(लिबरेशन, अक्टूबर 1991)
रणनीतिक परिप्रेक्ष्य
इंडियन पीपुल्स फ्रंट अथवा कम्युनिस्ट पार्टी? आइए, हम इसी सवाल से शुरू करें जिस पर फिलहाल हमारी पार्टी के अंदर और हमारे सर्किल के बाहर व्यापक तौर पर विवाद जारी है. हमारे कुछ कामरेड महसूस करते हैं कि जब पार्टी भूमिगत थी उस वक्त बतौर कानूनी उपकरण आईपीएफ की एक प्रासंगिकता जरूर थी. किंतु पार्टी जैसे-जैसे अधिक से अधिक खुलती गई, वैसे-वैसे एक अलग कानूनी उपकरण की आवश्यकता भी समाप्त होती गई, सीपीआई(एम) के सिद्धांतकार प्रकाश करात ने भी हमारे साथ अपने वादविवाद के क्रम में इसी प्रश्न को उठाया है. सीपीआई(एमएल) खुली पार्टी बनती जा रही है और कानूनी कार्यवाहियों की ओर बढ़ रही है, अतः इस स्थिति में जबकि यही सीपीआई(एमएल) आईपीएफ की नेतृत्वकारी और मार्गदर्शक शक्ति है तब भला उसे बनाए रखने का क्या मकसद?
हम इसके विपरीत विचार से परिचित हैं चो यह दलील देता था कि चूंकि पार्टी के सभी कार्यक्रम आईपीएफ द्वारा लागू किए जा रहे हैं इसलिए पार्टी को भंग कर देना चाहिए.
हमारी पार्टी ने हमेशा माना है कि पार्टी और आईपीएफ दोनों ही जरूरी हैं. विवाद का बिंदु है कि दोनों के कार्यभारों को कैसे विभाजित किया जाए और उन्हें कैसे मिलाया जाए.
आइए, हम इसे विस्तार से समझें. कम्युनिस्ट पार्टी होने के नाते हमारा कार्यभार है शहरी और ग्रामीण सर्वहारा को संगठित करना तथा समाजवादी क्रांति पूरी करना. लोकप्रिय शब्दों में कहूं तो पूंजी के शासन को नष्ट करना और निजी संपत्ति को सार्वजनिक संपत्ति में रूपांतरित करना. समाजवादी क्रांति की राह हर कहीं जनवादी क्रांति से होकर गुजरती है और चूंकि जनवादी क्रांति हमारे देश में अधूरी, अपूर्ण रही है, इसलिए हमें इसे पूरा करने पर सबसे ज्यादा ध्यान देना होगा. विश्व स्तर पर समाजवाद में हुए हाल के प्रतिगामी परिवर्तन इस बात के निर्माण के लिए उठाए गए जल्दबाजी भरे कदम हमें कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मुहैया कराते.
भारत में पूंजीवाद अपने आधुनिक औद्योगिक रूपों में भारी मात्रा में विकसित हुआ है तथा यह कृषि में भी उल्लेखनीय मात्रा में प्रवेश कर चुका है. श्रम का शोषण बहुत सारे मामलों में पूंजीवादी रूप अख्तियार करता ही है. यहां पूंजीवादी जनवाद की तमाम आधुनिक संस्थाएं, संविधान से लेकर वयस्क मताधिकार पर आधारित संसद और न्यायपालिका तक मौजूद हैं, इन सबको देखकर समाजवादी क्रांति का आह्वान करने के लिए बहुतों का जी आसानी से ललचा जा सकता है. किंतु यह तो सिक्के का केवल एक पहलू है.
दूसरी ओर, मध्ययुगीन अवशेष, सामंती और अर्ध-सामंती संस्थाएं, प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था, धार्मिक कट्टरपंथ, पुरानी व्यवस्था के सभी लक्षण और उस व्यवस्था के साथ गहराई से जुड़ी नौकरशाही अभी भी अत्यधिक शक्तिशाली हैं और पूंजीवादी शोषण में ये सारी चीजें सम्मिलित
हैं. पूंजीवाद वैसे तो एक विशुद्धतः जनवादी संस्था है, परंतु भारत में यह पुरातन समाज की प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ संश्रय कायम करता है.
इसके अतिरिक्त, भारतीय पूंजी की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी पर चरम निर्भरता भारतीय पूंजी की अन्य चारित्रिक विशिष्टता है.
यहां की तमाम आधुनिक पूंजीवादी संस्थाएं निचले स्तर पर मखौल बन जाती हैं. समूचा वातावरण वर्ग चेतना के विकास को गहरे तौर पर भ्रष्ट करता है और जनता के तमाम तबकों के अंदर राजनीतिक विचारों के विकास को पीछे खींचता है तथा शहरी व ग्रामीण सर्वहारा को भी संगठित करना और कम्युनिस्ट लाइन पर उनकी एकता का निर्माण करना अत्यंत मुश्किल बना देता है.
ऐसी परिस्थिति में, आम जनवादी मांगों को पहले हासिल किए बगैर और जनवादी क्रांति को पूरा किए बगैर समाजवाद के लिए कोई सच्चा संघर्ष नहीं किया जा सकता है. और, चूंकि पूंजिपति वर्ग का कोई भी हिस्सा इस जनवादी संघर्ष का संपूर्ण व सुसंगत रूप से नेतृत्व करने की स्थिति में नहीं है इसलिए इसका नेतृत्व करना सर्वहारा और उसकी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी का ऐतिहासिक कर्तव्य हो जाता है. इस संघर्ष के जरिए, जो काफी दीर्घकालिक होता है, कम्युनिस्ट पार्टी सिर्फ समाजवाद के लिए निर्णायक परिस्थिति तैयार करती है और उसे सुगम बनाती है.
रूस में जो कि सर्वाधिक पिछड़ा यूरोपीय देश था और मोटे तौर पर कहा जाए तो अर्ध-सामंती था, लेनिन ने बार-बार इस बात पर जोर देते हुए मजदूरों व किसानों के क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व की अवधारणा को सूत्रबद्ध किया था. इस लेनिनवादी विचार को माओ त्सेतुंग ने चीन में, जो कि अर्ध-सामंती होने के साथ-साथ अर्ध-औपनिवेशिक भी था, व्यवहार में मूर्त रूप प्रदान किया. वे चार वर्गो, अर्थात मजदूरों, किसानों, निम्न पूंजीपतियों और राष्ट्रीय पूंजीपतियों के अधिनायकत्व की अवधारणा को समाने लाये और इसे उन्होंने नव जनवाद कहा था.
हमने ऊपर जिन बातों की चर्चा की है, उससे दो चीजें स्पष्टतया सामने आती हैं. पहले तो हमें एक स्वतंत्र और सुसंगत उसूलों पर आधारित कम्युनिस्ट पार्टी की आवश्यकता है जो कि समाजवाद की विजय के लिए न केवल एकमात्र शर्त है, बल्कि खुद जनवादी क्रांति की निर्णायक विजय के लिए भी अनिवार्य है.
दूसरे, हम जनवाद के महत्व को कभी न भूलें. हमें चाहिए कि हम अन्य किसी चीज से ज्यादा जनवाद के झंडे को बुलंद करें. हमें चाहिए कि हम निरंकुश व्यवस्था के विरुद्ध, तमाम सामंती और अर्ध-सामंती संस्थाओं के विरुद्ध, प्रतिक्रियावादी जाति व्यवस्था और धार्मिक कट्टरपंथ इत्यादि के विरुद्ध, संक्षेप में, पुरानी व्यवस्था के विरुद्ध तमाम क्रांतिकारी जनवादी शक्तियों के साथ एकता कायम करने का सदैव कठोर प्रयत्न करें.
