(जून 1994 के केंद्रीय पार्टी स्कूल में उदघाटन भाषण)

प्रिय कामरेडो,

केंद्रीय पार्टी स्कूल में मैं आप सबों का स्वागत करता हूं जैसा कि आप सबों को मालूम है, हमारी पार्टी ने इतने वर्षों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के समग्र व रचनात्मक अध्ययन की आदत विकसित की है, और 1980 के दशक में लगातार भूमिगत स्थितियों में काम करते हुए भी हमने केंद्रीय स्तर से लेकर जमीनी स्तर तक पार्टी स्कूलों का आयोजन किया. इस स्कूलों में शास्त्रीय मार्क्सवादी ग्रंथों के साथ-साथ भारत की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का भी अध्ययन किया जाता था. यह हमारी पार्टी के हाथों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की सार्वभौम सच्चाई को भारत की ठोस स्थितियों के साथ मिलाने का और इस प्रकार पार्टी लाइन को समृद्ध करके समूची पार्टी को उसके गिर्द एकतावद्ध करने का एक महत्वपूर्ण हथियार रहा है. हमारी पार्टी द्वारा किए जा रहे जबर्दस्त विचारधारात्मक-सैद्धांतिक कार्य के इस पहलू को हमारी पार्टी के बाहर के लोग नहीं जानते हैं. इसलिए जब हमारी पार्टी एक मंजिल से दूसरी मंजिल में बड़ी आसानी से पहुंच जाती है तो बाहरी प्रेक्षकों को दांतो तले उंगली दबा लेनी पड़ती है. बिरले ही लोग जानते हैं कि आईपीएफ के माध्यम से राजनीतिक गतिविधियां संचालित करने के दौरान भी पार्टी का ढांचा ऊपर से नीचे तक ज्यों का त्यों बना हुआ था. ऐसा केवल कार्य-विभाजन के मकसद से नहीं, बल्कि आंदोलन की समूची धारा का विचारधारात्मक-सैद्धांतिक मार्गदर्शन करने की खातिर किया गया था. जो यह समझते थे कि पार्टी को आईपीएफ की बलिवेदी पर कुर्बान कर दिया गया, वे आज की स्थिति समझ पाने में अक्षम हैं, जबकि पार्टी ने बेझिझक समूची राजनीतिक कमान खुद संभाल ली है.

लगभग एक माह पहले, मैं एमएल के एक धड़े के एक साथी से मिला. उन्होंने हमारी पार्टी की ढेर सारी आलोचनाएं कीं, लेकिन पार्टी निर्माण में हमारी दक्षता की उन्होंने काफी प्रशंसा की. वास्तव में यह न तो सांगठनिक दक्षता का प्रश्न है और न ही व्यक्तिगत तौर पर नेताओं का करिश्मा, बल्कि यह तो विचारधारात्मक-सैद्धांतिक कार्य को पार्टी निर्माण की कुंजी मानने का नतीजा है कि चौतरफा राजनीतिक दिग्भ्रम और संगठनात्मक दुरवस्था में पहुंच गए एमएल आंदोलन के बीच से हम पार्टी निर्माण के कार्य को आगे बढ़ा सके. यह एक ऐसी बात है जो हमारी पार्टी को औरों से अलग करती है, यह एक बेहतरीन परंपरा है जिसे हमें अवश्य सुरक्षित रखना चाहिए.

जैसा कि आपको पता है, सीपीआई में मार्क्सवाद का अध्ययन बहुत पहले ही छोड़ दिया गया है. सोवियत प्रचार सामग्री ही उनके यहां एकमात्र प्रचलित साहित्य थी. इसीलिए सोवियत विघटन के बाद सीपीआई का पूरा प्रचार-तंत्र ही भहरा गया. सीपीआई(एम) में हमेशा बंधा-बंधाया अध्ययन होता आया है जिसमें अधिभूतवाद की भारी खुराक मिली होती है. वहां न तो मार्क्सवाद के किसी स्वतंत्र और सृजनात्मक अध्ययन की जगह है और न ही पार्टी के भीतर विचारधारात्मक-सैद्धांतिक बहस की कोई गुंजाइश. अतिवामपंथी गुटों को मार्क्सवाद-लेनिनवाद से कोई लेना-देना ही नहीं है. जहां तक माओ के सिद्धांत पर उनकी निष्ठा का सवाल है, तो माओ के कुछ उद्धरणों को उनके चिंतन से पृथक करके वे उनकी व्याख्या अपने भाववादी अराजक चिंतन की सुविधा के अनुसार करते हैं.

इसके विपरीत हमारी स्थिति काफी बेहतर रही है, लेकिन मैं नहीं समझता कि हमारी पार्टी में भी सब कुछ ठीक-ठाक है. खासकर पिछले साल-दो-साल के दैरान विचारधारात्मक धरातल पर गिरावटें आई हैं और पार्टी का सैद्धांतिक स्तर आम तौर पर नीचे गया है. मैं समझता हूं कि यदि इस स्कूल में उपस्थित कामरेडों का सर्वे किया जाए तो संभवतः पाया जाएगा कि अधिकांश कामरेडों ने हाल में शास्त्रीय पुस्तकों को छुआ भी नहीं है और शायद उनमें से ज्यादातर इस बदहाली का कसूर अपने दिन-प्रतिदिन के कार्यों के दबावों पर मढ़ देंगे.

यदि मुझे ठीक याद है तो पार्टी को खुला करने के पीछे के प्रमुख उद्देश्यों में से एक यह भी था कि मार्क्सवाद के सामने पेश नई पूंजीवादी चुनौती का पार्टी को सामना करना है. हम सभी संभवतः सहमत होंगे कि इस संदर्भ में जो कुछ किया गया है, वह दरपेश चुनौतियों की तुलना में बेहद कम है. अब जबकि पार्टी तेज विस्तार के मोड़ पर खड़ी है और हमने तमाम कम्युनिस्टों से सीपीआई(एमएल) के झंडे तले एकताबद्ध होने का आह्वान किया है, पार्टी का विचारधारात्मक-सैद्धांतिक सुदृढ़ीकरण एक नई फौरी अनिवार्यता बन गई है. फिर, एक ऐसे माहौल में जहां पार्टी व्यवहार की शाखाएं बढ़ते कार्यभार और पूर्णरूपेण पृथक ढांचे के साथ अधिकाधिक स्वतंत्र स्थिति प्राप्त करती जा रही हों, विचारधारात्मक-सैद्धांतिक कार्य की अवहेलना निश्चित रूप से एकांगी और अधिभूतवादी चिंतन को जन्म देगी. विचारधारात्मक-सैद्धांतिक कार्य किसी भी पार्टी का प्राणतत्व होता है जिसके अभाव में पार्टी एक मुर्दा शरीर की तरह हो जाएगी. यह पार्टी के जहाज का इंजन है, जिसके बगैर पार्टी का जहाज विशाल सागर में निरुद्देश्य तैरेगा, बिना इस बात की उम्मीद किए कि वह कभी किनारे पर पहुंचेगा भी. मुझे उम्मीद है कि यह केंद्रीय स्कूल इस संदर्भ में एक नई शुरूआत करेगा और आनेवाले महीनों में इस स्कूल व्यवस्था का विस्तार निचले स्तरों तक हो जाएगा.

हमारी पार्टी ने अपने जीवन के 25 वर्ष पूरे कर लिए हैं. सन् 1993 से, जब से हमारी पार्टी ने खुले तौर पर काम करना शुरू किया है, पार्टी का प्रभाव दूर-दराज तक फैला है और अब हम एक नए दौर में पहुंच गए हैं, बल्कि कहना होगा कि हम पार्टी विस्तार के निर्णायक दौर में पहुंच गए हैं. मैं इसे निर्णायक दौर कहता हूं क्योंकि आज दोनों, यानी सीपीआई(एम) के नेतृत्ववाली वाम मोर्चा सरकार की दक्षिणमुखी अवसरवादी कार्यनीति और पीपुल्सवार ग्रुप की वाम-अवसरवादी कार्यनीति एक बंद गली में फंस गई हैं तथा उसमें पतन और सड़न के निश्चित लक्षण साफ दिखने लगे हैं.

पश्चिम बंगाल में लगातार 17 वर्षों तक अस्तित्व में रहने के बाद भी वाम मोर्चा सरकार का प्रयोग न केवल देश की मजदूर-किसान जनता पर कोई प्रभाव डालने में, बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों की पुनर्रचना के अपने घोषित लक्ष्य को भी पूरा करने में असफल रहा है. वह वैकल्पिक आर्थिक नीतियां देने में और वाम-जनवादी-धर्मनिरपेक्ष विकल्प बनाने के लंबे-चौड़े दावों के बावजूद केंद्र में कांग्रेसी शासन को मजबूत होने से रोक पाने में असफल रहा है. नकारात्मक पक्ष से देखने पर वाम मोर्चा सरकार पश्चिम बंगाल में भारतीय शासकवर्गों के शासन को मजबूत करने का जरिया बन गया है. तथा उसने राष्ट्रीय स्तर पर हर किस्म के अवसरवादी सामाजिक-राजनीतिक गठजोड़ के दरवाजे पार्टी के लिए खोल दिए हैं. पश्चिम बंगाल में सत्ता के प्रति उसके मोह ने उसे अभी हाल में कांग्रेस(आइ) के साथ सांठगांठ कर चुनाव सुधार बिल का मुखर पैरोकार बना दिया है.

क्रांतिकारी वामपंथी खेमे की ओर से सिर्फ हमारी पार्टी ने वाम मोर्चा सरकार के सिद्धांत और व्यवहार की विस्तृत आलोचना विकसित की है. जहां हम सभी मोर्चों पर उसके जन विरोधी-जनवाद विरोधी कार्यों की आलोचना एवं विरोध करते हैं, वहीं हमने उसके ग्रामीण-सामाजिक जनाधार में स्पष्ट वर्गीय आधार पर दरारें डालने पर विशेष बल दिया है. करंदा की घटना साबित करती है कि यही उसका मर्मस्थल है. इसके अलावा, सरकार निर्माण के सामाजिक-जनवादी व्यवहार के द्वंद्वात्मक निषेध के माध्यम से हमने वर्ग संघर्ष के सच्चे औजार के बतौर वाम सरकार की भूमिका का प्रश्न खड़ा कर दिया है. यह समझना होगा कि प्रकृति और समाज की तमाम विभाजक रेखाओं की तरह ही मार्क्सवादी और संशोधनवादी कार्यनीति की विभाजक रेखाएं भी लगातार स्थानांतरित होती रहती हैं और यह स्थानांतरण ठोस स्थितियों के द्वारा निर्धारित होता है. आज की ठोस स्थितियों में सरकार निर्माण की कार्यनीति को उन्नत स्तर पर ले जाना ही सामाजिक जनवादियों को कड़ी चोट देने तथा उनके जनाधार और कतारों को जीत लेने का सबसे अच्छा तरीका है. बाकी सब कुछ महज जुमलेबाजी है जो सामाजिक-जनवादियों के प्रभाव क्षेत्र की बाहरी सीमाओं तक को भी छू नहीं सकती. यह महज संयोग नहीं है कि पश्चिम बंगाल में सीमित ताकत के बावजूद सारे एमएल ग्रुपों में एकमात्र हमारी ही पार्टी है जिसने पश्चिम बंगाल की राजनीति की मुख्यधारा में अपना स्थान बनाने में कामयाबी हासिल की है. तमाम दबावों को झेलते हुए हमने पश्चिम बंगाल सरकार का वाम-विपक्ष होने की अपनी सैद्धांतिक स्थिति को बरकरार रखा है और लगभग सभी मोर्चों पर हमने सीपीआई(एम) की अवसरवादी सैद्धांतिक एवं राजनीतिक स्थितियों का विरोध किया है.

भारतीय वामपंथी आंदोलन के भीतर हमें सीपीआई(एम) का विपरीत ध्रुव माना जाता है. हमने यह विशिष्टता वाम एकता के लक्ष्य को एक क्षण के लिए भी कुर्बान किए बगैर हासिल की है. सीपीआई(एम) के प्रति हमारी कार्यनीति सामाजिक जनवाद के खिलाफ ऐतिहासिक संघर्ष की निरंतरता का ही प्रतिनिधित्व करती है, अलबत्ता एक उच्चतर धरातल पर, हर गुजरते दिन के साथ अधिकाधिक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट हमारी कार्यनीति को सामाजिक जनवादी प्रयोग के रूबरू खड़ी एकमात्र योग्य, प्रभावी और व्यापक आधार वाली चुनौती के रूप में ग्रहण करने में समर्थ हुए हैं. आज की स्थितियों में, जहां सामाजिक जनवादी प्रयोग बंद गली में जा फंसा है, वहां हमारी पार्टी नई और साहसभरी पहलकदमियां लेने की स्थिति में हैं. मेरे विचार से यह उसका एक पहलू है; जब मैं कहता हूं कि हमारी पार्टी एक नए दौर में, अपने अग्रगति के निर्णायक दौर में, पहुंच चुकी है.

चूंकि 1980 के दशक के आरंभ में एमएल ग्रुपों के साथ आम तौर पर, और सीतारमैया के नेतृत्व वाले आंध्र गुट के साथ खास तौर पर, हमारे एकता प्रयास असफल रहे, लिहाजा पार्टी का पुनर्गठन दो भिन्न धाराओं में आगे बढ़ा. आंध्र ग्रुप ने, जो चारु मजुमदार और सफाया लाइन का कटु आलोचक था, कानूनी और जन-गतिविधियों पर अधिक बल दिया. तमिनलाडु और महाराष्ट्र में कार्यरत कुछ धड़ों को मिलाकर उसने संघीय चरित्र वाली एक केंद्रीय संस्था का गठन किया जो आमतौर पर सीपीआई(एमएल), पीपुल्सवार ग्रुप के नाम से जानी गई. उसने छात्रों और ग्रामीण गरीबों के शक्तिशाली जनसंगठनों का विकास करके एक आशाजनक शुरूआत की, लेकिन जल्दी ही वह पूर्णरूपेण दलम गतिविधियों में सिमट गई. उसकी सैद्धांतिक-राजनीतिक स्थितियां कभी स्पष्ट नहीं हो पाई और उसकी आम छवि मुख्यतः आदिवासी लोगों की शिकायतों को दूर करनेवाले हथियारबंद जुझारू दस्तों के रूप में बनती गई. मगर राजनीतिक-कार्यनीतिक धरातल पर उसकी गतिविधियों को लाल राजनीतिक सत्ता के आधार इलाके विकसित करने वाले प्रयास ही माना जा सकता है. यहां हम उसके अराजकतावादी ग्रुप के रूप में कायाकल्प की पूरी कहानी दुहराना नहीं चाहते. इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि फिलहाल यह ग्रुप गंभीर विचारधारात्मक भटकावों और सांगठनिक टूटों का शिकार है और रिपोर्टों से मालूम पड़ता है कि गतिरोध से स्वयं को बाहर निकालने के लिए इसका नेतृत्व कुछ बड़े कार्यनीतिक बदलावों की दिशा में सोच रहा है.

बहरहाल, 1970 के दशक के अंत तक हमारी पार्टी ने समझ लिया था कि सीधे क्रांतिकारी हमलों का पहला दौर समाप्त हो चुका है और इस समय हथियारबंद संघर्षों को नई ऊंचाइयों तक ले जाकर लाल सेना और आधार इलाकों का निर्माण करने का आह्वान करना और कुछ नहीं, बल्कि वाम दुस्साहसवाद होगा, हमने व्यापक किसान आंदोलन के विकास पर और जरूरत के मुताबिक हथियारबंद प्रतिरोध पर भी प्राथमिक जोर देना जारी रखा. साथ-ही-साथ व्यापक जनसमुदाय के बीच अपना प्रभाव विस्तार के लिए हमने कानूनी और यहां तक कि संसदीय अवसरों का भी भरपूर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया गया तथा भारतीय जनता के विभिन्न तबकों के बीच से नए मित्र तलाशने के लिए और शत्रू खेमे के अंतरविरोधों का इस्तेमाल करने की नीयत से संयुक्त मोर्चा कार्यवाहियों की शुरूआत की.

ठोस भारतीय स्थितियों के लिहाज से और क्रांतिकारी आंदोलन के खास चरण के मुताबिक समग्र कार्यनीति विकसित करते हुए हमें अपनी पार्टी के भीतर की उन विलोपवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा तथा कम्युनिस्ट पार्टी के परित्याग की और इनके स्थान पर एक गोलमटोल वाम विचारधारा और वाम संगठन के निर्माण की वकालत करती थीं. ये प्रवृत्तियां किसान आंदोलन के बुनियादी वर्गीय रुख के खिलाफ थीं और हमें वाम मोर्चा अथवा जनता दल सरीखी सरकारों का पिछलग्गू बना देना चाहती थीं. संसदीय बौनेपन के सभी रूपों के खिलाफ भी हमारी पार्टी को लगातार संघर्ष चलाना पड़ा. टटपुंजिया क्रांतिकारियों के पूरे हुजूम ने हमारी नीतियों का जबर्दस्त विरोध किया और हम पर क्रांतिद्रोही होने का आरोप लगाया और कभी-कभी तो हमें तंग श्यओफिंग का एजेंट और कभी-कभी सरकारी नक्सलवादी तक कहा गया. हमारी पार्टी ने मजबूत ढंग से इन अतिवामपंथी हमलों को शिकस्त दी और उन वाम अवसरवादियों को उनकी असली औकात बना दी. वे बाद में पूर्ण अराजकतावाद के गढ़े में जा गिरे और उन्होंने सबसे घटिया दर्जे के राजनीतिक अवसरवाद का नमूना पेश किया. उनमें से कुछ तो जनता और कम्युनिस्ट कतारों की निर्मम हत्याओं तक में संलग्न हो गए.

ऐतिहासिक अनुभवों को याद करते हुए आइए, इस फ्रांस में वर्ग संघर्ष की भूमिका से एंगेल्स के निम्नलिखित उद्धरण पर गौर करें “(1849 की पराजय के बाद) भोंड़े जनवाद को आशा थी कि क्रांति फिर किसी भी दिन भड़क सकती है. हमने 1850 की पतझड़ में ही ऐलान किया था कि क्रांतिकारी काल का कम-से-कम पहला अध्याय समाप्त हो चुका है और संकट जैसी कोई स्थिति नहीं है. यह कहने के लिए हमें क्रांति के प्रति उन्हीं लोगों द्वारा विश्वासघाती घोषित करके बहिष्कृत किया गया जिन्होंने बाद में प्रायः निरपवाद रूप से बिस्मार्क के साथ समझौता कर लिया – बिस्मार्क ने सिर्फ उनके साथ ही समझौता करने की तकलीफ गवारा की जिनको उसने गड़बड़ी पैदा करने में सक्षम समझा.”

नए दौर में संघर्ष के नए रूप के बारे में लिखते हुए एंगेल्स ने कहा, “और अगर सार्विक मताधिकार से इसके सिवा और कोई लाभ न होता तो भी उसने हमें हर तीसरे साल अपनी संख्या गिनने की सुविधा प्रदान की; कि हमारे वोटों की संख्या में बाकायदा निश्चित तथा अप्रत्याशित रूप से द्रुत वृद्धि के द्वारा उसने मजदूरों का अपनी विजय की निश्चितता में विश्वास तथा उनके विरोधियों में घबाराहट,दोनों को समान मात्रा में बढ़ा दिया और इस प्रकार वह हमारे प्रचार का सर्वश्रेष्ठ साधन बन गया; कि उसने हमें स्वयं अपनी शक्ति के बारे में और सभी विरोधी पार्टियों की शक्ति के बारे में सही सूचना दी, और इस प्रकार हमारी कार्यवाहियों में संतुलन के लिए एक अद्वितीय मानदंड प्रस्तुत किया और जैसे बेमौके की बुजदिली से, वैसे ही बेमौके की दुस्साहसिकता से हमारी रक्षा की – अगर मताधिकार से हमें एकमात्र यही लाभ हुआ होता, तो भी यह सर्वथा पर्याप्त होता. परंतु उसने हमें इससे कहीं अधिक लाभ दिया है. चुनाव प्रचार में उसने हमें जनसाधारण से, जहां वे अब भी हमसे दूर थे, संपर्क स्थापित करने का अद्वितीय साधन प्रदान किया; उसने हमारे हमलों के सामने सभी पार्टियों को समस्त जनता के सामने अपने विचारों और कार्यों की पैरवी करने को विवश करने का साधन प्रदान किया; इतना ही नहीं, उसने राइखस्टाग में हमारे प्रतिनिधियों को एक ऐसा मंच प्रदान किया, जिसमें वे संसद में अपने विरोधियों से और संसद के बाहर जनसाधारण से उस अधिकार और आजादी के साथ अपनी बात कह सकते थे, जो अखबारों और सभाओं में प्राप्त न थीं ...”

“सार्विक मताधिकार के इस सफल उपयोग के साथ सर्वहारा संघर्ष में एक बिलकुल ही नया तरीका चालू हुआ और यह तरीका बड़ी तेजी से और भी विकसित हुआ. यह देखा गया कि जिन राज्य-संस्थाओं में पूंजीपति वर्ग का शासन संगठित है, वे मजदूर वर्ग को इन्हीं संस्थाओं से संघर्ष करने की और भी अधिक सुविधाएं प्रदान करती हैं.”

यही बात रूस में भी हुई, जब 1905 की क्रांति की असफलता के बाद लेनिन ने कानूनी तथा खुली गतिविधियों तथा दूमा में भागीदारी के लिए पार्टी को पुनर्गठित किया. इस मौके पर रूसी पार्टी में भी वाम अवसरवादी प्रवृत्तियों ने सिर उठाया और लेनिन पर गद्दारी का आरोप लगाते हुए बोल्शेविकवाद को बहिष्कारवाद के समतुल्य बना दिया. लेनिन ने इन प्रवृत्तियों को बचकाना मर्ज करार देते हुए इनका खंडन किया और राज्य की संस्थाओं के साथ सावधानीपूर्वक समंजन की आवश्यकता पर जोर दिया.

चीन में वाम दुस्साहसवादी भूलों के कारण लगभग सारे आधार इलाके नष्ट हो गए, लाल सेना का एक बड़ा हिस्सा समाप्त हो गया और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को लंबा अभियान शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा. जब माओ ने जापानी साम्राज्यवाद के खिलाफ च्यांग काईशेक के साथ संयुक्त मोर्चा विकसित करने की लाइन अपनाई तब वाम अवसरवादियों ने माओ पर भी गद्दारी का आरोप लगाया था.

मैं इन ऐतिहासिक उदाहरणों का हवाला सिर्फ यह तथ्य दुहराने के लिए दे रहा हूं कि हर देश में क्रांतिकारी संघर्ष को उतार-चढ़ाव के विभिन्न दौरों से गुजरना पड़ता है और पार्टी की नीति और कार्यनीति को इसी के हिसाब से पुनर्संयोजन करना चाहिए. यही कार्यनीति के बारे में मार्क्सवादी चिंतन और नेतृत्व की कला की संपूर्ण अंतर्बस्तु है. कठमुल्लावादी ढंग से एक ऐसी कार्यनीति का अनुसरण करना जो बिलकुल भिन्न स्थितियों के अनुकूल हो और ऐसे समय में सीधे संघर्ष का आह्वान करना जबकि स्थितियां पार्टी के पुनर्गठन और शक्ति-संचय की मांग कर रही हों, सीधे दुश्मन के जाल में जा फंसना है.

हमारे लिए चीनी मॉडल के साथ शुरूआत करना बिलकुल सही था, क्योंकि अर्धसामंती-अर्धऔपनिवेशिक देशों में क्रांति के लिए  वही एकमात्र उपलब्ध ब्लूप्रिंट था. लेकिन पिछले 25 वर्षों के अपने अनुभवों से सीखते हुए और भारतीय समाज के विशिष्ट पहलुओं की बेहतर समझदारी के साथ अब यह स्वाभाविक है कि चीनी माडल में जरूरी समायोजन और संशोधन करके हम आने वाले समय में भारतीय क्रांति का भारतीय रास्ता विकसित कर लें. चीनी रास्ते का कठमुल्लावादी ढंग से अनुसरण करना वस्तुतः माओ विचारधारा के सारतत्व का निषेध है. माओ को उन चीनी कठमुल्लावादियों के खिलाफ दृढ़ता के साथ संघर्ष चलाना पड़ा था जो भीषण नुकसान उठाने के बावजूद चीनी स्थितियों में रूसी माडल की अंधी नकल करने पर तुले हुए थे. मार्क्सवाद-लेनिनवाद की सार्वभौम सच्चाई को चीन की ठोस स्थितियों के साथ मिलाने का मशहूर सूत्रीकरण माओ ने इसी संघर्ष के दौरान विकसित किया था.

बहुतेरे लोग यह नहीं जानते कि इन्हीं वाम अवसरवादी प्रवृत्तियों से गंभीर संघर्ष चलाते हुए हमारी पार्टी की लाइन विकसित हुई है. जहां वाम अवसरवादियों की गतिविधियां उत्तरोत्तर दस्ता कार्रवाइयों तक सीमित होती गई, वहीं हमने किसानों के व्यापकतम क्रांतिकारी आंदोलन की संभावना और दायरे को लगातार बढ़ाया है और हथियारबंद प्रतिरोध दस्ते भी उन्हीं के अभिन्न अंग बनते गए हैं. अब जबकि पीडब्ल्यूजी द्वारा अपनाया गया अवसरवादी रास्ता अपने अंत की ओर बढ़ रहा है, वहां हमारी पार्टी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों को एक सही लाइन के इर्द-गिर्द एकताबद्ध करने के लिए मजबूत आधार पर खड़ी है. यह उसका दूसरा पहलू है जिसे मैं पार्टी के विकास का निर्णायक दौर कहता हूं.

मुझे लगता है कि आम तौर पर वाम आंदोलन के भीतर सामाजिक जनवाद हमारा मुख्य विचारधारात्मक शत्रु है, जिसका प्रतिनिधित्व सीपीआई(एम) करती है, जबकि खास तौर पर एमएल आंदोलन के भीतर अराजकतावाद हमारा मुख्य विचारधारात्मक शत्रु है, जिसका प्रतिनिधित्व पीडब्ल्यूजी करता है. भारत में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण करने के लिए इन दोनों प्रवृत्तियों के खिलाफ विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्षों का एक साहसी संयोजन आवश्यक है.

यहां मैं संसदीय संघर्ष के संबंध में अपनी कार्यनीति के बारे में कुछ कहना जरूरी समझता हूं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके साथ हमारे संगठन मे गंभीर अस्वास्थ्यकर बुर्जुआ प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है. लोगों को टिकटों के लिए झगड़ते, जोड-तोड़ कर जीतने के लिए तमाम किस्म के अवसरवादी संश्रयों मे शामिल होते, और तब अनेक निर्वाचित प्रतिनिधियों को पैसे, ख्याति तथा बुर्जुआ सुविधाओं के लिए हाथ-पैर मारते तथा अंततः इसमें से अनेक को अपने निजी हितों की खातिर पार्टी के साथ विश्वासघात करके शासक पार्टी में शामिल होते देखकर बड़ा आघात लगा. कम्युनिस्ट आचरण, पार्टी सिद्धांत तथा अनुशासन, सबको बेहद शर्मनाक ढंग से तिलांजलि दे दी गई. इससे पार्टी की प्रतिष्ठा पर अत्यंत बुरा असर पड़ा. इससे यह साबित होता है कि पार्टी की चुनावी कार्यनीति का महत्व पार्टी संगठन के अंदर अभी गहराई तक नहीं जा पाया है. इसके अलावा पार्टी संगठन संसदीय ग्रुप के ऊपर पार्टी अनुशासन लागू करने में काफी कमजोर साबित हुआ. पार्टी को ठोस भारतीय परिस्थिति में चुनाव तथा संसदीय संस्थाओं का इस्तेमाल करने की दिशा में अभी बहुत आगे जाना है. लेकिन यदि मौजूदा स्थिति बनी रही तो इस दिशा में अन्य प्रयोगों के गंभीर परिणाम होंगे. चुनाव प्लेटफार्म का इस्तेमाल करने के बारे में मैं पहले ही एंगेल्स का कथन आपके सामने रख चुका हूं. अब कम्युनिस्ट लीग की केंद्रीय समिति में रखे गए मार्क्स के इस वक्तव्य पर गौर कीजिए :

“हर जगह पूंजीवादी-जनवादी उम्मीदवारों के साथ मजदूरों के उम्मीदवार खड़े हों, जहां तक संभव हो उनमें अधिक से अधिक लीग के सदस्य हों, इनके चुनाव को हर संभव तरीके से बढ़ावा मिले. जिन जगहों में मजदूरों के चुने जाने की कोई संभवना न हो, वहां भी मजदूरों को अपने उम्मीदवार खड़े करने चाहिए, ताकि अपनी आजादी बरकरार रखी जा सके, अपनी शक्तियों की गणना की जा सके तथा इस सिलसिले में उन्हें जनवादियों के तर्कों के, उदारहणस्वरूप ऐसे तर्कों के बहकावे में नहीं आना चाहिए. कि इस तरह के काम से वे जनवादी पार्टी को तोड़ रहे हैं. और इस तरह प्रतिक्रियावादियों के लिए विजय प्राप्त करना संभव बना रहे हैं, ऐसे सारे शब्दजालों का वास्तविक इरादा सर्वहारा की आंखों में धूल झोंकना होता है. इस तरह की स्वतंत्र कार्रवाई से सर्वहारा पार्टी निश्चित रूप से जो अग्रगति हासिल करती है, वह उस हानि से असीम रूप से अधिक महत्वपूर्ण है जो प्रतिनिधित्वमूलक संस्था में चंद प्रतिक्रियावादियों की मौजूदगी से हो सकती है.” कामरेड लेनिन ने भी चुनाव में पूंजीवादी-जनवादी पार्टियों के समानांतर इस कम्युनिस्ट कार्यनीति पर बार-बार जोर दिया तथा कम्युनिस्टों की भूमिका को संसदीय क्षेत्र में क्रांतिकारी विपक्ष की भूमिका के बतौर परिभाषित किया. बेशक, यही हमारा प्रस्थान बिंदु होना चाहिए.

