फासीवाद और इसका राज्य रूप – बुर्जुआ जनतंत्र और संसदीय प्रणाली जैसे अन्य रूपों की तरह ही – वर्ग संघर्ष का एक उत्पाद है. मगर वर्ग संघर्ष का रास्ता हर एक देश से दूसरे देश में व्यापक रूप से बदलता रहता है और उसी के अनुसार उसके नतीजे भी.
1848 में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के रचनाकारों के पास यह घोषित करने के पर्याप्त कारण थे कि जर्मन सर्वहारा संभवतः समाजवादी क्रांति करने वाला दुनिया का पहला देश होगा. मगर यथार्थ में यह रूस में घटित हुआ और विजयी रूसी कम्युनिस्टों को उम्मीद थी कि अगला विजय ध्वज पड़ोसी जर्मनी का मजदूर वर्ग फहरायेगा. प्रथम विश्व युद्ध के बाद का जर्मनी सबसे भयावह आर्थिक संकट, सामाजिक उथल-पुथल, और राजनीतिक तंत्र के ध्वस्त होने के भंवर में फंसा दो नितान्त विपरीत संभावनाओं के दोराहे पर खड़ा था : समाजवादी क्रांति या फिर पूंजीवादी सुदृढ़ीकरण. जर्मनी के सबसे अगुआ मजदूर वर्ग तबकों ने बुलन्दी के साथ समाजवादी क्रांति का रास्ता लिया. बड़े बुर्जुआ ने जुन्कर भूस्वामियों के साथ गंठजोड़ कर के प्रतिक्रांति से इसका जबाब दिया. वाम असफल रहा और जैसा कि क्लारा ज़ेटकिन ने 1923 में ही कह दिया था (परिशिष्ट-1 देखें), उसे इसकी सज़ा फासीवाद के रूप में मिली. इसलिए हम अपने अध्ययन की शुरुआत जर्मनी के गृहयुद्ध से करेंगे क्योंकि यही गृहयुद्ध फासीवाद के उभार की पूर्व पीठिका बना.
जर्मनी में क्रांति और प्रतिक्रांति
जब प्रथम विश्व युद्ध का अंत हो रहा था, जर्मनी की राजशाही पूरी तरह बदनाम और अलग-थलग पड़ चुकी थी. व्यापक जन असंतोष और उथल-पुथल उफान पर था. साल 1918 की शुरुवात अमन, रोटी और साम्राज्यवादी कैसरशाही सरकार की बर्खास्तगी की मांग के साथ दस लाख से ज्यादा मजदूरों की आम हड़ताल से हुई. बर्लिन के मजदूर सोवियत जैसी काउंसिलों में संगठित हो रहे थे. क्रान्तिकारी विक्षोभ की आग समूची सेना में फ़ैल चुकी थी. लगता था, देश पूरी तरह रूस के रास्ते पर चल पड़ा था.
आसन्न पराजय को देखते हुए जर्मनी शांति वार्ता के लिए लालायित था मगर अमेरिका पूर्वशर्त के रूप में पराजित आक्रान्ता देश में नागरिक सरकार की स्थापना पर अड़ गया. विदेशी विजेताओं और घर में व्यापक जन असंतोष के दबाव में चान्सलर मैक्स वॉन बादेन की अगुवाई वाले शासन तंत्र ने अक्टूबर 1918 में एक तथाकथित जनतांत्रिक गठबंधन सरकार स्थापित कर दी. सरकार की कमान खुद प्रिंस बादेन के हाथ में थी जिसमें शायदेमान जैसे सामाजिक जनवादी शामिल थे. स्वाभाविक रूप से इसका मकसद क्रांति की सम्भावना को ख़त्म करना और विजेताओं को एक ऐसे संवैधानिक सुधार के जरिये संतुष्ट करना था, जिसमें आर्थिक ढ़ांचा और राजनीतिक सत्ता संरचना यथावत बनी रहें.
स्पार्टाकस लीग और जनवरी 1918 की हड़ताल में चुनी गयीं क्रन्तिकारी परिषदों के प्रतिनिधियों ने इस विश्वासघाती सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए एक और आम हड़ताल और सशत्र विद्रोही उभार का आह्वान किया. जनवरी 1919 में बर्लिन पूरी तरह आम हड़ताल की गिरफ्त में था: बर्लिन की सड़कों पर कब्ज़ा किये हुए हथियारबंद मजदूरों के साथ सैनिक भी शामिल हो चुके थे. विद्रोही उथल-पुथल चलती रही. नवम्बर में जहाजियों ने क्रांति की ज्वाला तमाम प्रमुख तटवर्ती शहरों और मुख्य भूमि में म्यूनिक, फ्रैंकफर्ट, हनोवर आदि तक फैला दी. 9 नवम्बर को कैसर गद्दी छोड़ कर भाग गया और उसी दिन स्पार्टाकस लीग के नेता कार्ल लीबनेश्त ने सोशलिस्ट रिपब्लिक की घोषणा कर दी. जबाबी कार्यनीति के रूप में शायदेमान ने “फ्री जर्मन रिपब्लिक” का नारा बढ़ाया. म्यूनिक और देश के अन्य तमाम प्रमुख शहरों में मजदूरों और सैनिकों की परिषदों का गठन होने लगा (बर्लिन में ये पहले ही बन चुकी थीं). मगर एस. एल. (स्पार्टाकस लीग) के पास परिषदों में बहुमत जीतने और उन्हें मजदूर वर्ग व व्यापक श्रमशील जनता के सच्चे हितों की प्रतिनिधि संस्थाओं में बदलने की क्षमता नहीं थी. परिषदों में बहुमत हासिल कर के सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी और निर्दलीय (अथवा आई.एस.डी.पी. – सोशल डेमोक्रेटों का मध्यमार्गी गुट) के अवसरवादी नेताओं ने परिषदों को अपनी लाइन पर चलने को मजबूर कर दिया. बर्लिन परिषदों की जनरल असेंबली द्वारा 10 नवम्बर को चुनी गयी “दि काउन्सिल ऑफ़ पीपुल्स कमिसार्स” में ऍफ़. एबर्ट व शायदेमान सहित दक्षिण पंथी सोशल डेमोक्रेटों के तीन प्रतिनिधि, और तीन निर्दलीय शामिल थे, मगर एस. एल. से कोई नहीं था. काउन्सिल ने कैसर के अधिकारियों को अपने पदों पर बने रहने दिया और राजशाही सेना के प्रमुख पी. वाॅन. हिन्डेन्बर्ग के साथ गठबंधन बना लिया.
