पहले दिन से ही हिटलर पार्टी का सबसे विश्वसनीय और सक्रिय नेता था : भारी भीड़ के सामने – ग्रामीण अंचलों में भी, भाषण देना, पैनल बहसों में भाग लेना. इस दौर में उसका केन्द्रीय बल लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने पर था. हिटलर ने “मेरा संघर्ष” में उन प्रारंभिक दिनों की अपनी मनोदशा पर लिखा : “कौन परवाह करता है कि वे हम पर हँसते हैं या हमें अपमानित करते हैं, हमें मूर्ख या अपराधी मानते हैं? मुख्य बात यह है कि वे हमारे बारे में बात करते हैं और बराबर हमारे बारे में सोचते हैं.” अब तक पुलिस और मिि‍लट्री के आका भी एन.एस.डी.ए.पी. की गतिविधियों के “लाभकारी देशभक्ति प्रभाव” को सराहने लगे थे.

एन.एस.डी.ए.पी. नेता हमेशा अपने राजनीतिक एजेंडे पर पूरी तरह केन्द्रित रहता. जनवरी 1923 में वर्साय संधि द्वारा निर्धारित क्षति-पूर्ति वसूली के लिए देश के औद्योगिक संकुल रुह्र घाटी में फ्रेंच और बेल्जियन टुकडियां घुस आईं. पूरे देश में इसका भारी प्रतिवाद हुआ, घुसपैठिये आक्रांताओं के खिलाफ संयुक्त प्रदर्शन हुए. मगर दूसरों को चकित करती हुई हिटलर के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी पार्टी इस सब से अलग रही. इसने जनता के आक्रोश को घर के अन्दर के दुश्मनों “नवम्बर के अपराधियों” की दिशा में मोड़ने की चाल चली. हिटलर ने जनसभा में कहा कि “सेना की पीठ में छुरा भोंक कर” प्रथम विश्व युद्ध के अंत में राजनीतिक नेताओं ने जर्मनी को सुरक्षा विहीन कर के “सम्पूर्ण गुलामी” के लिए खोल दिया था. वह वस्तुतः उन नेताओं को संकेत दे रहा था जिन्होंने वर्साय संधि पर हस्ताक्षर किये थे और जो वेइमार रिपब्लिक की स्थापना के लिए जिम्मेदार थे. उसने बल दे कर कहा कि असल कार्यभार यह सुनिश्चित करना था कि उन अपराधियों (मुख्यतः सोशल डेमोक्रेट और कम्युनिस्ट ) को सज़ा मिले और एक नए मज़बूत जर्मनी का निर्माण हो. इसलिए उसने तर्क दिया कि “संयुक्त मोर्चे के लिए हल्ला-गुल्ला” सिर्फ जर्मन जनता का उनके मुख्य कार्यभार से ध्यान बंटाने का काम करेगा.

मगर इस “मुख्य कार्यभार” के उन्मादी अनुसरण और बावेरियन पुलिस व केन्द्रीय सैन्य नेतृत्व की पुचकार से उन्मत्त हिटलर कुछेक भारी गलतियाँ कर बैठा.

दुस्साहसवाद और बगावतवाद के लिए सज़ा

हिटलर को लगने लगा कि परिस्थितियाँ बेहद तेजी से गर्म हो रही थीं और अब सिर्फ प्रोपेगैंडा से काम नहीं चलने वाला है. उसने अपने सबसे संगठित राजनीतिक दुश्मन नम्‍बर 1 – मजदूर वर्ग पार्टियों से मई दिवस के अवसर पर सीधे टकराने का दुस्साहसी फैसला लिया. उसने बड़े शातिर तरीके से बावेरियन सरकार से मई दिवस समारोहों पर यह कहते हुए प्रतिबन्ध लगाने की मांग की कि यह दिन 1919 में गठित क्रांतिकारी परिषदों से म्‍यूनिक के कंजर्वेटिव “लिबरेशन” की वर्षगाँठ का भी दिन था. सरकार ने ऐसा भड़काऊ और कड़ा कदम उठाने से इनकार कर दिया. तब हिटलर ने खुद मई दिवस परेड को रोकने की ठानी. उसके आह्वान पर दो हजार की संख्या में हथियारबन्द पैरा मिलिशिया “फ्राइकोर” परेड जबरन रोकने को जुटे. हिटलर ने खुद पूरी मिलट्री वर्दी, स्टील हेलमेट और आयरन क्रास के साथ गुरूर से कमान संभाली. मगर इस बार प्राधिकारियों ने फैसला लिया कि इन नए उभरते हुड़दंगियों को प्रशासन के समर्थन का मनमाना फ़ायदा लेने की इजाज़त नहीं दी जायेगी और सेना बुला ली गयी. उसके कुछ उन्मत्त सिरफिरे अनुयायी अभी भी लड़ने को तैयार थे, मगर हिटलर राज्य के साथ ऐसे व्यर्थ के हथियारबन्द टकराहट पर अपना समूचा राजनीतिक कैरियर दांव पर लगाने का जोखिम उठाने से पीछे हट गया. विशाल मई दिवस समारोह शान्तिपूर्वक संपन्न हो गए.