हमारी स्थितियों में सीटों पर लातमेल, चुनावी संश्रय और यहां तक कि राज्य पर सरकार में भागीदारी जैसे सारे सवाल संसदीय संघर्षों के दौरान सामने आएंगे. ऐसे, और इसी तरह के अन्य सवाल हर हाल में पार्टी की निरपेक्ष स्वतंत्रता को बुलंद करने और क्रांतिकारी जनसंघर्षों की गुंजाइश व दायरे को और व्यापक बनाने के आधार पर ही तय किए जाने चाहिए. यद्यपि भारत भी क्रांतिपूर्व चीन की तरह अर्ध सामंती-अर्ध औपनिवेशिक देश है, लेकिन भारतीय शासक वर्गों के शासन का ढांचा चीन से अत्यधिक भिन्न है. यही भिन्नता भारतीय संसदीय व्यवस्था के माध्यम से प्रतिबिंबित होती है, जाति, धर्म तथा क्षेत्र आधारित गोलबंदी की बढ़ती हुई परिघटना तथा विभिन्न स्तरों पर सत्ता की हिस्सेदारी में राजनीतिक ताकतों की बढ़ती हुई विविधता शासकवर्गों के विभिन्न तबकों के बीच सत्ता की हिस्सेदारी की व्यवस्था के अर्थ में संसदीय संस्थाओं के प्रतिनिधिमूलक चरित्र तथा स्वयं व्यवस्था के अंदर बढ़ते हुए तनावों की ओर इशारा करती हैं. यह स्थिति किसी न किसी हद तक क्रांतिकारी-जनवादी ताकतों के सामने व्यवस्था के अंदर दरार पैदा करने की संभवना भी हाजिर कर देती है. क्रांतिकारी जनवाद के लिए एक जनउभार पैदा करने में इस अवसर का भरपूर उपयोग अवश्य किया जाना चाहिए. हमारे आंदोलन के मौजूदा दौर में इस कार्यनीति का सचमुत कोई विकल्प नहीं है.

यह अवश्य समझा जाना चाहिए कि पार्टी की चुनावी कार्यनीति क्रांतिकारी जन आंदोलन विकसित करने की पार्टी की व्यापक कार्यनीति का अभिन्न अंग है. यह किसी भी हालत में निजी कैरियर बनाने का साधन नहीं हो सकती है. इसलिए पार्टी को इस कार्यनीति को सफलता की मंजिल तक ले जाने के लिए हर हाल में केवल खरे उतर चुके कामरेडों पर ही भरोसा करना चाहिए.

एक व्यापकतम जनवादी मोर्चे का निर्माण हमारी पार्टी का रणनीतिक कार्यभार है. हाल के दिनों में पूंजीवादी तथा निम्म-पूंजीवादी जनवादियों के कुछ हिस्सों के साथ हमारे संबंध विकसित हुए हैं. शायद यह संश्लेषण का युग है; आजादी की लड़ाई के दौर में सहयोग के पुराने इतिहास को आधार बनाते हुए तथा सोवियत संघ के बिखराव के बाद और उसके फलस्वरूप नए सिरे से शुरू किए गए साम्राज्यवादी हमले के जमाने में सहयोग के इस नए दौर पर जोर देते हुए हम क्रांतिकारी कम्युनिस्टों और रैडिकल सोशलिस्ट शक्तियों के बीच एकता के लिए एक सैद्धांतिक ढांचा विकसित करने का प्रयत्न कर रहे हैं. विडंबना है कि वाम महासंघ का हमारा आह्वान वामपंथी आंदोलन में सीपीआई(एम) की दादागीरी के खिलाफ संघर्ष में बदल गया है. हमारे साथ संयुक्त कार्यवाहियों की सीपीआई(एम) की अवधारणा, जैसा कि उसके कांग्रेस दस्तावेज में सूत्रबद्ध है, मूलतः हमारे द्वारा अपनी गलतियों को सुधारने, अर्थात् हमारे सीपीआई(एम) की स्थितियों के नजदीक बढ़ने और उसके प्रभुत्ववादी प्रभाव में चले जाने पर आधारित है. बाद की घटनाओं से जैसे ही उनकी ये आशाएं धूल में मिलीं वैसे ही वे पुनः हमें हर संभव तरीके से अलगाव में डालने की अपनी पुरानी लाइन पर लौट गए, मुझे लगता है कि अपने भ्रमों को त्याग देना और यथार्थ का सामना करना कभी नुकसानदेह नहीं होता है. सीपीआई(एम) जो हमारा जबर्दस्त विरोध कर रही है, हमें इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए. इसका भी हमारे विकास में सकारात्मक योगदान ही होगा. हमें खारिज करने और अलगाव में डालने की सीपीआई(एम) की अतीत की कोशिशें असफल रहीं. ऐसा करने की उनकी नई कोशिशों का भी यही अंजाम होगा. भविष्य में, घटनाचक्र में बदलाव आते ही, हमारे संबंध समानता के आधार पर और हमारे बीच के अंतर को कबूल करते हुए बनेंगे. केवल वही एकता एक स्वस्थ और उसूली एकता होगी. हमें परिस्थितियों में यह बदलाव लाने के लिए अवश्य ही धैर्यपूर्वक काम करना चाहिए.

अब कुछ शब्द अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के संबंध में, सोवियत खेमे के ध्वंस तथा चीन में होने वाले दूरगामी बदलाव ने अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के परिदृश्य को जबर्दस्त ढंग से बदल दिया. 1960 के दशक के महाविवाद की विरासत सोवियत-परस्त व चीन-परस्त पार्टियों के बीच का पुराना विभाजन अप्रासंगिक हो गया है. बहरहाल, सोवियत संघ के ध्वंस के फलस्वरूप कम्युनिस्ट पार्टियों एवं मंचों का रूस तथा कई पूर्वी यूरोपीय देशों में पुनर्गठन हो रहा है. ये पार्टियां अपने अतीत का, और खास तौर पर संशोधनवाद के नुकसानदेह प्रभाव के बारे में पुनर्मूल्यांकन कर रही हैं. इससे इन दोनों धाराओं की पार्टियों के और नजदीक आने की अनुकूल परिस्थितियां पैदा हुई हैं. अभी हाल ही में बेल्जियम की वर्कर्स पार्टी के तत्वावधान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में यह विशिष्ट परिघटना प्रतिबिंबित हुई, जिसमें अब तक की दोनों तरफ की धाराओं तथा ‘स्वतंत्र’ धाराओं से संबंधित 50 से ज्यादा पार्टियों और ग्रुपों ने भाग लिया. हमारी पार्टी ने भी उसमें भाग लिया और हमने करीब आने की इस प्रक्रिया का समर्थन किया.

हमारे विचार से अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की एकता की अवधारणा को केवल माओ विचारधारा और वह भी उसकी एक खास व्याख्या को मानने वाली एमएल पार्टियों की एकता तक सीमित कर देना अत्यंत संकीर्णतावादी दृष्टिकोण है और यह वर्तमान परिस्थितियों से मेल नहीं खाता.

मुझे लगता है कि चीन के प्रति अपने रुख को पुनः स्पष्ट करना जरूरी है, क्योंकि वह अभी भी विभ्रम तथा बहस का बहुत बड़ा स्रोत बना हुआ है. हमारी राय में संबंधित देश को उसकी ठोस स्थितियों तथा ठोस समय-काल से अलग कर अमूर्त ढंग से समाजवाद के निर्माण के बारे में नहीं सोचा जाना चाहिए. जब दुनिया में कुछेक छोटे समाजवादी देशों के अलावा कहीं और समाजवाद का अस्तित्व नहीं रह गया है तथा जब किसी विकसित पूंजीवादी देश में काफी लंबे समय तक किसी सर्वहारा क्रांति की कोई संभवना नहीं नजर आ रही है, तब चीन जैसे एक पिछड़े देश में समाजवाद का निर्माण एक विशिष्ट समस्या है. लिहाजा, बहस इस बात पर नहीं होनी चाहिए कि आम तौर पर समाजवाद का निर्माण कैसे किया जाए, बल्कि किसी बहस का सार्थक प्रस्थान बिंदु मौजूदा स्थितियों में चीन में समाजवाद के निर्माण के प्रश्न को ही बनाया जाना चाहिए. इस नजरिए से विचार करने पर ही हमें चीनी सुधारों की आम दिशा को समझने में मदद मिल सकती है. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी तथा चीनी सरकार के सभी कदमों का समर्थन करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता. आम दिशा के प्रति हमारे समर्थन का मतलब है इसके साथ निहित खतरों के प्रति हमारी गंभीर चिंता तथा उन नीतियों की आलोचना, जिन्हें हम समाजवाद के आम हितों तथा अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए हानिकारक समझते हैं.

हम न तो चीन अथवा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी केंद्रित किसी अंतरराष्ट्रीय खेमे के पक्ष में हैं और न ही किसी ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंच में शामिल होने के लिए उत्सुक हैं जिसने चीन की भर्त्सना को अपना केंद्रीय कार्य बना लिया हो. मुझे लगता है कि यह चीन तथा अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देता है.

हम एक ऐसे दौर में रह रहे हैं, जबकि मार्क्सवाद की तमाम बुनियाद प्रस्थापनाओं को चुनौती दी जा रही है तथा इतिहास के अंत की घोषणा की जा रही है. इस सिलसिले में मुझे मार्क्स की याद आती है जिन्होंने 150 वर्षों पूर्व अपने लेख दर्शन की दरिद्रता  में कहा था, “वे जब कहते हैं कि आज के संबंध – पूंजीवादी उत्पादन संबंध – स्वाभाविक हैं, तो उससे अर्थशास्त्रियों का मतलब यह है कि ये वे संबंध हैं जिसमें, प्रकृति के नियमों की संगति में संपत्ति का सृजन तथा उत्पादक शक्तियों का विकाश हुआ है, अर्थात् ये संबंध काल के प्रभाव से स्वतंत्र खुद प्राकृतिक नियम है, ये शाश्वत नियम हैं जो समाज का हर हाल से नियमन करेंगे. इनका अतीत का इतिहास तो रहा है लेकिन वर्तमान में उसका कोई अस्तित्व नहीं है.”

अर्थात्, पूंजीवादी दार्शनिकों तथा अर्थशास्त्रियों ने काफी पहले ही इतिहास के अंत की घोषणा कर दी थी, लेकिन फिर भी इतिहास प्रगति करता रहा और मार्क्सवाद ने उसकी अग्रगति में मार्गदर्शक भूमिका निभाई. मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन संबंधों की शाश्वतता को चुनौती दी और एक दुर्लभ वैज्ञानिक अंतःदृष्टि के साथ यह दिखाया कि ये संबंध भी पुराने संबंधों की तरह ही संक्रमणकालीन प्रकृति के हैं. परिवर्तन की शाश्वतता मार्क्सवादी दर्शन का केंद्रबिंदु है. लिहाजा, भविष्य में भी दुनिया को बदलने के सभी प्रयास मार्क्सवाद से ही अपनी जीवन शक्ति हासिल कर सकते हैं. मार्क्स ने अपनी शानदार रचना पूंजी में पूंजीवादी उत्पादन-संबंधों के शोषणमूलक आधार का पर्दाफास किया. उन्होंने मजदूरी, श्रम तथा पूंजी में लिखा, “मजदूर वर्ग के लिए सर्वाधिक अनुकूल स्थितियां तथा पूंजी का सबसे तेज संभव विकास भी, चाहे उससे मजदूरों के भौतिक अस्तित्व में कितना भी सुधार हो, बुर्जुआ हितों, पूंजीपतियों के हितों तथा उसके अपने हितों के बीच के शत्रुतापूर्ण संबंधों को मिटा नहीं सकता. मुनाफा तथा मजदूरी हमेशा की तरह एक दूसरे के प्रतिलोम अनुपात में रहते हैं.”

“यदि पूंजी का तेजी से विकास हो रहा है तो मजदूरी बढ़ सकती है, मगर पूंजी का मुनाफा उससे अतुलनीय रूप से ज्यादा तेजी से बढ़ता है. मजदूर की भौतिक स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन उसकी सामाजिक स्थिति की कीमत पर. पूंजीपति और उनके बीच की सामाजिक खाई और चौड़ी हो गई है.”

उत्पादन के ढांचे और संगठन में हुए तमाम बदलावों के बावजूद बुर्जुआ उत्पादन संबंधों का शोषणमूलक आधार, आर्थात अतिरिक्त मूल्य की उगाही, बरकरार है और हर हाल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद तथा निर्भर देशों के बीच की खाई तथा दूसरी ओर विकसित पूंजीवादी दोशों में सर्वहारा एवं पूंजीपति वर्ग के बीच की सामाजिक खाई और चौड़ी हुई है. इसी कारण वह शत्रुता भी बनी हुई है जो इतिहास को अग्रगति देने वाली चालक शक्ति है.

फिर भी, सर्वहारा के संघर्ष को धक्के लगे हैं, दुनिया के एक बड़े हिस्से में निर्मित समाजवाद को पीछे लौटना पड़ा है. इसीलिए मार्क्सवाद में, सर्वहारा की विजय में, आस्था जताना की काफी नहीं है. मार्क्सवाद की रक्षा उसे समृद्ध करने से ही संभव है.

मार्क्स जब अपनी पूंजी की आधार-सामग्री के बतौर ब्रिटिश पूंजीवाद का, सबसे आदर्श ढंग से विकसित हुए पूंजीवादी देश का, अध्ययन संपन्न कर रहे थे, तो उस वक्त मुक्त प्रतियोगिता का स्थान इजारेदारी लेने लगी थी. वित्तीय पूंजी की, इजारेदार पूंजीवाद की मंजिल ने देश के भीतर की प्रतियोगिता के स्थान पर विश्व बाजार के लिए पूंजीवादी देशों के बीच प्रतियोगिता को स्थापित कर दिया. और इस तरह विश्वयुद्ध और सर्वहारा क्रांति जैसी परिघटनाएं उभर कर आई जिन्होंने साम्राज्यवाद की शृंखला को उस स्थान पर तोड़ दिया, जहां वह सबसे कमजोर थी. उसके बाद अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवाद के एकल आर्थिक, सैनिक तथा राजनीतिक ब्लाक का उदय हुआ है, और एक लंबे सीतयुद्ध के बाद समाजवाद की पराजय हुई और फिर उसका ध्वंस हुआ है.

पूंजीवादी उत्पादन में वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति के चलते हो रहे संरचनात्मक बदलावों की पृष्ठभूमि में और साथ ही समाजवादी अर्थव्यवस्था की पूर्ण जड़ता की स्थिति में इन अंतरसंबंधों को देखने से समूची दुनिया के मार्क्सवादी सिद्धांतकारों के लिए अध्ययन के नए स्रोत खुल जाते हैं. कम्युनिस्टों के सामने समाजवाद के निर्माण का पचहत्तर वर्षों का अनुभव है. हर कोई अपनी गलतियों से ही सीखता है और इसीलिए, जिस अध्ययन का मैंने ऊपर जिक्र किया, वह मूलतः समाजवाद के राजनीतिक अर्थशास्त्र का ही अध्ययन होगा और उसके आयाम उतने ही व्यापक होंगे जितने व्यापक खुद पूंजी के आयाम थे.

(लिबरेशन, अक्टूबर 1991)

रणनीतिक परिप्रेक्ष्य

इंडियन पीपुल्स फ्रंट अथवा कम्युनिस्ट पार्टी? आइए, हम इसी सवाल से शुरू करें जिस पर फिलहाल हमारी पार्टी के अंदर और हमारे सर्किल के बाहर व्यापक तौर पर विवाद जारी है. हमारे कुछ कामरेड महसूस करते हैं कि जब पार्टी भूमिगत थी उस वक्त बतौर कानूनी उपकरण आईपीएफ की एक प्रासंगिकता जरूर थी. किंतु पार्टी जैसे-जैसे अधिक से अधिक खुलती गई, वैसे-वैसे एक अलग कानूनी उपकरण की आवश्यकता भी समाप्त होती गई, सीपीआई(एम) के सिद्धांतकार प्रकाश करात ने भी हमारे साथ अपने वादविवाद के क्रम में इसी प्रश्न को उठाया है. सीपीआई(एमएल) खुली पार्टी बनती जा रही है और कानूनी कार्यवाहियों की ओर बढ़ रही है, अतः इस स्थिति में जबकि यही सीपीआई(एमएल) आईपीएफ की नेतृत्वकारी और मार्गदर्शक शक्ति है तब भला उसे बनाए रखने का क्या मकसद?

हम इसके विपरीत विचार से परिचित हैं चो यह दलील देता था कि चूंकि पार्टी के सभी कार्यक्रम आईपीएफ द्वारा लागू किए जा रहे हैं इसलिए पार्टी को भंग कर देना चाहिए.

हमारी पार्टी ने हमेशा माना है कि पार्टी और आईपीएफ दोनों ही जरूरी हैं. विवाद का बिंदु है कि दोनों के कार्यभारों को कैसे विभाजित किया जाए और उन्हें कैसे मिलाया जाए.

आइए, हम इसे विस्तार से समझें. कम्युनिस्ट पार्टी होने के नाते हमारा कार्यभार है शहरी और ग्रामीण सर्वहारा को संगठित करना तथा समाजवादी क्रांति पूरी करना. लोकप्रिय शब्दों में कहूं तो पूंजी के शासन को नष्ट करना और निजी संपत्ति को सार्वजनिक संपत्ति में रूपांतरित करना. समाजवादी क्रांति की राह हर कहीं जनवादी क्रांति से होकर गुजरती है और चूंकि जनवादी क्रांति हमारे देश में अधूरी, अपूर्ण रही है, इसलिए हमें इसे पूरा करने पर सबसे ज्यादा ध्यान देना होगा. विश्व स्तर पर समाजवाद में हुए हाल के प्रतिगामी परिवर्तन इस बात के निर्माण के लिए उठाए गए जल्दबाजी भरे कदम हमें कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मुहैया कराते.

भारत में पूंजीवाद अपने आधुनिक औद्योगिक रूपों में भारी मात्रा में विकसित हुआ है तथा यह कृषि में भी उल्लेखनीय मात्रा में प्रवेश कर चुका है. श्रम का शोषण बहुत सारे मामलों में पूंजीवादी रूप अख्तियार करता ही है. यहां पूंजीवादी जनवाद की तमाम आधुनिक संस्थाएं, संविधान से लेकर वयस्क मताधिकार पर आधारित संसद और न्यायपालिका तक मौजूद हैं, इन सबको देखकर समाजवादी क्रांति का आह्वान करने के लिए बहुतों का जी आसानी से ललचा जा सकता है. किंतु यह तो सिक्के का केवल एक पहलू है.

दूसरी ओर, मध्ययुगीन अवशेष, सामंती और अर्ध-सामंती संस्थाएं, प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था, धार्मिक कट्टरपंथ, पुरानी व्यवस्था के सभी लक्षण और उस व्यवस्था के साथ गहराई से जुड़ी नौकरशाही अभी भी अत्यधिक शक्तिशाली हैं और पूंजीवादी शोषण में ये सारी चीजें सम्मिलित

हैं. पूंजीवाद वैसे तो एक विशुद्धतः जनवादी संस्था है, परंतु भारत में यह पुरातन समाज की प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ संश्रय कायम करता है.
इसके अतिरिक्त, भारतीय पूंजी की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी पर चरम निर्भरता भारतीय पूंजी की अन्य चारित्रिक विशिष्टता है.

यहां की तमाम आधुनिक पूंजीवादी संस्थाएं निचले स्तर पर मखौल बन जाती हैं. समूचा वातावरण वर्ग चेतना के विकास को गहरे तौर पर भ्रष्ट करता है और जनता के तमाम तबकों के अंदर राजनीतिक विचारों के विकास को पीछे खींचता है तथा शहरी व ग्रामीण सर्वहारा को भी संगठित करना और कम्युनिस्ट लाइन पर उनकी एकता का निर्माण करना अत्यंत मुश्किल बना देता है.

ऐसी परिस्थिति में, आम जनवादी मांगों को पहले हासिल किए बगैर और जनवादी क्रांति को पूरा किए बगैर समाजवाद के लिए कोई सच्चा संघर्ष नहीं किया जा सकता है. और, चूंकि पूंजिपति वर्ग का कोई भी हिस्सा इस जनवादी संघर्ष का संपूर्ण व सुसंगत रूप से नेतृत्व करने की स्थिति में नहीं है इसलिए इसका नेतृत्व करना सर्वहारा और उसकी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी का ऐतिहासिक कर्तव्य हो जाता है. इस संघर्ष के जरिए, जो काफी दीर्घकालिक होता है, कम्युनिस्ट पार्टी सिर्फ समाजवाद के लिए निर्णायक परिस्थिति तैयार करती है और उसे सुगम बनाती है.

रूस में जो कि सर्वाधिक पिछड़ा यूरोपीय देश था और मोटे तौर पर कहा जाए तो अर्ध-सामंती था, लेनिन ने बार-बार इस बात पर जोर देते हुए मजदूरों व किसानों के क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व की अवधारणा को सूत्रबद्ध किया था. इस लेनिनवादी विचार को माओ त्सेतुंग ने चीन में, जो कि अर्ध-सामंती होने के साथ-साथ अर्ध-औपनिवेशिक भी था, व्यवहार में मूर्त रूप प्रदान किया. वे चार वर्गो, अर्थात मजदूरों, किसानों, निम्न पूंजीपतियों और राष्ट्रीय पूंजीपतियों के अधिनायकत्व की अवधारणा को समाने लाये और इसे उन्होंने नव जनवाद कहा था.

हमने ऊपर जिन बातों की चर्चा की है, उससे दो चीजें स्पष्टतया सामने आती हैं. पहले तो हमें एक स्वतंत्र और सुसंगत उसूलों पर आधारित कम्युनिस्ट पार्टी की आवश्यकता है जो कि समाजवाद की विजय के लिए न केवल एकमात्र शर्त है, बल्कि खुद जनवादी क्रांति की निर्णायक विजय के लिए भी अनिवार्य है.

दूसरे, हम जनवाद के महत्व को कभी न भूलें. हमें चाहिए कि हम अन्य किसी चीज से ज्यादा जनवाद के झंडे को बुलंद करें. हमें चाहिए कि हम निरंकुश व्यवस्था के विरुद्ध, तमाम सामंती और अर्ध-सामंती संस्थाओं के विरुद्ध, प्रतिक्रियावादी जाति व्यवस्था और धार्मिक कट्टरपंथ इत्यादि के विरुद्ध, संक्षेप में, पुरानी व्यवस्था के विरुद्ध तमाम क्रांतिकारी जनवादी शक्तियों के साथ एकता कायम करने का सदैव कठोर प्रयत्न करें.

क्रांतिकारी जनवादी शक्तियों से हमारा तात्पर्य उन शक्तियों से है जिनकी वर्ग चेतना कम्युनिस्टों जैसी नहीं होती, लेकिन जो कम्युनिस्ट पार्टी के जनवादी कार्यक्रम को स्वीकार करती हैं और क्रांतिकारी कार्यवाहियों में दृढ़ और सक्रिय होती हैं. ये शक्तियां विविध चरित्र की होती हैं और समाजवाद एवं कम्युनिस्ट की ओर रूपांतरण के विभिन्न स्तरों में होती हैं. शुरूआत में वे ढेर सारे गैर-पार्टी रूपों में प्रकट होती हैं, अथवा किन्हीं राजनीतिक पार्टियों के अंदर दबाव ग्रुपों का कार्य करती हैं. उनमें क्रांतिकारी जनवादी बनने की संभावना रहती है. यह कोई जरूरी नहीं कि वे कम्युनिस्ट पार्टी के जनवादी कार्यक्रम को औपचारिक तौर पर स्वीकार करें ही, उनके साथ किया गया समझौता अलिखित जुझारू समझौता हो सकता है. ऐसी शक्तियों को पहचानना, क्रांतिकारी जनवादी के रूप में उनके विकास में मददगार होना और उनके साथ जुझारू एकता का निर्माण करना हमारा कर्तव्य हो जाता है.

आईपीएफ हमारी पार्टी के इसी प्रयत्न का प्रतीक है. इसके अलावा, आईपीएफ महज हमारी पार्टी द्वारा यांत्रिक तौर पर बनाया गया कोई संगठन नहीं है, बल्कि वह शक्तिशाली जनवादी आंदोलनों के क्रम में पैदा हुआ और उसने अपना विशिष्ट चरित्र ग्रहण किया.

हमारे यहां की ठोस स्थितियों में, क्रांतिकारी जनवादी तत्वों द्वारा अलग से संगठित जनवादी पार्टी विकसित करने के सारे प्रयत्न अब तक सफल नहीं हुए, हमलोगों ने स्वामी अग्निवेश द्वारा गैर-पार्टी राजनीतिक संगठन के प्रयोगों, किसान संगठनों के राष्ट्रीय कोअर्डिनेशन के उदय और यहां तक कि डीपीएफ को भी बारीक नजर से परखा है. इनमें से कोई भी ऐसी स्वतंत्र जनवादी पार्टी नहीं बन सका जिसके साथ हम कोई लड़ाकू समझौता कर सकें. वे क्रांतिकारी जनवाद और उदारवादी जनवाद के बीच डोलते-डोलते ठोस राजनीतिक स्थितियों में अंततः जनता दल के विभिन्न गुटों में शामिल हो गए. क्रांतिकारी तत्वों की एक बड़ी संख्या जरूर आईपीएफ की ओर मुड़ी और आईपीएफ, कम्युनिस्ट पार्टी तथा ऐसे गैर-पार्टी जनवादी तत्वों, जो विभिन्न राजनीतिक धाराओं से टूट-टूटकर आए थे, का साझा मोर्चा बन गया. हमारा दृढ़ मत है कि अगर आईपीएफ अपने कार्यक्रम पर डटा रहा और ऐसी ही गतिविधियां चलाता रहा तो बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में विभिन्न पार्टियां से, खासकर जनता दल से जनवादियों की नई-नई धाराएं इसकी कतारों में शामिल होंगी. बाद की मंजिलों में आईपीएफ को अपने नारों को पुनर्परिभाषित करना होगा, अधिक लचीला रुख अपनाना होगा और अपने सामाजिक आधार को व्यापक बनाने के लिए अपने कार्यक्रम और ढांचे में आवश्यक समायोजन करने होंगे. ये सब इसकी विकास प्रक्रिया में अत्यंत स्वाभाविक बातें हैं किंतु निस्संदेह, इसका भविष्य उज्ज्वल है.

दो कार्यनीतियों के बीच संघर्ष

शुरू में ही हम यह स्पष्ट कर दे रहे हैं कि नक्सलवाद न तो कोई विशिष्ट प्रवृत्ति है और न ही हम उसे ऐसा बनाने का इरादा रखते हैं. सारा का सारा पूंजीवादी प्रचार और सीपीआई(एम) का प्रचारतंत्र भी नक्सलवाद को कुछ विशिष्ट, भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की मुख्यधारा से कुछ जुदा, कुछ ‘नव-वाम’ के चरित्र वाली धारा के रूप में चित्रित करते हैं. चूंकि नक्सलवाद 1970 के दशक में एक लोकप्रिय क्रांतिकारी आंदोलन के रूप में विकसित हुआ, अतः जाहिर है कि विभिन्न निम्न-पूंजीवादी क्रांतिकारी प्रवृत्तियां इससे जुड़ीं और उनमें से कुछ ने तो इसे एक विशिष्ट, ‘नव वाम’ प्रवृत्ति में रूपांतरित करने का प्रयत्न भी किया. धक्कों का एक दौर और बीसियों टूट-फूट के बाद अंततः निम्न-पूंजीवादी प्रवृत्तियां अलग हो गईं और बाद में उन्होंने अराजकतावादियों के रूप में ठोस शक्ल ग्रहण की, जबकि इस आंदोलन के मुख्य हिस्से ने कम्युनिस्ट आंदोलन की क्रांतिकारी शाखा के बतौर पुनः अपनी पहचान स्थापित की. तमाम देशों में कम्युनिस्ट आंदोलन, कम-से-कम क्रांति संपन्न होने तक, हमेशा क्रांतिकारी और अवसरवादी शाखाओं में विभाजित हो जाते हैं. भारत कोई अपवाद नहीं है.

हमारे नेतृत्व की समूची पहली पीढ़ी आम तौर पर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन और खास तौर पर सीपीआई(एम) के अंदर की दो कार्यनीतिक लाइनों के बीच चले दीर्घकालिक संघर्ष से उभरी थी. हमारी पार्टी के संस्थापक कामरेड चारु मजुमदार ने बारंबार यह निर्दिष्ट किया है कि हम उसी कम्युनिस्ट पार्टी के उत्तराधिकारी हैं जिसकी पताका तले कम्युनिस्टों ने पुन्नप्रा-वायलार, तेभागा और तेलंगाना की बहादुराना लड़ाइयां लड़ीं और शहादत दी.

‘नव वाम’ कहकर हमें कितना भी खारिज किया जाए, हम भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की अवसरवादी शाखा, जिसका प्रतिनिधि सीपीआई (एम) है, के बरखिलाफ कम्युनिस्ट आंदोलन की क्रांतिकारी शाका थे, हैं, और हमेशा रहेंगे.

कुछ व्यक्तियों ने जरूर हमारा साथ छोड़ा है और भविष्य में भी हम ऐसी संभावनाओं से इनकार नहीं कर सकते. लेकिन हम जिस प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसे कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के लगभग सत्तर वर्षों के इतिहास में अपनी जड़ें गहराई से जमा रखी हैं और क्रांतिकारी समाधान की मांग कर रही वस्तुगत परिस्थितियों से उसे और भी बल मिल रहा है.

आइए, मुख्य विषय की ओर चला जाए. सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन तीन तत्वों से मिलकर बनी है जिन्हें पार्टी का नेतृत्व सार-संग्रहवादी ढंग से एक करने का प्रयत्न करता है.

पहला, यह पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार को देश का सर्वाधिक विकसित वामपंथी निर्मित (फारमेशन) मानता है और इस मॉडल के निर्माण और स्थायित्व को अपनी मुख्य उपलब्धि मानता है.

दूसरे, यह कांग्रेस(आइ) की वापसी के खिलाफ लड़ने और भाजपा की सांप्रदायिक चुनौती का मुकाबला करने के लिए वाम और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों अर्थात् जनता दल और नेशनल फ्रंट की व्यापक एकता को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है.

तीसरे, यह राष्ट्रीय एकता की रक्षा करना वामपंथ का प्राथमिक कार्यभार मानता है और इस बहाने यहा इंका और भाजपा के साथ भी औपचारिक अथवा अनौपचारिक संश्रयों में शामिल होता है.

सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन का किस प्रकार मूल्यांकन किया जाए? मुख्य उपलब्धि के आधार पर, सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर या प्राथमिक कार्यभार के आधार पर? आइए इसके लिए श्रीमान प्रकाश करात से सहायता ली जाए. वे कहते हैं, “सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन का मूल्यांकन इन आधार पर किया जाना चाहिए कि वह मौजूदा मोड़ पर एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष मंच पर पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों को गोलबंद करने में सफल है या नहीं, जो विपक्ष में फूट डालने की कांग्रेस(आइ) की चालबाजियों का मुकाबला करने और भाजपा-विश्व हिंदू परिषद के पीछे हो रही सांप्रदायिक गोलबंदी के गंभीर खरते से संघर्ष करने के लिए राजनीतिक संयोजन बनाने में मदद कर सकती है.” प्रकाश ने इसे अक्तूबर 1990 के पहले लिखा है और हम यहां तब से इसे मिली ‘सफलता’ अथवा ‘विफलता’ पर चर्चा करने की लालच से बचेंगे क्योंकि यह हमारे इस लेख के दायरे के बाहर पड़ता है.

