1932 भारी अस्थिरता, अनिश्चितता और उथल-पुथल का साल बनता जा रहा था. जुलाई अंत के चुनावों के लिये गोएबेल्स ने नारे दिए : “जर्मनी जागो! एडोल्फ़ हिटलर को ताकत दो” और “इस व्यवस्था, इसकी पार्टियों और इसके प्रयोगों का नाश हो”. अपने भाषणों में हिटलर वेइमार “व्यवस्था” को आम आर्थिक और राजनीतिक पतन-पराभव के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए “पार्टियों के भाई-भतीजावाद” से मुक्ति दिलाने के वादे करता था. अपनी एक अंतिम चुनावी सभा में वह दहाड़ा : वह “इन तीसों पार्टियों को जर्मनी से बुहार फेंकेगा”. यह एक पार्टी तानाशाही का स्पष्ट संकेत था. हिटलर ने दावा किया कि नात्जि़यों का लक्ष्य संसद की सीटें या मंत्री पद नहीं बल्कि “जर्मन जनता का भविष्य” था. एन.एस.डी.ए.पी. खुद को किसी विशिष्ट हित अथवा जनता के किसी खास वर्ग की पार्टी के रूप में नहीं बल्कि “जर्मन जनता की पार्टी” के रूप में पेश करती थी. इस बार वह शायद लिबरल मध्य वर्ग के वोट बटोरने की गरज से जान-बूझ कर तीखे नफ़रत भरे यहूदी विरोध के प्रलापों से बचता रहा (ठीक हमारे अपने हिटलर की तरह, जो कभी-कभी मुस्लिम वोटों की गोलबंदी के लिए हाथ आजमाता रहता है).
नतीजे शानदार थे. 37.3% वोट हिस्सेदारी (14 सितम्बर राइकस्ताग चुनाव से 19% ज्यादा) और 230 सीटों के साथ एन.एस.डी.ए.पी. सबसे बड़ी संसदीय पार्टी थी. बावजूद इसके सरकार बनाने के लिए पचास फ़ीसदी से ज्यादा वोट अभी दूर की कौड़ी थी. गठबंधन सरकार बनाने की एक चक्र वार्ता असफल रही क्यों कि हिटलर खुद के चान्सलर बनने पर अड़ा हुआ था जब कि राइक प्रेसिडेंट एन.एस.डी.ए.पी. के समर्थन के लिए उत्सुक होने के बावजूद हिटलर को चान्सलर बनाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था. ऐसे में नयी सरकार नहीं बन सकी और हिन्डेन्बर्ग ने पापेन को “प्रेसिडेंशियल सरकार” के चान्सलर के रूप में शासन चलाने को कहा.
गतिरोध लम्बा होते जाने के साथ “स्टॉर्म ट्रूपर्स” के सब्र का बाँध टूटने लगा. हिटलर के इस आश्वासन को पूरी तरह से झुठलाते हुए कि वे कानूनी रास्ते से तनिक भी इधर-उधर नहीं होंगे, एस.ए. ने अगस्त में के.पी.डी. सदस्यों, ट्रेड यूनियन भवनों, वामपंथी अखबारों, राइक ध्वज, और यहूदी बस्तियों के खिलाफ बर्बर उन्मादी राजनीतिक ख़ूनी खेल खेलना शुरू कर दिया. वर्दीधारी एस.ए. गुंडों के गिरोह ने पोटेम्पा के एक के.पी.डी. कार्यकर्ता और खनन मजदूर को रात में बिस्तर से घसीट कर उसकी मां और भाई के सामने मार डाला. हिटलर ने शांति और क़ानूनवाद का अपना मुखौटा नोच कर फेंकते हुए हत्यारों को खुला समर्थन-संरक्षण दिया.
सत्ता के लिए अन्धी-भूखी दक्षिणपंथी पार्टियाँ इन हत्याओं – दंगों को छिटपुट उन्मादी तत्वों के काम के रूप में देखते हुए (जैसे एस.ए. का नात्ज़ी परिवार से कोई रिश्ता था ही नहीं!) दक्षिणपंथी महागठबंधन की गणित में लगी रहीं. बावजूद इसके कोई नतीजा निकलता नहीं दिख रहा था. न तो पापेन नेशनल सोशलिस्टों को सरकार के साथ गठबंधन में लेने में कामयाब हो रहा था और न ही हिटलर के चान्सलर बनने की दिशा में कोई प्रगति हो पा रही थी जो उसकी तानाशाही सत्ता के लिए प्रस्थान मंच था. ऐसे में, जब किसी पार्टी के पास जरूरी बहुमत संख्या नहीं थी, एकमात्र विकल्प दुबारा चुनाव करने का था. मगर हिन्डेन्बर्ग-पापेन सरकार इसे “राज्य की आपात स्थिति में असाधारण उपायों की जरूरत” बता कर अनिश्चित काल तक टालती गयी. राइकस्ताग जुलाई चुनावों के बाद पहली बार 12 सितम्बर 1932 को बैठी.
कार्यवाही शुरू होने से पहले, के.पी.डी. डेपुटी अर्नेस्ट तोर्गलर ने सदन के फ्लोर पर कब्ज़ा करते हुए उसकी पार्टी द्वारा लाये गए मोशन प्रस्ताव पर तत्काल वोटिंग की मांग की जिसमें सरकार के आपात उपायों को ख़ारिज करने और पापेन सरकार के प्रति अविश्वास की बातें शामिल थीं. सबको सकते में डालते हुए नात्जि़यों ने इस कम्युनिस्ट प्रस्ताव का समर्थन किया. हिटलर का मकसद सब को यह दिखाना था कि पापेन सरकार के पास कितना कम संसदीय समर्थन था. एस.डी.पी. और मध्य पार्टी ने भी प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया और यह भारी बहुमत से पारित हो गया. पापेन संसद भंग करने पर मजबूर हो गया. नए चुनावों की तारीख़ 6 नवम्बर घोषित हुई.
