(कोलकाता विश्वविद्यालय इंस्टीट्यूट हॉल में 2 फरवरी 1995 को ‘माओ त्सेतुंग जन्मशताब्दी समारोह समिति’ द्वारा आयोजित सेमिनार में भाषण)

आज दुनिया भर में केवल माओ त्सेतुंग अथवा माओ त्सेतुंग विचारधारा की प्रासंगिकता को लेकर सवाल नहीं है, खुद मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रासंगिकता पर भी सवाल उठा है और पूंजीवादी सिद्धांतकारों ने घोषणा भी कर डाली है कि मार्क्सवाद असफल हो गया है. इसीलिए समग्र अर्थ में सवाल आज के जमाने में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के पुनरुज्जीवन का है और इसी प्रसंग में माओ त्सेतुंग विचारधारा पर चर्चा होनी चाहिए.

सोवियत नेतृत्व ने “माओवाद” को एक निम्न-पूंजीवादी विचारधारा के बतौर चिह्नित किया था, जिसका मार्क्सवाद-लेनिनवाद के साथ कोई लेना-देना नहीं है. हमारे आंदोलन के बीच भी एक धारा माओ त्सेतुंग विचारधारा को “माओवाद” के बतौर चिह्नित करके किसी विशेष धारा के रूप में दिखाने की कोशिश करती थी. मैं इस मत का समर्थन नहीं करता. मैं माओ त्सेतुंग विचारधारा को एक बंद अथवा स्वयं-सम्पूर्ण प्रणाली नहीं मानता.

माओ त्सेतुमग विचारधारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद का एक ठोस प्रयोग है. माओ त्सेतुंग विचारधारा को खासकर पिछड़े अर्थतंत्र वाले देशों में समाजवाद के निर्माण के मामले में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के एक खास प्रयोग के बतौर देखना होगा. पिछड़े अर्थतंत्र के देश में समाजवाद का निर्माण करने के ठोस परीक्षण का एक विश्वव्यापी महत्व है और इस अर्थ में माओ त्सेतुंग विचारधारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद के पुनरुज्जीवन की कुंजी है.

माओ त्सेतुंग ने दो मौलिक किस्म के योगदान किये हैं. पहला योगदान यह है कि उन्होंने पिछड़े देशों में पूंजीवादी जनवादी क्रांति को विश्व समाजवादी क्रांति के अभिन्न अंग के बतौर सफलता दिलाई, यानी कि जिस क्रांति के फलस्वरूप देश पूंजीवाद की ओर नहीं बल्कि समाजवाद की ओर यात्रा करेगा, इस क्रांति को  सम्पन्न करने के दौरान उन्होंने एक तो किसानों के साथ संश्रय कायम किया और किसानों की क्रांतिकारी भूमिका को स्थापित किया. दूसरा, उन्होंने पूंजीपति वर्ग को दो हिस्सों में बांटकर “राष्ट्रीय पूंजीपति” हिस्से के साथ संश्रय कायम किया – यहां तक कि समाजवाद के निर्माण के दौर में भी उनके साथ एकता और संघर्ष की पद्धति अपनाकर उनका रूपांतरण किया. अतः उनका पहला मौलिक योगदान है एक ऐसी जनवादी क्रांति का नेतृत्व करना जिसको समाजवादी क्रांति की ओर संचालित किया जा सके. उनका दूसरा मौलिक योगदान चीन जैसे पिछड़े देश में समाजवाद के निर्माण से जुड़ा है.

समाजवाद, पूंजीवाद और कम्युनिज्म के बीच का संक्रमाणकालीन दौर होता है. समाजवाद का यह दौर कई वर्षों तक चलेगा, यहां तक कि कई सौ वर्षों तक भी चल सकता है. माओ त्सेतुंग ने इस संक्रमण काल के दीर्घकालिक चरित्र को प्रस्तुत किया और कहा कि इस संक्रमण काल में वर्गों का अस्तित्व रहेगा, वर्ग संघर्ष भी रहेगा, यहां तक कि पीछे हटने का, पूंजीवाद की पुनर्स्थापना का खतरा भी रहेगा. यह बात उन्होंने किसी आत्मगत कारण से नहीं कही, इसका एक वस्तुगत कारण है. दुख की बात है कि इस विषय में हमारे देश के मार्क्सवादियों ने बहुत कम अध्ययन किया है. किसी समाजवादी देश में पूंजीवाद के पुनरागमन के पीछे एक अंदरूनी कारण रहता है. आंतरिक कारण की मूल बात यह है कि समाजवाद में वितरण की नीति करीब-करीब पूंजीवादी समाज की तरह ही बनी रह जाती है. वहां समूची जनता के नाम पर जो राज्य की मिल्कियत रहती है, उस मिल्कियत के साथ मजदूर वर्ग का संबंध दोहरे चरित्र वाला होता है. एक ओर चूंकि यह जनता और राज्य की मिल्कियत है, इसलिये इस मिल्कियत में एक अंश उनका भी है, यानी मजदूर वर्ग खुद भी मालिक है – मजदूरों के मन में ऐसी अनुभूति होती है. लेकिन दूसरी ओर चुंकि वितरण की नीति है काम के अनुसार वितरण (यानी हर एक को उसके काम के अनुसार मिलेगा), इसलिये वह एक उजरती मजदूर है – ऐसी अनुभूति भी उसके मन में बनी रहती है. समाजवादी समाज के संक्रमणकालीन होने के चलते, उसकी इसी विशिष्टता के कारण, मजदूरों की चेतना में यह द्वैत सत्ता रहती है. इसी प्रकार, राज्य की मिल्कियत में एक ओर समग्र जनता की मिल्कियत होने का पहलू है. दूसरी ओर, राज्य की मिल्कियत में नौकरशाही की ओर रुझान भी रहता है. मिल्कियत में भी द्वैत सत्ता होती है, और मजदूरों में भी द्वैत चेतना होती है. और यही किसी समाजवादी समाज का प्रधान अंतर्विरोध है. यही अंतर्विरोध वर्ग संघर्ष को जन्म देता है और उसके प्रतिफलन के बतौर कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर भी दो लाइनों के बीच संघर्ष पैदा होती है. कोई समाजवादी समाज जैसे इस अंतर्विरोध का समाधान करके समाजवाद के उन्नत रूप कम्युनिज्म की ओर आगे बढ़ सकता है, वैसे ही पूंजीवाद की ओर पीछे भी हट सकता है. यहां मूल प्रश्न सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रश्न है. मार्क्स ने कहा था कि समाजवाद के इस लम्बे सक्रमण काल में सर्वहारा अधिनायकत्व एक महत्वपूर्ण कड़ी है. सोवियत संघ में ख्रुश्चेव के समय से ही सर्वहारा अधिनायकत्व को कमजोर किया गया, सर्वहारा अधिनायकत्व पर सवाल उठाये गये ओर उसे चुनौती दी गई और तभी से सोवियत की पूंजीवाद की ओर यात्रा आरम्भ हो गई.

माओ त्सेतुंग की सांस्कृतिक क्रांति को लेकर बहुत बहस चली है. लघु-उत्पादन के देश में उग्र समानतावाद की चेतना का एक गहरा सामाजिक-ऐतिहासिक स्रोत होता है. यानी उत्पादक शक्ति का विकास पिछड़ा रह जाने पर भी वितरण के मामले में निम्न-पूंजीवादी उत्पादकों की चेतना में एक उग्र-समानता की आकांक्षा रहती है. ऐसी स्थिति में बहुतेरे लोग सोचते हैं कि उत्पादक शक्ति के पिछड़े रहने पर भी शायद किसी विचारधारात्मक क्रांति – किसी सांस्कृतिक क्रांति के जरिये यह समता स्थापित की जा सकती है. बहुतेरे लोग सांस्कृतिक क्रांति को इसी रूप में देखते हैं. लेकिन माओ त्सेतुंग की सांस्कृतिक क्रांति की धारणा इससे भिन्न थी. अवश्य उनका लक्ष्य सर्वहारा अधिनायकत्व को सुदृढ़ करने के लिये समाजवादी शिक्षा, समाजवादी चेतना बढ़ाना था. लेकिन मुझे नहीं लगता कि माओ त्सेतुंग इस बात पर यकीन करते थे कि मूल आर्थिक नियमों को खारिज करके अथवा समाजवाद की विभिन्न मंजिलों के अस्तित्व को खारिज करके, केवल विचारधारात्मक रूप से “उन्नत उत्पादन सम्बंध” कायम किये  जा सकते हैं.

हाल के अरसे में, हमारे देश में जो सामाजिक-जनवादी शक्तियां अथवा संशोधनवादी शक्तियां हैं, उनकी ओर से माओ त्सेतुंग के हड़प जाने की कोशिश हमने देखी है. पहला, पूंजीपतियों का सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि माओ त्सेतुंग ने पूंजीपति वर्ग के साथ संश्रय कायम किया था. मगर वे यह नहीं बता रहे कि माओ त्सेतुंग ने पूंजीपति वर्ग के दो हिस्से किये थे – दलाल और राष्ट्रीय. दलाल पूंजीपतियों के खिलाफ उन्होंने लड़ाई चलाई थी और राष्ट्रीय पूंजीपतियों के साथ संश्रय बनाया था. इस विभाजन को गड्डमड्ड किया जा रहा है. चूंकि हमारे देश में सामाजिक-जनवादी पूंजीपतियों को राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग ही मानते हैं, इसीलिये वे माओ त्सेतुंग के कथन – कि राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के साथ एकता करनी होगी – को सामने लाकर माओ त्सेतुंग की ही शिक्षा को विकृत कर रहे हैं. वे माओ त्सेतुंग की एक और शिक्षा को सामने ले आये हैं – कि उन्होंने किसानों को लेकर क्रांति की थी. लेकिन किसानों के अंदर भी माओ त्सेतुंग ने जो विभाजन किया था और गरीब-भूमिहीन-निम्न मध्यम किसानों पर जो जोर दिया था, उस बात को हटा दिया जा रहा है और किसानों के नाम पर मध्यम और धनी किसान, सभी की बात की जा रही है. इसी प्रकार, बार-बार यह कहा जा रहा है कि माओ त्सेतुंग देशभक्ति, राष्ट्रवाद के पक्षधर थे. इस प्रकार वे भारतीय पूंजीपति वर्ग के उग्र राष्ट्रवाद के पक्ष में भी खड़े हो रहे हैं. माओ त्सेतुंग को हड़प जाने की सामाजिक-जनवादी प्रचेष्टा इसी प्रकार चल रही है.

एक समय में माओ त्सेतुंग विचारधारा की एक धारणा की बुनियाद पर हम क्रांतिकारी आंदोलन में एकताबद्ध हुए थे. उसके बाद से गंगा-गोदावरी में काफी पानी बह चुका है. बहुत सारे अंशों में बंटकर भी हम सभी ने भिन्न-भिन्न तरीकों से शक्ति संचित की है और उससे प्रमाणित होता है कि हमारे आंदोलन में विराट शक्ति है. मैं आशा करता हूं कि माओ त्सेतुंग विचारधारा के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर शायद भविष्य में हम फिर से एकताबद्ध होंगे.

(लिबरेशन, 1988)

रोजा लक्जेमबर्ग (1871-1919) ने पोलैंड और जर्मनी के मजदूर आंदोलन में अत्यंत विशिष्ट भूमिका निभाई थी. वे दूसरे इंटरनेशनल के वाम पक्ष की नेता थीं. वे जर्मनी में इंटरनेशनल ग्रुप के प्रायोजकों में से एक थीं. बाद में उनके इस ग्रुप का नामकरण हुआ स्पार्टाकस ग्रुप और अंत में स्पार्टाकस लीग. वे नवंबर 1918 की क्रांति के दौरान क्रांतिकारी जर्मन मजदूरों के नेताओं में से एक थीं. वे जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की उदघाटन कांग्रेस में शामिल हुई थीं. जनवरी 1919 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी हत्या कर दी गई.

रोजा और लेनिन के संबंध अत्यंत जटिल थे. रूसी क्रांति के ठोस सवालों पर उन्होंने आपस में तीखे राजनीतिक वाद-विवाद चालए, मगर अतंरराष्ट्रीय क्रांतिकारी सामाजिक जनवाद के मंच पर दोनों एक साथ मौजूद रहे. दोनों ही ने साम्राज्यवादी युद्ध के दौरान दूसरे अंतरराष्ट्रीय के गद्दारों के विरुद्ध दृढ़ता के साथ संघर्ष चलाया. लेनिन ने रोजा को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनका वर्णन ‘तीसरे इंटरनेशनल के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि’ के तौर पर किया है.

हाल में पश्चिमी मार्क्सवादी पंडितों के बीच रोजा लक्जेमबर्ग के विचारों पर फिर बहसें शुरू हो गई हैं. हमारे देश में भी विभिन्न प्रकार के विचारक अपनी धारणाओं के समर्थन में रोजा की रचनाओं का धड़ल्ले के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं. फार्मरों के आंदोलन के नेता शरद जोशी रोजा की कृति पूंजी का संचय  का उल्लेख करते हैं. वे इसकी मदद से यह सिद्ध करना चाहते हैं कि औद्योगिक क्षेत्र में उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य केवल कृषि-क्षेत्र के आंतरिक औपनिवेशीकरण के जरिए ही संभव है.

कुछ समाजवादी लेखकों का कहना है कि सोवियत संघ में नौकरशाही विकृतियों का, जो कि गोर्बाचेव के सुधारों द्वारा सबसे ज्यादा स्पष्ट रूप में प्रकट हुईं, स्रोत रोजा द्वारा 1918 में जेल-प्रवास के दौरान लिखी गई पांडुलिपियों में प्रकट की गई शंकाओं के अनुसार बोल्शेविकों द्वारा नवंबर 1917 में अलोकतांत्रिक तरीके से सत्तादखल और केंद्रीयता पर जरूरत से ज्यादा जोर देने की लेनिनवादी पद्धति है.

फिर रोजा की बड़ाई पार्टी-निर्माण के बारे में लेनिन के ‘अतिकेंद्रीयतावादी’ रुख का विरोध के लिए भी की जाती है.

संक्षेप में, रोजा लक्जेमबर्ग के इस पुनर्जीवन के पीछे लेनिन के विरुद्ध रोजा को खड़ा करने की सचेत कोशिश नजर आती है. लिहाजा, हमें रोजा और लेनिन के बहुमुखी संबंधों पर – उनके तीखे मतभेदों और उनकी अतंरराष्ट्रवादी सर्वहारासुलभ एकता पर – एक नजर डाल लेनी चाहिए और अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन की विभिन्न मंजिलों में ये मतभेद और एकता किस प्रकार प्रकट हुए, इसे देखना चाहिए.

1. रोजा लक्जेमबर्ग ने 1913 में प्रकाशित अपनी सुप्रसिद्ध पूंजी का संचय में मार्क्स की मान्यता का विरोध किया है और इस सिद्धांत को सामने रखा है कि पूंजीवादी क्षेत्र में उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य पिछड़े क्षेत्रों और देशों के औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के जरिए प्राक्-पूंजीवादी क्षेत्र में हासिल किया जाता है.

आइए, हम देखें कि अतिरिक्त मूल्य उगाहने का मार्क्स ने कैसा चित्र प्रस्तुत किया है. मार्क्स के अनुसार किसी पूंजीवादी देश के कुल उत्पाद के तीन भाग होते हैं : (क) स्थिर पूंजी, (ख) चल पूंजी और (ग) अतिरिक्त मूल्य. इसके अतिरिक्त, मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन के दो प्रमुख विभागों के बीच फर्क किया है. ये दो विभाग हैं : (क) विभाग नं. 1, जिसमें उत्पादन के साधनों का उत्पादन होता है और (ख) विभाग नं. 2, जिसमें उपभोक्ता सामग्रियों का उत्पादन होता है.

अब, अतिरिक्त मूल्य का महज एक हिस्सा ही उपभोक्ता सामग्रियों में शामिल हैं बाकी हिस्सा उत्पादन के साधनों में मौजूद रहता है. उत्पादन के साधनों में मौजूद अतिरिक्त मूल्य का ‘उपभोग’ खुद पूंजीपति वर्ग करता है, जो (अतिरिक्त मूल्य) विस्तारित पुनरुत्पादन के लिए स्थिर पूंजी में बदल जाता है. पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली का यही सारतत्व है, जिसमें हर चक्र के अंत में स्थिर पूंजी बढ़ जाती है और उत्पादक शक्तियों का असीम विस्तार होता है. पूंजीवादी समाज में घरेलू बाजार उपभोक्ता सामग्रियों के चलते उतना विकसित नहीं होता, जितना कि उत्पादन के साधनों के कारण. इसे ही मार्क्स का उगाही का सिद्धांत कहते हैं.

विदेशी बाजारों का विकास ऐतिहासिक स्थितियों की उपज है जो पूंजीवाद के विकास के एक खास दौर में प्रकट हुआ है. विदेश व्यापार की भूमिका को हासिल करने का अर्थ सिर्फ एक देश के बदले कई पूंजीवादी देशों पर संयुक्त रूप से विचार करना है यह किसी भी तरह उगाही की आवश्यक प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करता है.

जहां तक किसानों द्वारा पूंजीवाद के लिए बाजार मुहैया करने की बात है, तो वे उसी हद तक ऐसा करते हैं जिस हद तक कि वे पूंजीवादी समाज के वर्गों, ग्रामीण पूंजीपतियों और ग्रामीण सर्वहारा में, बदल जाते हैं. यह वर्ग उसी पूंजीवादी समाज के अंग होते हैं. अगर पूंजीवादी कृषि-क्षेत्र का विकास औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में धीमी गति से होता है, और अगर औद्योगिक व कृषि-मालों के मूल्यों में फर्क होता है तो यह पूंजीवादी समाज की संरचना के सिद्धांत के साथ जुड़ा हुआ सवाल है; पूंजीवादी समाज में उत्पादन की उगाही के सिद्धांत से उसका कोई संबंध नहीं जुड़ता है.

लेनिन ने रोजा की पुस्तक की एक समीक्षा को, जो ब्रेमेर-बर्जर जाइटुंग में प्रकाशित हुई थी, उद्धत करते हुए उसके सम्पादक को लिखा, “यह देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है कि मुख्य बिंदुओं पर आप भी उसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, जिस पर चौदह वर्ष पहले तुगान-बैरनोव्सकी और वोल्क्सटम्लर के विरुद्ध राजनीतिक वाद-विवाद चलाते समय मैं पहुंचा था. अर्थात्, ‘विशुद्ध पूंजावादी’ समाज में भी अतिरिक्त मूल्य की उगाही संभव है. मैं अभी तक रोजा लक्जेमबर्ग की पुस्तक नहीं देखा पाया हूं, मगर आप सैद्धांतिक तौर पर इस बिंदु पर सही हैं. फिर भी मुझे लगता है कि आपने मार्क्स के एक महत्वपूर्ण अवतरण पर अधिक जोर नहीं दिया है, जहां मार्क्स कहते हैं कि वार्षिक तौर पर उत्पादित मूल्य का विश्लेषण करने में विदेश व्यापार को पूरी तरह छांट देना चाहिए. लक्जेमबर्ग का ‘द्वंद्ववाद’ मुझे (लीपजिगर वोल्केजाइटुंग में प्रकाशित लेख के आधार पर विचार करने से भी) सार संकलनवाद लगता है.” (कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-3, जनवरी 1913). एलबी कामनेव को एक पत्र में लेनिन ने फिर लिखा, “मैंने रोजा की नई पुस्तक पूंजी का संचय पढ़ी है. वह एक भारी दिग्भ्रम में फंस गई हैं. मुझे काफी खुशी है कि पान्नेकोएक, एक्सटीन और आटो बावेर, इन सबों ने एकजुट होकर उनकी भर्त्सना की है और उनके विरुद्ध वही कहा है जो मैने 1899 में नरोदवादियों के विरुद्ध कहा था.” (वही, खंड- 35).

2. रोजा लक्जेमबर्ग ने राष्ट्रीय प्रश्न और स्वायत्तता शीर्षक लेख में, जो 1908-09 में प्रकाशित हुआ था, राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार, अर्थात् अलग होने के अधिकार का विरोध किया था. काउत्सकी की मान्यता थी कि राष्ट्रीय राज्य वर्तमान परिस्थितियों के लिए सबसे उपयुक्त हैं ... और बहुराष्ट्रीय राज्य हमेशा ऐसे राज्य होते हैं जिनका आंतरिक गठन किसी न किसी कारण असामान्य अथवा अर्ध-विकसित रह गया है. रोजा ने इस विचार का खंड़न करते हुए लिखा, “यह ‘सर्वोत्तम’ राष्ट्रीय राज्य केवल एक अमूर्त धारणा है, जिसे सैद्धांतिक दृष्टि से विकसित करना तथा जिसके पक्ष में तर्क देना बहुत आसान है, परंतु जो वास्तविकता से मेल नहीं खाती.” उन्होंने इस आशय के भी तर्क रखे कि छोटे राष्ट्रों का ‘आत्मनिर्णय का अधिकार’ बड़ी-बड़ी पूंजीवादी ताकतों के विकास तथा साम्राज्यवाद के कारण एक भ्रम बनकर रह गया है.

रोजा के विरुद्ध दलीलें देते हुए लेनिन ने बतलाया, “पूंजीवादी समाज में राष्ट्रों के राजनीतिक आत्मनिर्णय और राज्यों के रूप में उनकी स्वाधीनता के प्रश्न के स्थान पर रोजा लक्जेमबर्ग ने उनकी आर्थिक स्वाधीनता के प्रश्न को लाकर रख दिया है.” (राष्ट्रों का आत्मनिर्णय का अधिकार, वही, खंड-20)

लेनिन ने एशिया का उल्लेख किया और दिखाया कि एशिया में एकमात्र ऐसा देश, जहां माल-उत्पादन के पूर्णतम विकास की परिस्थितियां पैदा हुई हैं, जापान है, जो कि एक स्वाधीन राष्ट्रीय राज्य है.

लेनिन ने कहा, “राष्ट्रीय राज्य पूंजीवाद का नियम तथा उसका ‘मानक’ है, बहुराष्ट्रीय राज्य या तो पिछड़ापन का द्योतक होता है अथवा अपवाद होता है.” (वही)

रोजा ने रूस से पोलैंड की स्वाधीनता की मांग पर आपत्ति की. उनका तर्क था कि चूंकि पोलैंड के तैयार माल रूस में बिकते थे, इसी कारण पोलैंड का तीव्र औद्योगिक विकास हुआ. उन्होंने पोलैंड के लिए आत्मनिर्णय के बदले स्वायत्तता की सिफारिश की, सो भी अपवादस्वरूप.

लेनिन ने कहा, “किसी ऐसे देश में, जहां की राज्य प्रणाली बहुत स्पष्ट रूप से प्राक्-पूंजीवादी ढंग की है, राष्ट्रीयता के तौर पर कोई अलग प्रदेश हो, जहां पूंजीवाद का विकास तीव्र गति से हो रहा हो, तो वहां पूंजीवाद जितनी ही तेज गति से आगे बढ़ेगा, पूंजीवादी तथा प्राक्-पूंजीवादी राज्य प्रणाली का अंतर्विरोधभी उतना ही जोरदार बनेगा, और उतनी ही अधिक इस बात की संभावना होगी कि अधिक प्रगतिशील प्रदेश पूरे देश से अलग हो जाएं, जिसके साथ वह प्रदेश ‘आधुनिक पूंजीवादी’ बंधनों से नहीं, बल्कि ‘एशियाई निरंकुशतावादी’ बंधनों से बंधा हुआ है.” (वही)

रोजा ने रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के कार्यक्रम में धारा 9 के शामिल किए जाने पर (जिसमें राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार के बारे में कहा गया था), आपत्ति प्रकट की. उनका कहना था कि धारा 9 “सर्वहारा वर्ग की दैनंदिन नीति के लिए कोई व्यावहारिक निर्देश नहीं देती, वह राष्ट्रों की समस्याओं का कोई व्यावहारिक हल नहीं बताती.”

‘व्यवहारिकता’ के प्रश्न पर लेनिन का कहना था, “पूंजीपति वर्ग अपनी राष्ट्रीय मांगों को सर्वदा सर्वोपरि स्थान देता है और ऐसा दो टूक ढंक से करता है. परंतु सर्वहारा वर्ग के लिए ये मांगें वर्ग संघर्ष के हितों के अधीन होती हैं. सिद्धांततः आप पहले से यह नहीं कह सकते कि किसी राष्ट्र के अलग हो जाने से या दूसरे राष्ट्र की तरह उसके बराबर अधिकार प्राप्त कर लेने से पूंजीवादी-जनवादी क्रांति समाप्त हो जाएगी; दोनों ही सूरतों में, सर्वहारा वर्ग के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपने वर्ग के विकास को सुनिश्चित बनाए ... यही कराण है कि किसी राष्ट्र को कोई गारंटी दिए बिना, किसी अन्य राष्ट्र के हितों की कीमत पर उसे कुछ देने की हामी भरे बिना सर्वहारा वर्ग, कहना चाहिए, अपने-आपको आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार करने की नकारात्मक मांग तक ही सीमित रखता है. संभव है कि यह मांग ‘व्यावहारिक’ हो, पर वास्तव में यह सभी संभव हलों में सबसे अधिक जनवादी हल प्राप्त करने की सबसे अच्छी गारंटी है.” (वही)

पोलैंड में राष्ट्रवाद के विरुद्ध संघर्ष की धारा में बहकर और पोलैंड के राष्ट्रवादी पूंजीपति वर्ग की ‘सहायता’ न करने की फिक्र में रोजा ने रूसी मार्क्सवादियों के कार्यक्रम में अलग हो जाने के अधिकार को अस्वीकार कर दिया. उनके अनुसार अलग हो जाने के अधिकार का समर्थन करना उत्पीड़ित राष्ट्रों के पूंजीवादी राष्ट्रवाद का समर्थन करना है.

