(बनारस में संपन्न छठी पार्टी-कांग्रेस में समापन भाषण)

साथियो,

हमारी छठी पार्टी-कांग्रेस सफलता के साथ समाप्त हो रही है. सबसे पहले मैं ये कहना चाहूंगा कि विदेशों से कम्युनिस्ट पार्टियों के हमारे जो अतिथि साथी यहां आए, उनकी मौजूदगी ने हमारा हौसला बढ़ाया. कम्युनिस्ट आंदोलन हमेशा ही अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन होता है. हमें इस बात की खुशी है कि आज दुनिया के पैमाने पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद की जो विचारधारा है, उसके भिन्न-भिन्न रूप से जो प्रयोग चल रहे हैं, हमारे ये जितने भी विदेशी साथी हैं, उनका प्रतिनिधित्व करते हैं. हमारी पार्टी-कांग्रेस में मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा के जो नए-नए आयाम हैं, प्रयोग हैं, उनकी मौजूदगी हमारे बढ़ते अतर्राष्ट्रीय संबंधों का भी संकेत है, और इस बात का भी संकेत है आज की दुनिया में तमाम कम्युनिस्टों को, चाहे उनके बीच बहुत सारे मतविरोध हों, आपस में मिलना चाहिए, एक दूसरे से सीखना चाहिए.

मैं, पार्टी की नई चुनी गई केंद्रीय कमेटी की ओर से, फिर एक बार अपने विदेशी मेहमानों का स्वागत करता हूं.

साथियो,

पिछले पांच दिनों में हमने तमाम बातों पर बहस की, बहुत सारे ऐसे मुद्दे उभरे, जिनपर हमारे बीच आपसी मतभेद थे. कभी-कभी बहसों में तीखापन भी था. चुनाव हुए, चुनाव में साथियों ने हिस्सेदारी ली. कुछ साथी जीते, कुछ हारे; लेकिन, मैं कहना चाहूंगा कि हमारी पार्टी की हमेशा यह परंपरा रही है कि हम अपने पार्टी अधिवेशनों में खुले तौर पर विचार-विमर्श करते हैं; इस प्रक्रिया में थोड़ी देर के लिए, हो सकता है, कुछ शिकायतें बनती हैं, कुछ मनमुटाव होते हैं, दिलो में कुछ चोट पड़ती है, लेकिन फिर चूंकि हम सब एक ही पार्टी के लोग हैं, हमारा एक ही आदर्श है, हमारी एक ही पार्टी है, हमरा एक ही लक्ष्य है, इसके लिए, हमने यह शपथ ली है कि जरूरत पड़ने पर हम अपना सबकुछ, अपना जीवन तक, इस लक्ष्य के लिए, इस पार्टी के आह्वान पर कुर्बान कर देंगे. जहां यह लक्ष्य है, वहां मैं समझता हूं कि थोड़ी देर के लिए आपस में पैदा हुआ कोई भी मनमुटाव, कोई भी कटुता, स्थाई नहीं हो सकती. इसलिए मुझे पूरा यकीन है, पूरा विश्वास है कि हम जब इस हॉल से बाहर निकलेंगे, तो हम सारे साथी उसी पुरानी गर्मजोशी के साथ, उसी पुरानी चट्टानी एकता के साथ, अपने देश का भविष्य बदलने के लिए, अपने देश को बदलने के संघर्ष में, उसी पुराने जोश-खरोश के साथ, एक साथ कदम मिलाते हुए चलेंगे. हमारी पार्टी की यह परंपरा रही है और आने वाले दिनों में भी हमारी यह परंपरा बरकरार रहेगी.

साथियो,

आपने यह देखा कि 1970 में हमारे देश में हामारी पार्टी का विभाजन हुआ था. तामाम गुट उभरे थे. पिछले पच्चीस वर्षों में दूसरे तमाम गुटों को हमने बिखरते देखा. लगातार उनमें होती हुई टूट-फूट को देखा. लेकिन, हमारी पार्टी भाकपा(माले) में, हमारे संगठन में, 1974 में अपने पुनर्गठन के बाद से आजतक, कोई फूट नहीं पड़ी, हमारी एकता लगातार मजबुत होती चली गई. बहुत से लोगों के लिए यह एक पहेली बनी हुई है. दूसरी तरफ, जब दूसरे तमाम नक्सलवादी संगठन लगातार टूट-फूट का शिकार होते रहे हैं, तब वह कौन-सा जादू है, किस वजह से भाकपा(माले) लिबलेशन  ने पिछले पच्चीस वर्षों में बिना किसी फूट के अपनी एकता को बरकरार रखा है, और खासकर आज के दौर में, जब हम देखते हैं कि सीपीएम, वह सामाजिक जनवादी पार्टी, जिसके साथ भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के नेतृत्व के लिए हमारी प्रतिद्वंद्विता प्रधान बनी हुई है, उसके अंदर भी संकट गहरा रहा है. यहां तक कि कार्यनीतिक लाइन के सवालों पर उसका नेतृत्व विभाजित है, उसके भीतर विभाजन पैदा हो रहा है, ऊपर से नीचे तक इस पार्टी में गुटबंदियां पनप रही हैं. इस लिहाज से, हमारी पार्टी एक खास महत्व ग्रहण कर लेती है.

मैं समझता हूं कि हमारी एकता के पीछे जो बुनियादी कारण है, वह यह कि हमारे देश के कम्युनिस्ट आंदोलन की जो गौरवशाली परंपरा है, उस परंपरा को हमने हमेशा बुलंद रखा है. 1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन से लेकर 1970 के दशक में जो पूरा आंदोलन हुआ, तमाम गलतियों, भटकावों के बावजूद, उस आंदोलन में हमारे क्रांतिकारियों ने अपने देश में क्रांति लाने के लिए जो संघर्ष किया, जो कुर्बानियां दीं, हमने कभी भी अपने उस अतीत को, अपनी उस परंपरा को, अपने उस महान नेतृत्व को, जो का. चारु मजुमदार ने हमें दिया था, उसको कभी नहीं नकारा. अपने अतीत का हम सम्मान करते हैं, अपने अतीत को हमने हमेशा श्रद्धा की नजरों से देखा है, हमने हमेशा अपने शहीदों, अपने नेताओं की मर्यादा का झंडा बुलंद रखा है. लेकिन, साथ ही साथ, हम लगातार अपनी गलतियों से सीखते रहे हैं. हम अपनी गलतियों की खुलेआम आलोचना करते रहे हैं और नए-नए अनुभवों को समाविष्ट करते रहे हैं. अतीत की परंपराओं को बुलंद रखना और वर्तमान की आवश्यकताओं के साथ अपनी लाइन में आवश्यक पुनर्संयोजन करते रहना – मैं समझता हूं कि इन दोनों कार्यभारों को हमारी पार्टी ने सही ढंग से मिलाया है और यही हमारी पार्टी की एकता का असली राज है.

इसके साथ-साथ अपनी पार्टी के पुनर्गठन के समय से, हमने एक पूरी पार्टी व्यवस्था के निर्माण की कोशिश की है. ऊपर से नीचे तक, केंद्रीय कमेटी से लेकर निचले स्तर की कमेटियों तक, हमने पूरी पार्टी व्यवस्था खड़ी की है, एक सामूहिक नेतृत्व का हर स्तर पर हमने विकास किया है और हमने लगातार अपने पार्टी महाधिवेशन आयोजित किये हैं. आवश्यकता पड़ने पर हमने अखिल भारतीय पार्टी-सम्मेलन किए हैं. और इस तरह पूरी पार्टी का जो अनुभव है, उन सबको पार्टी नेतृत्व ने हमेशा समेटा है. यह एक महत्वपूर्ण कारण है. यह जो समग्र पार्टी व्यवस्था है, इसी की यह फसल है कि आज हमारी पार्टी के पास एक सामूहिक नेतृत्व हैं केंद्रीय स्तर पर आज हमारी पार्टी किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं है, किसी व्यक्ति विशेष पर आधारित नहीं है, किसी व्यक्ति विशेष के करिश्मे से नहीं चलती है. हमारी पार्टी में बहुत लंबे प्रयोग के दौरान बहुत सारे अनुभवी साथी उभरे हैं. उनके बीच एक जबर्दस्त एकता बनी है. हमारी पार्टी की केंद्रीय कमेटी चार-पांच-सात गुटों का सम्मिश्रण नहीं है, बल्कि हमारी केंद्रीय कमेटी एक एकीकृत संगठन है, उसमें किसी तरह के किसी गुट का कोई अस्तित्व नहीं है और हमारे पार्टी नेतृत्व में तमाम अनुभवी साथी, जिन्हें पूरी पार्टी कतारों के द्वारा और आम जनता के द्वारा भी लंबे अरसे में विश्वास प्राप्त हुआ है, वे हमारी पार्टी की पॉलिट ब्यूरो का, हमारी पार्टी के सामूहिक नेतृत्व का निर्माण करते रहे हैं. मैं समझता हूं कि यही वह राज है, यही वे चीजें हैं, जिन्होंने इन पच्चीस सालों में हमारी पार्टी की एकता को मजबूत बनाया है, बरकरार रखा है और मैं विश्वास करता हूं कि नव निर्वाचित केंद्रीय कमेटी हमारी इस परंपरा को बुलंद रखेगी, आगे बढ़ाएगी. इस कांग्रेस में पूरे देशभर से आए हुए सात सौ के करीब प्रतिनिधियों ने नई केंद्रीय कमेटी के प्रति जो विश्वास व्यक्त किया है, हमारे ऊपर जो कार्यभार आपने दिया है, हमारे ऊपर जो जिम्मेदारियां आपने सौंपी हैं -- उन जिम्मेवारियों को यह केंद्रीय कमेटी अपनी पूर क्षमता, पूरी योग्यता के साथ निभाएगी और जो तमाम संघर्ष होंगे, जनता के जो संघर्ष हैं, पार्टी के जो संघर्ष हैं, उन तमाम संघर्षों की अगली कतार में हमारी पार्टी की केंद्रीय कमेटी के नेता खड़े रहेंगे. यह मैं आपसे वादा करता हूं.

साथियो,

हम यह मानते हैं कि हमारे सामने बड़ी-बड़ी चुनौतियां हैं, हमारे ऊपर तमाम हमले हुए हैं, इस पार्टी-कांग्रेस में हमने यह फैसला लिया है कि आने वाले दिनों में हमें तमाम चुनौतियों से जूझना है. लेकिन यह वह समय भी है, जो हमारे लिए बहुत संभावनाएं लेकर भी आया है. चुनौतियों और संभावनाओं का यह दौर है; हमें इन चुनौतियों का मुकाबला करना है और इन संभावनाओं का पूरी तरह उपयोग करना है. इस कांग्रेस ने हमें जो जिम्मेवारी दी है कि भारत के वामपंथी आंदोलन पर जो सामाजिक जनवादियों का नेतृत्व है, उन्हें उस नेतृत्व की जगह से किस तरह खदेड़ बाहर किया जाए और कैसे भारत के वामपंथी आंदोलन पर क्रांतिकारियों का नेतृत्व स्थापित किया जाए, यह हमारी समूची पार्टी के सामने जिम्मेवारी है. आज का समय हमारे लिए सबसे बेहतर समय है, क्योंकि सामाजिक जनवादी ताकतें आज आंदोलन के शीर्ष में कहीं खड़ी नहीं हैं क्योंकि वे सरकारी सत्ता का हिस्सा बन चुकी हैं. इसलिए इस सुनहरे मौके को काम में लगाते हुए भारत के वामपंथी आंदोलन पर क्रांतिकारी कम्युनिस्टों का नेतृत्व स्थापित करना चूंकि नक्सलबाड़ी के समय से हमारी ऐतिहासक जिम्मेवारी रही है, इसलिए इसे हमें पूरे जोश-खरोश के साथ पूरा करना है.

इसके साथ-साथ साथियों, हमारे ऊपर तमाम सामंती सेनाओं की जो चुनौती है, वह रणवीर सेना हो या इस प्रकार की दूसरी तमाम सामंती सेनाएं, जो बंदूक के बल पर, हथियारों के बल पर, हत्याओं और जनसंहारों के बल पर यह समझते हैं कि वे हमारी पार्टी का सफाया कर दे सकते हैं – उनकी चुनौती एक बहुत बड़ी चुनौती बनकर हमारे सामने है हमें पूरे आत्मविश्वास के साथ इस चुनौती का मुकाबला करना है. हमें यह समझ लेना चाहिए कि सामंती ताकतों की ये जो कोशिशें हैं, ये उनकी आखिरी सांसें हैं. यह जो मरता हुआ सामंतवाद है, इस सामंतवाद का कोई भविष्य नहीं है. यह मरता हुआ सामंतवाद अपने को आखिरी तौर पर जिंदा रखने के लिए बदहवास होकर इस प्रकार के हमले कर रहा है. यह उसके जीवन का प्रतीक नहीं है, उसकी ताकत का प्रतीक नहीं है बल्कि उसके मरण का प्रतीक है, उसके अंत का प्रतीक है.

साथियो,

हमारे सामने रणवीर सेना जैसी ताकतों की जो चुनौतियां हैं, उनकी जो सशस्त्र चूनौतियां है, उनका जोरदार मुकबला करने का संकल्प इस कांग्रेस ने लिया है. इस कांग्रेस ने यह संकल्प बार-बार दुहराया है कि भाकपा(माले) अपनी तमाम ताकतों को संगठित करते हुए इन ताकतों का मुंहतोड़ जवाब देगी. जिन तमाम तरीकों से इन ताकतों का सफाया किया जा सकता है, खत्म किया जा सकता है, उस किसी भी मामले में हम पीछे नहीं रहेंगे – यह इस कांग्रेस का संकल्प है. हम इन सामंती सेनाओं की चुनौतियों को स्वीकार करते हैं और उन्हें संघर्ष के मैदानों, लड़ाई के मैदानों में, परास्त करके दिखा देंगे. अतीत में भी तमाम निजी सेनाएं उभरी थीं और जनता के प्रतिरोध के सामने एक के बाद एक वे सारी सेनाएं खत्म हो गई. हमें पूरी तरह यकीन करना चाहिए कि इन नई उभरी सेनाओं का भी कोई भविष्य नहीं है और भाकपा(माले) के नेतृत्व में चल रहे जनसंघर्षों के हाथों, जनता के आक्रोश के हाथों इन सेनाओं का भी खात्मा होगा. ये हमारे सामने दूसरी चुनौती है.

