(तीसरी पार्टी-कांग्रेस में स्वीकृत राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट, दिसंबर 1982)
जिस सवाल ने सबसे तीखे विवाद खड़े किए हैं वह कामरेड चारु मजुमदार (सीएम) द्वारा सूत्रबद्ध ‘सफाया’ का सवाल है. यह दलील पेश की गई कि इसमें मार्क्सवाद है ही नहीं, यह तो बस भोंड़ा व्यक्तिगत आंतकवाद है, इसने केवल नुकसान पहुंचाए हैं. यह कहा गया है कि हथियारबंद संघर्ष व जन संघर्ष को जरूरी तौर पर समन्वित किया जाना चाहिए और इसलिए ‘सफाया लाइन’ की निश्चित रूप से भर्त्सना की जानी चाहिए.
आइए हम पहले हथियारबंद संघर्ष व जन संघर्ष को समन्वित करने के सवाल पर विचार करें. एक अचूक औषधि के रूप में इस मुहावरे को दुहराते रहना व्यावहारिक कार्य में लगे मार्क्सवादियों के लिए कत्तई प्रासंगिक नहीं है. इतिहास का तथ्य यह है कि तमाम जन आंदोलन अपनी अग्रगति के क्रम में नए-नए रूप अख्तियार करते हैं; लगातार पुराने को छांटकर अलग करते और नए का सृजन करते जाते हैं तथा रूपांतरण या नए व पुराने रूपों का नया संयोजन चलता रहता है. हम कम्युनिस्टों का कर्तव्य है कि संघर्ष के उपयुक्त रूपों का विकास करने की इस प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभाएं, जैसा कि लेनिन ने कहा है, “उसूली तौर पर बल-प्रयोग व आतंक की आवश्यकता से रत्ती भर भी इनकार किए बिना, हमें संघर्ष के ऐसे रूपों का निर्माण करना चाहिए जिनमें जनसमुदाय की प्रत्यक्ष भागीदारी को स्वीकार किया गया हो और यह भागीदारी सुनिश्चित कर दी गई हो.”
नक्सलवाड़ी के बहादुराना संघर्ष के बाद नवसंशोधनवाद के बंधनों से छुटकारा पाकर और जन आंदोलनों को खड़ा करने के क्रांतिकारी व्यवहार में करीब दो वर्षों तक लगे रहने के बाद, भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारीयों को ऐसी ही परिस्थिति का सामना करना पड़ा और वे बड़ी बेचैनी से संघर्ष के एक नए रूप की तलाश करने लगे. इसी संदर्भ में श्रीकाकुलाम के संघर्ष के उफान के बीच जनसमर्थन पर आधारित ‘सफाया’ को सूत्रबद्ध किया गया, जिसके अंतर्गत हथियारबंद संघर्ष की शुरूआत को संघर्षों में जनसमुदाय की कदम-ब-कदम गोलबंदी के साथ समन्वित किया जाना अपेक्षित था और सीएम की लाइन की यही बुनियादी दिशा – यानी, हथियारबंद कार्यवाहियों को जनसंघर्षों के साथ समन्वित करने की दिशा – नक्सलबाड़ी संघर्ष के शुरूआती दिनों से लेकर सीएम के जीवन के अंत तक उनकी समूची राजनीतिक लाइन में व्याप्त रही है. जरूर इसमें कभी एक या कभी दूसरा पहलू प्रमुखता प्राप्त करता रहा है. उनके प्रयासों की सफलता और असफलता का मूल्यांकन करना एक अलग बात है और किसी भी वास्तविक अग्रगति के लिए बहुत महत्वपूर्ण भी है, लेकिन उन्हें एक ‘आतंकवादी’ करार देना बेहूदगी व बेवकूफी की हद है और गुलामी के रुख का द्योतक है. जनसमर्थन और आंदोलनों के साथ समन्वित करने के समग्र परिप्रेक्ष में संघर्ष के इस विशिष्ट रूप का लक्ष्य था – इलाके के आधार पर सत्ता दखल. इस संघर्ष के फलस्वरूप भारत के विभिन्न भागों में बहुतेरे किसान-स्क्वाडों का निर्माण हुआ और जन उभार भी पैदा