दिसंबर 16-21, 1918 को हुई वर्कर्स काउंसिलों की पहली आल जर्मन कांग्रेस में सोशल डेमोक्रेटिक नेता बुर्जुआ संविधान सभा के लिए चुनाव कराने और सरकार को विधायी शक्ति हस्तांतरित करने के प्रस्ताव पारित कराने में सफल हो गए. क्रांतिकारियों ने सत्ता दखल के लिए विद्रोही बगावत शुरू की. शायदेमान सरकार ने क्रांतिकारी मजदूरों के खिलाफ खुले और निर्मम दमन का रास्ता लिया. 15 जनवरी 1919 को इसने दक्षिण पंथी पैरामिलट्री “फ्राइकोर’’ के सदस्यों के जरिये क्रांति के दो सबसे अगुआ नेताओं- कार्ल लीबनेश्त और रोज़ा लक्ज़ेम्बर्ग की हत्या करवा दी.
इस बीच म्यूनिक में सोशलिस्ट रिपब्लिक ऑफ़ बावेरिया की घोषणा हो गयी. बिना किसी समुचित तैयारी के बने इस रिपब्लिक को भी मई 1919 की शुरुवात में सेना द्वारा बुरी तरह से कुचल दिया गया. आगे उसी साल वेइमार शहर में हुई संविधान सभा की बैठक ने नया संविधान पारित करते हुए वेइमार रिपब्लिक के रूप में एक संसदीय गणतंत्र की औपचारिक नींव रख दी. राजशाही की जगह एक अधपके बुर्जुआ गणतंत्र ने ले ली और बड़े जुन्कर भूस्वामी यथावत अछूते रहे. अवसरवादी राजनीति से विचारधारात्मक रूप से प्रभावित और सांगठनिक रूप से बंटा हुआ मजदूर वर्ग इस हैसियत में नहीं था कि वह क्रांति का समाजवाद की मंजिल की ओर नेतृत्व कर सकता. इसके बावजूद प्रशिया पर हाउस ऑफ़ होहेंजोलेर्न के चार सौ साल और जर्मनी पर तीस साल के शासन को देखते हुए अपनी सारी कमियों (प्रेसिडेंट के पास चान्सलर की नियुक्ति और बर्खास्तगी और राजाज्ञाएं जारी करने के लगभग एकाधिकार आदि) के बावजूद रिपब्लिक इस अर्थ में सापेक्षिक रूप से प्रगतिशील संस्था थी कि इसमें वर्ग संघर्ष के कहीं ज्यादा खुले और मुक्त विकास की गुंजाईश थी. यह संघर्ष ठीक-ठीक कैसे खुद को राजनीतिक अखाड़े में अभिव्यक्त करेगा और – कौन सा पक्ष जीतेगा – यह मुख्यतः प्रतिद्वन्दी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के राजनीतिक व्यवहार पर निर्भर करेगा.
रोज़ा लक्जे़म्बर्ग के अंतिम शब्द
(पार्टी के अन्दर रोज़ा लक्जे़म्बर्ग का मत था कि जब दक्षिण की ताकतें अपनी ताकत बटोर रहीं हो, तब जन विद्रोह संगठन के लिए घातक हो सकता है. मगर जब वह शुरू हो गया, उसने यह तर्क देते हुए अपने कामरेडों का साथ दिया कि अब चीज़ें गति में थीं और इस समय किनारे खड़े रह कर सही समय का इन्तजार करना कहीं ज्यादा भयावह भूल होगी. चन्द दिनों बाद ही, लक्जे़म्बर्ग और लीबनेश्त को फ़्रीकार्प्स ने गिरफ्तार कर के बेरहमी से क़त्ल कर दिया. लीबनेश्त का मृत शरीर गुमनाम रूप से शहर के लाशघर में फेंक दिया गया और लक्जे़म्बर्ग की लाश महीनों बाद लैंडव्हेर नहर में उतराई पाई गयी. अपने क़त्ल की शाम को, विद्रोह की विफलता और अपनी आसन्न मृत्यु को लगभग सुनिश्चित जानते हुए रोज़ा ने लिखा):
“नेतृत्व विफल हो गया है. इसके बावजूद भी, नेतृत्व जन समुदायों से और जन समुदायों के बीच से ही फिर से खड़ा किया जा सकता है और निश्चय ही किया जाना चाहिये. जन समुदाय ही निर्णायक तत्व हैं, वे वह चट्टान हैं जिस पर क्रांति की अंतिम निर्णायक विजय खड़ी की जायेगी ... बर्लिन में व्यवस्था का शासन है ! तुम मूर्ख जल्लादों ! तुम्हारी व्यवस्था बालू पर बनी है. कल को क्रांति पूरी गड़गड़ाहट के साथ खुद को फिर से खड़ा कर चुकी होगी और पूरे उत्साही आवेग के साथ तुम्हें आतंकित करते हुए यह घोषणा कर रही होगी: “मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूंगी !”
वर्ग सहयोग की दलाली से फासीवादी दखल तक
हर असफल क्रांति शासक वर्ग (जो खतरे में तो है मगर नष्ट नहीं हुआ है) की ओर से दोहरी प्रतिक्रिया को जन्म देती है. पहला: क्रांतिकारी पार्टी को दबा कर ख़त्म कर देने के लिए बर्बरतम दमन; और दूसरा: क्रांति के भावी प्रयासों को रोकने और जन समुदायों में अपना सामाजिक आधार बढाने के उद्देश्य से कुछेक सुधार. जर्मनी में दमन का निशाना एस. एल और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ जर्मनी (के.पी.डी.) थे और राज्य का सुधार वेइमर रिपब्लिक के रूप में पेश किया गया. पहली और आगे की सरकारें लिबरल बुर्जुआ पार्टियों और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एस.पी.डी.) के गठबंधन से बनीं. स्पष्टतः ये वर्ग सहयोग की सरकारें थीं. क्रांति की अभी भी सुलगती राख को दबाने के लिए एस. पी. डी नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने वे कदम उठाये जिन्हें आजकल श्रमशील जनता के लिए सामाजिक सुरक्षा नेट कहा जाता है. पूंजीपतियों ने भी इसके खिलाफ मूर्खतापूर्ण आत्मघाती टकराव के बजाय इसे एक परिणामवादी तात्कालिक समायोजन के रूप में स्वीकार कर लिया. जून 1919 में एक प्रमुख जर्मन उद्योगपति ने अपने साथी पूंजीपतियों के बीच इस बात को कुछ इस तरह से स्पष्ट किया :
“महोदयों, रूस में घटनाओं ने गलत मोड़ ले किया था और शुरुआत से ही उद्योग ने क्रांति को खारिज करने की नीति ले ली थी. अगर हमने भी, और यह संभव भी था, असहयोग का रुख ले लिया होता, तो मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि आज हमारे सामने भी वही स्थितियां होतीं जो रूस में हैं.”