इस फुस्स तमाशे से हिटलर की इज्जत की जबरदस्त किरकिरी हुई. उसके साथी और अनुयायी, खासकर एस.ए. (नात्‍ज़ी पार्टी का मूल पैरामिलट्री विंग जो स्टार्मट्रूपर्स या ब्राउनशर्ट्स के नाम से भी जाना जाता है), बेहद निराश हुए. बहुतेरे राजनीतिक पर्यवक्षक – विश्लेषक मानने लगे कि नात्जि़यों का सितारा अस्त होने लगा है. मगर वस्तुगत परिस्थिति उनके अनुकूल होती जा रही थी. 1920 की गर्मियों से ही मजदूर वर्ग का बगावती तेवर अपने चरम पर पहुँचने लगा था. अगस्त में ज्यादातर एस.पी.डी. नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनों की हडतालों और प्रदर्शनों के दबाव में चान्सलर विल्हेम कूनो को पद से हटना पड़ा. दक्षिण पंथी तख्तापलट की अटकलें तेज होने लगीं. वृहत्तर दक्षिण पंथी हलकों में एक धारणा बन रही थी कि सबसे प्रतिभाशाली नौजवान नेता लिबरल वाम फेडरल सरकार को हटा कर हार्ड-कोर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी सरकार की स्थापना के लिए किसी-न-किसी बड़ी कार्यवाही के साथ आगे आयेगा जैसा कि बस साल भर पहले मुसोलिनी ने इटली में “मार्च ऑन रोम” के रूप में किया था.

यह सपना कई और दक्षिणपंथी ताकतों का भी था. इनमें सबसे बढ़ कर बावेरिया में बर्लिन की रिपब्लिकन सरकार के प्रति घोर बैर व नफ़रत से शासन कर रही कार (बावेरिया स्टेट कमिसार ), लोस्सोव (बावेरिया सैन्य कमांडर), और साइस्सर (बावेरिया पुलिस प्रधान) की त्रिमूर्ति थी. हिटलर ने खुले आम मांग की कि बावेरिया शासकों को तुरंत कार्यवाही करनी चाहिये : “अब समय आ गया है ! आर्थिक त्रासदी हमारे लोगों को इस कदर त्रस्त कर रही है कि हमें कार्यवाही करनी ही होगी अन्यथा अपने समर्थकों के कम्युनिस्टों के पाले में चले जाने का जोखिम उठाना पड़ सकता है.” उसने उन पर दबाव डालने की हर चन्द कोशिश की मगर वे टाल-मटोल करते रहे. अब नात्‍ज़ी नेता साल की अपनी दूसरी दुस्साहसिक कार्यवाही में उतर पड़ा.

असफ़ल बियर हॉल तख्तापलट

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बियर हॉल तख्‍तापलट के समय राटहाउस के बाहर जमा भीड़ - यूएस होलोकास्‍ट मेमोरियल म्‍यूजियम

कार ने म्‍यूनिक के एक सबसे बड़े बियर हॉल बर्गरब्रौक्लेर में सारे मंत्रियों, अधिकारियों, और राजनीतिक वीवीआईपी लोगों की बैठक बुलाई थी. हिटलर ने फैसला लिया कि अगर उसके समर्थक बर्गरब्रौकेलेर पर कब्जे में सफल हो जाते हैं, उनके पास म्‍यूनिक के समूचे राजनीतिक वर्ग को अपने कब्जे में लेने का सुनहरा अवसर होगा. योजना यह थी कि त्रिमूर्ति के लिए बर्लिन के खिलाफ बगावत के अलावा कोई चारा न छोड़ा जाय.

ट्रकों में भर कर पहुंचे हथियारबंद एस.ए. दस्तों की पहरेदारी में अपने इलीट अंगरक्षकों के साथ हिटलर तूफ़ान की तरह बियरहॉल में घुसा, भीड़ को शांत-आतंकित करने के लिए एक गोली दागी, और उत्तेजना के चरम में घोषणा की : “राष्ट्रीय क्रांति जारी है. हॉल पूरी तरह हथियारबंद 600 लोगों के कब्जे में है. किसी को हॉल छोड़ने की इजाज़त नहीं है. अगर चीज़ें तुरंत नियंत्रण में नहीं आ जातीं, मेरे पास गैलरी पर मशीनगन तैनात है. राइक सरकार अपदस्थ कर दी गयी है. एक प्रोविजनल सरकार बना दी गयी है.”

हिटलर ने तब बन्दूक की नोक पर कार, लोस्सोव और साइस्सर को उनकी जान की सुरक्षा की गारंटी करते हुए बगल के कमरे में अपने साथ चलने को कहा. वहां उसने एक साथ धमकाते और क्षमा मांगते हुए, उनसे वचन निभाने का वादा लिया, और हॉल में लौट आया. सभी जबरदस्त गुस्से और हिकारत में थे. मगर अपने एक छोटे से भाषण से हिटलर ने पूरे हाल का माहौल बदल दिया.

इसके बाद हिटलर वापस त्रिमूर्ति के पास हॉल में आ कर सबके सामने समझौते पर मुहर लगाने के दबाव के लिए गया. भीड़ के छंटने के पहले एस.ए. कमांडो मंत्रिमंडल के सारे सदस्यों को गिरफ्तार कर चुके थे. कार, लोस्सोव और साइस्सर को भूतपूर्व जनरल लुदेन्दोर्फ़ की निगरानी में छोड़ कर हिटलर शहर के अन्य हिस्सों में विद्रोह की मदद के लिए निकल गया. मगर जनरल ने त्रिमूर्ति को इस कोरे आश्वासन के भरोसे हॉल छोड़ कर जाने की इजाज़त दे दी कि वे समझौते का पालन करेंगे. एक बार छूट जाने पर त्रिमूर्ति ने विद्रोह को दबाने के लिए सारे उपाय कर दिए. तख्तापलट असफल हो गया. हिटलर और उसके साथी गिरफ्तार कर लिए गए.

