(पांचवीं पार्टी-कांग्रेस की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से – दिसंबर 1992)

1. पिछले लगभग पांच वर्षों के दौरान दुनिया में सचमुच ऐसी घटनाएं घटी हैं जो समूची दुनिया के लिए ऐतिहासिक महत्व की हैं. जैसे-जैसे बीसवीं सदी अपने अंत की ओर बढ़ रही है, समाजवाद की विश्वव्यापी विजय की लेनिन की उम्मीदों के विपरीत, ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व पूंजवादी ने 74 वर्षों के तीखे संघर्ष के बाद समाजवाद पर विजय प्राप्त कर ली है.

इसके चलते यहां तक कि एक नामी-गिरामी पूंजीवादी सिद्धांतकार फ्रांसिस फुकुयामा ने इतिहास को “एक एकल सुसंगत क्रमविकास की प्रक्रिया” माने जाने के अर्थ में ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा कर दी है. फुकुयामा के अनुसार “समाज के किसी ऐसे अन्य रूप की कल्पना नहीं की जा सकती है जो उदार पूंजीवाद से उच्चतर हो” तथा अब “प्रतिभा की प्राकृतिक असमानता को, आर्थिक रूप से आवश्यक श्रम विभाजन को और संस्कृति को असमानता का स्रोत माना जाएगा.”

लिहाजा, फुकुयामा हमें बतलाते हैं कि इस पूंजीवादी व्यवस्था और उदार लोकतंत्र के भीतर कोई तनाव अब वर्ग शत्रुता के कारण नहीं पैदा होंगे, बल्कि वे ‘असमान लोगों को समान महत्व देने की उदार लोकतंत्र की प्रवृत्ति के चलते पैदा होंगे.’ क्या ये तनाव, जो कि असमान लोगों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार पर आधारित हैं, एक बार फिर फासीवाद द्वारा उदार लोकतंत्र के खात्में की ओर बढ़ेंगे? फुकुयामा इस पर खामोश हैं, लेकिन यूरोप में समाजवाद का पतन होने के बाद जर्मनी, फ्रांस और इटली में नाजीवाद निस्संदेह उभार पर है. हां, इस बार आप्रवासी आबादी को निशाना बनाकर.

2. द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही अमेरिका और सोवियत संघ के बीच एक शीतयुद्ध की शुरूआत हुई जिसे बाद में दो अतिमहाशक्तियों के बीच होड़ के रूप में जाना गया. यूरोप में नाटो और वारसा संधि से जुड़े दो सैनिक खेमे एक-दूसरे के मुकाबले में आ डटे जिसने हथियारों की बेलगाम होड़ को जन्म दिया और संपूर्ण मानवता का अनेक बार विनाश कर देने में सक्षम परमाणु बमों की जखीरेबाजी शुरू हुई.

3. साम्राज्यवादी और समाजवादी खेमों के बीच की इस होड़ को सोवियत नेतृत्व द्वारा दिए गए सर्वोच्च महत्व और केंद्रीयता की अनिवार्य मांग थी कि तमाम समाजवादी देश, कम्युनिस्ट पार्टी और तीसरी दुनिया के आंदोलन सोवियत संघ के पीछे कतारबद्ध हों. लेकिन वास्तविक जीवन में इससे समाजवादी खेमे में फूट पड़ गई. 1968 में चेकोस्लोवाकिया पर हुए आक्रमण और बाद में सीमित संप्रभुता की अवधारणा के क्रमविकाश ने पूर्वी यूरोपियन देशों को सोवियत उपग्रहों में बदल दिया.

4. सोवियत संघ ने एक महाशक्ति के बतौर आचरण करते हुए जल्दी ही हर जगह अपनी नाक घुसेड़नी शुरू कर दी. चीन के साथ चिरस्थाई तनाव में उलझने के बाद वह पूर्वी यूरोपियन देशों के राष्ट्रीय कोप का भाजन बना, फिर उसने अनेक एशियाई व अफ्रीकी देशों के साथ सैनिक समझौते किए और अंततः वह अफगानिस्तान में जा फंसा.

आंतरिक तौर पर, सोवियत संघ में समाजवादी व्यवस्था बहुत पहले ही अपनी जीवन-शक्ति खो चुकी थी और जड़ बन गई थी. क्षय की प्रक्रिया अरसे पहले शुरू हो चुकी थी, पर सब कुछ अतिमहाशक्ति के फूले अहंकार के पीछे ढकी रही. मगर इस बुलबुले को किसी-न-किसी दिन तो फूटना ही था. 1980 के दशक के मध्य में सोवियत की गिरफ्त ढीली पड़ते ही पूर्व यूरोपियन देशों ने एक के बाद एक सोवियत की परिक्रमा-कक्षा से बाहर निकलना शुरू कर दिया और स्वभावतः वे अपने-अपने देशों में समाजवाद के सोवियत नमूने से चिपके रहने से इनकार करने लगे. शीघ्र ही, तीनों बाल्टिक गणराज्यों ने, जिन्हें द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ में मिला लिया गया था, बगावत का झंडा उठा लिया. आखिर अतिमहाशक्ति की हैसियत धूल में मिल जाने के बाद अब कोई ऐसी डोर बाकी नहीं बची थी जो सोवियत संघ को एक साथ बांधे रहती.

5. रोमानिया, युगोस्लाविया और अल्बानिया भी विध्वंस के इसी रास्ते पर आगे या पीछे चल पड़े, हालांकि प्रत्येक अपने-अपने ढंग से. तथाकथित यूरोकम्युनिज्म की परिघटना परिवर्तन के पहले झटके में ही धराशायी हो गई और उसकी सामाजिक जनवादी अंतर्वस्तु बनेकाब हो गई. करीब-करीब सभी यूरोपियन देशों की सोवियतपरस्त कम्युनिस्ट पार्टियों ने रातोंरात सामाजिक जनवाद की विभिन्न किस्मों के प्रति विभिन्न मात्रा में अपनी निष्ठा की घोषणा की. स्वयं सीपीएसयू सुविख्यात डाइनासोर की तरह हिलने-डुलने से भी लाचार हो चुकी थी. उसने पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त के रूप में खुद अपने भस्मासुर को जन्म दिया.

6. शीतयुद्धोत्तर काल में जर्मनी को सबसे ज्यादा फायदा पहुंचा. पूर्वी जर्मनी को फिर पश्चिमी जर्मनी के अधीन कर दिया गया और उसके राज्याध्यक्ष होनेकर फिलहाल एक जर्मन जेल में मुकदमा चलाए जाने का इंतजार कर रहे हैं. नव ‘एकीकृत’ जर्मनी ने यूगोस्लाविया के विघटन को तेज करने में गहरी रुचि ली है संक्षेप में, जर्मनी के विरुद्ध लगाई गई तमाम युद्धोत्तर बंदिशें ढह चुकी हैं और जर्मनी का आर्थिक व राजनीतिक असर यूरोपीय आर्थिक समुदाय के भीतर और बाहर, दोनों ही जगह बढ़ रहा है.

7. 1980 के दशक में ही जापान एक ऐसी आर्थिक महाशक्ति के बतौर सुदृढ़ हुआ, जो अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर है. इस आर्थिक शक्ति के बूते पर जापान अब अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर सक्रिय भूमिका अदा करने की कोशिश कर रहा है. यह कोशिश, अन्य चीजों के अलावा, सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने की ख्वाहिश से उसे पुनर्गठित करने की पैरवी करने और अपने देश की सीमा के पार, कंबोडिया में संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति मिशन के तहत अपनी सेनाएं भेजने के उद्देश्य से संविधान में संशोधन करने जैसी कार्यवाहियों से साफ जाहिर हो गई है. सोवियत संघ की अनुपस्थिति और फलतः अमेरिकी छत्रछाया के कमजोर होने की स्थिति में जापान अब सैन्यीकरण के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम में उतर पड़ा है. उसका पतिरक्षा बजट अब विस्व में तीसरे स्थान तक पहुंच गया है.

8. जापान के अतिरिक्त, एशियाई शेरों – दक्षिण कोरिया, हांगकांग, सिंगापुर और ताइवान – ने भी लक्षणीय आर्थिक अग्रगति हासिल की है. उनके तुरंत बाद नंबर आता है मलयेशिया, थाइलैंड और इंडोनेशिया का. ये सब मिलकर विश्व व्यापार के दस प्रतिशत हिस्से की पूर्ति करते हैं. अमेरिका और ब्रिटेन के गिरते अर्थतंत्रों के मुकाबले एशिया को 1990 के दशक के अति वृहत् बाजार के बतौर पेश किया जा रहा है.

9. चीन खगोलीय अर्थव्यवस्था के एक नए पावर हाउस के बतौर उभर रहा है इसकी वार्षिक विकास दर 1990 के दशक में जापान और कोरिया को मात देने की ओर लक्षित है. इस बढ़ती आर्थिक ताकत का सहारा लेकर चीन विकासशील दुनिया के एक हिस्से के बतौर विश्व राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए भी तैयार हो रहा है. 1000 मेगाटन का परमाणु परीक्षण करना, पर्यवेक्षक की हैसियत से गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भाग लेना, जापान की अग्रगति को ताड़ते हुए दक्षिण कोरिया के साथ अपने संबध सुधारना और एकदम हाल में, अमेरिकी आपत्तियों को अंगूठा दिखाते हुए ईरान के साथ परमाणु रिएक्टर की बिक्री से संबंधित समझौते पर हस्ताक्षर करना – ये सब हाल के महीनों में चीन द्वारा की गई कुछ प्रमुख पहलकदमीयां हैं.

10. शीतयुद्ध का विचारधारात्मक विजेता संयुक्त राज्य अमेरिका अब उस चीज के जरिए अपने विश्व प्रभुत्व को संस्थाबद्ध करने का प्रयास कर रहा है जिसका उसने बड़े प्रेम से नाम दिया है ‘नई विश्व व्यवस्था’. ईराक के साथ इसके युद्ध का मकसद इसी विशिष्ट संकेत को प्रसारित करना था. इराक में नवीनतम अमेरिकी कार्यवाहियां इस बात की पुष्टि करती है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के आदेश के तहत कुवैत को आजाद कराने का बहाना दरअसल इसके असली मकसदों को छिपाने की आड़ भर था. बहरहाल, अमेरिकी प्रभुत्व को आज कई तरफ से चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. उसकी महत्वाकंक्षाएं चाहे जो भी रहें वास्तविक जीवन में वह केवल एक पतनशील अतिमहाशक्ति है.

11. वर्तमान युग को साम्राज्यवाद व सर्वहारा क्रांति का युग कहना अभी भी सर्वोत्तम है. सोवियत संघ के विघटन और सोवियत खेमे के विलोप के बाद समाजवादी व पूंजीवादी देशों के बीच का अंतर्विरोधअब एक स्वतंत्र श्रेणी के बतौर विश्व का एक प्रमुख अंतर्विरोधनहीं रह गया है. दूसरी ओर, साम्राज्यवाद और तीसरी दुनिया के देशों के बीच का अंतर्विरोधलगातार तीखा होता जा रहा है. समाजवादी खेमे पर चौधराहट जमाने की कोशिशों ने समाजवादी देशों के बीच सिर्फ फूट ही पैदा की थी. इसी तरह साम्राज्यवाद बनाम तीसरी दुनिया के अंतर्विरोधको समाजवाद और साम्राज्यवाद के विभाजन के मातहत रखने की सोवियत की कोशिशों ने सिर्फ तीसरी दुनिया में विभाजन की स्थिति पैदा की और इस तरह उनकी साम्राज्यवाद-विरोधी भूमिका को कमजोर और विकृत किया. सोवियत कारक से मुक्त होकर तीसरा विश्व, जिसे साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई खुद लड़नी है, बेहतर एकता व दृढ़ता प्रदर्शित कर रहा है. तीसरी दुनिया के सोवियत समर्थक देशों की मोलतोल की क्षमता में सामयिक कमी जरूर आई है, लेकिन दुनिया में जबकि साम्राज्यवादी देशों के आपसी अंतर्विरोधलगातार बढ़ रहे हैं, तीसरी दुनिया के देश तेजी से अपने संपर्कों को पुनर्व्यवस्थित कर रहे हैं और अपनी खोई हुई ताकत हासिल कर रहे हैं. इसके अलावा, अन्य सारे समाजवादी देश तीसरी दुनिया के विकासशील देशों की बिरादरी में ही आते हैं और वे प्राथमिक तौर पर अपनी इसी हैसियत से साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े हैं. मौजूदा ऐतिहासिक दौर में, साम्राज्यवाद और तीसरी दुनिया के बीच का अंतर्विरोधही प्रधान या केंद्रीय अंतर्विरोधबना हुआ है.

(लिबरेशन, अक्टूबर 1991)

यूरोप में साम्यवाद का अंतिम दुर्ग धराशायी हो गया है. सैनिक विद्रोह के जरिए इसे बचाने की निराशोन्मत्त कोशिशों से विध्वंस की प्रक्रिया और तेज ही हुई है.

एक समय था, जब साम्यवाद का भूत यूरोप को सताया करता था और अब यूरोप का भूत हर जगह साम्यवाद का पीछा कर रहा है. क्या यूरोप में साम्यवाद की मौत एशिया में भी साम्यवाद के भविष्य को प्रभावित करेगी? चीन कब तक पूंजीवादी आक्रमण का मुकाबला करता रहेगा? ये चीजें भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन को किस तरह प्रभावित करेंगी? ये सवाल और इस तरह के कई अन्य सवाल हमारे देश के कम्युनिस्टों और मार्क्सवादी बुद्धिजीविओं के दिल-दिमाग को मथ रहे हैं और आम चर्चा के मुख्य विषय बनते जा रहे हैं.

आइए, सोवियत संघ की घटनाओं से बात शुरू की जाए. प्रथम सफल सर्वहारा क्रांति के देश में, महान लेनिन के देश में समाजवाद को लगा यह धक्का कम्युनिस्टों के लिए सचमुच बहुत बड़ा आघात है. कमजोर दिलवाले कम्युनिस्टों को इससे पस्ती और पलायन का अच्छा आधार मिल जा सकता है. लेकिन मार्क्सवादी-लेनिनवादियों के सामने इससे यही जाहिर होता है कि अतंरराष्ट्रीय क्षेत्र में वर्ग संघर्ष – समाजवाद और पूंजीवाद के बीच का संघर्ष – कितना दीर्घकालिक और अपनी प्रकृति में कितना जटिल है.

अब इसके लिए अमेरिकी साम्राज्यवादी षड्यंत्र और गोर्बाचेव तथा येल्तसिन सरीखे व्यक्तियों को कोसने से कोई फायदा नहीं होगा. बुनियादी बात यह है कि जहां दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूंजीवाद ने अपने धक्के को संभालकर खुद को नए रूप में ढाल लिया, वहीं समाजवादी व्यवस्था अपने विकास की एक खास मंजिल के बाद लोगों को फायदा पहुंचाने में असफल होती गई और फिर अवरुद्ध हो गई. मजदूर वर्ग सहित आम जनता खुद ही इसे नकारने लगी थी. समाजवादी श्रृंखला भयंकर तनावों से गुजर रही थी और ठीक उस जगह विखंडित हो गई जहां विकृतियां अपनी चरम सीमा छू रही थीं – यानी, पहले पूर्वी यूरोप में और फिर सोवियत रूस में.

साम्राज्यवादी हमलों से समाजवादी सोवियत संघ की रक्षा करने के लिए बड़े-बड़े परमाणविक शस्त्रागार बनाए गए. सैन्य शक्ति में अमेरिका की बराबरी करना और वहां तक कि उससे आगे निकल जाना समाजवादी राज्य का एकमात्र उद्देश्य बन गया. इस प्रक्रिया में, समाजवादी आर्थिक आधार पर निर्मित, एक प्रभुत्ववादी अतिमहाशक्ति की परिघटना सामने आई. लेकिन विडंबना यह है कि जब संकट की घड़ी आई तो कहीं गोली तक नहीं दगी और सोवियत संघ का रूपांतरण ‘शांतिपूर्ण क्रमविकास’ का एक शास्त्रीय उदाहरण बन गया. साम्राज्यवाद और समाजवाद की दो व्यवस्थाओं के बीच के बुनियादी अंतर्विरोधको यांत्रिक रूप से मौजूदा स्थिति में दो खेमों के बीच का प्रधान अंतर्विरोधबना देने से महानायक, महापार्टी और महाशक्ति की परिघटना सामने आई और इसका बीज निश्चित रूप से स्तालिन काल में ही डाला जा चुका था. इन बेतुकी धारणाओं के स्वाभाविक नतीजे के बतौर समाजवादी खेमा विभाजित हो गया. माओ त्सेतुंग ने इसे सिद्धांत की हामी भरने से इनकार कर दिया और चीन सोवियत प्रभुत्व के सामने सर झुकाने को राजी नहीं हुआ. सोवियत अर्थतंत्र के सैन्यीकरण से प्राथमिक और बुनियादी जरूरतों के क्षेत्र में भारी कमी पैदा हो गई और झूठी आंकड़ेबाजी से लोग ऊब गए. समाजवादी जनवाद को विदाई दे दी गई; किसी भी किस्म के विक्षोभ को बर्दाश्त नहीं किया गया और इसके बदले, जनता को ‘साम्यवाद की प्राथमिक अवस्था’, ‘विकसित समाजवाद’ आदि के सुनहरे सब्जबाग दिखाये गये – उसके सामने सोवियत संघ के अतिमहाशक्ति होने का भ्रमजाल फैलाया गया, जो ले-देकर अतीत के विराट रूसी राष्ट्रीय अहंकारवाद का ही अवशेष था. इन सबकी आड़ में एक ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी और शासन प्रणाली विकसित हुई जो जनसमुदाय से अलग-थलग पड़ गई और भ्रष्ट व पतित हो गई.