लेनिन ने भी यह इंगित किया कि बड़े बुर्जुआ ने रूस के उदाहरण से सीख ले कर एक बेहतरीन रणनीति अख्तियार की थी. आर्थिक सहूलियत की एक छोटी सी कीमत दे कर उन्होंने और जुन्कर भूस्वामियों ने खुद को रूस से फैलती क्रांति के खतरे से बचा लिया. एस.पी.डी. और इससे जुड़े ट्रेड यूनियन नेताओं ने भी (जिनके पास मजदूरों के विशाल समुदाय का समर्थन था), क्रांति को फिर से आगे बढ़ाने के लिए वर्ग संघर्ष तेज करने की कोशिश नहीं की.
जैसा कि हम जानते हैं, राजनीतिक समझौते दो संघर्षरत पार्टियों/पक्षों के बीच अस्थायी युद्ध विराम भर होते हैं – वह समय जिसमें लड़ाई परोक्ष-सूक्ष्म तरीकों से चलती रहती है, और हर पक्ष दूसरे को चालाकी से मात देने की कोशिश में रहता है. एक पक्ष जीतता है, दूसरा हारता है. सोशल डेमोक्रेटों ने 1914 में कैसर की युद्धनीति को दिए गये समर्थन के अपने विश्वासघाती चरित्र को बनाये रखते हुए, इस बार सरकार का इस्तेमाल वर्ग संघर्ष के आयाम को विस्तार देने में करने के उलट अपने खुद के भूमि सुधार कार्यक्रम से भी किनारा कर लिया. उनकी नीति वर्ग शांति को मजबूत करने के जरिये बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था में पद से चिपके रहने की थी. ऐसे में, उन्होंने क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को अपने लिए एक बड़ी बाधा के रूप में लेते हुए राजनीतिक व हथियारबंद क्रांति और हथियारबंद प्रतिक्रांति के सीधे टकराव के दौर में उन्हें भौतिक/षड्यंत्रकारी तरीकों से भी रास्ते से हटाने का प्रयास किया.
बड़े बुर्जुआ के साथ समझौतों, लिबरल बुर्जुआ के साथ गंठजोड़ों और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के साथ संघर्ष पर आधारित सोशल डेमोक्रेटिक प्रतिरूपों के साथ एक और प्रतिरूप जो आने वाले दशकों में पूरी दुनिया में दुहराया जायेगा – नवजात एस.एल. – के.पी.डी. की तर्ज का होगा जिन्होंने “लेफ्ट विंग कम्युनिज्म: ऐन इन्फेनटाइल डिसआर्डर” की अपने हिस्से की अदायगी की थी. उन्होंने जनतांत्रिक क्रांति से समाजवादी क्रांति की ओर निर्बाध संक्रमण की जरूरत को बिलकुल सही रेखांकित किया, मगर जारी गृह युद्ध में वर्ग शक्तियों के समवेत संतुलन का सटीक आकलन कर पाने से शुरुवात में चूक गए, जरूरत से कहीं ज्यादा तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश की और भारी नुकसान उठाया. इसने क्रांति की सम्भावना को और भी कमजोर कर दिया. बहरहाल, रिपब्लिक की स्थापना के बाद, उन्होंने जनतंत्र की रक्षा की दिशा में सोशल डेमोक्रेटों के हर कदम का समर्थन किया और साथ ही उनके घुटने टेकने के हर कदम का विरोध भी किया. फासीवाद के खिलाफ संघर्ष में दोनों पार्टियों के एकजुट होने की विफलता ने प्रतिक्रियावादी बड़े बुर्जुआ को धीरे-धीरे अपना वर्चस्व वापस हासिल करने में मदद की (1920 दशक के मध्य में आठ घंटे काम के दिन को ख़ारिज करना, जो रिपब्लिक की स्थापना के बाद जल्दी ही लागू किया गया था, और 1932 में ओट्टो ब्राउन के नेतृत्व वाली प्रशिया की सोशल डेमोक्रेटिक सरकार को बर्खास्त करना आदि). संसद के अन्दर और बाहर नेशनल सोशलिस्टों के सबसे मजबूत दक्षिण पंथी और दुर्दांत वाम-विरोधी व मजदूर विरोधी पार्टी के रूप में उभरने के साथ-साथ बड़े बुर्जुआ और नात्जि़यों का लगातार निकटतर सम्बन्ध बनता गया. वेइमार रिपब्लिक की जगह हिटलर के “थर्ड राइक” की स्थापना के साथ बड़े बुर्जुआ का निर्णायक वर्चस्व स्थापित हो गया.
1920 दशक में जर्मनी
1920 दशक के आर्थिक संकट ने, जिसकी परिणति 1929 की महामंदी में हुई और जिसने व्यापक पैमाने पर आर्थिक तबाही मचाते हुए वर्ग संघर्ष को आवेग दिया, इटली, फ्रांस, अमेरिका, आस्ट्रिया, रोमानिया, पुर्तगाल, इंग्लैंड और स्पेन जैसे देशों में फासीवादी गुटों के उभार की साझी पृष्ठभूमि तैयार की. इनमें से कई फासिस्ट समूहों ने सत्ता भी दखल की. मगर यह जर्मनी था जिसे सबसे नृशंस रूप में एक बर्बर व सफल नस्लीय जनसंहारी फासिस्ट सत्ता का बसेरा बनने का दुर्भाग्य मिला.