तीसरी बात साथियो, इस कांग्रेस ने जो संकल्प लिया है, कि हमें देशव्यापी स्तर पर तमाम लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, मानवाधिकार की ताकतों – इन तमाम ताकतों को हमें एक मंच पर इकट्ठा करना है; एक सही मायने का जो जनवादी मोर्चा है, लोकतांत्रिक मोर्चा है, उसका निर्माण राष्ट्रव्यापी स्तर पर हमें करना है. ऐसा एक लोकतांत्रिक मोर्चा, जो सही अर्थों मे भारतीय क्रांति का जादुई हथियार बन सकता है, ऐसा मोर्चा कोई अन्य दूसरी ताकत नहीं बना सकती, ऐसा मोर्चा सिर्फ भाकपा(माले) ही बना सकती है.

हम ये विश्वास करते हैं कि इस कांग्रेस ने हमारे समाने यह जो तीन कार्यभार रखे हैं – वामपंथी आंदोलन में क्रांतिकारी कम्युनिस्टों का नेतृत्व स्थापित करना, सामंती सेनाओं की चुनौती का कड़े रूप से मुकाबला करना और उन तमाम सेनाओं का सफाया करना और तीसरी बात यह कि अखिल भारतीय स्तर पर हमें जो तमाम लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, मानवाधिकार की, आंचलिक स्वायत्तता की, राष्ट्रीयताओं की, आदिवासियों की और तमाम दलित-पिछड़े समुदायों की, लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए उनके जो तमाम संघर्ष हैं, उन्हें एकसूत्र में पिरोत हुए हमें एक व्यापक जनवादी मोर्चा बनाना है. मैं यह विश्वास करता हूं कि यह कांग्रेस हमें यह शक्ति देगी. इस सिलसिले में मैं यह कहना चाहूंगा कि हमारे इन्हीं कर्तव्यों को पूरा करते हुए हमारे बहुत से साथियों ने अपना जीवन कुर्बान किया है, हमारे सैकड़ों साथियों ने अपनी शहादतें दी हैं.

आइए, हम एक बार फिर संकल्प लें कि हम अपने इन शहीदों को कभी भूलेंगे नहीं. आइए, हम उनके शोक को शक्ति में बदल दें और हम यहां संकल्प लें कि हमारे शहीद अपने दिलों में जो सपने लेकर सो गए, वे सपने हमारी आंखों में आज भी जिंदा हैं. जब तक वे सपने पूरे नहीं होते, तब तक भाकपा(माले) चैन नहीं लेगी. यह संकल्प हमें दुहराना है.

हमारे शहीदों की स्मृति अमर रहे!

इंकलाब जिंदाबाद!

(बनारस में हुई छठी पार्टी-कांग्रेस के उदघाटन भाषण से, लिबरेशन, 1997)

कामरेडो और दोस्तो,

पार्टी की यह छठी कांग्रेस बीसवीं सदी के अंतिम छोर पर आयोजित हो रही है. इस सदी ने विश्वव्यापी ऐतिहासिक महत्व की बड़ी-बड़ी उथल-पुथलभरी घटनाएं देखी हैं : साम्राज्यवाद का उदय, एक-के-बाद एक होने वालो दो विश्वयुद्ध, समाजवाद का उदय और औपनिवेशिक युग का अंत,और अंततः सोवियत व्यवस्था का पतन तथा वैश्वीकरण का आगमन. इस सदी ने विज्ञान और तकनीक में बेसिमाल तरक्की देखी है; मानवजाति ने जहां धरती पर आत्म-विनाश के हथियार पैदा किए वहीं अंतरिक्ष में वह उपनिवेश कायम करने चली; सूचना और मालों के विनिमय में ऐसी नायाब तरक्की हुई कि समूची दुनिया एक विश्व-ग्राम जैसी लगती है.

विराट सामाजिक-आर्थिक रूपांतर की यह प्रक्रिया सर्वोत्तम मानव मस्तिष्कों में प्रतिफलित हुई और परिणामतः इस सदी ने विचारों के बीच और विचारधाराओं के बीच बड़े-बड़े टकराव देखे, महान-महान व्यक्तित्वों को उभरते देखा.

साम्राज्यवाद, जिसका उदय इस सदी के शुरूआती वर्षं मे हुआ था, सदी का मध्य आते-आते अपनी साख खो बैठा और अब सदी के अंतिम वर्षों में वैश्वीकरण का चोला पहनकर अपनी खोई मर्यादा फिर से हासिल करने की कोशिश कर रहा है. अगर पुराने साम्राज्यवाद ने ‘कूपन काटने वालों’ की एक श्रेणी को जन्म दिया था, जो शेयर बाजारों में सट्टेबाजी के जरिए फलते-फूलते थे, तो वैश्वीकरण ने चलमुद्रा (करेन्सी) के सटोरियों की एक समूची श्रेणी को जन्म दिया है, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के बोर्ड में बाइज्जत कुर्सी पर विराजमान हैं. चलमुद्रा के व्यापार में बढ़ोत्तरी ने ‘विश्वमुद्रा’, या फिर जिसे सटीक रूप से ‘काल्पनिक, आभासी मुद्रा’ कहा जाता है, के विशाल भंडार का सृजन किया है, “यह मुद्रा की किसी भी परिभाषा पर खरी नहीं उतरती, न तो यह मात्रा का पैमाना रह गई है, न मूल्य का भंडार और न विनिमय का माध्यम, यह पूरी तरह से बेनामी है. मगर इसकी शक्ति एक यथार्थ है”. यह मुद्रा पूर्णरूपेण गतिशील है, क्योंकि इसका किसी भी आर्थिक कार्यकलाप से कोई लेना-देना नहीं है. इस मुद्रा का परिमाण इतना भीमकाय है कि किसी देश से इसका आवागमन उस देश से होनेवाले वित्तीय, व्यापारिक तथा निवेश संबंधी प्रवाहों से कहीं ज्यादा असरदार होता है. एक बार अगर भारत जैसा कोई राष्ट्रीय अर्थतंत्र, विश्व अर्थतंत्र से पूरी तरह एकरूप हो जाता है, तो उसकी वर्षों की कमाई उपलब्धियां उसकी मुद्रा के प्रवाह से महज चंद हफ्तों में मटियामेट हो सकती हैं.

इस ‘आभासी मुद्रा’ का वर्चस्व पूंजी के उत्पादक कार्यकलाप से पूर्ण विच्छेद का प्रतीक है. यह वर्तमान सार्वदेशिक पूंजीवाद के परजीवी चरित्र को और भी ज्यादा पुख्ता करता है. और इसीलिए, यद्यपि बीसवीं सदी का अंत विश्व समाजवाद के लिए धक्कों के साथ हो रहा है, आने वाली सदी की शुरूआत अनिवार्यतः एक बेहतर विश्व-व्यवस्था, समाजवाद के एक नए संस्करण के लिए नए विचारों, नई शक्तियों और नए आंदोलनों के साथ होगी.

अपने अधूरे सपने और अपूरित लक्ष्य अगली सहस्रब्दी को सौंप कर बीसवीं सदी अब विदा लेने को है. आइए, हम इस कांग्रेस के जरिए अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद की एकताबद्ध, आत्मविश्वास से भरपूर और शक्तिशाली पार्टी के बतौर 21वीं सदी में प्रवेश करें.

हमारी पार्टी की छठी कांग्रेस 1997 में हो रही है. इस साल हमारा देश औपनिवेशिक शासन के जुए से अपनी आजादी की स्वर्णजयंती मना रहा है. लेकिन वह ऐतिहासिक घड़ी, भारतीय जनसमुदाय के लिए स्वतःस्फूर्त रूप से हर्षोंल्लास मनाने का सबब शायद ही बन सकी हो. स्वतंत्रता के 50वी वर्ष में भारत की राजनीतिक प्रभुसत्ता पर महाशक्तियों के शक्तिशाली हमलों का खतरा मंडरा रहा है. आंतरिक तौर पर यह स्वतंत्रता समूचे शासक कुलीन वर्ग के लिए निरपेक्ष सुविधा में बदल चुकी है – यह उनकी लूट-खसोट, भ्रष्टाचार और अपराधीकरण की स्वतंत्रता बन गई है.

पूंजीवादी वर्चस्व की संस्थाएं एक दूसरे के साथ टकराव की स्थिति में हैं : न्यायपालिका राजनीतिक वर्ग के साथ, राजनीतिक वर्ग नौकरशाही के साथ, नौकरशाही राजनीतिक प्राधिकार के साथ, संसद न्यायपालिका के साथ, चुनाव आयोग सरकार के साथ, इत्यादि. ये तमाम संस्थाएं अपने-अपने स्वायत्त दायरों को विस्तारित करने के लिए एक दूसरे के साथ प्रतिद्वंद्विता कर रही हैं, और परिणाम यह है कि हरेक की साख मिट्टी में मिल रही है.

भारत की आजादी की स्वर्ण जयंती इसी सर्वव्यापी अव्यवस्था के माहौल में मनाई जा रही है. देशभर में बुद्धिजीवियों के बीच बहसें छिड़ी हुई हैं और देश की संसद ने राष्ट्रीय एजेंडा तय करने के लिए एक अभूतपूर्व चार-दिवसीय सत्र आयोजित किया. दूसरी आजादी की लड़ाई का आह्वान किया गया. अपराधीकरण, भ्रष्टाचार और अशिक्षा के खिलाफ युद्ध की घोषणाएं भी की गई. लेकिन यह सब महज रस्मी कार्यवाही साबित हुईं, और राष्ट्र उसी तरह दिशाहीन है जैसा पहले था.

भारतीय शासक बर्गों ने उदारीकरण और वैश्वीकरण पर आपस में एक किस्म की राष्ट्रीय सहमति पैदा कर ली है, जिसे केंद्रीय वित्तमंत्री चिदंबरम यह कहकर न्यायोचित ठहराते हैं कि भारतीय जनता उच्चतर कोटि का जीवन-स्तर और चयन का अधिकार मांग रही है. उनके कथनानुसार, “पहले तो चयन का दायरा सिर्फ एंबैसेडर और एंबैसेडर के बीच, इंडियन एयरलाइंस और इंडियन एयरलाइंस के बीच ही सीमित था.” इससे साफ जाहिर होता है कि किस तबके के लोगों के हित उनके दिमाग में हैं, और यही चीज उदारीकरण और वैश्वीकरण की समूची वर्ग-अंतर्वस्तु का भी पर्दाफाश कर देती है.
‘कंप्यूटर चिप्स बनाम आलू चिप्स’ की बहस में जवाब देते हुए जनाब चिदंबरम ने फरमाया कि, “जब तक इससे (किसी भी क्षेत्र में किसी भी रूप में लगी विदेशी पूंजी से) रोजगार के अवसर पैदा हों, आमदनी हो और संपत्ति पैदा होती हो, तब तक सब ठिक है.”

चिदंबरम, जो बहुराष्ट्रीय निगमों और भारतीय पूंजीपति वर्ग के समान रूप से दुलारे हैं, मौजूदा संयुक्त मोर्चा सरकार के आर्थिक दर्शन का ही इजहार कर रहे हैं. यह सरकार उदारीकरण और वैश्वीकरण का प्रमुख पैरोकार बन चुकी है, और इस मामले में यह पिछली राव सरकार से कहीं आगे निकल गई है. इसका न्यूनतम साझा कार्यक्रम रंग-बिरंगे शासक कुलीनों के बीच हुए सर्वमान्य समझौते के अलावा और कुछ नहीं है.

भारत की पहाड़ जैसी बढ़ती समस्याओं के दक्षिणपंथी समाधान की सनक ने कट्टरपंथी शक्तियों का हौसला बढ़ाया है – और यह हकीकत है कि भारत के आकाश पर पहली बार केसरिया खतरे के बादल मंडरा रहे हैं. यहां उत्तर प्रदेश में, जो भारत का स्नायु केंद्र है और सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है, पिछले विधानसभा चुनाव के बाद से राजनीतिक स्थिरता लाने की सारी कोशिशें नाकाम हो रही हैं. अभी कल ही तो बसपा और भाजपा का सिद्धांतविहीन गठजोड़ टूट गया और उत्तर प्रदेश फिर उसी अस्थिरता में डूब गया है. कल्याण सिंह की वापसी का अर्थ अयोध्या का राष्ट्रीय एजेंडे पर वापस आना भी था. इसके अलावा, चित्रकूट का दिखावटी मुद्दा भी इसके साथ जोड़ दिया गया है और स्पष्ट दलित-विरोधी संकेत जारी किए जा रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में भाजपा के दो बार अल्पावधि के शासन ने स्पष्ट रूप से दिखला दिया है कि अगर किसी तरह यह पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ हो जाती है तो यह भारत में बची-खुची धर्मनिरपेक्ष राज्य-व्यवस्था के लिए, जनवादी संस्थाओं, प्रगतिशील आंदोलनों, बौद्धिक, सौंदर्यशास्त्रीय तथा शैक्षणिक आजादी के लिए, ग्रामीण गरीबों के संघर्षों के लिए, दलितों, महिलाओं और धार्मिक व राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की सामाजिक समानता के लिए तथा पड़ोसी देशों के साथ दोस्ताना संबधों के लिए सबसे बड़ा खतरा साबित होगी. भारत पर सांप्रदायिक-फासीवादी ताकतों को काबिज होने से रोकने के लिए तमाम लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष ताकतों के बीच एक लड़ाकू एकता के निर्माण का महत्वपूर्ण कार्यभार हमारे सामने है.

आइए, हम इस कांग्रेस के जरिए राष्ट्रीय मुक्ति और जनता के जनवाद की एकताबद्ध, आत्मविश्वास से भरपूर और शक्तिशाली पार्टी के बतौर उभरें.

यह कांग्रेस नक्सलबाड़ी के महान उभार की तीसवीं बरसी के साल में हो रही है. नक्सलबाड़ी का उभार भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में लंबे अरसे से जड़ जमाए अवसरवाद से एक निर्णायक विच्छेद का प्रतीक था. उसने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के 40 वर्षों बाद पहली बार कृषि क्रांति को फौरी एजेंडे पर ला दिया था. पाशविक राज्य दमन के सामने कई बार ऐसा लगा कि यह आंदोलन ही खत्म हो गया. लेकिन हर बार यह किंवदंती के फिनिक्स पक्षी की तरह, अपनी राख से उठ खड़ा हुआ.

