच से इस लड़ाई को आगे नहीं बढ़ा पाने से कितने ही चंद्रशेखरों की मौत को हम नहीं रोक पाएंगे.

चंद्रशेखर अपराधी राजनीतिज्ञ के हाथों मारा गया, लेकिन उसे दूसरी बार मारने की साजिशें चल रही हैं. चंद्रशेखर की याद में स्मारक बनें, छात्रवृत्तियां चालू हों, ट्रस्ट बने इस सब पर भला किसे एतराज हो सकता है, लेकिन उसके आदर्शों को धुंधला करके, उनके हत्यारों और उनकी राजनीति पर पर्दा डालने की कीमत पर अगर यह सब किया जाए तो यह क्या चंद्रशेखर को दूसरी बार मारना न होगा? सीवान के लोगों ने आक्रोश में अब तक शहाबुद्दीन गिरोह के कई हत्यारों को सजा दे दी है. आप से और देश से हमारी पार्टी का वादा है कि हम संघर्ष के तमाम आयामों को जोड़ते हुए चंद्रशेखर की हत्या का प्रतिशोध अवश्य ही लेंगे. आप से मेरी इतनी ही अपील है कि आप चंद्रशेखर को दुबारा मारने की साजिशों को सफल न होने दें.

(31 जनवरी 1997 को बिहार इकोनामिक एसोसिएशन, अर्थशास्त्र विभाग, पटना द्वारा ‘बिहार में अविकास का राजनीतिक अर्थशास्त्र’ विषय पर आयोजित सेमिनार में दिया गया भाषण; समकालीन लोकयुद्ध, 1-15 मार्च 1997 से)

देवियो और सज्जनो,

मुझसे पहले दक्षिणपंथ के प्रतिनिधि भाजपा के श्री सिंह ने इस विषय पर अपने विचार पेश किए हैं. संभवतः मैं यहां वामपंथ का अकेला प्रतिनिधि हूं. अब दक्षिणपंथ दक्षिणपंथ है और वामपंथ वामपंथ. मगर अर्थशास्त्र में अक्सर वामपंथ ही सही साबित होता है.

मुझसे बिहार के अविकास के राजनीतिक अर्थशास्त्र पर बोलने के लिए कहा गया है. बिहार अविकसित है. इसपर कोई विवाद नहीं है. भारत में कई ऐसे राज्य और क्षेत्र हैं, जो अविकसित हैं मगर बिहार के अविकास में ऐसी खास बात कौन सी है?

स्वतंत्रता की पूर्ववेला में प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से बिहार भारत के तमाम राज्यों में सबसे नीचे था, यद्यपि उस समय देश का आठ फीसदी खाद्यान्न यहीं पैदा होता था; औद्योगिक उत्पादन के लिहाज से बिहार का स्थान चौथा था और कोयेला व इस्पात का वह सबसे बड़ा उत्पादक था.

अब, भारत की आजादी के 50 वर्ष बाद, बिहार आज भी प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में सबसे नीचे है; यहां की औसत आमदनी कोई 10 रु. प्रतिदिन है. जो एक अन्य कृषि प्रधान राज्य पंजाब का महज एक तिहाई है. और यदि इसी सम्मेलन में परसों डा. जी. एस. भल्ला द्वारा पेश किए गए आंकड़ों पर यकीन किया जाए, तो बिहार भारत का एकमात्र वह राज्य है जहां पिछले कई वर्षों के दौरान प्रति व्यक्ति आय वास्तव में घट गई है.

बिहार के विकास का यह चिरस्थायी पिछड़ापन या कहिए बिहार की विकासहीन स्थिति का इतना लंबा खिंचते जाना गहरे अध्ययन की मांग करता है. बिहार एक मकड़जाल में – गरीबी के मकड़जाल में फंस गया है, एक दुष्चक्र में फंस गया है और उससे निकल पाना कोई आसान काम नहीं लगता.

अक्सर यहां आशाएं जगाने वाले दौर भी आए हैं, जैसे 1950 दशक में, जब अर्थतंत्र का विकास काफी संतोषजनक ढंग से हुआ और ठीक वैसे ही 1970 के दशक के अंतिम भाग से लेकर 1980 के दशक के मध्य तक, जब खाद्यान्न के कुल उत्पादन में वृद्धि हुई और राष्ट्रीय उत्पादन में कृषि का हिस्सा करीब 27 प्रतिशत बढ़ा.

आंकड़े दिखाते हैं कि 1990 के दशक में भी खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की रफ्तार ऊंची रही तथा उन्नत बीज (एचआइवी) के तहत लाई गई कृषि के क्षेत्र में भी इजाफा हुआ. प्रति हेक्टर खाद का इस्तेमाल भी 1989 में 54.14 किग्रा. से बढ़कर 1994-95 में 64.51 किग्रा. हो गया. घरेलू क्षेत्र में होनेवाली बचत में भी काफी बढ़त हुई है, जो जेवीजी जैसी गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों के आश्चर्यजनक विस्तार से जाहिर है. ये ऐसे संस्थान हैं जिनके व्यवसाय का मुख्य आधार बिहार है. 1990 के दशक में सामाजिक न्याय की सरकार के सत्तारूढ़ होने से खासतौर पर आशाएं जगी तीं, क्योंकि जातीय तथा वर्गीय रूप से इस सरकार को मध्यवर्ती जातियों का, जिनका मुख्य हिस्सा किसान है, समर्थन प्राप्त था.