ऐसा अपवाद सरीखे सामाजिक-राजनीतिक विकासक्रमों के संश्रय और एक असाधारण राजनीतिक नेता के चलते संभव हो सका जो अपने मिशन को किसी भी कीमत पर हासिल करने पर आमादा था. अभूतपूर्व आर्थिक संकट की तकलीफें, निजी और सामाजिक जीवन में उथल-पुथल और आहत राष्ट्रीय गर्व, जो युद्ध में पराजय व वर्साय संधि की अपमानजनक शर्तों के चलते उपजा था और जिसने औद्योगिक सर्वहारा का गर्वीला अपवाद छोड़ कर सारे वर्गों व सामाजिक संस्तरों को फासीवादी प्रोपेगैंडा का आसान शिकार बना दिया, आदि सहायक वस्तुगत कारक काफी जाने-पहचाने हैं, इसलिए हम इनके विस्तार में नहीं जायेंगे. इसके बजाय, हम फासीवाद की राजनीति की पड़ताल करेंगे. यह समझने की कोशिश करेंगे कि ठीक-ठीक कैसे, किस रणनीतिक परिप्रेक्ष्य, कार्यनीतिक चालबाजियों और कार्य पद्धति के साथ हिटलर युद्धोत्तर जर्मनी की राजनीति में तूफानी समुद्रों को पार करता हुआ इतनी तेजी और इतने मारक प्रभाव के साथ राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने लक्ष्य तक पहुँच सका.
एक मामूली सैनिक कैसे राजनीतिज्ञ बना
एडोल्फ़ हिटलर का जन्म 20 अप्रैल 1889 को ऊपरी आस्ट्रियाई सीमान्त शहर ब्रौनाऊ एम इन् में हुआ था जो म्यूनिख से बहुत दूर नहीं था. उसने 30 अप्रैल 1945 को बर्लिन के एक भूमिगत बन्कर में अपनी जीवन लीला खुद ख़त्म की जब उसे खबर मिली कि उससे प्रतिशोध लेने के लिए रूस की लाल सेना शहर में दाखिल हो चुकी है. हिटलर का पिता अलोइस हिटलर एक मझले दर्जे का कस्टम कर्मचारी था. अपनी युवावस्था में हिटलर ने दो बार अकादमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स में दाखिला लेने की असफल कोशिश की. इसके बावजूद वह विएना के दृश्यों की जलरंग पेंटिंग बना कर अपनी आजीविका किसी तरह कमाता रहा. वह अपने अभिभावकों की छोड़ी अच्छी-खासी विरासत उड़ा चुकने के बाद सालों तक बेघर-बार आश्रयों में गुजारा करता रहा. उन्हीं दिनों उस पर जर्मन नस्लवादी व यहूदी विरोधवादी धाराओं का प्रभाव पड़ा. 25 साल की उम्र में वह युद्ध में एक “प्राईवेट” (सबसे निचले दर्जे का सिपाही) के रूप में शामिल हुआ और मार्च 1920 में वर्साय संधि लागू होने के बाद अन्य लोगों के साथ “डिसचार्ज” हुआ.
1918-1919 में, क्रांतिकारी उभारों और प्रति-क्रन्तिकारी प्रतिक्रियाओं के दौर में हिटलर म्यूनिक में रह रहा था जो चरम दक्षिण राष्ट्रवादी ताकतों का गढ़ था. वह न तो क्रांति का समर्थक था और न ही विरोधी. प्रारंभिक क्रांतिकारी ज्वार के दौर में वह सुविधाजनक-अवसरवादिता के साथ सोशल डेमोक्रेटों के खेमे में नज़र आता था. मगर कुल मिला कर वह बच-बचा कर रहने की नीति पर ही चलता रहा[1]. हाँ, बाद में वह हमेशा इसकी और इसके उत्पाद वेइमार रिपब्लिक की आलोचना और साथ ही उन एस पी डी नेताओं- नोस्के, एबर्ट, शायदेमान, और बावेरियाई नेता अउएर आदि की सराहना भी करता रहा जिन्होंने “भूले से भी कभी क्रांति की चिंगारी जगाने की नहीं सोची”.
हिटलर सितम्बर 1919 से सक्रिय राजनीति में आया जब उसने जर्मन वर्कर्स पार्टी (डी.ए.पी) की एक सभा में शिरकत की. डी.ए.पी. उन बहुतेरे नस्लवादी – उन्मादी अंधराष्ट्रवादी गुटों में से एक था जो 1918 के बाद से म्यूनिक में उभरने लगे थे. उसके भाषण की काफी सराहना हुई और जल्दी ही उसे पार्टी में शामिल होने का निमंत्रण मिला. वह झटपट तैयार भी हो गया क्योंकि भले ही डी.ए.पी अभी एक छोटे, प्रभावहीन और शुरुवाती दौर में था, यह उसके लिये तेजी से आगे बढ़ने और पार्टी को अपने अनुसार ढाल लेने का सुनहरा मौका था. “स्टार वक्ता” के रूप में हिटलर के साथ डी.ए.पी. की सभाओं में भीड़ बढ़ने लगी. हिटलर के कट्टर अति-राष्ट्रवाद और संवाद अदायगी की नाटकीय शैली ने पार्टी नेताओं का ध्यान खींचा और आश्चर्यजनक रूप से उसे अपनी रेजिमेंट के शिक्षा अधिकारी के सहायक की नियुक्ति मिल गयी.
जनोन्माद उकसाने वाला वक्ता
वाक् पटुता का वरदान हिटलर के राजनीतिक कैरियर के उभार का सबसे बड़ा हथियार था.
