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मोदी सरकार ने भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ को भारतीय इतिहास को दुबारा लिखने और उसे हड़पने की बड़ी कवायद में बदल डाला है. आज की भाजपा के वैचारिक और सांगठनिक पूर्ववर्तियों ने भारत के उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रीय जागरण में कोई भूमिका नहीं निभाई थी, क्योंकि वे तो औपनिवेशिक शासकों के साथ सांठगांठ कर रहे थे और अपने हिंदुत्व की राजनीति अथवा हिंदू वर्चस्ववादी सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के साथ धर्मनिरपेक्ष भारतीय राष्ट्रवाद को खंडित करने और उसे भटका देने के जरिये औपनिवेशिक शासकों की ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति को लागू करने में उनकी मदद कर रहे थे. आज, उनके उत्तराधिकारी उसी विनाशकारी दिशा पर चलते हुए इतिहास को दुबारा लिखने और भरत को पुनर्परिभाषित करने में मशगूल हैं. मोदी सरकार इस 75वीं वर्षगांठ को भारतीय स्वतंत्रता के ‘अमृत महोत्सव’ के रूप में मना रही है और पूरे माहौल को अमृत के नाम पर झूठ और नफरत से जहरीला बना रही है. वे कह तो ये रहे हैं कि भारत के अब तक अ-प्रशंसित रह गए नायकों का सम्मान करने पर उनका ध्यान रहेगा. इस घोषित मकसद से कोई आपत्ति नहीं हो सकती है, लेकिन अपवाद सिर्फ यह है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के भाजपाई इतिहास में सबसे बड़े अ-प्रशंसित नायक वीडी सावरकर हैं – हिंदुत्व के सबसे पहले सिद्धांतकार, जिन्होंने ‘पाश्चाताप करने वाले पुत्र’ के लिए दया की भीख मांगते हुए तथा औपनिवेशिक आकाओं के हितों की सेवा करने का वादा करते हुए बारंबार अर्जियां देकर भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की गौरवशाली परंपरा को कलंकित किया और साथ ही, बाद में भारत के बंटवारे की वैचारिक बुनियाद डाली. संघ परिवार के कई लोग नाथूराम गोडसे की ‘विरासत’ का भी खुलेआम गुणगान कर रहे हैं, जो एक हिंदुत्व आतंकवादी था और जिसने आजादी के तुरंत बाद गांधी की हत्या की थी.

संघ परिवार के प्रतीक पुरुषों को स्थापित करने और खुद को स्वतंत्रता आन्दोलन की ‘प्रशंसित धारा’ के बतौर उछालने, तथा स्वतंत्रता संघर्ष की विभिन्न घटनाओं को विरूपित करने और इसके प्रतीक पुरुषों को हड़पने की कोशिश कर रहा है. इतिहास के खिलाफ अपने युद्ध के जरिये भाजपा स्वतंत्रता आन्दोलन के लक्ष्यों व उपलब्धियों को कम करके आंकने व उसे बदनाम करने, और यहां तक कि आजादी को ‘विभाजन की विभीषिका’ तक सीमित कर देने का प्रयास कर रही है. महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने अब पाकिस्तान के स्थापना दिवस, 14 अगस्त को ‘विभाजन की विभीषिका स्मृति दिवस’ के बतौर घोषित कर दिया है. पूरे मुस्लिम समुदाय को खलनायकों के बतौर बदनाम किया जा रहा है जबकि हिंदुओं को विभाजन का संत्रास झेलने वाले पीड़ितों के बतौर पेश किया जा रहा है – जबकि सच यह है कि दोनों समुदायों के लोगों ने यह संत्रास को झेला है जो विभाजन की चारित्रिक विशेषता है.

इसीलिये, भारतीय स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाते हुए हमलोगों को न केवल स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास की प्रमुख घटनाओं और उस दरम्यान आए विभिन्न मोड़ों को तथा अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के शौर्यपूर्ण संघर्षों व उनकी कुर्बानियों को याद करना चाहिए, बल्कि उस वैचारिक संघर्ष और अवधारणात्मक विकास को भी याद करना चाहिए जो स्वतंत्रता आन्दोलन की विशेषता रहे हैं और उसकी उस क्रांतिकारी विरासत का निर्माण करते हैं जो आजादी के सात दशकों के बाद आज भी प्रतिध्वनित हो रही है. आज मोदी सरकार हमारे गणतंत्र के संवैधानिक लोकतांत्रिक ढांचे को रौंद रही है और पूर्व के औपनिवेशिक शासकों के उत्तराधिकारियों की तरह हुकूमत कर रही है, जिन्हें ‘भूरे अंग्रेज’ बताते हुए भगत सिंह ने हमें चेतावनी दी थी. ऐसे समय में हमें अपने स्वतंत्रता आन्दोलन की क्रांतिकारी विरासत को फिर से सामने लाना चाहिए ताकि हम फासीवाद से आजादी की अपनी जारी लड़ाई को ठीक से लड़ पाएं.

औपनिवेशिक युग में आजादी का पहला मतलब था औपनिवेशिक अधीनस्थता से मुक्ति. वह हमारा राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम था, और राष्ट्रीय मुक्ति के इस सपने की बुनियाद थे भारत के लोग, जो इस राष्ट्र के मालिक थे. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा पूना में औपचारिक रूप से ‘पूर्ण स्वराज’ का प्रस्ताव लेने के काफी पहले ही भारत के उपनिवेश-विरोधी योद्धाओं ने राष्ट्र की आजादी और जन-संप्रभुता को सूत्रबद्ध करना शुरू कर दिया था. 1857 के राष्ट्रगान में भारत के लोगों को देश का मालिक घोषित किया गया था – ‘हम हैं इसके मालिक, हिंदोस्तां हमारा’. बिरसा मुंडा के ‘उलगुलान’ ने युद्धघोष जारी किया ‘आबुआ दिशुम, आबुआ राज’ (हमारा राज्य, हमारा राज). जन संप्रभुता अथवा जनता के हाथों सत्ता की भावना को संविधान की प्रस्तावना में संवैधानिक स्वीकृति मिली, जिसमें “हम, भारत के लोग” के साथ यह भावना भारत को संप्रभु गणतंत्र के रूप में ढालने का दृढ़संकल्प बनी रही. इस प्रकार, भारत और भारतीय राष्ट्रवाद के विचार के केंद्र में जनता ही है.

भारत की जनता हमेशा से विविधतापूर्ण रही है. यह विविधता – नृजातीय, भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक – भारत की एकता का बुनियादी उसूल रही है. स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान परिष्कृत होते संचार माध्यमों और लगातार बढ़ती आवाजाही ने निश्चय ही जन-जुड़ाव को गहरा बनाया और राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा दिया, लेकिन इस एकीकरण को एकरूपता या समांगता की इच्छा समझने की भूल हर्गिज नहीं करनी चाहिए. एकरूपता या समांगता हासिल करने के प्रयासों ने हमेशा ही एकता को कमजोर बनाया है और इससे दुष्प्रभावित अंचलों और समुदायों ने इन प्रयासों को करारा जवाब दिया है. देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन ने कुछ हद तक इस विविधता को जरूर कमजोर बनाया, लेकिन यहां तक कि विभाजन के बाद का भारत भी दुनिया का सबसे बड़ा विविधतापूर्ण देश है. स्वतंत्रता आन्दोलन ने भारत की विविधता के बारे में स्वस्थ समझ तथा आपसी सम्मान और स्वीकृति को विकसित किया. यही वह एकमात्र तत्व था जिसने भारतीय राष्ट्रीय एकता को बारंबार जीवन प्रदान किया और भारतीय राष्ट्र-राज्य के तहत (हिंदू व मुस्लिक शासकों की हुकूमत वाले) सैकड़ों देशी रियासतों के शीघ्र एकीकरण को सहज बनाया.

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शाहीन बाग में सीएए के विरोध में प्रदर्शन, दिल्ली 2020; फोटो वी अरुण कुमार

संविधान ने हमें भेदभाव-रहित और समान नागरिकता की प्रतिबद्धता दी है, यह राज्य को सापेक्षिक तौर पर धर्म से अलग रखता है और यद्यपि कि यह भारत को पूर्णरूपेण संघीय देश नहीं मानता, फिर भी राज्यों को कई विषयों पर एक हद तक स्वायत्तता मिली हुई है. जरूरत तो यह थी कि धर्मनिरपेक्षता, संघीय पुनर्संयोजन और भारत की मौलिक विविधता व बहुलता की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाए. मोदी की रहनुमाई में भाजपा सरकार तेजी से इसकी उल्टी दिशा में आगे बढ़ रही है – सीएए ने यहां के नागरिकों, और नागरिकता के लिए आवेदन देने वाले आ-प्रवासियों के बीच धर्म के आधार पर भेदभाव पैदा किया; यह राज्य हिंदू राज्य के बतौर अपना आचरण बढ़ाता जा रहा है; केंद्र तमाम शक्तियां अपने हाथों में समेटता जा रहा है और राज्यों को दरअसल महिमामंडित नगरपालिकाओं की स्थिति में धकेलता जा रहा है. बहुलता की धारणा को लगातार बदनाम करते हुए उसे एकरूपता के अधीन करता जा रहा है.

आजादी के अलावा, हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन का एक दूसरा प्रमुख शब्द था – इंकलाब यानि क्रांति, जिसे ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे ने अमर बना दिया. उर्दू कवि और स्वतंत्रता सेनानी मौलाना हसरत मोहानी द्वारा गढ़े गए और भगत सिंह तथा उनके साथियों द्वारा अमर बना दिए गए इस नारे ने हमारा ध्यान आजादी के क्रांतिकारी महत्व तथा लगातार संघर्षों और प्रगतिशील बदलावों व अधिकारों के प्रति हमारी सतत जागरूकता की केंद्रीय अहमियत की ओर खींचा.

यकीनन, सेंट्रल असेंबली में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो दूसरा नारा उछाला, वह था ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’. भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन अलग-थलग रूप से सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई नहीं था, बल्कि वह अंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद-विरोधी प्रतिरोध के अभिन्न अंग के बतौर विकसित हुआ था. 1917 की रूसी क्रांति के बाद, जब यूरोप में फासीवादी प्रतिक्रिया को बढ़ते देखा गया, तो भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रगतिशील धारा ने यूरोप में फासीवाद-विरोधी प्रतिरोध का समर्थन किया. छह भारतीय लेखक मुल्कराज आनंद, पत्रकार गोपाल मुकुंद हुद्दर, डॉक्टर अटल मोहनलाल, अयूब अहमद खान नक्शबंदी व मैनुएल पिंटो, और छात्र रामास्वामी वीरप्पन – जेनरल फ्रांको की अगुवाई में चलने वाली फासिस्ट सेना के खिलाफ लड़ने के लिए बने ‘इंटरनेशनल ब्रिगेड’ में शामिल हुए थे. लंदन में बसे भरतीयों ने फंड इकट्ठा किया और जवाहरलाल नेहरू ने एकजुटता जाहिर करने के लिए 1938 में स्पेन की यात्रा की. जहां आरएसएस मुसोलिनी और हिटलर से प्रेरणा ग्रहण कर रहा था, वहीं भारत के प्रगतिशील स्वतंत्रता संग्रामी यूरोप में फासिस्ट-विरोधी शक्तियों के साथ हाथ मिला रहे थे.

स्वतंत्रता आन्दोलन का मकसद सिर्फ भारत में अंग्रेजी हुकूमत को खत्म करना ही नहीं था, बल्कि एक आधुनिक लोकतांत्रिक प्रगतिशील भारत का निर्माण करना इसका मकसद था. आदिवासी और किसान समुदाय इस स्वतंत्रता आन्दोलन के सबसे बड़े जनाधार थे, और वे जमींदारों तथा सूदखोर महाजनों से मुक्ति के लिए लगातार लड़ रहे थे. आदिवासी विद्रोह और 1857 के स्वाधीनता युद्ध के बाद ब्रिटिश औपनिवेशिक हुकूमत ने सिर्फ सैन्य नियंत्रण और दमनकारी कानूनों के जरिये ही खुद को सुदृढ़ नहीं बनाया, बल्कि ‘स्थायी बंदोबस्त’ व अन्य राजस्व प्रणालियों के जरिये निर्मित जमींदार वर्ग द्वारा लागू सामंती सत्ता को मजबूत बनाकर, देशी रियासतों की सत्ता को बरकरार रखकर और हिंदू व मुस्लिम समुदायों के बीच ‘फूट डालो, राज करो’ नीति को जोरदार तरीके से लागू कर भी खुद को मजबूत बनाया. उस जमाने के एक वरिष्ठ ब्रिटिश सैनिक अफसर ने स्‍पष्ट कहा, “हमारा पूरा प्रयास होना चाहिए कि हम पूरी ताकत से हमारे लिए फायदेमंद विलगाव को और बढ़ायें, जो विभिन्न धर्मों और नस्लों के बीच मौजूद है. ...फूट डालो, राज करो भारत सरकार का उसूल होना चाहिए” (लेफ्टनेंट कर्नल कोकर, ‘इंडिया टुडे’, रजनी पाम दत्त, 1940). चंद सम्माननीय अपवादों को छोड़कर, ये जमींदार और देशी रियासतों के कठपुतली शासक औपनिवेशिक हुकूमत के सामाजिक आधार थे, और इसीलिए उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष को जमींदारों व महाजनों के खिलाफ किसान संघर्षों से बल मिलता रहा.

जमींदारी और सूदखोरी प्रथा का उन्मूलन औपनिवेशिक भारत में किसान आन्दोलन के प्रमुख नारे के बतौर उभरा था. चूंकि गांधीवादी सत्याग्रह आन्दोलन ने पर्याप्त जोर नहीं दिया और किसान जुझारूपन के हर प्रतीक से दूर हटता गया, इसीलिए किसान आन्दोलन ने अपना खुद का जुझारू मंच निर्मित किया. वह था अखिल भारतीय किसान सभा के रूप में. यह किसान सभा 1936 में गठित की गई और स्वामी सहजानंद सरस्वती इसके पहले अध्यक्ष बने. इसने अगस्त 1936 में एक किसान घोषणापत्र जारी किया जिसमें जमींदारी व्यवस्था को खत्म करने और ग्रामीण कर्जों को माफ़ करने की मांग उठाई गई थी. शक्तिशाली किसान संघर्षों ने न केवल ग्रामीण भारत में सामंती-औपनिवेशिक सत्ता को कमजोर किया, बल्कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा के खिलाफ भी वह एक प्रतिकारी ताकत बन गया. स्वतंत्रता के बाद, जमींदारी के पुराने स्वरूप को कानूनन खत्म कर दिया गया, लेकिन उसके परे भूमि सुधार का काम अधूरा ही रह गया और अभी तो हम भूमि सुधार को उलटते हुए भी देख पा रहे हैं. औपनिवेशिक की जगह कॉरपोरेट रख दीजिये, और फिर हमलोग किसान आन्दोलन को कॉरपोरेट भूस्वामित्व और कर्ज संकट से जूझते हुए पाएंगे.

काम और जीवन की बेहतर स्थितियों के लिए संगठित होने व लड़ने के अधिकार समेत मजदूर वर्ग अधिकारों की लड़ाई भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन की क्रांतिकारी विरासत का एक अन्य महत्वपूर्ण अंग रहा था. इन संघर्षों की बदौलत औपनिवेशिक काल में ही श्रमिक अधिकारों से संबंधित अनेक कानून पारित किए गए थे. फैक्‍ट्री कानून और ट्रेड यूनियन ऐक्ट 1926 से लेकर मजदूरी भुगतान कानून और न्यूनतम मजदूरी कानून तक, भारत के कई प्रमुख श्रम कानून स्वतंत्रता के पहले ही बनाये जा चुके थे. 1920 में गठित ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (ऐटक) और 1920-दशक से चले संगठित कम्युनिस्ट आन्दोलन के अलावा 1936 में डॉ. अंबेडकर द्वारा गठित इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (आइएलपी) ने भी औपनिवेशिक भारत में मजदूर वर्ग के अधिकार हासिल करने में बड़ी भूमिका निभाई थी. आइएलपी ने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद, दोनों को मजदूर वर्ग का दुश्मन चिन्हित किया था; और वह बंबई प्रेसिडेंसी में एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति के बतौर उभरी थी. उसने कई बड़ी चुनावी जीतें हासिल की थीं और विधान सभा के अंदर तथा व्यापक किसान-मजदूर संघर्षों में प्रमुख भूमिका अदा की थी.

1936 वह साल था जब दो क्रांतिकारी आह्वान जारी किए गए थे. जहां किसान सभा ने जमींदारी उन्मूलन का आह्वान जारी किया, वहीं अंबेडकर जाति उन्मूलन के नारे के साथ सामने आए. जाति उन्मूलन के इस आह्वान ने सामाजिक न्याय के एजेंडा को सामाजिक रूपांतरण के उच्चतर स्तर तक असरदार ढंग से उठा दिया. छुआछूत मिटाने की सीमित गांधीवादी सारवस्तु से अलग हटते हुए अंबेडकर ने समूची वर्ण व्यवस्था को ही खत्म करने की जरूरत की तरफ भारत का ध्यान आकर्षित किया. श्रम विभाजन के नाम पर जाति को उचित बताने के प्रयासों को धक्का मारते हुए अंबेडकर ने जाति को श्रमिकों के विभाजन के बतौर देखा. जाहिर है, उसका जवाब जाति-विरोधी आधार पर श्रमिकों की एकजुटता ही हो सकती थी जिसके जरिये जातियां वर्ग के अंदर विलीन हो जाएंगी. इन क्रांतिकारी विचारों – जमींदारी उन्मूलन, जाति उन्मूलन और श्रमिकों की एकजुटता – का समागम वर्गीय एकता और वर्ग संघर्ष को काफी बड़े पैमाने पर ले जाने की क्षमता रखता था, लेकिन इस संभावना को उस वक्त साकार नहीं किया जा सका. ठीक यहीं पर हमें इस अधूरी रह गई संभावना और स्वतंत्रता आन्दोलन की इस विरासत को आज के भारत में पुनः तलाश करने की जरूरत है.

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भारत का उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष या आजादी का आंदोलन मुल्क के इतिहास का एक लम्बा और बहुरंगी अध्याय है. इस आंदोलन की चादर हज़ारों संघर्षों के धागों से बुनी गई है जिन्होंने आधुनिक भारत की खोज को गहन और समृद्ध बनाया. अलग-अलग वक्तों में, अलग-अलग इलाक़ों में तात्कालिक मुद्दों और संदर्भों के लिहाज से चाहे ज़मींदारों, सूदख़ोरों व स्थानीय राजाओं के खिलाफ चले आंदोलन हों, जाति और जेंडर के आधार पर होने वाले दमन और अन्याय के खिलाफ चले आंदोलन हों या भाषाई हकों और सांस्कृतिक विविधता के लिए चले आंदोलन हों, सभी ने आजादी के आंदोलन के आवेग और फलक को और ज्यादा बड़ा ही बनाया. गांधीवादियों और अंबेडकरवादियों से लेकर विभिन्न कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट धाराओं तक, विभिन्न विचारधाराओं की अगुवाई में जो गोलबंदी और संघर्ष के बहुत सारे तरीके अपनाए गए थे, सभी से मिलकर ही भारत की आजादी के आंदोलन की विराट धारा बनी थी. विडम्बना यह है कि एक धारा, जो आजादी के आंदोलन से साफ़-साफ़ गायब थी, और उस दौर में हिंदू श्रेष्ठता के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करने के अपने प्रोजेक्ट में लगी हुई थी, वही आज सत्ता पर काबिज है और आजादी की पचहत्‍तरवीं वर्षगाँठ मना रही है.  

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तिलका मांझी

भारत में अंग्रेजी उपनिवेश के उभरने और उसके वर्चस्व का इतिहास तीन शताब्दियों से अधिक का है- पहला दौर अंग्रेजों के व्यापारिक गतिविधियाँ बढ़ाने, ईस्ट इंडिया कम्पनी के जाल को फैलाने से लेकर 1757 के प्लासी युद्ध तक का है, दूसरा दौर सौ सालों (1757-1858) तक चले कम्पनी राज और उसके बाद 1858 से 1947 तक सीधे अंग्रेजी राज के मातहत होने का है. क्रूर लूट और डाके पर टिके हुए औपनिवेशक अंग्रेजों के दमन और छल वाले राज के खिलाफ लगातार आंदोलन होते रहे, बार-बार विद्रोह होते रहे, जिसकी पहली अभिलिखित अभिव्यक्ति तिलका माँझी की अगुवाई में हुआ 1784 का आदिवासी विद्रोह था. प्रतिरोध आंदोलनों का यह समूचा इतिहास भारत की आजादी का आंदोलन माना जाना चाहिए.  

1757 का प्लासी और 1764 में बक्सर युद्ध के बाद उत्तर भारत में कम्पनी राज बेहद मजबूत हुआ. इसे और मज़बूती देने के लिए अंग्रेज शासकों ने स्थायी बंदोबस्त या कार्नवालिस कानून के जरिये वफ़ादार ज़मींदारों का एक वर्ग तैयार किया. पर इस उपनिवेशवाद और ज़मींदारी चलन और उनसे जुड़ी सूदख़ोरी व्यवस्था की बहुसंख्य ग्रामीण आबादी ने, खासकर किसानों और आदिवासियों ने जमकर मुख़ालफ़त की. इस निज़ाम के खिलाफ लगातार फूटती बग़ावतें 1855 के हूल विद्रोह और 1857 की महान बग़ावत के साथ नई ऊँचाई पर पहुँचीं, जिसके बाद अंग्रेज सरकार को न सिर्फ भारत को कम्पनी की बजाय अपनी हुकूमत में शामिल करना पड़ा बल्कि अपनी रणनीति में कई बदलाव भी करने पड़े.

1857 की महान बग़ावत ने अंग्रेज शासन के सामने दो मुख्य चुनौतियाँ पेश कीं. अंग्रेजों की उम्मीद के उलट 1857 ने यह दिखा दिया कि हिंदू-मुसलमान एक साथ आ सकते थे, और टूटी-बिखरी भारतीय राजनीति के बावजूद लोग इकट्ठा हो सकते थे. उनकी उम्मीद के उलट मुल्क में राष्ट्रीय जागरण की विराट सम्भावना बन गयी थी जिसमें हिंदू और मुसलमान सिपाही, किसान, व्यापारी और यहाँ तक कि कुलीन तबका भी अंग्रेज-राज की मुख़ालफ़त में साथ-साथ था. 1857 के बाद इसी लिहाज से उन्होंने 'बाँटो और राज करो' की नीति अपनाई और राजे-रजवाड़ों (प्रिंसली स्टेटों) को अपना विश्वस्त सहयोगी बनाया. निश्चित ही आजादी के आंदोलन ने इस 'बाँटो और राज करो' की नीति के खिलाफ 'एकजुटता और प्रतिरोध' की नीति अपनाई पर बावजूद इसके वह विभाजन की भयावह त्रासदी को रोकने में नाकामयाब रहा. विभाजन की इस त्रासदी के साथ कत्लो-गारत, ज़बर्दस्ती पलायन, तबाही और विनाश की कहानी हमारे इतिहास में दर्ज है. 'बाँटो और राज करो' की नीति आगे बढ़ती हुई 'बँटवारे और पलायन' तक पहुँच गयी.

आज भाजपा के जरिये भारत पर शासन करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी विचारधारा और दृष्टि को सत्ता की विचारधारा की तरह मुल्क पर लादना चाहता है. जहां मोदी सरकार आजादी के आंदोलन के कई नेताओं को अपने खेमे के लिहाज से बना लेने में जोर लगाए हुए है और कुछ को तोड़-मरोड़ कर, बिगाड़ कर पेश कर रही है, वहीं संघ चाहता है कि भारत की आजादी के आंदोलन के इतिहास को सिर्फ विभाजन के जख्‍मों तक सीमित कर दिया जाए. बड़ी चालाकी से ये लोग आजादी के आंदोलन में संघ और हिंदुत्व के दूसरे तथाकथित नायकों की घटिया भूमिका के सच पर पर्दा डाल देना चाहते हैं. यह पूरा हिंदुत्व गिरोह आजादी के आंदोलन से गायब रहा, इसके सबसे बड़े प्रतीक सावरकर अब इस बात के लिए याद किए जाते हैं कि उन्होंने अंग्रेज सरकार को आधा दर्जन माफ़ीनामे लिखे थे, जबकि संघ, मुसोलिनी और हिटलर के क़सीदे काढ़ रहा था. गोलवलकर ने लिखा कि कैसे भारत को 'नस्लीय शुद्धता और गर्व' के हिटलर के नाज़ी जर्मनी के मॉडल का अनुकरण करते हुए उसका फ़ायदा उठाना चाहिए. सावरकर ने हिंदू भारत का ऐसा मॉडल बताया जिसमें सारी राजनैतिक और सैन्य ताकत वे लोग हासिल करेंगे जिनका जन्म भी इस देश में हुआ हो और जो इस देश में जन्मे धर्म को भी मानते हों.

भारत विभाजन के जवाब में संघ, अखंड भारत की बात करता है जिसमें 1947 से बने सिर्फ भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं बल्कि उत्तर-पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान, उत्तर-पूर्व में म्यांमार, दक्षिण में श्रीलंका तथा उत्तर में नेपाल, भूटान और तिब्बत तक शामिल हैं. जर्मनी में जैसा राष्ट्रों का एकीकरण हुआ या जैसे कि कोरिया के एकीकरण की इच्छा का मामला है, संघ की वैसे एकीकरण की कोई इच्छा नहीं. बल्कि यह उसी तरह का विस्तारवादी साम्राज्यवादी सपना है जैसा पुतिन का विस्तृत रूस का सपना है जो यूरेशियन साम्राज्य के केंद्र में होगा. यह अखंड भारत इतिहास में कभी भी अस्तित्व में नहीं रहा. यह सिर्फ़ पुराने मिथकीय वैभव वाला कल्पित अतीत का ज़हरीला सपना है, जो लोगों की रोजमर्रा की तबाहियों और मुश्किलों से उनका ध्यान भटकाने के लिए दिखाया जा रहा है.  

भारत और पाकिस्तान पचहत्तर सालों से अलग-अलग मुल्क हैं, बांग्लादेश की उम्र भी पचास साल से ऊपर हुई. साझे अतीत और साझा हितों को ध्यान में रखते हुए भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, ये तीन मुल्क निश्चित ही एक महासंघ के बारे में सोच सकते हैं जो अभी के लगभग निष्क्रिय और बेकाम सार्क (एसएएआरसी) की तुलना में दक्षिण एशिया में आपसी सहयोग के ज्यादा गतिशील और ऊर्जावान ढाँचे की राह ले. संघ के अखंड भारत के नुस्ख़े से दक्षिण एशिया में लगातार टकराव बना रहेगा और इससे भारत अपने पड़ोसियों से और अधिक अलगाव में जा पड़ेगा. पुराने अविभाजित भारत को ज़िंदा करने की तो छोड़ ही दीजिए, अगर कट्टर और एकरूप राजनैतिक हिंदुत्ववाद के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित किया जाएगा तो भारत की मौजूदा राष्ट्रीय एकता भी ख़तरे में पड़ जाएगी.

संविधान में वादा किया गया था कि अधिकारों की हर हाल में हिफ़ाज़त होगी, गहन लोकतंत्र होगा, स्वतंत्रता, बराबरी, भाईचारे पर कोई आँच नहीं आएगी और समग्र न्याय मिलेगा. हालाँकि ऐसा नहीं हो सका है पर हमारे संविधान की प्रस्तावना घोषणा करती है कि भारत का मूल मिज़ाज एक आधुनिक लोकतांत्रिक गणराज्य का है.

पहले विश्वयुद्ध और रूसी क्रांति के बाद, और ठोस तरीक़े से कहिए तो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद की कहानी में भारत की आजादी का आंदोलन अंतर्राष्ट्रीय उपनिवेशवाद विरोधी, फासीवाद विरोधी जागरण का हिस्सा बन गया. 1947 में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के भारत से भागने और 1949 में नए चीन के उदय ने पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध के अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक नक्शे को बदल कर रख दिया. इस बदले हुए अंतर्राष्ट्रीय माहौल में ही आधुनिक भारत की एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में यात्रा शुरू हुई थी.

'नियति से साक्षात्कार' (ट्रिस्‍ट विद डेस्टिनी) के पचहत्तर सालों बाद आज भारत एकदम अलग रास्ते और उल्टी दिशा में बढ़ रहा है. 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने और 2019 की जीत के बाद संघ-भाजपा को इतनी मजबूती मिली है कि अब वे भारतीय राज्य के ढाँचे की मूलभूत चीजों को बदल रहे हैं. अब सत्ता के प्रबंधक विधायिका और न्यायपालिका पर ढिठाई से वर्चस्व क़ायम कर रहे हैं और संविधान के सिद्धांतों का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है. राज्य और नागरिकता से धर्म के अलगाव के सिद्धांत को पूरी तरह त्याग दिया गया है. नई संसद के साथ ही लोकतंत्र को एक नए कट्टर दौर में धकेल दिया गया है जहां सामान्य आलोचना और विपक्ष को 'असंसदीय' करार दे दिया गया है. अगर 'आपातकाल' लोकतंत्र के दमन और बर्ख़ास्तगी का अनुभव था तो आज हम 'स्थाई आपातकाल' की हालत में पहुँच गए हैं. पुराने आपातकाल में सिर्फ राजसत्ता ही दमनकारी थी, इसका नया अवतार गोदी मीडिया और गलियों-चौराहों पर चिंघाड़ते हत्यारे गिरोहों को साथ लेकर आया है.

मोदी सरकार के लिए आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने और फिर से लिखने का मौक़ा भर है. हम भारत के लोगों को आजादी के आंदोलन के इतिहास को फिर से याद करना चाहिए ताकि हम स्वतंत्रता और बराबरी के सपने की लौ फिर से जला सकें, ताकि हम बढ़ते हुए फासीवादी हमले का मुँहतोड़ जवाब दे सकें. 

freedom-75_hउपनिवेश विरोधी स्‍वाधीनता आन्‍दोलन से भारत का जन्‍म हुआ. संघर्षों से मिली आजादी के 75वें वर्ष में अपने स्‍वाधीनता संघर्ष की स्‍मृतियों और उससे मिले सबकों के साथ आगे बढ़ने के रास्‍ते में आज हमारे सामने बहुत बड़ी चुनौतियां मौजूद हैं.

स्‍वाधीनता आन्‍दोलन में भाग लेने वाले व्‍यक्तियों और समूहों के बीच विभिन्‍न प्रकार की विविधतायें इस चुनौती का एक बेहद महत्‍वपूर्ण पहलू है. ऐसा वैविध्‍य कि आजादी के संघर्ष का कोई भी एक-रेखीय अथवा एक-आयामी इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता. इस आन्‍दोलन के सभी घटकों पर पूरा ध्‍यान दिये बगैर स्‍वाधीनता आन्‍दोलन को पूरी तरह से समझ पाना असम्‍भव है.

स्‍वाधीनता आन्‍दोलन को याद करने और उसे पूर्ण सम्‍मान देने के रास्‍ते में आज सबसे बड़ा अवरोध वर्तमान सरकार और शासक पार्टी खड़ा कर रही है. भाजपा का पितृ संगठन आरएसएस स्‍वाधीनता आन्‍दोलन से पूरी तरह दूर रहा था: यह ऐसा सच है जिसे आज भाजपा छुपा रही है. स्‍वाधीनता आन्‍दोलन के भागीदारों की विविधतायें आज धर्म के आधार पर भारत को परिभाषित करने की कोशिश में लगे आरएसएस और भाजपा के लिए बहुत बड़ी समस्‍या है. इसीलिए आज हम देख रहे हैं कि किस प्रकार भाजपा और आरएसएस ‘देश’ और ‘आजादी’ के मूल अर्थों को ही विकृत करने की कोशिश में लगे हैं.

भारत के वर्तमान और भविष्‍य दोनों को बनाने के लिए भारत के स्‍वाधीनता संघर्ष के इतिहास के सबक हमारे लिए महत्‍वपूर्ण हैं. आज हमारे सामने मौजूद चुनौतियों का सामना करने के लिए और भारत की विविधता और लोकतंत्र को बचाने के संघर्ष में इस आन्‍दोलन की गौरवशाली विरासत को याद करना बहुत जरूरी है.

इस पुस्तिका में कामरेड दीपंकर भट्टाचार्य (महासचिव, भाकपा-माले) और कामरेड कविता कृष्‍णन (पोलित ब्‍यूरो सदस्‍य, भाकपा-माले) के आजादी के पचहत्‍तरवें वर्ष में अगस्‍त 2021 और अगस्‍त 2022 के बीच एक साल तक चले ‘आजादी75’ (Freedom75) अभियान के दौरान लिबरेशन पत्रिका में छपे लेखों को शामिल किया गया है. इनके अतिरिक्‍त एक लेख में स्‍वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर 1997 में दीपंकर भट्टाचार्य द्वारा लिखित पुस्तिका ‘भारत की आजादी की लड़ाई : दूसरा पहलू’ के उद्धृत व संपादित अंश हैं, इस उम्‍मीद के साथ कि पाठकों को इनके माध्‍यम से भारतीय स्‍वाधीनता संग्राम  के महत्‍व को समझने में मदद मिलेगी और कई अनजाने पहलुओं को जानने के प्रति उनकी उत्‍कंठा बढ़ेगी.

1 अगस्‍त 2022

भारत का स्‍वाधीनता संग्राम : विरासत और सबक


अगस्त 2022

 


संपादक : दीपंकर भट्टाचार्य और कविता कृष्णन

 


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विषय सूचि :

 

गसोुा७

भारत में फासीवाद की प्रमुख विशिष्‍टतायें

आर.एस.एस. के शुरूआती वर्षों में एम.एस. गोलवलकर ने हिटलर को एक 'रोल मॉडल' के रूप में देखा, लेकिन होलोकॉस्‍ट (यहूदियों का जनसंहार) और दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद ऐसा करना सम्‍भव नहीं रह गया था. आज नरेन्‍द्र मोदी सम्‍पूर्ण संघ नेटवर्क की मदद से उसी परम्‍परा को विचारों एवं कार्यवाहियों में पुनर्जीवित और आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. गुजरात के मुख्‍यमंत्री के रूप में स्‍कूल की किताबों में उन्‍होंने हिटलर को महान राष्‍ट्रवादी नेता बता प्रशंसा करते हुए एक लेख शामिल करवाया [1] और गुजरात मॉडल को भारत में फासीवाद के 'पायलट प्रोजक्‍ट' के रूप में विकसित किया. अब प्रधानमंत्री के रूप में वे अभूतपूर्व रूप से कॉरपोरेट प्रभुत्‍व वाले और ट्रम्‍प के अमेरिका से गहरी साझीदारी वाले एक निरंकुश हिन्‍दू राष्‍ट्र के बहुप्रतीक्षित लक्ष्‍य की ओर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं.

हमारी विशिष्‍ट राष्‍ट्रीय परिस्थितियों में चल रहे फासीवादी अनुकूलन का एक आकलन अपने पाठकों को देने के लिए हम यहां भाकपा(माले) लिबरेशन के 10वें अखिल भारतीय महाधिवेशन में गृहीत ‘राष्‍ट्रीय परिस्थिति पर प्रस्‍ताव’ [2] से उद्धरणों को दे रहे हैं. यह महाधिवेशन ‘फासीवाद को हराओ, जनता का भारत बनाओ’ के केन्‍द्रीय नारे के साथ 23-28 मार्च 2018 को पंजाब के मानसा में सम्‍पन्‍न हुआ था.

आक्रामक फासीवादी एजेंडा

“भारत ने पिछले चार सालों में बड़े पैमाने का राजनीतिक बदलाव देखा है. भाजपा ने शासकवर्गों की वर्चस्वशाली प्रतिनिधि पार्टी के बतौर निर्णायक तौर पर कांग्रेस को पीछे धकेल दिया है ... केन्द्र एवं राज्यों में भारत के प्रमुख शासक दल के रूप में भाजपा के इस उभार के चलते यह पार्टी और पूरा संघ परिवार अभूतपूर्व तेजी एवं आक्रामकता के साथ अपने फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने में सक्षम हुआ है.