नक्सलबाड़ी जिस किस्म के सामाजिक बदलाव का अग्रदूत थी, उसे 1990 के दशक में एक बड़े किस्म का आवेग हासिल हुआ, जिसने नए सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया है. महान सामाजिक उथल-पुथल की प्रक्रिया के बीच, और इसके परिणामस्वरूप आने वाली राजनीतिक अस्थिरता के चलते, पुराने नारे तेजी से अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं तथा नायक पलक झपकते ही खलनायकों में तब्दील हो रहे हैं.

हमारी आंखों के सामने एक सर्वांगीण संकट विकसित हो रहा है, और हमारा राष्ट्र नए, रैडिकल और गैर-पारंपरिक समाधानों की तलाश कर रहा है, चूंकि कम्युनिस्ट आंदोलन का अवसरवादी पक्ष केंद्र में शासक निजाम का अभिन्न अंग बन चुका है. अतः वामपंथी आंदोलन का नेतृत्व करने की जिम्मेवारी क्रांतिकारी वामपंथ के ही कंधों पर आ गई है. और भारतीय वामपंथी आंदोलन के चालक की गद्दी से सरकारी मार्क्सवादियों को हटाने के लिए अब तक का यही सबसे बेहतर मौका हमारे सामने आया है.

नया अनिवार्य रूप से पुराने को प्रतिस्थापित करता है – यह इतिहास का अटल नियम है. आइए, हम इस कांग्रेस के जरिए सामाजिक न्याय और क्रांतिकारी बदलाव की एकताबद्ध, आत्मविश्वास से भरपूर और शक्तिशाली पार्टी के बतौर उभरने का संकल्प लें.

पिछले पार्टी-कांग्रेस के बाद से ये पांच साल, 1974 में पार्टी के पुनर्गठन के बाद से हमारे पार्टी इतिहास का सबसे रक्तपातमय दौर रहे हैं. सरकार, राज्य की सरपरस्ती पर चल रही भूस्वामियों की निजी सेनाएं, अराजकतावादियों के पूरी तौर पर अपराधी बन गए गिरोह – इन सबके द्वारा हत्याओं की जो झड़ी लगा दी गई, उसके दौरान हमने दो सौ से ज्यादा कार्यकर्ताओं व समर्थकों को खो दिया. इन हमलों में शिशुओं का कत्ल किया गया. महिलाओं से बलात्कार किया गया और उनकी हत्या कर दी गई; पुरुषों को, वे नौजवान हों या बूढ़े, सबसे बर्बर किस्म के मध्ययुगीन तरीके से कत्ल कर दिया गया; होनहार नौजवान कामरेडों को भाषण देते वक्त या आंदोलनों का नेतृत्व करते समय गोली मार दी गई; जनसभाओं में ग्रेनेड फेंके गए, पार्टी कार्यालयों पर हमले हुए और हजारों को जेल की सलाखों के पीछे कैद कर दिया गया – और यह सब भाकपा(माले) के अभियान को रोकने के जी-तोड़ प्रयास में हुआ.

हम न तो अपने वीर शहीदों की स्मृति को भूले हैं, और न हत्यारों की पहचान को. भाकपा(माले) की अग्रगति को कोई भी, दुनिया की कोई ताकत, नहीं रोक सकती. आइए, हम इस कांग्रेस के जरिए शहीदों के सपनों और दुश्मनों के दुःस्वप्न की एकताबद्ध, आत्मविश्वास से भरपूर और शक्तिशाली पार्टी का निर्माण करने का संकल्प लें.

(28 जुलाई, 1972, कामरेड चारु मजुमदार के शहादत दिवस की याद में, समकालीन लोकयुद्ध 16-31 जुलाई 1998)

कामरेड सीए ने संशोधनवादी पार्टी व क्रांतिकारी पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच जो महत्वपूर्ण विभाजन रेखा खींची थी, उसका सार यह था कि जहां पहला ऊपर के निर्देशों के इंतजार में बैठा रहता है, वहीं दूसरा अपनी स्वतंत्र पहलकदमी लेता और ऊपर के निर्देशों को भी सृजनात्मक ढंग से लागू करता है. ऐसा कर पाने के लिए क्रांतिकारी कार्यकर्ता को उद्यमी चरित्र का होना भी आवश्यक है और साथ ही उसकी अपने कार्यक्षेत्र पर, वहां की स्थितियों पर मजबूत पकड़ होनी चाहिए. बिना गहरी सामाजिक जांच-पड़ताल किए आपको बोलने का अधिकार ही नहीं है. हर ऐसी मान्यता, जो व्यवहार के धरातल पर टकरा रही हो, के खिलाफ प्रश्न उठाए बिना, हर परिघटना पर ‘क्यों’ और ‘कैसे’ आदि सवालों के बिना, भला मानव ज्ञान का विकास कैसे संभव है? ‘जीहुजूर’ किस्म के कम्युनिस्ट कार्यकर्ता भला ज्ञान व व्यवहार के क्षेत्र में नई-नई उपलब्धियां कैसे हासिल कर सकते हैं?

कार्यशैली का दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न है कामकाज की केंद्रित शैली. संघर्ष व आंदोलन के दायरे को हमें अविराम ढंग से आगे बढ़ाते चलना है, राष्ट्रीय व राज्य स्तरों पर हर संभव राजनीतिक पहलकदमी लेनी है, यह सब विवाद से परे है. लेकिन इन तमाम मामलों में अगर कोई वास्तविक उपलब्धि हासिल करनी है तो कुछ खास केंद्रित इलाकों पर विशेष जोर देने की कार्यशैली अपनानी होगी. नहीं तो पूरा प्रयास निरुद्देश्य, हवाई, निरर्थक कोशिशों में बदल जाएगा और हमारा व्यवहार एक ही दायरे में चक्कर काटता रहेगा.

चुनाव में हमने देखा कि जिन क्षेत्रों में कामकाज पर केंद्रित रूप से जोर दिया जा रहा था, वहां हमारा प्रदर्शन पहले से बेहतर हुआ, जहां माओ के शब्दों में ‘घोड़े पर चढ़कर बागीचे की सैर करने’ की कार्यशैली चल रहीथी वहां हमारी स्थिति बदतर हुई.

आप किसी भी इलाके या किसी भी जनसंगठन के जिम्मेवार हों, आपके पूरे व्यवहार में आम पहलू के साथ-साथ एक खास पहलू अवश्य ही होना चाहिए, जो दरअसल आपके व्यवहार की प्रयोगशाला है, जहां एक वैज्ञानिक के बतौर आप नए-नए प्रयोग करते हैं, अपनी धारणाओं को व्यवहार के धरातल पर परखते हैं, फिर उन निष्कर्षों का सामान्यीकरण करते हैं. आम से खास की ओर जाना, यह वैज्ञानिक कार्यशैली ही मार्क्सवादी कार्यशैली है.

कार्यशैली के प्रश्न पर फिलहाल आखिरी बात मैं यह कहना चाहूंगा कि आम राजनीतिक या आंदोलनात्मक गोलबंदी के साथ-साथ उभरते हुए नए-नए तत्वों पर विशेष ध्यान देना, उन्हें पार्टी शिक्षा व पार्टी संगठन की परिधि में खींच लाना, पार्टी सक्रिय दल व पार्टी शाखाओं का जमीनी स्तर पर गठन तथा उन्हें गतिशील बनाना कम्युनिस्ट कार्यशैली के अनिवार्य अंग हैं. जिस कार्यशैली में यह पहलू गायब है, वह निरी संशोधनवादी कार्यशैली है और इस संशोधनवादी धारणा पर आधारित है कि ‘आंदोलन ही सबकुछ है, लक्ष्य कुछ भी नहीं’. आंदोलन के दायरे को व्यापकतर बनाना लेकिन साथ ही साथ पार्टी संगठनों को जमीनी स्तर पर सचल बनाना -- इन दो आपात दृष्टि से विरोधी पहलुओं की एकता ही मार्क्सवादी कार्यशैली का सार है.

अखिल भारतीय स्तर पर पार्टी को संगठित करने एवं निचले स्तरों तक मजबूत व सचल पार्टी ढांचे का निर्माण करने की राह पर हमारे बढ़ते कदम ही कामरेड चारु मजुमदार के प्रति हमारा सच्चा सम्मान, सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

(अगस्त 1995 में दिफू सम्मेलन के दौरान बहस में हस्तक्षेप करते हुए दिये गए वक्तव्य के अंश)

मेरे विचार से मुख्य मुद्दा यह है कि हमारी पार्टी एक खास किस्म की समस्या झेल रही है. मैं यह कह सकता हूं कि यह एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसके चलते लोग महसूस करते हैं कि अगर राजनीतिक चीजें दुरुस्त हों तो सांगठनिक चीजें भी स्वाभाविक रूप से, खुद-ब-खुद और स्वतःस्फूर्त ढंग से ठीक हो जाएंगी. यह प्रवृत्ति इसलिए है कि हमारी पार्टी ‘अत्यधिक राजनीतिक चरित्र’ की है अथवा हमारी पार्टी एक खास तरीके से उभरी है. सांगठनिक मामलों की उपेक्षा हमारी पार्टी की एक खास पहचान रही है और जब भी हमने संगठन को सुदृढ़ बनाने की बात की है, जब भी सांगठनिक क्षेत्र में कुछ ठोस करने की चर्चा की है, तभी हमें प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है. लोग कहने लगे कि अगर राजनीति ठीकठाक है तो बाकी सबकुछ स्वाभाविक रूप से खुद-ब-खुद ठीक हो जाएगा. निश्चय ही, कम्युनिस्ट होने के नाते हमलोग जानते हैं कि अगर हमारी राजनीतिक दिशा सही है, हमारा राजनीतिक हस्तक्षेप ठीक है तो इससे पार्टी के विस्तार में काफी सहूलियतें मिलती हैं. लेकिन इसे उतना स्वतःस्फूर्त भी नहीं बना देना चाहिए. सांगठनिक समस्याएं एक अलग किस्म की चीज है, संगठन एक स्वतंत्र श्रेणी है. और संगठन को दिशाबद्ध करने के लिए शायद कुछ विशेष उपाय, कुछ विशिष्ट फैसले और कभी-कभी विशेष सम्मेलन भी करने पड़ते हैं. इसीलिए, इस प्रवृत्ति का मुकाबला करने के लिए ही हम यह सांगठनिक सम्मेलन कर रहे हैं.

जब भी हम सांगठनिक सम्मेलन की चर्चा करते हैं, एक स्वतंत्र एजेंडा के बतौर सांगठनिक समस्याओं से निपटने की बात करते हैं, तो लोग काफी प्रतिरोध करते हैं. इस सम्मेलन में भी सुझाव आए कि सम्मेलन का नाम बदला जाना चाहिए. कुछ लोगों ने कहाकि इसे विचारधारात्मक-सांगठनिक सम्मेलन का नाम दिया जाना चाहिए. तो मेरे खयाल से यह हमारी पार्टी की एक खास समस्या रही है. यह विशिष्ट प्रवृत्ति राजनीति और राजनीतिक संघर्ष के नाम पर सांगठनिक सवाल को कमजोर बना देती है. और इस प्रकार राजनीति और संगठन को एक दूसरे के विरोध में खड़ा कर देती है. अक्सरहां यह लफ्फाजी की शक्ल ले लेती है.

मैंने प्रायः पाया है कि जो लोग सांगठनिक सवालों पर गंभीर नहीं हैं, जो पार्टी निर्माण के प्रति गंभीर नहीं हैं, जो गंभीर पार्टी और सांगठनिक कार्य नहीं कर रहे हैं, वे राजनीति का ‘उपदेश’ देते पाए गए हैं. खासकर ये चंद मुहावरे, जैसे – ‘आप संगठन की बात क्यों करते हैं’, ‘केवल राजनीति’ आदि. सो, राजनीति प्रायः बच निकलने का एक बहाना बन जाती है. मेरे विचार से इस प्रवृत्ति का प्रतिकार और मुकाबला करने और गंभीरता लाने हेतु हमें पार्टी संगठन बनाने के लिए गंभीर प्रयत्न करना होगा और इसी खातिर हमने यह सम्मेलन किया है. हमारे सामने दस्तावेज है और हमने तमाम किस्म के मुद्दों पर बहस की है और हमें एक खास संदेश के साथ वापस लौटना है. अब अगर यह कमजोरी हमारी सोच में बनी रह जाती है तो हम अपने पार्टी संगठन को दिशाबद्ध और मजबूत करने के लिए कुछ नहीं कर पाएंगे.

अब, जनवादी केंद्रीयता के सवाल पर एक बहस है. इस पर काफी चीजें कही गईं. मेरे विचार से सबसे महत्वपूर्ण बात थी : वैध विपक्ष का अधिकार, अर्थात एक किस्म का ब्लॉक, ताकि इस पद्धति से भारत में विभिन्न गुटों और पार्टियों को एक बड़ी एकल पार्टी में एकताबद्ध किया जा सके. बेहतर होता, अगर कोई इस सूत्रीकरण पर डट जाता कि एक एकल कम्युनिस्ट पार्टी में विभिन्न वाम गुटों और पार्टियों को एकताबद्ध करने का केवल यही एक तरीका है. लेकिन यहां हमारा मतभेद है. वामपंथी गुटों और कम्युनिस्ट पार्टियों के एकीकरण के लिए हमारे पास एक अलग विचार पहले से मौजूद है – वाम महासंघ का विचार. हम इस मामले में बात चलाना शुरू कर चुके हैं. विभिन्न पार्टियों के बीच तमाम मतभेद रहने के बावजूद हम वाम महासंघ की वृहत्तर एकता का यह प्रयोग चला सकते हैं. लेकिन अगर किसी एकल कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर अगर हम यह प्रयोग चलाने की बात करें, तो अब तक के अनुभव तो नकारात्मक ही साबित हुए हैं. पीसीसी तो इसी आधार पर चलना चाहती थी. लेकिन ब्लॉक संचालन और वैध विपक्ष के आधार पर कम्युनिस्ट आंदोलन और एमएल आंदोलन के एकीकरण की ऐसी तमाम तिकड़में अंत में टांय-टांय फिस्स हो गईं.