हुए. इस जन उभार को कृषि-सुधार के चंद कार्यक्रमों के साथ क्रांतिकारी कमेटी के जरिए संगठित किया जाना था और इन स्क्वाडों को पुलिस और अर्ध-सैनिक व सैनिक शक्तियों के विरुद्ध छापामार कार्यवाहियां चलानेवाली पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मि यानी जन मुक्ति सेना) की यूनिटों के रूप में संगठित किया जाना था – इस तरह लाल सत्ता की ओर बढ़ना था. संक्षेप में, यही ‘सफाया’ लाइन की समूची प्रक्रिया और उसका समग्र परिणाम था. सफलता के लिहाज से इस ‘सफाया’ लाइन की बहुतेरी उपलब्धियां थीं और भोजपुर का आज तक का अस्तित्व इस पहलू का प्रमाण है. फिर भी, इसका एक नकारात्मक पक्ष भी था और जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, नकारात्मक पक्ष प्रधान होता गया. सफाया अनेक इलाको में एक अभियान की तरह चलाया गया, उसमें अनेक विवेकरहित व अनावश्यक हत्याएं हुईं; वह किसानों के वर्ग संघर्ष से अलग-थलग पड़ गया और पुलिस दमन के खिलाफ कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं किया जा सका तथा हमारे संघर्ष के क्षेत्र धराशायी हो गए. ऐसा वहां हुआ जहां पार्टी का नेतृत्व कायम नहीं रहा और जन आंदोलनों व प्रतिरोध संघर्षों का विकास नहीं किया जा सका. असीम से लेकर दीपक और अंततः महादेव तक, ‘सफाया’ के अति उत्साही समर्थकों ने गलतियों को उनकी पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया और कदम-ब-कदम एक वाम अवसरवादी लाइन सूत्रबद्ध की, जिससे जनता व क्रांति को जबर्दस्त क्षति पहुंची.
फिर, उस दौर को दुनिया भर में मौजूद फौरी व आम क्रांतिकारी परिस्थिति के दौर के बतौर चित्रित किया गया और सर्वत्र क्रांतिकारी आक्रमण की योजना बनाई गई. क्रांतिकारी परिस्थिति को इस तरह बढ़ा-चढ़ाकर आंकने के फलस्वरूप उतावलापन पैदा हो गया और आत्मगत शक्तियों की स्थिति का ख्याल नहीं रखा गया, जिसके चलते गलतियां और भी गंभीर होती गईं. यह सच है कि शासकवर्गों के गहरे आर्थिक व राजनीतिक संकट में फंसे होने की तत्कालीन स्थिति में क्रांतिकारी परिस्थिति हमारे अनुकूल थी और जहां कहीं भी संभव था वहां सर्वहारा को चाहिए था कि वह किसानों को हथियारबंद संघर्ष में खड़ा कर देता और राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के प्रयत्न करता. फिर भी, भारतीय क्रांति के असमान विकास पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया. इसलिए, आम कार्यक्रम और बुनियादी कार्यनीतिक लाइन के मूल तौर पर सही होने के बावजूद, क्रांतिकारी परिस्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर आंकने और भारतीय क्रांति के असमान विकास को मद्देनजर न रखने की वजह से, कुछ इलाकों के लिए उपयुक्त संघर्ष के रूप को और अग्रगति के रास्ते को देश के हरेक हिस्से के लिए आम बना दिया गया और इतना ही नहीं, उन्हें एक अभियान के रूप में लिया गया. निश्चित रूप से यह गंभीर वाम-भटकाव था. और विकास के वस्तुगत नियम ने जन उभार को महज कुछेक छोटे-छोटे पॉकेटों में और उनकी धारावाहिकता को महज एक ही इलाके में सीमित करके हमें दंडित किया.