“2014 के संसदीय चुनाव के अभियान को भाजपा ने अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव अभियान की तरह संचालित किया. इस दौरान मोदी और उनके तथाकथित गुजरात माॅडल के इर्द-गिर्द एक मजबूत मिथक गढ़ा गया. मोदी द्वारा दिए गए ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ जैसे नारों और ‘भारत-विजय’ जैसी रैलियों में यह आक्रामकता साफ जाहिर थी. तबसे आज तक भाजपा 2014 की चुनावी जीत (केवल 31 फीसदी वोट के साथ) को इस तरह समझ रही है मानो उसने सच में भारत-विजय कर ली हो और संघ-भाजपा की विचारधारा और एजेंडा के अनुरूप हर चीज को बदल देने का लाइसेंस उनको हासिल हो गया हो. भाजपा ने संविधान पर खुलेआम हमला बोल दिया है और मोदी के अनंत हेगड़े जैसे मंत्रियों ने सीधे-सीधे संविधान बदलने के भाजपा के मिशन पर जोर दिया है.

“भारत में फासीवादी हमला राज्य और तमाम गैर-सरकारी ताकतों, दोनों के आपस में तालमेल और घनिष्ठ गठजोड़ द्वारा संचालित है. राज्य मशीनरी लगातार निरंकुश और हस्तक्षेप करने वाली होती गयी है, जबकि वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उस संघ गिरोह को संरक्षण दे रही है जो भीड़ हत्याओं, असहमति जाहिर करने वाले बुद्धिजीवियों एवं कार्यकर्ताओं की चुन-चुन कर हत्या एवं लगातार चलाये जा रहे जहरीले घृणा अभियान के जरिये सांप्रदायिक व जातिवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था थोपने की कोशिश कर रहा है. मोदी सरकार नागरिकता की शर्तों से लेकर गणतंत्र के मूल स्वरूप तक में बदलाव कर भारत के संवैधानिक लोकतंत्र की असल बुनियाद को ही नष्ट करने की कोशिशें कर रही है.

संसदीय लोकतंत्र को कमजोर करने की कोशिश

“संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में काम-काज के कैबिनेट सिस्टम को पूरी तरह से नकारते हुए मोदी, अमरीकी राष्ट्रपति की तर्ज पर अपनी सरकार चला रहे हैं... सरकार सत्ता के पूर्ण केंद्रीकरण और बेशर्मी के साथ मोदी की व्यक्तिगत छवि चमकाने में लगी हुई है.

“मोदी सरकार पहले दिन से ही संसदीय संस्थाओं, प्रक्रियाओं और परम्पराओं को सुनियोजित तरीके से धता बता रही है और क्षतिग्रस्त कर रही है. योजना आयोग को खत्म करके संदिग्ध नीति आयोग बनाना, जो अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण की सलाह देते समय आम लोगों के मुद्दों पर जुबानी जमाखर्च भी नहीं करता, यहां तक कि चुनाव आयोग को लोकसभा व विधान सभा के चुनाव एक साथ करवाने की सलाह देना और ‘मनी बिल’ का चोला पहनाकर धोखाधड़ी भरे ‘आधार’ समेत ढेर सारे विवादास्पद कदमों को पास करवाना इसके चंद ज्वलंत उदाहरण हैं.

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के लिए भाजपा की बढ़ती चीख-पुकार संघवाद और राजनीतिक विविधता के सिद्धांतों को कमजोर करने की कोशिश है. एक साथ चुनाव का इस्तेमाल करके वे जनता की राजनैतिक पसंद को सीमित करने और राजनीतिक विमर्श को हर स्तर पर सत्ताधारी पार्टी व बड़े मीडिया घरानों द्वारा गढ़े गए आख्यान के मातहत रखने के जरिये और बड़े पैमाने का राजनीतिक वर्चस्व लादना चाहते हैं...

“राज्यपाल के कार्यालयों, जोकि संवैधानिक रूप से इस प्रकार बनाया गया है कि राज्यों के ऊपर केन्द्र की स्थिति मजबूत बन सके, का भाजपा सत्ता हथियाने के औजार के रूप में खुल कर दुरुपयोग कर रही है. इस प्रकार वह राज्यों के अधिकारों एवं हमारे संवैधनिक ढांचे में निहित संघीय संतुलन के प्रत्येक पहलू का हनन कर भारत में पूरी तरह अपनी ही हुकूमत कायम कर लेना चाहती है.

इसके बाद इस प्रस्‍ताव में मोदी-शाह राज में जिन दो सबसे बड़ी महामारियों से देशग्रस्‍त है – “क्रोनी पूंजीवाद, भ्रष्‍टाचार व आर्थिक तबाही” तथा “गहराता कृषि संकट, बढ़ती बेरोजगारी और बढ़ती गैर-बराबरी” – पर चर्चा की गई है. उसके बाद के छह भाग संक्षेप में नीचे दिये जा रहे हैं.

अल्पसंख्यकों, दलितों एवं असहमति के सभी रूपों पर हमला

“इस आक्रामक कारपोरेटपरस्त आर्थिक एजेंडा के साथ अति-राष्ट्रवादी लफ्फाजी की जुगलबंदी चल रही है. असहमति जाहिर करने और दिक्कततलब सवाल पूछने वाली हर आवाज को राष्ट्रद्रोही बताकर खामोश कराया जा रहा है और उनको देश की सीमा पर तैनात जवानों के बलिदानों के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है. यह अति-राष्ट्रवाद केवल मुस्लिम विरोधी जहरीली नफरत और हिंसा के लिये एक झीने आवरण का काम करता है. बीफ खाने व जानवरों का व्यापार करने से लेकर अंतर्धार्मिक विवाह, जिन्हें संघ परिवार ने ‘लव जिहाद’ का नाम दिया है, या ऐसी कोई अफवाह या झूठे आरोप के कारण कभी भी और कहीं भी मुसलमानों को मारा जा सकता है... यहां तक कि खुद मुस्लिम महिला संगठनों द्वारा लम्बे सामाजिक और कानूनी संघर्ष के बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक बार में तीन तलाक की मनमानी प्रथा को अवैधानिक घोषित करने के निर्णय को भी अब मुसलमान पुरुषों के खिलाफ निन्दा और उत्पीड़न के हथियार में तब्दील करने की कोशिश चल रही है.

“... विभिन्न पदों और सत्ता-संस्थानों में संघ-गिरोह के लोगों के पहुंच जाने के कारण दलितों के उत्पीड़न में गुणात्मक रूप से इजाफा हुआ है. बिहार में भूपतियों की निजी सेनाओं से संघ परिवार का जुड़ाव सर्वविदित है जिनमें सबसे कुख्यात रणवीर सेना थी जिसने 1990दशक के अंतिम वर्षों और 2000 के दशक के शुरूआती वर्षों में कई जनसंहारों को अंजाम दिया. आज दलितों के खिलाफ हिंसा का एक ज्यादा व्यापक अभियान दूर-दराज के गांवों से लेकर बड़े शहरों के विश्वविद्यालयों तक चल रहा है... सांप्रदायिकता और जातिवाद, संघ की विचारधारा के एक सिक्के के ही दो पहलू हैं. हालांकि संघ परिवार धार्मिक अल्पसंख्यकों (चाहे वे मुसलमान हों या ईसाई) के खिलाफ सांप्रदायिक आक्रामक अभियान में दलितों को प्यादे की हैसियत से भरती के लिये भी बेताब है.

“इन सांप्रदायिक और जातिवादी हमलों के तीव्र होने के चलते महिलाओं पर होने वाली हिंसा, नैतिक पुलिसगीरी और जकड़बंदी बढ़ी है. अब इसे लागू करने वाली ताकतों में केवल परम्परागत खाप पंचायतें ही नहीं, नवगठित निगरानी गिरोह भी हैं, जो कानून-व्यवस्था की मशीनरी के परोक्ष समर्थन या फिर खुले संरक्षण से स्वयंभू एंटी रोमियो स्क्वाड बनकर सड़कों पर खुलेआम घूम रहे हैं... हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह स्त्री-विरोधी संस्कृति मनुस्मृति के सिद्धांतों और परम्परा पर आधारित है जो जातिगत उत्पीड़न और पितृसत्तात्मक वर्चस्व की नियमावली है, जिसे संघ गिरोह भारत का सर्वाेच्च और मूल संविधान मानता है.

“संघ के विचारधारात्मक ढांचे में मुसलमानों, दलितों (और आदिवासियों के एक हिस्से के, जिन्हें माओवादी या ईसाई कहकर निशाना बनाया जाता है) एवं महिलाओं के खिलाफ नफरत और हिंसा का विस्तार कम्युनिस्टों, वाम/उदारपंथी बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं तक चला जाता है. नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे बुद्धिवादियों और सामाजिक न्याय का अभियान चलाने वालों की हत्या एवं हत्या के बाद उसका उत्सव मनाने से लेकर छात्र-युवा नेताओं व कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह और रासुका के मुकदमे लादने, असुविधाजनक सवाल पूछने वाले, जवाबदेही मांगने वाले और सच उजागर करने वाले पत्रकारों की धरपकड़, सोशल मीडिया और मुख्यधारा के इलेक्ट्रांनिक व प्रिंट मीडिया में असहमति की हर आवाज के खिलाफ एक पूरी ट्रोल सेना खड़ी करने, देश के विभिन्न हिस्सों में कम्युनिस्ट पार्टियों के दफ्तरों, कार्यकर्ताओं और कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रतीकों पर बढ़ते हमले – नफरत भरे झूठों के व्यवस्थित प्रचार तथा राज्य उत्पीड़न और राज्य समर्थित निजी स्तर की हिंसा के सम्मिश्रण के ये उदाहरण मोदी के भारत के हर हिस्से में दिखाई पड़ रहे हैं.

“और कश्मीर जैसे राज्य में, जहां तीखे राज्य दमन का सामना करते हुए लोग आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए लम्बे समय से संघर्षरत हैं, भाजपा अभी सत्ता में हिस्सेदार है. उसने कश्मीर में संवैधानिक शासन का ढोंग भी त्याग दिया है और वह आम कश्मीरियों के साथ वस्तुतः युद्धबंदियों जैसा व्यवहार कर रही है... भाजपा की केन्द्र और जम्मू एवं कश्मीर की सरकारें दिखावे के लिए भी मुद्दे का समाधान करने की कोशिशें छोड़ चुकी हैं और पूरे भारत में अपने इस्लामोफोबिक और अति-राष्ट्रवादी एजेण्डे को आगे बढ़ाने के लिए ईंधन के रूप में कश्मीर का इस्तेमाल कर रही हैं.

मोदी राज के मूल तत्वः फासीवाद का असंदिग्ध उभार

“बढ़ी हुई कारपोरेट लूट, बेरोकटोक बढ़ती सांप्रदायिक आक्रामकता और जातिगत उत्पीड़न, असहमति का सुनियोजित दमन और कम्युनिस्टों की लानत-मलामत, मोदी सरकार के निर्धारक केंद्रीय तत्व हैं. मुख्यधारा के अधिकांश भारतीय मीडिया ने कड़ी मेहनत के जरिए मोदी को एक ऊर्जस्वी नेता, विकास पुरुष और कोई बकवास न बर्दाश्त करने वाले प्रशासक के रूप में इस तरह पेश किया कि गुजरात 2002 की स्मृतियां लोगों की याददाश्त से मिट जाएं. इस मीडिया का एक हिस्सा तो संघ-भाजपा के प्रचार दस्ते या मोदी सरकार के प्रवक्ता के रूप में काम कर रहा है. 2014 की चुनावी जीत को मोदी के विकास पुरुष के नए अवतार की स्वीकृति के रूप में पेश किया गया. लेकिन शुरूआती दिनों में ‘अच्छे दिन’, काले धन की वापसी और स्वच्छ भारत जैसी लफ्फाजी में देश को उलझाए रखने के बाद मोदी सरकार ने अब अपना असली रंग दुनिया के सामने जाहिर कर दिया है.

“… बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात आदि महत्वपूर्ण राज्यों के चुनावों में स्वयं मोदी द्वारा संचालित प्रचार अभियानों ने बारम्बार स्पष्ट कर दिया है कि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की राजनीति ही मोदी ब्राण्ड का केंद्रीय तत्व है. जहां खुद मोदी और भाजपा व आरएसएस के उनके वरिष्ठ सहयोगी संघ गिरोह द्वारा किए गए जघन्य अपराधों पर शर्मनाक चुप्पी साध लेते हैं, वहीं दूसरे नेता खुलकर इन अपराधों को सही ठहराते हैं और यहां तक कि उनका जश्न मनाते हैं, जैसा कि गौरी लंकेश की हत्या के बाद या बाबरी मस्जिद विध्वंस की 25वीं बरसी के दिन राजस्थान के राजसमंद में मोहम्मद अफराजुल की हत्या करके उसका वीडियो बनाने की घटना में देखा गया.

गसोुा८

“स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के दुश्मन भारत के संविधान को तहस-नहस करके भारत को हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान के अपने खाके में बिठाना चाहत हैं. भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन से गद्दारी करने वाले अंगरेजी उपनिवेशवाद के पिट्ठू अब भगत सिंह के ऊपर सावरकर, अम्बेडकर के ऊपर गोलवरकर और गांधी के ऊपर गोडसे को रखने के लिए इतिहास पर कब्जा करना चाहत हैं और उसका पुनर्लेखन करना चाहते हैं.”

– दीपंकर भट्टाचार्य
भाकपा(माले) के 10वें पार्टी महाधिवेशन में उद्घाटन भाषण से


“मौजूदा सरकार की इन प्रमुख विशेषताओं के साथ संघ की विचारधारा और इतिहास को मिलाकर देखें तो हम आज असंदिग्ध रूप से भारत में फासीवाद के उत्थान के सामने खड़े हैं... जहां आपातकाल प्राथमिक तौर पर दमनकारी राज्य के इर्द-गिर्द घूमता है, वहीं मौजूदा मोदी राज, राज्य के नेतृत्व में कारपोरेट हमले और हिंदू वर्चस्व में बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के अभियान के संगम के रूप में दिखाई पड़ता है. संघ गिरोह को प्रायः उन्मादी भीड़ द्वारा की जाने वाली हिंसा के जरिए अपने फासीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने की खुली छूट मिली हुई है. यही आपातकाल के दौर की निरंकुशता के हमारे अनुभव को मोदी माॅडल के निरंकुश शासन से अलग करता है.

राज्य मशीनरी का साम्प्रदायीकरण, शिक्षा एवं विचारों पर कसता शिकंजा

“... फासीवाद को निरंकुशता से अलग करने वाला एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि फासीवाद राज्य दमन को वैधता प्रदान करने और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के लिए समाज के एक हिस्से को गोलबंद करने में सक्षम होता है. हाल ही में मोहन भागवत द्वारा कुख्यात रूप से की गई आरएसएस और भारतीय सेना की तुलना हिंदू समाज के सैन्यीकरण और भारतीय सेना के सांप्रदायीकरण/ राजनीतिकरण के आरएसएस के एजेंडा को प्रकट कर देती है. इस एजेंडे पर लम्बे समय से काम किया जा रहा है. इटली के फासीवादी नेता मुसोलिनी से मिलने और उनसे प्रभावित होने वाले हिंदू महासभा के नेता बीएस मुंजे द्वारा 1937 में नागपुर में स्थापित की गयी भोंसला मिलिटरी अकादमी इस एजेंडे के दोनों पक्षों को पूरा करती है. 2012 में खुद भागवत ने कहा था कि भोंसला अकादमी, सेना में अधिकारियों की कमी को पूरा करने वाला पूरक संस्थान है. मालेगांव धमाकों में आरोपित एक सेवारत सैन्य अधिकारी ने इसी अकादमी से प्रशिक्षण प्राप्त किया था. सेवानिवृत्त और सेवारत सैन्य अधिकारियों और सेवानिवृत्त वरिष्ठ आईबी अधिकारियों ने अकादमी में प्रशिक्षकों की भूमिका निभाई है. अकादमी बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को हथियारों का प्रशिक्षण भी देती है जो मुसलमानों के खिलाफ संगठित सांप्रदायिक हिंसा को अंजाम देते हैं. हिंदू युवाओं का सैन्यीकरण करने की आरएसएस की परियोजना मुसलमानों को ‘पाकिस्तानी’ के रूप में चिन्हित करती है और इस तरह सांप्रदायिक हिंसा को ‘आंतरिक शत्राु’ के खिलाफ ‘राष्ट्रवाद’ का जामा पहना देती है.

“भाजपा-शासित राज्यों में शासन का एक और फासीवादी लक्षण है प्रायोजित ‘मुठभेड़ों’ एवं युद्ध-अपराधों को राज्य की नीति घोषित करना. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चैहान द्वारा भोपाल में फर्जी मुठभेड़ में आठ मुसलमान नौजवानों की हत्या का जश्न मनाना, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ द्वारा सिलसिलेवार फर्जी मुठभेड़ों का खुलेआम पक्ष लेना, कश्मीरी युवक को जीप के आगे बांधकर घुमाने वाले सेना के मेजर का सरकार द्वारा पक्ष लेना, जम्मू में आठ साल की गुज्जर मुस्लिम लड़की से बलात्कार और हत्या के आरोप में गिरफ्तार किए गए स्पेशल पुलिस ऑपरेशंस के जवान के पक्ष में हिंदू एकता मंच द्वारा रैली निकालना ऐसे कुछ प्रमुख उदाहरण हैं.

“वर्दीधारियों के ऐसे अपराध गैर-भाजपा सरकारों के राज में भी हुए हैं, लेकिन तब आधिकारिक नीति ऐसे मामलों का खुलेआम जश्न मनाने की नहीं, बल्कि उनसे इंकार करने की रही है.

“शिक्षा को विकृत करना और उसका भगवाकरण करना भी संघ की फासीवादी परियोजना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें भाजपा सरकारें मददगार हो रही हैं. भाजपा-शासित राज्यों में स्कूलों के पाठ्यक्रमों का भगवाकरण किया जा रहा है. इतिहास की पाठ्य पुस्तकें फिर से लिखी जा रही हैं और यहां तक कि स्कूली बच्चों के लिए संघ के प्रशिक्षण शिविर अनिवार्य किए जा रहे हैं ताकि कच्ची उम्र में ही उनके दिमागों में जहर भरा जा सके. साथ ही उच्च शिक्षा के संस्थानों पर भी लगातार हमला हो रहा है. भाजपा द्वारा नियुक्त उच्च शिक्षण संस्थाओं के प्रमुख बोलने की आजादी, कैंपस लोकतंत्र, सामाजिक न्याय व शोधकार्य को पूरी तरह तबाह करने में लगे हुए हैं और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, असहमति रखने वाली तमाम प्रगतिशील आवाजों पर हमला करने में संघ के आक्रामक जत्थे की भूमिका अदा कर रहा है.

फासीवादी विचारधरा और आर.एस.एस. का उभार

“... यह भी काबिलेगौर है कि 1920 के दशक में अपनी स्थापना के समय से ही आरएसएस ऐतिहासिक रूप से अपने आपको सैन्य-पौरुषवादी अतिराष्ट्रवाद की विचारधारा पर खड़ा करना चाहता था, जिसके प्रतीक-पुरुष मुसोलिनी और हिटलर थे. भीतरी दुश्मन (नाजी जर्मनी में यहूदी, अन्य अल्पसंख्यक एवं कम्युनिस्ट और मोदी के भारत में मुसलमान, दलित एवं हर किस्म के वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों) के खिलाफ घृणा और हिंसा की केन्द्रीयता, एक सर्वाच्च नेता की व्यक्ति पूजा को बढ़ावा देने के लिए जन-भावनाओं का सनकभरा दोहन, झूठ और अफवाहों का सतत प्रचार, नाजी जर्मनी के साथ आज के भाजपा शासित भारत की अद्भुत और वास्तविक समानताएं हैं.

“... 20वीं सदी के यूरोप के फासीवाद की तुलना में 21वीं शताब्दी के भारत का फासीवाद निश्चित तौर पर अपनी अलग विशिष्टताओं वाला होगा लेकिन इससे न तो फासीवाद का खतरा कम वास्तविक होता है और न ही उसकी विध्वंसक क्षमता कम घातक हो जाती है. मौजूदा दौर का अन्तराष्ट्रीय अर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक माहौल एक बार फिर फासीवादी प्रवृत्तियों के उभार के अनुकूल है, जैसा हम दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में देख रहे हैं. लगातार कायम आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक असुरक्षा, इस्लामोफोबिया और आप्रवासी विरोधी उन्माद, ये तमाम चीजें अमेरिका और बहुतेरे यूरोपीय देशों में फासीवादी और नस्लीय राजनीति के उभार के लिए उर्वर जमीन मुहैय्या कर रहे हैं. संकट में फंसी वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था से नजदीकी और खासकर अमेरिकी साम्राज्यवाद और इजराइल के साथ बढ़ती रणनीतिक साझेदारियों ने भारत में फासीवादी प्रवृत्ति को और भी मजबूत बनाया है.

“... भारत में फासीवाद के उत्थान और विकास का केंद्रीय कारक सांप्रदायिकता है. इस संदर्भ में हमें याद रखना होगा कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन के दौरान सांप्रदायिक राजनीति के उभार, जिसने अंततः भारत को भयावह खून-खराबे और विराट मानवीय विस्थापन वाले बंटवारे की ओर धकेला, को बरतानवी उपनिवेशवाद से पूरी शह मिली थी. आज भारत की विविधतापूर्ण और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय पहचान को हिंदू बहुसंख्यवादी वर्चस्वशाली एकरूपी बना देने की कोशिश अमेरिकी साम्राज्यवाद के ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के सिद्धांत के अनुकूल है. इसके मुताबिक इस्लामी अरब दुनिया और कन्फ्यूशियाई चीन के खिलाफ अमेरिका की अगुवाई में चल रहे पश्चिम के युद्ध में हिंदू भारत मुख्य सहयोगी के रूप में देखा जाता है.

“...भारत में फासीवादी परियोजना में ऊंच-नीच अनुक्रम पर आधारित सामाजिक गैर-बराबरी के चिन्ह और बहिष्करण एवं उत्पीड़न के औजार के रूप में जाति भी केंद्रीय तत्व है. अक्सर इस जातिवादी व्यवस्था का सबसे गहरा आघात महिलाओं पर होता है... भारत में फासीवाद भारतीय समाज में गहरे पैठे अन्याय और हिंसा से शक्ति पाता है और उसको मजबूत एवं प्रसारित करता है, और आरएसएस आज भारतीय इतिहास व परम्परा में जो कुछ भी लोकतंत्र-विरोधी है, उसका प्रतीक बन गया है.

“आरएसएस की स्थापना के बाद शुरूआती पचास वर्षों में उसकी फासीवादी विचारधारा को स्वीकार करने वाले बहुत लोग न थे. इसने खुद को न सिर्फ स्वाधीनता आंदोलन से दूर रखा बल्कि आधुनिक भारत में मौजूद एक प्रमुख समुदाय के रूप में मुसलमानों की स्थिति को कमजोर करने के लिए अंग्रेजी उपनिवेशवाद से कई मोर्चों पर हाथ मिला लिया. गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर न सिर्फ कानूनी प्रतिबंध लगा बल्कि आम लोगों की निगाह में इसकी साख भी गिरी. मगर सांप्रदायिकता के सवाल पर कांग्रेस के विचलन और स्वाधीनता आंदोलन की आकांक्षाओं से गद्दारी ने आरएसएस को फिर से संगठित होने, ताकतवर बनने और वैधता हासिल करने का मौका दिया. 1960 के दशक के शुरूआती वर्षों में आरएसएस ने खोई साख उल्लेखनीय रूप से हासिल कर ली, क्योंकि पहले 1962 के चीन युद्ध, फिर1965 और 71 के पाकिस्तान के साथ सिलसिलेवार युद्धों के दशक में युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद बढ़ता गया. आपातकाल थोपने की घटना ने आरएसएस को मौका दिया कि लोकतंत्र बहाली के लिए चलने वाले लोकप्रिय आंदोलन के माध्यम से वह अपने संगठन व प्रभाव का विस्तार करे. उदारीकरण की आर्थिक नीतियों और अमेरिकापरस्त विदेश नीति को अपनाने के साथ ही कांग्रेस निर्णायक रूप से स्वाधीनता आंदोलन की विरासत से अलग हट गयी. अब भाजपा और कांग्रेस के बीच विचारधारात्मक और नीति सम्बंधी अंतर धुंधले पड़ गए . ऐसे में भाजपा को विभिन्न अंचलों और सामाजिक समूहों में अपने नये मित्र हासिल करने के लिये बस थोड़ा बहुत व्यावहारिक समायोजन करके अपना प्रभाव बढ़ाने में कोई खास दिक्कत नहीं हुई.

“उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों को आक्रामक रूप में लागू करने से पैदा हुआ संकट उसी समय आया है जब कांग्रेस और व्यापक दायरे के विभिन्न क्षेत्रीय दल अपनी साख खो चुके हैं और भारत में एक बड़ा राजनीतिक शून्य बना हुआ है, आरएसएस इस मौके का इस्तेमाल करके भारत की ऐतिहासिक व राजनीतिक संकल्पना को बदल उसकी जगह अपनी खुद की ऐतिहासिक-राजनीतिक संकल्पना कायम करना चाहता है... इस प्रक्रिया में वे नेहरू को खलनायक बनाने; गांधी को अपने लिए सुपाच्य बनाने, अम्बेडकर व भगतसिंह को विकृत करने; अकबर से लेकर ताजमहल तक मुसलमान हस्तियों को बदनाम करने और ऐतिहासिक इमारतों को ‘राष्ट्र-विरोधी’ बताने में जुटे हुए हैं. वे जातिगत व लैंगिक ऊँच-नीच, दकियानूस और घृणित सामाजिक प्रथाओं और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह को ‘भारतीय संस्कृति की आत्मा’ के रूप में प्रचारित करते हैं!

“इतिहास के पुनर्लेखन औ र उसको हड़प लेने की इस प्रक्रिया का प्रतिरोध फासीवाद-विरोधी संघर्ष का एक महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए. ऐतिहासिक रूप से भारतीय जनता के उपनिवेशवाद-विरोधी जागरण तथा अंग्रेजी राज के विरुद्ध चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष से अलग-थलग रहने वाला और यहां तक कि उसका विरोध करने वाला आरएसएस हमेशा ही साभ्यतिक या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अपना एक काल्पनिक आख्यान गढ़ता रहा है. हमेशा मिथकों का हवाला देना, यहां तक कि उन्हें इतिहास बताना, जालसाजी व हड़पने के रास्ते वास्तविक इतिहास को विकृत करना संघ के सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के झूठे आख्यान में फिट बैठता है. इसलिए भारत को परिभाषित और विकसित करने के अनवरत संघर्ष में इतिहास एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में उभरा है.

“इतिहास को विकृत करने, झुठलाने और हड़पने के आरएसएस के प्रयासों की मुखालफत करते हुए हमें भारत की जनता के इतिहास की और लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और मनुष्य की मुक्ति के लिए चले ऐतिहासिक संघर्षों की विरासत का झंडा बुलंद रखना चाहिए. हमारे मुल्क के महान लोकतांत्रिक और समाजवादी भविष्य के लिए जारी संघर्ष को ऊर्जस्वित करने एवं सशक्त बनाने के लिए हमारी ऐतिहासिक परम्पराओं में जो भी प्रगतिशील और मुक्तिकामी है, उसे बुलंद करना होगा, विकसित करना होगा और लक्ष्यपूर्ति में लगाना होगा.

आर्थिक व विदेश नीति के पहलू

“मोदी सरकार की आर्थिक और विदेश नीतियों की दिशा कमोबेश वही है जिसकी शुरूआत 1990 के दशक की शुरूआत में कांग्रेस ने की थी. लेकिन जिस बढ़ी हुई रफ्तार, आक्रामकता और मनमाने तरीके से मौजूदा सरकार इस दिशा में आगे बढ़ रही है, वह इसे अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार समेत सभी पूर्ववर्ती सरकारों से अलग करती है. विदेशी निवेश, वित्तीय एकीकरण, डिजिटलीकरण, निजीकरण और श्रम कानूनों पर हमला पहले की सरकारों में कभी भी इतना तीखा और मजबूत न था. योजना आयोग को समाप्त करने, खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण रोजगार गारंटी कानूनों का सुनियोजित उल्लंघन, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की जगह बीमा आधारित निजी स्वास्थ्य सेवा और रोजगार के एजेंडा को तुच्छ करने के लिये स्व-रोजगार को केंद्र में लाना व अब पकौड़ा बेचने, जो कठिन अनिश्चित जीविका का प्रतीक है, को लाभकारी रोजगार का उदाहरण बताने के जरिए मौजूदा सरकार ने सामाजिक कल्याण की जिम्मेदारी का जिस कदर बेशर्मी से पूर्णतः परित्याग किया है, वैसा पहले किसी सरकार में सम्भव नहीं हुआ था.

“विदेश नीति के क्षेत्र में मोदी सरकार अमेरिका की रणनीतिक मातहती की नीति को नई ऊंचाइयों पर ले गयी है... कि वह अमेरिका में भारतीय आप्रवासियों पर बढ़ते हमलों पर भी खामोश है. अमेरिका स्थित हिंदुत्ववादी संगठन गोरे लोगों के वर्चस्व के टंम्प के एजेंडे का खुला समर्थन कर रहे हैं... लेकिन मोदी के चौधराहट भरे रुख के चलते भारत अपने पड़ोसी देशों से अलगाव में पड़ गया है.

“नागरिकता संशोध्न बिल के माध्यम से मोदी सरकार भारत की नागरिकता की परिभाषा भी बदल देना चाहती है. इस बिल में बंगलादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हिन्दुओं को भारतीय नागरिकता प्रदान करने का प्रस्ताव है. इजरायल के ‘यहूदी होमलैण्ड’ के माॅडल की तरह ही यह प्रस्ताव पड़ोसी देशों में सताये जा रहे अल्पसंख्यकों के बीच धार्मिक आधार पर भेदभाव करके और नागरिकता आवेदन करने वाले गैर-मुस्लिमों को विशेष लाभ देकर भारत को छुपे रूप में हिन्दू राष्ट्र के रूप में बताने की एक कोशिश है. इस कदम से असम में भी अशांति और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये हैं, जहां पूर्वानुमान है कि भाजपा इस संशोधन  के माध्यम से असम समझौते को निष्प्रभावी बना देगी क्योंकि इससे उक्त समझौते में लागू 24 मार्च 1971 की कट ऑफ तारीख बेमानी हो जायेगी.

“इस बीच, असम में सर्वोच्च न्यायालय के निरीक्षण में चल रही नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स (एनआरसी) को तैयार करने की प्रक्रिया के प्रति भी चिन्तायें व्यक्त की जा रही हैं. असम सरकार के नेताओं के बयान इस बात के संकेत दे रहे हैं कि लाखों लोग जिनके नाम एन.आर.सी. में शामिल नहीं किये गये हैं, उन्हें सामूहिक रूप से देश से बाहर भेज दिया जायेगा. यदि इसे लागू कर दिया तो एक विकराल मानवीय संकट खड़ा हो जायेगा. इस संकट से बचने के लिए केन्द्र सरकार को बंग्लादेश की सरकार के साथ एक समझौता करने और जिनके नाम एन.आर.सी. से बाहर कर दिये गये हैं उन्हें वर्क परमिट देने की संभावनाओं को अवश्य तलाशना चाहिए .

संघ-भाजपा की आक्रामकता को तेज करने वाले प्रमुख कारक

“संघ-भाजपा गिरोह के सत्ता पर काबिज होने और व्यवस्थित रूप से अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में कौन सी चीजें मददगार रही हैं?

“मौजूदा समय में जो चार कारक स्पष्टतः भाजपा के पक्ष में गए हैं, उन पर गहराई से ध्यान देने की जरूरत है. 2014 में भाजपा सिर्फ चुनाव ही नहीं जीती, बल्कि उसने मौजूदा राजनीतिक खालीपन का अधिकतम उपयोग किया. जहां कांग्रेस अपनी साख और नेतृत्व के सबसे बुरे संकट से जूझ रही थी, वहीं लगभग सारी गैर-भाजपा राजनीतिक धाराएं – क्षेत्रीय पार्टियां, तथाकथित ‘सामाजिक न्याय’ के खेमे की पार्टियां और वामपंथ – भी चुनावी ताकत के लिहाज से अपने सबसे बुरे दौर में थे. 2014 में मोदी की असरदार जीत से राजनीतिक संतुलन भाजपा के पक्ष में लगातार झुकता गया...

“दूसरे, पिछले तीन दशकों में हमने सत्ताधारी वर्ग की लगभग सभी पार्टियों के बीच विदेश नीति, आर्थिक नीतियों व आंतरिक शासन के सवाल पर एक वास्तविक सर्वानुमति उभरते हुए देखी है. जब नीतियों में अन्तर नहीं रहा तो भाजपा ने खुद को इन नीतियों के सर्वाधिक आक्रामक और संकल्पबद्ध पैरवीकार के बतौर पेश करने में सफलता पा ली है.

“तीसरे, इस नीतिगत सर्वानुमति के दौर में हम यह भी देख रहे हैं कि रोजाना मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया की मदद से एक सामान्य बोध गढ़ा जा रहा है, जिसके मुताबिक विकास के लिए बड़े पैमाने पर बेदखली अनिवार्य है, उसी तरह राष्ट्रीय एकता की अविलम्ब जरूरत के लिये मानवाधिकारों को छोड़ा जा सकता है, अत्याचारी कानून लागू करने ही होंगे, और आर्थिक दक्षता की सर्वरोगहर दवा के बतौर निजीकरण लाना ही होगा, आदि, आदि.

“अंततः इस हद तक नीतिगत सर्वानुमति और गढ़े गए सामान्य बोध के इन हथियारों के साथ भाजपा के पास गोपनीय रूप से काम करने वाला आरएसएस का संगठन है, जिसके पास नफरत, झूठ, अफवाह और गैर-सरकारी आतंक के नेटवर्क के रूप में अपने खुद के औजार हैं.

अंत में तीन शीर्षक ‘फासीवादी हमले के विरुद्ध जन प्रतिरोध’, ‘वाम एकता और सभी संघर्षशील शक्तियों में परस्‍पर सहयोेग’ और ‘फासीवाद को हराओ, जनता का भारत बनाओ’ में फासीवाद के विरुद्ध प्रतिरोध संघर्ष के विभिन्‍न पहलुओं एवं कार्यभारों का वर्णन किया गया हैं. हम यहां अंतिम दो भागों को लगभग पूरा ही प्रस्‍तुत कर रहे हैं.

वाम एकता और सभी संघर्षशील शक्तियों में परस्पर सहयोग

“गुजरात से उत्तर प्रदेश तक, महाराष्ट्र से बिहार तक हम दलित प्रतिरोध की प्रेरक घटनाओं के गवाह हैं जिनमें जमीन, शिक्षा, रोजगार और सम्मान के बुनियादी सवालों पर क्रांतिकारी राजनीतिक गोलबंदी की नई सम्भावना निहित है. दलितों के खिलाफ तेज होती आरएसएस-समर्थित हिंसा के मुकाबले एक नई पीढ़ी का दलित आंदोलन उभरा है जिसकी अगुवाई युवा दलित नेता कर रहे हैं. इन दलित आंदोलनों का यह पक्ष सर्वाधिक स्वागतयोग्य है कि वे असुरक्षित मुसलमान समुदाय के पक्ष में मजबूती से खड़े हुए हैं और साथ ही सांप्रदायिक हिंसा को अंजाम देने के लिए दलितों का इस्तेमाल करने की आरएसएस की कोशिश का प्रतिरोध कर रहे हैं. रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और ऊना में हुए अत्याचार के प्रतिरोधस्वरूप उभरे दलित आंदोलन ने आर्थिक/वस्तुगत अधिकारों के लिये संघर्ष और सम्मान के लिए संघर्ष के बीच खड़ी की गई तथाकथित ‘चीन की दीवार’ को तोड़ा है. ऊना आंदोलन ने न सिर्फ ‘गौ-माता’ के संघी प्रतीक के खिलाफ सशक्त दलित चुनौती पेश की है बल्कि श्रम के उत्पीड़नकारी-असम्मानजनक रूपों के खिलाफ और सम्माजनक रोजगार की गारंटी के लिए भूमि-आवंटन के सवालों पर दलितों के संघर्ष को बुलंद किया है. ऐसे संघर्षों ने जाति उन्मूलन और समाज परिवर्तन के मूल एजेण्डा के इर्द-गिर्द अम्बेडकरवादियों के नेतृत्व वाले आंदोलनों और वामपंथियों के नेतृत्व वाले [खासकर भाकपा(माले) के नेतृत्व वाले] दलित एवं अन्य दबे-कुचले तबकों के अधिकार व सम्मान के आंदोलनों के बीच स्वागतयोग्य एकता की राहें खोली हैं. ऐसे प्रत्येक बुनियादी संघर्ष को मजबूत करना, प्रतिरोध के इन विविधतापूर्ण मुद्दों के बीच एकता, आपसी सहयोग और एकजुटता कायम करना ही वह कुंजी है जिसके जरिए फासीवाद-विरोधी लोकप्रिय प्रतिरोध को जीवंत रूप से खड़ा किया जा सकता है...