मगर इस असफल तख्तापलट ने हिटलर को लोगों के उस बड़े हिस्से के लिए “हीरो” बना दिया जो म्‍यूनिक और बर्लिन के शासक गुटों से पूरी तरह तंग आ चुके थे. म्‍यूनिक और बावेरिया के अन्य शहरों में त्रिमूर्ति के खिलाफ “गद्दारों का गुट” नारों के साथ स्वतःस्फूर्त प्रदर्शन हुए. खासकर छात्र हिटलर और उसके साथी षड्यंत्रकारियों से खासे प्रभावित थे. म्‍यूनिक विश्वविद्यालय में 12 नवम्बर की जन सभा में “हिटलर तुम आगे बढ़ो” और “कार का नाश हो” के जबर्दस्त नारे लगे. जब विश्वविद्यालय के डीन ने सभा में मौजूद छात्रों से जर्मन राष्ट्रीय गान गाने को कहा, उन्होंने इसके बजाय फ्राइकोर का “स्वास्तिका ऑन अ स्टील हेलमेट” गीत गाया.

जेल और दूसरी पारी

मुकदमे में हिटलर और अन्य नेता देशद्रोह के दोषी पाये गए जिसकी न्यूनतम सज़ा पाँच साल के लिए जेल थी. मगर कोर्ट ने कहा कि अच्छे आचरण के आधार पर यह सज़ा सिर्फ छः महीने बाद ही मुल्तवी की जा सकती है. कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि हिटलर, चूंकि अपने विचारों और भावनाओं में इस कदर जर्मन था, अत: आस्ट्रिया में संभावित देशनिकाले से मुक्त था. सजायें बेहद मामूली थी और इनकी तीखी आलोचना हुई : वाम धारा की पत्रिका दिए वेल्त्बुह्ने ने लिखा : “म्‍यूनिक में रिपब्लिक की न्यायिक हत्या कर दी गयी है.” वस्तुतः कोर्ट ने अपराधियों की यह कहते हुए प्रशंसा की थी कि उन्होंने परम पवित्र निःस्वार्थ इच्छाशक्ति से प्रेरित हो कर विशुद्ध देशभक्ति की भावना से काम किया था.

जेल की सज़ा हिटलर के लिए मानो वरदान बन गयी. हिटलर ने बाद में लिखा कि जेल में रह कर उसे विश्वास हो गया कि हिंसा काम नहीं आएगी क्योंकि राज्य पूरी तरह जड़ जमाये हुए है और उसके कब्जे में सारे हथियार हैं. उसने यह भी दावा किया कि इस दौरान उसे उन तमाम चीज़ों पर स्पष्टता हासिल हुई जिनको ले कर पहले उसके मन में कुछ धारणायें भर थी और इससे उसे “मेरा संघर्ष” का पहला खंड लिखने में बहुत मदद मिली. हिटलर ने लिखा कि उसे जेल में डालना सरकार का मूर्खतापूर्ण कदम था: “उनके लिए मुझे बार-बार बोलते रहने और कभी भी अपनी मानसिक शांति हासिल न कर पाने के लिए बाहर ही छोड़ देना बेहतर रहा होता.”

नात्‍ज़ी नेता के नायकीय अतिराष्ट्रवाद से सम्मोहित बावेरिया की सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच साल की सज़ा को घटा कर एक साल कर दी. दिसम्बर 1924 में जेल से बाहर आने पर हिटलर ने एन.एस.डी.ए.पी. को पुनर्गठित करते हुए सारे निर्णय प्राधिकार खुद में केन्द्रित कर लिया. पार्टी मुख्यालय बर्लिन ले जाने से भी उसने यह सोच कर इनकार कर दिया कि उसकी निजी ताकत का आधार म्‍यूनिक होने के नाते पार्टी मुख्यालय भी यहीं होना चाहिये. आम लोगों के लिए उसने यह भावनात्मक तर्क दिया कि आखिरकार नात्‍ज़ीवाद की जन्मस्थली तो म्‍यूनिक ही है : “रोम, मक्का, मास्को – इनमें से हर स्थान एक विश्व दृष्टिकोण का द्योतक है. हम उसी शहर में रहेंगे जिसने पहले पार्टी कामरेडों को हमारे आन्दोलन के लिए अपना खून बहाते हुए देखा है. इसे ही रहना चाहिये हमारे आन्दोलन का मास्को.”

जेल से बाहर हिटलर ने परिस्थितियों को अपनी राजनीति के लिए अनुकूल नहीं पाया. 1925 से, मुद्रा के सुस्थिर हो जाने के बाद से, जर्मन अर्थव्यवस्था तेजी से सुधार रही थी. औद्योगिक उत्पादन, रोजगार, और कुछ मामलों में वास्तविक वेतन भी बढ़ने लगा था. जर्मनी सम्मानपूर्वक लीग ऑफ़ नेशन्स में शामिल किया जा चुका था और वेइमार रिपब्लिक भी मजबूत स्थिति में लग रहा था. प्रारंभिक 1920 दशक के मुकाबले एन.एस.डी.ए.पी. की राजनीतिक सक्रियता उतार पर थी और सदस्यता की गति भी बहुत धीमी थी. हिटलर ने बावेरिया सरकार से उसकी पार्टी पर से प्रतिबन्ध हटाने की अपील की. पार्टी की घटी प्रोफाइल और जनता में हिटलर की निजी साख को देखते हुए, प्राधिकारियों ने अपील मान ली. बी.वी.पी. नेता और “मिनिस्टर प्रेसिडेंट “(प्रधानमंत्री के समतुल्य) हाइनरिक हेल्ड ने कहा: “जंगली जानवर पर काबू पा लिया गया है, अब हम उसकी बेड़ियाँ ढीली कर सकते हैं.” मगर जेल से आने के बाद हिटलर का पहला ही भाषण इतना भड़काऊ था (या तो दुश्मन हमारी लाशों पर से गुजरेगा या फिर हम उसकी) कि सरकार ने उस पर सार्वजानिक सभाओं में बोलने पर प्रतिबन्ध लगा दिया. करीब दो साल बाद, जब पार्टी की लोकप्रियता और भी घट चुकी थी, यह प्रतिबन्ध भी हटा लिया गया.