समाजवादी आर्थिक आधार अतिमहाशक्ति की संरचना को लंबे समय तक नहीं टिका पाया और 1980 के दशक का मध्य आते-आते सोवियत संघ के अंदर एक ज्वालामुखी सुलगने लगा. गोर्बाचेव ने इस स्थिति से उबरने के लिए सोवियत संघ में सुधारों की प्रक्रिया शुरू की, लेकिन तब तक पानी सर से ऊपर गुजर चुका था. उनके पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त ने पूर्वी यूरोप में दूरगामी परिवर्तनों को अंजाम दिया. सोवियत संघ के अंदर राष्ट्रीय आकांक्षाएं जागृत कीं, सोवियत समाज के अंदर विभिन्न किस्म की सामाजिक शक्तियों को मुक्त कर दिया और शीघ्र ही येल्तसिन को केंद्र कर एक ऐसा ध्रुवीकरण सामने आया जो पूंजीवाद की पूर्णरूपेण वापसी की मांग करने लगा. पश्चिमी शक्तियों को भी सोवियत संघ के आंतरिक मामलों में अपनी नाक घुसेड़ने का अच्छा मौका हाथ लगा. अपने ही हाथों मुक्त की गई शक्तियों को काबू में रखने के गोर्बाचेव के सारे प्रयास व्यर्थ साबित हुए और एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन बनाने की मिथ्या आशा में उन्हें लगातार अपनी स्थितियों से पीछे हटते जाना पड़ा. समाज का आर्थिक पुनरुद्धार एक बकवास बनकर रह गया और वास्तव में उन्हें पश्चिमी शक्तियों से सहायता की भीख मांगनी पड़ी, जिसके बदले में उन्हें उन शक्तियों को एक के बाद एक अनेक राजनीतिक छूटें देनी पड़ीं. कुल मिलाकर उनकी अपनी स्थिति कमजोर पड़ती गई और येल्तसिन की ताकत बढ़ती गई. तमाम राजनीतिक और संवैधानिक परिवर्तनों के जरिए कम्युनिस्ट पार्टी को पहले से दरकिनार किया जा चुका था. अपनी पुरानी संरचना के साथ वह बहुदलीय संसदीय जनवादी व्यवस्था के लिए कत्तई अनुपयुक्त हो गई. तब गोर्बाचेव ने एक सामाजिक जनवादी पार्टी की अवधारणा प्रस्तुत की और एक नई संघीय संधि का रास्ता चुन लिया.

वक्त के इसी मुकाम पर तख्तापलट की बेहद बदनाम घटना घटी. हमारे पास यह निर्णय करने के लिए पर्याप्त तथ्य नहीं हैं कि विद्रोही नेताओं को दरअसल किस चीज ने बगावत के लिए उकसाया और परदे के पीछे क्या चल रहा था.

लेकिन उन्हें कट्टरपंथी और रुढ़िवादी करार देना गलत है. वे सब गोर्बाचेव के अपने ही चुने हुए लोग थे और उनके सुधारों की ही उपज और मुख्य स्तंभ थे. जब पूरा का पूरा मंत्रिमंडल ही राष्ट्रपति के साथ विश्वासघात करता पाया जा रहा हो तब ज्यादा तर्कसंगत व्याख्या यही प्रतीत होती है कि दरअसल लोगों ने राष्ट्रपति से जो उम्मीदें लगा रखी थीं, उनसे राष्ट्रपति ने विश्वासघात किया है. उन्हें उम्मीद थी कि गोर्बाचेव किसी न किसी मुकाम पर ठहर जायेंगे और फिसलन को रोकने के लिए अपनी उस इमर्जेंसी पावर का इस्तेमाल करेंगे जिसे उन्होंने खुद ही हासिल किया था. उन्हें महसूस हुआ कि कार्रवाई करने का समय आ गया है लेकिन अपनी ही करनी के शिकार गोर्बाचेव ने लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. रिश्तों में अकस्मात आई इस दरार के चलते लोगों के सामने सैनिक तख्तापलट के जरिए खुद सत्ता दखल करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा. मगर इस तख्तापलट को तो असफल होना ही था क्योंकि गोर्बाचेव अभी भी पेरेस्त्रोइका समर्थक ताकतों के नेता बने हुए थे और तख्तापलट के नेता एकदम शुरू से ही दुलमुलपन और आपसी एकजुटता का अभाव प्रदर्शित कर रहे थे. येल्तसिन ने इस दरार को भांप लिया और उनके बहादुराना प्रतिरोध में उठ खड़े हुए. तख्तापलट धराशाली हो गया और जनसमुदाय अपने नए नायक येल्तसिन की ओर उमड़ पड़ा. थके-हारे गोर्बाचेव ने वापस लैटकर पाया कि उनका सामाजिक आधार तेजी से खिसकता जा रहा है और वे खुद येल्तसिन के आगे सर झुकाने को विवश हो गए हैं. केंद्रीय सत्ता के कमजोर होते ही विखंडन की प्रक्रिया तेज हो गई, तीन बाल्टिक गणराज्यों ने सोवियत संघ से व्यवहारतः खुद को अलग ही कर लिया. येल्तसिन ने कम्युनिस्ट विरोधी उन्माद भड़काने का ही काम किया. कुछ दिनों तक वस्तुतः येत्लसिन के ही मातहत रहने के बाद, गोर्बाचेव ने उनके मुकाबले अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के प्रयत्न शुरू कर दिए, कम्युनिस्ट पार्टी को भंग करने की उनकी कोशिश, दरअसल, एक सामाजिक जनवादी पार्टी खड़ी करने की उनकी जो मूल योजना थी, उसी को अब घुमावदार रास्ते से पूरा करने की तैयारी है. इतना तो तय है कि कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा हिस्सा गोर्बाचेव की इस योजना में शामिल हो जाएगा. आनेवाले दिनों में यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि मौजूदा सोवियत समाज के इन दो प्रतिनिधि शख्सियतों के बीच सहयोग और प्रतिद्वंद्विता कैसे आगे बढ़ती है.

हम नहीं जानते कि रूस के मार्क्सवादी-लेनिनवादी अपने को कैसे पुनर्संगठित करेंगे. हम यह भी नहीं जानते कि इस पर ‘कट्टरपंथियों और रूढ़िवादियों’ की क्या प्रतिक्रिया होगी और आगे किस किस्म की नाटकीय घटनाएं घटित होने वाली हैं. लेकिन हम तो इतना जरूर जानते हैं कि सोवियत संघ में नवंबर क्रांति के दूसरे संस्करण के  लिए हमें काफी लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी.

पिछले सौ साल से कुछ ज्यादा अरसे में कम्युनिस्ट आंदोलन का केंद्र फ्रांस से जर्मनी से रूस होते हुए निर्णायक रूप से चीन की तरफ खिसक आया है और निस्संदेह भारत ही वह दूसरा देश है जिस पर लोगों की उत्सुक निगाहें लगी रहेंगी.

बहरहाल, अब कुछ बातें वादविवाद की. सीपीआई(एम) के सिद्धांतकार प्रकाश करात ने, सीपीएसयू की 28वीं कांग्रेस के बारे में हमारे सकारात्मक मूल्यांकन का हवाला देते हुए हम पर पहले की हमारी पूर्णतः सोवियत विरोधी स्थिति से पलटकर पूरी तरह गोर्वाचेव समर्थक, रूस समर्थक स्थिति अख्तियार कर लेने का आरोप लगाया है और वे एकदम शुरू से ही गोर्बाचेव की आलोचना करने का श्रेय लूटते फिर रहे हैं. लेकिन तथ्य अपनी कथा आप कहते हैं. महाविवाद में हमने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का डटकर समर्थन किया था और ख्रुश्चेव के सिद्धांत की आलोचना की थी. हमने कभी भी ‘समान दूरी के सिद्धांत’ पर यकीन नहीं किया और दृढ़तापूर्वक माओ त्सेतुंग और चीन का पक्ष लिया. हमने माओ स्तेतुंग विचारधारा को अपना मार्गदर्शक उसूल कबूल किया जो अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में किसी रहनुमा पार्टी की अवधारणा का विरोध करती थी, जिसने वर्तमान विश्व में तीसरी दुनिया और साम्राज्यवाद के बीच के अंतर्विरोधको प्रधान अंतर्विरोधके रूप में पेश किया, और जो सोवियत संघ की अतिमहाशक्ति वाली प्रभुत्ववादी स्थिति का विरोध करती थी. स्तालिन का अधिभूतवाद नहीं, बल्कि माओ का द्वंद्ववाद हमारा पथ-प्रदर्शक था और इसी से हमें यह समझने में मदद मिली कि समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष – और पूंजीवाद की पुनर्स्थापना का खतरा भी – मौजूद रहता है. हमसे गलतियां तो हुईं और कुछ अतियां भी हो गई, लेकिन हमारी मूलभूत प्रस्थापनाएं इतिहास की कसौटी पर खरी उतरी हैं. उधर सीपीआई(एम) है जिसने माओ के दार्शनिक विचारों की खिल्ली उड़ाई; सेवियत रूस की अतिमहाशक्ति वाली स्थिति की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा चेकोस्लोवाकिया, अफगानिस्तान और कंपूचिया पर सोवियत संघ के हमलों का जोरदार समर्थन किया. कुछेक गलतियों की कुछ सही आलोचना के बावजूद, सीपीआई(एम) की मूलभूत प्रस्थापनाएं मनोगतवादी ही साबित हुई हैं.

दिसंबर 1987 में अपनी पार्टी की चौथी कांग्रेस के दस्तावेज में हमने ही सबसे पहले गोर्बाचेव के दो अक्तूबर के भाषण की कड़े से कड़े शब्दों में आलोचना की थी, सीपीआई(एम) ने तो काफी बाद, मास्को से लौटने पर ही अपना मुंह खोला. तब से हम लगातार साम्राज्यवाद के प्रति गोर्बाचेव रवैये की कड़ी आलोचना करते रहे हैं. वर्ग संघर्ष आदि के बारे में गोर्बाचेव के विचारों को हमने महज ख्रुश्चेवी अवधारणाओं का एक परिष्कृत संस्करण ही बताया है. सोवियत रूस की अतिमहाशक्त वाली स्थिति को खत्म करने  और चरम निरंकुश व्यवस्था के अंदर जनवादी सुधारों की प्रक्रिया शुरू करने के लिए गोर्बाचेव ने जो कदम उठाए, हमने उनका स्वागत किया. अगर सीपीआई(एम) ने अभी भी समाजवाद के ब्रेजनेवी माडल के बारे में भ्रम पाल रखा है, तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि यह माडल अपनी अंतिम अवस्था मे पहुंच चुका था और अब उसका विनाश अवश्यंभावी था. और, गोर्बाचेव ने तो महज इतिहास के उत्प्रेरक की भूमिका अदा की है, यह भी याद रखना चाहिए कि यह ब्रेजनेव शासन ही था, जिसने भारत में इमर्जेंसी और इंदिरा गांधी के निरंकुश राज का समर्थन किया था. जहां तक 28वीं कांग्रेस का सवाल है, तो सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर तत्कालीन शक्ति-संतुलन की स्थिति में हमने गोर्बाचेव का समर्थन येल्तेसिन के विरुद्ध किया था. इससे ज्यादा कुछ नहीं. हमें मालूम था कि आज कि सोवियत संघ में अपनी कल्पना के ‘सच्चे क्रांतिकारी कम्युनिस्टों’ की तलाश कोरा मनोगतवाद ही होगा. इसी फेर में सीपीआई(एम) ने लिगाचेव गुट पर अपनी उम्मीदें टिका रखी थीं, लेकिन 28वीं कांग्रेस ने दिखा दिया कि उनकी असली औकात क्या है.

अब, अगर हम इस तख्तापलट का समर्थन नहीं करते, तो सिर्फ इसलिए कि हम जानते हैं कि इससे हमारे मन को चाहे कितनी तसल्ली मिल जाए, रूस की मौजूदा स्थितियों में तख्तापलट को जनता का जरा भी समर्थन नहीं मिला. अगर हम रूस के आंतरिक मामलों में अमेरिकी प्रभाव के बारे में हायतौबा नहीं मचाते, अगर हम वहां कम्युनिस्ट पार्टी की मौत पर आंसू नहीं बहाते, तो ऐसा इसलिए कि खुद सोवियत संघ में इन सबके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठ रही है. हम समाजवाद के हिमायती हैं, मगर एक समाज-व्यवस्था के रूप में इसे किसी देश की जनता पर किसी भी तरह थोपा नहीं जा सकता. अगर समाजवाद के 74वर्षों के अनुभव के बाद सोवियत जनता इसे ठुकरा देने का फैसला करती है, तो हम सेना, केजीबी और मार्शल लॉ के जरिए इसके जबर्दस्ती थोपे जाने की पैरवी भला कैसे कर सकते हैं! जब फिसलन को रोकने का समय था, तब तो कुछ नहीं किया गया, और हर आलोचना को सोवियत नेतृत्व तथा भारत में उनके चाटुकारों द्वारा सीआइए-प्रेरित बताकर खारिज कर दिया गया. अब आज की ठोस स्थितियों में हम बदतर के मुकाबले बद का ही समर्थन कर सकते हैं, और घटनाओं की उस मोड़ का इंतजार कर सकते हैं, जहां कम्युनिस्ट फिर से पहलकदमी अपने हाथों में ले लेने के काबिल हो जाएंगे. मार्क्सवादी रवैया सिर्फ यही हो सकता है. बाकी सब तो उन्मादपूर्ण चीत्कार है – चरम हताशा से पैदा हुई चीख-पुकार.

चीन, खासकर अपनी मजबूत माओवादी विरासत के कारण, सोवियत संघ से कई मामलों में भिन्न है, वहां समाजवाद अपनी प्राथमिक अवस्था में ही सही, मगर जिंदा है और अपनी अनेक विकृतियों के बावजूद उसे जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त है. हमें चीन की सुनहरी तस्वीर दिखा कर समाजवाद पर जनता की आस्था टिकाए रखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए – जैसा कि सीपीआई(एम) अब बाकायदा करने जा रही है. यह तरीका न केवल तथ्यगत रूप से गलत है, बल्कि प्रतिकूल परिणामों तक पहुंचा देने वाला भी है. हमें लोगों को सच्चाई बतानी चाहिए तथा समाजवाद और पूंजीवाद के बीच संघर्ष के टेढ़े-मेढ़े रास्ते के बारे में उन्हें शिक्षित करना चाहिए.

जब सीपीआई(एमएल) ने अपनी यात्रा शुरू की थी, तो उसकी नजर में सिर्फ चीन और नन्हा-सा अल्बानिया ही समाजवादी देश हुआ करते थे, लेकिन इससे अपने देश के जनवादी और समाजवादी रूपांतरण के लिए खुद को उत्सर्ग कर देने की हमारी भावना जरा भी शिथिल नहीं पड़ी! भारत में, जहां पुरानी व्यवस्था के खिलाफ जनवाद की लड़ाई ही मुख्य कार्यभार है, कम्युनिस्ट आंदोलन का भविष्य उज्ज्वल है. चिंता की बात अगर है, तो वह पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के शासन को लेकर है, जहां प्रतिक्रियावादी शक्तियां वामपंथी सरकार की गड़बड़ियों का फायदा उठाकर कम्युनिस्ट-विरोधी उन्माद भड़काने की कोशिश कर सकती हैं. हम आशा करते हैं कि सीपीआई(एम) के नेतागण अपनी आलोचनाओं के प्रति ज्यादा सहिष्णुता बरतेंगे, अपना तौर-तरीका दुरुस्त करेंगे और मार्क्सवाद की रक्षा के सवाल पर तथा जन आंदोलनों में क्रांतिकारी कम्युनिस्टों से हाथ मिलाएंगे.

(लिबरेशन, अप्रैल 1991)

मैंने अपने लेख ‘युद्ध की राजनीति’ में यह उल्लेख किया है कि मौजूदा युद्ध आज के विश्व के अंतरविरोधों और संश्रयों का प्रतिबिंब है और साथ ही साथ यह शक्तियों के परस्पर संबंधों में परिवर्तनों को अंजाम देने का एक माध्यम भी है.