“जाहिर है कि फासीवादी ताकतों का प्रतिरोध करने और उन्हें पराजित करने के लिए लोगों के हाथ में संविधान और वोट, दो कारगर हथियार हैं. इसलिए इन दोनों हथियारों को कुंद करने के प्रयास लगातार जारी हैं. वाजपेयी के जमाने में ही भाजपा ने संविधान की समीक्षा के लिए एक समिति का गठन किया था. आज भी भाजपा के मंत्री जब-तब संविधान बदलने की बात कहते रहते हैं. सरकार ऐसे बहुत से कानूनी प्रावधान करने की कोशिश कर रही है जिससे संविधान बुनियादी रूप से पूरी तरह बदल जायेगा. नागरिकता कानून में प्रस्तावित संशोधन भारत की नागरिकता को निर्धारित करने में भेदभावमूलक कसौटी के बतौर धर्म को भी शामिल करता है. इसी आधार पर शरणार्थियों के बारे में भारत का आधिकारिक रवैया तय किया जायेगा. कानूनों को तार्किक बनाने के नाम पर सभी क्षेत्रों में लोकतांत्रिक अधिकारों की बड़े पैमाने पर काट-छांट की जा रही है. यह काट-छांट विशेष रूप से ट्रेड यूनियन अधिकारों, सामूहिक समझौता वार्तायें और कार्यस्थल पर लोकतंत्र के क्षेत्रों में हो रही है. बहुलतावाद और विविधता, जो भारत की एकता के लिये केन्द्रीय तत्व है, को संघ के हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान की अवधारणा के मातहत लाने के लिए बड़े सुनियोजित ढंग से देश के संघीय ढांचे को नकारा जा रहा है और उसमें तोड़-फोड़ की जा रही है.

“चुनाव के क्षेत्र में भी नियमों को बदलने की लगातार कोशिशें देखी जा रही हैं. काॅरपोरेट कम्पनियों द्वारा बड़ी पार्टियों की गुमनाम तरीके से फंडिंग को बढ़ावा देने के लिए चुनावी चंदे के नियमों में बदलाव करने से लेकर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने की भाजपा की चीख-पुकार जारी है. इससे विकेन्द्रीकृत क्षेत्रीय व सामाजिक प्राथमिकताएं और परिप्रेक्ष्य तत्कालीन केन्द्रीय वर्चस्वशाली राजनीतिक विमर्श के मातहत आ जायेंगे, और विविधतापूर्ण बहुदलीय लोकतंत्र को समेटकर क्रमशः दो-पार्टी लोकतंत्रा में बदल दिया जायेगा.

“ईवीएम के गलत काम करने की बढ़ती शिकायतों, बूथ स्तर पर वोटों की गिनती में अनियमितताओं आदि की वजह से चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता और साख पर ही सवालिया निशान लग गया है...

“गुजरात चुनाव ने सचमुच मोदी के गढ़ में ही मोदी शासन की कमजोरी को उजागर कर दिया है. राज्य में सशक्त विपक्ष की उपस्थिति के बिना ही जनता के विभिन्न सामाजिक तबकों के एक के बाद एक होने वाले आंदोलनों ने ऐसा माहौल बनाया कि भाजपा लगभग सरकार से बाहर ही हो गई थी... क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को वाम एवं अन्य संघर्षशील शक्तियों की एकता एवं दावेदारी को मजबूत करते हुए चुनाव के अखाड़े में प्रभावी हस्तक्षेप की रणनीति बनानी चाहिए. कम्युनिस्ट आन्दोलन की राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ कोई भी समझौता किये बगैर जरूरत पड़ने पर फासीवादी भाजपा और उसके सहयोगियों के खिलाफ गैर-वाम विपक्ष की ताकतों के साथ हाथ मिलाने के विचार के प्रति भी हमें खुला रहना होगा.

फासीवाद को हराओ! जनता का भारत बनाओ!

“फासीवाद को पराजित करने की चुनौती को न तो केवल चुनावी चुनौती तक सीमित किया जा सकता है और न ही ऐसा करना चाहिए .

“बिहार का अनुभव बताता है कि ऐसा तथाकथित महागठबंधन कितना कमजोर और खोखला हो सकता है, जिसने बिहार में भाजपा को निर्णायक शिकस्त तो दी, लेकिन बाद में वह ढह गया और भाजपा को पिछले दरवाजे से सत्ता में ले आया. गुजरात में कमजोर कांग्रेस विभिन्न आंदोलनों से व्यापक सामाजिक व राजनीतिक समर्थन हासिल करते हुए भाजपा को हराने के काफी करीब पहुंच गई, लेकिन साथ-ही-साथ वह भाजपा द्वारा निर्धारित धार्मिक-सांस्कृतिक एजेंडे पर उससे मुकाबला करने की कोशिश करती भी दिखाई पड़ी. भारत के हाल के इतिहास को देखें तो ऐसी घटनाएं भरी पड़ी हैं जब कांग्रेस ने भाजपा के नारों और प्रतीकों को अपना कर उसके साथ प्रतियोगिता में भाजपा के हिंदुत्व को पछाड़ने की कोशिश की है. ऐसे में वह सिर्फ भाजपा के हाथों खेली है और उसने भाजपा के आक्रामक बहुसंख्यकवाद के एजेंडे को अधिक शक्ति एवं वैधता प्रदान की है. एक और उदाहरण पश्चिम बंगाल का है, जहां ऊपर से तो लगता है कि भाजपा के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस एक मजबूत विपक्ष के रूप में है, लेकिन उसका आतंक का राज, भ्रष्टाचार और लोकतंत्र पर सीधा हमला वास्तव में उस राज्य में भाजपा को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. इसलिए हमें हर हाल में फासीवाद के खिलाफ मजबूत विचारधारात्मक और राजनीतिक विकल्प पेश करने के असली कार्यभार को आंखों से ओझल नहीं करना चाहिए.

“जनता के मूलभूत सवालों को संबोधित करने के साथ-साथ हमें फासीवादियों के जुड़वा हथियारों – घृणा प्रचार और घृणा अपराधों के खिलाफ भी संघर्ष तेज करना होगा.

“अनुभव बताते हैं कि यदि जनता के स्थानीय संगठन सचेत रहें और सांप्रदायिक ताकतों का साहसपूर्वक मुकाबला करें तो संभावित सांप्रदायिक हिंसा को अक्सर बेअसर किया जा सकता है.

“संघर्षशील जनता के बीच मुहल्ला-आधारित जुझारू एकजुटता के जरिये फासीवादी षड्यंत्र को शुरूआत में ही कुचला जा सकता है. सांप्रदायिक व जातीय हिंसा को रोकने में सतर्कता और तैयारी तथा अगर ऐसी कोई हिंसा भड़क उठे तो स्थानीय कार्यकर्ताओं व समुदाय के वरिष्ठ नागरिकों द्वारा त्वरित और साहसिक प्रतिरोध बहुत मूल्यवान होता है. सांप्रदायिक फासीवादियों के घृणा-प्रचार को उजागर करते हुए और उसे चुनौती देते हुए जनता को वास्तविक तथ्यों और तार्किक विश्लेषण से लैस करना भी उतना ही जरूरी है...

“हमें सभी कमजोर तबकों – मजदूरों, किसानों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, छात्र-युवाओं, एलजीबीटीक्यू समुदाय, अंतर्धार्मिक-अंतर्जातीय व समलैंगिक जोड़ों, कश्मीरियों – द्वारा जन-विरोधी आर्थिक व पर्यावरण नीतियों के साथ-साथ अपने संवैधानिक अधिकारों, सम्मान व जीवन पर हमले के खिलाफ संचालित जनांदोलनों का सक्रिय समर्थन व नेतृत्व करना चाहिए. सांप्रदायिक दादागिरी और हिंसा को ‘राष्ट्रवादी’ नारों और प्रतीकों की आड़ में ढंकने की कोशिशों के बारे में हमें खास तौर से सचेत रहना चाहिए. हमें हर सम्भव कोशिश करनी चाहिए कि लोग संवैधानिक, जनवादी और प्रगतिशील मूल्यों को समझें तथा उनकी रक्षा के लिए गोलबंद हों ताकि एक बेहतर, समतामूलक और लोकतांत्रिक भारत के निर्माण के संघर्ष को तेज किया जा सके.

“जिस राजनीतिक शून्य का फायदा उठा कर फासीवादी शक्तियां अस्तव्यस्त और संकटग्रस्त वर्तमान में स्वयं को ‘रक्षक’ के रूप में पेश करने का अवसर पा रही हैं, उस शून्य को बेहतर कल की भविष्य-दृष्टि और उसे हासिल करने के लिये संघर्षों से भरा जाना चाहिए. यह भविष्य-दृष्टि एक समृद्ध, बहुलतावादी और समतावादी भारत की है, जो हर भारतीय के लिए बेहतर जीवन और व्यापक अधिकारों की गारंटी कर सके. यदि स्वाधीनता संघर्ष और आजादी के बाद के आरंभिक वर्षों के दौरान राष्ट्रनिर्माण को मिली गति समाप्त हो चुकी है, तो हमें दूसरे स्वाधीनता संघर्ष की ऊर्जा की जरूरत है, जो हर नागरिक के लिए पूर्ण सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता की गारंटी करते हुए हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता को मजबूत करे. यदि बढ़ती सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ की राजनीतिक समानता का मजाक उड़ा रही है, तो इस गैर-बराबरी के ढांचे से बाहर निकलने के लिए हमें सामाजिक बदलाव की जरूरत है. यदि अलोकतांत्रिक भारतीय समाज की जमीन, सतह पर चढ़ी लोकतंत्र की परत को लगातार क्षतिग्रस्त कर रही है और फासीवाद हमारे संवैधानिक लोकतंत्र को पूरी तरह से अलोकतांत्रिक जमीन के मातहत लाने की धमकी दे रहा है, तो हमें इस समाज का लोकतंत्रीकरण करना होगा, ताकि लोगों के हाथों में वास्तविक सत्ता आ सके. फासीवाद को जनता को दरकिनार करने और कुचलने की इजाजत नहीं दी जा सकती. एकताबद्ध जनता फासीवाद के हमले को परास्त करेगी और अपने लिए अधिक मजबूत और गहरा लोकतंत्र हासिल करेगी.”

फुट नोट :

1. Harit Mehta, In Modi’s Gujarat, Hitler is a Textbook Hero, Times of India, 30 September, 2004.

2. इस प्रस्‍ताव को पूर्ण रूप में http://www. cpiml. net/documents/10th-party-congress/resolution-on-thenational- situation पर पढ़ा जा सकता है.

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“हमें पता है कि वामपंथ ने कुछ महत्वपूर्ण चुनावी युद्धों में पराजय का मुंह देखा है लेकिन ये चुनावी धक्के फासीवाद और लोकतंत्र के बीच चल रहे इस युद्ध का परिणाम निर्धारित नहीं करेंगे. कम्युनिस्टों ने हमेशा ही जनता के साहस और दृढ निश्चय से अपनी शक्ति अर्जित की है जिसने ऐतिहासिक रूप से अपने स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए संघर्ष किया है. आज जब भारत एक बार फिर से मजदूरों, किसानों, दलितों, आदिवासियों, छात्रों, युवाओं और महिलाओं के नेतृत्त्व में जुझारू जन संघर्षों का गवाह है तो ये संघर्ष निश्चित ही फासीवाद के हमले के खिलाफ वामपंथ के संघर्ष को मजबूत करेंगे. विभिन्न वाम ताकतों में आन्दोलनकारी एकता और प्रतिरोध की व्यापक धाराओं के बीच आपसी सहयोग निश्चित रूप से फासीवादी ताकतों की हत्यारी अग्रगति को रोकने में कामयाब होगा. आजीविका, सम्मान और लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने वाली जनता की एकता ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिक घृणा वाली राजनीति को पराजित करेगी.”

- दीपंकर भट्टाचार्य
भाकपा(माले) के 10वें पार्टी महाधिवेशन में दिये गये उद्घाटन भाषण से



रोका जा सकता था आर्तुरो युई को ***

सीखो कै से परखते हैं, सिर्फ निरखते नहीं
और कैसे काम करते हैं, बजाय सारे दिन गाल बजाने के
दुनिया हो ही चली थी शासित, ऐसे उन्मादी धुर्त  से
लोगों ने जिस पर काबू तो पा लिया
मगर गलत होगे तुम , अगर थपथपाओगे अपनी पीठें,
और समझ लोगे खुद को अति चतुर
वही बजबजाती मवाद जिसने जना था उसे, अभी भी वैसे ही बजबजा रही है.

– बर्तोल्त ब्रेश्‍त

*** 1941 में ब्रेश्‍त ने यह व्यंग नाटिका हिटलर के जीवन के समानांतर एक काल्पनिक शिकागो गैंगस्टर आर्तुरो युई के उत्कर्ष और अवसान के रूपक के रूप में लिखी थी. आर्तुरो युई की भूमिका निभाने वाला पात्र नाटक के अन्त में अपने उपसंहार कथन में दर्शकों से जो कुछ भी हो रहा है उस पर नजर रखने, बातें करने के बजाय सक्रिय होने,और आत्म मुग्ध होने के  बजाय सतर्क रहने का आह्वान करता है क्यों कि सड़ते-गलते पूंजीवाद से बजबजाता गन्दा “मवाद” अभी भी मूल पिशाच के रक्तबीजों को पैदा करने में सक्षम है.



फिर वे यहूदियों के लिए आए

– मार्टिन नीमोलर

पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था
फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था
फिर वे यहूदियों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे मेरे लिए आए
और तब तक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिए बोलता


पहले वे मुसलमानों के लिए आए

– माइकल आर बर्च

पहले वे मुसलमानों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं मुसलमान नहीं था
फिर वे समलैंगिकों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं समलैंगिक नहीं था
फ़िर वे नारीवादियों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं नारीवादी नहीं था
अब वे मेरे लिए कब आएंगे
क्योंकि मैं इतना व्यस्त और संवेदनहीन था
कि मैं अपने बहनों-भाइयों के बचाव में खड़ा नहीं हुआ?


 

फासीवाद

(अगस्त 1923 के लेबर मासिक पत्रिका में प्रकाशित क्लारा ज़ेटकिन के लेख के चुनिन्दा अंश)

claraफासीवाद विश्व बुर्जुआ की सर्वहारा के खिलाफ आम आक्रामकता की संघनित अभिव्यक्ति है. इसलिये इसे उखाड़ फेंकना बेहद जरूरी है... हम लोगों के लिए फासीवाद को हराना काफी आसान हो जायेगा, अगर हम इसके चरित्र-स्वभाव का साफ़-साफ़ गहराई से अध्ययन कर सकें. फासीवाद, ... वस्तुगत दृष्टि से देखने पर, बुर्जुआ के खिलाफ सर्वहारा की आक्रामकता की प्रतिक्रिया में बदले की कार्यवाही नहीं, बल्कि रूस में शुरू हुई क्रांति को आगे बढ़ा पाने में सर्वहारा की विफलता की सज़ा है. फासिस्ट नेता कोई छोटी सी अलग-थलग जाति न हो कर आबादी के व्यापकतम तत्वों में गहराई से पैबस्त होते हैं.

हमें फासीवाद पर न सिर्फ सामरिक रूप से, बल्कि राजनीतिक और विचारधारात्मक रूप से भी विजय पानी होगी... फासीवाद, अपने हिंसक कुकृत्यों को अंजाम देने में अपने सारे आवेग के साथ, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पतन व बिखराव की अभिव्यक्ति और बुर्जुआ राज्य के अंत के लक्षण के अलावा और कुछ नहीं है. यह उसकी जड़ों में से एक है... फासीवाद की दूसरी जड़ सुधारवादी नेताओं की गद्दारी की प्रवृत्ति के चलते विश्व क्रांति को लगे धक्कों में है. पेट्टी बुर्जुआ की बड़ी संख्या ने, जिसमें यहाँ तक कि मध्यम वर्ग भी शामिल हैं, अपनी युद्ध काल की मानसिकता को सुधारवादी समाजवाद के साथ सहानुभूति में इस उम्मीद के साथ त्याग दिया है कि यह सुधारवादी समाजवाद जनतांत्रिक लाइनों पर समाज में सुधार ला सकेगा. वे अपनी उम्मीदों में निराश हुए हैं. वे अब देख सकते हैं कि सुधारवादी नेता बुर्जुआ के साथ समझौतों की गलबहियों में हैं. और सबसे खराब बात यह है कि इन समुदायों ने न सिर्फ सुधारवादी नेताओं, बल्कि समूचे समाजवाद के प्रति अपना विश्वास खो दिया है. समाजवादी सहानुभूति रखने वाले निराश-हताश समुदायों के साथ सर्वहारा – उन मजदूरों के भी बड़े हिस्से जुड़ रहे हैं, जिन्होंने न सिर्फ समाजवाद बल्कि खुद अपने वर्ग के प्रति भी विश्वास खो दिया है. सच्चाई के साथ यह भी कहा जाना चाहिये कि – रूसियों को छोड़ कर – कम्युनिस्ट भी इन तत्वों के फासीवाद की कतारों में चले जाने के लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि कई बार हमारी कार्यवाहियां जन समुदायों को पर्याप्त रूप से उद्वेलित – आवेगित कर पाने में विफल रहती हैं.

फासीवाद अलग-अलग देशो में अलग-अलग चरित्र अपनाता है. इसके बावजूद इसकी दो चारित्रिक विशिष्टतायें हर देश में बनी रहती हैं - एक क्रन्तिकारी कार्यक्रम का दिखावा, जो बड़ी शातिर धूर्तता के साथ व्यापक जन समुदायों के हितों और मांगों के अनुरूप गढ़ा जाता है, और दूसरी : नितान्त नृशंस और बर्बर हिंसा...

इटली के बाद फासीवाद जर्मनी में सबसे मज़बूत है. युद्ध के नतीजे, और क्रांति की विफलता के चलते, जर्मनी की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कमजोर है. किसी भी दूसरे देश में क्रांति की वस्तुगत परिस्थितियों की परिपक्वता और मजदूर वर्ग की आत्मगत अपरिपक्वता का अंतर इतना विषम और तीखा नहीं है जितना जर्मनी में. किसी भी दूसरे देश में सुधारवादी इतनी बुरी तरह से विफल नहीं हुए थे जितना जर्मनी में (सन्दर्भ : एस.डी.पी.). पुराने इन्टरनेशनल की किसी भी अन्य पार्टी की विफलता से कही ज्यादा आपराधिक उनकी विफलता थी, क्योंकि ये वही थे जिन पर एक ऐसे देश में में बिलकुल अलग साधनों-तरीकों से सर्वहारा की मुक्ति के संघर्ष को चलाने- आगे ले चलने की जिम्मेदारी थी, जहाँ का मजदूर वर्ग किसी भी अन्य देश की अपेक्षा ज्यादा पुराना और बेहतर संगठित था.

... कम्युनिस्ट पार्टियों को न सिर्फ शारीरिक श्रम के सर्वहारा का वेनगार्ड, बल्कि मानसिक श्रम करने वाले श्रमिकों के हितों का भी उत्साही-आवेगी रक्षक होना चाहिये. उन्हें बुर्जुआ विरोध में अपने-अपने हितों और भविष्य की उम्मीदों के साथ शामिल हुए समाज के तमाम हिस्सों का नेता बनना होगा... हमें यह निश्चित रूप से समझना होगा कि फासीवाद उन लोगों का आन्दोलन है जो हताश-निराश हैं और जिनका अस्तित्व बर्बाद हो चुका है. इसलिए हमें निश्चय ही उन व्यापक समुदायों को जीतने या अपने साथ जोड़ने की कोशिश करनी होगी जो अभी भी फासिस्ट खेमे में हैं. मैं हमारी उस वैचारिकी पर जोर देना चाहूंगी कि हमें इन समुदायों की आत्मा को जीतने-पाने के लिए विचारधारात्मक रूप से संघर्ष करना ही होगा. हमें यह समझना ही होगा कि वे न केवल अपनी वर्तमान त्रासदियों-संकटों से पार पाने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि वे एक नए दर्शन की भी चाहना रखते हैं... हमें खुद को सिर्फ अपने राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम के लिए संघर्ष तक ही सीमित नहीं रखना होगा. हमें इसी के साथ-साथ जन समुदायों को कम्युनिज्म के आदर्शों को एक दर्शन के रूप में भी आत्मसात कराना होगा...

हमें हर हाल में अपने नए कार्यभारों के अनुरूप अपने काम के तरीकों को संयोजित करना होगा. हमें जन समुदायों से उनके समझ में आने वाली भाषा-शैली में ही बात करनी होगी – अपने विचारों से कोई समझौता किये बगैर. इस तरह फासीवाद के खिलाफ संघर्ष हमारे लिए तमाम नए कार्यभार लाता है.

फासीवादी आक्रमण और कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल के कार्यभार

(ज्यार्जी दिमित्रोव, जनरल सेक्रेटरी, कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल द्वारा सातवीं विश्व कांग्रेस में 2 अगस्त 1935 को प्रस्तुत रिपोर्ट के चुनिन्दा अंश)

dimitrov“कामरेडों, अपनी छठीं कांग्रेस (1928) में ही कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने विश्व सर्वहारा को यह चेतावनी देते हुए कि एक नया फ़ासिस्ट आक्रमण तैयारी में है, इसके खिलाफ संघर्ष का आह्वान किया था. कांग्रेस ने इंगित किया था : “अपने कमोबेश विकसित रूप में फासीवादी प्रवृत्तियां और कीड़े लगभग सभी जगह पाये जा सकते हैं...

“सत्ता में फासीवाद को कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की कार्य कारिणी के तेरहवें प्लेनम ने वित्तीय पूँजी के सबसे प्रतिक्रियावादी, सबसे अंधराष्ट्रवादी और सबसे साम्राज्यवादी तत्वों की नंगी तानाशाही के रूप में बिलकुल सटीक चिन्हित किया था...

“फासीवाद और फासीवादी तानाशाही विभिन्न देशों में ऐतिहासिक, सामाजिक व आर्थिक स्थितियों, राष्ट्रीय विशिष्टताओं, और उस देश की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति के अनुरूप अलग-अलग रूप ले सकती है. ऐसे देशों में, खासकर जहाँ फासीवाद का व्यापक जनाधार नहीं है, और जहाँ फासीवादी बुर्जुआ के खेमे में उसके विभिन्न गुटों-समूहों के बीच का संघर्ष काफी तीखा है, फासीवाद तुरंत संसद भंग करने का दुस्साहस नहीं करता बल्कि अन्य बुर्जुआ पार्टियों और सामाजिक जनवादी पार्टियों को भी कुछ हद तक वैधता बनाए रखने की इजाजत देता है. दूसरे देशों में, जहाँ शासक बुर्जुआ को जल्दी ही क्रांति के विस्फोट का भय होता है, फासीवाद अपना निर्बाध राजनीतिक एकाधिकार स्थापित कर लेता है – या तो तुरंत या फिर सारी प्रतिस्पर्धी पार्टियों और समूहों के खिलाफ आतंक व हत्या का राज कायम करने के जरिये. मगर यह फासीवाद के, जब वह खासे संकट में होता है, अपना आधार विस्तारित करने, और बिना अपना वर्ग चरित्र बदले, अपनी खुली आतंकी तानाशाही को संसदवाद के भोथरे छद्म के साथ जोड़ने में बाधा नहीं बनता.

“फासीवाद का सत्तारोहण एक बुर्जुआ सरकार से दूसरी में सामान्य संक्रमण नहीं, बल्कि बुर्जुआ वर्ग वर्चस्व के एक राज्य रूप- बुर्जुआ जनतंत्र – से नंगी आतंकी तानाशाही में संक्रमण है. इस विभेद को नज़रन्दाज करना भारी भूल होगी, एक ऐसी भूल जो क्रांन्तिकारी सर्वहारा को फ़ासिस्टों द्वारा सत्ता पर कब्जे के आतंक के खिलाफ लड़ने के लिए शहरों और गाँवों की श्रमशील जनता के व्यापकतम हिस्सों को गोलबंद करने और खुद बुर्जुआ खेमे के अन्दर के अंतर्विरोधों का फायदा उठाने से रोक देगी... आमतौर पर फासीवाद पुरानी बुर्जुआ पार्टियों के परस्पर और कई बार बेहद तीखे संघर्षो के क्रम में, अथवा इन पार्टियों के हिस्सों, यहाँ तक कि खुद फासिस्ट खेमे के अन्दर के संघर्षो के क्रम में सत्ता में आता है...

“फासिस्ट तानाशाही के स्थापित होने से पहले, बुर्जुआ सरकारें आम तौर पर कई प्रारंभिक दौरों से गुजरती हुई, ऐसे प्रतिक्रियावादी उपाय अपनाती हैं, जो फासीवाद के सत्ता तक पहुँचने में सीधे सहायक होते हैं. वे लोग जो इन प्रारंभिक /तैयारी के दौर के बुर्जुआ के प्रतिक्रियावादी उपायों और फासीवाद के उभार के खिलाफ संघर्ष नहीं करते, वे फासीवाद की विजय को रोक पाने की स्थिति में नहीं होते, बल्कि इसके उलट, उस विजय को आसन बना देते हैं...

“जन समुदायों पर फासीवाद के प्रभाव के स्रोत क्या हैं? फासीवाद जन समुदायों को आकर्षित कर लेने में इसलिये सफल हो जाता है कि यह अपने वक्तृत्व कौशल की धूर्तता के जरिये उनकी सबसे जरूरी और आपात मांगों-जरूरतों को अपील करता है. फासीवाद न सिर्फ जन समुदायों के अन्दर गहरे जड़ जमाये हुए पूर्वाग्रहों को हवा देता है, बल्कि उनकी श्रेष्ठतर भावनाओं के साथ भी खेलता है – उनकी न्याय की भावनाओं के साथ, और कभी-कभी उनकी क्रन्तिकारी परम्पराओं के साथ भी. आखिर क्यों जर्मन फासिस्ट, बड़े बुर्जुआ के वे दलाल और समाजवाद के मरणान्तक दुश्मन, जनता के बीच खुद को “सोशलिस्टों” के रूप में पेश करते थे, और अपने सत्तारोहण के अभियान को “क्रांति” का नाम देते थे ? क्योंकि वे क्रांति के प्रति जनता की उस आस्था और समाजवाद के प्रति उस चाहना का शोषण करने की कोशिश कर रहे थे जो जर्मनी के श्रमशील जन समुदायों के दिलों में बसती थी...

“फासीवाद उनके बीच एक ईमानदार और भ्रष्ट न हो सकने वाली सरकार की मांग के साथ आता है. जनता के बुर्जुआ सरकारों के प्रति गहनतम मोहभंग पर दांव खेलते हुए फासीवाद निहायत दोगलेपन के साथ भ्रष्टाचार का विरोध करता है...

“यह बुर्जुआ के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्सों के हित में है कि फासीवाद जन समुदायों के उन हिस्सों में अपने पैठ बनाये जो पुराने बुर्जुआ को छोड़ चुके होते हैं. यह काम फासीवाद इन समुदायों को बुर्जुआ सरकारों के खिलाफ अपने हमलों के तीखेपन और पुरानी बुर्जुआ पार्टियों के प्रति अपने समझौताविहीन दृष्टिकोण के जरिये आकृष्ट कर के करता है.

बुर्जुआ प्रतिक्रिया की अन्य तमाम किस्मों को अपनी उन्मादी सनक और दोगलेपन में कहीं पीछे छोड़ते हुए फासीवाद अपनी लफ्फाजी की वक्तृता को हर देश की राष्ट्रीय विशिष्टताओं की संगति में और यहाँ तक कि एक राष्ट्र के अन्दर भी विभिन्न सामाजिक समूहों-संस्तरों की विशिष्टताओं के अनुरूप ढाल लेता है. और पेट्टी बुर्जुआ, और यहाँ तक कि मजदूर वर्ग का एक हिस्सा भी, जो अभाव, बेरोजगारी, और अपने अस्तित्व की असुरक्षा का गहनतम संकट झेल रहा होता है, फासीवाद की सामाजिक व अंधराष्ट्रवादी लफ्फाज वक्तृता का शिकार बन जाता है...”

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चित्र : डेविड ओलेर **

पिछले अध्यायों में हमने नात्‍ज़ीवाद की उत्पत्ति, विकासक्रम, और मूल विशेषताओं, एन.एस.डी.ए.पी. की राजनीतिक लाइन के उद्दण्ड तख्ता-पलट बगावत से संसदीय व गैर संसदीय (उन्मादी-आतंकी) संघर्ष रूपों के परिणामवादी संश्रय में विकास, और अंत में हिटलर के सबसे पहले राइक चान्सलर और फिर इस आधार कैम्प से निरंकुश तानाशाही के शिखर तक नाटकीय आरोहण-उभार की रूपरेखा प्रस्तुत की है. अब यहाँ इनसे सीखे गए सबकों को रेखांकित करना उपयोगी होगा.

उन्मादी वक्तृता और आतंक का आवेगी संश्रय

नात्‍ज़ीवाद महज बेलगाम हिंसा, पुरानी साजिशों, चरम क्रूरता और व्यापकतम पैमाने पर दमन का ही नाम नहीं है. इन सब के साथ यह बराबर से गलाफाडू, व्यापकतम, निरंतर चलने वाला प्रोपेगैंडा और घुट्टी पिलाने वाला जन-दीक्षा (इंडाक्ट्रिनेशन) अभियान भी है. यह सिर्फ लोगों की पाशविक प्रवृत्तियों और प्रतिगामी विचारों/विश्वासों को ही अपील नहीं करती; यह राष्ट्र के प्रति निःस्वार्थ सेवा और महान उद्देश्य के लिए बलिदान-त्याग जैसी आदर्श भावनाओं को भी आवेग दे सकती है. इसलिए यह सिर्फ उजड्ड और लम्पट सर्वहारा को ही नहीं, बल्कि सच्चे देश भक्तों और आदर्शवादी छात्रों व युवाओं को भी आकर्षित करती है.

वस्तुतः उन्मादी वक्तृता और आतंक का सहयोगी – सहजीवी संश्रय दोनों को ही नृशंस और मारक बना देता है. आतंक केवल विरोध को मौन करने, गतिहीन करने, और कुछ हद तक भौतिक रूप से सफाया करने का ही औजार नहीं था : यह फ़ासिस्टों की दृढ़ इच्छाशक्ति और ताकत की शो-केसिंग में उन्मादी और प्रदर्शनकारी प्रभाव लाने का भी काम करता था, जिसे बहुतेरे लोग जर्मनी की उस अराजकता और अव्यवस्था की स्थिति में समय की जरूरत के रूप में देखते थे. इस तरह यहूदियों को दी गयी नृशंस यातनायें अन्य तमाम लोगों के लिए सन्देश थीं कि फ़ासिस्टों की नाखुशी मोल लेने वाले व्यक्तियों अथवा सामाजिक समूहों की भी नियति यही होगी.

हिटलर के चान्सलर बनने से पहले के सालों में आतंक और उन्मादी वक्तृता के संश्रय समीकरण में उन्मादी वक्तृता प्राथमिक-मूलभूत तत्व थी. फ़ासिस्ट तानाशाही के सुदृढ़ीकरण काल (जनवरी 1933 से जून 1934) के दौर में इस संश्रय का समीकरण उलट गया. ट्रेड यूनियनों को कुचलने और राजनीतिक पार्टियों को प्रतिबंधित करने के साथ-साथ कम्युनिस्टों, सोशल डेमोक्रेटों, और अन्य सत्ता विरोधियों को नियमित रूप से फासिस्ट ब्राउनशर्ट्स के “ब्राउन हाउसों” में बर्बर यातनायें देने के बाद उन्हें टूटी हुई पसलियों- हड्डियों के साथ उनके घरों और काम करने की जगहों पर जीवन्त चेतावनियों के रूप में भेजा जाता था. इसी के समानांतर यहूदी-विरोधी गोलबंदी और यहूदियों के सामाजिक बहिष्कार का अभियान “जर्मनों! केवल जर्मनों से ही खरीदो”, “जर्मनों ! अपनी चिकित्सा किसी और से नहीं बल्कि सिर्फ जर्मन से कराओ”, “जर्मनों ! केवल जर्मनों को ही अपने ऊपर न्याय करने दो”, जैसे नारों के साथ चलाया जा रहा था. इसी के साथ ही “जर्मनों ! केवल जर्मन साहित्य पढ़ो, केवल जर्मन कला का आनन्द लो” जैसे संकीर्ण राष्ट्रवादी/नस्लीय प्रोपेगैन्‍डा की भी कोई कमी नहीं थी.

आज ऐसे नारों के प्रतिरूपों से हम काफी परिचित हैं, जिनमें से काफी सारी पिछली सरकारों द्वारा शुरू की गयीं थीं (तब के जर्मनी और आज के भारत में, दोनों जगह). मगर चुनाव अभियान के दौर में किये गए “सबके लिए सब कुछ” के वादों को पूरा करना आसान काम नहीं था. सरकार ने जनता को फुसलाने के लिए घोषित किया कि इसकी पहली प्राथमिकता समूचे नीतिगत फ्रेमवर्क की सच्ची राष्ट्रवादी दृष्टि के साथ पूरी तरह ओवरहालिंग है (भारत में यह काम नीति आयोग को सौंपा गया) जिसके जरिये भविष्य के कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रभावी बदलावों की नींव डाली जा सके. फ्यूरर ने वादा किया कि एकबार फिर से “नयी जर्मनी” एक खुशहाल – फलता-फूलता राष्ट्र, “नेशनल सोशलिस्ट जनता का कृत्रिम रूप से बांटे गए वर्ग विभाजनों से मुक्त अपना समुदाय” होगा ( मोदी वाणी में “सामाजिक सद्भाव” – सबका साथ-सबका विकास !).

राज्य प्राधिकारियों की मिलीभगत और उभरता हुआ नीतिगत मतैक्यजैसा कि हम देख चुके हैं, ज्यादातर मामलों में न्यायपालिका नात्जि़यों के साथ बेहद नरमी से पेश आती रही थी. अगर बावेरिया सर्वोच्च न्यायालय हिटलर के लिए कानून द्वारा निर्दिष्ट पाँच साल की जेल सज़ा पर दृढ़ रहते हुए उसे 1928 के अंत तक सलाखों के पीछे ही रखता तो जर्मनी का ही नहीं, समूची दुनिया का आधुनिक इतिहास शायद बिलकुल अलग होता, क्योंकि तब उसे सत्ता पर कब्जे के पहले की तैयारी के वे निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण चार साल नहीं मिले होते.

न्यायालय द्वारा छोड़े जाने का आदेश जारी होते ही, हिटलर ने बावेरिया सरकार से पार्टी पर से प्रतिबन्ध हटाने की अपील की और वह इस बिना पर मान ली गयी कि “जंगली को अब पालतू बना लिया गया है”. यह दिखाता है कि किस तरह न्यायपालिका और प्रशासन दोनों ने इस जन्मते पिशाच को कितना कम कर के आँका था. इसी तरह, सेना में भी बहुतों ने, जिनमें सेवारत और सेवा निवृत्त दोनों तरह के शीर्षतम अधिकारी शामिल थे, हिटलर का खुल कर समर्थन किया, इस बात के बावजूद कि भूतपूर्व सैनिकों की भारी जमात फासिस्ट आन्दोलन में उसके लठैतों के रूप में शामिल हो रही थी – इसलिए नहीं कि हिटलर भी कभी सेना में रह चुका था, बल्कि इसलिए कि वे हिटलर के आक्रामक अंधराष्ट्रवाद के खुले और उन्मादी समर्थक थे.

