खेती और किसानी को बरबाद करने वाले तीन कानून

मोदी सरकार महामारी और लॉकडाउन के बीच सितम्बर 2020 में तीन नये कृषि कानून ले आई.

  1. आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020 (दि एसेन्शियल कमोडिटीज (अमेंडमेंट) एक्ट, 2020) - इसके तहत अनाज, दालें, आलू, प्याज, तिलहन और खाद्य तेल जैसी जीवन के लिए जरूरी वस्तुओं की जमाखोरी करने पर लगी कानूनी पाबंदी को हटा लिया गया है. अब मुनाफाखोर कितनी भी जमाखोरी करें उसे कानूनी माना जायेगा!
  2. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020 (दि फारमर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कामर्स (प्रोमोशन एंड फेसीलिटेशन) एक्ट, 2020) - इस कानून के जरिए एपीएमसी मण्डियों में किसान के उत्पादों का व्यापार/बिक्री अब जरूरी नहीं रह गयी. एपीएमसी के बाहर होने वाले कृषि उत्पादों के व्यापार पर राज्य सरकारें किसी तरह की मार्केट फीस, टैक्स या लेवी आदि भी नहीं ले सकतीं.
  3. कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020 (दि फारमर्स (एम्पॉवरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट आन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट, 2020) - इस कानून के माध्यम से किसानों और कम्पनियों/कॉरपोरेशनों के बीच कॉन्ट्रेक्ट यानी ठेका के आधार पर ‘कान्ट्रेक्ट फार्मिंग’ को कानूनी ढांचा दिया गया है. इस कानून में किसान की फसल/उत्पाद की कीमत तय करने का कोई प्रावधान नहीं है.

इन कानूनों का विरोध क्यों हो रहा है?

पूरे देश में किसान और आम नागरिक इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं. क्योंकि इनके माध्यम से किसानों और आम जनता को एक नये ‘‘कम्पनी राज’’ के हवाले कर दिया गया है. अन्तर सिर्फ इतना है कि पहले वाला कम्पनी राज अंग्रेजों का था, इन कानूनों के बाद जो कम्पनी राज बनेगा वह अडानी-अम्बानी-डब्लू.टी.ओ. (WTO) का होगा.

किसानों का कहना है कि ये कानूनः

  • भारत में खेती-किसानी का चेहरा बिगाड़ देंगे. किसान पूरी तरह से प्राइवेट कम्पनियों और कॉरपोरेशनों की दया पर रहने को मजबूर कर दिये जायेंगे, और कृषि के मामले में सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं रहेगी. इस प्रकार एक नये कम्पनी राज की स्थापना हो जायेगी.
  • ऐसे कानून जो किसान और किसानी का हुलिया बदल कर रख दें, उन्हें इतनी जल्दबाजी में, संसद में बगैर किसी भौतिक मतविभाजन के, और देश के किसान संगठनों से बिना सलाह लिए कोविड-19 की महामारी के बीच क्यों पास कराया गया? अगर प्रधानमंत्री के शब्दों में कहें तो उन्होंने ‘‘आपदा में अवसर’’ खोज लिया और महामारी की आड़ में लोकतंत्र की हत्या कर किसान विरोधी कानूनों को देश के किसानों के ऊपर थोप दिया.
  • ये कानून एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य और एपीएमसी यानी मण्डियों के वर्तमान ढांचे को तहस नहस कर देंगे और आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की जमाखोरी की छूट देकर कृषि बाजार पर पूंजीपतियों का पूर्ण नियंत्रण और एकाधिकार बना देंगे. किसान तो इस बात के लिए संघर्ष कर रहे थे कि उन्हें C2+50 के फॉर्मूले के अनुसार लागत मूल्य के डेढ़ गुना की दर से न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाय, उनके सभी कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद हो, और एपीएमसी व्यवस्था को किसानों के हित में और उत्तम बनाया जाय. लेकिन मोदी सरकार ने उल्टा कर दिया. सरकार ने एमएसपी पर कृषि उत्पादों की खरीद करने से हाथ पीछे खींच लिए और मण्डियों की व्यवस्था को जड़ से ही समाप्त करने का रास्ता खोल दिया.
  • इन तीन किसान विरोधी कानूनों के माध्यम से मोदी सरकार ने देश के संघीय ढांचे को भी कमजोर कर दिया है और अब राज्य सरकारें किसानों की रक्षा करने के अपने दायित्व को पूरा नहीं कर सकतीं.
  • ये तीनों कानून इतने सख्त हैं कि किसान अपनी खेती और जमीनों से ही अंततः बेदखल हो जायेंगे और फिर कृषि व्यापार में लगी बड़ी बड़ी कम्पनियों के गुलामों की तरह काम करना पड़ेगा.

भारत में कम्पनी राज थोपा जा रहा है. ऐसा कम्पनी राज कि अगर केन्द्र या राज्य सरकार का कोई अधिकारी किसानों के साथ नाइन्साफी या कोई गलत काम करता है तो उसके खिलाफ कोई भी नागरिक अदालत में नहीं जा सकता. ऐसा प्रावधान इन कानूनों में किया गया है. अगर कोई सरकारी अधिकारी भ्रष्ट है एवं वह किसानों व आम जनता के हितों के विरुद्ध किसी निजी कम्पनी को फायदा पहुंचाता है, तब भी आपके पास अदालत में न्याय मांगने के लिए जाने का हक नहीं होगा. उस अधिकारी को केवल इतना कहना होगा कि वह तो इस कृषि कानूनों को ‘पूरी नेकनीयती से’ लागू करने की कोशिश कर रहा था! दसअसल सरकार की मंशा कम्पनियों और सरकार के बीच मौजूद भ्रष्ट गठजोड़ को संरक्षण देने और आगे बढ़ाने की है.

