[लिबरेशन के मई, जून और जुलाई 1993 के अंकों में तीन भागों में प्रकाशित पार्टी के संक्षिप्त इतिहास के अंश]
1960 के दशक के पूर्वार्ध में अंतररार्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में चल रहे महाविवाद के दौरान सीपीआई का पहला विभाजन 1964 में हुआ और सीपीआई (एम) का जन्म हुआ. आम जनता के लिए सीपीआई रूसपंथी और सीपीआई (एम) चीनपंथी थी. सीपीआई की विशिष्ट पहचान भी राष्ट्रीय जनवाद की लाइन. इसका मतलब था कि भारत के जनवादी रूपांतरण का नेतृत्व राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग करेगा. सीपीआई की नजरों में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग अर्थात् भारतीय पूंजीपति वर्ग के साम्राज्यवाद-विरोधी, इजारेदारी-विरोधी हिस्से का प्रतिनिधित्व नेहरू के नेतृत्ववाली कांग्रेस करती थी. लिहाजा कम्युनिस्ट पार्टी का कार्यभार बना भारतीय पूंजीपति वर्ग के इजारेदार हिस्सों के खिलाफ राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के पीछे गोलबंद होना और बहुत हुआ तो उसके ढुलमुलपन के खिलाफ दबाव ग्रुप की भूमिका निभाना. दूसरी ओर सीपीआई(एम) की विशिष्ट पहचान थी उसकी जनता के जनवाद की लाइन. जिसका मतलब था लोकप्रिय जन आंदोलनों और खासकर किसान संघर्षों के निर्माण पर जोर देना तथा नेहरूपंथी कांग्रेस के साथ किसी भी किस्म के संश्रय को खारिज करना.
क्रांति के रास्ते के बारे में सीपीआई ने संसदीय बहुमत की प्राप्ति को एकमात्र व्यावहारिक विकल्प बतलाया, जबकि सीपीआई(एम) ने संसदीय जनवाद की केवल एक सीमित भूमिका स्वीकार की, जहां कम्युनिस्ट सरकारी सत्ता अधिक-से-अधिक कुछेक राज्यों में ही पा सकते हैं. सीपीआई(एम) का कहना था कि ऐसी सत्ता का इस्तेमाल आम जनता को पूंजीवादी राज्य व्यवस्था की सीमाबद्धताओं के प्रति सचेत करने और इस प्रकार वर्ग संघर्ष को तीखा करने के लिए किया जाना जाहिए. इसलिए नारा दिया गया, “वामपंथी सरकार वर्ग संघर्ष का हथियार है.”
1964 में जब विभाजन हुआ तो तमाम क्रांतिकारी कम्युनिस्ट स्वभावतः सीपीआई (एम) में शामिल हुए. किंतु स्थापना के समय से ही सीपीआई(एम) नेतृत्व ने ऊपर चर्चित प्रत्येक प्रश्न पर ढुलमुलपन दिखलाना शुरू किया. लिहाजा, सीपीआई(एम) के अंदर प्रारंभ से ही एक अंतःपार्टी संघर्ष शुरू हो गया. कामरेड चारु मजुमदार के सुप्रसिद्ध आठ दस्तावेज 1964 से 1967 के बीच चले इस अंतःपार्टी संघर्ष को सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त करते हैं. पश्चिम बंगाल में पहली संयुक्त मोर्चा सरकार कायम होते ही हर जगह कतारों में क्रांतिकारी जोश उमड़ पड़ा और पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों में भूमि संघर्ष फूट पड़े. यह संघर्ष खासकर नक्सलबाड़ी क्षेत्र में अपेक्षाकृत अधिक ऊंची मंजिल तक उठा और राज्य मशीनरी के खिलाफ खड़ा हो गया. केंद्रीय सरकार की धमकियों के चलते सरकार ने, जिस पर सीपीआई(एम) ही हावी थी, खुद को बचाने की गरज से आंदोलन को कुचलने के लिए खूनी उपायों का सहरा लिया. इससे समूची पार्टी के अंदर प्रतिरोध भड़क उठा. उत्तर प्रदेश, दिल्ली तथा जम्मू और कश्मीर आदि की राज्य कमेटियों ने पार्टी ही छोड़ दी तो आंध्र प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल तथा कई अन्य राज्यों में हर स्तर पर पार्टी में बड़े पैमाने का विभाजन हुआ.
कम्युनिस्ट क्रांतिकारी शक्तियों ने सबसे पहले तो अपने को कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की अखिल भारतीय समन्वय समिति (एआइसीसीआर) में संगठित कया. जो 22 अप्रैल 1969 को सीपीआई(एमएल) में विकसित हो गई. 1980 के दशक की शुरूआत में सीपीआई (एम) को फिर विभाजन का सामना करना पड़ा, जब उसके भूतपूर्व महासचिव पी. सुंदरैय्या के अनुयाइयों ने पार्टी छोड़ दी और एक अलग पार्टी एमसीपीआई का निर्माण कर लिया. सीपीआई(एम) को उसके बाद भी लगातार अनेक छोटे-छोटे विभाजनों का सामना करते रहना पड़ा है और हर बार सवाल 1964 के कार्यक्रम के इर्द-गिर्द मंडराते रहे हैं.