यह जरूर था कि राइक प्रेसिडेंट के रूप में मार्शल हिन्‍डेन्‍बर्ग ने हिटलर का चान्सलर बनना काफी समय तक रोके रखा था. मगर ऐसा सिर्फ इसलिये था कि वह अच्छी तरह से जानता था कि हिटलर ज्यादा दिनों तक उसके प्राधिकार के मातहत नहीं रहने वाला था. नागरिक सेवाओं में हिटलर से सहानुभूति रखने वाले बहुतेरे अधिकारियों ने भी सैन्य बलों की तरह एन.एस.डी.ए.पी. की तमाम तरीकों से मदद की.

राज्य प्राधिकारियों का सहयोग अथवा सक्रिय मिलीभगत शासक वर्गों और उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों की वृहत्तर सहमति का प्रतिबिम्बन था कि रिपब्लिकन सरकार को हर हाल में बाहर का रास्ता दिखाना है, बेहतर हो अगर ऐसा संवैधानिक रास्ते से हो सके. इस नीतिगत आकांक्षा के चलते नात्‍ज़ी नेता के प्रति नफ़रत और भय के बावजूद उसके प्रतिद्वंदियों के लिए उनमें से सबसे ज्यादा भीड़ खींचने वाले को नज़रन्दाज करना असंभव था. यह राजनीतिक अपरिहार्यता अन्ततः वैयक्तिक और पार्टीगत प्रतिद्वंदिता पर भारी पड़ी और हिटलर आम सहमति से चान्सलर बन गया. उसके बाद कैबिनेट में हर किसी ने, यहाँ तक कि राइक प्रेसिडेंट ने भी वस्तुतः अपनी मूर्खता में- अपने विनाश की कीमत पर बुर्जुआ जनतंत्र की समूची नींव व अधिसंरचना को ध्वस्त करने और सारी ताकत अपने हाथों में केन्द्रित कर लेने में हिटलर की मदद की. यदा-कदा होने वाले आतंरिक मन-मुटावों के बावजूद, वाम धारा के अलावा समूचे राजनीतिक वर्ग ने “फ्यूरर स्टेट” बनाने में सहयोगी की भूमिका निभायी.

वस्तुगत परिस्थितियाँ और व्यक्ति की भूमिका

हिटलर ने अपने से कहीं ज्यादा अनुभवी प्रतिद्वंदियों पर बरतरी इसलिये हासिल की क्योंकि निश्चित रूप से वह उस जमात का सबसे योग्य खिलाड़ी था. राष्ट्रवाद के प्रभावी विमर्श के साथ “सोशलिस्ट” जोड़ कर उसने इसे गरीब हितैषी, मजदूरवर्ग हितैषी रंग-रोगन से सजा कर जर्मनी में सफलता पूर्वक बुर्जुआ राजनीति की एक नयी शैली अथवा प्रवृत्ति की शुरुवात की जिसे आज दक्षिण पंथी पापुलिज्म के नाम से जाना जाता है. दूसरी तरफ इसी के साथ “विशुद्ध जर्मन आर्य नस्ल” के लिए यहूदी के रूप में “अन्‍य” ईजाद कर के उसने एक ऐसा मनमाफिक निरीह सताए जाने लायक “आतंरिक दुश्मन” गढ़ा जिसके खिलाफ बहुसंख्यावादी जर्मन नस्‍लीय समुदाय को पार्टी के सामाजिक आधार के बतौर ध्रुवीकृत और गोलबन्द किया जा सकता था. “नेशनल सोशलिस्ट क्रांति” के इस विमर्श में “राष्ट्रीय” का मतलब नस्लवादी-बहुसंख्यावादी अंधराष्ट्रवाद की एक नयी प्रजाति, और “सोशलिस्ट” का मतलब छलावे की जुमलेबाजी के अलावा कुछ नहीं था. फासिस्ट औजारों के समूचे भंडार में उन्मादी वक्तृता और आतंक, राजनीतिक छल-प्रपंच और चालबाजियां, और निश्चय ही फ्यूरर पूजा के इर्द-गिर्द बुना गया यह टीम वर्क शामिल था. हिटलर ने इन सभी औजारों का अदभुत धूर्त दक्षता और दृढ़ निश्चय, कार्यनीतिक लचीलेपन व रणनीतिक चपलता, शातिर प्रवीणता व मिथ्यावादिता के साथ युद्धोत्तर परिस्थितियों को अपने अधिकतम फायदे, अपने वाम विरोधियों को हराते व दक्षिणपंथी प्रतिस्पर्धियों को पछाड़ते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किया. इन सब के बावजूद अन्ततः वह अपने को और अपनी सत्ता को बचा पाने में नाकामयाब रहा, यह एक अलग कहानी है.


“हिटलर के बिना नेशनल सोशलिज्म का उभार सोचा भी नहीं जा सकता था. उसके अभाव में, पार्टी राजनीतिक फलक के दक्षिण के तमाम जातीय-अंधराष्ट्रवादी गुटों में से एक बन कर रह गयी होती. इसके बावजूद युद्ध के तुरन्त बाद के सालों में बावेरिया और जर्मन रीख दोनों की ही विशिष्ट परिस्थितियाँ भी निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण थीं : आर्थिक त्रासदी, सामाजिक अस्थिरता और सामूहिक सदमे के विस्फोटक मिश्रण के बिना पापुलिस्ट आंदोलक-उद्वेलक हिटलर कभी भी गुमनामी के अँधेरे से निकल कर मशहूर राजनीतिज्ञ बनने की राह नहीं तय कर पाता. उस समय की परिस्थितियाँ हिटलर के हाथों में खेल गयीं और वह उनका इस्तेमाल करने में राष्ट्रवादी चरम दक्षिण के अपने किसी भी प्रतिद्वन्दी के मुकाबले कहीं ज्यादा धूर्त, अनैतिक, बेईमान और शातिर था.”

–  वोल्कर उलरिश, “हिटलर एसेंट 1889 -1939”


आन्दोलन से राजसत्ता तक

हिटलर और मुसोलिनी दोनों की ही कहानियां हमें बताती हैं कि नात्‍ज़ीवाद/फासीवाद एकाधिकारी बुर्जुआ की सेवा करता है और अन्ततः उसकी कभी न संतुष्ट होने वाली और विस्तारवादी महत्वाकांक्षा का एक औजार बन जाता है, मगर वह इसके द्वारा उत्पादित नहीं होता[1]. बल्कि वह बुर्जुआ द्वारा अंगीकार किया जाता है जब आर्थिक व सामाजिक-राजनीतिक संकट के दौर में वह सत्ता पर काबिज हो चुका होता है या कम से कम सत्ता तक पहुंचने की दहलीज पर होता है. एक बार सत्ता पर कब्ज़ा कर लेने के बाद फासीवाद जल्द से जल्द खुद को अति-प्रतिक्रियावादी राजनीतिक प्रवृत्ति/आन्दोलन से वित्तीय पूँजी के सबसे प्रतिक्रियावादी-अंधराष्ट्रवादी – साम्राज्यवादी विस्तारवादी तत्वों की खुली आतंकी तानाशाही में बदलने की राह पकड़ता है (नवम्बर-दिसंबर 1933 में कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की कार्यकारिणी के तीसरे विस्तारित प्लेनम में दी गयी परिभाषा). उल्लेखनीय है कि यह परिभाषा केवल सत्ता पर काबिज हो चुके फासीवाद पर लागू होती है, सत्ता में पहुँचने की जद्दोजहद करती पार्टी पर नहीं.

यह भी जरूरी है कि फासीवादी आन्दोलन की सामाजिक संरचना को फासीवादी प्रोजेक्ट अथवा किसी खास फासीवादी गुट/पार्टी का आम वर्ग चरित्र मान लेने के भ्रम में न रहा जाये. फासीवादी आबादी के हर हिस्से से अपने अनुयायियों की तलाश और भर्ती करते हैं, मगर वे खास रूप से बेरोजगार युवाओं, बिना रोजगार के मजदूरों, हताश-निराश बुद्धिजीवियों, और संकटग्रस्त लघु उत्पादकों – संक्षेप में आर्थिक संकट व सामाजिक अस्थिरता के कारण सबसे ज्‍यादा पीड़ित लोगों, जो अभी तक वाम दलों के राजनीतिक व संगठनात्‍मक दायरे के बाहर हैं, के बीच सफल रहते हैं[2]. इस तरह फासीवादी पार्टी का सामाजिक आधार अथवा दूसरे शब्दों में फासीवादी आन्दोलन की सामाजिक संरचना में पेट्टी बुर्जुआ और गरीबों की बहुलता के बावजूद विविधता बनी रहती है. मगर इसका वर्ग चरित्र इसकी वर्ग नीति और विचारधारा उस वर्ग से निर्धारित होती है जिसकी यह सेवा करता है और सत्ता में आने के बाद और भी नंगई के साथ सेवा के लिए राजनीतिक रूप से निर्दिष्ट होता है. अपनी शुरुवात के साथ ही नात्‍ज़ी पार्टी ने, ट्रेड यूनियनों पर भौतिक और मार्क्सवाद/बोल्शेविकवाद पर विचारधारात्मक हमले शुरू कर दिए, और वह भी ऐसे समय में जब कि जर्मनी अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग आन्दोलन की अग्रिम पंक्ति में खड़ा था. इन हमलों के जरिये नात्‍ज़ी पार्टी ने जर्मनी और दुनिया के बुर्जुआ की कर्तव्यनिष्ठ सेवा की और सत्ता में आने बाद इसने दुनिया की किसी भी अन्य सरकार के मुकाबले बढ़-चढ़ कर पूँजी की सेवा की. फासीवादी राज्य ने यह सेवा न केवल श्रम के दमन और नियंत्रण, और बुनियादी ढांचे, हथियार व सम्बंधित क्षेत्रों में जबरदस्त राजकीय निवेश के जरिये बाजार की सकल मांग वृद्धि सुनिश्चित करते हुए, बल्कि तमाम सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के निजीकरण जैसे अल्पज्ञात नीतिगत उपायों से भी की.

अप्रतिरोध्य ? व्यापक जन समुदाय और वाम

महान मार्क्सवादी कवि और नाटककार व हिटलर के समवर्ती बर्तोल्त ब्रेश्‍त ने इस उन्मत्त महत्वाकांक्षी पिशाच के उत्कर्ष को बेहद बारीकी से देखते-परखते हुए कहा था कि इसे रोका जा सकता था. ब्रेश्‍त के एक बहुत ही मौजूं और महत्वपूर्ण नाटक से इस पुस्तिका का शीर्षक उधार लेते हुए, हम भी इस दृष्टिकोण से सहमत हैं, और हमारा विश्वास है कि यहाँ जुटाए गए सारे तथ्य भी इसकी पुष्टि करते हैं.

क्या हैं ये तथ्य ?

जैसा कि हम देख चुके हैं, हिटलर 50% से ज्यादा के स्पष्ट मतादेश के बल पर सत्ता में नहीं आया था. एक-के-बाद-एक पूर्ववर्ती सरकारों के अल्प जीवन से पैदा होने वाली राजनीतिक शून्यता का फ़ायदा उठाते हुए उसने एक मज़बूत और स्थायी सरकार देने, सामाजिक अराजकता का अंत करने के वादे और अपनी राष्ट्रीय-समाजवादी लफ्फाजियों के बल पर जनता के बड़े हिस्से को आकर्षित किया. सितम्बर 1930 और जुलाई 1932 के दौरान एन.एस.डी.ए.पी. ने इसका चुनावी फ़ायदा उठाने में लगातार बढ़त बनायी, मगर 6 नवम्बर के राइकस्‍ताग चुनावों में इसे भारी धक्का लगा जब इसकी सीटें चार महीने पहले के 230 से घट कर 196 रह गयीं. दिसंबर में भी नात्‍ज़ी अश्वमेध का रथ थुरिन्गिया चुनाव में करीब 40% मतों के नुक्सान के साथ ध्वस्त हो गया. मगर इसके बावजूद अगले ही महीने में हिटलर की चान्सलर के रूप में ताजपोशी हो गयी – कैसे, यह हम देख चुके हैं और निश्चय ही यह अपरिहार्य बिलकुल नहीं था.

क्या जर्मनी की जनता यहूदियों के खिलाफ हिटलर के राजनीतिक व भौतिक युद्ध में शामिल थी? बिलकुल नहीं. इसके बावजूद फासिस्ट यहूदी अल्पसंख्या और जर्मन जातीय बहुसंख्या के बीच खायी खोदने में सफ़ल रहे. इस बहुसंख्या ने नंगी बर्बरता के ताण्डव को अनावश्यक व अन्यायपूर्ण अतिरेकों के रूप में देखते हुए भी नस्लीय आधार पर कानूनी भेदभाव और बहिष्करण को निष्क्रिय रह कर स्वीकार कर लिया. नात्‍ज़ी, यहाँ के संघियों की तरह ही ऐसे अभियानों के बल पर मतदाताओं के सामने बहुसंख्या की तथाकथित श्रेष्ठता के सबसे आक्रामक और इसलिए सबसे प्रभावी चैम्पियन बन कर आये. निःसंदेह इस रणनीति का उन्हें चुनावों में भरपूर फ़ायदा मिला.

इन सब के बावजूद वाम हमेशा ही सबसे मजबूत चुनौती की ताकत बना रहा. अपनी शुरुवात से, वेइमार रिपब्लिक वाम का गढ़ था. 1919 के पहले राइकस्‍ताग चुनावों में एस.पी.डी. और यू.एस.पी.डी. (जो 1917 में एस.पी.डी. से अलग हुई थी) को मिला कर 45.6% वोट मिले थे. राइकस्‍ताग के अंतिम चुनाव नतीजों पर भी नजर डालने पर पाते है कि दोनों वाम पार्टियों (एस.पी.डी. और के.पी.डी.) के सम्मिलित जीते प्रतिनिधियों की संख्या (नात्जि़यों के 196 के मुकाबले 221) और मत अनुपात (नात्जि़यों के 33. 09% के मुकाबले 37. 29%) दोनों ही दृष्टियों से नात्जि़यों से कहीं ज्यादा थी[3]. अगर दोनों पार्टियों ने मिल कर चुनाव लड़ा होता और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि अगर उन्होंने मिल कर फ़ासिस्टों का सड़कों पर, फैक्ट्रियों और खेतों में मुकाबला किया होता, तो उन्होंने न सिर्फ चुनावी जंग में और भी अधिक प्रभावी और निर्णायक प्रदर्शन किया होता, बल्कि फ़ासिस्टों को राजनीतिक व नैतिक रूप से भी करारी मात दी होती. वाम की लगातार बढ़ती हुई यह चुनौती संभवतः एक बड़ा कारण थी जिसके चलते राजशाही अभिजात्य हिन्‍डेन्‍बर्ग समेत शासक वर्गों और उनके प्रतिनिधियों ने अन्ततः पूँजी के शासन को बचाए रखने के लिए अंतिम उपाय के बतौर नात्जि़यों को स्वीकार किया. जिस तरह से विभाजित वाम ने इस विशाल और ज्यादातर संगठित व सचेत व्यापक जन समर्थन को बरबाद कर दिया, वह इतिहास का एक ऐसा नितान्त दुखदायी अध्याय है जिसमें हमारे लिए आज की परिस्थितियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण सबक हैं.

दोनों वाम पार्टियों की एकजुट होने में विफलता उनकी विपरीत विचारधारात्मक व राजनीतिक अवस्थितियों में निहित थी. 1914 से ही, जब एस.पी.डी. नेतृत्व ने प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मन साम्राज्यवादियों का पक्ष लिया था, और इस तरह सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद व क्रन्तिकारी मार्क्सवाद से बुर्जुआ राष्ट्रवाद व संशोधनवाद में पतित हुए थे, और जब पार्टी के क्रन्तिकारी हिस्सों ने अलग हो कर स्पार्टाकस लीग बना ली थी (जो के.पी.डी. की पूर्वपीठिका बनी), दोनों पार्टियां लगातार एक दूसरे से दूर होती चली गयी थीं और अक्सर एक दूसरे से टकराती रहती थीं. 1919 में उन्होंने एक दूसरे को क्रांति और प्रतिक्रांति के विपरीत छोरों पर खड़े पाया : एबर्ट-शायदेमान सरकार ने लक्जेम्बर्ग और लीबनेश्‍त सहित क्रांतिकारियों के खिलाफ फ्रीकार्प भेड़ियों को छोड़ दिया. इसके बाद से के.पी.डी. लगातार जुझारू गैर-संसदीय संघर्षों के साथ संसदीय संघर्षो को जोड़ने, (गैर-संसदीय पर स्पष्ट बल के साथ) की नीति पर चलती रही. दूसरी ओर एस.पी.डी. ने संसदीय संकीर्णतावाद और अर्थवाद के दलदल में धंसते हुए अपने कृषि सुधार कार्यक्रम से भी किनारा कर लिया. 1929 में बर्लिन ने “‍ब्‍लुटमाई” – ख़ूनी रविवार – का त्रासद नज़ारा देखा जब एस.पी.डी. सरकार ने के.पी.डी. रैली पर गोलियाँ चलवा कर तीस लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. दूसरी ओर के.पी.डी. ने 1931 में अपने को नितान्त हास्यास्पद बना लिया जब पहले तो उसने नाजियों द्वारा प्रशिया सरकार को अपदस्थ करने के लिए प्रायोजित जनमत संग्रह का विरोध किया और जब एस.पी.डी. ने विरोध के लिए उसके संयुक्त मोर्चे में शामिल होने से इंकार कर दिया, उसी जनमत संग्रह को “लाल जनमत संग्रह” बताते हुए उसका समर्थन करना शुरू कर दिया ! फ़ासिस्टों और अन्य धुर दक्षिण पंथी गुटों के साथ कम्युनिस्टों को एक जनतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकार को हटाने के लिए अभियान चलाते देखना बेहद तकलीफदेह नज़ारा था. बहरहाल, जर्मनी की जनता कहीं ज्यादा परिपक्व और समझदार निकली और उसने जनमत संग्रह को भारी अन्तर से नकार दिया.

दोनों पार्टियों के बीच लगातार टकराहटों की जड़ एक दूसरे के प्रति उनका नितान्त नकारात्मक राजनीतिक नजरिया और आकलन था. के.पी.डी. का मानना था कि गंभीर पूंजीवादी संकट के सन्दर्भ में यह सामाजिक जनवाद था जो मजदूरों को पूंजीवाद से लड़ कर उसे समाप्त करने से रोकता था (यहाँ तक बात सही थी) और इसलिए वही मुख्य दुश्मन था (जो बिलकुल गलत था); इसके चलते “सामाजिक फासीवाद” की खतरनाक थीसिस ने जन्म लिया जिसमें सोशल डेमोक्रेसी और फासीवाद को जुड़वाँ भाइयों की तरह देखा जाने लगा. कई अवसरों पर के.पी.डी. ने संयुक्त संघर्ष के लिए अपील की मगर एस.पी.डी. हमेशा ठुकराती रही. 1931 के लीप्जिग पार्टी अधिवेशन में एस.पी.डी. चेयरमैन ओट्टो वेल्स ने कहा – “बोल्शेविज्म और फासीवाद भाई हैं. वे दोनों ही हिंसा और तानाशाही पर टिके हैं, भले ही चाहे जितना सोशलिस्ट या रेडिकल वे खुद को दिखायें.” इस स्तर की परस्पर शत्रुता से, यह स्वाभाविक था कि निचले स्तरों पर कुछ अनुकरणीय कामरेडाना उदाहरणों के बावजूद दोनों पार्टियाँ यहाँ तक कि आत्मरक्षा में भी एकजुट नहीं हुईं. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि एस.पी.डी. नेतृत्व की नीतिगत अपंगता के बावजूद उनकी कतारें और राइकस्‍ताग डेपुटियों समेत कई नेता नात्‍ज़ी चान्सलर के भयावह कदमों का जोरदार प्रतिरोध करते रहे.

वाम नेतृत्व की राजनीतिक कमियों और पहाड़ जैसी भूलों के सापेक्ष जो बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण आश्वस्ति देती है, वह है जर्मन श्रमिकों का फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध में गजब का साहस, प्रतिबद्धता और वर्गीय एकता. प्रोफ़ेसर हेट्ट “वर्ग संघर्ष और हिटलर का उभार” में लिखते हैं : “1930 में राइकस्‍ताग चुनावों में जब नात्जि़यों ने 18.3% की बढ़त पा ली थी, फैक्ट्री काउंसिलों के चुनावों में उन्हें प्रतिनिधियों की संख्या का नितान्त निराशाजनक मात्र 0.51% ही हासिल हुआ”. मगर पार्टी नेताओं के ऐसे किसी भी संघर्ष के विचार से भय से काँप उठने का हवाला देते हुए, जिसके क्रांति या गृहयुद्ध में विकसित हो जाने की सम्भावना हो, हेट्ट आगे कहते हैं : “1931 में ईजेर्ने फ्रंट (आयरन फ्रंट)[4] की स्थापना नेतृत्व की राजनीतिक निष्क्रियता से कतारों के असंतोष की काट के लिए की गयी थी. आयरन फ्रंट की एक रैली में एक कार्यकर्ता ने कहा कि सोशलिस्ट अगर केवल जनतांत्रिक तरीकों से फ़ासिस्टों का मुकाबला करना चाहते हैं तो वे पागलखाने भेज दिए जाने लायक हैं. और एक एस.पी.डी. दुकान कर्मचारियों की बैठक में किसी ने तर्क दिया कि अगर दूसरे गृह युद्ध की चुनौती दे रहे हैं तो हम उनके सामने शांति का हाथ नहीं लहरा सकते, अगर दूसरे गोलियों की बौछार कर रहे हैं तो हम कैंडी नहीं उछाल सकते. 1931 की गर्मियों में ही एस.पी.डी. नेतृत्व ने सोशलिस्ट यूथ संगठन को भंग कर दिया क्योंकि वह नेतृत्व की कन्जर्वेटिव दिशा-दृष्टिकोण का लगातार विरोध कर रहा था.”

हमारे देश में आज हम और मजदूर वर्ग भाजपा सरकार के खिलाफ संघर्ष के अग्रिम मोर्चे पर मार्च कर रहे हैं. भारतीय वाम सौ साल पहले के अपने जर्मन कामरेडों जितना भले ही मज़बूत न हो, मगर अच्छी बात यह है कि वे न सिर्फ अपनी नज़दीकियाँ बढ़ा रहे हैं, बल्कि दलित संगठनों आदि संघर्षशील ताकतों के साथ भी जुड़ रहे हैं. बुर्जुआ पार्टियों की बहुतायत भाजपा-एनडीए कुनबे में शामिल होने के बजाय शासकीय गंठजोड़ के खिलाफ एक संयुक्त विरोध खड़ा करने का प्रयास कर रही हैं मगर उनमें से ज्यादातर बढ़ते हुए आतंरिक कलह का शिकार हैं. भारत में फासीवाद का निश्चित रूप से सफल प्रतिरोध किया जा सकता है और उसे चुनावी जंग और सामाजिक-राजनीतिक ताकत दोनों ही क्षेत्रों-मोर्चों पर निस्संदेह निर्णायक मात दी जा सकती है.

फुट नोट :

1. उद्योग जगत के महाबलियों ने ट्रेड यूनियन आन्‍दोलन पर नाज़ी हमलों का समर्थन किया, पर उनके द्वारा फैलाई गयी सामाजिक अव्‍यवस्‍था का वे विरोध करते थे. यह प्रेम-बैर वाला संम्‍बंध 1928 से पूरी तरह नाज़ी समर्थन में बदल गया जब बड़े पूंजीपति वर्ग और उसकी पार्टियों को लगा कि अब खुल कर बोलने का समय आ गया है और नाज़ी पार्टी सत्‍ता की ओर तेजी से बढ़ रही है.

2. जर्मनी में फासिस्‍टों और वामपंथियों के बीच समान सामाजिक आधारों के बीच राजनीतिक प्रभुत्‍व बनाने की रस्‍साकसी साफ साफ दिखाई दे रही थी. जहां वर्ग सचेत संगठित मजदूर सामाजिक जनवादियों और कम्‍युनिस्‍टों का मजबूत आधार बने रहे, वहीं अन्‍य दमित-उत्‍पीडि़त तबकों के बीच सामाजिक जनवादी वोट बैंक के बड़े हिस्‍से को फासीवादी अपनी ओर जीतने में सफल रहे. इस अनुभव से हम सीख सकते हैं कि फासीवाद को रोकने के लिए वाम को अपने पारम्‍परिक मजदूर/ मजदूर-किसान आधार से आगे जा कर आबादी के अन्‍य तबकों में राजनीतिक और सांगठनिक कार्यों को विस्‍तार देना जरूरी है.

3. पिछले चुनावों में (जुलाई 1932) एस.डी.पी. और के.पी.डी. ने 222 सीटें हासिल कीं जो एन.एस.डी.ए.पी. से मात्र 8 कम थीं, और इनका वोट प्रतिशत मिला कर 35.9 था जो एन.एस.डी.ए.पी. के 37.27 प्रतिशत से मात्र 1.37 प्रतिशत कम था.

4. नाज़ी विरोधी, राजशाही विरोधी और कम्‍युनिस्‍ट विरोधी अर्धसैन्‍य संगठन जो दिसम्‍बर 1931 में एस.पी.डी. ने बनाया था. यह मजदूर वर्ग, उदारवादी समूहों और एस.पी.डी. के युवा संगठन के संयुक्‍त मोर्चे के रूप में काम करता था.

** डेविड ओलेर को मार्च 1943 से जनवरी 1945 तक आश्वित्‍ज़ में “सोन्देरकोमान्दो” (एक खास तरह के बंधुआ मजदूर) के तौर पर बन्दी रखा गया था, जिसका काम मृत्युदाह की भट्ठियों में झोंके गए लोगों के अवशेषों को खाली करना और गैसचेम्बरों से लाशों को हटाना था. वह नाज़ियों के पैशाचिक प्रयोगों का भी गवाह था और उससे जबरन चित्रकार और एस.एस. के लिए चिट्ठियां लिखने वाले का काम लिया जाता था. 1945 में मुक्त होने के बाद उसने उन लोगों के प्रति अपने श्रद्धांजलि दायित्व के रूप अपनी कला सर्जना की शुरुवात की जो इस पिशाच लीला में जीवित नहीं बच सके थे.

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27 फरवरी 1933 को राइकस्‍ताग में लगी आग

फ़रवरी के मध्य में यह अफवाह फैली कि हिटलर की हत्या के प्रयास का झूठा बहाना गढ़ कर नात्‍ज़ी खून की होली खेलने की योजना बना रहे हैं. ऐसे भयावह अराजक वातावरण में 27 फ़रवरी 1933 को खबर आयी कि राइकस्‍ताग में आग लग गयी है. हालांकि आग के कारणों का अभी पता लगाया जाना बाकी था, मगर गोएरिंग दहाड़ा “यह कम्युनिस्ट विद्रोह की शुरुवात है. अब वे हमला करेंगे. हाँ अब एक पल भी नहीं गवां सकते !” रुडोल्फ दिएल्स ने, जिसे गोएरिंग ने गेस्टापो का प्रमुख नामित किया था, बाद में याद किया : “हिटलर दहाड़ा ... अब कोई दया-माया नहीं होगी. जो भी हमारे रास्ते में आयेगा, काट डाला जायेगा ... हर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता को वहीं गोली मार दी जायेगी. कम्युनिस्ट डेपुटियों को इसी शाम फाँसी पर लटका दिया जाना चाहिये. कम्युनिस्टों से रिश्ता रखने वाले हर किसी को गिरफ्तार किया जाना है. सोशल डेमोक्रेटों और राइकस्‍ताग झंडे के साथ भी कोई नरमी नहीं बरती जानी है.”

हिटलर, दिएल्स की इस बात को सुनने के लिए राजी ही नहीं था कि आगजनी में गिरफ्तार आदमी मरिनस वन देर लूबे एक अधपागल था. हिटलर ने कहा “यह बिलकुल साफ़-साफ़ बेहद चतुरायी से बनायी गयी योजना है. अपराधियों ने इसे पूरी तरह से सोच-समझ कर अंजाम दिया है.”

आग के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार था, यह सवाल कभी नहीं सुलझा. जो बात बिलकुल निर्विवाद है वह यह कि (i) के.पी.डी. के शामिल होने का लेश मात्र साक्ष्य भी कभी प्रस्तुत नहीं किया गया, और (ii) नात्‍ज़ी राइकस्‍ताग की आग को ले कर लेश मात्र भी दुखी नहीं थे. इसके विपरीत यह के.पी.डी. के खिलाफ निर्णायक चोट करने का मुंहमांगा बहाना बन गया. उसी शाम बाद में जब नात्‍ज़ी होटल कैसरहोफ में जुटे, काफी तनावहीन-खुशनुमा मूड में थे. गोएबेल्स ने लिखा : “हर कोई पूरे उत्साह में था... ठीक वही हुआ था जिसकी हमें जरूरत थी. अब हम पूरी तरह आगे हैं.” जैसा 27 फ़रवरी 2002 को भारत में गोधरा ट्रेन दुर्घटना में अनुमान लगाया जाता है, सारे परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को ध्यान में रख कर इतिहासकार यह निष्कर्ष निकलते हैं कि राइकस्‍ताग में आग खुद नात्जि़यों ने लगाई थी और इसका आरोप कम्युनिस्टों पर मढ़ दिया.

27-28 फ़रवरी की रात तक के.पी.डी. के अगुआ नेता और करीब-करीब सभी राइकस्‍ताग डेपुटी गिरफ्तार हो चुके थे. 3 मार्च को के.पी.डी. चेयरमैन एर्न्स्ट थालमन को खोज कर गिरफ्तार कर लिया गया. कार्ल लीबनेश्‍त के घर से तथाकथित रूप से बरामद दस्तावेज से दिखाया गया कि कम्युनिस्ट “आतंकवादी गिरोहों” को बनाने, सार्वजनिक भवनों में आग लगाने, सार्वजनिक भोजनालयों के खानों में जहर मिलाने, और मंत्रियों व अन्य शीर्ष नेताओं-व्यक्तियों के बीबी-बच्चों को बंधक बनाने की साजिश रच रहे थे. हालांकि कोई भी देख-समझ सकता था कि यह भयावह परिदृश्‍य फंसाने के लिए गढ़ा गया पूरी तरह झूठा आविष्कार था, मगर इसके आधार पर हिटलर के साथी जनता और राज्य की सुरक्षा के लिए राजाज्ञा जारी करने पर तुरंत राजी हो गए जिसके जरिये “अगली सूचना तक” सारे मूलभूत नागरिक अधिकार – जिनमें निजी आज़ादी, अभिव्यक्ति और एकत्रित होने की स्वतन्त्रता और पत्रों व टेलिफोन बात-चीत की निजता शामिल थी, मुल्तवी कर दिए गए.

28 फ़रवरी की राजाज्ञा को उस आपात कानून के रूप में जाना जाता है जिसके बूते नेशनल सोशलिस्ट तानाशाही तब तक टिकी रही जब तक कि वह खुद ध्वस्त नहीं हो गयी. 3 मार्च को फ्रैंकफर्ट में अपने भाषण में गोएरिंग ने यह बात बिलकुल साफ़ कर दी कि उसे मिली इस नयी ताकत से वह क्या करना चाहता था. उसने निर्देश जारी किये कि इसके प्रावधानों को किसी भी कानूनी बंदिश से सीमित नहीं किया जा सकता है : “इस मामले में, मुझसे किसी न्यायशीलता की अपेक्षा नहीं है. मुझसे एकमात्र अपेक्षा सफाया करने की है और इससे ज्यादा कुछ भी नहीं”.

जैसा कि अन्य सारे मामलों में था, हिटलर को यहाँ भी सरकार में शामिल दूसरे लोगों से किसी भी तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. हिन्‍डेन्‍बर्ग को भी राजाज्ञा पर दस्तखत करने में कोई आपत्ति नहीं थी जिसे उसे “कम्युनिस्ट हिंसा के खिलाफ कदम उठाने के लिए विशेष अधिनियम” के रूप में बेचा गया था. जाने-अनजाने में राइक प्रेसिडेंट के राजनीतिक प्राधिकार को उसने राइक सरकार को हस्तांतरित करने में मदद की.

चुनाव का प्रहसन

अमेरिकी राजदूत फ्रेडरिक सैकेट ने 5 मार्च 1933 के चुनावों को “प्रहसन” बताया क्योंकि लेफ्ट विंग पार्टियों को “प्रचार अभियान के अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण हफ्ते में अपने समर्थकों को संबोधित करने के उनके संवैधानिक अधिकारों से पूरी तरह से वंचित कर दिया गया था”.

फिर भी, 88.8% असाधारण वोटिंग के बावजूद एन.एस.डी.ए.पी. सम्पूर्ण बहुमत के घोषित लक्ष्य से काफी दूर रह गयी. उसे 43.9% वोट मिले, नवम्बर 1932 चुनाव से 10.8% ज्यादा. बर्लिन मेट्रोपोलिटन सहित ऐसे कई इलाकों में उन्हें इस बार काफी बढ़त मिली जहाँ वे अब तक कमजोर रहे थे. नात्जि़यों ने पिछली बार वोट न देने वालों की काफी बड़ी संख्या को अपने पक्ष में गोलबंद कर लिया था.

दूसरी ओर तमाम साजिशों और दमन के बावजूद एस.पी.डी. को 18.3% (पिछली बार से 2.1% कम) और के.पी.डी. को 12.3% (4. 6% कम) वोट मिले. सारी बाधाओं का मुकाबला करते हुए दोनों वाम धारा पार्टियों ने करीब एक तिहाई वोट हासिल कर लिए थे. कुल मिला कर नतीजे यही दिखा रहे थे कि नात्‍ज़ीवाद के खिलाफ वाम-जनतांत्रिक विरोध अभी भी काफी मजबूत था.

जनता की ओर से बार-बार धकियाये जाने और राइकस्‍ताग में लगायी गयी आग के बाद भी निर्णायक बहुमत ला कर अकेले शासन का प्राधिकार दिला पाने में असफल हो जाने पर, हिटलर अब दूसरे उपायों की ओर बढ़ा जो उसे वस्तुतः तानाशाह बना सकें. इस बार भी उसने जाहिर तौर पर “संवैधानिक” अनुमति हासिल कर ली. इस अनुमति में सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण चुनाव के बाद पारित किया गया “इनेबलिंग” कानून था.

23 मार्च : इनेबलिंग कानून

राइकस्‍ताग भवन में आग लग जाने के बाद उसके उपयोग लायक नहीं रह जाने के कारण राइकस्‍ताग की बैठक23 मार्च 1933 को क्रोल ओपेराहाउस में बेहद दबाव और धमकी भरी पृष्ठभूमि में हुई. एस.पी.डी. डेपुटी विल्हेल्म होएग्नर के अनुसार : “क्रोल ओपेरा के बाहर का चौक उन्मत्त फ़ासिस्टों से भरा पड़ा था. हमारी अगवानी ‘हमें चाहिये इनेबलिंग कानून’ के उन्मादी नारों से हुई. अपनी छातियों पर स्वातिका टांगे नौजवानों ने हमें ऊपर से नीचे तक नफ़रत से घूरते हुए हमारा रास्ता रोक लिया. “मध्यमार्गी सूअर” और “मार्क्सिस्ट सुअरियां” जैसी गालियों से चुनौती देते-धमकाते हुए उन्होंने हमें दौड़ा लिया. जब हम सोशल डेमोक्रेटो ने असेंबली के बाहरी बायीं तरफ अपनी जगह ले ली, एस.ए. और एस.एस. के आदमियों ने निकास के बाहर और हमारे पीछे की दीवार से लग कर अर्ध चंद्राकार घेरा बना लिया. ग्रैंड स्टैंड (मंच) के आगे, जहाँ सरकार के लोग बैठे थे, एक विशाल स्वास्तिका झन्डा लटक रहा था मानो यह नात्‍ज़ी पार्टी का कार्यक्रम था न कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों का कोई सत्र. दो दिन पहले खुद को नागरिक वेश-भूषा में दिखाने के बाद हिटलर आज फिर ब्राउन शर्ट में था.”