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तीन कृषि कानूनों के माध्यम से आम नागरिकों पर आपातकाल थोपा जा रहा है

कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020 - जो एपीएमसी मण्डियों को समाप्त करने के उद्देश्य से बनाया गया है - अर्थात यह ‘एपीएमसी विनाश कानून’ है - की धारा 13 के अनुसार :

‘‘13- इस अधिनियम या उसके अधीन बनाए गए नियमों या किए गए आदेशों के अधीन सद्भावपूर्वक की गई या की जाने के लिए आशयित किसी बात के सम्बन्ध में कोई भी वाद, अभियोजन या अन्य विधिक कार्यवाही केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार या केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार के किसी अधिकारी या किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध नहीं होगी।’’

और कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020 जो कृषि को प्राइवेट कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में देने के लिए बनाया गया है, की धारा 19 में लिखा है किः

‘‘19- किसी सिविल न्यायालय को, किसी ऐसे विवाद के संबंध में, जिसका विनिश्चय करने के लिए उपखंड प्राधिकारी या अपील प्राधिकारी इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन सशक्त है, कोई भी वाद या कार्यवाहियां ग्रहण करने की अधिकारिता नहीं होगी और इस अधिनियम या तद्धीन बनाए गए नियमों द्वारा या उनके अधीन प्रदत्त किसी शक्ति के अनुसरण में की गई या की जाने वाली किसी कार्रवाई के संबंध में किसी न्यायालय या अन्य प्राधिकारी द्वारा कोई व्यादेश मंजूर नहीं किया जाएगा।’’

सीधे-सीधे कहें तो इन कानूनी प्रावधानों का असल मतलब है किसानों के हितों की अनदेखी कर कम्पनियों के स्वार्थ पूरा करने वाले भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारियों को इस बात का संरक्षण दिया जाना कि उनके खिलाफ किसी भी प्रकार की कानूनी कार्यवाही नहीं की जायेगी. जनता के हितों की रक्षा करने की बजाय इन कानूनों में किसानों, किसान संगठनों और आम नागरिकों पर रोक लगाई गयी है कि वे कम्पनियों के एजेण्ट बन कर काम करने वाले ऐसे सरकारी अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की मांग नहीं कर सकते.

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एमएसपी से किसे फायदा होता है?

क्या केवल पंजाब, हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान ही इसका लाभ ले पाते हैं?

फूड कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया (एफ.सी.आई.) के राज्यवार अनाज खरीद के आंकड़े और नेशनल सेम्पल सर्वे के 2012-13 के आंकड़ों के अनुसार एक अलग ही तस्वीर सामने आती है. एफ.सी.आई. के अनुसार डिसेन्ट्रलाइज्ड प्रोक्योरमेण्ट स्कीम (DCP) के तहत वर्ष 2012-13 से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के बाहर के राज्यों से 25-35 प्रतिशत धान एवं गेहॅूं की खरीद की जा रही है.

एक अध्ययन के अनुसार ‘‘धान खरीद के मामले में छत्तीसगढ़ और ओडिशा सबसे आगे हैं. इन दो राज्यों से देश की कुल सरकारी धान खरीद का 10 प्रतिशत आता है. जबकि मध्यप्रदेश में डिसेन्ट्रलाइज्ड प्रोक्योरमेण्ट को बड़े पैमाने पर लागू किया गया है और गेहॅूं की कुल खरीद का लगभग 20 प्रतिशत वहीं से आता है. साल 2020-21 में मध्यप्रदेश गेहॅूं की सरकारी खरीद के मामले में पंजाब से आगे रहा. धान की सरकारी खरीद व्यवस्था (प्रोक्योरमेण्ट) में आने वाले खेतिहर परिवारों में 9% पंजाब से, 7% हरियाणा से, 11% ओडिशा से, और 33% छत्तीसगढ़ से आते हैं. जबकि गेहॅूं की सरकारी खरीद में 33% मध्यप्रदेश से आते हैं, वहीं पंजाब से 22% और हरियाणा से 18% खेतिहर परिवार हैं.

न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद क्या बड़े किसानों के लिए है?

क्या इन कानूनों का विरोध केवल पंजाब और हरियाणा के बड़े-बड़े किसान ही कर रहे हैं?

सच तो यह है कि सरकारी खरीद का लाभ उठाने वालों में छोटे और सीमांत किसानों की संख्या मंझोले और बड़े किसानों से कहीं बहुत ज्यादा है. अखिल भारतीय स्तर पर सरकार को धान बेचने वाले किसानों में मात्र 1% बड़े किसान हैं जिनके पास 10 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन है. 2 हेक्टेयर से कम जमीन वाले छोटे और सीमांत किसानों का प्रतिशत इनमें 70% है और बाकी के मंझोले किसान (2-10 हेक्टेयर वाले) 29% हैं.

गेहूं की सरकारी खरीद में बड़े किसान केवल 3% हैं, जबकि आधे से ज्यादा (56%) तो छोटे और सीमांत किसान ही हैं.

पंजाब और हरियाणा में भी छोटे व सीमांत किसानों की संख्या कम नहीं है. जहां क्रमशः 38% और 58% छोटे व सीमांत किसानों का धान सरकारी खरीद में जाता है. डिसेन्ट्रलाइज्ड प्रोक्योरमेण्ट स्कीम (DCP) को अपनाने वाले राज्यों में राज्य की सरकारी खरीद एजेन्सियों को फसल उत्पाद बेचने वालों की बहुसंख्या छोटे व सीमांत किसानों की है. उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में ऐसे किसानों में 70-80 प्रतिशत छोटे व सीमांत किसान हैं. इसी प्रकार मध्यप्रदेश में गेहॅूं बेचने वाले लगभग आधे (45%) किसान छोटे व सीमांत किसान हैं.