इस संदर्भ में हमारी पहली पार्टीं-कांग्रेस की यह घोषणा निश्चित रूप से गलत थी कि “वर्ग संघर्ष, यानी सफाया, हमारी तमाम समस्याओं को हल कर देगा.” फिर भी, चंद छोट-छोटे हिस्सों में, जन उभारों के साथ समन्वित सफाया और कृषि-सुधार के नारों के साथ क्रांतिकारी कमेटियों के जरिए इस उभार को संगठित करने के प्रारंभिक प्रयत्न तथा छापामार स्क्वाडों से लाल सेना का निर्माण करने के प्रयत्न क्रांतिकारी अनुभवों के कोष में गौरवशाली उदाहरण बने हुए हैं. और यही वह बुनियाद थी जिस पर अपेक्षाकृत कम सचेत कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों द्वारा शुरू किया गया और आगे पार्टी-नेतृत्व द्वारा संगठित किया गया भोजपुर का किसान-संघर्ष उठ खड़ा हुआ. अधिकतम बलिदानों की कीमत पर कठिनतम समय में भी इसे बरकरार रखा गया तथा अब इसका विकास और भी व्यापक इलाकों व विविध रूपों में हो रहा है. इसी गौरवशाली परंपरा के कारण चारु मजुमदार भारत की लाखों-लाख उत्पीड़ित जनता के बीच जिंदा हैं और उनकी लाइन भारत की एकमात्र क्रांतिकारी लाइन का प्रतीक है. इसके विपरीत, विभिन्न मार्क्सवादी पंडित व अवसरवादी नेता हथियारबंद संघर्ष और जन संघर्ष को समन्वित करने के बारे में बकवास करते रहे, लेकिन हथियारबंद संघर्ष और तथाकथित समन्वय की बात तो दरकिनार, वे व्यापक जनसमुदाय तक कभी नहीं पहुंच पाए या कोई ऐसा जन संघर्ष नहीं विकसित कर सके जिसका कुछ भी खास महत्व हो. दुनिया भर का सारा काम करने और तमाम चीजों को समन्वित करने का स्वघोषित मार्क्सवादियों का पंडिताऊ रुख कोई समाधान नहीं, बल्कि समाधान का भोंड़ा स्वांग है, और किसी भी ठोस अनुभव से रहित विशुद्ध किताबी चीज है. क्रांतिकारी लाइन केवल एक प्रक्रिया में ही पूर्ण आकार ग्रहण कर सकती थी और संघर्ष के पुराने रूपों को ठुकराने से शुरूआत करके पार्टी एक प्रक्रिया में ही नए और पुराने रूपों का नया पुनर्संयोजन हासिल कर सकती थी.
मजदूर वर्ग के संघर्षों के बारे में चारु मजुमदार ने पुराने रूपों को ठुकराए बिना संघर्ष के नए रूप विकसित करने और ट्रेड यूनियन संघर्षों को न ठुकराते हुए राजनीतिक संघर्ष विकसित करने की आवश्यकता को सही रूप से रेखांकित किया था.
छात्र और युवा आंदोलन के सिलसिले में, उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में पहली बार मजदूरों व किसानों के साथ एकरूप होने का सवाल पेश किया और ऐसा करने के लिए यह जरूरी था कि युवा-छात्रों को कैंपस के संघर्षों से बाहर लाया जाए. युवा छात्रों ने उनके आह्वान का सर्वाधिक जोश-खरोश के साथ जवाब दिया. उन्होंने (सीएम ने) पुराने मूल्यों, पुरानी शिक्षा और पुरानी संस्कृति के खिलाफ युवा-छात्रों के आंदोलन का समर्थन किया, तत्कालीन चीनी नवयुवकों के रेडगार्ड आंदोलन और फ्रांस के ‘नव वाम’ (न्यू लेफ्ट) आंदोलन के साथ उनके आंदोलन के फर्क को रेखांकित किया, इस आंदोलन की सीमाओं को सामने रखा और युवा-छात्रों को इस आंदोलन के आधार – किसान संघर्षों – के साथ एकरूप होने को कहा. साथ ही उन्होंने बुद्धिजीवियों को भी 19वीं शताब्दी के भारत के इतिहास का गहरा अध्ययन करने को कहा – बहुतेरे प्रगतिशील व क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों ने यह काम हाथ में लिया और इसे आगे बढ़ाया है.
अपनी गलतियों के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के उन दिनों के विश्लेषण को दोषी ठहराना अथवा गलतियों से बचने की आशा में तथाकथित संयोजन का पंडिताऊ रुख अपनाना एक बीमार चिंतन प्रणाली को ही जाहिर करता है. कोई भी क्रांतिकारी उभार दक्षिणपंथी व वामपंथी भटकावों को जन्म देता है : ‘अतीत के साथ नाता तोड़ने में समर्थ न होने के रूप में दक्षिणपंथी’ और ‘वर्तमान से निपटने में समर्थ न होने के रूप में वामपंथी’. हम अपनी गलतियों के लिए खुद ही जिम्मेवार हैं और किसी क्रांतिकारी उभार में गलतियां होना लाजिमी है. इन गलतियों के आधार पर ही कम्युनिस्ट शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं तथा नेताओं व कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया जा सकता है. इसके अवाला और कोई रास्ता नहीं है.
