अरिंदम सेन
हमारे समय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण जन नेता मार्क्स के घटनाओं भरे मेधावी जीवन की विराट कहानी को कुछ पृष्ठों में समेट देने का मक़सद सिर्फ़ यह है कि पाठक इस संक्षिप्त परिचय से आगे बढ़कर मार्क्स की रचनाओं को ऐतिहासिक संदर्भों में तफ़सील से पढ़ें.
मार्क्स के जीवन के बहुत सारे पहलू हैं पर जैसा उनके दोस्त एंगेल्स ने उनके बारे में कहा था कि महान सिद्धांतकार मार्क्स सबसे बढ़कर एक ‘क्रांतिकारी’ थे. आइए, जीवन और काम-काज में वैज्ञानिक सिद्धांत को क्रांतिकारी व्यवहार से मिलाने वाले ऐसे दार्शनिक से मिलते हैं जिसके लिए ‘सुख’ का मतलब ‘संघर्ष करना’ था, ‘दुर्गति’ का मतलब जिसके लिए ‘समर्पण करना’ था और जिसने ‘उद्देश्य की एकनिष्ठता’ को अपनी ‘प्रमुख विशेषता’ घोषित किया[1].
ठीक-ठाक जीवन स्थितियों वाले वक़ील पिता की संतान कार्ल हेनरिक मार्क्स का जन्म 05 मई 1818 को प्रशिया के त्राएर शहर में हुआ जहाँ स्थानीय जिम्नेजियम में उन्होंने शुरुआती पढ़ाई-लिखाई की. सत्रह साल की उम्र में स्कूल छोड़ते हुए उन्होंने एक युवा के पेशे के चुनाव विषय पर निबंध लिखा जिसमें उनकी समझ साफ़ दिखाती है: “अगर वह सिर्फ़ अपने लिए काम करता है तब वह बहुत सीखा-पढ़ा आदमी बन सकता है, महान संत हो सकता है, शानदार कवि हो सकता है, लेकिन पूरी तरह सच्चा महान आदमी नहीं बन सकता.” दूसरी तरफ़ अगर कोई व्यक्ति अपनी ज़िंदगी में ऐसा मक़ाम चुनता है जो उसे इंसानों की सेवा का बेहतरीन मौक़ा देता हो तो अहम् के तुच्छ और सीमित आनंद की बजाय उसकी ख़ुशी लाखों लोगों से जुड़ जाएगी; और कोई भी बोझ उसे झुका नहीं सकेगा[2]. आज़ादी और इंसानियत को प्यार करने के ये उद्धत विचार हीगेल के आदर्शवाद का आधार पाकर मार्क्स में तब तक बढ़ते रहे जब वे बॉन और बर्लिन में विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे. उनके विषय थे: विधि, दर्शन और इतिहास. बर्लिन में वे ‘युवा हीगेलवादी’ समूह के प्रमुख सदस्य थे. यह समूह हीगेल के दर्शन से नास्तिक और क्रांतिकारी निष्कर्ष तलाशने की कोशिश करता था. हीगेल के दर्शन में इसाई कट्टरपंथ ढूँढने और मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को उचित ठहराने वाले दक्षिणपंथी हीगेलवादियों का विरोध करते थे. हालाँकि इन समूहों के बीच की बहस धर्मशास्त्रीय और अकादमिक उद्देश्य से संचालित लगती है पर इस बहस का एक ठोस राजनीतिक मतलब भी था. ये युवा हीगेलवादी धर्म को दैवी इलहाम नहीं मानते थे. वे धर्म को इंसानी मिज़ाज का उत्पाद मानते थे. वे मानते थे कि हक़ीक़त को आलोचना द्वारा बदला जा सकता है. ऐसा करते हुए ये युवा प्रशियाई निरंकुशता से लड़ रहे थे. इन्हीं कारणों से उनका दर्शन क्रांतिकारी जर्मन बुर्जुवा का दर्शन बन गया.