पहले दौर में सीपीआई(एमएल) ने अपनी यात्रा की शुरूआत तमाम बुर्जुआ संस्थाओं को ठुकराने से की तथा चीनी क्रांति के शास्त्रीय नमूने की तरह आधार क्षेत्रों का निर्माण करने के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ने का आह्वान किया. भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में रूसी रास्ता बनाम चीनी रास्ता की प्रासंगिकता पर लंबे अरसे से बहस जारी थी. तेलंगाना संघर्ष के बाद इस प्रश्न पर अंतःपार्टी संघर्ष बीच रास्ते में ही रुक गया था. इस बार तय हुआ कि तेलंगाना से शिक्षा लेते हुए बीच में कहीं रुके बगैर इस मुद्दे को हमेशा-हमेशा के लिए निपटा लिया जाए.
1960 के दशक के अंतिम और 1970 के दशक के शुरूआती वर्षों में सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व में संचालित सशस्त्र संघर्ष को भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में भारत में सशस्त्र क्रांति संगठित करने के अब तक के प्रयासों में सर्वाधिक संजीदा प्रयास के रूप में याद किया जाएगा. सर्वोच्च नेतृत्व सहित हजारों-हजार पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा भारतीय क्रांति की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर करने की वीरता और दिलेरी की यह महागाथा भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विरासत है. भावी प्रयत्नों की खातिर इस थाती को अवश्य संजोये रखना चाहिए. तथापि सशस्त्र संघर्ष को गंभीर धक्का लगा और पार्टी भी बहुतेरे टुकड़ों में टूट गई. पुरानी अवसरवाद और पतन की दलदल में गले तक डूब गए, तो कुछ अन्य धड़े पक्के अराजकतावादी ग्रुपों में विकसित हो गए. पीपुल्सवार इन अराजकतावादी ग्रुपों में सबसे अग्रणी है. केवल हमारे पार्टी-अंश ने ही सबसे मुश्किल दौरों में भी बिहार के भोजपुर में नक्सलबाड़ी की मशाल को जलाए रखा. जब वस्तुतः अन्य सारे ग्रुप छोटे-छोटे धड़ों में बंटते जा रहे थे. उस समय हमारे पार्टी-अंश ने ही अपने को कदम-ब-कदम पुनर्गठित किया और एक दशक से अधिक की अवधि के कष्टसाध्य संघर्षों के बाद पार्टी और आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर एक बार फिर पुनर्जीवित किया.
हमारी पार्टी ने मार्क्सवादी द्वंद्ववाद पर खड़ा होकर यह सीखा है कि किसी आंदोलन को पुराने नारों के आधार पर कभी पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है. हमारी पार्टी ने उस नई मंजिल का भी गहरा अध्ययन किया जिसमें आंदोलन प्रवेश कर चुका था तथा उसने इस तथ्य पर खास तौर पर गौर किया कि इसका पुनरोदय एक हिंदीभाषी राज्य बिहार में हुआ है. पुनर्गठन की प्रक्रिया में पार्टी ने लचीली नीतीयों और कार्यनीतियों की एक पूरी शृंखला विकसित की, बुर्जुआ संस्थाओं के साथ धीरे-धीरे और सतर्कता के साथ सामंजस्य कायम किया और अनेक नए व साहसिक प्रयोग शुरू किए. घोर अराजकतावादी प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने के लिए पार्टी ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर अपनी जड़ें तलाशने पर जोर दिया. साथ ही साथ उसने वामपंथी और कम्युनिस्ट आंदोलन की मुख्यधारा के अंदर दो कार्यनीतिक लाइनों के बीच के संघर्ष को एक नए रूप में आगे बढ़ाने का निर्णय लिया.
अवसरवादी कार्यनीतिक लाइन के विरुद्ध प्रभावकारी प्रतिरोध विकसित करने के लिए उसने वामपंथ की मुख्य धारा के कुछ महत्वपूर्ण नारों को क्रांतिकारी ढांचे के अंदर आत्मसात कर लेने का लचीलापन भी प्रदर्शित किया है. हमारी पार्टी ने यह सब सफलतापूर्वक किया है और इस क्रम में उसने उसूलों को बुलंद रखा है, अपनी स्वतंत्रता सुरक्षित रखी है और अपनी एकता कायम रखी है. इससे अन्य वामपंथी पार्टीयों के साथ अधिक से अधिक समागम करना और वामपंथी कतारों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाना आसान बन गया है. इस प्रक्रिया में अपने अवसवादी नेतृत्व से विक्षुब्ध वामपंथी कतारों अधिक से अधिक संख्या में हमारे पक्ष में आती जा रही हैं.
कलकत्ता कांग्रेस के साथ-साथ हमारी पार्टी एक नई मंजिल में पहुंच गई है. मार्क्सवादी सिद्धांत के क्षेत्र में तथा भारतीय वामपंथ व कम्युनिस्ट एकीकरण के संबंध में, और सर्वोपरि, राष्ट्रवादी जनवादी संघर्षों के अंदर वामपंथी कोर को शक्तिशाली करने के मामले में, हमारी पार्टी को बहुत बड़ी भूमिका निभानी होगी.