मई 1928 के राइकस्ताग (राष्ट्रीय संसदीय) चुनावों में पार्टी की हालत बेहद बुरी थी, उसे सिर्फ 2.6% वोट मिले जो पिछले दिसंबर 1924 के चुनावों से भी कम थे. चार बुर्जुआ पार्टियों – दि सेंटर पार्टी, बीवीपी, डीडीपी, और डीवीपी के तथाकथित “महा गठबंधन” के साथ एस.पी.डी. सत्ता में आयी और हरमन मुलर चान्सलर बना.

महामंदी – नात्‍ज़ी ग्राफ का पुनः उभार

जर्मनी का आर्थिक पुनरुत्थान 1928 के अंत तक बिखर चुका था और अगले साल की विश्वव्यापी महामंदी देश को वापस गहन संकट के भंवर में खींच लाई. फरवरी 1929 में बेरोजगारों की संख्या एक बार फिर तीस लाख पार कर गयी. कृषि उत्पादों के दाम लगातार गिर रहे थे. उत्तरी जर्मनी में किसानों ने काले झंडों के साथ प्रदर्शन किया. क्लाउस हेइम नाम के किसान के नेतृत्व में एक रेडिकल गुट ने स्थानीय टैक्स व अन्य सरकारी दफ्तरों पर बमों से हमला कर दिया. एन.एस.डी.ए.पी. की लोकप्रियता अब ग्रामीण व शहरी दोनों ही अंचलों में बढ़ रही थी. 1928 और 1929 के जर्मनी के छात्र संसदों के चुनावों में इसे भरपूर सफलता मिली. नवम्बर 1928 में म्‍यूनिक विश्वविद्यालय के ढाई हजार छात्रों की सभा में हिटलर के भाषण को जबर्दस्त सराहना मिली.

यह वह परिस्थिति थी जिसमे दो नितान्त विपरीत ध्रुवीय रेडिकल पार्टियां – कम्युनिस्ट और नात्‍ज़ी दोनों ही मध्यमार्गियों की कीमत पर तेजी से बढ़ रहीं थी.


थुरिन्गिया : नात्‍ज़ी गुजरात ?

दिसंबर 1929 के लैंडटैग चुनावों में, एन.एस.डी.ए.पी. को थुरिन्गिया में छः सीटें और 11.3% वोट मिले थे. कंजर्वेटिव और लिबरल पार्टियाँ एस.पी.डी. के बिना सरकार बनाना चाहती थीं, मगर तब इसके लिए नेशनल सोशलिस्टों के समर्थन की जरूरत थी. हिटलर ने तय किया कि पार्टी शासकीय गठबंधन में तभी शामिल होगी जब उसे दो सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालय – आतंरिक और संस्कृति व जन शिक्षा मिलेंगे. हिटलर ने दो फरवरी के एक गुप्त पत्र में लिखा : “वह जिसके पास ये दोनों विभाग होंगे, और जो इनकी ताकत को निर्द्वन्द दृढ़ता के साथ इस्तेमाल करेगा, असाधारण हासिल कर सकेगा.”  आतंरिक मंत्रालय से एन.एस.डी.ए.पी. को राज्य पुलिस बल पर अधिकार और सांस्कृतिक मंत्रालय से उसे राज्य के समस्त स्कूलों और शिक्षण प्रणाली पर प्रभुत्व मिल गया. जाहिर था, हिटलर की रुचि सरकार में हिस्सेदारी में नहीं, बल्कि अन्दर से राज्य की प्रशासनिक प्रणाली पर कब्जे में थी. दोनों मंत्रालयों के लिए हिटलर ने अपने बियर हॉल बगावत षड्यंत्र के साथी विल्हेम फ्रिक्क का नाम प्रस्तावित किया. शुरू में डी.वी.पी. ने किसी दूसरे नाम की मांग की, मगर हिटलर अड़ गया कि : “या तो डॉ. फ्रिक्क हमारे मंत्री होंगे या फिर नया चुनाव होगा”. मध्य-दक्षिण पार्टियों ने यह जानते हुए कि फिर से चुनाव होने पर एन.एस.डी.ए.पी. की स्थिति और भी मज़बूत हो सकती है, हिटलर के अल्टीमेटम के आगे घुटने टेक दिए.

अपने चौदह महीनों के कार्यकाल में, गठबंधन सरकार में शामिल एक सदस्यी नात्‍ज़ी सेना ने सूक्ष्म मगर स्पष्ट रूप से दिखा दिया कि भविष्य का राष्ट्रीय नात्‍ज़ी शासन कैसा होगा. अनुभवी और दक्ष नागरिक सेवकों को एस.पी.डी. से सहानुभूति रखने के शक में हटा कर उनकी जगह नात्‍ज़ी चमचों से भर दी गयी. प्रार्थनायें स्कूलों में अनिवार्य कर दी गयी. इसका उद्देश्‍य फ्रिक्क ने लैंडटैग को बताया : “लोगों को मार्क्सवाद और यहूदियों से ठगे जाने से बचाना है”! जेना विश्वविद्यालय में नस्ल विज्ञान के एक चेयर की स्थापना की गयी और वहां समूचे प्रोफ़ेसर समुदाय के वोट को नकारते हुए कुख्यात यहूदी विद्वेषी हांस ऍफ़.के गुन्थेरर को बैठाया गया. वेइमार रिपब्लिक के कला व वास्तु कला के नए डायरेक्टर और नेशनल सोशलिज्म में पूरी आस्था रखने वाले पॉल शुल्त्ज़ – नौम्बर्ग ने शहर के रॉयल म्यूजियम से कला की सारी मॉडर्निस्ट कृतियाँ हटवा दी. फ्रिक्क ने पबों में “निग्गर ज़ैज” (अफ़्रीकी-अमरीकी संस्कृति जड़ों वाला अपार लोकप्रिय संगीत रूप) प्रतिबंधित कर दिया और स्कूलों में नात्‍ज़ी प्रार्थना अनिवार्य कर दिया. उसने वेइमार पुलिस प्रभारी सहित पुलिस विभाग में भी सेंधमारी कर के नात्‍ज़ी सदस्यों को घुसाया. लगातार बढ़ती आलोचना और विरोध के चलते लैंडटैग में अविश्वास मत के जरिये फ्रिक्क को 1 अप्रैल 1931 को हटा दिया गया.