आम धारणा के विपरीत, हिटलर ने कभी बिना तैयारी के भाषण नहीं दिया. वह अपने सारे जन संबोधनों के लिए शातिर चतुराई के साथ तैयारी करता था. अपने दो से तीन घंटों के नाटकीय भाषणों पर केन्द्रित रहने के लिए वह दर्जनों पन्ने जुमलों और नारों से भर कर रखता था. लोगों में उत्सुकता की उत्तेजना बढाने के लिए वह आम तौर पर सभाओं में देर से पहुँचता था. उसके भाषण एक बंधे-बंधाये ढर्रे पर होते थे. ज्यादातर वह शुरुवात धीरे-धीरे, जैसे हिचकिचाते हुए करता था. इतिहासकार जॉन तोलैंड के अनुसार वह करीब दस मिनट एक मंजे हुए अदाकार की तरह श्रोताओं का मन भांपने में लगाता था. उनके मूड के प्रति आश्वस्त हो जाने के बाद वह इत्मीनान से अपना धाराप्रवाह शुरू करता. इसके बाद वह अपनी लाइनों के बीच अपनी नाटकीय अदायें भरता – सर को पीछे झटकना, दायाँ हाथ आगे बढ़ाना-तानना-लहराना, खास कर मसालेदार वाक्यों में अपने आक्रोश को दिखाने के लिए – वक्ता मंच पर मुट्ठियाँ मारना ... शब्दों का चयन और लहज़ा लगातार आक्रामक होता जाता. उसकी खुद की उत्तेजना जैसे संक्रमण की तरह फैलती. उत्तरोत्तर चरम पर पहुँचती उत्तेजना के साथ जब वह अपना भाषण पूरा करता, समूचे श्रोता उन्माद के नशे में पागल हो रहे होते और वक्ता भी पसीने में तर-ब-तर अपने बनाए माहौल का अभिवादन स्वीकार कर रहा होता.
ऐसे तमाम कारक थे जिन्होंने हिटलर की वक्तृत्व शक्ति में योगदान किया : समूचे शरीर से बोलती हुई लचकदार बोली उसका सबसे बेहतरीन हथियार था जिसका उसने भरपूर और शातिर इस्तेमाल किया. उसने “युद्ध के बाद के सताये अकिन्चन की भाषा-बोली” पर पूरी तरह महारत हासिल कर ली थी. अपने भाषणों में वह न सिर्फ भूतपूर्व सिपाही की उजड्ड शब्दावलियों, बल्कि व्यंग और विडंबनाओं के भी मसाले भरता. वह धार्मिक छवियों और भावों के इस्तेमाल के जरिये अपने श्रोताओं के विचारों व भावनाओं को व्यक्त कर सकने में भी खूब माहिर था : उसने न सिर्फ उनके भय, पूर्वाग्रहों, आक्रोश-असंतोष, बल्कि उनकी आशाओं-उम्मीदों-आकांक्षाओं का भी भरपूर शोषण किया. हिटलर का पहला जीवनीकार, कोनार्ड हीदेन कहता है कि हिटलर “खुद से सम्मोहित” – अपने शब्दों से इस कदर अविछिन्न व्यक्ति था कि जब वह सरासर झूठ बोल रहा होता तब भी उसके श्रोता उसे पूरी तरह सच मान रहे होते.”
हिटलर के भाषण आमतौर पर श्रोताओं को “युद्ध के पहले के फलते-फूलते-खुशहाल अद्भुत जर्मनी” में ले जाते. वह बार-बार श्रोताओं का ध्यान “1914 के महान शौर्यवान समय” की ओर ले जाता, जब जर्मनी के लोग अभूतपूर्व रूप से एकजुट थे और उन्हें बाहरी ताकतों द्वारा जबरन थोपे गए युद्ध में घसीट लिया गया था. इस महिमामंडित अतीत का इस्तेमाल हिटलर वर्तमान को निपट अँधेरे का रंग देने के लिए करता. उसके भाषणों का स्थायी सन्दर्भ यह था कि 1918-19 की क्रांति जर्मनी को पतन और गुलामी की ओर ले गयी. इसके लिए यहूदी और “वाम” जिम्मेदार थे जिन्हें वह “क्रांतिकारी” अथवा “नवम्बर के अपराधी” कहता : “गजब की निर्भीक सेना” की पीठ पर “यहूदी-सोशलिस्टों” द्वारा छुरा भोंका गया, जिन्हें यहूदी पैसे की घूस मिलती थी. यह हिटलर का वह वक्तव्य था जिसे यू.पी.एस.डी. के पर्चे में अप्रैल 1920 में उद्धृत किया गया था. तीसरी सुप्रीम कमांड के भूतपूर्व प्रमुखों – पॉल वॉन हिन्डेन्बर्ग और एरिच लुदेन्दोर्फ़ ने इस “पीठ में छुरा” जुमलेबाजी की शुरुवात की जो दक्षिण पंथी राष्ट्रवादियों के प्रोपेगेंडा शस्त्रागार का स्थाई तत्व बन गया.
वर्साय संधि पर जबदस्त हमले हिटलर के अभियानों का केन्द्रीय हिस्सा थे. निहायत शर्मनाक और अपमानजनक शांति संधि के रूप में पेश कर के इसका इस्तेमाल लोगों में व्याप्त कड़वाहट को भरपूर हवा देने में होता. हिटलर लगातार अपने श्रोताओं के दिलो-दिमाग में इसे “गुलामी” के रूप में बैठाने के लिए प्रहार करता और इसे वेइमार रिपब्लिक व उसके नेताओं के खिलाफ नफ़रत-हिकारत भरे हमलों के काम में लाता. इसके जरिये वह जर्मनी की नयी जनतांत्रिक व्यवस्था की बारी-बारी से “नीच-दुष्टों की रिपब्लिक”, “बर्लिन की यहूदी सरकार” और “अपराधियों की रिपब्लिक” के रूप में भर्त्सना करता.
नात्ज़ीवाद के निर्माता तत्व
अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुवात से अंत तक हिटलर की विश्व दृष्टि और राजनीति के तीन आधारभूत तत्व थे:
(i) रेडिकल यहूदी विरोधवाद[2] (ii) आक्रामक बोल्शेविकवाद /साम्यवाद /मार्क्सवाद विरोध और (iii) नस्लीय / राष्ट्रीय पुनरुत्थानवाद और अंध राष्ट्रवाद जिसके साथ “पूर्वी इलाकों में रहने के लिए स्थान” का आक्रामक उन्माद अविछिन्न रूप से जुड़ा था. जर्मनी की उस समय की दक्षिण पंथी राजनीति में ये सारी बाते कोई नयी नहीं नहीं थी, मगर हिटलर ने इनकी अतुलनीय रूप से बेहतर “पैकेजिंग और मार्केटिंग” की. तीसरा तत्व – भयावह-तीक्ष्ण, श्रेष्ठतावादी राष्ट्रवाद उसके भाषणों और लेखों में हमेशा ही मौजूद रहता, मगर इसी के साथ वह स्थान और श्रोताओं की जरूरत के हिसाब से इस या उस तत्व पर विशेष बल दिया करता.