जनता और राइक के संकटों को दूर करने का कानून, जैसा कि इनेबलिंग कानून को आधिकारिक तौर पर कहा गया, एक संविधान संशोधन विधेयक था. संविधान के अनुच्छेद 76 के अनुसार संविधान संशोधित करने के लिए राइकस्‍ताग और उपस्थित डेपुटियों, दोनों का दो-तिहाई बहुमत जरूरी था. चूंकि नात्जि़यों और उनके सहयोगियों की संख्या इसके लिए पर्याप्त नहीं थी, इसलिय एक शातिर चाल खेली गयी. सबसे पहले, राइकस्‍ताग आग राजाज्ञा के तहत गिरफ्तार के.पी.डी. डेपुटियों की 81 सीटों को अवैध-अमान्य कर दिया गया. इससे राइकस्‍ताग के कुल वैध मतों की संख्या 647 से घट कर 566 हो गयी, जिससे अब कानून के पक्ष में 432 के बजाय 378 मतों की जरूरत रह गयी. दूसरी शर्त (उपस्थिति का दो-तिहाई) के लिए संसदीय नियमों में बदलाव कर के (जिसका कैबिनेट को अधिकार था) बिना कारण बताये अनुपस्थित डेपुटियों को भी उपस्थित मानने का प्राविधान कर लिया गया. इन सारी चालबाजियों से, और के.पी.डी. सदस्यों की गिरफ्तारी के चलते केवल एस.पी.डी. के बचे सदस्यों के जोरदार विरोध को दरकिनार कर कानून पारित करा लिया गया.

कानून के जरिये हिटलर की सरकार को राइकस्‍ताग और प्रेसिडेंट से स्वतंत्र कानून/ राजाज्ञा जारी करने के “योग्य” बना दिया गया. ऐसे कानून/राजाज्ञा को संविधान के प्राविधानों से इतर कानून भी बनाने की अनुमति थी और प्रेसिडेंट के बजाय चान्सलर को कानूनों को सूत्रबद्ध व प्रकाशित करने का अधिकार मिल गया.

तात्कालिक नतीजा : के.पी.डी. को राइकस्‍ताग आग राजाज्ञा से पहले ही बुरी तरह से दमित कर चुकने के बाद अब सोशल डेमोक्रेटों के संसदीय दल पर बर्बर दमन तंत्र चला जिन्होंने इनेबलिंग कानून के खिलाफ वोट किया था. एस.पी.डी. सदस्यों में निराशा – हताशा फैलने लगी और बड़ी संख्या में सदस्य पार्टी छोड़ने लगे. इसके बाद भी अभी इस कानून के और भी ज्यादा गंभीर – दीर्घ कालिक प्रभाव पड़ने वाले थे.

पहला : कानून ने कैबिनेट को विधायिका की चिन्ता किये बगैर कानून जारी करने का अधिकार दिया था, मगर व्यवहार में यह अधिकार चान्सलर में निहित हो गया. बड़ी चालाकी से सुनिश्चित किया गया कि कैबिनेट की बैठकें यदा-कदा ही हों और जब हों भी तो उनमें कोई गंभीर बहस न होने पाये जिससे हिटलर को कैबिनेट के नाम पर मनमानी का पूरा मौका मिल सके. यही नहीं, इस संशोधन ने कैबिनेट को नजरअंदाज करते हुए आपात राजाज्ञा जारी करने के प्रेसिडेंट के अधिकार को भी निष्प्रभावी कर दिया. चान्सलर अब अपनी पूरी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र था हालाँकि हिटलर करिश्माई मार्शल के साथ किसी तरह के अनावश्यक टकराव का इच्छुक नहीं था. बहरहाल, अपने सारे इरादों और उद्देश्यों में, हिटलर अब करीब-करीब तानाशाह बन चुका था.

दूसरे : संविधान और संसद, जो पहले ही पापेन और ब्रूनिंग द्वारा अपने चान्सलर काल में व्यर्थ और निष्प्रभावी बना दी गयी थी, के ताबूत पर आखिरी कील ठोंक कर के गैर-नात्‍ज़ी राजनीतिक पार्टियों ने जाने-अनजाने में अपने अस्तित्व का औचित्य ही समाप्त कर दिया था. आखिर प्रतिनिधित्व की संस्था के अभाव में ये राजनीतिक पार्टियां कौन सी भूमिका अदा कर सकती थीं ?

तीसरे : कानून, जो मूलतः चार साल के लिए था, तीन बार समय अवधि बढ़ाई गई और नात्‍ज़ी सत्ता के ध्वस्त हो जाने तक फासिस्ट शासन और मानवता के विरुद्ध इस शासन के सारे नृशंस अपराधों का मूल आधार बना रहा. यह कानून तकनीकी तौर पर संविधान के विरुद्ध नहीं था और संसद में बहुमत से पारित किया गया था, इसलिए हम कह सकते हैं कि अन्ततः यह “आत्‍म निषेध” का संवैधानिक चार्टर बन गया.

मोसज
ऑश्विट्ज़ कंन्‍सन्‍ट्रेशन कैम्‍प, गेट के ऊपर नारा लिखा है - 'काम करने से तुम्हें मुक्ति मिलेगी '

मार्च-अप्रैल : यहूदियों के लिए कंसेन्ट्रेशन कैम्प और आर्थिक बहिष्कार

सरकार द्वारा स्व-हस्तगत भयावह अधिकारों का कहर यहूदियों पर अब तक नहीं देखे-सुने गए पैमाने पर टूटा. मार्च 1933 में डकाऊ के एक छोटे से शहर के पास एक पुरानी-वीरान हथियार फैक्ट्री में पहला कंसेन्ट्रेशन कैम्प खुला. शुरुवात में, एक राजकीय उपक्रम के रूप में इसकी हिफाजत का जिम्मा बावेरियन पुलिस पर था, मगर 11 अप्रैल से एस.एस. ने इसकी कमान संभाल ली. यह वह पहला सेल बना जहाँ आतंक की राष्ट्रीय प्रणाली तंत्र के बीज अंकुरित हुए. यह एक तरह की प्रयोगशाला थी जहाँ हिंसा के उन विकृत और नृशंसतम रूपों का प्रयोग किया गया जिन्हें जल्दी ही अन्य कंसेन्ट्रेशन कैम्पों में दुहराया जाने वाला था. इन कैम्पों में जो कुछ घटित हो रहा था उसकी कहानियां नात्जि़यों के विरोध को रोकने का सबसे प्रभावी हथियार थीं.

कंसेन्ट्रेशन कैम्पों ने एक और काम किया. 5 मार्च के चुनाव नतीजों के पूरे मनमाफिक न होने की खीझ एस.ए. गुंडों की मनमानी हिंसा के आतंक में निकल रही थी. यहाँ तक कि वे जज भी अपनी जान के लिए आतंकित थे, जिन्होंने अपवादस्वरूप पकडे़ गए उपद्रवियों को दोषी पा कर हलकी-फुलकी सज़ा सुनाई थी. इसे व्यापारिक समुदाय सहित बहुत सारे लोग, कानून-व्यवस्था की अराजकता के रूप में देखने लगे थे, जबकि नात्जि़यों ने पिछले कई सालों से बनी हुई गृह युद्ध जैसी स्थिति के समाधान का वादा किया था. विकेन्द्रित आतंक को संस्थागत आतंक के रूप में कंसेन्‍ट्रेशन कैंपों में केन्द्रित करने से इस समस्या का आंशिक समाधान हुआ – आंशिक, क्योंकि अनियंत्रित हिंसा कभी भी पूरी तरह से नहीं रुकी.

एक और क्षेत्र में राजकीय हस्तक्षेप की जरूरत महसूस हुई. नात्जि़यों के बार-बार आह्वान के बावजूद बेहद कम लोग यहूदी व्यापार, वकीलों, और डाक्टरों का बहिष्कार कर रहे थे. 1 अप्रैल को एस.ए. के लोग पूरे जर्मनी में यहूदियों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों, डाक्टरों के दवाखानों और वकीलों की फ़र्मों के सामने तख्तियां ले कर खड़े हो गए और आम लोगों को भी इस बहिष्कार में साथ देने के लिए उकसाने लगे. बर्लिन में बहिष्कार के गवाह रहे पत्रकार सेबास्तियन हाफ्नेर ने इसे याद करते हुए लिखा : “यहूदी व्यापार प्रतिष्ठान जैसे ही खुले, एस.ए. के लोग मुख्य दरवाजों के सामने पाँव फैलाए हुए डट गए. आतंक के बावजूद इसके प्रति असहमति की फुसफुसाहट ... पूरे देश में फ़ैल गयी. “ब्रिटिश राजदूत होरास रमबोल्ड के अनुसार बहिष्कार जनता में लोकप्रिय तो नहीं था मगर यहूदियों के पक्ष में जनता के बीच से कोई खास आवाज़ भी नहीं उठी. ग्राहकों के बारे में ऐसी तमाम बातें सुनने में आयीं जिनमें वे जानबूझ कर यहूदी दुकानदारों, डॉक्टरों और वकीलों के पास गए, परन्तु निश्चित रूप से ऐसे साहसी लोगों की तादात बहुत कम थी. बहुसंख्या ने शासन की इच्छा के आगे घुटने टेक दिए. तमाम जर्मन यहूदी इस पहली सरकार प्रायोजित-संगठित यहूदी-विरोधी पहलकदमी से अवाक् थे. विक्टर क्लेम्पेरर ने अपनी डायरी में लिखा : “मैंने हमेशा खुद को जर्मन माना”. ये भावनाएं वही थीं जो आज मोदी के भारत में लांछित-उत्पीडि़त मुसलमान महसूस कर रहे हैं.


“और यह सब कुछ इसलिए कि वे यहूदी हैं”

girl“गर्म बिस्तर पर सोते हुए मैं नितान्त अनैतिक महसूस करती हूँ, जब मेरे परम प्रिय दोस्तों को बाहर वहां कहीं कड़कती ठंड में मार गिराया गया है या फिर कहीं गन्दे नाले में फेंक दिया गया है. काँप उठती हूँ, जब मैं उन निकटतम दोस्तों के बारे में सोचती हूँ, जो अब धरती पर विचरने वाले उन क्रूरतम पिशाचों के हवाले किये जा चुके हैं. और सिर्फ इसलिए कि वे यहूदी हैं !”

 

 

 

ऐन फ्रैंक , “द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल”

[ ऐन खुद ,और उसकी बहन मारगोट की मृत्यु 1945 में
बर्गेन बेल्सेन के कंसेन्ट्रेशन कैम्प में हुई ]



7 अप्रैल को शासन ने पेशेवर नागरिक सेवा के पुनर्गठन का कानून जारी किया. इसके तहत सरकार न सिर्फ राजनीतिक रूप से भरोसेमंद न समझे जाने वाले राज्य कर्मचारियों को बर्खास्‍त कर सकती थी बल्कि यह भी निर्दिष्ट किया कि “गैर-आर्य पृष्ठभूमि” वाले नागरिक सेवकों को समयपूर्व सेवा निवृत्त कर दिया जाये. हिन्‍डेन्‍बर्ग के अनुरोध पर वे यहूदी, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया था अथवा जिनके पिता या बेटे शहीद हुए थे, इससे मुक्त रखे गए. एक बार फिर यहाँ वर्तमान भारतीय परिदृष्य सामने आता है - क्या संघी सरकार “अच्छे मुस्लिमों” को बख्श ही नहीं रही बल्कि पुरस्कृत तक कर रही है. मगर तब यह भी ध्यान में रखना बेहद जरूरी है कि अन्ततः नात्‍ज़ी जर्मनी में किसी भी यहूदी अथवा अन्य लांछित अल्पसंख्यक को नहीं बख्शा गया था.

7 अप्रैल : नात्‍ज़ी एजेन्टों के रूप में गवर्नर

राज्यों को राइक की लाइन पर लाने के लिये बड़ी चतुराई से 7 अप्रैल को लाये गए कानून के तहत जर्मन राज्यों की समूची स्वायत्‍तता को हमेशा के लिए ख़त्म करते हुए वहां “राइक गवर्नर” बहाल कर दिए गए. इस कानून से हिटलर को प्रशिया में भी अपने मनमाफिक सत्ता को पुनर्व्यवस्थित करने का मौका मिल गया. उसने खुद राइक गवर्नर का प्राधिकार अपने हाथ में ले कर पापेन की “राइक कमिश्नर” की हैसियत को अप्रासंगिक बना दिया. तीन दिन बाद गोएरिंग को प्रशिया का प्रेसिडेंट घोषित कर दिया गया और दो हफ्ते बाद हिटलर ने उसे गवर्नर का प्राधिकार दे दिया. वह वाईस चान्सलर, जो अभी 30 जनवरी तक खुद को नात्जि़यों को काबू में रखने वाले रिंगमास्टर के रूप में देख रहा था, राजनीति के हाशिये पर फेक दिया गया.

अप्रैल-मई : ट्रेड यूनियनों को लाइन पर आने के लिए मजबूर कर दिया गया

अपने जीवन अनुभवों से हिटलर जानता था कि वह एकमात्र ताकत जो उसकी तूफानी अग्रगति को रोक सकती है, वह कनफेडरेशन ऑफ़ जर्मन ट्रेड यूनियंस (ए.डी.जी.बी.) के झंडे तले संगठित मजदूर वर्ग है. उसने इसे जहाँ तक हो सके कमजोर करने की गरज से एस.ए. को अपने इस ताकतवर दुश्मन के साथ नियमित छिट-पुट थकावट-घिसावट की लड़ाई में उलझाये रहने के लिए प्रोत्साहित किया. वह निर्णायक युद्ध तब तक के लिए टालता गया जब तक कि उसने बाकी अन्य घरेलू दुश्मनों को ठिकाने लगाने का काम कमोबेश पूरा कर के इस काम के अनुकूल राजनीतिक माहौल नहीं बना लिया.

अप्रैल तक वह निर्णायक घड़ी आ गयी लगती थी. सबसे पहले उसने कम्युनिस्ट और फिर सोशल डेमोक्रेटिक नेताओं को निष्प्रभावी कर के मजदूर वर्ग को परिपक्व राजनीतिक नेतृत्व से वंचित कर दिया. फिर उसने संसदीय जनतंत्र और मुक्त प्रेस की संस्थानिकताओं को नष्ट किया, कैबिनेट के अन्दर जो लोग चुनौती बन सकते थे, यहाँ तक कि प्रेसिडेंट को भी पंगु कर दिया, अपने हाथों में सर्व सत्ताधिकार केन्द्रित किया, अपनी जरूरत और मर्ज़ी के मुताबिक ब्राउनशर्ट्स के अलावे अब तक नात्‍ज़ीकृत हो चुके पुलिस बल और मित्रवत हो चुकी सेना को उतार सकना सुनिश्चित किया, बुर्जुआ की ओर से सम्पूर्ण समर्थन सुनिश्चित किया जो अभी हाल-फिलहाल तक उसके आन्दोलन को ले कर गहरे संशय में था, और अन्ततः यहूदियों व मजदूर वर्ग अगुआ तत्वों के बर्बरतम उत्पीड़न- हत्याओं के जरिये पूरी तरह से आतंक का वातावरण बन जाने की गारंटी की.


सामूहिक सज़ा

[ ऐन फ्रैंक, डायरी लिखने वाली किशोरी, जिसने दो सालों तक जर्मनों से छिप कर रहने के आतंक को अपनी डायरी में दर्ज किया, और अन्ततः एक जर्मन कंसेन्ट्रेशन कैम्प में ही मरी. उसकी यह लाइन आज की दुनिया की भी अनुगूंज लगती है. आज की दुनिया में बस “यहूदी” की जगह मुस्लिम और भारत में  “क्रिश्चियन” की जगह “ हिन्दू” रख कर देख लीजिये.]

“ एक क्रिश्चियन जो करता है वह उसकी जिम्मेदारी माना जाता है, एक यहूदी जो करता है वह सारे यहूदियों पर मढ़ दिया जाता है.”

– ऐन फ्रैंक
'द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल'


इस सब के बावजूद हिटलर जर्मन मजदूर वर्ग के साथ अपनी निर्णायक लड़ाई में एक-एक कदम फूंक-फूंक कर, “पुचकार और दुत्कार डंडा” की नीति के साथ, रख रहा था. राइकस्‍ताग आग के बाद जल्दी ही, हड़ताल का अधिकार व्यवहारतः समाप्त कर दिया गया. हड़ताल के लिए किसी भी तरह के उकसावे पर एक महीने से ले कर तीन साल तक की सज़ा हो सकती थी. कई 'हाउस ऑफ दि पीपुल' पर स्टॉर्मट्रूपर्स ने कब्ज़ा कर लिया[1]. अप्रैल की शुरुवात में फैक्ट्री कमेटियों की सुविधाओं और अधिकारों को समाप्‍त कर दिया गया : चुनावों पर रोक लगा दी गयी; कमेटियों के सदस्यों को आर्थिक अथवा राजनीतिक कारणों से बर्खास्त कर के उनकी जगह नात्जि़यों द्वारा नामित लोग बैठाये जा सकते थे. राज्य की जरूरत पर समूची कमेटी भी भंग की जा सकती थी. नियोजकों को किसी भी मजदूर को “राज्य के प्रति विद्वेषी” होने की आशंका पर राइक के सामाजिक कानूनों द्वारा गारंटी किये गए बचाव का कोई भी अवसर दिए बगैर बर्खास्‍त करने का अधिकार मिल गया.

इस दुत्कार डंडे के साथ-साथ, जिसे हथौड़ा कहना ज्यादा ठीक होगा, कुछ पुचकार उपाय भी थे. अंतिम निर्णायक चोट करने से पहले मजदूरों और उनके नेताओं को भरमाने के लिए नात्‍ज़ी सरकार ने मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर के अधिकारिक रूप से इसे “राष्ट्रीय श्रम दिवस” का नाम देते हुए अभूतपूर्व शानो-शौकत से मनाया. सरकार ने सारे जर्मनी से श्रमिक नेताओं को हवाई जहाज से बर्लिन लाने की व्यवस्था की. नेताओं ने नात्जि़यों की तरफ से मजदूर वर्ग के प्रति इस अविश्वसनीय मैत्री भाव से अभिभूत हो कर इस दिन को सफल बनाने में हर मुमकिन सहयोग किया. स्वास्तिका झंडों तले यूनियन सदस्यों और नात्जि़यों ने एकसाथ मार्च किया. विशाल रैली से पहले हिटलर ने खुद मजदूर नेताओं की अगवानी यह कहते हुए की : “आप सब खुद देखेंगे कि क्रांति के जर्मन मजदूरों के खिलाफ होने की बात कितनी गलत और अन्यायपूर्ण है.” बाद में एक लाख मजदूरों की रैली को अपने संबोधन में, जो पूरे देश में रेडियो से प्रसारित किया गया, उसने ध्येय वाक्य घोषित किया : “श्रम का मान और मजदूर का सम्मान” ( नरेन्द्र मोदी के पास इसका और संक्षिप्त संस्करण है – “श्रमेव जयते”). इस तरह हिटलर ने अपनी शातिर और धूर्त चाल से जर्मन मजदूर आन्दोलन के लिए पहली मई की परम्परागत प्रतीकात्मकता को हड़पते हुए इसे “सजातीय लोकप्रिय समुदाय” में विस्तारित करने की कोशिश की.

अचानक हमला अगले ही दिन टूट पड़ा. पूरी योजना के साथ स्टॉर्मट्रूपर्स ने यूनियन मुख्यालयों पर कब्ज़ा कर के यूनियन नेताओं को अपनी “संरक्षात्मक हिरासत” में ले लिया. हर जगह लोगों के घरों पर कब्ज़ा कर लिया गया. कुछ दिन बाद एक नए कानून के जरिये एक सर्वग्रासी विशाल “जर्मन लेबर फ्रंट” बना दिया गया जिसमें सारी यूनियनों और एसोसिएशनों को “लाइन में ला कर” समाहित करते हुए चौदह पेशा आधारित फेडरेशनों में समूहीकृत कर दिया गया. यह कोई वर्गीय संगठन न हो कर विशुद्ध प्रोपेगैंडा बॉडी थी जो मजदूर वर्ग को नात्‍ज़ी राज्य के साथ संगति में लाने का सबसे कारगर औजार बनी. जैसा कि कानून में कहा गया था, इसका उद्देश्य मजदूरों की रक्षा नहीं बल्कि “सारे जर्मनों का एक सचमुच का सामाजिक व उत्पादक समुदाय बनाना” था. जर्मन मजदूरों के पास अब सरकार से स्वतंत्र अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली कोई संगठनिकता नहीं रह गयी. 16 मई को हड़ताल का अधिकार अंतिम रूप से समाप्त कर दिया गया. 19 मई को एक और कानून के जरिये मजदूरों को सामूहिक सौदेबाज़ी और समझौते के अधिकार से वंचित कर दिया गया. अगले साल की शुरुवात से चौदह पेशा आधारित फेडरेशनों को एक-एक कर के भंग करने का क्रम शुरू हो गया.

मई – जून : केवल एक को छोड़ कर सारी राजनीतिक पार्टियाँ भंग

यूनियनों के बाद राजनीतिक पार्टियों की बारी आई, एक-एक कर के. 10 मई को गोएरिंग ने डी.एस.पी. की सारी सम्पदाएँ जब्त कर लीं. जून के आखीर और जुलाई की शुरुवात में डी.एस.पी., जर्मन स्टेट पार्टी, और जर्मन पीपुल्स पार्टी भंग कर दी गयी. फिर धीरे-धीरे एस.ए. और एस.एस. के आतंक/हमलों के दबाव में अन्य बुर्जुआ पार्टियों ने भी खुद को एन.एस.डी.ए.पी. में अवसरवादी दल बदल या फिर इच्छाशक्ति के ही मर जाने के चलते खुद को समाप्त कर लिया. 14 जुलाई को राइक सरकार ने कानून जारी कर के पार्टियों का पुनर्गठन प्रतिबंधित कर दिया. इसने एन.एस.डी.ए.पी. के जर्मनी में एकमात्र राजनीतिक पार्टी होने की की घोषणा करते हुए किसी अन्य पार्टी को बनाना या बनाये रखना दंडनीय अपराध बना दिया. एक पार्टी राज्य अब हकीकत बन चुका था.

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ऐंजे ल सर्फ र, बर्लिन में ट्रेड यू नि यन कार्यालय पर कब्‍जा करते एस.ए. के सदस्‍य (2 मई, 1933)

मध्य 1933 : बेरोजगारी की समस्या का सामना

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जब कम्‍युनिस्‍टों को गिरफ्तार किया गया था

1 फ़रवरी को अपने पहले ही रेडियो संबोधन में हिटलर ने बेरोजगारी पर जबरदस्त-चौतरफा हमले की घोषणा करते हुए चार साल के अन्दर इस समस्या को हमेशा-हमेशा के लिये जड़ से मिटा देने का वादा किया था. मगर वह अच्छी तरह समझता था कि केवल लोक-लुभावन गाल बजाना काफी नहीं होगा, गाड़ी को पटरी पर लाने – अर्थव्यवस्था में जान डालने के लिए प्रोत्साहनों-पहलकदमियों की जरूरत होगी. इसलिए 1933 के मध्य में बेरोजगारी घटाने का कानून जारी किया गया. इसके जरिये पहले एक बिलियन और फिर बाद में 500 मिलियन रेइखमार्क अतिरिक्त रोजगार, खासकर अधिसंरचना विकास में सृजित करने के लिए आवंटित किया गया. अपनी शादी के लिए रोजगार छोड़ने वाली महिलाओं के लिए ब्याज मुक्त विवाह कर्ज जैसे कुछ और उपाय भी लागू किये गए. इसी के साथ शासन ने महिलाओं को श्रम बाज़ार से बाहर कर देने के लिए “दोहरा अर्जन बीमारी” (डबल-अर्नर सिंड्रोम) दूर करने का अभियान चलाया.

सरकार ने स्वैच्छिक श्रम सेवा – वेइमार रिपब्लिक द्वारा अपने अंतिम वर्षों में शुरू की गयी राज्य रोजगार योजना का भी विस्तार किया. इन सब उपायों से आधिकारिक रूप से पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या में कुछ कमी आई. आगे उसी साल एक राष्ट्रीय राजमार्ग नेटवर्क योजना शुरू की गयी. इस प्रोपेगैंडा के लिए कि हिटलर खुद “श्रम मोर्चे” पर लड़ाई की अगुवाई कर रहा था, हिटलर ने फ्रैंकफर्ट से दर्म्सताद तक के सड़कमार्ग निर्माण में खुदाई के लिए पहला फावड़ा चलाया. धीरे-धीरे सड़क निर्माण और कार उद्योग में रोजगार ने गति पकड़ी – खासकर हिटलर के जर्मनी की स्थितियों के अनुकूल एक छोटी कार उत्पादित करने के आदेश पर फॉक्‍सवैगन के रूप में “श्रमशील वर्ग के बजट में जनता कार” का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू करने के चलते.

मगर आर्थिक पुनरुत्थान को गति देने और बेरोजगारी घटाने का सबसे बड़ा और दीर्घकालिक उत्प्रेरक जर्मनी के सैन्यीकरण से आया. हिटलर ने आदेश जारी किया “बिलियनों में धनराशियों को जुटाया जाना है क्यों कि जर्मनी का भविष्य एकमात्र और पूरी तरह से व्हेरमाष्ट (संयुक्त सैन्य बल) पर निर्भर है. ये सैन्य-औद्योगिक संकुल एक तीर से तीन निशाने मारेंगे – रोजगार सृजन; राष्ट्रीय अंधराष्ट्रवादी अहम् के उन्माद को संतुष्ट करना; और आक्रामक-कब्जाकारी युद्ध के लिए जरूरी नींव तैयार करना.


image_3एसए आदमी का गीत

बर्तोल्त ब्रेश्‍त

मेरी भूख ने मुझे
दुखते पेट के साथ सुला दिया था.
तभी मैंने चीत्कार सुनी
हे, जर्मनी जागो !

तब ! देखा मैंने भीड़ को कदमताल करते :
थर्ड राइक की ओर, सुना मैंने उनको कहते.
सोचा मैंने, जीने के लिए कुछ भी तो नहीं था मेरे पास
मैं भो तो उन्हीं की राह, कर सकता हूँ कदमताल.

और जब मैं कर रहा था कदमताल, वहां मेरे बगल में था
उस दस्ते का सबसे मोटा आदमी
और जब मैं चीखा ‘हमें चाहिये रोटी और काम’
मोटा आदमी भी चीखा.

चीफ ऑफ़ स्टाफ पहने हुए था बूट
जबकि मेरे पांव थे भीगे हुए
मगर हम दोनों ही कर रहे थे कदमताल
पूरे मन से, कदम से कदम मिलाते हुए.

मैंने सोचा, बायें वाला रास्ता आगे को जाता था
उसने बताया मैं गलत था.
मैं उसके हुक्म के रास्ते गया
और अंधों की तरह घिसटता रहा.

और वे जो भूख से कमजोर थे
कदमताल करते रहे, निस्तेज मगर तने हुए
खाये-अघायों के साथ-साथ
किसी थर्ड रीख जैसी चीज की ओर.

उन्होंने मुझे बताया किस दुश्मन को मारना है
इसलिए मैंने उनकी बन्दूक ली और निशाना लगा दिया
और, जब मैं गोली चला चुका था, देखा मेरा भाई
था वह दुश्मन जिसका उन्होंने नाम लिया था.

अब मैंने जाना : वहां खड़ा है मेरा भाई
वह भूख है जो हमें एक करती है
जबकि मैं कर रहा था कदमताल
मेरे भाई और मेरे खुद के दुश्मन के साथ.

इसलिए मेरा भाई मर रहा है
मेरे अपने ही हाथों वह गिरा
फिर भी मैं जानता हूँ कि यदि वह हारा
मैं भी हार जाऊँगा.


जर्मनी में एक विचार, एक पार्टी और एक आस्था का एकाधिकार

राजनीतिक ताकत पर एकाधिकार हासिल कर चुकने के बाद हिटलर ने कई निर्णायक महत्व के विचारों की पुनर्परिभाषा और पुनर्प्रतिपादन का अभियान शुरू किया. 6 जुलाई को राइक गवर्नरों के सम्मलेन में हिटलर ने घोषित किया कि क्रांति को “स्थायी परिघटना” बने रहने की इजाज़त हरगिज़ नहीं दी जा सकती – क्रन्तिकारी धारा को उद्विकास की आधार भूमि बनने की दिशा में, “जनता की शिक्षा” की दिशा में मोड़ना होगा. गोएबेल्स ने अपने रेडियो संबोधन में इसे और स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया : “हम केवल तभी संतुष्ट हो सकेंगे जब हम सुनिश्चित हो जायेंगे कि समूची जनता हमें समझती है और अपना सबसे बड़ा पैरोकार मानती है”. गोएबेल्स ने साफ़-साफ़ कहा कि नात्जि़यों का लक्ष्य जर्मनी में केवल एक विचार, एक पार्टी और एक आस्था की स्थापना है (इसकी सटीक प्रतिध्वनि भारत में 2014 में सरदार पटेल की मूर्ति बनाने के अभियान में मोदी के आह्वान “एक भावना, एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक प्रतिबद्धता, एक लक्ष्य, एक मुस्कान”, भाजपा के “कांग्रेस मुक्त भारत” के आह्वान, जिसका असली आशय विपक्ष मुक्त भारत से है, और भाजपा व संघ कार्यकर्ताओं द्वारा हर किसी को, जो संघ की विचारधारा से सहमति नहीं रखता, देशद्रोही बता कर उसके लिए भारत में कोई जगह न होने के प्रलापों में देखी जा सकती है). इसका अर्थ यह था कि मीडिया, संस्कृति और शिक्षा के सारे क्षेत्रों को नात्‍ज़ी विचारों की लाइन में लाया जाना है.


फासीवादी पितृसत्ता : “लव जेहाद” हौवे का नाज़ी संस्करण

नाज़ीवाद के निर्णायक तत्वों में से एक आदमी और औरत के बीच अन्तर – नस्लीय सम्बन्धों की वर्जना और निषेध था.

image_4माइन काम्प्फ़ (हिटलर की आत्म कथा “मेरा संघर्ष”) में हिटलर यहूदी पुरुषों पर आर्य औरतों को बहकाने, पथ-भ्रष्ट करने, और काले आदमियों को भी उन्हें बहकाने, पथ-भ्रष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करने के जरिये जान-बूझ कर “आर्य” नस्ल को प्रदूषित करने का आरोप लगाता है. वह लिखता है : “काले बालों वाला यहूदी घंटों, एक शैतानी आनन्द चेहरे पर लिए हुए, मासूम लड़कियों के लिए घात लगाये रहता है जिन्हें वह अपने रक्त से प्रदूषित करता है और उन्हें उनकी अपनी नस्ल से चुरा लेता है. वह हर संभव जतन कर के उस राष्ट्र के नस्लीय आधार को तहस-नहस करने की कोशिश करता है जिसे वह पराभूत करना चाहता है. जिस तरह वह व्यक्तिगत रूप से जान-बूझ कर औरतों और लड़कियों को मूर्ख बनाता है, उसी तरह वह उन अवरोधों को तोड़ने में भी कभी पीछे नहीं हटता जिन्हें नस्ल ने विदेशी तत्वों के खिलाफ बनाया है. यह यहूदी ही था और है, जो उसी उद्देश्‍य और जानी-बूझी नीयत के साथ, लगातार वर्ण-संकरीकरण के जरिये श्वेत नस्ल को, जिससे वह नफ़रत करता है, नष्ट करने के लिए, उसे उसकी हासिल सांस्कृतिक और राजनीतिक ऊँचाइयों से गिराने के लिए, और उस पर मालिकों की तरह प्रभुत्व ज़माने के लिए, नीग्रो लोगों को राइन तक ले आता है. वह जान बूझ कर व्यक्तियों को लगातार भ्रष्ट करते रहने के जरिये नस्ल को नीचा दिखाने की फ़िराक में रहता है...”

इस सोच का एक मॉडल, जो नाज़ी जर्मनी अपनाना चाहता था, अमेरिका के नस्लों को अलग करने और “वर्ण संकरीकरण” (अन्तर-नस्लीय सम्बन्ध) का निषेध करने वाले नस्लवादी कानून थे. 1934 में, प्रमुख नाज़ी वकीलों की बैठक यहूदी-विरोधी “न्यूरेमबर्ग कानून” बनाने के लिये हुई जिसमें उन्होंने अमेरिका के कुख्यात “जिम क्रो” कानूनों को अपने मॉडल के रूप में लिया जो अन्तर-नस्लीय संबंधों और विवाहों का अपराधीकरण करते थे (जिन्हें आगे 1967 में अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार दे दिया). हिटलर और नाज़ी अमेरिकी नस्लवाद के एक और पक्ष के बेहद मुरीद थे : “यूजेनिक्स” (“हीन-हेय” समझे जाने वाली मानव प्रजातियों के जन्म को जबरन रोकने के लिए जबरिया वन्ध्याकरण). अमेरिका में 1930 के दशक में ऐसे कानून थे जो वंशानुगत (जेनेटिकली) “अनैतिक”, “अपराधी” अथवा अपंग समझी जाने वाली औरतों के जबरन वन्ध्याकरण की अनुमति देते थे. ऐसी औरतों की बहुत बड़ी संख्या गरीब और/या काली औरतों की थी. हिटलर का “यूजेनिक्स” कार्यक्रम, जिसकी चरम परिणति गैस चैम्बरों के जरिये नृशंस नरसंहारों में हुई, इन्हीं नस्लीय कानूनों से प्रेरित थे.

हिटलर अमेरिकन इन्डियनों – “यूएसए” के नाम से जाने जा रहे भूक्षेत्र के मूल निवासियों – के नर संहार का भी जबरदस्त प्रशंसक था. 1928 में ही हिटलर अपने भाषणों में इस बात की भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा था कि किस तरह अमरीकियों ने लाखों की तादाद वाले “रेड स्किनों” को गोलियों से मार गिरा कर हजारों में समेट दिया था और अब वे उनके बचे-खुचे अवशेषों को पिंजरों में प्रदर्शनी के लिए रख रहे थे.(“हिटलर्स अमेरिकन मॉडल- द यूनाइटेड स्‍टेट्स एण्‍ड द मेकिंग ऑफ नाज़ी रेस लॉ; जेम्स क्यु. विटमन; प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी प्रेस, 2017).

“जिम क्रो” कानूनों के ज़माने में, अमेरिका में काले लोगों की श्वेत औरतों से पारस्परिक सहमति से भी संसर्ग की आशंका पर हत्या की जा सकती थी. श्वेत औरत के बलात्कार का आरोप लगा कर भीड़ द्वारा काले लोगों की पीट-पीट कर हत्या आम बात थी. हम देख चुके हैं कि किस तरह नाज़ी जर्मनी उन नस्लवादी कानूनों का प्रशंसक था और उन्हें अपने यहाँ लागू करने का इच्छुक था जो भीड़ द्वारा पीट-पीट कर की जाने वाली हत्याओं को औचित्य दे कर वैध ठहराते थे.

भारत में भी, हम आसानी से देख सकते हैं कि किस तरह संघ परिवार और उसके विभिन्न अनुसांगिक गिरोहों द्वारा “लव जिहाद” का हौवा “जिम क्रो” और नाज़ी माॅडलों की नक़ल है. ये गिरोह खुले तौर पर उस संविधान के प्रति अपनी नफ़रत का इजहार करते रहते हैं जो अन्तर-जातीय और अन्तर-धार्मिक विवाहों की इजाज़त देता है. “लव जिहाद” से लड़ने के नाम पर ये मुस्लिम पुरुषों और हिन्दू औरतों के बीच संबंधों और विवाहों के खिलाफ हिंसा को जायज ठहराते हैं.


मीडिया, शिक्षा और संस्कृति का नात्‍ज़ीकरण

joseph
जोसेफ गोएबेल्स

गोएबेल्स पहले ही जर्मन रेडियो में ऊपर से नीचे तक मनमाफिक बदलाव ला चुका था, अब काफी सारे अखबार बन्द कर दिए गए और बाकी को कठोर सरकारी नियंत्रण और धन वसूली के मातहत ला दिया गया. कुछ बड़े लिबरल अखबारों को तुलनात्मक रूप से हुछ हद तक स्वतन्त्रता थी, मगर उन्हें भी प्रेस के लिए दैनिक सरकारी निर्देशों और सेल्फ़ सेंसरशिप का पालन करना था.