थुरिंगिया राज्य में एक महत्वपूर्ण अनुभव मिला जिसने समूचे देश पर नात्‍ज़ी सत्ता के काबिज होने के कुछ साल पहले नात्‍ज़ी शासन की प्रयोगशाला की भूमिका अदा की. आगे मार्च 1930 में मुलर सरकार गिर गयी. राइकस्‍ताग के सितम्बर चुनावों में एस.पी.डी. के वोट 6% लड़खड़ा गये जब कि कम्युनिस्ट के.पी.डी. को मई 1928 के मुकाबले 40% की बढ़त मिली. मगर गिनती में के.पी.डी. का उभार एस.पी.डी. की घटत की भरपायी नहीं कर सका, इसलिये उनकी संयुक्त हिस्सेदारी घट गयी जबकि नात्‍ज़ी वोट हिस्सेदारी में 700% की बढ़त हुई. राइकस्‍ताग में एन.एस.डी.ए.पी. अब नौवें स्थान से दूसरे स्थान पर आ गई.

यहाँ बेहतरीन क्रान्तिकारी परिस्थिति के इस्तेमाल के मामले में फ़ासिस्टों ने मिलिटेंट वाम को भारी अन्तर से पछाड़ दिया. मगर यह आम पैटर्न नहीं था. महज दो साल बाद, नवम्बर 1932 में, नात्‍ज़ी वोट उस साल की जुलाई के मुकाबले घटा और के.पी.डी. का बढ़ा. बहरहाल, कांटे की टक्कर बराबर धुर दक्षिण और क्रन्तिकारी वाम के बीच बनी रही.

नात्‍ज़ी शानदार सफलता के तीन बड़े राजनीतिक दुष्परिणाम निकले. पहला : नात्जि़यों को संसद में रोकने की गरज से एस.पी.डी. ने सेंटर पार्टी नेता हाइनरिक ब्रूनिंग की उस सरकार को समर्थन दिया जिसने खुद उसी की सरकार को अपदस्थ किया था. इसके चलते ब्रूनिंग सरकार अगले दो सालों तक सत्ता में बनी रही और उसके कुशासन ने हिटलर के उत्कर्ष का रास्ता बनाया.

दूसरे: पूंजीपतियों ने एन.एस.डी.ए.पी. के भविष्य को भांप लिया और उसके खजाने में योगदान देना शुरू कर दिया. इसे सुनिश्चित करने के लिए हिटलर चुनाव वाले महीने में भूतपूर्व चान्सलर और हैम्बर्ग-अमेरिका ओसियन लाइन (एच.ए.पी.ए.जी.) के चेयरमैन विल्हेम कूनो से मिला. उसने कूनो और उसके जरिये अन्य उद्योग महाबलियों को भरोसा दिलाया कि एन.एस.डी.ए.पी. उद्यमिता पहलकदमियों और निजी पूँजी का पूरा समर्थन करेगी और सिर्फ गैर-कानूनी तरीके से हासिल सम्पदा के मामलों में ही हस्तक्षेप करेगी. बावजूद इसके, उद्योगपति पार्टी के आर्थिक कार्यक्रम को ले कर सशंकित बने रहे. उनकी शंका और भी मजबूत हुई जब अगले ही महीने (अक्टूबर 1930) में एन.एस.डी.ए.पी. ने संसद में तमाम ऐसे प्रस्ताव पेश किये जो न सिर्फ यहूदी-विरोधी बल्कि वित्तीय पूँजी के भी विरोधी थे : बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण, ब्याज दर 5% पर सीमित करना, सेक्युरिटीज ट्रेडिंग पर प्रतिबन्ध आदि. ये प्रस्ताव दिखाते थे कि एन.एस.डी.ए.पी. चेयरमैन पूंजीपतियों की शंकायें मिटाने की कोशिश करने के बावजूद पार्टी के सोशलिस्ट विंग को अलगाव में नहीं डालना चाहता था. पूंजीपतियों के राजनीतिक प्रभाव को रेखांकित करते हुए हिटलर ने अपने विश्वस्त ओट्टो वेगनर से, जिसकी नजर में पूंजीपतियों से पेंग मिलाना अगर नुकसानदेह नहीं तो भी व्यर्थ जरूर था, कहा : “मैं सोचता हूँ कि हम उनके सरों पर से गुजर कर विल्हेम्स्त्रास (चान्सलर प्राधिकार) नहीं जीत पायेंगे.”