द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत के पहले तक जर्मनी के लिए अंतिम स्वतंत्र चुनाव बनने जा रहे इस चुनाव के लिए नात्ज़ी प्रचार अभियान दो केन्द्रित बिंदुओं का अजीब मिश्रण था. एक ओर, जुलाई अभियान से बिलकुल उल्टा रुख लेते हुए, हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ जबरदस्त विषवमन करते हुए इस प्रलाप को सरकार विरोधी रंग देने की कोशिश की. उसने आरोप लगाया कि पापेन के आर्थिक कार्यक्रम को यहूदी बैंकर जैकब गोल्डस्मिथ ने यहूदी हितों के लिए तैयार किया था. दूसरी ओर, इस बार का नात्ज़ी प्रचार अभियान असाधारण रूप से पूंजीपति-विरोधी तेवर भी लिए हुए था (गोएबेल्स ने अपने डायरी में लिखा : “ठीक अभी, सबसे रेडिकल सोशलिज्म सामने लाया जाना है”). संभवतः ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि महामंदी अपना भयावह रूप दिखा रही थी और श्रमशील जनता व मध्यम वर्ग में पूंजीपति –विरोधी भावना अपने चरम पर थी. बर्लिन के प्रभारी पार्टी नेता के रूप में गोएबेल्स ने सुनिश्चित किया कि चुनाव से कुछ दिनों पहले शहर के पब्लिक ट्रांसपोर्ट मजदूरों की हड़ताल का एन.एस.डी.ए.पी. समर्थन करे. कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले “रिवोल्युशनरी यूनियन अपोजिशन (आर.जी.ओ.) के साथ नात्ज़ी फैक्ट्री सेल ऑर्गनाइजेशन (एन.एस.बी.ओ.) ने पिकेट बना कर बर्लिन के परिवहन संचार को पूरी तरह जाम कर दिया.
इस तरह नात्जि़यों ने समाज के हर हिस्सों-वर्गों को लुभाने के लिए अपने सारे टोटके-तरीके आजमाए. मगर नतीजा जुलाई से भी निराशाजनक निकला. नवम्बर चुनावों से उनके बीस लाख वोट कम हो गए, वोट हिस्सेदारी 4.2% घट कर 33.1% पर आ गयी और सीटें 230 से घट कर 196 रह गयीं. डी.एन.वी.पी. के साथ इस चुनाव के बड़े विजताओं में के.पी.डी. भी थी जिसकी वोट हिस्सेदारी 14.5% से बढ़ कर 16.9% और सीटें 100 हो गयीं. एस.पी.डी. की 21.58% वोट भागीदारी के साथ दोनों वाम पार्टियाँ मिल कर नात्जि़यों से कहीं आगे थीं. सीटों के मामले में भी 584 सीटों वाली संसद में दोनों की कुल 233 सीटें नात्जि़यों के 196 से ज्यादा थी. मगर वाम पार्टियों ने मिल कर इस ऐतिहासिक अवसर का इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया जो उन्हें फिर कभी भविष्य में नहीं मिलने वाला था.
नवम्बर के धक्के के बाद थुरिन्गिया का 4 दिसंबर, 1932 का चुनाव नात्जि़यों के लिए एक और भारी धक्का बन कर आया. जुलाई के मुकाबले इस बार करीब 40% वोट कम हो गए और इसे हिटलर की निजी पराजय के रूप में देखा गया क्यों कि उसने खुद इसके प्रचार अभियान का निर्देशन-संचालन किया था. इन लगातार असफलताओं से जर्मनी और बाहर भी कई राजनीतिक प्रेक्षक-विश्लेषक यह नतीजा निकालने लगे कि सारी ताकत हथियाने की हठधर्मी में हिटलर की बस छूट गयी थी. ब्रिटिश राजनीतिशास्त्री और लेबर राजनीतिज्ञ हेरोल्ड लास्की ने फब्ती कसी कि हिटलर के जीवन का अंत बावेरिया के किसी गाँव में एक बूढ़े के रूप में होगा.
पार्टी के अन्दर भी ऐसा सोचने वाले कम नहीं थे. पहली बार, पार्टी सदस्यता अगस्त 1932 में 4,55,000 से घट कर अक्तूबर में 4,35,000 हुई और घटने का यह क्रम जारी रहा. देश भर से हताशा और शिकायतों की खबरें आ रही थीं. शीर्ष नेतृत्व के अन्दर, ग्रेगोर स्त्रास्सेर ने, जिसने 1925 में गोएबेल्स के साथ पार्टी कार्यक्रम में राष्ट्रवाद के सापेक्ष समाजवादी धारा को मजबूत करने के अभियान में मुख्य भूमिका निभाई थी, एक राजनीतिक बहस की शुरुवात की (बॉक्स देखें).
स्त्रास्सेर विवाद ने एन.एस.डी.ए.पी. को एक और तगड़ा झटका दिया. पार्टी अपने कैरियर के चरम उत्कर्ष से अतल गहराई की ओर भयावह गति से गिरती लग रही थी. मगर हिटलर अपने जिद पर अड़ा रहा. वह “पूरी तरह दृढ़” था कि “अपने आन्दोलन के पहले बच्चे को किसी सरकार में शक्तिविहीन हिस्सेदारी की भीख के लिए नहीं बेचेगा”. आगे क्या? का सवाल अनसुलझा बना रहा. साल 1933 की शुरुवात नितान्त निराशा में हुई.
नवम्बर की चुनावी हार के बाद, ग्रेगोर स्त्रास्सेर ने मत व्यक्त किया कि पार्टी को अपनी चान्सलर पद की अड़ियल पूर्वशर्त छोड़ कर विरोध पक्ष से सरकार में जाने की दिशा लेनी चाहिये. उसने हिटलर से यह बात बिलकुल साफ़-साफ़ शब्दों में कही. हिटलर ने इसे अपने प्राधिकार की चुनौती के रूप में लिया और इसके अनुरूप अपनी विषाक्त प्रतिक्रिया दी. गोएबल्स के अनुसार हिटलर स्त्रास्सेर से उसकी ताकत छीनना चाहता था, मगर यह आसन काम नहीं था. राइक का सांगठनिक डायरेक्टर होने के नाते स्त्रास्सेर का पार्टी कार्यकर्ताओं-कतारों में काफी सम्मान था : वह जर्मन उद्योगपतियों की दृष्टि में भी ऐसे गिने-चुने नेशनल सोशलिस्टों में था जिससे कोई बिजनेस की बात कर सकता था.