सीपीआई(एम) ने अपनी जीवनयात्रा चीनपंथी होने की पहचान के साथ शुरू की थी, लेकिन जल्दी ही उसने सोवियत संघ और चीन से समान दूरी का सिद्धांत विकसित कर लिया. यद्यपि चीन और सोवियत संघ के बीच फूट पैदा होने के बाद कोई समाजवादी खेमा अस्तित्व में नही रहा, लेकिन उसने सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी खेमे को मान्यता देना जारी रखा. उसने ख्रुश्चेवी संशोधनवाद का जरूर विरोध किया, लेकिन शांतिपूर्ण विकास की प्रक्रिया में समाजवादी देशों में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के खतरों के बारे में माओ के सिद्धांत को मानने से इनकार कर दिया. सीपीआई(एम) ने सोवियत संघ की अतिमहाशक्ति की हैसियत और चेकोस्लोवाकिया एवं अफगानिस्तान पर आक्रमण जैसी सामाजिक साम्राज्यवादी कार्यवाहियों का समर्थन करना जारी रखा. सीपीआई(एम) के नेताओं ने सर्वहारा अंतरराष्ट्रवाद के नाम पर इस “क्रांति के निर्यात” को जायज ठहराया और वे ब्रेजनेव के काफी करीबी बन गए, जबकि उसे सोवियत संघ के इतिहास में अब तक का सबसे भ्रष्ट शासन माना जाता है.
सीपीआई(एम) ने सोवियत संघ की तमाम आलोचनाओं को साम्राज्यवादी दुष्रचार कहकर खारिज कर दिया. वह सोवियत समाजवाद के विरुद्ध सीआइए की साजिशों तथा अन्य बाहरी खतरों का राग ही लगातार अलापती रही. समाजवादी समाज के अंदर से पूंजीवाद की ओर शांतिपूर्ण क्रमविकास के माओ के शानदार विश्लेषण के सैद्धांतिक धरातल को ठुकरा देने के बाद उसके पास और कोई चारा भी न था. लेकिन उसकी सारी सैद्धांतिक बाजीगरी सोवियत संघ में समाजवाद के ध्वंस को रोकने में नाकामयाब रही. यह केवल समाजवाद का ही ध्वंस नहीं था. पूर्वी यूरोप के देशों में उठे राष्ट्रवादी उभार के सामने समूचा सोवियत साम्राज्य ताश के पत्तों के महल की तरह भहरा पड़ा.
सोवियत संघ के ध्वंस ने सीपीआई(एम) की बड़ी खूबसूरती से संतुलित रूस और चीन से समान दूरी के सिद्धांत की भी धज्जियां उड़ा दीं और अब वह चीन के संबंध में फिर उसी “सर्वहारा एकजुटता” की जुगाली कर रही है जिसकी रोशनी में थ्येनआनमन त्रासदी जैसी घटनाओं को बाहरी कारणों और सीआइए की साजिशों का परिणाम समझा और समझाया जाता है.
यद्यपि सीपीआई(एम) के नेतागण अब कभी-कभी सोवियत संघ के ध्वंस के पीछे के कुछ आंतरिक कारणों की चर्चा करते हैं, तथापि वे पूंजीवाद की पुनर्स्थापना की गति के नियमों को पकड़ पाने में पूरी तरह असफल रहे हैं. व्यावहारिक राजनीति के स्तर पर वे सोवियत अतिमहाशक्ति की प्रभुत्ववादी कार्यवाहियों और अंततः कई राष्ट्रीय जातिसत्ताओं में उसके विखंडन के बीच के अहम संबंध को भी आत्मसात नहीं कर सके.
महाविवाद में हमारी पार्टी ने दृढ़ता के साथ खुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध माओ की स्थितियों का और सच्ची अंतरराष्ट्रवादी भावना के साथ समाजवादी चीन का समर्थन किया था. चीन के प्रति हमारा समर्थन उत्साह के अतिरेक का शिकार जरूर था, किंतु क्रांति के किसी किस्म के आयात अथवा निर्यात के साथ इसका कोई ताल्लुक न था, क्योंकि माओ ने ठीक इसी मुद्दे पर सोवियत संघ की हमेशा आलोचना की थी. इस प्रकार सोवियत संघ और उसकी सामाजिक साम्राज्यवादी कार्यवाहियों की हमारी आलोचना सोवियत संघ की समूची व्यवस्था को सामाजिक साम्राज्यवादी व्यवस्था बतलाने और दोनों अतिमहाशक्तियों के बीच सोवियत अतिमहाशक्ति को अधिक खतरनाक मानने जैसे अतिरेकों का शिकार जरूर हो सकती है, तथापि परवर्ती इतिहास ने पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के प्रश्न पर सोवियत संघ की हमारी आलोचना और उसकी प्रभुत्ववादी कार्यवाहियों के हमारे विरोध को ही सही साबित किया है.
आज चीन मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों से संबंधित कोई विवाद नहीं चला रहा है और न ही वह किसी साम्राज्यवादी घेरेबंदी का सामना कर रहा है. भारतीय शासक वर्ग भी आज चीन के प्रति दुश्मनी नहीं पाल रहा है. चीन समाजवाद का निर्माण करने के नए-नए प्रयोगों में लगा हुआ है जिसका सावधानी के साथ और आलोचनात्मक ढंग से अध्ययन किया जाना चाहिए. इसके अलावा, सोवियत संघ के पतन के बाद समाजवादी जनवाद के सवाल ने भारी अहमियत हासिल कर ली है. आज एक समाजवादी व्यवस्था को पूंजीवादी जनवाद से अपनी श्रेष्ठता साबित कर दिखानी होगी. इन सब कारणों से हमें चाहिए कि हम चीन का मूल्यांकन अपनी स्वतंत्र समझ के आधार पर समाजवादी देशों में से एक के बतौर करें जो अपनी परिस्थितियों के अनुरूप समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण करने के प्रयोगों में लगा हुआ है. मोटामोटी चीनी समाजवाद का समर्थन करते हुए भी हम उसकी, इस या उस विशिष्ट नीति की, खासकर समाजवादी जनवाद संबंधी नीति की, आलोचना करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं. इस अर्थ में हम निस्संदेह और ठीक ही चीन से थोड़ी दूर चले गए हैं. फिर भी हमें यकीन है कि इससे कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच एक नए ढंग के बिरादराना संबंधों की शुरूआत होगी जो सम्बंध पहले से कहीं अधिक निष्कपट और कहीं अधिक खुले होंगे.