छद्म के रूप में कानूनवाद

तीसरी और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात : पार्टी सदस्यता (1930 के अंत में 3,89,000 से एक साल बाद करीब 8,06,000 ) और एस.ए. सदस्यता (जनवरी 1931 में 77,000 से एक साल बाद 2,90,000 और फिर 19 अगस्त 1932 को 4,45,000) में विस्फोटक उभार के साथ नात्‍ज़ी बिरादराने में अब सबसे चर्चित चर्चा “अगला कदम क्या?” थी. राज्य सत्ता अभी काफी दूर लग रही थी और एस.ए. के लोगों का “कार्यवाही” – ठीक-ठीक कहें तो तख्तापलट के लिए सब्र का बाँध टूटता लग रहा था. मगर हिटलर जेल, पार्टी पर प्रतिबन्ध या उसके सार्वजनिक सभाओं में बोलने पर प्रतिबन्ध का एक और जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं था जो पार्टी के विकास के लिए बेहद नुकसानदेह साबित हुए थे. उसने एस.ए. के लोगों को “भेदियों और उकसावेबाजों” से सावधान रहने के लिए आगाह किया जो उन्हें कानून तोड़ने के लिये ललचा रहे थे : “हमारी वैधता राजसत्ता पर वर्तमान में काबिज लोगों के सारे कदमों को ध्वस्त और पराजित कर देगी.” मार्च 1931 की शुरुवात में म्‍यूनिक एस.ए. ब्रिगेड की बैठक में उसने गैर कानूनी रास्तों से लड़ने के मामले में बेहद कायर होने के आरोप का जबाब देते हुए कहा कि वह उन्हें वहां बाहर मशीनगनों से भून डाले जाने के लिए नहीं भेजना चाहता क्योंकि उसे उनकी कहीं ज्यादा जरूरी कामों, खासकर “थर्ड राइक” बनाने के लिए जरूरत पड़ेगी.

हिटलर के पास यह मानने के पर्याप्त कारण थे कि किसी भी दुस्साहसी कदम से एस.ए. और समूचे एन.एस.डी.ए.पी. पर भी प्रतिबन्ध लग सकता है. प्रेसिडेंट द्वारा जारी आपात राजाज्ञा से यह साफ मतलब निकलता था. इसलिए उसने 30 मार्च को आदेश जारी किया कि राजाज्ञा का उल्लंघन करने वाले को तुरंत पार्टी से निकल बाहर किया जायेगा. उसे एस.ए. के बर्लिन प्रधान वाल्टर स्टेन्स को पार्टी कार्यक्रमों के लिए सुरक्षा प्रदान करने से इनकार और घोर अराजक कार्यवाहियों के लिये निकालना पड़ा. स्टेन्स और उसके साथियों ने बर्लिन में बगावत की कोशिश की, मगर यह अन्य शहरों में नहीं फ़ैल सकी और चन्द दिनों में ध्वस्त हो गयी[1].

मगर यह घटना भी बर्लिन एस.ए. के अगले प्रधान काउंट वुल्फ़-हाइनरिक वॉन हेल्दोर्फ़ को 12 सितम्बर 1931, यहूदी नव वर्ष पर 500 हथियारबंद लोगों को ले कर “जागो जर्मनी, यहूदी को मरना ही होगा” चीत्कार करते हुए यहूदियों की दुकानें लूटने-नष्ट करने और यहूदी नज़र आने वालों को आतंकित-उत्पीडि़त करने से नहीं रोक सकी. गैंग लीडरों समेत कुछेक दंगाइयों पर मुक़दमे चले मगर उन्हें हल्की-फ़ुल्की सज़ा के साथ बरी कर दिया गया. हिटलर ने पार्टी के अन्दर एस.ए. नेताओं को फिर आगाह किया कि उन्हें भड़कावे में हरगिज़ नहीं आना है – उन्हें समझना ही होगा कि इस समय कानूनी रास्ता ही एकमात्र सुरक्षित रास्ता है. इसी के साथ उसने यह भी सुझाव दिया कि बड़े शहरों में “लोगों के क्रान्तिकारी मूड को सँभालने के किये एस.ए. को कुछ-न-कुछ करने की जरूरत है.” इन कार्यवाहियों में शामिल होने वाले एस.ए. नेताओं से सार्वजनिक दिखावे के तौर पर पार्टी दूरी बनाएगी, मगर उसने अपने जल्लादों को आश्वस्त किया : “निश्चिन्त रहो कि पार्टी तुम्हारी सेवाओं को नहीं भूलेगी और सही समय आते ही तुम्हें तुम्हारे पदों पर बहाल कर दिया जायेगा.”

चुनावी राजनीति की सनक तरंगें

1932 में एन.एस.डी.ए.पी. ने कई चुनावों में भागीदारी की जिनमें नतीजे ऊपर-नीचे होते रहे. पहला, मार्च का प्रेसिडेंट चुनाव था जिसमें हिन्‍डेन्‍बर्ग के खिलाफ़ हिटलर प्रमुख दावेदार था. भावी सरकार के मुखिया के रूप में खुद को पेश करने कोशिश में हिटलर ने सम्मानित व विख्यात दुसेल्दोर्फ़ के औद्योगिक क्लब में भाषण देने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया जिसमें रुर घाटी के औद्योगिक महाबली भी शामिल थे. ऐसे अवसरों पर अपनी आदत के अनुरूप वह खुले रूप से किसी यहूदी विरोधी वक्तव्य से बचता रहा. उसने यह भी आश्वासन दिया कि “रूस में लिविंग स्पेस” हासिल करने के अलावा उसके नेतृत्व में पुनरावेगित जर्मनी अपने पड़ोसियों के साथ “शांति और मैत्री” से रहेगा. मगर उसका प्रभावहीन भाषण कुछ खास प्रभाव छोड़ पाने में नाकामयाब रहा. क्रूप्प और द्यिस्बेर्ग जैसे चोटी के उद्योगपतियों ने खुल कर हिन्‍डेन्‍बर्ग का साथ दिया और हिटलर की पार्टी को अपेक्षाकृत काफी कम अनुदान मिले.