राइकस्ताग के पहले सत्र की पूर्व संध्या पर, हिटलर ने एन.एस.डी.ए.पी. डेपुटियों को इस तर्क के साथ कड़ा रुख अपनाने का आदेश दिया कि : “हमारा महान आन्दोलन कभी विजयी नहीं हुआ होता अगर हमने समझौते की ढलान का रास्ता लिया होता”. स्त्रास्सेर ने अपने स्तर पर एन.एस.डी.ए.पी. स्टेट इंस्पेक्टरों को बुला कर तर्क दिया कि हिटलर 1932 से ही सिवाय अपने “किसी भी कीमत पर चान्सलर बनने के” और कोई “साफ़ लाइन” ले ही नहीं रहा है. चूंकि ऐसा हो सकने की सचमुच कोई सम्भावना नहीं थी, हिटलर आन्दोलन को बिखराव और पतन के खतरे की ओर ले जा रहा था. स्त्रास्सेर के अनुसार सत्ता की ताकत हासिल करने के दो रास्ते थे : कानूनी- जिसके लिए हिटलर को वाईस-चान्सलर का पद स्वीकार कर के उसे एक राजनीतिक लाभकारी हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहिये था. और दूसरा रास्ता, गैर-कानूनी-जिसके लिए एस.एस. और एस.ए. की मदद से बल पूर्वक सत्ता दखल करना होगा. वह अपने फ्यूहरर का दोनों ही रास्तों पर अनुसरण करने के लिए तैयार था, मगर अब अनन्त काल तक इंतज़ार नहीं कर सकता. इसलिए उसने व्यथित श्रोताओं को बताया कि वह पार्टी छोड़ने जा रहा था.
इस बैठक की खबर मिलने पर, हिटलर अपने होटल के सुइट में स्टेट इंस्पेक्टरों से स्त्रास्सेर के तर्कों की काट के लिए मिला. उसने कहा कि वाईस – चान्सलर बनने पर उसे जल्दी ही पापेन के साथ मूलभूत विभेदों में आ जाना होता जो उसकी ओर से ली जाने वाली हर पहलकदमी को रद्द कर के दिखाता कि हिटलर शासन करने में अक्षम है. “मैं इस रास्ते पर उतरने से इन्कार करता हूँ और तब तक इंतजार करना बेहतर समझता हूँ जब तक कि मुझे चान्सलर पद का प्रस्ताव नहीं मिल जाता” हिटलर ने आगे कहा “वह दिन आयेगा और शायद जितना हम सोच रहे हैं, उससे जल्दी आयेगा”. उसने इंगित किया कि गैर कानूनी रास्ता और भी निष्प्रयोज्य था क्योंकि हिन्डेन्बर्ग और पापेन सेना को गोली मारने का आदेश देने में तनिक भी नहीं हिचकिचायेंगे. अपने आग्रह और मेलोड्रामा की समूची क्षमता का इस्तेमाल करते हुए, हिटलर अन्ततः स्टेट इंस्पेक्टरों की स्वामिभक्ति अपने साथ बनाये रखने में सफल हुआ.
परदे के पीछे से एक और योजना पर काम चल रहा था. स्त्रास्सेर की हैसियत को जानते हुए पापेन के अधीन सरकार के भूतपूर्व रक्षामंत्री और वर्तमान राइक चान्सलर जनरल श्लाइकर ने एन.एस.डी.ए.पी. के माडरेट तत्वों का सरकार बनाने के लिए स्त्रास्सेर की अगुवाई में समर्थन जुटाने की कोशिश की. उसने स्त्रास्सेर को हिन्डेन्बर्ग से मिलवाया जिसने इस विचार से सहमति दी. मगर स्त्रास्सेर अपने साथियों से किसी भी तरह का समर्थन जुटा पाने में विफल रहा. श्लाइकर का खेल पिट गया.
हिटलर को स्त्रास्सेर की हिन्डेन्बर्ग के साथ गुप्त बैठक की जानकारी हुई और उसकी अपने खिलाफ साजिश की आशंका की पुष्टि हो गयी. चारों तरफ से अपने को घिरा पा कर स्त्रास्सेर ने सारे पार्टी पदों से इस्तीफ़ा दे दिया, राइकस्ताग डेपुटी की अपनी जगह छोड़ दी, और अगले दो सालों तक किसी भी राजनीतिक गतिविधि से दूर रहने का वादा किया. वह पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गया. ठीक 30 जून 1934 को – लम्बे छुरों की रात में, हिटलर स्त्रास्सेर को गोलियों से भुनवा कर अपने सबसे संभावनामय आतंरिक प्रतिद्वन्दी का काम तमाम कर देगा.
अचानक एन.एस.डी.ए.पी. को सुरंग के अंत पर रोशनी नज़र आयी. 30 जनवरी 1933 को 43 साल की राजनीतिक रूप से कम उम्र में हिटलर मध्य यूरोप के सबसे ताकतवर देश का चान्सलर बन गया. के.पी.डी. ने आम हड़ताल का आह्वान किया और एस.पी.डी. व सारी ट्रेड यूनियनों से फासीवाद के खिलाफ साझा प्रतिरोध मोर्चे में शामिल होने का आग्रह किया. सोशल डेमोक्रेटों ने हड़ताल में शामिल होने के बजाय अपने सदस्यों को संवैधानिक सीमाओं के अन्दर ही लड़ाई जारी रखने और “अनुशासनहीन व्यवहार” से दूर रहने का निर्देश दिया. बच-बचा कर रहने की इस नीति के अनुरूप जनरल जर्मन ट्रेड यूनियन एसोसियेशन के चेयरमैन थियोडोर लेइपर्ट ने 31 जनवरी को कहा : “इस पल की जरूरत प्रदर्शन नहीं, संगठन है”. कहना न होगा कि हड़ताल तो दूर, इस बुरी तरह विभाजित वाम की ओर से कोई भी उल्लेखनीय प्रतिरोध नहीं खड़ा किया जा सका.