सफाया के संघर्ष का सैनिक रूप – सैनिक लाइन – का उद्देश्य राजनीतिक लाइन की सेवा करना था और संपूर्ण क्रांतिकारी प्रक्रिया का लक्ष्य क्रांतिकारी जनदिशा विकसित करना था. “किसानों को अपने गांवों को मुक्त करने के लिए गोलबंद किया जाना चाहिए और उनसे कहना चाहिए कि गांव के मामलों का निपटारा करने के एकमात्र अधिकारी आप होंगे, जमींदार नहीं; जमीन आपकी होगी, तालाब आपके होंगे; जमींदारों का सफाया होने के बाद पुलिस इस बात का पता लगाने में समर्थ नहीं होगी कि कौन किसका खेत जोत रहा है, आदि” – किसानों की मानसिकता को मद्देनजर रखते हुए और उन्हें जागृत करने के लिए सर्वाधिक लोकप्रिय रूप में समझाते हुए किसानों की राजनीतिक सत्ता का यह प्रचार संशोधनवादी प्रचार के विरुद्ध कामरेड चारु मजुमदार का एक महत्वपूर्ण योगदान था. कामरेड चारु मजुमदार ने जनसमुदाय को कायरों के रूप में लेकर उनकी भूमिका का निषेध करने और कुछ हिरावल तत्वों को ‘व्यक्ति वीर’ के रूप में लेने के आधार पर ‘सफाया को सूत्रबद्ध नहीं किया था, बल्कि इसके विपरीत, यह सूत्रीकरण जनसमुदाय की अंतर्निहित विराट सृजनात्मक शक्ति में असीम विश्वास पर आधारित था. यह अभिप्राय उनकी रचनाओं में शुरू से अंत तक व्याप्त है, और इसीलिए पूरी पार्टी ने जनसमुदाय के प्रति संपूर्ण आस्था को आधार बनाया. यह एक ऐसी चीज है, जो उनके विरोधियों में रत्ती भर भी नहीं पाई जाती, जो कि जनसमुदाय पर अविश्वास की वजह से इस या उस बुर्जुआ पार्टी के साथ मोर्चा बनाने की वकालत करते हैं.’
तमाम बुर्जुआ एवं संशोधनवादी राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री जब यह घोषणा करते हैं कि नक्सलवाद देहाती गरीबों के असंतोष से पैदा हुआ, तब वे बस इसी तथ्य को स्वीकार कर रहे होते हैं कि कामरेड चारु मजुमदार का मुख्य योगदान है देश के राजनीतिक जीवन में भूमिहीन और गरीब किसानों को सामने ले आना. इसके अलावा, उनका मुख्य योगदान और उनकी क्रांतिकारी लाइन के मुख्य घटक हैं – कांग्रेस सरकार के भूमि-सुधार संबंधी कदमों को धता बताते हुए कृषि-क्रांति को तात्कालिक कार्यसूची के बतौर पेश करना, कम्युनिस्ट क्रांतिकारीयों व भारतीय सर्वहारा के चिंतन को संशोधनवादी राजनीति की चिकनी-चुपड़ी बातों से उठाकर देश की मुक्ति के स्वप्न देखने के स्तर तक पहुंचा देना, अंरराष्ट्रीय सर्वहारा व उत्पीड़ित जनसमुदाय के साथ एकताबद्ध होना, हजारों-हजार नवयुवकों को भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में भरती करना, और नक्सलवाद को मूर्त रूप देना जो कि नक्सलबाड़ी से जरूर पैदा हुआ, लेकिन जिसे बाद में भारत की एक ऐसी राष्ट्रव्यापी राजनीतिक धारा के बतौर ठोस रूप दिया गया और विकसित किया गया (जिसे कानू सान्याल नहीं समझते हैं और इसलिए वे अपनी विफलता का बुनियादी कारण ढूंढ़ पाने में असफल हो जाते हैं), जो यहां तक कि कामरेड चारु मजुमदार के बिना भी, गिर कर भी उठ खड़ी होती है, और सर्वोपरि, भारतीय सर्वहारा की क्रांतिकारी पार्टी सीपीआई(एमएल) का निर्माण करना.
तथापि, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, क्रांतिकारी परिस्थिति का बढ़ा-चढ़ा कर मूल्यांकन करने, भारत की वस्तुगत परिस्थितियों की अपर्याप्त पकड़ होने और ‘सफाया’ के संघर्ष का सामान्यीकरण करने के चलते, तथा साथ ही, पार्टी में फूट व सांगठनिक अस्तव्यस्तता और बंगलादेश व भारत-सोवियत सैनिक संधि की बदौलत भारतीय शासक वर्गों द्वारा सामयिक तौर पर स्थायित्व हासिल करने की स्थिति में दुश्मन के प्रचंड दमन के सामने हमें बहुत गंभीर धक्के झेलने पड़े.