Jarmani
"ओ जर्मनी, निस्‍तेज मां" - बर्लिन-मित्‍ते के म्‍यूजियम आइलेण्‍ड में फ्रिट् ज क्रे मर की कलाकृति जिसका नाम बर्तोल्‍त ब्रेश्‍त की कविता से लिया गया है

खुद हिटलर समेत सारे नात्जि़यों की आशाओं – आकलनों को ध्वस्त करते हुए निवर्तमान प्रेसिडेंट को एक करोड़ अस्सी लाख वोट मिले और हिटलर को एक करोड़ दस लाख. नात्‍ज़ी कतारों और समर्थकों का मनोबल इस कदर गिर गया कि कई जगहों पर स्वास्तिका झंडे आधे झुका दिए गए.

10 अप्रैल को चुनाव के दूसरे दौर की घोषणा हुई क्योंकि हिन्‍डेन्‍बर्ग बहुसंख्या वोट से जरा सा चूक गया था. हार से और भी कृतसंकल्प हो कर हिटलर ने अपना पहला “जर्मनी का उड़न दौरा” शुरू किया जो इतिहास की भी ऐसी पहली पहलकदमी थी. “जर्मनी के ऊपर हिटलर” नारा पार्टी अखबारों में चीखती हेड लाइनों के रूप में छपने लगा. यह हिटलर के न सिर्फ “सर्वव्यापी” होने का इशारा कर रहा था, बल्कि उसके सारे वर्गों और पार्टियों से ऊपर होने और आने वाले “जातीय समुदाय” के दावे को भी प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्त कर रहा था. और इस बात ने कि, मौसम उड़ान के लिए चाहे जितना खराब हो, हिटलर ने कभी कोई कार्यक्रम रद्द नहीं किया, इस मिथक को मज़बूत करने का काम किया कि हिटलर वह “राष्ट्र रक्षक” था जो किसी भी खतरे से बेपरवाह अपना बलिदान देने के लिए हमेशा तैयार था. हिन्‍डेन्‍बर्ग जीत तो गया मगर इस बार हिटलर को बीस लाख वोट ज्यादा मिले. मगर इस वृद्धि का एक बड़ा कारण यह भी था कि एक राष्ट्रवादी उम्मीदवार ने उसके पक्ष में अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली थी.

अप्रैल के अंत में प्रशिया, बावेरिया, वुर्तेम्बर्ग, और अनहाल्ट में लैंडटैग्स के लिए और हैम्बर्ग में नागरिक निकायों के लिये चुनाव हुए. हर जगह एन.एस.डी.ए.पी. ने शानदार प्रदर्शन किया. प्रशिया में, जो जर्मनी का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य है, 1928 के 1.8% वोट से छलाँग लगा कर यह 36.3% वोट हिस्सेदारी के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन गयी. मगर सिर्फ अनहाल्ट को छोड़ कर अन्य किसी राज्य में वे अपनी ताकत को सरकार में नहीं बदल सके क्योंकि उन्होंने किसी भी गठबंधन में शामिल होने से इनकार कर दिया. यह एक अजीब स्थिति थी. एन.एस.डी.ए.पी. की अदभुत-अभूतपूर्व जीत के जश्न के बीच गोएबेल्स ने अपनी डायरी में दर्ज किया : “अब इसके बाद क्या? कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा. हमें सत्ता हासिल करनी होगी. अन्यथा हम सब खुद को मृत्यु की विजय के हवाले कर देंगे.”

संसदीय जनतंत्र पर हमले

इसी बीच नात्जि़यों के लिए इस असमंजस से बाहर निकलने का रास्ता बनता दिखायी देने लगा. मध्यमार्गी चान्सलर और धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी प्रेसिडेंट के बीच राजनीतिक मतभेद तीखे होने लगे थे. प्रेसिडेंट के अनुसार ब्रूनिंग एस.ए. दंगाइयों के खिलाफ तो कठोर कार्यवाही कर रहा था (उसने नात्‍ज़ी पैरामिि‍लट्री यूनिटों को भंग करने के लिए आपात राजाज्ञा जारी करने का दबाव डाला था) मगर 'कम्युनिस्ट खतरे' के प्रति चुप था. इसलिए उसने चान्सलर से तत्काल केबिनेट पुनर्गठन के जरिये दक्षिणपंथी वर्चस्व बनाने की इच्छा जताई. चान्सलर, जो खुद प्रेसिडेंट और मिि‍लट्री हाईकमान की शक्ति को संसद के अधिकार क्षेत्र की कीमत पर लगातार बढ़ाते रहने का जिम्मेदार था, अन्ततः निरंकुशता के इस दबाव के आगे झुक गया और मई के अंत में इस्तीफ़ा दे दिया. फ्रान्ज़ वॉन पापेन नया चान्सलर बना.

एस.ए. पर प्रतिबन्ध सरकार के काफी लोगों को रास नहीं आया जो इन हथियारबंद गिरोहों में जर्मनी की सैन्य ताकत के पुनर्निर्माण की जबरदस्त सम्भावना देख रहे थे. इनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली रक्षा मंत्री जनरल कुर्ट वॉन श्‍लाइकर था जो हिन्डेन्‍बर्ग की ही तरह यह मानता था कि एन.एस.डी.ए.पी. से डील करने का सही तरीका उसे शासकीय गठबंधन में ला कर नकेल डालने की कोशिश करने का है. उसने हिटलर से गुप्त मुलाकात कर के गठबंधन में शामिल होने या कम से कम इसका विरोध न करने के लिए राजी कराने की कोशिश की. हिटलर गठबंधन में शामिल होने से इनकार करते हुए, पापेन के नेतृत्व वाली अपेक्षाकृत ज्यादा दक्षिणपंथी अंतरिम कैबिनेट के साथ “सकारात्मक सहयोग” (आज के अर्थों में बाहर से समर्थन) के लिए सहमत हो गया. इसके लिए उसकी शर्तें जल्द से जल्द नए चुनाव कराने और एस.एस. पर से प्रतिबन्ध हटाने की थीं जिनके लिये उसे पूरा आश्वासन मिला. हिटलर की बांछें खिल गयीं, उसने अपने हाथ भी नहीं बंधने दिए और इसके बावजूद उसके पास सारे तुरुप के पत्ते थे. हिन्‍डेन्‍बर्ग और पापेन ने अपना आश्वासन पूरी तरह से निभाया. राइकस्‍ताग को 4 जून को भंग करके 31 जुलाई नए चुनाव की तिथि घोषित कर दी गयी. 16 जून को एस.ए. पर से प्रतिबन्ध हटा लिया गया. ब्राउनशर्ट्स दंगाई, जो दो महीने पहले प्रतिबन्ध लग जाने के बावजूद किसी तरह के दमन या गिरफ्तारी न होने के चलते, छद्म वैध रूप से अपनी कार्यवाहियां संचालित कर रहे थे, प्रतिबन्ध हटने के बाद अब अपने असली रंग में आ गए. हिंसा अकल्पनीय रूप से बढ़ने लगी; फासिस्ट अब रोज सड़कों पर खूनी खेल खेल रहे थे.