मगर यह “अनहोनी अवसर” संभव हुआ कैसे ? वास्तव में यह परदे के पीछे चल रहे उस निकृष्टतम खेल का उत्पाद था जिसे मुट्ठी भर घाघ नेता, खास कर, डी.एन.वी.पी. नेता अल्फ्रेड हुगेनबर्ग, भूतपूर्व चान्सलर पापेन, और निवर्तमान चान्सलर श्लाइकर खेल रहे थे[1]. पापेन, ''किंग मेकर'' बन कर असल ताकत अपने हाथों में बनाये रखने की महत्वाकांक्षा में हिटलर से मिला और वैमनस्य भुला कर श्लाइकर की जगह लेने की डील का आग्रह किया. हिटलर के लिए पापेन के साथ यह डील गतिरोध से निकल कर अपने चिर-वांछित लक्ष्य तक पहुँचने का अवसर था. वह जनता था कि इस भूतपूर्व चान्सलर की प्रेसिडेंट के साथ गहरी छनती है और वह हिटलर को चान्सलर बनाने में हिन्डेन्बर्ग की हिचक तोड़ने में मदगार हो सकता है. इसलिए वह इस अवसर का इस्तेमाल करने से हिचकिचाया नहीं.
गुप्त योजना काम कर गयी. तमाम तरफ से और तमाम कारणों को ले कर हमलों की बौछार में जल्दी ही श्लाइकर ने हिन्डेन्बर्ग का भरोसा खो दिया और पापेन के लगातार उकसावे में प्रेसिडेंट ने श्लाइकर को बर्खास्त कर के अपने विश्वस्त भूतपूर्व चान्सलर को नयी सरकार के गठन का रास्ता तलाशने को कहा. पापेन ने बड़ी मुश्किल से, अन्ततः हिन्डेन्बर्ग को हिटलर को चान्सलर बनाने के लिए इस शर्त पर राजी करा ही लिया कि एन.एस.डी.ए.पी. नेता अपनी सरकार “संविधान के दायरे में और राइकस्ताग (संसद) की सहमति से” बनाएगा. पापेन और हिटलर ने अब अपनी डील को अंतिम रूप देने में तनिक भी देर नहीं की. यह तय हुआ कि एन.एस.डी.ए.पी. को चान्सलर और केवल दो मंत्री पद मिलेंगे और पापेन वाईस चान्सलर बनेगा.
जाहिर तौर पर यह नात्ज़ी पक्ष से बहुत बड़ी छूट थी जिसे ग्यारह सदस्यों की कैबिनेट में केवल दो मंत्रियों से संतोष करना था. अपने भारी बहुमत के साथ, हिटलर के कंजर्वेटिव साझीदारों को भरोसा था कि वे हिटलर को अपनी कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर लेंगे. जब एक परिचित ने पापेन को हिटलर की सत्ता की भूख के प्रति आगाह किया तो उसने जबाब दिया : “तुम गलत हो. हम लोगों ने उसे अपने मतलब के लिये फंसाया है.” बहुतेरे घरेलू और विदेशी विश्लेषकों का भी मानना था कि पापेन और आर्थिक मंत्री के रूप में ह्युगेन्बर्ग के हाथों में ही, हिन्डेन्बर्ग के समर्थन-सहयोग से, जिसकी हिटलर के लिए हिकारत और पापेन के साथ नजदीकी जग जाहिर थी, असली सत्ता की कमान रहेगी.
सितम्बर 1930 के चुनावी नतीजों ने तुरंत एक अभूतपूर्व स्थिति पैदा कर दी. बुर्जुआ पार्टियों और अर्थव्यवस्था के कप्तानों दोनों को ही अचानक एक ऐसी पार्टी एन.एस.डी.ए.पी. का सामना करना था, जो 8 लाख वोटर संगठन से उछाल ले कर साठ लाख की संगठित राजनीतिक ताकत और दूसरी सबसे बड़ी ताकतवर पार्टी बन चुकी थी. एन.एस.डी.ए.पी. अब एक ऐसी ताकत थी जिसे नज़रन्दाज नहीं किया जा सकता था. मगर इतनी ही महत्वपूर्ण बात यह थी कि यह ऐसी ताकत थी जो संसदीय अवरोधों – बाधाओं से पार पा कर प्रभुत्व के तानाशाही रूप में “कानूनी” तौर पर संक्रमण की बिलकुल नयी, आश्चर्यजनक, और स्वागत योग्य संभावनायें भी जगा रही थी.
… मगर इसकी संभावित भूमिका और वह नेतृत्व जिसकी अगुवाई में इसे अंजाम दिया जाना था, प्रतिद्वन्दी दावेदारियों की उलझन में था ... इस मामले को सरल करने के लिये चार प्रमुख गुटीय रणनीतियाँ हो सकती थीं :
1: अल्फ्रेड ह्युगेन्बर्ग और उसकी पार्टी (डी.एन.वी.पी.) और इसके साथ खड़े भारी उद्योग व भूस्वामी अभिजात्यों के समूहों ने राइक प्रेसिडेंट पॉल वॉन हिन्डेन्बर्ग पर भरोसा करते हुए, जोर दे कर एन.एस.डी.ए.पी. को जनता को लुभाने वाले जूनियर भागीदार के रूप में साथ ले कर गठबंधन बनाने का दबाव बनाया. दूसरे शब्दों में एक ऐसा गठबंधन, जिसमें ह्युगेन्बर्ग की पार्टी का बुर्जुआ खेमे में वर्चस्व और “राष्ट्रीय तानाशाही” पर नेतृत्व सुनिश्चित होता और जिसकी चरम परिणति अपने काल क्रम में राजशाही की पुनर्स्थापना में होती.
2: मध्य पार्टी (ब्रूनिंग)और भारी उद्योग, केमिकल, इलेक्ट्रिकल उद्योग, निर्यात क्षेत्र और इनके वित्त पोषक बैंकर भी सरकार बनाने के गठबंधन में एन.एस.डी.ए.पी. को जीतना चाहते थे. एन.एस.डी.ए.पी. के समर्थन-सहयोग से उन्हें वेइमार जनतंत्र से एक ऐसे अधिनायकवादी तंत्र की ओर बढ़ने की उम्मीद थी जो भी आगे चल कर लम्बे दौर में राजशाही की पुनर्स्थापना तक पहुँचती.