क्रांतिकारी जनवादी शक्तियों से हमारा तात्पर्य उन शक्तियों से है जिनकी वर्ग चेतना कम्युनिस्टों जैसी नहीं होती, लेकिन जो कम्युनिस्ट पार्टी के जनवादी कार्यक्रम को स्वीकार करती हैं और क्रांतिकारी कार्यवाहियों में दृढ़ और सक्रिय होती हैं. ये शक्तियां विविध चरित्र की होती हैं और समाजवाद एवं कम्युनिस्ट की ओर रूपांतरण के विभिन्न स्तरों में होती हैं. शुरूआत में वे ढेर सारे गैर-पार्टी रूपों में प्रकट होती हैं, अथवा किन्हीं राजनीतिक पार्टियों के अंदर दबाव ग्रुपों का कार्य करती हैं. उनमें क्रांतिकारी जनवादी बनने की संभावना रहती है. यह कोई जरूरी नहीं कि वे कम्युनिस्ट पार्टी के जनवादी कार्यक्रम को औपचारिक तौर पर स्वीकार करें ही, उनके साथ किया गया समझौता अलिखित जुझारू समझौता हो सकता है. ऐसी शक्तियों को पहचानना, क्रांतिकारी जनवादी के रूप में उनके विकास में मददगार होना और उनके साथ जुझारू एकता का निर्माण करना हमारा कर्तव्य हो जाता है.
आईपीएफ हमारी पार्टी के इसी प्रयत्न का प्रतीक है. इसके अलावा, आईपीएफ महज हमारी पार्टी द्वारा यांत्रिक तौर पर बनाया गया कोई संगठन नहीं है, बल्कि वह शक्तिशाली जनवादी आंदोलनों के क्रम में पैदा हुआ और उसने अपना विशिष्ट चरित्र ग्रहण किया.
हमारे यहां की ठोस स्थितियों में, क्रांतिकारी जनवादी तत्वों द्वारा अलग से संगठित जनवादी पार्टी विकसित करने के सारे प्रयत्न अब तक सफल नहीं हुए, हमलोगों ने स्वामी अग्निवेश द्वारा गैर-पार्टी राजनीतिक संगठन के प्रयोगों, किसान संगठनों के राष्ट्रीय कोअर्डिनेशन के उदय और यहां तक कि डीपीएफ को भी बारीक नजर से परखा है. इनमें से कोई भी ऐसी स्वतंत्र जनवादी पार्टी नहीं बन सका जिसके साथ हम कोई लड़ाकू समझौता कर सकें. वे क्रांतिकारी जनवाद और उदारवादी जनवाद के बीच डोलते-डोलते ठोस राजनीतिक स्थितियों में अंततः जनता दल के विभिन्न गुटों में शामिल हो गए. क्रांतिकारी तत्वों की एक बड़ी संख्या जरूर आईपीएफ की ओर मुड़ी और आईपीएफ, कम्युनिस्ट पार्टी तथा ऐसे गैर-पार्टी जनवादी तत्वों, जो विभिन्न राजनीतिक धाराओं से टूट-टूटकर आए थे, का साझा मोर्चा बन गया. हमारा दृढ़ मत है कि अगर आईपीएफ अपने कार्यक्रम पर डटा रहा और ऐसी ही गतिविधियां चलाता रहा तो बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में विभिन्न पार्टियां से, खासकर जनता दल से जनवादियों की नई-नई धाराएं इसकी कतारों में शामिल होंगी. बाद की मंजिलों में आईपीएफ को अपने नारों को पुनर्परिभाषित करना होगा, अधिक लचीला रुख अपनाना होगा और अपने सामाजिक आधार को व्यापक बनाने के लिए अपने कार्यक्रम और ढांचे में आवश्यक समायोजन करने होंगे. ये सब इसकी विकास प्रक्रिया में अत्यंत स्वाभाविक बातें हैं किंतु निस्संदेह, इसका भविष्य उज्ज्वल है.
दो कार्यनीतियों के बीच संघर्ष
शुरू में ही हम यह स्पष्ट कर दे रहे हैं कि नक्सलवाद न तो कोई विशिष्ट प्रवृत्ति है और न ही हम उसे ऐसा बनाने का इरादा रखते हैं. सारा का सारा पूंजीवादी प्रचार और सीपीआई(एम) का प्रचारतंत्र भी नक्सलवाद को कुछ विशिष्ट, भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की मुख्यधारा से कुछ जुदा, कुछ ‘नव-वाम’ के चरित्र वाली धारा के रूप में चित्रित करते हैं. चूंकि नक्सलवाद 1970 के दशक में एक लोकप्रिय क्रांतिकारी आंदोलन के रूप में विकसित हुआ, अतः जाहिर है कि विभिन्न निम्न-पूंजीवादी क्रांतिकारी प्रवृत्तियां इससे जुड़ीं और उनमें से कुछ ने तो इसे एक विशिष्ट, ‘नव वाम’ प्रवृत्ति में रूपांतरित करने का प्रयत्न भी किया. धक्कों का एक दौर और बीसियों टूट-फूट के बाद अंततः निम्न-पूंजीवादी प्रवृत्तियां अलग हो गईं और बाद में उन्होंने अराजकतावादियों के रूप में ठोस शक्ल ग्रहण की, जबकि इस आंदोलन के मुख्य हिस्से ने कम्युनिस्ट आंदोलन की क्रांतिकारी शाखा के बतौर पुनः अपनी पहचान स्थापित की. तमाम देशों में कम्युनिस्ट आंदोलन, कम-से-कम क्रांति संपन्न होने तक, हमेशा क्रांतिकारी और अवसरवादी शाखाओं में विभाजित हो जाते हैं. भारत कोई अपवाद नहीं है.
हमारे नेतृत्व की समूची पहली पीढ़ी आम तौर पर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन और खास तौर पर सीपीआई(एम) के अंदर की दो कार्यनीतिक लाइनों के बीच चले दीर्घकालिक संघर्ष से उभरी थी. हमारी पार्टी के संस्थापक कामरेड चारु मजुमदार ने बारंबार यह निर्दिष्ट किया है कि हम उसी कम्युनिस्ट पार्टी के उत्तराधिकारी हैं जिसकी पताका तले कम्युनिस्टों ने पुन्नप्रा-वायलार, तेभागा और तेलंगाना की बहादुराना लड़ाइयां लड़ीं और शहादत दी.
‘नव वाम’ कहकर हमें कितना भी खारिज किया जाए, हम भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की अवसरवादी शाखा, जिसका प्रतिनिधि सीपीआई (एम) है, के बरखिलाफ कम्युनिस्ट आंदोलन की क्रांतिकारी शाका थे, हैं, और हमेशा रहेंगे.
कुछ व्यक्तियों ने जरूर हमारा साथ छोड़ा है और भविष्य में भी हम ऐसी संभावनाओं से इनकार नहीं कर सकते. लेकिन हम जिस प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसे कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के लगभग सत्तर वर्षों के इतिहास में अपनी जड़ें गहराई से जमा रखी हैं और क्रांतिकारी समाधान की मांग कर रही वस्तुगत परिस्थितियों से उसे और भी बल मिल रहा है.
आइए, मुख्य विषय की ओर चला जाए. सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन तीन तत्वों से मिलकर बनी है जिन्हें पार्टी का नेतृत्व सार-संग्रहवादी ढंग से एक करने का प्रयत्न करता है.
पहला, यह पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार को देश का सर्वाधिक विकसित वामपंथी निर्मित (फारमेशन) मानता है और इस मॉडल के निर्माण और स्थायित्व को अपनी मुख्य उपलब्धि मानता है.