उनलोगों ने जितने ग्रुपों को एकताबद्ध किया उससे अधिक ग्रुप पैदा कर दिए. इसके विपरीत अगर आप हमारी पार्टी का इतिहास और अनुभव देखें तो हम एकता के लिए कभी भी इस आधार पर चले. लेकिन फिर भी विभिन्न ग्रुपो और विभिन्न पार्टियों से कामरेड हमेशा हमारी पार्टी में शामिल होते रहे. अगर आप हमारी पार्टी सदस्यता की जांच करें तो आप पाएंगे कि उसका एक अच्छा-खासा प्रतिशत – मेरे खयाल से 1974 मे मूल रूप से हमारे साथ जितने कामरेड थे, उसकी तुलना में कहीं ज्यादा – दूसरी पार्टियों से आए हैं. और पीसीसी, सीपीआई, सीपीआई(एम) तथा अन्य पार्टियों व ग्रुपों से आए कामरेडों की विशाल तादाद जनवादी रूप से केंद्रीकृत एक एकल पार्टी में एकताबद्ध हो गई है और वे बहस-मुबाहिसा चला रहे हैं. मैं नहीं सोचता कि इस मामले में पार्टी-संचालन में कहीं कोई समस्या है, और जिस संगठन का हम नेतृत्व कर रहे हैं वहां विभिन्न धाराओं से आनेवाले कामरेडों को एकताबद्ध करना संभव हुआ है. कुछ गुट तो अपने संगठन को भंग करके हमारी पार्टी के साथ एकताबद्ध हुए हैं. इस तरीके से हम अच्छी संख्या में वामपंथी और नक्सलपंथी क्रांतिकारियों को अपनी पार्टी के साथ जोड़ने में कामयाब हुए हैं. यही हमारा इतिहास रहा है. भारत में किसी दूसरे ग्रुप द्वारा अब तक जितने भी एकता प्रयास चलाए गए हैं उसकी अपेक्षा यह ज्यादा स्थाई एकता साबित हुई है. अगर हम वैध विपक्ष के आधार पर एकीकरण के लिए बढ़ना चाहें, तो अब तक के हमारे अनुभव ने इसे गलत ही साबित किया है. और मैं सोचता हूं कि व्यापकतर एकता के लिहाज से वाम महासंघ की अवधारणा के रूप में एक बेहतर विकल्प हमारे पास है. मगर फिर भी, इस दृष्टिबिंदु से, बहस जारी रह सकती है.

एक दूसरी बात है जो मैं जनवादी केंद्रीयता के सवाल पर कहना चाहता हूं. हमने दस्तावेज में यह कहा है कि पार्टी नेताओं और पार्टी कमेटियों को जनसंगठनों के क्रियाकलाप में गैरजरूरी ढंग से हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, जिसका मतलब हुआ कि उन्हें खुद से विकसित होने की अनुमति दी जानी चाहिए. लेकिन इस बात को कुछ कामरेडों ने आम बना दिया कि अगर यही मामला है तब तो उच्चतर पार्टी कमेटियों को भी निचली पार्टी कमेटियों के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. मेरे विचार से इन दोनों चीजों को एक नहीं किया जा सकता है. पार्टी और जनसंगठन के रिश्ते बिलकुल भिन्न चीज हैं. पार्टी और जनसंगठन अलग-अलग इकाइयां हैं. हम जनसंगठन में शरीक हो सकते हैं लेकिन वे एक भिन्न चीज हैं, उनका अपना अलग स्वभाव है. हम एक संशोधन दे चुके हैं कि जनसंगठनों को अपना नेता अपने सम्मेलनों में खुद चुनना चाहिए. और इसी तरह जनसंगठन स्वतंत्र ढंग से विकास करेंगे. इसीलिए जनसंगठन और पार्टी के बीच का संबंध एक ही पार्टी की दो कमेटियों – उच्चतर और निचली कमेटियों – के बीच के संबंध की तुलना में गुणात्मक रूप से काफी भिन्न चीज है. मैं सोचा हूं कि इन दो चीजों को गड्डमड्ड नहीं किया जाना चाहिए, एक नहीं कर देना चाहिए.

जहां तक पार्टी केंद्र का सवाल है तो मैं यह जरूर कहूंगा कि हां, अल्पमत को बहुमत की बात माननी होती है. यह एक उसूल है जिसका पालन हम करते हैं. पार्टी कमेटी के अंदर अल्पमत बहुमत की बात मानता है. यह स्वाभाविक है. फिर, निचली पार्टी कमेटियां उच्चतर पार्टी कमेटियों के मातहत होती हैं. यह भी बहुत स्वाभाविक है, बिलकुल समझ में आने लायक चीज है. व्यक्ति संगठन के मातहत होता है. यह बात भी बिलकुल समझ में आती है. लेकिन जनवादी केंद्रीयता की मूल बात यह है कि समूची पार्टी केंद्रीय कमेटी के मातहत है – यह एक और सूत्रीकरण है जिसे प्रायः कुछ कामरेड भूल जाते हैं. यह शायद सबसे महत्वपूर्ण बात है. और यह कहती है कि समूची पार्टी केंद्रीय कमेटी के मातहत है. और इस तरह से समूचा संबध उलट जाता है. समूची पार्टी का मतलब है एक विशाल बहुमत, जबकि केंद्रीय कमेटी 25 सदस्यों वाली एक अल्पसंख्या है. यह बिलकुल असामान्य है, बिलकुल भिन्न बात. लेकिन फिर भी यह कम्युनिस्ट पार्टी की जनवादी केंद्रीयता का मर्म है. जब तक इसे आप नहीं समझ लेंगे, आप जनवादी केंद्रीयता की पूरी अवधारणा को, उसकी समग्रता में, नहीं समझ सकेंगे. इसीलिए केंद्रीय कमेटी के हस्तक्षेप की सिर्फ निचली कमेटियों के मामले में ही नहीं, बल्कि किसी सदस्य, किसी कमेटी, किसी कार्यकर्ता,कहीं भी, कभी भी, किसी भी मामले में – कम्युनिस्ट पार्टी में पूर्ण इजाजत रहती है. कम्युनिस्ट पार्टी यही चीज होती है. इस केंद्रीयता के बगैर, इस एकता के बिना, न तो लौह अनुशासन पैदा हो सकता है और न गंभीर वर्ग लड़ाइयों में हम दुश्मन के खिलाफ संघर्ष ही कर सकते हैं. ‘बहुमत’ का खुद को ‘अल्पसंख्या’ के मातहत कर देना – यही चीज कम्युनिस्ट पार्टी की जनवादी केंद्रीयता का शायद सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. और इसीलिए, पार्टी की केंद्रीय कमेटी के बारे में कोई भ्रम या उसके खिलाफ अनबन पैदा करने का प्रयास बेहद नुकसानदेह होता है. और यहां-वहां हस्तक्षेप करने के केंद्रीय कमेटी के अधिकार को चुनौती देना – यह कहना कि केंद्रीय कमेटी यह नहीं कर सकती है, वह नहीं कर सकती है, आदि – यह सब कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं चल सकता है. यह काफी अनोखा मामला है. कोई इसे पसंद कर सकता है, कोई नहीं कर सकता है. लेकिन जब हमने एक बार कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनने का फैसला कर लिया, तो हमें यह मान लेना होगा कि केंद्रीय कमेटी किसी अन्य उच्चतर पार्टी कमेटी के ही समान नहीं है. राज्य कमेटी को अपनी तमाम कतारों पर उतना अधिक प्राधिकार नहीं होता है, किसी अन्य स्थानीय कमेटी को भी नहीं होता. यह अत्यंत विशिष्ट प्राधिकार पार्टी की केंद्रीय कमेटी में ही निहित रहता है. यह कम्युनिस्ट संविधान का बहुत खास पहलू है. और मेरे विचार से इस बारे में भ्रम फैलाने का प्रयास पार्टी के लिए बेहद नुकसानदेह होगा.

(लिबरेशन, अप्रैल 1995 का संपादकीय)

इस बर्ष 22 अप्रैल को पार्टी अपनी 26वीं वर्षगांठ मनाएगी. निश्चय ही इस मौके पर हम पार्टी के बुनियादी उसूलों और आम दिशा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दुहराएंगे. लेकिन अगर हम इस ‘दुहराव’ तक ही खुद को सीमित कर दें तो वर्षगांठ मनाने का मामला एक रस्म बनकर रह जाएगा. मेरे विचार से बेहतर यह होगा कि हम अपने धीमे, असमान और कभी-कभी विकृत विकाश के कारणों की गहरी व आलोचनात्मक छानबीन करने पर ज्यादा जोर दें.

हमें उन कठमुल्लावादियों की तरह आचरण नहीं करना चाहिए जो अपने व्यवहार की लगातार समीक्षा करने से इनकार करते हैं और लगभग धार्मिक अंध-आस्था के बतौर पुराने पड़ गए घिसे-पिटे सूत्रों का जाप किया करते हैं. हमने ठोस भारतीय स्थितियों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के एकीकरण की जीवंत मिसाल के बतौर पार्टी-लाइन को विकसित करने का संकल्प लिया है. इसके लिए एक अविचल वैज्ञानिक रुख की आवश्यकता है, जहां व्यावहारिक पर्यवेक्षणों के दौरान सैद्धांतिक परिप्रेक्षों की जांच की जाती है और तदनुसार उनमें संशोधन किए जाते हैं. माओ त्सेतुंग बारंबार यह कह चुके हैं कि ‘व्यवहार ही सत्य की एकमात्र कसौटी है’ – इसीलिए इस उक्ति पर और अधिक जोर क्या दिया जाए!

इसके अलावा, कम्युनिस्टों की ताकत तो वस्तुगत परिस्थितियों के वास्तविक मूल्यांकन में, साहस के साथ आत्म-आलोचना करने में तथा बदतरीन परिस्थितियों का मुकाबला करने और उसे बदल देने में निहित होती है. और इसके लिए उन्हें किसी नशे की कोई जरूरत नहीं होती. वे साम्यवाद के सर्वोच्च हितों के प्रति अपने समर्पण और मानव समाज की प्रगतिपरक गति के प्रति अपने दृढ़ विश्वास से ऊर्जा प्राप्त करते हैं. हमारे एक पार्टी मुखपत्र से जुड़े एक कामरेड ऐसे हैं, जो हमारी अपनी उपलब्धियों को हमेशा चरम रूप में उछालने में मशगूल रहते हैं. उन्हें हमारी एक सामान्य पार्टी रैली में फ्रांस की क्रांति की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ गई! मैंने उन्हें कई एक बार समझाया भी है, लेकिन शायद वे यकीन करते हैं कि पार्टी कतारों का मनोबल ऊंचा उठाए रखने के लिए इस तरह की ऊंची खुराक काफी जरूरी है.

हर बार जब चुनाव नजदीक आते हैं तो कुछ लोग ख्याली पुलाव पकाने लग जाते हैं. हाल के बिहार के चुनावों के दौरान एक कामरेड ने अपने चुनाव क्षेत्र से जीत हासिल करने की शानदार योजना मुझे सुनाई. मैंने उन्हें याद दिलाया कि पार्टी ने उन्हें वहां किसी तरह जोड़-तोड़ कर जीत हासिल करने को नहीं कहा है. अगर आप गिने जाने लायक वोट ले आएं तो वही काफी होगा. उनकी बेलगाम आशाओं पर मेरा यह रास कसना उन्हें रुचिकर नहीं लगा. बहरहाल नतीजों ने दिखा दिया कि वे गिने जाने लायक वोट हासिल करने में भी असफल रहे.

आंध्र प्रदेश से लेकर बिहार तक के विधानसभा चुनावों के मौजूदा दौर को देखकर तो यह निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि चुनाव बहिष्कार की कार्यनीति – जिसे कुछेक ग्रुपों द्वारा रणनीति के स्तर तक ऊंचा उठा दिया गया है – पूर्णतः विफल रही. जनसमुदाय की आकांक्षा के विरुद्ध इसे लागू करने की निराशोन्मत कोशिशों में उन्होंने पहले दुस्साहसवाद का सहारा लिया और बाद में वे बदतरीन किस्म के राजनीतिक अवसरवाद के गर्त में डूब गए. इसके विपरीत हमारी पार्टी ने जोरदार चुनाव अभियान संगठित किया और कम से कम बिहार विधानसभा में एक शक्तिशाली कम्युनिस्ट ग्रुप भेजने में वह सफल रही. हमारी सफलता इतनी ही रही.

लेकिन बिहार के अनेक हिस्सों और साथ ही आंध्र प्रदेश व उड़ीसा में भी हमारा रिकार्ड काफी बुरा रहा. अनेक चुनाव क्षेत्रें में प्राप्त वोटों की संख्या हमारे काम में मौजूद दीर्घकालिक गतिरुद्धता को, और कुछ क्षेत्रों में तो हमारे सामाजिक आधार के क्षरण को भी प्रदर्शित करती है. यह गंभीर चिंता का विषय है और इससे उन क्षेत्रों में पार्टी संगठन के क्रियाकलापों व हालात के बारे में कई प्रश्न पैदा हो जाते हैं. कुछ क्षेत्रों में देखा गया कि पार्टी संगठन गुटीय कलह से ग्रस्त है, जबकि आमतौर पर पार्टी की जीवंत जनदिशा की जगह उत्साह हीन रुटीन कार्यशैली जड़ जमा चुकी है. जनसमुदाय से अलगाव, उनके रोजमर्रे जैसे व्यवहार के चलते हमारे मूल जनाधार के बीच दूसरी राजनीतिक पार्टियों की घुसपैठ का मार्ग प्रशस्त हुआ है. हवाई प्रचार और अवसरवादी समझौता कठिन-कठोर जनकार्य की जगह हरगिज नहीं ले सकते – यह बात उन क्षेत्रों में चुनाव के दौरान हमारी दयनीय स्थिति से साफ जाहिर हो जाती है.

चुनाव आपके जनसमर्थन के दायरे को और साथ ही आपके अंदर छिपे अवसरवाद की हद को नापने का अच्छा सूचक साबित होता है.

चुनाव-परिणाम का विश्लेषण हमें जमीनी सच्चाइयां समझने और अपनी कमजोरियां चिह्नित करने में मदद करेगा. अब वक्त आ गया है कि हम संपूर्ण पार्टी संगठन को पुनर्जीवित करने के लिए यथोचित कदम उठाएं, संगठन के अंदर नई जान फूंकें और एक जीवंत जनदिशा सुनिश्चित करें. यही वह संदर्भ है, जिसमें हमारा प्रस्तावित सांगठनिक सम्मेलन महत्वपूर्ण बन जाता है, जिसमें हम आशा करते हैं कि ऐसी सांगठनिक समस्याओं पर कारगर ढंग से विचार किया जाएगा. फिर भी, सांगठनिक अव्यवस्था और जनसमुदाय के साथ अलगाव के प्रश्न का एक राजनीतिक-कार्यनीतिक पहलू भी मौजूद है और जो शायद सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. देश में प्रगतिशील राजनीतिक विमर्श का बढ़ता पैटर्न दलितों, पिछड़ों तथा धार्मिक व राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की दावेदारी के साथ जुड़ा हुआ है. पार्टी इनके प्रति एक सक्रिय कम्युनिस्ट प्रतिक्रिया अभी तक सूत्रबद्ध नहीं कर पाई है.