3: इन रणनीतियों के विपरीत, उद्योगपतियों और बैंकरों के एक अन्य समूह – जो अमेरिकी वित्तीय पूँजी के साथ गहरे जुड़ा हुआ था, के प्रवक्ता-हेमर शास्त और फ्रिट्ज हीसेन हिटलर को किसी भी पुरानी बुर्जुआ पार्टी के मातहत करने के पक्ष में नहीं थे. इसकी जगह उन्होंने हरमन गोरिंग का इस्तेमाल करते हुए, जो उनके और एन.एस.डी.ए.पी. के बीच की कड़ी थी, हिटलर पर सरकार में शामिल होने की पूर्वशर्त के रूप में चान्सलर पद के लिए अड़ने का दबाव बनाया. (गॉसवेइलेर इसके दो पन्नों बाद जोड़ता है...). … शास्त और हीसेन दोनों … को ही डर था कि अपनी पार्टी में गिरावट के संकेत देखते हुए, श्लाइकर और स्त्रास्सेर जैसों के प्रभाव में हिटलर कहीं समझौता समाधान के लिए राजी न हो जाये. इसलिए वे अंतिम निर्णायक सफल नतीजे के प्रति हिटलर का आत्मविश्वास जगाये-बनाए रखने के लिए लगातार वह सब कुछ जो संभव था, करते रहे.
4: जनरल कुर्ट वोन श्लाइकर एन.एस.डी.ए.पी. के सांगठनिक प्रभारी ग्रेगोर स्त्रास्सेर के साथ दिसंबर 1932 में उसकी हत्या हो जाने तक सैन्य तानाशाही स्थापित करने का प्रयास करता रहा.
कुर्ट गॉसवेइलेर
मगर जल्दी की इन सारी उम्मीदों पर तुषारापात हो गया. यह किसी औपचारिक-आधिकारिक पार्टी गठबंधन की सरकार न हो कर प्रेसिडेंट द्वारा नियुक्त मंत्रिमंडल था जिसमें (पापेन और ह्युगेन्बर्ग को छोड़ कर) बाकी सब बिना पार्टी सम्बद्धता अथवा राजनीतिक अनुभव वाले भानुमती के कुनबे से थे. दूसरे, कैबिनेट के अन्य सदस्यों का हिटलर की शातिर धूर्तता और मिथ्यवादिता से कोई मुकाबला ही नहीं था. चन्द हफ़्तों में ही हिटलर ने हिन्डेन्बर्ग की नज़र में वह जगह ले ली जो पापेन की हुआ करती थी और सभी की पीठें दीवार से लग चुकी थीं. गृह मंत्री के रूप में विल्हेल्म फ्रिक और बिना विभाग के मंत्री के रूप में हरमन गोएर्रिंग (आगे अपने क्रम में जिनकी संख्या बढ़ती ही जायेगी) के साथ नात्ज़ी त्रिमूर्ति अब थुरिंगिया प्रयोग को व्यापक राष्ट्रीय पैमाने पर दुहराने के लिए पूरी तरह तैयार थी.
30 जनवरी 1933 को हिटलर ने शपथ ली, और पाँच घंटों के अन्दर वह गुप्त रूप से कैबिनेट की बैठक कर रहा था. कैबिनेट को राइकस्ताग में बहुमत नहीं हासिल था और इसका समाधान निकाला जाना था. ह्युगेन्बर्ग ने के.पी.डी. को प्रतिबंधित कर उसकी सीटें आपस में बाँट कर बहुमत बनाने का सुझाव दिया. हिटलर कहीं ज्यादा चतुर राजनीतिज्ञ था; वह अपना शासन ऐसे भयावह कदम के साथ नहीं शुरू करना चाहता था. उसने कैबिनेट से कहा कि कम्युनिस्टों पर प्रतिबन्ध घरेलू अशांति और शायद आम हड़ताल का भी कारण बन सकता है. उसने कहा : “के.पी.डी. के पीछे साठ लाख लोगों को प्रतिबंधित करना असंभव से कम नहीं है. मगर शायद हम (पूरी कैबिनेट) राइकस्ताग को भंग करने के बाद अगले चुनाव में वर्तमान सरकार के लिए बहुमत हासिल कर सकते हैं.” अपने कंजर्वेटिव साझीदारों की आशंका दूर करने के लिए उसने भरोसा दिलाया कि अगर उसकी अपनी पार्टी चुनाव में बहुत बेहतरीन प्रदर्शन करती है तब भी कैबिनेट की संरचना में कोई बदलाव नहीं होगा. तब यह हिटलर नहीं बल्कि पापेन था जिसने एक रेडिकल सुझाव दिया. वाईस चान्सलर ने घोषित किया : “यह बात पूरी तरह साफ़ हो जानी चाहिये कि अगला चुनाव आखिरी चुनाव होगा जिसके बाद संसदीय व्यवस्था की और वापसी की सम्भावना हमेशा के लिए समाप्त कर दी जाएगी.” हिटलर ने ख़ुशी से इस प्रस्ताव का समर्थन यह कहते हुए किया कि निश्चय ही आगामी राइकस्ताग चुनाव अंतिम होगा और संसदीय जनतंत्र की ओर वापसी को किसी भी कीमत पर रोका जायेगा. प्रतिक्रियावादी सत्ता लोलुपों की समूची जमात की जनतंत्र, कम्युनिज्म, और जनता के अपने प्रतिनिधियों को चुनने के अधिकार को नकारने की सम्पूर्ण आम सहमति के साथ पहली बैठक बेहद ख़ुशगवार माहौल में समाप्त हुई.
1 फ़रवरी 1933 की प्रेसिडेंशियल राजाज्ञा ने नए चुनावों की तारीख 5 मार्च, 1933 घोषित कर दी. असली मकसद छुपाते हुए निर्णय का कारण “जर्मन जनता को राष्ट्रीय एकजुटता की नयी सरकार बनाने में अपना मत देने का अवसर” देना बताया गया. गोएबेल्स ने 3 फ़रवरी को अपनी डायरी में लिखा : “... अब हम राज्य के सारे संसाधनों को अपने काम पर लगा सकते हैं. रेडियो और प्रेस हमारे डिस्पोजल पर हैं. हम प्रोपेगैंडा का शानदार खेल खेलेंगे. और इस बार, स्वाभाविक रूप से, पैसे की कोई कमी नहीं होगी.”