दूसरे, यह कांग्रेस(आइ) की वापसी के खिलाफ लड़ने और भाजपा की सांप्रदायिक चुनौती का मुकाबला करने के लिए वाम और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों अर्थात् जनता दल और नेशनल फ्रंट की व्यापक एकता को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है.
तीसरे, यह राष्ट्रीय एकता की रक्षा करना वामपंथ का प्राथमिक कार्यभार मानता है और इस बहाने यहा इंका और भाजपा के साथ भी औपचारिक अथवा अनौपचारिक संश्रयों में शामिल होता है.
सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन का किस प्रकार मूल्यांकन किया जाए? मुख्य उपलब्धि के आधार पर, सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर या प्राथमिक कार्यभार के आधार पर? आइए इसके लिए श्रीमान प्रकाश करात से सहायता ली जाए. वे कहते हैं, “सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन का मूल्यांकन इन आधार पर किया जाना चाहिए कि वह मौजूदा मोड़ पर एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष मंच पर पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों को गोलबंद करने में सफल है या नहीं, जो विपक्ष में फूट डालने की कांग्रेस(आइ) की चालबाजियों का मुकाबला करने और भाजपा-विश्व हिंदू परिषद के पीछे हो रही सांप्रदायिक गोलबंदी के गंभीर खरते से संघर्ष करने के लिए राजनीतिक संयोजन बनाने में मदद कर सकती है.” प्रकाश ने इसे अक्तूबर 1990 के पहले लिखा है और हम यहां तब से इसे मिली ‘सफलता’ अथवा ‘विफलता’ पर चर्चा करने की लालच से बचेंगे क्योंकि यह हमारे इस लेख के दायरे के बाहर पड़ता है.
सरल शब्दों में कहा जाए तो प्रकाश कहते हैं, और सीपीआई (एम) को यकीन है कि मौजूदा घड़ी में वामपंथ की मुख्य कार्यनीति है भाजपा के सांप्रदायिक खतरे से संघर्ष करने के लिए पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों पर दबाव ‘पैदा करना’. अगर मंच मूलतः एक धर्मनिरपेक्ष मंच है और पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों को मूलतः धर्मनिरपेक्ष शक्तियां माना जाए तो स्पष्टतः समूची गोलबंदी सांप्रदायिकता की प्रतिनिधि भाजपा के विरुद्ध दिशाबद्ध हो जाती है. चूंकि कांग्रेस(आइ) को सांप्रदायिक पार्टी नहीं माना जाता है अतः इस कार्यनीति का तार्किक विस्तार होगा समूची कांग्रेस(आइ) अथवा इसके किसी शक्तिशाली हिस्से को शामिल करके धर्मनिरपेक्ष मंच को और अधिक व्यापक बनाना.
इस खास घड़ी में, राजनीतिक परिस्थितियों से मजबूर होकर वे ठीक यही कर रहे हैं. समूची कार्यनीति इस रणनीतिक समझ से निकलती है कि चूंकि भारत पूंजीवादी जनवादी क्रांति के दौर में है लिहाजा इन पुरानी कट्टरपंथी और पुरातनपंथी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष में पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों को स्वभावतः नेतृत्व करना होगा. मौजूदा घड़ी में वामपंथ कमजोर है और कमजोर रहना ही उसकी नियति है. वह हद से हद पूंजीवादी विपक्ष पर आगे बढ़ने के लिए दबाव ही डाल सकता है. महत्वपूर्ण हिंदी हृदयस्थली में पार्टी केवल जनता दल की दुम पकड़कर वैतरणी पार करने की कल्पना करती है और यही उसने आंध्र में तेलुगू देशम और तमिलनाडु में द्रमुक के साथ किया है. इस प्रकार इसकी तकदीर पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा के सिवा, जहां नाम के वास्ते भी पूंजीवादी विपक्ष नहीं है, शेष भारत में पूंजीवादी विपक्ष के उत्थान और पतन से बंध गई है. कम्युनिस्ट आंदोलन के इन पारंपरिक गढ़ों का निर्माण वामपंथ की स्वतंत्र दावेदारी और दसियों साल के शक्तिशाली जन आंदोलनों के दौरान हुआ था.
सीपीआई(एम) और उसका छोटा भाई सीपीआई रात दिन हमें गालियां दे रहे हैं कि हम कांग्रेस(आइ) और भाजपा के खतरे को कम करके आंक रहे हैं. सच तो यह है कि सीपीआई(एमएल) अपने समूचे इतिहास में भाजपा अथवा कांग्रेस(आइ) के साथ किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समझौता में नहीं गई. इसका ‘सेहरा’ हमारे मित्रों सीपीआई और सीपीआई(एम) के सिर ही बंधा है, और इसी कारण उन्हें ठीक ही ‘अवसरवादी’ कहा जाता है. इस खतरे को कम करके आंकने का हम पर दोषारोपण करने की उनकी समूची कसरत का मकसद है जनता दल के पीछे घिसटने की अपनी कार्यनीति को जायज ठहराना. इसी प्रकार हम पर राष्ट्रीय एकता के खतरे को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया जाता है. यह फिर कांग्रेस(आइ) और भाजपा के साथ अपने समझौते को तर्कसंगत करार देने की उनकी कलाबाजी है. हम पर एक और आरोप लगाया जाता है कि हम रंगबिरंगी पूंजीवादी पार्टियों के बीच कोई फर्क नहीं करते और उन सबों को एक जैसा प्रतिक्रियावादी झुंड मानते हैं. ये सारे आरोप कुत्सापूर्ण हैं और इनका मकसद उनके अपने दुमछल्लेपन पर परदा डालना है.
हमारे एकमात्र सांसद ने नवंबर 1989 में वीपी सरकार के विश्वास मत का बहिष्कार किया था, ठीक इसी कारण से कि वह सरकार भाजपाई समर्थन पर टिकी थी. जब कांग्रेस(आइ) और भाजपा के गठजोड़ द्वारा खतरा उत्पन्न हुआ तो हमारे सदस्य ने सरकार के पक्ष में मतदान किया था. और ऐसा उसूली आधार पर किया था, किसी दबाव के चलते नहीं, जैसा कि प्रकाश आरोप लगाते हैं. वर्तमान संसद में भी हमारे एकमात्र सांसद ने कांग्रेस(आइ) की सरकार के विश्वास मत के विरोध में ही मतदान किया है.
हम पूंजीवादी पार्टियों के बीच तो फर्क करते ही हैं और इसी कारण हमने इंका और भाजपा के विरुद्ध जनता दल जैसी पार्टियों के साथ संयुक्त संघर्ष में भाग लिया है.
मुख्य बात यह है कि हम पूंजीवादी शक्तियों के बीच एक और फर्क करते हैं – उदारवादी और क्रांतिकारी जनवाद के रूप में. हम क्रांतिकारी जनवादी शक्तियों को तमाम उदारवादी भ्रमों से मुक्त करने और उन्हें क्रांतिकारी पक्ष में जीत लेने का कठोर प्रयास करते हैं. क्रांतिकारी और अवसरवादी कार्यनीतिक लाइनों के बीच, स्वतंत्र वाम अग्रगति की नीति तथा धर्मनिरपेक्ष मंच पर पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों की तथाकथित गोलबंदी के बीच और जनवादी क्रांति पर सर्वहारा के प्रभुत्व की स्थापना के कठोर प्रयासों तथा पूंजीवादी विपक्ष के पीछे घिसटने के बीच का यही मूलभूत फर्क है. इन दोनों लाइनों के बीच का संघर्ष भारतीय क्रांति के निष्कर्ष का निर्धारण करेगा और स्पष्टतः हिंदी हृदयस्थली इस विवाद के हल के लिए आदर्श जमीन है. आइए, हम राजनीतिक कार्यनीतियों के बीच के इस विवाद का निचोड़ लेनिन के उस वक्तव्य के साथ निकालें जो उन्होंने दो कार्यनीतियों के बारे में कहा है.