सरल शब्दों में कहा जाए तो प्रकाश कहते हैं, और सीपीआई (एम) को यकीन है कि मौजूदा घड़ी में वामपंथ की मुख्य कार्यनीति है भाजपा के सांप्रदायिक खतरे से संघर्ष करने के लिए पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों पर दबाव ‘पैदा करना’. अगर मंच मूलतः एक धर्मनिरपेक्ष मंच है और पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों को मूलतः धर्मनिरपेक्ष शक्तियां माना जाए तो स्पष्टतः समूची गोलबंदी सांप्रदायिकता की प्रतिनिधि भाजपा के विरुद्ध दिशाबद्ध हो जाती है. चूंकि कांग्रेस(आइ) को सांप्रदायिक पार्टी नहीं माना जाता है अतः इस कार्यनीति का तार्किक विस्तार होगा समूची कांग्रेस(आइ) अथवा इसके किसी शक्तिशाली हिस्से को शामिल करके धर्मनिरपेक्ष मंच को और अधिक व्यापक बनाना.

इस खास घड़ी में, राजनीतिक परिस्थितियों से मजबूर होकर वे ठीक यही कर रहे हैं. समूची कार्यनीति इस रणनीतिक समझ से निकलती है कि चूंकि भारत पूंजीवादी जनवादी क्रांति के दौर में है लिहाजा इन पुरानी कट्टरपंथी और पुरातनपंथी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष में पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों को स्वभावतः नेतृत्व करना होगा. मौजूदा घड़ी में वामपंथ कमजोर है और कमजोर रहना ही उसकी नियति है. वह हद से हद पूंजीवादी विपक्ष पर आगे बढ़ने के लिए दबाव ही डाल सकता है. महत्वपूर्ण हिंदी हृदयस्थली में पार्टी केवल जनता दल की दुम पकड़कर वैतरणी पार करने की कल्पना करती है और यही उसने आंध्र में तेलुगू देशम और तमिलनाडु में द्रमुक के साथ किया है. इस प्रकार इसकी तकदीर पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा के सिवा, जहां नाम के वास्ते भी पूंजीवादी विपक्ष नहीं है, शेष भारत में पूंजीवादी विपक्ष के उत्थान और पतन से बंध गई है. कम्युनिस्ट आंदोलन के इन पारंपरिक गढ़ों का निर्माण वामपंथ की स्वतंत्र दावेदारी और दसियों साल के शक्तिशाली जन आंदोलनों के दौरान हुआ था.

सीपीआई(एम) और उसका छोटा भाई सीपीआई रात दिन हमें गालियां दे रहे हैं कि हम कांग्रेस(आइ) और भाजपा के खतरे को कम करके आंक रहे हैं. सच तो यह है कि सीपीआई(एमएल) अपने समूचे इतिहास में भाजपा अथवा कांग्रेस(आइ) के साथ किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समझौता में नहीं गई. इसका ‘सेहरा’ हमारे मित्रों सीपीआई और सीपीआई(एम) के सिर ही बंधा है, और इसी कारण उन्हें ठीक ही ‘अवसरवादी’ कहा जाता है. इस खतरे को कम करके आंकने का हम पर दोषारोपण करने की उनकी समूची कसरत का मकसद है जनता दल के पीछे घिसटने की अपनी कार्यनीति को जायज ठहराना. इसी प्रकार हम पर राष्ट्रीय एकता के खतरे को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया जाता है. यह फिर कांग्रेस(आइ) और भाजपा के साथ अपने समझौते को तर्कसंगत करार देने की उनकी कलाबाजी है. हम पर एक और आरोप लगाया जाता है कि हम रंगबिरंगी पूंजीवादी पार्टियों के बीच कोई फर्क नहीं करते और उन सबों को एक जैसा प्रतिक्रियावादी झुंड मानते हैं. ये सारे आरोप कुत्सापूर्ण हैं और इनका मकसद उनके अपने दुमछल्लेपन पर परदा डालना है.

हमारे एकमात्र सांसद ने नवंबर 1989 में वीपी सरकार के विश्वास मत का बहिष्कार किया था, ठीक इसी कारण से कि वह सरकार भाजपाई समर्थन पर टिकी थी. जब कांग्रेस(आइ) और भाजपा के गठजोड़ द्वारा खतरा उत्पन्न हुआ तो हमारे सदस्य ने सरकार के पक्ष में मतदान किया था. और ऐसा उसूली आधार पर किया था, किसी दबाव के चलते नहीं, जैसा कि प्रकाश आरोप लगाते हैं. वर्तमान संसद में भी हमारे एकमात्र सांसद ने कांग्रेस(आइ) की सरकार के विश्वास मत के विरोध में ही मतदान किया है.

हम पूंजीवादी पार्टियों के बीच तो फर्क करते ही हैं और इसी कारण हमने इंका और भाजपा के विरुद्ध जनता दल जैसी पार्टियों के साथ संयुक्त संघर्ष में भाग लिया है.

मुख्य बात यह है कि हम पूंजीवादी शक्तियों के बीच एक और फर्क करते हैं – उदारवादी और क्रांतिकारी जनवाद के रूप में. हम क्रांतिकारी जनवादी शक्तियों को तमाम उदारवादी भ्रमों से मुक्त करने और उन्हें क्रांतिकारी पक्ष में जीत लेने का कठोर प्रयास करते हैं. क्रांतिकारी और अवसरवादी कार्यनीतिक लाइनों के बीच, स्वतंत्र वाम अग्रगति की नीति तथा धर्मनिरपेक्ष मंच पर पूंजीवादी विपक्षी पार्टियों की तथाकथित गोलबंदी के बीच और जनवादी क्रांति पर सर्वहारा के प्रभुत्व की स्थापना के कठोर प्रयासों तथा पूंजीवादी विपक्ष के पीछे घिसटने के बीच का यही मूलभूत फर्क है. इन दोनों लाइनों के बीच का संघर्ष भारतीय क्रांति के निष्कर्ष का निर्धारण करेगा और स्पष्टतः हिंदी हृदयस्थली इस विवाद के हल के लिए आदर्श जमीन है. आइए, हम राजनीतिक कार्यनीतियों के बीच के इस विवाद का निचोड़ लेनिन के उस वक्तव्य के साथ निकालें जो उन्होंने दो कार्यनीतियों के बारे में कहा है.

“... कुल मिलाकर मेन्शेविकवाद की मुख्य भ्रांति इस बात में निहित थी कि उन्होंने यह नहीं समझा कि पूंजीपति वर्ग के कौन तत्व सर्वहारा के साथ मिलकर रूस में पूंजीवादी जनवादी क्रांति को अंत तक ले जाएंगे. मेन्शेविक आज भी यह सोचकर भटक जाते हैं कि पूंजीवादी क्रांति अनिवार्यतः पूंजीपतियों द्वारा (आम पूंजीपति वर्ग द्वारा, अब उनका “रंग” चाहे जो हो!) संपन्न की जाएगी, जबकि सर्वहारा का कार्य है उसकी मदद करना. मेन्शेविकों का दावा है, और आज भी वे दावा करते हैं कि सर्वहारा पूंजीवादी जनवादी क्रांति के दौर में (क्रांति की विजयपूर्ण समाप्ति तक) अपने एकमात्र दृढ़ और भरोसेमंद मित्र के रूप मे किसानों को ही पा सकता है. किसान भी “पूंजीवादी-जनवादी” हैं, किंतु कैडेटों और अक्टूबरवादियों से पूर्णतया भिन्न “रंग” के. ये “पूंजीवादी-जनवादी” किसान जमींदारों की सत्ता और उससे जुड़े पुराने राज्य-प्राधिकार के मूलाधार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए बाध्य हैं.  ... लिहाजा अपनी प्रवृत्तियों में, जो इस बात से निर्धारित होती हैं कि वे क्या करने के लिए बाध्य हैं, ये पूंजीवादी जनवादी, क्रांतिकारी जनवादी हैं.” (सामाजिक जनवादी कार्यनीति के बारे में का. प्लेखानोव क्या तर्क पेश करते हैं )

हमारी कतारों में किसी पूंजीवादी पार्टी के साथ किसी प्रकार के संश्रय का विरोध यह तर्क देते हुए किया जाता है कि बतौर कम्युनिस्ट हमारा बुनियादी कर्तव्य तमाम पूंजीवादी पार्टियों का भंडाफोड़ करना है और तब हम उनमें से किसी के साथ, यहां तक  सामयिक संश्रय भी, भला कैसे कायम कर सकते हैं. हमें पुनः लेनिन को उद्धृत करने दीजिए, “तमाम पूंजीवादी पार्टियों का भंडाफोड़ करना सभी देशों में और हर समय समाजवादियों का कर्तव्य होता है. .., पूंजीवादी क्रांति के दौर में ही ‘तमाम पूंजीवादी पार्टियों का भंडाफोड़ करो’ कहने का मतलब कुछ नहीं कहना है, और वस्तुतः वह कहना है जो सच नहीं होता; क्योंकि पूंजीवादी पार्टियों का गंभीरतापूर्वक और पूरी तरह केवल तभी भंडाफोड़ किया जा सकता है, जब कोई खास पूंजीवादी पार्टी इतिहास के अग्रभाग पर चली आती है.” (सामाजिक जनवादी कार्यनीति के बारे में का. प्लेखानोव क्या तर्क पेश करते हैं?)

उदार जनवादी पार्टियों के बारे में हमारी कार्यनीति

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सोशलिस्ट प्रवृत्ति की ऐतिहासिक तौर पर सशक्त उपस्थिति रही थी. कालक्रम में और अनेक राजनीतिक धाराओं के साथ मिलन की एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया के चलते वह आज जनता दल के रूप में है और किसान जातियों के बीच उसका उल्लेखनीय प्रभाव है. वह अपनी उदघोषणाओं में उदार जनवादी मूल्यों को बुलंद करती हैं और जनवादी बुद्धिजीवियों का एक विशाल हिस्सा तथा हाल ही में मुस्लिम अल्पसंख्यक भी इसके प्रभाव में आ गये हैं. यह सब इसके साथ हमारी परस्पर क्रिया को अनिवार्य बना देता है. लेनिन ने कहा है, “केवल वे लोग, जिन्हें अपने पर भरोसा नहीं है, गैर-भरोसेमंद लोगों के साथ भी अस्थाई संश्रय में जाने से डर सकते हैं; किसी भी राजनीतिक पार्टी का अस्तित्व ऐसे संश्रयों के बिना नहीं रह सकता.”

बेशक, संश्रय कायम करने के दो तरीके हैं. एक है सीपीआई-सीपीआई(एम) का अवसरवादी तरीका, जो उदारपंथ और जनवाद का कोई वर्गीय विश्लेषण नहीं पेश करता है. चाहे वह पुराने दिनों में कांग्रेस के ‘समाजवादी’ नारे हों अथवा मुलायम सिंह यादव की भारी-भरकम धर्म-निरपेक्ष लफ्फाजी, या फिर वीपी सिंह-लालू गठजोड़ का ‘सामाजिक न्याय’ हो, अवसरवादी लोग सबों की प्रशंसा सातवें आसमान तक करते हैं. यह रुख पूंजीवादी राजनीतिज्ञ की भलमनसाहत, दयालुता तथा सुन्दर घोषणाओं और उत्तम नारों पर आधारित होता है.

क्रांतिकारी तरीका न तो पूंजीवादी राजनीतिज्ञों की साख पर आधारित होता है और न ही उनसे इस बात की उम्मीद रखता है कि वे अपनी लफ्फाजी और धूर्तता को छोड़ देंगे, जो उनकी वास्तविक आत्मा होती है. वह उदारपंथ और जनवाद के वर्ग-विश्लेषण पर आधारित होता है, इस बात की पहचान करता है कि वस्तुगत तौर पर किस हद तक कोई विशेष पूंजीवादी नेता अथवा पार्टी उसके साथ चल सकती है और उनसे वास्तविक जमीन पर सहयोग की तलाश करता है. और, भले व दयावान पूंजीपति का, जिसके साथ समझौता किए जा सकते हों, मानदंड तय करने के बजाय, जैसा कि लेनिन ने कहा है, “ किसी का भी, यहां तक की सबसे बुरे पूंजीपति का भी,  जिस हद तक वह निरंकुशता  के खिलाफ वास्तव में संघर्ष करता है, उस हद तक समर्थन करता है.” उन्होंने आगे कहा है, “सर्वहारा के स्वतंत्र सामाजिक क्रांतिकारी उद्देश्यों को हासिल करने के लिए ऐसा समर्थन आवश्यक है.” ( मजदूरवर्ग और पूंजीवादी जनवाद).

केंद्र में जनता दल के शासन के ग्यारह महीनों के दौरान हमने संसद में केवल वाम विपक्ष की भूमिका निभाई और यही भूमिका हम आज बिहार एवं असम विधान सभाओं और संसद में निभा रहे हैं. मंडल कमीशन की सिफारिशों से संबंधित अभियान में हमने बिहार में हर प्रकार के उन्माद के बावजूद, और यहां तक कि जब जनवादी शक्तियों की बहुसंख्या जनता दल द्वारा फैलाए गए ‘सामाजिक न्याय’ के उदारपंथी भ्रमों से घिर गई थी, हमने जनता दल की इस मंडली में शामिल होने से इनकार कर दिया और क्रांतिकारी जनवाद की स्वतंत्र पताका को बुलंद किया. हमने जनता दल की मंडलीकृत राजनीति का बिना शर्त और बिना आलोचना समर्थन करने से इनकार कर दिया और उसके सीमित वर्ग-उद्देश्यों, ‘रोजगार के अधिकार’ के प्रति उसकी गद्दारी और जनसमुदाय के सर्वाधिक उत्पीड़ित हिस्सों के प्रति अपनी छत्रछाया में किए गए उसके सामाजिक अन्याय का भंडाफोड़ किया.

अगर 1989 के चुनावों में मुस्लिम अल्पसंख्यकों का कांग्रेस(आइ) के प्रभाव से निकल जाना और अपने को वाम पार्टियों और जनता दल के साथ जोड़ लेना मुस्लिम राजनीति के धर्मनिरपेक्ष होने का एक संदेह-रहित संकेत था, तो 1991 में, इसके विपरीत, मुस्लिम कट्टरपंथी शक्तियों के साथ जनता दल के नेताओं द्वारा एक अपवित्र गठबंधन कायम किये जाने से मुस्लिम जनसमुदाय पर कट्टरपंथियों की पकड़ ही मजबूत हुई है. वाम और जनवादी खेमे में केवल हम लोगों ने ही, यहां तक कि अलगाव में पड़ जाने के खतरे उठाकर भी, जनता दल के इस घिनौने चेहरे का भंडाफोड़ किया.

मैं जिस बात पर जोर देना चाहता हूं, वह यह है कि है कि हमारी पार्टी ने क्रांतिकारी जनवाद की पताका को झुकने नहीं दिया और सीपीआई के विपरीत, महज जनता दल की मदद से संसदीय सीटें पाने की एवज में अपनी दृढ़ उसूली स्थिति को कुर्बान करने से इनकार कर दिया.

बहरहाल, परिस्थिति में एक मौलिक परिवर्तन हो चुका है. कांग्रेस केंद्रीय सत्ता में वापस आ चुकी है, भाजपा ने अपनी स्थिति और सुदृढ़ कर ली है तथा जनता दल अपनी परंपरागत विपक्षी भूमिका में लौट आया है और अपने गढ़ों में वापस आ गया है. अब हमें कांग्रेस और भाजपा के विरुद्ध इसके साथ संयुक्त कार्यवाहियों की संभावनाओं की तलाश करनी है.

यह बात हमें दिमाग में बैठा लेनी चाहिए कि जनता दल एक पंचमेल घटकों वाली पार्टी है और उसके अंदर विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियां और गुट मौजूद हैं. हम इसके साथ चाहे जो भी संयुक्त कार्यवाहियां और सामाजिक संश्रय विकसित करें, हमारा बुनियादी उद्देश्य होगा उसे विभाजित करना और उसके अंदर क्रांतिकारी जनवाद के प्रति झुकाव रखने वाले गुटों और तत्वों के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित करना.

दलितों और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के आंदोलनों के प्रति हमारी कार्यनीति

भारत के विभिन्न राज्यों और अंचलों में विभिन्न प्रकार की राजनीतिक शक्तियों का उदय हुआ है और हमें उनके प्रति अपना विशिष्ट रुख तय करना होगा.

मिसाल के तौर पर, बीएसपी ने, जो दलितों के हितों का दम भरने वाली पार्टी है, उत्तर प्रदेश में स्थाई आधार बना लिया है, इसका नेतृत्व घोर वामपंथ-विरोधी और राजनीतिक तौर पर धुर अवसरवादी है तथा वह प्राथमिक तौर पर दलित नौकरशही के हितों का प्रतिनिधित्व करता है. व्यापक दलित जनसमुदाय के लिए, जो कि दलित होने के साथ-साथ गरीब-भूमिहीन किसान भी हैं, इसके पास उन्हें देने के लिए ठोस कुछ नहीं है. तथापि उनसे उस दलित जनसमुदाय की आकांक्षा और उग्रता को जगा दिया है जिसमें क्रांतिकारी जनवादी दिशा ग्रहण करने की तमाम क्षमताएं निहित हैं. लिहाजा, हमें बीएसपी के प्रति अपनी कार्यनीतियों को संशोधित करना चाहिए, उसके साथ-साथ खास मुद्दों पर सामयिक संश्रय कायम करने की संभावनाओं का पता लगाना चाहिए और इस प्रक्रिया में सकारात्मक हिस्सों को प्रभावित करना और उन्हें जीत लेना चाहिए.

तमिलनाडु में पीएमके के प्रति भी हम ऐसा ही रुख अख्तियार कर सकते हैं. हालांकि इसका स्तर दलित-विरोधी है, तथापि यह पिछड़ी जातियों की नई गोलबंदी का संकेत देता है और परंपरागत द्रविड़ पार्टियों से अलग पहचान रखता है.

कार्बि-आंगलांग में, हालांकि अत्यंत छोटे स्तर पर, जनजातीय स्वायत्तता के प्रश्न को समाज के आर्थिक और सामाजिक रूपांतरण के साथ समन्वित करने के हमारे अनुभव यहां विस्तार से चर्चा करने लायक हैं.

आटोनामस स्टेट डिमांड कमेटी (एएसडीसी), जो उसी राष्ट्रीयता के बीच से उभरे कम्युनिस्टों और राष्ट्रीयता आंदोलन के जनवादी तत्वों का मुश्तरका मोर्चा है, लोकप्रिय जन आंदोलन के बीच से उभरा है. आंदोलन का निशाना था कांग्रेस नियंत्रित जिला परिषद् का भ्रष्ट शासन, संयोगवश कांग्रेस भी वहां स्वायत्त राज्य की पक्षधरता का दम भरती है. आंदोलन के अंदर प्रारंभ से ही वर्ग संघर्ष का तत्व, प्राथमिक तौर पर कांग्रेस के संरक्षण में पल रहे महाजनों, जमींदारों और प्रतिक्रियावादी तत्वों के विरुद्ध, भूमिहीन, गरीब और मध्यम किसानों की व्यापक बहुसंख्या के संघर्ष का तत्व मौजूद था. प्रतिक्रियावादी तत्व भी अधिकांश मामलों में उसी राष्ट्रीयता के थे. आंदोलन का नेतृत्व कम्युनिस्ट तत्वों के हाथों में था जिन्होंने अपनी कम्युनिस्ट शिक्षा मार्क्सवादी-लेनिनवादी आंदोलन के सामग्रिक प्रभाव तले पाई थी जिसे उन्होंने बाद में कार्बी आंदोलन में रूपांतरित किया, न कि इसके विपरीत. जिला परिषदों के चुनाव शक्तिशाली और जुझारू जन आंदोलनों की धधकती ज्वाला के बीच जीते गए, जहां कि प्रतिक्रियावादी तत्वों पर विजय पहले सामाजिक क्षेत्र में हासिल की जा चुकी थी. तबसे जन-कार्य को गहराई में ले जाने, जनवादी मुल्यों को विस्तारित करने और वर्ग संघर्ष को तीखा करने के प्रयत्न किए गए हैं. अंधराष्ट्रवादी स्वरों से रहित एएसडीसी ने अन्य राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों पर भी अपना प्रभाव फैलाया है, बिहारियों के अंदर एक ध्रुवीकरण पैदा किया है और वह उस क्षेत्र के बंगाली और असमिया जनसमुदाय के कुछ हिस्सों का भी समर्थन पा रही है.

पार्टी की कार्यनीति, एएसडीसी को असम और उत्तर-पूर्व की अन्य जनजातियों के स्वायत्तता आंदोलनों को क्रांतिकारी जनवादी दिशा प्रदान करने के लिए तथा खुद असमिया समाज के जनवादी रूपांतरण के लिए लांचिंग पैड के बतौर काम में लाने की है. केवल जिला परिषद् तक सीमाबद्ध रहने के बजाए एएसडीसी की यह पूर्ण राजनीतिक भूमिका और जनसमुयाद के अन्य हिस्सों और अंचलों पर इसका लगातार बढ़ता प्रभाव इसे एक विशिष्ट चेहरा प्रदान करता है.

कार्बी-आंगलांग के अनुभवों की रोशनी में स्वभावतः यह सवाल खड़ा होता है कि हमें क्या झारखंड आंदोलन, उत्तराखंड आंदोलन और ऐसे अन्य आंदोलनों के प्रति अपनी कार्यनीति का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए?

जब कामरेड एके राय ने कहा था कि जनजातियों का राज्य झारखंड, जिसके समाज के अंदर आदिम कम्युनिस्ट के गुण मौजूद हैं, स्वतः लालखंड में रूपांतरित हो जाएगा, तो वे गलती कर रहे थे. इस प्रक्रिया में वे शिबू सौरेन के रूप में केवल एक आदिम बुर्जुआ को ही जन्म दे सके.

मुख्य बात है झारखंड आंदोलन को लालखंड में रूपांतरित करना और यह केवल झारखंडी समाज में वर्ग संघर्ष के तत्वों को विकसित करके तथा झारखंड मुक्ति मोर्चा के अंदर के प्रतिक्रियावादी तत्वों के विरुद्ध जनवादी तत्वों की एकता कायम करके ही किया जा सकता है. केवल एक शक्तिशाली कम्युनिस्ट पार्टी, जिसके पास झारखंडियों के बीच से उभरा एक शक्तिशाली कम्युनिस्ट ग्रुप हो, इस कार्यनीति को सफलतापूर्वक अंजाम दे सकती है.
खुद झारखंड मुक्ति मोर्चा झारखंड राज्य की अपनी मांग को केवल बिहार के जिलों तक और फिर बिहार के अंदर किसी किस्म के स्वायत्त क्षेत्र तक सीमित करता रहा है. वह राजनीतिक शक्तियों के प्रति और झारखंडी समाज के अंतरविरोधों के प्रति भिन्न-भिन्न रुख रखनेवाले शक्तिशाली हिस्सों में विभाजित हैं. इस इलाके में हमारी पार्टी का प्रभाव भी बढ़ता जा रहा है और अब हम सक्रिय हस्तक्षेप की नीति अपनाने के लिए बेहतर स्थिति में हैं. किंतु यह नीति झारखंड मुक्ति मोर्चा अथवा उसके अंदर के गुटों के साथ सामयिक संश्रय कायम करने से इनकार नहीं करती है.

उत्तराखंड में भी जहां भाजपा ने अपनी स्थिति भारी पैमाने पर सुधार ली है, हमें उसके विकास को रोकने के लिए अलग राज्य की मांग की सक्रियतापूर्वक पेश करके अपनी कार्यनीति संशोधित कर लेनी चाहिए.

स्थानीय और राज्य स्तरों पर सरकार बनाने की कार्यनीति

मार्क्स ने कहा था कि हमें एक सरकारी पार्टी नहीं, बल्कि भविष्य की विपक्षी पार्टी का निर्माण करना चाहिए. हम दृढ़तापूर्वक इस उसूली स्थिति पर डटे हुए हैं. तथापि भारतीय परिस्थितियों में स्थानीय स्तरों पर और यहां तक कि राज्य के स्तरों पर भी चुनावों में बहुमत पाकर अन्य जनवादी शक्तियों के सहयोग से कम्युनिस्टों के लिए सरकार बनाने के अवसर भी आते हैं. अपनी कार्यनीतिक लाइन में हमने इस कार्यनीति को नकारा नहीं है और अपवादस्वरूप ही सही, इसे विचारणीय तौर पर रखा है. तथापि इस कार्यनीति को जन आंदोलनों को व्यापकतर बनाने और ऊंचा उठाने का माध्यम बनाना होगा.

सीपीआई(एम) की कार्यनीतिक लाइन में यह कार्यनीति जन आंदोलनों के स्तर को ऊंचा उठाने के वास्ते शक्ति-संतुलन में बदलाव लाने के लिए और उसके अपने प्रभाव को अखिल भारतीय स्तर पर विस्तारित करने की खातिर, बुनियादी महत्व की है. वे पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में सरकार बनाने में सफल भी हुए हैं. पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार लगातार चौदह वर्षों से अधिक समय से चल रही है. यह एक प्रकार का रिकार्ड है और दूसरे रूपों में कहें तो खुद अपने-आप में एक भारी उपलब्धि भी, मगर विड़ंबना यह है कि इसने पार्टी के लिए एक गंभीर सैद्धांतिक संकट भी उत्पन्न कर दिया है.

सीपीआई(एम) की उदघोषणाओं और उम्मीदों के विपरीत, उसकी सर्वाधिक विकसित वाम संरचना पड़ोस के राज्यों पर भी कोई असर डालने में बुरी तरह असफल रही है. अखिल भारतीय स्तर की बात तो छोड़ ही दीजिए. बंगाल में इसकी प्रत्येक विजय इसकी अखिल भारतीय प्रासंगिकता को और अधिक घटाती नजर आती है और इसे अधिकाधिक केवल बंगाल की परिघटना बनाती जा रही है.

हिंदी भाषी क्षेत्र में, यह केवल जनता दल के मित्र के रूप में, उसी के नारों की तोतारटंत करते हुए फैलना चाहती है. वाम मोर्चा सरकार अपनी जिस एकमात्र उपलब्धि को उछाल रही है वह है सांप्रदायिक शक्तियों को नियंत्रित रखना. किंतु भाजपा द्वारा बंगाल में अपनी शक्तिशाली उपस्थिति दर्ज कराने से इस प्रचार को भी धक्का लगा है.

सीपीआई(एम) के सिद्धांतकार पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की उपलब्धियों के विषय में डींग हांका करते हैं, किंतु अपनी ही कार्यनीतिक लाइन के अनुसार लांचिंग पैड के बतौर सर्वाधिक विकसित वाम संरचना की वांछित भूमिका के बारे में चुप्पी साध लेते हैं.

उनकी दुर्दशा उस स्थिति से मिलती-जुलती है जिसका वर्णन एंगेल्स ने ‘जर्मनी में किसान युद्ध’ में किया है, “किसी चरम पार्टी के नेता के लिए सबसे बड़ी विपदा होती है एक ऐसे युग में सरकार अपने हाथों में ले लेना, जब उस प्रभुत्व के लिए आवश्यक साधनों को प्राप्त करने के वास्ते अभी आंदोलन परिपक्व न हुआ हो.”

एंगेल्स के अनुसार, चरम पार्टी के नेता को ऐसी स्थिति में “पराए वर्ग के हितों को आगे बढ़ाना पड़ेगा और खुद अपने वर्ग का पेट, मुहावरों और वायदों तथा इन आश्वासनों से भरना पड़ेगा कि उस पराए वर्ग के हित उनके अपने ही हित हैं. जो कोई भी अपने को इस भ्रांत स्थिति में पाता है उसका अंत निश्चित है.”

क्या हम नहीं सुनते हैं कि वाम मोर्चा के नेता पश्चिम बंगाल में टाटा, बिड़ला और गोयनकाओं के औद्योगिक हितों को पश्चिम बंगाल की मेहनतकश जनता के हितों के रूप में प्रस्तुत करते हैं?

प्रकाश करात स्वीकार करते हैं कि पश्चिम बंगाल का प्रयोग एक सामाजिक जनवादी प्रयोग है, क्योंकि पूंजीपति-जमींदार व्यवस्था के मातहत उस राज्य में समाजवादी रास्ता अपनाना संभव नहीं है.

वे हमसे यह समझने का अनुरोध करते हैं कि ऐसी राज्य सरकारों के दायरे और सीमाओं के अंदर विदेशी और भारतीय इजारेदार पूंजी के साथ गठजोड़ करना बाध्यता है. वे अन्य क्षेत्रों में मिली असफलताओं और कमियों को भी स्वीकार करते हैं. प्रकाश हम पर आरोप लगाते हैं कि हम वाम मोर्चा सरकार के साथ वस्तुतः अन्य गैर-कांग्रेसी सरकार की तरह ही बर्ताव करते हैं और वे हमसे केवल आलोचनात्मक समर्थन देने अर्थात सकारात्मक रुख की मांग करते हैं.

प्रिय कामरेड, हम तमाम सीमाओं से भलीभांति परिचित हैं. हम इस सरकार से कभी भी क्रांतिकारी भूमिका की अपेक्षा नहीं करते हैं. ‘राज्य के हाथों अधिक अधिकार’ को राष्ट्रीय हस्तक्षेप का एकमात्र स्तंभ बनाकर और उसे गैर-कांग्रेसी सरकारों के साथ साझा हित कायम करके आपने खुद इस (वाम मोर्चा) सरकार को किसी अन्य गैर-कांग्रेसी सरकार के स्तर तक गिरा दिया है.

फिर भी, हम कांग्रेस और उसकी चालबाजियों के खिलाफ, चाहे चुनाव में हो अथवा केंद्र-विरोधी संघर्षों में, आपका समर्थन करते हैं. हम हमेशा ही आपके किसी भी सकारात्मक कदम का आलोचनात्मक समर्थन करने के लिए तैयार हैं. लेकिन हम क्रांतिकारी कम्युनिस्ट होने के नाते अगर इस तथाकथित ‘सर्वाधिक विकसित वाम संरचना’ के मिथक का भंडाफोड़ नहीं करते हैं और इस सरकार द्वारा अपनाए गए जनविरोधी कदमों का विरोध नहीं करते हैं तो हम अपना कर्तव्य निभाने में चूक जाएंगी. अगर हम यह बतलाने में चूक गए कि पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार की शैली का प्रयोग खुद पार्टी के एक हिस्से के नेत्रत्व में संचालित नक्सलबाड़ी के किसान आंदोलन का दमन करके शुरू हुआ था, लिहाजा ऐसी सरकारें जन आंदोलनों को कभी आवेग नहीं प्रदान कर सकतीं, उल्टे उनके जोशखरोश पर केवल ठंडा पानी ही छींट सकती हैं, तो हम भारतीय क्रांति के प्रति एक अपराध करेंगे.