यह महसूस करते हुए कि सफाया को हद से ज्यादा आगे ले जाया गया है और अधिकांश मामलों में उसे जन संघर्षों के साथ उचित रूप से जोड़ा नहीं जा सका है, कामरेड चारु मजुमदार ने धक्के व पार्टी की सांगठनिक अस्तव्यस्तता की स्थिति का मूल्यांकन किया और राजनीतिक रूप से एकताबद्ध पार्टी तथा कांग्रेस-शासन के खिलाफ मेहनतकश जनता – खासकर वामपंथी पार्टियों से जुड़ी मेहनतकश जनता – के संयुक्त मोर्चे का निर्माण करने का आह्वान किया. उन्होंने सशस्त्र संघर्ष के आधार पर नहीं, बल्कि आम तौर से एकताबद्ध संघर्षों के आधार पर संयुक्त मोर्चे की बात रखी और चुने हुए इलाकों में भूमि-सुधार संबंधी कदम उठाने पर जोर दिया. यह स्पष्ट रूप से नई परिस्थितियों में पीछे हटने की नीति थी – लेकिन योजनाबद्ध ढंग से और क्रमबद्ध तरीके से पीछे हटना नहीं हो सका. अव्वल तो इसलिए कि पीछे हटने को बहुत ही अस्थायी घटना के रूप में देखा गया और कार्यनीति अभी भी शीघ्र ही पुनः फूट पड़नेवाले व्यापक जन उभारों की उम्मीदों पर आधारित थी. दूसरे, इसलिए कि संघर्ष व संगठन के विभिन्न रूपों को अख्तियार करने के बतौर पीछे हटने की नीति व पद्धतियां स्पष्ट रूप से सूत्रबद्ध नहीं की गई थीं.
संघर्ष में धक्का, पार्टी में फूट और पार्टी की केंद्रीय कमेटी के पुनर्गठन के बीच के अंतराल की स्थितियों में कामरेड चारु मजुमदार के प्रति वफादार कतारों ने पार्टी की केंद्रीय कमेटी को पुनर्गठित करने की अल्पकालिक अवधि के लिए उन्हें संपूर्ण प्राधिकार सौंप दिया. उनके इर्द-गिर्द मौजूद कुछ कैरियरवादियों ने इस घटना को आम बना दिया. अपना स्वार्थ-साधन करने के लिए ‘व्यक्तिगत प्राधिकार’ का राग अलापा, पार्टी की केंद्रीय कमेटी को पुनर्गठित करने में बाधाएं उपस्थित कीं और अंततः पार्टी व कामरेड चारु मजुमदार के साथ विश्वासघात किया.
सारांश यह कि पार्टी ने संघर्ष के एक रूप – सफाया – को भारत के हर हिस्से के लिए आम बनाने, इसे एक अभियान के रूप में चलाने, समग्र दिशा और कुछ बिंदुओं पर सफलताओं के बावजूद इस संघर्ष को जन संघर्षों के साथ समन्वित करने की सर्वांगीण व दृढ़ नीति सूत्रबद्ध करने में विफल होने और धक्कों के गंभीर संकेतों के बावजूद सैनिक आक्रमण की स्थिति से राजनीतिक आक्रमण की स्थिति में योजनाबद्ध ढंग से व क्रमबद्ध तरीके से पीछे हटने की व्यवस्था न कर पाने की गलतियां कीं. ये गलतियां पैदा हुई थीं – भारत में मौजूद क्रांतिकारी परिस्थिति को कमोबेश स्थाई उभार के बतौर समझ लेने के अर्थ में बढ़ा-चढ़ाकर आंकने के कारण, भारत की ठोस स्थिति पर अपर्याप्त पकड़ के कारण, आत्मगत आकांक्षाओं से विशिष्ट को सामान्य बना देने की गलत पद्धति के कारण, पार्टी की शैशवावस्था और संशोधनवादी विश्वासघात के प्रतिक्रियास्वरूप पैदा हुए नेतृत्व के उतावलेपन के कारण.
कामरेड चारु मजुमदार की शहादत के साथ ही स्थिति ने जटिल मोड़ ले लिया और केवल उसके पांच साल बाद ही -- यानी, 1977 में – गलतियों को गंभीरतापूर्वक सुधारने की प्रक्रिया सचमूच शुरू हो सकी.