“... कुल मिलाकर मेन्शेविकवाद की मुख्य भ्रांति इस बात में निहित थी कि उन्होंने यह नहीं समझा कि पूंजीपति वर्ग के कौन तत्व सर्वहारा के साथ मिलकर रूस में पूंजीवादी जनवादी क्रांति को अंत तक ले जाएंगे. मेन्शेविक आज भी यह सोचकर भटक जाते हैं कि पूंजीवादी क्रांति अनिवार्यतः पूंजीपतियों द्वारा (आम पूंजीपति वर्ग द्वारा, अब उनका “रंग” चाहे जो हो!) संपन्न की जाएगी, जबकि सर्वहारा का कार्य है उसकी मदद करना. मेन्शेविकों का दावा है, और आज भी वे दावा करते हैं कि सर्वहारा पूंजीवादी जनवादी क्रांति के दौर में (क्रांति की विजयपूर्ण समाप्ति तक) अपने एकमात्र दृढ़ और भरोसेमंद मित्र के रूप मे किसानों को ही पा सकता है. किसान भी “पूंजीवादी-जनवादी” हैं, किंतु कैडेटों और अक्टूबरवादियों से पूर्णतया भिन्न “रंग” के. ये “पूंजीवादी-जनवादी” किसान जमींदारों की सत्ता और उससे जुड़े पुराने राज्य-प्राधिकार के मूलाधार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए बाध्य हैं. ... लिहाजा अपनी प्रवृत्तियों में, जो इस बात से निर्धारित होती हैं कि वे क्या करने के लिए बाध्य हैं, ये पूंजीवादी जनवादी, क्रांतिकारी जनवादी हैं.” (सामाजिक जनवादी कार्यनीति के बारे में का. प्लेखानोव क्या तर्क पेश करते हैं )
हमारी कतारों में किसी पूंजीवादी पार्टी के साथ किसी प्रकार के संश्रय का विरोध यह तर्क देते हुए किया जाता है कि बतौर कम्युनिस्ट हमारा बुनियादी कर्तव्य तमाम पूंजीवादी पार्टियों का भंडाफोड़ करना है और तब हम उनमें से किसी के साथ, यहां तक सामयिक संश्रय भी, भला कैसे कायम कर सकते हैं. हमें पुनः लेनिन को उद्धृत करने दीजिए, “तमाम पूंजीवादी पार्टियों का भंडाफोड़ करना सभी देशों में और हर समय समाजवादियों का कर्तव्य होता है. .., पूंजीवादी क्रांति के दौर में ही ‘तमाम पूंजीवादी पार्टियों का भंडाफोड़ करो’ कहने का मतलब कुछ नहीं कहना है, और वस्तुतः वह कहना है जो सच नहीं होता; क्योंकि पूंजीवादी पार्टियों का गंभीरतापूर्वक और पूरी तरह केवल तभी भंडाफोड़ किया जा सकता है, जब कोई खास पूंजीवादी पार्टी इतिहास के अग्रभाग पर चली आती है.” (सामाजिक जनवादी कार्यनीति के बारे में का. प्लेखानोव क्या तर्क पेश करते हैं?)
उदार जनवादी पार्टियों के बारे में हमारी कार्यनीति
उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सोशलिस्ट प्रवृत्ति की ऐतिहासिक तौर पर सशक्त उपस्थिति रही थी. कालक्रम में और अनेक राजनीतिक धाराओं के साथ मिलन की एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया के चलते वह आज जनता दल के रूप में है और किसान जातियों के बीच उसका उल्लेखनीय प्रभाव है. वह अपनी उदघोषणाओं में उदार जनवादी मूल्यों को बुलंद करती हैं और जनवादी बुद्धिजीवियों का एक विशाल हिस्सा तथा हाल ही में मुस्लिम अल्पसंख्यक भी इसके प्रभाव में आ गये हैं. यह सब इसके साथ हमारी परस्पर क्रिया को अनिवार्य बना देता है. लेनिन ने कहा है, “केवल वे लोग, जिन्हें अपने पर भरोसा नहीं है, गैर-भरोसेमंद लोगों के साथ भी अस्थाई संश्रय में जाने से डर सकते हैं; किसी भी राजनीतिक पार्टी का अस्तित्व ऐसे संश्रयों के बिना नहीं रह सकता.”
बेशक, संश्रय कायम करने के दो तरीके हैं. एक है सीपीआई-सीपीआई(एम) का अवसरवादी तरीका, जो उदारपंथ और जनवाद का कोई वर्गीय विश्लेषण नहीं पेश करता है. चाहे वह पुराने दिनों में कांग्रेस के ‘समाजवादी’ नारे हों अथवा मुलायम सिंह यादव की भारी-भरकम धर्म-निरपेक्ष लफ्फाजी, या फिर वीपी सिंह-लालू गठजोड़ का ‘सामाजिक न्याय’ हो, अवसरवादी लोग सबों की प्रशंसा सातवें आसमान तक करते हैं. यह रुख पूंजीवादी राजनीतिज्ञ की भलमनसाहत, दयालुता तथा सुन्दर घोषणाओं और उत्तम नारों पर आधारित होता है.
क्रांतिकारी तरीका न तो पूंजीवादी राजनीतिज्ञों की साख पर आधारित होता है और न ही उनसे इस बात की उम्मीद रखता है कि वे अपनी लफ्फाजी और धूर्तता को छोड़ देंगे, जो उनकी वास्तविक आत्मा होती है. वह उदारपंथ और जनवाद के वर्ग-विश्लेषण पर आधारित होता है, इस बात की पहचान करता है कि वस्तुगत तौर पर किस हद तक कोई विशेष पूंजीवादी नेता अथवा पार्टी उसके साथ चल सकती है और उनसे वास्तविक जमीन पर सहयोग की तलाश करता है. और, भले व दयावान पूंजीपति का, जिसके साथ समझौता किए जा सकते हों, मानदंड तय करने के बजाय, जैसा कि लेनिन ने कहा है, “ किसी का भी, यहां तक की सबसे बुरे पूंजीपति का भी, जिस हद तक वह निरंकुशता के खिलाफ वास्तव में संघर्ष करता है, उस हद तक समर्थन करता है.” उन्होंने आगे कहा है, “सर्वहारा के स्वतंत्र सामाजिक क्रांतिकारी उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ऐसा समर्थन आवश्यक है.” ( मजदूरवर्ग और पूंजीवादी जनवाद).
केंद्र में जनता दल के शासन के ग्यारह महीनों के दौरान हमने संसद में केवल वाम विपक्ष की भूमिका निभाई और यही भूमिका हम आज बिहार एवं असम विधान सभाओं और संसद में निभा रहे हैं. मंडल कमीशन की सिफारिशों से संबंधित अभियान में हमने बिहार में हर प्रकार के उन्माद के बावजूद, और यहां तक कि जब जनवादी शक्तियों की बहुसंख्या जनता दल द्वारा फैलाए गए ‘सामाजिक न्याय’ के उदारपंथी भ्रमों से घिर गई थी, हमने जनता दल की इस मंडली में शामिल होने से इनकार कर दिया और क्रांतिकारी जनवाद की स्वतंत्र पताका को बुलंद किया. हमने जनता दल की मंडलीकृत राजनीति का बिना शर्त और बिना आलोचना समर्थन करने से इनकार कर दिया और उसके सीमित वर्ग-उद्देश्यों, ‘रोजगार के अधिकार’ के प्रति उसकी गद्दारी और जनसमुदाय के सर्वाधिक उत्पीड़ित हिस्सों के प्रति अपनी छत्रछाया में किए गए उसके सामाजिक अन्याय का भंडाफोड़ किया.