लेनिन ने बताया कि किसी उत्पीड़ित राष्ट्र के पूंजीवादी राष्ट्रवाद में एक आम जनवादी तत्व होता है, जो उत्पीड़ित के खिलाफ निर्देशित होता है, और हम इस तत्व का बिनाशर्त समर्थन करते हैं. साथ ही, लेनिन ने जोर दिया कि हमें राष्ट्रीय अलगाववाद की हर प्रवृत्ति का अवश्य विरोध करना चाहिए.

लेनिन ने आगे बतलाया, “इस बात को समझना कठिन नहीं है कि यदि संपूर्ण रूस के मार्क्सवादी और सर्वोपरि वृहत्तर रूसी मार्क्सवादी राष्ट्रों के अलग हो जाने के अधिकार को स्वीकार करते हैं, तो इसका मतलब किसी भी प्रकार यह नहीं होता कि किसी उत्पीड़ित राष्ट्र विशेष के मार्क्सवादियों को अलग हो जाने के खिलाफ आंदोलन चलाने का अधिकार नहीं रह जाता, बिलकुल वैसे ही, जैसे तलाक के अधिकार को स्वीकार करने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि किसी खास मामले में तलाक के खिलाफ आंदोलन ही न चलाया जाए.” (वही)

तथापि, लेनिन के लिए आत्मनिर्णय का अधिकार केंद्रीकरण के आम परिप्रेक्ष का अपवाद है. “प्रतिक्रियावादी वृहत्तर रूसी राष्ट्रवाद को मद्देनजर रखते हुए यह अपवाद निस्संदेह आवश्यक है, और इस अपवाद को अस्वीकार करना अवसरवाद है (जैसे कि रोजा लक्जेमबर्ग के मामले में); इसका अर्थ है प्रतिक्रियावादी वृहत्तर रूसी राष्ट्रवाद के हाथों में मूर्खता के मारे खिलौना बन जाना. मगर अपवाद को व्यापक तौर पर घटनेवाली घटना कभी नहीं बनाना चाहिए. इस मामले में, वह अलग होने के अधिकार से ज्यादा कुछ भी नहीं है और न होना चाहिए.” (एसजी शानमान को पत्र, कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-19)

लेनिन और रोजा, दोनों ही मार्क्सवादी होने के कारण इस बात पर एकमत थे कि पूंजीवादी समाज में सारे प्रमुख तथा महत्वपूर्ण आर्थिक और राजनीतिक प्रश्न पृथक-पृथक प्रदेशों की स्वायत्त विधानसभाओं द्वारा नहीं, अपितु पूरे संबंधित देश की केंद्रीय संसद द्वारा ही निबाटाए जाने चाहिए. लेनिन ने कहा, “मार्क्सवादी कभी भी किसी भी सूरत में न तो संघ के सिद्धांत का और न विकेंद्रीकरण का समर्थन करेंगे. बड़ा केंद्रीकृत राज्य मध्ययुगीन अनैक्यता से पूरे विश्व की भावी समाजवादी एकता की ओर एक विराट ऐतिहासिक कदम है और मात्र ऐसे ही राज्य (पूंजीवाद से अटूट रूप से जुड़े हुए) से होकर गुजरनेवाले मार्ग के अलावा समाजवाद का और दूसरा कोई मार्ग नहीं है और न हो सकता है.” (राष्ट्रों के प्रश्न पर आलोचनात्मक टीकाएं, वही खंड-20)

लेनिन ने जोर देते हुए कहा कि केंद्रीयता की वकालत करते समय मार्क्सवादी लोग एकमात्र जनवादी केंद्रीयता की वकालत करते हैं. जनवादी केंद्रीयता स्पष्टतः विशिष्ट आर्थिक तथा सामाजिक लक्षणों, आबादी के विशेष राष्ट्रीय गठन आदि वाले प्रदेशों के लिए स्वायत्तता समेत स्थानीय स्वशासन की मांग करता है.

शानमान के नाम एक पत्र  में लेनिन ने लिखा, “स्वायत्तता का अधिकार? आप फिर गलती कर रहे हैं. हम तो सभी क्षेत्रों के लिए स्वायत्तता के पक्षधर  हैं; हम अलग होने के अधिकार के पक्ष में हैं, (मगर हम प्रत्येक के अलग होने के अधिकार का पक्षपोषण नहीं करते हैं.) स्वायत्तता हमारी योजना है जिससे हम एक जनवादी राज्य संगठित करेंगे. अलग होना मगर बिलकुल हमारी योजना नहीं है. हम अलग होने की वकालत नहीं करते हैं. आमतौर पर हम अलग होने का विरोध करते हैं.” (वही, खंड-19). लेनिन के अनुसार, “(स्थानीय तथा प्रादेशिक) स्वायत्तता केंद्रीयता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करती, जो पूंजीवाद के विकास के लिए अपरिहार्य है, बल्कि इसके विपरीत उसे नौकरशाही ढंग से नहीं अपितु जनवादी ढंग से लागू करती है. ऐसी स्वायत्तता के बिना जो देशव्यापी  पैमाने पर पूंजी के संकेंद्रण, उत्पादक शक्तियों के विकास, पूंजीपति वर्ग की एकता और सर्वहारा वर्ग की एकता को सुगम बानाती है, पूंजीवाद का व्यापक, मुक्त तथा द्रुत विकास असंभव होगा या कम से कम बहुत बाधित होगा; इसलिए कि विशुद्ध स्थानीय (प्रादेशिक, राष्ट्रीय, आदि) प्रश्नों में नौकरशाही का हस्तक्षेप आम तौर पर आर्थिक तथा राजनीतिक विकास की और खासतौर पर गंभीर, महत्वपूर्ण तथा बुनियादी मामलों में केंद्रीयता की राह में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है.” (राष्ट्रों के प्रश्न पर आलोचनात्मक टीकाएं, वही, खंड-20).

इस परिप्रेक्ष में लेनिन ने स्वायत्तता की मांग को केवल पोलैंड पर और वह भी केवल अपवादस्वरूप लागू करने के दुराग्रह के लिए रोजा को फटकारा और उनसे पूछा, “न केवल पांच लाख की अपितु पचास हजार तक की आबादी वाले स्वायत्त राष्ट्रीय स्वायत्त राष्ट्रीय क्षेत्र क्यों नहीं हो सकते, ऐसे क्षेत्र विभिन्न आकारवाले पड़ोसी क्षेत्रों के साथ सर्वथा विविध तरीकों से एक ही स्वायत्त ‘क्षेत्र’ में क्यों नहीं एकताबद्ध हो सकते, यदि यह आर्थिक विनिमय के लिए सुविधाजनक या आवश्यक हो? ” (वही)

3. 1903 में रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी की दूसरी कांग्रेस के बाद एक ओर तो पार्टी औपचारिक तौर पर एकताबद्ध हुई, मगर दूसरी ओर, वह, ‘बहुमत’ (वोल्शेविक) और ‘अल्पमत’ (मेन्शेविक) में बंट गई. कांग्रेस के तुरंत बाद कोआप्शन पर तकरार खड़ा करके इस विभाजन में निहित उसूलों को धुंधला बना दिया गया. अल्पमत ने कहा कि जब तक तीन भूतपूर्व संपादकों को पुनः कोआप्ट नहीं किया जाता, तब तक वे केंद्रीय संस्थाओं के मातहत काम नहीं करेंगे. इस संघर्ष में, जो दो महीनों तक चला, ‘अल्पमत’ ने बहिष्कार करने और पार्टी के कामकाज में बाधा डालने के हथियार का इस्तेमाल किया. अल्पमत ने लेनिन और प्लेखानोव के इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया कि उन्हें पार्टी के मुखपत्र इस्क्रा  में अपने मत को रखने दिया जाय, और वे केंद्रीय संस्थाओं के सदस्यों को निरंकुश, नौकरशाह, पुलिसवाला, झूठा, इत्यादि कहकर गालियां देने और व्यक्तिगत तौर पर लांछित करने पर उतर आये. उनपर व्यक्तिगत पहलकदमी का दमन करने और दासतापूर्ण अधीनता, अंधों की तरह आज्ञापालन जैसी चीजें लागू करने का आरोप लगाया गया. हालांकि प्लेखानोव ने अल्पमत के अराजकतावादी विचारों की निंदा की, तथापि उन्होंने क्या नहीं करना चाहिए  शीर्षक एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि संशोधनवाद से संघर्ष करने का मतलब जरूरी नहीं कि संशोधनवादियों से भी लड़ा जाय. उन्होंने आगे कहा कि हमें रूसी क्रांतिकारीयों में इतनी गहराई तक पैठे अराजकतावादी व्यक्तिवाद के खिलाफ हमेसा ही नहीं छेड़ना चाहिए बल्कि कभी-कभी उसे शांत करने तथा पार्टी को फूट से बचाने के लिए कुछ रियायतें दे देना बेहतर तरीका होता है. लेनिन प्लेखानोव के विचारों से सहमत नहीं हो सके और उन्होंने संपादक मंडल से इस्तीफा दे दिया. अल्पमत के संपादकों को कोऑप्ट कर लिया गया. शांति स्थापना के लिए लेनिन का सुझाव था कि केंद्रीय मुखपत्र अल्पमत के कब्जे में रहे और केंद्रीय कमेटी बहुमत के, मगर उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया. अल्पमत वालों ने सारी लड़ाई नौकरशाही, अतिकेंद्रीयता, औपचारिकता, इत्यादि के विरुद्ध ‘उसूली’ संघर्ष के नाम पर लड़ी. इसी अवसर पर लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’ लिखी थी. उन्होंने कांग्रेस में हुए वाद-विवादों का विश्लेषण करके दिखलाया कि बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच का यह नया विभाजन पार्टी की सर्वहारा क्रांतिकारी और बुद्धिजीवी अवसरवादी शाखाओं के बीच के पुराने विभाजन का ही अन्य रूप मात्र है.

रोजा लक्जेमबर्ग की सहानुभूति पूरी तरह मेंशेविकों के साथ थी. उन्होंने लेनिन की आलोचना करते हुए उनकी पुस्तक को ‘कट्टर केंद्रीयतावादी’ विचारों की सुस्पष्ट और विस्तृत अभिव्यक्ति कहा. रोजा की समझ थी कि रूसी सामाजिक जनवादियों के बीच एकताबद्ध पार्टी की जरूरत पर कोई मतभेद नहीं था, समूचा विवाद केंद्रीयता की मात्रा पर था. उन्होंने ‘अतिकेंद्रीयता’ के पैरोकार होने के कारण लेनिन को फटकारा और जोर देकर कहा कि केंद्रीयता की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाई जानी चाहिए.

लेनिन ने रोजा लक्जेमबर्ग को प्रत्युत्तर में कहा कि रूसी पार्टी के अंदर विवाद “प्रधानतः इस बात पर है कि केंद्रीय कमेटी और केंद्रीय मुखपत्र को पार्टी-कांग्रेस के बहुमत की प्रवृत्ति का प्रतिनिधि होना चाहिए अथवा नहीं ... आप क्या ऐसा समझती हैं कि पार्टी की केंद्रीय संस्थायों पर पार्टी-कांग्रेस के अल्पमत का हावी रहना ही आम बात है? आप क्या ऐसी कल्पना भी कर पाती हैं? आपने क्या किसी अन्य पार्टी के अंदर ऐसा होते देखा है?” (कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-7)

“का.लक्जेमबर्ग यह विचार मेरे मुंह में ठूंस दे रही हैं कि एक विशाल और अतिकेंद्रीयकृत पार्टी के निर्माण की सारी परिस्थितियां रूस में मौजूद हैं. फिर एक तथ्यात्मक गलती, मैंने अपनी किताब में इस विचार की वकालत करना तो दूर की बात है, इसका जिक्र भी नहीं किया है. मैंने उसमें जिस सिद्धांत को रखा है उससे दूसरा ही कुछ जाहिर होता है. मैंने इस पर जोर दिया था कि पार्टी-कांग्रेस के निर्णय लागू होंगे ऐसी उम्मीद करने की सारी स्थितियां मौजूद हैं तथा निजी मंडलियों द्वारा पार्टी संस्थाओं की जगह ले लेने का जमाना बीत चुका है. मैंने सबूत पेश किया कि हमारी पार्टी के कुछ विद्वान अस्थिर और ढुलमुल दिखे. उन्हें अपनी खुद की अनुशासनहीनता के लिए रूसी सर्वहारा को उत्तरदायी ठहराने का कोई हक नहीं है. रूसी मजदूरों ने बार-बार, विभिन्न अवसरों पर, पार्टी कांग्रेस के निर्णयों का पालन करने की घोषणा की है.” (वही)

लेनिन ने रोजा पर रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के अंदर चल रहे संघर्ष के ठोस तथ्यों की उपेक्षा करने तथा अमूर्तिकरण में डूब जाने का, और इस प्रकार, मार्क्सवादी द्वंद्ववाद को विकृत करने का, आरोप लगाया.

बाद में, बोल्शेविकों ने रोजा लक्जेमबर्ग और कार्ल काउत्सकी को अपने दृष्टिकोण के पक्ष में कर लिया. लेनिन ने 1909 में कहा, “वे बोल्शेविकों के पक्ष में आ गए. इस कारण नहीं कि बोल्शेविक लोग अपनी बातों पर, बेशक अपने उपदलीय सिद्धांत पर, डटे रहे, अपितु इसलिए कि बोल्शेविकों ने क्रांतिकारी सामाजिक जनवादी कार्यनीति की आम भावना और अर्थ को बुलंद किया.” (फैक्शन ऑफ सपोर्टर्स ऑफ ओट्जोविज्म एंड गॉड-बिल्डिंग, कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-6)

4. रूस में 1905 की क्रांति ने सोवियत सत्ता और सर्वहारा अधिनायकत्व के व्यावहारिक अनुभव को सतह पर ला दिया. मेंशेविकों के विपरीत, रोजा ने तुरंत इसके महत्व को समझा और सभाओं और प्रेस में इसका आलोचनात्मक विश्लेषण किया.

5. 1913 में विलोपवादियों के प्रति रुख के प्रश्न पर रोजा और लेनिन फिर एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गए.

रोजा का मानना था कि रूसी पार्टी में जो कुछ हो रहा है, उसे दलीय कलह के कारण उत्पन्न दुरावस्था ही कहा जा सकता है. उन्होंने लेनिनवादी ग्रुप पर फूट को बढ़ावा देने में सबसे ज्यादा सक्रिय होने का आरोप लगाया. वे समझते थीं कि रूसी पार्टी के अंदर मौजूद मतभेदों ने संयुक्त कार्यवाहियों की संभावना को नष्ट नहीं कर दिया है तथा करारों और समझौतों के जरिए एकता की पुनर्स्थापना करना संभव है. उन्होंने दिसंबर 1913 में इस आशय का एक प्रस्ताव अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्ट ब्यूरो के पास भी भेजा था.

लेनिन का इससे तीखा मतभेद था. उन्होंने बार-बार कहा कि रूस में जो कुछ हो रहा है, उसे दलीय कलह से उत्पन्न अव्यवस्था नहीं कहा जा सकता है, वह तो विलोपवादियों के खिलाफ संघर्ष है. लेनिन ने दावा किया कि इसी संघर्ष के जरिए मजदूरों की सच्ची सामाजिक जनवादी पार्टी का निर्माण हो रहा है तथा वर्ग सचेत मजदूरों का भारी बहुमत, उनका अस्सी प्रतिशत, पार्टी लाइन के पक्ष में आ गया है.

ब्रुसेल्स कांफ्रेंस को पेश अपनी रिपोर्ट में लेनिन ने पार्टी के 1908 के एक प्रस्ताव से एक अंश उद्धृत किया था. इसमें विलोपवाद की परिभाषा के तौर पर कहा गया था, “पार्टी के कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के मौजूदा संगठन का विलोप कर देने और उसे हर कीमत पर, यहां तक कि पार्टी के कार्यक्रम, कार्यनीति और परंपराओं की खुल्लामखुल्ला तिलांजलि देकर भी, कानूनी सीमाओं के अंदर काम करनेवाले एक ढीले-ढाले संगठन में बदल देने का प्रयास है.” (वही, खंड-20)

लेनिन ने आगे कहा, “पश्चिम यूरोप में कहीं भी यह प्रश्न कभी नहीं उठा और न कभी उठ सकता है कि किसी व्यक्ति को अपनी पार्टी सदस्यता कायम रखने के साथ-साथ पार्टी को भंग करने, यह तर्क करने, कि पार्टी बेकार और गैर-जरूरी है और यह कि इसके बदले दूसरी पार्टी कायम की जाए की वकालत करने की इजाजत है अथवा नहीं. पश्चिमी यूरोप में कहीं भी पार्टी के अस्तित्व का प्रश्न इस तरह मौजूद नहीं है जिस तरह हमारे यहां मौजूद है अर्थात पार्टी रहे कि न रहे.

यह असहमति संगठन के प्रश्न पर असहमति नहीं है कि पार्टी निर्माण किस प्रकार होना चाहिए, अपितु असहमति पार्टी के अस्तित्व पर है. यहां सुलह-सफाई, राजीनामा और समझौते का कोई सवाल ही नहीं उठता है.” (वही)

6. साम्राज्यवादी युद्ध शुरू होते ही काउत्सकीपंथियों ने, जो कि दूसरे इंटरनेशनल व जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी पर हावी थे, सामाजिक अंधराष्ट्रवादी स्थिति अपना ली. उन्होंने इस लुटेरे युद्ध में अपने-अपने देशों के पूंजीपतियों का समर्थन करने की वकालत की. रोजा लक्जेमबर्ग ने इस लाइन का सख्त विरोध किया और सामाजिक जनवाद को ‘बदबूदार लाश’ की संज्ञा दी.

मेंशेविकों ने जब रूस में केरेंस्की के आक्रमण का समर्थन किया तो रोजा ने ‘रूसी क्रांति की अंतरराष्ट्रीय अंतर्वस्तु को कमजोर कर देने’ के कारण उनकी तीखी आलोचना की.

लेनिन ने रोजा का सम्मान करते हुए उन्हें महान अंतरराष्ट्रीयवादी कहा तथा दूसरे इंटरनेशनल के पतन के बाद एक नए इंटरनेशनल का निर्माण करने के लिए दोनों ने मिलजुलकर काम किया.

7. रोजा को 1917 की नवंबर क्रांति के बारे में, जबकि बोल्शेविकों ने सत्ता पर कब्जा किया था, कुछ शंकाएं थीं. सत्तादखल की प्रक्रिया के बारे में, जो उनके विचार से गैरजनवादी थी, और केंद्रीयता पर जरूरत से ज्यादा जोर डालने की लेनिनवादी पद्धति के बारे में उनके मत भिन्न थे. रोजा की समझ थी कि इससे नीचे से मजदूरों की पहलकदमी का गला घुट जाएगा और नैकरशाहाना विकृतियों का उदय होगा. ये विचार 1918 में उनकी जेल प्रवास के दौरान लिखित पांडुलिपियों में मिलते हैं.

तथापि क्लारा जेटकिन ने, जो रोजा को अत्यंत नजदीक से जानती थीं, साक्ष्य दिया था कि दिसंबर 1918 में जेल से रिहा होने के बाद रोजा लक्जेमबर्ग ने स्वीकार किया कि उनके विचार गलत और अधूरी सूचनाओं पर आधारित थे.

8. रोजा लक्जेमबर्ग और कार्ल लीब्नेख्त ने जर्मनी के सामाजिक जनवादी गद्दारों के विरुद्ध तीखा संघर्ष चलाया तथा जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी को पुनर्गठित किया और वे जर्मनी की नवंबर 1918 की क्रांति की अगली पंक्ति में डटे रहे.

15 जनवरी 1919 को सामाजिक जनवादियों की सरकार के गुपचुप समर्थन से श्वेत गार्डों ने रोजा और कार्ल लीब्नेख्त की ठंडे दिमाग से हत्या कर दी.

उनकी हत्या के उपरांत आयोजित एक विरोध रैली में लेनिन ने अपने वक्तव्य में कहा, “आज पूंजीपति लोग और सामाजिक जनवादी गद्दार बर्लिन में खुशियां मना रहे हैं, उन्हें कार्ल लीब्नेख्त और रोजा लक्जेमबर्ग की हत्या करने में सफलता मिली है. एलबर्ट और शीदेमान ने, जो लूट के स्वार्थ में चार वर्षों से मजदूरों का कत्लेआम करते आ रहे थे, अब सर्वहार नेताओं के खिलाफ कसाइयों की भूमिका ग्रहण कर ली है. जर्मन क्रांति का उदारहण सिद्ध करता है कि ‘जनवाद’ पूंजीवादी डकैती और सर्वाधिक बर्बरतापूर्ण हिंसा के लिए महज आड़ है. कसाइयों का नाश हो.”

1922 में जर्मन मेंशेविक पाल लेवी ने रोजा लक्जेमबर्ग की खासकर उन रचनाओं को पुनर्प्रकाशित करने की योजना बनाई जहां लेनिन के साथ उनका मतभेद था तो लेनिन ने टिप्पणी की कि लेवी की इच्छा पूंजीपतियों की और दूसरे व ढाईवें इंटरनेशनल के नेताओं की कृपादृष्टि प्राप्त करने की है.

लेनिन ने लिखा, “हम इसका जवाब एक रूसी कहावत की दो पंक्तियां उद्धृत करके देंगे, बाज कभी-कभी मुर्गियों से भी नीचे उड़ते हैं, मगर मुर्गियां बाजों की ऊंचाई तक कभी नहीं उड़ सकतीं. रोजा लक्जेमबर्ग ने पोलैंड की स्वाधीनता के सवाल पर गलती की, उन्हेंने 1903 में मेंशेविज्म का मूल्यांकन करने में गलती की, उन्होंने पूंजी के संचय के सिद्धांत के बारे में गलती की, जुलाई 1914 में, जब उन्होंने प्लेखानोव, वान्डरवार्ल्ड, काउत्सकी और अन्य लोगों के साथ मिलकर बोल्शेविकों और मेंशेविकों की एकता की वकालत की, तो वे गलती कर रही थीं, और 1918 में जेलप्रवास के दौरान उन्होंने जो कुछ लिखा उसे लिखकर गलती की. (उन्होंने जेल से छूटने के बाद 1918 की आखिर और 1919 की शुरूआत में अपनी अधिकांश गलतियों को सुधार लिया.) मगर अपनी गलतियों के बावजूद वे हमारे लिए बाज थीं और हैं. दुनिया के तमाम कम्युनिस्ट न केवल उन्हें हमेशा याद रखेंगे बल्कि उनकी जीवनी और उनका पूरा रचना संकलन कम्युनिस्टों की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित करने के उपयोगी ग्रंथ का काम करेंगे.

‘4 अगस्त 1914 से जर्मन सामाजिक जनवाद एक बदबूदार लाश में बदल गया है’ – इस वक्तव्य ने रोजा लक्जेमबर्ग को अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन में मशहूर कर दिया है और हां, मजदूर आंदोलन के पिछवाड़े में कचरे के ढेर पर पाल लेवी, शीदेमान, काउत्सकी जैसी मुर्गियां और उनके भाई बंधु इस महान कम्युनिस्ट द्वारा की गई गलतियों पर जरूर कुड़कुड़ाते रहेंगे.” (एक प्रकाशक का नोट, कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-33)

यह रोजा लक्जेमबर्ग की याद में सर्वोत्तम श्रद्धांजलि है और इसमें सारी चीजों का सार संक्षेप भी हो गया है.

(केंद्रीय पार्टी स्कूल, अक्टूबर 1996, में समापन भाषण)

स्कूल खत्म होने जा रहा है. हालांकि ऐसे स्कूलों में पार्टी नीतियां नहीं तय की जाती हैं, लेकिन यहां जो बहसें होती है, नीतियों के सूत्रीकरण पर उसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. इस सिलसिले में यहां चंद महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए और उन पर बहसें की गईं. 1994 के पार्टी स्कूल में मैंने ‘मार्क्सवाद के संकट’ के बारे में कुछ विचार रखे थे और अभी मैं उसी के साथ अपनी शुरूआत कर रहा हूं.

लगभग 150 वर्षों के अपने इतिहास में मार्क्सवाद दो या तीन दौरों के संकट से गुजरा है, जब इसके मूलाधार पर ही सवाल खड़े किए गए, लेकिन हर बार मार्क्सवाद ने संकट पर काबू पाया और वह नए जोश-खरोश के साथ आगे बढ़ा. अब बीसवीं सदी के अंत में एक बार फिर इसके मौत की घोषणा की गई है. वास्तव में इस बार का संकट बड़ा गंभीर है, क्योंकि इसके साथ प्रथम विजयी समाजवादी क्रांति की भूमि, लेनिन की भूमि – सोवियत संघ का ध्वंस भी जुड़ गया है. सोवियत मॉडल को मार्क्सवाद का साकार रूप माना जाता था और इसीलिए इसके ध्वंस ने स्वभावतः पुराने विवादों को फिर से उभार दिया है. चीनी मॉडल, जिसे एक विकल्प के बतौर मान्यता दी गई थी, अनेके कारणों से अपनी चमक काफी खो चुका है और अन्य छोटे-मोटे समाजवादी राज्य कोई प्रेरणा नहीं जगा पा रहे हैं.

पहली बात ध्यान में यह रखनी चाहिए कि पूंजीवाद के अंतरविरोधों के विश्लेषण की प्रक्रिया में मार्क्सवाद पैदा हुआ था और इसी ने पूंजीवाद की विस्तृत और गहन आलोचना प्रस्तुत की थी. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत होने के नाते मार्क्सवाद साम्यवाद के वर्गविहीन समाज में निश्चय ही अप्रासंगिक हो जाएगा, लेकिन उसके पहले तक तो यह पूंजीवादी दुनिया को बदलने और समाजवाद की विभिन्न संभावनाओं पर प्रयोग करने में मार्गनिर्देशक विचारधार बना ही रहेगा. एक खास अर्थ में, सोवियत संघ का ध्वंस वस्तुतः एक इतिहास के अंत को चिह्नित करता है, लेकिन हर अंत एक नई शुरूआत का भी प्रतीक होता है और यही वह संदर्भ है जिसमें हमने मार्क्सवाद की क्रांतिकारी आत्मा को पुनर्जीवित करने और इसके साथ ही विश्लेषण, आलोचना और परिवर्तन के अपने औजारों को ज्यादा पैना बनाने का संकल्प लिया है.