संगीत, फिल्म, थियेटर, दृश्य कलाओं और साहित्य के क्षेत्रों में नात्‍ज़ीकरण का काम यहूदियों को सांस्कृतिक जीवन से निकाल बाहर करने के समानान्तर चलाया जा रहा था. यहूदी कलाकार और बुद्धिजीवी हमेशा से ही अपने आधुनिकतावाद और बौद्धिक/सांस्कृतिक उपलब्धियों के चलते नात्जि़यों की नफ़रत और “सांस्कृतिक बोल्शेविकवाद” के आरोप का शिकार थे; अब वे पूरी तरह से बहिष्कृत-कलंकित किये जाने लगे. सिर्फ इसलिये नहीं कि वे यहूदी थे, बल्कि इसलिए भी कि उनमें से बहुतेरे तर्कवाद, वैज्ञानिक भावना, कलात्मक सर्जना और मुक्त चिंतन के प्रतिनिधि थे जिससे नात्जि़यों को मरणान्तक भय लगता था. अन्यथा क्यों बीसवीं सदी के धर्म परीक्षक पूरे देश में विश्वविद्यालयों और अन्य जगहों पर पुस्तक-दहन अभियान चलाते हुए जर्मनी और दुनिया के अन्य तमाम देशों के श्रेष्ठ साहित्य को आग की लपटों के हवाले करते?

छात्रों द्वारा आयोजित इन अग्नि-उत्सवों के ज्यादातर मामलों में विश्वविद्यालय प्राधिकारियों की सहमति और प्रेरणा थी. उन्होंने कैम्पस को “अवांछित तत्वों” से मुक्त करने में सरकार की भरपूर मदद की; जिन्होंने भी प्रतिवाद-प्रतिरोध की कोशिश की उन्हें निर्ममता पूर्वक निकाल बाहर किया गया. इस बर्बर असहिष्णुता के वातावरण के चलते नात्‍ज़ी सत्ता के पहले साल से ही भारी संख्या में कलाकारों, लेखकों, वैज्ञानिकों, और पत्रकारों का पलायन शुरू हो गया था. जर्मन बौद्धिक समुदाय और जर्मन संस्कृति के ध्‍वजवाहकों की आइन्स्टाइन, एल. फॉइटवांगर, टी. मान, ए. ज्‍़वाइग जैसी तमाम महानतम हस्तियाँ देश छोड़ने के लिए मजबूर हो गयीं.

नवम्बर 1933 में बर्लिन फिलार्मोनिक कंसर्टहॉल में हिटलर की मौजूदगी में उद्घाटित–स्थापित राइक कल्चरल चेम्बर के जरिये जर्मन संस्कृति के समूचे परिक्षेत्र को नात्‍ज़ी शक्ल देने का काम पूरा हो गया. जो कोई भी फिल्म, संगीत, थियेटर, पत्रकारिता, रेडियो, साहित्य या दृश्य कलाओं के क्षेत्र में काम करना चाहता था, उसे इस संस्था के सात चेम्बरों में से किसी का सदस्य होना जरूरी था.

30 जून 1934 : “लम्बे छुरों की रात”

newspaperपहला बड़ा नात्‍ज़ी जनसंहार उसके अपने ही लोगों – एस.ए. के खिलाफ अंजाम दिया गया. इसका कारण पूरी तरह राजनीतिक था.

hitler nazi
एर्न्स्ट रोह्म, 1933

इनेबलिंग कानून के जरिये नात्‍ज़ी पार्टी के सत्ता पर पूरी तरह जकड़ बना लेने के बाद एस.ए. के अस्तित्व का सबसे बड़ा औचित्य ही समाप्त हो गया. उनका मुख्‍य काम नात्‍ज़ी विरोधियों को आतंकित कर के निष्प्रभावी करना था, और यह काम अब पूरा हो चुका था. ब्राउनशर्ट वालों का हिंसक उत्पात अब व्यर्थ और प्रति-उत्पादक होता जा रहा था. इसलिये 1933 की शुरुवात में उस राजाज्ञा को वापस ले लिया गया जिसके जरिये एस.ए. को सहायक पुलिस बल की मान्यता दी गयी थी. एस.ए. के लोगों में इससे उपजे असंतोष के साथ आबादी के बड़े हिस्सों में मूल्य वृद्धि, स्थिर वेतन, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजा वाद, और मसीहा द्वारा परोसी गयीं उम्मीदों के न पूरे होने आदि के चलते मोहभंग भी लगातार बढ़ रहा था. हिटलर की अभी भी भारी लोकप्रियता थी मगर उसके सभी साथियों की नहीं. एस.पी.डी. द्वारा अपने निर्वासन के दौर में जर्मनी के अपने सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर बनाई गयी रिपोर्ट में एक म्‍यूनिकवासी के हवाले से उस समय की प्रतिनिधि जन भावना को दर्शाया गया था : “हमारा एडोल्फ़ तो ठीक है मगर उसके चारों ओर निहायत दुष्टों का डेरा है.”

जनता में फैलता असंतोष, हालांकि अभी वह शुरुवाती दौर में ही था, और ब्राउन शर्ट्स की कसमसाती नाराजगी शासक पार्टी के आकाओं के लिए चिंता का सबब बनने लगी थी. खासकर वे एस.ए. चीफ ऑफ़ स्टाफ एर्न्स्ट रोह्म के जून 1933 में छपे उस लेख से परेशान हुए जिसमें उसने आम असंतोष और गुस्से का हवाला देते हुए लिखा था कि “राष्ट्रीय विद्रोही उभार” ने अभी जर्मन क्रांति का आधा रास्ता ही तय किया था. उसने दावा किया कि एस.ए. जर्मन क्रांति का आधे रस्ते में सो जाना या गैर-लड़ाकों द्वारा दगा दिया जाना हरगिज बर्दाश्त नहीं करेगा. उसने यह भी साफ़ कर दिया कि एस.ए. केवल पार्टी नेतृत्व से मिलने वाले फरमानों की ड्यूटी बजाने वाला संगठन नहीं बनना चाहता. इससे उलट वह “थर्ड राइक” में अपने और अपने संगठन के लिए ताकतवर हैसियत की मांग कर रहा था. रोह्म एस.ए. को एक ऐसे मिलिशिया में विकसित करना चाहता था, जो सेना के हथियार रखने के एकाधिकार को चुनौती दे सके.


dictatorसत्ता  (द रिजीम)

(संक्षेप)

एक विदेशी से, उसके थर्ड राइक की यात्रा से लौटने पर,
सवाल पूछा गया : वहां सचमुच में कौन शासन करता है ,
उसने जबाब दिया :
भय.
भय का शासन सिर्फ उन्हीं पर नहीं है जो शासित हैं, बल्कि
शासकों पर भी है.
क्यों डरते हैं वे खुली दुनिया से ?
सत्ता की विशाल ताकत के साथ
उसके कैम्पों और यातना तहखानों
उसके खाए-अघाये पुलिस वालों
उसके भयभीत या फिर भ्रष्ट जजों
उसके कार्ड सूचिकाओं और संदिग्धों की सूचियों
जो तमाम इमारतों में छतों तक अटी पड़ी हैं
के साथ तो कोई यही सोचेगा
उन्हें एक साधारण आदमी की खुली दुनियां से
डरने की जरूरत नहीं है.
मगर उनका थर्ड रीख आवाज़ देता है
तातार के घराने, असीरियन, उस महान दुर्जेय किले को
जो, किंवदंती के मुताबिक किसी भी सेना से
पराभूत नहीं हो सकी, मगर
अपने ही भीतर कहे गए एक शब्द से,
भहरा कर धूल में मिल गयी.

– बर्तोल्त ब्रेश्‍त


यह नात्‍ज़ी नेतृत्व और सेना दोनों के लिए असहनीय था. बेहद शातिर और गुप्त तरीके से एस.ए. नेताओं के खिलाफ सबूत इकठ्ठा करने और जरूरी सांगठनिक तैयारी कर चुकने के बाद, हिटलर ने एस.ए. नेताओं और पापेन जैसे अपने पुराने प्रतिद्वंदियों (पापेन हिटलर को ले कर व्यक्तिपूजा और हिंसा के अतिरेक की खुली आलोचना कर रहा था) दोनों पर हमला करना तय किया.

हमला 30 जून की रात से शुरू हुआ और अगले दो दिनों तक वह सब चलता रहा जिसे आज इतिहास “लम्बे छुरों की रात” के नाम से जानता है. इस अचानक हमलावर अभियान का नेतृत्व हिटलर ने खुद व्यक्तिगत रूप से हेनरिक हिमलर की कमान में एस.एस. के लोगों को ले कर किया था. पापेन को मौत न दे कर घर में नज़रबंद कर दिया गया. स्त्रास्सेर और रोह्म की हत्या कर दी गयी, एस.ए. के करीब 180 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया जिनमें 13 राइकस्‍ताग डेपुटी थे, और हजारों की गिरफ्तारी हुई.

आनन-फानन में हिटलर ने कैबिनेट से वह कानून अनुमोदित करा लिया जिसमें इन सारी हत्याओं को कानूनी रूप से वैध बना दिया गया : “30 जून और 1 व 2 जुलाई को राष्ट्र और राज्यों के खिलाफ गद्दारी के खिलाफ उठाये गए कदम सरकार की आपात सुरक्षा का एक वैध कानूनी रूप है”.


किताबों का जलाया जाना

book fire
किताबें जला रहे हिटलर की यू थ ब्रिगे ड के सदस्‍य

जब सत्ता ने
फरमान जारी किया गैर-कानूनी किताबों को जलाने का
सुस्त सांड़ों के दस्ते गाड़ियाँ भर-भर कर ले आये
उत्सव-अलावों के लिये.

तब एक निर्वासित लेखक, सबसे बेहतरीनों में एक
बहिष्कृत किताबों की सूची छानते हुए
आग-बबूला हो गया – उसे शामिल नहीं किया गया था !
वह झपटा अपनी मेज की ओर, तिरस्कार के रोष से लबरेज ,
आग उगलते पत्र लिखने मंदबुद्धि शासकों को-

जला दो मुझे ! लिखा उसने आग उगलती कलम से
मैंने क्या हमेशा सच की बात नहीं की है ?
अब यहाँ हो तुम, मुझसे झूठे की तरह बर्ताव करते हुए !
जला दो मुझे !

– बर्तोल्त ब्रेश्‍त


फ्यूरर और राइक चान्सलर

एक पखवारे बाद, हिटलर ने राइकस्‍ताग में अपनी शर्मनाक भयावह गैर-कानूनी कार्यवाही का पूरी ढिठाई और मजबूती के साथ एक बार फिर “राष्ट्र” और “जनता” के नाम पर बचाव किया : “बगावत हमेशा कभी न बदलने वाले कानूनों के जरिये ही तोड़ी जाती है. अगर कोई मेरी नियमित न्यायालयी रास्ता न लेने के लिए आलोचना करता है, तो मैं यही कह सकता हूँ : उस घड़ी में मैं जर्मन राष्ट्र के भविष्य के लिए उत्तरदायी था और इसलिए जर्मन जनता का सर्वोच्च न्यायाधीश था.”

1 अगस्त को, जब हिन्‍डेन्‍बर्ग मृत्युशैया पर था, हिटलर ने राइक प्रेसिडेंट और चान्सलर की सेनाओं के आमेलन और इसका कमान प्राधिकार “फ्यूरर और राइक चान्सलर” के हवाले करने का कानून घुटनाटेकू कैबिनेट से पारित करा लिया. बूढ़ा आदमी अगले दिन मर गया और 17 अगस्त को एक जनमतसंग्रह में इस कानून को भारी बहुमत से अनुमोदित करा लिया गया.

टकराव और विरोध के सारे संभावित स्रोतों का सफाया कर चुकने और किसी भी अन्य का दूर-दूर तक सत्ता भागीदारी का दावेदार न होना सुनिश्चित कर लेने के बाद, “महान तानाशाह” अब विश्व विजय के अभियान पर “स्वामी नस्ल” (मास्‍टर रेस) का नेतृत्व करने के लिए स्वतंत्र था.


“जहाँ वे किताबें जलाते हैं, अंत में, एक दिन, वे वहीं लोगों को जलाएंगे”

10 मई 1933 की रात को, करीब 40,000 लोग ओपेरनप्लाज – अभी के बेबेल प्लाज़ – बर्लिन के मित्ते जिले में जुटे. ख़ुशी से झूमते, नाच-गानों, बैंड-बाजों, और प्रतिज्ञाओं व जादू-टोना प्रलापों के बीच उन्होंने सैनिकों और एस.एस. पुलिसवालों, एस.ए. पैरामिलिशिया के ब्राउनशर्ट सदस्यों और जर्मन स्टूडेंट एसोसियेशन व हिटलर यूथ आन्दोलन के उन्मत्त युवाओं को, प्रोपेगैंडा मंत्री जोसेफ गोएबल्स के आदेश पर 25,000 से ज्यादा “गैर-जर्मन” घोषित की गयीं किताबें जलाते देखा ...…

उस रात और उसके आगे की रातों में बर्लिन और देश भर के 30 से ज्यादा अन्य विश्वविद्यालय परिसरों में आग की लपटों के हवाले की गयी किताबों में 75 से ज्यादा जर्मन और विदेशी लेखकों के काम शामिल थे, उनमें (कुछेक नाम) वाल्टर बेन्‍यामिन, बर्तोल्त ब्रेश्‍त, अल्बर्ट आइन्स्टाइन, फ्रेडरिक एंगेल्स, सिगमंड फ्राॅइड, आंद्रे ज़ीद, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, फ्रान्ज़ काफ्का, लेनिन, जैक लन्दन, हाइनरिक क्लाउस, थॉमस मान, लुडविग मार्कूस, कार्ल मार्क्स, जॉन दोस पास्सोस, आर्थर श्निज्लर, लीओन ट्रोट्स्की, एच.जी.वेल्स, एमील ज़ोला, स्टीफन ज्‍़वाइग, शामिल थे. उस रात जिनकी किताबें जलाई गयी थीं उनमें 19 वीं सदी के महान जर्मन कवि हाइनरिक हाइन भी थे जिन्होंने महज एक सदी पहले अपने नाटक अल्मान्सर में इन शब्दों को लिखा था : “जहाँ वे किताबें जलाते हैं, अंत में, एक दिन, वे वहीं लोगों को जलायेंगे”.

– जॉन हेन्‍ली, “बुक बर्निंग: फैनिंग द फ्लेम्स ऑफ़ हेटरेड”;
दि गार्जियन; 10 सितम्बर, 2010


फुट नोट :

1. सामाजिक कार्यक्रम, राजनीतिक चर्चायें और मजदूरों की शिक्षा के लिए 1900 के आस पास एस.पी.डी. द्वारा इन्‍हें बनाया गया था. ये ट्रेड यूनियन आन्‍दोलन के केन्‍द्र बन गये थे.

hitlet

1932 भारी अस्थिरता, अनिश्चितता और उथल-पुथल का साल बनता जा रहा था. जुलाई अंत के चुनावों के लिये गोएबेल्स ने नारे दिए : “जर्मनी जागो! एडोल्फ़ हिटलर को ताकत दो” और “इस व्यवस्था, इसकी पार्टियों और इसके प्रयोगों का नाश हो”. अपने भाषणों में हिटलर वेइमार “व्यवस्था” को आम आर्थिक और राजनीतिक पतन-पराभव के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए “पार्टियों के भाई-भतीजावाद” से मुक्ति दिलाने के वादे करता था. अपनी एक अंतिम चुनावी सभा में वह दहाड़ा : वह “इन तीसों पार्टियों को जर्मनी से बुहार फेंकेगा”. यह एक पार्टी तानाशाही का स्पष्ट संकेत था. हिटलर ने दावा किया कि नात्जि़यों का लक्ष्य संसद की सीटें या मंत्री पद नहीं बल्कि “जर्मन जनता का भविष्य” था. एन.एस.डी.ए.पी. खुद को किसी विशिष्ट हित अथवा जनता के किसी खास वर्ग की पार्टी के रूप में नहीं बल्कि “जर्मन जनता की पार्टी” के रूप में पेश करती थी. इस बार वह शायद लिबरल मध्य वर्ग के वोट बटोरने की गरज से जान-बूझ कर तीखे नफ़रत भरे यहूदी विरोध के प्रलापों से बचता रहा (ठीक हमारे अपने हिटलर की तरह, जो कभी-कभी मुस्लिम वोटों की गोलबंदी के लिए हाथ आजमाता रहता है).

नतीजे शानदार थे. 37.3% वोट हिस्सेदारी (14 सितम्बर राइकस्‍ताग चुनाव से 19% ज्यादा) और 230 सीटों के साथ एन.एस.डी.ए.पी. सबसे बड़ी संसदीय पार्टी थी. बावजूद इसके सरकार बनाने के लिए पचास फ़ीसदी से ज्यादा वोट अभी दूर की कौड़ी थी. गठबंधन सरकार बनाने की एक चक्र वार्ता असफल रही क्यों कि हिटलर खुद के चान्सलर बनने पर अड़ा हुआ था जब कि राइक प्रेसिडेंट एन.एस.डी.ए.पी. के समर्थन के लिए उत्सुक होने के बावजूद हिटलर को चान्सलर बनाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था. ऐसे में नयी सरकार नहीं बन सकी और हिन्‍डेन्‍बर्ग ने पापेन को “प्रेसिडेंशियल सरकार” के चान्सलर के रूप में शासन चलाने को कहा.

गतिरोध लम्बा होते जाने के साथ “स्टॉर्म ट्रूपर्स” के सब्र का बाँध टूटने लगा. हिटलर के इस आश्वासन को पूरी तरह से झुठलाते हुए कि वे कानूनी रास्ते से तनिक भी इधर-उधर नहीं होंगे, एस.ए. ने अगस्त में के.पी.डी. सदस्यों, ट्रेड यूनियन भवनों, वामपंथी अखबारों, राइक ध्वज, और यहूदी बस्तियों के खिलाफ बर्बर उन्मादी राजनीतिक ख़ूनी खेल खेलना शुरू कर दिया. वर्दीधारी एस.ए. गुंडों के गिरोह ने पोटेम्पा के एक के.पी.डी. कार्यकर्ता और खनन मजदूर को रात में बिस्तर से घसीट कर उसकी मां और भाई के सामने मार डाला. हिटलर ने शांति और क़ानूनवाद का अपना मुखौटा नोच कर फेंकते हुए हत्यारों को खुला समर्थन-संरक्षण दिया.

सत्ता के लिए अन्धी-भूखी दक्षिणपंथी पार्टियाँ इन हत्याओं – दंगों को छिटपुट उन्मादी तत्वों के काम के रूप में देखते हुए (जैसे एस.ए. का नात्‍ज़ी परिवार से कोई रिश्ता था ही नहीं!) दक्षिणपंथी महागठबंधन की गणित में लगी रहीं. बावजूद इसके कोई नतीजा निकलता नहीं दिख रहा था. न तो पापेन नेशनल सोशलिस्टों को सरकार के साथ गठबंधन में लेने में कामयाब हो रहा था और न ही हिटलर के चान्सलर बनने की दिशा में कोई प्रगति हो पा रही थी जो उसकी तानाशाही सत्ता के लिए प्रस्थान मंच था. ऐसे में, जब किसी पार्टी के पास जरूरी बहुमत संख्या नहीं थी, एकमात्र विकल्प दुबारा चुनाव करने का था. मगर हिन्डेन्बर्ग-पापेन सरकार इसे “राज्य की आपात स्थिति में असाधारण उपायों की जरूरत” बता कर अनिश्चित काल तक टालती गयी. राइकस्‍ताग जुलाई चुनावों के बाद पहली बार 12 सितम्बर 1932 को बैठी.

कार्यवाही शुरू होने से पहले, के.पी.डी. डेपुटी अर्नेस्ट तोर्गलर ने सदन के फ्लोर पर कब्ज़ा करते हुए उसकी पार्टी द्वारा लाये गए मोशन प्रस्ताव पर तत्काल वोटिंग की मांग की जिसमें सरकार के आपात उपायों को ख़ारिज करने और पापेन सरकार के प्रति अविश्वास की बातें शामिल थीं. सबको सकते में डालते हुए नात्जि़यों ने इस कम्युनिस्ट प्रस्ताव का समर्थन किया. हिटलर का मकसद सब को यह दिखाना था कि पापेन सरकार के पास कितना कम संसदीय समर्थन था. एस.डी.पी. और मध्य पार्टी ने भी प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया और यह भारी बहुमत से पारित हो गया. पापेन संसद भंग करने पर मजबूर हो गया. नए चुनावों की तारीख़ 6 नवम्बर घोषित हुई.

धक्का, हताशा और फूट

द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत के पहले तक जर्मनी के लिए अंतिम स्वतंत्र चुनाव बनने जा रहे इस चुनाव के लिए नात्‍ज़ी प्रचार अभियान दो केन्द्रित बिंदुओं का अजीब मिश्रण था. एक ओर, जुलाई अभियान से बिलकुल उल्टा रुख लेते हुए, हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ जबरदस्त विषवमन करते हुए इस प्रलाप को सरकार विरोधी रंग देने की कोशिश की. उसने आरोप लगाया कि पापेन के आर्थिक कार्यक्रम को यहूदी बैंकर जैकब गोल्डस्मिथ ने यहूदी हितों के लिए तैयार किया था. दूसरी ओर, इस बार का नात्‍ज़ी प्रचार अभियान असाधारण रूप से पूंजीपति-विरोधी तेवर भी लिए हुए था (गोएबेल्स ने अपने डायरी में लिखा : “ठीक अभी, सबसे रेडिकल सोशलिज्म सामने लाया जाना है”). संभवतः ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि महामंदी अपना भयावह रूप दिखा रही थी और श्रमशील जनता व मध्यम वर्ग में पूंजीपति –विरोधी भावना अपने चरम पर थी. बर्लिन के प्रभारी पार्टी नेता के रूप में गोएबेल्स ने सुनिश्चित किया कि चुनाव से कुछ दिनों पहले शहर के पब्लिक ट्रांसपोर्ट मजदूरों की हड़ताल का एन.एस.डी.ए.पी. समर्थन करे. कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले “रिवोल्युशनरी यूनियन अपोजिशन (आर.जी.ओ.) के साथ नात्‍ज़ी फैक्ट्री सेल ऑर्गनाइजेशन (एन.एस.बी.ओ.) ने पिकेट बना कर बर्लिन के परिवहन संचार को पूरी तरह जाम कर दिया.

इस तरह नात्जि़यों ने समाज के हर हिस्सों-वर्गों को लुभाने के लिए अपने सारे टोटके-तरीके आजमाए. मगर नतीजा जुलाई से भी निराशाजनक निकला. नवम्बर चुनावों से उनके बीस लाख वोट कम हो गए, वोट हिस्सेदारी 4.2% घट कर 33.1% पर आ गयी और सीटें 230 से घट कर 196 रह गयीं. डी.एन.वी.पी. के साथ इस चुनाव के बड़े विजताओं में के.पी.डी. भी थी जिसकी वोट हिस्सेदारी 14.5% से बढ़ कर 16.9% और सीटें 100 हो गयीं. एस.पी.डी. की 21.58% वोट भागीदारी के साथ दोनों वाम पार्टियाँ मिल कर नात्जि़यों से कहीं आगे थीं. सीटों के मामले में भी 584 सीटों वाली संसद में दोनों की कुल 233 सीटें नात्जि़यों के 196 से ज्यादा थी. मगर वाम पार्टियों ने मिल कर इस ऐतिहासिक अवसर का इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया जो उन्हें फिर कभी भविष्य में नहीं मिलने वाला था.

नवम्बर के धक्के के बाद थुरिन्गिया का 4 दिसंबर, 1932 का चुनाव नात्जि़यों के लिए एक और भारी धक्का बन कर आया. जुलाई के मुकाबले इस बार करीब 40% वोट कम हो गए और इसे हिटलर की निजी पराजय के रूप में देखा गया क्यों कि उसने खुद इसके प्रचार अभियान का निर्देशन-संचालन किया था. इन लगातार असफलताओं से जर्मनी और बाहर भी कई राजनीतिक प्रेक्षक-विश्लेषक यह नतीजा निकालने लगे कि सारी ताकत हथियाने की हठधर्मी में हिटलर की बस छूट गयी थी. ब्रिटिश राजनीतिशास्त्री और लेबर राजनीतिज्ञ हेरोल्ड लास्की ने फब्ती कसी कि हिटलर के जीवन का अंत बावेरिया के किसी गाँव में एक बूढ़े के रूप में होगा.

पार्टी के अन्दर भी ऐसा सोचने वाले कम नहीं थे. पहली बार, पार्टी सदस्यता अगस्त 1932 में 4,55,000 से घट कर अक्तूबर में 4,35,000 हुई और घटने का यह क्रम जारी रहा. देश भर से हताशा और शिकायतों की खबरें आ रही थीं. शीर्ष नेतृत्व के अन्दर, ग्रेगोर स्त्रास्सेर ने, जिसने 1925 में गोएबेल्स के साथ पार्टी कार्यक्रम में राष्ट्रवाद के सापेक्ष समाजवादी धारा को मजबूत करने के अभियान में मुख्य भूमिका निभाई थी, एक राजनीतिक बहस की शुरुवात की (बॉक्स देखें).


अचानक हिटलर जर्मनी का चान्सलर बन बैठा

स्त्रास्सेर विवाद ने एन.एस.डी.ए.पी. को एक और तगड़ा झटका दिया. पार्टी अपने कैरियर के चरम उत्कर्ष से अतल गहराई की ओर भयावह गति से गिरती लग रही थी. मगर हिटलर अपने जिद पर अड़ा रहा. वह “पूरी तरह दृढ़” था कि “अपने आन्दोलन के पहले बच्चे को किसी सरकार में शक्तिविहीन हिस्सेदारी की भीख के लिए नहीं बेचेगा”. आगे क्या? का सवाल अनसुलझा बना रहा. साल 1933 की शुरुवात नितान्त निराशा में हुई.


स्त्रास्सेर बगावत

नवम्बर की चुनावी हार के बाद, ग्रेगोर स्त्रास्सेर ने मत व्यक्त किया कि पार्टी को अपनी चान्सलर पद की अड़ियल पूर्वशर्त छोड़ कर विरोध पक्ष से सरकार में जाने की दिशा लेनी चाहिये. उसने हिटलर से यह बात बिलकुल साफ़-साफ़ शब्दों में कही. हिटलर ने इसे अपने प्राधिकार की चुनौती के रूप में लिया और इसके अनुरूप अपनी विषाक्त प्रतिक्रिया दी. गोएबल्स के अनुसार हिटलर स्त्रास्सेर से उसकी ताकत छीनना चाहता था, मगर यह आसन काम नहीं था. राइक का सांगठनिक डायरेक्टर होने के नाते स्त्रास्सेर का पार्टी कार्यकर्ताओं-कतारों में काफी सम्मान था : वह जर्मन उद्योगपतियों की दृष्टि में भी ऐसे गिने-चुने नेशनल सोशलिस्टों में था जिससे कोई बिजनेस की बात कर सकता था.

राइकस्ताग के पहले सत्र की पूर्व संध्या पर, हिटलर ने एन.एस.डी.ए.पी. डेपुटियों को इस तर्क के साथ कड़ा रुख अपनाने का आदेश दिया कि : “हमारा महान आन्दोलन कभी विजयी नहीं हुआ होता अगर हमने समझौते की ढलान का रास्ता लिया होता”. स्त्रास्सेर ने अपने स्तर पर एन.एस.डी.ए.पी. स्टेट इंस्पेक्टरों को बुला कर तर्क दिया कि हिटलर 1932 से ही सिवाय अपने “किसी भी कीमत पर चान्सलर बनने के” और कोई “साफ़ लाइन” ले ही नहीं रहा है. चूंकि ऐसा हो सकने की सचमुच कोई सम्भावना नहीं थी, हिटलर आन्दोलन को बिखराव और पतन के खतरे की ओर ले जा रहा था. स्त्रास्सेर के अनुसार सत्ता की ताकत हासिल करने के दो रास्ते थे : कानूनी- जिसके लिए हिटलर को वाईस-चान्सलर का पद स्वीकार कर के उसे एक राजनीतिक लाभकारी हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहिये था. और दूसरा रास्ता, गैर-कानूनी-जिसके लिए एस.एस. और एस.ए. की मदद से बल पूर्वक सत्ता दखल करना होगा. वह अपने फ्यूहरर का दोनों ही रास्तों पर अनुसरण करने के लिए तैयार था, मगर अब अनन्त काल तक इंतज़ार नहीं कर सकता. इसलिए उसने व्यथित श्रोताओं को बताया कि वह पार्टी छोड़ने जा रहा था.

इस बैठक की खबर मिलने पर, हिटलर अपने होटल के सुइट में स्टेट इंस्पेक्टरों से स्त्रास्सेर के तर्कों की काट के लिए मिला. उसने कहा कि वाईस – चान्सलर बनने पर उसे जल्दी ही पापेन के साथ मूलभूत विभेदों में आ जाना होता जो उसकी ओर से ली जाने वाली हर पहलकदमी को रद्द कर के दिखाता कि हिटलर शासन करने में अक्षम है. “मैं इस रास्ते पर उतरने से इन्कार करता हूँ और तब तक इंतजार करना बेहतर समझता हूँ जब तक कि मुझे चान्सलर पद का प्रस्ताव नहीं मिल जाता” हिटलर ने आगे कहा “वह दिन आयेगा और शायद जितना हम सोच रहे हैं, उससे जल्दी आयेगा”. उसने इंगित किया कि गैर कानूनी रास्ता और भी निष्प्रयोज्य था क्योंकि हिन्‍डेन्‍बर्ग और पापेन सेना को गोली मारने का आदेश देने में तनिक भी नहीं हिचकिचायेंगे. अपने आग्रह और मेलोड्रामा की समूची क्षमता का इस्तेमाल करते हुए, हिटलर अन्ततः स्टेट इंस्पेक्टरों की स्वामिभक्ति अपने साथ बनाये रखने में सफल हुआ.

परदे के पीछे से एक और योजना पर काम चल रहा था. स्त्रास्सेर की हैसियत को जानते हुए पापेन के अधीन सरकार के भूतपूर्व रक्षामंत्री और वर्तमान राइक चान्सलर जनरल श्‍लाइकर ने एन.एस.डी.ए.पी. के माडरेट तत्वों का सरकार बनाने के लिए स्त्रास्सेर की अगुवाई में समर्थन जुटाने की कोशिश की. उसने स्त्रास्सेर को हिन्‍डेन्‍बर्ग से मिलवाया जिसने इस विचार से सहमति दी. मगर स्त्रास्सेर अपने साथियों से किसी भी तरह का समर्थन जुटा पाने में विफल रहा. श्‍लाइकर का खेल पिट गया.

हिटलर को स्त्रास्सेर की हिन्‍डेन्‍बर्ग के साथ गुप्त बैठक की जानकारी हुई और उसकी अपने खिलाफ साजिश की आशंका की पुष्टि हो गयी. चारों तरफ से अपने को घिरा पा कर स्त्रास्सेर ने सारे पार्टी पदों से इस्तीफ़ा दे दिया, राइकस्ताग डेपुटी की अपनी जगह छोड़ दी, और अगले दो सालों तक किसी भी राजनीतिक गतिविधि से दूर रहने का वादा किया. वह पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गया. ठीक 30 जून 1934 को – लम्बे छुरों की रात में, हिटलर स्त्रास्सेर को गोलियों से भुनवा कर अपने सबसे संभावनामय आतंरिक प्रतिद्वन्दी का काम तमाम कर देगा.


अचानक एन.एस.डी.ए.पी. को सुरंग के अंत पर रोशनी नज़र आयी. 30 जनवरी 1933 को 43 साल की राजनीतिक रूप से कम उम्र में हिटलर मध्य यूरोप के सबसे ताकतवर देश का चान्सलर बन गया. के.पी.डी. ने आम हड़ताल का आह्वान किया और एस.पी.डी. व सारी ट्रेड यूनियनों से फासीवाद के खिलाफ साझा प्रतिरोध मोर्चे में शामिल होने का आग्रह किया. सोशल डेमोक्रेटों ने हड़ताल में शामिल होने के बजाय अपने सदस्यों को संवैधानिक सीमाओं के अन्दर ही लड़ाई जारी रखने और “अनुशासनहीन व्यवहार” से दूर रहने का निर्देश दिया. बच-बचा कर रहने की इस नीति के अनुरूप जनरल जर्मन ट्रेड यूनियन एसोसियेशन के चेयरमैन थियोडोर लेइपर्ट ने 31 जनवरी को कहा : “इस पल की जरूरत प्रदर्शन नहीं, संगठन है”. कहना न होगा कि हड़ताल तो दूर, इस बुरी तरह विभाजित वाम की ओर से कोई भी उल्लेखनीय प्रतिरोध नहीं खड़ा किया जा सका.

मगर यह “अनहोनी अवसर” संभव हुआ कैसे ? वास्तव में यह परदे के पीछे चल रहे उस निकृष्टतम खेल का उत्पाद था जिसे मुट्ठी भर घाघ नेता, खास कर, डी.एन.वी.पी. नेता अल्फ्रेड हुगेनबर्ग, भूतपूर्व चान्सलर पापेन, और निवर्तमान चान्सलर श्‍लाइकर खेल रहे थे[1]. पापेन, ''किंग मेकर'' बन कर असल ताकत अपने हाथों में बनाये रखने की महत्वाकांक्षा में हिटलर से मिला और वैमनस्य भुला कर श्‍लाइकर की जगह लेने की डील का आग्रह किया. हिटलर के लिए पापेन के साथ यह डील गतिरोध से निकल कर अपने चिर-वांछित लक्ष्य तक पहुँचने का अवसर था. वह जनता था कि इस भूतपूर्व चान्सलर की प्रेसिडेंट के साथ गहरी छनती है और वह हिटलर को चान्सलर बनाने में हिन्‍डेन्‍बर्ग की हिचक तोड़ने में मदगार हो सकता है. इसलिए वह इस अवसर का इस्तेमाल करने से हिचकिचाया नहीं.

गुप्त योजना काम कर गयी. तमाम तरफ से और तमाम कारणों को ले कर हमलों की बौछार में जल्दी ही श्‍लाइकर ने हिन्‍डेन्‍बर्ग का भरोसा खो दिया और पापेन के लगातार उकसावे में प्रेसिडेंट ने श्‍लाइकर को बर्खास्त कर के अपने विश्वस्‍त भूतपूर्व चान्सलर को नयी सरकार के गठन का रास्ता तलाशने को कहा. पापेन ने बड़ी मुश्किल से, अन्ततः हिन्‍डेन्‍बर्ग को हिटलर को चान्सलर बनाने के लिए इस शर्त पर राजी करा ही लिया कि एन.एस.डी.ए.पी. नेता अपनी सरकार “संविधान के दायरे में और राइकस्‍ताग (संसद) की सहमति से” बनाएगा. पापेन और हिटलर ने अब अपनी डील को अंतिम रूप देने में तनिक भी देर नहीं की. यह तय हुआ कि एन.एस.डी.ए.पी. को चान्सलर और केवल दो मंत्री पद मिलेंगे और पापेन वाईस चान्सलर बनेगा.

जाहिर तौर पर यह नात्‍ज़ी पक्ष से बहुत बड़ी छूट थी जिसे ग्यारह सदस्यों की कैबिनेट में केवल दो मंत्रियों से संतोष करना था. अपने भारी बहुमत के साथ, हिटलर के कंजर्वेटिव साझीदारों को भरोसा था कि वे हिटलर को अपनी कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर लेंगे. जब एक परिचित ने पापेन को हिटलर की सत्ता की भूख के प्रति आगाह किया तो उसने जबाब दिया : “तुम गलत हो. हम लोगों ने उसे अपने मतलब के लिये फंसाया है.” बहुतेरे घरेलू और विदेशी विश्लेषकों का भी मानना था कि पापेन और आर्थिक मंत्री के रूप में ह्युगेन्बर्ग के हाथों में ही, हिन्‍डेन्‍बर्ग के समर्थन-सहयोग से, जिसकी हिटलर के लिए हिकारत और पापेन के साथ नजदीकी जग जाहिर थी, असली सत्ता की कमान रहेगी.