अगर 1989 के चुनावों में मुस्लिम अल्पसंख्यकों का कांग्रेस(आइ) के प्रभाव से निकल जाना और अपने को वाम पार्टियों और जनता दल के साथ जोड़ लेना मुस्लिम राजनीति के धर्मनिरपेक्ष होने का एक संदेह-रहित संकेत था, तो 1991 में, इसके विपरीत, मुस्लिम कट्टरपंथी शक्तियों के साथ जनता दल के नेताओं द्वारा एक अपवित्र गठबंधन कायम किये जाने से मुस्लिम जनसमुदाय पर कट्टरपंथियों की पकड़ ही मजबूत हुई है. वाम और जनवादी खेमे में केवल हम लोगों ने ही, यहां तक कि अलगाव में पड़ जाने के खतरे उठाकर भी, जनता दल के इस घिनौने चेहरे का भंडाफोड़ किया.
मैं जिस बात पर जोर देना चाहता हूं, वह यह है कि है कि हमारी पार्टी ने क्रांतिकारी जनवाद की पताका को झुकने नहीं दिया और सीपीआई के विपरीत, महज जनता दल की मदद से संसदीय सीटें पाने की एवज में अपनी दृढ़ उसूली स्थिति को कुर्बान करने से इनकार कर दिया.
बहरहाल, परिस्थिति में एक मौलिक परिवर्तन हो चुका है. कांग्रेस केंद्रीय सत्ता में वापस आ चुकी है, भाजपा ने अपनी स्थिति और सुदृढ़ कर ली है तथा जनता दल अपनी परंपरागत विपक्षी भूमिका में लौट आया है और अपने गढ़ों में वापस आ गया है. अब हमें कांग्रेस और भाजपा के विरुद्ध इसके साथ संयुक्त कार्यवाहियों की संभावनाओं की तलाश करनी है.
यह बात हमें दिमाग में बैठा लेनी चाहिए कि जनता दल एक पंचमेल घटकों वाली पार्टी है और उसके अंदर विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियां और गुट मौजूद हैं. हम इसके साथ चाहे जो भी संयुक्त कार्यवाहियां और सामाजिक संश्रय विकसित करें, हमारा बुनियादी उद्देश्य होगा उसे विभाजित करना और उसके अंदर क्रांतिकारी जनवाद के प्रति झुकाव रखने वाले गुटों और तत्वों के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित करना.
दलितों और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के आंदोलनों के प्रति हमारी कार्यनीति
भारत के विभिन्न राज्यों और अंचलों में विभिन्न प्रकार की राजनीतिक शक्तियों का उदय हुआ है और हमें उनके प्रति अपना विशिष्ट रुख तय करना होगा.
मिसाल के तौर पर, बीएसपी ने, जो दलितों के हितों का दम भरने वाली पार्टी है, उत्तर प्रदेश में स्थाई आधार बना लिया है, इसका नेतृत्व घोर वामपंथ-विरोधी और राजनीतिक तौर पर धुर अवसरवादी है तथा वह प्राथमिक तौर पर दलित नौकरशही के हितों का प्रतिनिधित्व करता है. व्यापक दलित जनसमुदाय के लिए, जो कि दलित होने के साथ-साथ गरीब-भूमिहीन किसान भी हैं, इसके पास उन्हें देने के लिए ठोस कुछ नहीं है. तथापि उनसे उस दलित जनसमुदाय की आकांक्षा और उग्रता को जगा दिया है जिसमें क्रांतिकारी जनवादी दिशा ग्रहण करने की तमाम क्षमताएं निहित हैं. लिहाजा, हमें बीएसपी के प्रति अपनी कार्यनीतियों को संशोधित करना चाहिए, उसके साथ-साथ खास मुद्दों पर सामयिक संश्रय कायम करने की संभावनाओं का पता लगाना चाहिए और इस प्रक्रिया में सकारात्मक हिस्सों को प्रभावित करना और उन्हें जीत लेना चाहिए.
तमिलनाडु में पीएमके के प्रति भी हम ऐसा ही रुख अख्तियार कर सकते हैं. हालांकि इसका स्तर दलित-विरोधी है, तथापि यह पिछड़ी जातियों की नई गोलबंदी का संकेत देता है और परंपरागत द्रविड़ पार्टियों से अलग पहचान रखता है.
कार्बि-आंगलांग में, हालांकि अत्यंत छोटे स्तर पर, जनजातीय स्वायत्तता के प्रश्न को समाज के आर्थिक और सामाजिक रूपांतरण के साथ समन्वित करने के हमारे अनुभव यहां विस्तार से चर्चा करने लायक हैं.
आटोनामस स्टेट डिमांड कमेटी (एएसडीसी), जो उसी राष्ट्रीयता के बीच से उभरे कम्युनिस्टों और राष्ट्रीयता आंदोलन के जनवादी तत्वों का मुश्तरका मोर्चा है, लोकप्रिय जन आंदोलन के बीच से उभरा है. आंदोलन का निशाना था कांग्रेस नियंत्रित जिला परिषद् का भ्रष्ट शासन, संयोगवश कांग्रेस भी वहां स्वायत्त राज्य की पक्षधरता का दम भरती है. आंदोलन के अंदर प्रारंभ से ही वर्ग संघर्ष का तत्व, प्राथमिक तौर पर कांग्रेस के संरक्षण में पल रहे महाजनों, जमींदारों और प्रतिक्रियावादी तत्वों के विरुद्ध, भूमिहीन, गरीब और मध्यम किसानों की व्यापक बहुसंख्या के संघर्ष का तत्व मौजूद था. प्रतिक्रियावादी तत्व भी अधिकांश मामलों में उसी राष्ट्रीयता के थे. आंदोलन का नेतृत्व कम्युनिस्ट तत्वों के हाथों में था जिन्होंने अपनी कम्युनिस्ट शिक्षा मार्क्सवादी-लेनिनवादी आंदोलन के सामग्रिक प्रभाव तले पाई थी जिसे उन्होंने बाद में कार्बी आंदोलन में रूपांतरित किया, न कि इसके विपरीत. जिला परिषदों के चुनाव शक्तिशाली और जुझारू जन आंदोलनों की धधकती ज्वाला के बीच जीते गए, जहां कि प्रतिक्रियावादी तत्वों पर विजय पहले सामाजिक क्षेत्र में हासिल की जा चुकी थी. तबसे जन-कार्य को गहराई में ले जाने, जनवादी मुल्यों को विस्तारित करने और वर्ग संघर्ष को तीखा करने के प्रयत्न किए गए हैं. अंधराष्ट्रवादी स्वरों से रहित एएसडीसी ने अन्य राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों पर भी अपना प्रभाव फैलाया है, बिहारियों के अंदर एक ध्रुवीकरण पैदा किया है और वह उस क्षेत्र के बंगाली और असमिया जनसमुदाय के कुछ हिस्सों का भी समर्थन पा रही है.
पार्टी की कार्यनीति, एएसडीसी को असम और उत्तर-पूर्व की अन्य जनजातियों के स्वायत्तता आंदोलनों को क्रांतिकारी जनवादी दिशा प्रदान करने के लिए तथा खुद असमिया समाज के जनवादी रूपांतरण के लिए लांचिंग पैड के बतौर काम में लाने की है. केवल जिला परिषद् तक सीमाबद्ध रहने के बजाए एएसडीसी की यह पूर्ण राजनीतिक भूमिका और जनसमुयाद के अन्य हिस्सों और अंचलों पर इसका लगातार बढ़ता प्रभाव इसे एक विशिष्ट चेहरा प्रदान करता है.