उसी दिन देश ने सार्वजनिक प्रसारण पर चान्सलर के मन की बात सुनी. उसने अपने नवम्बर 1918 के जनतांत्रिक “विश्वासघात” और वेइमार रिपब्लिक के खिलाफ अपने पारम्परिक हमलों (मार्क्सवाद के चौदह सालों ने जर्मनी को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है) के साथ रूढ़िवादी, क्रिश्चियन, राष्ट्रवादी मूल्यों और परंपराओं को जोड़ा. हिटलर ने कहा कि उसकी सरकार का पहला काम वर्ग वैमनस्य और टकराहटों पर काबू पा कर “भावना और इच्छाशक्ति में हमारे लोगों की एकता” को पुनर्स्थापित करना है. हिटलर ने आगे कहा, ईसाइयत “हमारे मूल्यों का आधार”, “परिवार” लोगों और “राज्य” के रूप में हमारी आंगिकता की आधारभूत कोशिका” और “हमारे महान अतीत” के प्रति सम्मान जर्मनी की युवा पीढ़ी के लिए शिक्षा की नींव होगी (ईसाइयत की जगह हिन्दुत्व कर लीजिये और आप आसानी से नात्ज़ी जर्मनी से आर.एस.एस. इण्डिया में पहुँच जायेंगे). विदेशनीति पर उसका कहना था कि दूसरे राष्ट्रों से बराबरी का अधिकार हासिल करने के बाद जर्मनी की नीति शांति को संरक्षित और सुदृढ़ करना होगा जिसकी आज दुनिया को सबसे ज्यादा जरूरत है. उसने बेरोजगारी पर भी व्यापकतम-चौतरफा हमले की घोषणा की जिससे चार साल में बेरोजगारी का हमेशा-हमेशा के लिए अंत हो जायेगा. हिटलर ने अपने भाषण का अंत उसी जुमले से किया जिसे आगे वह अनन्त बार दुहरायेगा “अब जर्मनवासियों, हमें चार साल का समय दो और तब तुम हमारे लिए अपना फैसला दे सकोगे!”
शांति और जनतंत्र के इन सारे जुमलों को झुठलाते हुए 4 फरवरी 1933 को देश और “जर्मन जनता की रक्षा के लिए राजाज्ञा” के जरिये सरकार ने बोलने और सभा करने-जुटने की आज़ादी के अधिकार को प्रतिबंधित कर दिया और एस.पी.डी. व के.पी.डी. पर कठोर बंदिशें लगा दी.
जर्मन सेना और नेवी के कमांडरों के साथ अपनी पहली बैठक में ही हिटलर ने अपनी सरकार का पहला लक्ष्य “राजनीतिक ताकत को वापस हासिल करना बताया जो समूचे राज्य नेतृत्व का उद्देश्य” होगा. घरेलू स्तर पर विद्यमान स्थितियों को पूरी तरह से उलट दिया जाना है. शांतिवादी प्रवृत्तियों को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जायेगा. “जो भी बदलने से इनकार करेगा उसे, मजबूर कर दिया जायेगा”. जर्मनी के युवा और समूची आबादी को इस विचार के साथ जुड़ना होगा कि “केवल युद्ध ही हमें बचा सकता है और सब कुछ इसी विचार के मातहत रहना है”. जर्मनी की “खुद की रक्षा की इच्छाशक्ति” को मज़बूत करने के लिए “कठोरतम, अधिनायकवादी राज्य नेतृत्व” की स्थापना और “जनतंत्र से हुए नुकसान के कैंसर को जड़ से मिटाना” जरूरी था. विदेश नीति के सवाल पर हिटलर का पहला लक्ष्य व्हेरमाष्ट (सेना) को फिर से हथियारबंद करना और सामरिक बराबरी हासिल करके वर्साय संधि के खिलाफ लड़ना था. हिटलर दहाड़ा “सबके लिये अनिवार्य सैन्य सेवा” लागू करनी होगी. जर्मनी के सामरिक महाशक्ति के रूप में अपनी हैसियत वापस ले लेने के बाद अपनी विदेश नीति मंशा का संकेत देते हुए उसने कहा “पूर्व में नए निवास स्थानों की विजय और इनका निर्मम जर्मन एकीकरण”.
– बर्तोल्त ब्रेश्त
जनरलों के लिए मार्क्सवाद और शांतिवाद के साथ युद्ध, वर्साय संधि के पुनरीक्षण की मांग, जर्मन सेना का पुनर्शस्त्रीकरण, और इसकी विश्व शक्ति के बतौर हैसियत की बहाली के साथ पूरी तरह जुड़ जाने में भला क्या आपत्ति हो सकती थी? वे हिटलर के इस वादे से खासे रोमांचित थे कि व्हेरमाष्ट ही देश की एकमात्र वैध सेना बनी रहेगी और इसका इस्तेमाल घरेलू विरोधियों के दमन के लिए नहीं किया जायेगा. हिटलर ने घोषित किया कि यह (घरेलू दमन) काम नेशनल सोशलिस्ट पार्टी, खास कर एस.ए. का था.
फ्यूरर (हिटलर) और सैन्य नेतृत्व के बीच शुरुआत में ही बन गयी निकटता दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद थी. चान्सलर अब सैन्य हस्तक्षेप के किसी भी डर से मुक्त हो कर राजनीतिक वाम को कुचलने और समूचे जर्मन समाज को नात्ज़ी विचारों में ढालने पर केन्द्रित कर सकता था. अलावे इसके, सेना का विचलनविहीन समर्थन 1930 दशक के अंतिम वर्षों से शुरू होने वाले राजनीतिक जीवन के उसके संकटपूर्ण-निर्णायक मोड़ों पर काफी काम आने वाला था. बदले में सैन्य नेतृत्व को अपनी एकाधिकारी हैसियत की गारंटी और यह आश्वासन मिला कि उनकी जरूरतों को नयी सरकार में सर्वोच्च प्राथमिकता मिलेगी.