इस स्कूल में खास तौर से उत्तर-आधुनिकता पर काफी बहस हुई. उत्तर-आधुनिकता न केवल मार्क्सवाद या समाजवाद की वैधता पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि वह आधुनिकता के उस समस्त युग को ही खारिज कर देता है, जो आधुनिक वर्गों – पूंजिपति और सर्वहारा – के उदय के साथ शुरू हुआ था. वह संपूर्ण नवजागरण काल को और मानव जाति की मुक्ति की तमाम शानदार परियोजनाओं को खारिज कर देता है. वह इन परियोजनाओं को महावृत्तांत की संज्ञा देता है, जो समाज को पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों की ओर ले जाने का प्रयास करते-करते अंत में सर्वसत्तावादी राजनीतिक प्रणाली की स्थापना कर देता है. उत्तर-आधुनिकतावादी लोग नस्ल, लिंग, जाति नृतत्वता आदि के ‘कल्पित समुदायों’ से परे दूसरी किसी वर्गीय या मानवीय एकजुटता को मान्यता नहीं देते हैं.

यहां बहस के दौरान हमें हाल के वैज्ञानिक सिद्धांतों की भी जानकारी मिली. कुछ कारमेडों को उन्हें समझने में काफी दिक्कत हुई होगी. आप इसकी तफसील में न भी जाएं, मगर मार्क्सवादी होने के नाते नवीनतम वैज्ञानिक सिद्धांतों से वाकिफ रहना तो जरूरी है ही. क्वांटम मेकैनिक्स कहता है कि अंतः परमाणविक स्तर पर पदार्थ सामान्य यांत्रिक के नियमों का पालन नहीं करता और यहां तक कि उस स्तर पर पदार्थ के अस्तित्व के रूप भी बेहद उलझन भरे होते हैं. उसकी स्थिति, आवेग जैसे अनेक अभिलक्षणों का निर्धारण न केवल काफी अनिश्चित रहता है, बल्कि क्वांटम कण पर्यवेक्षण की क्रिया से प्रभावित भी हो जाते हैं.

इस वैज्ञानिक सिद्धांत की एक खास किस्म की दार्शनिक व्याख्या, जो आजकल पश्चिमी देशों में काफी लोकप्रिय हुई है, भौतिकवाद की बुनियाद पर – अर्थात् चेतना से स्वतंत्र पदार्थ या वस्तुगत दुनिया के अस्तित्व पर – ही प्रश्न खड़ा कर देती है. ‘आभासी यथार्थ’ की धारणा से लैस पश्चिमी दुनिया में पूरब के रहस्यवाद के प्रति, जो वस्तु-जगत को माया की संज्ञा देता है, नई रूचि पैदा होती दिखाई दे रही है. यूरोपीय नवजागरण के दौरान चर्च की सत्ता को चुनौती दी गई थी और विज्ञान के बढ़ते कदम से तथाकथित ईश्वरीय विधान पर गंभीर खतरा पैदा हो गया था. जब यूरोप अपने अंधकार युग से बाहर निकला और नवजागरण का काल शुरू हुआ तो 2000 वर्ष पुराने ग्रीक दार्शनिकों के द्वंद्ववाद को समृद्ध बनाया और बाद में मार्क्स ने उसे भौतिकवादी आधार प्रदान किया. विज्ञान की अग्रगति ने कुछ लोगों को एक बार फिर पुराने जमाने में दर्शन की जड़ें खोजने के लिए प्रेरित किया है, और विडंबना यह है कि उन्हें पूरब का रहस्यवाद ही हाथ लगा. इस स्कूल में हमने दर्शन के क्षेत्र में नव-भाववादी आक्रमण तथा समाज-विज्ञान के क्षेत्र में उत्तर-आधुनिकता के बीच संबंध तलाशने की कोशिश की है.

जैसा कि कुछ कामरेडों ने बताया, यह सही है कि ‘नए सामाजिक आंदोलन’, या आम तौर पर कहें तो तबकाई मुद्दों पर आंदोलन उत्तर-आधुनिकता के आने के पहले से ही मौजूद रहे हैं. वस्तुतः, उत्तर-आधुनिकता का महत्व इस तथ्य में निहित है कि इसने इन आंदोलनों को नया अर्थ और नया आधार प्रदान किया है. उत्तर-आधुनिकता उनके स्वायत्त विकास को बिलकुल निरपेक्ष बना देता है. ऐसा इसलिए, क्योंकि उत्तर-आधुनिकता के लिए एक प्रणाली के बतौर पूंजीवाद के विश्लेषण का एजेंडा बिलकुल बेतुका है.

मार्क्सवाद का पहला संकट

मौजूदा दौर में ‘मार्क्सवाद के संकट’ के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सवाल पर विचार करने के पहले संकट के पुराने दौरों का भी उल्लेख कर देना उचित होगा. यहां मैं मार्क्सवाद के उस प्रथम संकट का जिक्र करना चाहूंगा जो 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरूआत में आया था और जिसने संशोधनवाद की परिघटना को जन्म दिया था.

19वीं सदी के अंत में पूंजीवाद चरम संकट के दौर से गुजर रहा था. संकट का चरित्र इस अर्थ में शास्त्रीय था कि संकट के तमाम लक्षण मार्क्सवादी परिकल्पना से शानदार ढंग से मेल खाते थे. इस अवधि में मजदूर वर्ग का आंदोलन भी बढ़ा था और सामाजिक जनवादी पार्टियां (उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टियां इसी नाम से जानी जाती थीं) भी विकसित हुई थीं. खासकर जर्मनी में पार्टी का बड़ा तेज विकास हुआ था.

समय बीतने के साथ, पूंजीवाद ने इस संकट पर धीरे-धीरे काबू पाया, लेकिन इस प्रक्रिया में उसने खुद को पूरी तरह बदल  लिया. पहले यह मुक्त पूंजीवाद था जिसका आदर्श-वाक्य था खुली प्रतियोगिता. इसने उत्पादन की अराजकता को जन्म दिया. अब पूंजीपतियों ने आपस में समझौता कर लिया है और कार्टेल तथा ट्रस्ट आदि, जो मार्क्स के जीवन काल के दौरान भ्रूणावस्था में थे, आज पूरी तरह छा चुके हैं. पूंजीवाद ने स्थायित्व ग्रहण किया, मजदूरों की मजदूरी बढ़ी, और संसदीय लोकतंत्र फला-फूला, पूंजीवाद के आसन्न विनाश के बारे में मार्क्सवादियों के बीच जो उमंग शुरू में पैदा हुई थी, अब वह निराशा में बदल गयी. मार्क्सवादी लोग, जिसमें खुद मार्क्स भी शामिल थे, पूंजीवादी संकट के हर दौर में अति-आशावादियों के जैसा आचरण करने लगते थे. यह काफी स्वाभाविक है और इतिहास-निर्माण में इसकी अपनी गत्यात्मक भूमिका रही हैं. लेकिन कठोर वैज्ञानिक चिंतन-प्रक्रिया के नाते मार्क्सवाद ने केवल पूंजीवाद से समाजवाद में सामाजिक विकास की ऐतिहासिक प्रवृत्ति को ही चिह्नित किया. समाजवाद या नैतिक समाज-व्यवस्थाओं के अन्य काल्पनिक सिद्धांतों के विपरीत, मार्क्सवाद आत्मगत ढंग से कल्पित समाजवाद की किसी शानदार परियोजना के साथ शुरू करने और तब उस कल्पित माडल के अनुरूप समाज का – कहिए, किसी भी समाज का – पुनर्निर्माण करने का कोई प्रयास नहीं करता है.

इसके विपरीत, मार्क्सवादी समझ के अनुसार पूंजीवाद अपने खुद के अंतरविरोधों की गति के कारण ही समाजवाद की ओर बढ़ता है क्योंकि समाजवाद के अंतर्गत ही इन अतंरनिरोधों का अंतिम समाधान हो सकता है. पूंजीवाद इसकी (समाजवाद में रूपांतरण की) वस्तुगत स्थितियां भी तैयार कर देता है, मसलन – व्यापक पैमाने के उत्पादन का संकेंद्रित रूप, सर्वहारा वर्ग आदि. बहरहाल, इसका यह मतलब नहीं कि समाज खुद-ब-खुद स्वतःस्फूर्त रूप से, किसी सचेत आत्मगत प्रयास के बिना ही, समाजवाद की मंजिल में पहुंच जाएगा. मार्क्स ने यह प्रख्यात टिप्पणी की : “सवाल दुनिया को बदलने का है.”

मार्क्स की मृत्यु के बाद एंगेल्स की मान्यता अत्यधिक बढ़ गई थी और बर्नस्टीन तथा काउत्सकी नामक दो जर्मन कम्युनिस्ट उनके काफी करीबी थे. अपने अंतिम लेखों में एंगेल्स ने कुछ आत्मलोचनाएं कीं. अपनी मृत्यु के कुछ ही महीनों पहले मार्च 1895 में एंगेल्स ने लिखा, “इतिहास ने हमें और हम जैसे सोचनेवाले तमाम लोगों को गलत साबित कर दिया है. इसने यह साफ दिखला दिया है कि इस महाद्वीप में उस समय आर्थिक विकास इस हद तक परिपक्व नहीं हुआ था कि पूंजीवादी उत्पादन का उन्मूलन किया जा सके. उस आर्थिक क्रांति ने इसे साबित कर दिया, जो 1848 के बाद से समूचे महाद्वीप में फैल गई है ... और जिसने जर्मनी को यकीनन पहली कतार का औद्योगिक देश बना दिया है ... इतिहास ने इससे भी ज्यादा किया है; उसने न केवल उस समय की हमारी गलत धारणाओं को धो-पोंछ दिया, बल्कि उन स्थितियों को भी पूरी तरह बदल दिया, जिनके तहत सर्वहारा को संघर्ष करना पड़ा है. 1848 के संघर्ष का तौर-तरीका आज हर मामले में पुराना पड़ चुका है और मौजूदा अवसर पर इस बात की और भी गहरी छानबीन की जानी चाहिए.”

एंगेल्स के अनुसार, आधुनिक सेना के विस्तार को देखते हुए सड़क-युद्ध और अकस्मात हमला वगैरह की पुरानी कार्यनीति अब पुरानी पड़ चुकी है. संसदीय चुनावों में जर्मन पार्टी की उपलब्धियों का आंकड़ा पेश करते हुए उन्होंने सार्विक मताधिकार के बुद्धिमत्तापूर्ण इस्तेमाल पर जोर दिया. एंगेल्स ने निष्कर्ष निकाला, “विश्व-इतिहास की विड़ंबना हर चीज को उलट-पुलट देती है. हम ‘क्रांतिकारी’, ‘उखाड़ फेंकनेवाले’ लोग गैर-कानूनी तरीकों और उखाड़ फेंकने जैसे तरीकों की अपेक्षा कानूनी तरीकों के सहारे कहीं बेहतर ढंग से फल-फूल रहे हैं. व्यवस्था पक्षधर पार्टियां, जैसा वे खुद को पुकारती हैं, अपने द्वारा पैदा की गई स्थितियों के अंतर्गत नष्ट हो रही हैं ... जबकि हमलोग इस कानूनी माहौल में मजबूत और भरे-पूरे बन रहे हैं और जीवन से ओत-प्रोत दिख रहे हैं.”

एंगेल्स ने यूरोप के विशिष्ट संदर्भ में और वहां पूंजीवादी विकास के एक खास दौर में कार्यनीतियां बदलने की वकालत की थी. बहरहाल, बर्नस्टीन ने इसी बात को पकड़कर खुद रणनीति में संशोधन की पैरवी कर डाली और इस प्रकार उन्हें सही तौर पर संशोधनवाद का जनक कहा गया.

बर्नस्टीन ने तर्क दिया कि मार्क्स की भविष्यवाणी के विपरीत उत्पादन का संकेंद्रण अत्यंत धीमी गति से आगे बढ़ा, और इसके अलावा बड़े पैमाने के उत्पादन ने छोटे-मंझोल उद्यमीं को नष्ट भी नहीं किया. इसके अतिरिक्त, कार्टेलों और ट्रस्टों के निर्माण के साथ ही पूंजीवाद ने स्वनियमन की प्रणाली विकसित कर ली है और इस प्रकार वह किसी चरम संकट को अपने पास नहीं फटकने देता है. उन्होंने आगे तर्क दिया कि दो विपरीत वर्ग-ध्रुवों में समाज का ध्रुवीकरण नहीं हो पाया है, और न केवल मंझोले तबके नष्ट नहीं हुए बल्कि पूंजीपतियों की, संपत्तिशालियों की और शेयरधारकों की संख्या में बढ़ोत्तरी ही हुई है.

उन्होंने महसूस किया कि आधुनिक राष्ट्रों की राजनीतिक संस्थाएं लोकतांत्रिक हो चुकी हैं, वहां पूंजी की शोषणकारी प्रवृत्ति पर रोक लगी है और वर्ग संघर्ष की बुनियाद खोखली पड़ती जा रही है. जिन देशों में संसदीय लोकतंत्र मजबूत है, वहां सत्ता को अब वर्ग-शासन का औजार नहीं माना जा सकता है. इसीलिए, बर्नस्टीन ने तर्क दिया कि मजदूरों को अब क्रांति के जरिए सत्ता-दखल का प्रयास नहीं करना चाहिए, इसके बजाए उन्हें सत्ता को सुधारने पर जोर देना जाहिए.

1895 मे फ्रांस में वर्ग सघर्ष की भूमिका लिखते हुए एंगेल्स ने उस सदी के अंत तक पूंजीवाद के तेज पतन की आशा की थी और उन्हें उम्मीद थी कि अपनी सत्ता के हित में पूंजीपति वर्ग ने जिन कानूनी उपकरणों का निर्माण किया है, मजदूर वर्ग बुर्जुआ सत्ता के खिलाफ उनका भी कारगर इस्तेमाल करने में सफल होगा.

ठीक एक वर्ष बाद 1896 में बर्नस्टीन ने अंतिम लक्ष्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया और खुद को सिर्फ ‘रोजमर्रा के आंदोलनों’ तक सीमित कर लिया. पूंजी में मार्क्स ने ज्वांइट स्टॉक कंपनी की परिघटना पर पिचार किया था और एंगेल्स ने कार्टेल तथा ट्रस्ट की परिघटना को दर्ज किया. कार्टेलों का निर्माण उच्चतर स्तर पर पूंजी के संकंद्रेण की पुष्टि करता है और पूंजीवाद के बुनियादी उसूल के बतौर खुली प्रतियोगिता के ‘दिवालियेपन’ को ही सिद्ध करता है. बर्नस्टीन ने जिसे पूंजी का विकेंद्रीकरण, स्वनियमन और जनवादीकरण कहा वह उच्चतम स्तर की इजारेदारी में रूपांतरित हो गया, जहां ‘स्वामित्व’ और ‘प्रबंधन’ के अलग हो जाने के साथ ही परजीवी बुर्जुआ का एक समूचा वर्ग पैदा हो गया जो सट्टेवाजी, आक्रामक औपनिवेशिक नीति और साम्राज्यवादी खेमों के बीच प्रतिद्वंद्विता के आधार पर फला-फूला और ठीक यही चीजें उन्हें पहली बार विश्वयुद्ध की परिघटना तक ले गईं. साम्राज्यावाद : पूंजीवाद की चरम अवस्था  में लेनिन ने इन तमाम बातों का वर्णन किया है. छोटी और मंझोली पूंजी को हड़पना एक आम बात हो गई है, और वे बड़ी पूंजी की अनुषांगी बना दी जाती हैं. यह अनुषांगी पूंजी फिर नए क्षेत्रों और नई उत्पादन-प्रक्रियाओं में फलती-फूलती हैं, लेकिन फिर वे वहां भी एक समय के बाद बड़ी पूंजी की शिकार बन जाती हैं.

जहां तक कि संसदीय लोकतंत्र का सवाल है तो इसके बारे में यह समझ बिलकुल एकांगी होगी कि पूंजीपति वर्ग ने मजदूर वर्ग को बेवकूफ बनाने और उसे जाल में फंसाने के लिए ही धोखे की टट्टी के रूप में इसका ईजाद किया है. यह उतनी ही मूर्खतापूर्ण बात होगी जितना यह मानना कि पंडे-पुजारियों ने जनसमुदाय को बेवकूफ बनाने के लिए षड्यंत्र के बतौर धर्म का निर्माण किया है. मानव समाज के किसी अन्य काल-खंड में संसद का अस्तित्व नहीं रहा था. शासन का यह रूप पूंजीवाद के अंतर्गत ही उभरा और इस प्रकार यह बुर्जुआ शासन का एक विशिष्ट रूप है. सामंतवादी प्रणाली में शोषण गैर-आर्थिक उत्पीड़न की शक्ल में होता था और इसके अनुरूप राजनीतिक ऊपरी ढांचे में राजा और सामंती कुलीन वर्ग को विशेष अधिकार हासिल रहते थे. पूंजीवाद के अंतर्गत शोषण उत्पादन प्रक्रिया के जरिए और इसके अंदर से ही अतिरिक्त मूल्य के रूप में चला करता है. संसदीय लोकतंत्र का राजनीतिक ऊपरी ढांचा आदर्श पूंजीवाद के बिलकुल फिट बैठता है.

फ्रांस में वर्ग संघर्ष में मार्क्स ने लिखा, “बहरहाल, इस संविधान का व्यापक अंतर्विरोधइस रूप में मौजूद रहता है : यह संविधान उन वर्गों – सर्वहारा, किसान, पेट्टिबुर्जुआ – को सार्विक मताधिकार के जरिए राजनीतिक सत्ता के मातहत रखता है. और यह जिस वर्ग, अर्थात बुर्जुआ वर्ग के, पुराने सामाजिक प्रभुत्व को मान्यता देता है, उससे इस सत्ता की राजनीतिक गारंटी हासिल करता है.” यह बुर्जुआ संवैधानिक राज्य का मूलभूत अंतर्विरोधहै – जहां सार्विक मताधिकार के जरिए हर किसी को राजनीतिक जीवन में खींच लाया जाता है, वहीं आम जनता की यह संप्रभुता केवल औपचारिक है, वास्तविक स्वार्थ तो वर्ग-अंतरविरोधों के जरिए ही निर्देशित होते रहते हैं.

संशोधनवादियों के विपरीत, जो गणतंत्र में ही बुनियादी वर्ग-विरोध का समाधान देखते थे, लेनिन ने तर्क दिया कि उपरोक्त आत्म-अंतर्विरोधके चलते ही यह गणतंत्र खुले वर्गयुद्ध का सर्वोत्तम धरातल बन जाता है.

तो इसी प्रकार से संशोधनवाद के खिलाफ मार्क्सवाद का विवाद आगे बढ़ा और एक प्रक्रिया में मार्क्सवाद ने खुद को लेनिनवाद की शक्ल में पुनर्जिवित किया.

क्रांतिकारी विरोध-पक्ष की कार्यनीति के बारे में

अब मैं उन चंद सवालों पर कुछ कहना चाहूंगा जो यहां बहस के दौरान सामने आए हैं. एक कामरेड का विचार था कि क्रांतिकारी आंदोलन की धीमी प्रगति के संदर्भ में क्रांतिकारी विरोध-पक्ष की कार्यनीति उपयुक्त नहीं होगी. यह कार्यनीति उभार की स्थितियों में लागू की जानी चाहिए. मेरे विचार से इस तर्क में एक वुनियादी गड़बड़ी है. ‘विरोध-पक्ष’ एक संसदीय श्रेणी (कैटेगरी) है और क्रांतिकारी विरोध-पक्ष एक विशिष्ट कार्यनीति है, जिसे क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी संसदीय संघर्षों के दौरान अपनाती है. क्रांतिकारी उभार के समयों में क्रांतिकारी विरोध-पक्ष नहीं, बल्कि खुद क्रांति ही पार्टी का फौरी एजेंडा बन जाती है. दूसरे शब्दों में, क्रांतिकारी उथल-पुथल के दौरान संसदीय संघर्ष अप्रासंगिक हो जा सकते हैं और काफी संभव है कि चुनाव बहिष्कार या यहां तक कि बुर्जुआ संसद को ध्वस्त करना ही पार्टी का ऐक्शन स्लोगान बन जाए. जाहिर है, जब संसदीय संघर्ष ही नहीं होंगे, संसद ही नहीं होगी, तब विरोध-पक्ष – चाहे क्रांतिकारी हो या अन्य कोई – की श्रेणी भी नहीं रहेगी. यह समझना काफी आसान है. मौजूदा स्थितियों में ही, जबकि संसदीय संघर्ष पार्टी की एक महत्वपूर्ण कार्यनीति बनी हुई है, क्रांतिकारी विरोध-पक्ष का सवाल सामने आता है और इसी से संसदीय संघर्षों मे पार्टी की बुनियादी दिशा निर्धारित होती है. इस मामले में किसी तरह का भ्रम नहीं रहना चाहिए. इसके क्रियान्वयन का मामला, बहरहाल,काफी जटिल है जिसके साथ पार्टी के चुनावी जनसमर्थन तथा संसदीय शक्ति में वृद्धि के मसले जुड़े होते हैं.

प्रचार-मंच के बतौर संसद का इस्तेमाल करना एक काफी प्रचलित बात है और इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है. लेकिन वास्तविक जीवन-स्थितियों में आपके सामने व्यावहारिक समस्याओं की एक पूरी श्रृंखला खड़ी हो जाती है. सीटों के तालमेल का सवाल और फिर ‘समान सोचवाली पार्टियों’ – यह एक दूसरा संसदीय शब्द है – के साथ चुनावी संश्रय के मसले सामने आते हैं. फिर, संसद के अंदर ब्लॉक बनाने का भी सवाल है. वहां हमारे प्रतिनिधियों को खास-खास मुद्दों और विधेयकों पर निश्चित स्थिति अपनानी पड़ती है और मतदान में भाग लेना पड़ता है. हमें संश्रयकारी खोजने होते हैं और विभिन्न बुर्जुआ पार्टियों के बीच फर्क करना पड़ता है. क्या हमारे प्रतिनिधि सिर्फ काम रोको प्रस्ताव लाने, वेल में कूद पड़ने, या बहिर्गमन कर जाने तक खुद को सीमित रखेंगे? या कि वे कुछ संजीदा बहसों में भी शामिल होंगे, संशोधन-प्रस्ताव लाएंगे, संवैधानिक सुधारों की मांग करेंगे और व्यक्तिगत विधेयकों के रूप में वैकल्पिक मसौदा भी पेश करेंगे? विभिन्न संसदीय समितियों तथा चुनाव-क्षेत्र स्तर की योजना और विकास निकायों के सदस्य की हैसियत से भी वे क्या करेंगे? ये सभी सुधारों के क्षेत्र में पड़ते हैं और क्रांतिकारी विरोध-पक्ष के दायरे में रहते हुए इन तमाम भूमिकाओं को निभाना मूल बात है. यह लाख टके का सवाल है, जिस पर पार्टी का समूचा भविष्य टिका हुआ है.

क्या क्रांति का कोई संसदीय रास्ता भी है?

संसद के मूल बुर्जुआ चरित्र से इनकार करना और यह भूल जाना कि यह संसद पूंजीवादी समाज का राजनीतिक ऊपरी ढांचा मात्र है, वे बुनियादी गलतियां हैं जो कम्युनिस्ट पार्टियों को संसदीय बैनेपन के राजमार्ग पर, जिसे आम बोलचाल में पतन की राह कहा जाता है, ढकेल देती हैं. अगर आप संसद को महज एक धोखा समझेंगे, शोषकों के द्वारा जनसमुदाय को बेवकूफ बनाने के लिए निर्मित एक बनावटी माध्यम समझेंगे, तो आप दूसरों को नहीं, खुद को ही बेवकूफ बना रहे होंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि इस तरह के एकांगी विचार आपको पूंजीवादी समाज के गति-विज्ञान का अध्ययन और विश्लेषण करने तथा तदनुरूप विशिष्ट नारे और कार्यनीतियां सूत्रबद्ध करने से रोक देंगे. आप हद के हद कठोरतम लहजे में संसद को गाली-गलौज देंगे व खारिज करेंगे, पर उससे संसद की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. इस तरह की लफ्फाजियों को सही तौर पर बचकाना मर्ज कहा गया है.

दूसरी ओर, यह समझना और भी गंभीर भटकाव होगा कि संसद एक अवर्गीय या वर्गोपरि संस्था है, जहां सर्वहारा को बस प्रवेश करना है, उसमें बहुमत हासिल करना है और तब समाज के समाजवादी रूपांतरण में इसका इस्तेमाल कर लेना है. संसद पूंजीवादी संविधान के दायरे में ही काम करती है और पूंजी के हजार-हजार बंधनों से बंधी रहती है. सर्वहारा के लिए संसद में बहुमत हासिल करना लगभग असंभव है और हमने अपने अनुभवों से देखा है कि कैसे समूची चुनाव-प्रणाली शक्तिशाली सत्ता-समूहों और थैलीशाहों के पक्ष में झुकी रहती है, और यह भी देखा है कि क्रांतिकारी वामपंथ के लिए एक-एक सीट जीतना कितना मुश्किल होता है.