हिटलर चान्सलर की कुर्सी तक कैसे पहुँचा

सितम्बर 1930 के चुनावी नतीजों ने तुरंत एक अभूतपूर्व स्थिति पैदा कर दी. बुर्जुआ पार्टियों और अर्थव्यवस्था के कप्तानों दोनों को ही अचानक एक ऐसी पार्टी एन.एस.डी.ए.पी. का सामना करना था, जो 8 लाख वोटर संगठन से उछाल ले कर साठ लाख की संगठित राजनीतिक ताकत और दूसरी सबसे बड़ी ताकतवर पार्टी बन चुकी थी. एन.एस.डी.ए.पी. अब एक ऐसी ताकत थी जिसे नज़रन्दाज नहीं किया जा सकता था. मगर इतनी ही महत्वपूर्ण बात यह थी कि यह ऐसी ताकत थी जो संसदीय अवरोधों – बाधाओं से पार पा कर प्रभुत्व के तानाशाही रूप में “कानूनी” तौर पर संक्रमण की बिलकुल नयी, आश्चर्यजनक, और स्वागत योग्य संभावनायें भी जगा रही थी.

… मगर इसकी संभावित भूमिका और वह नेतृत्व जिसकी अगुवाई में इसे अंजाम दिया जाना था, प्रतिद्वन्दी दावेदारियों की उलझन में था ... इस मामले को सरल करने के लिये चार प्रमुख गुटीय रणनीतियाँ हो सकती थीं :

1: अल्फ्रेड ह्युगेन्बर्ग और उसकी पार्टी (डी.एन.वी.पी.) और इसके साथ खड़े भारी उद्योग व भूस्वामी अभिजात्यों के समूहों ने राइक प्रेसिडेंट पॉल वॉन हिन्‍डेन्‍बर्ग पर भरोसा करते हुए, जोर दे कर एन.एस.डी.ए.पी. को जनता को लुभाने वाले जूनियर भागीदार के रूप में साथ ले कर गठबंधन बनाने का दबाव बनाया. दूसरे शब्दों में एक ऐसा गठबंधन, जिसमें ह्युगेन्बर्ग की पार्टी का बुर्जुआ खेमे में वर्चस्व और “राष्ट्रीय तानाशाही” पर नेतृत्व सुनिश्चित होता और जिसकी चरम परिणति अपने काल क्रम में राजशाही की पुनर्स्थापना में होती.

2: मध्य पार्टी (ब्रूनिंग)और भारी उद्योग, केमिकल, इलेक्ट्रिकल उद्योग, निर्यात क्षेत्र और इनके वित्त पोषक बैंकर भी सरकार बनाने के गठबंधन में एन.एस.डी.ए.पी. को जीतना चाहते थे. एन.एस.डी.ए.पी. के समर्थन-सहयोग से उन्हें वेइमार जनतंत्र से एक ऐसे अधिनायकवादी तंत्र की ओर बढ़ने की उम्मीद थी जो भी आगे चल कर लम्बे दौर में राजशाही की पुनर्स्थापना तक पहुँचती.

3: इन रणनीतियों के विपरीत, उद्योगपतियों और बैंकरों के एक अन्य समूह – जो अमेरिकी वित्तीय पूँजी के साथ गहरे जुड़ा हुआ था, के प्रवक्ता-हेमर शास्त और फ्रिट्ज हीसेन हिटलर को किसी भी पुरानी बुर्जुआ पार्टी के मातहत करने के पक्ष में नहीं थे. इसकी जगह उन्होंने हरमन गोरिंग का इस्तेमाल करते हुए, जो उनके और एन.एस.डी.ए.पी. के बीच की कड़ी थी, हिटलर पर सरकार में शामिल होने की पूर्वशर्त के रूप में चान्सलर पद के लिए अड़ने का दबाव बनाया. (गॉसवेइलेर इसके दो पन्नों बाद जोड़ता है...). … शास्त और हीसेन दोनों … को ही डर था कि अपनी पार्टी में गिरावट के संकेत देखते हुए, श्‍लाइकर और स्त्रास्सेर जैसों के प्रभाव में हिटलर कहीं समझौता समाधान के लिए राजी न हो जाये. इसलिए वे अंतिम निर्णायक सफल नतीजे के प्रति हिटलर का आत्मविश्वास जगाये-बनाए रखने के लिए लगातार वह सब कुछ जो संभव था, करते रहे.

4: जनरल कुर्ट वोन श्‍लाइकर एन.एस.डी.ए.पी. के सांगठनिक प्रभारी ग्रेगोर स्त्रास्सेर के साथ दिसंबर 1932 में उसकी हत्या हो जाने तक सैन्य तानाशाही स्थापित करने का प्रयास करता रहा.

कुर्ट गॉसवेइलेर


मगर जल्दी की इन सारी उम्मीदों पर तुषारापात हो गया. यह किसी औपचारिक-आधिकारिक पार्टी गठबंधन की सरकार न हो कर प्रेसिडेंट द्वारा नियुक्त मंत्रिमंडल था जिसमें (पापेन और ह्युगेन्बर्ग को छोड़ कर) बाकी सब बिना पार्टी सम्बद्धता अथवा राजनीतिक अनुभव वाले भानुमती के कुनबे से थे. दूसरे, कैबिनेट के अन्य सदस्यों का हिटलर की शातिर धूर्तता और मिथ्यवादिता से कोई मुकाबला ही नहीं था. चन्द हफ़्तों में ही हिटलर ने हिन्‍डेन्‍बर्ग की नज़र में वह जगह ले ली जो पापेन की हुआ करती थी और सभी की पीठें दीवार से लग चुकी थीं. गृह मंत्री के रूप में विल्हेल्म फ्रिक और बिना विभाग के मंत्री के रूप में हरमन गोएर्रिंग (आगे अपने क्रम में जिनकी संख्या बढ़ती ही जायेगी) के साथ नात्‍ज़ी त्रिमूर्ति अब थुरिंगिया प्रयोग को व्यापक राष्ट्रीय पैमाने पर दुहराने के लिए पूरी तरह तैयार थी.

30 जनवरी : कैबिनेट को कब्जे में लेना

30 जनवरी 1933 को हिटलर ने शपथ ली, और पाँच घंटों के अन्दर वह गुप्त रूप से कैबिनेट की बैठक कर रहा था. कैबिनेट को राइकस्‍ताग में बहुमत नहीं हासिल था और इसका समाधान निकाला जाना था. ह्युगेन्बर्ग ने के.पी.डी. को प्रतिबंधित कर उसकी सीटें आपस में बाँट कर बहुमत बनाने का सुझाव दिया. हिटलर कहीं ज्यादा चतुर राजनीतिज्ञ था; वह अपना शासन ऐसे भयावह कदम के साथ नहीं शुरू करना चाहता था. उसने कैबिनेट से कहा कि कम्युनिस्टों पर प्रतिबन्ध घरेलू अशांति और शायद आम हड़ताल का भी कारण बन सकता है. उसने कहा : “के.पी.डी. के पीछे साठ लाख लोगों को प्रतिबंधित करना असंभव से कम नहीं है. मगर शायद हम (पूरी कैबिनेट) राइकस्‍ताग को भंग करने के बाद अगले चुनाव में वर्तमान सरकार के लिए बहुमत हासिल कर सकते हैं.” अपने कंजर्वेटिव साझीदारों की आशंका दूर करने के लिए उसने भरोसा दिलाया कि अगर उसकी अपनी पार्टी चुनाव में बहुत बेहतरीन प्रदर्शन करती है तब भी कैबिनेट की संरचना में कोई बदलाव नहीं होगा. तब यह हिटलर नहीं बल्कि पापेन था जिसने एक रेडिकल सुझाव दिया. वाईस चान्सलर ने घोषित किया : “यह बात पूरी तरह साफ़ हो जानी चाहिये कि अगला चुनाव आखिरी चुनाव होगा जिसके बाद संसदीय व्यवस्था की और वापसी की सम्भावना हमेशा के लिए समाप्त कर दी जाएगी.” हिटलर ने ख़ुशी से इस प्रस्ताव का समर्थन यह कहते हुए किया कि निश्चय ही आगामी राइकस्‍ताग चुनाव अंतिम होगा और संसदीय जनतंत्र की ओर वापसी को किसी भी कीमत पर रोका जायेगा. प्रतिक्रियावादी सत्ता लोलुपों की समूची जमात की जनतंत्र, कम्युनिज्म, और जनता के अपने प्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार को नकारने की सम्पूर्ण आम सहमति के साथ पहली बैठक बेहद ख़ुशगवार माहौल में समाप्त हुई.

1 फरवरी : जनता को सन्देश

1 फ़रवरी 1933 की प्रेसिडेंशियल राजाज्ञा ने नए चुनावों की तारीख 5 मार्च, 1933 घोषित कर दी. असली मकसद छुपाते हुए निर्णय का कारण “जर्मन जनता को राष्ट्रीय एकजुटता की नयी सरकार बनाने में अपना मत देने का अवसर” देना बताया गया. गोएबेल्स ने 3 फ़रवरी को अपनी डायरी में लिखा : “... अब हम राज्य के सारे संसाधनों को अपने काम पर लगा सकते हैं. रेडियो और प्रेस हमारे डिस्पोजल पर हैं. हम प्रोपेगैंडा का शानदार खेल खेलेंगे. और इस बार, स्वाभाविक रूप से, पैसे की कोई कमी नहीं होगी.”

उसी दिन देश ने सार्वजनिक प्रसारण पर चान्सलर के मन की बात सुनी. उसने अपने नवम्बर 1918 के जनतांत्रिक “विश्वासघात” और वेइमार रिपब्लिक के खिलाफ अपने पारम्परिक हमलों (मार्क्सवाद के चौदह सालों ने जर्मनी को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है) के साथ रूढ़िवादी, क्रिश्चियन, राष्ट्रवादी मूल्यों और परंपराओं को जोड़ा. हिटलर ने कहा कि उसकी सरकार का पहला काम वर्ग वैमनस्य और टकराहटों पर काबू पा कर “भावना और इच्छाशक्ति में हमारे लोगों की एकता” को पुनर्स्थापित करना है. हिटलर ने आगे कहा, ईसाइयत “हमारे मूल्यों का आधार”, “परिवार” लोगों और “राज्य” के रूप में हमारी आंगिकता की आधारभूत कोशिका” और “हमारे महान अतीत” के प्रति सम्मान जर्मनी की युवा पीढ़ी के लिए शिक्षा की नींव होगी (ईसाइयत की जगह हिन्दुत्व कर लीजिये और आप आसानी से नात्‍ज़ी जर्मनी से आर.एस.एस. इण्डिया में पहुँच जायेंगे). विदेशनीति पर उसका कहना था कि दूसरे राष्ट्रों से बराबरी का अधिकार हासिल करने के बाद जर्मनी की नीति शांति को संरक्षित और सुदृढ़ करना होगा जिसकी आज दुनिया को सबसे ज्यादा जरूरत है. उसने बेरोजगारी पर भी व्यापकतम-चौतरफा हमले की घोषणा की जिससे चार साल में बेरोजगारी का हमेशा-हमेशा के लिए अंत हो जायेगा. हिटलर ने अपने भाषण का अंत उसी जुमले से किया जिसे आगे वह अनन्त बार दुहरायेगा “अब जर्मनवासियों, हमें चार साल का समय दो और तब तुम हमारे लिए अपना फैसला दे सकोगे!”

शांति और जनतंत्र के इन सारे जुमलों को झुठलाते हुए 4 फरवरी 1933 को देश और “जर्मन जनता की रक्षा के लिए राजाज्ञा” के जरिये सरकार ने बोलने और सभा करने-जुटने की आज़ादी के अधिकार को प्रतिबंधित कर दिया और एस.पी.डी. व के.पी.डी. पर कठोर बंदिशें लगा दी.

3 फरवरी : जनरलों को शीशे में उतारना

जर्मन सेना और नेवी के कमांडरों के साथ अपनी पहली बैठक में ही हिटलर ने अपनी सरकार का पहला लक्ष्य “राजनीतिक ताकत को वापस हासिल करना बताया जो समूचे राज्य नेतृत्व का उद्देश्य” होगा. घरेलू स्तर पर विद्यमान स्थितियों को पूरी तरह से उलट दिया जाना है. शांतिवादी प्रवृत्तियों को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जायेगा. “जो भी बदलने से इनकार करेगा उसे, मजबूर कर दिया जायेगा”. जर्मनी के युवा और समूची आबादी को इस विचार के साथ जुड़ना होगा कि “केवल युद्ध ही हमें बचा सकता है और सब कुछ इसी विचार के मातहत रहना है”. जर्मनी की “खुद की रक्षा की इच्छाशक्ति” को मज़बूत करने के लिए “कठोरतम, अधिनायकवादी राज्य नेतृत्व” की स्थापना और “जनतंत्र से हुए नुकसान के कैंसर को जड़ से मिटाना” जरूरी था. विदेश नीति के सवाल पर हिटलर का पहला लक्ष्य व्हेरमाष्ट (सेना) को फिर से हथियारबंद करना और सामरिक बराबरी हासिल करके वर्साय संधि के खिलाफ लड़ना था. हिटलर दहाड़ा “सबके लिये अनिवार्य सैन्य सेवा” लागू करनी होगी. जर्मनी के सामरिक महाशक्ति के रूप में अपनी हैसियत वापस ले लेने के बाद अपनी विदेश नीति मंशा का संकेत देते हुए उसने कहा “पूर्व में नए निवास स्थानों की विजय और इनका निर्मम जर्मन एकीकरण”.


Bertoltदुनिया की एक उम्मीद

दमितों की
दमितों के लिए
गहनतम संवेदना
अपरिहार्य और अविछिन्न है.
यही दुनिया की
इकलौती उम्मीद है.

– बर्तोल्त ब्रेश्त


जनरलों के लिए मार्क्सवाद और शांतिवाद के साथ युद्ध, वर्साय संधि के पुनरीक्षण की मांग, जर्मन सेना का पुनर्शस्त्रीकरण, और इसकी विश्व शक्ति के बतौर हैसियत की बहाली के साथ पूरी तरह जुड़ जाने में भला क्या आपत्ति हो सकती थी? वे हिटलर के इस वादे से खासे रोमांचित थे कि व्हेरमाष्ट ही देश की एकमात्र वैध सेना बनी रहेगी और इसका इस्तेमाल घरेलू विरोधियों के दमन के लिए नहीं किया जायेगा. हिटलर ने घोषित किया कि यह (घरेलू दमन) काम नेशनल सोशलिस्ट पार्टी, खास कर एस.ए. का था.

फ्यूरर (हिटलर) और सैन्य नेतृत्व के बीच शुरुआत में ही बन गयी निकटता दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद थी. चान्सलर अब सैन्य हस्तक्षेप के किसी भी डर से मुक्त हो कर राजनीतिक वाम को कुचलने और समूचे जर्मन समाज को नात्‍ज़ी विचारों में ढालने पर केन्द्रित कर सकता था. अलावे इसके, सेना का विचलनविहीन समर्थन 1930 दशक के अंतिम वर्षों से शुरू होने वाले राजनीतिक जीवन के उसके संकटपूर्ण-निर्णायक मोड़ों पर काफी काम आने वाला था. बदले में सैन्य नेतृत्व को अपनी एकाधिकारी हैसियत की गारंटी और यह आश्वासन मिला कि उनकी जरूरतों को नयी सरकार में सर्वोच्च प्राथमिकता मिलेगी.

20 फरवरी : व्यावसायिक-औद्योगिक महाबलियों से गलबहियाँ

हालांकि बड़े व्यवसाइयों का समर्थन सालों-साल बढ़ रहा था, मगर सबसे बड़े कारपोरेट महाबली अभी भी कुछ हिचक रहे थे. इसके लिए 20 फरवरी 1933 को हिटलर की 27 शीर्ष उद्योगपतियों और बैंकरों के साथ बैठक हुई जिसमे जर्मन उद्योग की राइक एसोसियेशन के प्रेसिडेंट क्रूप्प वों बोह्लें (जो रातों-रात अति उत्साही नात्‍ज़ी बन गया था), आई. जी. फ़ार्बेन के बोश और स्निज्लर, और यूनाइटेड स्टील वर्क्स का मुखिया वोएग्लर शामिल थे. हिटलर और गोएरिंग ने सरकार की उद्योग के प्रति नीति को साफ-साफ़ रखा. हिटलर ने एक बार फिर से निजी सम्पदा में अपनी आस्था की पुष्टि करते हुए इन अफवाहों का खंडन किया कि वह आमूल-चूल बदलाव का कोई भी आर्थिक प्रयोग करने जा रहा था. उसने बल दे कर कहा कि केवल एन.एस.डी.ए.पी. ही उद्योग और उद्योगपतियों को कम्युनिस्ट आतंक के खतरे से बचा सकती है. उसने वादा किया कि वह व्हेरमाष्ट (एकीकृत सैन्य कमान) की पुनर्बहाली करने जा रहा है, जो क्रूप्प, यूनाइटेड स्टील और आई.जी. फार्बेन जैसों के विशेष औद्योगिक हितों के लिए खास फायदेमंद था. अंत में हिटलर ने घोषित किया : “अब हम अंतिम चुनाव के ठीक पहले खड़े हैं” और वादा किया “परिणाम चाहे जो हो, हम पीछे नहीं हटने जा रहे”. अगर वह बहुमत नहीं जीत पायेगा, तो भी “अन्य तरीकों से” ... “अन्य हथियारों के जरिये” सत्ता में बना रहेगा. हिटलर ने जो कुछ भी कहा था और जिस तरह से कहा था उससे व्यावसायिक जगत के नेता खासे प्रभावित थे.

गोएरिंग ने फौरी जरूरतों पर बात करते हुए “वित्तीय त्याग” पर बल देते हुए कहा कि उद्योग अगर यह समझ ले कि आगामी पाँच मार्च का चुनाव अगले दस वर्षों और शायद अगले सौ वर्षों के लिए भी अंतिम चुनाव होने जा रहा है, उनके लिए यह त्याग करना कुछ भी मुश्किल नहीं होगा. दोनों नेताओं के हॉल से चले जाने के बाद मेजबानों ने चंदा जुटाना शुरू किया और हाथ-के-हाथ तीस लाख मार्क इकठ्ठा हो गए.

4 फरवरी की राजाज्ञा के जरिये अपने मुख्य प्रतिद्वंदियों एस.पी.डी. और के.पी.डी. के लिए आगामी चुनाव लड़ना बेहद मुश्किल बनाने के बाद एन.एस.डी.ए.पी. नेतृत्व को लगा कि जल्दी चुनाव उन्हें पूर्ण बहुमत दे सकता है, जिसके बल पर वे गठबंधन को लात मार कर डावांडोल संसदीय जनतंत्र से एकदलीय नंगी तानाशाही में आराम से संक्रमण कर सकते हैं. इसे सुनिश्चित करने और कोई कसर न छोड़ने के लिए उन्होंने हर संभव प्रशासनिक फेर-बदल, भीतर खाते रास्तों और झूठे गढ़े गए आरोपों पर दमनात्मक उपायों का सहारा लिया. एक बार फिर उन्हें कैबिनेट के समूचे प्रतिक्रियावादी जमावड़े और राजशाही प्रेसिडेंट का भरपूर समर्थन मिला जिनमें से कोई भी यह नहीं समझ रहा था कि ऐसा कर के वे वास्तव में अपने लिए ही कब्र खोद रहे थे.

फरवरी : जर्मन रेडियो और पुलिस बल का नात्‍ज़ीकरण

जब गोएबेल्स राजनीतिक और विचारधारात्मक दीक्षा के सबसे महत्वपूर्ण माध्यम जर्मन रेडियो के कर्मचारियों के व्यापक मनमाफिक बदलाव में व्यस्त था, कार्यवाहक आन्तरिक मंत्री के रूप में गोएरिंग प्रशियन पुलिस और प्रशासन से बचे-खुचे जनतांत्रिक लोगों का सफाया करने में जुटा था. प्रशियन पुलिस विभाग को पूरी ताकत से राष्ट्रीय प्रोपेगैंडा में सहयोग करने और राज्य विरोधी संगठनों की गतिविधियों को कठोरतम कदम उठाते हुए-जरूरत पड़ने पर आग्नेयास्त्रों के इस्तेमाल से भी बिलकुल न हिचकते हुए दमन करने के निर्देश दिए गए. गोएर्रिंग ने अधिकारियों से कहा कि उन्हें यह बात बिलकुल साफ़ रहनी चाहिये कि जो भी पुलिस अधिकारी ड्यूटी के दौरान अपने हथियारों का इस्तेमाल करेंगें उनके लिए हर हाल में उसकी ओर से पूरी सुरक्षा की गारंटी रहेगी. इसके उलट, जो भी अपनी ड्यूटी से हिचकिचाएगा, उसे इसका अनुशासनिक परिणाम भुगतना होगा. पूरी मनमानी की यह राजाज्ञा व्यवहारतः अधिकारिक विचारधारा से विरोध – असहमति रखने वाले किसी भी व्‍यक्ति की हत्या का खुला लाइसेंस थी.

22 फ़रवरी को गोएरिंग ने “नेशनल एसोशियेशंस” के पैरा मिलिशियाओं – एस.एस., एस.ए., स्ताल्हेल्म का सहायक पुलिस बल “रेडिकल वाम विंग, ख़ास कर कम्युनिस्ट हलकों से बढ़ती हुई अशांति” से निपटने के लिए तैयार करने का आदेश दिया. ऊपर के आदेशों की तामील करते हुए, पुलिस ने एस.ए. को लोगों को आतंकित-प्रताड़ित करने से रोकने के लिए कोई भी कार्यवाही नहीं की. सोशल डेमोक्रेटों के साथ भी दुर्व्यवहार हुआ मगर कम्युनिस्टों पर इस आतंक का कहर सबसे बढ़ कर टूटा. फ़रवरी के पहले हफ्ते से ही यह हालत हो चुकी थी कि अपने सबसे मज़बूत गढ़ बर्लिन तक में कम्युनिस्टों के लिए सार्वजनिक जगह पर जुट पाना असम्भव हो गया. लगभग बिना किसी अपवाद के, सारे कम्युनिस्ट अखबार प्रतिबंधित हो चुके थे. 1933-34 के दौरान, राजनीतिक पुलिस का धीरे-धीरे सीक्रेट राज्य पुलिस (गेस्टापो) बनाने की दिशा में केन्द्रीयकरण होता गया.

अंतिम चुनाव के लिए प्रचार अभियान

10 फ़रवरी 1933 को नेशनल सोशलिस्टों ने भारी ताम-झाम के साथ बर्लिन के स्पोर्टपलास्त संकुल में अपने प्रचार अभियान का आगाज़ किया जिसमें हिटलर को “युवा जर्मनी के नेता” के बतौर पेश किया गया. चान्सलर ने “विभाजन-बिखराव की राजनीतिक पार्टियों” पर अपना पारंपरिक हमला दुहराते हुए “आलसी जनतंत्र” को “व्यक्तित्व के गुण और व्यक्ति की सर्जना शक्ति” से बदलने का वादा किया. जनता के मन-मिजाज़ को तानाशाही की ओर संक्रमण के लिए तैयार करते हुए उसने “राष्ट्र को पुनर्नवा करने” के लिए “चार साल” मांगे. उसके भाषण को जबदस्त सराहना मिली : उसकी अंतर्वस्तु से ज्यादा उसकी उन्मादी वक्तृत्व कला और समापन लाइनों की भावनात्मक अपील के लिए, जो प्रभु की प्रार्थना का राजनीतिक संस्करण प्रतिध्वनित होती थी.

नात्जि़यों ने गोएबेल्स की अगुवाई में ऐसा जबदस्त प्रचार-प्रोपेगैंडा अभियान चलाया जैसा जर्मनी ने पहले कभी देखा-सुना नहीं था. एक प्रचार पोस्टर में हिटलर (जो उस समय एक गुमनाम सैनिक से ज्यादा कुछ नहीं था) और फील्ड मार्शल को अगल-बगल खड़े दिखाया गया – शीर्षक था : “मार्शल और प्राइवेट साथ-साथ हमारी शांति और बराबरी के अधिकार के लिए लड़ते हुए”. एक और पोस्टर में हिन्‍डेन्‍बर्ग के मिथकीय प्रभाव और पापेन से उसकी नजदीकी को भुनाने के लिए हिन्डेन्बर्ग और पापेन को एक साथ दिखाते हुए शीर्षक दिया गया ; “यदि हिन्‍डेन्‍बर्ग उस पर विश्वास करता है तो जर्मनी भी कर सकता है –उसके निकटतम सहयोगी वाईस चान्सलर पापेन को वोट दें”. पूरी कैबिनेट के लिए वोट मांगने के साथ-साथ प्रोपेगैंडा का एक और मकसद दोनों महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्तियों को इस मुगालते में भी रखना था कि नात्‍ज़ी गठबंधन को ले कर सचमुच गंभीर थे.

election
बोर्ड पर लिखा है - जर्मन नागरिको सावधान। इस दुकान का मालिक एक यहूदी है । यहूदी जर्मन अर्थव्‍यवस्‍था को लूट  रहे है और अपने जर्मन कर्मचारियों को भुखमरी में जीने लायक वेतन देते हैं.

चार्ली चैपलिन :
“द ग्रेट डिक्टेटर” फिल्‍म से भाषण के अंश

सैनिकों ! खुद को वहशियों के हवाले मत करो – उन लोगों के, जो तुम्हें तुच्छ समझ कर तिरस्कार करते हैं – तुम्हें गुलाम बनाते हैं – तुम्हारी जिंदगियों की खानेबंदी करते हैं- बताते हैं –तुम्हें क्या करना है – क्या सोचना है –क्या महसूस करना है ! जो तुमसे कवायद कराते हैं – तुम्हारा खाना तय करते हैं – तुमसे ढोर –डांगर जैसा व्यवहार करते हैं – तुम्हें तोप के गोले की तरह इस्तेमाल करते हैं. खुद को इन अप्राकृतिक आदमियों के हवाले मत करो – मशीनी दिमाग और मशीनी दिल वाले मशीनी आदमी ! तुम मशीनें नहीं हो ! तुम ढोर-डांगर नहीं हो ! तुम्हारे दिलों में मानवता के लिए प्यार है ! तुम नफ़रत नहीं करते ! केवल वे जिन्हें प्यार नहीं मिला, वे ही नफ़रत करते हैं – प्यार से वंचित, अप्राकृतिक ! सैनिकों ! गुलामी के लिए मत लड़ो ! आज़ादी के लिए लड़ो !

तुम, जनता – तुम्हारे पास ताकत है – मशीनों के सृजन की ताकत. खुशियों के सृजन की ताकत! तुम, जनता – तुम्हारे पास इस जीवन को मुक्त और सुन्दर बनाने की, इस जीवन को एक शानदार रोमांच बनाने की ताकत है.

तब – जनतंत्र के नाम पर – आओ उस ताकत का इस्तेमाल करें – आओ हम सब एकजुट हो जायें. आओ एक नयी दुनिया के लिए लड़ें – एक सौम्य, बेहतरीन दुनिया जो लोगों को काम करने का अवसर देगी – जो युवाओं को भविष्य और बूढ़ों को सुरक्षा देगी. इन्हीं चीज़ों के वादे कर के वहशी सत्ता तक पहुँच गए. मगर वे झूठ बोलते हैं ! वे उन वादों को पूरा नहीं करते. वे कभी नहीं करेंगे !

तानाशाह खुद को तो आज़ाद कर लेते हैं मगर जनता को गुलाम बना देते हैं ! अब आओ, उस वादे को पूरा करने के लिए लड़ें ! आओ, दुनिया को मुक्त कराने के लिए – राष्ट्रीय अवरोधों को दूर करने के लिए – लालच, नफ़रत, असहिष्णुता को दूर करने के लिए लड़ें. आओ, विवेक की दुनिया के लिए, एक ऐसी दुनिया के लिए लड़ें, जहाँ विज्ञान और प्रगति सारे मनुष्यों को खुशियों की ओर ले जायेगी. सैनिकों! जनतंत्र के नाम पर, आओ हम सब एकजुट हो जायें !

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'द ग्रेट डिक्‍टेटर' में चार्ली चैपलिन

फुट नोट :

1. सामने के पृष्‍ठ पर बॉक्‍स में दिया गया हिटलर के चांसलर बनने का घटनाक्रम कुर्ट गॉसवेइलेर के लेख से लिया गया है. वे 1947 तक जर्मन सेना में रहे और उसके बाद भाग कर रूसी सेना में चले गये. युद्ध के बाद पूर्वी जर्मनी में वे फासीवाद के अध्‍येता के रूप में प्रसिद्ध हुए.

 

पहले दिन से ही हिटलर पार्टी का सबसे विश्वसनीय और सक्रिय नेता था : भारी भीड़ के सामने – ग्रामीण अंचलों में भी, भाषण देना, पैनल बहसों में भाग लेना. इस दौर में उसका केन्द्रीय बल लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने पर था. हिटलर ने “मेरा संघर्ष” में उन प्रारंभिक दिनों की अपनी मनोदशा पर लिखा : “कौन परवाह करता है कि वे हम पर हँसते हैं या हमें अपमानित करते हैं, हमें मूर्ख या अपराधी मानते हैं? मुख्य बात यह है कि वे हमारे बारे में बात करते हैं और बराबर हमारे बारे में सोचते हैं.” अब तक पुलिस और मिि‍लट्री के आका भी एन.एस.डी.ए.पी. की गतिविधियों के “लाभकारी देशभक्ति प्रभाव” को सराहने लगे थे.

एन.एस.डी.ए.पी. नेता हमेशा अपने राजनीतिक एजेंडे पर पूरी तरह केन्द्रित रहता. जनवरी 1923 में वर्साय संधि द्वारा निर्धारित क्षति-पूर्ति वसूली के लिए देश के औद्योगिक संकुल रुह्र घाटी में फ्रेंच और बेल्जियन टुकडियां घुस आईं. पूरे देश में इसका भारी प्रतिवाद हुआ, घुसपैठिये आक्रांताओं के खिलाफ संयुक्त प्रदर्शन हुए. मगर दूसरों को चकित करती हुई हिटलर के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी पार्टी इस सब से अलग रही. इसने जनता के आक्रोश को घर के अन्दर के दुश्मनों “नवम्बर के अपराधियों” की दिशा में मोड़ने की चाल चली. हिटलर ने जनसभा में कहा कि “सेना की पीठ में छुरा भोंक कर” प्रथम विश्व युद्ध के अंत में राजनीतिक नेताओं ने जर्मनी को सुरक्षा विहीन कर के “सम्पूर्ण गुलामी” के लिए खोल दिया था. वह वस्तुतः उन नेताओं को संकेत दे रहा था जिन्होंने वर्साय संधि पर हस्ताक्षर किये थे और जो वेइमार रिपब्लिक की स्थापना के लिए जिम्मेदार थे. उसने बल दे कर कहा कि असल कार्यभार यह सुनिश्चित करना था कि उन अपराधियों (मुख्यतः सोशल डेमोक्रेट और कम्युनिस्ट ) को सज़ा मिले और एक नए मज़बूत जर्मनी का निर्माण हो. इसलिए उसने तर्क दिया कि “संयुक्त मोर्चे के लिए हल्ला-गुल्ला” सिर्फ जर्मन जनता का उनके मुख्य कार्यभार से ध्यान बंटाने का काम करेगा.

मगर इस “मुख्य कार्यभार” के उन्मादी अनुसरण और बावेरियन पुलिस व केन्द्रीय सैन्य नेतृत्व की पुचकार से उन्मत्त हिटलर कुछेक भारी गलतियाँ कर बैठा.

दुस्साहसवाद और बगावतवाद के लिए सज़ा

हिटलर को लगने लगा कि परिस्थितियाँ बेहद तेजी से गर्म हो रही थीं और अब सिर्फ प्रोपेगैंडा से काम नहीं चलने वाला है. उसने अपने सबसे संगठित राजनीतिक दुश्मन नम्‍बर 1 – मजदूर वर्ग पार्टियों से मई दिवस के अवसर पर सीधे टकराने का दुस्साहसी फैसला लिया. उसने बड़े शातिर तरीके से बावेरियन सरकार से मई दिवस समारोहों पर यह कहते हुए प्रतिबन्ध लगाने की मांग की कि यह दिन 1919 में गठित क्रांतिकारी परिषदों से म्‍यूनिक के कंजर्वेटिव “लिबरेशन” की वर्षगाँठ का भी दिन था. सरकार ने ऐसा भड़काऊ और कड़ा कदम उठाने से इनकार कर दिया. तब हिटलर ने खुद मई दिवस परेड को रोकने की ठानी. उसके आह्वान पर दो हजार की संख्या में हथियारबन्द पैरा मिलिशिया “फ्राइकोर” परेड जबरन रोकने को जुटे. हिटलर ने खुद पूरी मिलट्री वर्दी, स्टील हेलमेट और आयरन क्रास के साथ गुरूर से कमान संभाली. मगर इस बार प्राधिकारियों ने फैसला लिया कि इन नए उभरते हुड़दंगियों को प्रशासन के समर्थन का मनमाना फ़ायदा लेने की इजाज़त नहीं दी जायेगी और सेना बुला ली गयी. उसके कुछ उन्मत्त सिरफिरे अनुयायी अभी भी लड़ने को तैयार थे, मगर हिटलर राज्य के साथ ऐसे व्यर्थ के हथियारबन्द टकराहट पर अपना समूचा राजनीतिक कैरियर दांव पर लगाने का जोखिम उठाने से पीछे हट गया. विशाल मई दिवस समारोह शान्तिपूर्वक संपन्न हो गए.

इस फुस्स तमाशे से हिटलर की इज्जत की जबरदस्त किरकिरी हुई. उसके साथी और अनुयायी, खासकर एस.ए. (नात्‍ज़ी पार्टी का मूल पैरामिलट्री विंग जो स्टार्मट्रूपर्स या ब्राउनशर्ट्स के नाम से भी जाना जाता है), बेहद निराश हुए. बहुतेरे राजनीतिक पर्यवक्षक – विश्लेषक मानने लगे कि नात्जि़यों का सितारा अस्त होने लगा है. मगर वस्तुगत परिस्थिति उनके अनुकूल होती जा रही थी. 1920 की गर्मियों से ही मजदूर वर्ग का बगावती तेवर अपने चरम पर पहुँचने लगा था. अगस्त में ज्यादातर एस.पी.डी. नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनों की हडतालों और प्रदर्शनों के दबाव में चान्सलर विल्हेम कूनो को पद से हटना पड़ा. दक्षिण पंथी तख्तापलट की अटकलें तेज होने लगीं. वृहत्तर दक्षिण पंथी हलकों में एक धारणा बन रही थी कि सबसे प्रतिभाशाली नौजवान नेता लिबरल वाम फेडरल सरकार को हटा कर हार्ड-कोर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी सरकार की स्थापना के लिए किसी-न-किसी बड़ी कार्यवाही के साथ आगे आयेगा जैसा कि बस साल भर पहले मुसोलिनी ने इटली में “मार्च ऑन रोम” के रूप में किया था.

यह सपना कई और दक्षिणपंथी ताकतों का भी था. इनमें सबसे बढ़ कर बावेरिया में बर्लिन की रिपब्लिकन सरकार के प्रति घोर बैर व नफ़रत से शासन कर रही कार (बावेरिया स्टेट कमिसार ), लोस्सोव (बावेरिया सैन्य कमांडर), और साइस्सर (बावेरिया पुलिस प्रधान) की त्रिमूर्ति थी. हिटलर ने खुले आम मांग की कि बावेरिया शासकों को तुरंत कार्यवाही करनी चाहिये : “अब समय आ गया है ! आर्थिक त्रासदी हमारे लोगों को इस कदर त्रस्त कर रही है कि हमें कार्यवाही करनी ही होगी अन्यथा अपने समर्थकों के कम्युनिस्टों के पाले में चले जाने का जोखिम उठाना पड़ सकता है.” उसने उन पर दबाव डालने की हर चन्द कोशिश की मगर वे टाल-मटोल करते रहे. अब नात्‍ज़ी नेता साल की अपनी दूसरी दुस्साहसिक कार्यवाही में उतर पड़ा.

असफ़ल बियर हॉल तख्तापलट

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बियर हॉल तख्‍तापलट के समय राटहाउस के बाहर जमा भीड़ - यूएस होलोकास्‍ट मेमोरियल म्‍यूजियम

कार ने म्‍यूनिक के एक सबसे बड़े बियर हॉल बर्गरब्रौक्लेर में सारे मंत्रियों, अधिकारियों, और राजनीतिक वीवीआईपी लोगों की बैठक बुलाई थी. हिटलर ने फैसला लिया कि अगर उसके समर्थक बर्गरब्रौकेलेर पर कब्जे में सफल हो जाते हैं, उनके पास म्‍यूनिक के समूचे राजनीतिक वर्ग को अपने कब्जे में लेने का सुनहरा अवसर होगा. योजना यह थी कि त्रिमूर्ति के लिए बर्लिन के खिलाफ बगावत के अलावा कोई चारा न छोड़ा जाय.