कामरेड चारु मजुमदार की शहादत के बाद 5-6 दिसंबर 1972 को शर्मा और महादेव ने बड़ी तड़क-भड़क के साथ पार्टी की केंद्रीय कमेटी की घोषणा की. लिन प्याओ की घटना के साथ 1973 के आरंभ में उन्होंने एक दूसरे से नाता तोड़ लिया और अपना गुटीय स्वार्थ साधने लिए अपनी-अपनी केंद्रीय कमेटी के नाम से कामरेड चारु मजुमदार की गैर-उसूली निंदा या प्रशंसा में लग गये. खासकर महादेव ने हर किस्म की बेवकूफी के साथ बेहूदगी का सहारा लिया और ‘चारु मजुमदार के प्रत्येक शब्द की विशुद्धता की रक्षा करने’ के नाम पर पार्टी को सीपीसी(चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) के खिलाफ खड़ा कर दिया तथा किसान-संघर्ष से अलग-थलग एक्शनों को तेज कर दिया. इस तरह उन्होंने खास तौर पर बंगाल में क्रांतिकारी शक्तियों को गंभीर नुकसान पहुंचाया और अंततः अपने को ही ले डूबे.
संकट की इस घड़ी में बिहार राज्य कमेटी और नवगठित पश्चिम बंगाल राज्य नेतृत्वकारी टीम के कामरेडों ने महादेव व शर्मा गुट के खिलाफ संघर्ष के अनुभवों का, बिहार में नए उभार के अनुभवों का और पश्चिम बंगाल में गंभीर धक्कों के बाद पुनर्गठन के अनुभवों का आदान-प्रदान किया; इसी बीच दिल्ली के कामरेड भी इस प्रकिया में जुड़े तथा 28 जुलाई 1974 को कामरेड जौहर के नेतृत्व में केंद्रीय कमेटी का पुनर्गठन किया गया. उस समय बिहार में, खासकर भोजपुर व पटना के क्षेत्रों में किसान संघर्ष चल रहे थे और पश्चिम बंगाल में किसान-संघर्ष को पुनः संगठित करने का प्रयास चल रहा था. इन संघर्षों का मार्गदर्शन करने व इन्हें नेतृत्व देने के लिए और धक्के पर विजय प्राप्त करने के लिए एक केंद्र की सख्त जरूरत महसूस की गई. इस केन्द्र की सर्वोच्च कार्यसूची बनी महादेव ऐण्ड शर्मा कं. द्वारा सीएम की लाइन में की जा रही तोड़-मरोड़ को देखते हुए उनकी लाइन के क्रांतिकारी सार की रक्षा करना. पुनर्गठित केंद्रीय कमेटी के घोषित लक्ष्य थे :
(1) कामरेड चारु मदुमदार की लाईन के क्रांतिकारी सार की रक्षा करना;
(2) इस आधार पर पार्टी को राजनीतिक रूप से एकताबद्ध करना;
(3) भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को एकताबद्ध करना.
उस समय इस केंद्रीय कमेटी का कार्यक्षेत्र बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के एक छोटे हिस्से तक ही सीमित था. बाद में असम के कई कामरेड भी इस केंद्रीय कमेटी के साथ आ मिले. उन दिनों आंध्र, तमिलनाडु और केरल के कामरेड भी किसानों के बीच काम कर रहे थे, कुछ जुझारू संघर्ष संचालित कर रहे थे और शर्मा व महादेव गुटों से मिलती-जुलती प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष चला रहे थे. ये कामरेड विभिन्न स्तरों की पार्टी-कमेटियों में संगठित थे. खासकर, तमिलनाडु के कामरेड प्रांतीय पार्टी कमेटी के मातहत एकताबद्ध थे. लेकिन पुनर्गठित पार्टी-केंद्र इन लोगों के साथ संपर्क स्थापित नहीं कर सका, जिसकी वजह से क्रांतिकारी दिशा के साथ पुनर्गठन की प्रक्रिया लंबी खिंच गई. देश के सभी हिस्सों में क्रांतिकारी आंदोलन कुचले जा रहे थे और बहुतेरे कामरेडों की हत्या कर दी गई थी या उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. कुछ समय के बाद शर्मा और महादेव की केंद्रीय कमेटियों में भी फूट पड़ गई, उनका विघटन और पतन हो गया. इन परिस्थितियों में क्रांतिकारी दिशा के साथ पार्टी-शक्तियों को एकताबद्ध करने और किसान-संघर्षों को संगठित करने की कोशिशें जारी रखने के लिए हमलोगों के पास केंद्रीय कमेटी का गठन ही एकमात्र विकल्प था.