जैसा कि इन आंकड़ों से साफ हो जाता है कि एमएसपी, एपीएमसी मण्डियां और सरकारी खरीद की ठोस व्यवस्था न रहने से भारी संख्या में, और सभी राज्यों में, छोटे व सीमांत किसानों का भारी नुकसान होगा. फिर, कॉरपोरेटों के हक में कांन्ट्रेक्ट खेती की ओर जाने से भारत के ज्यादातर किसानों को भारी क्षति उठानी पड़ेगी. बड़े किसानों की अपेक्षा छोटे और सीमांत किसानों के लिए तो खुले बाजार में दैत्याकार कृषि कम्पनियों व कॉरपोरेटों से टक्कर लेना बहुत मुश्किल होगा.

इसीलिए हम देख रहे हैं कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, या बिहार के भी किसान आज दिल्ली के बॉर्डर पर आन्दोलन में शामिल होने के लिए आ रहे हैं. यह सरकार का सफेद झूठ है कि पंजाब से बाहर के किसान इन तीन किसान विरोधी कानूनों का समर्थन कर रहे हैं. पूरे भारत में इन कानूनों के खिलाफ सभी किसान एकजुट हैं.

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सरकार का दावा है कि एमएसपी और सरकारी खरीद तो जारी रहेगी - फिर इतना हल्ला क्यों हो रहा है?

कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के लिए जो कानून लाया गया है [ कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020 ] उसमें फसल की कीमतों को एमएसपी या सरकारी खरीद रेट से जोड़ने का प्रावधान नहीं बनाया गया है. इस कानून की धारा 5(ख) के अनुसार केवल ‘‘विनिर्दिष्ट एपीएमसी यार्ड या इलेक्ट्रॉनिक व्यापार और संव्यवहार प्लेटफार्म या किसी अन्य उपयुक्त बैंचमार्क कीमतों में विद्यमान कीमतों से’’ जोड़ने की बात कही गई है. अर्थात खुले बाजार में मौजूद कीमतों के अनुसार ही किसान की फसल का मूल्य तय होगा, और कौन नहीं जानता कि खुले बाजार पर नियंत्रण तो बड़े पूंजीशाहों का ही होता है! जबकि किसान तो वर्षों से स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुरूप सी2+50 फॉर्मूले पर फसल की लागत से डेढ़ गुना एमएसपी की मांग कर रहे थे.

मोदी सरकार लगातार साल-दर-साल कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद की कुल मात्रा एवं खरीद केन्द्रों की संख्या में कमी करती जा रही है और अनाज का भण्डारण व वितरण करने वाली संस्था एफ.सी.आई. (फूड कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया) के बजट में कटौती कर उसे घाटे में डाल रही है. इससे सरकार की मंशा स्पष्ट हो जाती है कि आगे जाकर देश के किसानों और उनकी खेती को निजी कम्पनियों और खुले बाजार के रहम पर छोड़ दिया जायेगा.

साफ है कि सरकार और प्रधानमंत्री एमएसपी और सरकारी खरीद चालू रहने का दावा कर खुलेआम देश को गुमराह कर रहे हैं.

क्या नये कानून किसानों को आजादी देते हैं कि वे चुन सकें कि अपनी फसल किसे बेचनी है. इस तरह एपीएमसी का एकाधिकार टूटेगा? क्या बाजार में कम्पटीशन बढ़ेगा फलस्वरूप किसानों को बेहतर मूल्य मिल सकेंगे?

यह सच नहीं है.

सरकार का दावा है कि नये कानूनों के कारण किसानों को एपीएमसी नियंत्रित बाजार के बाहर एमएसपी से ज्यादा मूल्य मिल सकता है. और अगर ऐसा नहीं होता तो किसान अपनी फसल एपीएमसी की मण्डी में बेचने के लिए स्वतंत्र हैं.

