अंग्रेज इतिहासकार ई एच कार के अनुसार “इतिहास, अतीत और वर्तमान के बीच कभी न खत्म होने वाला संवाद” है. भारत में मोदी-योगी-भागवत गिरोह के विनाशकारी उभार की वर्तमान पृष्ठभूमि में यहाँ हम एडोल्फ़ हिटलर के धूमकेतु सरीखे उभार और अंत की कहानी फिर से कहने की कोशिश करेंगे. यह उस सतत संवाद का हिस्सा है जिसमें हम सवाल करते हैं, हासिल जबाबों पर फिर से काम करते हैं और फिर इनके सबक को अपने आगे बढ़ने का नया रास्ता तैयार करने के काम में लगाते हैं जिससे भगवा फासिस्टों को उनके सर्वसत्तावादी हिन्दूराष्ट्र के चिर वांछित लक्ष्य तक पहुँच पाने के बहुत पहले ही पराजित किया जा सके. इतिहास हमारे लिए भविष्य की सकारात्मक सक्रिय दृष्टि के साथ अतीत और वर्तमान के बीच अंतर्क्रिया है.
इस अध्ययन में हमने नात्ज़ीवाद और फासीवाद को एक-दूसरे में परिवर्तनीय अर्थों में इस्तेमाल किया है: नात्ज़ीवाद, अपने मूल, फासीवाद का ही एक विशिष्ट रूप है. उम्बर्तो ईको 1995 के अपने लेख “उर फासिज्म” (शाश्वत फासीवाद) में इंगित करता है कि “नात्ज़ीवाद केवल एक था जब कि फासीवादी खेल बहुतेरे रूपों में खेला जा सकता है और खेल का नाम वही रहेगा.” उपन्यासकार-संकेतशास्त्री ईको फासीवाद को परिभाषित करने के बजाय मोटे तौर पर इसकी “परम्परा पूजन”, “आधुनिकता का निषेध”, “असहमति को राष्ट्रद्रोह मानने”, “परिभाषा और प्रवृत्ति में नस्लवादी होने” आदि पंद्रह विशेषतायें गिनाता है. इनमें से ज्यादातर, थोड़े-बहुत स्थानीय अन्तर के साथ (जैसे हमारे देश में जाति श्रेष्ठतावाद हिन्दुत्व फासीवाद की एक अतिरिक्त विशेषता है) इटली, जर्मनी और भारत में देखे-पहचाने जा सकते हैं.
निश्चित रूप से पिछले सौ वर्षों से, जब से इसने इटली में जन्म लेने के बाद जर्मनी में अपनी ठोस – परिपूर्ण शक्ल ली, फासीवाद ने विभिन्न समय और राष्ट्रों के सन्दर्भों में खुद को बहुतेरे रंगों-आयामों में ढाला है. मगर इन सारे बदलावों में इसने अपनी मूल चारित्रिक विशिष्टताओं-प्रवृत्तियों को हमेशा बरकरार रखा है जो इसे दक्षिणपंथी पापुलिज्म, अधिनायकवाद, सैन्यशासन आदि तमाम मिलती-जुलती प्रवृत्तियों से अलग और विशिष्ट श्रेणी में ला देती है. इन तमाम विशेषताओं में सबसे निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण है – नस्लीय/साम्प्रदायिकतावादी/श्रेष्ठतावादी राष्ट्रीय-उग्र अंधराष्ट्रवादी जनोन्माद को सत्ता के गलियारों में अपनी घुसपैठ के लिए उकसाना-हवा देना और फिर समूचे राज्य तंत्र पर सम्पूर्ण फासीवादी कब्जे की कोशिश को अंजाम देना है. इस समूची प्रक्रिया में फासीवाद जनोन्माद और आतंक के शातिर और धूर्त संयोजन का सहारा लेते हुए लगातार बड़ी पूँजी का समर्थन हासिल करता जाता है. इस पुस्तिका में हम हिटलर की जर्मनी के, जहाँ फासीवाद अपने चरम पर पहुँचा था, क्लासिक सन्दर्भों में इन कुछेक विशेषताओं का सार रूप में अध्ययन करेंगे. हमारा मानना है कि मूल का गहन-गंभीर ज्ञान हमें उससे निकले वर्तमान रूप, जिसका हम यहाँ अभी सामना कर रहे हैं यानी वर्तमान भारतीय संस्करण को बेहतर समझ पाने में मददगार होगा.