1841 में दर्शन में शोध पूरा करने के बाद मार्क्स पढ़ाने के लिए बॉन शहर पहुँचे. पर वहाँ निरंकुश शासन के विरोध के चलते पहले ही लुडविग फ़ायरबाख और ब्रूनो बेवर जैसे वरिष्ठ अध्यापकों को बाहर निकाला जा चुका था. ऐसे में मार्क्स ने अकादमिक दुनिया में जाने के विचार को अलविदा कह दिया. इसी बीच 1841 में फ़ायरबाख का निबंध ‘इसाईयत का सारतत्व’ छपा. मार्क्स सहित अन्य युवा हीगेलवादी फ़ायरबाख के आक्रामक भौतिकवादी विचारों की तरफ़ बेतरह आकर्षित हुए. फ़ायरबाख पहले व्यक्ति थे जो, सीमित दायरे में ही सही, युवा हीगेलवादियों के आदर्शवाद से छुटकारा पाने में सफल रहे थे. मार्क्स उत्साहपूर्वक दर्शन के अध्ययन और अपनी दार्शनिक पद्धति व व्यवस्था को विकसित करने में लगे हुए थे. इसी बीच राइन सूबे के क्रांतिकारी बुर्जुवा समूह ने 1842 की शुरुआत में ‘रेनिशे जेतुंग’ नाम का विपक्षी अख़बार निकाला और ऊपर वर्णित दार्शनिक एकजुटता के चलते मार्क्स और ब्रूनो बेवर को सम्पादकीय दायित्व सम्भालने का न्योता दिया. दोनों ने यह न्योता स्वीकार किया और मार्क्स अक्टूबर 1842 में यह दायित्व सम्भालने कोलोन शहर चले गए. अख़बार में विभिन्न विषयों पर उनके लेखन, मसलन किसानों की दशा पर उनके लेखन को प्रशिया के प्रतिबंध कानूनों और सरकार का सामना करना पड़ा. यह अख़बार लगातार क्रांतिकारी-जनवादी दिशा में आगे बढ़ता गया जिसके चलते पहले मार्क्स को इस्तीफ़ा देना पड़ा और फिर 31 मार्च 1843 को अख़बार बंद हो गया. हालाँकि छोटे पर महत्वपूर्ण असली जीवन संघर्षों के इस पहले स्कूल ने मार्क्स पर गहरा असर डाला. इसने एक तरफ़ तो मार्क्स के संज्ञानात्मक क्षितिज का विस्तार किया वहीं दूसरी तरफ़ राजनीतिक अर्थशास्त्र में उनके ज्ञान की कमी को उघाड़ा भी. अब उन्हें महसूस हुआ कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की समाज में प्राथमिक भूमिका है, इसलिए इसका गहन अध्ययन किया जाना चाहिए. इससे उन्होंने यह भी समझा कि समाज और राज्य के बारे में हीगेल की आदर्शवादी धारणा के आलोचनात्मक विश्लेषण की ज़रूरत है. [राज्य के बारे में हीगेल की समझ थी कि वह सारवत्रिक तर्क का मूर्त रूप है और समूचे समाज के हित में है.] यहीं मार्क्स को उन असली कारणों की तलाश की भी ज़रूरत महसूस हुई जो सामाजिक प्रगति के पीछे काम कर रहे हैं.
इस रचनात्मक प्रयास में लगे मार्क्स ने दर्शन और इतिहास पर बहुतेरी चीज़ें लिखीं. इसी दौर में उनकी शादी जेनी से हुई जो उनकी बचपन की दोस्त थी और एक कुलीन परिवार में पैदा हुई थीं. जेनी अपनी आख़री साँस तक उनके साथ रहीं और उनकी प्रेरणा का स्रोत बनी रहीं. कुछ महीनों बाद ही मार्क्स अर्नाल्ड रूग के साथ एक क्रांतिकारी पत्रिका प्रकाशित करने के उद्देश्य से पेरिस पहुँचे. ‘डच फ़्रंसूजेसे याबूशर’ नाम का यह अख़बार 1844 के आख़िर में छपा और यही इसका आख़िरी अंक भी साबित हुआ. जर्मनी में इस अख़बार का वितरण और रूग के साथ असहमतियों की कठिनाई के चलते यह अख़बार बंद हो गया. जो हो, अख़बार में छपे मार्क्स के लेख में पहली बार नयी क्रांतिकारी दृष्टि के मुख्य तत्व शामिल थे. मसलन: पुरानी दुनिया का ध्वंस कर नई दुनिया बनाना आधुनिक सर्वहारा की ऐतिहासिक नियति है, समाज के क्रांतिकारी बदलाव के लिए जनांदोलनों के हाथ में आगे बढ़ा हुआ सिद्धांत एक ताक़तवर हथियार की तरह होता है. उन्होंने लिखा: “हालाँकि आलोचना का हथियार, हथियारों द्वारा आलोचना का कोई विकल्प नहीं है और भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति से ही उखाड़ा जा सकता है, पर सिद्धांत जनता के हाथों में जाकर ख़ुद ही भौतिक शक्ति में बदल जाता है[3].”
इस अख़बार में लंदन के सम्वाददाता के रूप में फ़्रेडरिक एंगेल्स के भी दो लेख छपे थे, जिनकी मार्क्स से पहली मुलाक़ात अगस्त 1844 में हुई थी. और यही से दो महान क्रांतिकारियों की शानदार दोस्ती की शुरुआत हुई. साथ-साथ [हालाँकि ज़्यादातर खतों की मार्फ़त] उन्होंने पेट्टी बुर्जुवा समाजवाद की विभिन्न धाराओं के खिलाफ गहरा संघर्ष छेड़ दिया. जब प्रशिया के अधिकारियों के लगातार दबाव बनाने के बाद मार्क्स को पेरिस से फ़रवरी 1845 में निर्वासित कर दिया गया तब भी यह संघर्ष लगातार जारी रहा. 1844 से 46 के दौर के उनके सबसे महत्वपूर्ण कामों में ‘1844 की आर्थिक और राजनीतिक पांडुलिपियाँ’, पेरिस से निकलने वाली पत्रिका ‘वॉरवार्ट्स!’ में कई लेख, एंगेल्स के साथ मिलकर लिखी गई किताब ‘पवित्र परिवार’, जिसमें युवा हीगेलवादी आदर्शवाद और निष्क्रियता पर निर्णायक प्रहार किया गया था, ‘फायरबाख पर निबंध’ [अप्रैल 1845 में मार्क्स ने थोड़ी जल्दबाज़ी में 11 निबंध लिखे, जिसका अंत इस तरह था कि ‘दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से दुनिया की केवल व्याख्या की है, जबकि सवाल यह है कि इसे बदला कैसे जाए.’], ‘जर्मन दर्शन’ [जिसका अधिकांश अप्रैल 1846 में एंगेल्स के सहयोग से पूरा किया गया] आदि शामिल हैं. अपने इस लेखन के जरिये मार्क्स और एंगेल्स ने वैज्ञानिक समाजवाद या साम्यवाद के सिद्धान्त और रणनीतियों को गढ़ा. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ‘जर्मन विचारधारा’ मार्क्स के जीवन काल में प्रकाशक न मिलने के कारण प्रकाशित न हो सकी. मार्क्स ने 1859 में लिखा: ‘हमने अपनी पाण्डुलिपि चूहों द्वारा कुतर कर आलोचना किए जाने के लिए छोड़ दी क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य खुद की स्पष्टता हासिल करना था जो पूरा हो चुका था[4].’ स्पष्ट दृढ़ विश्वास के साथ मार्क्स अपनी जिंदगी के नए चरण के लिए तैयार थे.