1920 के एक भाषण में उसने कहा : राज्य बना सकने में असमर्थ यहूदी घुमंतू ... अन्य लोगों के शरीरों पर परजीवियों ... अन्य नस्लों के अन्दर एक नस्ल और अन्य राज्यों के अन्दर एक राज्य की तरह रहते थे. अपनी दो सबसे खास नस्लीय प्रवृत्तियों – “धन लोलुपता और भौतिकतावाद” के चलते उन्होंने और तमाम नश्वर मनुष्यों की तरह जरूरी पसीना और श्रम लगाये बिना ही अकूत धन-सम्पदा जमा कर ली है. इसी के साथ हिटलर अपने प्रिय विषय-अंतर्राष्ट्रीय “महाजनी और स्टॉक मार्केट पूँजी” पर आ जाता है – जिसने “कल्पनातीत रूप से बढ़ते चले जाते पैसे और सबसे खराब बात यह कि इसके जरिये सारे ईमानदार प्रयासों को भ्रष्ट करते हुए व्यवहारतः समूची दुनिया पर अपना कब्ज़ा” जमा रखा है. हिटलर ने दावा किया “यहूदी समुदाय के खिलाफ अपने लोगों की सहज घृणा की प्रवृत्ति को जागृत, संवर्धित और आवेगित करने के जरिये” नेशनल सोशलिस्ट इस विनाशकारी ताकत से लोहा लेने के लिए आगे आये हैं. यहाँ से – “स्टॉक मार्केट और महाजनी पूँजी के जर्मनी को अपने शिकंजे में जकड़ने” से – हिटलर आराम से “विश्वव्यापी यहूदी साजिश” के त्रासद आतंक की ओर मुड़ जाता.
24 फरवरी 1928 को पार्टी कार्यक्रम की आठवीं वर्षगाँठ पर हिटलर ने घोषणा की : “अगर वह (यहूदी) सुधर जाता है, वह रह सकता है – अगर नहीं तो उसे निकाल बाहर करो” (लगता है गोलवलकर ने मुसलमानों के लिए अपनी कुख्यात चेतावनी सीधे यहीं से ली थी). मगर उसी साँस में वह यह भी दावा करता है कि “हम अपने घर के मालिक हैं” और फिर यह कातिल चेतावनी जारी करता है “परजीवियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं हो सकती, उन्हें सिर्फ नष्ट ही करना होता है”.
1920 के एक अन्य भाषण में हिटलर कहता है : “जो रूस में आज शीर्ष पर हैं वे मजदूर नहीं, बल्कि बिना किसी संदेह के हीब्रू हैं. हिटलर ने “यहूदी तानाशाही” और रूसी जनता के जीवन से प्राण सोख लेने वाली “मास्को यहूदी सरकार” की बातें करते हुए एन.एस.डी.ए.पी. से “यहूदी बोल्शेविज्म के गन्दे भोजन” के खिलाफ “कूट कर कीमा बना देने वाले जर्मन चरित्र वाला प्रहारक” बनने का आह्वान किया.
आखिर किस आधार पर कोई “यहूदी बोल्शेविज्म” या “मास्को यहूदी सरकार” की बात कर सकता था? यह सही है कि कई बोलशेविक नेता यहूदी पृष्ठभूमि के थे, और ऐसा कई अन्य देशों के कम्युनिस्ट नेताओं के साथ भी था. हिटलर इस तथ्य का इस्तेमाल करके यह दावा करने वाला अकेला नहीं था कि बोल्शेविज्म का निर्देशन-संचालन यहूदी कर रहे थे. ऐसा कर के वे अपने दो दुश्मनों को एकाकार कर रहे थे. बानगी के लिए देख सकते हैं कि विन्स्टन चर्चिल बोल्शेविकों के खिलाफ कैसा विष वमन करता है (बॉक्स देखें).
मार्क्सवाद को ले कर हिटलर का मानना था कि इसे नष्ट कर के वह वर्ग संघर्ष का नामो-निशान मिटा कर एक “सच्चे एथनिक – लोकप्रिय समुदाय” का निर्माण कर सकेगा. इसी के साथ वह लगातार राष्ट्रवाद और समाजवाद के समागम” के लिए दिमाग के श्रमिक और मुट्ठियों के श्रमिक “की एकजुटता के नये-नये जुमले भी ईजाद कर रहा था. नेशनल सोशलिज्म न तो बुर्जुआ को जानता था न ही सर्वहारा को, वह सिर्फ “अपने लोगों के लिए काम करते जर्मन” को जानता था.
अक्सर हिटलर नफ़रत के अपने दोनों शिकारों को मिला दिया करता था; 1927 में उसने लिखा : “यहूदी दुनिया का दुश्मन है और रहेगा, और उसका सबसे बड़ा हथियार, मार्क्सवाद मानवता के लिए प्लेग है और रहेगा”.
ईसाइयत को हड़पना
नेशनल सोशलिज्म खुद को एक राजनीतिक धर्म के तौर पर निरुपित करता था. गोएबेल्स ने अपनी डायरी में लिखा : “ईसाइयत का आज हमारे लिए क्या अर्थ है? नेशनल सोशलिज्म एक धर्म है”. यह दृष्टिकोण पार्टी के एक “आस्था के समुदाय” में विस्तार और इसके कार्यक्रम को “विचारधारात्मक पंथ” बनाने की नीति की पूरी संगति में था. बाइबिल प्रचारकों की तरह, फ्यूरर के शिष्यों का काम नात्ज़ी सिद्धान्तों को “अपने लोगों में ईसाई धर्म शिक्षा की तरह” फैलाना था. यह एक बड़ा कारण था कि हिटलर एन.एस.डी.ए.पी. के पच्चीस सूत्री मूल मेनिफेस्टो में किसी भी तरह के संशोधन पर विचार करने से हमेशा इनकार करता रहा. उसके निकटतम विश्वस्त हैन्फ्स्तेगल ने एक बार उसे इनमें कुछ व्यवहारिक संशोधन करने का सुझाव दिया था जिस पर उसने जबाब दिया : “हरगिज़ नहीं. यह जैसा है वैसा ही रहने जा रहा है. न्यू टेस्टामेंट भी अंतर्विरोधों से भरा पड़ा है, मगर इससे ईसाइयत के प्रसार में कोई बाधा नहीं आयी”. नात्ज़ी पार्टी के 1925 के क्रिसमस समारोह में उसने शुरुवाती ईसाइयत और अपने “आन्दोलन” के बीच साम्य को रेखांकित किया. ईसा मसीह का भी शुरू में उपहास उड़ाया गया, इसके बावजूद ईसाई आस्था एक विशाल-व्यापक वैश्विक आन्दोलन बन गया था. एन.एस.डी.ए.पी. के चेयरमैन ने गर्जना की : “हम वही चीज राजनीति के क्षेत्र में हासिल करना चाहते हैं”. साल भर बाद वह खुद को खुले तौर पर जीसस के उत्तराधिकारी के रूप में पेश कर रहा था जो अपना काम पूरा कर के रहेगा. हिटलर ने घोषित किया : “नेशनल सोशलिज्म क्राइस्ट की शिक्षाओं के अनुपालन के अलावा कुछ भी नहीं है.”