जहां तक संयुक्त मोर्चा कार्यनीति का संबंध है, अगर आईपीएफ अपनी संतृप्तावस्था में पहुंच चुका था तो विविध रूपात्मक ग्रासरूट आंदोलनों के साथ राजनीतिक संपर्क विकसित करने के हमारे प्रयास भी कोई ठोस नतीजा नहीं दे पाए हैं. एचएमकेपी-समता पार्टी अथवा एसयूसीआई व छोटे-मोटे वाम ग्रुपों के साथ हमने जो राजनीतिक संबंध बनाए थे, उनका भविष्य नहीं प्रतीत होता है. जनसंगठनों के मंच को राजनीतिक सहयोग के स्तर तक नहीं उठाया जा सका और वह निष्क्रिय हो गया. पश्चिम बंगाल में नई आर्थिक नीति का अनुसरण करने तथा बिहार में जनता दल सरकार की दासता स्वीकार कर लेने की वजह से सीपीआई और सीपीआई(एम) के साथ हमारे संबंध और भी तनावपूर्ण हो उठे हैं.

इस प्रकार हमारी पार्टी के सामने दुहरा कार्यभार मौजूद है – हमें अपने वर्ग आधार को सुदृढ़ करना है और साथ ही अपने समर्थन आधार को जनता के विभिन्न तबकों-संस्तरों तक विस्तारित भी करना है. इसीलिए यह जरूरी है कि हमारी आंखों के सामने घुमड़ रहे सामाजिक तूफान के प्रति हम अपनी सक्रिय प्रतिक्रिया को सूत्रबद्ध करें तथा वाम और जनवादी खेमे की जनआधारित दोस्ताना ताकतों के साथ राजनीतिक सहयोग कायम करें.

हमारे सामने अभी जो राजनीतिक परिस्थिति है उसमें केंद्रीय सत्ता प्राप्त करने के लिए आगामी संसदीय चुनाव के दौरान कांग्रेस(आइ) और भाजपा के बीच एक जोरदार मुकाबले के संकेत दिखाई पड़ रहे हैं, कोई तीसरा मोर्चा अब तक आकार ग्रहण नहीं कर सका है, जो इन दोनों प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त हासिल करने की क्षमता रखता हो. हम न तो कांग्रेस(आइ) के खिलाफ भाजपा के साथ हाथ मिला सकते हैं और न भाजपा के खिलाफ कांग्रेस(आइ) को समर्थन ही दे सकते हैं. हां, राष्ट्रीय स्तर पर किसी तीसरे मोर्चे के विकास के लिए हम अवश्य ही भरपूर समर्थन देंगे. इस समय यह निर्धारित करना काफी कठिन है कि ऐसे किसी मोर्चे के साथ हमारे संबंध का ठीक क्या स्वरूप होगा; और जबकि सीपीआई(एम) राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर हमें अलगाव में डालने पर तुली हुई हो तो वैसी स्थिति में यह कार्यभार और भी जटिल बन जाता है.

राष्ट्रीय राजनीति में कारगर भूमिका को अपना पुनर्निर्माण करने तथा जनसमुदाय के साथ संबंध पुनः विकसित करने पर अवश्य ध्यान केंद्रित करना चाहिए.

यह 22 अप्रैल गंभीर अंतर्मंथन और समस्त पार्टी संगठन के पुनर्जीवन के प्रति समर्पित हो.

(पांचवीं पार्टी-कांग्रेस, दिसंबर 1992 में पारित राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से)

चौथी पार्टी-कांग्रेस में हमने अपनी अनेक नीतियों में भारी परिवर्तन करने की सोची थी और पार्टी ढांचे में आवश्यक परिवर्तन करने का संकल्प लिया था. बहरहाल, कामरेडों के एक हिस्से ने अन्य ढंग से महसूस किया. उनके अनुसार पुनर्गठन की कोई भी मात्रा पार्टी के अंदर नई जान नहीं फूंक पाती और इसलिए सर्वोत्तम मार्ग था किसी जनवादी पार्टी अथवा हद से हद किसी उदार वाम संगठन के पक्ष में कम्युनिस्ट पार्टी को अलविदा कह देना. विलोपवाद के एक प्रवक्ता ने घोषित किया कि “अगर इसे विलोपवाद का नाम दिया जाता है तो इस विलोपवाद के बीज वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति के इस युग में समूची दुनिया की तमाम कम्युनिस्ट पार्टियों की केंद्रीय कमेटियों में बोए जा चुके हैं.” उन्होंने ठीक ही कहा था. यह निस्संदेह विलोपवाद था और गोर्बाचेव सुधारों के प्रभाववश इसने अंतरराष्ट्रीय आयाम धारण कर लिया.

यूरोप की, खासकर पूर्वी यूरोप की, अनेक कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने को भंग करना अथवा सामाजिक-जनवादी पार्टियों में रूपांतरित करना शुरू कर दिया और यह परिघटना सोवियत संघ के ध्वंस के बाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी एक भारी सामाजिक उथल-पुथल की कीमत चुकाने के बाद कहीं इसे विफल कर सकी, जबकि इतालवी व कुछ अन्य पार्टियां ऊपर से नीचे तक दो फांक हो गईं.

विलोपवाद के विरुद्ध हमारी लड़ाई भी काफी आंधी-तूफान भरी साबित हुई. पार्टी का विलोप कर देने की धारणा सर्वप्रथम स्वयं चौथी कांग्रेस की पूर्ववर्ती केंद्रीय कमेटी के अंदर उभरी थी. लेकिन चौथी कांग्रेस में बहस सामने नहीं आई और कांग्रेस के बाद भी कुछ समय तक विलोपवादी लोग पूर्णरूपेण खुली राजनीतिक बहस से कतराते रहे. वस्तुतः इसके शुरूआती पैरोकार तो चुपचाप पार्टी से हट गए. लेकिन कई दूसरे पार्टी तत्व कतारों के अंदर भ्रम का बीज बोते रहे और पार्टी नेतृत्व के खिलाफ झूटी अफवाहें फैलाते हुए गुटबाजों की तरह गुपचुप कार्य करते रहे. निस्संदेह, बाद में उन सबों को मार्क्सवाद और समाजवाद की खुलेआम निंदा करते हुए, पूंजीवाद की प्रशंसा करते हुए, क्रांतिकारी संघर्षों की खिल्ली उड़ाते हुए और सुधारों का उपदेश देते हुए भी सरकारी व अर्द्धसरकारी एजेसियों में अपने व्यक्तिगत कैरियर के लिए काम करते हुए सामने आना पड़ा.

सर्वप्रथम, इस संघर्ष ने समाजवाद के भारी संकट और साथ ही मार्क्सवाद के खिलाफ चौतरफा पूंजीवादी हमले के बीच दृढ़ता से खड़ा होने में हमारी मदद की. हमारी पार्टी भारत में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की पताका बुलंद करने में तथा इसकी रक्षा करने के लिए और इसकी पुनर्स्थापना की खातिर उठ खड़ा होने में अव्वल रही है.

इस संघर्ष ने हमें पार्टी के भीतर मार्क्सवादी शिक्षा चलाने और पार्टी संगठन  को पुनर्गठित करने में सक्षम बनाया. लम्बे अरसे के गतिरोध और पार्टी सदस्यता में विकास की मंथर गति को भंग किया गया तथा पार्टी सदस्यता में एक गुणात्मक उछाल आया.

इस संघर्ष ने स्वतंत्र वाम दावेदारी की पताका को दृढ़तापूर्वक ऊंचा उठाने, मुख्यधारा के अवसरवादी वाम के दुमछल्लावाद का सुसंगत विरोध करने और भारतीय वाम आंदोलन की दो कार्यनीतिक लाइनों के बीच के संघर्ष को रोशनी में लाने में हमें सक्षम बनाया. साथ ही साथ हम अपने उसूलों से कोई समझौता किए बगैर मुख्यधारा की वाम पार्टियों के साथ आंदोलनों में कदम-ब-कदम नजदीकी सहयोग विकसित करते हुए विभिन्न पार्टियों व ग्रुपों की वाम झुकाव वाली कतारों पर अधिकाधक प्रभाव डाल सके.

हालांकि पार्टी ने विलोपवाद के विरुद्ध निर्णायक तौर पर प्राथमिक विजय प्राप्त कर ली है, लेकिन संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है. मौजूदा विचारधारात्मक वातावरण विलोपवादी विचारों के जन्म और विकास के लिए काफी उपजाऊ मिट्टी प्रदान करता है. विलोपवाद का सारतः अर्थ है पार्टी भावना का ह्रास जो कोई अमूर्त चीज नहीं है, बल्कि वह पार्टी के क्रांतिकारी उसूलों में तथा उसके अखंड संगठनात्मक ढांचों में समाविष्ट है. इन उसूलों के साथ समझौता करने और पार्टी को एक संघीय निकाय समझने से पार्टी की जुझारू क्षमता ही कमजोर होगी और पलायनवादी प्रवृत्तियां प्रोत्साहित होंगी.

यह आशंका कि विलोपवाद विरोधी संघर्ष एक दूसरी हानिकर प्रवृत्ति, यानी अराजकतावाद, के खिलाफ संघर्ष को कमजोर करेगा, सौ फीसदी गलत है और यह पार्टी के क्रम विकास की एक गलत समझ पेश करती है. हमारी पार्टी का समूचा व्यवहार अतीत के हमारे तमाम अराजकतावादी अवशेषो को दूर करने और पार्टी की कार्यनीतिक लाइन को हमारे देश की ठोस स्थितियों के अधिकाधिक अनुरूप बनाने की दिशा में हमेशा लक्षित रहा है. लेकिन यह व्यवहार, अगर साथ ही साथ विलोपवाद के खिलाफ तीखा विचारधारात्मक संघर्ष न चलाया जाए तो सही राह से भटक भी सकता है.

इन दोनों गलत प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष को अधिभूतवादी ढंग से देखना और उनके सारसंग्रहवादी सम्मिश्रण की मांग करना हमें कहीं का न रखेगा. विलोपवाद विरोधी संघर्ष में पार्टी के एक चिंतनशील हिस्से की ओर से परिस्थिति के मूल्यांकन में गलती मुख्यतः इस महत्वपूर्ण कड़ी को आत्मसात करने में उनकी असफलता से उत्पन्न हुई. वास्तविक जीवन ने साबित कर दिया है कि विलोपवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष पार्टी को वापस अराजकतावाद की ओर नहीं ले गया, बल्कि इसने हर तरह से व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में हमारे जोरदार प्रवेश को आसान बनाया है. कट्टर अराजकतावादी विश्वदृष्टिकोण रखनेवाले व्यक्ति जब अपने दृष्टिकोण को नहीं सुधार सके तो उन्हें हमारा साथ छोड़ देना पड़ा है और कई मामलों में तो ऐसे लोग विलोपवादी खेमे में जा शामिल हुए हैं. आनेवाले दिनों में पार्टी व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में साहसपूर्ण प्रयोग करना जारी रखेगी. लिहाजा, द्वंद्वात्मक तौर पर पार्टी के अंदर विलोपवाद के खिलाफ सुसंगत चौकसी बरतने की आज और बड़ी जरूरत है.

(विभिन्न पार्टी कमेटियों के साथ का. विनोद मिश्र की बातचीत का सारांश, लिबरेशन, नवंबर 1986)

पार्टी कतारों का राजनीतिक और विचारधारात्मक शिक्षण तेज करने के बारे में

इस बात का खतरा है कि कहीं स्कूल की प्रणाली औपचारिक बनकर न रह जाए. आंकड़ों के लिहाज से तो क्लासों व पाठों की संख्या काफी अच्छी-खासी है, पर यही मुख्य बात नहीं है. मुख्य बात तो यह है कि विचारधारात्मक व राजनीतिक स्तर उन्नत हुआ है या नहीं. किसी भी अभियान में औपचारिकतावाद घुस ही जा सकता है. आपको इससे सतर्क रहने की जरूरत है

इन क्लासों के जरिए हमारा लक्ष्य है विभिन्न सामाजिक घटनाओं का, किन वर्गों का क्या आचरण होता है, वर्गहित किस प्रकार क्रियाशील होते हैं, इत्यादि का मार्क्सवादी-लेनिनवादी तरीके से अध्ययन-विश्लेषण करने की समझदारी विकसित करना.

उदाहरण के लिए, एक इलाके में, वहां के किसान सीपीआई(एम) के प्रभाव में थे. हमारे कामेरडों ने सीपीआई(एम) के संशोधनवाद, संसदवाद आदि के बारे में अमूर्त प्रचार चलाकर उन्हें अपने पक्ष में जीतने की कोशिश की, पर सफलता न मिली. आमतौर पर लोग अपने वर्ग हितों के अनुसार काम करते हैं और जब उन्हें लगता है यह या वह पार्टी उनके हितों का प्रतिनिधित्व करती है, तो वे उसका अनुसरण करते हैं. कोई आदमी जन्म से ही सीपीआई(एम), कांग्रेस या डिएमके नहीं होता. चूंकि सत्ता से चिपके रहने की एक लंबी प्रक्रिया में सीपीआई(एम) अब उन इलाकों में भूस्वामियों के साथ समझौता करने लगी और धनी किसान की ओर खिसकने लगी तो उसके पूर्व जनाधार में अंतर्विरोधतीव्र हो उठा. हमारे कामरे़डों ने, जिन्होंने पहले से ही अपना स्वतंत्र संगठन और आंदोलन खड़ा कर रखा था, इस अतंरविरोध को समझा, ऐसे मुद्दे व नारे सूत्रबद्ध किए जो व्यापक किसानों को प्रभावित करते हों और सीपीआई(एम) के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं एवं उनके प्रभाव में पड़ी जनता के साथ संयुक्त कार्यवाही शुरू की. इस बार वे सफल रहे. धीरे-धीरे जनता की निष्ठा टूटने लगी और वह हमारे साथ चली आई.