1840 में जर्मनी 38 स्वतंत्र सामंती एकाधिवारवादी राज्यों का समूह था जो कि आधिकारिक तौर पर जर्मन संघ से जुड़े हुए थे. समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ठहराव ने विभिन्न प्रतिपक्ष [विभिन्न बूर्जुवा और निम्न बूर्जुवा समूह जो यूटोपियाई समाजवाद में यकीन रखते थे] आंदोलनों को जन्म दिया, खासकर प्रशिया के राइन सूबे ने. इनमें से जर्मन मजदूरों और दस्तकारों का एक भूमिगत संगठन ‘लीग ऑफ द जस्ट’, जिसका प्रभाव खासकर लंदन और पेरिस में था और जो संकीर्णतावादी साम्यवाद और षड्यंत्रकारी रणनीतियों में यकीन रखता था. इन हालात ने मार्क्स और एंगेल्स के सामने दो प्रमुख कार्यभार रखे: समाजवादी दिशा और मजदूरों की राजनीतिक व सांगठनिक स्वतन्त्रता पर आधारित सर्वहारा आंदोलन और सर्वहारा संगठन का निर्माण, तथा इसके आधार पर आम लोकतान्त्रिक आंदोलन पर सर्वहारा की छाप छोड़ना.
पहले कार्यभार को पूरा करने की शुरुआत उन्होंने जनवरी 1846 में ‘ब्रुसेल्स कम्युनिस्ट करेस्पांडेंस कमेटी [बीसीसीसी]’ की स्थापना के साथ की. इसने मजदूरों व अन्य समाजवादी नेताओं और संगठनों के जीवंत सैद्धान्तिक व राजनीतिक सवालों के बीच संवाद स्थापित किया. उसी साल जून तक मार्क्स और एंगेल्स ने ‘लीग ऑफ द जस्ट’ के नेताओं को सीसीसी की स्थापना के लिए तैयार कर लिया तथा पेरिस में भी एक कमेटी गठित कर ली गई. ये सारी कमेटियाँ अपने संघटन और अंतर्वस्तु में अंतर्राष्ट्रीय थीं. उन्होंने इंग्लैंड के चार्टिस्ट आंदोलन के साथ गहरा रिश्ता विकसित कर लिया और पेट्टी बुर्जुवा धड़े के साथ सर्वहारा धड़े के संघर्ष को तीखा करने में मदद की. बीसीसीसी के मार्गदर्शन में जर्मनी के कई औद्योगिक केन्द्रों पर कमोबेश सभी स्थानीय लोकतान्त्रिक आंदोलनों में समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने अपना मजबूत आधार बना लिया और एक हद तक अपनी संकीर्ण मानसिकता को पीछे छोड़ने में कामयाब रहे. मार्क्स और एंगेल्स को कई गलत किन्तु प्रभावशाली प्रवृत्तियों से इस तरह संघर्ष करना पड़ा कि वे उनके जनाधार को जीत सकें. इनमें वेटलिंग का ‘दस्तकार साम्यवाद’, ग्रुन् का ‘सच्चा समाजवाद’, प्रूधोंवाद[5] तथा क्रेग और अन्य शामिल थे. इन सभी व्यापक गतिविधियों के सहारे मार्क्स और एंगेल्स ने यूरोपीय और अमरीकी मजदूर वर्ग आंदोलनों व समाजवादी विमर्शों पर गहरा असर डाला. अब वे पार्टी निर्माण के मोर्चे पर एक छलांग लेने को तैयार थे.