इतिहास ने साबित कर दिया है कि ‘सर्वाधिक विकसित वाम संरचना’ के चौदह वर्ष, बंगाल के बाहर कोई प्रभाव डालने में असफल रहे, जबकि नक्सलबाड़ी आंदोलन, पश्चिम बंगाल में कुचल दिए जाने के बावजूद, चरम दमन और बीसियों फूटों के बावजूद, अखिल भारतीय पैमाने पर फैल गया तथा पहले आंध्र प्रदेश में और फिर बिहार में इसने अपना एक आधार तैयार कर लिया. इस आंदोलन ने नेपाल में भी प्रभाव डाला और वहां के कम्युनिस्ट आंदोलन में नवजीवन का संचार किया. यह एक ऐसा तथ्य है जिसे अनिच्छापूर्वक खुद का. सुरजीत ने स्वीकार किया है.

चुनावी कार्यनीति

जब कभी चुनाव आता है हर रंग के उदारवादी लोग हम पर कांग्रेस और भाजपा के खतरे को कम करके आंकने का आरोप लगाने लगते हैं और हमें चुनाव न लड़ने की सलाह देते हैं, ताकि विपक्षी का वोट न बंटे और इसके बदले हमें उदारपंथी विपक्ष को बिना शर्त समर्थन देने को कहते हैं, हमारी पार्टी के इर्द-गिर्द के निम्न-पूंजीवादी बुद्धिजीवी और पार्टी के अंदर के कुछ हिस्से इस तर्क को लोक लेते हैं. हमें सौदे में एक-दो सीटों के लिए समझौता कर लेने की सलाह दी जाती है. क्योंकि, आखिरकार सीटों की ही तो कीमत होती है.

हमने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि हमारी चुनावी कार्यनीतियां कोई खास अलग चीज नहीं है, अपितु हमारी आम राजनीतिक कार्यनीतियों का एक खास मामले में प्रयोग भर हैं, इसके अतिरिक्त, वोटों के बंटने की गणितीय संभावनाओं पर औपचारिक रूप से विचार करने से अधिक हमें इसकी राजनीतिक संभावनाओं पर गौर करना चाहिए. इस चुनाव ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि हमारे चुनाव लड़ने के कारण कांग्रेस और भाजपा की जीत की गणितीय संभावनाएं यांत्रिक थी. अगर ऐसा कुछ होता भी है तो केवल अपवादस्वरूप. हम अगर उदारपंथी दबाव के आगे झुक गए होते तो हमने बड़े पैमाने पर स्वतंत्र राजनीतिक प्रचार चलाने और भावी विकास की परिस्थितियों का निर्माण करने का मौका खो दिया होता. लेनिन तथा बोल्शेविकों को मेन्शेविकों के ऐसे ही आरोपों का सामना करना पडा था. उन्हों ने बोल्शेविकों पर आरोप लगाया था कि वे ब्लैक हण्ड्रेड खतरे को नजरअंदाज कर रहे हैं. लेनिन का जबाव था, “... हर जगह, सभी देशों में चुनाव अभियान में सामाजिक-जनवादियों के प्रथम स्वतंत्र प्रवेश के समय उदारपंथी लोग चिल्लापों मचाते और भौंकते हुए आरोप लगाते हैं कि समाजवादी लोग ब्लैक हण्ड्रेडवालों के दूमा में घुसने की राह साफ कर दे रहे हैं.”
“... कैडेटों से लड़ने से इनकार करके आप सर्वहारा और अर्ध सर्वहारा जनसमुदाय को, जो सामाजिक-जनवादी नेतृत्व का अनुसरण करने में सक्षम हैं, कैडेटों के विचारधारात्मक प्रभाव में छोड़ दे रहे हैं. अभी ही या बाद में, आपको ब्लैक हण्ड्रेड खतरे के बावजूद, अगर आप समाजवादी बने रहना छोड़ नहीं देते तो, स्वतंत्रतापूर्वक संघर्ष करना ही पड़ेगा. और बाद में सही कदम उठाने की जगह अभी ही ऐसा करना ज्यादा आसान और ज्यादा जरूरी है.” (कैडेटों के साथ खेमेबंदी से)

उन्होंने यह भी कहा “(कैडेटों के साथ) संयुक्त सूची सामाजिक जनवादी पार्टी की समूची स्वतंत्र वर्ग-नीति का घोर अंतरविरोधी होगी. जनसमुदाय के पास एक संयुक्त सूची की सिफारिश करके हम वर्गीय और राजनीतिक विभाजनों को आशाहीन ढंग से गड्डमड्ड कर देने के लिए मजबूर होंगे. हम दूमा में एक उदारपंथी के लिए जगह बनाने की खातिर अपने अभियान के उसूली और उसकी आम क्रांतिकारी अहमियत का गला घोंट देंगे. हम संसदवाद की वर्ग नीति के मातहत रखने के बदले वर्ग नीति को संसदवाद के मातहत कर देंगे. हम अपनी शक्तियों का अंदाजा लगाने के मौके से अपने आपको वंचित कर देंगे. हम वह चीज खो देंगे जो तमाम चुनावों में शाश्वत और टिकाऊ है – समाजवादी सर्वहारा की वर्ग चेतना और एकता का विकास. और हमें प्राप्त क्या होगा – अक्टूबरवादियों पर कैडेटों की श्रेष्ठता – जो कि क्षणभंगुर, सापेक्ष और असत्य है.” (सामाजिक जनवादी और चुनावी समझौते से)

का. लेनिन ने चुनाव अभियान में कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्ण स्वतंत्रता पर बारंबार जोर दिया और कहा कि “उसे किसी भी कीमत पर अपने नारों अथवा कार्यनीतियों का अन्य विपक्षी अथवा क्रांतिकारी पार्टियों के नारों अथवा कार्यनीतियों के साथ विलय नहीं करना चाहिए.” इस नियम के अपवाद की इजाजत केवल अत्यंत आवश्यक मामलों में ही और केवल उन पार्टियों के संबंध में ही दी जा सकती है जो हमारे फौरी राजनीतिक संघर्ष के मुख्य नारों को पूरी तरह स्वीकार करती हों.

उन्होंने और भी कहा है, “शहरों में, जहां मजदूरों की आबादी अधिकांशतः केंद्रीभूत है, हमें अत्यंत आवश्यक मामलों को छोड़कर, पूर्णतया स्वतंत्र सामाजिक-जनवादी उम्मीदवार खड़ा करने से कभी पीछे नहीं हटना चाहिए; और अभी ऐसी कोई फौरी आवश्यकता नहीं है. चंद कैडेट अथवा त्रुदोविक  (विशेषकर पॉपुलर सोशलिस्ट किस्म के) खुद दुमा के लिए कमोबेश कोई गंभीर अहमियत नहीं रखते. वे अधिक से अधिक केवल एक पूरक के रूप में गौण भूमिका ही निभा सकते हैं.”

हमारी ठोस स्थितियों में हमारे संघर्ष के मुख्य देहाती क्षेत्र इसी श्रेणी में पड़ते हैं. हमारी चुनाव कार्यनीति ने लेनिन की शिक्षाओं को दृढ़तापूर्वक बुलंद किया है और केवल हमारी पार्टी ही मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी हो सकती है.

चूंकि चुनाव कार्यनीति एक विशेष स्थिति में आम राजनीति का प्रयोग मात्र होती है, इसलिए गैर-संसदीय संघर्षों के दौरान निर्मित राजनीतिक संश्रय स्वभावतः सीटों के तालमेल और अन्य चुनावी समझौतों में अभिव्यक्त होंगे और इस मामले में हमने हमेशा अपने उसूलों की सीमा के अंदर जिस हद तक संभव हो सकता है उस हद तक लचीला होने का प्रयत्न किया है. मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में 13 पार्टियों के संश्रय के पतन का जिक्र किया जा सकता है.

वाम खेमे का निर्माण, एकमात्र व्यावहारिक कार्यनीति

हमारा संघर्ष दीर्घकालिक है. तीनों मुख्य कम्युनिस्ट धाराओं, छोटी वाम पार्टियों, ऐसे नक्सलवादी गुटों और ग्रासरूट आंदोलनों जिन्होंने अराजकतावादी अवधारणाओं को त्याग दिया है और राजनीतिक संघर्षों में शामिल हो गए हैं, जनता दल के क्रांतिकारी जनवादी हिस्सों, दलितों, अल्पसंख्यकों और राष्ट्रीयता के आंदोलनों तथा क्रांतिकारी निम्म-पूजीपतियों और पूंजीवादी बुद्धिजीवियों की एकता एक वाम खेमे की, अथवा जिसे हम वाम और जनवादी महासंघ कहते हैं, उसे जन्म देगी. अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में सोवियत खेमे के नष्ट होने से और कांग्रेस सरकार की नई आर्थिक नीति के चलते, जिसने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी पर भारतीय पूंजी की घृणित निर्भरता को उजागर कर दिया है, तथा सार्वजनिक क्षेत्र की प्रधान भूमिका नष्ट हो जाने के कारण, अवसरवादी लोग अपने जीवन के सबसे बुरे सैद्धांतिक संकट का समाना कर रहे हैं. अब ‘साम्राज्यवाद बनाम सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवादी खेमे’ के अंतर्विरोधको प्रधान अंतर्विरोधबतलाना, भारत सरकार की ‘प्रगतिशील’ विदेश नीति की बड़ाइयां करना, भारतीय पूंजीपति वर्ग के राष्ट्रीय चरित्र के गीत गाना तथा निजी इजारेदार घरानों के विपरीत सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को बुलंद करना मुश्किल हो गया है. रामो-वामो की तीसरी संरचना ने केंद्रीय सत्ता पाने का ख्वाब देखना शुरू कर दिया था, सीपीआई ने सरकार में शामिल होने की घोषणा कर दी थी और सीपीआई(एम) ने अपने-आपको ‘पुल पार करने’ के लिये तैयार कर लिया था – इन्होंने चुनाव में जबर्दस्त चोट खाई. वामपंथ को कांग्रेस के साथ जाना भी मुश्किल लग रहा है और टुकड़ों में विभाजित पूंजीवादी विपक्ष के साथ रहना भी कष्टदायक लग रहा है. संभवतः धर्मनिरपेक्ष मंच को व्यापक बनाने के लिए कांग्रेस के अंदर धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की तलाश करने के प्रयत्न किए जाएंगे. किंतु परिस्थिति का दबाव उसे अधिकाधिक स्वतंत्र स्थिति अपनाने और सरकार की आर्थिक नीतियों के विरुद्ध लोकप्रिय आंदोलनों का सहारा लेने के लिए बाध्य करेगा.

भारतीय जनवादी क्रांति के दौरान वाम खेमे का उदय आवश्यक एवं अनिवार्य है, जो बदले में खुद क्रांति की समूची राह को बदल देगा. हमारी राजनीतिक कार्यनीति की बुनियादी दिशा इसी लक्ष्य को पाने की ओर निर्देशित है, जिसके लिए परिस्थितियां दिन ब दिन परिपक्व होती जा रही हैं.

लेनिन ने रूसी पूंजीवादी जनवादी क्रांति के संबंध में कहा है, “इस क्रांति में क्रांतिकारी सर्वहारा कुछ लोगों के दयनीय दुमछल्लेपन को और कुछ अन्य लोगों की क्रांतिकारी लफ्फाजियों को झाड़-बुहारकर किनारे करते हुए पूरी ऊर्जा के साथ भाग लेगा. वह सिर चकरा देने वाली घटनाओं के बवंडर में वर्गीय सुस्पष्टता और वर्गीय चेतना लाएगा; और बहादुरी के साथ तथा अविचल रूप से, क्रांतिकारी जनवादी अधिनायकत्व से कोई डरते हुए नहीं बल्कि सोत्साह उसकी कामना करते हुए, गणतंत्र और पूर्ण गणतांत्रिक आजादियों के लिए संघर्ष करते हुए, उल्लेखनीय आर्थिक सुधारों के लिए संघर्ष करते हुए आगे बढ़ेगा; ताकि वह अपने लिए एक सचमुत के विशाल रंगमंच, एक ऐसे रंगमंच का निर्माण कर सके जो बीसवीं सदी के उपयुक्त हो, जिसमें कि समाजवाद के लिए संघर्ष चलाया जा सके.”

बीसवीं सदी के अंतिम छोर पर पहुंचकर हमें इस उद्धरण में केवल बीसवीं सदी की जगह इक्कीसवीं सदी रख देना है, मगर लेनिन ने जो बाकी सारी बातें कही हैं वे सब भारतीय सर्वहारा के लिए उसी प्रकार लागू होती हैं.

(लिबरेशन, जनवरी 1990, सबसे पहले पार्टी की बांग्ला पत्रिका देशब्रती के अक्टूबर 1989 के विशेषांक में प्रकाशित)

पार्टी की चौथी कांग्रेस में वाम शक्तियों के पुनरोदय को वर्तमान भारतीय राजनीति की एक अप्रतिम खूबी माना गया था और कांग्रेस विरोधी लड़ाई में पूंजीवादी विपक्ष के मुकाबले वामपंथी शक्तियों को एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा करने का कार्यभार तय किया गया था. साथ ही वामपंथी शक्तियों से यह आह्वान किया गया था कि वे पूंजीवादी विपक्ष की दुम अब न थामे रहें तथा इस संघर्ष में राजनीतिक नेतृत्व करने की चुनौती को स्वीकार करें. हमारी कांग्रेस ने वाम और जनवादी महासंघ का निर्माण करने का जो कार्यभार सूत्रबद्ध किया था, वह इसी दिशा में एक शक्तिशाली कदम था.

इस आह्वान ने और इस आह्वान से उपजे कार्यभार ने वामपंथी आंदोलन की दो अन्य मुख्य शक्तियों, सीपीआई और सीपीआई(एम) के साथ हमारे समागम और एकता का द्वार जिस प्रकार खोल दिया है उसी प्रकार उनके विरुद्ध हमारा संघर्ष भी एक नई मंजिल में आ पहुंचा है.

वाम महासंघ एक संयुक्त मोर्चा के अलावा और कुछ नहीं है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सीपीआई, सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) को ही इस संयुक्त मोर्चे का बुनियादी साझीदार माना गया है. इसलिए निष्कर्षतः राजनीतिक घटनाओं के घात-प्रतिघात के चलते इन तीनों पार्टियों की स्थिति में भी बदलाव आ सकता है, वे रूपांतरित हो जा सकती हैं, एक दूसरे के और नजदीक आ सकती हैं तथा 1964 और 1967 के विभाजनों का फिर से मूल्यांकन करने और भारत में एक ही कम्युनिस्ट पार्टी की पुनर्स्थापना करने का सवाल सामने आ सकता है. किंतु यह संभावना अभी भी कोसों दूर है, इसलिए आज ही इस पर माथापच्ची करने से हम विचारधारात्मक तौर पर निरपेक्षतावाद के गड्ढे में गिर सकते हैं और व्यवहार में हम अपने निर्दिष्ट कार्यों से भटक सकते हैं.

फिलहाल वाम महासंघ के निर्माण के इस नारे ने इन तीनों पार्टियों के बीच की प्रतिद्वंद्विता को एक नए धरातल पर ला खड़ा किया है. नया धरातल इसलिए कि यह पहली बार सामाजिक जनवाद विरोधी संघर्ष को निरपेक्षतावादी स्तर से नीचे ठोस राजनीतिक कार्यनीति के प्रश्न पर खींच लाया गया है और इसलिए भी कि यह प्रतिद्वंद्विता फिलहाल व्यापक सामगम और एकताबद्ध मोर्चे का निर्माण करने के लिए की जा रही है.

वाम महासंघ का नारा कुछ प्रश्नों के स्पष्ट जवाब की मांग करता है. वे प्रश्न हैं :

  • एक, मौजूदा स्तर में सीपीआई और सीपीआई(एम) के साथ ठोस तौर पर हमारा संबंध क्या होगा?
  • दो, आम तौर पर राज्यों में वामपंथी सरकार बनाने के सवाल पर और खासकर सीपीआई(एम) के नेतृत्व में वाम मोर्चा सरकारों के बारे में हमारा रुख क्या होगा?
  • और तीसरा, वाम महासंघ के प्रश्न पर हम किस प्रकार और कहां से शुरूआत करेंगे? मैं यहां इन प्रश्नों के बारे में अपना विचार रखने का प्रयत्न करूंगा.

प्रारंभ में ही मैं यह बतलाए दे रहा हूं कि सामाजिक जनवादियों के ठोस राजनीतिक आचरण के बारे में अभी आखिरी बात नहीं कही जा सकती है. वे पूंजीवादी और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के एजेंट और जनसंघर्षों के दुश्मन हैं अथवा कम्युनिस्टों और जनसंघर्षों के स्वाभाविक मित्र, इस प्रश्न का उत्तर कहीं भी देना संभव नहीं है. इतिहास की विभिन्न मंजिलों में उन्होंने भिन्न-भिन्न भूमिकाएं निभाई हैं. यह निर्भर करता है ठोस स्थिति पर, राजनीतिक घटनाओं के विकास पर, उनके नेतृत्व के विभिन्न अंशों और स्तरों के शक्ति संतुलन पर और बाहर से कम्युनिस्टों के सचेत प्रयास पर.

हम यहां सीपीआई का उदाहरण ले सकते हैं. 1964 से 1977 तक उनके विकास की एक प्रक्रिया रही है जिसने उन्हें धीरे-धीरे कांग्रेस (आइ) के साथ जोड़ दिया. उन्होंने केरल में कांग्रेस के साथ मिलीजुली सरकार बनाई और वे इमर्जेन्सी के एकलौते समर्थक बन बैठे. दरअसल उन दिनों इंदिरा कांग्रेस और सीपीआई को अलग करके देखना ही मुश्किल हो गया था. ट्रेड यूनियन आंदोलन में मालिक वर्ग की दलाली करने से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के विरोध में वर्ग-दुश्मनों से हाथ मिलाना तक उसकी खूबियां बन गईं. 1977 की राजनीतिक घटनाओं के चलते उसके सामने अपने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया और उसके बाद से वह धीरे-धीरे अपनी पुरानी स्थिति में वापस लौटने लगी. इसके लिए उसे तीखे अंतःपार्टी संघर्ष से गुजरना पड़ा. डांगे, मोहित सेन और कल्याणसुंदरम को निकाल दिया गया. उसने कांग्रेस विरोधी स्थिति अपनाकर वामपंथ की मुख्य धारा में लौट आने का प्रयत्न किया. बुनियादी कार्यक्रम को लेकर भी अंदरूनी बहस शुरू हुई. वे जन आंदोलन के भी कुछ कार्यक्रम अपनाने का प्रयत्न कर रहे हैं. उन्होंने सीपीआई(एम) के विरोध को ठुकराते हुए आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम की सरकार के विरुद्ध आंदोलन करने का और वाम मोर्चा सरकार का साझीदार होने पर भी उसकी कुछ नीतियों का विरोध करने और जरूरत पड़ी तो उन पर आंदोलन करने का निर्णय किया है तथा वे हमारे साथ नियमित रूप से संपर्क स्थापित करने के लिए आगे आए हैं. उनके सिद्धांत और व्यवहार में अभी भी काफी कुछ ऐसा है जो उन्हें कांग्रेस(आइ) की ओर फिर ढकेल दे सकता है और वे हमारे साथ अपने संपर्क को वाम मोर्चा में सीपीआई(एम) से सौदेबाजी करने के लिए, संभवतः तास के पत्तों की तरह इस्तेमाल करना चाहते हों. इन सबके बावजूद सीपीआई की 1977 और 1989 की स्थितियों में जो महत्वपूर्ण फर्क है उसे शायद कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता.

सीपीआई के साथ हमारा समागम जो धीरे धीरे बढ़ रहा है, वह स्वभावतः हम दोनों के बीच के संपर्क को विभिन्न स्तरों पर संस्थाबद्ध करने की मांग कर रहा है. फिर दूसरी ओर वह सीपीआई(एम) के साथ पहले से ही एक घनिष्ठ संस्था में बंधी हुई है. सीपीआई ने जैसे एक ओर सीपीआई(एम) के विरोध को ठुकराते हुए हमारे साथ नियमित संघर्ष बनाने का निर्णय किया है, वैसे ही दूसरी ओर वह वाम मोर्चा सरकार के प्रति हमारे रुख को बदलने और उसमें शामिल होने के लिए लगातार दबाव डाल रही है. सचमुच यह बड़ा दर्शनीय होगा कि वे हमारे और सीपीआई(एम) के बीच मध्यस्थ की भूमिका अपनाने का जो प्रयत्न कर रहे हैं उसमें सचमुच सफल होंगे अथवा दो विपरीत दिशाओं के दबाव से और अधिक संकटों में फंस जाएंगे. उनके और हमारे बीच के संबंधों में कैसा विकास होगा, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि विवर्तन की इस प्रक्रिया में उनका अगला कदम क्या होगा.

सीपीआई(एम) सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी है और वह दो राज्यों में सरकार की प्रमुख है. इसी के बलबूते उसने फिलहाल राष्ट्रीय परिस्थिति में भी एक महत्वपूर्ण स्थिति पा ली है. वह अपने को वामपंथी शक्तियों का स्वाभाविक नेता मानती है और एकमात्र उसके नेतृत्व में संचालित वाम मोर्चा ही उनके लिए वाम एकता का ठोस रूप है. वाम मोर्चा द्वारा संचालित दो राज्य सरकारें उसकी कार्यनीतिक लाइन के केंद्रीय तत्व हैं और वह इन्हीं को केंद्र कर राष्ट्रीय राजनीति में एक नया ध्रुवीकरण करना चाहती है. उसकी ही जुबान में, इसी ध्रुवीकरण का ठोस रूप वाम, जनवादी और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का संयुक्त मोर्चा है.

पश्चिम बंगाल और केरल, जहां सीपीआई(एम) का नेतृत्व प्रतिष्ठित है, की बात अगर छोड़ दी जाए, तो राष्ट्रीय स्तर पर उसकी निजी शक्ति अत्यंत थोड़ी है और अगर खूब बढ़ा-चढ़ाकर भी आंका जाए तो वहां वह फकत एक प्रेशर ग्रुप का ही निर्माण कर सकती है. राष्ट्रीय स्तर पर संसदीय राजनीति में उसकी तकदीर एक विपक्षी पार्टी ही बने रहने की है. निस्संदेह संसदीय विपक्ष की इस स्थिति का पूरी तरह सदुपयोग करके वह एक देशव्यापी लहर पैदा करने की ओर बढ़ सकती थी, किंतु सीपीआई(एम) का इस क्रांतिकारी रास्ते पर आगे बढ़ने का कोई इरादा हीं नहीं है, अपितु उसने अपनी पार्टी की ताकत बढ़ाने का एक निराला ही रास्ता अपना रखा है.

वह आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम के साथ, तमिलनाडु में डीएमके साथ और हिंदी क्षेत्र में जनता दल के साथ राजनीतिक गठजोड़ कायम करके अपनी संसदीय शक्ति को बढ़ाना ही वामपंथ की ताकत को बढ़ाना बताती है. सीपीआई(एम) का नेतृत्व यह भलीभांति जानता है कि संसद और विधानसभा में इस तरह हासिल की गई हर सीट जनता की राजनीतिक चेतना को भ्रष्ट करने और क्रांतिकारी आंदोलनों में उसकी क्षमता को कमजोर करने के विनिमयस्वरूप ही मिलती है. बुर्जुआ विपक्ष की इन बड़ी-बड़ी शक्तियों के साथ, जो अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में उसी पूंजीपति-जमींदार संश्रय का प्रतिनिधित्व करते हैं, अपने दिन-ब-दिन बढ़ते गठजोड़ को संस्थाबद्ध करने के लिए ही उन्होंने वाम-जनवादी के साथ धर्मनिरपेक्ष शब्द को घोंट-घाटकर धर्मनिरपेक्ष मोर्चे का सिद्धांत हाजिर किया है; यह मानो सीपीआई के साथ कांग्रेस(आइ) के गठजोड़ की रस्म को ही बढ़चढकर दोहराना है.

इस धर्मनिरपेक्ष विकल्प में सीपीआई(एम) नेतृत्वकारी भूमिका में नहीं रहेगी, यह स्पष्ट है. लिहाजा, इस विकल्प में उसकी स्थिति क्या होगी और कांग्रेस को अपदस्थ कर इस विकल्प की सरकार बनने पर सीपीआई(एम) उसमें शामिल होगी अथवा बाहर से उसका समर्थन करेगी, यह उसकी अंदरूनी बहस का मसला है, किंतु जनता की जनवादी क्रांति के रास्ते पर, मौजूदा मंजिल में बुर्जुआ जनवाद की सीमाओं को बढ़ाने का उसका जो कार्यक्रम है, जिसका केंद्रीय मुद्दा ठोस रूप से केंद्र-राज्य संबंध का पुनर्विन्यास है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने बुर्जुआ विपक्ष को अपना स्वाभाविक नेता मान लिया है और वह खुद उनका स्वाभाविक संश्रयकारी बन गई है. इसलिए वर्तमान मंजिल में क्रांतिकारी जनवादी शक्तियों को – उन शक्तियों को जो बुर्जुआ विपक्ष में बुर्जुआ जनवाद के क्रांतिकारी विस्तार की कोई क्षमता नहीं देख पातीं, बल्कि इसके बजाय ग्रामांचलों के व्यापक गरीब और मेहनतकश किसान समुदाय पर अश्रित रहती हैं – सीपीआई(एम) के खाते में वामशक्ति माना ही नहीं जाता. इसके विपरीत, सीपीआई(एम) उन्हें ग्रामांचलों में ‘किसानों की एकता’ को तोड़ने वाली अराजकतावादी शक्ति ही मानती है. ऐसा मानना बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि ग्रामांचलों में हमारा संघर्ष अनिवार्य रूप से उनके धर्मनिपेक्ष बिरादरों के सामाजिक आधार पर ही चोट करता है.

वाम महासंघ का हमारा नारा कार्यनीतिक लाइन के प्रश्न पर उनके साथ हमारे वस्तुगत विरोध को ही प्रतिबिंबित करता है. इस स्थिति में उनके साथ हमारे संबंधों में संघर्ष ही प्रधान पहलू बना हुआ है. यह नारा उनके साथ हमारे राजनीतिक विवाद को ठोस करने और उसे तीखा बनाने में और इस आधार पर उनके कार्यकर्ताओं एवं प्रभावित जनता के साथ समागम बढ़ाने में भी निस्संदेह मदद करेगा. यह मानना ही होगा कि इस मंजिल में उनके साथ बड़े किस्म की कोई एकताबद्ध कार्यवाही चलाने की तथा उनके व हमारे बीच के संबंध को संस्थाबद्ध रूप देने की कोई फौरी संभावना नहीं है. तथापि बिहार में राज्य स्तर तक भी और कुछ अन्य राज्यों में स्थानीय स्तर पर एकताबद्ध कार्यवाहियां संचालित की जा सकी हैं. पश्चिम बंगाल में भी स्थानीय स्तर पर उनके कार्यकर्ताओं के साथ स्वाभाविक संबंध बनाया जा सकता है, और यहां तक कि थोड़ी बहुत संयुक्त कार्यवाहियां भी की जा सकती हैं, यह वहां के अनेक इलाकों के हाल के अनुभवों से प्रमाणित हुआ है. वह हर जगह हमें अलगाव में डालने अथवा जहां कहीं वह शक्तिशाली है वहां हमारे ऊपर आक्रमण करके हमसे मुठभेड़ करने के निराशोन्मत्त प्रयत्नों से ही प्रारंभ करती है मगर जहां-जहां हम राजनीतिक तौर पर इस प्रयत्न को असफल बनाते हुए टिक पाए हैं वहां बाद में उसका रुख बदला है और उसके साथ हमारा संबंध स्वाभाविक बन सका है. इस प्रक्रिया को कुछ और विकसित किया ही जा सकता है, किंतु उसकी मनोवृत्ति में किसी क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए हमें निस्संदेह राजनीतिक घटनाओं के भावी विकास का इंतजार करना होगा. आने वाले दिनों में इस बदले संबंध की शर्त आज का हमारा यह बुनियादी कार्य ही होगा. बुनियादी कार्य की इस कठिन-कठोर और लंबी प्रक्रिया को अंगूठा दिखाते हुए महज नारों और कार्यनीतिक नकेलों से सीपीआई(एम) जैसे परंपरागत प्रतिद्वंद्वी को नाथने की उम्मीद करना स्पष्टतः खयाली पुलाव पकाना है. और खासकर तब जबकि वह राजनीतिक चढ़ाव की मंजिल में है और उसका नेतृत्व अपनी कार्यनीतिक लाइन की सफलता के बारे में अपने कार्यकर्ताओं के अंदर भ्रम पैदा करने में समर्थ है.

दूसरे सवाल के जवाब में यह कहा जा सकता है कि संसदीय संघर्ष की प्रक्रिया में किसी-किसी राज्य में वामपंथी सरकार के निर्माण का प्रश्न उठ सकता है और हम उस मौके से फायदा उठा सकते हैं. हमारी चौथी पार्टी कांग्रेस ने हमारी कार्यनीतिक लाइन में यह अत्यंत महत्वपूर्ण संयोजन किया है.

कम्युनिस्ट क्रांतिकारीयों की मंडली में यह सवाल आज तक कुफ्र (टैबू) बना हुआ था. हमने जैसे ही यह सवाल उठाया चारों ओर हाय-तौबा मच गई और हमें भला-बुरा कहा जाने लगा – हाय, सामाजिक जनवादियों के साथ आखिरी विभाजन रेखा भी अब खत्म हो गई. और पार्टी के भीतर इसी आधार पर मगर अतिदक्षिणपंथी सिरे से सवाल उठा : हम वाम मोर्चा में शामिल क्यों नहीं हो जाते?

संसदीय संघर्ष के सर्वोच्च रूप के तौर पर कुछ राज्यों में सरकार बनाने का सवाल भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में 1957 से ही मौजूद रहा है. नक्सलबाड़ी आंदोलन के पहले भी क्रांतिकारी कम्युनिस्टों ने अंतःपार्टी संघर्ष में सरकार बनाने की कार्यनीति को नहीं ठुकराया था. दरअसल, जन आंदोलनों का विकास करने के लिए ऐसी सरकारों के इस्तेमाल की कार्यनीति के बारे में तब आम सहमति ही थी. झगड़ा तो तब हुआ जब सीपीआई(एम) के नेतृत्व ने संयुक्त मोर्चा सरकार का इस्तेमाल नक्सलबाड़ी आंदोलन का दमन करने के लिए किया. उसके बाद का दौर हमारे लिए प्रत्यक्ष क्रांतिकारी संघर्ष का दौर था, जबकि संसदीय संघर्ष फालतू चीज थी और फासिस्ट आतंक के उस दौर में सीपीआई(एम) को भी सरकार बनाने का मौका नहीं मिल सका.