अब, करीब सात वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद वही सरकार देश के सबसे बड़े घोटाले में फंसी लड़खड़ा रही है. बिहार राजनीतिक अस्थिरता के एक नए दौर में पहुंच चुका है, घूम-फिरकर फिर वहीं पहुंच गया है जहां से आजाद भारत के एक राज्य के बतौर इसने अपनी यात्रा शुरू की थी.

बेशक बिहार के इस अविकास के लिए जनसंख्या-संबंधी एवं तकनीकी पहलू भी जिम्मेदार रहे हैं. केरल के बाद भारत में उत्तर बिहार ही सर्वाधिक सघन आबादी वाला क्षेत्र है, मगर इस समूचे क्षेत्र में कोई भी खनिज संसाधन मौजूद नहीं है. इसके अलावा, यह इलाका बाढ़ से त्रस्त रहता है. फिर ईंधन के बतौर अब तेल व प्राकृतिक गैस ने कोयले की जगह ले ली है और माइका की जगह फाइबर ऑप्टिक्स आ गया है. इन्हीं कारणों से छोटा नागपुर की अनुकूल स्थिति का महत्व भी काफी घट गया है. फिर भी बिहार के अविकास के लिए ये पहलू मुख्यतः जिम्मेदार नहीं ठहराए जा सकते.

इस चिरस्थायी पिछड़ेपन का एक मुख्य पहलू बाहरी तत्व है – राष्ट्रीय अर्थतंत्र के बरक्स बिहार के अर्थतंत्र का दर्जा. कुछेक लोगों ने इसके साथ विश्व स्तर पर उत्तर-दक्षिण के विभाजन से आश्चर्यजनक समानता देखी है, जिस विभाजन में दक्षिण का अविकास उत्तर के विकास से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है; एक दूसरे की शर्त है. भारत के चन्द विकसित राज्यों की तुलना में बिहार का मामला ऐसा ही है. कई अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रीयों ने बिहार को आंतरिक उपनिवेश बताया है. कृषि व उद्योग में विकसित राज्यों को बिहार कच्चे माल व सस्ते श्रम की आपूर्ति करता रहा है. कोयला व इस्पात उत्पादों के लिए समान मूल्य नीति ने छोटा नागपुर औद्योगिक क्षेत्र से स्थितिजन्य सुविधा ही छीन ली है.

फिर गाडगिल फारमूला आने से पहले, योजना खाते में राज्यों को उपलब्ध होनेवाली राशियां बिहार व उत्तरप्रदेश जैसे भारी जनसंख्या वाले राज्यों के प्रतिकूल थीं. उसके बाद भी, सप्तम योजना में बिहार के लिए योजना व्यय राशि 622 करोड़ रुपये थी जो कि राष्ट्रीय औसत 920 करोड़ रुपये से कहीं कम थी. सार्वजनिक और निजी – दोनों स्रोतों से हुआ प्रति व्यक्ति निवेश पिछले करीब 30 वर्षों के दौरान (1980 के दशक समेत) अन्य राज्यों की तुलना में काफी कम रहा है. यहां बचत का अच्छा-खासा हिस्सा बाहर चला जाता है. यहां तक कि यूटीआइ, एसआइसी, जीआइसी जैसे आइडीबीआइ ग्रुपों के जरिए किया जानेवाला दीर्घकालीन संस्थागत निवेश भी बिहार में सबसे कम है. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के इस दौर में भी बिहार में निवेश की स्थिति दयनीय ही बनी रही : अगस्त 1991 से लेकर मई 1996 तक विदेशी पूंजी निवेश का महज 14 फीसदी बिहार को मिला है और केन्द्रीय योजना व्यय में तो अब जोर गरीबी उन्मूलन और कल्याणकारी योजनाओं पर चला गया है, जिनमें पूंजी निर्माण का अंश बहुत थोड़ा होता है.

यद्यपि केन्द्र में एक संघीय सरकार मौजूद है, जिसके मुख्य दल की सरकार बिहार में भी सत्तारूढ़ है, लेकिन बिहार को वरीयता देने के मामले में कोई जोशखरोश नहीं दिखता. इसके विपरीत, यह सरकार उन्नत राज्यों की शक्तिशाली लॉबियों के दबाव व खींचतान पर घुटने टेकते दिखती है.

जले पर नमक छिड़कने वाली बात यह है कि अनुभूति-शून्य प्रशासन के चलते बिहार योजना खाते में मिली धन राशि का आधा भी बमुश्किल खर्च कर पाता है.