केंद्रीय कमेटी के गठन के साथ, बिहार में किसान-संघर्ष को एक नया आवेग प्राप्त हुआ. उत्तर प्रदेश के गाजीपुर व बलिया जिलों में भी और प. बंगाल के नक्सलबाडी में भी सशस्त्र ऐक्शन और कुछेक किसान-संघर्ष संगठित किए गए. कामरेड जौहर ने हमेशा पार्टी और केंद्रीय कमेटी के सामूहिक नेतृत्व के हितों को सर्वोपरि स्थान दिया, भोजपुर के किसान-संघर्ष की व्यक्तिगत मार्गदर्शन प्रदान किया, तीव्रतम वर्ग संघर्ष के बीच से उभरकर आनेवाली व्यापक शक्तियों को सैनिक कार्यवाहियों में संगठित करने व उनका नेतृत्व करने के लिए विशिष्ट संगठकों व कमांडरों को तैयार करने का कार्यभार प्रस्तुत किया, दुश्मन द्वारा चलाए गए घेराव-दमन अभियान को तोड़ने के लिए और जनता के मनोबल को ऊंचा उठाने के लिए फौजी स्क्वाडों द्वारा चलायमान दुश्मन सेना पर आक्रमण संगठित करने की जरूरत पर जोर दिया. उन्होंने संघर्ष के इन इलाकों को कांग्रेस-विरोधी संयुक्त मोर्चे के आधार की संज्ञा दी.
तथापि, आम तौर से केन्द्रीय कमेटी और खास तौर से कामरेड जौहर काफी हद तक अधिभूतवाद से ग्रस्त थे, जिसके चलते वे सर्वांगीण स्थिति को ध्यान में न रखने और औपचारिक व मनोगत रवैये से निर्देशित होकर विशिष्ट को सामान्य बना देने के गलत व्यवहार को जारी रखे हुए थे, इसलिए उन्होंने अपने दार्शनिक लेख ‘एक विभाजित होकर दो, दो मिलकर एक नहीं’ में सूत्रबद्ध किया कि ‘सही लाइन’ में केवल बुनियादी व विकासमान पहलू ही मौजूद रहते हैं. यह सही लाइन का एक यांत्रिक सूत्रीकरण है. इसने सैद्धांतिक स्तर पर हमारी गलतियों के किसी भी शुद्धीकरण का दरवाजा बंद कर दिया. और भी, चलायमान दुश्मन सेना पर आक्रमण को चलायमान युद्ध की शुरूआत – जिसे सफाया को यांत्रिक ढंग से और ऊंचे स्तर पर ले जाना था – के रूप में सूत्रबद्ध करने और इसे हर जगह के लिए आम बना देने के फलस्वरूप गलत सैनिक लाइन का जन्म हुआ. यद्यपि कई जगहों पर क्रांतिकारी कमेटियों के नेतृत्व में जनसमुदाय को पुलिस व जोतदारों के आक्रमण के खिलाफ बहादुराना प्रतिरोध-संघर्ष में संगठित किया गया और कृषि-संघर्षों को विकसित किया गया, फिर भी जन आंदोलनों को विकसित करने और कृषि-संघर्षों को गहराई में ले जाने के लिए कोई सर्वांगीण व दृढ़ नीति सूत्रबद्ध नहीं की जा सकी. इन गलत चिंतनों के नकारात्मक प्रभावों ने विभिन्न इलाकों में गंभीर नुकसानों तथा बड़े पैमाने पर जनसमुदाय की पहलकदमी के क्षीण होते जाने के रूप में अपने को अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया. नवंबर, 1975 में भोजपुर के संघर्ष के मैदान में कामरेड जौहर शहीद हुए, जब कुछ धूर्त लोग हमारी पार्टी को ध्वस्त करने की कोशिश में, पार्टी को पुनर्गठित करने और पार्टी के अंदर सामूहिक नेतृत्व व जनवादी केंद्रीकता को फिर से बहाल करने में – जिनके बिना भोजपुर के संघर्षों का अस्तित्व नामुमकिन था – कामरेड जौहर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका को नकार कर भोजपुर के नेता के रूप में उनकी प्रशंसा करते हैं, तो वे महज अपने गुट का स्वार्थ-साधन करने के लिए इस महान क्रांतिकारी नेता का अपमान ही करते हैं.