फिर भी, यही मेरा मुख्य आशय नहीं है. तर्क की खातिर, अगर यह मान भी लिया जाए (किसी खास अपवादस्वरूप स्थिति में, हम इसे वास्तविक संभावना भी मान ले रहे हैं) कि सर्वहारा वर्ग संसद में बहुमत हासिल कर लेगा, तो भी यह सवाल बना ही रह जाता है कि क्या इसके जरिए सर्वहारा वर्ग की सामाजिक-आर्थिक गुलामी दूर हो जाएगी; या दूसरे शब्दों में, क्या पूंजीवादी समाज की बुनियाद को मौलिक रूप से बदला जा सकेगा? मार्क्सवाद तो इसका नकारात्मक जवाब ही देता है. नेक से नेक नीयत वाली बेहतरीन कम्युनिस्ट सरकारें भी पूंजीवादी प्रणाली में कुछ सुधार का काम कर सकती हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं. सर्वहारा वर्ग इस बनी-बनाई राज्य-मशीनरी का इस्तेमाल करके अपना लक्ष्य नहीं हासिल कर सकता है. पुराने राज्य को ध्वस्त करना होगा और नई राज्य-मशीनरी बनानी पड़ेगी. पेरिस कम्यून की कड़वी सीख के बाद, कम्युनिस्ट घोषणापत्र में दर्ज यह उदघोषणा, जिसे लेनिन ने राज्य और क्रांति  में व्याख्यायित किया है, राज्य के मार्क्सवादी सिद्धांत की आधारशिला है. प्रसंगवश, समाजवादी समाज में भी – जहां हर किसी से उसकी क्षमता के अनुसार और हर किसी को उसके काम के अनुसार का सिद्धांत काम करता है – बुर्जुआ अधिकार का तत्व मौजूद रहता है. और लेनिन ने एक बार तो समाजवादी राज्य को बुर्जुआ के बगैर बुर्जुआ राज्य कह दिया था. हर एक से उसकी क्षमता के अनुसार और हर एक को उसकी जरूरत के अनुसार का सिद्धांत लागू हो जाने के बाद ही बुर्जुआ अधिकार से मुकम्मल छुटकारा पाया जा सकता है. लेकिन उसका मतलब होगा साम्यवादी समाज का उत्थान जहां राज्य खुद-ब-खुद विलुप्त हो जाएगा.

इस प्रकार क्रांति का संसदीय रास्ता बनाम गैर-संसदीय रास्ता का समूचा विवाद ही अप्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि कोई संसदीय रास्ता मौजूद ही नहीं है. सर्वहारा क्रांति का बुनियादी मतलब है पूंजीवादी राज्य, जिसमें संसद भी शामिल है, का खात्मा. इसलिए जाहिर है, क्रांति का कोई संसदीय रास्ता नहीं हो सकता. क्रांति की सारवस्तु को ठुकरा कर ही रास्ते को मान्यता दी जा सकती है. सर्वहारा क्रांति सर्वहारा राज्य का निर्माण करती है, जिसमें उसकी अपनी प्रतिनिधि सभा होती है. यह प्रतिनिधि सभा राज्य के कामकाज में व्यापक जनसमुदाय की लोकतांत्रिक भागीदारी को सुनिश्चित करती है और राज्य के विधायिका तथा कार्यपालिका संबंधी कार्यों को एकल ढांचे में संयोजित करती है; संक्षेप में, यह नए समाज के अनुरूप एक नया राजनीतिक ऊपरी ढांचा होता है.

संसद के प्रति समूची कम्युनिस्ट कार्यनीति इस या उस हद तक उसका इस्तेमाल करने और इस प्रक्रिया में, गुणात्मक रूप से भिन्न एक नई प्रतिनिधि सभा के पक्ष में अंततः इसके निषेध के लिए स्थितियां तैयार करने के इर्द-गिर्द घूमती है.

शांतिपूर्ण बनाम हिंसक क्रांति

मार्क्सवादी कार्यनीति के अंतर्गत शांतिपूर्ण बनाम हिंसक क्रांति के प्रश्न पर बेशक बहसें हुई हैं, लेकिन यह बिलकुल भिन्न सवाल है, जिसका तथाकथित संसदीय बनाम गैरसंसदीय रास्ता की बहस के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है. वर्ग शक्तियों के संतुलन की अत्यंत खासमखास परिस्थिति के अंतर्गत अपवादस्वरूप और दुर्लभ से दुर्लभतम संभावना के बतौर शांतिपूर्ण क्रांति के बारे में मार्क्सवादी क्रांति-सिद्धांत में पर्याप्त विचार किया गया है. मार्क्स ने अमेरिका में ऐसी संभावना की चर्चा की थी, जब वहां स्थाई सेना और नौकरशाही ने ठोस शक्ल अख्तियार नहीं की थी. लेनिन ने फरवरी क्रांति के दौरान ऐसी संभावना के बारे में सोचा था. चीन में भी जापान-विरोधी युद्ध की सफल समाप्ति के बाद ऐसी संभावना पैदा हुई थी और माओ ने गृहयुद्ध रोकने तथा च्यंग काईशेक के साथ मिली-जुली सरकार बनाने का प्रस्ताव पेश किया था. बहरहाल, इनमें से कोई भी संभावना हकीकत में नहीं बदल सकी. फिर भी, सिद्धांत के क्षेत्र में मार्क्सवाद इस संभावना को पूर्णरूपेण खारिज नहीं करता है.

यहां यह जरूर समझ लिया जाना चाहिए कि शांतिपूर्ण क्रांति और संसदीय तख्ता-पलट एक ही चीज नहीं हैं. शांतिपूर्ण क्रांति के लिए भी यह आवश्यक है कि पूंजीवादी राज्य के हर अंग को खत्म कर दिया जाए. अगर फरवरी में रूस की क्रांति शांतिपूर्ण ढंग से सफल हो गई होती, तो क्या इसका महत्व अक्टूबर क्रांति से जरा भी कम होता? इसके अलावा, अगर इसकी संभावना तनिक भी हो तो इसे साकार करने के लिए भी सर्वहारा को महत्तम हद तक तैयारी की स्थिति में जाना ही होगा, जिसमें उसकी हथियारबंद शक्ति भी शामिल है, ताकि किसी भी प्रतिक्रियावादी चुनौती से निपटा जा सके. इस तरह की तैयारी के बगैर शांतिपूर्ण क्रांति एक दिवास्वप्न ही होगी, जो सर्वहारा के और भी भयानक हत्याकांड को अंजाम देगा, जैसा कि इंडोनेशिया और चिली में देखा गया.

इसीलिए, जब हमारे पार्टी कार्यक्रम में अपवादस्वरूप संभावना के बतौर शांतिपूर्ण क्रांति की बात की गई है तो उसे न तो संसदीय रास्ता जैसी कोई चीज समझना चाहिए और न तैयारी की स्थिति में किसी ढिलाई के रूप में ही इसकी व्याख्या की जानी चाहिए. दरअसल, गैरशांतिपूर्ण विकल्प के लिए पार्टी जितना अधिक चौतरफ तैयारी करेगी, उतनी ही अच्छी तरह वह शांतिपूर्ण संक्रमण की किसी संभावित स्थिति का इस्तेमाल भी कर सकेगी. शांतिपूर्ण क्रांति का मतलब है बगैर किसी लड़ाई के शत्रु का आत्मसमर्पण, और आप सहज कल्पना कर सकते हैं कि यह कितना अपवादस्वरूप मामला होगा और हमारी तैयारी के किस स्तर में यह संभावना साकार हो सकती है.

अब कुछ लोग पहले तो शांतिपूर्ण क्रांति की अपवादस्वरूप संभावना को आम संभावना बना देते हैं और तब फिर शांतिपूर्ण क्रांति को संसदीय रास्ता का दर्जा दे देते हैं और यह भ्रम फैलाते हैं कि सर्वहारा वर्ग संसद में बहुमत पाकर पूंजीवादी समाज के मूलाधार को बदल दे सकता है और समाजवाद की शुरूआत कर सकता है. ये सब अनाप-शनाप की बकवास है और इसमें संशोधनवाद के सिवा कुछ नहीं है.

सीपीआई(एम) बनाम सीपीआई(एमएल)

हमलोगों पर तथाकथित एमएल घड़ों की ओर से आलोचनाओं-आरोपों की यह बौछार की जाती है और कहा जाता है कि हमने एमएल की तमाम मौलिक स्थितियों को छोड़ दिया है और हम, उनके शब्दों में, नवसंशोधनवाद की ओर जा रहे हैं. उनका आरोप है कि हमने पार्टी-कार्यक्रम में अत्यधिक संशोधन करके उसे लगभग सीपीआई(एम) का कार्यक्रम बना दिया है. वे यह भी अटकल लगाते हैं कि हम सीपीआई(एम) में मिल जाने की तैयारी कर रहे हैं. कुछ लोग हम पर यह भी अभियोग लगाते हैं कि लूट में हिस्सेदारी के लिए हम वाममोर्चा में शामिल होने को लालायित हैं वे हमें सरकारी नक्सलाइट का नाम देते हैं. वे वर्षों से इन सब बातों की भविष्यवाणी कर रहे हैं, लेकिन आज क्या स्थिति है? न तो हमलोग वाममोर्चा में शामिल हुए और न सीपीआई(एम) में जाकर मिल गए. इसके विपरीत, हम लोगों ने राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को पुनर्जीवित किया है, वामपंथी आंदोलन में एक प्रमुख प्रवृत्ति के बतौर माले को पुनःप्रतिष्ठित किया है और हम वामपंथी खेमे में सीपीआई(एम) के प्रभुत्व के मुकाबले सर्वप्रमुख प्रतिद्वंद्वी के बतौर उभर गए हैं. और ये सब चीजें हमने हासिल की हैं ग्रामांचलों में ग्रामीण गरीबों के मजबूत आंदोलनों के बल पर, जिसके दौरान हमें सामंती शक्तियों, उनकी निजी सेनाओं, पुलिस, राजनीतिक प्रतिष्ठान और बीजेपी से लेकर सीपीआई(एम) तक के हमले झेलने पड़ते हैं, अधिकांश मामलों में प्रतिरोध संघर्ष व्यापक जनसमुदाय की भागीदारी के साथ जुझारू और हथियारबंद शक्ल ले लेता है. नक्सलबाड़ी की यही मूल भावना है, और मैं फिर कहता हूं, कि सिर्फ और सिर्फ हमारी पार्टी ही इसे आगे बढ़ा रही है.

बहरहाल, बदलते समयों और बदलते संदर्भों के साथ हमने अपनी कार्यनीतियों में अवश्य ही काफी संशोधन किए हैं. यह बिलकुल स्वाभाविक है और कहिए तो, एक जीवंत संचरना की निशानी भी है. हर सजीव संरचना बदलते वातावरण के अनुसार खुद को अनुकूलित करती है, ताकि वह जिंदा रह सके और बढ़ सके. मृत चीजें ही बदलते वातावरण के साथ नहीं बदलतीं, या दूसरे शब्दों में कहें तो जो सजीव वस्तु खुद को अनुकूलित नहीं कर पाती वह धीरे-धीरे विलुप्त हो जाती है.

मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि हमने अपने चंद नारों और कार्यनीतियों को ही संशोधित किया है लेकिन हमारी रणनीतिक समझदारी वही बनी हुई है. नक्सलबाड़ी ही हमें मार्गनिर्देशक प्रेरणा दे रही है और जो कुछ भी कार्यनीतिक बदलाव हम करते हैं, वे इसके क्रांतिकारी ढांचे के अंदर ही किए जाते हैं. हमने अपनी पार्टी-लाइन में कार्यनीतिक बदलाव अव्वल तो इसलिए किए हैं कि वस्तुगत स्थितियों ने उन्हें अनिवार्य बना दिया था और दूसरे इसलिए कि इससे सीपीआई(एम) के पाखंड का भंडाफोड़ करने का सुयोग हमें मिलता है. उदाहरण के लिए, चंद राज्यों में और खास स्थितियों में कम्युनिस्टों द्वारा राज्य सरकार बनाने की संभावना से इनकार करने के बजाए हमलोगों ने बहस को ऐसी सरकारों के दो संभावित उपयोगों के स्तर तक उठा दिया है. पहला (संभावित उपयोग) यह कि, ये सरकारें मजदूरों और किसानों की गोलबंदी का केंद्र बन जाएं, केंद्रीय सत्ता के मुकाबले क्रांतिकारी विरोध-पक्ष की भूमिका निभाएं और पूंजीवादी संसदीय प्रणाली के संकट को गहरा बना दें. और दूसरा यह कि, वे पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था में क्रमशः जज्ब हो जाएं जो कि सीपीआई(एम) का सामाजिक जनवादी रास्ता है. इस मोड़ पर, जबकि वाममोर्चा की सरकार अपने लंबे समय के वजूद के कारण अपनी चमक काफी हद तक खो चुकी है और अपना प्रतिक्रियावादी चरित्र लगातार उजागर करती जा रही है, यह कार्यनीतिक विवाद वामपंथी कतारों के अंदर एक नया ध्रुवीकरण पैदा करने के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है.

नक्सलबाड़ी ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के क्रांतिकारी और अवसरवादी हिस्सों के बीच बुनियादी विभाजन किया था. इस बुनियादी विभाजन को कोई मिटा नहीं सकता. लेकिन इन तमाम बातों को दुहराते रहने से ही हमें कोई फायदा नहीं होने वाला, बल्कि यह अमूर्त लफ्फाजी में ही पतित हो जा सकता है. हमारी पार्टी ने जो जरूरी कार्यनीतिक बदलाव किए हैं, उससे हमें एक लंबे अंतराल के बाद, जमीनी स्तर पर सामाजिक जनवाद के खिलाफ पुनः पहलकदमी लेने में मदद मिली है. सीपीआई(एम) का सामाजिक जनवादी व्यवहार एक बंद गली की ओर जा रहा है और उसके अंतर्विरोधलगातार सतह पर उभर रहे हैं. संयुक्त मोर्चा सरकार में शामिल होने के मुद्दे पर पार्टी नेतृत्व के अंदर गंभीर विभाजन का हाल का मामला लें, या संयुक्त मोर्चे के चरित्र-निर्धारण पर चल रहे विवाद को देखें या फिर बुर्जुआ पार्टियों के साथ संश्रय बनाने की पार्टी कार्यनीति पर, संसदीय मोर्चे पर पार्टी की गतिरुद्धता और हिंदीभाषी क्षेत्र में आगे बढ़ने में नाकामयाबी पर अथवा आंचलिक स्वायत्तता आंदोलनों के प्रति कार्यनीति वगैरह के सवाल पर पार्टी के अंदर होनेवाली बहसों को ही देख लीजिए; ये सभी चीजें पार्टी के अंदर गहराती दरारों की ओर ही इशारा कर रही हैं. ये सब बातें भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के क्रांतिकारी और अवसरवादी घड़ों के बीच चल रहे वाद-विवाद को नई ऊंचाइयों तक उठाने और इस प्रकार वामपंथी कतारों के बीच एक नए ध्रुवीकरण को अंजाम देने की मांग कर रही हैं. हमारी पार्टी ठीक यही काम कर रही है और हमारे कार्यनीतिक संशोधनों ने इस मामले में हमें काफी मदद पहुंचाई है.

मैं यह नहीं कहता कि यह कोई आसान मामला होने जा रहा है. सामाजिक जनवादी भी अपनी एकता कायम रखने और क्रांतिकारी पांतों को प्रभावित करने के लिए खुद को अनुकूलित करते रहते हैं. 1967 से जो संघर्ष शुरू हुआ है, वह इसी तरह आगे बढ़ रहा है और वह आनेवाले दिनों में नए-नए और जटिल रूप अपनाएगा तथा सीपीआई (एम) (या उसके अंदर के विभिन्न हिस्सों) के साथ हमारे संबंधों को निर्धारित करेगा. ये रिश्ते व्यवहार में कौन-सी शक्ल लेंगे यह अभी ही बताना मुश्किल है, लेकिन एक बात तो निश्चित है कि सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) भारतीय कम्युनिस्ट और वामपंथी आंदोलन में प्रमुख विचारधारात्मक प्रतिद्वंद्वी बनी रहेंगी और एक दूसरे को पीछे हटाने की कोशिश करती रहेंगी. मैं समझता हूं कि सामाजिक जनवाद के मुकाबले हमारी भविष्यदृष्टि का यही सारसंक्षेप है.

(पार्टी स्कूलों के लिए तैयार की गई एक लोकप्रिय भूमिका, लिबरेशन, जून 1990)

पिछले 7-8 वर्षों से केंद्रीय कमेटी पार्टी में अध्ययन करने की आदत डालने और पार्टी स्कूल की पद्धति को पार्टी की संस्थाओं का अभिन्न अंग बना देने का प्रयत्न करती रही है. केंद्रीय पार्टी स्कूलों में कार्यकर्ताओं के चुनिंदा बैच भर्ती किए गए और राज्य कमेटी व अन्य कमेटियों ने भी अपने-अपने स्तर पर स्कूल संचालित किए. यह उम्मीद की गई थी कि ये उपाय न सिर्फ समूची पार्टी की जानकारी व समझ के स्तर के उन्नत करेंगे, अपितु पार्टी कतारों में नियमित अध्ययन करने की आदत भी डाल देंगे. हम इस लक्ष्य को कहां तक पूरा कर सके? यह मानने में किसी को कोई उज्र नहीं होनी चाहिए कि हमें इस दिशा में बहुत थोड़ी सफलता मिली है. कुछ कामरेडों ने अपनी पढ़ाई जरूर जारी रखी है, मगर ऐसा मुख्यतः खुद उनकी अपनी प्रवृत्तियां के चलते हुआ है, बाकी कामरेड अपनी पुरानी स्थिति में लौट चुके हैं.

अब मार्क्सवाद के कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं, जिन्हें आप मार्क्सवाद का ककहरा कह सकते हैं और अगर आप उन्हें नहीं जानते तब तो आप अनपढ़ मार्क्सवादियों की श्रेणी में रखे जाने योग्य हैं. मैं समझता हूं कि पार्टी में ऐसे लोगों की तादाद काफी ज्यादा है. फिर, जिन्हें साक्षर मार्क्सवादी कहा जा सकता है उनमें से भी अधिकांश ने बमुश्किल प्राथमिक दर्जा पास किया है. हमारे अधिकांश वरिष्ठ नेता और कार्यकर्ता भी मार्क्सवादी शिक्षा के विश्वविद्यालय में प्रवेश कर गए हैं ऐसा दावा नहीं कर सकते हैं.

यह अत्यंत दुखद स्थिति है और इससे यही झलकता है कि हमारे अधिकांश अच्छे कामरेड या तो अंधों की तरह काम कर रहे हैं अथवा सनकियों की तरह. अगर आप आंख-कान मूंदकर काम करते हैं, यानी वफादरी के साथ नारों को रट लेते हैं और ऊपर से आने वाली हिदायतों का हरफ-ब-हरफ पालन करते हैं तो आपके सामने उन नारों और हिदायतों की आत्मा को खो देने का खतरा रहता है और आप कभी रचनात्मक व्यवहार विकसित नही कर सकते हैं. और अगर आप अपनी सनक के मारे काम करते है तो आप यकीनी तौर पर एक दिन पार्टी के विचारों, पार्टी की योजनाओं और पार्टी के लाइन के खिलाफ खड़े हो जाएंगे. दोनों ही स्थितियां पार्टि और जनता के लिए एक जैसी नुकसानदेह हैं.

कुछ लोगों को मैंने यह महसूस करके बड़ा प्रसन्न होते देखा है कि उनकी गतिविधियों का मुख्य क्षेत्र मोर्चा संगठन है और वहां उन्हें मार्क्सवाद का अध्ययन करने की कोई आवश्यकता नहीं है. एकाध अपवादों को न गिना जाए तो मुझे ऐसा नहीं लगता कि आजकल आईपीएफ के नेता और कार्यकर्ता मार्क्सवाद का अध्ययन करने पर कोई ध्यान देते हैं. बहुतों का तो स्तर भी नीचे गिर गया है. इसके नेताओं और कार्यकर्ताओं के एक हिस्से के अंदर हाल में गैर क्रांतिकारी व्यवहार पनपने का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है. ये कामरेड यह समझ पाने में असफल रहे कि इस मोर्चे की संपूर्ण धारणा, कार्यक्रम और कार्यनीति मार्क्सवाद-लेनिनवाद से ही, हमारी ठोस स्थितियों में उसके ठोस प्रयोग से ही, उत्पन्न हुई है. सर्वाधिक विकसित और क्रांतिकारी वर्ग को अपना उद्देश्य सफल करने के लिए समूचे समाज का नेता अवश्य प्रतीत होना चाहिए. कम्युनिस्टों को पूंजीपति वर्ग के साथ प्रतिद्वंद्विता करनी होगी और अंततः उसे समाज के स्वाभाविक नेता बनना होगा. संयुक्त मोर्चा, चाहे जिस रूप में और जिस विशेष मंजिल में बने, मूलतः वह यह लक्ष्य पाने का कम्युनिस्ट पार्टी का माध्यम भर है. लिहाजा, संयुक्त मोर्चा की रणनीति और कार्यनीति अर्थात् सर्वाधिक विकसित वर्ग के उद्देश्यों और नारों को जनता के सभी वर्गों के उद्देश्यों और नारों में तब्दील कर देने की क्षमता मार्क्सवादी सिद्धांत और व्यवहार का अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है. कम्युनिस्ट लोग जो कि इस मोर्चे के केंद्र और रीढ़ का काम करते हैं, अगर अनपढ़ मार्क्सवादी रहे तो उनके अंदर यह क्षमता नहीं पैदा हो सकती है.

बड़ी मात्रा में नई शक्तियां मोर्चे और पार्टी में शामिल हो रही हैं. वे मार्क्सवादी अर्थ में केवल अनपढ़ ही नहीं, अपितु उनमें से बहुतेरी तो सीपीआई, सीपीएम आदि से आ रही हैं और वहां उन्होंने नकारात्मक शिक्षा ही पाई है.

कुछ ही दिन हुए मैं एक कामरेड से मिला था. उन्होंने अपना सारा साजो-सामान बांध-बूंध लिया था, जिसमें किताबों से ठसाठस भरे दो बस्ते भी थे और वे पार्टी छोड़ देने के लिए – उनके ही शब्दों में अध्ययन करने के उद्देश्य से पार्टी से अनिश्चितकालीन छुट्टी पर जाने के लिए पूरी तरह आमादा थे. वे एक नौजवान, संभावनामय और अच्छे व्यावहारिक कार्यकर्ता थे. वे यह महसूस करके बड़े दुखी थे कि पार्टी में अध्ययन करने का उचित माहौल नहीं है. उन्होंने यह भी महसूस किया था कि पार्टी अंध व्यवहार को बढ़ावा दे रही है और चूंकि ढेर सारे जलिट सवालों का सैद्धांतिक तौर पर समाधान नहीं हुआ है इसलिए मौजूदा सफलताएं पानी का बुलबुला साबित हो सकती हैं और आगे चलकर हमें बंद गली में अपना सिर दीवालों से टकराना पड़ सकता है.

मैंने उनसे तर्क करने की और उन्हें पार्टी के अंदर ही बने रहने के लिए राजी करने की कोशिश की. मगर वे एक बुद्धिमान सख्स थे और दूसरे लोग क्या-क्या तर्क पेश करेंगे इसका पूर्वानुमान लगाकर उन्होंने अपना प्रति तर्क पहले से ही तैयार कर रखा था. लिहाजा, मैं उन्हें राजी नहीं कर सका. वैसे भी उन कामरेडो को, जो पार्टी से हट जाने की राह पर कदम बढ़ा चुके हैं, समझा पाने में सफलता का मेरा रिकार्ड सर्वदा खराब रहा है. यह तो एक अलग ही कहानी है.

यकीनन, इन कामरेडों की बुनियादी स्थिति गलत है. उनकी महत्वाकांक्षा अकादमीशियन बनने की है, पार्टी सिद्धांतकार बनने की नहीं. मैं अकादमीशियनों द्वारा निभाई जानेवाली अति महत्वपूर्ण भूमिका को किसी भी तरह कम करके नहीं आंकता. सच कहा जाए तो उनके जरिए किए जा रहे उपयोगी अनुमंडल कार्य के बगैर, विचारों के उस द्वंद्व के बगौर जो पहले अतिवार्यतः अकादमीशियानों की दुनिया में ही जन्मते हैं, वस्तुतः क्रांतिकारी सिद्धांत का निर्माण करना असंभव है. फिर भी अकादमीशियनों की अपनी एक लक्ष्मण रेखा होती है, उनके निष्कर्षों में स्पष्टता या जोर का अभाव रहता है और वे अक्सर भ्रमपूर्ण और गलत होते हैं. कार्यदिशा सूत्रबद्ध करने की जवाबदेही क्रांतिकारी सिद्धांतकारों और सर्वहारा के राजनीतिक नेताओं की होती है. पूंजीपति वर्ग सिद्धांतकारों और ‘व्यावहारिक कर्मियों’ के बीच विभाजन बर्दश्त कर सकता है. मगर सर्वहारा के नेता मार्क्स, लेनिन, माओ इत्यादि रहे हैं जो एक ही साथ दार्शनिक, अर्थशास्त्री और राजनीतिक नेता सब कुछ थे, सबके सम्मिश्रण थे.

हमारे पार्टी इतिहास में ऐसे व्यक्तियों और ग्रुपों के उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने सिद्धांत और व्यवहार के बीच यांत्रिक विभाजन किया था. उनके विचार से “सही” राजनीतिक लाइन जानने के लिए सबसे पहले एक लंबे अरसे तक केवल अध्ययन किया जाना चाहिए और तब “सही” व्यवहार का दौर शुरू होगा. इतिहास ने ठीक ही साबित किया है कि वे सब के सब वर्षों के अध्ययन के बावजूद किसी ठौर-ठिकाने पर नहीं पहुंचे, उल्टे, शुरू में वे जितने दिग्भ्रमित थे उसकी तुलना में अंत में उनका भ्रम और अधिक बढ़ गया. क्रांतिकारी सिद्धांत केवल वे ही विकसित कर सकते हैं जो व्यवहार की कड़ी धूप में पसीना बहा रहे हों और उसे केवल अपनी गलतियों और असफलताओं से ही सीखा जा सकता है. क्या इसका यह मतलब है कि पार्टी छोड़कर चले जाने वाले उक्त कामरेड ने जो कुछ कहा था, वह सब का सब गलत था और इसके लिए उन्हें केवल खरीखोटी ही सुनाई जानी चाहिए? मुझे ऐसा नहीं लगता है. मेरे विचार से उनका यह कहना बिलकुल ठीक था कि ढेर सारे जटिल सवालों का सैद्धांतिक समाधान जरूरी है और अगर उनपर तुरंत ध्यान नहीं दिया गया तो आगे चलकर हमे किसी अंधी गली में अपना सिर चारों ओर दीवालों से टकराना पड़ सकता है. उन्होंने अध्ययन के अनुकूल माहौल के अभाव की जो बात कही वह सचमुच हमारी एक कमजोर नस को पकड़ना था.