यों जून 1847 में लंदन अधिवेशन में ‘लीग ऑफ जस्ट’ का नाम बदलकर ‘कम्युनिस्ट लीग’ कर दिया गया जिसमें ‘लीग ऑफ जस्ट’ के आदर्श वाक्य ‘सभी आदमी भाई-भाई हैं!’ [बूर्जुवा और मजदूर कभी भाई-भाई नहीं हो सकते] को बदल दिया गया. नई कम्युनिस्ट लीग का वर्ग-चेतन आदर्श वाक्य था ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो!’. विभिन्न देशों में फैली लीग की शाखाएँ भूमिगत ही रहीं लेकिन वे खुले में काम करने वाली मजदूर शिक्षण सोसाइटियों से घिरी हुई थीं, जो मजदूरों के लिए पुस्तकालय, समूह गान और व्याख्यानों का आयोजन करती थीं[6]. विभिन्न देशों में पहले से मौजूद सीसीसी का लीग के संगठन में विलय हो गया. इस तरह कम्युनिस्ट प्रचार और जनता के बीच कामकाज के वर्गीय आंदोलन के एकीकरण का नया दौर शुरू हुआ जिसमें मार्क्स और एंगेल्स द्वारा निकाले गए दो अखबारों की महत्वपूर्ण भूमिका थी. कम्युनिस्ट लीग का दूसरा महाधिवेशन नवंबर-दिसंबर 1847 में लंदन में हुआ. तीखी बहसों के बाद मार्क्स और एंगेल्स के सर्वहारा सिद्धान्त को निर्णायक जीत हासिल हुई और महाधिवेशन ने इस सिद्धान्त को अपने कार्यक्रम घोषणापत्र में शामिल करने का निर्णय लिया. इस काम के लिए मार्क्स और एंगेल्स स्वाभाविक पसंद थे और इस तरह ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ लिखा गया.
- कम्युनिस्ट घोषणापत्र पर लेनिन[7]
सामान्य लोकतान्त्रिक आन्दोलन में सर्वहारा प्राणतत्व भरने के मकसद से मार्क्स और एंगेल्स ने नवंबर 1847 में ‘ब्रुसेल्स डेमोक्रेटिक एसोसिएशन’ [बीडीए] की स्थापना की जिसमें एक बुर्जुवा गणतंत्रवादी को चेयरमैन तथा मार्क्स व एक फ्रांसीसी समाजवादी को वाइस चेयरमैन बनाया गया. मार्क्स के जबर्दस्त प्रयासों के चलते बीडीए ने चार्टिस्ट पार्टी के साथ गहन रिश्ता विकसित किया और धीरे-धीरे पूरे यूरोप के लगभग सभी आम लोकतान्त्रिक आंदोलनों के संयोजन और नेतृत्व का केंद्र बन गया. इसी समय एसोसियेशन के भीतर और बाहर सर्वहारा लोकतंत्रवादियों व पेट्टी बुर्जुवा लोकतन्त्रवादियों तथा बूर्जुवा गणतंत्रवादियों [चेयरमैन समेत] के बीच दो लाइन का संघर्ष भी चलता रहा.
पेरिस के जून विद्रोह की पराजय के साथ ही प्रति क्रान्ति हर जगह बढ़तरी हासिल करने लगी. इस दौरान मार्क्स सितंबर 1848 में व्यापक आधार वाली लोकतान्त्रिक ‘सुरक्षा कमेटी’ व नवंबर में व्यापक आधार वाली ‘जन कमेटी’ की स्थापना में, हथियार संग्रह की देखभाल में, भंग पड़े ‘सिविल गार्ड’ की पुनः स्थापना करने और विभिन्न रैलियों को संबोधित करने जैसे काम में लगे रहे. मार्क्स ने नवंबर 1848 में ‘टैक्स नहीं देने के आंदोलन’, फरवरी 1849 में चुनावों के क्रांतिकारी इस्तेमाल तथा चुने हुए डेपुटियों की निगरानी के लिए जन कमेटी की स्थापना आदि कामों में जबर्दस्त रणनीतिक और कार्यनीतिक नेतृत्व प्रदान किया. इसी समय वे फ्रांस, इटली और हंगरी जैसे देशों के क्रांतिकारी आंदोलनों का विचारधारात्मक और राजनीतिक मार्गदर्शन भी कर रहे थे.
फिलहाल प्रतिक्रांति अपने उभार पर थी. मई 1849 में ‘न्यू रेनेशे जेतुंग’ को बंद कर दिया गया और प्रतिक्रियावादी अदालतों में मार्क्स पर कई मुकदमे चलाये गए. फरवरी 1849 में कोलोन में चलाया गया मुकदमा सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था. मार्क्स, एंगेल्स और ‘न्यू रेनेशे जेतुंग’ के प्रकाशक पर आरोप था कि उन्होंने चीफ पब्लिक प्रोसीक्यूटर और पुलिस की मानहानि की है. हालांकि मार्क्स और एंगेल्स के पास बचाव के लिए वकील था पर प्रतिपक्ष को अपने हथियारों से ध्वस्त करने का जिम्मा मार्क्स व एंगेल्स ने खुद संभाला. इसमें वे कामयाब रहे. अपने विरोधियों से प्रशंसा और गैलरी में मौजूद खचाखच भीड़ से समर्थन हासिल करते हुए मार्क्स ने आरोपों का कानूनी विश्लेषण किया और यह साबित किया कि कानून की निगाह में ये आरोप नहीं ठहरते. उन्होंने प्रेस की आजादी और जनक्रान्ति के विचार को फैलाने के लिए इस मुकदमे का इस्तेमाल किया. उन्हें बरी करना पड़ा लेकिन अगले ही दिन मार्क्स व कुछ अन्य लोगों को फिर से अदालत में पेश किया गया. इस बार गणतंत्रवादियों के राइन डिस्ट्रिक्ट कमेटी के कुछ हिस्सों में विद्रोह भड़काने का आरोप लगाया गया था. मार्क्स ने एक लंबे भाषण में प्रशिया के तत्कालीन तख़्तापलट के पीछे के कारणों और उसकी प्रकृति के बारे में गहन सैद्धान्तिक विवेचना की. उन्होंने डिस्ट्रिक्ट कमेटी की रणनीति के पक्ष में तर्क देते हुए इस विचार को खारिज किया कि क्रान्ति को कानून के दायरे के भीतर सीमित हो कर करना होगा. राइन डिस्ट्रिक्ट कमेटी द्वारा जनता से टैक्स न देने के लिए की गई अपील का हवाला देते हुए मार्क्स ने इतिहास से कई उदाहरण पेश करते हुए दिखाया कि यह तरीका जनता के हितों के खिलाफ जाने वाली सरकार के विरुद्ध जनता द्वारा आत्मरक्षा में उठाया गया लोकप्रिय और वैध तरीका है. उन्होंने आगे कहा “यदि सत्ता प्रतिक्रांति करती है तो जनता को यह हक है कि वह इसका जवाब क्रान्ति से दे’.