कार्बी-आंगलांग के अनुभवों की रोशनी में स्वभावतः यह सवाल खड़ा होता है कि हमें क्या झारखंड आंदोलन, उत्तराखंड आंदोलन और ऐसे अन्य आंदोलनों के प्रति अपनी कार्यनीति का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए?
जब कामरेड एके राय ने कहा था कि जनजातियों का राज्य झारखंड, जिसके समाज के अंदर आदिम कम्युनिस्ट के गुण मौजूद हैं, स्वतः लालखंड में रूपांतरित हो जाएगा, तो वे गलती कर रहे थे. इस प्रक्रिया में वे शिबू सौरेन के रूप में केवल एक आदिम बुर्जुआ को ही जन्म दे सके.
मुख्य बात है झारखंड आंदोलन को लालखंड में रूपांतरित करना और यह केवल झारखंडी समाज में वर्ग संघर्ष के तत्वों को विकसित करके तथा झारखंड मुक्ति मोर्चा के अंदर के प्रतिक्रियावादी तत्वों के विरुद्ध जनवादी तत्वों की एकता कायम करके ही किया जा सकता है. केवल एक शक्तिशाली कम्युनिस्ट पार्टी, जिसके पास झारखंडियों के बीच से उभरा एक शक्तिशाली कम्युनिस्ट ग्रुप हो, इस कार्यनीति को सफलतापूर्वक अंजाम दे सकती है.
खुद झारखंड मुक्ति मोर्चा झारखंड राज्य की अपनी मांग को केवल बिहार के जिलों तक और फिर बिहार के अंदर किसी किस्म के स्वायत्त क्षेत्र तक सीमित करता रहा है. वह राजनीतिक शक्तियों के प्रति और झारखंडी समाज के अंतरविरोधों के प्रति भिन्न-भिन्न रुख रखनेवाले शक्तिशाली हिस्सों में विभाजित हैं. इस इलाके में हमारी पार्टी का प्रभाव भी बढ़ता जा रहा है और अब हम सक्रिय हस्तक्षेप की नीति अपनाने के लिए बेहतर स्थिति में हैं. किंतु यह नीति झारखंड मुक्ति मोर्चा अथवा उसके अंदर के गुटों के साथ सामयिक संश्रय कायम करने से इनकार नहीं करती है.
उत्तराखंड में भी जहां भाजपा ने अपनी स्थिति भारी पैमाने पर सुधार ली है, हमें उसके विकास को रोकने के लिए अलग राज्य की मांग की सक्रियतापूर्वक पेश करके अपनी कार्यनीति संशोधित कर लेनी चाहिए.
स्थानीय और राज्य स्तरों पर सरकार बनाने की कार्यनीति
मार्क्स ने कहा था कि हमें एक सरकारी पार्टी नहीं, बल्कि भविष्य की विपक्षी पार्टी का निर्माण करना चाहिए. हम दृढ़तापूर्वक इस उसूली स्थिति पर डटे हुए हैं. तथापि भारतीय परिस्थितियों में स्थानीय स्तरों पर और यहां तक कि राज्य के स्तरों पर भी चुनावों में बहुमत पाकर अन्य जनवादी शक्तियों के सहयोग से कम्युनिस्टों के लिए सरकार बनाने के अवसर भी आते हैं. अपनी कार्यनीतिक लाइन में हमने इस कार्यनीति को नकारा नहीं है और अपवादस्वरूप ही सही, इसे विचारणीय तौर पर रखा है. तथापि इस कार्यनीति को जन आंदोलनों को व्यापकतर बनाने और ऊंचा उठाने का माध्यम बनाना होगा.
सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन में यह कार्यनीति जन आंदोलनों के स्तर को ऊंचा उठाने के वास्ते शक्ति-संतुलन में बदलाव लाने के लिए और उसके अपने प्रभाव को अखिल भारतीय स्तर पर विस्तारित करने की खातिर, बुनियादी महत्व की है. वे पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सरकार बनाने में सफल भी हुए हैं. पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार लगातार चौदह वर्षों से अधिक समय से चल रही है. यह एक प्रकार का रिकार्ड है और दूसरे रूपों में कहें तो खुद अपने-आप में एक भारी उपलब्धि भी, मगर विड़ंबना यह है कि इसने पार्टी के लिए एक गंभीर सैद्धांतिक संकट भी उत्पन्न कर दिया है.
सीपीआई(एम) की उदघोषणाओं और उम्मीदों के विपरीत, उसकी सर्वाधिक विकसित वाम संरचना पड़ोस के राज्यों पर भी कोई असर डालने में बुरी तरह असफल रही है. अखिल भारतीय स्तर की बात तो छोड़ ही दीजिए. बंगाल में इसकी प्रत्येक विजय इसकी अखिल भारतीय प्रासंगिकता को और अधिक घटाती नजर आती है और इसे अधिकाधिक केवल बंगाल की परिघटना बनाती जा रही है.
हिंदी भाषी क्षेत्र में, यह केवल जनता दल के मित्र के रूप में, उसी के नारों की तोतारटंत करते हुए फैलना चाहती है. वाम मोर्चा सरकार अपनी जिस एकमात्र उपलब्धि को उछाल रही है वह है सांप्रदायिक शक्तियों को नियंत्रित रखना. किंतु भाजपा द्वारा बंगाल में अपनी शक्तिशाली उपस्थिति दर्ज कराने से इस प्रचार को भी धक्का लगा है.
सीपीआई(एम) के सिद्धांतकार पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की उपलब्धियों के विषय में डींग हांका करते हैं, किंतु अपनी ही कार्यनीतिक लाइन के अनुसार लांचिंग पैड के बतौर सर्वाधिक विकसित वाम संरचना की वांछित भूमिका के बारे में चुप्पी साध लेते हैं.
उनकी दुर्दशा उस स्थिति से मिलती-जुलती है जिसका वर्णन एंगेल्स ने ‘जर्मनी में किसान युद्ध’ में किया है, “किसी चरम पार्टी के नेता के लिए सबसे बड़ी विपदा होती है एक ऐसे युग में सरकार अपने हाथों में ले लेना, जब उस प्रभुत्व के लिए आवश्यक साधनों को प्राप्त करने के वास्ते अभी आंदोलन परिपक्व न हुआ हो.”
एंगेल्स के अनुसार, चरम पार्टी के नेता को ऐसी स्थिति में “पराए वर्ग के हितों को आगे बढ़ाना पड़ेगा और खुद अपने वर्ग का पेट, मुहावरों और वायदों तथा इन आश्वासनों से भरना पड़ेगा कि उस पराए वर्ग के हित उनके अपने ही हित हैं. जो कोई भी अपने को इस भ्रांत स्थिति में पाता है उसका अंत निश्चित है.”
क्या हम नहीं सुनते हैं कि वाम मोर्चा के नेता पश्चिम बंगाल में टाटा, बिड़ला और गोयनकाओं के औद्योगिक हितों को पश्चिम बंगाल की मेहनतकश जनता के हितों के रूप में प्रस्तुत करते हैं?
प्रकाश करात स्वीकार करते हैं कि पश्चिम बंगाल का प्रयोग एक सामाजिक जनवादी प्रयोग है, क्योंकि पूंजीपति-जमींदार व्यवस्था के मातहत उस राज्य में समाजवादी रास्ता अपनाना संभव नहीं है.