पिछले कुछ वर्षों से सोवियत संघ एक महाशक्ति की हैसियत से संयुक्त राज्य अमेरिका का मुकाबला करने में साफ तौर पर पीछे हटता रहा है, इस पीछे हटने को मीठी शब्दावली में ‘शांति आक्रमण’ कहा जाता है. इसके अतिरिक्त, साम्राज्यवाद के बारे में सोवियत संघ के सिद्धांत और पश्चिम के साथ उसके विकसित हो रहे घनिष्ठ संबंध ने स्पष्ट रूप से इसे तीसरी दुनिया के हितों के खिलाफ खड़ा कर दिया है. व्यावहारिक दृष्टि से, एकदम शुरूआत से ही सोवियत संघ ने पश्चिम एशिया में अमेरिकी षड्यंत्र में जान बूझकर मातहती की भूमिका निभाई. सैद्धांतिक तौर पर हम यह सब जानते हैं और इसे दो टुक भाषा में रखते भी आ रहे हैं. आखिरी दौर में सोवियत ने जो एक शांति योजना पेश करने का प्रयास किया वह इसकी आत्मसमर्पण को संगठित करने की योजना के सिवा और कुछ नहीं था. वह युद्ध के बाद पश्चिम एशिया में अपनी भूमिका को बरकरार रखने का उसका एक दब्बू प्रयास था. अमेरिका सोवियत संघ की बुनियादी नपुंसकता को भलीभांति समझता था. सोवियत संघ की शांति योजना को नामंजूर कर दिया.

सोवियत संघ ने उसके जवाब में काटछांट करके एक संक्षिप्त रूपांतरित योजना पेश की और उसे भी पुनः ठुकरा दिए जाने पर उन्होंने अमरीकियों के साथ सुर में सुर मिला दिया. मैंने अपना लेख उसी दिन लिखा था जिस दिन सोवियत प्रस्ताव आया था. मैं समझ गया था कि यह सद्दाम के प्रतिरोध का अंत है. लिहाजा मैंने इराक के दूसरा वियतनाम बन जाने के अपने पहले के मूल्यांकन के बदले सद्दाम की संभावित हार का जिक्र किया और युद्ध के बाद शक्तियों के नए संभावित पुनर्संश्रय की चर्चा करते हुए उसे समाप्त कर दिया. सोवियत संघ की भूमिका के बारे में मेरे मन में रत्ती भर भी भ्रम कभी नहीं रहा. सोवियत संघ पहले ही उस स्थिति तक उतर चुका था जो उसने तार्किक तौर पर अपनाया था. हमारे कामरेडों ने सोवियत संघ की बदली हुई भूमिका को समझने लायक स्थिति में मानसिक तौर पर खुद को नहीं ढाला, बावजूद इसके कि उसका बहुत पहले ही विश्लेषण किया जा चुका था. युद्ध ने तो केवल सोवियत संघ के असली चेहरे को सामने ला दिया है. दूसरी ओर, युद्ध के बाद सोवियत संघ में नई चिंता नजर आ रही है और जैसा कि मैंने अपने लेख में लिखा था, अमेरिका के साथ शांति धीरे-धीरे उष्ण संबंधों की ओर मुड़ सकती है. सीपीआई और सीपीआई(एम) के लिए सोवियत संघ पर लाल-पीला होना शोभता है क्योंकि उससे वे बड़ी-बड़ी उम्मीदें बांधे बैठे थे. हमारे लिए तो बेहतर यह होगा कि हम अमेरिका के साथ उसके संबंधों में अगर कोई नया मोड़ आता है तो उस पर नजर रखें.

जहां तक चीन का संबंध है तो उससे मौजूदा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक समाजवादी देश के तौर पर किसी विशेष भूमिका की आशा करना बड़े ऊंचे सपने देखना है. काफी अरसा पहले ही उसने यह प्रदर्शित कर दिया है कि उसे सोवियत संघ की जगह लेकर वैसी किसी भूमिका में आने की दिलचस्पी नहीं है. जो हो, तीसरी दुनिया का एक देश होने के नाते उसने सोवियत संघ के साथ विभाजन रेखा तो खींच ही ली और वोटिंग प्रक्रिया से अपने को दूर रखा तथा तीसरी दुनिया के देशों के साथ सुर में सुर मिलाने की कोशिश की. उसने आर्थिक निर्माण की अपनी कोशिश में पश्चिम के साथ बहुआयामी संबंध विकसित किए हैं तथा थ्येन आनमन की घटना के बाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों में पश्चिम के सम्मुख उसके आक्रमण की धार कुंद हो चुकी है. और उसका जोर तनावपूर्ण संबंधों को सामान्य बनाने पर है. पिछले वर्षों के दौरान उसने जिस तरह के हालात में अपने को फंसा दिया है, उसमें उसके लिए यह संभव नहीं है कि वह सहसा कोई बहुत आमूलगामी स्थिति अख्तियार करे. इसी वजह से मैंने कहा था कि युद्ध ने विभिन्न देशों के बीच मौजूद संबंधों को केवल खुला कर दिया है. हम सैद्धांतिक तौर पर सारी चीजें जानते हैं, लेकिन पुराने भ्रम जल्दी दम नहीं तोड़ते और जब जीवन के तथ्य उन्हीं चीजों को पुष्ट करते हैं तो हम अचम्भित हो जाते हैं और अपनी भावनाओं का विस्फोट करके मन को संतोष देने की कोशिश करते हैं. मेरे ख्याल से मूल बात है बदलते सम्बंधों की बनावट पर नजर रखाना, क्योंकि मुझे यकीन है कि चीनी लोग और उसी कारण से बहुत सारे देश, अमेरिका की नई विश्व व्यवस्था की धमकी से गहरे तौर पर चिंतित है और युद्ध ने हर जगह पुनर्विचार की एक लहर पैदा कर दी है. नए संबंधों को आकार ग्रहण करने में कुछ समय लगेगा.

कोई रूस अथवा चीन की जितनी उसकी मर्जी हो उतनी आलोचना करने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि इससे हमारी पार्टी लाइन के साथ कोई अंतर्विरोधनहीं खड़ा होता है. यहां तक कि, अगर कुछ कामरेड चीनी दूतावास के सामने इस सवाल पर कोई विरोध प्रदर्शन भी करें तो भी कोई आपत्ति नहीं है. किंतु मैं तो केवल अंतरराष्ट्रीय संबंधों के भावावेश-रहित विश्लेषण भर से संतुष्ट रहूंगा क्योंकि विश्व के मामलों का निर्णय मात्र दस वर्षों के अंदर नहीं, कई दशकों में होता है.

(समकालीन जनमत, 3 मार्च 1991)
                                             

‘युद्ध, दूसरे रूप में, राजनीति का ही जारी रूप है.’
– कार्ल वॉन क्लाजविट्स

शीतयुद्ध की समाप्ति पर फ्रांसिस फुकुयामा जब ‘इतिहास का अंत’ की घोषणा कर रहे थे तब उन्होंने सपने में भी न सोचा होगा कि इतनी जल्दी फिर इतिहास की शुरूआत हो जाएगी.

खाड़ी-युद्ध का एक महीना पूरा हो गया है. जार्ज बुश की नजरों में यह आखिरी युद्ध है. जिसके बाद एक नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था स्थापित होगी. सद्दाम हुसैन का मानना है कि यह युद्ध सभी युद्धों की मां है जिसकी परिणति अरब देशों के नवजागरण और फिलिस्तीन की मुक्ति में होगी. क्या होगा, इसका फैसला होना अभी बाकी है. लेकिन इतना तय है कि इस युद्ध का उद्देश्य महज कुवैत की मुक्ति नहीं रह गया है. यह युद्ध दुनिया के वर्तमान अंतरविरोधों और गंठजोड़ों का प्रतिबिंब है, और साथ ही संपर्कों की पुनर्संरचना का माध्यम भी. युद्ध, मौत और तबाही का तांडव नृत्य है, परंतु इतिहास में युद्ध कभी-कभी अनिवार्य हो जाते हैं और इतिहास को गति प्रदान करते हैं. खाड़ी युद्ध सच्चे अर्थों में इतिहास की नई शुरूआत है.

1990 समाजवाद की पराजय और साम्राज्यवाद की विजय का वर्ष था. पूर्वी यूरोप में ‘उदारवादी जनवादी मूल्यों’ ने ‘सर्वसत्तावाद’ पर जीत हासिल कर ली थी. सोवियत रूस में समाजवाद अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था. थ्येन आनमन चौक के धक्के ने पश्चिमी दुनिया के हमलों के सामने चीन को आत्मरक्षा की स्थिति में धकेल दिया था. निर्गुट आंदोलन बेअसर हो चुका था. अमेरिकी नेतृत्व में विश्व पूंजीवाद अपनी फतह का झंडा गाड़ चुका था और अरसे बाद दुनिया एकध्रुवीय नजर आने लगी थी.

चार्ज बुश जिस नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की वकालत कर रहे हैं, उसका अर्थ है तीसरी दुनिया और उसके स्रोतों पर अमेरिकी नियंत्रण. अमेरिका के 1991 के प्रस्तावित प्रतिरक्षा बजट में विवादास्पद ‘नक्षत्र युद्ध’ योजना के लिए पिछले साल के 2.9 बिलियन डालर से बढ़ाकर 4.8 बिलियन डालर की मांग की गई है. बजट भाषण में सोवियत रूस की तरफ से आण्विक खतरे की संभावना कम हो जाने की बात स्वीकर करते हुए भी, तीसरी दुनिया के देशों द्वारा मिसाइल हमले की संभावना जताते हुए इस बढ़ोत्तरी की मांग को जायज बताया गया है.

नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के इस अमेरिकी परिप्रेक्ष्य में, जाहिरा तौर पर ईराक द्वारा कुवैत पर हमले को अमेरिका बर्दाश्त नहीं कर सकता था. पश्चिम एशिया के तेल क्षेत्रों पर अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं. कुवैत के अमेरिका परस्त शेख का पतन, इराक का अरब में एक शक्तिशाली देश के बतौर उभरना और तेल संपदा के कुल 20 प्रतिशत पर नियंत्रण नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर सीधी चोट थी. अमेरिका युद्ध पर उतारू था और यह एकध्रुवीय दुनिया का ही करिश्मा था कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् अमेरिका की जरखरीद गुलाम बन गई; बहुराष्ट्रीय सेना में युरोपीय देशों के अलावा अमेरिका गठबंधन के सारे देश शामिल थे – सीरिया, मिश्र और मोरक्को जैसे अरब देश भी; पाकिस्तान अपनी सेना भेज रहा था और भारत अमेरिका सैनिक विमानों को तेल दे रहा था. सोवियत रूस का नैतिक समर्थन और चीन की रहस्तमय चुप्पी. राजनीतिक पहल अमेरिका के हाथों थी और इराक अकेला, बिलकुल अकेला था. क्यूबा सरीखे कुछ छोटे-मोटे देशों के अलावा अमेरिका के विरोध में कहीं आवाज भी नहीं सुनाई पड़ती थी. लेकिन ईराक ने लड़ने की ठान रखी थी. उसने कुवैत के साथ फिलिस्तीन का सवाल जोड़ा, ईरान के साथ पुराने विवाद खत्म किए और अपनी तैयारियां पूरी की.

युद्ध अपनी पूरी निर्ममता के साथ जारी है. इराक पर इतिहास की भयंकरतम बमबारी ने पश्चिमी सभ्यता के कुत्सित चेहरे को उजागर कर दिया है. दजला और फरात नदियों के बीच शताब्दीयों पुरानी मेसोपोटामियाई सभ्यता के पवित्र स्थलों को बर्बाद किया जा रहा है. हजारों की तादाद में बूढ़ों, बच्चों, महिलाओं और आम नागरिकों की हत्या की जा रही है. हाईटेक के प्रति पश्चिमी आकर्षण ने इस पूरी तबाही को टेलिविजन के पर्दे पर एक रोमांचक खेल मात्र बनाकर रख दिया है. अमेरिका नेताओं के फूहड़ मंतव्य एवं पश्चिमी प्रचार माध्यमों की भाषा उनके रंगभेदवादी नजरिए के सामने तीसरी दुनिया के गरीब देशों की आकांक्षाएं, सभ्यता और संस्कृति कोई मायने नहीं रखती. कुल मिलाकर यही है उस एकध्रुवीय दुनिया का नक्शा, जिसका सपना अमेरिका देख रहा है.

लेकिन सपना तो सपना ही होता है. मात्र छह दिनों में लड़ाई जीत लेने का दम भरने वाले अमेरिका जनरल अभी भी जमीनी युद्ध की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. सद्दाम के समर्थन में और अमेरिका के विरोध में दुनिया के बहुतेरे देशों में जनसैलाब उमड़ रहा है. एक-एक करके ये देश अपनी स्थितियां बदलने पर मजबूर हो रहे हैं और बहुराष्ट्रीय गठबंधन में दरार बढ़ रही है.

सद्दाम हुसैन लड़ाई भले ही हार जाएं, लेकिन अव्वल तो उन्होंने कुवैत के साथ फिलिस्तीन के सवाल को जोड़ने में काफी सफलता पाई है. अब किसी भी शांति-प्रस्ताव को फिलिस्तीन की समस्या पर विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. युद्ध में हारने पर भी अरब राष्ट्रवाद को सद्दाम ने जिस तरह उभरा है, वह अपने आने वाले दिनों में अमेरिका का पीछा नहीं छोड़ेगा. इसी आधार पर फ्रांस एवं दूसरे यूरोपीय देश स्वतंत्र राजनीतिक पहलकदमी की ओर बढ़ेंगे, जिसके साथ अमेरिकी स्वार्थों का विरोध लाजिमी है. सोवियत रूस के साथ भी अमेरिका के संबंधों में शांति का मौजूदा दौर उष्ण शांति में बदल सकता है. तीसरी दुनिया के देशों में अमेरिका विरोधी जो लहर बह रही है, वह भी अपना कोई नया राजनीतिक स्वरूप अख्तियार करेगी.

युद्ध का नतीजा चाहे जो हो, लेकिन इतना तय है कि एकध्रुवीय दुनिया का अमेरिकी सपना फारस की खाड़ी में ही दफन होगा.

(लिबरेशन, मार्च 1990)

मानव इतिहास 1990 के दशक में प्रवेश कर चुका है. पिछले दशक का अंतिम वर्ष समाजवादी देशों के लिए, खासकर पूर्वी यूरोप के देशों के लिए भूकंपकारी घटनाओं का वर्ष साबित हुआ. पूंजीवादी विश्व इन घटनाओं पर खुशियां मना रहा है और पूंजीवादी प्रचार माध्यमों ने बड़े ही योजनाबद्ध ढंग से, शायद इस सदी में तीसरी बार, ऐलान किया है कि कम्युनिस्ट दम तोड़ चुका है. हर जगह के बुद्धिजीवी ढुलमुलाने लगे हैं और कम्युनिस्ट पार्टियों से निकल भागने लगे हैं. इस परिघटना का असर हमारी पार्टी पर भी पड़ा है और विलोपवादी प्रवृत्ति जो कल सीपीआई(एमएल) की प्रासंगिकता पर सवाल उठा रही थी उसने आज खुद मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान पर शंकाएं करनी शुरू कर दी है. इस प्रवृत्ति से चिपके लोग आज अपने-आपको कम्युनिस्ट कहने में शर्म महसूस करते हैं और ‘जनवादी’ कहलाना बड़ा पसंद करते हैं. इन परिस्थितियों में तमाम सच्चे कम्युनिस्टों का यह कर्तव्य हो जाता है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद की पताका को बुलंद करें, उदारवादी पूंजीवादी सर्किल के हमलों से उसकी रक्षा करें और साथ ही साथ कम्युनिस्ट पार्टियों और समाजवादी-प्रणाली की असफलताओं की आलोचनातमक ढंग से जांच-पड़ताल करें तथा इन नए सवालों का जवाब देने के लिए और इन नई चुनौतियों का सामना करने के लिए मार्क्सवादी-लेनिनवादी विज्ञान को समृद्ध करें.

सीपीआई(एमएल) की मान्यता ही तर्कसंगत

सीपीआई और सीपीआई(एम) कल सूरज डूबने तक सोवियत और पूर्वी यूरोप की समाजवादी संरचनाओं को अनुकरणीय मानते थे और उनकी प्रशंसा के गीत गाना अपना धर्म समझते थे. इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के विपरीत सीपीआई(एमएल) अपने जन्म के समय से ही इन संचरनाओं की जबर्दस्त आलोचक रही है. निस्संदेह उनकी आलोचना करने में हम सारी सीमाएं पार कर चुके थे, मगर आर्थिक व राजनीतिक जीवन में नौकरशाही विकृतियों के खिलाफ, समाजवादी जनवाद का अभाव इत्यादि के बारे में हमारी आलोचना की मूल अंतर्वस्तु इतिहास की कसौटी पर खरी उतरी है.

सीपीआई(एमएल) भारत की एकमात्र कम्युनिस्ट पार्टी थी जिसने बिना किसी लाग-लपेट के 1968 में जनविद्रोह को कुचलने के लिए चेकोस्लोवाकिया में सोवियत फौजें भेजने की, अफगानिस्तान में रूसी हमले की और कंपूचिया में रूसियों द्वारा पीठ ठोंके जाने पर किए गए वियतनामी आक्रमण की निंदा की थी. इन सवालों के बारे में अपनी उसूली स्थिति हमने कभी नहीं छोड़ी और इतिहास ने इस बात की तसदीक की है कि हम सही थे.