दावा गलत है. नीचे दिये गये बिन्दुओं को ध्यान से पढ़ियेः

  • जो फसलें सरकारी खरीद की सूची में नहीं आतीं वे तो पहले से ही खुले बाजार में बेची जाती हैं, और उन्हें आम तौर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम मूल्य मिल पाता है.
  • शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार देश के केवल 6% किसानों का उत्पाद ही सरकारी खरीद में जा पाता है . इसका मतलब हुआ कि 94% किसान तो पहले से ही अपनी फसल को खुले बाजार में बेचने को मजबूर हैं. तब फिर ‘बाजार चुनने की आजादी’, ‘कम्पटीशन’ या ‘एपीएमसी का एकाधिकार (मोनोपॉली)’ जैसे जुमले क्यों उछाले जा रहे हैं? ताकि जनता को गुमराह किया सके.
  • केवल 36% ट्रेडिंग (कृषि उपज का व्यापार) सरकारी मण्डियों में होती है, बाकी की फसल खुले बाजार में पहले से ही जा रही है जहां किसानों की बारगेनिंग पॉवर (मोल-तोल की क्षमता) बिल्कुल नहीं होती. तो चुनने की आजादी का क्या मतलब रह जाता है? ऊपर से ‘‘प्राइवेट मण्डियों में कम्पनियां अपने नियम खुद बनाती हैं, खासकर क्वालिटी चेक करने के बारे में. वहां खरीदार एक ही कम्पनी होती है अतः माल की नीलामी नहीं होती (जैसा कि एपीएमसी में होता है). निजी मण्डी/बाजार के नियम बदलवाने की क्षमता किसान में नहीं होती, और न ही व्यापारी के खिलाफ शिकायत करने का वहां कोई विकल्प रहता है. जबकि सरकारी मण्डी में किसान सामूहिक रूप में संगठित हो सकते हैं और जरूरत होने पर अधिकारियों से जवाबदेही की मांग कर सकते हैं. कम्पनियां तो अपने शेयर होल्डरों के प्रति जवाबदेह होंगी, किसानों के प्रति बिल्कुल नहीं .’’
  • सरकार 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है. लेकिन तय एमएसपी पर एपीएमसी मण्डी में सरकारी खरीद केवल धान और गेहॅूं की होती है (कुछ कपास, सोयाबीन, दालें, सरसों आदि की भी). इन 23 फसलों का बाजार मूल्य आमतौर पर एमएसपी से काफी कम मिलता है. इनमें जिन फसलों की सरकारी खरीद नहीं की जाती उन्हें कम कीमत पर खुले बाजार में बेचने के अलावा और कुछ भी चुनने की आजादी किसान के पास है ही नहीं, और न आगे होगी. मक्का का एमएसपी रु. 1850 प्रति कुंटल घोषित है, लेकिन किसान के पास उसे रु. 800 से 1000 प्रति कुंटल तक खुले बाजार में बेचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.
  • भारत में कहीं भी किसानों ने यह मांग नहीं की है कि वे अपने उत्पाद को एपीएमसी मण्डी के बाहर बेचने की ‘आजादी’ चाहते हैं (वैसे यह विकल्प तो उनके पास आज भी है)! किसान तो चाहते हैं कि उनकी फसल का सौ फीसदी एपीएमसी में जाये और वहां एमएसपी पर बिके.
  • खुला बाजार, खुली लूट का अड्डा है. इसीलिए किसान चाहते हैं कि सभी फसलों की लागत के डेढ़ गुना दाम (जमीन का लीज रेण्ट सहित) लगा कर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद हो. लेकिन यह सरकार तो एपीएमसी मण्डियों के जरिए जो थोड़ा बहुत एमएसपी मिल रहा है उसे भी खत्म करना चाहती है.
  • भारत में 80 प्रतिशत से ज्यादा किसान 2 हेक्टेयर के कम जमीन के मालिक हैं. इन छोटे किसानों के पास इतनी सुविधा नहीं होती कि वे सरकारी खरीद न होने की हालत में अपनी फसल को स्टोर करने या उसके ट्रांसपोर्ट करने लायक ढांचा खड़ा कर सकें. उन पर फसल को जल्द से जल्द बेचने का दबाव होता है ताकि वह खुले में बरबाद न हो जाये. ऊपर से कर्ज की रकम चुकानी होती है. अगली फसल के लिए लागत सामग्री तत्काल जुटानी होती है. ऐसी तंगी में निकटतम मण्डी में जाकर फसल बेचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होता. अगर मण्डियां और एमएसपी की व्यवस्था खत्म कर दी गई तो अपने गांव में ही किसी बड़ी कम्पनी के एजेण्ट को सस्ते में फसल की आपदा बिक्री करनी पड़ेगी. कॉरपोरेटों को फसल बेचने की ऐसी ‘आजादी’ किसे चाहिए? ये तीनों कृषि कानून किसानों को पूंजीपतियों के हवाले करने के लिए बनाये गये हैं, अतः इनका विरोध तो होना ही है.

संक्षेप में कहें तो कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020 दरअसल ‘एपीएमसी विनाश कानून’ है, जो अंततः मण्डी व्यवस्था को पूरी तरह खतम कर देगा और किसानों के पास कोई सुरक्षा तंत्र (सेफटी नेट) नहीं बचेगा. आज घोषित मूल्य पर सरकारी खरीद का प्रावधान है, इन कानूनों के बाद घोषित से कम मूल्य पर कम्पनियों को आपदा बिक्री करने के अलावा किसान के पास और कोई रास्ता नहीं बचेगा.

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एपीएमसी मण्डियों के बारे में तो ढेर सारी शिकायतें रहती हैं.
नये कानूनों में बिचौलियों से छुटकारा मिल जायेगा?

किसान चाहते हैं कि एपीएमसी मण्डियां उनके प्रति और ज्यादा जवाबदेह व बेहतर बनें, वे उन्हें खत्म तो बिल्कुल नहीं होने देना चाहते.

कृषि में व्यापारियों, दलालों, बिचौलियों आदि का असर खतम करने के उद्देश्य से 70 के दशक में देश में सार्वजनिक मण्डियां बनाने के लिए ‘एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) कानून’ बनाया गया था. लेकिन समय से साथ व सरकारी ढिलाई के चलते इनमें मुट्ठी भर आढ़तियों का प्रभुत्व बनता चला गया और कई जगह तो हालत ऐसे हो गये कि वित्त, व्यापार, प्रसंस्करण और परिवहन समेत कृषि व्यापार के सभी पहलुओं पर उनका प्रभुत्व बन गया. जाहिर है कि मण्डी व्यवस्था को सुधारने व बेहतर बनाने की जरूरत है ताकि किसानों के प्रति उनकी जवाबदेही बढ़े, न कि मण्डियों को ही समाप्त कर दिया जाये.

अगर छोटे व्यापारी, आढ़तिये या बिचौलियों में बनी बनाई व्यवस्था को बिगाड़ने की इतनी क्षमता है, तब जरा कल्पना करिये कि विशालकाय कम्पनियां इस क्षेत्र में आकर क्या-क्या नहीं करेंगी?

कॉरपोरेट खेती से बिचौलिए खत्म नहीं होंगे. बल्कि बड़ी कम्पनियों के आने का मतलब बड़े बिचौलिए आ गये! और इन बहुत बड़े बिचौलियों को किसानों तक पहुंचने के लिए छोटे बिचौलियों की भी जरूरत होगी. जोकि एपीएमसी मण्डियों के मौजूदा आढ़तियों से बेहतर और कौन हो सकता है.

एपीएमसी की मण्डी व्यवस्था में हजार खामियां हो सकती हैं - और किसान उन्हें ठीक करने की लगातार मांग भी करते रहे हैं. लेकिन नये कानूनों का मकसद कुछ और है. ये कानून एक ऐसी व्यवस्था को खत्म करने के लिए लाये गये हैं जिसमें किसानों को भी कुछ फायदा मिलता था, और मौजूदा व्यवस्था की जगह ऐसा तंत्र बनाया जा रहा है जिसमें केवल बड़ी कम्पनियों को फायदा होगा.