आप अक्सरहां पाएंगे कि इन दिनों बहुत सारे पेट्टिबुर्जुआ बुद्धिजीवी सीआरसी (सेंट्रल रीअर्गानाइजिंग कमेटी) और पीडब्ल्यू (पीपुल्स वार) जैसे ‘वामपंथी’ संगठनों की ओर ज्यादा आकर्षित हैं. इनमें ऐसे लोग भी अच्छी खासी संख्या में हैं जो सचमुच इमानदार और जुझारू हैं. ऐसा इसलिए है कि अपनी वर्ग स्थिति के चलते पेट्टिबुर्जुआ वर्ग अराजक, श्रमिक-संघवादी विचारों के प्रति ज्यादा झुकाव रखता है. अपनी प्रकृति के अनुसार मजदूर वर्ग और किसान समुदाय राजनीति से अरुचि नहीं रखते, क्योंकि वे वास्तविकता से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं. इसीलिए आप पाएंगे कि ऐसे ग्रुपों का मजदूर वर्ग और व्यापक किसान समुदाय के बीच कोई स्थाई प्रभाव या जनाधार इतनी आसानी से नहीं होता. यही हाल ग्रासरूटर्स का भी है. आप ऐसे ग्रुपों के दायरे से इन बुद्धिजीवियों के वाद-विवाद के जरिए अपनी ओर नहीं ला सकते. ये बुद्धिजीवी केवल तभी आपके पक्ष में आएंगे जब आपकी स्वतंत्र राजनीतिक पहलकदमी अधिकाधिक बढ़ती जाएगी और आप शक्तिशाली जनांदोलन खड़े कर पाएंगे.

बहुत से लोग तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के प्रभाव के लिए रामचंद्रन के करिश्मे को श्रेय देते हैं. और भी गहराई से विश्लेषण करने पर पता चलेगा कि यदि गरीब व मध्यम वर्गों का एक बड़ा हिस्सा इस पार्टी का समर्थन करता है, तो वे जरूर ही यह महसूस करते हैं कि इससे उनके हितों की पूर्ति होती है या कम से कम वे यही आशा रखते हैं. दूसरी ओर, अन्ना द्रमुक की बुनियादी वर्ग स्थिति अपेक्षाकृत व्यापक सामाजिक आधार बरकरार रखने तथा उसे और भी विस्तृत करने की उसकी कोशिशों से मेल नहीं खातीं.

हमें इन वास्तविकताओं को समझना होगा और उसके अनुरूप नारे, कार्यनीतियां और आंदोलन विकसित करने होंगे. व्यावहारिक राजनीति में हमें इसी रास्ते पर कदम बढ़ाना चाहिए ताकि इन पार्टियों के सामाजिक आधार और उनकी बुनियादी वर्ग स्थिति के बीच का आंतरिक अंतर्विरोध तेज किया जा सके.

अगर आप केवल अपने दिल व भावनाओं के वशीभूत होकर काम करते हैं, तो आप ले-देकर इन पार्टियों की भर्त्सना करने में ही अपनी सारी शक्ति खर्च कर देंगे. और चूंकि भावनाएं ज्यादा समय तक नहीं टिकतीं, न ही वे भौतिक शक्ति में बदल पाती है, सो इसका हश्र यही होता है कि बाद में वे अपने-आपको ही कोसने लगते हैं. आपको अपने दिमाग से भी काम लेना होगा और ठोस नीतियां व कार्यनीतियां, नारे व शैली विकसित करनी होगी ताकि इन पार्टियों का ठोस शब्दों में पर्दाफाश किया जा सके और उन्हें छिन्न-भिन्न किया जा सके. इस तरह जनसमुदाय को अपने अनुभवों से सीखने में मदद मिलेगी और अंततः उसे अपने पक्ष में जीता जा सकेगा.

हमारे आंदोलन में शामिल अधिकांश लोग दिमाग से नहीं, दिल से काम लेते हैं. फल यह होता है कि वे क्रांतिकारी मुहावरों की रट लगाने में तो सबसे आगे रहते हैं, किंतु उनके पीछे जनता नदारद होती है. जनता प्रतिक्रियावादियों, सामाजिक जनवादियों और कट्टर आंचलिकतावादियों के प्रभाव में पड़ी रहती है. ज्यादा गंभीर बात तो यह है कि कुछ लोगों को इसकी जरा भी परवाह नहीं, वे अपने किसी भी नारे को बदलने को तैयार नहीं, भले ही जनता उनका अनुकरण करे या नहीं. लगता है ये लोग मान बैठे हैं कि क्रांति शब्दों से होती है, जनता से नहीं, इसे ही वाम लफ्फाजी कहते हैं. आत्मसात करने में मदद मिलेगी जो समाज को, वर्गों की सक्रियता एवं उनके संघर्ष को संचालित करते हैं.

इससे आपको आत्मगत आकांक्षाओं के बजाए वास्तविक स्थितियों के आधार पर अपने नारों, नीतियों व कार्यनीतियों का परिष्कार करने में मदद मिलेगी.

जनवादी केंद्रीयता की प्रणाली को दृढ़तापूर्वक स्थापित करने के बारे में

कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर जनवाद शब्द का मतलब वह नहीं होता जो आमतौर पर समझा जाता है. यहां जनवाद केंद्रीकृत मार्गदर्शन के मतहत होता है. पार्टी की केंद्रीय कमेटी ही यह निर्णय करती है कि कब और किस सवाल पर बहस की इजाजत दी जानी चाहिए. अन्यथा पार्टी वाद-विवाद सभा में बदलकर रह जाएगी. सीआरसी ग्रुप अतिजनवाद का सर्वोत्तम उदारहण है. ‘सांस्कृतिक क्रांति’ का सच्चा अनुयायी होने का दावा करते हुए वे अपने तथाकतित दो लाइनों के संघर्ष को अंतहीन ढंग से चलाते रहे और सबको बहस करने की नसीहत देते रहे. नतीजा क्या निकला? वे सैकड़ों गुटों में छिन्न भिन्न हो चुके हैं. अब तो उनमें से कुछ इस बात पर भी बहस कर रहे हैं कि मार्क्सवाद सही या नहीं, तो दूसरे यह कहते फिर रहे हैं कि ‘जनवादी केद्रीयता’ की लेनिनवादी अवधारणा गलत है. बहुत से लोग यह महसूस करते हैं कि सीआरसी अत्यंत जनवादी संगठन है. यह तर्क दोषपूर्ण है. अतिजनवाद ऐसी चीज है जिसे पेट्टिबुर्जुआ बुद्धिजीवी भले ही पसंद करते हों, मगर तब आप संगठन नहीं टिकाए रख सकते. केंद्रीयता के बैगर कोई संगठन नहीं चल सकता. 1970 के शुरूआत की बात है जब मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा था कि ‘व्यक्ति संगठन के मातहत’ और ‘अल्पमत बहुमत के मातहत’ की धारणा अत्यंत अपमानजनक है. उन्होंने दावा किया कि सांस्कृतिक क्रांति ने यह घोषित करके कि ‘सच्चाई प्रायः अल्पमत के भीतर छिपी रहती है’, उसका अंत कर दिया है. मैंने उन्हें जवाब दिया कि तब आप कोई संगठन नहीं चला सकते.

ये महाशय, जिन्होंने बाद में पार्टी छोड़ दी, अब एक ‘अंतरराष्ट्रीयतावादी केंद्र’ चलाते हैं. लेकिन अफसोस, वे अपने मिशन में अकेले हैं!

पार्टी लाइन पार्टी-कांग्रेस में तय की जाती है. उसके पहले पार्टी लाइन के तमाम पहलुओं पर बहस संचालित की जाती है. अब एक बार पार्टी कांग्रेस में निर्णय हो जाने के बाद समूची पार्टी को उन निर्णयों का अवश्य ही पालन करना चाहिए. कांग्रेस फिर होगी, फिर बहसें भी होंगी. बीच में भी, नई नीतियों व कार्यनीतियों के प्रश्न पर, जिन्हें प्रयोग का विषय माना जाता है, हमेशा ही बहस-मुबाहिसे संचालित किए जाते हैं और मत-सम्मत एकत्र किए जाते हैं. अल्पमत-बहुमत के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं और अल्पमत वालों को यह छूट रहती है कि वे अपना मत सुरक्षित रखें.

अब कुछ लोगों का कहना है आपकी पार्टी में पर्याप्त जनवाद नहीं है और यही कारण है कि आप में फूट नहीं पड़ी. आपकी निरंतर एकता यह साबित करती है कि आपलोग जनवादी नहीं हैं. सीआरसी, पीसीसी (अस्थाई केंद्रीय कमेटी) और दूसरे संगठन हमेशा टूटते जा रहे हैं क्यों वे जनवादी हैं. कुछ दूसरे लोग कहते हैं, आप इसीलिए एकताबद्ध हैं क्योंकि आप अपनी कतारों को अंधकार में रखते हैं, आप उन्हें दूसरों के साहित्य का अध्ययन करने नहीं देते या दूसरें के संपर्क में नहीं आने देते; और आपका नेतृत्व दो या संभवतः तीन गुटों की गैरउसूली एकता पर आधारित है जो अन्यथा बिलकुल भिन्न व विपरीत विचार रखते हैं.

आप जानते हैं यह सब बकवास है. दरअसल, ये लोग ऐसे स्वप्नलोक में इसलिए विचरण करते हैं ताकि वे अपने अराजकतावाद, जनवादी केंद्रीयता पर आधारित पार्टी का निर्माण करने में अपनी असफलता को उचित ठहरा सकें. ये सभी लोग केंद्रीयता से डरते हैं और अपने अराजकतावाद को ढकने के लिए ‘सांस्कृतिक क्रांति’ एवं माओ त्सेतुंग का ढाल के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

कुछ लोग यह दावा करते हैं कि एसएन (सत्यनारायण सिंह) का बुनियादी योगदान यह था कि उन्होंने सीएम (चारु मजुमदार) के नौकरशाही सर्वसत्तावाद के खिलाफ जनवादी केंद्रीयता को बुलंद किया. अगर ऐसा ही था, तो वे एक एकताबद्ध पार्टी विकसित करने में इतनी बुरी तरह असफल क्यों रहे, क्यों जब भी कोई मुद्दा बहस के लिए उठा तो उनकी पीसीसी में फूट पड़ गई? और फिर भला यह क्योंकर संभव हुआ कि सीएम का साथ देनेवाले ही अंततः एकताबद्ध पार्टी बनाने में सफल हुए? दरअसल, एसएन जिस चीज के लिए लड़े वह था अतिजनवाद, और वे केंद्रीयता की बुनियादी प्रस्थापना पर वह भी उस अवधि में जब दमन अपनी चरम सीमा पर था. सीएम ने इस बात पर ठीक ही जोर दिया था कि जीवन-मृत्यु के संघर्ष में उलझी किसी पार्टी के लिए जनवाद कोई खिलौना नहीं है. श्वेत आतंक के समयों में केंद्रीयता पर जोर देना सही था, मेरा मतलब है, बुनियादी तौर पर वे सही थे. यह सही है कि केंद्रीयता पर जरूरत से ज्यादा जोर के कारण कुछ भटकाव पैदा हो गए थे. लेकिन इसके बावजूद, सच्चे और गंभीर क्रांतिकारियों ने सीएम का साथ नहीं छोड़ा तथा धीरे-धीरे इन भटकावों पर विजय पा लिया गया और परिस्थितियां बदलने पर जनवाद को पुनः पूरी तरह बहाल किया गया. लेकिन एसएन की असाधारण विफलता स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करती है कि वे मूलतः गलती पर थे और उनका संघर्ष जनवाद की खातिर नहीं, बल्कि केंद्रीयता के खिलाफ था.

जहां तक हमारा सवाल, कुल मिलाकर हम जनवादी केंद्रीयता स्थापित करने में सफल रहे हैं. तथापि अभी भी कुछ गलत प्रवृत्तियां हमारे संगठन में मौजूद हैं. जन संगठनों के मामले में हम उनकी स्वतंत्र भूमिका व क्रियाकलाप के पक्ष में हैं, और सांस्कृतिक संगठनों के संबंध में तो हम उनकी स्वायत्तता का भी समर्थन करते हैं. लेकिन इन संगठनों में कार्यरत पार्टी के कुछ लोग इस स्वतंत्रता व स्वायत्तता की गलत व्याख्या करते हैं. बल्कि, आप कह सकते हैं कि वे ‘अलगाववाद’ पसंद करते हैं. स्वतंत्रता व स्वायत्तता दो ऐसे साधन हैं जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ एकता कायम करने, अपने काम में सृजनत्मकता एवं दक्षता विकसित करने के लिए हैं. आप इस स्वतंत्रता को ‘आपेक्षिक स्वतंत्रता’ कह सकते हैं. लेकिन ‘अलगाववाद’ एक दूसरी ही चीज है – वह पार्टी लाइन, पार्टी के मार्गदर्शन और पार्टी अनुशासन का उल्लंघन करने के अधिकारों की मांग करता है.

इन दिनों बहुत सारे लोग पार्टी निर्णयों का उल्लंघन करते पाए जाते हैं. वे अपने-आपको विक्षुव्ध कहलाना पसंद करते हैं. वे यह बहाना बनाकर पार्टी नेतृत्व के प्रत्येक कदम, प्रत्येक विचार की आलोचना करते हैं कि उनसे सलाह-मशविरा नहीं किया गया. मैं कुछ ऐसे सदस्यों को जानता हूं जो चाहते हैं कि उन्हें एक पार्टी सदस्य के सभी अधिकार मिलें, पर जो संगठन द्वारा दी गई कोई भी जिम्मेवारी उठाने को तैयार नहीं हैं. यदि कोई चीज उनकी इच्छा के विरुद्ध चली जाए, तो वे उसका पालन नहीं करते.

सदस्यता के लिए यह प्राथमिक शर्त हैं कि आप संगठन द्वारा सौंपी गई जिम्मेंवारी अवश्य ही पूरी करते हों. निश्चय ही इस जिम्मेवारी को तय करते वक्त आपसे सलाह और आपकी स्वीकृति ली जानी चाहिए, किंतु एक बार तय हो जाने के बाद आपको उसे दिलोजान से पूरा करना चाहिए. यदि किसी में यह न्यूनतम पार्टी भावना भी नहीं है तो वह सदस्यता का पात्र नहीं और फलतः न ही पार्टी सदस्य के अधिकार पाने का.

ये अतिजनवाद की कुछेक अभिव्यक्तियां हैं. लेकिन हर समस्या को अतिजनवाद की अभिव्यक्ति नहीं करार देना चाहिए. कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि कठिन-कठोर काम न करना अतिजनवाद है. मुझे याद है जब हमने विलोपवाद के खिलाफ संघर्ष शुरू किया था तब एक रिपोर्ट ऐसी भी आई थी जिसमें मीटिंगों में देर से आने या गंभीर चर्चाओं के दौरान किसी के सो जाने को भी विलोपवाद बताया गया था. मुझे आशंका है ये सब बातें कहां तक सही हैं. यदि आप हर चीज को अतिजनवाद की संज्ञा देंगे, तो हो सकता है कि आप वास्तविक निशाना चूक जाएं.