हमने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को उस मान्यता को मानने से इनकार कर दिया था, जब उसने एक ऐसे सोवियत-विरोधी मोर्चे का निर्माण करने की वकालत की जिसमें खुद अमेरिका और अन्य अमेरिका-परस्त शक्तियां शामिल हों. हमने बार-बार चीनी नीतियों का विरोध किया और पश्चिम के साथ समागम करते वक्त उदारवादी पूंजीवादी विचारों की आनेवाली बाढ़ के विरुद्ध विचारधारात्मक अभियान छेड़ने पर जोर दिया था.

सोवियत संघ में गोर्बाचेवी सुधारों की पृष्ठभूमि में ही, जबकि ब्रेजनेव के दौर में सोवियत की साम्राज्यवादी प्रणाली के पतन की तस्वीर सामने लाई जाने लगी, और जबकि अफगानिस्तान में फौज उतारने की नीति की फिर से आलोचनात्मक पड़ताल की जाने लगी, तभी हमलोगों ने उसे सामाजिक साम्राज्यवाद मानने की अपनी पुरानी मान्यता का पुनरावलोकन करना तय किया.

जैसा कि हमने 1987 में संपन्न अपनी चौथी पार्टी कांग्रेस में बतलाया था कि हमारी गलती ब्रेजनेव के दौर में सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था में जो मौलिक पतन हुआ था उसकी आलोचना करने में नहीं थी, अपितु पार्टी और खुद उस प्रणाली के अंदर से परिवर्तन की संभावनाओं को पूरी तरह नकार देने में थी.

तथापि हमने सोवियत संघ की अतिमहाशक्ति वाली स्थिति की आलोचना करना जारी रखा और अपनी आलोचना को साम्राज्यवाद को चटक रंगों में चित्रित करने की और तीसरी दुनिया के देशों के हितों की उपेक्षा करने की गोर्बाचेवी नीति के विरुद्ध केंद्रित किया. विलोपवादी प्रवृत्ति को माननेवाले लोग शांति के पुजारी सभ्य साम्राज्यवाद के गोर्बाचेवी सुसमाचार से बहल जाते हैं उन्हें सोवियत संघ की आलोचना में कहे गए एक लफ्ज को भी दुहराना बड़ा नागवार लगता है.

सोवियत संघ में स्तालिन के विरुद्ध पूरी तरह दुर्भावानाओं से भरा अभियान चलाए जाने के बावजूद और पूंजीवादी विश्व द्वारा रूस के ब्रेजनेवी शासन पर और उसके समकालीन तमाम पूर्वी यूरोपियन शासनों पर स्तालिनवादी होने का आरोप लगाते रहने के बावजूद हमने उनकी हां में हां मिलाने से इनकार कर दिया. हम तब भी यह मानते थे और आज भी यह मानते हैं कि स्तालिन और ब्रेजनेव के जमानों के बीच साफ-साफ फर्क किया जाना चाहिए. हम स्तालिन के माओ द्वारा किए गए मूल्यांकन से अभी भी सहमत हैं कि उनकी गलतियों का पलड़ा उनकी उपलब्धियों की तुलना में काफी हलका है.

पहले तो, रूस में समाजवाद के निर्माण के 70 वर्षों से अधिक की अवधि में स्तालिन का दौर ही सबसे अधिक राहत पहुंचानेवाला है. रूस जो एक पिछड़ा किसानों का देश था, इस दौर में विश्व के औद्योगिक देशों की अगली कतार में जा पहुंचा. यह समूचे सोवियत इतिहास में अब तक के सर्वाधिक तीव्र आर्थिक विकास का दौर है और इसी कूबत पर वह नाजियों द्वारा पूरी ताकत के साथ किए गए हमले को झेल सका. इस ऐतिहासिक दौर को अपराधपूर्ण दौर घोषित करना इतिहास की खिल्ली उड़ाना है. इसके विपरीत ब्रेजनेव का दौर चौतरफा गतिरोध का दौर था.

दूसरे, जहां तक पूर्वी यूरोपियन देशों का सवाल है तो यह सच है कि वहां के कम्युनिस्ट शासन रूसी लाल सेना की ताकत पर स्थापित हुए थे, मगर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उन दिनों पूर्वी यूरोपियन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियां अपने विकास के दौर में थीं और उनके नेतृत्व में बने जनमोर्चे ही नाजी सत्ता का प्रतिरोध करनेवाले एकमात्र संगठन थे. अधिकांश देशों की पूंजीवाद-जमींदार परस्त सरकारों ने या तो नाजियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था अथवा वे देश छोड़कर भाग गई थीं. इसके विपरीत ब्रेजनेव द्वारा चेकोस्लोवाकिया में फौज उतारने का उद्देश्य था एक अलोकप्रिय सरकार के खिलाफ हुए लोकप्रिय विद्रोह को कुचनला.

तीसरे, यह सच है कि स्तालिन के जमाने में ही सोवियत रूस और पूर्वी यूरोपियन देशों के बीच के संबंध के अतिमहाशक्ति बनाम आश्रित देशों वाला संबंध बन जाने के बीज पड़ चुके थे और अन्य पार्टियों के साथ सोवियत पार्टी का संबंध नेतृत्वकारी पार्टी बनाम नेतृत्वाधीन पार्टी का विकृत रूप धारण कर चुका था. तथापि, तब तक सोवियत संघ और सीपीएसयू की नेतृत्वकारी भूमिका को अन्य लोग लोकप्रिय तौर पर स्वीकार करते थे. इसका कारण था कम्युनिस्ट बिरादरी में सोवियत संघ और सीपीएसयू को प्राप्त अथाह सम्मान, यह कोई जबरन कायम किया गया संबंध नहीं था, जैसा कि ब्रेजनेव के जमाने में था.

चौथे, स्तालिन और उनके जमाने के कम्युनिस्ट नेताओं पर भ्रष्टाचार, अय्याशी और भाई-भतीजावाद के कोई आरोप नहीं लगे, जबकि ब्रेजनेव और पूर्वी यूरोप के उनके तमाम अनुयाइयों पर ये आरोप बड़े जोरशोर से लगाए जा रहे हैं.

हमें ऐसा नहीं लगता कि ट्राटस्की अथवा बुखारिन के सिद्धांत तत्कालीन स्थितियों में रूस को समाजवाद के निर्माण के इर्द-गिर्द भी ले जा पाते. स्तालिन के जमाने में जो सबसे संजीदा गलती हुई है वह है अंतःपार्टी संघर्षों में गंभीर विकृतियां पैदा हो जाना, जिसका नतीजा हुआ पार्टी संस्थाओं के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की कीमत पर स्तालिन के गिर्द व्यक्ति-पूजा का विकास. इसका तार्किक नतीजा हुआ पार्टी और सरकार के सरपरस्तों का नौकरशाहों जैसा बन जाना. अर्थव्यवस्था को जरूरत से ज्यादा केंद्रीकरण से भी इस प्रक्रिया को बल मिला. फलस्वरूप, समाजवादी जनवादी संस्थाओं को बुरी तरह पददलित होना पड़ा. अतीत का यह पुनरावलोकन स्पष्ट करता है कि सीपीएसयू और सोवियत समाज को एक देश में समाजवाद का निर्माण करने और विश्वयुद्ध की परिस्थिति में, यह कीमत चुकानी ही पड़ती. हां, यह उम्मीद जरूर की गई कि जब परिस्थिति फिर सामान्य हुई थी तो पार्टी नेतृत्व को उन गलतियों को सुधारने पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए था. किंतु ब्रेजनेव के दौर में भी उन गलतियों को, जो इतिहास की एक शोकांतिका थी, हू-ब-हू दुहराते रहा गया – भांड़ों की तरह भड़ैती करते हुए, स्वांग रचाते हुए.

हम इस सिद्धांत को मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि पूर्वी यूरोप के इस प्रलय की जड़ें वहां कम्युनिस्ट पार्टियों के सत्ता में आने की ‘अस्वाभाविक प्रक्रिया’ में निहित हैं, इस तर्क को थोड़ा ही आगे बढ़ाने से सोवियत और चीनी समाजवादी समाजों की स्थापना-प्रक्रिया भी ‘अस्वाभाविक’ प्रतीत होगी, क्योंकि वे साजवादी क्रांतियों के सर्वोच्च विकसित पूंजीवादी देशों में सबसे पहले होने की मार्क्स की भविष्यवाणियों से पूरी तरह मेल नहीं खाती हैं.

हम लेनिन की इस उक्ति को मानते रहे हैं और आज भी मानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों को राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने का जब कभी अवसर मिले उसे चूकना नहीं चाहिए, राजनीतिक सत्ता पर निस्संदेह कब्जा कर लेना चाहिए और समाज का पुनर्निर्माण करना चाहिए.

सोवियत रूस, चीन अथवा पूर्वी यूरोप की विकृतियों की छानबीन सर्वहारा सत्ता के क्रियान्वयन की प्रक्रिया में की जानी चाहिए. सत्ता-प्राप्ति की प्रक्रिया में नहीं.

जरूरत से ज्यादा केंद्रीकरण और समाजवादी जनवादी संस्थाओं के कमजोर पड़ने के चलते आर्थिक और राजनीतिक जीवन में नौकरशाहाना विकृतियों का उदय होना जितना सत्य है उतना ही ध्रुव सत्य है आम तौर पर यह कहना कि खुद पार्टी और व्यवस्था के अंदर से आर्थिक पुनर्निर्माण और राजनीतिक सुधार के आंदोलन के जरिए उन गलतियों का इलाज करना भी संभव है. चीन के आर्थिक पुनर्निर्माण और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम और रूस के ग्लास्नोश्त व पेरेस्त्रोइका की सकारात्मक घटनाएं इस तथ्य का सबसे जबर्दस्त सबूत हैं.

पूर्वी यूरोपियन देशों के मामले

कम्युनिस्ट पार्टियों और समाजवादी प्रणाली में विकृतियों के अतिरिक्त भी वहां कम्युनिस्ट पार्टियों की सोवियत संघ पर भारी निर्भरता के कारण समस्याएं थोड़ा अधिक जटिल थीं तथा वहां अतिमहाशक्ति बनाम आश्रित देश जैसा संबंध कायम हो जाने के चलते रूस-विरोधी राष्ट्रवादी भावनाएं काफी सक्रिय थीं. नतीजे के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टियां जनसमुदाय से काफी अलग-थलग पड़ गई तथा चर्च का और राष्ट्रवादी भावनाओं को भुनानेवाली अन्य ढेर सारी विपक्षी शक्तियों का अभ्युदय हुआ.

पूर्वी यूरोप में जन असंतोष की इस शक्तिशाली अंतर्धारा की पृष्ठभूमि में सोवियत संघ के ग्लास्नोस्त ओर पेरेस्त्रोइका ने उन्हें नैतिक रूप से प्रचंड बल प्रदान किया. सोवियत संघ भी इस कड़वे संबंध को अधिक दिनों तक नहीं जारी रख सका. सबसे अहम बात तो यह है कि सोवियत समाज के बदलते ढांचे ने यह आवश्यक बना दिया था कि पूर्वी यूरोप में भी वैसे ही परिवर्तन लाए जाएं. यह एक वस्तुगत बाध्यता थी अन्यथा संभवतः दोनों समाजों का सार्थक ढंग से समागम जारी नहीं रह सकता था. यद्यपि सोवियत संघ स्वभावतः कम्युनिस्ट पार्टियों में ही सुधार करने के जरिए ये परिवर्तन लाना बेहतर समझता था. मगर ऐसा करने में जो खतरे हैं उन्हें भी गोर्बाचेव समझते थे अंततः उन्होंने यह खतरा उठाना ही श्रेयस्कर समझा. सोवियत संघ ने घोषणा की कि वह चेकोस्लोवाकिया में की गई कार्यवाही को नहीं दुहराएगा. उसकी इस घोषणा ने समुचित बाह्य परिस्थिति मुहैया कर दी. और इस प्रकार विस्फोट हो गया. बात ऐसी नहीं है कि सोवियत संघ इन परिवर्तनों को पूर्वी यूरोप में किसी साजिशाना ढंग से लाया है. बहुत संभव है कि घटनाओं की गति और परिवर्तन के जो माध्यम उभर रहे हैं वे उनके पूर्वानुमान से आगे निकल गए हों. हालांकि सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के बीच अतिमहाशक्ति और आश्रित का संबंध बुनियादी तौर पर आज भी बदस्तूर जारी है, तथापि पूर्वी यूरोपियन देशों को अब पहले की तुलना में अधिक आजादी मिल गई है और सोवियत संघ के सामने उनकी सौदेबाजी की क्षमता अधिक बढ़ गई है. यह अवश्य स्मरण रहे कि पूर्वी यूरोप में हुए परिवर्तन, यहां तक कि उनका पश्चिम की ओर अपनी खिड़कियां खोल देना भी, सोवियत संघ की मौजूदा नीतियों के सर्वथा अनुकूल है. गोर्बाचेव जब यह कहते हैं कि पूर्वी यूरोप में हुए परिवर्तन समाजवाद के, कहने का मतलब है सोवियत समाजवाद के, हितों के विरोधी नहीं हैं तो हमें लगता है कि वे ठीक ही करते हैं. गोर्बाचेव ने अपने नव वर्ष संदेश में घोषित किया है कि ‘पूर्वी यूरोप सोवियत संघ पर हमेशा भरोसा कर सकता है.’ ‘निस्संदेह पूर्वी यूरोप सोवियत संघ पर भरोसा करना नहीं छोड़ेगा!’

रोमानिया का मामला इस समूचे नजारे से अलग नजर आता है. चौसेस्कू लंबे अरसे से मासको के संदर्भ में मोटामोटी स्वतंत्र नीति का अनुसरण कर रहे थे और उन्होंने पश्चिम की ओर अपने दरवाजे पहले ही खोल रखे थे. उनका खुद का एक शक्तिशाली आधार था. उनके तानाशाही शासन के विरुद्ध भारी जनअसंतोष के साथ-साथ उन्हें उखाड़ फेंकने में सेना की शिरकत और बाद में हुए कत्लेआम ने इसे नीचे से हुए जनविद्रोह के बजाय समाज के सर्वोच्च स्तरों में हुआ संघात अधिक बना दिया. इसके अतिरिक्त चौसेस्कू को उखाड़ फेंकने में रूसियां की खास किस्म की दिलचस्पी, रोमानियाई घटनाओं को सोवियत संघ का समर्थन और सोवियत-रोमानिया संबंधों में इसके तुरंत बाद हुआ सुधार मास्को को सीधा-सीधी जिम्मेदार ठहराते हैं.

जो भी हो, सामग्रिक तौर पर कम्युनिस्टों को पूर्वी यूरोप में हुए इन परिवर्तनों को लेकर अधिक चिंतातुर होने की जरूरत नहीं है.

पूंजीवाद पूर्वी यूरोपियन देशों की, ऐसे देशों की जहां पूंजी-निर्माण की दर अपेक्षाकृत निम्न है, समस्याओं के हल नहीं कर सकता है. पश्चिमी यूरोप के विपरीत पूर्वी यूरोपयन देशों के लिए समाजवाद अपेक्षाकृत अधिक ‘स्वाभाविक’ हैं. पूंजीवादी रास्ता इन देशों के जनसमुदाय की विशाल बहुसंख्या के लिए केवल विपत्तिजनक ही होगा और इन देशों के नव-औपनिवेशिक शोषण का मार्ग प्रशस्त कर देगा.

दूसरे, चंद अपवादों को छोड़कर सभी कम्युनिस्ट पार्टियां एक के बाद दूसरे आंतरिक परिवर्तनों के जरिए अपनी प्रमुख भूमिका बनाए रखने में सफल हुई हैं. जिन देशों में कम्युनिस्ट पार्टियां ऐसा करने में असफल रही हैं वहां भी शासकों की नई नस्ल को समाजवादी अर्थव्यवस्था नष्ट करना कठिन लग रहा है. पोलैंड और हंगरी की सरकारों ने जो नए कदम उठाए हैं उनमें से कई ऐसे हैं जो जनता को पसंद नहीं आएंगे.

परिवर्तनों का अगला चक्र जिसमें कि समाजवाद और जनवाद का बेहतर सम्मिश्रण होगा, अधिक दूर नहीं है.