इन कानूनों में एक नहीं, पांच जगह बिचौलियों का प्रावधान बनाया गया है. पुराने वाले बिचौलिए कहीं नहीं जायेंगे बल्कि वे नये नामों से इन नयी जगहों को भरेंगेः

  • कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग कानून ख्कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020, की धारा 2(छ) में फार्म एग्रीमेण्ट की परिभाषा में लिखा है कि “कृषि करार“ से किसी भी कृषि उत्पाद की किसी पूर्व अवधारित क्वालिटी के उत्पादन या उगाने से पहले किसी कृषक और किसी प्रायोजक के बीच, या किसी कृषक, किसी प्रायोजक और किसी तीसरे पक्षकार के बीच किया गया कोई लिखित करार अभिप्रेत है”. इसमें ‘तीसरा पक्षकार’ (थर्ड पार्टी) और कोई नहीं एक बिचौलिया है.
  • इसी कानून की धारा 3(1)(ब) में लिखा है कि ‘‘परंतु ऐसी कृषि सेवाएं प्रदान करने के लिए किसी भी विधिक अपेक्षा की अनुपालना का उत्तरदायित्व, यथास्थिति, प्रायोजक या कृषि सेवा प्रदाता (फार्म सर्विस प्रोवाइडर) का होगा’’. यहां ‘‘कृषि सेवा प्रदाता’’ (फार्म सर्विस प्रोवाइडर) एक बिचौलिया है.
  • कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग कानून की धारा 4(4) कहती है कि स्वीकार्य क्वालिटी, श्रेणी और मानकों को सुनिश्चित करने के लिए ‘‘तृतीय पक्षकार अर्हित पारखियों द्वारा मॉनीटर और प्रमाणित किया जाएगा’’. इसमें ‘तृतीय पक्षकार अर्हित पारखी’ (थर्ड पार्टी क्वालीफाइड एसेयर) एक और बिचौलिया है.
  • इस कानून की धारा 10 में ‘‘संकलक या कृषि सेवा प्रदाता’’ (एग्रीगेटर या फार्म सर्विस प्रोवाइडर) का प्रावधान बनाया गया है. “संकलक“ से ‘‘ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जिसके अंतर्गत कृषक उत्पादक संगठन भी है, जो किसी कृषक या कृषकों के किसी समूह और किसी प्रायोजक के बीच मध्यवर्ती के रूप में कार्य करता है और कृषक तथा प्रायोजक दोनों को संकलन से संबंधित सेवाएं प्रदान करता है’’. यहां संकलक नाम से इस बिचौलिए को तीन काम दिये गये हैंः- वह छोटे किसानों की जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के लिए एक साथ करेगा, खेती में कम्पनियों की सेवायें सुनिश्चित करायेगा, और कम्पनियों को फसल उत्पाद की बिक्री करवायेगा.
  • कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग कानून की धारा 2(ङ) और कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020 (एपीएमसी विनाश कानून) की धारा 2(ब) में ‘किसान’ की परिभाषा में ‘कृषि उत्पादक संगठन’ को भी शामिल किया गया है. कृषि उत्पादक संगठन (एफपीओ) तो समर्थ और धनी किसान ही बना पायेंगे और फिर वे स्पान्सर कम्पनियों के बिचौलिए बन कर रह जायेंगे. हालांकि एफपीओ की मूल अवधारणा है कि व्यापारियों से मोल-भाव करने की दिशा में वे किसानों के स्वयंसेवी समूहों के रूप में काम करेंगे. लेकिन सच्चाई यही है कि ऐसे एफपीओ आज के सूदखोरों, बैंक दलालों, आढ़तियों और व्यापारिक एजेण्टों की जगह ले लेंगे. गरीब किसानों को इनसे बचाने के प्रावधान इन कानूनों में कहीं नहीं है.
  • कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020 की धारा 5(1) में स्पष्ट रूप से प्राइवेट मण्डियों के मालिक और मैनेजमेण्ट तथा एफपीओ के बीच संबन्ध स्पष्ट है कि एफपीओ ‘किसान के उत्पाद के व्यापार के लिए इलेक्ट्रोनिक ट्रेडिंग व ट्रांजेक्शन की पद्धति’ विकसित व संचालित करेंगे.

कुल मिला कर देखें तो ये कानून बिचौलियों से छुटकारा नहीं दिला रहे, बल्कि बिचौलियों के और बड़े जाल में किसानों को फंसा रहे हैं. ये नये बिचौलिए ज्यादा खतरनाक हैं. पुराने वाले आढ़तियों का किसानों के साथ कम से कम ऐसा संम्बध विकसित हो गया है कि मुसीबत में किसान उनसे मदद व बगैर लिखा-पढ़ी के तत्काल ब्याज मुक्त कर्ज आदि भी ले लेते हैं. अब यह भी नहीं रहेगा. ऐसे में आर्थिक संकट आने पर किसान के पास जमीन बेचने या खेती छोड़ने के अलावा और क्या बचेगा?

इस सन्दर्भ में किसान ठीक ही कह रहे हैं कि किसान और बाजार के बीच के काम करने वाले को ‘बिचौलिया’ नहीं बल्कि ‘सर्विस प्रोवायडर’ कहा जाना चाहिए. इन्हें हटाने की जरूरत नहीं है बल्कि पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी और किसान के प्रति जवाबदेह बनाने की जरूरत है ताकि कोई भी ताकत बाजार को अपने पक्ष में तोड़-मरोड़ न सके.

प्रधानमंत्री मोदी भाषण दे रहे हैं कि जब केरल में एपीएमसी मण्डियां अभी तक नहीं बनायी गईं, तब अन्य राज्यों के लिए एपीएमसी का मुद्दा क्यों उछाला जा रहा है?