जैसा कि बाद में एंगेल्स ने रेखांकित किया कि मार्क्स ने बुर्जुवा अदालत का सामना एक कम्युनिस्ट के बतौर किया और यह दिखा दिया कि जिन बातों के लिए उन पर मुकदमा चलाया जा रहा है, उन्हें बुर्जुवा को खुद ही करना चाहिए था. अदालत मार्क्स से इतनी प्रभावित थी कि उन्हें बरी करते हुए मुख्य जज ने ज्ञानवर्धक व्याख्या के लिए मार्क्स को धन्यवाद दिया.
एक के बाद एक मुकदमों के धराशायी होने के बाद सरकारें एक के बाद एक देश से मार्क्स को परिवार समेत निर्वासित करती रहीं. अंततः वे लंदन में बसे जहां अगस्त 1849 से लेकर अपनी मृत्यु तक रहे.
लंदन में मार्क्स कम्युनिस्ट लीग और जर्मन वर्कर्स एजुकेशनल सोसाइटी आदि में सांगठनिक रूप से सक्रिय रहे तथा ‘न्यू रेनेशे जेतुंग, पॉलिटिक्स, इकानोमिक्स रिव्यू’ की स्थापना की. इसके जरिये उन्होंने 1848-49 की क्रांतियों के सबक़ों के सार को प्रचारित किया. इसमें ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष’ सबसे महत्वपूर्ण किताब है जो रिव्यू में धारावाहिक रूप से छपी थी. उन्होंने ‘यूनिवर्सल सोसाइटीज़ ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज़’ की स्थापना में केंद्रीय भूमिका निभाई जो कम्युनिस्ट लीग, वामपंथी चार्टिस्टों और ब्लैंक्विस्ट शरणार्थियों को एक मंच पर ले आई. 02 दिसंबर 1851 को प्रेसिडेंट लुई बोनापार्ट द्वारा किए गए तख्तापलट के ठीक बाद मार्क्स ने ‘लुई बोनापार्ट की 18वीं ब्रूमेयर’ नामक किताब लिखी. ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष’ के साथ ही यह किताब ऐतिहासिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद का बेहतरीन संदर्भ ग्रंथ आज भी है. नवंबर 1852 में प्रतिक्रांति ने उन्हें कम्युनिस्ट लीग को भंग करने के लिए विवश कर दिया. फिर भी मार्क्स चार्टिस्ट आंदोलन तथा अमेरिकी मजदूर आंदोलन के साथ निकट संबंध में रहे और ‘न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून’ समेत विभिन्न प्रगतिशील बूर्जुवा अखबारों में लिखते रहे. ‘भारत में अंग्रेजी राज’ तथा ‘भारत में अंग्रेजी राज के भावी परिणाम’ शीर्षक लेख इसी ‘ट्रिब्यून’ में छपे थे. लेकिन इस समय उनका सबसे ज्यादा ध्यान राजनीतिक अर्थशास्त्र पर था. इसमें ‘1857-58 की आर्थिक पांडुलिपियाँ’ बहुत महत्वपूर्ण है जिसके कुछ हिस्से मार्क्स की मृत्यु के बाद ‘गुंड्रीज’ में प्रकाशित हुए. लेनिन के मुताबिक ‘[मार्क्स ने] ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योग’ (1859) व पूंजी (खंड एक 1867) में इस विज्ञान को क्रांतिकारी ढंग से आगे बढ़ाया’[8].
मार्क्स ने यह सब उपलब्धियां उस दौर में हासिल कीं जब वे प्रतिक्रिया और तंगहाली के चक्के तले पिस रहे थे. उनके अपने शब्दों में उन्हें ‘पैंट और जूतों’ तक की किल्लत थी, उनके कई बच्चे कुपोषण से मौत के शिकार हुए. यहाँ तक कि अपनी एक मृत बच्ची के लिए वे ताबूत तक नहीं खरीद सके थे. एंगेल्स की लगातार निस्वार्थ आर्थिक मदद के बिना शायद मार्क्स के लिए ‘पूंजी’ पूरा करना तो दूर, अपने शरीर और आत्मा को एक साथ रखना भी संभव न होता.