नया वाद-विवाद

गोर्बाचेव की शांत शिष्ट साम्राज्यवाद की अवधारणा जो नव-औपनिवेशिक शोषण न करता हो, उनकी राष्ट्रों, राज्यों और महादेशों के घनिष्ठ होने की अवधारणा और विश्वशांति के लिए खुल्लमखुल्ला अमेरिकी साम्राज्यवाद से हाथ मिलाने की अवधारणा तीसरी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों, जनवादी संगठनों और जनता में संदेह उत्पन्न कर रही हैं. तीसरी दुनिया के देश नव-औपनिवेशिक शोषण के सबसे बड़े शिकार हैं और साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष को धीमा करने का उन्हें जो धर्मोपदेश दिया जा रहा है उसकी व्याख्या करते हुए कहा जा रहा है कि यह सोवियत संघ द्वारा तीसरी दुनिया के हितों के साथ गद्दारी करना है. इस प्रकार बड़ी शक्तियों की घनिष्ठता तीसरी दुनिया के देशों को मौलिक हितों के लिए सीधासीधी नकुसानदेह है. इस प्रकार सीपीसी और सीपीएसयू के बीच फिर एक नया महाविवाद शुरू हो जाएगा. हमारी पार्टी चूंकि तीसरी दुनिया के ही एक देश की कम्युनिस्ट पार्टी है, और जैसा कि हमने खुद अपनी चौथी कांग्रेस में गोर्बाचेव के साम्राज्यवाद के सिद्धांत का जो विरोध किया है उसकी रोशनी में भारत में तीसरी दुनिया की प्रतिनिधि पार्टियों और संगठनों का पक्ष लेंगे – अन्य किसी से भी पहले. तथापि हम सोवियत संघ में ग्लास्नोंस्त और पेरेस्त्रोइका का सकारात्मक मूल्यांकन भी करते रहेंगे और निरस्त्रीकरण व विश्वशांति के लिए सोवियत संघ द्वारा किए जा रहे उपायों का समर्थन करते रहेंगे. दूसरी ओर, हम यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध संगठित अभियान चलाने तथा विचारधारात्मक-राजनीतिक शिक्षा देने के अलावा भी चीन के राजनीतिक सुधार के क्षेत्र में काफी कुछ अवश्य किया जाना चाहिए, हमें इस या उस नेता, पार्टी और उनके चमत्कारी नेताओं का आंख मूंदकर अनुसरण करने की दलाल मनोवृत्ति त्याग देनी चाहिए, न ही हमें अपना दिमाग पश्चिमी प्रचार माध्यमों के चिंतन भंडारों के हाथों गिरवी ही रखना चाहिए, मार्क्सवाद-लेनिनवाद के उसूलों को ही आधार मान करके और अपने देश, अपनी जनता और अपनी पार्टी के हितों को सर्वोच्च स्थान देते हुए हम अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों के सूत्रीकरणों और विशिष्ट कार्यों का स्वतंत्रतापूर्वक मूल्यांकन करेंगे.

कम्युनिस्ट पार्टी का सुदृढ़ीकरण बनाम हमारे देश में जनवादी मोर्चे का विस्तार

ख्रुश्चेव के समय से ही सोवियत संघ तीसरी दुनिया के विकासशील देशों के लिए सोवियत मदद के बल पर पूंजीवादी मंजिल को लांघकर समाजवाद में उत्तरण की वकालत करता रहा था. राजनीतिक तौर पर इसका मतलब था कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा साम्राज्यवाद और इजारेदार पूंजीवाद के विरुद्ध शासक राष्ट्रीय पूंजीपत वर्ग के साथ व्यापक संश्रय कायम करना. इसका ठोस आर्थिक मतलब था सोवियत संघ की सहायता से सार्वजनिक क्षेत्र का विकास करना जिसे निजी क्षेत्र के विरुद्ध किलेबंदी के तौर पर प्रदर्शित किया गया था और जो उन्हें समाजवाद में पहुंचने में सक्षम बना देता. ‘राष्ट्रीय जनवाद’ की सीपीआई की समूची अवधारणा इसी पूर्वशर्त पर आधारित थी और एक हद तक सीपीआई (एम) भी इसी रास्ते का अनुसरण करती थी. सीपीआई(एमएल) ने अपने जन्मकाल से ही सार्वजनिक क्षेत्र की परीकथा का भंडाफोड़ किया और दिखलाया कि यह क्षेत्र केवल नौकरशाही पूंजी को जन्म देगा और इजारेदार पूंजी के साथ संश्रय कायम करेगा.

सोवियत सिद्धांतकार अब इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र अदक्षता, फिजूलखर्ची और नौकरशाही को जन्म देता है. अब तीसरी दुनिया के विकासशील देशों के लिए वे जिस नए नमूने की वकालत कर रहे हैं वह उन्हीं के शब्दों में ‘जनवादी’ अथवा ‘शिष्ट पूंजीवाद’ है. कहने की जरूरत नहीं कि उनके ये नए नुस्खे उनके खुद के समाज के बदलते ढांचे की जरूरतों के अनुकूल हैं. एक बार फिर इस ‘शिष्ट पूंजीवाद’ का प्रतिनिधित्व करनेवाली शक्तियों के साथ व्यापक संश्रय कायम करने का आह्वान जारी किया गया है. कयास यह भी लगाया ही जा सकता है कि वीपी सिंह के प्रति सीपीआई और सीपीआई(एम) के प्रेम की ये नई पींगे कहीं इस नुस्खे की ही करामात तो नहीं हैं. जो हो, जनता के जनवाद की ओर बढ़ने की यह एक लाइन है.

हम अपने तई नवजनवाद के बारे में माओ की शिक्षाओं के आधार पर एक जनवादी मोर्चे विकसित करने का प्रयत्न करते रहे हैं. जनवादी मोर्चा अथवा जनता की क्रांतिकारी पार्टी की हमारी समूची अवधारणा मार्क्सवादी-लेनिनवादी उसूलों से निकली है, अथवा अगर और भी ठोस रूप में कहा जाए तो वह मार्क्सवादी-लेनिनवादी उसूलों को भारत की ठोस स्थितियों के साथ एकरूप करने का परिणाम है. उनका कार्यक्रम क्रांतिकारी जनवादी बुनियाद पर आधारित होगा जो कि समाजवाद की ओर एक संक्रमणकालीन मंजिल है. उसका नेतृत्व खुद कम्युनिस्ट पार्टी करेगी. पिछले कुछ वर्षों का अनुभव यह स्पष्ट करता है कि हमें भारत में एक ऐसे मोर्चे का निर्माण करने में कुछ हद तक सफलता मिली है. खासकर, बिहार में यह मोर्चा अधिक से अधिक संख्या में अन्य पार्टियों की वामपंथी और जनवादी कतारों को आकर्षित करते जा रहा है. हमें संघर्ष के विभिन्न रूपों के बीच एक हद तक तालमेल कायम करने में भी सफलता मिली है. यहां तक कि हम संसदीय संघर्षों के क्षेत्र में भी एक नई शुरूआत कर सके हैं.

इस मंजिल में हमें पार्टी के अंदर एक अजीब सिद्धांत विकसित होते नजर आता है. इस सिद्धांत को पूर्वी यूरोप के देशों की हाल की घटनाओं से प्रेरणा मिली है. यह सिद्धांत पार्टी का विलोप कर देने का आह्वान करता है अथवा वह शिष्टतापूर्ण लहजे में यों कहता है, ‘पार्टी आईपीएफ के रूप में खुल गए.’ उनकी शालीन मांग है कि कम्युनिस्ट पार्टी का स्थान एक जनवादी पार्टी ले ले अथवा वह संगठन ले ले जिसे कुछ अन्य लोग ‘वाम फारमेशन’ कहना अधिक पसंद करते हैं. पार्टी के विरुद्ध सहसा यह बगावत क्यों, जबकि पार्टी ने स्पष्टतः सफलताएं हासिल की हैं, जबकि वह एक जनवादी मोर्चा, अथवा अगर आप चाहें तो उसे जनवादी पार्टी भी कह सकते हैं, सफलतापूर्वक विकसित कर रही है? कारण तलाशने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है. हमारे इन सहयात्रियों की ‘जनता पार्टी’ अथवा ‘वाम फारमेशन’ निस्संदेह एक उदार पूंजीवादी कार्यक्रम को लेकर हाजिर होगी और अत्यंत स्वाभाविक तौर पर इस परियोजना के साथ कम्युनिस्ट पार्टी का कोई तालमेल नहीं बैठ सकता है. क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी उसे हमेशा एक क्रांतिकारी जनवादी दिशा प्रदान करने का प्रयत्न कहेगी. एक उदारवादी जनवादी पार्टी की आवश्यकता को उचित ठहराने के लिए यह सिद्धांत एक ही साथ दो विपरीत दिशाओं की यात्रा करता है. पहले तो साम्राज्यपाद-विरोधी संघर्ष को नाममात्र का संघर्ष बना दिया गया है. ऐसे तमाम उदारवादियों के गुरू गोर्बाचेव हैं और वे साम्राज्यवाद के बारे में और राज्यों, राष्ट्रों व महादेशों के घनिष्ठ बनने के बारे में अपने गुरू के धर्मोंपदेशों का प्रत्यक्ष अर्थ ही निकालते हैं. जहां तक दूसरे दुश्मन सामंतवाद का सवाल है तो सामंती अवशेष तो कदम-ब-कदम खुद पूंजीवादी सरकार के जरिए कानूनी उपायों से निर्मूल किए जा सकते हैं. क्रांतिकारियों के लिए तो सिर्फ इन सरकारों में शामिल हो जाने की जरूरत है, अधिक से अधिक सरकार पर कुछ जन-दबाव का निर्माण भर करने की.

मार्क्सवाद-लेनिनवाद की महान लाल पताका को बुलंद रखना, सीपीआई(एमएल) को शक्तिशाली बनाना और जनवादी मोर्चे को विस्तारित करना हमारे सामने समूचे 1990 के दशक के लिए रणनीतिक कार्यभार हैं.

(चौथी पार्टी-कांग्रेस, जनवरी 1988 में पारित राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट)

8 दिसंबर 1987 को राष्ट्रपति रीगन और महासचिव गोर्बाचेव ने वाशिंगटन में एक समझौते पर हस्ताक्षर किया, जिसका उद्देश्य छोटी और मध्यम दूरी के नाभिकीय प्रेक्षपास्त्रों की पूरी श्रेणी को नष्ट कर देना है. इस समझौते से दुनिया भर की जनता में फैल उल्लास में हम भी शरीक हैं और हम इस संधि का स्वागत करते हैं. यों तो इस समझौते के तहत जितने नाभिकीय शस्त्रों को नष्ट किया जाना है वह दुनिया के कुल नाभिकीय अस्त्र भंडार का एक शुद्र (4 प्रतिशत) हिस्सा ही है, फिर भी यह एक अच्छी शुरूआत का संकेत है. विविध कारकों के संयुक्त प्रभाव से ही यह समझौता संपन्न हो सका है, मसलन अमेरिका का आर्थिक संकट और सोवियत संघ में आर्थिक पुनर्गठन की अनिवार्यता, नाभिकीय प्रौद्योगिकी के विकास की एक खास स्थिति में पुहुंचने के कारण उत्पन्न खतरे, जो कि अमेरिकी आण्विक संयंत्र में रेडियोधर्मी रिसाव और कुख्यात चेर्नोबिल दुर्घटना के दौरान सामने आए, पश्चिमी यूरोप और अमेरिका में शांति आंदोलन का बढ़ता ज्वार, और यकीनन, मिखाइल गर्बाचेव का शांति आक्रमण इत्यादि.

चेतावनी के बतौर हम यहां दुहरा दें कि गोर्बाचेव ने अपने नवंबर (1987) भाषण में शांति आक्रमण की जो प्रस्थापना पेश की है उसमें साम्राज्यवाद की एक लुभावनी तस्वीर पेश की गई है. उपरोक्त भाषण में एक ऐसे किस्म की साम्राज्यवादी व्यवस्था की कल्पना की गई है जिसमें युद्ध का खतरा नहीं होगा, जिसमें अर्थतंत्र का सैन्यीकरण न होगा, जिसके लिए नव औपनिवेशिक शोषण भी जरूरी न होगा, तथा यह पूंजीवादी व्यवस्था समाजवादी व्यवस्था के साथ शांतिपूर्ण प्रतियोगिता करेगी. स्वाभाविक है कि हम ऐसी धारणा को स्वीकार नहीं कर सकते. नवऔपनिवेशिक शोषण व प्रभुत्व के खिलाफ तीसरी दुनिया के जनगण का संघर्ष, यूरोप और अमेरिका की जनता का शांति आंदोलन, अपने-अपने देशों में अर्थतंत्र के सैन्यीकरण के खिलाफ मजदूर वर्ग का संघर्ष तथा शक्तिशाली समाजवादी देशों द्वारा ली गई राजनीतिक और कूटनीतिक पहलकदमियां ये तमाम चीजें ही अंततः साम्राज्यवादी व्यवस्था के ध्वंस की स्थितियां तैयार करेंगी और इस विध्वंस के बाद ही युद्ध के खतरे को अंतिम रूप से मिटाया जा सकेगा.

[भाकपा (माले) पालिट ब्यूरो का वक्तव्य, लिबरेशन, जून 1989]

भाकपा(माले) चीन में घटी हाल की घटनाओं पर गहरी चिंता व्यक्त करती है. रिपोर्ट बताती है कि थ्येन आनमन चौक पर सैनिक कार्यवाही में काफी तादाद में छात्र और निर्दोष लोग मारे गए. एक समाजवादी देश में इस किस्म की त्रासदी सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है और हम दुनिया भर में प्रगतिशील और जनवादी लोगों द्वारा अभिव्यक्त दुख और पीड़ा में सहभागी हैं.

बहरहाल, भाकपा(माले) ने यह भी गौर किया है कि आमतौर पर पश्चिमी पूंजीवादी देश खासकर अमेरिकी साम्राज्यवाद मौके का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. चीन में मौजूद कतिपय मार्क्सवाद-विरोधी और समाजवाद-विरोधी तत्वों के साथ मिलकर अमेरिका वार्ता के जरिए इसमें शामिल मुद्दों के समाधान की राह में बाधा उत्पन्न करने की निराशोन्मत्त कोशिश कर रहा है और इस लोकतंत्र-समर्थक आंदोलन को चीनी समाजवादी प्रणाली के खिलाफ खड़ा करने तथा इस प्रकार 1949 की अपनी ऐतिहासिक पराजय का बदला लेने का जी-तोड़ प्रयास कर रहा है.

चीन से मिल रही नवीनतम सूचनाएं बताती हैं कि वहां परिस्थिति तेजी से सामान्य होती जा रही है और पश्चिमी प्रेस एजेंसियों द्वारा जारी अफवाहों का पुलिंदा,जिसे भारतीय  मीडिया ने भी बिना जांच-पड़ताल किए लोक लिया, अधिकांशतः बकवास ही साबित हुआ है.

हम भारतीय जनता से अपील करते हैं कि वे भारत में मौजूद उन दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी ताकतों की घिनौनी मंशा के प्रति चौकस रहें जो एक खास चीनी त्रासदी को भुनाकर दरअसल भारत के वामपंथी आंदोलन पर अपना निशाना साध रहे हैं और भारतीय जनता के जनवादी संघर्षों में वामपंथी मोड़ की उभरती संभवना को उलट देने की साजिश रच रहे हैं.

हम आशा करते हैं कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अब लोकतंत्र के लिए हुए इस लोकप्रिय आंदोलन के पीछे निहित मूल कारणों का विश्लेषण करेगी और लोकतंत्र के लिए जनता की ऊंची उठी आकांक्षा को संतुष्ट करने के लिए जरूरी राजनीतिक सुधार की पहल लेगी. हम यह भी आशा करते हैं कि चीन अमेरिका के साथ अपने संबंध के समूचे दायरे की समीक्षा करेगा और समाजवादी देशों के बीच एकता को मजबूत बनाने का प्रयास तेज करेगा.

हमें यकीन है कि चीन को 1949 के पहले की स्थिति में लौटा ले जाने का साम्राज्यवादी ख्वाब कभी पूरा नहीं होगा और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी तथा चीन की समाजवादी प्रणाली मौजूदा उथल-पुथल के उपरांत विजयी और आवेगमयी होकर उभरेगी.

(देशब्रती, सितम्बर 1990 से)

25 मई नक्सलबाड़ी दिवस है. नक्सलबाड़ी तो वही है मगर उसके अर्थ भिन्न-भिन्न हैं. उन भिन्न-भिन्न अर्थों को आधार बनाकर अलग-अलग ग्रुप बने हैं, जो एक दूसरे के खिलाफ लम्बे अरसे से अंतहीन वाद-विवाद चला रहे हैं. अक्सर उनके बीच का सम्बंध शत्रुतापूर्ण भी हो गया है. इन तमाम बातों को लेकर आम लोगों में फैली विभ्रांति खत्म नहीं हो रही और पश्चिम बंगाल के लोगों ने मान लिया है कि नक्सल आंदोलन अब खत्म हो चुका है.

जैसे एक ओर सीपीएम की कार्यवाहियों – अफशरशाही, भ्रष्टाचार, आतंक – के खिलाफ व्यापक लोगों के बीच विक्षोभ फैल रहा   है, ठीक वैसे ही सीपीएम के अंदर भी विक्षोभ, झगड़े और टूट-फूट बढ़ रही है. इस विक्षोभ की स्वाभाविक परिणति नक्सलवाद में ही होती, लेकिन नक्सलबाड़ी की धारा के बारे में व्यापक विभ्रांति और पश्चिम बंगाल में हमारी दयनीय स्थिति के चलते बहुतेरे लोग या तो माकपा में ही बने रहने पर मजबूर हो रहे हैं, या फिर सीपीएम के ही कुछेक विक्षुब्ध ग्रुपों को जन्म दे रहे हैं. ये ग्रुप सीपीएम और नक्सलवाद के बीच में एक तथाकथित विकल्प के प्रति मोह फैला रहे हैं. सीपीएम का विकल्प एकमात्र नक्सलबाड़ी ही हो सकता है, यह सत्य ऐतिहासिक रूप से स्थापित हो चुका है और सीपीएम का नेतृत्व इस बात को भलीभांति जानता है. वे इसे जानते हैं, इसीलिये उन्होंने नक्सलवाद को अपना प्रधान विचारधारात्मक शत्रु घोषित किया है. वे अपने अंदर होने वाले किसी भी विक्षोभ में नक्सलवाद का ही भूत देखते है, इसीलिये वे नक्सलवाद को आम वामपंथी धारा का ही एक हिस्सेदार मानने तक को तैयार नहीं हैं और बड़े सचेत ढंग से वे हमारे साथ संयुक्त कार्यवाहियां चलाने से भी कतरा जाते हैं, बल्कि उकसावा देकर और झगड़ा मोल लेकर दोनों के बीच टकराव को ही बढ़ावा देते रहते हैं.