समाजवादी देशों और विकसित पूंजीवादी देशों के मजदूर वर्ग आंदोलन का आम तौर पर समर्थन करना, आम तौर पर साम्राज्यवाद और खास तौर पर अमरीकी साम्राज्यवाद का विरोध करना तथा तीसरी दुनिया के देशों के मुक्ति संघर्षों की नियामक भूमिका को बुलंद करना -- नई विश्व परिस्थिति में अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की आम लाइन केवल यही हो सकती है. घटनाक्रम ने समूची दुनिया के कम्युनिस्टों को अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की कमोबेश एक ऐसी ही लाइन के इर्द-गिर्द एकताबद्ध होने के लिए बाध्य कर दिया है.
1960 के दसक के पूर्वार्ध में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में भारतीय क्रांति के कार्यक्रम को लेकर एक महाविवाद छिड़ा था जो एनडीआर (राष्ट्रीय जनवादी क्रांति) और पीडीआर (जनता की जनवादी क्रांति) के बीच के संघर्ष के बतौर मशहूर हुआ था. एनडीआर की लाइन पर बाह्यतः ख्रुश्चेव के विकास के गौर-पूंजीवादी रास्ते का और आंतरिक तौर पर नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था का असर था. यह लाइन राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग को (अर्थात् नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस को) साम्राज्यवाद-विरोधी, इजारेदारी-विरोधी और सामंतवाद-विरोधी मानती ती और उम्मीद करती थी कि भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र को विशाल मात्रा में दी जा रही सोवियत सहायता की मदद से भारत में अततः समाजवाद आ जाएगा. इस लाइन को सीपीआई ने अपनी अधिकारिक लाइन बना लिया और नतीजे के तौर पर वह कांग्रेस का दुमछल्ला बन गई. इसके विपरीत, पीडीआर की लाइन में कांग्रेस को मुख्य दुश्मन मानने पर जोर दिया गया था. यह लाइन नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था को पूंजीवाद का ही मोहक रूप मानती थी और इस लाइन में इस बात पर भी जोर दिया गया था कि अभी भी शक्तिशाली सामंती अवशेष ही भारत के विकास के रास्ते में मुख्य बाधा हैं. सीपीआई(एम) के नेताओं ने अपनी वफादारी पीडीआर के प्रति घोषित की. किंतु प्रारंभ से ही उसकी स्थितियां अस्पष्ट थीं. उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि भारत में आजादी पाने के साथ-साथ जनवादी क्रांति की एक मंजिल पूरी हो गई है. इसका अर्थ केवल यही हो सकता है कि जनवादी क्रांति का साम्राज्याद-विरोधी पहलू बुनियादी तौर पर पूरा हो चुका है और अब केवल उसके सामंतवाद-विरोधी पहलू को ही पूरा करना शेष है. इसी सूत्रीकरण के चलते सीपीआई(एम) ने भारत की विदेश नीति को प्रगतिशील कहा, किंतु उसकी घरेलू नीतियों को प्रतिक्रियावादी बतलाया. लिहाजा उन्होंने एक लंबे अरसे तक भारतीय विदेशी नीति का समर्थन किया. इस कारण और भी अधिक कि ये नीतियां सोवियत संघ की विदेश नीतियों से मेल खाती थीं. जब सोवियत संघ द्वारा अमेरिका को शिकस्त देने का उसका अरसे से पाला-पोसा गया मिथक ताश के पत्तों के घर की तरह ढह गया, तब कहीं भारत की साम्राज्यवाद-विरोधी नीति के संबंध में पाले गए उसके भ्रमों पर करारी चोट पड़ी. 1980 के दशक से भारत विदेश नीति के मामले में खुल्लामखुल्ला अधिक से अधिक साम्राज्यवादपरस्त स्थितियां अपनाता जा रहा है. भारतीय विदेश नीति के इस रूपांतरण की व्याख्या कर पाने में जहां सीपीआई(एम) को दांतों तले पसीना आ रहा है वहां इन प्रत्यक्ष परिवर्तनों ने सीपीआई(एमएल) की इस स्थिति की ही पुष्ट की है कि साम्राज्यवाद-विरोध अभी भी भारतीय जनवादी क्रांति का एक प्रमुख कार्यभार है.