अगर आप यह मानते हैं कि सचमुच पार्टी की वैसी ही अवस्था है जैसी कि ऊपर बतलाई गई है तो आप तमाम पार्टी सदस्य मार्क्सवाद का कखग सिखलाने के लिए केंद्रीय कमेटी के जन-शिक्षा अभियान का हार्दिक तौर पर जरूर स्वागत करेंगे.

शुरूआत में ही एक सवाल पूछा जा सकता है और वह पूछना पूरी तरह उचित भी है कि जब समाजवाद समूची दुनिया में संकट से घिर चुका है और खुद मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं उस वक्त मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों का अध्ययन करने पर आपके द्वारा जोर दिया जाना क्या परंपरावाद को ही खाद-पानी देना नहीं है?

बेशक, आम तौर पर समाजवाद का संकट और खासकर पूर्वी यूरोप की घटनाएं हर दृष्टिकोण से सुसंगत व्याख्या की मांग करती है – विश्व शक्ति संतुलन में परवर्तन, यूरोप में समग्रतः कार्यरत शक्तिशाली सामाजिक-आर्थिक कारक, सोवियत पेरेस्त्रोइका की भूमिका, कम्युनिस्ट पार्टीयों द्वारा की गई गलतियां आदि-आदि के दृष्टिकोण से.

मगर मुझे लगता है कि अभी वे इन समस्याओं के सबसे मूलभूत कारण को छू तक नहीं रहे हैं. पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्टों को धक्का लगने के बाद कई लोगों को लगा कि परिस्थिति सोशलिस्टों के पक्ष में, “सर्वहारा की तानाशाही” के विरुद्ध “जनवादी उसूलों पर चलनेवाले समाजवाद” के पक्ष में मुड़ेगी, क्योंकि वे यूरोप में कम्युनिस्टों के ऐतिहासिक प्रतिद्वंद्वी रहे हैं. मगर ऐसा नहीं हुआ और तमाम भूतपूर्व कम्युनिस्टों द्वारा सामाजिक-जनवादियों के रूप में अपने को सुधार लेने और पुनर्गठित करने के सारे प्रयत्न परिस्थिति को संभालने में असफल साबित हुए. मध्य-दक्षिण राजनीतिक गठजोड़ों का उभार, चर्च की बढ़ती भूमिका और पूंजीवाद की ओर वापस लौटने का आह्वान – पूर्वी यूरोप में तो अभी यही सब हो रहा है. अतः ठोस यथार्थ यही है कि पूर्वी यूरोप के विभिन्न देशों में तमाम किस्मों का समाजवाद असफल ही रहा तथा जनवादी क्रांति, जनता के जनतंत्र, सर्वहारा के शासन ने पूंजीवाद और पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक शासन की वापसी का मार्ग ही प्रशस्त किया है. इस पहेली का हल केवल मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों द्वारा प्रतिपादित इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा ही प्रदान कर सकती है. मार्क्स ने कहा था, “सर्वहारा अगर पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक शासन को नष्ट कर देता है तो यह केवल एक अस्थायी विजय होगी, वह खुद पूंजीवादी क्रांति की सेवा करनेवाला एक तत्व मात्र रहेगा, जैसा कि 1794 में हुआ और ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक इतिहास चक्र में, उसकी “गति” में, परिपक्व भौतिक परिस्थितियों का निर्माण नहीं हो जाता, जो पूंजीवादी शासन को निर्णायक रूप से उखाड़ फेंकने के लिए आवश्यक है. इसलिए फ्रांस में आतंक का राज्य अपने शक्तिशाली आघातों से फ्रांस की धरती से केवल समांतवाद के अवशेषों को चुन-चुनकर नष्ट कर सका. चिंताग्रस्त और आगापीछा करते रहनेवाला पूंजीपति वर्ग इस कार्य को दशकों में भी पूरा नहीं कर पाता. जनता की खूनी कार्यवाहियों ने इस प्रकार केवल उसके (पूंजीवाद के) लिए पथ प्रशस्त किया है. इसी प्रकार अगर पूंजीपति वर्ग के शासन की आर्थिक परिस्थितियां पहले से ही परिपक्व नहीं होतीं तो निरंकुश राजतंत्र का पतन भी अस्थाई ही साबित हुआ होता. मनुष्य नई दुनिया का निर्माण धरती की कृपा से प्राप्त फलों से नहीं करता है, जैसा कि छिछला आध्यात्मवाद मानता है, बल्कि पतन की ओर जाती सभ्यता के ऐतिहासिक अवदानों से करता है. उन्हें अपने विकासक्रम में नए समाज की भौतिक स्थितियों को खुद विकसित करने से शुरू करना चाहिए और कोई भी दिमागी कसरत अथवा इच्छा उन्हें अपने इस भविष्य से मुक्त नहीं हो सकती है.” (डाई मोरेलिसिरेंडे क्रिटिक ... 1847) इसके अतिरिक्त, उदारवादी पूंजीवादी और मार्क्सवादी प्रचार-माध्यमों में ढेर सारे विश्लेषण प्रकाशित हो रहे हैं उन्होंने मार्क्सवाद को इतना अधिक विकृत बना दिया है कि मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों को तरोताजा बनाना हमारे लिए आवश्यक बन गया है. उदाहरण के लिए, मैं ईपीडब्ल्यू में एक अकादमीशियन का, जो इस पत्रिका के नियमित लेखक रहे हैं, पूर्वी यूरोप की घटनाओं पर एक विश्लेषणात्मक लेख पढ़ रहा था. उन्होंने अंततः यह निष्कर्ष निकाला है कि कम्युनिस्ट लोग जनता के मन-मस्तिष्क पर धर्म के शक्तिशाली प्रभाव को समझने में असफल रहे और उसका समुचित इस्तेमाल न कर सके. अपने इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए वे स्वतंत्रता संघर्ष में धर्म का लोकप्रिय इस्तेमाल करने के गांधी के तरीके की वाहवाही करने पर उतर आए और उन्होंने कम्युनिस्टों को सलाह दी कि वे इससे सबक लें, आर्थात्, धरम से तालमेल बिठाने का तरीका सीखें.

मार्क्सवाद के विखंडित और शॉर्टकट अध्ययन के कारणवश कई लोग सोचते हैं कि मार्क्स धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका को समझने में असफल रहे और उन्होंने उसे “जनता के लिए अफीम” की संज्ञा देकर यूं ही खारिज कर दिया है. दरअसल मार्क्स ने धर्म का पूर्णतः सुस्पष्ट चित्र पेश किया है. ठहरिए, मुझे उनका ही वक्तव्य रखने दीजिए. “धर्म इस विश्व का आम सिद्धांत है, उसका विश्वकोषीय निचोड़ है, उसका लोकप्रिय शैली का तर्क है, उसका आत्मिक सम्मान है, उसकी उमंग है, उसका नैतिक विधि-निषेध है, उसकी भव्य प्रियोक्ति है, दिलासा देने और सफाई पेश करने का उसका आम आधार है ...”

“धर्म उत्पीड़ित मुनष्य की आह है, हृदयहीन विश्व की भावना और आत्मारहित परिस्थिति की आत्मा है, वह जनता के लिए अफीम है.” (मार्क्स-एंगेल्स पत्राचार).

क्या भौतिकवादी चिंतन के समूचे इतिहास में कभी किसी भौतिकवादी ने धर्म के बारे में इतना सुस्पष्ट चित्र पेश किया था? निम्न पूंजीवादी क्रांतिकारी अपने फैशनेबल रुख के चलते धर्म को सहज ढंग से खारिज कर देते हैं. हाल ही में मैंने जनमत में एक कविता पढ़ी जिसमें धर्म का विश्लेषण भोंड़े से भोंड़े रूप में किया गया है और मुझे लगता है कि हमारे कई कामरेड इस पर तालियां पीटेंगे.

कविता में आपको यह छूट मिल सकती है, किंतु अगर वह सिद्धांत में घुस गया तो बड़ा नुकसानदेह साबित होगा.

धर्म उल्टी विश्व चेतना है, जो मनुष्य के प्राकृतिक अस्तित्व के निषेध और प्रकृति के मानवीय अस्तित्व के निषेध पर आधारित है. मार्क्स ने कहा है, “एक बार जब मनुष्य और प्रकृति की सारवस्तु, प्राकृतिक जीवन के रूप में मनुष्य और एक मानवीय यथार्थ के रूप में प्रकृति, व्यावहारिक जीवन में, इन्द्रियग्राह्य अनुभव में स्पष्ट हो जाती है तो व्यवहार में एक पराए जीव की, मनुष्य और प्रकृति से बाहर के किसी जीव की तलाश (एक ऐसी तलाश जो मनुष्य और प्रकृति की अयथार्थता की स्वीकृति है) असंभव बन जाती है. अनीश्वरवाद भगवान के अस्तित्व से इनकार के तौर पर अब सार्थक नहीं रहता क्योंकि अनीश्वरवाद भगवान के अस्तित्व से इनकार करता है और इस इनकार के जरिए मनुष्य के अस्तित्व का दावा करना चाहता है. समाजवाद को इतने चक्करदार तरीके की जरूरत नहीं रहती है. वह वास्तविक अस्तित्व के रूप में मानव और प्रकृति की सैद्धांतिक और व्यावहारिक इन्द्रियग्राह्य अवधारणाओं से शुरू करता है, वह मनुष्य की सकारात्मक आत्मचेतना है. अब वह धर्म के निषेध के जरिए प्राप्त आत्म चेतना नहीं रह गई है, ठीक वैसे ही जैसे कि मनुष्य का यथार्थ जीवन सकारात्मक है. अब वह निजी संपत्ति के निषेध (साम्यवाद) के जरिए प्राप्त नहीं है. साम्यवाद निषेध के निषेध का दौर है और परिणामतः वह ऐतिहासिक विकास की अगली मंजिल के लिए मनुष्य की मुक्ति और पुनर्वास में एक यथार्थ और आवश्यक कारक है. साम्यवाद निकट भविष्य का आवश्यक रूप और सक्रिय उसूल है, लेकिन यह खुद मानव विकास का लक्ष्य अथवा मानव समाज का अंतिम रूप नहीं है.” (आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां)

धर्म को खारिज करना और उसके विरुद्ध अनीश्वरवादियों की नकारात्मक शैली में संघर्ष चलाना गलत है. इसी प्रकार, समाज के आधुनिक समाजवादी रूपांतरण के लिए उसका इस्तेमाल करने की सारी बाते बकवास हैं. पूर्वी यूरोपियन समाजवाद जनता को जीवन की अनिश्चयता से उबारने मे असफल रहा, उन्हें अपने भाग्य का निर्माता खुद होने की चेतना से लैस नहीं कर सका और इसके बदले एक उत्पीड़क व्यवस्था में पतित हो गया. चर्च के अब तक मौजूद असर और शायद उसके पुनरुत्थान का यही मूल कारण है.

मैं यह नहीं कहता कि जरूरत केवल मार्क्सवाद की मूलभूत धारणाओं की सहायता से पूर्वी यूरोप की घटनाओं का विश्लेषण करने भर की है और इन तमाम वर्षों के अनुभव से सीखकर खुद मार्क्सवाद को समृद्ध बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं तो यह कहना चाहता हूं कि ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में अक्सर ऐसा होता है कि मानवजाति अपने प्रारंभिक क्रांतिकारी चिंतन के मूलभूत सिद्धांतों की पुनः खोज करती है और तब उनमें सुधार करती है. मुझे यकीन है कि समाजवादी चिंतन जल्दी ही पुनर्जागरण के एक नए दौर से गुजरेगा और वह निस्संदेह मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों के पुनरुद्धार पर आधारित होगा.

जब हम मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों की बात कहते हैं तो इसका मतलब चंद किताबों को पढ़ना और कुछ मुख्य सूत्रों को रट जाना नहीं समझना चाहिए. अध्ययन के प्रति अपने रुख का निर्धारण सबसे महत्वपूर्ण सवाल है और इसी पर हमारे समूची अभियान की सफलता-असफलता निर्भर करती है.

मैंने देखा है कि कुछ लोगों के पास चंद सवालों पर अपने खुद के विचार हैं और वे मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन महज अपने उन विचारों को परिपुष्ट करने के लिए करते हैं. शायद किसी विचार के समर्थन में उपयुक्त उद्धरण सर्वदा की ढूंढ़े जा सकते हैं. हम मार्क्सवाद की चर्चा तो अपनी कार्यवाहियों के मार्गदर्शक के रूप में करते हैं, लेकिन असल में उसे अपने विचारों और अपनी कार्यवाहियों की दुम बना देते हैं. मुझे लगता है अध्ययन करते समय हमें अपने स्वाभाविक, स्वतःस्फूर्त विचारों के आमतौर पर प्रकृति में निम्न-पूंजीवादी होने के परिप्रेक्ष से शुरू करना चाहिए. ऐसा इसलिए कि पूंजीवादी निम्न-पूंजीबादी विचार समाज में हावी हैं, और हमारा विश्व दृष्टिकोण, मजदूर कामरेडों के विचारों समेत, उनसे बड़ी गहराई से प्रभावित रहेगा ही. मार्क्सवाद का अध्ययन स्वयं अपने ही विरुद्ध, मानसिक संघर्ष की एक प्रक्रिया के जरिए करना चाहिए तथा अपने खुद के विश्व-दृष्टिकोण का रूपांतरण करने के लिए सचेत प्रयत्न के बतौर करना चाहिए. माओ ने चीन के संबंध में कहा था कि कई कामरेड ऐसे हैं जो पार्टी में संगठनात्मक रूप से शामिल हुए हैं, विचारधारात्मक तौर पर नहीं. हमारे मामले में तो मैं इसे और अधिक सच पाता हूं. हमारे कई कामरेड ऐसे हैं जिनका शरीर कम्युनिस्ट पार्टी में है और जिनकी आत्मा क्रांति के प्रति समर्पित है, लेकिन उनका दिमाग उदारवादी-पूंजीवादी विचारजगत की सीमाओं में ही निवास करता है.

मैं कुछ उदाहरणों का वर्णन करते हुए इसे स्पष्ट करूंगा.

मैंने कई कामरेडों को पाया है कि वे पूंजीवादी प्रचार के झांसे में आ गए हैं आर उन्होंने सरकार की इस या उस घोषणा के प्रति भ्रम पालना शुरू कर दिया है, जैसे कि गरीबी दूर करने आदि की घोषणाओं के बारे में उदारवादी लोग प्रचार करते रहे हैं कि यह केवल इच्छा का प्रश्न है, सुधार की राजनीतिक इच्छा का प्रश्न है, इत्यादि.

आइए, हम देखें कि इस सवाल पर मार्क्सवाद का क्या रुख है?

मार्क्स ने कहा था, “एक समय कन्वेंशन को गरीबी उन्मूलन का आदेश जारी करने की हिम्मत हुई, निस्संदेह ‘फौरन’ नहीं, ... बल्कि जनसुरक्षा कमेटी को आवश्यक योजनाएं व प्रस्ताव तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपने का बाद ... कन्वेंशन के इस अध्यादेश का नतीजा क्या निकला? केवल यही कि दुनिया में एक और अध्यादेश बन गया और एक साल बाद कन्वेंशन को भुखमरों ने घेर लिया.”

“तथापि कन्वेंशन महत्तम राजनीतिक ऊर्जा, शक्ति और समझ का प्रतिनिधि था.”

“दुनिया की कोई भी सरकार गरीबी के बारे में, पहले अपने अफसरों से सलाह-मशविरा किए बगैर, तत्काल कोई कानून बनाने में कभी समर्थ नहीं हुई है. ... अगर गरीबी से राज्यों का कोई मतलब रहा भी है तो वह केवल प्रशासकीय और खैराती उपायों के स्तर तक ही रहा है अथवा इस स्तर के नीचे ही रह गया है.”

“राज्य क्या किसी अन्य तरीके से काम कर सकता है? राज्य सामाजिक खामियों के कारण की तलाश खुद राज्य और सामाजिक संस्थाओं के अंदर कभी नहीं करेगा! ... जहां राजनीतिक पार्टियों का अस्तित्व होता है, वहां हर पार्टी इन बुराइयों का स्रोत इस तथ्य में खोजती है कि राज्य की बागडोर उसके बदले विरोधी पार्टी के हाथों में है, यहां तक कि परिवर्तनवादी और क्रांतिकारी राजनीतिज्ञ भी बुराई की जड़ राज्य की प्रकृति में नहीं, अपितु राज्य के किसी विशेष स्वरूप में तलाशते हैं, जिसके बदले में वे किसी दूसरे स्वरूप के राज्य की स्थापना करना चाहते हैं.”

“राज्य और समाज का ढांचा, राजनीति के दृष्टिकोण से दो भिन्न वस्तुएं नहीं है. राज्य समाज का ढांचा है. राज्य जहां तक सामाजिक बुराइयों के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह उनका श्रेय प्राकृतिक नियमों को देता है जिनके विरुद्ध मनुष्य की कोई सत्ता काम नहीं आ सकती, अथवा निजी जीवन को देता है जो कि राज्य से स्वतंत्र है अथवा प्रशासनिक कंपनियों को जो कि उसके मातहत है. इस प्रकार इंगलैंड में गरीबी की व्याख्या हमेशा प्राकृतिक नियम के द्वारा की गई है जिसके अनुसार आबादी हमेशा जीविकोपार्जन के उपलब्ध साधनों से बढ़ जाती है. एक अन्य नजरिये से, इंगलैंड गरीबी की व्याख्या गरीबों के बुरे मनोभाव के नतीजे के रूप में करता है, ठीक वैसे ही जैसे कि प्रशा का राजा उसकी व्याख्या अमीरों के गैर-इसाई मनोभाव के तौर पर करता है, और जैसे कि कन्वेंशन उसकी व्याख्या संपत्ति मालिकों के संदेहास्पद, प्रतिक्रांतिकारी दृष्टिकोण के तौर पर करता है. लिहाजा, इंगलैंड गरीबों पर जुर्माने कसता है, प्रशा का राजा अमीरों को झिड़कियां देता है और कन्वेंशन संपत्ति मालिकों का सिर कलम करता है.”

“आखिरी सहारे के तौर पर प्रत्येक राज्य इसका कारण प्रशासन के आकस्मिक अथवा इच्छाकृत पहलुओं में तलाशता है. लिहाजा, इन बुराइयों को दूर करने के लिए वह प्रशासनिक सुधार चाहता है. ऐसा क्यों? केवल इसलिए कि प्रशासन खुद राज्य की संगठनात्मक गतिविधि है.”

“एक ओर प्रशासन के उद्देश्यों और सद्भावनाओं और दूसरी ओर उसके साधनों और स्रोतों के बीच का अंतर्विरोधराज्य खुद अपने-आपको मिटाए बगैर हल नहीं कर सकता, क्योंकि वह खुद इसी अंतर्विरोधपर जिंदा है. राज्य का निर्माण सार्वजनिक और निजी जीवन के बीच के अंतरविरोध, आम और खास हितों के बीच के अंतर्विरोधपर ही किया गया है. अतः प्रशासन को अपने-आपको औपचारिक और नकारात्मक गतिविधियों के एक दायरे में कैद रखना पड़ता है, क्योंकि जहां नागरिक जीवन और उसका कार्य प्रारंभ होता है, वहीं उसकी सत्ता खत्म हो जाती है. नागरिक समाज के जीवन और निजी संपत्ति, व्यापार और उद्योग के, तथा नागरिक समाज के विभिन्न ग्रुपों द्वारा एक दूसरे का शोषण करने के असामाजिक चरित्र के नतीजों के सामने नपुंसकता का प्रदर्शन प्रशासन का प्राकृतिक नियम है.” (आर्थिक नोट बुक)

कुछ ही दिन हुए मैं एक कामरेड के साथ चर्चा कर रहा था जो महसूस करते थे कि समाज के वर्गों में विभाजन, वर्ग संघर्ष की अवधारणा निराधार लगती है. फिर मार्क्स ने सर्वहारा नेतृत्व आदि की बात कही है, मगर आप देखते हैं कि मजदूर सबसे ज्यादा अनुदार नजर आते हैं और अपने आर्थिक हितों से आगे कुछ नहीं देखते. ये कामरेड समाज को वर्गों में विभाजित करने का और वर्ग संघर्ष का आविष्कार करने का श्रेय मार्क्स को देने के मामले में गलती पर हैं. मार्क्स ने खुद कहा है, “आधुनिक समाज में वर्गों के अस्तित्व का आविष्कार करने अथवा उनके बीच होनेवाले संघर्ष का पता लगाने का कोई श्रेय मुझे नहीं है. मुझसे बहुत पहले पूंजीवादी इतिहासकारों ने वर्गों के बीच होनेवाले इस संघर्ष के ऐतिहासिक विकास का वर्णन किया था और पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों ने वर्गों की आर्थिक चीर-फाड़ भी की थी.” (वेडमेयर के नाम मार्क्स की चिच्ठी, मार्च 1852).

दरअसल, मार्क्स को उस वर्ग का पता लगाने का श्रेय है जो अंततः खुद अपने समेत तमाम वर्गों को निर्मूल कर देगा. वह वर्ग सर्वहारा है जो इन उद्देश्यों को पूरा करने की वस्तुगत स्थिति में रहनेवाला एकमात्र वर्ग है. मार्क्स ने आगे कहा है, “अगर समाजवादी लेखक इस विश्वव्यापी ऐतिहासिक भूमिका का श्रेय सर्वहारा को देते हैं तो ऐसा हरगिज इसलिए नहीं ... कि वे सर्वहारा को भगवान समझते हैं. इसके विपरीत, पूर्णतः विकसित सर्वहारा से प्रत्येक मानवीय वस्तु ले ली जाती है यहां तक कि मानवता की पहचान भी ... जानने की बात यह नहीं है कि किसी खास घड़ी में  कोई खास सर्वहारा अथवा यहां तक कि सम्पूर्ण सर्वहारा अपने उद्देश्यों के बारे में क्या समझ रखता है. जानने का सवाल तो यह है कि सर्वहारा क्या है और अपनी प्रकृति के अनुसार इसे क्या ऐतिहासिक भूमिका निभानी होगी.” (पवित्र परिवार)

मैंने पाया कि एक कामरेड जिनकी पार्टी व क्रांति के प्रति निष्ठा और ईमानदारी पर संदेह नहीं किया जा सकता है, “शांतिपूर्ण और सभ्य” साम्राज्यवाद की गोर्बाचेनव परिकल्पना से बुरी तरह प्रभावित हैं. ये कामरेड यह नहीं समझ सके कि वे तीसरी दुनिया के एक देश के निवासी हैं, एक ऐसे देश के निवासी हैं जिसका राष्ट्र के रूप में वाह्य अंतर्विरोधसाम्राज्यवाद के साथ है. ऐसा कोई भी सिद्धांत, जो इस अंतर्विरोधको घटाने की वकालत करता है – साम्राज्यवाद के विरुद्ध विकासशील देशों के संघर्ष का पैनापन कम करने की वकालत करता है – हमारे राष्ट्रीय हित के लिए नुकसानदेह है. तीसरी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों, विभिन्न लोकप्रिय आंदोलनों और बहुतेरे राष्ट्रीय नेताओं ने आखिर गोर्बाचेव के नए चिंतन की हां में हां मिलाने से इनकार क्यों कर दिया? क्योंकि वे अपने राष्ट्रीय हितों के सचेत प्रतिनिधि हैं. निस्संदेह, ये कामरेड उदार पूंजीवादी प्रचार के फंदे में फंस गए हैं और वे साम्राज्यवाद व भारतीय राष्ट्र के बीच के अंतर्विरोधके, जो कि हमारे पार्टी कार्यक्रम का एक स्तंभ है, जागरूक प्रतिनिधि नहीं हैं. मैंने कई कामरेडों को पाया कि वे एजीपी और तेलुगु देशम जैसी पार्टियों के तथा शरद जोशी और टिकैत जैसे आंदोलनों के जन-चरित्र के झांसे में आ गए और उन्होंने यहां तक कि उन पार्टियों और आंदोलनों में शामिल हो जाने की अथवा उनके कार्यक्रमों की नकल करने की वकालत की. वे उनकी गिरफ्त में मौजूद जनसमुदाय को और उनके जुझारू रूपों को देखते हैं, मगर उन पार्टियों और आंदोलनों की वर्ग प्रकृति और लक्ष्य के बारे में सब कुछ भूल जाते हैं. यह सचमुच बड़ी विड़ंबना है कि समूचे भारत के वामपंथी और प्रगतिशील हिस्से जहां बिहार के हमारे आंदोलन में एक नई आशा का दर्शन करते हैं, प्रथमतः इसलिए कि यह ग्रामीण क्षेत्र के सर्वाधिक उत्पीड़ित और सर्वाधिक क्रांतिकारी वर्गों पर आधारित है, और क्योंकि इसके जनचरित्र और जुझारूपन को सचेत ढंग से क्रांतिकारी जनवाद के निश्चित राजनीतिक लक्ष्य की दिशा में मोड़ रखा गया है, वहीं हमारे अपने कामरेडों का एक हिस्सा हमारे अपने आंदोलन की खिल्ली उड़ाता है तथा पराए वर्गों के नेतृत्व में चल रहे आंदोलनों के बारे में भ्रम फैलाता है, जबकि ये आंदोलन गैर-पार्टी, अराजनीतिक अराजकतावाद की पैरवी करते हैं अथवा व्यवस्था में केवल चंद आंशिक व राजनीतिक सुधारों की वकालत करते हैं.