ट्रकों में भर कर पहुंचे हथियारबंद एस.ए. दस्तों की पहरेदारी में अपने इलीट अंगरक्षकों के साथ हिटलर तूफ़ान की तरह बियरहॉल में घुसा, भीड़ को शांत-आतंकित करने के लिए एक गोली दागी, और उत्तेजना के चरम में घोषणा की : “राष्ट्रीय क्रांति जारी है. हॉल पूरी तरह हथियारबंद 600 लोगों के कब्जे में है. किसी को हॉल छोड़ने की इजाज़त नहीं है. अगर चीज़ें तुरंत नियंत्रण में नहीं आ जातीं, मेरे पास गैलरी पर मशीनगन तैनात है. राइक सरकार अपदस्थ कर दी गयी है. एक प्रोविजनल सरकार बना दी गयी है.”

हिटलर ने तब बन्दूक की नोक पर कार, लोस्सोव और साइस्सर को उनकी जान की सुरक्षा की गारंटी करते हुए बगल के कमरे में अपने साथ चलने को कहा. वहां उसने एक साथ धमकाते और क्षमा मांगते हुए, उनसे वचन निभाने का वादा लिया, और हॉल में लौट आया. सभी जबरदस्त गुस्से और हिकारत में थे. मगर अपने एक छोटे से भाषण से हिटलर ने पूरे हाल का माहौल बदल दिया.

इसके बाद हिटलर वापस त्रिमूर्ति के पास हॉल में आ कर सबके सामने समझौते पर मुहर लगाने के दबाव के लिए गया. भीड़ के छंटने के पहले एस.ए. कमांडो मंत्रिमंडल के सारे सदस्यों को गिरफ्तार कर चुके थे. कार, लोस्सोव और साइस्सर को भूतपूर्व जनरल लुदेन्दोर्फ़ की निगरानी में छोड़ कर हिटलर शहर के अन्य हिस्सों में विद्रोह की मदद के लिए निकल गया. मगर जनरल ने त्रिमूर्ति को इस कोरे आश्वासन के भरोसे हॉल छोड़ कर जाने की इजाज़त दे दी कि वे समझौते का पालन करेंगे. एक बार छूट जाने पर त्रिमूर्ति ने विद्रोह को दबाने के लिए सारे उपाय कर दिए. तख्तापलट असफल हो गया. हिटलर और उसके साथी गिरफ्तार कर लिए गए.

मगर इस असफल तख्तापलट ने हिटलर को लोगों के उस बड़े हिस्से के लिए “हीरो” बना दिया जो म्‍यूनिक और बर्लिन के शासक गुटों से पूरी तरह तंग आ चुके थे. म्‍यूनिक और बावेरिया के अन्य शहरों में त्रिमूर्ति के खिलाफ “गद्दारों का गुट” नारों के साथ स्वतःस्फूर्त प्रदर्शन हुए. खासकर छात्र हिटलर और उसके साथी षड्यंत्रकारियों से खासे प्रभावित थे. म्‍यूनिक विश्वविद्यालय में 12 नवम्बर की जन सभा में “हिटलर तुम आगे बढ़ो” और “कार का नाश हो” के जबर्दस्त नारे लगे. जब विश्वविद्यालय के डीन ने सभा में मौजूद छात्रों से जर्मन राष्ट्रीय गान गाने को कहा, उन्होंने इसके बजाय फ्राइकोर का “स्वास्तिका ऑन अ स्टील हेलमेट” गीत गाया.

जेल और दूसरी पारी

मुकदमे में हिटलर और अन्य नेता देशद्रोह के दोषी पाये गए जिसकी न्यूनतम सज़ा पाँच साल के लिए जेल थी. मगर कोर्ट ने कहा कि अच्छे आचरण के आधार पर यह सज़ा सिर्फ छः महीने बाद ही मुल्तवी की जा सकती है. कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि हिटलर, चूंकि अपने विचारों और भावनाओं में इस कदर जर्मन था, अत: आस्ट्रिया में संभावित देशनिकाले से मुक्त था. सजायें बेहद मामूली थी और इनकी तीखी आलोचना हुई : वाम धारा की पत्रिका दिए वेल्त्बुह्ने ने लिखा : “म्‍यूनिक में रिपब्लिक की न्यायिक हत्या कर दी गयी है.” वस्तुतः कोर्ट ने अपराधियों की यह कहते हुए प्रशंसा की थी कि उन्होंने परम पवित्र निःस्वार्थ इच्छाशक्ति से प्रेरित हो कर विशुद्ध देशभक्ति की भावना से काम किया था.

जेल की सज़ा हिटलर के लिए मानो वरदान बन गयी. हिटलर ने बाद में लिखा कि जेल में रह कर उसे विश्वास हो गया कि हिंसा काम नहीं आएगी क्योंकि राज्य पूरी तरह जड़ जमाये हुए है और उसके कब्जे में सारे हथियार हैं. उसने यह भी दावा किया कि इस दौरान उसे उन तमाम चीज़ों पर स्पष्टता हासिल हुई जिनको ले कर पहले उसके मन में कुछ धारणायें भर थी और इससे उसे “मेरा संघर्ष” का पहला खंड लिखने में बहुत मदद मिली. हिटलर ने लिखा कि उसे जेल में डालना सरकार का मूर्खतापूर्ण कदम था: “उनके लिए मुझे बार-बार बोलते रहने और कभी भी अपनी मानसिक शांति हासिल न कर पाने के लिए बाहर ही छोड़ देना बेहतर रहा होता.”

नात्‍ज़ी नेता के नायकीय अतिराष्ट्रवाद से सम्मोहित बावेरिया की सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच साल की सज़ा को घटा कर एक साल कर दी. दिसम्बर 1924 में जेल से बाहर आने पर हिटलर ने एन.एस.डी.ए.पी. को पुनर्गठित करते हुए सारे निर्णय प्राधिकार खुद में केन्द्रित कर लिया. पार्टी मुख्यालय बर्लिन ले जाने से भी उसने यह सोच कर इनकार कर दिया कि उसकी निजी ताकत का आधार म्‍यूनिक होने के नाते पार्टी मुख्यालय भी यहीं होना चाहिये. आम लोगों के लिए उसने यह भावनात्मक तर्क दिया कि आखिरकार नात्‍ज़ीवाद की जन्मस्थली तो म्‍यूनिक ही है : “रोम, मक्का, मास्को – इनमें से हर स्थान एक विश्व दृष्टिकोण का द्योतक है. हम उसी शहर में रहेंगे जिसने पहले पार्टी कामरेडों को हमारे आन्दोलन के लिए अपना खून बहाते हुए देखा है. इसे ही रहना चाहिये हमारे आन्दोलन का मास्को.”

जेल से बाहर हिटलर ने परिस्थितियों को अपनी राजनीति के लिए अनुकूल नहीं पाया. 1925 से, मुद्रा के सुस्थिर हो जाने के बाद से, जर्मन अर्थव्यवस्था तेजी से सुधार रही थी. औद्योगिक उत्पादन, रोजगार, और कुछ मामलों में वास्तविक वेतन भी बढ़ने लगा था. जर्मनी सम्मानपूर्वक लीग ऑफ़ नेशन्स में शामिल किया जा चुका था और वेइमार रिपब्लिक भी मजबूत स्थिति में लग रहा था. प्रारंभिक 1920 दशक के मुकाबले एन.एस.डी.ए.पी. की राजनीतिक सक्रियता उतार पर थी और सदस्यता की गति भी बहुत धीमी थी. हिटलर ने बावेरिया सरकार से उसकी पार्टी पर से प्रतिबन्ध हटाने की अपील की. पार्टी की घटी प्रोफाइल और जनता में हिटलर की निजी साख को देखते हुए, प्राधिकारियों ने अपील मान ली. बी.वी.पी. नेता और “मिनिस्टर प्रेसिडेंट “(प्रधानमंत्री के समतुल्य) हाइनरिक हेल्ड ने कहा: “जंगली जानवर पर काबू पा लिया गया है, अब हम उसकी बेड़ियाँ ढीली कर सकते हैं.” मगर जेल से आने के बाद हिटलर का पहला ही भाषण इतना भड़काऊ था (या तो दुश्मन हमारी लाशों पर से गुजरेगा या फिर हम उसकी) कि सरकार ने उस पर सार्वजानिक सभाओं में बोलने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. करीब दो साल बाद, जब पार्टी की लोकप्रियता और भी घट चुकी थी, यह प्रतिबन्ध भी हटा लिया गया.

मई 1928 के राइकस्ताग (राष्ट्रीय संसदीय) चुनावों में पार्टी की हालत बेहद बुरी थी, उसे सिर्फ 2.6% वोट मिले जो पिछले दिसंबर 1924 के चुनावों से भी कम थे. चार बुर्जुआ पार्टियों – दि सेंटर पार्टी, बीवीपी, डीडीपी, और डीवीपी के तथाकथित “महा गठबंधन” के साथ एस.पी.डी. सत्ता में आयी और हरमन मुलर चान्सलर बना.

महामंदी – नात्‍ज़ी ग्राफ का पुनः उभार

जर्मनी का आर्थिक पुनरुत्थान 1928 के अंत तक बिखर चुका था और अगले साल की विश्वव्यापी महामंदी देश को वापस गहन संकट के भंवर में खींच लाई. फरवरी 1929 में बेरोजगारों की संख्या एक बार फिर तीस लाख पार कर गयी. कृषि उत्पादों के दाम लगातार गिर रहे थे. उत्तरी जर्मनी में किसानों ने काले झंडों के साथ प्रदर्शन किया. क्लाउस हेइम नाम के किसान के नेतृत्व में एक रेडिकल गुट ने स्थानीय टैक्स व अन्य सरकारी दफ्तरों पर बमों से हमला कर दिया. एन.एस.डी.ए.पी. की लोकप्रियता अब ग्रामीण व शहरी दोनों ही अंचलों में बढ़ रही थी. 1928 और 1929 के जर्मनी के छात्र संसदों के चुनावों में इसे भरपूर सफलता मिली. नवम्बर 1928 में म्‍यूनिक विश्वविद्यालय के ढाई हजार छात्रों की सभा में हिटलर के भाषण को जबर्दस्त सराहना मिली.

यह वह परिस्थिति थी जिसमे दो नितान्त विपरीत ध्रुवीय रेडिकल पार्टियां – कम्युनिस्ट और नात्‍ज़ी दोनों ही मध्यमार्गियों की कीमत पर तेजी से बढ़ रहीं थी.


थुरिन्गिया : नात्‍ज़ी गुजरात ?

दिसंबर 1929 के लैंडटैग चुनावों में, एन.एस.डी.ए.पी. को थुरिन्गिया में छः सीटें और 11.3% वोट मिले थे. कंजर्वेटिव और लिबरल पार्टियाँ एस.पी.डी. के बिना सरकार बनाना चाहती थीं, मगर तब इसके लिए नेशनल सोशलिस्टों के समर्थन की जरूरत थी. हिटलर ने तय किया कि पार्टी शासकीय गठबंधन में तभी शामिल होगी जब उसे दो सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालय – आतंरिक और संस्कृति व जन शिक्षा मिलेंगे. हिटलर ने दो फरवरी के एक गुप्त पत्र में लिखा : “वह जिसके पास ये दोनों विभाग होंगे, और जो इनकी ताकत को निर्द्वन्द दृढ़ता के साथ इस्तेमाल करेगा, असाधारण हासिल कर सकेगा.”  आतंरिक मंत्रालय से एन.एस.डी.ए.पी. को राज्य पुलिस बल पर अधिकार और सांस्कृतिक मंत्रालय से उसे राज्य के समस्त स्कूलों और शिक्षण प्रणाली पर प्रभुत्व मिल गया. जाहिर था, हिटलर की रुचि सरकार में हिस्सेदारी में नहीं, बल्कि अन्दर से राज्य की प्रशासनिक प्रणाली पर कब्जे में थी. दोनों मंत्रालयों के लिए हिटलर ने अपने बियर हॉल बगावत षड्यंत्र के साथी विल्हेम फ्रिक्क का नाम प्रस्तावित किया. शुरू में डी.वी.पी. ने किसी दूसरे नाम की मांग की, मगर हिटलर अड़ गया कि : “या तो डॉ. फ्रिक्क हमारे मंत्री होंगे या फिर नया चुनाव होगा”. मध्य-दक्षिण पार्टियों ने यह जानते हुए कि फिर से चुनाव होने पर एन.एस.डी.ए.पी. की स्थिति और भी मज़बूत हो सकती है, हिटलर के अल्टीमेटम के आगे घुटने टेक दिए.

अपने चौदह महीनों के कार्यकाल में, गठबंधन सरकार में शामिल एक सदस्यी नात्‍ज़ी सेना ने सूक्ष्म मगर स्पष्ट रूप से दिखा दिया कि भविष्य का राष्ट्रीय नात्‍ज़ी शासन कैसा होगा. अनुभवी और दक्ष नागरिक सेवकों को एस.पी.डी. से सहानुभूति रखने के शक में हटा कर उनकी जगह नात्‍ज़ी चमचों से भर दी गयी. प्रार्थनायें स्कूलों में अनिवार्य कर दी गयी. इसका उद्देश्‍य फ्रिक्क ने लैंडटैग को बताया : “लोगों को मार्क्सवाद और यहूदियों से ठगे जाने से बचाना है”! जेना विश्वविद्यालय में नस्ल विज्ञान के एक चेयर की स्थापना की गयी और वहां समूचे प्रोफ़ेसर समुदाय के वोट को नकारते हुए कुख्यात यहूदी विद्वेषी हांस ऍफ़.के गुन्थेरर को बैठाया गया. वेइमार रिपब्लिक के कला व वास्तु कला के नए डायरेक्टर और नेशनल सोशलिज्म में पूरी आस्था रखने वाले पॉल शुल्त्ज़ – नौम्बर्ग ने शहर के रॉयल म्यूजियम से कला की सारी मॉडर्निस्ट कृतियाँ हटवा दी. फ्रिक्क ने पबों में “निग्गर ज़ैज” (अफ़्रीकी-अमरीकी संस्कृति जड़ों वाला अपार लोकप्रिय संगीत रूप) प्रतिबंधित कर दिया और स्कूलों में नात्‍ज़ी प्रार्थना अनिवार्य कर दिया. उसने वेइमार पुलिस प्रभारी सहित पुलिस विभाग में भी सेंधमारी कर के नात्‍ज़ी सदस्यों को घुसाया. लगातार बढ़ती आलोचना और विरोध के चलते लैंडटैग में अविश्वास मत के जरिये फ्रिक्क को 1 अप्रैल 1931 को हटा दिया गया.


थुरिंगिया राज्य में एक महत्वपूर्ण अनुभव मिला जिसने समूचे देश पर नात्‍ज़ी सत्ता के काबिज होने के कुछ साल पहले नात्‍ज़ी शासन की प्रयोगशाला की भूमिका अदा की. आगे मार्च 1930 में मुलर सरकार गिर गयी. राइकस्‍ताग के सितम्बर चुनावों में एस.पी.डी. के वोट 6% लड़खड़ा गये जब कि कम्युनिस्ट के.पी.डी. को मई 1928 के मुकाबले 40% की बढ़त मिली. मगर गिनती में के.पी.डी. का उभार एस.पी.डी. की घटत की भरपायी नहीं कर सका, इसलिये उनकी संयुक्त हिस्सेदारी घट गयी जबकि नात्‍ज़ी वोट हिस्सेदारी में 700% की बढ़त हुई. राइकस्‍ताग में एन.एस.डी.ए.पी. अब नौवें स्थान से दूसरे स्थान पर आ गई.

यहाँ बेहतरीन क्रान्तिकारी परिस्थिति के इस्तेमाल के मामले में फ़ासिस्टों ने मिलिटेंट वाम को भारी अन्तर से पछाड़ दिया. मगर यह आम पैटर्न नहीं था. महज दो साल बाद, नवम्बर 1932 में, नात्‍ज़ी वोट उस साल की जुलाई के मुकाबले घटा और के.पी.डी. का बढ़ा. बहरहाल, कांटे की टक्कर बराबर धुर दक्षिण और क्रन्तिकारी वाम के बीच बनी रही.

नात्‍ज़ी शानदार सफलता के तीन बड़े राजनीतिक दुष्परिणाम निकले. पहला : नात्जि़यों को संसद में रोकने की गरज से एस.पी.डी. ने सेंटर पार्टी नेता हाइनरिक ब्रूनिंग की उस सरकार को समर्थन दिया जिसने खुद उसी की सरकार को अपदस्थ किया था. इसके चलते ब्रूनिंग सरकार अगले दो सालों तक सत्ता में बनी रही और उसके कुशासन ने हिटलर के उत्कर्ष का रास्ता बनाया.

दूसरे: पूंजीपतियों ने एन.एस.डी.ए.पी. के भविष्य को भांप लिया और उसके खजाने में योगदान देना शुरू कर दिया. इसे सुनिश्चित करने के लिए हिटलर चुनाव वाले महीने में भूतपूर्व चान्सलर और हैम्बर्ग-अमेरिका ओसियन लाइन (एच.ए.पी.ए.जी.) के चेयरमैन विल्हेम कूनो से मिला. उसने कूनो और उसके जरिये अन्य उद्योग महाबलियों को भरोसा दिलाया कि एन.एस.डी.ए.पी. उद्यमिता पहलकदमियों और निजी पूँजी का पूरा समर्थन करेगी और सिर्फ गैर-कानूनी तरीके से हासिल सम्पदा के मामलों में ही हस्तक्षेप करेगी. बावजूद इसके, उद्योगपति पार्टी के आर्थिक कार्यक्रम को ले कर सशंकित बने रहे. उनकी शंका और भी मजबूत हुई जब अगले ही महीने (अक्टूबर 1930) में एन.एस.डी.ए.पी. ने संसद में तमाम ऐसे प्रस्ताव पेश किये जो न सिर्फ यहूदी-विरोधी बल्कि वित्तीय पूँजी के भी विरोधी थे : बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण, ब्याज दर 5% पर सीमित करना, सेक्युरिटीज ट्रेडिंग पर प्रतिबन्ध आदि. ये प्रस्ताव दिखाते थे कि एन.एस.डी.ए.पी. चेयरमैन पूंजीपतियों की शंकायें मिटाने की कोशिश करने के बावजूद पार्टी के सोशलिस्ट विंग को अलगाव में नहीं डालना चाहता था. पूंजीपतियों के राजनीतिक प्रभाव को रेखांकित करते हुए हिटलर ने अपने विश्वस्त ओट्टो वेगनर से, जिसकी नजर में पूंजीपतियों से पेंग मिलाना अगर नुकसानदेह नहीं तो भी व्यर्थ जरूर था, कहा : “मैं सोचता हूँ कि हम उनके सरों पर से गुजर कर विल्हेम्स्त्रास (चान्सलर प्राधिकार) नहीं जीत पायेंगे.”

छद्म के रूप में कानूनवाद

तीसरी और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात : पार्टी सदस्यता (1930 के अंत में 3,89,000 से एक साल बाद करीब 8,06,000 ) और एस.ए. सदस्यता (जनवरी 1931 में 77,000 से एक साल बाद 2,90,000 और फिर 19 अगस्त 1932 को 4,45,000) में विस्फोटक उभार के साथ नात्‍ज़ी बिरादराने में अब सबसे चर्चित चर्चा “अगला कदम क्या?” थी. राज्य सत्ता अभी काफी दूर लग रही थी और एस.ए. के लोगों का “कार्यवाही” – ठीक-ठीक कहें तो तख्तापलट के लिए सब्र का बाँध टूटता लग रहा था. मगर हिटलर जेल, पार्टी पर प्रतिबन्ध या उसके सार्वजनिक सभाओं में बोलने पर प्रतिबन्ध का एक और जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं था जो पार्टी के विकास के लिए बेहद नुकसानदेह साबित हुए थे. उसने एस.ए. के लोगों को “भेदियों और उकसावेबाजों” से सावधान रहने के लिए आगाह किया जो उन्हें कानून तोड़ने के लिये ललचा रहे थे : “हमारी वैधता राजसत्ता पर वर्तमान में काबिज लोगों के सारे कदमों को ध्वस्त और पराजित कर देगी.” मार्च 1931 की शुरुवात में म्‍यूनिक एस.ए. ब्रिगेड की बैठक में उसने गैर कानूनी रास्तों से लड़ने के मामले में बेहद कायर होने के आरोप का जबाब देते हुए कहा कि वह उन्हें वहां बाहर मशीनगनों से भून डाले जाने के लिए नहीं भेजना चाहता क्योंकि उसे उनकी कहीं ज्यादा जरूरी कामों, खासकर “थर्ड राइक” बनाने के लिए जरूरत पड़ेगी.

हिटलर के पास यह मानने के पर्याप्त कारण थे कि किसी भी दुस्साहसी कदम से एस.ए. और समूचे एन.एस.डी.ए.पी. पर भी प्रतिबन्ध लग सकता है. प्रेसिडेंट द्वारा जारी आपात राजाज्ञा से यह साफ मतलब निकलता था. इसलिए उसने 30 मार्च को आदेश जारी किया कि राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाले को तुरंत पार्टी से निकल बाहर किया जायेगा. उसे एस.ए. के बर्लिन प्रधान वाल्टर स्टेन्स को पार्टी कार्यक्रमों के लिए सुरक्षा प्रदान करने से इनकार और घोर अराजक कार्यवाहियों के लिये निकालना पड़ा. स्टेन्स और उसके साथियों ने बर्लिन में बगावत की कोशिश की, मगर यह अन्य शहरों में नहीं फ़ैल सकी और चन्द दिनों में ध्वस्त हो गयी[1].

मगर यह घटना भी बर्लिन एस.ए. के अगले प्रधान काउंट वुल्फ़-हाइनरिक वॉन हेल्दोर्फ़ को 12 सितम्बर 1931, यहूदी नव वर्ष पर 500 हथियारबंद लोगों को ले कर “जागो जर्मनी, यहूदी को मरना ही होगा” चीत्कार करते हुए यहूदियों की दुकानें लूटने-नष्ट करने और यहूदी नज़र आने वालों को आतंकित-उत्पीडि़त करने से नहीं रोक सकी. गैंग लीडरों समेत कुछेक दंगाइयों पर मुक़दमे चले मगर उन्हें हल्की-फ़ुल्की सज़ा के साथ बरी कर दिया गया. हिटलर ने पार्टी के अन्दर एस.ए. नेताओं को फिर आगाह किया कि उन्हें भड़कावे में हरगिज़ नहीं आना है – उन्हें समझना ही होगा कि इस समय कानूनी रास्ता ही एकमात्र सुरक्षित रास्ता है. इसी के साथ उसने यह भी सुझाव दिया कि बड़े शहरों में “लोगों के क्रान्तिकारी मूड को सँभालने के किये एस.ए. को कुछ-न-कुछ करने की जरूरत है.” इन कार्यवाहियों में शामिल होने वाले एस.ए. नेताओं से सार्वजनिक दिखावे के तौर पर पार्टी दूरी बनाएगी, मगर उसने अपने जल्लादों को आश्वस्त किया : “निश्चिन्त रहो कि पार्टी तुम्हारी सेवाओं को नहीं भूलेगी और सही समय आते ही तुम्हें तुम्हारे पदों पर बहाल कर दिया जायेगा.”

चुनावी राजनीति की सनक तरंगें

1932 में एन.एस.डी.ए.पी. ने कई चुनावों में भागीदारी की जिनमें नतीजे ऊपर-नीचे होते रहे. पहला, मार्च का प्रेसिडेंट चुनाव था जिसमें हिन्‍डेन्‍बर्ग के खिलाफ़ हिटलर प्रमुख दावेदार था. भावी सरकार के मुखिया के रूप में खुद को पेश करने कोशिश में हिटलर ने सम्मानित व विख्यात दुसेल्दोर्फ़ के औद्योगिक क्लब में भाषण देने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया जिसमें रुर घाटी के औद्योगिक महाबली भी शामिल थे. ऐसे अवसरों पर अपनी आदत के अनुरूप वह खुले रूप से किसी यहूदी विरोधी वक्तव्य से बचता रहा. उसने यह भी आश्वासन दिया कि “रूस में लिविंग स्पेस” हासिल करने के अलावा उसके नेतृत्व में पुनरावेगित जर्मनी अपने पड़ोसियों के साथ “शांति और मैत्री” से रहेगा. मगर उसका प्रभावहीन भाषण कुछ खास प्रभाव छोड़ पाने में नाकामयाब रहा. क्रूप्प और द्यिस्बेर्ग जैसे चोटी के उद्योगपतियों ने खुल कर हिन्‍डेन्‍बर्ग का साथ दिया और हिटलर की पार्टी को अपेक्षाकृत काफी कम अनुदान मिले.


Jarmani
"ओ जर्मनी, निस्‍तेज मां" - बर्लिन-मित्‍ते के म्‍यूजियम आइलेण्‍ड में फ्रिट् ज क्रे मर की कलाकृति जिसका नाम बर्तोल्‍त ब्रेश्‍त की कविता से लिया गया है

खुद हिटलर समेत सारे नात्जि़यों की आशाओं – आकलनों को ध्वस्त करते हुए निवर्तमान प्रेसिडेंट को एक करोड़ अस्सी लाख वोट मिले और हिटलर को एक करोड़ दस लाख. नात्‍ज़ी कतारों और समर्थकों का मनोबल इस कदर गिर गया कि कई जगहों पर स्वास्तिका झंडे आधे झुका दिए गए.

10 अप्रैल को चुनाव के दूसरे दौर की घोषणा हुई क्योंकि हिन्‍डेन्‍बर्ग बहुसंख्या वोट से जरा सा चूक गया था. हार से और भी कृतसंकल्प हो कर हिटलर ने अपना पहला “जर्मनी का उड़न दौरा” शुरू किया जो इतिहास की भी ऐसी पहली पहलकदमी थी. “जर्मनी के ऊपर हिटलर” नारा पार्टी अखबारों में चीखती हेड लाइनों के रूप में छपने लगा. यह हिटलर के न सिर्फ “सर्वव्यापी” होने का इशारा कर रहा था, बल्कि उसके सारे वर्गों और पार्टियों से ऊपर होने और आने वाले “जातीय समुदाय” के दावे को भी प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्त कर रहा था. और इस बात ने कि, मौसम उड़ान के लिए चाहे जितना खराब हो, हिटलर ने कभी कोई कार्यक्रम रद्द नहीं किया, इस मिथक को मज़बूत करने का काम किया कि हिटलर वह “राष्ट्र रक्षक” था जो किसी भी खतरे से बेपरवाह अपना बलिदान देने के लिए हमेशा तैयार था. हिन्‍डेन्‍बर्ग जीत तो गया मगर इस बार हिटलर को बीस लाख वोट ज्यादा मिले. मगर इस वृद्धि का एक बड़ा कारण यह भी था कि एक राष्ट्रवादी उम्मीदवार ने उसके पक्ष में अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली थी.

अप्रैल के अंत में प्रशिया, बावेरिया, वुर्तेम्बर्ग, और अनहाल्ट में लैंडटैग्स के लिए और हैम्बर्ग में नागरिक निकायों के लिये चुनाव हुए. हर जगह एन.एस.डी.ए.पी. ने शानदार प्रदर्शन किया. प्रशिया में, जो जर्मनी का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य है, 1928 के 1.8% वोट से छलाँग लगा कर यह 36.3% वोट हिस्सेदारी के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन गयी. मगर सिर्फ अनहाल्ट को छोड़ कर अन्य किसी राज्य में वे अपनी ताकत को सरकार में नहीं बदल सके क्योंकि उन्होंने किसी भी गठबंधन में शामिल होने से इनकार कर दिया. यह एक अजीब स्थिति थी. एन.एस.डी.ए.पी. की अदभुत-अभूतपूर्व जीत के जश्न के बीच गोएबेल्स ने अपनी डायरी में दर्ज किया : “अब इसके बाद क्या? कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा. हमें सत्ता हासिल करनी होगी. अन्यथा हम सब खुद को मृत्यु की विजय के हवाले कर देंगे.”

संसदीय जनतंत्र पर हमले

इसी बीच नात्जि़यों के लिए इस असमंजस से बाहर निकलने का रास्ता बनता दिखायी देने लगा. मध्यमार्गी चान्सलर और धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी प्रेसिडेंट के बीच राजनीतिक मतभेद तीखे होने लगे थे. प्रेसिडेंट के अनुसार ब्रूनिंग एस.ए. दंगाइयों के खिलाफ तो कठोर कार्यवाही कर रहा था (उसने नात्‍ज़ी पैरामिि‍लट्री यूनिटों को भंग करने के लिए आपात राजाज्ञा जारी करने का दबाव डाला था) मगर 'कम्युनिस्ट खतरे' के प्रति चुप था. इसलिए उसने चान्सलर से तत्काल केबिनेट पुनर्गठन के जरिये दक्षिणपंथी वर्चस्व बनाने की इच्छा जताई. चान्सलर, जो खुद प्रेसिडेंट और मिि‍लट्री हाईकमान की शक्ति को संसद के अधिकार क्षेत्र की कीमत पर लगातार बढ़ाते रहने का जिम्मेदार था, अन्ततः निरंकुशता के इस दबाव के आगे झुक गया और मई के अंत में इस्तीफ़ा दे दिया. फ्रान्ज़ वॉन पापेन नया चान्सलर बना.

एस.ए. पर प्रतिबन्ध सरकार के काफी लोगों को रास नहीं आया जो इन हथियारबंद गिरोहों में जर्मनी की सैन्य ताकत के पुनर्निर्माण की जबरदस्त सम्भावना देख रहे थे. इनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली रक्षा मंत्री जनरल कुर्ट वॉन श्‍लाइकर था जो हिन्डेन्‍बर्ग की ही तरह यह मानता था कि एन.एस.डी.ए.पी. से डील करने का सही तरीका उसे शासकीय गठबंधन में ला कर नकेल डालने की कोशिश करने का है. उसने हिटलर से गुप्त मुलाकात कर के गठबंधन में शामिल होने या कम से कम इसका विरोध न करने के लिए राजी कराने की कोशिश की. हिटलर गठबंधन में शामिल होने से इनकार करते हुए, पापेन के नेतृत्व वाली अपेक्षाकृत ज्यादा दक्षिणपंथी अंतरिम कैबिनेट के साथ “सकारात्मक सहयोग” (आज के अर्थों में बाहर से समर्थन) के लिए सहमत हो गया. इसके लिए उसकी शर्तें जल्द से जल्द नए चुनाव कराने और एस.एस. पर से प्रतिबन्ध हटाने की थीं जिनके लिये उसे पूरा आश्वासन मिला. हिटलर की बांछें खिल गयीं, उसने अपने हाथ भी नहीं बंधने दिए और इसके बावजूद उसके पास सारे तुरुप के पत्ते थे. हिन्‍डेन्‍बर्ग और पापेन ने अपना आश्वासन पूरी तरह से निभाया. राइकस्‍ताग को 4 जून को भंग करके 31 जुलाई नए चुनाव की तिथि घोषित कर दी गयी. 16 जून को एस.ए. पर से प्रतिबन्ध हटा लिया गया. ब्राउनशर्ट्स दंगाई, जो दो महीने पहले प्रतिबन्ध लग जाने के बावजूद किसी तरह के दमन या गिरफ्तारी न होने के चलते, छद्म वैध रूप से अपनी कार्यवाहियां संचालित कर रहे थे, प्रतिबन्ध हटने के बाद अब अपने असली रंग में आ गए. हिंसा अकल्पनीय रूप से बढ़ने लगी; फासिस्ट अब रोज सड़कों पर खूनी खेल खेल रहे थे.


dimitrov“फ़ासिस्ट तानाशाही की स्थापना से पहले, बुर्जुआ सरकारें आम तौर पर कई सारे प्राथमिक स्तरों से गुजरती हैं और ऐसे तमाम प्रतिक्रियावादी कदम उठाती हैं जो फ़ासीवाद के सत्ता तक पहुँचने में सीधे मददगार होते हैं. जो भी इन तैयारी के स्तरों पर बुर्जुआ के प्रतिक्रियावादी कदमों और फ़ासीवाद के विकास के खिलाफ नहीं लड़ता है, वह फ़ासीवाद की विजय को रोक सकने की स्थिति में नहीं होता, बल्कि इसके उलट इस विजय में मददगार होता है.”
– ज्यार्जी दिमित्रोव
कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की सातवीं विश्व कांग्रेस के लिए रिपोर्ट ,
अगस्त 1935


जुलाई में प्रशिया की सोशल डेमोक्रेटिक सरकार भंग करने के बाद सैन्य आपात काल लागू करके संसदीय जनतंत्र पर दूसरा बड़ा हमला किया गया. इसके लिए नात्‍ज़ी हथियारबंद गिरोहों और मजदूरों के बीच हाल की झड़पों का हवाला दे कर कानून-व्यवस्था की असफलता और राज्य विधायिका में बहुमत खो देने का बहाना बनाया गया. पापेन ने खुद को प्रशिया का राइक कमिश्नर नियुक्त कर लिया. एस.पी.डी. से सड़कों पर जबदस्त प्रतिरोध में उतरने की उम्मीद थी : आखिरकार उसकी सरकार को अपदस्थ कर दिया गया था, और अभी भी उसके पास ताकतवर ट्रेड यूनियनों का भरपूर समर्थन था. मगर इसने महज न्यायालय में अपील तक खुद को सीमित रखा जिसका कोई नतीजा नहीं निकला. के.पी.डी. ने आम हड़ताल का आह्वान जरूर किया मगर एस.पी.डी. और यूनियनों के सहयोग के अभाव में वह फुस्स हो गयी. इस तरह वाम की तरफ से कोई प्रभावी प्रतिवाद-प्रतिरोध नहीं हुआ.

इस “संवैधानिक तख्तापलट” के तुरंत बाद नए शासक प्रशियन नागरिक सेवा को डेमोक्रटों से “मुक्त” करने में जुट गए. आगे इस प्रक्रिया को नेशनल सोशलिस्ट सत्ता में आने के बाद पूरे उन्माद-उत्साह के साथ आगे बढ़ायेंगे. इतिहासकार कार्ल-दिएत्रिच ब्रषर ने बिलकुल सटीक कहा : प्रशिया तख्तापलट छः महीने बाद नात्‍ज़ी सत्ता हथियाने की पूर्वपीठिका थी.

यहाँ यह उल्लेख कर देना जरूरी और प्रासंगिक है कि संसदीय जनतंत्र पर हुए ये सभी प्रतिक्रियावादी-निरंकुश हमले हिटलर की ओर से नहीं हुए थे हालांकि कुछ में उसके उत्प्रेरक अथवा उकसावेबाज की भूमिका जरूर थी. इसके बावजूद अंत में केवल वही अकेला सत्ता के मार्ग पर बढ़ते हुए, अपने सारे प्रतिद्वंदियों, मददगारों और सहयात्रियों को रास्ते से लात मार कर हटाते-मिटाते हुए इनके सारे फायदे उठाने वाला था.


फुट नोट :
1. परन्‍तु 1931 के बसन्‍त के घटनाक्रम के दूरगामी राजनीतिक परिणाम होने थे जिनके कारण एस.एस. प्रमुखता में आ गया, जो अभी तक एस.ए. के मातहत काम करता था. संकट के समय पार्टी नेतृत्‍व के प्रति पूर्ण वफादार रह कर एस.एस. ने वह राजनीतिक पूंजी हासिल कर ली जिसके चलते वह एस.ए. से प्रतिद्वंदिता में आगे निकल गया. आगे चल कर एस.एस. नात्‍ज़ीवाद के इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण काम करने वाला था, जब 1934 में कुख्‍यात 'लम्‍बे छुरों की रात' में हिटलर ने विद्रोही एस.ए. नेताओं और सदस्‍यों को मारने व उनके हथियार रखवाने के लिए इसका उपयोग किया. हिटलर के लिए यह दुहरा खतरा बन गया था कि एस.ए. की हिंसात्‍मक कार्रवाईयां उसके नियंत्रण के बाहर न चली जायें और उसका यह आश्‍वासन झूठ न बन जाये कि पार्टी कानून के दायरे में काम कर रही थी.

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