dimitrov“फ़ासिस्ट तानाशाही की स्थापना से पहले, बुर्जुआ सरकारें आम तौर पर कई सारे प्राथमिक स्तरों से गुजरती हैं और ऐसे तमाम प्रतिक्रियावादी कदम उठाती हैं जो फ़ासीवाद के सत्ता तक पहुँचने में सीधे मददगार होते हैं. जो भी इन तैयारी के स्तरों पर बुर्जुआ के प्रतिक्रियावादी कदमों और फ़ासीवाद के विकास के खिलाफ नहीं लड़ता है, वह फ़ासीवाद की विजय को रोक सकने की स्थिति में नहीं होता, बल्कि इसके उलट इस विजय में मददगार होता है.”
– ज्यार्जी दिमित्रोव
कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की सातवीं विश्व कांग्रेस के लिए रिपोर्ट ,
अगस्त 1935


जुलाई में प्रशिया की सोशल डेमोक्रेटिक सरकार भंग करने के बाद सैन्य आपात काल लागू करके संसदीय जनतंत्र पर दूसरा बड़ा हमला किया गया. इसके लिए नात्‍ज़ी हथियारबंद गिरोहों और मजदूरों के बीच हाल की झड़पों का हवाला दे कर कानून-व्यवस्था की असफलता और राज्य विधायिका में बहुमत खो देने का बहाना बनाया गया. पापेन ने खुद को प्रशिया का राइक कमिश्नर नियुक्त कर लिया. एस.पी.डी. से सड़कों पर जबदस्त प्रतिरोध में उतरने की उम्मीद थी : आखिरकार उसकी सरकार को अपदस्थ कर दिया गया था, और अभी भी उसके पास ताकतवर ट्रेड यूनियनों का भरपूर समर्थन था. मगर इसने महज न्यायालय में अपील तक खुद को सीमित रखा जिसका कोई नतीजा नहीं निकला. के.पी.डी. ने आम हड़ताल का आह्वान जरूर किया मगर एस.पी.डी. और यूनियनों के सहयोग के अभाव में वह फुस्स हो गयी. इस तरह वाम की तरफ से कोई प्रभावी प्रतिवाद-प्रतिरोध नहीं हुआ.

इस “संवैधानिक तख्तापलट” के तुरंत बाद नए शासक प्रशियन नागरिक सेवा को डेमोक्रटों से “मुक्त” करने में जुट गए. आगे इस प्रक्रिया को नेशनल सोशलिस्ट सत्ता में आने के बाद पूरे उन्माद-उत्साह के साथ आगे बढ़ायेंगे. इतिहासकार कार्ल-दिएत्रिच ब्रषर ने बिलकुल सटीक कहा : प्रशिया तख्तापलट छः महीने बाद नात्‍ज़ी सत्ता हथियाने की पूर्वपीठिका थी.

यहाँ यह उल्लेख कर देना जरूरी और प्रासंगिक है कि संसदीय जनतंत्र पर हुए ये सभी प्रतिक्रियावादी-निरंकुश हमले हिटलर की ओर से नहीं हुए थे हालांकि कुछ में उसके उत्प्रेरक अथवा उकसावेबाज की भूमिका जरूर थी. इसके बावजूद अंत में केवल वही अकेला सत्ता के मार्ग पर बढ़ते हुए, अपने सारे प्रतिद्वंदियों, मददगारों और सहयात्रियों को रास्ते से लात मार कर हटाते-मिटाते हुए इनके सारे फायदे उठाने वाला था.


फुट नोट :
1. परन्‍तु 1931 के बसन्‍त के घटनाक्रम के दूरगामी राजनीतिक परिणाम होने थे जिनके कारण एस.एस. प्रमुखता में आ गया, जो अभी तक एस.ए. के मातहत काम करता था. संकट के समय पार्टी नेतृत्‍व के प्रति पूर्ण वफादार रह कर एस.एस. ने वह राजनीतिक पूंजी हासिल कर ली जिसके चलते वह एस.ए. से प्रतिद्वंदिता में आगे निकल गया. आगे चल कर एस.एस. नात्‍ज़ीवाद के इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण काम करने वाला था, जब 1934 में कुख्‍यात 'लम्‍बे छुरों की रात' में हिटलर ने विद्रोही एस.ए. नेताओं और सदस्‍यों को मारने व उनके हथियार रखवाने के लिए इसका उपयोग किया. हिटलर के लिए यह दुहरा खतरा बन गया था कि एस.ए. की हिंसात्‍मक कार्रवाईयां उसके नियंत्रण के बाहर न चली जायें और उसका यह आश्‍वासन झूठ न बन जाये कि पार्टी कानून के दायरे में काम कर रही थी.

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