इनमें से कुछ कामरेडों ने जनता सरकार का समर्थन करने की पैरवी की. वे तो चाहते थे कि हम सरकार में भी शामिल हो जाएं. वे जनता सरकार के जनवादी आडंबर से और ग्रामीण क्षेत्र पर उसके जोर देने आदि से बड़ी गहराई से प्रभावित थे. वे महसूस करते थे कि सामंती अवशेष आदि के विरुद्ध संघर्ष जनता दल की तरह की सरकार के जरिए भलीभांति पूरे किए जा सकते हैं और हमारे लिए केवल एक दबाव डालनेवाले ग्रुप की भूमिका निभाना ही यथेष्ट है. यह सिद्धांत यहीं नहीं रुका और उसने अपने अगले तार्किक विकास में ग्रामीण गरीबों और उनके जुझारू जनआंदोलनों पर हमारे द्वारा जोर डाले जाने पर भी सवाल खड़ा किया. यह सिद्धांत खुद कम्युनिस्ट पार्टी के निषेध पर, और शांतिपूर्ण संसदीय रास्ते पर आगे बढ़ने वाले तथा मूलतः जनता दल और सामाजिक जनवादी ढांचे की वकालत करने पर जाकर खत्म हुआ. वे नक्सलबाड़ी आंदोलन का मजाक उड़ाने की हद तक आगे बढ़ गये और उन्होंने वामपंथ की स्वतंत्र दावेदारी और क्रांतिकारी जनवाद के विचारों की खिल्ली उड़ाई.

वस्तुतः ये कामरेड मार्क्सवादी वर्ग रुख को सख्ती के साथ पकड़ पाने में असफल रहे. कम्युनिस्ट पार्टी ग्रामीण क्षेत्रों में केवल ग्रामीण गरीबों पर आधारित हो सकती है और मध्यम किसानों को जीतने का प्रयत्न कर सकती है. जनता दल सरकार आदि के बारे में हमारा रुख केवल इसी वर्ग स्थिति से तय किया जाना चाहिए. ग्रामीण क्षेत्र में जनता दल के सामाजिक आधार का नेतृत्व मूलतः कुलकों के हाथों में है और ग्रामीण गरीबों के साथ उनका तीखा अंतर्विरोधहै. दरअसल, ग्रामीण भारत में यही मुख्य विकासमान अंतर्विरोधहै. चूंकि हम ग्रामीण गरीबों पर आधारित हैं और चूंकि हम प्राथमिक तौर पर उनके ही हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए जनता दल सरकार के साथ हमारा संबंध प्राथमिक तौर पर संघर्ष का ही हो सकता है. अब यह सच है कि मध्यम किसान भी इस कुलक खेमे का अनुसरण करते हैं और इसी कारण वे जनता दल जैसी पार्टियों के आधार बने हुए हैं. चूंकि हमें इस मध्यम किसान वर्ग को जीतना है, उनको धीरे-धीरे कुलकों की गिरफ्त से हटाना है और ग्रामीण गरीबों के संश्रयकारियों में बदल देना है, इसलिए हमें जनता दल के साथ किसी न किसी प्रकार के समागम में जाना ही होगा; और उसके चलते उनके साथ हमारा संबंध एकता और संघर्ष का एक जटिल मामला बन जाता है, जहां संघर्ष निस्संदेह मुख्य भूमिका निभाता है. वर्ग स्तर की उन वस्तुगत सच्चाइयों को हमने जनता दल के साथ अपने राजनीतिक संबंध में, उसकी सरकार के प्रति अपने रुख में, प्रतिबिंबित करने का प्रयत्न किया है. चूंकि सीपीआई और सीपीएम ग्रामीण गरीबों और उभरते कुलक खेमे के बीच के अंतर्विरोधसे इनकार करते हैं अथवा उसे कम करके आंकते हैं, जो कि उनके द्वारा हमारे आंदोलन को मजदूरों और ‘किसानों’ के बीच का संघर्ष बतलाकर निंदा करने में सर्वाधिक सुस्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है – इसलिए वे ग्रामीण क्षेत्र में वर्ग शांति की वकालत करते हैं और कुलक खेमे के साथ मेलजोल कायम करते हैं. जनता दल सरकार, तेलुगु देशम सरकार और डीएमके सरकार को उनके द्वारा दिया गया बिना शर्त समर्थन उनके वर्ग रुख के साथ पूरी तरह मेल खाता है. आमतौर पर कहा जाए तो मौजूदा वस्तुगत परिस्थितियों में मध्यम किसान कुलक खेमे का अनुसरण कर रहा है और वह या तो मध्यवर्ती राजनीतिक पार्टियों के पीछे अथवा टिकैत और शरद जोशी जैसे अपने “स्वाभाविक नेताओं” के पीछे गोलबंद हो रहा है. इसलिए वामपंथ की ओर उनका झुकना कुलकों के साथ उनके अंतर्विरोधके तीखा होने पर निर्भर करता है. बिहार के हाल के अनुभव यह दिखलाते हैं कि हम एक हद तक अपना आधार मध्यम किसानों के कुछ हिस्सों के बीच फैलाने में सफल हुए हैं. इस संबंध में हमारे लिए अपनी नीतियों और रुख में सुधार कर लेना निस्संदेह जरूरी है. लेकिन यह समूची प्रक्रिया धीमी प्रक्रिया ही होगी और हमें अपने प्रत्यक्ष प्रयत्न के साथ-साथ जहां कहीं संभव हो, यत्र-तत्र उभरने वाले किसान संगठनों के साथ संयुक्त मोर्चा कार्यवाहियों का सहारा लेना होगा. अगर मार्क्सवादी वर्ग रुख और जमीनी सच्चाई से मुहं मोड़ लिया गया और तेज एवं शार्टकट प्रक्रिया के हित में अगर कोई कम्युनिस्ट टिकैत अथवा शरद जोशी की नकल करने की महज खामखयाली करता रहा, तो मुझे डर है कि वह न केवल अपने इस प्रयत्न में बुरी तरह मुंह की खाएगा, बल्कि इक प्रक्रिया में वह ग्रामीण गरीबों के बीच अपना सामाजिक आधार भी गंवा बैठेगा. राजनीतिक तौर पर भी वह पूंजीवादी और सामाजिक जनवादी पार्टियों का दुमछल्ला बन जाएगा. कुछ लोग जो ऐसी ही लाइनों की वकालत करते हुए हमारी पार्टी से बाहर चले गए, वे इस हद तक पतित हो भी चुके हैं.

ऐसे तमाम कामरेड, हम जिन वर्गहितों का पक्षापोषण करते हैं, उसके जागरूक प्रतिनिधि के बतौर विकसित होने में असफल रहे हैं और वे उदार पूंजीपतियों और सामाजिक जनवादियों के धोखाधड़ी भरे प्रचार के शिकार बन गए हैं.

हमारी पार्टी में एक महिला कामरेड थीं. वे महिलाओं के सवाल पर काफी सक्रिय, काफी संभावनामय और ईमानदार कामरेड थीं और हम उन्हें एक महिला नेता के रूप में विकसित करना चाहते थे. मगर विचारजगत में उनका आधा वक्त प्रेम की आजादी की समस्याओं पर चर्चा करने में ही जाया हो जाता था. उन्होंने नारीवाद के चरम रूप की वकालत करने वाले निम्न-पूंजीवादी महिला संगठनों के साथ गाढ़ी दोस्ती कायम कर ली. हमने उनके सामने यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि ये तमाम नारीवादी महिला आंदोलन मुट्ठी भर अल्पसंख्यक महिलाओं के आंदोलन हैं तथा जनवादी आंदोलन के अंदर महिलाओं को झोंककर वे वस्तुगत तौर पर फूटपरस्त भूमिका ही निभा रहे हैं. हमने उन्हें बतलाया कि जब हजारों मेहनतकश महिलाएं जोश-खरोश के साथ और सक्रियतापूर्वक हमारी पार्टी के नेतृत्व में चल रहे जनवादी आंदोलन की मुख्य धारा में शामिल होती हैं तो यह स्वतः इस बात का सबूत है कि महिला मुक्ति का सवाल हमारे आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पहलू है और हमारा आंदोलन इसके बदले में महिलाओं पर मुक्तिकारी प्रभाव डाल रहा है. जब बिहार में 50000 की रैली में एक तिहाई से अधिक महिलाएं शामिल होती हैं तो कहने की जरूरत नहीं रह जाती है कि जन-आधारित महिला आंदोलन की बुनियाद को व्यापक जनवादी आंदोलन के अंतर्गत ही तलाशना चाहिए. हां, यह छानबीन करने की जरूर आवश्यकता है कि यह आंदोलन निचले स्तर पर महिला हितों को ठीक किस प्रकार प्रतिबिंबित और उनका ठीक किस प्रकार प्रतिनिधित्व करता है, तथा वह महिलाओं पर किस प्रकार मुक्तिकारी प्रभाव डाल रहा है. आपको इसका अनुसंधान करना चाहिए तथा एक स्वायत्त महिला संगठन विकसित करना चाहिए. “स्वायत्तता” खुद यह स्पष्ट करती है कि आपकी स्वतंत्रता सापेक्ष है और उसका उपभोग आंदोलन के अभिन्न अंग के रूप में ही किया जाना चाहिए. चरम नारीवादी लोग इसके बदले “स्वायत्त महिला आंदोलन” को व्यापक जनवादी आंदोलन के विरुद्ध खड़ा कर देते हैं. हमने संबंधित महिला कमारेड के सामने यह स्पष्ट किया और उन्हें सलाह दी कि वे कुछ समय के लिए उनके दहकते नारीवाद से दूर रहें क्योंकि इससे महिलाओं से उनका अलगाव पैदा होगा तथा इसके बजाय वे महिलाओं की चेतना के स्तर और उनके संगठन की स्थिति को दिमाग में रखते हुए कदम-ब-कदम आगे बढ़ें. क्या यही तमाम कम्युनिस्टों का आम व्यवहार नहीं है? जनसमुदाय से कटने पर हमारे ऊपर आफतों का पहाड़ टूट पड़ता है. जनसमुदाय के साथ-साथ आगे बढ़ने के लिए, चेतना के उनके स्तर को कदम-ब-कदम ऊंचा उठाने के लिए, क्या हम समाज की ऐसी विभिन्न संस्थाओं के साथ तालमेल कायम नहीं करते हैं जिन्हें अंतिम विश्लेषण में हम तोड़ देना चाहते हैं? चुनावों में भागीदारी भी क्या एक तालमेल कायम करना ही नहीं है? तथापि, हमारी सारी व्याख्याएं निरर्थक साबित हुई और मामला इस मोड़ पर जा पहुंचा कि हमें उन महिला कमारेड को पार्टी से निकाल बाहर करना पड़ा, क्योंकि उनके चरम नारीवादी विचार कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद-लेनिनवाद से पूरी तरह असंगत थे.

मैंने अध्ययन के महत्व की चर्चा की, मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांतों के अध्ययन पर जोर दिया और अध्ययन के प्रति सही रुख को रखा. यह दिखलाने के लिए मैंने कतिपय उदाहरण भी रखे कि कैसे कुछ ईमानदार और सच्चे कार्यकर्ता मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी के विरोध में खड़े हो गए, क्योंकि उन्होंने अध्ययन की उपेक्षा की थी और अपने विश्व दृष्टिकोण को बदलने से कत्तई इनकार कर दिया था.

यह रूपांतरण एक लंबी खिंचने वाली प्रक्रिया है. इसलिए अध्ययन को अवश्य ही नियमित मामला बना देना चाहिए. अन्यथा, वैसा फिर हो सकता है जैसा कि उन कमारेडों के साथ हुआ. गलत विचार इकट्ठे होते गए और अंततः उनके लिए अपने-आपको रूपांतरित कर पाना असंभव हो गया.
मेरे एक सहकर्मी ने ठीक ही बतलाया है कि उच्च विचार हमेशा सादा जीवन से और, मैं इसमें जोड़ना चाहूंगा, नम्रता से जुड़ा रहता है.

मुझे उम्मीद है कि उन व्यावहारिक कार्यकर्ताओं को जो काम का दबाव होने के बहाने अक्सर अध्ययन करने से जी चुराते हैं उन नकारात्मक शिक्षकों से सबक सीखना चाहिए. मौजूदा शिक्षा अभियान में हमने शिक्षण का लोकप्रिय तरीका अपनाने की कोशिश की है. वरिष्ठ पार्टी नेताओं ने विभिन्न विषयों पर लोकप्रिय निबंधों की एक श्रृंखला तैयार की है. हमारी केंद्रीय कमेटी की योजना है कि आपकी सलाह और आलोचनाएं प्राप्त होने के बाद उन निबंधों का एक संशोधित संस्करण स्थाई अध्ययन सामग्री के बतौर प्रकाशित किया जाए.

(छठे पार्टी-कांग्रेस की राजनीतिक-संगठनात्मक रिपोर्ट से)

सोवियत संघ के पतन और शीतयुद्ध की समाप्ति के फलस्वरूप एकध्रुवीय विश्व का उदय हुआ. इसका प्रतिबिंब दिखाई दिया खाड़ी युद्ध में, जब तमाम प्रमुख साम्राज्यवादी शक्तियां अमेरिका के इर्द-गिर्द एक महागठबंधन में गोलबंद हो गईं. तथापि, यह महागठबंधन अस्थाई साबित हुआ. जब अमेरिका ने सितंबर 1996 में खाड़ी युद्ध का दूसरा संस्करण आरंभ करना चाहा, तो इस गठबंधन में दरार पड़ गई. रूस ने खुलेआम अमेरिका की आलोचना की, फ्रांस ने अपना प्रतिवाद दर्ज कराया, चीन ने सद्दाम को अभिनंदन भेजा, जापान ने धैर्य रखने की सलाह दी, और यहां तक कि अमेरिका के अरब संश्रयकारी भी विपरीत दिशा में मुड़ गए.

नाटो के विस्तार के मसले पर उनके आंतरिक मतभेद साफ जाहिर हुए हैं. 1991 के बाद से, यानी शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद, फ्रांस और जर्मनी ने अखिल-यूरोपीय सुरक्षा व्यवस्था का विचार पेश किया. अमेरिका को अंदेशा है कि अगर एक बार जर्मनी अकेले या फिर फ्रांस के साथ मिलकर मध्य यूरोप में प्रभुत्व कायम कर लेता है, तो वह यूरेशिया से अमेरिका को बहिष्कृत करने के लिए रूस के साथ किसी समझौते पर पहुंच सकता है. युरोपीय देशों को किसी स्वतंत्र रणनीतिक समझोते में बंधने से रोकने के लिए, अमेरिका ने नाटो का पूरब की ओर विस्तार शुरू किया और वहां किस-किस देश को इसमें शामिल करना है, इसे तय करने में अपने एकतरफा निर्णयों को उन पर थोप दिया. नाटो का पूरब की ओर विस्तार, यूरोप को अमेरिका के साथ बांधे रखने और अमेरिका के एकध्रुवीय प्रभुत्व को कायम रखने का एक महत्वपूर्ण उपाय है. नाटो के इस विस्तार के खिलाफ रहते हुए भी मास्को को इस पर राजी होना पड़ा, क्योंकि बदले में उसे आर्थिक सुविधाएं मिली हैं और एक नाटो-रूस संयुक्त स्थाई परिषद का भी निर्माण किया गया है, जिसमें उसे वीटो अधिकार तो नहीं हासिल है लेकिन नाटो की निर्णय प्रक्रिया में अपना मत रखने की छूट है.

यद्यपि अमेरिका चीन के साथ ‘सकारात्मक अंतःक्रिया’ की बातें करता है, पर व्यवहार में वह चीन पर अंकुश रखने की नीति पर कट्टरता से अमल कर रहा है. चीन यूरोप में नाटो के विस्तार से और अपनी पश्चिमी सीमा को छूनेवाले मध्य एशिया में अमेरिका की बढ़ती रणनीतिक गतिविधियों से गंभीर रूप से चिंतित है. घेरेबंदी को तोड़कर निकलने के लिए अपनी नाभिकीय व पारंपरिक युद्ध क्षमता को सुदृढ़ करने के अलावा, चीन ने रूस से रणनीतिक सहयोग भी तेजी से बढ़ाया है. चीनी और रूसी नेताओं की शीर्ष बैठक के तुरंत बाद जारी संयुक्त विज्ञप्ति में समानता पर आधारित साझीदारी के निर्माण की शपथ ली गई, जिसका उद्देश्य 21वीं सदी में रणनीतिक अंतःक्रिया के जरिए बहुध्रुवीय विश्व का निर्माण करना है. यह विकास इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि पहली बार दो बड़ी शक्तियों ने खुलेआम अमेरिकी प्रभुत्व के खिलाफ सवाल उठाया है, और एक बहुध्रुवीय विश्व की बात उठाई है.

जापान ने अमेरिका के साथ हाल में जो सैनिक संश्रय किया है, उसकी परिधि से ताइवान को बाहर रखने के लिए चीन जापान पर बेइंतहा दबाव डाल रहा है और पूर्व एशियाई नेताओं की एक सभा में चीनी प्रधानमंत्री ने ‘असंगत पश्चिमी व्यवस्था’ के खिलाफ एक ‘नई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था’ के निर्माण की बात कही है. चीनीयों ने बड़े जोर-शोर से राष्ट्रीय मुद्दे को उछाला है तथा विश्व राजनीति में अधिक सक्रिय व मुखर भूमिका निभाना शुरू कर किया है. हांगकांग के एकीकरण ने चीन की आर्थिक शक्ति बढ़ाई है और उसके राष्ट्रीय मुद्दे को मजबूत किया है.

लेनिन ने कहा था कि “कुछ क्षेत्रों का शांतिपूर्ण बंटवारा करने के मकसद से साम्राज्यवादी देशों का संश्रय बंधना पूर्णतः संभव है.” “लेकिन क्या ऐसा संश्रय स्थाई होगा और वह हर किस्म के आपसी विवाद, झगड़ों व संघर्षों को खत्म कर सकेगा?”

“पूंजीवाद में प्रभाव-क्षेत्रों के बंटवारे इत्यादि का एकमात्र कल्पनीय आधार शक्ति का आकलन है और शक्ति तो समान हद तक बदलती नहीं, क्योंकि विभिन्न संस्थानों, ट्रस्टों इत्यादि का समान विकास असंभव है.”

“अतएव, सामान्यतः संश्रय युद्ध के दौरान होने वाली शांति-वार्ताओं के समान हैं. शांतिपूर्ण संश्रय युद्ध का आधार प्रस्तुत करते हैं और युद्ध से ही उपजते हैं, वे एक दूसरे के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकते.”

एकध्रुवीय विश्व, जमाने के साथ कत्तई मेल खाने वाली चीज नहीं है. वस्तुगत प्रक्रिया बहुध्रुवीय विश्व की ओर बढ़ रही है, जहां अमेरिका के अलावा यूरोप और चीन-रूस के ध्रुव, महत्वपूर्ण ध्रुवों के बतौर उभर सकते हैं.

अमेरिका समूची दुनिया पर अपना प्रभुत्व कायम करने पर तुला हुआ है. वह 1960 के दशक से शुरू हुई क्यूबा की आर्थिक नाकेबंदी, ईराक और ईरान के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध, तथा चीन, रूस व जापान पर धौंस-धमकी जमाने जैसी नीतियों पर अमल जारी रखे हुए है. वह यूरोपीय देशों के साथ व्यापार-युद्ध में लिप्त है. और वह भारत समेत कई देशों के अंदरूनी मामलों में टांग अड़ा रहा है. इन कार्यवाहियों के लिए वह अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व व्यापार संस्थाओं तथा संयुक्त राष्ट्र संघ का भी इस्तेमाल करता है, जो हाल में अमेरिकी नीतियों पर अमल करने का औजार बन गया है.

अतः वैश्वीकरण के इस युग में छोटे व दुर्बल देशों के लिए राष्ट्रीय प्रश्न अतिशय महत्वपूर्ण प्रश्न बना हुआ है.

अमेरिकी रणनीति में भारत को चीन के खिलाफ एक संतुलनकारी शक्ति माना जाता है. भारत की वैदेशिक नीति संबंधी प्रतिक्रिया इस सवाल पर बहुत स्पष्ट है. यद्यपि हाल में भारत-चीन संबंध काफी हद तक सुधर गए हैं. पर भारत में एक ऐसी शक्तिशाली अमेरिकापरस्त लाबी मौजूद है, जो चीनी विस्तारवादी साजिशों का हौवा खड़ी करती रहती है, तिब्बत के सवाल पर हो-हल्ला मचाती रहती है और चीन को व्यापार इत्यादि के क्षेत्र में भारत का मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनाकर पेश करती है.

हमने भारत के एनपीटी और सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने का यकीनन स्वागत किया था, क्योंकि एक सार्वभौम देश के बतौर भारत को अपना फैसला खुद करने की स्वतंत्रता रहनी चाहिए, और उसे अमेरिकी निर्देशों के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए. लेकिन दक्षिण एशिया में जो नाभिकीय अस्त्रों की दौड़ गर्म हो रही है, उसका खतरा हमारे सामने मौजूद है. पड़ोसियों के साथ बेहतर संबंध कायम करने के गुजराल सिद्धांत और पाकिस्तान के साथ बातचीत की शुरूआत के बावजूद, कोई ठोस बात उभरने की उम्मीद नहीं है. कश्मीर-विवाद समेत, भारत और पाकिस्तान के बीच पहले से मौजूद तमाम समस्याओं को केवल सहयोग के व्यापक ढांचे में ही हल किया जा सकता है, जिसमें सार्क को एक शक्तिशाली क्षेत्रीय आर्थिक गुट के बतौर विकसित करना और पाकिस्तान के साथ द्विपाक्षिक एनपीटी पर दस्तखत करना शामिल है. बहुध्रुवीय विश्व की प्रक्रिया तीव्र करने के लिए भारत को चीन के साथ रणनीतिक सहयोग की संभावनाओं को भी खोजना चाहिए. लेकिन ऐसा बेहद नामुमकिन है कि भारत का वर्तमान शासक समुदाय, जो पश्चिम से अनगिनत प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बंधनों में बंधा है, इस रास्ते पर चले.

वैश्वीकरण का असर यूरोप में, जहां बेरोजगारी की दर 11 प्रतिशत तक पहुंच गई है (निरपेक्ष रूप से 2 करोड़ लोग बेरोजगार हैं), महसूस किया जाने लगा है. बेरोजगारी का यह आंकड़ा दूसरे विश्व युद्ध से पहले आई महामंदी के साथ तुलनीय है. इससे सबसे ज्यादा प्रभावित देश फ्रांस है, जहां बेरोजगारी की दर 12 प्रतिशत तक पहुंच गई है. इसके साथ ही सामाजिक कल्याण-कार्यों में भारी कटौती ने मिलकर फ्रांस में प्रतिवाद और हड़तालों की लहर को जन्म दिया है.

फ्रांस के चुनाव में वामपंथ की विजय अथवा कई अन्य पश्चिम यूरोपीय देशों में शासक पार्टियों का चुनाव में हारकर सत्ता से हटना अंतर्वस्तु में उदारीकरण और वैश्वीकरण के खिलाफ प्रतिक्रिया है. फ्रांस में हाल में समाजवादी संश्रय की विजय शायद सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है. यह अर्थतंत्र को थैचरवादी रास्ते पर ले जाने की संभावना तथा दक्षिणपंथी आप्रवासन-विरोधी नस्लवादी रूझानों के खिलाफ फ्रांसीसी मजदूर वर्ग के निर्णायक जन प्रतिरोध के फलस्वरूप हासिल हुई है. इसके विपरीत ब्रिटेन में न्यू लेबर की विजय में कोई समाजवादी अथवा सामाजिक-जनवादी पहलू नहीं छिपा हुआ है. दरअसल जिसे नव-रूढ़िवाद कहा जाना चाहिए था, उसको ही भ्रम फैलाने के लिए न्यू लेबर का सुनाम दे दिया गया है. अतः यूरोप में तथाकथित वामपंथी की ओर झुकाव की कोई सुखद धारणा पोसना पूर्णतः गलत है.

यूरोपीय मुद्रा समुदाय का गठन होने और आने वाली 1 जनवरी 1999 से एकल मुद्रा यूरो का प्रचलन होने की घोषणा से मजदूर वर्ग को कोई लाभ होगा, इसकी गुंजाइश नहीं है. इसके विपरीत, एकीकृत यूरोप में अपने लिए प्रतियोगिता की सुविधा हासिल करने के प्रयास में अलग-अलग देश अपने यहां मजदूरों की गर्दन पर कसे फंदे को और सख्त कर रहे हैं. इसी कारण मजदूर वर्ग इस एकीकरण की समूची प्रक्रिया के खिलाफ है और वह बड़े पैमाने पर प्रतिवाद संगठित कर रहा है.

भूतपूर्व सोवियत संघ तथा पूर्व यूरोप के गणतंत्रों के संक्रमणकालीन अर्थतंत्र अपनी संक्रमणकालीन व्यथा-वेदना के शिकार हैं, और खतरा है कि यह एक किस्म के स्थायी लकवेपन में बदल सकती है. तथाकथित नव उदारवाद की सर्वरोगहर औषधि इस संकट को हल करने में बुरी तरह असफल सिद्ध हुई है. इस आर्थिक यथार्थ का राजनीतिक प्रतिबिंब इन देशों में मौजूद नई उत्तर-समाजवादी शासन व्यवस्थाओं के तहत हो रहे जनविक्षोभ हैं. इन देशों में सोवियत कठपुतली शासन-व्यवस्थाओं की जगह आई पश्चिम की कठपुतली सरकारें प्राथमिक तौर पर पतन का शिकार हो चुकी हैं, और कई देशों में भूतपूर्व कम्युनिस्ट, जो जमीन से अपेक्षाकृत ज्यादा गहराई से जुड़े प्रतीत होते हैं, कम्युनिस्ट तगमे के बिना सत्ता में वापस आ गए हैं.