सीपीएम और नक्सलवाद के बीच किसी विकल्प की धारणा केवल एक व्यर्थ प्रयास ही नहीं, प्रतिघाती धारणा भी है. मगर इन विक्षुब्ध ग्रुपों को दोष देने से कोई फायदा नहीं होने वाला. हमारी कमजोरी ही उनके अस्तित्व की शर्त पैदा कर रही है. जैसे बिहार में हम नक्सलबाड़ी धारा के शक्तिशाली प्रतिनिधि के रूप में सामने उभरे हैं, तो वहां सीपीएम का एक बड़ा हिस्सा सीधे हमारी पार्टी से आ जुड़ा है.

पश्चिम बंगाल में अगर हम नक्सलबाड़ी के असली तात्पर्य को स्थापित कर सकें और उस धारा के शक्तिशाली प्रतिनिधि के बतौर उभर सकें, तो सीपीएम के अंदर एक धसान की तरह बिखराव आने को बाध्य है.

नक्सलबाड़ी का असली तात्पर्य क्या है? नक्सलबाड़ी का तात्पर्य है बुनियादी किसान जनता का जागरण. इसका अर्थ चंद सशस्त्र स्क्वाडों (दस्तों) को लेकर इधर-उधर कुछ बिखरी कार्रवाइयां करना अथवा किडनैपिंग (अपहरण) जैसे सनसनीखेज ऐक्शन करते फिरना नहीं है. उसका अर्थ कोलकाता, दिल्ली, बम्बई के काफी हाउसों में बैठकर बड़ी-बड़ी क्रांतिकारी लफ्फाजियां झाड़ना भी नहीं है. अपनी असफलता को ढकने के लिये विभिन्न ग्रुप हमें कितनी भी गालियां क्यों न दैं, सच यही है कि नक्सलबाड़ी की धारा का यह किसान जागरण एकमात्र बिहार में घटित हुआ है और हमारी पार्टी ही उसकी अगली कतार में है.

नक्सलबाड़ी का अर्थ इस किसान जागरण के आधार पर राष्ट्रीय राजनीति में एक क्रांतिकारी राजनीतिक धारा की शुरूआत है. नक्सलबाड़ी का मतलब केवल स्थानीय आधार पर किसानों की चंद आर्थिक मांगों को पूरा करना ही नहीं है. जिन लोगों ने पहाड़ों-जंगलों में “लाल सेना और आधार इलाके” का निर्माण करके वैकल्पिक राजनीतिक धारा को स्थापित करना चाहा था, वे सभी असफल साबित हुए हैं. अब वहां राजनीति बंदूक का नियंत्रण नहीं करती, इसके उलट बंदूक ही राजनीति को चला रही है.

नक्सलबाड़ी का अर्थ मार्क्सवाद बनाम संशोधनवाद, सशस्त्र संघर्ष बनाम संसदीय रास्ते के बीच कोई अमूर्त संघर्ष की सफलता नहीं है. लेकिन निम्न-पूंजीवादी क्रांतिवाद का यही विचार है. इसीलिये उसका सोचना है कि क्रांतिकारी आवेश से और चंद प्राथमिक मार्क्सवादी सूत्रों के जरिये जब जहां चाहे वहां नक्सलबाड़ी का निर्माण किया जा सकता है. सभी अराजकतावादी कार्यवाहियां, उनसे पैदा होने वाली हताशा और अंत में उल्टे रास्ते पर चलना – जिसके ढेर सारे उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं – इन सबके पीछे मध्यवर्गीय कल्पना विलास ही काम करता है.

नक्सलबाड़ी की जड़ें भारत की ग्रामीण समाज व्यवस्था के अंतर्विरोधों की गहराई में हैं, उसके पीछे किसान संघर्ष का लम्बा इतिहास है, तेलंगाना-तेभागा की धारावाहिकता है. नक्सलबाड़ी के पीछे है भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में दो विरोधी दिशाओं में चलने वाली कार्यनीतिक लाइनों के बीच दीर्घकालीन संघर्ष की प्रक्रिया. एक खास राजनीतिक परिस्थिति में उसकी ही परिणति नक्सलबाड़ी के विद्रोह में हुई. नक्सलबाड़ी को समझने के लिये हमें इसी चीज को समझना होगा.

मेहनती किसान जनसमुदाय के जागरण के जरिये जनवादी क्रांति को पूरा किया जायेगा, या फिर पूंजीपति वर्ग के किसी न किसी हिस्से के साथ संयुक्त मोर्चे के हित में किसान जनता की पहलकदमी को ठंढा किया जायेगा – पार्टी के अंदर इन दो विपरीत दिशाओं में जाने वाली कार्यनीतियों के बीच लम्बे अरसे से लड़ाई चल रही थी. 1967 में एक खास परिस्थिति में यह लड़ाई अपने चरम बिंदु पर जा पहुंची – जब सत्ताधारी वाम मोर्चा सरकार ने किसान आंदोलन की लहरों को दमित करने की कोशिश की और कामरेड चारु मजुमदार के नेतृत्व में क्रांतिकारी कमारेड इस आंदोलन को नेतृत्व देने के लिये आगे बढ़ चले.

नक्सवबाडी के लिये समझौता करना या पीछे हटना संभव भी नहीं था, क्योंकि वह एक नये क्रांतिकारी रास्ते का अग्रदूत बन चुका था. इतिहास में हमेशा पहली बार होने वाला क्रांतिकारी अभियान अंतिम फैसला कर लेने की ओर आगे आगे बढ़ता है और वही इतिहास का सृजन करता है. कार्यनीतिक पहलुओं के बीच तालमेल बैठाने के लिये दो कदम पीछे हटना इत्यादि चीजें बाद में किये जाने वाले प्रयासों के लिये सुरक्षित रख दी जाती हैं. नक्सलबाड़ी के प्रमुख नेता होने के बावजूद कानू सान्याल नक्सलबाड़ी की अंतरवस्तु को नहीं पकड़ सके. इसीलिये इतिहास ने उनके साथ परिहास करते हुए उन्हें महज नक्सलबाड़ी इलाके का ही नेता बनने की दिशा में ठेल दिया. हजारों कोशिशें करने के बावजूद वे नक्सलबाड़ी धारा के नेता नहीं बन सके.

जैसे इतिहास कभी खुद की हूबहू पुनरावृत्ति नहीं करता, वैसे ही किसी महान आंदोलन का पुनर्जन्म भी अपने पुराने रूप में नहीं होता. जिन दिनों हम अधिभूतवाद का अच्छा-खासा शिकार थे, उन दिनों हमने साल-दर-साल उसी पुराने रूप में और पुरानी पद्धति से धक्के से उबरने की न जाने कितनी कोशिशें कीं, मगर हमें उसमें सफलता नहीं मिली.

कोई संघर्ष सीधी रेखा में नहीं चलता, जैसे सही समय पर आगे बढ़कर सर्वाधिक दृढ़तापूर्वक आघात करना पड़ता है, वैसे ही जरूरत पड़ने पर दो कदम पीछे हटकर अपनी शक्ति को पुनर्गठित करना भी सीखना पड़ता है. कोई भी आंदोलन, संघर्ष अथवा युद्ध इन दोनों पहलुओं को मिलाकर ही निर्मित होता है. इन दोनों पहलुओं के बीच सही तालमेल कायम करना ही नेतृत्व की योग्यता अथवा दक्षता का प्रमाण होता है.

नक्सलबाड़ी की अंतरवस्तु यानी बुनियादी किसान जनता का जागरण ही जनवादी क्रांति को आगे बढ़ा ले जा सकता है. पूंजीपतियों के किसी-न-किसी हिस्से के साथ संयुक्त मोर्चा कायम करके समाज और राज्य व्यवस्था का जनवादी सुधार करने का सपना निहायत धोखेबाजी है – यह बात आज भी सच है. सवाल यह है कि परिस्थिति के विकास के साथ संगति रखकर संगठन और संघर्ष के नये-नये रूपों में उसी अंतरवस्तु को प्रवाहित कैसे किया जाय.

व्यापक किसान जनता के जन-जागरण की बुनियाद पर क्रांतिकारी पताका को बुलंद करके, धर्मनिरपेक्ष मोर्चा के नाम पर पूंजीपति वर्ग का दुमछल्ला बनने के खिलाफ वामपंथी शक्ति का स्वतंत्र विकास करने के नारे के जरिये और संसदीय संघर्ष में चरम विरोधी पक्ष की अवधारणा के जरिये आज की परिस्थिति में हम नक्सलबाड़ी की उसी अंतरवस्तु को आगे बढ़ा रहे हैं, दो परस्पर-विरोधी कार्यनीतियों के बीच उसी संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं.

हमारे अनुभव ने सिद्ध किया है कि सशस्त्र संघर्ष की जुबानदराजी अथवा सनसनीखेज ऐक्शन अब भोंथरा हथियार बन चुके हैं और उनमें सामाजिक-जनवादियों के जनाधार को जरा भी हिलाने की क्षमता नहीं रही. दूसरी ओर हम अपनी मौजूदा कार्यनीति से सामाजिक-जनवादियों के सामने नई चुनौती पेश करने में कामयाब हो रहे हैं. 1977 के बाद हमारे जनाधार के व्यापक रूप से सीपीएम की ओर चले जाने की गतिधारा को हम पश्चिम बंगाल में भी धीरे-धीरे मोड़ सके हैं.

पश्चिम बंगाल में एक बार फिर नक्सलबाड़ी के निर्माण की शर्तें परिपक्व हो रही हैं. बारह वर्षों की लम्बी अवधि के वाम मोर्चा के शासनकाल में और अंततः केन्द्र में “मित्र सरकार” कायम होने के साथ ही सीपीएम की राजनीतिक लाइन में अवसरवाद ने भी पूर्णता हासिल कर ली है. इस स्थिति में अब सीपीएम नेतृत्व संघर्ष और आंदोलन के नाम पर केवल हवा में तलवार घुमा सकता है.

दूसरी ओर, हमारी पार्टी के अंदर से उपजी दक्षिणपंथी आत्मसमर्पणवादी लाइन की पराजय और राजनीतिक घटनाक्रम के विकास ने हाल के दौर में पैदा हुई विभ्रांति को खत्म कर दिया है. इस लाइन के मुट्ठी-भर प्रवक्ता, पदलोलुप षड्यंत्रकारी सरगनों को पार्टी से निकालकर पश्चिम बंगाल में पार्टी संगठन में एकता, अनुशासन और काम की पहलकदमी का माहौल वापस लौट आया है. अब हमें पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना होगा.

“हजारों शहीदों के खून की कीमत पर” 1070 के दशक में हम जो नया इतिहास लिखने चले थे, वह क्या केवल इतिहास ही रह जायेगा? वह क्या केवल असाधारण वीरता, आत्मबलिदान, दुख-तकलीफ और विश्वासघात भरा एक वेदनादायक इतिहास ही रह जायेगा – जिस पर कवि लोग कविताएं लिखेंगे, चित्रकार तस्वीरें बनायेंगे, विश्लेषकगण विभिन्न थीसिसों की रचना करेंगे, क्रांति के दुश्मन उपहास करेंगे और हम बीच-बीच में समारोह करके उसका स्मृति दिवस मनायेंगे? नहीं, हम ऐसा नहीं होने दे सकते. बंगाल के आकाश में एक बार फिर गूंजेगा वही चिर-परिचित रणघोष – ‘नक्सलबाड़ी लाल सलाम’. आज हमें उस दिन को निकट लाने की शपथ ही खानी होगी.

(मार्च 1994 में साउथ एशिया सॉलिडैरिटी फोरम की कल्पना विल्सन द्वारा लिया गया साक्षात्कार)

प्रः सोवियत ध्वंस के बाद समाजवाद के मौजूदा तथाकथित संकट को आप किस रूप में देखते हैं?

वीएम : सारतः मैं सोचता हूं कि समाजवाद अपने-आप में कोई संपूर्ण या स्थायी प्रणाली नहीं है. समाजवाद का मतलब है पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच की एक संक्रमणशील प्रणाली. इसीलिए यह एक अत्यंत विशिष्ट परिघटना है. इसमें साम्यवाद – जिस समाज की स्थापना की जानी है – के भी कुछ गुण होते हैं और पूंजीवाद की भी कुछ विशेषता सारतः बरकरार रह जाती है, जिसे मार्क्स ने ‘वितरण का सिद्धांत’ कहा है, आर्थात् हर-एक को उसके काम के अनुसार, मसलन, समाजवादी व्यवस्था में, मान लीजिए एक कारखाना है जिसे माना जाता है कि वह जनता के स्वामित्व का प्रतिनिधित्व करता है. वहां एक मजदूर, एक ओर यह महसूस करता है कि वह जनता का अंग होने के नाते एक तरफ से कारखाना का मालिक भी है. दूसरी ओर चूंकि वह अपने काम के अनुसार पाता है, लिहाजा वह महसूस करता है कि मानो वह कोई दिहाड़ी मजदूर हो. इसीलिए, यह दुहरापन मजदूर की चेतना में काम करता है.

जहां तक स्वामित्व का सवाल है, तो एक ओर यह समूची जनता का स्वामित्व है; तो दूसरी ओर यह स्वामित्व राज्य-स्वामित्व के जरिए (क्योंकि समाजवादी समाज में भी राज्य मौजूद रहता है) और राज्य द्वारा नियुक्त अधिकारियों के द्वारा लागू किया जाता है. इसीलिए स्वामित्व के पहलू में भी दुहरापन है और नौकरशाही में इसके पतित हो जाने की भी गुंजाइश रहती है. मजदूर और स्वामित्व, दोनों में यह दुहरापन संक्रमणशील व्यवस्था की चारित्रिक विशेषता है.

यह भी एक तथ्य है कि हम विकसित पूंजीवादी देशों में नहीं, बल्कि पिछड़े मुल्कों में समाजवाद का प्रयोग चला रहे हैं. उत्पादन शक्तियां पिछड़ी अवस्था में हैं और आप फौरन स्वामित्व की कोई उच्चतर व्यवस्था स्थापित नहीं कर सकते हैं. विभिन्न प्रकार के स्वामित्व मौजूद हैं : जैसे, समूची जनता का स्वामित्व, सामूहिक स्वामित्व, छोटे निजी उद्यम ... आप धीरे-धीरे ही दूसरी मंजिल की ओर जा सकते हैं. समाजवादी समाज की, और खासकर पिछड़े देशों में समाजवाद की इस विशिष्टता के चलते समाजवाद में दोनों संभावनाएं रहती हैं – यह साम्यवाद की ओर भी आगे बढ़ सकता है और पूंजीवाद की ओर पीछे भी खिसक सकता है.