प्रधानमंत्री सफेद झूठ का कारोबार कर रहे हैं. यह बड़े शर्म की बात है. सच्चाई जानने के लिए नीचे की लाइनों पर गौर करेंः

  • केरल में एपीएमसी कानून इसलिए नहीं बनाया गया क्योंकि वहां कृषि में 82% हिस्सा उन व्यावसायिक व प्लाण्टेशन फसलों का है जो सरकारी एमएसपी घोषित होने वाली 23 फसलों में नहीं आतीं. इनमें नारियल, काजू, रबर, चाय, कॉफी, एवं काली मिर्च, लौंग, जायफल, इलायची, दालचीनी जैसे मसाले आदि आते हैं.
  • केरल में धान, फल व सब्जी आदि की फसलों का इतना उत्पादन नहीं होता कि उनके लिए अलग से एपीएमसी कानून के तहत एक थोक मण्डी की जरूरत पड़े. लेकिन वहां पर राज्य सरकार द्वारा इन फसलों के लिए भी नियम जारी किये जाते हैं.
  • केरल में धान का सरकारी खरीद मूल्य रु. 2748 प्रति कुंटल है, जोकि केन्द्र सरकार की एमएसपी से रु. 900 ज्यादा है.
  • व्यवसायिक फसलों की अलग मार्केटिंग प्रणाली होती हैं जो भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के तहत बने कमोडिटी बोर्डों द्वारा प्रायोजित की जाती है. जैसे रबर बोर्ड, मसाला बोर्ड, कॉफी बोर्ड, टी बोर्ड, कोकोनट डेवलपमेण्ट बोर्ड आदि. ऐसी फसलों की नीलामी और मार्केटिंग की अलग व्यवस्था है.

तब प्रधानमंत्री क्यों जानबूझ कर झूठ फैला कर जनता को गुमराह कर रहे हैं? क्योंकि वे जानते हैं कि इन कृषि कानूनों के बचाव में बोलने के लिए सच से काम नहीं बनेगा, झूठ का सहारा ही एकमात्र रास्ता है.

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क्या यह सही है कि बिहार में एपीएमसी कानून समाप्त करने के बाद वहां कृषि की विकास दर बढ़ गई?

बिहार में एपीएमसी कानून को 2006 में समाप्त कर दिया गया था.

नवउदारवादी टिप्पणीकार शेखर गुप्ता का मानना है कि एपीएमसी कानून समाप्त होने से बिहार में कृषि विकास दर इतनी ज्यादा बढ़ गई कि पंजाब भी पीछे रह गया. वैसे बिहार के लोग तो खुद ही जानते हैं कि 2006 के बाद से उन्होंने कृषि विकास कितना देख लिया है!

आइये कुछ ऐसे तथ्यों और आंकड़ों पर नजर डालें जिन्हें किसान विरोधी कानूनों के पक्ष में बोलने वाले आपको नहीं बतायेंगेः

  • 2011-12 से लेकर आज तक बिहार की सालाना कृषि विकास दर माइनस (-)1 प्रतिशत है, और पंजाब में यह (+)1 प्रतिशत है. बिहार में इस दौरान कृषि में ग्रॉस स्टेट वैल्यू ऐडेड (जी.एस.वी.ए.) घट गया है, जबकि पंजाब में यह लगातार बढ़ रहा है. हां, साल 2006-07 और 2011-12 के बीच बिहार का जी.एस.वी.ए. 4.8 प्रतिशत रहा था और इसी दौरान पंजाब में यह 1 प्रतिशत था. लेकिन यह आंकड़ा एक छोटी समय अवधि का है और पूरी तस्वीर नहीं दिखाता.
  • जो भी हो, अगर मान भी लें कि बिहार में कृषि का विकास हुआ है, तो सरकारी आंकड़ेबाजों को यह भी बताना पड़ेगा कि क्यों इस दौरान बिहार के किसानों की आय नहीं बढ़ी. क्यों बिहार के किसानों का स्थान आज खेती में आय के मामले में सबसे नीचे आता है?
  • अगर बिहार के किसानों का हाल इतना अच्छा होता तो वे हर साल अपनी धान की उपज को तस्करी के जरिए पंजाब की एपीएमसी मण्डियों में क्यों भिजवाते हैं? बताया जाता है कि करीब दस लाख टन चावल बिहार से पंजाब की मण्डियों में चोरी से भेजा जाता है. क्योंकि बिहार में खुले बाजार में धान का मूल्य एमएसपी से काफी कम होता है .  

बिहार का अनुभव मोदी सरकार और उसके समर्थकों द्वारा इन कानूनों के बचाव में फैलाये जा रहे झूठ की पोल खोल देता है.

बिहार में एपीएमसी कानून खत्म कर देने के बाद भी नये कृषि बाजार बनाने और पहले से मौजूद सुविधाओं को और सुदृढ़ करने की दिशा में निजी पूंजी निवेश हुआ ही नहीं, फलस्वरूप कृषि बाजार की सघनता 2006 के बाद घट गयी. ऊपर से बिहार में अनाज की सरकारी खरीद पहले भी कम थी, अब और घट गई. आज वहां के किसान पूरी तरह से व्यापारियों की दया पर निर्भर हैं जो मनमाने तरीके से अनाज खरीद का मूल्य काफी कम दर पर तय करते हैं. फसल के कम खरीद मूल्य के पीछे संस्थागत व्यवस्था का अभाव और अपर्याप्त बाजार सुविधायें एक बहुत बड़ा कारण है.

बिहार में अब धान एवं गेहूं की एमएसपी मूल्य पर खरीद की जिम्मेदारी पी.ए.सी.एस. (प्राइमरी एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव सोसाइटीज) की है, परन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसी खरीद बस नाममात्र की ही की जाती है. वहां के किसान बताते हैं कि फसल का उचित मूल्य न मिलना बिहार में कृषि विकास दर बढ़ाने की दिशा में बहुत बड़ी बाधा है .

एपीएमसी व्यवस्था समाप्त करने और उसकी जगह पी.ए.सी.एस. (प्राइमरी एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव सोसाइटीज) ले आने के 14 साल बाद बिहार में आज तक कृषि के आधारभूत ढांचा के विकास हेतु निजी क्षेत्र का पूंजी निवेश एक स्वप्न भर है. और फसल का उचित मूल्य हासिल कर पाना तो और भी दूर का सपना बन चुका है.