इस साल रूस के करोड़ों क्षुब्ध मजदूरों ने बकाया वेतन और रोजगार हासिल करने तथा सामाजिक सेवाओं की फिर से बहाली के लिए सरकार से फौरी कदम उठाने की मांग पर प्रदर्शन किया. समाजवादी व्यवस्था के पतन के बाद होने वाले वर्ग आंदोलन की इस पहली हलचल के दौरान कोई एक करोड़ मजदूरों ने हड़तालों में भाग लिया.

नव-उदारवाद का संकट एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के एक के बाद दूसरे देशों में जाहिर हो रहा है. इसने खुद नवउदारवादी रूढ़िवाद के धर्मगुरूओं के बीच काफी विक्षोभ पैदा किया है और रिपोर्ट है कि जापान ने स्थूल-आर्थिक (मैक्रो-इकानामिक) स्थायित्व तथा ढांचागत समायोजन के नव-उदारवादी पुलिंदे की उपयोगिता पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है. नव-उदारवादी बहसों में राज्य की भूमिका को पुनर्परिभाषित करना ही इस वर्ष विश्व बैंक द्वारा जारी की गई वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट का केंद्रीय विषय बना – उसे अमेरिका और जापान के बीच इसी विषय पर मतभिन्नता का नतीजा बताया जा रहा है. अब दक्षिण-पूर्व एशिया में हाल के मुद्रा संकट के बाद यह मतभेद तीखा हो गया, और पुख्ता होकर खुले रूप में उभरा है. अब जापान मुद्रा की सट्टेबाजी पर अंकुश लगाने का आह्वान कर रहा है और उसने एशिया के लिए 100 अरब डालर का मुद्रा कोष बनाने का प्रस्ताव पेश किया है. हांगकांग में हाल में हुई अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की बैठक ने जापान के इन प्रस्तावों का कड़ा विरोध किया है, और वह शर्ते आरोपित करने वाला एकल स्रोत बने रहने के स्थिति पर अड़ा हुआ है.

अमेरिका में बेरोजगारी 6 प्रतिशत की दर पर बनी रही, लेकिन इसमें निम्न वेतन वाले सेवा क्षेत्र की नौकरियों का अनुपात बढ़ गया है. रोजगार के अवसर पैदा किए जा रहे हैं, मगर इनमें कई नौकरियां तो अस्थाई हैं, जिनकी न कोई सुरक्षा है और न ही कोई भविष्य. अभी हाल तक जापान को आर्थिक प्रगति का नमूना बताया जाता था. जापानी मजदूरों के ‘सहयोगिता के दृष्टिकोण’ को दिखा-दिखा कर भारतीय पूंजीपति यहां के मजदूरों को उपदेश देने का कोई अवसर नहीं चूकते थे, कि इसी के चलते जापान ने कितने चमत्कार किए हैं. पर अब यह सब अपनी चमक कमोबेश खो चुका है. 1980 के दशक के वे दिन अब लद चुके हैं जब जापानी कंपनियां अप्रतिरोध्य लगती थीं. शेयर बाजार में आई तेजी के सात वर्ष बाद जापान अब गहरे संकट में जा फंसा है. मंदी पर काबू पाने के उसके तमाम प्रयासों का अगर असर हुआ भी तो बस थोड़ा सा, अमेरिका जापान पर लगातार दबाव डाल रहा है कि वह अपने अर्थतंत्र का नियंत्रण ढीला करे और अपने बाजारों को अमेरिकी मालों के लिए खोल दे. उधर जापान राजनीतिक अस्थिरता के दौर में जा घुसा है. वहां कम्युनिस्ट पार्टी ने पिछले चुनावों में अपनी स्थिति को उल्लेखनीय रूप से सुधारा है.

एशियाई ‘शेर’ अर्थतंत्र, जिन्हें बड़ी मशक्कत से विकासशील देशों के लिए माडल के बतौर उछाला गया था, अब संकट के मकड़जाल में फंस चुके हैं. दक्षिण कोरिया की विकास दर धीमी पड़ रही है, और उसका व्यापार संतुलन बिगड़ गया है. दक्षिण कोरिया में 37000 अमेरिकी सैनिकों की तैनाती के खिलाफ छात्रों के प्रतिवाद से देश पहले ही हिल उठा था. अब मजदूर भी सड़कों पर उतर आए हैं. दसियों हजार मजदूरों ने एक नए मजदूर कानून के खिलाफ, जो मालिकों के लिए मजदूरों को बर्खास्त करना आसान बना देता है, सियोल तथा अन्य शहरों की सड़कों पर मार्च किया. थाइलैंड का वैदेशिक ऋण बढ़कर 90 अरब हो गया है. उसका निर्यात घट गया है और चालू खाते में शेष ऋणात्मक हो गया है. इससे थाई मुद्रा बेलगाम गिर रही है, जिसके झटके बड़ी तेजी से दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, इंडोनेशिया और मलयेशिया तक पहुंच गए हैं. थाईलैंड को संकट से छूटकारा दिलाने के लिए मिलने वाले 16 अरब डालर के एक कर्ज की व्यवस्था आखिरकार आइएमएफ ने की. इसमें से एक अरब डालर चीन ने देने का वादा किया है, जो हो, इसके बावजूद समूचा एशियान क्षेत्र आजकल मुद्रा की उथल-पुथल के एक नए दौर की चपेट में आ गया है. अब ‘शेरों’ में थकान के लक्षण स्पष्ट दिखने लगे हैं. आने वाले वर्षों में इन देशों में मजदूर वर्ग की जुझारू कार्यवाहियां अनिवार्यतः तीव्र होंगी.

वास्तव में तीसरी दुनिया के देशों की मुद्रा का पलायन, जो पहली बार मेक्सिको के मुद्रा-पतन के मामले में काफी तीखा हो गया था, अब वैश्वीकरण के युग में तीसरी दुनिया के अर्थतंत्रों को संकट के सामने दुर्बल स्थिति में डाल देने की व्यापक परिघटना बन गया है. कुल मिलाकर, वैश्वीकरण के सात वर्षों में विश्व अर्थतंत्र के विकास का रिकार्ड बिलकुल फीका रहा है – इस अवधि में औसत विकास दर 1970 के दशक से भी कम रही है.

चीनी पहेली

चीनी मुद्रा युवान अकेली ऐसी मुद्रा है, जो पूर्व एशिया में हाल में हुई उथल-पुथल के बीच भी अविचल खड़ी रही. यह तथ्य उसके आर्थिक मूलाधारों की शक्ति को तथा उस वित्तीय मैकेनिज्म को दिखलाता है, जो सटोरियों को कोई मौका ही नहीं देता. चीन का अर्थतंत्र औसतन 10 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से विकसित हो रहा है. चीन का व्यापार-लाभ 16 अरब डालर है, और उसका विदेशी मुद्रा-भंडार 200 अरब डालर की रेखा पार कर चुका है. विदेशी ऋण बेहद कम है. चीन ने विशाल मात्रा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित किया है – उसका लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा विदेश-स्थित चीनी आप्रवासियों से आया है.

यद्यपि राज्य की मिल्कियत में चल रहे उद्यम 17 करोड़ की शहरी श्रमशक्ति में से अधिकांश को रोजगार देते हैं, पर सफल औद्योगिक उत्पाद में उनका हिस्सा जहां सुधार की शुरूआत के वक्त 1978 में लगभग तीन-चौथाई था, अब एक तिहाई से भी नीचे गिर गया है. राज्य की मिल्कियत में चलने वाले उद्यम गहरे संकट में हैं, और ऐसी रिपोर्ट हैं कि लाखों मजदूरो को महीनों तक वेतन नहीं मिलता है. बीमार राजकीय उद्यमों को राजकीय बैंकों द्वारा दी गई विशाल धनराशि की मात्रा पिछले साल 120 अरब डालर तक पहुंच गई थी. तथापि इस ऋण का अधिकांश केवल वेतन चुकाने में खर्च हो गया. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की हाल में हुई कांग्रेस का सर्वप्रधान एजेंडा था राजकीय क्षेत्र में सुधार. वहां पूंजीवादी क्षेत्र लंबे डग भरते हुए आगे बढ़ रहा है, और चीन एक चौहारे पर जा पहुंचा है. ढांचे में, यानी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन रहने, और योजना, वित्त इत्यादि पर राजकीय नियंत्रण रहने पर बाजार को निर्देशित व नियंत्रित किया जा सकता है, और समाजवाद के निर्माण के लिए उसे काम में लगाया जा सकता है. इसे वे समाजवाद की पहली मंजिल कहते हैं, जिसे अगले पचास वर्षों तक जारी रहना है, जब तक चीन मध्यम दर्जे के विकसित पूंजीवादी देशों के समतुल्य प्रति व्यक्ति आय का स्तर न हासिल कर ले. समाजवाद के शास्त्रीय मार्क्सवादी सिद्धांत में हुए इसी संशोधन को चीनी विशेषताओं वाले समाजवाद के निर्माण का तेंग श्याओफिंग का सिद्धांत कहा जाता है. इसकी उत्पत्ति 1950 के दशक से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर चले दो लाइनों के संघर्ष में खोजी जा सकती है.

हम किसी भी देश में, और वह भी एक पिछड़े एशियाई देश में, अकेले अपने बल-बूते पर समाजवाद के निर्माण कार्य में आनेवाली विराट कठिनाइयों को स्वीकार करते हैं.

हम इस पद्धति का भी खंडन करते हैं जिसमें समाजवाद का ऐसा आदर्श कल्पनावादी मॉडल माना जाता है, जिसे कहीं भी और किसी भी समय केवल इच्छाशक्ति के बल पर आरोपित किया जा सकता है, और इस तरह उसके निर्माण पर आमूर्त ढंग से चर्चा की जाती है. इसके बजाय, हम समाजवाद को एक ऐसे समाज के बतौर देखते हैं, जो पूंजीवाद के अंतरविरोधों से वस्तुगत प्रक्रिया के बतौर, इतिहास की स्वाभाविक प्रक्रिया के बतौर उभर रहा है, और इसीलिए भिन्न-भिन्न देशों में तथा भिन्न-भिन्न संदर्भों में अनगिनत रूप अपना रहा है.

फिर भी, समाजवादी बाजार अर्थतंत्र की अनुभूति बेहद विवादास्पद लगती है और फिर इन तथ्यों की रोशनी में कि चीनी अर्थतंत्र बहुलांश में पूंजीवादी बनता जा रहा है. वहां आंचलिक असंतुलन और गरीब-अमीर के बीच विभाजन बढ़ रहे हैं, नवधनाढ्यों का एक समूचा वर्ग उभर रहा है, और भ्रष्टाचार बेतहाशा फैल रहा है, हम चीनी समाजवाद के भविष्य के बारे में गंभीर रूप से चिंतित हुए बिना नहीं रह सकते.

(लोकयुद्ध, 1-15 मार्च 1997)

‘बिल्ली सफेद हो या काली, मुख्य बात यही है कि वह चूहा पकड़ने में सक्षम है या नहीं’ – तेंग श्याओफिंग के इस कथित वक्तव्य के बारे में कहते हैं कि उन्होंने सफेद नहीं पीली बिल्ली कहा था.

तेंग श्याओफिंग अंत तक विवादास्पद व्यक्ति ही बने रहे. उनके निर्देशन में चीन में समाजवाद बना या पूंजीवाद, इस पर बहसें जारी हैं, लेकिन इतना तो तय है कि चीन दुनिया की एक प्रमुख आर्थिक शक्ति बन चुका है. विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले 10-15 वर्षों में चीन में जिस तीव्र गति से आर्थिक विकास हुआ है, वह दुनिया के इतिहास में एक चमत्कार है और कुछ ही वर्षों में चीन दुनिया की दूसरी प्रमुख आर्थिक शक्ति बन जाएगा.

चीनी क्रांति के बाद के दौर में समाजवाद के निर्माण के सवाल पर तेंग और माओ के बीच अंतर्विरोधरहे. तेंग का मानना था कि समाजवाद के दौर में चीन का प्रधान अंतर्विरोधपिछड़ी उत्पादक शक्तियों के तीव्र विकास के बिना उन्नत उत्पादन संबंधों को टिकाया नहीं जा सकता. इस आधार पर ल्यू शाओची के साथ वे इस मत के पोषक बने कि हमें सर्वाधिक जोर उत्पादक शक्तियों के विकास पर देना चाहिए एवं उत्पादन संबंधों को कदम ब कदम उन्नत करना चाहिए.

माओ के नेतृत्व में चीन नवजनवादी क्रांति के बाद तेजी से समाजवादी निर्माण की ओर बढ़ा और साठ का दशक आते-आते वहां समाजवाद का एक मजबूत ढांचा भी खड़ा हो गया. विकास के अगले चरण में पार्टी के अंदर बहसें तेज हो गईं  जिनकी परिणति सांस्कृतिक क्रांति में हुई. सांस्कृतिक क्रांति के दौरान पूंजीवाद के पथिक के रूप में तेंग श्याओफिंग चिह्नित हुए. प्रताड़ित हुए और उन्हें बीजिंग से बहुत दूर एक कारखाने में साधारण मजदूर के रूप में काम करने के लिए भेज दिया गया. तेंग श्याओफिंग ने दो-दो बार आत्मालोचना भी की और यह भी स्वीकार कि माओ का विरोध करके उन्होंने गलती की, वे वाकई पूंजीवाद के पथिक थे.

बहरहाल, पूंजीवाद के लौटने के खतरे को समाप्त करने, समाजवाद की उन्नत चेतना एवं नए समाजवादी मुनष्य का निर्माण करने जैसे जिन महान उद्देश्यों के लिए सांस्कृतिक क्रांति की शुरूआत हुई, वह दस वर्षों में विफल हो गई. सबसे बड़ी विड़ंबना यह रही कि इसका सबसे मुखर प्रवक्ता लिन प्याओ एक षड्यंत्रकारी साबित हुआ जिसने सैनिक विद्रोह के जरिए माओ की हत्या व सत्ता पर कब्जा करने की योजना बनाई थी. लिन प्याओ की साजिश को विफल करने का श्रेय चाओ एनलाई को जाता है, जो सांस्कृतिक क्रांतिकारीयों की नजर में उदारवादी थे. माओ ने फिर तेंग को बुलावा भेजा, लेकिन तेंग की पुनर्वापसी सामयिक ही साबित हुई. चाओ एनलाई की मृत्यु के बाद माओ के नजदीकी चार के गिरोह की तिकड़मों से तेंग फिर अपदस्थ हुए, उनकी पुनर्वापसी माओ की मृत्यु व चार के गिरोह के भंडाफोड़ के बाद फिर हुई और उसके बाद से जीवन के अंतिम दिनों तक वे चीन के सर्वमान्य नेता बने रहे.

उन्होंने समाजवाद के बहुत ही लंबे प्राथमिक दौर का सिद्धांत पेश किया; उत्पादन संबंधों में भारी तब्दीली की, उत्पादक शक्तियों के विकास के वास्ते विदेशी पूंजी व तकनीक के लिए चीन का दरवाजा खोल दिया; ‘पहले कुछ इलाकों को समृद्ध बनने दो’, इस नीति के तहत विशेष आर्थिक इलाके विकसित किए.

उनकी आर्थिक सुधार की नीतियों को पश्चिमी पूंजीवादी दुनिया ने खूब सराहा और यह उम्मीद जाहिर कि आर्थिक सुधार चीन में राजनीतिक सुधार को भी आगे बढ़ाएंगे अर्थात् कम्युनिस्ट पार्टी का एकछत्र शासन खत्म होगा.

इस मामले में तेंग कट्टरपंथी ही साबित हुए. पश्चिमी दुनिया में उनकी तमाम तारीफों के बावजूद बुर्जुआ राजनीतिक सुधारों की मांग कर रहे थ्येन आनमन चौहारे के आंदोलन को बेरहमी के साथ कुचल दिए जाने के सवाल पर तेंग हमेशा पूंजीवादी दुनिया की भर्त्सना के पात्र बने रहे, माओ के विलक्षण नेतृत्व में बने समाजवादी ढांचे की नींव पर ही तेंग ने आधुनिक चीन की इमारत खड़ी की है. कम्युनिस्ट पार्टी के शासन और समाजवाद के लक्ष्य के प्रति अविचलित दोनों व्यक्तित्व ही युगपुरुष थे. फिर भी माओ द्वारा प्रस्तुत यक्ष प्रश्न – ‘समाजवाद जीतेगा या पूंजीवाद’ – इसकी मीमांसा न तो माओ की सांस्कृतिक क्रांति कर पाई और न ही तेंग का समाजवादी आधुनिकीकरण का एजेंडा. 21वीं शताब्दी में भी चीन में यह जद्दोजहद जारी रहेगी.

फिर भी तेंग श्याओफिंग याद किए जाते रहेंगे, अपने जीवन काल में ही दो-दो बार सर्वोच्च नेतृत्व में वापसी के लिए; अपनी मशहूर उक्ति की ‘बिल्ली’ की ही तरह, जिसके बारे में अंग्रेजी मुहावरा है ‘कैट हैज नाइन लाइव्स’.

बीसवीं शताब्दी के इस अंतिम युग पुरुष को समकालीन लोकयुद्ध की श्रद्धांजलि.

(26 दिसंबर 1993, युवा केंद्र कलकत्ता में पश्चिम बंगाल कमेटी की ओर से माओ जन्म शताब्दी के उपलक्ष में आयोजित सेमिनार में दिया गया भाषण.)

माओ त्सेतुंग की जन्मशताब्दी के उपलक्ष में समूचे देश में काफी वाद-विवाद चल रहा है, ढेरों लेख लिखे जा रहे हैं और नाना प्रकार के आयोजन किए जा रहे हैं. माओं में यह नई दिलचस्पी बड़ी उम्मीदें जगा रही है. यहां तक कि जो लोग कल तक यह समझते थे कि पूंजीवाद के गर्भ से एक बार जन्म लेने के बाद समाजवाद फिर पूंजीवाद में वापस नहीं लौट सकता है, वह केवल विकसित समाजवाद और उसके बाद साम्यवाद की ओर ही बढ़ेगा; और जिन्होंने अतंरविरोध के बारे में माओ के अध्ययन की खिल्ली उड़ाई थी, आज वे भी अंतर्विरोधके बारे में माओ के विचारों की जयजयकार कर रहे हैं. निस्संदेह यह बहस, ये वाद-विवाद भारी अहमियत रखते हैं.

बेशक, कुछ लोग माओ और उनके चिंतन का अपने सामाजिक जनवादी प्रयोग के साथ तालमेल बिठाने की चेष्टा करेंगे तो कुछ लोग अपनी भाववादी अराजकतावादी धारणाओं के साथ. मगर, जो भी हो, यह वाद-विवाद, यह बहस ही आखिरकार माओ और उनकी विचारधारा के बारे में एक सुस्पष्ट और सही समझ कायम करने में मदद करेगी. माओ और उनकी विचारधारा के बारे में एक सही धारणा पर पहुंचना जरूरी है, क्योंकि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में माओ और उनकी विचारधारा हमेशा भारी वाद-विवाद का मुद्दा रहा है और इस पर एक सही व एकतावद्ध धारणा पर पहुंचे बगैर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन को अगली मंजिल में नहीं ले जाया जा सकता. इन्हीं कारणों से माओ को, उनकी विचारधारा को लेकर उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर जो बहस और वाद-विवाद शुरू हुआ है उसका मैं स्वागत करता हूं.

सत्तर के दशक की शुरूआत में कलकत्ता की दीवारें एक विलक्षण नारे से भर गई थीं – “चीन के चेयरमैन, हमारे भी चेयरमैन.” हजारों हजार नौजवानों ने इस नारे के क्रांतिकारी अवज्ञा के प्रतीक के बतौर गुंजाया. इस नारे को राष्ट्रीय भावना, देशभक्ति के खिलाफ बताकर इसकी कड़ी आलोचा हुई, कहा जाता है कि खुद माओ ने भी इस नारे से अपनी असहमति जताई थी.

बाद में हमारी पार्टी ने भी वह नारा वापस ले लिया. लेकिन एक सवाल रह ही जाता है – आखिर भारत के हजारों-हजार नौजवानों ने अपना क्रांतिकारी जोश-खरोश इस नारे के जरिए क्यों प्रकट करना पसंद किया? वे किसी से कम देशभक्त नहीं थे, उनकी राष्ट्रवादी भावना किसी से बाल बराबर भी कम नहीं थी. “मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि” का स्वप्न आंखों में लिए हजारों की संख्या में उन्होंने अपने प्राण-न्यौछावर किए थे. फिर भी उन्होंने यह नारा क्यों लगाया? दूसरे शब्दों में कहूं तो चीन के चेयरमैन माओ भला कैसे विश्वक्रांति के नेता में रूपांतरित हो गए?

आखिर वे कैसे तमाम देशों के युवकों के और क्रांतिकारी जनता के स्वजन, उनकी आशा के प्रतीक बन गए? इसे समझने के लिए उस जमाने की ऐतिहासिक परिस्थिति को समझना जरूरी है.

1960 के दशक में सोवियत नेतृत्व ने अचानक कहना शुरू कर दिया – परमाणु बम के आविष्कार के बाद हर चीज बदल गई है. इसलिए अब हर चीज के बारे में नए सिरे से सोचना जरूरी है. साम्राज्यवादियों के पास आज इतनी ताकत है कि वे करोड़ों लोगों का सफाया कर सकते हैं, यहां तक कि समूची धरती का विनाश कर सकते हैं. लिहाजा, अब और वर्ग संघर्ष नहीं, और राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध नहीं, संक्षेप में, ऐसा कुछ भी नहीं जो साम्राज्यवादियों को उकसाए, इसके अतिरिक्त, उन्होंने इस ‘नए युग’ में, परमाणु युग में, मार्क्सवाद की नई परिभाषा गढ़ने का आह्वान किया. सोवियत संघ में आधुनिक संशोधनवाद का इसी तरह उदय हुआ. माओ ने क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की ओर से चुनौती स्वीकार की और घोषणा की कि कोई भी हथियार, चाहे उसकी विनाश क्षमता कितनी भी क्यों न हो, मानव समाज के बुनियादी नियमों को बदल नहीं सकता. विश्व इतिहास की चालक शक्ति जनता और केवल जनता है, परमाणु बम हरगिज नहीं. जब साम्राज्यवादी लोग परमाणु बम का हौवा खड़ा कर समूची दुनिया में क्रांतिकारी संघर्ष को रोक देना चाहते थे, उस समय माओ ने ही यह प्रसिद्ध घोषणा की थी – परमाणु बम केवल कागजी बाघ है. उस मोड़ पर माओ द्वारा कही गई इस साहसिक उक्ति ने हर जगह उत्पीड़ितों के मन में विश्वास जगाया था और उन्हें संघर्ष जारी रखने के लिए आवश्यक प्रेरणा दी थी. माओ ने यह भी कहा था कि एक छोटी ताकत धीरे-धीरे शक्ति संचित कर सकती है और एक बड़ी ताकत को पराजित कर सकती है. इस प्रकार जब संशोधनवाद के प्रभाव से मार्क्सवाद के अस्तित्व पर ही खतरा आ खड़ा हुआ था, उस समय माओ ने दुनिया के लोगों को ढाढ़स बंधाया और इस तरह वे चीन की सीमाओं के परे, एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और समूची दुनिया के क्रांतिकारी आशावाद के, क्रांतिकारी विचारधार के प्रतीक बन गए, उनके एकदम अपने बन गए.

माओ विचारधारा के उदय का भी एक इतिहास है. मार्क्स और एंगेल्स ने सर्वहारा क्रांति का सपना देखा था. उन्हें लगता था कि यह क्रांति विकसित पूंजीवादी देशों से शुरू होगी और उन देशों का विजयी सर्वहारा बाद में उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों की उत्पीड़ित जनता को मुक्त करेगा. लेकिन वस्तुतः क्रांति अपनी सीधी राह पर आगे नहीं बढ़ी. क्रांति पहले रूस में हुई. लेनिन ने भी शुरू में उम्मीद की थी कि रूसी क्रांति पश्चिम यूरोप के देशों में क्रांति की लपटें सुलगा देगी. यह भी नहीं हुआ. इसलिये लेनिन ने रूसी क्रांति और उपनिवेशों व अर्ध-उपनिवेशों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के बीच सजीव संपर्क पर जोर दिया. उन्होंने यह भलीभांति समझा कि क्रांति का केंद्र वस्तुगत रूप से एशिया की ओर मुड़ चुका है. उन्होंने पूरब के कम्युनिस्टों को सलाह दी कि आपको अपनी राह मार्क्सवादी किताबों में शायद ही मिले, बेहतर होगा कि अक्तूबर क्रांति के समृद्ध अनुभव की रोशनी में, कम्युनिज्म के आम सिद्धांतों की रोशनी मे, आप अपनी राह खुद तलाशें.

इस प्रकार माओ विचारधारा का उदय कोई आकस्मिक घटना नहीं थी. चूंकि विश्व क्रांति का केंद्र एशिया की ओर, पूरब की ओर मुड़ गया था, इसलिए वहां से एक नए क्रांतिकारी सिद्धांत का उदय ऐतिहासिक अनिवार्यता बन गई थी – उसका उदय भारत अथवा चीन कहीं से भी हो सकता था. जो हो, उसका उदय चीन से हुआ और माओ इसी ऐतिहासिक जरूरत की उपज थे.

माओ ने चीन में, जो कि एक अर्धऔपनिवेशिक देश था, किसानों में क्रांतिकारी संभावना की तलाश की और क्रांति को पूरा करने के लिए एक लाल सेना का भी निर्माण किया. सर्वहारा के इतिहास में किसानों की यह भूमिका मार्क्सवाद के शस्त्रागार में एक विशिष्ट योगदान थी. राष्ट्रीय चेतना के आधार पर साम्राज्यवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चा का निर्माण माओ का अन्य प्रमुख योगदान था.