शुरू में यह धारणा थी कि समाजवादी समाज कायम होगा और कुछ समय बाद वह साम्यवाद में विकसित हो जाएगा. लेकिन बाद में मार्क्सवाद में सैद्धांतिक विकास हुए, लेनिन ने कहना शुरू किया कि इस संक्रमण में लंबा समय लगेगा, ओर फिर चीन में माओ ने कहा कि यह सवाल अभी तक हल नहीं हुआ है कि पूंजीवाद जीतेगा या समाजवाद, इसमें सैकड़ों वर्ष लग सकते हैं. समाजवाद को जिन स्थितियों में निर्मित किया जाना था उनकी विशिष्टता के चलते ही यह बदलाव आया और तब समाजवादी समाजवाद में वर्ग अंतरविरोध, वर्ग संघर्ष के अस्तित्व के बारे में भी सूत्रीकरण सामने आने लगे, जबकि मार्क्सवाद के आरंभिक प्रस्तावकों ने वर्गहीन समाज के बतौर समाजवाद की कल्पना की थी. इसलिए मैं महसूस करता हूं कि मार्क्स की मूल थीसिस एक सामान्य रूपरेखा भर देती है, क्योंकि पूरी अवधारणा पूंजीवादी समाज के विश्लेषण पर, और यह भी अमूर्त रूप में विशुद्ध पूंजीवादी समाज के विश्लेषण पर, आधारित थी. ठोस अर्थों में, अत्यंत ऊंचा विकसित पूंजीवादी समाज भी मार्क्स के आदर्श मानदंड पर खरा नहीं उतरता है. इसीलिए, आप यह भी नहीं कह सकते हैं कि पूंजीवाद का अध्ययन पूरा हो चुका है, क्योंकि पूंजीवाद अभी भी मौजूद है और यह काफी तेजी से आगे बढ़ा है, इसका दौर खत्म नहीं हुआ है. और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि समाजवाद और समाजवाद के आर्थिक नियमों का अध्ययन अभी भी शुरुआती और प्राथमिक अवस्था में ही है. इन सबके चलते मेरा विश्वास है कि अब अपने पुनरुत्थान के लिए मार्क्सवाद को उस सैद्धांतिक कृति की आवश्यकता है, जिसे मैं लोकप्रिय रूप में नई पूंजी कहता हूं. उसके लिए समय परिपक्व हो चुका है. बुनियादी बातें वही हैं और वे जारी रहेंगी, लेकिन पूंजीवाद का अध्ययन फिर भी अधूरा है. जब लेनिन इजारेदार पूंजीवाद का अध्ययन कर रहे थे, तब उनके मन में भी यही धारणा बनी कि वह पूंजीवाद की अंतिम मंजिल है और कि वह मरणासन्न है और वह ध्वस्त हो जाएगा. लेकिन आप देख सकते हैं कि इजारेदार पूंजीवाद ने नए आकार ग्रहण किए हैं और वह चल रहा है. इसलिए, नए अध्ययन की जरूरत है. फिर, रूस के 75 वर्षों और चीन के भी अनुभवों के साथ समाजवाद के आर्थिक नियमों के अध्ययन की भी जरूरत है. इसीलिए मैं महसूस करता हूं कि मार्क्सवाद को पूंजी के समतुल्य एक नई रचना की आवश्यकता है, खासकर इसलिए कि समाजवाद के निर्माण के सारे प्रयोग पिछड़े देशों में चल रहे हैं – चीन, वियतनाम इत्यादि में. अगर समाजवाद को सैकड़ों वर्ष तक एक संक्रमणशील समाज के रूप में जारी रहना है तो इसका मतलब हुआ कि माल, मुद्रा और बाजार को महज एक बोझ के रूप में आप नहीं देख सकते, और उन पर काबू पाने की ओर आगे नहीं बढ़ सकते, बल्कि समाजवादी समाज में भी उनके विकास की जरूरत होगी, खुद समाजवाद के हितों को आगे बढ़ाने के लिए उनके विशेष उपयोग की जरूरत होगी. यह ऐसी चीज नहीं है जिससे छुटकारा पा लिया जाए, या यह कोई आवश्यक बुराई भी नहीं है जिसे आप ढोते फिरेंगे. योजना (प्लानिंग) को एक समाजवादी परिघटना माना जाता है, लेकिन हमने देखा है कि पूंजीवादी समाज ने अपने साथ जुड़ी रहने वाली उत्पादन की अराजकता पर काबू पाने में योजना का उपयोग किया. उसी तरह, कम्युनिस्टों को भी सोचना होगा कि समाजवाद के निर्माण में माल, मुद्रा और बाजार का सकारात्मक इस्तेमाल कैसे किया जाए.

समाजवाद को एक संक्रमणकालीन प्रणाली कहते हुए मार्क्स ने एक और बात बताई है. उन्होंने कहा कि सर्वहारा अधिनायकत्व एक निरपेक्ष आवश्यकता है. इसलिए मैं महसूस करता हूं कि अगर सर्वहारा अधिनायकत्व कमजोर होगा तो इस संक्रमणशील प्रणाली के पूंजीवाद में वापस लौट जाने की संभवना भी साफ होगी. उदाहरण के लिए अगर हम सोवियत संघ को देखें तो हम पाते हैं कि इसके ध्वंस के पहले वहां का आर्थिक माडल कमोबेश परंपरागत समाजवादी माडल ही था. सब कुछ राजकीय क्षेत्र में था. निजीकरण और विदेशी पूंजी वस्तुतः अनुपस्थित थे. लेकिन ख्रुश्चेव के जमाने से ही वहां सर्वहारा अधिनायकत्व का ह्रास होने लगा और तभी से हम पाते हैं कि कहीं न कहीं पूंजीवाद के लिए दरवाजा खुल गया. इसके विपरीत मैं महसूस करता हूं कि समाजवाद के पूंजीवाद में वापस लौटने के खतरे का माओ ने अध्ययन किया. (उन्होंने देखा कि) इसकी वापसी की संभावना मौजूद है, जिससे रूसी लोग इनकार करते रहे थे.

सांस्कृतिक क्रांति की अवधारणा के जरिए माओ ने सर्वहारा अधिनायकत्व को ही मजबूत करना चाहा था – समाजवाद के आर्थिक नियमों के साथ छेड़छाड़ करने या पिछड़ी उत्पादक शक्तियों को दरकिनार करते हुए किसी तरह विकसित साम्यवादी उत्पादन-संबंध बनाने के लिए नहीं. और इसलिए भी कि सर्वहारा अधिनायकत्व 90 प्रतिशत लोगों के व्यापक जनवाद का ही दूसरा नाम है. और सांस्कृतिक क्रांति के जरिए उन्होंने यही बनाने की कोशिश की थी – कुछ लोगों पर अधिनायकत्व और 90 प्रतिशत लोगों के लिए जनवाद. सांस्कृतिक क्रांति का जोर भी यहीं था – बड़े-बड़े कैरेक्टर पोस्टर, जन-उत्साह आदि, रूस और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों ने सर्वहारा अधिनायकत्व का मतलब केवल अधिनायकत्व ही समझ लिया. इसका दूसरा अंग, जिसका मतलब होता है 90 प्रतिशत लोगों के लिए जनवाद, समाजवादी जनवाद के इस प्रश्न को सर्वहारा अधिनायकत्व का अभिन्न अंग नहीं समझा जा सका. इसीलिए दूसरी तातकों ने जनवाद के सवाल को उठा लिया. चीन में भी, यह सवाल वहां हमेशा मौजूद रहा और माओ ने ही पहली बार प्रयास किया कि समाजवाद के अंतर्गत जनवाद को आम बनाया जाए. थ्येन आनमन में पुनः जनवाद की आकांक्षा ही प्रतिबिंवित हुई थी. और मैं सोचता हूं कि हर दस वर्ष पर या पांच-सात वर्षों में हम जनता का कोई बड़ा आंदोलन देख रहे हैं, और अगर आप समाजवादी ढांचे के अंदर से ही इसे ग्रहण नहीं करेंगे तो बुर्जुआ ढांचे के अंदर ले लिया जाएगा.

जो हो, सांस्कृतिक क्रांति इसी के साथ जुड़ा एक प्रयोग था. यह सही है कि कुछ निम्न-पूंजीवादी सामाजिक ताकतें उभरीं और पूरी की पूरी सांस्कृतिक क्रांति भटक गई, और कुछ लोग समाजवाद के बुनियादी आर्थिक नियमों के साथ छेड़छाड़ करने लगे, किसी किस्म के उच्चतर संबंध विकसित करने के प्रयास में लग गए. पार्टी भी, जो इसका जरिया बनी, विघटित होने लगी. इसलिए, अंततः वह असफल हो गई. लेकिन मेरा कहना यह है कि उसने समाजवादी जनवाद के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण सवालों को तो उठा ही दिया. उसने जनसमुदाय के अंदर व्यापक उत्सुकता पैदा कर ही, हालांकि इसे ठीक तरह से संगठित नहीं किया जा सका और यह समस्या रह ही गई.

अभी चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व अक्षुण्ण रखते हुए आर्थिक प्रयोग चलाए जा रहे हैं – यह एक ऐसी चीज है जिसकी मैं सराहना करता हूं और एक प्रयोग के बतौर यह गौर करने और अध्ययन करने योग्य चीज है. लेकिन दूसरा पहलू – जनवाद की आकांक्षा – भी वहां मौजूद है. चीन में एक बार फिर किसी किस्म का जनवादी आंदोलन दिखाई पड़ेगा. कोई देश महज आर्थिक आंकड़ों के आधार पर जीवित नहीं रह सकता है. और यहीं मैं सोचता हूं कि सांस्कृतिक क्रांति के सबक – कम से कम संदर्भ के लिए ही सही – एक बार फिर उपयोगी साबित होंगे. मैं तो समाजवाद के समूचे संकट या समाजवाद की समस्याओं को इसी तरह से देखता हूं.

प्रः भारतीय संदर्भ में बाजार के साथ जो प्रयोग चलाए जा रहे हैं उसे आप कैसे व्याख्यायित करेंगे? भाकपा(माले) इसे आगे बढ़ाने का कैसे प्रयास करेगी?

वीएम : चीन में आप देखिए कि जनवादी क्रांति की मंजिल में भी माओ ने बुर्जुआ को दो श्रेणीयों में बांटा था – दलाल और राष्ट्रीय बुर्जुआ, जिसके लिए उनकी काफी आलोचना भी हुई थी. उन्होंने इसे दलाल नौकरशाह पूंजी कहा था, वे क्रांति का एक निशाना थे. माओ ने दो चीजों पर प्रयोग किया – एक था किसानों के साथ संश्रय, और इस प्रक्रिया में उन्होंने किसानों को एक क्रांतिकारी ताकत में बदल दिया. यह मार्क्सवाद में, कम से कम क्रांति की रणनीति के लिहाज से, एक नया योगदान था. और दूसरा पहलू था राष्ट्रीय बुर्जुआ के साथ उनका संश्रय. जनवादी क्रांति के जरिए समाज का निर्माण करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय बुर्जुआ के रूपांतरण को कदम-ब-कदम होनेवाली एक दीर्घ प्रक्रिया के बतौर देखा. उनसे कुछ खींच लेने की बजाए उन्होंने उनका उपयोग करने और उन्हें बदलने का प्रयास किया. और इसके लिए उनकी भर्त्सना भी की गई, क्योंकि इसे सच्चे समाजवाद के बतौर नहीं देखा गया. लेकिन मेरे विचार से भारतीय स्थितियां में भी यह सवाल काफी महत्वपूर्ण होगा. चीन का राष्ट्रीय बुर्जुआ काफी कमजोर था और उतना महत्वपूर्ण भी नहीं था. भारत में जब क्रांति जीत की मंजिल में पहुंचेगी तो मैं समझता हूं कि यह काफी संभव है कि बुर्जुआ वर्ग विखंडित हो जाए और इसके एक हिस्से के साथ प्रतिद्वंद्विता करनी पड़े, जो राष्ट्रीय बुर्जुआ के रूप में तब्दील हो चुका होगा. और वह राष्ट्रीय बुर्जुआ ठोस भारतीय स्थितियों में एक अच्छी-खासी ताकत होगा. किसानों के साथ संश्रय में भी, मध्यम किसानों या फार्मरों के बीच एक बड़ा तबका उभरा है जिसके अंदर पूंजीवादी प्रवृत्तियां पनपी हैं. राजनीतिक मोर्चें पर समाजवादी रूपांतरण का प्रयास करते हुए इन ताकतों को संचालित करना और यहां तक कि समाजवाद की खातिर उनका इस्तेमाल करना – ये खास सवाल हैं, जिनका हम भारत में सामना कर रहे हैं.

कुछ लोग कहते हैं कि चूंकि भारत का शासक बुर्जुआ दलाल है, और दलाल का मतलब होता है साम्राज्यवाद का एजेंट, इसीलिए भारत की राज्य सत्ता साम्राज्यवाद के हाथ में है. जब भाकपा(माले) का निर्माण हो रहा था और इसका कार्यक्रम बनाया जा रहा था, 1969-70, में, तो हमलोग इस विचार से सहमत नहीं थे. हमने कहा कि यह गलत है. हमारे ख्याल से, भारतीय राजसत्ता भारतीय बुर्जुआ और भूस्वामियों के हाथ में है. सत्ता हस्तंतरण का यही पूरा सार है. यह महज तकनीकी मामला नहीं है. वर्गीय अर्थों में वे साम्राज्यवाद के ढांचे के अंतर्गत ही काम करते हैं, लेकिन राजसत्ता उन्हीं के पास है. जो लोग यह समझते हैं कि साम्राज्यवाद ही भारतीय राज्य का नियंत्रण करता है, उन्होंने यह सूत्रबद्ध किया कि भारत का प्रधान अंतर्विरोधसाम्राज्यवाद के साथ है. इसीलिए वे कहते हैं कि साम्राज्यवाद विरोधी व्यापक मोर्चे की आवश्यकता है. बेशक, साम्राज्यवाद के साथ हमारा एक बुनियादी अंतर्विरोधहै, लेकिन वह बाहरी अर्थ में है – राष्ट्र बनाम साम्राज्यवाद के रूप में. लेकिन आंतरिक रूप से हम इसे प्रधान अंतर्विरोधनहीं मानते हैं.

अब स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि इस दलाल बुर्जुआ का असली चरित्र क्या है? हमने कहा कि इस सवाल को भी नए तरीके से देखना होगा. अगर आप उन्हें कच्चे सूत्रीकरण के साथ सिर्फ एजेंट कह दें तो यह सही नहीं होगा. हमने कहा कि भारतीय बुर्जुआ एक वर्ग के बतौर काम करता है. इसके विभिन्न हिस्से विभिन्न देशों के साथ संपर्क रख सकते हैं, लेकिन वे एक साझे सूत्र में बंधे हुए हैं. भारतीय दलाल बुर्जुआ की एकल रणनीति है, और वे एक हद तक आपेक्षिक स्वतंत्रता का भी उपभोग करते हैं, जिसे विभिन्न साम्राज्यवादी देशों के बीच अंतर्विरोधका इस्तेमाल करके और सोवियत संघ के साथ संबंध बनाकर बरकरार रखा जाता है. यह निरपेक्ष अर्थ में स्वतंत्र नहीं है, और साम्राज्यवादी नियंत्रण से मुक्त नहीं है. लेकिन दलाल बुर्जुआ और भूस्वामियों के हाथ राजसत्ता को चिह्नित करके और मोलतोल करने अथवा एक तरह की स्वतंत्र स्थिति के अनुसार आचरण करने की उसकी क्षमता को स्वीकार करके हमारी पार्टी ने पुराने सूत्रीकरण से अलग हटकर खुद को वास्तविक परिस्थति के ज्यादा अनुरूप बनाने का प्रयत्न किया है.

अब जबकि सोवियत संघ का ध्वंस हो गया है और भारतीय बुर्जुआ पश्चिमी देशों तथा आइएमएफ/विश्व बैंक के साथ घनिष्ठतर रिश्ता बना रहा है, तो एक बार फिर यह सुझाव आ रहा है कि भारत में अपनी आर्थिक और राजनीतिक संप्रभुता खो दी है; अब यह कमोबेश एक नव-उपनिवेश बन चुका है; राजसत्ता अब साम्राज्यवाद के हाथ में चली गई है; और इसीलिए साम्राज्यवाद और भारतीय राष्ट्र के बीच का अंतर्विरोधप्रधान अंतर्विरोधबन गया है. इसीलिए हमें इसके खिलाफ व्यापकतम संभव संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए. लोग कहने लगे हैं कि पहले सोवियत संघ एक संतुलनकारी भूमिका निभा रहा था और सोवियत संघ के साथ अपने संबंधों के आधार पर भारतीय बुर्जुआ पश्चिमी देशों के साथ मोलभाव कर लिया करता था, लेकिन अब जबकि सोवियत संघ समाप्त हो गया है, तो वह आगे ऐसा नही कर सकता है. सचमुच, परिस्थितियों में और भारतीय नीतियों में इन तमाम बदलावों के साथ, कुल मिलाकर साम्राज्यवादी घुसपैठ वस्तुतः गहरी हो गई है. लेकिन तब भी मैं सोचता हूं कि भारतीय बुर्जुआ के पास वह सापेक्षिक स्वतंत्रता मौजूद है. वह खत्म नहीं हुई है. किसी व्यापक साम्राज्यवाद-विरोथी मोर्चे में लोकप्रिय गोलबंदी की खातिर ‘भारतीय राजनीतिक संप्रभुता पर खतरा’, ‘आजादी पर खतरा’ जैसी बातें कही जा सकती हैं, लेकिन इसे बिलकुल इसके शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए. सोवियत संघ चला गया है, फिर भी साम्राज्यवादी देशों के बीच अंतर्विरोधमौजूद हैं. इसीलिए भारत एक भिन्न तरीके से अपने संबंधों को विविधता प्रदान कर सकता है. जहां तक संभव है, इन अंतरविरोधों का इस्तेमाल करने की कार्यनीति अभी बरकरार है. सोवियत संघ के साथ इसके संबंध किसी समाजवादी आदर्श पर आधारित नहीं थे; वह महज मोलभाव करने का एक औजार था. संभव हुआ तो रूस को लेकर भी वे ऐसा कर सकते हैं, और जापान या जर्मनी के लेकर भी; क्योंकि भारतीय बुर्जुआ के आर्थिक संबंध इतने विवधतापूर्ण हैं, और साम्राज्यवादियों के भी अपने अंतर्विरोधहैं, अपने संकट हैं, अपनी प्रतिद्वंद्विताएं हैं. इसीलिए यह हो सकता है कि मोलभाव करने की यह क्षमता, अंतरविरोधों का यह इस्तेमाल, यह आपेक्षिक स्वतंत्रता अब अधिक सीमित हो जाए, लेकिन मेरी समझ से यह खत्म नहीं हो गई है. राजसत्ता भारतीय बुर्जुआ के हाथों में ही है. इस बात को आत्मसात करना जरूरी है, क्योंकि ऐसा नहीं मानने से आंतरिक अंतर्विरोधउपेक्षित हो जाएगा.