‘पूंजी’ का पहला खंड छपवाने के बाद भी वे मृत्यु तक उसी विषय पर काम करते रहे और उनकी मृत्यु के बाद मार्क्स द्वारा छोड़ी गई कच्ची पाण्डुलिपियों को एंगेल्स ने बड़े जतन से ठीक करके ‘पूंजी’ का दूसरा और तीसरा खंड प्रकाशित करवाया.
एक तरफ मार्क्स सैद्धान्तिक और राजनीतिक सवालों में डूबे हुए थे वहीं दूसरी तरफ पचास के दशक के अंत और साठ के दशक की शुरुआत में लोकतान्त्रिक आंदोलनों के फिर से उभरने के कारण मार्क्स को एक बार फिर से व्यवहारिक राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय होना पड़ा. 28 सितंबर 1864 को इन्टरनेशनल वर्किंगमेन्स एसोसियेशन [आईडब्ल्यूए] की लंदन में स्थापना हुई और जल्दी ही मार्क्स इसके सबसे प्रसिद्ध नेता बन गए. उन्होंने इसका ‘उदघाटन भाषण’, ‘फौरी नियम’ और कई प्रस्ताव व घोषणाएँ लिखीं. मार्क्स के आईडब्ल्यूए में प्रभावशाली योगदान के बारे में लेनिन ने कहा ‘विभिन्न देशों के मजदूर आंदोलन को एकताबद्ध करने, विभिन्न गैर-सर्वहारा पहलकदमियों के रास्ते बनाने, मार्क्सवाद के पहले के समाजवाद [मैजिनी, प्रूधों, बाकुनिन, ब्रिटेन का उदारवादी ट्रेड यूनियनवाद, जर्मनी में लासालेन के दक्षिणपंथी विचलन आदि] और इन सभी धाराओं व विचार सरणियों के सिद्धांतों का प्रतिवाद करने के क्रम में मार्क्स ने विभिन्न देशों में मजदूर वर्ग के सर्वहारा संघर्षों की एक जैसी रणनीति को रूप दिया’.[10] आईडब्ल्यूए का काम विकसित पूंजीवादी देशों में फैल गया और 1871 का पेरिस कम्यून इसकी गतिविधियों का चरम बिन्दु था. आईडब्ल्यूए की तरफ से मार्क्स पेरिसवादियों के गहरे संपर्क में थे. इन्टरनेशनल के नाम जारी उनकी ‘फ्रांस में गृह युद्ध’ किताब कम्यून की गहन क्रांतिकारी व्याख्या पेश करती है जिसे वे सर्वहारा की तानाशाही का पहला ऐतिहासिक रूप मानते हैं.
अपनी अभूतपूर्व उपलब्धियों के बावजूद पेरिस कम्यून दो महीने से कुछ ही अधिक दिनों तक कायम रह सका. इसके ध्वस्त होते ही आईडब्ल्यूए के भीतर विभिन्न विचार सरणियों के बीच विचारधारात्मक संघर्ष ने अपनी सारी हदें पार कर दीं जिसे एंगेल्स ‘सभी धड़ों के बचकाने गठजोड़’ के रूप में याद करते हैं[11]. यह गठजोड़ टूटने लगा. मार्क्स और एंगेल्स, दोनों ने इसे सहज रूप में स्वीकारा और भविष्य की ओर देखा. इन्टरनेशनल के बारे में उनका विचार था कि इसका गौरवशाली अतीत था परंतु ‘अपने पुराने रूप में यह अपनी उपयोगिता पूरी कर चुका था. …मुझे यकीन है कि अगला इंटरनेशनल [जब मार्क्स का लेखन कुछ वर्षों तक अपना प्रभाव पैदा कर चुका होगा] सीधे तौर पर कम्युनिस्ट होगा और हमारे सिद्धांतों को खुलकर अपनाएगा[12].’
एंगेल्स सही थे जब उन्होंने कहा ‘इन्टरनेशनल के बिना मूर [मार्क्स का पारिवारिक नाम] का जीवन वैसे ही होता जैसे हीरे के बिना हीरे की अंगूठी.‘ अगर पाठक आईडब्ल्यूए और पेरिस कम्यून के बारे में अधिक जानना चाहते हों तो अक्तूबर और नवंबर 2014 तथा जनवरी 2015 में लिबरेशन में तीन भागों में छपे ‘पहले इन्टरनेशनल के सबक़ों को रचनात्मक ढंग से लागू करो!’ शीर्षक लेख देखें.