फरवरी 1976 में आयोजित दूसरी पार्टी-कांग्रेस ने, दुश्मन के प्रचंड आक्रमण की स्थिति में, क्रांतिकारी शक्तियों को एकताबद्ध रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लेकिन इसने तत्कालीन राजनीतिक लाइन की पुष्टि भर की. 1976 की पूरी अवधि के दौरान हमने कठिनतम स्थितियों में संघर्ष व पार्टी-संगठन बरकरार रखा. किसानों के विभिन्न हिस्सों को गोलबंद व संगठित करने के राजनीतिक अभियान के रूप में चलायमान ऐक्शन अभियान पर जोर, कभी-कभार ऐक्शन, खेतिहर मजदूरों की हड़ताल के रूप में जन संघर्ष और जनसमुदाय का प्रतिरोध संघर्ष जारी रहे. पटना व उत्तर बिहार के कुछ हिस्सों, उत्तर प्रदेश के गाजीपुर व बलिया तथा पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी व बांकुड़ा में संघर्षों को पुनः संगठित करने, क्रांतिकारी कमेटियों के जरिए जनसमुदाय को संगठित करने और मुख्यतः भोजपुर व नक्सलबाड़ी में सशस्त्र यूनिटों को नवजीवन प्रदान करने की कोशिशें जारी रहीं. 1974 से 1976 तक की पूरी अवधि के दौरान हमारी सबसे बड़ी त्रुटियां रही : पहला, बिहार में छात्रों, नौजवानों और जनता के सभी तबकों के कांग्रेस-विरोधी उभार के साथ जुड़ पाने में हमारी विफलता (बाद में इस उभार का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण द्वारा हथिया लिया गया और उभार नपुंसकता की स्थिति में जा गिरा); और दूसरा, आपातकाल की स्थितियों में, जबकि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, जनता पर दमन ढाया जा रहा था और आंदोलन बिखर गया था, तब हम आंदोलन को नई दिशा प्रदान करने और बची-खुची शक्तियों को संगठित कर पाने में हमारी विफलता. यद्यपि हमने कांग्रेस-विरोधी संयुक्त मोर्चे का निर्माण करने की राजनीतिक लाइन को बरकरार रखा था और अपने इलाकों को इस प्रकार के मोर्चे के नमूनों के रूप में पेश किया था, तथापि हम इसे कांग्रेस-विरोधी जनउभार के साथ जोड़ नहीं सके थे. ऐसा इसलिए हुआ कि हम सीएम की घोषणा पर आधारित संयुक्त मोर्चे के विकास की यांत्रिक धारणा के शिकार थे और इस यांत्रिक ढांचे के परे परिस्थिति का जिस विशिष्ट ढंग से विकास हो रहा था, हमने उसका विश्लेषण करने से इनकार कर दिया था. हमारे भावी विकास के लिए यह शिक्षा काफी अहमियत रखती है.
1977 के आगमन के साथ ही अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय परिस्थिति और हमारे आंदोलन में बहुत से महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए. तमिलनाडु, आंध्र और केरल के कामरेडों के साथ संपर्क पुनः कायम हुआ, जिसने हमारी पार्टी को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान किया. आपातकाल के दौरान, जब सभी मोर्चे कमोबेश खामोश पड़े थे, तब कठिनतम घड़ियों का बहादुरी से सामना करते हुए सिर्फ हमलोग ही संघर्ष में डटे हुए थे और उसे जारी रखे हुए थे. इसलिए प्रेस-सेंसरशिप समाप्त होने के साथ ही भोजपुर सुर्खियों में आ गया. 1976 तक आते-आते व्यवहार की द्वंद्वात्मक गति सिद्धांत के क्षेत्र में मौजूद अधिभूतवाद के साथ उग्र रूप से टकराने लगी थी और अपेक्षित माहौल मिलने की स्थिति में, पार्टी एक विराट परिवर्तन के मोड़ पर खड़ी थी. यह सब शुरू हुआ सिर्फ सैनिक युनिटों से संबंधित ‘पार्टी में मौजूद गलत विचारों को सुधारने’ के साथ, जो महत्वपूर्ण राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय परिवर्तनों तथा जनसंघर्षों के विकास और सशस्त्र कार्यवाहियों के उफान – दोनों ही लिहाज से पुनः उमड़ पड़े किसान-संघर्षों के ऊंचे ज्वार के साथ जुड़कर समूची पार्टी में एक सर्वांगीण शुद्धीकरण अभियान के रूप में विकसित हो गया.
संक्षेप में यही है अतीत का हमारा मूल्यांकन, हमारी बुनियादी उपलब्धियों और प्रमुख गलतियों का मूल्यांकन. बहुतेरे अन्य छोटे-मोटे पहलुओं का या तो 1979 के पार्टी सम्मेलन में जिक्र किया जा चुका है या फिर वर्तमान के लिए उनकी प्रासंगिकता नहीं रह गई है. हमारे विश्लेषण से जाहिर होता है कि कैसे अतीत के मूल्यांकन के प्रति विभिन्न रवैयों के फलस्वरूप हमारे आंदोलन में विभिन्न विलोपवादी व अराजकतावादी रुझान पैदा हुए और किस प्रकार हम अतीत से प्राप्त शिक्षाओं को क्रांतिकारी कार्यों को आगे बढ़ाने की मौजूदा जरूरतों के साथ समन्वित कर रहे हैं.