मैं आपको, मान लीजिए यहां बिहार में, एक व्यावहारिक उदाहरण देता हूं बिहार एक पिछड़ा राज्य है – यहां ढेर सा सामंतवाद है और जमीन को लेकर संघर्ष है आदि-आदि. इसीलिए, हमलोग भूमि संघर्ष चला रहे हैं और यहां तक कि भाकपा और माकपा भी इन मुद्दों को उठा रही हैं. यहां की सरकार, लालू यादव की जनता दल सरकार, इस स्थिति में नहीं है कि वह भूमि सुधार करे. उसके पास राजनीतिक इच्छाशक्ति या वैसा ढांचा नहीं है. इसलिए, उसकी कार्यनीति क्या है? अचानक वे ‘डंकल’ के बारे में चिल्लाने लगे – कहने लगे कि डंकल बहुत खतरनाक चीज है, वह किसान-विरोधी है आदि. इसी तरह वे भाकपा और माकपा के साथ संबंध बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, भाकपा और माकपा भी इस स्थिति में नहीं हैं कि वे किसी गंभीर हद तक भूमि संघर्ष को ले जा सकें. क्योंकि जब आप गंभीरता से भूमि संघर्ष चलाते हैं तो बहुतेरे तनाव, हथियारबंद मुठभेड़ आदि पैदा होने लगते हैं. तब महज कानूनी तरीके से चीजों को हल करना आसान नहीं रह जाता. वे इस परिस्थिति से बचना चाहते हैं, लेकिन वे अपना क्रांतिकारी चेहरा भी बरकरार रखना चाहते हैं. ठीक तभी लालू जी डंकल के साथ सामने आते हैं और वे साम्राज्यवाद-विरोध के चैंपियन बन जाते हैं. लेकिन वे यह सब क्यों करते हैं? वह आदमी डंकल के बारे में कुछ नहीं समझता है – उसने सिर्फ यह कहा कि डंकल एक ‘डंकी’ (गधा) है, उसके पास गधों का एक झुंड है आदि-आदि! और बिहार के संदर्भ में मैं नहीं सोचता कि डंकल का कोई ज्यादा प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि यहां पूंजीवादी फार्मिंग विकसित नहीं हुई है. निश्चय ही, हमलोग भी इस सवाल को उठाने के पक्ष में हैं और यहां तक कि बिहार में भी हम इसे उठा रहे हैं. लेकिन जिस तरीके से वे लोग इसे ला रहे हैं, उसका पूरा मकसद ही है आंतरिक अंतर्विरोधको शिथिल कर देना. और भाकपा ने तो डंकल के सवाल पर जनता दल के साथ संयुक्त कार्यवाहियां भी शुरू कर दी हैं और भूमि संघर्ष को उसने छोड़ दिया है. इसी चीज से हमें सावधान रहना है. मेरा कहना है कि बेशक वह खतरा यहां है – और हम एक व्यापक मोर्चा के लिए प्रयत्न भी कर रहे हैं – लेकिन अगर आप इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत एक कठपुतली देश में बदल चुका है तो हम साम्राज्यवाद के साथ अंतर्विरोधको आंतरिक बना चुके होंगे, (तब) आंतरिक अंतरविरोधों का कोई महत्व नहीं रह जाएगा और हमें हर तरह के संश्रयों में जाना होगा और वही हमारे आचरण को निर्धारित करने लगेगा. मैं नहीं सोचता कि हमारे अपने संदर्भ में यह सही होगा.

प्रः आप असली राष्ट्रीय बुर्जुआ के संभावित अभ्युदय की चर्चा कर रहे थे. वह कहां से पैदा होगा? और भारतीय बुर्जुआ के शेष हिस्से के साथ इसका अंतर्विरोधकिस प्रकार का होगा?

वीएम : राष्ट्रीय बुर्जाआ की खोज भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए काफी गंभीर समस्या रही है. क्योंकि बिलकुल आंरभ से ही सोवियत प्रभाव के तहत भाकपा ने कहना शुरू किया कि अब भारत में ऐसा राष्ट्रीय बुर्जुआ है जो एक साम्राज्यपाद विरोधी ताकत है. एक समय नेहरू को इस ताकत का प्रतिनिधि समझा जाता था, दूसरे समय में दूसरे लोगों को, नतीजतन, इस राष्ट्रीय बुर्जुआ के साथ संबंध बढ़ाने पर ही समूचा जोर खिसक गया और भाकपा कहने लगी कि वे लोग नेतृत्वकारी भूमिका अदा करेंगे. इससे कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर हुआ. हमारा दृष्टिकोण यह है कि पहले से ही उनकी तलाश करने और उनका प्रतिनिधि खोजने की बजाय इस सवाल को संघर्ष के दौर में हल होने दिया जाए. हमें अपने आंदोलनों के साथ – साम्राज्यपाद विरोधी आंदोलन और सामंतवाद विरोधी संघर्षों के साथ – आगे बढ़ना चाहिए, और तब हम देखें कि कौन सी ताकतें आखिरकार उभरती हैं और हमारे साथ हाथ मिलाती हैं. भाकपा(माले) ने शुरू से ही ऐसा किया है और सारतः मैं अभी भी इसी पर विश्वास करता हूं.

एक अर्थ में आप छोटे और मंझोले बुर्जुआ के रूप में राष्ट्रीय बुर्जुआ की निशानदेही कर सकते हैं : विचारधारात्मक रूप से उनमें कुछ भी राष्ट्रीय नहीं है, लेकिन वस्तुगत रूप से वे राष्ट्रीय के जैसा आचरण करने को बाध्य हो सकते हैं, क्योंकि साम्राज्यवाद के लिए सबको संतुष्ट करना संभव नहीं है. लेकिन अगर आप राष्ट्रीय बुर्जुआ के राजनीतिक प्रतिनिधियों को खोजने लगें तो आप इस निष्कर्ष पर भी पहुंच जा सकते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा ही एक प्रतिनिधि है, क्योंकि यह ‘स्वदेशी’ के पक्ष में और डंकल के विरोध में आह्वान पेश करता है. यहां तक कि बंबई के व्यापारिक समूह के कुछ हिस्सों ने भी ‘गैट’ और डंकल तथा भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश का विरोध किया है.

लेकिन राष्ट्रीय बुर्जुआ ऐसा नहीं कि बस यहीं मौजूद है, आप उसे खोज लीजिये और वह मिल जायेगा. बल्कि हमने इस सूत्रीकरण से शुरू किया कि वे सभी दलाल हैं और हमें देखना है कि इन दलालों के बीच से, साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों के दौर में, क्या कोई राष्ट्रीय बुर्जुआ सचमुत उभरता है. इस अर्थ में राष्ट्रीय बुर्जुआ को पैदा करना है.

प्रः हमने जनवाद की चर्चा से अपनी बात शुरू की थी. इस संदर्भ में पार्टी का व्यवहार तथा पार्टी और जनसंगठनों के बीच का संबंध कैसा है?

वीएम : जहां तक जनसंगठनों का ताल्लुक है, हमने सोचा कि उन्हें महज पार्टी-खंड नहीं, उससे बढ़कर होना चाहिए. विभिन्न जनसंगठन अपनी खुद की विशिष्टताओं के साथ विभिन्न तबकों का प्रतिनिधित्व करते हैं. उदाहरण के लिए, छात्र/युवा संगठन की अपनी गत्यात्मकता है, काम करने का अपना तरीका है, अपना खुद का मनोभाव है. अगर पार्टी कुछ सूत्रीकरण कर देती है और उनसे कहा जाता है कि वे इसी के दायरे में काम करें, तो इससे उस संगठन की सारी जीवंतता, पहलकदमी और गत्यात्मकता मारी जा सकती है. उसी तरह, महिला संगठन के काम करने का अपना खास तरीका है, उन्हें अलग किस्म के उत्पीड़न झेलने होते हैं और इसीलिए उनकी अभिव्यक्ति का स्वरूप भी भिन्न होगा. इसीलिए उन्हें सापेक्षतः स्वतंत्र ढंग से काम करने की अनुमति देनी होगी. हमने महसूस किया है कि खासकर भाकपा के जनसंगठन पार्टी-खंड से ज्यादा मिलते-जुलते हैं और परंपरागत रूसी या यहां तक कि चीनी व्यवहार भी ऐसा ही रहा है. जनसंगठन महज कागजी संगठन बनकर रह गए. उनकी गिनती महज उनकी सदस्यता के अर्थ में होती है – 40 लाख, 50 लाख. उनके कार्यक्रमों में ढेर सारी दखलंदाजियां हैं. तो यह एक चीज है जिस पर हमने प्रयोग करने की कोशिश की है – उन्हें काफी आजादी देना, उनकी विशिष्टताएं स्वीकार करना और इस मामले में उन्हें उत्साहित करना. यह पहली बात है, और दूसरे, हमने यह भी सोचा कि एक द्वंद्वात्मक रिश्ता भी होना चाहिए. जहां एक ओर पार्टी उनका नेतृत्व करती है तो दूसरी ओर वे खुद पार्टी के लिए एक किस्म के पहरेदार की भूमिका निभाते हैं. आप जब सत्ता में नहीं होते हैं तब भी नौकरशाही जैसी चंद विकृतियां और प्रवृत्तियां पार्टी के अंदर पैदा हो ही जाती हैं.

अब, उदाहरण के लिए, मान लीजिए कोई पार्टी कार्यकर्ता किसी महिला के साथ बदसलूकी करता है, पार्टी कमेटी ने इस मामले पर बहस की और किसी प्रतिक्रिया के डर से उसने सारी चीजों को, बस, दबा दिया. महिला संगठन के पास यह शिकायत जाती है. वे इस मामले को हाथ में लेती है और पार्टी पर दबाव डालती हैं कि यह गलत हुआ है. हम इसे अच्छी बात समझते हैं, क्योंकि प्रायः पार्टी-प्रणाली के अंदर हो सकता है कि इन चीजों को महिला-दृष्टिकोण से नहीं देखा जाए, मामले से संबंधित वह महिला अपनी भावनाओं को सही ढंग से पेश करने, अन्याय के खिलाफ प्रतिवाद करने की स्थिति में नहीं भी हो सकती है. लेकिन अगर महिला संगठन मामले को अपने हाथ में लेता है, तब स्वाभाविक रूप से पार्टी पर दबाव पड़ेगा.

जिस किसी भी हद तक हमें सत्ता मिलती है, मसलन – कार्बी-आंग्लांग के जिला परिषद में, या हो सकता है कि भविष्य की कुछ सरकारों में – हम इस बात पर जोर देते हैं कि किसान संगठन और अन्य संगठनों को भी स्वतंत्रतापूर्वक काम करना चाहिए और उन्हें अधिकारियों पर, पार्टी पर दबाव डालना चाहिए. जनसंगठन के बारे में हमारी यही सोच है – एक ओर तो उनकी स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करना, ताकि वे जिस तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं उसकी विशिष्टताओं को सही ढंग से जाहिर कर सकें, जिससे उन्हें जीवंतता और गत्यात्मकता मिलेगी. पार्टी केवल उन्हें नेतृत्व प्रदान करने तक खुद को सीमित रखे. और दूसरी ओर जनसंगठन को पार्टी के लिए एक पहरूए की भूमिका अदा करनी चाहिए.

प्रः एक पहलकदमी जो काफी आश्चर्यजनक थी, वह थी इंडियन मुस्लिम कांफ्रेंस का निर्माण. यह पहली बार हुआ जब भारत की कोई वामपंथी पार्टी एक धार्मिक पहचान को संगठित करने के लिए तैयार हुई हो.

वीएम : हमने इस मामले को इसलिए हाथ में लिया, क्योंकि हाल के समय में देश को इस आधार पर बांट दिया गया – हिंदुत्व और इसके निशाने के बतौर मुस्लिम के बीच. वे कहने लगे कि हिंदुत्व धर्म से बढ़कर है, यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणी है. इसलिए वे कहते हैं कि मुसलमान भी हिंदुत्व का एक हिस्सा हैं क्योंकि वे भारत में रहते हैं – ऐतिहासिक रूप से और सांस्कृतिक रूप से भी. वे एक शब्द का प्रयोग करते हैं – ‘मुहम्मदिया हिंदू’, और कहते हैं कि मुसलमान भारत में रह सकते हैं अगर वे अपनी अलग पहचान छोड़ दे और एक व्यापक हिंदू ढांचे का अंग बन जाएं, तब हम उन्हें मुहम्मदिया हिंदू के बतौर स्वीकार करने को तैयार हैं. उन्होंने यह भी कहा कि सिख, जैन और बौद्ध भी हिंदू हैं. कुछ लोग ईश्वर की पूजा करते हैं – एक ईश्वर, दस ईश्वर, करोड़ों ईश्वर, या फिर कोई भगवान नहीं, फिर भी सब लोग हिंदू हैं! हिंदूवाद भारत में एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणी है और मुसलमान समेत सब लोगों को इसका हिस्सा बन जाना चाहिए. और ऐसा करने की उनकी स्वेच्छा ही उनकी देशभक्ति और राष्ट्रवाद की परीक्षा होगी. तो यही वह खास हमला था, मांग थी कि मुसलमानों को उनका अपना मजहब, संस्कृति और सामाजिक पहचान छोड़ देनी चाहिए. यह सिर्फ एक धर्म पर हमला नहीं था बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी हमला था. एक समुदाय के बतौर मुसलमानों पर खतरा पैदा हो गया था. स्वभावतः इसकी प्रतिक्रिया भी समुदाय के आधार पर ही सामने आई. अब इस मुस्लिम प्रतिक्रिया में एक रूढ़िवादी तत्व – भाजपा का प्रतिपक्ष – भी था, लेकिन अन्य मुसलमानों ने महसूस किया कि यह भारत जैसे देश में सही नहीं होगा, क्योंकि यहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं और 80-85 प्रतिशत लोग हिंदू हैं. इसीलिए भारत की स्थितियों में उन्होंने महसूस किया कि धर्मनिरपेक्षता ही बेहतर है.

ऐसी बात नहीं कि भारतीय मुसलमानों का पूंजीवादीकरण हो गया है और उस स्थिति पर खड़ा होकर वे धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे हैं. उनके धार्मिक विश्वास एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा के खिलाफ जाते हैं. लेकिन ठोस भारतीय स्थितियों ने उन्हें धर्मनिरपेक्षता की हिमायत करने को प्रेरित किया.

दूसरे, मुसलमानों का वामपंथ के साथ एक दोस्ताना संबंध भी विकसित हुआ है वे चुनावों की खातिर इस या उस बुर्जुआ पार्टी में रह सकते हैं, लेकिन आमतौर पर यह भावना उभरी है कि वामपंथी लोग सच्चे मायने में धर्मनिरपेक्ष होते हैं. पहले मुसलमानों का एक हिस्सा वामपंथ के साथ था, वे प्रगतिशील थे, कम्युनिस्ट थे. अनेक महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट मुसलमान थे और बहुतेरे मुस्लिम मजदूर एक वर्ग के बतौर शामिल हुए. फिर प्रगतिशील बुद्धिजीवी थे, अनके प्रगतिशील सांस्कृतिकर्मी थे. लेकिन समग्रतः एक समुदाय के लिए वामपंथ के प्रति यह सकारात्मक रुख एक नई चीज है. पहले भावना पाकिस्तान के पक्ष में काफी ज्यादा रहती थी. लेकिन अब देश के पुनर्विभाजन की कोई आकांक्षा नहीं है.

तो, ये सब बदलाव हुए. मुसलमानों पर एक समुदाय के बतौर हमला हो रहा था, फिर धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनका समर्थन हुआ और वामपंथ के प्रति एक दोस्ताना रिश्ता बना.

हम चाहते थे कि रिश्ता मजबूत बने. लेकिन इसे सांगठनिक स्वरूप कैसे दिया जाए, संस्थाबद्ध आकार कैसे दिया जाए? कुल मिलाकर यही वह विचार था जिसने इंकलाबी मुस्लिम कांफ्रेंस को जन्म दिया. समुदाय का पहलू और इंकलाबी पहलू – दोनों पर गौर करना जरूरी था. इसके पीछे खयाल यह नहीं था कि मुस्लिम पृथकता को मजबूत किया जाए, बल्कि यह था कि भाजपा आदि के खिलाफ मुस्लिम हित को कैसे साफ-साफ रखा जाए. मुस्लिम समुदाय के अंदर से सामाजिक बदलाव संगठित करने को ज्यादा महत्व दिया गया. इसलिए, इंकलाबी, भाजपा के खिलाफ इंकलाबी नहीं है, वह समुदाय के अंदर इंकलाबी है. यही वजह है कि हमने मुस्लिम महिलाओं की स्थिति का सवाल उठाने पर इतना ज्यादा जोर दिया. यह एक ऐसा सवाल था जो समुदाय के अंदर से उभरा था.