1962 में सीपीआई के क्रांतिकारी हिस्से ने अंधराष्ट्रवादी भावनाओं के ज्वार में बह जाने से अपने को रोका और यहां तक कि 1965 के पाकिस्तान युद्ध के दौरान भी वामपंथी कम्युनिस्टों ने दोनों ही देशों के शासक वर्गों की निंदा की. तथापि 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय से सीपीआई(एम) पड़ोसी देशों, खासकर पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय शासक वर्गों के दृष्टिकोण का कट्टर समर्थक बन गई. उसने यह मानने से इनकार कर दिया कि दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा देश होने के कारण भारत के अंदर क्षेत्रीय प्रभुत्ववादी महत्वाकांक्षाए मौजूद हैं. अपने देश के शासक वर्गों के अंधराष्ट्रवाद का समर्थन करना हमेशा और हर जगह संशोधनवाद की सबसे विशिष्ट पहचान रही है. लिहाजा, भारतीय शासक वर्गों के क्षेत्रीय प्रभुत्ववाद का शक्तिशाली और दृढ़ विरोध निस्संदेह भारतीय क्रांति की कार्यसूची का अभिन्न अंग होगा. यह कहने की जरूरत नहीं कि अंधराष्ट्रवाद का अनुसरण करने वाली कोई पार्टी कभी जनवादी क्रांति का नेतृत्व नहीं कर सकती है.
सीपीआई(एमएल) ने अपने छोटे पड़ोसी देशों पर भारत द्वारा अपना प्रभुत्व लादने की तमाम अभिव्यक्तियों का हमेशा विरोध किया है और इसे हम सर्वहारा अंतरराष्ट्रवाद की कसौटी मानते हैं. यह एक ऐसी कसौटी है जो क्यूबा, दक्षिण अफ्रीका अथवा फिलस्तीन का समर्थन करने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.
भारतीय पूंजीपति वर्ग के बारे में सीपीआई(एम) का मूल्यांकन था कि वह साम्राज्यवाद के साथ अधिकाधिक समझौता करता जा रहा है. इन मुल्यांकन के अंदर यह धारणा छिपी हुई थी कि ढुलमुलपन और समझौतापरस्ती के कुछ लक्षण मौजूद रहने के बावजूद भारतीय पूंजीपति वर्ग मुख्यतः स्वतंत्र पूंजीपति वर्ग है. सीपीआई की तरह ही उसने भी सार्वजनिक क्षेत्र को बड़े पूंजीपतियों के नियंत्रणाधीन निजी क्षेत्र के प्रभाव को संतुलित करने वाली शक्ति मानने का भ्रम पालना तथा इंदिरा गांधी द्वारा किए गए बैंक राष्ट्रीयकरण जैसे राष्ट्रीयकरण के उपायों को बड़े पूंजीपतियों के विरुद्ध एक किस्म का संघर्ष मानकर उनका समर्थन करना शुरू किया.
इन स्थितियों का नतीजा हुआ कि विभिन्न संकटकालीन मोड़ों पर उसे कांग्रेस के साथ राजनीतिक सहयोग करना पड़ा जैसे, सिंडिकेट के खिलाफ इंदिरा कांग्रेस का पक्ष लेना, पिछले राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार का समर्थन करना और एकदम हाल में कांग्रेस(आइ) के साथ भाजपा-विरोधी धर्मनिरपेक्ष मोर्चे की वकालत करना. भारत सरकार की नई आर्थिक नीति विश्व बैंक और आइएमएफ के निर्देशानुसार लागू किए जाने के चलते सीपीआई(एम) के अंदर भारतीय पूंजीपति वर्ग के बुनियादी चरित्र के बारे में एक बार फिर सवाल उठ खड़े हुए हैं. सीपीआई(एम) की पिछली कांग्रेस में भारतीय पूंजीपति वर्ग को दलाल कहने का प्रस्ताव पेश हुआ जिसे नेतृत्व ने खारिज कर दिया.
सीपीआई(एम) का समूचा अवसरवाद “सामाजिक शक्ति संतुलन को बदलने के लिए शासक वर्गों के बीच के अंतरविरोधों का इस्तेमाल करने” के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है. इस इस्तेमाल की गुंजाइश को बेहद बढ़ा-चढ़ाकर देखा गया है, इतना ज्यादा कि यही सीपीआई(एम) का मुख्य केंद्रबिंदु बन गया है. इसके चलते वह पूंजीवादी राजनीति और राजनीतिक साजिशों के दलदल में आकंठ डूब गई है तथा उसके तमाम महत्वपूर्ण पार्टी नेताओं को हमेशा पूंजीवादी राजनीतिज्ञों के ऊपरी स्तर के साथ समझौता वार्ता चलाने में अथवा उनके बीच मध्यस्थता करने में व्यस्त रहना पड़ता है.
कार्यनीति के क्षेत्र में सीपीआई(एमएल) ने डीएमके, तेलुगू देशम, जद, अकाली दल जैसी क्षेत्रीय और मध्यवर्ती विपक्षी पार्टियों के साथ संश्रय कायम करने पर सबसे ज्यादा जोर दिया. इन संश्रयों की कीमत के बतौर उसने कुलक वर्गों के खिलाफ, जो कि इन पार्टीयों के मुख्य सामाजिक आधार हैं, गरीब किसानों के संघर्षों को कुर्बान कर दिया. लिहाजा सीपीआई(एम) देश में कहीं भी सामंतवाद-विरोधी संघर्षों अथवा ग्रामांचलों में नवविकसित वर्ग संघर्षों की अगली पंक्ति में नजर नहीं आती है. इस प्रकार जनता की जनवादी क्रांति के आधार को ही पूरी तरह तिलांजलि दे दी गई है. सीपीआई(एम) के जनवादी कार्यक्रम का सारा जोर संघवाद, राज्यों को अधिक अधिकार, पंचायत स्तर तक सत्ता का विकेंद्रीकरण जैसे आम जनवादी मुद्दों तक सिमट गया है.