एन.सी.ए.ई.आर. की रिपोर्ट के अनुसार :

  • बिहार में एपीएमसी खत्म करने बाद वहां खाद्यान्न के मूल्यों में अस्थिरता बढ़ गई है.
  • वहां किसानों को निजी गोदामों में अपने फसलोत्पाद रखने के लिए ज्यादा मूल्य चुकाना पड़ता है.
  • बिहार में धान, गेहूं, मक्का, मसूर, चना, सरसों, केला आदि समेत 90 प्रतिशत से ज्यादा फसल उत्पाद व्यापारी और कमीशन एजेण्ट सस्ते में गांव से ही खरीद ले जाते हैं.
  • वहां किसानों को फसल का उचित मूल्य नहीं मिलता है. फसल कटाई के बाद किसानों को तत्काल नकद धन की जरूरत होती है जिसके लिए उन्हें अपनी फसल व्यापारियों को मजबूरी में सस्ते में बेचना पड़ता है. वहां गांव के पास सरकारी कृषि बाजार तो होता नहीं है.
  • अगर किसान अपना उत्पाद दूर की किसी मण्डी में ले भी जाते हैं तो वहां उन्हें कमीशन एजेण्ट को रिश्वत देनी होती है.
  • संसाधन के अभाव में किसान अपनी फसल को घर में स्टोर करके नहीं रख सकते, वह बरबाद हो जायेगी. इसीलिए किसान अपना उत्पाद कम कीमत पर बेचने के लिए मजबूर होते हैं.

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के सुविख्यात प्रोफेसर सुखपाल सिंह ने 2015 में ही चेतावनी दी थी कि ‘‘बिहार जैसे राज्यों के लिए जहां छोटे एवं सीमांत किसानों की संख्या 90 प्रतिशत से ऊपर है, एपीएमसी मण्डियां बहुत महत्वपूर्ण हैं. चूंकि छोटे किसानों तक न तो बड़े खरीदार और न ही कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग वाली कम्पनियां पहुंचती है, ऐसी मण्डियां ही उनका एकमात्र सहारा हैं. ... कृषि बाजारों में सुधार के नाम पर पूरी मण्डी व्यवस्था को ही समाप्त करने की जरूरत नहीं है. संस्थाओं को खत्म करना बहुत आसान है, असली चुनौती उन्हें बनाने में है. कृषि क्षेत्र और किसान समुदाय को इसके गम्भीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे .’’  

क्या कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में किसान को ज्यादा दाम और उपभोक्ताओं को सस्ता अनाज मिलेगा?

बिल्कुल नहीं. कम्पनियां उपभोक्ता सामग्रियों की जमाखोरी करेंगी और बाजार पर उनका एकाधिकार कायम हो जायेगा. वे शुरूआत में बाजार पर प्रभुत्व बनाने के लिए और एपीएमसी तथा एमएसपी व्यवस्था को नाकारा बना देने के लिए हो सकता है कि किसानों को उपज का अधिक मूल्य दें. एक बार जब एपीएमसी और एमएसपी व्यवस्था चरमरा कर खत्म हो जायेगी, तब उन कम्पनियों के लिए एमएसपी से ज्यादा दाम लगाने की कोई बाध्यता नहीं रहेगी, तब वे सस्ता खरीदेंगे और मंहगा बेचेंगे. इससे किसान और आम उपभोक्ता दोनों को ही नुकसान उठाना पड़ेगा.

कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के साथ समस्या यह है कि “किसानों की तुलना में सत्ता संतुलन धन्नासेठों के पक्ष में ही होता है. चाहे वह कॉन्ट्रेक्ट की शर्तें तय करने की बात हो, या उसे लागू करने का मामला हो. और तो और, बड़ी कम्पनियां कुछ खास फसलों में ही निवेश करती हैं जोकि शहरी और वैश्विक मांग के हिसाब से होगा. हमारे देश में पहले से ही कमजोर फसलों की विविधता को और भी क्षति पहुंचेगी” .

भारत के किसान बहुत पहले ही कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को आजमा चुके हैं और कटु अनुभवों के आधार पर उसे खारिज कर चुके हैं. नब्बे के दशक की शुरूआत में पंजाब में पेप्सी फूड्स द्वारा टमाटर, और मिर्च की खेती के साथ कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की शुरूआत हुई. उस दशक का अंत आते आते इस प्रयोग के पैरोकार और उसमें शामिल भारतीय किसान यूनियन, अकाली दल, पंजाब एग्रो इण्डस्ट्रीज कॉरपोरेशन और वोल्टास आदि का कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से पूरी तरह मोहभंग हो चुका था .

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किसानों का पेप्सी के साथ कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग का अनुभव कैसा रहा?

   • 1997 तक पेप्सी कम्पनी किसानों से टमाटर और मिर्ची की फसल खरीदती थी, फिर उसने अपनी टमाटर की फैक्ट्री हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड को बेच दी और अब सिर्फ कुछ दर्जन किसानों के साथ ही काम करती है.
    • नब्बे के दशक के अंत में पेप्सी ने आलू की कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग शुरू की. पर अब उसके द्वारा आलू की खरीद का मात्र 10% हिस्सा कॉन्ट्रेक्ट उत्पादकों से आता है.

  •  पंजाब में पेप्सी को 7 बॉटलिंग प्लांट लगाने थे पर अंततः उसने केवल एक प्लांट की लगाया.
  •  पेप्सी के साथ कॉन्ट्रेक्ट में जो किसान बंधे हैं उन्होंने पाया कि कम्पनी द्वारा दिये गये बीजों की सप्लाई अपर्याप्त है.
  •  किसानों ने यह भी पाया कि कम्पनी द्वारा थोपे गये कीटनाशक मंहगे और घटिया गुणवत्ता वाले थे.
  •  हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड के मामले में कॉन्ट्रेक्ट किसानों ने बताया कि उनके पास लगाने के लिए पर्याप्त पौध मौजूद थी फिर भी कम्पनी ने गैर-कॉन्ट्रेक्ट वाले किसानों को भी पौध बेची. बाद में कम्पनी ने कॉन्ट्रेक्ट में गये किसानों की फसल लेने से मना कर दिया.