हमें संघर्ष के इस विशेष क्षेत्र में अत्यंत सावधानी के साथ और कदम-ब-कदम आगे बढ़ना होगा. लिहाजा हमारी चौथी पार्टी-कांग्रेस ने इस संबंध में केवल आम मार्गदर्शक लाइन रखी है. इस प्रश्न को ठोस रूप में भावी मीमांसा के लिए ही छोड़ दिया गया है. क्रांतिकारी आंदोलन के विकास की किसी मंजिल में हम यह प्रश्न जरूर उठाएंगे. उदाहरण के लिए बिहार की आज की स्थिति में क्या सचमुच ऐसी कोई संभवना है? इस पर पार्टी के अंदर सलाह-मशविरा और बहस करने की शुरूआत की जानी चाहिए, तथापि चौथी कांग्रेस ने हमें निर्देश दिया है कि हम इस प्रश्न पर सीपीआई(एम) द्वारा संचालित वाम मोर्चा सरकार के द्वंद्वात्मक निषेध के आधार पर ही अपने व्यवहार में विकास करेंगे.

हां, यह बात जरूर सच है कि केंद्र की कांग्रेस सरकार का विरोध करने और समग्र रूप से भारतीय राज्य मशीनरी में, चाहे जितनी छोटी हो, एक दरार पैदा करने में विपक्ष के नेतृत्व में चलने वाली राज्य सरकारों की भी एक भूमिका होती है. किंतु ऐसी स्थितियां तो व्यापक जन जागरण की शर्त भी मुहैया करती हैं. गैर-वाम सरकारों द्वारा इस जन जागरण को आंचलिकता की खाई में डुबो देने का तर्क और उसकी जरूरत तो समझ में आती है, लेकिन अगर कोई वामपंथी सरकार भी उसी राह पर चलती है, तो हम उसका विरोध न करें, ऐसा नहीं हो सकता – उस पर लगे वामपंथी लेबुल के बावजूद.

इन कारणों से केंद्र विरोधी संघर्ष में वाम मोर्चा सरकारों का आलोचनात्मक समर्थन करना और राज्य के अंदरूनी मामलों में क्रांतिकारी विपक्ष की भूमिका निभाना – यही इस सवाल पर हमारी बुनियादी स्थिति हो सकती है.

अब हम तीसरे सवाल पर पहुंचते हैं. हमने वाम महासंघ की बात ठोस तौर पर ‘राजीव हटाओ’ आंदोलन के मद्देनजर कही है. एक ही नारा देने के बावजूद बुर्जुआ विपक्ष से वाम शक्तियों का रुख गुणात्मक तौर पर भिन्न है, वामपंथी लोग ‘राजीव हटाओ’ आंदोलन को जनता की बुनियादी मांगों पर होने वाले जन आंदोलनों के साथ जोड़ना चाहते हैं. बुर्जुआ विपक्ष के साथ वामपंथियों का संश्रय केवल मुद्दा आधारित और सामयिक होता है – बुर्जुआ विपक्ष के मुकाबले वामपंथ की इस स्वतंत्रता का इजहार करने के लिए ही वाम महासंघ की आवश्यकता है.

भाजपा के साथ संश्रय कायम किया जाए अथवा नहीं – वाम मोर्चा और नेशनल फ्रंट के बीच मतभेद को आम जनता के बीच केवल इसी रूप में देखा जा रहा है. इसने वामपंथ की स्वतंत्र पहचान को केवल साम्प्रदायिकता के प्रश्न तक सीमाबद्ध कर दिया है.

हमारे प्रचार की दिशा केवल यही हो सकती है कि इस महासंघ में सीपीआई(एम) के साथ हमारा संश्रय जरूर होगा, क्योंकि हमने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में वाम मोर्चा सरकारों की एक प्रासंगिकता मान ली है, क्योंकि हम इन सरकारों के केंद्र विरोधी संघर्षों का समर्थन करते हैं और क्योंकि इन सरकारों को भंग कर देने की केंद्रीय सरकार की हर साजिश के विरोध में उठ खड़ा होने के रास्ते में हमारे सामने कोई रूकावट नहीं है. पश्चिम बंगाल में इन सरकारों की जन विरोधी गतिविधियों का हमारे द्वारा किया जानेवाला विरोध अथवा दूसरी ओर बिहार के हमारे किसान संघर्ष का सीपीआई(एम) द्वारा किया जा रहा विरोध महासंघ के अंदरूनी बहस के मुद्दे हो सकते हैं. ये मतभेद धीरे धीरे और अधिक घटाए जा सकते हैं तथा महासंघ और अधिक सुदृढ़ बन सकता है. हमारे बीच जो थोड़े से साझे मुद्दे हैं, आइए आज उन्हीं से शुरू किया जाए; उनसे शुरू करना निश्चय ही संभव है.

बिहार में हमने यह देखा है कि वाम मोर्चा सरकारों के बारे में हमारे और हमारे किसान संघर्ष के बारे में सीपीआई(एम) के दृष्टिकोणों पर दोनों पक्षों द्वारा अडिग रहने पर भी राज्य के स्तर पर संयुक्त कार्यवाहियां की जा चुकी हैं यहां तक कि यह प्रस्ताव तीनों पार्टियों के बीच चर्चा का विषय बन चुका है कि बुर्जुआ विपक्ष के साथ संयुक्त कार्यवाही चलाते समय भी सीपीआई, सीपीआई(एम) और आईपीएफ जैसी वाम पार्टियों को अपने बीच एक अलग संस्थाबद्ध व्यवस्था कायम करनी चाहिए, बिहार में आज जो बीज बोया जा रहा है कल वही एक महासंघ का रूप ले सकता है.

निस्संदेह इस वाम महासंघ की पहलकदमी आमतौर पर हिंदी क्षेत्र में और खासकर बिहार में ली जाएगी. हमारी पार्टी ने आईपीएफ के जरिए जिस नई राजनीतिक पहलकदमी की शुरूआत आज से 7 वर्ष पहले की थी वह आज हिंदी क्षेत्र की ठोस स्थिति में वामपंथ के पुनरुत्थान का जो संदेश दे रहा है उसकी आहट मिलनी शुरू हो गई है. देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र और भारतीय राजनीति के नाड़ी केंद्र में, जहां अतीत में वामपंथी आंदोलन अपना लंगर तक नहीं डाल सका था, वहां आज नई हवा बहने लगी है.  इसी क्षेत्र में वामपंथी आंदोलन की तीनों धाराओं का संगम संभव है. बिहार और उत्तर प्रदेश में सीपीआई और सीपीआई(एम) के कार्यकर्ताओं और उनसे प्रभावित जनसमुदाय का बड़ी संख्या में आईपीएफ में शामिल होना इसी संगम का एक रूप है. पहले सीपीआई के साथ और बाद में धीरे-धीरे सीपीआई(एम) के साथ संयुक्त कार्यवाहियों की शुरूआत इस संगम का दूसरा रूप है. यह धारा निस्संदेह विकसित होगी और इसी इलाके में राष्ट्रीय स्तर पर उस वाम महासंघ की नीव पड़ेगी जिससे हमारी स्वतंत्रता और पहलकदमी की गारंटी होगी.

स्वविरोधी लगने पर भी द्वंद्वात्मक सच्चाई यही है कि वाम महासंघ के निर्माण के इस प्रयास में पश्चिम बंगाल के क्रांतिकारी कामरेड अपना योगदान संपूर्णतः विपरीत ढंग से अर्थात् वाम मोर्चा सरकार की जनविरोधी नीतियों और कार्यवाहियों के विरुद्ध क्रांतिकारी विपक्ष की पताका बुलंद करके ही दे सकते हैं.

(लिबरेशन, नवंबर 1988)

पार्टी की चौथी कांग्रेस ने वाम और जनवादी महासंघ के निर्माण का नारा दिया है. कांग्रेस ने यह नारा एक ऐसी परिस्थिति में दिया है जबकि “एक लंबे अंतराल के बाद, अब लगता है कि भारत में वामपंथी आंदोलन किसी बड़े गतिरोध भंग की दहलीज पर आ पहुंचा है.” इस नारे की अंतर्वस्तु और इसे लागू करने की प्रक्रिया के संबंध में कांग्रेस का कहना है, “मौजूदा दौर में सीपीआई(एम) के नेतृत्ववाले विकल्प से हमारा संबंध होगा मुख्यतः संघर्ष का और गौण रूप से एकता का. यकीनन इस एकता के पहलू के तहत राजीव हटाओ आंदोलन में, जहां तक संभव हो, सहयोग की गुंजाइश भी मौजूद है. राजनीतिक विकास के क्रम में केंद्रीय सत्ता द्वारा वाम मोर्चा सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए सीधा हमला चलाने की स्थिति में और जनता के क्रांतिकारी संघर्षों में उभार आने के फलस्वरूप हमारी शक्तियों के बढ़ाने और मजबूत होने के कारण कुल परिस्थिति में भारी एकता का पहलू प्राथमिक बन जा सकता है तथा उस वक्त एक बिलकुल नए आधार पर व्यापक वाम और जनवादी महासंघ के निर्माण के लिए परिस्थितियां परिपक्व हो सकती हैं.”

आइए, हम पार्टी-कांग्रेस के इस नारे पर विभिन्न पहलुओं से विचार करें. पहले तो हमें यह देखना चाहिए कि मार्क्सवादी दृष्टिकोण से किसी नारे को सूत्रबद्ध करने का अर्थ क्या है? किसी विशेष घड़ी में शक्ति-संतुलन की किसी विशेष अवस्था में जितना हासिल करना संभव हो, हमारा नारा क्या सिर्फ उतनी ही मांग पेश करेगा? अथवा क्या वह विकासमान परिस्थिति के अनुरूप होगा, यहां तक कि तत्कालीन घड़ी में उन मांगो को प्राप्त करना संभव न हो, तब भी हमारा नारा क्या अपने को उस विशेष घड़ी की व्यावहारिकता तक ही सीमित रखेगा अथवा क्या उसमें विकास की समस्त संभावनाओं का लेखा-जोखा भी रहेगा? मार्क्सवादी दृष्टिकोण यही सिखलाता है कि हम जिस दिशा में आगे बढ़ना चाहते हैं, जिस आखिरी पड़ाव तक पहुंचना चाहते हैं हमें उसी दिशा में, उसी पड़ाव की ओर अधिकतम संभव राजनीतिक लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए अर्थात् हमारे नारे को यथार्थवादी होना चाहिए. उसमें जैसे आज के विशेष कार्यों का समावेश रहेगा, वैसे ही वह उस दिशा को भी बतलाएगा जिधर हमें बढ़ना है. किसी विशेष घड़ी में जितना संभव है, अपने नारे को, अपने कर्तव्यों को, उसी परिधि में बांधे रखना परिणामवाद है जिसके साथ मार्क्सवाद का कोई ताल्लुक नहीं है. उसी तरह, वस्तुस्थिति से बिलकुल अलग, महज मनोगत इच्छाओं के आधार पर नारेबाजी करना केवल राजनीतिक सट्टेबाजी है. एंगेल्स की सुप्रसिद्ध उक्ति कि “कम्युनिस्ट वर्तमान के बीच भविष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं”, नारे तय करने के मामले में हमारा मार्गदर्शक हो सकता है. हमें अपने को जैसे उन संशोधनवादियों से अलग करना चाहिए जो वर्तमान का ही प्रतिनिधित्व करते हैं वैसे ही हमें अपने को उन कल्पनाविलासियों से भी अलग कर लेना चाहिए जो वर्तमान की अवहेलना करके भविष्य के रंगीन सपने देखते हैं. हमें इसकी गांरटी करनी चाहिए कि आम जनता हमारे नारे के जरिए यह समझ सके कि हम किधर जाना चाहते हैं?

मेरी राय में वाम और जनवादी महासंघ का निर्माण करने का हमारा नारा मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर खरा उतरता है. यह नारा जिस प्रकार विभिन्न वामपंथी और मध्य-वाम पार्टियों के साथ विभिन्न मंजिलों में परस्पर क्रिया करने और संयुक्त कार्यवाहियां संचालित करने के हमारे आज के प्रयत्नों को आवेग प्रदान करता है, उसी प्रकार वह वाम मोर्चे की सरकार को केंद्र करके निर्मित वाम-जनवादी विकल्प के सामाजिक-जनवादी अवधारणा के विरुद्ध क्रांतिकारी-जनवादी विकल्प की हमारी दिशा को भी सामने रखता है. नई बुनियाद पर, जुझारू जन आंदोलनों की बुनियाद पर वाम और जनवादी महासंघ का निर्माण करने का हमारा नारा ठीक उसी रूप में, जैसा कि हम सोचते हैं, नहीं भी साकार हो सकता है, मगर वह वाम और जनवादी शक्तियों के बीच एक नए ध्रुवीकरण को जरूर जन्म देगा. हम आज ही यह नहीं बतला सकते हैं कि इस ध्रुवीकरण की प्रक्रिया क्या होगी, मगर यह तय है कि वह क्रांतिकारी जनवाद के लिए हो रहे संघर्ष में हमें एक कदम आगे जरूर बढ़ा देगा.

यहां स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठता है कि सीपीआई(एम) द्वारा प्रस्तावित वाम-जनवादी विकल्प की अवधारणा और हमारी क्रांतिकारी जनवादी विकल्प की अवधारणा के बीच बुनियादी फर्क को माना जा रहा है या नहीं? अगर माना जा रहा है तो यह भी मंजूर करना होगा कि दोनों अवधारणाओं के बीच प्रतिद्वंद्विता ही बुनियादी बात है तथा संयुक्त कार्यवाहियों को निश्चय ही इस प्रतिद्वंद्विता के मातहत रखना होगा. वाम मोर्चा सरकारों के प्रति हमारी ठोस नीति क्या हो, इस प्रश्न पर बहस रह सकती है, यहां तक कि ऐसी बहस जरूरी भी हो सकती है, मगर सीपीआई(एम) के साथ एकता के नाम पर, वाम मोर्चा सरकारों का मूल्यांकन करने के नाम पर, इस बुनियादी फर्क को भुला देने की कोई भी कोशिश आत्महत्या कर लेना ही होगा. हमारे हाल के अनुभव दिखलाते हैं कि जिन लोगों ने व्यावहारिकता के नाम पर इस फर्क को भुला देने का प्रयत्न किया उन सबों ने पार्टी-भावना, क्रांतिकारी भावना खो दी और वे विभिन्न विलोपवादी विचारों से ग्रस्त हो गए.

विकास की जिस द्वंद्ववादी प्रक्रिया में हमने वाम और जनवादी महासंघ के निर्माण की संभावना बतलाई है और जिस प्रक्रिया को हमने नारे में प्रतिबिंबित करने का प्रयत्न किया है, उसका कोई वस्तुगत आधार है भी य नहीं, इस प्रश्न पर निश्चय ही गहराई के साथ विचार करना चाहिए.

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हमारे नारे की बुनियाद क्या है? सीपीआई, सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) कभी की एकताबद्ध कम्युनिस्ट पार्टी की ही तीन धाराएं हैं. 1964 में राष्ट्रीय जनवाद और जनता के जनवाद के दो नारों की बुनियाद पर ही पार्टी सीपीआई(एम) में बंट गई थी. जन्म की घड़ी से ही सीपीआई(एम) के अंदर जनता की जनवादी क्रांति के बारे में दो कार्यनीतियों, अवसरवादी और क्रांतिकारी कार्यनीतियों के बीच संघर्ष शुरू हो गया था. नक्सलबाड़ी संघर्ष और संयुक्त मोर्चा सरकार के बीच ठोस टकराव में कार्यनीतिक लाइन के संघर्ष ने निश्चित आकार धारण किया और हमारी पार्टी सीपीआई(एमएल) का जन्म हुआ. अवसरवादी और क्रांतिकारी धाराओं के बीच का यह संघर्ष आज भी सामाजिक जनवाद और क्रांतिकारी जनवाद के बीच संघर्ष के रूप में जारी है.

इस बीच बहुतेरे परिवर्तन हुए हैं. भारतीय शासक वर्ग वाम मोर्चा सरकार के, लाल सरकार के, भूत से अब नहीं डरता है. इन सरकारों का लंबे अरसे तक टिकना भी उनके वर्ग शासन के लिए कोई विपत्ति नहीं समझा जाता है. उल्टे उन्हें धीरे-धीरे जन आंदोलनों के विरुद्ध भी इस्तेमाल किया जा रहा है. लिहाजा जो लोग इन सरकारों के अंदर क्रांतिकारी क्षमता का दर्शन करते हैं वे दरअसल खयाली पुलाव ही पकाते हैं. हां, इस प्रक्रिया के स्वाभाविक नतीजे के तौर पर ये सरकारों संसदीय दायरे के अंदर ही भारत के मौजूदा राजनीतिक ढांचे में बड़े पैमाने का कोई सुधार करने की मांग पर मुखर हुई हैं. राजनीतिक संघर्ष की इस प्रक्रिया में सीपीआई(एम) पश्चिम बंगाल और केरल में अपना जनाधार बढ़ा सकी है तथा अनेक नई शक्तियों, खासकर नौजवानों को गोलबंद कर सकी है. सीपीआई भी कांग्रेस से दूर हटने और थोड़ा बहुत आंदोलन का रास्ता ग्रहण करने को मजबूर हुई है. चूंकि, राजीव हटाओ आंदोलन के सिलसिले में वामपंथी पार्टियों ने पहलकदमी ली है इसलिए इस मामले में उनके साथ संयुक्त कार्यवाहियां चलाने के पर्याप्त अवसर मौजूद हैं.

आइए, अब हम अपनी पार्टी के विकास की प्रक्रिया के संबंध में विचार करें. बीच के एक दौर में हमारी पार्टी के अंदर नव-वाम और अराजकतावादी सोच-विचार अच्छी-खासी मात्रा में ही जड़ पकड़ चुके थे. ये सोच-विचार धीरे-धीरे हमारी पार्टी को देश की मिट्टी से जुदा कर दे रहे थे, उसे कम्युनिस्ट आंदोलन की धारा से अलगाव में डाल रहे थे, इसका नतीजा पार्टी का विलोप ही होता. आज भी विभिन्न ग्रुप इन विचारों को नहीं छोड़ पाए हैं, परिणामस्वरूप वे सीमांत राजनीतिक संगठनों में बदल गए हैं. उनमें से कुछ तो पतित होकर पढ़ाकुओं की मंडली बन गए हैं, कुछ दूसरों ने राष्ट्रीयताओं अथवा अल्पसंख्यकों के आंदोलन की गोद में शरण ली है, तो कुछ अन्य लोग जनता से अलगाव में पड़कर जंगलों और पहाड़ों मे सशस्त्र कार्यवाहियां संचालित करने के नाम पर अराजकतावादी शक्तियों में बदल गए हैं. विड़ंबना तो यह है कि इसी को उन्होंने अपनी नियति मान ली है. अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य को प्रस्थान-बिंदु बनाए बिना देशव्यापी राजनीतिक संघर्ष की मुख्यधारा से अलग-थलग स्थानीय व आंशिक मांगों के संघर्ष का, चाहे वे कितने भी जुझारू क्यों न हों कम्युनिस्टों के लिए कोई मूल्य नहीं है. हमने पंद्रह वर्षों के लंबे अरसे तक प्रयत्न करके टुटे-फूटे टुकड़ों की स्थिति से निकलकर एक केंद्रीकृत एकतावद्ध पार्टी का निर्माण किया है; हम संघर्ष और संगठन के एकांगी विचारों को दूर करते हुए उनके विविध रूपों के बीच तालमेल कायम करने की कोशिश कर रहे हैं तथा स्थानीयतावाद का बांध तोड़कर देशव्यापी राजनीतिक संघर्ष में अपने को क्रांतिकारी जनवाद की धारा के तौर पर अभिव्यक्त करने के प्रयत्नों में लगे हुए हैं. सीपीआई(एमएल) ने विलोप के मुहाने से वापस लौटकर एक नई जिंदगी पाई है. इस परिस्थिति में वाम और जनवादी शक्तियों के साथ परस्परक्रिया करने के अवसर बढ़ गए हैं, विभिन्न स्तरों पर वामपंथी पार्टियों के साथ संबंध सुधारने और संयुक्त कार्यवाहियां करने की स्थिति पैदा हुई है, उनके जनाधारों को प्रभावित करने के लिए हमारा प्रचार पहले की तुलना में यथार्थोन्मुख हुआ है. सीपीआई, सीपीआई(एम) और वाम मोर्चा सरकार की निरी निंदा करके आत्मसंतुष्ट हो जाने की निम्न-पूंजीवादी क्रांतिकारिता के बदले हमारी आलोचना ठोस हुई है. नीचे से व्यापक वाम एकता का निर्माण करने की बात हमने पहले भी रखी थी, मगर हम आगे नहीं बढ़ सके थे. उसके लिए ऊपर से भी भिन्न-भिन्न समझौते करने जरूरी हैं. हमारी कार्यनीति में हुआ यह विकास नीचे से वाम एकता के आधार का निर्माण करने के हमारे कार्य को वास्तव में आगे बढ़ा दे सकता है. क्रांतिकारी संकट की तीव्रता बढ़ने के साथ-साथ ऐतिहासिक नियम के अनुसार ही व्यापक वामपंथी जनसमुदाय क्रांतिकारी धारा की ओर आकृष्ट होंगे तथा विभिन्न वामपंथी पार्टियां अथवा उसके महत्वपूर्ण हिस्से भी प्रकारांतर से क्रांतिकारी जनवाद की दिशा में कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाएंगे. अगर आज से ही हम वाम एकता की बुनियाद के निर्माण के कार्य को आगे बढ़ाते रहें तो आनेवाले दिनों में महासंघ का निर्माण करने की पहलकदमी भी अपने हाथों में रख सकेंगे. हमारा नारा हमें इस सच्चाई की याद दिला देता है कि हम भारतीय वामपंथी आंदोलन के अंदर की क्रांतिकारी धारा हैं. यह हमारे सामने एक विराट संभावना का द्वार खोल देता है और हम से मांग करता है कि हम आज से ही इस संभावना को साकार करने में अपनी सारी ताकत लगा दें.

मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति में हमारा नारा कितना प्रासंगिक है? आज कांग्रेस और नेशनल फ्रंट, शासक बर्गों के दोनों ही गठजोड़ वामपंथी शक्तियों का इस्तेमाल करने के प्रयत्न कर रहे हैं. कांग्रेस जिस प्रकार राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा करने और सांप्रदायिक शक्तियों का विरोध करने के नाम पर वामपंथी शक्तियों के बीच फूट डालकर उसे अपने निष्क्रिय साझीदार में बदल डालने का पुराना खेल खेल रही है, उसी प्रकार विश्वनाथ प्रताप सिंह वामपंथियों को अपना स्वाभाविक मित्र कहकर वामपंथी शक्तियों को अपने पीछे गोलबंद करने का प्रयत्न कर रहे हैं. फासीवाद-विरोधी संश्रय के नाम पर सीपीआई ने अतीत में कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाकर जैसे भारी भूल की थी, ठीक वैसे ही आज संघीय अथवा धर्मनिरपेक्ष विकल्प के नाम पर नेशनल फ्रंट का साथ देना भारी भूल होगी. आज वाम संश्रय को शक्तिशाली बनाने की जरूरत है और अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति की बुनियाद पर नेशनल फ्रंट के अंदर भी ध्रुवीकरण पैदा करना चाहिए. नेशनल फ्रंट एक अस्थिर राजनीतिक संगठन है और उसके घटकों में से जनता पार्टी और लोकदल गंभीर आंतरिक संकटों के शिकार हैं. लिहाजा, वामपंथी शक्तियां अपने स्वतंत्र प्रयत्नों के बलबूते एक शक्तिशाली विपक्ष की स्थित में पहुंच जा सकती हैं. महासंघ के नारे की बुनियाद पर हम अपने प्रचार-अभियान को वामपंथी विचारों वाली व्यापक जनता के बीच लोकप्रिय बना सकते हैं.

इसके अतिरिक्त वाम मोर्चे की घटक पार्टियों के अंदर सीपीआई(एम) से पृथक अस्तित्व जतलाने की, यहां तक कि वाम मोर्चा सरकार की जनविरोधी कार्यवाहियों की आलोचना करने की प्रवृत्ति बढ़ी है. सीपीआई विभिन्न राज्यों में सीपीआई(एम) से पृथक अपना खुद का कार्यर्कम तैयार करने की कोशिश कर रही है. वाम मोर्चे में शामिल आम तौर पर सारी पार्टियां, यहां तक कि पश्चिम बंगाल में भी, हमारे साथ संबंध बढ़ाने के लिए आगे आई हैं. इसके अतिरिक्त, सीपीआई(एम) के विभिन्न स्तरों में हमारे साथ संबंध सुधारने की प्रवृत्ति मौजूद है. महासंघ के हमारे नारे की रोशनी में इन सभी प्रवृत्तियों को शक्तिशाली बनाया जा सकता है.

निचोड़ के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि वाम और जनवादी महासंघ का निर्माण करने का हमारा नारा मार्क्सवादी दृष्टिकोण से, ऐतिहासिक विकास के परिप्रेक्ष्य में और वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति के मानदंड पर खरा उतरता है. तथापि इन तमाम कार्यों के नेतृत्व का केंद्र पार्टी अगर किसी प्रकार कमजोर रही और अगर स्वतंत्र संघर्ष खड़ा करने के कार्य की उपेक्षा की गई तो हम इस दिशा में आगे नहीं बढ़ सकेंगे. इसलिए आज का आह्वान है : पार्टी को कमजोर करने के हर जहरीले प्रयास को चकनाचूर करो, अपने स्वतंत्र जनधार को कई गुणा बढ़ाओ तथा वाम और जनवादी महासघ के निर्माण के संघर्ष में दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ो.

(चौथी कांग्रेस की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से – जनवरी, 1988)

अब हम राज्यों में सरकार बनाने की सीपीआई(एम) कार्यनीति तथा पश्चिम बंगाल में वाममोर्च सरकार के शास्त्रीय उदाहरण के संदर्भ में इस कार्यनीति पर अमल की चर्चा करेंगे.

ऐसी सरकारों के गठन के बारे में सीपीआई(एम) के कार्यक्रम में कहा गया है कि :

1. जन आंदोलनों से उत्पन्न स्थितियों में पार्टी के नेतृत्व में विभिन्न राज्यों में सरकारें बनाई जा सकती हैं. यह कार्यनीति संघर्ष का एक संक्रमणकालीन रूप है.

2. ऐसी सरकारें जनता की जीवन स्थितियों को उन्नत करने के लिए सुधार के कुछ कदम उठाएंगे. यह कार्यनीति बेहतर भविष्य के लिए संघर्षों में उठ खड़ा होने में जनता को मदद देगी.

3. ऐसी सरकार चलाने के अनुभवों के जरिए जनता बुर्जुआ-जोतदार व्यवस्था की सीमाओं के बारे में शिक्षित होगी.

जब इस कार्यक्रम को सूत्रबद्ध किया गया था, तब पार्टी इन सरकारों की स्थिरता के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं थी, इसीलिए कार्यक्रम में चंद कल्याणकारी कदमों का और उनके जरिए बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष में जनता को जागृत करने का ही जिक्र किया गया है. केंद्र में ऐसी सरकार के गठन की संभावना से इनकार किया गया है. सीपीआई से सीपीआई(एम) का यही एक बड़ा अंतर था. सीपीआई के लिए संसदीय रास्ता ही क्रांति का एकमात्र रास्ता था और ठोस रूप में कांग्रेस के प्रगतिशील हिस्सों के साथ मिलकर केंद्र में सरकार के गठन के जरिए उस क्रांति को संपन्न किया जाना था.

1977 के बाद सीपीआई (एम) ने अपने को एक अजीबोगरीब स्थिति में पाया. न सिर्फ वह पश्चिम बंगाल, केरल तथा त्रिपुरा में सरकार गठित करने में कामयाब हुई, बल्कि इस बार, 1967-69 की अवधि के विपरीत, पश्चिम बंगाल की सरकार पूरे एक दशक तक सत्ता में बनी रही और तीसरी दफा भी काफी अच्छे ढंग से चुनाव जीत गई और अगर कोई असाधारण घटना नहीं घटी, तो त्रिपुरा सरकार द्वारा भी तीसरी दफा बाजी मारलेना तय है, पांच वर्षों के अंतराल के बाद, केरल में फिर वाम-जनवादी सरकार आ गई है. 1977 के बाद से केंद्र सरकार या शासक वर्गों द्वारा इन सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए कोई गैर-संवैधानिक कदम नहीं उठाया गया, बल्कि कमोबेश संसदीय खेल के नियमों का ही पालन किया जा रहा है.

दस वर्षों से भी अधिक समय तक लगातार शासन ने संक्रमणकालीन सरकार पर अतिरिक्त बोझ डाल दिया है. बात अब चंद कल्याणकारी कदम उठाने तथा बुर्जुआ-जोतदार व्यवस्था के बारे में जनता को शिक्षित करने तक ही सीमित नहीं रह गई, बल्कि सीपीआई(एम) अब केंद्र से और अधिक धन तथा अधिकार हासिल करने, तथा केंद्र-राज्य संबंध के पुनर्गठन की मांग उठाने लगी. पिछले दस वर्षों से इस पार्टी का यही केंद्रीय नारा रहा है. यही तमाम राज्य सरकारों के संयुक्त मोर्चे की बुनियादी रणनीति रही है; चाहे उन सरकारों का राजनीतिक रंग जो भी रहा हो (ज्योति बसु अक्सर कांग्रेसी मुख्यमंत्रीयों से भी एकता कायम कर लेते हैं). जनता को यही शिक्षा दी गई है कि केंद्र खासकर पश्चिम बंगाल के साथ भेदभाव बरतता है और यदि राज्य सरकार को अधिक धन दिया जाए, उसे ज्यादा अधिकार प्राप्त हों तो वह जनता के लिए बहुत कुछ कर सकती है. यह प्रचार अक्सर इस राष्ट्रवादी प्रचार के करीब चला जाता है कि पश्चिम बंगाल तथा बंगाली लोग अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं. पश्चिम बंगाल के हितों के लिए केंद्र के खिलाफ एकताबद्ध संघर्ष में कांग्रेस(आइ) के सांसदों और विधायकों से भी सहयोग की मांग की जाती है. अशोक सेन के साथ हाल का संश्रय इसी का संकेत है.