बहरहाल, केंद्रीयता जनवाद पर आधारित होती है. यदि पार्टी के भीतर बहस-मुबाहिसों की इजाजत नहीं दी जाए, यदि उसमें विभिन्न मतों को इकट्ठा करने एवं विभिन्न व्यक्तियों के साथ सलाह-मशविरा करने की प्रणाली न हो, यदि जनसंगठनों के हर तरह के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप किया जाता रहे, तब केंद्रीयता नौकरशाही में बदल जाएगी.

फिर यदि आपके पास सही नीतियां न हों, यदि समय पर मार्गदर्शन न दिए जाएं, यदि कोई नियम न हो, काम का कोई उचित विभाजन न हो,तब भी केंद्रीयता व अनुशासन स्थापित नहीं किया जा सकता.

और अंतिम बात यह, जो किसी भी तरह कम महत्वपूर्ण नहीं है, कि केंद्रीयता व अनुशासन लागू होना इस बात से भी घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है कि पार्टी कतारों की नजर में नेतृत्व की क्या छवि है. यदि नीचे व्यापक असंतोष मौजूद हो, यदि भ्रम एवं विक्षोभ काफी अधिक हो, तो इसका मूल कारण निश्चित रूप से नेतृत्व में खोजा जाना चाहिए. यदि नेताओं के पास परिस्थिति एवं मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अच्छी समझ न हो; यदि उनकी जीवन शैली उनके रवैये से पतनशील बुर्जुआ संस्कृति का भान होता हो, यदि वे विनम्र, संतुलित और कठिन परिश्रमी न हों; यदि उन्हें कतारों का स्वतः प्यार और सम्मान प्राप्त न हो, तो महज पार्टी संगठन  में ऊंचे पद पर आसीन हो जाने से कुछ लाभ न होगा. सांगठनिक अनुशासन लागू करना केवल  तभी संभव हो सकेगा जब नेतृत्वकारी कोर परिपक्व व समर्पित हो और इसकी बदौलत ऊंची प्रतिष्ठा रखता हो. अन्यथा ऐसे सभी प्रयास उल्टा नतीजा देनेवाले ही साबित होंगे. इसलिए, सभी विक्षोभ को पार्टी विरोधी नहीं मान लेना चाहिए और हर जगह अनुशासन की छड़ी और कटु आलोचना के जरिए समस्या का समाधान करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. मैं खुद भी महसूस करता हूं कि किसी-किसी जगह पर कुछ नेताओं एवं पार्टी कमेटियों ने अच्छी-खासी हद तक अपनी प्रतिष्ठा खो दी है. और यह ऐसी बुनियादी समस्या है जिसे हमें इस सुदृढ़ीकरण अभियान के दौरान निश्चित रूप से सुलझा लेना है. यह पार्टी की केंद्रीयता को कमजोर नहीं करेगा, वरन वास्तव में उसे मजबूत बनाएगा. मैं केंद्रीयता पर जोर देता हूं, क्योंकि बहुत से नए कामरेड इसकी आवश्यकता को नहीं समझे और इसलिए भी, आपके चारों ओर अराजकतावादी ग्रुप केंद्रीयता को कमजोर करने पर तुले हुए हैं जिसे पार्टी ने इन तमाम वर्षों में कठिन प्रयासों की बदौलत हासिल किया है. इसके अलावा, एक भूमिगत पार्टी के लिए, जो कुछ इलाकों में अत्यधिक दमन की स्थितियों में काम कर रही है, और अन्य इलाकों में किसी भी समय ऐसी स्थिति आ सकती है, केंद्रीयता नितांत महत्वपूर्ण है.

निचले स्तर के पार्टी संगठनों को सुदृढ़ करने के बारे में

सच कहा जाए तो निचले स्तर के पार्टी संगठन किसी प्रकार घिसट रहे हैं. यह ठीक है कि हमारे पास केद्रीय कमेटी है और कई केंद्रीय विभाग हैं. राज्य कमेटियां भी कमोबेश नियमित व स्थाई रूप से काम कर रही हैं. परंतु जहां तक आंचलिक या और भी निचले स्तर की कमेटियों, यूनिटों व सेलों का सवाल है, तो आप कोई नियमित व स्थाई उपयुक्त पार्टी प्रणाली नहीं पाएंगे. यह स्थिति भी निचले स्तर पर बहुत से दिग्भ्रम व अराजकता के लिए जिम्मेवार है, और दरअसल नेताओं के नौकरशाही रवैये, कुछ ही लोगों के हाथों में शक्ति के केंद्रीकरण और कुछेक लोगों द्वारा ही निर्णय लेने के लिए उर्वर भूमि मुहैया करती है.

इस स्थिति को बदलने के लिए, केंद्रीय कमेटी ने सीधा-सीधी आंचलिक कमेटियों को संबोधित करते हुए उन्हें सीधे केंद्रीय कमेटी के पास अपनी सावधिक प्रगति रिपोर्टें भेजने को कहा है. सुदृढ़ीकरण के प्रथम दौर में, हर जगह पार्टी सेल, यूनिट व कमेटियां बनाई गईं, किंतु अब तक उनमें से बहुत सारे पुनः मृतप्राय हो चुके हैं और हमारे कामरेड महसूस कर रहे हैं कि यह काम करने का औपचारिक तरीका है. अनुभव से सीखते हुए ये कामरेड अपने तरीके बदल रहे हैं. कई जगहों पर सेलों व यूनिटों के गठन को अध्ययन ग्रुपों का गठन करने की प्रक्रिया के साथ जोड़ दे रहे हैं. वे पहले संगठकों व न्युक्लियस तत्वों को विकसित करने पर जोर दे रहे हैं जिन्हें केंद्र कर निचले स्तर के पार्टी संगठनों का निर्माण किया जा सकेगा.

फैक्टरी, संस्था, ऑफिस और युनिवर्सिटि के आधार पर पार्टी कमेटियां विकसित करने की प्रणाली के मामले में ज्यादा प्रगति नहीं हुई है, न ही जनसंगठनों में पार्टी कोर स्थायित्व ग्रहण कर सके हैं. अभी भी मात्र इलाका आधारित पार्टी कमेटियों की प्राणाली ही प्रचलित है. नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं ने पार्टी-निर्माण के इस पहलू पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है और पुराना ढर्रा बदस्तूर जारी है. इसका कारण यह है कि बहुत से लोग हमारी पार्टी की गतिविधियों में हुए आमूल परिवर्तनों और विभिन्न मोर्चें पर उसके कामकाज के विस्तार के महत्व को पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं. पुराने ढर्रे पर चल रहा पार्टी ढांचा अब समूचे पार्टी कार्य पर नियंत्रण करने में सक्षम नहीं रह गया है : या तो पार्टी के काम की समूची धारा से कटा-छंटा रह जाता है या फिर कुछ नेता आदेश जारी करते और अनावश्यक हस्तक्षेप करते हुए हर जगह दौड़ते रहते हैं. अब बहुत सारा काम कानूनी दायरे में चल रहा है, बहुत से नए लोग पार्टी की ओर आकर्षित हो रहे हैं. पार्टी संगठन का पुराना ढांचा इन नए विकासों के साथ मेल नहीं खाता. नई बनावट ऐसी होनी चाहिए कि उसके केंद्र में एक पूरी तरह भूमिगत एवं गैरकानूनी न्युक्लियस हो जिसे घेरे हुए पार्टी यूनिटों, सेलों एवं ग्रुपों का एक विशाल जाल बिछा हो जिनमें से बहुत सारे तो अर्धकानूनी और यहां तक कि कानूनी स्थितियों में रहते हुए काम करेंगे. निचले स्तर के पार्टी संगठनों को सुदृढ़ करने का मतलब केवल और अधिक कमेटियां, यूनिट और सेल बनाना ही नहीं है, बल्कि इन निकायों को अपने-अपने क्षेत्र में एवं अपने क्रियाकलाप के रूपों में सक्रिय एवं कारगर बनाना भी इसका लक्ष्य है. यह पहलू अब तक पूरी तरह अछूता रहा है.

खास इलाकों में काम केंद्रित करने के बारे में

सवाल केवल इतना नहीं है कि निश्चित भौगलिक सीमाओं के भीतर काम केंद्रित कर दिया जाए. बल्कि यह एक खास कार्यशैली का, काम के सचेतन इलाके का सवाल है. ज्यादातर रिपोर्ट घटनाओं के पीछे भागने की स्वतःस्फूर्त कार्यशैली दर्शाते हैं. कहीं किसी मंदिर से गहने चोरी हो जाते हैं या कावेरी के जल से संबंधित कोई मुद्दा आ जाता है, और आप आंदोलन खड़ा करने के लिए दौड़ पड़ते हैं. यहां आप घटनाओं के पीछे दौड़ रहे हैं, और इस कार्यशैली के आधार पर विकसित सक्रिय तत्व मौके-बेमौके सक्रिय रहनेवाले आंशिक प्रकृति के होंगे. कोई बड़ी घटना घटने पर वे सक्रिय हो जाएंगे, दूसरे समयों में वे निष्क्रिय पड़े रहेंगे.

‘केंद्रित इलाकों’ को एक खास कार्यशैली के मॉडल के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जहां आपके पास सचेतन योजना व कार्यक्रम, दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य, नीतियां व कार्यनीतियां हों. यह कार्यशैली ऐसी होनी चाहिए कि सक्रिय तत्व दिन प्रतिदिन जनकार्य करें. यदि आपके पास ऐसा ऊपरी ढांचा हो, तो आप घटनाओं में किसी भी आकस्मिक मोड़ के अनुरूप यथासमय पहलकदमी ले सकते हैं.

बहुत सारी रिपोर्टों में मुझे कोई नीति और काम की योजना दिखाई नहीं पड़ी. यदि आपके पास कुछ नीतियां हैं, तो पहली बात यह कि उनके कार्यान्वयन से आपको क्या-क्या अनुभव प्राप्त हुए? और दूसरे, क्या यह अनुभव उन नीतियों में किसी फेर बदल की जरूरत को सामने लाता है? इन सवालों पर अनेक रिपोर्टों में चुप्पी साध ली गई है, और यही चीज हमारी कार्यशैली में सबसे बड़ी बाधा है. बहुत सी जगहों पर या तो नीतियां व योजनाएं हैं ही नहीं, या वे केवल कागज पर हैं. आंखें मूंद कर काम करने का मतलब गलत नीतियों के आधार पर काम करना. यदि आपके पास कोई सही व सचेतन नीति नहीं है तो इसका अर्थ है कि आपके पास गलत नीतियां हैं, स्वतःस्फूर्त नीतियां हैं, और ऐसे रास्ते के खतरों की ओर से आप आंखें मूंद हुए हैं. किसी पार्टी कमेटी द्वारा बनाई गई नीतियां तथा उनका कार्यान्वयन एवं निरंतर शिक्षा ही उस कमेटी के सुदृढ़ीकरण की धुरी होती हैं. नेताओं ने इस पहलू पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है. उनका दायित्व है कि वे नीतियां विकसित करने, विशिष्ट मामलों का विश्लेषण करने, और इन अनुभवों की रोशनी में समूचे संगठन का मार्गदर्शन करने के लिए खास इलाकों या मोर्चों को केंद्रित करें.

जनता के स्वतःस्फूर्त संघर्ष को सचेतन रूप देना – यही कम्युनिस्ट पार्टी का उद्देश्य होता है, अन्यथा वह अपनी सार्थकता खो बैठेगी.

वर्गीय व तबकाई संगठनों को मजबूत बनाने के बारे में

इन संगठनों के जरिए ही पार्टी जनसमुदाय के साथ सबसे घनिष्ठ एवं सजीव संबंध बनाए रखती है. जनता की सबसे प्राथमिक मांगों को उठाते हुए उसके साथ अपने संबंधों को दिन-ब-दिन विस्तृत करना इन संगठनों का कार्यभार है.

ऐसा देखा गया है कि स्वयं को राज्यस्तरीय या अखिल भारतीय स्तर का निकाय बनाने के चक्कर में इन संगठनों ने काफी हद तक अपनी गतिशीलता खो दी है और बुनियादी स्तर पर जनसमुदाय के साथ उनका संबंध भी कमजोर पड़ चुका है. आंशिक संघर्षों को तत्काल ही राजनीतिक संबंध में बदल देने की हमारी अतिउत्साही कोशिशो का परिणाम यह हुआ कि वे अनेक जगहों पर जनराजनीतिक संगठन का मात्र डमी बनकर रह गए हैं. एक ओर वर्गीय व तबकागत संगठनों तथा दूसरी ओर, जनराजनीतिक संगठन के बीच सही अंतर्सम्बंध बनाए रखना दोनों के विकास के लिए निर्णायक महत्व रखता है. दोनों को एक दूसरे की भरसक मदद करनी चाहिए. लेकिन इनमें से किसी को भी दूसरे की भूमिका अख्तियार करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. जहां जनराजनीतिक संगठन को सर्वप्रथम राष्ट्रीय और उसके बाद राज्य स्तर पर मजबूत करना जरूरी है, वहीं वर्गीय व तबकागत संगठनों के मामले में हमें चाहिए कि हम उन्हें सबसे पहले और सर्वप्रमुखता के साथ स्थानीय और आंचलिक स्तरों पर सुदृढ़ करें, उसके बाद राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर.