हालांकि बड़े व्यवसाइयों का समर्थन सालों-साल बढ़ रहा था, मगर सबसे बड़े कारपोरेट महाबली अभी भी कुछ हिचक रहे थे. इसके लिए 20 फरवरी 1933 को हिटलर की 27 शीर्ष उद्योगपतियों और बैंकरों के साथ बैठक हुई जिसमे जर्मन उद्योग की राइक एसोसियेशन के प्रेसिडेंट क्रूप्प वों बोह्लें (जो रातों-रात अति उत्साही नात्ज़ी बन गया था), आई. जी. फ़ार्बेन के बोश और स्निज्लर, और यूनाइटेड स्टील वर्क्स का मुखिया वोएग्लर शामिल थे. हिटलर और गोएरिंग ने सरकार की उद्योग के प्रति नीति को साफ-साफ़ रखा. हिटलर ने एक बार फिर से निजी सम्पदा में अपनी आस्था की पुष्टि करते हुए इन अफवाहों का खंडन किया कि वह आमूल-चूल बदलाव का कोई भी आर्थिक प्रयोग करने जा रहा था. उसने बल दे कर कहा कि केवल एन.एस.डी.ए.पी. ही उद्योग और उद्योगपतियों को कम्युनिस्ट आतंक के खतरे से बचा सकती है. उसने वादा किया कि वह व्हेरमाष्ट (एकीकृत सैन्य कमान) की पुनर्बहाली करने जा रहा है, जो क्रूप्प, यूनाइटेड स्टील और आई.जी. फार्बेन जैसों के विशेष औद्योगिक हितों के लिए खास फायदेमंद था. अंत में हिटलर ने घोषित किया : “अब हम अंतिम चुनाव के ठीक पहले खड़े हैं” और वादा किया “परिणाम चाहे जो हो, हम पीछे नहीं हटने जा रहे”. अगर वह बहुमत नहीं जीत पायेगा, तो भी “अन्य तरीकों से” ... “अन्य हथियारों के जरिये” सत्ता में बना रहेगा. हिटलर ने जो कुछ भी कहा था और जिस तरह से कहा था उससे व्यावसायिक जगत के नेता खासे प्रभावित थे.
गोएरिंग ने फौरी जरूरतों पर बात करते हुए “वित्तीय त्याग” पर बल देते हुए कहा कि उद्योग अगर यह समझ ले कि आगामी पाँच मार्च का चुनाव अगले दस वर्षों और शायद अगले सौ वर्षों के लिए भी अंतिम चुनाव होने जा रहा है, उनके लिए यह त्याग करना कुछ भी मुश्किल नहीं होगा. दोनों नेताओं के हॉल से चले जाने के बाद मेजबानों ने चंदा जुटाना शुरू किया और हाथ-के-हाथ तीस लाख मार्क इकठ्ठा हो गए.
4 फरवरी की राजाज्ञा के जरिये अपने मुख्य प्रतिद्वंदियों एस.पी.डी. और के.पी.डी. के लिए आगामी चुनाव लड़ना बेहद मुश्किल बनाने के बाद एन.एस.डी.ए.पी. नेतृत्व को लगा कि जल्दी चुनाव उन्हें पूर्ण बहुमत दे सकता है, जिसके बल पर वे गठबंधन को लात मार कर डावांडोल संसदीय जनतंत्र से एकदलीय नंगी तानाशाही में आराम से संक्रमण कर सकते हैं. इसे सुनिश्चित करने और कोई कसर न छोड़ने के लिए उन्होंने हर संभव प्रशासनिक फेर-बदल, भीतर खाते रास्तों और झूठे गढ़े गए आरोपों पर दमनात्मक उपायों का सहारा लिया. एक बार फिर उन्हें कैबिनेट के समूचे प्रतिक्रियावादी जमावड़े और राजशाही प्रेसिडेंट का भरपूर समर्थन मिला जिनमें से कोई भी यह नहीं समझ रहा था कि ऐसा कर के वे वास्तव में अपने लिए ही कब्र खोद रहे थे.
जब गोएबेल्स राजनीतिक और विचारधारात्मक दीक्षा के सबसे महत्वपूर्ण माध्यम जर्मन रेडियो के कर्मचारियों के व्यापक मनमाफिक बदलाव में व्यस्त था, कार्यवाहक आन्तरिक मंत्री के रूप में गोएरिंग प्रशियन पुलिस और प्रशासन से बचे-खुचे जनतांत्रिक लोगों का सफाया करने में जुटा था. प्रशियन पुलिस विभाग को पूरी ताकत से राष्ट्रीय प्रोपेगैंडा में सहयोग करने और राज्य विरोधी संगठनों की गतिविधियों को कठोरतम कदम उठाते हुए-जरूरत पड़ने पर आग्नेयास्त्रों के इस्तेमाल से भी बिलकुल न हिचकते हुए दमन करने के निर्देश दिए गए. गोएर्रिंग ने अधिकारियों से कहा कि उन्हें यह बात बिलकुल साफ़ रहनी चाहिये कि जो भी पुलिस अधिकारी ड्यूटी के दौरान अपने हथियारों का इस्तेमाल करेंगें उनके लिए हर हाल में उसकी ओर से पूरी सुरक्षा की गारंटी रहेगी. इसके उलट, जो भी अपनी ड्यूटी से हिचकिचाएगा, उसे इसका अनुशासनिक परिणाम भुगतना होगा. पूरी मनमानी की यह राजाज्ञा व्यवहारतः अधिकारिक विचारधारा से विरोध – असहमति रखने वाले किसी भी व्यक्ति की हत्या का खुला लाइसेंस थी.
22 फ़रवरी को गोएरिंग ने “नेशनल एसोशियेशंस” के पैरा मिलिशियाओं – एस.एस., एस.ए., स्ताल्हेल्म का सहायक पुलिस बल “रेडिकल वाम विंग, ख़ास कर कम्युनिस्ट हलकों से बढ़ती हुई अशांति” से निपटने के लिए तैयार करने का आदेश दिया. ऊपर के आदेशों की तामील करते हुए, पुलिस ने एस.ए. को लोगों को आतंकित-प्रताड़ित करने से रोकने के लिए कोई भी कार्यवाही नहीं की. सोशल डेमोक्रेटों के साथ भी दुर्व्यवहार हुआ मगर कम्युनिस्टों पर इस आतंक का कहर सबसे बढ़ कर टूटा. फ़रवरी के पहले हफ्ते से ही यह हालत हो चुकी थी कि अपने सबसे मज़बूत गढ़ बर्लिन तक में कम्युनिस्टों के लिए सार्वजनिक जगह पर जुट पाना असम्भव हो गया. लगभग बिना किसी अपवाद के, सारे कम्युनिस्ट अखबार प्रतिबंधित हो चुके थे. 1933-34 के दौरान, राजनीतिक पुलिस का धीरे-धीरे सीक्रेट राज्य पुलिस (गेस्टापो) बनाने की दिशा में केन्द्रीयकरण होता गया.