फिर, पश्चिम बंगाल के ‘औद्योगीकरण’ की जिम्मेवारी भी सरकार के कंधों पर आ गई है. इसके लिए सरकार को देशी एकाधिकारी घरानों तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सहयोग लेना पड़ा है और इसी कारण हड़ताल तथा जुझारू मजदूर आंदोलनों को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता. यह जिम्मेवारी तो और भी महंगी पड़ गई, क्योंकि पश्चिम बंगाल औद्योगिक मोर्चे पर गंभीर संकट से गुजर रहा है. उद्योगों के बीमार होने की परिघटना इस राज्य में बड़ी तेजी से फैल रही है. मगर दुर्भाग्यवश, वर्तमान स्थितियों में मजदूर वर्ग तो औद्योगीकरण की जिम्मेवारी कत्तई अपने कंधों पर नहीं उठा सकता. यह कार्य केवल इजारेदार घरानों और बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा ही पूरा किया जा सकता है; लिहाजा ‘औद्योगिक शांति बनाए रखना ही समूचे संदेश की सारवस्तु बन गया है, और कहने की  जरूरत नहीं कि इसके चलते पश्चिम बंगाल में सीटू का चरित्र गुणात्मक रूप से बदल गया है. जो मजदूर सीटू के इस आदेश की अवहेलना करते हैं उन्हें प्रायः सरकारी दमन का शिकार होना पड़ता है. इस पार्टी का मजदूर वर्ग से बड़ता अलगाव, जो क्रमिक चुनाव-परिणामों में अभिव्यक्त हुआ है, कुल मिलाकर इसी नीति का संचित परिणाम है. तथापि, पार्टी ने 1984 के संसदीय चुनाव में लगभग तमाम दिग्गज ट्रेड यूनियन नेताओं की हार के पीछे इंदिरा की हत्या के बाद की असाधारण लहर को जिम्मेवार ठहराया. इसी प्रकार 1987 में कतिपय मजदूर-बहुल चुनाव क्षेत्रों में अपनी पराजय का कारण यह पार्टी गैर-बंगाली मजदूरों की जातिवादी, सांप्रदायिक और हिंदी अंधराष्ट्रवादी भावनाओं में ढूंढ़ने लगी. अपने अस्तित्व की वस्तुगत स्थितियों से मजदूर होकर वाम मोर्चा सरकार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रबंधकों की तरह बर्ताव करती जा रही है, इससे भी बुरी बात यह है कि उन्होंने संकटकालीन प्रबंधन का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया है.

प्रशासन व राज्य यंत्र की रहनुमाई करने तथा मजदूरों एवं किसानों के कुछ हिस्सों के अलावा समाज के विभिन्न असंतुष्ट वर्गों, जैसे जूनियर डाक्टरों, इंजीनियरों, राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों आदि के आंदोलनों से निपटने की जिम्मेदारी सरकार के कंधों पर आ पड़ी है. इस जिम्मेवारी से बाध्य होकर सरकार पुलिस प्रशासन को शक्तिशाली बनाने और पुलिस अफसरों तथा उनके काले कारनामों का बचाव करने जैसा अप्रिय रास्ता भी अपना रही है. जनआंदोलनों से निपटने के लिए उसने वही परंपरागत रुख अपनाया है. गोरखा आंदोलन को कुचलने के लिए उसने केंद्र से अधिक-से-अधिक सीआरपीएफ की मांग की है और हाल ही में अपने वायदे को तोड़ते हुए पश्चिम बंगाल में आतंकवाद विरोधी कानून लागू किया है.

ग्रामीण क्षेत्र में सीपीआई (एम) को अभी भी प्रबल जन-समर्थन प्राप्त है और उसने अपना सामाजिक आधार फैलाने में सफलता पाई है. उसने ऑपरेशन बर्गा, पंचायत, और विभिन्न राहत-उपायों के जरिए कतिपय भूमि-सुधारों को अंजाम दिया है तथा खासकर छोटी जोतों के लिए सरकारी मदद पर आधारित कृषि-विकास का प्रयोग किया है. वर्तमान आर्थिक संरचना में इन तमाम उपायों के असर से पूंजीवादी कृषि के विकास को थोड़ा आवेग अवश्य मिला है.

सीपीआई(एम) के एक सिद्धांतकार ने 1987 में देशहितैषी (पार्टी का राज्य मुखपत्र) के शारदीय अंक में उस राज्य के ग्रामीण परिदृश्य का मूल्यांकन करते हुए ये बातें कहीं :

1. ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक असमानता और आय के फर्क को घटाया नहीं जा सका है.

2. हर इलाके में ऐसा देखा जाता है कि बर्गादारों ने स्वेच्छापूर्वक अपनी जमीन खेतमालिकों को सौंप दी तथा जिन गरीब किसानों को पट्टा मिला था, उन्होंने वह जमीन मध्यम किसानों अथवा धनी किसानों के हाथों सालाना पट्टे पर उठा दिया.

3. किसानों द्वारा अपनी जमीन खोकर भूमिहीन बनते जाने की प्रक्रिया को नहीं रोका जा सका है, उल्टे इसने जलिट रूप ग्रहण कर लिया है.

4. भाड़े पर मजदूर रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है. खेत मजदूरों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है तथा स्टेशनों पर व ग्रामीण बाजारों में अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए उनका नियमित रूप से इकट्ठा होना अब एक सुपरिचित दृश्य बन गया है.

ये सभी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विकास के लक्षण हैं. आधुनिक जोतदारों, धनी किसानों और पूंजीवादी फार्मरों की आय बढ़ी है और उनकी स्थिति पहले से ज्यादा सुदृढ़ हुई है. हमारे अपने अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि पुराने किस्म की जमींदारी और खेत मजदूरों की अर्ध-बंधुओं स्थितियां बहुत हद तक नष्ट हुई हैं और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिला है. सहकारी समितियों के कर्जों का काफी बड़ा भाग और ऋण व लागत की अन्य सुविधाएं पूंजीवादी फार्मरों द्वारा हड़प ली जाती हैं. ठोस रूप से कहा जाए तो सीपीआई(एम) का कृषि-कार्यक्रम धनी कृषक अर्थव्यवस्था के विकास की सहायता करने और समय-समय पर खेत मजदूरों की मजदूरी में थोड़ी वृद्धि कर देने के बीच संतुलन बनाए रखने की कसरत बन गया है. मध्यम कृषक अर्थव्यवस्था गतिरोध का सामना कर रही है. कुल मिलाकर, सीपीआई(एम) आजकल अखिल भारतीय स्तर पर धनी किसानों समेत तमाम किसानों की एकता और लाभकारी मूल्य की मांग पर ज्यादा जोर दे रही है.

फिर भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिरकार ये सरकारें इतने वर्षों तक सत्ता में टिकी हुई हैं; शासक वर्ग इतनी सहजता से इन सरकारों को जनता की चेतना व संगठन उन्नत करने और पूंजीवादी भूस्वामी व्यवस्था की सीमाओं के बारे में जनता को शिक्षित करने का मौका कैसे दे रहा है? सीपीआई(एम) के नेताओं के पास यही एक रटा-रटाया जवाब है कि पश्चिम बंगाल की जनता की जुझारू चेतना के चलते ही ऐसा संभव हो सका है. वे कहानी के दूसरे पहलू की, अर्थात्, ऐसी सरकारों को बरकरार रखने की शासक वर्गों की नई उन्नत कार्यनीति की कभी चर्चा नहीं करते हैं.

निस्संदेह, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे को जनसमर्थन हासिल है तथा कांग्रेस(आइ) अभी भी बदनाम और असंगठित है (हालांकि ध्यान रहे कि कांग्रेस को चुनाव में अकेले लगभग 40 प्रतिशत मत मिलते हैं और इसमें महज 5 प्रतिशत का परिवर्तन होने से पलड़ा उसके पक्ष में झुक जाएगा) और शासक वर्गों द्वारा इस सरकार को बरकरार रखने के पीछे यह एक महत्वपूर्ण कारण है. वाम मोर्चा सरकार अपने जन-समर्थन के कारण औद्योगिक शांति की गारंटी करने के लिए एक अच्छा मुहरा साबित हो रही है. जहां तक सवाल शासक वर्गों के प्रभुत्व को खतरा पहुंचने का है, तो इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि जनता की जीवन दशा को बेहतर बनाने के लिए कुछ कल्याणकारी उपाय अपनाने का नरमपंथी कार्यक्रम दरअसल भारत में सभी प्रकार की सरकारों का कार्यक्रम है. हां, फर्क केवल यत्र-तत्र इसे लागू करने की गति में निहित है. साथ ही, सीपीआई(एम) के उपदेशों में एक फर्क यह भी है कि वह जनता को पूंजीवादी-भूस्वामी व्यवस्था की सीमाबद्धताओं के बारे में शिक्षित करती है. शासक वर्ग सीमाबद्धताओं के बारे में इस शिक्षा से तनिक भी नहीं घबराता है. ऐसी सरकारों की लंबी कार्यविधि जनता को संसदीय जनवाद की असीम संभावनाओं के बारे में ही ज्यादा शिक्षित करती है. राज्य-व्यवस्था की सीमाबद्धताओं के बारे में शिक्षा पहले राज्य सरकारों की सीमित सत्ता और फिर राज्य सरकारों के सीमित राजकोष के बारे में शिक्षा में तब्दील हो गई है!

वर्तमान अवस्था में शासक वर्गों की रणनीति यह नहीं है कि इन सरकारों को गिरा देने के लिए षड्यंत्र रचा जाए, जैसा कि सीपीआई(एम) के नेता लोग जनसमुदाय को यकीन दिलाना चाहते हैं; उल्टे उनकी रणनीति है एक उत्तरदायी सरकार बन जाने के लिए उन पर दबाव डालना. संक्षेप में इस सवाल पर यही तमाम पूंजीवादी प्रचार की केंद्रीय विषयवस्तु रही है. उन्होंने अनुभव से सीखा है कि यह दबाव सीपीआई(एम) पर असर डालेगा. पूंजीवादी-भूस्वामी व्यवस्था के अंदर इतना लचीलापन मौजूद है कि वह कदम-ब-कदम वाम सरकार को अपने अंदर पचा ले तथा संक्षेप में, वाम मोर्चा सरकारों के साथ यही कुछ हो रहा है. यही वह बुनियादी सवाल है जिस पर सीपीआई(एम) कभी कोई चर्चा ही नहीं करती.

उत्तरदायी राज्य सरकारें चलाते हुए सीपीआई(एम) को अपने भावी तर्कसंगत कदम के बतौर केंद्र में, जहां समस्त सत्ता निहित है, सरकार बनाने का कार्यक्रम लेना ही होगा. सीपीआई(एम) तीन राज्यों में सरकार का नेतृत्व कर रही है और राजीव सरकार का संकट दिनोंदिन गहराता जा रहा है. सीपीआई(एम) के लिए नए दौर की सैद्धांतिक कलाबाजियां करने के सुनहरे दिन आ गए हैं. पश्चिम बंगाल के प्रयोग के मुख्य कर्ताधर्ता और नई कार्यदिशा के प्रमुख निर्माता ज्योति बसु के इन शब्दों को सुनिए : “केंद्रीय कमेटी ने न सिर्फ राजीव सरकार के इस्तीफे की और नया चुनाव कराने की मांग की है, बल्कि उसने एक वैकल्पिक सरकार के निर्माण के बारे में भी चर्चा उठाई है. केंद्रीय कमेटी द्वारा गृहीत प्रस्ताव में ऐसी सरकार की प्रकृति के बारे में स्पष्ट रूप से इशारा किया गया है.”

तब वे केंद्रीय कमेटी के प्रस्ताव से उद्धरण देते हैं  : “केंद्रीय कमेटी का मत है कि हमारे देश की जनता एक ऐसी सरकार चाहती है जिसका दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष हो; ऐसी सरकार जो संप्रदायवाद से लड़ने के लिए समर्पित हो जो सर्वसत्तावाद का मुकाबला करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो, जो जनवाद की रक्षा करे और भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंके; ऐसी सरकार जो उचित केंद्र-राज्य संबंध, गुट-निरपेक्षता और विश्वशांति के पक्ष में डटी रहे; ऐसी सरकार जो राष्ट्रीय एकता की रक्षा करे, अस्थिरता पैदा करनेवाली साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध करे; ऐसी सरकार जो लाभकारी मूल्य प्रदान करे तथा बेरोजगारों को तथा कम मजदूरी पानेवालों को राहत दे.”

और तब श्री ज्योति बसु घोषणा करते हैं, “हमारी पार्टी ऐसी सरकार के निर्माण में पूरा-पूरी मदद करेगी.”

धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की यह एकता, “धर्मनिरपेक्ष मोर्चे” की यह सरकार श्री ज्योति बसु के अनुसार न तो “जनता का जनवादी मोर्चा है” और न ही “वाम और जनवादी मोर्चा.” और तब वे पार्टी सदस्यों को आश्वासन देते हैं कि “हम अपने बुनियादी लक्ष्य से (अर्थात जनता के जनवादी मोर्चे के निर्माण के लक्ष्य से) पथभ्रष्ट नहीं हुए हैं; इससे कभी भटकेंगे भी नहीं.”

फिर भी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह “धर्मनिरपेक्ष मोर्चा” सीपीआई(एम) की कार्यनीति में एक नया अवदान है. और जिस प्रकार वे वीपी सिंह के साथ विशेष सम्बंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं तथा जिस प्रकार वे कांग्रेसी सांसदों से और कांग्रेस के अंदर “मूक बहुमत” से धर्मनिरपेक्ष आदर्शों के लिए उठ खड़ा होने की लगातार अपीलें जारी कर रहे हैं और उनसे कांग्रेस छोड़ देने का आग्रह कर रहे हैं, उससे इस “धर्मनिरपेक्ष सरकार” की पूरी अंतर्वस्तु ही नष्ट हो जाती है. अब यह स्पष्ट हो गया है कि सीपीआई(एम) भी सीपीआई के बिलकुल करीब आ पुंची है – सीपीआई की भांति उसने भी संसदीय रास्ते पर चलते हुए कांग्रेस के प्रगतिशील (पढ़े धर्मनिरपेक्ष) हिस्से के साथ मिलकर केंद्र में सरकार बनाने की धारणा स्वीकार कर ली है. और इस तरह चक्र पूरा हो गया है.

(लिबरेशन, जनवरी 1984 से)

अबतक यह सुविदित हो चुका है कि राष्ट्रीय पैमाने पर जनमोर्चे के निर्माण से संबंधित हमारी पार्टी लाइन को विलोपवादी और अराजकतावादी दोनों ही दृष्टिबिंदुओं के समान रूप से तीखे आक्रमण का सामना करना पड़ा रहा है. विलोपवादी दृष्टिबिंदु से इसका विरोध इस आधार पर किया जाता है कि यह मोर्चा इंदिरा गांधी द्वारा अमल में लाए जा रहे सर्वसत्तावाद/फासीवाद को चुनौती देने के अपने प्रयत्न में, दलाल बुर्जुआ के हिस्सों और संसदीय विपक्ष को अपने दायरे से बाहर ही रखना है; जबकि अराजकतावादी दृष्टिबिंदु वाले लोग, पुराने राज्य यंत्र को मटियामेट कर देने की ‘बुनियादी लाइन’ का झंड़ा बुलंद रखने के नाम पर अपने-आप में किसी भी राजनीतिक मोर्चे के निर्माण का ही विरोध करते हैं. मोर्चे के निर्माण के विचार का विरोध करने के क्रम में एक ही बिंदु पर पहुंचनेवाले इन दो ‘अतिवादी’ दृष्टिबिंदुओं के उदाहरण कुछ कम नहीं हैं. यहां हम एक पार्टी अंश सेंट्रल आर्गेनाइजिंग कमेटी (पार्टी यूनिटी) द्वारा उसके मुखपत्र ‘पार्टी-यूनिटी’ (अगस्त 1983 अंक) में की गई हमारी पार्टी लाइन की आलोचना पर विचार करेंगे. हम समझते हैं कि उनकी आलोचना अराजकतावादी दृष्टिबंदु से पैदा हुई है और हमें उम्मीद है कि उसकी आलोचनात्मक समीक्षा की प्रक्रिया में, जनमोर्चे के निर्माण का मार्गदर्शन करनेवाली सैद्धांतिक प्रस्थापनाओं की और विशद व्याख्या की जा सकेगी.

एक राष्ट्रीय राजनीतिक मोर्चा क्यों?

सीओसी-पीयू यह दावा करती है कि वह संकीर्ण स्थानीयतावाद से ऊपर उठ चुकी है, तथा वह इस बात से सहमत है कि राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक चरित्रवाले जनवादी जन आंदोलनों में जनसमुदाय को संगठित करने और नेतृत्व देने के लिए अस्थायी स्वरूप वाले विभिन्न राष्ट्रीय फोरमों का निर्माण किया जा सकता है और किया जाना चाहिए. (जोर हमारी तरफ से)

एक निश्चित हद तक वर्ग संघर्ष तीव्र हो जाने के बाद और जनता के जनवादी मोर्चे (पीडीएफ यानी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट) के लिए आवश्यक स्थितियां हासिल हो जाने पर ‘इन राष्ट्रीय फोरमों का क्या होगा’ – यह सवाल अनुत्तरित ही रह जाता है.

आइए, आगे बढ़ें. पीडीएफ ‘एक क्रांतिकारी कार्यक्रम के साथ संघर्ष के मुख्य रूप के बतौर हथियारबंद संघर्ष को लेकर कालक्रम में पैदा होता है’ तथा आगे वह ‘राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक संघर्षों का नेतृत्व करने के लिए एक फोरम के रूप में भी काम कर सकता है.’

पीडीएफ के निर्माण के सवाल पर सीओसी-पीयू का दावा है कि उन्होंने 1970 के दशक में अख्तियार की गई पार्टी लाइन का दो मामलों में शुद्धीकरण किया है. अव्वल तो उन्होंने ‘कम से कम देश के कुछेक इलाकों में लाल राजनीतिक सत्ता’ की कठोर शर्त को खारिज कर दिया है और उसकी जगह पर ‘देहातो में हथियारबंद संघर्ष के विस्तृत इलाके, जो हालांकि मुक्तांचल नहीं भी हो सकते हैं’ – की शर्त को ला बिठाया है. केवल परलोक के प्राणी ही इन दो शर्तों के बीच का फर्क समझ सकते हैं. अगर हमारे पास ‘हथियारबंद संघर्ष के विस्तृत इलाके’ मौजूद हैं, तो क्या यह कत्तई स्वाभाविक नहीं है कि उनमें से कुछ इलाके लाल क्षेत्रों में तब्दील हो जाएंगे, अथवा दूसरे शब्दों में कहिए तो, कुछेक लाल क्षेत्रों का विकास किए बिना क्या हथियारबंद संघर्ष को विस्तृत इलाकों तक फैलाना किसी भी तरह संभव है?

दूसरे, वे 1970 के दशक की पार्टी लाइन में प्रतिपादित ‘संकीर्ण नीति’ के विपरीत, संयुक्त मोर्चे की एक ‘सुविस्तृत नीति’ की वकालत करते हैं. इस सुविस्तार को इस तरह परिभाषित किया गया है; “एस्मा, एनएसए, प्रेस बिल, मूल्यवृद्धि, साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा थोपी गई अपमानपूर्ण शर्तों के सामने आत्मसमर्पण आदि के खिलाफ संघर्ष करने के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियों व शक्तियों के साथ, जिनमें संसदीय विपक्ष के खेमे से संबंधित पार्टियां व शक्तियां भी शामिल हों, एकताबद्ध होना.”

सारांश यह कि या तो आप राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक चरित्रवाले जनवादी जन आंदोलनों को संगठित करने और उन्हें नेतृत्व देने के लिए संसदीय विपक्ष को शामिल करते हुए राष्ट्रीय फोरमों का गठन करें, या फिर, हथियारबंद संघर्ष के विस्तृत इलाकों को आधार के रूप में लेकर पीडीएफ का निर्माण करें.

जहां तक पीडीएफ का ताल्लुक है, उनकी अपनी ही स्वीकृति के अनुसार, स्थितियां अभी तक परिपक्व नहीं हुई हैं और कोई व्यक्ति बिना किसी जोखिम के यह अंदाज लगा सकता है कि कम-से-कम निकट भविष्य में इनके परिपक्व होने की संभावना भी नहीं है. अब हमारी पार्टी ने ‘स्थितियां परिपक्व नहीं हुई हैं’ के बहाने स्तवःस्फूर्तता की पूजा करने से एकदम इनकार कर दिया है. उसने आर्थिक चरित्रवाले जनवादी जन आंदोलनों का नेतृत्व करने के लिए राष्ट्रीय फोरम के निर्माण से ही संतुष्ट हो जाने से भी इनकार कर दिया है. मूल बात यह है कि यद्यपि हमारे पास हथियारबंद संघर्ष के विस्तृत इलाकों का अभाव है, लेकिन हमने देश के विभिन्न भागों में कृषक प्रतिरोध के संघर्ष के कुछेक इलाके जरूर कायम किए हैं तथा भारतीय जनता के अनेक तबकों पर हमने भारी विचारधारात्मक व राजनीतिक प्रभाव डाला है. अगर हम, भारत की क्रांतिकारी व जनवादी शक्तियां, एकजुट होने का फैसला करें और राजनीतिक कार्यवाही का एक तत्काल आवश्यक कार्यक्रम सूत्रबद्ध करें तो हम सचमुच एक महत्वपूर्ण शक्ति बन सकते हैं. हम संशोधनवादियों सहित संसदीय विपक्ष को जनवादी संघर्षों की मुख्यधारा से अलगाव में डालने के लिए कारगर प्रयास चला सकते हैं; हम आम जनवादी आंदोलन पर एक क्रांतिकारी जनवादी छाप छोड़ सकते हैं; हम राष्ट्रीय राजनीति के ज्वलंत सवालों पर अपने वैकल्पिक विचार जोरदार ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं; और इस तरह हम पीडीएफ के निर्माण की दिशा में एक कदम बढ़ा सकते हैं. ध्यान दीजिए, पीडीएफ की दिशा में एक कदम, न कि खुद पीडीएफ! पीडीएफ का निर्माण करना एक प्रक्रिया है और फिलहाल हमारे पास जो कुछ साधन-स्रोत उपलब्ध हैं उन्हें लेकर, आइए, उस लक्ष्य की ओर पहला कदम बढ़ाएं. इस एक कदम को महज राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक चरित्रवाले जन आंदोलनों से ही संबंध नहीं रहना चाहिए. बल्कि इसे जनसमुदाय की स्वतंत्र राजनीतिक गोलबंदी और राष्ट्रव्यापी राजनीतिक संघर्षों पर जोर देना चाहिए.

अतीत से सीखते हुए और वर्तमान में जीते हुए, हमारी पार्टी ने भविष्य में एक कदम आगे बढ़ाने का फैसला लिया है और इसी एक कदम ने तमाम विवादों को जन्म दिया है. और, पीडीएफ के बारे में सारी लफ्फाजी के बावजूद, वर्तमान वास्तविक जीवन में कोई भी व्यक्ति बखूबी चिह्नित कर सकता है कि निरंकुशता विरोधी राजनीतिक पहलकदमी को बुर्जुआ विपक्ष के हवाले करके तथा राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक चरित्रवाले जनवादी जन-आंदोलनों को संगठित करने व उन्हें नेतृत्व देने के लिए संसदीय विपक्ष के साथ राष्ट्रीय स्तर के फोरमों के निर्माण से ही संतुष्ट होकर, विलोपवादी और अराजकतावादी दृष्टिकोण एक ही बिंदु पर मिल गए हैं.

हम जिस जनमोर्चे की धारणा प्रस्तुत करते हैं, उसकी शक्तियां सिर्फ नवजनवाद के सामाजिक आधार से ही आएंगी. यह उसूल का सवाल है. देशभक्ति और राष्ट्रीय एकता की पताका बड़े बुर्जुआ व बड़े जोतदारों की गिरफ्त से जनसमुदाय को छुड़ाकर अपने पक्ष में जीत लेने तथा जागृत जोतदारों और कुछ बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का भी समर्थन हासिल करने में मोर्चे की मदद ही करेगी.

बहरहाल बुर्जुआ और संशोधनवादी विपक्ष की पार्टियों और जनसंगठनों के साथ मुद्दा आधारित संयुक्त कार्यवाहियों से कभी भी इनकार नहीं किया जा सकता. ये कार्यवाहियां किन रूपों में स्वीकार होंगी; उन पार्टियों व संगठनों के अंतरविरोधों का कैसे इस्तेमाल किया जा सकेगा. उनके बीच कौन-सी दरारें डाली जा सकती हैं; कालांतर में अपेक्षाकृत छोटी पार्टियों और खास-खास व्यक्तिगत नेताओं की स्थिति में क्या-क्या परिवर्तन घटित होंगे – ये तमाम चीजें मार्चो द्वारा इनके संबंध में अख्तियार की जानेवाली कार्यनीतियों के जरिए ही तय होंगी. इस सिलसिले में हमारा अनुभव बहुत कम है और यह स्पष्ट है कि कुछ गलतियां भी होंगी. हमें उन गलतियों से सीखना होगा और अपनी नीतियों को पूर्ण करते जाना होगा.

मोर्चा और आधार इलाका

नक्सलबाड़ी के समय से किसान संघर्षों के इतिहास की समीक्षा करते हुए, हम पाते हैं कि हथियारबंद किसान संघर्ष – चाहे नक्सलबाड़ी में हों या श्रीकाकुलाम में या बीरभूम में – एक या दो वर्षों से ज्यादा नहीं टिक सके. और 1976 तक शायद बिहार के भोजपुर को छोड़कर बाकी तमाम जगह किसान संघर्ष के इलाके को धक्कों का सामना करना पड़ा. केवल 1977के बाद ही, ऐसे इलाके विकसित करने के प्रयास नए सिरे से शुरू किए जा सके और पार्टी लाइन में संयोजनों की बदौलत किसान संघर्ष के इलाके अब अपेक्षाकृत लंबी अवधि तक टिके हुए हैं. बिहार की पटना-गया-भोजपुर पट्टी में किसी जगह अग्रगति के साथ और किसी जगह पीछे हटकर, कृषक प्रतिरोध संघर्षों को बरकरार रखा गया है; खासकर पटना-गया-नालंदा अंचल के किसान उभार ने हाल के वर्षों में अभूतपूर्व रूप धारण कर लिया है. ऐसे प्रयास हमारे द्वारा और अन्य पार्टी अंशों द्वारा भी देश के अन्य अनेक भागों में चलाए जा रहे हैं तथा इस लिहाज से महत्वपूर्ण सफलताएं भी प्राप्त हुई हैं.

फिर भी, बिहार के किसान संघर्ष के सर्वाधिक आगे बढ़े हुए इलाकों में भी, आप निकट भविष्य में उन इलाकों को आधार क्षेत्रों में तब्दील करने की कोशिश नहीं चला सकते. मध्यम व उच्च मध्यम तबकों के बड़े हिस्सों को जीत लेने के उद्देश्य से जातीय पूर्वाग्रहों पर विजय पाने के मामले में हम अभी तक कोई महत्वपूर्ण गतिरोध भंग नहीं कर सके हैं. हथियारबंद संघर्ष को उच्चतर अवस्था तक उठाने और आधार क्षेत्रों के निर्माण का कार्यभार हाथ में लेने से पहले हमें जनसमुदाय को राजनीतिक रूप से गोलबंद करने तथा वर्गीय व सामाजिक संतुलन को अपने पक्ष में करने के लिहाज से भी एक लंबा रास्ता तय करना है. यहां, इस बात को नोट करना उत्साहवर्द्धक होगा कि जहानाबाद में सीओसी(पीयू) ग्रुप के साथियों ने अपनी कुछेक बेहूदी धारणाओं से अपना पिंड छुड़ाने का निश्चय किया है और वे कुछ व्यावहारिक निष्कर्षों तक आ पहुंचे हैं. “पार्टी-युनिटी” के अक्टूबर 1982 अंक में प्रकाशित उनके एक सार-संकलन के अनुसार “हथियारबंद कार्यवाहियों के स्वरूप व स्तर को जनआंदोलनों को आगे बढ़ाने में सहायक होना चाहिए” और “फिलहाल आमतौर से आंदोलन आंशिक मुद्दों पर खड़ा किया जा रहा है. इसलिए इस मंजिल पर, कानूनी अवसरों का लाभ उठाते हुए तथा दुश्मन के खेमे में मौजूद विभिन्न अंतरविरोधों का दक्षतापूर्वक इस्तेमाल करते हुए व्यापक जनसमुदाय को गोलबंद करना निहायत जरूरी है.” अतः जहां तक और भी व्यापक क्षेत्रों तथा हथियारबंद संघर्ष के विस्तार का, अथवा दूसरे शब्दों में लाल क्षेत्रों के निर्माण की ओर निर्णायक कदम उठाने का सवाल है, वर्तमान समय तथा आनेवाले एक लंबे समय तक के लिए भी मांग यही है कि अपनी शक्तियों को सुरक्षित रखा जाए और संघर्ष के इलाकों में अपने पक्ष में वर्ग शक्तियों के संतुलन को बदलने में एक बड़े गतिरोध-भंग को अंजाम दिया जाए. यही एक बिंदु है जिस पर तमाम उकसावेबाजियों के बावजूद निशीथ-अजीजुल के रास्ते पर चलने से इनकार करनेवाले भारत के सभी गंभीर क्रांतिकारी समान विचार रखते थे.

बहरहाल, यह अनुभूति ही अपने-आप में काफी नहीं है. आधार क्षेत्रों के निर्माण या और भी व्यापक इलाकों तक हथियारबंद संघर्ष के विस्तार के लिए एक अनुकूल राष्ट्रीय परिस्थिति भी आपेक्षित है. चीन में जैसा कि अध्यक्ष माओ ने बताया था, शासक बर्गों के विभिन्न हिस्सों के बीच लगातार जारी संघर्षों और युद्ध ने लाल क्षेत्रों की मौजूदगी व विकास के लिए आधारभूत स्थिति मुहैया की थी. भारत में स्थितियां भिन्न हैं.

एक केंद्रीय औपनिवेशिक राज्य-तंत्र को विरासत में पाने के चलते भारतीय शासक वर्ग संसद के जरिए कुल मिलाकर अपने अंतरविरोधों को सीमा के अंदर रखने में सक्षम रहे हैं. सार्विक मताधिकार और बुर्जुआ जनवाद की औपचारिक संस्थाएं भी जन-विद्रोहों पर शमनकारी प्रभाव डालती हैं और सामाजिक जनवाद की पैदाइश के लिए उर्वर भूमि मुहैया करती हैं. विद्यमान राजनीतिक प्रणाली में समय-समय पर तीखे दबाव व तनाव पैदा होते रहे हैं और क्रांतिकारी व जनवादी शक्तियों ने ऐसी परिस्थिति का इस्तेमाल करने के लिए कदम बढ़ाया है. मौजूदा दौर में, शासक वर्गों के कतिपय हिस्सों के बीच संघात बढ़ रहे हैं. नई सामाजिक शक्तियां शक्ति संरचना में नए संतुलन की मांग कर रही हैं, पृथकतावाद के खिलाफ और राष्ट्रीय अखंडता के लिए चीख-पुकार मची है, राष्ट्रीय पार्टियों के आमने-सामने आंचलिकतावादी पार्टियां अपनी दावेदारी पेश कर रही हैं, और सांप्रदायिक व धार्मिक तनाव विकसित हो रहे हैं. विद्यमान संस्थाओं के ढांचे के अंदर विरोधों पर काबू रखना उत्तरोत्तर नामुमकिन होता जा रहा है तथा केंद्र-राज्य संबंध, राजसत्ता के एकात्मक बनाम संघीय चरित्र, अध्यक्षीय प्रणाली की सरकार की ओर संक्रमण आदि सवालों पर छिड़े हुए विवाद राजनीतिक संकट की विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं जो संवैधानिक संकट के रूप में आकार ग्रहण करती जा रही हैं.