दूसरी ओर, सीपीआई(एमएल) ने नवजनवाद के माओ के बताए रास्ते के आधार पर जनवाद को पुनर्परिभाषित किया. उसने भारत को अर्द्ध-औपनिवेशिक देश कहा, मतलब यह कि साम्राज्यवाद यद्यपि भारतीय राजसत्ता पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण नहीं करता है, तथापि भारतीय राज्य को प्रभावित करने और उसकी नीतियों का निर्देशन करने लायक यथेष्ट शक्ति उसके हाथों में है. भारतीय राजसत्ता पर नियंत्रण वह यहां के पूंजीपति वर्ग द्वारा करता है जो बुनियादी तौर पर निर्भरशील प्रकृति का है. इसकी तमाम आपेक्षिक स्वतंत्रताएं – विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों से मोलतोल करने की क्षमता – निर्भरशीलता के इस सामग्रिक चौखटे के अंदर कैद हैं. लिहाजा सीपीआई(एमएल) का अपने जन्म के समय से ही पक्का विश्वास रहा है कि भारतीय पूंजीपति वर्ग कोई ठोस जनवादी रूपांतरण करने में अक्षम है और सर्वहारा को नेतृत्व खुद अपने हाथों में ले लेना चाहिए. हम विदेश संबधों और घरेलू नीतियों, दोनों ही क्षेत्रों में भारतीय शासक वर्गों के पाखंड का हमेशा भंडाफोड़ करने का प्रयत्न करते रहे हैं. इसके चलते हमारी पार्टी अपने और भारतीय शासक वर्गों के बीच एक विभाजन रेखा खींचने में और सुसंगत जनवाद के समर्थक के बतौर उभरने में समर्थ रही है.
सीपीआई(एमएल) ग्रामंचलो मे सामांतवाद विरोधी संघर्ष और हरित क्रांति के पर्वर्ती दौर मे कुलकों के खिलफ खेत मज़दूरो और गरीब किसनों के वर्ग संघर्ष पर हामेशा सबसे ज्यदा ज़ोर देती रही है.
सीपीआई(एमएल) ने नागरिक अधिकारों से लेकर संघवाद तक के तमाम जनवादी मुद्दों को उठाया है और व्यापकतम संभव जनवादी संश्रयों का निर्माण करने की कोशिश की है. लेकिन ऐसा करते समय उसने हमेशा अपनी वर्गीय स्वतंत्रता और राजनीतिक पहलकदमी पर जोर दिया है.
सीपीआई(एम) के साथ हमारे वर्तमान वादविवाद में उसके दुमछल्लेपन के खिलाफ हमारी तीखी आलोचना तथा वामपंथ की स्वतंत्र अभिव्यक्ति और मजदूरों व किसानों की वर्गीय कार्यवाहियों पर आधारित वाम एकता पर हमारा लगातार जोर महज निरपेक्ष उसूलों से संबंधित सवाल अथवा महज कुछ कार्यनीतिक उपाय भर नहीं हैं. ये जनता की जनवादी क्रांति के लिए हम जो तैयारियां कर रहे हैं उसके आवश्यक उपादान हैं. इसलिए इन्हें आत्मसात किए बगौर कोई भारत में जनता के जनवाद की दो कार्यनीतियों के बीच के संघर्ष को आत्मसात नहीं कर सकता है.
पूंजीवादी संसद में बहुमत हासिल करने के जरिए सत्ता के शांतिपूर्ण संक्रमण के बारे में मार्क्सवादियों और संशोधनवादियों के बीच का विवाद काफी पुराना है. काफी पहले लेनिन द्वारा बर्नस्टीन और मेन्शेविकों के तर्कों को प्रभावशाली ढंग से खारिज कर दिए जाने के बाद मान लिया गया था कि यह विवाद हल हो चुका है. इसके अतिरिक्त व्यावहारिक जीवन में भी देखा गया कि पश्चिमी यूरोप के संशोधनवादी लोग सामाजिक जनवादियों में पतित हो गए और पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था के दुमछल्ले बन गए, जबकि रूसी और चीनी कम्युनिस्टों ने अपने नेतृत्व में क्रांतियां सफल कीं. बहरहाल, 1960 के दशक के पूर्वार्ध में ख्रुश्चेव ने इस प्रश्न को फिर जिंदा किया. बहाना था – समाजवादी खेमे के प्रचंड रूप से शक्तिशाली हो जाने के कारण विश्व शक्ति संतुलन में हुए मौलिक परिवर्तन के चलते एक ‘नई परिस्थिति’ उत्पन्न हुई है, जिसके फलस्वरूप समाजवाद आज शांतिपूर्ण प्रतिद्वंद्विता के जरिए साम्राज्यवाद को पराजित करने में पूरी तरह समर्थ है. लिहाजा कम्युनिस्टों के सामने संसदीय उपायों से सत्ता के शांतिपूर्ण संक्रमण के लिए प्रयत्न करने के नए अवसर उपस्थित हो गए हैं. ‘शांतिपूर्ण प्रतिद्वंद्विता’ और ‘शांतिपूर्ण’ संक्रमण को जायज ठहराने के लिए परमाणु युद्ध के खतरे की बातें भी उठाई गईं.