अपने भाषणों, खासकर इनके चरम उत्तेजना के प्रलापों में हिटलर अक्सर धार्मिक शब्दावलियों का इस्तेमाल किया करता था. वह धार्मिक उद्घोष “आमेन”, या फिर “नए पवित्र जर्मन साम्राज्य के प्रति आस्था घोष” अथवा “सारे राक्षसों की चुनौती का मुकाबला करते हुए मुझे अपना कर्तव्य करते रहने की शक्ति देने के किये हमारे प्रभु से याचना” के आह्वान के साथ अपना भाषण पूरा किया करता. वह अपने अनुयाइयों को बराबर आगाह करता कि उनके मार्ग में बलिदानों की कभी कमी नहीं रहेगी. यहाँ भी वह शुरुवाती ईसाइयत के साथ साम्य बनाता था : “चलते रहने के लिए हमारे पास काँटों से भरा पथ है और हमें इस पर गर्व है”. हिटलर ने वादा किया कि वे “रक्त साक्षी” जिन्होंने नात्ज़ी आन्दोलन के लिए अपना जीवन बलिदान किया है, वही सम्मान और गौरव पायेंगे जो कभी क्रिश्चियन शहीदों के लिए सुरक्षित हुआ करता था.
“... स्पार्टाकस-वेइशाउप्ट दिनों से ले कर कार्ल मार्क्स, और ट्रात्स्की (रूस), बेला कुन (हंगरी), रोज़ा लक्जे़म्बर्ग (जर्मनी), और एम्मा गोल्डमान (अमेरिका) तक, सभ्यता को उखाड़ फेंकने और समाज के अवरुद्ध विकास, ईर्ष्यालु विद्वेष, और असम्भव समानता पर आधारित समाज के पुनर्निर्माण की विश्वव्यापी साजिश लगातार बढ़ती जा रही है...
बोल्शेविकवाद के निर्माण और रूसी क्रांति को सचमुच साकार करने में इन अंतर्राष्ट्रीय और ज्यादातर अनीश्वरवादी यहूदियों द्वारा अदा की गयी भूमिका को बढ़ाने-चढ़ाने की जरूरत नहीं है....लेनिन के उल्लेखनीय अपवाद के साथ, प्रमुख नेतृत्वकारी लोग यहूदी ही हैं.”
– विन्स्टन लियोनार्ड स्पेंसर चर्चिल
ज़ायनवाद बनाम बोल्शेविकवाद
(“इलस्ट्रेटेड संडे हेराल्ड”, 8 फरवरी, 1920)
फ़ासिस्ट मेनिफेस्टो
डी.ए.पी. नेता अन्तोन ड्रेक्स्लर के साथ मिल कर, जिससे उसने राष्ट्रवाद और समाजवाद को मिलाने, मजदूर वर्ग को मार्क्स की झूठी शिक्षाओं से मुक्त कराने, और उन्हें राष्ट्रवादी पाले में खींच लाने का विचार हासिल किया था, हिटलर ने पार्टी कार्यक्रम पेश किया जो उस समय के जातीय-अंधराष्ट्रवादी व यहूदी-विरोधी हलकों-तबकों में प्रचलित विचारों की जबर्दस्त अभिव्यक्ति था. एजेंडा के शीर्ष पर सारे जातीय जर्मनों से एक वृहत्तर जर्मनी के अन्दर एकजुट होने का आह्वान था. इसके बाद वर्साय संधि को रद्द करने और जर्मनी के उपनिवेशों को वापस करने की मांगे थी. चौथा बिंदु पार्टी की घोर यहूदी-विरोधी दृष्टि की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी : “केवल एक जातीय साथी (Volksgenosse) ही नागरिक हो सकता है. केवल वही जो जर्मन रक्त का हो, उसका धर्म चाहे जो हो, एक जातीय साथी हो सकता है. इसलिए कोई भी यहूदी जातीय साथी नहीं हो सकता.” इसके बाद जर्मनी में रह रहे सारे यहूदियों को कानूनन विदेशी मानने और आगे भविष्य में किसी भी यहूदी को जर्मनी में न आने देने की मांगें थी.
इनके अलावे “कार्यहीन, प्रयासहीन आमदनी को जड़ से मिटाने” (यहूदी साहूकारों और बैंकरों के खिलाफ) और बिना किसी अपवाद के युद्ध काल का सारा मुनाफा जब्त करने की मांग थी. मजदूर वर्ग को लुभाने के लिए बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण, मुनाफे में हिस्सेदारी और पेंशन व्यवस्था के विस्तार की भी मांगे शामिल की गयी थीं. मध्यम वर्ग को लुभाने के लिए बड़े डिपार्टमेंटल स्टोरों के सामुदायीकरण और किसानों के लिए भूमि सुधारों का वादा था. कार्यक्रम में “सामुदायिक कल्याण, स्वार्थ से पहले”, “केन्द्रीय प्राधिकार को मजबूत करने” जैसे नारे “भ्रष्टकारी संसदीय व्यस्था के खिलाफ संघर्ष” की प्रतिज्ञा के साथ शामिल थे.