माओ को अपनी विचारधारा स्थापित करने के लिए खुद अपनी पार्टी के भीतर और कोमिन्टर्न के खिलाफ भी लड़ना पड़ा है. अंततः उन्होंने एक लंबे संघर्ष के जरिए अपनी लाइन, अपने मतादर्श और अपनी विचाराधारा को स्थापित किया.

माओ स्तालिन की बड़ी इज्जत करते थे. उन्होंने स्तालिन को महान क्रांतिकारी नेता कहा था. लेकिन साथ ही साथ उन्होंने और केवल उन्होंने ही, स्तालिन की गलतियों के विचारधारात्कम स्रोत की तलाश की. जब चारों ओर स्तालिन की निंदा का बाजार गरम था, जब उन्हें यहां तक कि अपराधी करार कर दिया जा रहा था, उस वक्त माओ ने समाजवाद के निर्माण में उनके योगदान को सामने रखा. माओ ने स्तालिन की गलतियों के विचारधारात्मक स्रोत की पहचान करते हुए बेहिचक कहा कि स्तालिन बड़ी मात्रा में अधिभूतवाद के, एकांगीपन के शिकार थे.

चीन में समाजवाद का निर्माण करते समय माओ ने आंखें मूंदकर सोवियत माडल की नकल करने का विरोध किया था. सोवियत पार्टी को सुपर पार्टी के बतौर लाद दिए जाने का, और सर्वोपरि, सोवियत संघ के एक अतिमहाशक्ति बन जाने का विरोध किया था. उन्होंने इस बात पर बार-बार जोर दिया था कि किसी समाजवादी देश को, चाहे वह जितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए, कभी भी अतिमहाशक्ति होने का अहंकार नहीं पालना चाहिए. अन्य देशों के भीतरी मामलों में कभी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और सेना उतारकर अन्य देशों पर कभी कब्जा नहीं करना चाहिए. सोवियत सेना जब समाजवाद की रक्षा करने के बहाने पूर्वी यूरोप से लेकर अफगानिस्तान तक धावे मार रही थी, उस समय माओ ने इस अतिमहाशक्ति सुलभ रुख का दृढ़ता के साथ विरोध किया और कहा कि कोई समाजवादी देश अगर एक अतिमहाशक्ति जैसा आचरण करता है तो वहां की समाजवादी व्यवस्था सच्ची समाजवादी व्यवस्था नहीं रह जाती.

माओ ने न केवल ख्रुश्चेवी संशोधनवाद का ही विरोध किया बल्कि उन्होंने स्तालिन के अधिभूतवाद की भी आलोचना की. हमारी पार्टी मानती है कि माओ विचारधारा की सामग्रिक समझ हासिल करने के लिए इन दोनों पहलुओं को समझना आवश्यक है.

माओ ने यह  बार-बार बतलाया कि पूंजीवाद और समाजवाद के बीच का अंतर्विरोधअभी तक हल नहीं हुआ है. यह संघर्ष लंबे अरसे तक, शायद कई सौ वर्षों तक जारी रहेगा और उस लड़ाई में कौन जीतेगा, इसका फैसला अभी नहीं हुआ है. सोवियत नेतृत्व का कहना था कि समाजवाद सिर्फ विकसित समाजवाद और उसके बाद साम्यवाद की ओर ही विकसित होगा. माओ ने कहा, ऐसा सोचना सही नहीं है. मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धांत के क्षेत्र में यह माओ का एक प्रमुख योगदान है.

उन्होंने यह भी बतलाया था कि ठीक किस प्रकार कोई समाजवादी देश पूंजीवादी देश में पुनःरूपांतरित हो जा सकता है. उनका कहना था कि एक समाजवादी देश में भी वर्ग संघर्ष चलता रहता है और वहां भी एक पूंजीपति वर्ग मौजूद रहता है. यह पूंजीपति वर्ग अपने को कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर ही संगठित करता हैं. पूंजीवाद के पथिक कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय से ही जन्म लेते हैं. बाद में सोवियत संघ में घटी घटनाओं ने इस विश्लेषण को सही ठहराया. समाजवाद से पूंजीवाद में लौट जाने और पूंजीवाद के पथिकों द्वारा पार्टी पर कब्जा कर लेने की बात उन्होंने ठीक जिस प्रकार कही थी रूस में वास्तव में वैसा हुआ. खासकर सोवियत संघ का पतन होने के बाद माओ विचारधारा की ओर बढ़ते आकर्षण का बुनियादी कारण यही है.

विभिन्न समाजवादी देशों के अनुभव का निचोड़ निकाल करके माओ ने सचमुच इस अहम समस्या का समाधान करने की कोशिश की. इसी कोशिश का नतीजा चीनी सांस्कृतिक क्रांति थी. सांस्कृतिक क्रांति असफल हो गई और अंत में उन लोगों ने पार्टी-सत्ता पर कब्जा कर लिया जिन्हें कम्युनिस्ट हरगिज नहीं कहा जा सकता. अंततः 1976 में माओ को सांस्कृतिक क्रांति को रोक देने की घोषणा करनी पड़ी और तेंग श्याओफिंग को वापस लाना पड़ा. प्राथमिक विश्लेषण में सांस्कृतिक क्रांति का लक्ष्य और उद्देश्य पूरा नहीं हो सका. उल्टे, अनेक मामलों में तो उसका उल्टा ही फल निकला.

बहरहाल, ये अनसुलझे सवाल माओ विचारधारा को और आगे ले जाने की शर्तों का निर्माण करते हैं. क्रांति के इतिहास में हर मंजिल में कई प्रश्न हल नहीं हो पाते. फलतः वे मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विकास की भावी शर्त बन जाते हैं. बार-बार विफलताओं के बाद ही सफलता मिलती है. सांस्कृतिक क्रांति पराजित हुई, मगर यह मुख्य बात नहीं है. महत्वपूर्ण बात तो यह है कि माओ ने वास्तविक सवालों को उठाया और उन्हें हल करने की कोशिश की. खतरा सचमुच है; यह साबित हो चुका है. भविष्य में मार्क्सवादी-लेनिनवादियों को इन सवालों को हल करने की कोशिश करते समय माओ की कोशिशों की अंतर्वस्तु पर बड़ी हद तक निर्भर करना होगा.

कई लोग आज माओ का मूल्यांकन कर रहे हैं. निस्संदेह, इसकी जरूरत है. लेकिन मुझे लगता है कि माओ के सामग्रिक मूल्यांकन के बारे में अंतिम तौर पर कुछ कहने का वक्त अभी नहीं आया है. स्तालिन के बारे में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने जो मूल्यांकन किया था उसे दुनिया के मार्क्सवादी-लेनिनवादियों ने मानने से इनकार कर दिया. इसी तरह, माओ के संबंध में चीनी पार्टी द्वारा किए गए मूल्यांकन को मैं आखिरी शब्द नहीं मानता. निस्संदेह, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का मूल्यांकन माओ के सामग्रिक मूल्यांकन का एक अंश है. लेकिन माओ केवल चीन के नहीं थे. लिहाजा, उनका मूल्यांकन समूची दुनिया के मार्क्सवादी-लेनिनवादी करेंगे. इस मूल्यांकन के लिए इतिहास को थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा.

आज जरूरत है माओ विचारधारा की रोशनी में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का मूल्यांकन करने की – उन कारणों पर गौर करने की कि क्यों हम भारतीय क्रांति को आगे बढ़ाने में असफल रहे. अपनी खुद की पार्टी लाइन को सही मानने की कसौटी पर माओ का मूल्यांकन करने के बदले बेहतर होगा कि खुद अपनी पार्टी लाइन को माओ विचारधारा के तराजू पर तौला जाए.

माओ ने कोई गलती नहीं की, बात ऐसी नहीं है. जो क्रांति करने का सपना देखते हैं और क्रांतिकारी संघर्षों के जरिए उसे साकार करने की कोशिश करते हैं वे गलतियां कर ही सकते हैं. हां, जो कभी संघर्ष में उतरते ही नहीं, केवल वे ही यह दावा कर सकते हैं कि उन्होंने कभी कोई गलती नहीं की. मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन प्रत्येक ने गलतियां की थीं. लेकिन उनकी गलतियां महान क्रांतिकारियों की गलतियां थी. यहां तक कि वे अपनी गलतियों के जरिए भी जनता की क्रांतिकारी चेतना को ऊंचा उठाने में सफल हुए. माओ की गलतियों को भी केवल इस नजर से देखना होगा. जिन-जिन लोगों ने हमेशा सही होने का दावा किया है, इतिहास उन्हें भूल चुका है. इतिहास ने मार्क्स को याद रखा है – लासाल अथवा बर्नस्टीन को नहीं. इतिहास ने लेनिन को याद रखा है – प्लेखानोव को नहीं. इतिहास ने माओ को याद रखा है – ल्यू शाओची को नहीं.

1968 मे जब हमने कालेज जीवन में क्रांतिकारी राजनीति शुरू की थी, उस समय हमने कालेज की पत्रिका के संपादकीय में चेयरमैन माओ शब्द का इस्तेमाल किया था. उस समय हम केवल 4-5 लोग थे. प्रतिक्रियावादीयों ने कई विद्यार्थियों को गोलबंद किया और वैनगार्ड नामक हमारी पत्रिका को जला दिया. हमलोगों ने विरोध में नारा लगाया, ‘माओ त्सेतुंग विश्वक्रांति के महान नेता हैं.’ बाद में गिरफ्तार होने पर, साथ में माओ की किताबें रहने के कारण हमें निर्दयतापूर्वक पीटा गया. जेल में माओ की संकलित रचनाएं किसी तरह चोरी-छिपे मंगवाने में मैं सफल रहा. मैं उसे रोज खुद पढ़ता और जेल में बंद अन्य कामरेडों के हितार्थ उसका अनुवाद कर दिया करता. यह उन दिनों मेरा सबसे पसंदीदा कार्य था.

1979 में मैं जब पहाड़ो को पार कर चीन पहुंचा, उस समय वहां माओ को हटाने की प्रक्रिया अभी शुरू ही हुई थी. हमने चीनी क्रांति से संबंधित तमाम महत्वपूर्ण स्थानों की यात्रा की और वहां के प्रवीण किसान कामरेडों तथा अन्य अनेक व्यक्तियों के साथ बातचीत की. उस समय हमें महसूस हुआ था कि चीनी जनता और पार्टी की व्यापक कतारों के मन में माओ पर भारी आस्था और श्रद्धा है और माओ को चीन से कभी भी मिटाया नहीं जा सकता है.

माओ के मृत शरीर के सामने खड़ा होकर उस दिन मैंने अपने-आप से कहा, “चेयरमैन माओ, आप हमेशा हमारे चेयरमैन बने रहेंगे. हां चीन का चेयरमैन होने के नाते नहीं, बल्कि भारतीय क्रांति के हमारे मार्गदर्शक होने के नाते.”

(कामरेड मदन भंडारी को श्रंद्धांजलि, लिबरेशन, जून 1993)

17 मई को अल सुबह पटना में अनेक कामरेडों ने दौड़े-दौड़े आकर मेरी नजर पटना के दैनिकों में छपी एक छोटी सी रपट की ओर आकृष्ट की, जिसमें नेपाल की एक जीप दुर्घटना का जिक्र था, इस दुर्घटना में का. मदन भंडारी और का. जीवराज आश्रित की मौत हो जाने की खबर थी. फोन पर पूछताछ करने के बाद मुझे मालूम हुआ कि का. भंडारी का शव अभी तक बरामद नहीं हो सका है. आशंकाओं में डूबता-उतराता और उनके जिंदा रहने की उम्मीद करीब-करीब छोड़ मैं वाराणसी के लिए रवाना हुआ.

19 मई को मिले संदेश से मेरी रही-सही उम्मीद भी जाती रही और मैं मीटिंग को अधूरा छोड़कर 20 मई की दोपहर काठमांडू के लिए रवाना हुआ. हवाई अड्डे के लाउंज में ही नेपाल के पार्टी नेतृत्व ने मुझे दर्घटना की रहस्यमय परिस्थितियों की जानकारी दी और मैं नेपाल के समकालीन कम्युनिस्ट आंदोलन के इन दोनों महान नेताओं को श्रद्धांजलि अर्पित करने वहां से सीधे दशरथ रंगशाला गया. आंसुओं से तर आंखे लिए लोगों के झुंड के झुंड रात-दिन वहां आते रहे. मैंने दोनों मृत कामरेडों के शोक संतप्त परिवारजनों से भी मुलाकात की.

चंद महीनों पहले ही मैं सीपीएन(यूएमएल) की कांग्रेस में शामिल होने काठमांडू गया था. जब मैं वहां से लौट रहा था उस समय कांग्रेस समापन के चरण में थी और कांग्रेस की कार्यवाहियों में बुरी तरह उलझे रहने के बावजूद वे मुझे बिदाई देने हवाई अड्डे तक आए. यही उनसे मेरी आखिरी मुलाकात थी. मैंने हरगिज यह नहीं सोचा था कि इतनी जल्दी मुझे काठमांडू आना पड़ेगा और सो भी एक ऐसे मौके पर.

इसके पहले, उनके सीपीएन(यूएमएल) के महासचिव निर्वाचित होने के बाद, हम दोनों के बीच पटना में कई दिनों तक बातें हुई थीं. इसके कुछ दिनों बाद उनसे बातें करने का एक और मौका दिल्ली में मिला था, जहां उन्होंने आगे बातें करने के लिए मुझे नेपाल आने का न्यौता दिया था. हमारी दोनों पार्टियों के बीच 1970 के दशक से ही दोस्ती रही है और हमारे बीच केंद्रीय स्तर पर नियमित रूप से बातचीत होती रही है. हमारे बीच आदर्श बिरादराना संबंध रहे हैं और एक-दूसरे के मामलों में कभी कोई दखल दिए बगैर विभिन्न मुद्दों पर अपने विचारों और अनुभवों का आदान-प्रदान किया. हमारी दोनों पार्टियों के विकास का ढांचा कमोबेश एक ही रहा है और जनकार्य के कुछ मामलों में तो वे सचमुच हमसे अग्रगामी साबित हुए.

का. भंडारी स्वयं हमारी पार्टी की कलकत्ता कांग्रेस में आए थे. उन्होंने कांग्रेस के बाद हुई रैली को भी संबोधित किया था. हमारी पार्टी कांग्रेस में अपने भाषण में उन्होंने सुंदर ढंग से पार्टी की भूमिका को पूरी तरह सामने लाने की जरूरत को रखा था. अपने वक्तव्य को उन्होंने यह कहते हुए खत्म किया था कि हम कठिन घड़ियों के दोस्त हैं और हमेशा दोस्त बने रहेंगे. उन्होंने ठीक ही कहा था.

कलकत्ता में रहते समय वे हमारे कामरेडों के बीच अत्यंत लोकप्रिय बन गए थे. उनकी मृत्यु से हमारी पार्टी ने अपना एक महान अंतरराष्ट्रीय मित्र खो दिया.

मैंने उन्हें आत्मविश्वास और मर्यादा व गरिमा की उदात्त भावना से सराबोर पाया.

सीपीएन(यूएमएल) की कांग्रेस में शामिल होने के बाद नेपाल से विदा होने के पूर्व वे मेरे पास आए थे. उनके हाथों में एक अखबार था. उसकी एक रपट में टनकपुर के मुद्दे के बारे में एक भारतीय कम्युनिस्ट नेता की सलाह छपी थी. वे अपनी पार्टी के अंदरूनी मामले में ऐसे खुल्लमखुल्ला हस्तक्षेप के प्रति काफी खफा थे. एक दोस्ताना मुखड़े, एक साहसी व गरिमामय व्यक्तित्व की ये सारी यादें 20 मई की रातभर मेरे दिलो-दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती रहीं.

अगले दिन 21 मई को शवयात्रा थी. चूंकि नेपाल सरकार ने हुतात्मा नेताओं को राष्ट्रीय सम्मान देने का निर्णय किया था इसलिए फौजी बैंड ने शवों को सलामी दी और शवयात्रा की अगुवाई की. अपने जीवन में मैंने किसी की शवयात्रा में इतनी भारी तादाद में लोगों को शरीक होते हुए कभी नहीं देखा था. समाज के हर तबके के लोग चारों ओर से अपने नेताओं के आखिरी दर्शन करने कभी न खत्म होने वाली लरहों की तरह उमड़ आए थे. ऐसा लगता था कि समूचा काठमांडू शहर सड़कों पर आ खड़ा हुआ है. इस मानव-समुद्र को नियंत्रित करना लोहे के चेन चबाना था और मानव श्रृंखला बनाए स्वयंसेवकों को जनता की उमड़ती लहरों को नियंत्रित करने में एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ा रहा था. शवयात्रा के समूचे मार्ग के दोनों ओर हजारों-हजार लोग कतार बांधे खड़े थे. दोनों ओर सड़क के किनारे खड़े भवनों की छतों और छज्जों पर तिल धरने की भी जगह न थी. और वहां से महिलाएं जुलूस पर फूल और पानी बरसा रही थीं. शवदाह स्थल पर पहुंचने में जुलूस को लगभग 4 घंटे लगे. फिलिपींस की कम्युनिस्ट पार्टी के कामरेड एमिल, सीपीआई(एम) के का. सुरजीत, सीपीआई के का. फारूकी, मैं और नेपाली नेता एक ट्रक पर जुलूस के पीछे-पीछे चल रहे थे. का. एमिल की और मेरी पैदल चलने की तैयारी थी, लेकिन वहां जो इंतजाम किया गया था उसके अनुसार हमदोनों को भी ट्रक पर चलना था. एमिल इस इंतजाम का लगातार विरोध कर रहे थे और अंततः हमने का. माधव नेपाल को सूचित कर ट्रक से उतर जाने का फैसला किया. शवयात्रा का अंतिम हिस्सा हमने जुलूसवालों के साथ कदम से कदम मिलाते हुए पैदल पूरा किया.

शवदाह स्थल पर अपने संक्षिप्त वक्तव्य में मैंने कहा कि कुछ वर्ष पूर्व जब नेपाल एक महान ऐतिहासिक मोड़ से गुजर रहा था उस समय कम्युनिस्ट आंदोलन एक ऐसा सिद्धांतकार चाहता था जो मार्क्सवाद क सार्वभौम सच्चाई को नेपाल की ठोस स्थितियों से मिला सके, नेपाल का जनवादी आंदोलन एक ऐसा नेता चाहता था जो सुसंगत जनवाद की पताका को निर्भीकतापूर्वक बुलंद कर सके और नेपाली राष्ट्र एक ऐसा राष्ट्रीय व्यक्तित्व चहता था जो साहस के साथ नेपाल के राष्ट्रीय हितों और आकांक्षाओं की हिमायत कर सके. का. मदन भंडारी के रूप में इन तीनों की संयुक्त रूप से पूर्ति हुई थी और यही उनका अनोखा योगदान था. मैंने मृत कामरेडों को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की और अपनी पार्टी की ओर से उनके शोक संतप्त परिवारों से हार्दिक सहानुभूति जतलाई.

आखिरकार चिता में आग लगाई गई और लपटों ने दोनों नेताओं के पार्थिव शरीर को भस्मीभूत करना शुरू कर दिया. उनकी चिता  की इस राख को नेपाल के विभिन्न हिस्सों में बांटा जाएगा. मैं वहां स्तब्ध खड़ा था, अपनी स्मृतियों में खोया हुआ, और तभी किसी ने मुझे याद दिलाया, “सब कुछ खत्म हो गया कामरेड!” वापसी के समय फिलिपींस के कामरेड ने मुझे कुछ ऐसी ही अन्य शवयात्राओं के संस्मरण सुनाए जिनमें वे अपने देश में शरीक हुए थे – एक्विनो और अपने एक ट्रेड यूनियन नेता की शवयात्राओं के संस्मरण. हममें चर्चा हुई कि किस प्रकार क्रिस हानी और मदन भंडारी ने अपनी मृत्यु से यह साबित कर दिया है कि कम्युनिज्म विश्व की दलित-पीड़ित जनता के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय विचारधारा है.

कलकत्ता रैली के दौरान अपने भाषण में जब का. भंडारी ने भारतीय प्रेस पर खबरें दबा देने और उनको तोड़-मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगाया था तो हमारे कई कामरेडों को लगा था कि बेहतर होता यदि वे प्रेस की आलोचना करने से बचते. जल्दी ही यह देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि भारतीय प्रेस ने सीपीएन(यूएमएल) की ऐतिहासिक कांग्रेस के बारे में चुप्पी साध ली. और अब यह तो भारतीय प्रेस द्वारा खुद अपने मुंह पर ताला लगा लेने की पराकाष्ठा है कि नेपाल में हुई आज तक की सबसे बड़ी शवयात्रा के बारे में उसने पूरी चुप्पी साध ली. मुझे नहीं मालूम कि भारतीय प्रेस कम्युनिस्ट विरोधी पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है अथवा वह उस आदमी से नफरत करता है जो अपने देश के हितों के लिए भारतीय महत्वाकांक्षाओं के खिलाफ खड़ा हुआ था, लेकिन अब मैं भारतीय प्रेस के विरुद्ध का. भंडारी के क्रोध को समझ सकता हूं.

का. भंडारी की यात्रा का अंत हो चुका है. लेकिन यह उनकी पार्टी सीपीएन(यूएमएल) की नई यात्रा की शुरूआत का प्रतीक है और मुझे पूरा विश्वास है कि वह इस धक्के को बर्दाश्त कर लेगी और आने वाले दिनों में इस शोक को अपना बुरा चाहनेवालों की प्रिय आशाओं को चकनाचूर करते हुए अपनी शक्ति में बदल देगी. नए महासचिव का. माधव नेपाल का सर्वसम्मति से निर्वाचित होना इसी का प्रतीक है.

[ नेकपा(एमाले) की ऐतिहासिक कांग्रेस के प्रतिनिधि-सत्र में भाषण. लिबरेशन, अप्रैल 1993 ]

कल जब इस कांग्रेस के डायस से मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठाते हुए एक दस्तावेज पढ़ा जा रहा था तो हमें कई प्रतिनिधियों द्वारा जोरदार प्रतिरोध सुनने को मिला. नेपाल के अपने नौजवान कम्युनिस्ट मित्रों द्वारा ऐसे पराए विचारों के प्रति क्रोध और नफरत के इस जीवंत प्रदर्शन ने मेरे दिल को छू लिया है.

यहां मेरा सरोकार आपकी कांग्रेस के किसी खास दस्तावेज से नहीं है. मैं तो केवल उस प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रहा हूं जिसने समूचे अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन को कष्ट पहुंचाया है. इस विलोपवादी प्रवृत्ति के खिलाफ खुद हमारी पार्टी को भी हाल के वर्षों में अत्यंत संजीदा संघर्ष चलाना पड़ा है. आज प्रत्येक कम्युनिस्ट पार्टी को विलोपवाद की इस प्रवृत्ति के विरुद्ध अवश्य ही निर्मम संघर्ष चलाना चाहिए. उन्हीं कामरेडों द्वारा अन्य दस्तावेजों को महत्व देने के धीरज और सहिष्णुता का परिचय देने से भी मैं प्रभावित हूं. विचारों और रुखों के इस जीवंत समागम के बगैर हम अपने दुश्मनों को नेस्तनाबूद नहीं कर सकते, अपने विचारधारात्मक शत्रुओं को करारा तमाचा नहीं लगा सकते.

बेशक, समाजवाद एक कठिन संकट के दौर में गुजर रहा है और, मेरे कामरेडो, इस संकट की उपेक्षा कर देने अथवा उसे छोटा करके देखने में काम नहीं चलेगा. केवल यह कहने से काम नहीं चलेगा कि मार्क्सवाद में हम यकीन करते हैं, कि मार्क्सवाद अजेय है. सवाल आज की समस्याओं का मार्क्सवादी जवाब ढूंढ़ने का है. सवाल मार्क्सवाद की क्रांतिकारी अंतर्वस्तु को पुनर्जीवित करने का है. मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं जो यह कहते हैं कि कम्युनिज्म के संकट में होने का कारण यह है कि विभिन्न देशों के मजदूर आज बेहतर जीवन जी रहे हैं. जो कम्युनिज्म को दरिद्रता का दर्शन समझ रहे हैं वे दरअसल खुद अपने दर्शन की दरिद्रता ही प्रदर्शित कर रहे हैं. कम्युनिज्म मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ण संतुष्टि की गारंटी करने के लिए भौतिक मालों की प्रचुर उपलब्धता को अपनी पूर्वशर्त मानता है.

वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति, जो आज की दुनिया में अपना जलवा दिखा रही है, सच पूछिए तो कम्युनिज्म की और मानवजाति की अटल अग्रगति के लिए आवश्यक भौतिक परिस्थितियों का निर्माण कर रही है. आटोमेशन के विकास में शारीरिक व मानसिक श्रम के बीच के भेद को मिटाने की ताकत होती है. जमीन तैयार है, हमारा काम तो बस पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों के हाथों में उत्पादन के साधनों का नियंत्रण छीन लेना भर है, ताकि उत्पादक शक्तियां बेरोकटोक विकास कर सकें, उनका बिना किसी विकृति के विकास हो सके.

आज आपने भारी प्रगति की है. दक्षिण एशिया में आपकी कम्युनिस्ट पार्टी ऐसी अकेली कम्युनिस्ट पार्टी है जो अपने देश में सरकार बनाने के इतने करीब हो. हम भारत और एशिया के कम्युनिस्ट, और केवल एशिया के कम्युनिस्ट ही क्यों, समूचा विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन आपकी पार्टी से भारी उम्मीद रखता है. हमें उम्मीद है कि आप एकता और धीरज के साथ अपने लक्ष्य तक जरूर पहंच सकेंगे. इस शानदार सफलता के लिए हमारी सर्वोत्तम शुभकामनाएं, लाल सलाम.