वे हमसे यह समझने का अनुरोध करते हैं कि ऐसी राज्य सरकारों के दायरे और सीमाओं के अंदर विदेशी और भारतीय इजारेदार पूंजी के साथ गठजोड़ करना बाध्यता है. वे अन्य क्षेत्रों में मिली असफलताओं और कमियों को भी स्वीकार करते हैं. प्रकाश हम पर आरोप लगाते हैं कि हम वाम मोर्चा सरकार के साथ वस्तुतः अन्य गैर-कांग्रेसी सरकार की तरह ही बर्ताव करते हैं और वे हमसे केवल आलोचनात्मक समर्थन देने अर्थात सकारात्मक रुख की मांग करते हैं.
प्रिय कामरेड, हम तमाम सीमाओं से भलीभांति परिचित हैं. हम इस सरकार से कभी भी क्रांतिकारी भूमिका की अपेक्षा नहीं करते हैं. ‘राज्य के हाथों अधिक अधिकार’ को राष्ट्रीय हस्तक्षेप का एकमात्र स्तंभ बनाकर और उसे गैर-कांग्रेसी सरकारों के साथ साझा हित कायम करके आपने खुद इस (वाम मोर्चा) सरकार को किसी अन्य गैर-कांग्रेसी सरकार के स्तर तक गिरा दिया है.
फिर भी, हम कांग्रेस और उसकी चालबाजियों के खिलाफ, चाहे चुनाव में हो अथवा केंद्र-विरोधी संघर्षों में, आपका समर्थन करते हैं. हम हमेशा ही आपके किसी भी सकारात्मक कदम का आलोचनात्मक समर्थन करने के लिए तैयार हैं. लेकिन हम क्रांतिकारी कम्युनिस्ट होने के नाते अगर इस तथाकथित ‘सर्वाधिक विकसित वाम संरचना’ के मिथक का भंडाफोड़ नहीं करते हैं और इस सरकार द्वारा अपनाए गए जनविरोधी कदमों का विरोध नहीं करते हैं तो हम अपना कर्तव्य निभाने में चूक जाएंगी. अगर हम यह बतलाने में चूक गए कि पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार की शैली का प्रयोग खुद पार्टी के एक हिस्से के नेत्रत्व में संचालित नक्सलबाड़ी के किसान आंदोलन का दमन करके शुरू हुआ था, लिहाजा ऐसी सरकारें जन आंदोलनों को कभी आवेग नहीं प्रदान कर सकतीं, उल्टे उनके जोशखरोश पर केवल ठंडा पानी ही छींट सकती हैं, तो हम भारतीय क्रांति के प्रति एक अपराध करेंगे.
इतिहास ने साबित कर दिया है कि ‘सर्वाधिक विकसित वाम संरचना’ के चौदह वर्ष, बंगाल के बाहर कोई प्रभाव डालने में असफल रहे, जबकि नक्सलबाड़ी आंदोलन, पश्चिम बंगाल में कुचल दिए जाने के बावजूद, चरम दमन और बीसियों फूटों के बावजूद, अखिल भारतीय पैमाने पर फैल गया तथा पहले आंध्र प्रदेश में और फिर बिहार में इसने अपना एक आधार तैयार कर लिया. इस आंदोलन ने नेपाल में भी प्रभाव डाला और वहां के कम्युनिस्ट आंदोलन में नवजीवन का संचार किया. यह एक ऐसा तथ्य है जिसे अनिच्छापूर्वक खुद का. सुरजीत ने स्वीकार किया है.
चुनावी कार्यनीति
जब कभी चुनाव आता है हर रंग के उदारवादी लोग हम पर कांग्रेस और भाजपा के खतरे को कम करके आंकने का आरोप लगाने लगते हैं और हमें चुनाव न लड़ने की सलाह देते हैं, ताकि विपक्षी का वोट न बंटे और इसके बदले हमें उदारपंथी विपक्ष को बिना शर्त समर्थन देने को कहते हैं, हमारी पार्टी के इर्द-गिर्द के निम्न-पूंजीवादी बुद्धिजीवी और पार्टी के अंदर के कुछ हिस्से इस तर्क को लोक लेते हैं. हमें सौदे में एक-दो सीटों के लिए समझौता कर लेने की सलाह दी जाती है. क्योंकि, आखिरकार सीटों की ही तो कीमत होती है.
हमने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि हमारी चुनावी कार्यनीतियां कोई खास अलग चीज नहीं है, अपितु हमारी आम राजनीतिक कार्यनीतियों का एक खास मामले में प्रयोग भर हैं, इसके अतिरिक्त, वोटों के बंटने की गणितीय संभावनाओं पर औपचारिक रूप से विचार करने से अधिक हमें इसकी राजनीतिक संभावनाओं पर गौर करना चाहिए. इस चुनाव ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि हमारे चुनाव लड़ने के कारण कांग्रेस और भाजपा की जीत की गणितीय संभावनाएं यांत्रिक थी. अगर ऐसा कुछ होता भी है तो केवल अपवादस्वरूप. हम अगर उदारपंथी दबाव के आगे झुक गए होते तो हमने बड़े पैमाने पर स्वतंत्र राजनीतिक प्रचार चलाने और भावी विकास की परिस्थितियों का निर्माण करने का मौका खो दिया होता. लेनिन तथा बोल्शेविकों को मेन्शेविकों के ऐसे ही आरोपों का सामना करना पडा था. उन्हों ने बोल्शेविकों पर आरोप लगाया था कि वे ब्लैक हण्ड्रेड खतरे को नजरअंदाज कर रहे हैं. लेनिन का जबाव था, “... हर जगह, सभी देशों में चुनाव अभियान में सामाजिक-जनवादियों के प्रथम स्वतंत्र प्रवेश के समय उदारपंथी लोग चिल्लापों मचाते और भौंकते हुए आरोप लगाते हैं कि समाजवादी लोग ब्लैक हण्ड्रेडवालों के दूमा में घुसने की राह साफ कर दे रहे हैं.”
“... कैडेटों से लड़ने से इनकार करके आप सर्वहारा और अर्ध सर्वहारा जनसमुदाय को, जो सामाजिक-जनवादी नेतृत्व का अनुसरण करने में सक्षम हैं, कैडेटों के विचारधारात्मक प्रभाव में छोड़ दे रहे हैं. अभी ही या बाद में, आपको ब्लैक हण्ड्रेड खतरे के बावजूद, अगर आप समाजवादी बने रहना छोड़ नहीं देते तो, स्वतंत्रतापूर्वक संघर्ष करना ही पड़ेगा. और बाद में सही कदम उठाने की जगह अभी ही ऐसा करना ज्यादा आसान और ज्यादा जरूरी है.” (कैडेटों के साथ खेमेबंदी से)
उन्होंने यह भी कहा “(कैडेटों के साथ) संयुक्त सूची सामाजिक जनवादी पार्टी की समूची स्वतंत्र वर्ग-नीति का घोर अंतरविरोधी होगी. जनसमुदाय के पास एक संयुक्त सूची की सिफारिश करके हम वर्गीय और राजनीतिक विभाजनों को आशाहीन ढंग से गड्डमड्ड कर देने के लिए मजबूर होंगे. हम दूमा में एक उदारपंथी के लिए जगह बनाने की खातिर अपने अभियान के उसूली और उसकी आम क्रांतिकारी अहमियत का गला घोंट देंगे. हम संसदवाद की वर्ग नीति के मातहत रखने के बदले वर्ग नीति को संसदवाद के मातहत कर देंगे. हम अपनी शक्तियों का अंदाजा लगाने के मौके से अपने आपको वंचित कर देंगे. हम वह चीज खो देंगे जो तमाम चुनावों में शाश्वत और टिकाऊ है – समाजवादी सर्वहारा की वर्ग चेतना और एकता का विकास. और हमें प्राप्त क्या होगा – अक्टूबरवादियों पर कैडेटों की श्रेष्ठता – जो कि क्षणभंगुर, सापेक्ष और असत्य है.” (सामाजिक जनवादी और चुनावी समझौते से)
का. लेनिन ने चुनाव अभियान में कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्ण स्वतंत्रता पर बारंबार जोर दिया और कहा कि “उसे किसी भी कीमत पर अपने नारों अथवा कार्यनीतियों का अन्य विपक्षी अथवा क्रांतिकारी पार्टियों के नारों अथवा कार्यनीतियों के साथ विलय नहीं करना चाहिए.” इस नियम के अपवाद की इजाजत केवल अत्यंत आवश्यक मामलों में ही और केवल उन पार्टियों के संबंध में ही दी जा सकती है जो हमारे फौरी राजनीतिक संघर्ष के मुख्य नारों को पूरी तरह स्वीकार करती हों.