भारत में सीपीआई मानो इस विचार को ग्रहण करने के लिए तैयार ही बैठी थी. उसने आधिकारिक रूप से वह रास्ता अख्तियार किया जिसे संसदीय रास्ता कहा जाता है. इसमें एकमात्र जोर संसद में अधिक से अधिक सीटें जीतने और अंततः संसदीय बहुमत और इस तरह सत्ता हासिल करने पर जोर दिया जाता है. संसदीय बहुमत सीपीआई के लिए हमेशा मृग-मरीचिका बना रहा. इस बीच खुद ‘शांतिपूर्ण प्रतिद्वंद्विता’ का दुर्ग सोवियत संघ ढह चुका है और सीपीआई वस्तुतः एक सामाजिक-जनवादी पार्टी बन गई है.
समूची दुनिया के मार्क्सवादी-लेनिनवादियों ने ख्रुश्चेव द्वारा प्रतिपादित संसदीय रास्ते को ठुकरा दिया और भारत में सीपीआई से सीपीआई(एम) के अलग होने का यह एक प्रमुख कारण रहा है. सीपीआई(एम) ने संसदीय और गौर संसदीय संघर्षों को जोड़ने की वकालत की. उसने संसदीय बहुमत के जरिए सत्ता पाने की संभावना से इनकार कर दिया. चुनावों के जरिए कुछ राज्यों में सत्ता पाने को विश्वसनीय विकल्प माना गया, बशर्ते कि पार्टी केवल वहीं सरकार में शामिल हो जहां कि वह नेतृत्वकारी शक्ति हो. यहां सरकार की सत्ता और राजसत्ता के बीच फर्क किया गया. पार्टी का ठोस कार्यभार था आम जनता के सामने पूंजीवादी राज्य ढांचे के अंतर्गत बनी सरकारों की सत्ता की सीमाबद्धताओं को स्पष्ट करना. उम्मीद की गई थी कि इससे जनसमुदाय की राजनीतिक चेतना को ऊपर उठाने में और पूंजीवादी राज्य के खिलाफ हमला बोलने के लिए उन्हें तैयार करने में पार्टी समर्थ होगी. मुख्यतः इसी अर्थ में वामपंथी सरकार को वर्ग संघर्ष के हथियार का काम करना था.
1957 की केरल की कम्युनिस्ट सरकार के अनुभव ने यह दिखला दिया था कि केंद्रीय सत्ता ऐसी सरकार को नहीं चलने देगी. इससे कम्युनिस्टों को संसदीय व्यवस्था के पाखंड का भंडाफोड़ करने का मौका मिलेगा और इस तरह जनता की जनवादी क्रांति का रास्ता साफ हो जाएगा.
पार्टी कतारों ने संसदीय संघर्षों के मामले में सीपीआई और सीपीआई(एम) के बीच के फर्क को इसी रूप में समझा था.
सीपीआई(एम) शक्तिशाली जन आंदोलनों की लहरों पर सवार होकर क्रांतिकारी लफ्फाजियों के साथ 1967 में पश्चिम बंगाल में सत्ता में आई. लेकिन यह मिली-जुली सरकार चंदरोजा साबित हुई. 1969 में मिली सफलता भी अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी और पश्चिम बंगाल को 1977 तक श्वेत आतंक के साए में रहना पड़ा. मौजूदा वाम मोर्चा सरकार 1977 में राष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रम में आए विशिष्ट मोड़ के चलते सत्ता में आई. बिड़ंबना ही थी कि तब तक वहां जन आंदोलनों की लहर थम चुकी थी और पार्टी संगठन गतिहीन बन चुका था. तबसे पिछले लगभग 15 वर्षों के दौरान केंद्र की कांग्रेस(आइ) सरकारों ने संसदीय खेल के नियमों का पालन किया है और शायद ही कोई ऐसी घड़ी आई कि जब केंद्रीय सत्ता द्वारा वाममोर्चा सरकार को उखाड़ फेंकने का सचमुच कोई संजीदा प्रयास किया गया हो. ‘वाममोर्चा सरकार वर्ग संघर्ष का हथियार है’ जैसे नारों को और केंद्र का मुकाबला करने की लफ्फाजियों को चुपचाप पार्टी के शब्दकोष से हटा दिया गया है. पूंजीवादी संसद के पाखंड का भंडाफोड़ करने की जगह अब ‘जनता की प्रतिनिधिमूलक संस्थाओं’ के गुणों का बखान करने और पूंजीवादी राज्य ढांचे के अंदर इतने लंबे अरसे तक सत्ता टिकाए रखने के विशिष्ट मॉडल को बुलंद करने पर जोर दिया जा रहा है. सीपीआई(एम) विधानसभाओं और संसद में अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए जिस तरह विभिन्न पूंजीवादी संगठनों से प्रणय निवेदन कर रही है और यहां तक कि जिस तरह रामों-वामों संश्रय के जरिए केंद्रीय सरकार की सत्ता में हिस्सेदार बनना चाहती है उससे साफ-साफ यह झलकता है कि पार्टी संसदीय रास्ते पर बहुत दूर आगे निकल चुकी है.