कुल मिला कर, इस कार्यक्रम/मेनिफेस्टो से पूरी तरह स्पष्ट था कि सर्वोपरि उद्देश्य नवजात वेइमार रिपब्लिक के जनतंत्र से छुटकारा पाना और सजातीय समुदाय के लिए एक ऐसे अधिनायकवादी शासन की स्थापना करना था जिसमें यहूदियों के लिए कोई जगह नहीं थी. इसी के साथ इसमें वैसे छींटे भी थे जिन्हें हम आजकल “निम्बुई समाजवाद” (lemon Socialism) कहते हैं (जैसे कुछेक चीज़ों का राष्ट्रीयकरण आदि)[3]. 24 फरवरी 1920 को दो हजार की जनसभा में इसे पढ़ा गया जिसका बहुसंख्या द्वारा भारी हर्षध्वनि के साथ स्वागत और वहां काफी संख्या में मौजूद राजनीतिक वाम द्वारा जबरदस्त विरोध भी किया गया.
यह हिटलर की राजनीतिक चतुराई थी कि उसने एक निष्प्राण “जर्मन वर्कर्स पार्टी’ के साथ “नेशनल सोशलिस्ट” शब्दावली जोड़ी (जिससे “नात्ज़ी “शब्द निकला). राष्ट्रवाद और समाजवाद उस समय की दो सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक धारायें थीं, और उसने दोनों ही धाराओं के लोगों को ठगने – आकर्षित करने का प्रयास किया. इस तरह पार्टी का नया नामकरण “नेशनल सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी ऑफ़ जर्मनी” (एन.एस.डी.ए.पी.) पड़ा और उपरोक्त सभा नात्ज़ी आन्दोलन का आधार रखने वाली कार्यवाही बनी. हिटलर ने Mein Kampf (मेरा संघर्ष) के पहले खंड के अंत में लिखा : “आग जला दी गयी थी, जिसके अंगारों से निश्चय ही वह तलवार निकलेगी जो जर्मन सिएग्फ़्रिएद (जर्मन दंत कथाओं का महानायक) को आज़ाद और जर्मन राष्ट्र के लिए जीवन की पुनर्स्थापना करेगी... हाल धीरे-धीरे खाली होता गया. आन्दोलन ने अपना रास्ता ले लिया था”.
हिटलर के लिए समाजवाद निश्चित रूप से एक मुखौटा भर था. मगर कुछ लोग थे जिन्होंने इसे ज्यादा गंभीरता से ले लिया- जैसे जोसेफ गोएबेल्स और ग्रेगोर स्त्रास्सेर. गोएबेल्स ने अपनी डायरी में लिखा : “नेशनल और सोशलिस्ट! इसमें क्या प्राथमिक है और क्या बाद में आता है ? यहाँ पश्चिम में हमारे बीच जबाब को ले कर कोई संशय नहीं है. पहले सोशलिस्ट मुक्ति और फिर उसके बाद राष्ट्रीय मुक्ति एक ताकतवर तूफ़ान की तरह आएगी.” 1925 में उन्हें इस लाइन पर पार्टी कार्यक्रम को संशोधित करने का विचार आया. इसके लिए उन्होंने “वर्किंग असोसिएशन नार्थ-ईस्ट” की स्थापना की जिसमें हिटलर को स्पष्ट रूप से अपना नेता स्वीकार किया गया था. जब उन्होंने एक सम्मलेन में अपना संशोधन प्रस्तुत किया, वे हिटलर की सहमति के प्रति आश्वस्त थे. मगर हिटलर ने इन सब की जबरदस्त मलामत करते हुए पार्टी कार्यक्रम को पवित्र और असंशोधनीय घोषित कर दिया. नार्थ-ईस्ट की वर्किंग असोसिएशन भंग कर दी गयी. मगर बहुत जल्दी ही फिर हिटलर ने गोएबेल्स और स्त्रास्सेर दोनों को ही अपना मित्र-अनुयायी बना कर जीत लिया. यह आखिरी बार था जब पार्टी की राजनीतिक दृष्टि को ले कर कोई खुली बहस हुई, हालाँकि कार्यनीति को ले कर विभेद फिर उभरेंगें.
फुट नोट :
1. अपनी पूरी ऊर्जा केवल अपने एजेण्डा और संगठन पर केन्द्रित करना और किसी अन्य दल अथवा आन्दोलन के साथ एकता को नकारना, यहां तक कि महत्वपूर्ण मोड़ों पर भी, उसका यह रुख उसकी राजनीति का स्थायी लक्षण बना रहा.
2. विश्व के कई हिस्सों में यहूदी विरोध की प्रवृत्ति विभिन्न प्रकार से माैजूद थी. उदाहरण के लिए अमेरिकी कार निर्माता हेनरी फोर्ड ने एक नस्लवादी पर्चा निकाला जिसका शीर्षक था – “अंतर्राष्ट्रीय यहूदी, दुनिया की सर्वप्रथम समस्या” – 1922 में इसका जर्मन अनुवाद आते ही यह खूब बांटा गया. कहा जाता है कि इस पर्चे का हिटलर पर काफी प्रभाव हुआ.
3. ‘पूंजीवाद विरोधी रुझान’ – इस प्रकार (राष्ट्रीय) समाजवाद – साफतौर पर सूदखोरी में लगी पूंजी से जोड़ कर देखा जाता था, इसे हिटलर ‘बिना मेहनत और पसीना बहाये’ सम्पत्ति बढ़ाने वाला कहता था परन्तु यह दरअसल इस व्यवसाय में प्रभुत्वशाली यहूदी समुदाय के खिलाफ लक्षित था. यहूदी विरोधी पूर्वाग्रह लम्बे समय से यूरोप में मौजूद थे (मर्चेन्ट ऑफ वेनिस को याद कीजिये), अत: ऐसी परिस्थितियां थीं कि हिटलर द्वारा यहूदियों को जब बलि का बकरा बनाया गया तो बहुतों ने उसे सच मान लिया. यह 'पूंजीवाद-विरोधी' जुमला बाद के सालों में भी चलता रहा ताकि एक मजदूर हितैषी व गरीब-पक्षीय छवि बन सके (हालांकि इस पर जोर कभी नहीं था और न ही इस दिशा में कोई ठोस काम हुआ, और व्यापार के महारथियों के साथ बन्द दरवाजों के पीछे होने वाली मुलाकातों में यह पीछे हो जाता था)