(केंद्रीय पार्टी स्कूल के 1984-85 सत्र के समापन पर दिए गए भाषण का अंश, लिबरेशन, मार्च 1986)

केंद्रीय पार्टी स्कूल इस बात का सूचक है कि शुद्धीकरण आंदोलन के बाद हमने उस दिशा में और भी प्रगति की है. उस समय हमारा ध्यान विभिन्न गलतियों व भटकावों को सुधारने पर केंद्रित था; फलस्वरूप इस प्रक्रिया में बहुतेरी बहसें उभर उठीं और पार्टी लाइन में महत्वपूर्ण विकास हुए और एक निश्चित मंजिल पर आकर पार्टी लाइन पर बहस के जरिए इन तमाम बहस-मुबाहिसों का सार-संकलन किया गया. अब हमारी पूरी कोशिश है कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के बीच की बहस को एक नए धरातल पर नए-नए उभर रहे सवालों के सर्वांगीण व खुले दिमाग से अध्ययन और इन सवालों पर सजीव बहस-मुबाहिसा के स्तर को ऊंचा उठाया जाए, और यही कारण है कि आपको दिए गए नए सवाल कुछ इस ढंग से तैयार किए गए थे कि वे आपको उकसा (उद्वेलित कर) सकें – इस ढंग से आप नए सिरे से सोचने के लिए बाध्य हो जाएं, बेशक, हो सकता है कि इन सवालों पर सर्वांगीण अनुसंधान व नई खोजबीन के बाद भी आप उन्हीं पुराने सूत्रीकरणों पर पहुंच जाएं, लेकिन इसे यह मानकर नहीं शुरू करना होगा कि हमें नए सूत्रीकरणों का खंडन करना ही है क्योंकि ये हमारी पार्टी लाइन पर ‘आक्रमण’ हैं. वास्तव में, ऐसे गलत रवैए का परित्याग किए बगैर सैद्धांतिक मोर्चे पर कोई भी नया गतिरोध भंग करना संभव नहीं. लिहाजा, नए सूत्रीकरणों को गंभीर व सच्चे मतों के रूप में आपके सामने पेश किया गया था जो आपको नए सिरे से सोचने के लिए बाध्य कर दें. और जैसा कि आपके द्वारा प्रस्तुत कुछ पर्चों से यह खूब जाहिर होता है, आपको उकसाने की हमारी कोशिश बेकार नहीं गई. कुछ नए विचार और धारणाएं उभरकर सामने आई हैं, हालांकि उन्हें अंतिम रूप दिया जाना अभी बाकी है.

अतीत में हमारी पार्टी में कुछ ऐसे असाधारण क्रांतिकारी बुद्धिजीवी मौजूद थे जो अविभाजित सीपीआई(एम) के दिनों से ही अंतःपार्टी संघर्ष के मामले में पुराने अनुभवी योद्धा थे. लेकिन बाद में वे शहीद हो गए या धक्के के बाद उन्होंने स्वयं को मुख्यधारा से अलग कर लिया. आज जबकि हमने पार्टी को पुनर्गठित करने का कार्यभार हाथ में लिया है, तो हमारे बीच हमारे आंदोलन के गौरवशाली अतीत का कोई ऐसा धुरंधर बुद्धिजीवी मौजूद नहीं है. अतः हमें व्यावहारिक कार्यकर्ताओं के बीच से ही नई सैद्धांतिक वाहिनी का निर्माण करने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. निस्संदेह इस प्रक्रिया में ऐसे धुरंधर बुद्धिजीवी पुनः प्रकट होंगे, क्योंकि हमारे भारतवर्ष में महान व्यक्तित्वों की कभी कोई कमी नहीं रही है, लेकिन फिलहाल हम व्यावहारिक कार्यकर्ताओं के कंधों पर ही सैद्धांतिक गतिरोध भंग करने की जिम्मेवारी है. चूंकि हम व्यावहारिक कार्यकर्ता हैं, लिहाजा हमारी व्यावहारिक जिम्मेवारियां भी दिन-ब-दिन बढ़ती जाएंगी. और चूंकि हमारी पार्टी अभी भी युवा लोगों की पार्टी है, इसलिए हमें निश्चय ही अपने प्रयास में और अधिक तेजी लानी चाहिए; हमें निश्चित रूप से अपने अंदर जमा विशाल अंतःशक्ति का पूरी तरह इस्तेमाल करना चाहिए. हमें चाहिए कि और अधिक सैद्धांतिक कार्यभार तथा साथ ही साथ और ज्यादा व्यावहारिक काम अपने हाथों में लें. वस्तुगत परिस्थिति हमसे आज यही मांग करती है.

अब, एक बड़ा सैद्धांतिक गतिरोध भंग करने का विराट महत्व किस बात में निहित है? जैसा कि आप जानते हैं, कोई भी दूसरा कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुप समूची कतारों, कार्यकर्ताओं व नेताओं की शिरकत से पूरी की जानेवाली एक सचेत प्रक्रिया के रूप में पार्टी निर्माण के बारे में पर्याप्त गंभीर नहीं है. नतीजतन एकमात्र संगठित, अनुशासित कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में अपना दावा जतलाने के लिए सीपीआई(एम) के सामने अभी भी मैदान खाली है. इसके विपरीत हम अपनी पार्टी को अखिल भारतीय चरित्रवाले एक अनुशासित एकताबद्ध जनपार्टी बनाने की कठोर कोशिशें चला रहे हैं. इन मामलों में और साथ ही साथ जुझारू क्रांतिकारी संघर्षों के मामले में अन्य सभी ग्रुपों की तुलना में हमारी पार्टी को तो अपेक्षाकृत अधिक उपलब्धियां मिली हैं तथा कई चीजें उसके ज्यादा अनुकूल हैं. लेकिन यदि हम आज भारत के सम्मुख मौजूद प्रमुख सैद्धांतिक समस्याओं को प्रभावशाली ढंग से हल नहीं कर पाए, इन सवालों का कोई तर्कसंगत जवाब नहीं ढूंढ़ पाए तो हमारी ये कोशिशें और अनुकूल कारक व्यर्थ सिद्ध होंगे. इस संदर्भ में हम संगठित पहलकदमी लेना शुरू कर रहे हैं, ताकि तीसरे शिविर की तरफ से, सीपाआई(एमएल) की ओर से हम सीपीआई(एम) को शक्तिशाली सैद्धांतिक चुनौती दे सकें.

यह इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि भारत में सीपीआई(एम) के अंदर एक दूसरी बड़ी फूट – ऐसी फूट जिसमें नेतृत्व और कतारें दोनों शामिल हों – की संभावना को बिलकुल दरकिनार नहीं किया जा सकता. निस्संदेह सीपीआई(एम) एक मृतशक्ति है, लेकिन दुनिया में कोई भी चीज निरपेक्ष रूप से मृत नही होती. अतः हो सकता है कि भारी अंतःसंघर्ष, दबाव, असफलता आदि की बहुतायत, जिसकी सीपीआई(एम) शिकार है, अंततः बढ़ते-बढ़ते उस चरम बिंदु पर पहुंच जाए और ऐसी स्थिति पैदा हो जाए जब इस मरणासन्न पार्टी का एक जीवंत हिस्सा किसी न किसी रूप में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी शक्तियों के जीवंत हिस्से के साथ एकताबद्ध व संयुक्त होने के वास्ते सामने आ जाए, जबकि कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के कुछ हिस्से घमंड से चूर और पतित हो जा सकते हैं. हमें ही अखिल भारतीय पहलकदमी तथा जबरदस्त सैद्धांतिक आक्रमण जैसे उपायों के जरिए ऐसे गतिरोध को भंग करने की खातिर परिस्थिति तैयार करनी होगी. अपनी सैद्धांतिक वाहिनी का निर्माण करते समय इस परिप्रेक्ष को भूलना नहीं चाहिए.

हमें यह याद रखना चाहिए कि सिद्धांतकार पार्टी स्कूलों के जरिए तैयार नहीं होते, बल्कि संबंधित कामरेड सिर्फ अपनी कठिन-कठोर मेहनत के बलबूते ही ऐसा बन पाते हैं. जितने भी प्रसिद्ध मार्क्सवादी सिद्धांतकार हुए हैं, वे अपने विराट दृढ़निश्चय की बदौलत ही सिद्धांतकार के रूप में उभार पाए हैं : कुछेक को छोड़कर अधिकांश क्रांतिकारी सैद्धांतिक नेताओं की तो कोई खास उज्जवल शैक्षिक पृष्ठभूमि भी नहीं रही है. दूसरी ओर, पार्टी स्कूलों का नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है : यह स्वाध्याय, जो कि हमेशा मुख्य चीज होती है, की कीमत पर स्कूल पर निर्भरता की भावना पैदा कर सकता है. यदि आप सचमुच सिद्धांतकार के रूप में सामने आने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हैं, तो आप ऐसा अवश्य ही कर लेंगे, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप पार्टी स्कूल में रहते हैं या नहीं. सैद्धांतिक गतिरोध भंग करने के लिए कष्टसाध्य स्वाध्याय और साहपूर्ण दृढ़निश्चय – ये ही हैं निर्णायक कारक, ये ही हैं असली चीजें.

(लिबरेशन, दिसंबर 1979)

वर्तमान समय में हम चंद नई परिस्थितियों के अंतर्गत पार्टी-निर्माण के कार्यभार का सामना कर रहे हैं. इन परिस्थितियों की समझ हासिल करने के लिए पार्टी-निर्माण के इतिहास का एक संक्षिप्त पुनरावलोकन जरूरी है. हमने पार्टी-निर्माण के प्रारंभिक दौर में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी उसूलों के प्रश्न पर दक्षिणपंथी संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष चलाया और संशोधनवादीयों के प्रभाव में फंसे हजारों हिरावलों को हम अपनी ओर खींच लाए. पार्टी ने अधिकांशतः संघर्ष के ऐसे नए रूपों का विकास करने का प्रयत्न किया जो क्रांति की अग्रगति के साथ तालमेल रखते थे. पार्टी ने विभिन्न स्थानों पर और विभिन्न मात्राओं में जनसमुदाय को क्रांतिकारी संघर्षों में गोलबंद किया.

तथापि जनसमुदाय का बड़ा हिस्सा अभी संशोधनवादी पार्टियों के प्रभाव में ही था. चंद वर्षों बाद खुद हमारी पांतों में ही भ्रम फैल गए और वे विभाजित हो गईं तथा हमारी पार्टी अपना एकीकृत अखिल भारतीय चरित्र खो बैठी. मुख्य तौर पर क्षेत्रीय और प्रांतीय आधारों पर अच्छी-खासी संख्या में गुट बन गए. पार्टी का क्रांतिकारी हिस्सा कुछेक प्रांतों में ही संगठित रह सका. हाल के वर्षों में, जब अखिल भारतीय पैमान पर पार्टी की कतारों को एकताबद्ध करने के प्रयत्न प्रारंभ हुए, तो पहले राउंड में अवसरवादियों ने बाजी मार ली. फिर भी, शुद्धीकरण आंदोलन और केंद्रीय कमेटी द्वारा अपनाई गई कार्यनीतियों के फलस्वरूप धीरे-धीरे हमने पहलकदमी हासिल कर ली. अब दूसरे दौर में स्थिति क्या है? अवसरवादी लोग स्पष्टतः विघटित हो रहे हैं और केवल हमारी केंद्रीय कमेटी ही सीपीआई(एमएल) के एक ऐसे सुदृढ़, एकीकृत केंद्र के रूप में उभर कर सामने आई है जिसे एक अखिल भारतीय चरित्र हासिल है और जो दृढ़ता के साथ हथियारबंद संघर्ष का नेतृत्व कर रही है.

लिहाजा, स्वाभाविक है कि यह हर जगह पार्टी-कतारों को आकर्षित कर रही है. अब जनता के साथ हमारे संबंध कहीं अधिक व्यापक हुए हैं और हम विभिन्न स्थानों में हजारों की संख्या में जनसमुदाय को साथ लेकर आगे बढ़ रहे हैं. तथापि, अवसरवादियों और रंग-बिरंगे संशोधनवादियों को अभी तक अपेक्षाकृत अधिक जनसमर्थन हासिल है.

मौजूदा परिस्थिति में, जबकि शासक वर्ग गहरे राजनीतिक व आर्थिक संकटों का सामना कर रहे हैं और जनता के साथ खुली मुठभेड़ की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, तब संशोधनावादियों का बड़ी तेजी से पर्दाफाश हो जा रहा है.

अतः संशोधनवादियों के जनसमर्थन के एक बड़े अंश को अपनी ओर खींच लाने के पहलू से परिस्थिति हमारे अनुकूल है. हमारे अखिल भारतीय पार्टी-सम्मेलन (1979) ने सही तौर पर हमें निर्देश दिया है कि हम अपना जोर सैकड़ों की संख्या में अथवा कुछ मामलों में अधिक-से-अधिक हजारों की संख्या में जनसमुदाय के साथ तालमेल कायम रखते हुए हिरावलों के संघर्ष से (यह अतीत में हमारे संघर्षों की एक विशिष्टता थी. यहां यह बतला देना जरूरी है कि क्रांतिकारी संघर्षों के विकास के दौरान ऐसी परिस्थिति का आना अनिवार्य था. और हमारा यह दृष्टिबिंदु कि जनसमुदाय की शिरकत की धारणा संघर्ष की विभिन्न मंजिलों से संबंधित है, उन ग्रुपों के दृष्टिबिंदु से बिलकुल जुदा है, जो “जनसमुदाय” का नाम लिए बगैर कभी मुंह तक नहीं खोलते, मगर दरहकीकत वे बुद्धिजीवियों की एक ऐसी छोटी-सी जमात हैं जिनको हरगिज कोई जनसमर्थन हासिल नहीं है; तथा हमारा दृष्टिबिंदु उन ग्रुपों के दृष्टिबिंदु से भी भिन्न है जो सामयिक तौर पर अपेक्षाकृत बड़ी तादाद में जनसमुदाय को सुधारों के लिए संघर्ष में गोलबंद तो कर लेते हैं मगर ये संघर्ष कुछ ऐसे ढंग से चलाए जाते हैं कि उनसे जनसमुदाय की क्रांतिकारी जागरूकता को कुंद करने में ही मदद मिलती है) स्थानांतरित कर अपेक्षाकृत अधिक तादाद में, कम से कम हजारों और फिर उसे विकसित कर लाखों व करोड़ों की तादाद में जनसमुदाय को गोलबंद करने की ओर लगाएं. इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए केवल बुनियादी उसूलों पर विचारधारात्मक संघर्ष और प्रचार-कार्य चलाना ही पर्याप्त नहीं है. हमें आम जनसमुदाय के साथ और अधिक घनिष्ठ होना चाहिए. उनकी मनोदशा को समझना चाहिए, उनके संघर्षों में शरीक होना चाहिए और उन्हें अपने निजी अनुभव के आधार पर उपलब्धि तक पहुंचने में धीरज के साथ उनकी मदद करनी चाहिए. इस संदर्भ में ‘वामपंथी’ संशोधनवाद के खिलाफ संघर्ष की एक भारी अहमियत है. अगर हम चाहते हैं कि अपने सामने मौजूद कार्यभार को अंजाम देने के लिए हम समूची पार्टी को गोलबंद करें, तो हमें पार्टी के अंदर मौजूद ‘वामपंथी’ लफ्फाजी का, जो ठोस परिस्थितियों का विश्लेषण करने में पूरी तरह असफल रहती है, अवश्य ही डट कर विरोध करना चाहिए.

केन्द्रीय कमेटी
23 नवंबर 1979