नक्सलबाड़ी में क्रांतिकारी कम्युनिस्टों ने सीपीआई(एम) के अंदर संसदीय बौनेपन के प्रथम लक्षण दिखलाई पड़ते ही विद्रोह का झंडा उठा लिया. जल्दी ही सीपीआई(एमएल) संगठित की गई जिसने संसदीय रास्ते को ठुकरा दिया. बहरहाल, सीपीआई(एमएल) के अंदर संसदीय संघर्षों को पूरी तरह खारिज कर देने से संबंधित बहस कभी खत्म नहीं हुई. संयोगवश, यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी समूचे कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर मार्क्सवादी-लेनिनवादियों के बीच एक प्रमुख विवादास्पद मुद्दा रहा है. सीपीआई(एमएल) ने हमेशा संसदीय रास्ते को, अर्थात् पूंजीवादी संसद में बहुमत पाने के जरिए सत्ता दखल के रास्ते को ठुकराया है. लेकिन संसदीय संघर्षों का इस्तेमाल करने के सवाल पर उसने सचेत प्रक्रिया में एक व्यापक और लचीला रुख विकसित किया है. सीपीआई(एमएल) का परिप्रेक्ष है संसदीय और गैर-संसदीय संघर्षों को एक-दूसरे के साथ इस तरह जोड़ना कि गैर-संसदीय संघर्ष प्राथमिक भूमिका निभाएं, साथ ही साथ, सीपीआई(एमएल) मार्क्सवादी-लेनिनवादी कार्यनीति के बतौर क्रांतिकारी उभार की परिस्थिति में चुनावों का बहिष्कार करने तथा पीछे हटने के समय उनके एक अत्यंत विशिष्ट भूमिका ले लेने से इनकार भी नहीं करती है. इससे भी बड़ी बात यह है कि जब भारत की वस्तुगत परिस्थितियों में इस या उस राज्य में कम्युनिस्ट नेतृत्व वाली सरकार बनाने की संभावना मौजूद है तब हमारी पार्टी के लिए यह नितांत आवश्यक हो जाता है कि वह इस मौके का फायदा उठाए और वामपंथी सरकार का एक वैकल्पिक नमूना पेश करे जो सचमूच वर्ग संघर्ष के हथियार का काम करेगी.
रूसी रास्ता बनाम चीनी रास्ता के विवाद में सीपीआई(एमएल) ने चीनी रास्ते का पक्ष लिया. इसका मतलब था ग्रामीण क्षेत्रों में एक शक्तिशाली लाल सेना का निर्माण करके लाल राजनीतिक सत्ता की स्थापना करना तथा इस प्रकार शहरों को चारों ओर से घेर लेना और अंततः उनपर कब्जा कर लेना. इस रास्ते पर कदम बढ़ाते ही सीपीआई(एमएल) के सामने यह स्पष्ट हो गया कि क्रांति की समूची मंजिल में चुनावों में भाग लेने का प्रश्न ही नहीं उठता है और इस तरह चुनाव बहिष्कार को रणनीतिक अर्थ प्रदान किया गया.
चीनी रास्ते का प्रयोग एक दशक से अधिक तक चलाने के बाद सीपीआई(एमएल) ने अपने अनुभव का निचोड़ निकाला और वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि भारतीय परिस्थितियों में शास्त्रीय चीनी रास्ते की आंखें मूंदकर नकल करना गलत है. असली बात है मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओ विचारधारा को भारत की ठोस परिस्थितियों के साथ एकरूप करना. चूंकि चीन में कोई संसद ही नहीं थी, इसलिए वहां संसदीय संघर्षों का सवाल ही नहीं उठा. भारतीय परिस्थितियाँ भिन्न हैं. लिहाजा, अपनी अग्रगति के शुरूआती दौर में और एक नई क्रांतिकारी यात्रा प्रारंभ करने के विशेष संदर्भ में चुनाव बहिष्कार यद्यपि सही था, तथापि भारतीय कम्युनिस्ट संसदीय संघर्ष हमेशा-हमेशा के लिए नहीं ठुकरा सकते हैं और न उन्हें ऐसा करना ही चाहिए. इस प्रकार चुनाव बहिष्कार को एक कार्यनीतिक सवाल बना दिया गया. सीपीआई(एमएल) आज भी ग्रामीण क्षेत्रों पर और किसानों के जुझारू संघर्ष को विकसित करने पर प्राथमिक जोर दे रही है. विशेष राजनीतिक परिस्थिति में ये विशाल इलाके जन सशस्त्र शक्तियों की ताकत के बल पर समानांतर सत्ता केंद्रों में विकसित हो जा सकते हैं और इस तरह राष्ट्रीय स्तर पर शक्ति-संतुलन में आमूलचूल परिवर्तन कर सकते हैं.
सीपीआई(एमएल) संसदीय रास्ते को पूरी दृढ़ता के साथ ठुकराती है. हाल ही में संपन्न इसकी पांचवीं कांग्रेस ने इस बात को दोहराया है कि अंतिम विश्लेषण में केवल सशस्त्र संघर्ष ही भारतीय क्रांति की तकदीर का फैसला करेगा. सीपीआई(एमएल) इसी मौलिक आधार पर खड़ा होकर क्रांति की विभिन्न मंजिलों में संसदीय और गैरसंसदीय संघर्षों को एक-दूसरे के साथ विभिन्न रूपों में जोड़ने का प्रयोग जारी रखेगी और इसी तरह क्रांति का भारतीय रास्ता निर्धारित होगा.