10 फ़रवरी 1933 को नेशनल सोशलिस्टों ने भारी ताम-झाम के साथ बर्लिन के स्पोर्टपलास्त संकुल में अपने प्रचार अभियान का आगाज़ किया जिसमें हिटलर को “युवा जर्मनी के नेता” के बतौर पेश किया गया. चान्सलर ने “विभाजन-बिखराव की राजनीतिक पार्टियों” पर अपना पारंपरिक हमला दुहराते हुए “आलसी जनतंत्र” को “व्यक्तित्व के गुण और व्यक्ति की सर्जना शक्ति” से बदलने का वादा किया. जनता के मन-मिजाज़ को तानाशाही की ओर संक्रमण के लिए तैयार करते हुए उसने “राष्ट्र को पुनर्नवा करने” के लिए “चार साल” मांगे. उसके भाषण को जबदस्त सराहना मिली : उसकी अंतर्वस्तु से ज्यादा उसकी उन्मादी वक्तृत्व कला और समापन लाइनों की भावनात्मक अपील के लिए, जो प्रभु की प्रार्थना का राजनीतिक संस्करण प्रतिध्वनित होती थी.
नात्जि़यों ने गोएबेल्स की अगुवाई में ऐसा जबदस्त प्रचार-प्रोपेगैंडा अभियान चलाया जैसा जर्मनी ने पहले कभी देखा-सुना नहीं था. एक प्रचार पोस्टर में हिटलर (जो उस समय एक गुमनाम सैनिक से ज्यादा कुछ नहीं था) और फील्ड मार्शल को अगल-बगल खड़े दिखाया गया – शीर्षक था : “मार्शल और प्राइवेट साथ-साथ हमारी शांति और बराबरी के अधिकार के लिए लड़ते हुए”. एक और पोस्टर में हिन्डेन्बर्ग के मिथकीय प्रभाव और पापेन से उसकी नजदीकी को भुनाने के लिए हिन्डेन्बर्ग और पापेन को एक साथ दिखाते हुए शीर्षक दिया गया ; “यदि हिन्डेन्बर्ग उस पर विश्वास करता है तो जर्मनी भी कर सकता है –उसके निकटतम सहयोगी वाईस चान्सलर पापेन को वोट दें”. पूरी कैबिनेट के लिए वोट मांगने के साथ-साथ प्रोपेगैंडा का एक और मकसद दोनों महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्तियों को इस मुगालते में भी रखना था कि नात्ज़ी गठबंधन को ले कर सचमुच गंभीर थे.
सैनिकों ! खुद को वहशियों के हवाले मत करो – उन लोगों के, जो तुम्हें तुच्छ समझ कर तिरस्कार करते हैं – तुम्हें गुलाम बनाते हैं – तुम्हारी जिंदगियों की खानेबंदी करते हैं- बताते हैं –तुम्हें क्या करना है – क्या सोचना है –क्या महसूस करना है ! जो तुमसे कवायद कराते हैं – तुम्हारा खाना तय करते हैं – तुमसे ढोर –डांगर जैसा व्यवहार करते हैं – तुम्हें तोप के गोले की तरह इस्तेमाल करते हैं. खुद को इन अप्राकृतिक आदमियों के हवाले मत करो – मशीनी दिमाग और मशीनी दिल वाले मशीनी आदमी ! तुम मशीनें नहीं हो ! तुम ढोर-डांगर नहीं हो ! तुम्हारे दिलों में मानवता के लिए प्यार है ! तुम नफ़रत नहीं करते ! केवल वे जिन्हें प्यार नहीं मिला, वे ही नफ़रत करते हैं – प्यार से वंचित, अप्राकृतिक ! सैनिकों ! गुलामी के लिए मत लड़ो ! आज़ादी के लिए लड़ो !
तुम, जनता – तुम्हारे पास ताकत है – मशीनों के सृजन की ताकत. खुशियों के सृजन की ताकत! तुम, जनता – तुम्हारे पास इस जीवन को मुक्त और सुन्दर बनाने की, इस जीवन को एक शानदार रोमांच बनाने की ताकत है.
तब – जनतंत्र के नाम पर – आओ उस ताकत का इस्तेमाल करें – आओ हम सब एकजुट हो जायें. आओ एक नयी दुनिया के लिए लड़ें – एक सौम्य, बेहतरीन दुनिया जो लोगों को काम करने का अवसर देगी – जो युवाओं को भविष्य और बूढ़ों को सुरक्षा देगी. इन्हीं चीज़ों के वादे कर के वहशी सत्ता तक पहुँच गए. मगर वे झूठ बोलते हैं ! वे उन वादों को पूरा नहीं करते. वे कभी नहीं करेंगे !
तानाशाह खुद को तो आज़ाद कर लेते हैं मगर जनता को गुलाम बना देते हैं ! अब आओ, उस वादे को पूरा करने के लिए लड़ें ! आओ, दुनिया को मुक्त कराने के लिए – राष्ट्रीय अवरोधों को दूर करने के लिए – लालच, नफ़रत, असहिष्णुता को दूर करने के लिए लड़ें. आओ, विवेक की दुनिया के लिए, एक ऐसी दुनिया के लिए लड़ें, जहाँ विज्ञान और प्रगति सारे मनुष्यों को खुशियों की ओर ले जायेगी. सैनिकों! जनतंत्र के नाम पर, आओ हम सब एकजुट हो जायें !
फुट नोट :
1. सामने के पृष्ठ पर बॉक्स में दिया गया हिटलर के चांसलर बनने का घटनाक्रम कुर्ट गॉसवेइलेर के लेख से लिया गया है. वे 1947 तक जर्मन सेना में रहे और उसके बाद भाग कर रूसी सेना में चले गये. युद्ध के बाद पूर्वी जर्मनी में वे फासीवाद के अध्येता के रूप में प्रसिद्ध हुए.