आईडब्ल्यूए के इर्द-गिर्द मार्क्स और एंगेल्स के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक-राजनीतिक कामकाज के सामने मार्क्सवाद के पूर्ववर्ती पेट्टी बूर्जुवा समाजवादियों के पराजित हो जाने के बाद एक बार फिर मार्क्स ‘पूंजी’ पूरी करने के लिए गहन वैज्ञानिक शोध में उतर पड़े. लेकिन दशकों के भयानक काम के बोझ [जिसमें से अधिकांश भयानक गरीबी में किए गए] के चलते वे अपंगता की कगार पर पहुँच गए. लेकिन उनकी पत्नी और एंगेल्स जैसे दोस्तों व साथियों के प्यार और देखभाल तथा स्वास्थ्य लाभ के लिए कुछ विदेश यात्राओं के चलते वे सक्रिय बने रह सके. वे जर्मनी समेत दूसरे कई देशों की समाजवादी पार्टियों और समूहों के साथ संपर्क में बने रहे. सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी जिसे मार्क्स और एंगेल्स गहराई से जुड़े हुए थे और लसालियन जनरल एसोसिएशन ऑफ जर्मन वर्कर्स के बीच एकता की जरूरत हर किसी के द्वारा महसूस की जा रही थी. चूंकि मार्क्स और एंगेल्स का मानना था कि लसालियन की प्रतिगामी हठधर्मिता की आलोचना जरूरी थी और यह समय लेने वाला काम था इसलिए उन्होंने सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी के नेताओं को सुझाव दिया कि वे तत्काल सांगठनिक विलय पर ज़ोर देने की बजाय पहलकदमियों में एकता की ओर ठोस शुरुआत करें. यह सुझाव शुरुआत में तो माना गया पर बाद में क्षुद्र रणनीतिक कारणों से लीब्नेख्त जैसे नेताओं ने इसे दरकिनार कर दिया. बड़े सैद्धान्तिक सवालों पर छूट देते हुए 1875 की शुरुआत में एकीकरण का कार्यक्रम बनाया गया. मार्क्स और एंगेल्स ने सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी के नेताओं का ध्यान इस गलती के परिणामों की ओर खींचा लेकिन इसका कोई प्रभाव न पड़ा. मार्क्स ने अपनी आलोचना के मुख्य बिन्दुओं को जिस रूप में पेश किया, बाद में उसे ही ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना’ के नाम से जाना गया[13]. वैज्ञानिक साम्यवाद के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यक्रम को एंगेल्स ने 1891 में प्रकाशित कराया, जब एकीकरण कार्यक्रम पुनर्विचार के लिए आया था.
पिछले कुछ वर्षों में मार्क्स अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मजदूर वर्ग के आंदोलनों का विचारधारात्मक मार्गदर्शन करने के साथ-साथ अभूतपूर्व शोधकार्य में डूबे हुए थे, जिसके परिणाम ‘पूंजी’ के भाग दो और तीन [दोनों ही अपूर्ण रह गए और मार्क्स की मृत्यु के बाद एंगेल्स ने उन्हें छापने लायक रूप में तैयार किया]. ‘क्रोनोलाजिकल नोट्स’ [यूरोप, एशिया और अफ्रीका के विभिन्न देशों का इतिहास, शुरुआत में उनकी मंशा पूरे दुनिया का इतिहास लिखने की थी] और विभिन्न देशों की पत्र-पत्रिकाओं में अनेक लेखों के रूप के भी रूप में यह शोध सामने आया. 12 दिसंबर 1881 को संगिनी जेनी मार्क्स की मृत्यु और सबसे बड़ी बेटी जेनी की जनवरी 1883 में मृत्यु ने मार्क्स को गहरा धक्का पहुंचाया. उनका स्वास्थ्य सुधार से परे चला गया.
और तब 14 मार्च 1883 का वह भयानक दिन आया जब मार्क्स अपने कमरे में अकेले शांतिपूर्वक गुजर गए.
“कल दोपहर 02:30 बजे …मैं पहुंचा और पूरा घर आंसुओं में डूबा हुआ था. …माँ से अधिक उनकी देखभाल करने वाली लेंचेन ऊपर गईं और फिर नीचे आयीं. उन्होंने कहा कि वे आधा सो रहे हैं, आप ऊपर चलकर देख लीजिये. जब हम कमरे में पहुंचे, वे वहाँ सो रहे थे, कभी न उठने के लिए. उनकी नब्ज और साँसे थम चुकी थीं. …
हो सकता है कि चिकत्सकीय मदद ने उन्हें कुछ साल और का अपंगता भरा जीवन, एक असहाय जीवन बख्श दिया होता, हो सकता है कि चिकित्सक की कला उन्हें अचानक न मरने देती पर रोज ब रोज इंच दर इंच वे मरते जाते. हमारे मार्क्स उसे कभी बर्दाश्त नहीं करते. असमाप्त पड़े हुए कामों और उन्हें पूरा करने की जबर्दस्त इच्छा के बावजूद पूरा कर पाने की असमर्थता हमसे उन्हें छीन लेने वाली इस अचानक मौत से हजार गुना ज्यादा कड़वी होती.…
पर सच यही है. मनुष्यता से सिर्फ एक आदमी नहीं गया, वह आदमी गया जो हमारे दौर का सबसे महान आदमी था. सर्वहारा का आंदोलन चलता रहेगा लेकिन हमारे बीच से वह केंद्र बिन्दु चला गया है जिसके पास फ्रांसीसी, रूसी, अमरीकी, जर्मन निर्णायक क्षणों में स्पष्ट सलाह लेने के लिए आते थे और वह जीनियस ज्ञान का उत्कृष्ट स्रोत उन परिस्थितियों के अनुरूप उन्हें परामर्श देता था… अंतिम विजय निश्चित है लेकिन भटकाव और स्थानीय गलतियाँ [जिनसे ऐसे भी नहीं बचा जा सकता] अब पहले से ज्यादा हुआ करेंगी. हमें इसे संभालना होगा अन्यथा यहाँ हम किस लिए आए हैं? और इसके चलते हम अपना साहस तो कतई नहीं खो सकते.”