बढ़ते हुए राजनीतिक संकट के इस दौर में निष्क्रिय प्रेक्षक बने रहने के बजाए, तीसरी पार्टी कांग्रेस ने क्रांति के पक्ष में सामाजिक शक्तियों के संतुलन को परिवर्तित करने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में सक्रियतापूर्वक हस्तक्षेप करने का दृढ़ निश्चय किया तथा एक जनमोर्चे के निर्माण का विचार प्रतिपादित किया.

सीओसी(पीयू) के कामरेड इस बात से सहमत हैं कि पार्टी-कांग्रेस की रिपोर्ट में विवेचित दो धाराएं – किसान समुदाय के प्रतिरोध संघर्ष और भारतीय जनता के विभिन्न तबकों के जनवादी आंदोलन – समकालीन भारत में समानांतर रूप से चल रहे हैं. लेकिन जब पार्टी-कांग्रेस द्वारा यह घोषणा की जाती है कि इन दो धाराओं को अनिवार्यतः समन्वित किया जाना चाहिए, तो वे असहमत हो जाते हैं. अब, इस समन्वय का तात्पर्य क्या है? देहाती इलाकों में आधार क्षेत्रों का निर्माण हमारी पार्टी का केंद्रीय कार्यभार है और इस मामले में पार्टी एक पल के लिए भी अपने प्रयत्नों को हरगिज शिथिल नहीं होने देगी और जनमोर्चे को ठीक इसी कार्यभार को धुरी बनाकर चलना होगा. राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मोर्चे का निर्माण आधार क्षेत्रों के निर्माण से भटकाव नहीं है, बल्कि इसके विपरीत भारत की मौजूदा ठोस स्थितियों के अंतर्गत जनमोर्चे के जरिए एक चक्करदार मार्ग अख्तियार करना ही आधार क्षेत्रों के निर्माण को आगे बढ़ाने के लिए शायद एकमात्र रास्ता है.

जनमोर्चा अपने दूरगामी कार्यक्रम में निश्चित रूप से नव जनवाद के कार्यक्रम को समाविष्ट करता है (बशर्ते कि आपके पास बस इस चीज को देख पाने का पर्याप्त धैर्य हो और आप सिर्फ प्रामाणिक पठन के बाद ही आलोचना में उतरने का उसूल बना लें). मोर्चा ने गैर-संसदीय संघर्षों को संघर्ष का मुख्य रूप घोषित किया है और इसमें निश्चय ही हथियारबंद संघर्ष शामिल है. बहरहाल, चूंकि उसे अपनी यात्रा की शुरूआत अपने इर्द-गिर्द मौजूद स्थितियों में ही करनी है – उन स्थितियों में जो कि आपकी अपनी स्वीकृति के अनुसार परिपक्व नहीं हुई हैं. इसलिए फिलहाल उसे तात्कालिक राजनीतिक व आर्थिक सुधारों की खातिर राजनीतिक गोलबंदी पर जोर देना होगा, सरकारी रियायतों और उन्हें मुहैया करने के ऊपरी तौर से जनवादी मालूम पड़ने वाले रूपों के पाखंड के पर्दाफाश पर ध्यान केंद्रित करना होगा और यह घोषणा करनी होगी कि मोर्चा अपनी ओर से संघर्ष के शांतिपूर्ण तौर-तरीकों को ही प्राथमिकता देगा, लेकिन जन आंदोलन अंतिम रूप में कौन-सा रास्ता अख्तियार करेंगे – यह उन आंदोलनों के प्रति सरकार के रुख पर निर्भर करेगा. राष्ट्रीय पैमाने पर वर्ग शक्तियों के पारस्परिक संबंध से मोर्चा द्वारा पैदा किया गया कोई भी स्थानांतरण आधार क्षेत्रों के निर्माण के संघर्ष को एक नया आवेग प्रदान करेगा और बदली हुई स्थितियां अपनी बारी में मोर्चा से यह मांग करेंगी कि वह अपने अधिकतम कार्यक्रम पर ज्यादा से ज्यादा जोर डाले और उसे पूरा करने के लिए पुराने राज्य-यंत्र को चकनाचूर करने के मकसद से विद्रोहों एवं सशस्त्र संघर्षों का नेतृत्व करने की हद तक जुझारू उपाय अख्तियार करे. इस प्रक्रिया में जनमोर्चा खुद को सर्वांगीण रूप से जनता के जनवादी मोर्चे में रूपांतरित कर लेगा. हमारी पार्टी कांग्रेस के अनुसार मोर्चे की बुनियादी दिशा यही होगी.

यही है विषय का सारमर्म, जिसे कुछ लोग – अपने अतीत का शिकार होने के चलते – समझने से कत्तई इनकार कर देते हैं.

मोर्चा और चुनाव

हमारे पार्टी कार्यक्रम में ‘संसदीय संघर्ष’ शब्द के समावेश पर सीओसी(पीयू) के आलोचक महानुभाव ने अत्यंत उग्र आक्रमण किया है और यह भविष्यवाणी की गई है कि हमारी पार्टी निश्चित रूप से ‘संसदवाद के दलदल में डूब जाएगी.’ खैर, भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास पतन के ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है. और इस सिलसिले में, अगर जनता के मन में हमारी पार्टी के प्रति कोई आशंका है, तो इसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता तथा एक खास अर्थ में भी ऐसी आशंका है. लेकिन तब ऐसे खतरे को दूर कैसे किया जाए? व्यापक पैमाने पर छापामार कार्रवाइयों की ओर वापस लौटकर और रातोंरात क्रांतिकारी सरकारों की स्थापना करके? महादेव मुखर्जी ने चौतरफा छापामार कार्रवाइयां चलाई थीं और निशीथ ग्रुप में क्रांतिकारी सरकार बनाई थी -- फिर भी, इन चीजों ने महज बदतरीन किस्म के अवसरवाद के दलदल में उनके डूबने की गति ही तो बढ़ा दी. हम अतीत के गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ना चाहते, मगर यह एकदम जानी-पहचानी बात है कि आपकी हमदर्दी हमारे खिलाफ उपरोक्त सज्जनों के साथ है.

1970 के दशक में हमने ‘चुनाव बहिष्कार’ की महान पताका बुलंद की तथा परिणामतः हम सशस्त्र संघर्ष के विकास और लाल क्षेत्रों के निर्माण में संलग्न हो गए. उस विराट उभार ने, 1947 के बाद भारत में पहली बार, हमारे तथाकथित बुर्जुआ जनवाद की हर एक विद्यमान संस्था को उग्र चुनौती दी और जनसत्ता के वैकल्पिक केंद्र विकसित करने के लिए जोरदार प्रयास चलाए. यहां निहित है उस विराट उभार का महान महत्व और यह चीज ‘चुनाव बहिष्कार’ के नारे के बगैर कभी भी संभव नहीं हो सकती थी. इतिहास का यह हिस्सा हमारी पार्टी और शहीदों की गौरवशाली परंपरा का गवाह है और हमने इस परंपरा को हमेशा बुलंद रखा है – हमारी इस कार्रवाई ने उन गद्दारों को काफी संताप पहुंचाया है जो अतीत की गलतियों को सुधारने के नाम पर हमारी पार्टी की महान विरासत को कलंकित करते हैं.

बहरहाल, हमारी क्रांति को पराजय का सामना करना पड़ा और हम तमाम लोगों को, जिस समाज में हम रह रहे थे उनकी संस्थाओं के साथ तालमेल कायम करने पड़े. अब, हममें से कुछ लोग धक्के के प्रथम संकेतों को देखते ही तालमेल बिठाने के लिए दौड़ पड़े, उन्होंने क्रांतिकारी परंपराओं के नाम पर धब्बा लगाया, क्रांतिकारी शहीदों को अपमानित किया और यहां तक कि सीपीआई(एमएल) के महान लाल झंडे को उतार फेंका. वे लोग गद्दार हैं जो दुश्मन के समाने आत्मसमर्पण करने के लिए निर्लज्जतापूर्वक घुटने के बल रेंगने लगे. ‘गलतियों को सुधारने तथा उन्हें पूरी तरह और सर्वांगीण रूप से सुधारने में प्रथम’ होने के उनके तमाम दावों के बावजूद, हम सही तौर पर उनसे घृणा करते हैं. कुछ अन्य लोग हैं – ऐसे क्रांतिकारी जिन्होंने अंतिम दम तक संघर्ष किया, दुश्मन के सामने कभी भी आत्मसमर्पण नहीं किया, और लड़ते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. ये क्रांतिकारी अब खुद को भिन्न स्थितियों में पाते हैं और उन्हें समाज की विद्यमान संस्थाओं के साथ तालमेल बिठाने को बाध्य होना पड़ा रहा है. वे अब अपनी खोई हुई शक्तियों को पुनः गोलबंद कर रहे हैं और अंतिम आक्रमण के लिये इंतजार कर रहे हैं, वे यह काम हिचकिचाते हुए और कदम-ब-कदम कर रहे हैं और इसके लिए उन्हें विभिन्न खेमों के, जिनमें आपका खेमा भी शामिल है, कम उपहास का सामना नहीं करना पड़ता. उनकी वर्तमान कार्यनीतियां उनकी पुरानी कार्यनीतियों का जारी रूप और तार्किक विकास हैं.

संसद संबंधी हमारी कार्यनीति को संसद के चरित्र के आधार पर, यानी इस आधार पर निर्धारित करना कि संसद अर्ध-औपनिवेशिक है या स्वतंत्र बुर्जुआ देशों जैसी संसद है, बेकार की सैद्धांतिक कसरत है. आपकी संसद अर्ध-औपनिवेशिक है इस कारण संसद का भंडाफोड़ करने और उसे ध्वस्त करने से संबंधित आपका कार्यभार कत्तई कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाता और खासकर इसलिए भी कि ऐसी संसद संशोधनवाद के विकास के लिए अनुकूल आत्मगत परिस्थिति मुहैया करती है. संसद के प्रति हमारी कार्यनीति का निर्धारण सिर्फ उभार की स्थितियों की उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर ही किया जा सकता है.

संसद के प्रति मार्क्सवादी रुख का सवाल बुनियादी तौर से एक कार्यनीतिक सवाल है. किसी अर्ध-औपनिवेशिक देश में इस सवाल को रणनीतिक आयाम से युक्त मान लिया गया है, जहां कल्पना की गई है कि तात्कालिक क्रांतिकारी परिस्थिति हमेशा मौजूद रहती है, जो कम्युनिस्टों को आधार क्षेत्रों के निर्माण में सक्षम बनाती है. बहरहाल, यह बात दिमाग में बिठा लेनी चाहिए कि चीनी क्रांति के बाद, न केवल क्रांतिकारियों ने बल्कि विश्व-साम्राज्यवाद ने भी सबक सीखे हैं. साम्राज्यवाद ने भारत को अपना शो-केस और प्रयोगशाला दोनों बना लिया है. भारतीय परिस्थिति की विशिष्टताओं से जुड़कर, साम्राज्यवाद के षड्यंत्र और समाजवादी रूस के सामाजिक-साम्राज्यवाद में पतन सहित अन्य अनेक कारकों ने संसद व इस तरह की अन्य संस्थाओं को तीसरी दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा भारत में ज्यादा लंबे समय तक बरकरार रहने की स्थिति में पहुंचा दिया है. बहरहाल, बुनियादी रास्ता मूलतः समान होते हुए भी अपनी बहुतेरी विशिष्ट कार्यनीतियों के लिहाज से भारतीय क्रांति चीनी क्रांति की नकल नहीं हो सकती, इसका एकमात्र सीधा-सादा कारण यह है कि हम 1980 के दशक के भारत में क्रांति कर रहे है, न कि 1940 के दशक के चीन में. इन तमाम कारकों पर और खासकर मौजूदा परिस्थिति पर, जिसके बारे में तमाम गंभीर क्रांतिकारी सहमत हैं कि वह तुरंत लाल क्षेत्रों के निर्माण के लिए चौतरफा प्रयास चलाने की परिस्थिति में नहीं हैं, विचार करते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि हम चुनाव संबंधी अपनी कार्यनीति पर पुनर्विचार करें. कम-से-कम, उसूली तौर पर तो इसे कार्यनीतिक सवाल मान ही लिया जाना चाहिए, बहरहाल, वास्तविक परिस्थिति के साथ संगतिपूर्ण ढंग से अपनी आम कार्यनीति को पुनर्संयोजित करते हुए हमें चाहिए कि चुनावों के प्रति विशिष्ट कार्यनीति तय करें. इस सिलसिले में, पश्चिमी संसद से वैषम्यपूर्ण भिन्नता रखने वाली भारतीय संसद की विशिष्ट किस्म को उचित महत्व देना लाजिमी है. चुनाव के मुद्दे को एक कार्यनीतिक सवाल के रूप में मान्यता देने का मतलब यह नहीं है कि तुरंत और हर जगह चुनाव के लिए भागदौड़ शुरू कर दी जाए तथा तमाम किस्म के गैर-उसूली समझौतों में मशगूल हुआ जाए. इस संदर्भ में अपने नकारात्मक उदाहरण से पीसीसी एक अच्छे शिक्षक की भूमिका निभाती है. नीति में संयोजन का मतलब क्रांतिकारी संघर्षों का परित्याग करना तथा पश्चिमी देशों की तरह, संसद के अंदर कार्य की नीति का अनुसरण करना और काफी लंबे समय तक राष्ट्रव्यापी विद्रोह के लिए तैयारी करते रहना, नहीं है.

सामयिक तौर पर, जब अपने पास न तो जनसत्ता का वैकल्पिक माडल हो और नहीं आप तत्काल उसके लिए काम शुरू कर सकते हों, तब यदि आपको जनता की राजनीतिक चेतना को सत्ता दखल की राजनीति आत्मसात करने की हद तक उन्नत करना है तो नकारात्मक रास्ता भी अख्तियार करना पड़ सकता है और सिर्फ अपने जोखिम पर ही आप इस नकारात्मक रास्ते की उपेक्षा कर सकते हैं. आपके प्रतिनिधि दुश्मन की संसद में जाते हैं तथा उसके अंदर उनके भाषणों से और बाहर अन्य प्रचार कार्य के जरिए आप संसद का भंडाफोड़ करते हैं; यानी, जनसमुदाय के सामने यह स्पष्ट करते हैं कि शासक वर्गों का कौन-सा विशिष्ट गठजोड़ संसद के जरिए शासन चलाता है और किस तरह चलाता है. यह कार्यभार बाहर से बखूबी संपादित किया जा सकता है. फिर भी, अगर इसे उचित तरीके से संगठित किया जाए, तो अंदर से कम्युनिस्ट प्रतिनिधियों का कार्य भंडाफोड़ अभियान को विशेष रूप से पैना बना सकता है.

आप चुनाव-बहिष्कार का आह्वान बखूबी पेश कर सकते हैं, मगर यह आपसे तुरंत हथियारबंद संघर्ष के लिए, आधार क्षेत्रों के निर्माण के लिए चौतरफा प्रयास शुरू करने की मांग करता है. सिद्धांत में, आप अपने कल्पनालोक में विहार कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक राजनीति में बीच का कोई रास्ता नहीं होता. अगर आप एक ओर जनता का चुनाव बहिष्कार करने के लिए आह्वान करते हैं और दूसरी ओर आंदोलन की मंजिल को आंशिक संघर्षों (चाहे वे जिस पैमाने पर हों) की मंजिल के रूप में चित्रित करते हैं तो आप निरे कुतर्कों के जाल में फंसकर अपने-आपको धोखा दे रहे हैं और इस मामले में आपका बहिष्कार-आह्वान महज निष्क्रिय आह्वान बनकर रह जाएगा और तमाम व्यावहारिक उद्देश्यों के लिहाज से, यह जनता को किसी न किसी बुर्जुआ पार्टी का अनुसरण करने के लिए विवश कर देगा.

कृषक प्रतिरोध संघर्ष के इलाकों के विकास पर अपनी शक्ति केंद्रित करनेवाली एक भूमिगत पार्टी, संघर्ष के मुख्य रूप के बतौर गैर-संसदीय रूप पर जोर डालने वाला एक जनमोर्चा, सरकार के रियायत व सुधार संबंधी कदमों के पीछे वास्तविक अभिप्रायों का भंडाफोड़ करने के एकमात्र उद्देश्य से ही चुनाव अभियानों का इस्तेमाल, चुनाव में तमाम किस्मों की भागीदारियों को जन आंदोलनों के विकास और जन-पहलकदमी खोलन के उद्देश्य के अधीन रखना – ये हैं वे स्थितियों जो संसदवाद के दलदल में किसी पार्टी के पतन को रोक सकती हैं. और कोई सरल-सुगम रास्ता नहीं है तथा वाम लफ्फाजी केवल इस पतन की गति को ही तेज करेगी.

महज ‘बुनियादी रास्ते’ का दुहराव आपको लक्ष्य के पास तक नहीं फटकने देगा. यह नए प्रयोगों का काल है और कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के बीच का स्वस्थ वाद-विवाद और वास्तविक अग्रगति ही आपके नाम के अनुरूप सच्ची पार्टी-युनिटी (पार्टी एकता) के लिए मार्ग प्रशस्त करेगी.

सीओसी(पीयू) के आदरणीय नेताओं! जब पटरियां बाढ़ के जल में डूब गई हों तो कभी-कभी उत्तर की ओर जाने के लिए आपको एक खास स्थान तक दक्षिण की ओर जाने वाली ट्रेन पर सवार होने को बाध्य होना पड़ता है. हमें नहीं मालूम की वाम लफ्फाजी और वामपंथी दिखावा (सीओसी-पीयू के आलोचक ने हम पर वामपंथी दिखावे का आरोप लगाया है, लेकिन हमें वाम लफ्फाजी के दोष से मुक्त बताया है) के बीच कोई गंभीर फर्क है या नहीं. अगर है, तो आप दोनों के ही दोषी हैं.

(तीसरी पार्टी-कांग्रेस में पारित राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट के अंश, दिसंबर 1982)

भारत की मौजूदा स्थिति, जिसमें क्रांतिकारी संकट विकसित हो रहा है, संसदीय व संवैधानिक संकट द्वारा भी परिलक्षित होती है. भारत में संविधान और संसदीय जनवाद कभी भी किसी बुर्जुआ जनवादी क्रांति के परिणाम नहीं रहे और इसीलिए उनमें बुर्जुआ जनवाद की जीवन-शक्ति भी कभी नहीं रही, फिर भी, अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण कालों में इन्हें जिस हद तक बरकरार रखा गया, उसे भी तनाव की घड़ियों में त्याग दिया गया और शासक पार्टी के स्वार्थ में इनका इस्तेमाल किया गया. अब जबकि मौजूदा समय में इंदिरा निरंकुश गुट इन संस्थाओं को मखौल में बदल चुका है और यहां तक कि राष्ट्रपति प्रणाली की ओर बढ़ रहा है, बुर्जुआ बुद्धिजीवी और बुर्जुआ विपक्षी पार्टियां काफी शोरगुल मचा रही हैं. ऐसा प्रतीत होता है मानो भारतीय जनता के जनवादी संघर्षों की सही दिशा बुर्जुआ संविधान व बुर्जुआ संसद की पवित्रता की रक्षा करना हो. रंग-बिरंगे विकल्पों के नमूने उछाले जा रहे हैं और हर कोई संविधान व संसद की पवित्रता को बरकरार रखने में एकमात्र सक्षम होने का दावा जतला रहा है. सीपीएम के संशोधनवादी भी अपने द्वारा संचालित सरकारों को आधार बनाकर राष्ट्रीय विकल्प का अपना नमूना लेकर हाजिर हुए हैं और उन्होंने इसे नाम दिया है “वाम और जनवादी मोर्चा.” इस वर्ष आयोजित विजयवाड़ा कांग्रेस में उन्होंने घोषणा की : “वाम व जनवादी मोर्चा का निर्माण करने और उसे साकार करने का संघर्ष ऐसी स्थिति में शुरू हो रहा है, जबकि न तो सीपीआई(एम) को और न ही मजदूर वर्ग को दूसरे लोग नेतृत्वकारी शक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं. वे केवल महत्वपूर्ण तथा समान साझीदार के रूप में ही स्वीकार किए जाते हैं. इन शक्तियों की एकता और पेश किए गए कार्यक्रम को साकार करने के संघर्ष के विकास के साथ, मजदूर वर्ग का गुरुत्व व प्रभाव निश्चय ही बढ़ेगा. लेकिन यह मजदूर वर्ग के नेतृत्व से, जिसे शक्तियों के एक बिलकुल भिन्न पारस्परिक संबंध में ही हासिल किया जा सकता है, बहुत दूर की चीज होगी.” इससे यह साफ जाहिर होता है कि सीपीआई(एम) ने मजदूर वर्ग के नेतृत्व में जनता के जनवाद के कार्यक्रम को – जो उसके लिए ‘बहुत दूर’ की चीज है – पूरी तरह त्याग दिया है और  ‘वाम-जनवादी मोर्चे’ के संक्रमणकाल के नाम पर वह बुर्जुआ संविधान व संसदीय जनवाद की ‘विशुद्धता’ व पवित्रता की रक्षा करने का पैरोकार बन गई है. इस उद्देश्य के लिए वह, एक नेतृत्वकारी शक्ति के बतौर नहीं, बल्कि समान साझीदार, अथवा कम-से-कम एक महत्वपूर्ण साझीदार के रूप में विपक्षी पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाने का प्रस्ताव रखती है.

निस्संदेह, हम जनता के जनवादी अधिकारों पर, चाहे वे कितने ही नाममात्र के या औपचारिक ही क्यों न हों, निरंकुश शक्तियों के किसी भी हमले का हमेशा विरोध करेंगे. लेकिन जनता के जनवाद की ओर कोई संक्रमणकालीन दौर सिर्फ तभी संक्रमणकालीन कहा जा सकता है, जबकि उससे संसदीय जनवाद के प्रति जनसमुदाय के भ्रमों को दूर करने में मदद मिले. यहां तक कि बुर्जुआ संसद में कम्युनिस्टों की भागीदारी का उद्देश्य भी होता है उसे भीतर से तोड़ना, न कि उसकी रक्षा करना और उसे मजबूत बनाना, यह स्पष्ट है कि सीपीएम का संक्रमणकालीन दौर संसदीय जनतंत्र के अथाह जल में डूबने और जनता के जनवाद का परित्याग करने की ओर जाने का संक्रमण काल है और इस सूत्रीकरण के साथ, जिस पर वह छोटे-मोटे मतभेदों को छोड़कर, सीपीआई के साथ एकमत है, जनता की जनवादी क्रांति (पीडीआर) और राष्ट्रीय जनवादी क्रांति (एनडीआर) की ये दो धारणाएं ‘वाम और जनवादी मोर्चे’ के जरिए एक मंच पर आ जाती हैं. विदेश नीति के अन्य सवालों पर सीपीएम पहले ही पीछे हटकर सीपीआई की लाइन पर आ चुकी है और वाम व जनवादी मोर्चा के साथ कार्यनीतिक लाइन पर भी बड़े मतभेद दूर कर लिए गए है. यही कारण है कि डांगे के निष्कासन के साथ, ये दोनों पार्टियां आज जितनी नजदीक आ गई हैं उतनी पहले कभी नहीं थीं.

इन परिस्थितियों में भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को दृढ़तापूर्वक जनता के जनवाद का झंड़ा बुलंद रखना चाहिए और इस लक्ष्य की ओर बढ़ने के कारण उपयुक्त रूपों व तरीकों को खोज निकालना चाहिए. मौजूदा समय में जबकि कतिपय गैर-पार्टी शक्तियां सामने आ रही हैं, जनवाद की व्यापक आकांक्षा उमड़ रही है और बुर्जुआ बुद्धइजीवियों समेत जनता में विभिन्न तबकों द्वारा जनवाद के लिए संघर्ष का विकास हो रहा है, तब सर्वहारा की पार्टी का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे रूपों व नारों के साथ, जो जनवादी शक्तियों के वृहत्तम हिस्से को स्वीकार हों तथा उन्हें एकताबद्ध करने में समर्थ हों, “राष्ट्रीय विकल्प” की अपनी पताका बुलंद करे, निश्चय ही, ऐसे किसी भी मंच को मुख्यतः गैर-संसदीय होना चाहिए और उसमें सिर्फ जनवादी क्रांति के लिए जन संघर्षों पर ही निर्भर रहना चाहिए और उसमें सिर्फ जनवादी क्रांति की सामाजिक शक्तियों – यानी, मजदूर, किसान, बुद्धिजीवी और बुर्जुआ के प्रगतिशील हिस्से – को ही शामिल करना चाहिए. यह मोर्चा जनवादी संघर्षों में बुर्जुआ विपक्ष की पार्टियों व जन संगठनों के साथ, किसी कार्यक्रम-आधारित मोर्चे में शामिल हुए बगैर, तालमेल भी कायम कर सकता है. इन पार्टियों के कुछ व्यक्तियों और साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के विशिष्ट सवालों पर इनमें से कुछ पार्टियों के लिए भी कुछ गुंजाइश रह सकती है. क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी और अन्य क्रांतिकारी पार्टी व संगठन, जनवादी जनसंगठन और देशभक्त-जनवादी व्यक्ति इस मोर्चे के घटक अंग होंगे. इस मोर्चे में प्रवासी भारतीयों के बीच जनवादी-देशभक्त व्यक्तियों और उनके संगठनों को निश्चय ही शामिल किया जाना चाहिए, इसे नस्लभेद व अन्य भेदभाव के खिलाफ उनके संबंधों का निश्चय ही समर्थन करना चाहिए और इसे चाहिए कि उनके जरिए भारत के प्रत्येक जनवाद-विरोधी कानून व भारतीय जनता पर प्रत्येक दमन का विदेशों में भी व्यापक प्रचार चलाए.

इस मोर्चे को शासकवर्गों के बीच के अंतरविरोधों का कुशलतापूर्वक फायदा उठाना भी सीखना चाहिए और तमाम तरह के बुर्जुआ व संशोधनवादी गठजोंड़ों के विरुद्ध खुद को विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए. मोर्चे के अंदर सर्वहारा की पार्टी को गैर-राजनीतिक, बंधी-बंधाई लीक पर चलने वाला संसदीय मोर्चा, सामाजिक सुधार का मोर्चा बना देने और शासक वर्गों के हिस्सों के साथ गैर-उसूली समझौता करने जैसी उदारवादी बुर्जुआ प्रवृत्तियों के खिलाफ हमेशा अविचल संघर्ष चलाना होगा तथा इसे जुझारू जन संघर्षों की ओर और राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के अंतिम लक्ष्य की ओर स्पष्ट तौर से निर्देशित करना होगा.

शुरू-शुरू में हमलोगों की यह धारणा थी कि लाल राजनीतिक सत्ता के कम-से-कम कुछ इलाके बन जाने के बाद ही मजदूर, किसान और पेट्टि बुर्जुआ के अलावा अन्य शक्तियों के साथ मोर्चे का निर्माण किया जा सकता है. लाल राजनीतिक सत्ता के इलाके मजदूर-किसान एकता की ठोस अभिव्यक्तियां हैं. व्यवहार में चीजें भिन्न रूप में सामने आई. हम लाल राजनीतिक सत्ता के इलाकों का निर्माण करने या उन्हें बरकरार रखने में समर्थ नहीं हुए हैं; लेकिन पिछले 15 वर्षों से सर्वहारा की पार्टी इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लड़ाइयां चलाती आई है और अब हम पाते हैं कि एक ही जनवादी लक्ष्य की ओर ले जाने वाली दो धाराएं, दो वस्तुगत तथ्य, उभरकर सामने आए हैं. एक ओर,बिहार के कुछ हिस्सों और शायद आंध्र में भी किसानों के प्रतिरोध-संघर्षों के कमोबेश स्थाई इलाके हैं – ऐसे इलाके यहां वर्ग-दुश्मनों पर लाल आतंक छाया हुआ है. ऐसे और भी बहुतेरे इलाकों का निर्माण किया गया, जो या तो नष्ट हो गए या उन्हें धक्कों का सामना करना पड़ा और वे पुनर्गठन की प्रक्रिया में हैं. दूसरी ओर, भारतीय जनता के विशाल हिस्से के जनवादी आंदोलनों की धारा है – ऐसे आंदोलन जो जनसमुदाय के विभिन्न हिस्सों को समन्वित करते हैं और यहां तक कि जिनका राष्ट्रवापी चरित्र है. उदाहरण के लिए 19 जनवरी की आम हड़ताल का मामला लीजिए या फिर हाल  के बिहार प्रेस बिल का मामला. क्या यह एक अखिल भारतीय मुद्दा नहीं बन गया है? न सिर्फ पत्रकार बल्कि जनसमुदाय के अन्य तबके भी इस बिल के खिलाफ अपनी आवाज उठा रहे हैं. वे ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें महसूस होता है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आक्रमण है. आज प्रेस पर प्रतिबंध लगाया गया, कल किसी को बोलने की इजाजत नहीं दी जाएगी. इस प्रकार हम देखते हैं कि जनवादी आकांक्षा, जनवादी संघर्षों की एक धारा मौजूद है. अब विपक्षी पार्टियां, संशोधनवादी और स्थार्थी लोग हैं जो इन आंदोलनों को दिग्भ्रमित करने की कोशिश करेंगे. इसीलिए सर्वहारा को जरूर सामने आना चाहिए. पिछले 15 वर्षों से यह किसानों के साथ रहता आया है, इसने क्रांतिकारी संघर्षों में जो अपने प्रसार व व्यापकता में बेमिसाल रहे हैं – उन्हें संगठित किया व नेतृत्व दिया है और आज यह खुद प्रतिरोध-संघर्षों के इलाकों को बरकरार रखे हुए है. और इसीलिए इन दो धाराओं को अनिवार्यतः समन्वित किया जाना चाहिए. प्रतिरोध-संघर्ष के इलाकों के आधार पर एक अखिल भारतीय जनमोर्चे को निश्चय ही आगे आना चाहिए.

इस मोर्चे के प्रतिरोध-संघर्ष के ऐसे इलाके क्रांतिकारी कृषि कार्यक्रम की बुनियाद पर ही तैयार होते हैं ओर बिना क्रांतिकारी कृषि कार्यक्रम के सर्वहारा नेतृत्व कायम नहीं किया जा सकता और भी, प्रतिरोध-संघर्ष के इन इलाकों को संयुक्त मोर्चे के कार्य के मॉडल के रूप में काम करना चाहिए.