क्या हिटलर के तेज उभार को सचमुच नहीं रोका जा सकता था? क्यों इस उभार को रोक पाने में वाम और जन तांत्रिक ताकतें बुरी तरह असफल रहीं? और वह भी उस देश में, जिसे दुनिया के सबसे अगुआ मजदूर वर्ग आन्दोलनों में एक होने और मार्क्स, एंगेल्स और उनके आगस्त बेबेल, विल्हेल्म, कार्ल लीबनेश्त, रोज़ा लक्जे़म्बर्ग व क्लारा ज़ेटकिन जैसे अनुयाईयों के नेतृत्व का गौरव हासिल था. क्या हम तब के जर्मनी और आज के भारत के परिदृश्य में भारी अन्तर के बावजूद उस अनुभव से दो-एक चीजें सीख सकते हैं ?
अपने देश में फासीवाद का प्रतिरोध करने और उसे हराने के विशिष्ट राजनीतिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, इस पुस्तिका में हमने एडोल्फ़ हिटलर के उभार और पराभव की समूची कहानी के बजाय फासीवादी उत्कर्ष के काल खंड: 1920 (जब हिटलर की अगुवाई में राजनीतिक ताकत के रूप मे नात्ज़ीवाद का जन्म हुआ) से 1933 तक की (जब हिटलर ने चान्सलर बन कर संसदीय जनतंत्र को ध्वस्त कर के सर्वसत्तावादी फासीवादी तानाशाही के अभियान की शुरुआत की) कहानी कहने का प्रयास करेंगे.
यह पुस्तिका किसी मूल शोध का दावा नहीं करती. जीवनी कथा-क्रम और उससे जुड़े तथ्य मुख्यतः वोल्कर उलरिश के “हिटलर: एसेन्ट – 1889 -1939 (पेन्गुइन रेण्डम हाउस एल.एल.सी., न्यूयॉर्क, 2016 ) और कुछ और क़िताबों व लेखों – विलियम एल. शायरर की “दि राईज एंड फाल ऑफ़ द थर्ड राइक, अ हिस्ट्री ऑफ़ नात्ज़ी जर्मनी (सायमन एण्ड शुस्टर, 1960) और कुर्ट गॉसवेइलेर की “इकोनोमी एंड पालिटिक्स इन द डिस्ट्रकशन ऑफ़ वेइमार रिपब्लिक” (मार्गित कोवेस और शास्वती मजूमदार द्वारा सम्पादित व लेफ्ट वर्ल्ड बुक्स, नयी दिल्ली, 2005 से प्रकाशित संकलन “द रजिस्टिबल राइज: अ फासिज्म रीडर” का एक लेख) से लिए गए हैं. हम शुरुआत में ही इन लेखकों और प्रकाशकों के प्रति अपना आभार ज्ञापित कर रहे हैं, क्योंकि हम कार्यकर्ताओं की इस पुस्तिका को विस्तृत उद्धरणों से बोझिल नहीं करना चाहते. हमने परिशिष्ट में क्लारा ज़ेटकिन, जो न सिर्फ कम्युनिस्ट महिला आन्दोलन की महानतम अगुआ थीं, बल्कि फासीवाद के खिलाफ संघर्ष की भी प्रमुख सिद्धान्तकर और योद्धा थीं, के फासीवाद पर लेख के कुछ अंश दिए हैं. अगस्त 1923 में प्रकाशित यह लेख फासीवाद के सबसे पहले कम्युनिस्ट आकलनों और इससे लड़ने के मार्गदर्शक लेखों में से एक है. अपने राजनीतिक अर्थ, निष्कर्षों, और सम्पूर्ण प्रस्तुतीकरण का दायित्व स्वाभाविक रूप से लेखक पर है.
हैस, जर्मनी में फ्रेंकफर्ट सिटी हॉल के सामने रोमेरबर्ग स्क्वायर में
1933 में किताबें जलाने की त्रासदी की याद में बना स्मारक, इस पर लिखा है -
-हाइनरिक हाइन, 1820