उन्होंने और भी कहा है, “शहरों में, जहां मजदूरों की आबादी अधिकांशतः केंद्रीभूत है, हमें अत्यंत आवश्यक मामलों को छोड़कर, पूर्णतया स्वतंत्र सामाजिक-जनवादी उम्मीदवार खड़ा करने से कभी पीछे नहीं हटना चाहिए; और अभी ऐसी कोई फौरी आवश्यकता नहीं है. चंद कैडेट अथवा त्रुदोविक (विशेषकर पॉपुलर सोशलिस्ट किस्म के) खुद दुमा के लिए कमोबेश कोई गंभीर अहमियत नहीं रखते. वे अधिक से अधिक केवल एक पूरक के रूप में गौण भूमिका ही निभा सकते हैं.”
हमारी ठोस स्थितियों में हमारे संघर्ष के मुख्य देहाती क्षेत्र इसी श्रेणी में पड़ते हैं. हमारी चुनाव कार्यनीति ने लेनिन की शिक्षाओं को दृढ़तापूर्वक बुलंद किया है और केवल हमारी पार्टी ही मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी हो सकती है.
चूंकि चुनाव कार्यनीति एक विशेष स्थिति में आम राजनीति का प्रयोग मात्र होती है, इसलिए गैर-संसदीय संघर्षों के दौरान निर्मित राजनीतिक संश्रय स्वभावतः सीटों के तालमेल और अन्य चुनावी समझौतों में अभिव्यक्त होंगे और इस मामले में हमने हमेशा अपने उसूलों की सीमा के अंदर जिस हद तक संभव हो सकता है उस हद तक लचीला होने का प्रयत्न किया है. मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में 13 पार्टियों के संश्रय के पतन का जिक्र किया जा सकता है.
वाम खेमे का निर्माण, एकमात्र व्यावहारिक कार्यनीति
हमारा संघर्ष दीर्घकालिक है. तीनों मुख्य कम्युनिस्ट धाराओं, छोटी वाम पार्टियों, ऐसे नक्सलवादी गुटों और ग्रासरूट आंदोलनों जिन्होंने अराजकतावादी अवधारणाओं को त्याग दिया है और राजनीतिक संघर्षों में शामिल हो गए हैं, जनता दल के क्रांतिकारी जनवादी हिस्सों, दलितों, अल्पसंख्यकों और राष्ट्रीयता के आंदोलनों तथा क्रांतिकारी निम्म-पूजीपतियों और पूंजीवादी बुद्धिजीवियों की एकता एक वाम खेमे की, अथवा जिसे हम वाम और जनवादी महासंघ कहते हैं, उसे जन्म देगी. अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में सोवियत खेमे के नष्ट होने से और कांग्रेस सरकार की नई आर्थिक नीति के चलते, जिसने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी पर भारतीय पूंजी की घृणित निर्भरता को उजागर कर दिया है, तथा सार्वजनिक क्षेत्र की प्रधान भूमिका नष्ट हो जाने के कारण, अवसरवादी लोग अपने जीवन के सबसे बुरे सैद्धांतिक संकट का समाना कर रहे हैं. अब ‘साम्राज्यवाद बनाम सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी खेमे’ के अंतर्विरोधको प्रधान अंतर्विरोधबतलाना, भारत सरकार की ‘प्रगतिशील’ विदेश नीति की बड़ाइयां करना, भारतीय पूंजीपति वर्ग के राष्ट्रीय चरित्र के गीत गाना तथा निजी इजारेदार घरानों के विपरीत सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को बुलंद करना मुश्किल हो गया है. रामो-वामो की तीसरी संरचना ने केंद्रीय सत्ता पाने का ख्वाब देखना शुरू कर दिया था, सीपीआई ने सरकार में शामिल होने की घोषणा कर दी थी और सीपीआई(एम) ने अपने-आपको ‘पुल पार करने’ के लिये तैयार कर लिया था – इन्होंने चुनाव में जबर्दस्त चोट खाई. वामपंथ को कांग्रेस के साथ जाना भी मुश्किल लग रहा है और टुकड़ों में विभाजित पूंजीवादी विपक्ष के साथ रहना भी कष्टदायक लग रहा है. संभवतः धर्मनिरपेक्ष मंच को व्यापक बनाने के लिए कांग्रेस के अंदर धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की तलाश करने के प्रयत्न किए जाएंगे. किंतु परिस्थिति का दबाव उसे अधिकाधिक स्वतंत्र स्थिति अपनाने और सरकार की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध लोकप्रिय आंदोलनों का सहारा लेने के लिए बाध्य करेगा.
भारतीय जनवादी क्रांति के दौरान वाम खेमे का उदय आवश्यक एवं अनिवार्य है, जो बदले में खुद क्रांति की समूची राह को बदल देगा. हमारी राजनीतिक कार्यनीति की बुनियादी दिशा इसी लक्ष्य को पाने की ओर निर्देशित है, जिसके लिए परिस्थितियां दिन ब दिन परिपक्व होती जा रही हैं.
लेनिन ने रूसी पूंजीवादी जनवादी क्रांति के संबंध में कहा है, “इस क्रांति में क्रांतिकारी सर्वहारा कुछ लोगों के दयनीय दुमछल्लेपन को और कुछ अन्य लोगों की क्रांतिकारी लफ्फाजियों को झाड़-बुहारकर किनारे करते हुए पूरी ऊर्जा के साथ भाग लेगा. वह सिर चकरा देने वाली घटनाओं के बवंडर में वर्गीय सुस्पष्टता और वर्गीय चेतना लाएगा; और बहादुरी के साथ तथा अविचल रूप से, क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व से कोई डरते हुए नहीं बल्कि सोत्साह उसकी कामना करते हुए, गणतंत्र और पूर्ण गणतांत्रिक आजादियों के लिए संघर्ष करते हुए, उल्लेखनीय आर्थिक सुधारों के लिए संघर्ष करते हुए आगे बढ़ेगा; ताकि वह अपने लिए एक सचमुत के विशाल रंगमंच, एक ऐसे रंगमंच का निर्माण कर सके जो बीसवीं सदी के उपयुक्त हो, जिसमें कि समाजवाद के लिए संघर्ष चलाया जा सके.”
बीसवीं सदी के अंतिम छोर पर पहुंचकर हमें इस उद्धरण में केवल बीसवीं सदी की जगह इक्कीसवीं सदी रख देना है, मगर लेनिन ने जो बाकी सारी बातें कही हैं वे सब भारतीय सर्वहारा के लिए उसी प्रकार लागू होती हैं.