– एफ़ए सोर्ज से एंगेल्स
15 मार्च 1883[14]
लंदन में हाइगेट कब्रगाह में मार्क्स की अन्त्येष्टि के मौके पर विभिन्न मजदूर पार्टियों के प्रतिनिधियों और लिब्नेख्त जैसे बुजुर्गों की मौजूदगी में एंगेल्स ने बहुत प्रभावशाली ढंग से मार्क्स की बहुआयामी प्रतिभा को सामने रखते हुए उन्हें वैज्ञानिक और क्रांतिकारी योद्धा बताया. उन्होंने कहा ‘एकाधिकारवादी और गणतंत्रवादी सरकारों ने उन्हें अपनी सीमाओं से बाहर धकेला. रूढ़िवादी और अति लोकतान्त्रिक, दोनों तरह के बुर्जुवा ने मार्क्स के खिलाफ़ झूठ का अंबार लगाने में एक-दूसरे की मदद की. उन्होंने इस सबको इस तरह नजरंदाज कर दिया मानो वे मकड़ी के जाले हों और तभी जवाब दिया जब बहुत जरूरी था. जब उनकी मृत्यु हुई है तो साइबेरिया और कैलीफोर्निया की खदानों से लेकर यूरोप और अमेरिका के सभी हिस्सों के लाखों क्रांतिकारी सहयोगी उन्हें प्यार कर रहे हैं, सम्मान दे रहे हैं और उनकी मृत्यु का शोक मना रहे हैं. मैं साफ-साफ कह सकता हूँ कि उनके बहुत से विरोधी थे लेकिन व्यक्तिगत दुश्मन कोई न था.
उनका नाम सदियों तक रहेगा और उनका काम भी.[15]
( मार्क्स की शतवार्षिकी पर सितंबर 1983 के लिबरेशन के विशेषांक में छपे लेख का संशोधित रूप )
“ ... संपत्तिशाली वर्गों की
सामूहिक शक्ति के खिलाफ
मजदूर वर्ग एक वर्ग के रूप में
कुछ नहीं कर सकता
जब तक कि वह
खुद को एक ऐसे राजनीतिक
दल में संगठित न कर ले,
जो सबसे अलग
और संपत्तिशाली वर्गों द्वारा गठित
सभी पुरानी पार्टियों
के विरोध में हो.”
– ‘कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल द्वारा 1871 में
लंदन सम्मेलन द्वारा परित प्रस्ताव से.
पाद लेख :
1. 1865 में इंग्लैंड और जर्मनी में वितरित प्रश्नों का मार्क्स का जवाब, ‘मार्क्स एंड एंगेल्स: ऑन लिट्रेचर एंड आर्ट’ में उद्धृत.
2. ‘कार्ल मार्क्स: ए बायोग्राफी’ - रूसी संस्करण का अंग्रेजी अनुवाद, मास्को 1968, सीपीएसयू सेंट्रल कमेटी के मार्क्सवाद-लेनिनवाद संस्थान की ओर से पीएन फेदोसेयेव व अन्य द्वारा लिखित.
3. ए कंट्रिब्यूशन टू द क्रिटिक ऑफ हीगेल्स फिलोसोफी ऑफ राइट, कार्ल मार्क्स, भूमिका
4. ए कंट्रिब्यूशन टू द क्रिटिक ऑफ पोलेटिकल इकॉनमी की भूमिका - मार्क्स और एंगेल्स की चुनी हुई रचनाएँ, प्रोग्रेस पब्लिशर, मॉस्को, खंड एक
5. ‘गरीबी का दर्शन’ के लेखक, फ्रांसीसी अराजकतावादी राजनीतिज्ञ पियरे जोसेफ प्रूधों के नाम पर रखा गया. इसी किताब के जबर्दस्त आलोचना मार्क्स ने अपनी किताब ‘दर्शन की दरिद्रता’
6. इन्हीं सोसाइटियों में दिये गए मार्क्स के एक भाषण से उनका बहुचर्चित पर्चा ‘मजदूरी, श्रम और पूंजी’ तैयार हुआ था.
7. कार्ल मार्क्स, लेनिन [संकलित रचनाएँ, प्रोग्रेस पब्लिशर, मॉस्को, खंड 21]
8. कार्ल मार्क्स, लेनिन [वही]
9. सिगफ्रेड मेयर को पत्र, 30 अप्रैल 1867. देखें: मार्क्स-एंगेल्स: चुने हुए पत्र
10. कार्ल मार्क्स, लेनिन [वही]
11. फ़्रेडरिक एडोल्फ सोर्ज को पत्र, सितंबर 1874, मार्क्स-एंगेल्स: चुने हुए पत्र
12. वही
13. गोथा वह जगह थी जहां मई 1875 में एकीकरण का महाधिवेशन हुआ.
14. मार्क्स-एंगेल्स: चुने हुए पत्र
15. कार्ल मार्क्स की कब्र पर दिया गया भाषण, संकलित रचनाएं, भाग तीन