इस तरह चिरस्थायी पिछड़ापन अथवा आन्तरिक उपनिवेश की यह स्थिति, केवल केन्द्र से मिलने वाली धनराशि बढ़ा देने अथवा विदेशी पूंजी के लिए आंखें बिछाने से टूटने वाली नहीं है. आंचलिकतावाद का मुद्दा उठाना राजनीति के लिहाज से फायदेमंद हो सकता है, मगर अर्थतंत्र के लिहाज से यकीनन नुकसानदेह है.

इस दुष्चक्र को तोड़ने का आवेग भीतर से पैदा हो सकता है, व्यापक आंतरिक संसाधनों को जन्म देने से पैदा हो सकता है. इस प्रकार हम बिहार के अविकास के दूसरे पहलू, यानी बिहार के अर्थतंत्र की आंतरिक गति के सवाल पर पहुंच जाते हैं.

सर्वप्रथम, भूमि सुधार जरूरी है. उद्यमी छोटे फार्मरों को भूमि प्रदान करने के लिए भूमि कि आमूल पुनर्वितरण आवश्यक है. छोटे और सीमान्त किसानों के छोटे भूखण्डों को आर्थिक रूप से लाभजनक बनाने के लिए उन्हें संस्थागत समर्थन देना होगा.

आमूल भूमि सुधार लागू करने  के लिए राजनीतिक वर्ग को किसी भी हद तक जाने के तैयार होना होगा. यहां तक कि समूची भूमि के राष्ट्रीयकरण और लीज के आधार पर उसे उद्यमी छोटे फार्मरों के बीच पुनर्वितरित करने की हद तक. उतना ही जरूरी यह है कि छोटे या बड़े सभी किस्म के फार्मरों के यहां काम करने वाली खेत मजदूरों को न्यूनतम वेतन मिलने की गारंटी की जाए.

दूसरे, ग्रामीण और अर्द्ध ग्रामीण क्षेत्र में होने वाली बचत को राज्य सरकार की एजेंसियों के जरिए जमा किया जाना चाहिए और उसे फार्मों में निवेश करने तथा आधारभूत ढांचे के निर्माण व सामाजिक सेवा क्षेत्र का सुधार करने में नियोजित करना चाहिए.

तीसरे, व्यवसायिक बैंकों पर दबाव डाला जाना चाहिए कि वे अपने ऋण-जमा अनुपात में सुधार करें और सावधि ऋण देने वाली संस्थाओं – एलआइसी, जीआइसी, यूटीआइ जैसे आइडीबीआइ ग्रुपों – पर दबाव डाला जाए कि वे अधिक मात्रा में निवेश करें.

चौथे, केन्द्र पर दबाव डाला जाए कि वह बिहार में पिछड़ेपन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर उसे विकास में वरीयता दे.

केवल आंतरिक रूप से समर्थ होने पर ही औद्योगिक विकास के लिए देशी या विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के उपाय सार्थक हो सकते हैं.

भारत का निजाम बिहार में आम आदमी की दुर्गति पर ज्यादा फिक्रमंद नहीं है. फलते-फूलते उपभोक्तावाद के चलते वे बिहार में सबसे बड़ी तादाद में मारुति व महंगी विदेशी कारें बेच सकते हैं. लुई फिलिप और मॉन्टे कार्लो जैसे बेशकीमती ब्रांड के विदेशी कपड़ों की सबसे ज्यादा बिक्री पटना में होती है. बिहार में होनेवाली बचत का बड़े पैमाने पर प्रवाह जेवीजी जैसे तेजी से बढ़ते साम्राज्य की ओर हो जाता है. बिहार के सर्वोत्तम मस्तिष्कों का प्रवाह जेएनयू दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर होता है.

इस दुष्चक्र को तोड़ने का बीड़ा उठाना बिहार के आम आदमी और उस बैद्धिक वर्ग का काम है, जो इस बात से बेचैन है कि बिहार की आधी से अधिक आबादी भूखे पेट सो जाती है. इस काम को पूरा करने की उम्मीद आप ऐसे राजनीतिक वर्ग से नहीं कर सकते जो भ्रष्टाचार में गले तक डूबा हुआ हो; न तो ऐसी नौकरशाही से इसे पूरा करने की उम्मीद की जा सकती है जो सामंती शक्तियों से गहरे ताल्लुकात रखती हो. ऐसा राजनीतिक नेतृत्व जो भ्रष्टाचार से अछूता हो, जिसके पास बिहार के विकास के बारे में उन्नत दृष्टि हो, जो कुलीन वर्ग के गुटीय-जातीय झगड़े से ऊपर हो, जो जमीनी स्तर पर जन पहलकदमी से जुड़ा हो, वही बिहार में गरीबी के इस मकड़जाल को तोड़ सकता है.

या तो आप इसका कोई आमूल समाधान करेंगे, या फिर यह पिछड़ापन चिरस्थाई रहेगा; बीच का कोई रास्ता नहीं है. बिहार में उग्रवाद के बढ़ने पर चीख-पुकार मचाने से कोई फायदा नहीं है. इतिहास मे, चरम स्थितियां चरम समाधानों की ही मांग करती हैं.

संकट जब विकराल हो जाता है, महाभारत तब अनिवार्य हो उठता है.