कुछ लोग कहते हैं कि यह मध्यवर्ती शक्ति क्या बला है? हम कहते हैं, मध्यवर्ती शक्ति से हमारा मतलब है वे शक्तियां जो हमारे और शासकवर्गों के बीच मध्यवर्ती हैं. विभिन्न रुपों व मंचों में वे मजदूर वर्ग के पेट्टि बुर्जुआ नेताओं, राष्ट्रीयता के नेताओं, ‘नागरिक स्वतंत्रा’ आंदोलन के लोगों, बुर्जुआ बुद्धिजीवियों आदि के रूप में, हो सकती हैं, कुछ धार्मिक नेताओं और उत्पीड़ित जातियों के नेताओं के रूप में भी, संगठित हैं. यह बिलकुल स्वाभाविक है कि वे ढुलमुलपन दिखाएंगे; वे कभी हमारी ओर आ सकते हैं, कभी इंदिरा गांधी को तार भी भेज सकते हैं. अब इसके लिए हमलोगों को दोषी कैसे ठहराया जा सकता है? हम जो पहले ही कह चुके हैं कि वे मध्यवर्ती हैं. वे गैर-पार्टी विचार रखते हैं. यह गैर-पार्टी विचार क्या है? यह एक समाजवाद-विरोधी बुर्जुआ विचार है, जैसा कि लेनिन ने कहा था. और कम्युनिस्टों को इस विचार के खिलाफ संघर्ष करना होगा. फिर भी गैर पार्टी संगठन मौजूद हैं और सच कहा जाए तो समूची जनवादी क्रांति एक गैर-पार्टी छाप – मोर्चे की छाप – लिए रहेगी. लेकिन इसके भीतर सर्वहारा और बुर्जुआ विचारों के बीच, भीतर और बाहर की पार्टियों के बीच, संघर्ष जारी रहेगा और इसी से मामले के सार का निर्धारण होगा. पार्टी संघर्ष के अपने स्वाधीन इलाकों को बरकरार रखेगी और मोर्चे के भीतर काम करेगी.

यह सही है कि यह मोर्चा प्रतिरोध-संघर्षों पर आधारित होगा और मोर्चे का विस्तार व विकास सशस्त्र संघर्ष व आधार-क्षेत्र निर्माण करने के काम को विकसित करेगा. लेकिन यह मोर्चा कैसे आगे बढ़ेगा, किस रूप में विकसित होगा? विकास के इसके अपने नियम क्या हैं? इस सवाल पर हम प्रयोगों के बीच हैं. शुरू में हमने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के कुछ हिस्सों और भारत के कई हिस्सों की मध्यवर्ती शक्तियों के साथ मोर्चे का निर्माण किया है. यह एक छोटी पार्टी के लिए विराट उपलब्धि है. राज्यों में सरकार बनाने की सीपीएम की कार्यनीति के विपरीत इस मोर्चे को जन-सरकार के – एक सच्चे जनवादी गणतंत्र के – नारे के साथ आगे आना चाहिए. ऐसी घड़ी आ सकती है जब इस मोर्चे को लोकप्रिय प्रतिनिधित्व पर आधारित संविधान-सभा बुलाने के लिए अस्थायी क्रांतिकारी सरकार का नारा देना पड़े. अस्थाई क्रांतिकारी सरकार का सवाल विद्रोह के सवाल को सामने ले आता है. ऊपर से विद्रोह संगठित करने के जरिए पार्टी ऊपर और नीचे दोनों ओर से वर्ग संघर्ष को जोड़ने की योजना रखती है. इन संदर्भों में संसदीय चुनावों के इस्तेमाल का सवाल आता है. चुनाव के सवाल को एक खास समय में विद्रोह के साथ जोड़ा जा सकता है और तब आप सरकार पर चुनाव थोप रहे होंगे. किसी दूसरे समय, जब संविधान-सभा और अस्थाई क्रांतिकारी सरकार के नारों के सुदूर भविष्य तक लोकप्रिय होने की कोई संभावना न हो, तब आप चुनावों के इस्तेमाल के बारे में सोच सकते है. अन्य स्थितियों में आपको ऐसा नहीं करना चाहिए.

(पांचवीं पार्टी कांग्रेस में स्वीकृत प्रस्ताव)

1. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) कामरेड लेनिन के नेतृत्व में रूस की 1917 की महान अक्टूबर क्रांति की पताका को दृढ़तापूर्वक बुलंद करती है. यह महज विश्व में सर्वप्रथम सफल होने वाली सर्वहारा क्रांति ही नहीं थी, बल्कि इसने एशिया में एक नई जागृति भी ला दी थी. हालांकि 75 वर्षों बाद यह क्रांति पराजय का शिकार हो गई, फिर भी इसके ऐतिहासिक महत्व को कभी धुंधला नहीं किया जा सकता.’

2. भाकपा (माले) सोवियत संघ में समाजवाद के निर्माण में तथा फासिस्ट आक्रमण के खिलाफ सोवियत संघ की रक्षा में कामरेड स्तालिन द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करती है.

तथापि, स्तालिन अच्छी-खासी मात्रा में अधिभूतवाद के शिकार थे और यही उनकी अत्यंत गंभीर गलतियों का मुख्य स्रोत था. उनके दौर में, अंतःपार्टी जनवाद के साथ-साथ समाज में समाजवादी जनवाद भी भारी विकृतियों से ग्रस्त था.

3. भाकपा (माले) आधुनिक संशोधनवाद के खिलाफ 1960 के दशक के शुरूआती वर्षों में माओ त्सेतुंग एवं चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चलाए गए संघर्ष को सही मानती है.

समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष का अस्तित्व और कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर उसका प्रतिबिंबित होना, पूंजीवादी पुनर्स्थापना का खतरा और आज तक समाजवाद तथा पूंजीवाद के बीच संघर्ष में जीत-हार का फैसला न हो पाना इत्यादि विषयों पर कामरेड माओ की थीसिस इतिहास द्वारा सही साबित हुई है. इस प्रकार, स्तालिनवादी अधिभूतवाद और ख्रुश्चेवी संशोधनवाद, दोनों के निषेधस्वरूप माओ विचारधारा विकसित हुई और उसने मार्क्सवाद-लेनिनवाद को एक बार फिर सही परिप्रेक्ष में रखा. माओ के संघर्ष का भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा. आधुनिक संशोधनवाद के तमाम भारतीय रूपों के खिलाफ संघर्ष के दौरान हमारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी का उदय काफी हद तक इसी माओ विचारधारा की देन है.

4. ब्रेजनेव के बाद के दौर में सोवियत संघ में समाजवाद को पुनर्जीवित करने के लिए अतिमहाशक्ति की हैसियत का संपूर्ण रूपांतर, उसके गैर-लचीले आर्थिक ढांचे का पुनर्गठन और समाजवादी जनवाद की संस्थाओं का पुनर्निर्माण सचमुच अत्यावश्यक हो गया था. इसलिए गोर्बाचेव ने जब ‘पेरेस्त्रोइका’ और ‘ग्लासनोश्त’ की शुरूआत की तो उन्हें दुनिया भर के कम्युनिस्टों, प्रगतिशील शक्तियों और जनवादी लोगों का भरपूर समर्थन मिला. तथापि, बाद में साबित हुआ कि गोर्बाचेव उदार पूंजीवादी विचारधारा और पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ आर्थिक-राजनीतिक सहयोग के ढांचे के अंदर कामकाज कर रहे थे. इसलिए भाकपा(माले) गोर्बाचेव को दलत्यागी मानकर उनकी निंदा करती है.

5. भाकपा (माले) किसी भी अंतरराष्ट्रीय केंद्र अथवा बड़ी पार्टी की धारणा का दृढ़तापूर्वक विरोध करती है. अंतरराष्ट्रीय मामलों में वह अंतरराष्ट्रीय स्थिति के अपने खुद के मूल्यांकन पर आधारित स्वतंत्र नीति पर अमल करने में यकीन रखती है. जहां एक ओर हम वियतनाम से संबंध सामान्य करने और सुधारने के चीनी प्रयासों का स्वागत करते हैं, वहीं दूसरी ओर हम खाड़ी युद्ध के दौरान चीन द्वारा प्रदर्शित विदेश नीति की आलोचना किए बगैर नहीं रह सकते.

6. भाकपा (माले) भारतीय स्थितियों में बहुपार्टी व्यवस्था वाले सर्वहारा राज्य की संभावना से इनकार नहीं करती. तथापि, इसकी प्रकृति और इसके स्वरूप का निर्धारण केवल व्यवहार के दौरान ही हो सकता है.

7. भाकपा (माले) मार्क्सवाद की रक्षा में उठ खड़ा होना अपना सर्वप्रमुख कर्तव्य मानती है, जो आज विश्व पूंजीपति वर्ग के चौतरफा हमले का सामना कर रहा है, ताकि उसकी क्रांतिकारी अंतर्वस्तु का पुनरुद्धार किया जा सके और भारतीय क्रांति को पूरा करने की प्रक्रिया में उसे और अधिक समृद्ध किया जा सके.

(देशब्रती विशेषांक, अक्टूबर 1994 से)

20 मई 1972 को सुबह सबेरे जब बहरमपुर सेन्ट्रल जेल का मुख्य दरवाजा खुला तो मुझे यकीन नहीं हुआ कि सचमुच हमें छोड़ा जा रहा है. पीवी ऐक्ट में बिना किसी मुकदमें के एक वर्ष तक जेल में कैद रखने की मियाद उसी दिन खत्म हो रही थी, लेकिन उन दिनों पश्चिम बंगाल में जंगल राज चल रहा था. जेल गेट से बाहर ही फिर से गिरफ्तार करके जेल में ठूंस देने की घटनाएं लगातार घटित हो रही थीं. गेट के सामने खड़ी काली वैन को देखकर हमारी वही आशंका बलवती हुई. हमने गेट से निकल कर जेल की दीवार से सटे रास्ते पर चलना शुरू किया. पीछे मुड़कर देखा – वो लोग हमारे पीछे नहीं आ रहे थे. हमने पैरों की गति बढ़ा दी.

इस विशाल ऊंची दिवार को अंदर से चढ़कर पार करने की योजना बनाते-बनाते चंद महीने पहले न जाने कितने युवा प्राणों ने अपनी आहुति दे दी थी और उस पूरी अवधि में हमें फांसी की सजा पाये कैदियों के लिये बनी 25 नम्बर की सेल में चौबीसों घंटे बंद रहना पड़ा था.

जेल में ही रह गये हमारे साथियों के बारे में सोचकर हमें बहुत बुरा लग रहा था. यद्यपि सेल में बंद रहने की स्थिति में हम एक दूसरे का मुहं नहीं देख पाते थे मगर बुलंदी से लगाये गये नारे, गाये गये गीत और राजनीतिक वार्तालाप के जरिये और सर्वोपरि, चाय की गाड़ी के जरिये – रस्सी से बंधे कटोरे के जरिए एक सेल से दूसरे सेल तक गिलास पहुंचाकर – हम सजीव सम्पर्क में बंधे रहते थे. उस जमाने में भांति-भांति के ग्रुप नहीं बने थे, हम सभी एक ही पार्टी के कामरेड, नक्सलपंथी बंदी थे.

स्वाधीनता के बाद से भारतीय जेलों में शायद ऐसे राजनीतिक बंदी पहली बार आये थे, जो अद्वितीय भी थे. पश्चिम बंगाल के जिलों में हजारों-हजार की तादात में वे कैद रहे हैं, उन्होंने चरम यातना भोगी है, जेल को उन्होंने विद्रोह के केंद्रों में बदला है और एक के बाद एक जेल तोड़ने का अभिनव दृष्टांत भी पेश किये हैं.

बहरमपुर में चंद घंटे गुजरने के बाद हमने उसी रात दुर्गापुर के लिये प्रस्थान किया. यहां हम से मेरा मतलब है मैं खुद और (कामरेड) काली. काली को हम इसी नाम से जानते थे और इसी नाम से उन्होंने अपना पूरा जेल जीवन गुजार दिया. लाख कोशिश के बावजूद पुलिस उनसे उनका असली नाम या पता नहीं उगलवा सकी. काली के साथ मेरा परिचय 1970 के दिसम्बर महीने में हुआ था -- उसी दिन, जिस दिन हम गिरफ्तार हुए थे. वह बर्धमान जिले के ग्रामीण क्षेत्र में काम करता था और मेरी ही तरह उसको भी जिला कमेटी में शामिल किया गया था. और उसी दिन हम जिला कमेटी की पहली बैठक में शामिल होने जा रहे थे. हमारे साथ जो अन्य लोग पकड़े गये थे, वे इधर-उधर बिखर गये थे. मैं और काली पुलिस की मार से हाथ-पैर तुड़ाकर आसनसोल अस्पताल में अगल-बगल के बिस्तरों में लेटे रहते थे, हमने एक ही हथकड़ी में बंधी हालत में दुर्गापुर कोर्ट में आना-जाना किया, नारे दिये और अगल-बगल के सेलों में जेल-जीवन गुजार था, और आज एक साथ छोड़े जाने के बाद एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा कर रहे हैं.

इस अवधि में बाहर की स्थिति बदल चुकी थी. छात्र आंदोलन के उभार वाले उत्तेजनाप्रद दिन जैसे अचानक गायब हो चुके थे, ‘छापामार युद्ध’ के विस्तार और ‘वर्ग-दुश्मन सफाया अभियान’ की खबरें भी अब ज्यादा सुनाई नहीं पड़ती थीं. नेतागण एक के बाद एक गिरफ्तार या शहीद हो चुके थे. पार्टी में विभ्रांति और हताशा, दलत्याग और विश्वासघात का वातावरण छाया हुआ था.

दुर्गापुर में मेरे परिचित पुराने मजदूर कामरेड और उनके परिवारों से मुझे वही पुरानी अंतरंगता और प्यार मिला. मगर मेरे सहकर्मी, जो उन दिनों बर्धमान आंचलिक कमेटी के नेता बन गये थे, कोई मेरे साथ मुलाकात करने नहीं आये. बर्धमान आंचलिक कमेटी की सीमा बिहार के धानबाद जिले तक विस्तृत थी और धक्के के उस दौर में भी करीब सौ पूर्णकालिक कार्यकर्ता उसके अधीन कार्यरत थे.

इसी बीच एक दिन वज्राघात के समान समाचार मिला कि कामरेड चारु मजुमदार गिरफ्तार हो गये हैं और फिर उसके बाद उनकी मृत्यु की खबर आई.

काली तो काम करने बांकुड़ा की ओर चला गया और मैंने आंचलिक कमेटी के निर्देश पर एक टिन के बक्से में अपनी छोटी-मोटी जरूरत की चीजों को रखकर नवद्वीप की ओर प्रस्थान किया और वहां से मैं अग्रद्वीप के एक गांव में पहुंचा. मेरे अपने क्रांतिकारी जीवन का नया दौर यहीं से शुरू हुआ.

हमारे इलाके के प्रभारी कामरेड आंचलिक कमेटी के सदस्य का नाम अशोक मल्लिक था, आजकल वे सीओआई(एमएल) में कार्यरत हैं. वे खोका नाम से जाने जाते थे. नवद्वीप शहर में मध्यवर्गीय समर्थकों की एक बैठक में वे आ रहे हैं, ऐसा सुनकर मैं उनसे मुलाकात करने गया. उन्होंने बताया कि वे व्यस्त रहने के कारण मुलाकात नहीं कर सकेंगे, इसलिये मुझे घर के दरवाजे से ही लौट आना पड़ा. जरूर, चंद दिनों बाद उन महाशय ने मुझसे बातचीत की और ढेर सारे उपदेश भी दिये.

बीरभूम के बगल के बर्धमान जिले के भातार अंचल में 1969 में किसान संघर्ष एक स्तर तक आगे बढ़ा था. उसके बाद धक्का खाने पर, पुलिस द्वारा पीछा किये जाने के चलते इलाके के कई कामरेड इधर-उधर बिखर गये थे. उनमें से एक था कार्तिक, जो पूर्वस्थली इलाके में नये सिरे से संगठन का निर्माण करने की कोशिश कर रहा था. यहीं उसके साथ मेरा परिचय हुआ, और जल्द ही वह मेरा घनिष्ठ मित्र बन गया.

भातार से कालना तक विस्तृत अंचल में हमने टुटे-बिखरे संगठन को जोड़ने और किसान आंदोलन को पुनरुज्जीवित करने की कोशिश शुरू की. दुर्गापुर से परेश, तापस आकर जुड़ गये, विकास तो पहले से ही यहां था. कुछेक गांवों में नई पहलकदमी दिखाई पड़ने के बावजूद कांग्रेसी आतंक के जमाने में हमें खास सफलता नहीं मिल सकी. मगर पूरे जिले में शायद हमारे इलाके में ही नई पहलकदमी लेने की कठोर प्रचेष्टा चल रही थी.

आंचलिक कमेटी के नेतृत्वकारी लोग अमूर्त सैद्धांतिक बहसों में उलझे थे. उनके बीच एक अजीब बहस चल रही थी – चारु मजुमदार (सीएम) को केवल श्रद्धेय नेता कहना उचित है या फिर उन्हें श्रद्धेय और प्रिय नेता कामरेड चारु मजुमदार कहना चाहिये. अब इस सवाल को लेकर आंचलिक कमेटी के अंदर दो लाइन की लड़ाई चल रही थी. इन बातों का सिर-पैर कुछ मेरी समझ में नहीं आया और एक मीटिंग में केवल सीएम कहने के अपराध पर खोका बाबू मुझ पर काफी क्रोधित हो गये. कमेटी के सचिव ने मुझे कई दिनों तक समझाया कि क्यों श्रद्धेय और प्रिय नेता कामरेड चारु मजुमदार कहना उचित है. मगर मैं तो इस बात को नहीं समझ पाया और ईशनिंदा का महापातकी बना रहा. मुझे तो समझ में आया कि संगठन और आंदोलन को पुनर्गठित करने की कठिन-कठोर कोशिश से पीछे हटने के तर्क के रूप में ये लोग इस किस्म की वामपंथी लफ्फाजी का सहारा ले रहे हैं. मेरी समझ में आ गया कि “आज के दौर में दो लाइनों के बीच की लड़ाई ही वर्ग संघर्ष है” इस किस्म के उनके सूत्रीकरण की वास्तविक अंतर्वस्तु क्या है.

धीरे-धीरे आंचलिक कमेटी के नेतृत्व के खिलाफ पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच विक्षोभ बढ़ने लगा और दूसरी ओर हमारी संजीदगी भरी कोशिश सभी की नजरों में आने लगी. इसी बीच, कोलकाता के दो कामरेडों कमल और अग्नि की पार्टी के अंदर रहते हुए हत्या करने के षड्यंत्र में भागीदारी के सन्देह में आंचलिक कमेटी के दो सदस्यों – गौतम सेन और कौशिक बनर्जी – को कमेटी से निष्कासित कर दिया गया. वे इस फैसले को नहीं मान सके और उन्होंने माओ त्सेतुंग के कथन “सच्चाई अक्सर अल्पमत में ही निहित होती है” की दुहाई देकर एक समांतर केन्द्र खड़ा कर दिया. पहली बार ऐसा हुआ कि गौतम सेन – जो मेरा सहपाठी था – मेरे साथ मुलाकात करने आया. जरूर उसे उम्मीद थी कि मैं उसका समर्थन करूंगा. मैंने कहा कि मैं इस घटना के बारे में कुछ भी नहीं जानता, लेकिन तुम्हारे लिये उचित यही होगा कि कमेटी के फैसले को मानकर अपनी बात रखो. इस तरह विद्रोह करना पार्टी की सांगठनिक नियमावली के खिलाफ होगा. उसने मुझे समझाया कि “अल्पमत बहुमत के मातहत होता है” ऐसे नियम सांस्कृतिक क्रांति के दौर में खोटे साबित हो चुके हैं. सांस्कृतिक क्रांति ने इस बात को स्थापित किया है कि “सच्चाई अक्सर अल्पमत में ही निहित होती है” और “विद्रोह करना न्यायसंगत है”. मैंने कहा कि जिस रेड बुक को हाथ में लेकर सांस्कृतिक क्रांति सम्पन्न हुई, उसी रेड बुक में माओ ने इन नियमों का उल्लेख किया है और सबसे बड़ी बात यह है कि यदि इन नियमों को त्याग दिया जाय तो कोई भी संगठन भला कैसे चलेगा. मैंने गौतम से कहा कि तुम खुद जो संगठन बना रहे हो उसमें भी तो आज हो या कल, मतविरोध दिखलाई देंगे और वहां अगर लोग इसी तर्क के आधार पर विद्रोह कर देंगे तो तुम उन्हें कैसे रोक पाओगे? मगर उसको मेरी बातें पुरानमपंथी जैसी लगीं. मुझे दुःख हुआ, लेकिन गौतम अपनी काफी योग्यता और क्षमता के बावजूद कभी कोई संगठन नहीं खड़ा कर पाया.

कौशिक बाबू भी मुझसे मुलाकात करने आये. उन्होंने कहा कि आंचलिक कमेटी के नेतृत्व के खिलाफ आप लोगों में भी तो बहुत विक्षोभ है. इसके अलावा आपकी तो व्यक्तिगत रूप से भी काफी उपेक्षा की गई है, अपमान किया गया है. आप इस विद्रोह का नेतृत्व करें, समस्त कार्यकर्ता आपके पक्ष में खड़े होंगे, हम भी आपके साथ हैं. मैंने कहा माफ कीजिये, मैं आपकी तरह विद्रोही नहीं हूं. इतने दिनों तक मुझे जो पार्टी शिक्षा मिली है उसके अनुसार मैं संगठन के अंदर ही नीतिनिष्ठ तरीके से संघर्ष चलाने पर यकीन करता हूं.

इस घटना का उल्लेख मैंने यह बताने के लिये किया कि सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर उन दिनों इस किस्म की बहुतेरी धारणाएं और विचार हमारी पार्टी में फैल चुके था और उनसे पार्टी प्रणाली टूटकर तहस-नहस हो रही थी. मुझे लगता है कि बाद के अरसे में अनगिनत ग्रुपों का अस्तित्व में आना, छोटे-मोटे मतविरोध पैदा होना तथा पार्टी में एक के बाद एक विभाजन होना, इन चीजों के पीछे इन्हीं धारणाओं का हाथ है.

इधर सीएम की मृत्यु के बाद शर्मा-महादेव के केन्द्र का निर्माण हुआ. चंद ही दिनों में उसके दो टुकड़े हो गये. चारु मजुमदार का उत्तराधिकारी होने का दावा करके महादेव बाबू ने अजीब-अजीब किस्म की भाववादी धारणाएं फैलाना शुरू किया. हमारी आंचलिक कमेटी का नेतृत्व इसके खिलाफ कोई विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष चला पाने में पूर्णतः असमर्थ था. हमने अपनी इलाका कमेटी की ओर से महादेव लाइन के खिलाफ एक दस्तावेज तैयार करके आंचलिक नेतृत्व के पास भेजा. उन्होंने उस दस्तावेज को वितरित ही नहीं किया. मगर ऐसा लगता है कि पार्टी के पुनर्गठन के संघर्ष में वही सबसे पहला राजनीतिक दस्तावेज था.

नदिया जिला के कामरेड लोग, जो मेरे साथ घनिष्ठ सम्पर्क रखते थे, इस संघर्ष में हमारे साथ सहमत नहीं हो सके. यहां तक कि नवद्वीप में जिस काली दा के घर में मैं शेल्टर लेता था और जो सिलाई का काम करके दो-चार रुपये का रोजगार करते थे और उससे ही हम दोनों का खाना-पीना चलता था – वह काली दा भी पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गये और महादेव लाइन के प्रभाव में आकर शहीद हो गये.

इसी बीच मुझे और कार्तिक को आंचलिक कमेटी में शामिल करके सचिव ने अपने प्रति “आस्था के संकट” का समाधान करना चाहा. मैं आंचलिक कमेटी में गया, और कुछ ही समय के बाद मुझे सचिव की जिम्मेवारी लेनी पड़ी. कारण यह था कि अब पुराने सचिव सबका विश्वास खो चुके थे और इतने दिनों में वे खुद ही “श्रद्धेय और प्रिय नेता” के प्रति आस्था खो बैठे थे.

जो हो, पार्टी पुनर्गठन की प्रक्रिया आगे बढ़ती गई. जल्द ही बर्धमान, बांकुड़ा, नदिया, बीरभूम, कोलकाता और उत्तर बंगाल के संगठनों को लेकर एक राज्य लीडिंग टीम तैयार हुई. अब हम केंद्र की खोज में निकले और शर्मा के साथ सम्पर्क किया. उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक गांव में मुलाकात का इंतजाम हुआ. निर्धारित समय पर कोट-पैंट-टाई पहने शर्मा जी आये. उनकी ओर से पूरी बातचीत की रामनाथ ने, जो बाद में सीएलआई के नेता बने. सीएम के नाम पर अंट-शंट बोलने लगे. हमने प्रतिवाद किया. अंत में मीटिंग भंग हो गई और हमने बीच रात में वहा से निकलकर ट्रेन पकड़ी. लौटकर हमने अपना द्वितीय राजनीतिक दस्तावेज शर्मा लाइन के खिलाफ तैयार किया.

हमने इस दस्तावेज में जन संगठन और जन आंदोलन की आवश्यकता का उल्लेख किया. हमारी राज्य लीडिंग टीम के सदस्य शांत (सौमेन गुहा) ने जब अर्चना आदि को लेकर “बहादुर बहने” संगठन बनाने की योजना पेश की तो मैंने उसका स्वागत किया. मगर यह चिंतन प्रक्रिया कुछेक वर्षों के लिये बाधित हुई, जिसका मुख्य कारण छापामार संघर्ष को चलायमान युद्ध में उन्नत करने का परिप्रेक्ष था. बिहार के उभरते संघर्ष के इस दौर में शायद इस नई सम्भावना को भी जांच कर देखना जरूरी था.

शर्मा लाइन के खिलाफ उतरने पर यह स्पष्ट हुआ कि किसी पहले से तैयार केन्द्र की खोज करना व्यर्थ होगा. हमें नये सिरे से केन्द्र का निर्माण करना होगा. इसी प्रक्रिया में सीएम की मृत्यु के ठीक दो वर्ष बाद 28 जुलाई 1974 को कामरेड जौहर के नेतृत्व में पार्टी की नई केन्द्रीय कमेटी का निर्माण हुआ. अब पीछे मुड़कर देखने से उस दिन लिया गया हमारा दृढ़ निर्णय एक ऐतिहासिक कदम लगता है. कामरेड जौहर अत्यंत दृढ़ स्वभाव के, मगर साथ ही अत्यंत विनम्र, सच्चे कम्युनिस्ट थे. उन्होंने पश्चिम बंगाल में हमारे काम के इलाकों का कई बार दौरा किया. उन्होंने हमें यह कहकर उत्साहित किया कि बिहार का संघर्ष अभी भी पहले दौर में है, आपलोग पश्चिम बंगाल में उस दौर को पार कर चुके हैं और अब आपने चौतरफा धक्के के बाद पुनर्गठन का काम हाथ में लिया है. इस परिस्थिति में आपलोगों ने जो किसान आंदोलन का नये सिरे से निर्माण किया है, वह भले ही सीमित हो पर उसका महत्व असीम है. उनमें विश्लेषण करने की असाधारण क्षमता थी और वे एक नये प्रेरणास्रोत के रूप में ही हमारे सामने आये थे.

धीरे-धीरे हमारे कामकाज का मुख्य क्षेत्र दक्षिण बंगाल से हटकर उत्तर बंगाल जा पहुंचा. नक्सलबाड़ी में कार्यरत शांति पाल ग्रुप – जिसका नेता पहले दीपक विश्वास था, जिसने सीएम को पकड़वा दिया था – पुलिस दमन के दबाव में पूर्णिया की ओर खिसक गया और हम नक्सलबाड़ी इलाके में घुस गये. नक्सलबाड़ी को पुनरुज्जीवित करने की चुनौती लेकर हमने वहां अपनी सारी ताकत लगा दी. धक्के के बाद से ही वहां गुप्तचर विभाग ने गांव-गांव में अपने दलालों का भारी जाल फैला रखा था. फलस्वरूप हमें कदम-कदम पर धक्के का सामना करना पड़ा, हमने उसकी काफी कीमत भी चुकाई. मगर इसी प्रक्रिया में हमने एक विस्तृत इलाके में आम गरीब किसानों और चाय-मजदूरों के साथ सम्पर्क कायम किया, छापामार योद्धाओं के नये-नये दस्तों का निर्माण हुआ, यहां तक कि आदिवासी राजवंशी महिलाओं की सशस्त्र छापामार वाहिनी भी तैयार हुई. पुलिस के कैम्प पर हमला करके रायफल छीनने का साहसिक ऐक्शन भी हुआ. नक्सलबाड़ी की बात सोचने पर दो विशिष्ट चरित्रों की याद आती है. एक 18-19 वर्ष का युवक पटल, जो एक भीषण छापामार योद्धा था और पुलिस के लिये पूरी तरह आतंक बन चुका था. बहुतेरी कोशिशों के बाद, एक बहुत बड़ा जाल फैलाकर पुलिस ने उसकी हत्या कर दी और सीमा सुरक्षा बल के उस कान्स्टेबुल को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला. दूसरे थे एक वृद्ध कामरेड बुधुआ ओरांव, जिन्हें हम सब श्रद्धा से पिताजी कहकर पुकारते थे. उनके जरिये आदिवासी जनता से सघन सम्पर्क के बिना हमारे लिये इन इलाकों में टिक पाना बिलकुल नामुमकिन था.

बड़पथूजोत की घटना के बाद उत्तर बंगाल में हमारे केन्द्रीकरण का पटाक्षेप हुआ और धीरे-धीरे हमारे कामकाज का मुख्य केन्द्र दक्षिण बंगाल की ओर वापस लौट आया. मगर नक्सलबाड़ी आज भी अपने पुनरुज्जीवन का इंतजार कर रही है.

संक्षेप में पश्चिम बंगाल में 1972 से 1977 के दौर में यही है पार्टी और आंदोलन को पुनर्गठित करने की कोशिश का इतिहास. इस दौर के अनुभव का सार-संकलन करके 1977 के बाद शुद्धीकरण आंदोलन चलाया गया.

एक समय ऐसा था जब जितनी दूर तक देखो, अंधेरा ही दिखता था. कुछ लोग कहते थे कि पहले सही राह तय कर ली जाय, उसके बाद उस पर चलना अच्छा होगा. इतिहास का चक्र ऐसा चला कि वे लोग राह खो चुके हैं और खुद भी खो गये हैं. दूसरा हिस्सा कहता था कि चलते चलो, राह खुद मिलेगी और वे पक्के संकल्प के साथ राह पर चलते रहे. उन्नत समाज के निर्माण का सपना और शहीद साथियों के खून का कर्ज चुकाने की जिम्मेदारी ही उनकी प्रेरणा थी और एकताबद्ध एवं अनुशासनबद्ध पार्टी संगठन ही उनका हथियार था. अंतिम विश्लेषण में वे ही राह खोज पाये हैं, उन्होंने ही आंदोलन को पुनरुज्जीवित किया है और पार्टी के पुनर्गठन का काम सम्पन्न किया है. नये-नये कामरेड इन अनुभवों से सीख लेंगे, इसी उम्मीद से अतीत की यादें बता रहा हूं.