ये हैं कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से पीड़ित किसानों के कुछ बयानः

दिल्ली बॉर्डर पर किसानों के संघर्ष में तरन तारन से आये 68 वर्षीय किसान सज्जन सिंह ने ‘न्यूजक्लिक’ के रिपोर्टर को बताया कि “मेरे जैसे छोटे किसानों के लिए कॉरपोरेटों के साथ कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग करना सम्भव नहीं है ... क्योंकि एक-दो साल तो कॉरपोरेट अच्छी कीमत देते हैं, उसके बाद बाजार पर कन्ट्रोल बना लेने के बाद वे कीमतें अपने हिसाब से तय करने लगते हैं.”

पंजाब के ही एक गांव से आये कंवलजीत सिंह ने ‘इण्डिया टूडे’ को बताया कि उन्होंने 6 साल तक कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की और लगातार समस्याओं से जूझते रहे. कभी बीज खराब मिलता था, तो कभी रखरखाव में समस्या रहती थी, लेकिन कम्पनी कभी भी जवाबदेही नहीं लेती थी. अगर नये कानून के हिसाब से गेहूं और धान की कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग भी शुरू हो गई तो किसानों की दिक्कतें और बढ़ जायेंगी क्योंकि वे कॉरपोरेटों के दबाव और शोषण के आगे टिक नहीं पायेंगे.

जब सरकार मण्डी टैक्स नहीं लेगी तो किसान और कम्पनी दोनों का फायदा है?

एपीएमसी विनाश कानून की धारा 6 में लिखा है कि ‘बाजार शुल्क/ टैक्स या लेवी नहीं ली जायेगी’ जबकि एपीएमसी एक्ट या राज्यों के अन्य कानूनों के हिसाब से यह लिया जाता है. लेकिन इस कानून की धारा 5(1) के अनुसार “इलैक्ट्रानिक व्यापारिक और संव्यवहार प्लेटफार्म स्थापित और प्रचालित करने वाला व्यक्ति, व्यापार की रीति, फीस ... जैसी उचित व्यापार पद्धतियों और ऐसे अन्य विषयों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत तैयार करेगा और उनका क्रियान्वयन करेगा”. इसका अर्थ हुआ कि मण्डी या बाजार की फीस तो जरूर होगी परन्तु उसका निर्धारण सरकार नहीं करेगी! इतना ही नहीं, किसानों के लिए तो बाजार शुल्क रहेगा, और कम्पनियों का तो टैक्स आमतौर पर माफ कर दिया जाता है.

कृषि -- व्यपार के लिए अडानी द्वारा मोदी राज में बनाई गई कम्पनियां

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नये कानूनों से किसे फायदा होगा?

मोदी सरकार बनने के बाद से 2014 और 2018 के बीच मोदी के दोस्त पूंजीपति गौतम अडानी ने करीब 20 कृषि व्यापार कम्पनियां स्थापित कर ली हैं. उससे पहले अडानी के पास ऐसी मात्र 2 कम्पनियां ही थीं. साल 2019 में ही अडानी ने 9 नई कृषि व्यापार कम्पनियां खड़ी कर लीं.

कृषि बाजारों के डिरेगुलेशन से अडानी जैसों की कम्पनियों को फायदा पहुंचेगा इसमें किसी को कोई संदेह नहीं है.

अगर नये कृषि कानूनों में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी भी हो जाय तो?

यदि सरकार इन कानूनों को रहने दे और साथ में एमएसपी पर खरीद की गारंटी का कानूनी अधिकार भी दे दे, जैसा कि किसान पहले से ही मांग कर रहे थे, तब आप क्या कहेंगे?

यह मंजूर नहीं. क्योंकि जब तक नये कानूनों के माध्यम से आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की जमाखोरी होती रहेगी और एपीएमसी मण्डियों को कमजोर करने वाला कानून भी रहेगा, तब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानूनी अधिकार केवल कागजी जुमला ही बना रहेगा.

क्यों? यह आप श्रम कानूनों के उदाहरण से समझ सकते हैं जिनमें न्यूनतम मजदूरी कानूनी प्रावधान है लेकिन उसे लागू नहीं किया जाता. सरकार की प्राथमिकता निजीकरण करने और ठेका प्रथा मजबूत बनाने की है, इसलिए श्रम कानून मात्र कागजी कानून बन कर रह गये हैं. यही हाल न्यूनतम समर्थन मूल्य (डैच्) का होगा अगर एपीएमसी मण्डियां और सरकारी खरीद दोनों की व्यवस्था को मजबूत नहीं बनाया गया.

जब सरकार का हाथ सर पर है तो कम्पनियां एमएसपी गारंटी कानून बन जाने पर भी किसानों की बांह मरोड़ कर उन्हें कम कीमत पर अनाज बेचने को मजबूर कर ही देंगी. उदाहरण के लिए, कम्पनियां मनमाने क्वालिटी मानदण्ड बना कर किसान की फसल को खरीदने से मना कर सकती हैं. एक बार अफ्रीका में वालमार्ट ने ऐसा ही किया था. किसानों से सेव के बाग लगवा लिए, फिर उन बागों की जगह पर नई वैरायटी के सेव के पेड़ लगाने के लिए कह दिया क्योंकि सेवों के ट्रांसपोर्ट में कम्पनी द्वारा इस्तेमाल होने वाले ट्रकों का नाप बदल गया था. गुजरात में पेप्सिको के खिलाफ किसानों की शिकायतें अक्सर आती रहती हैं कि उनकी आलू की फसल को कम्पनी यह कह कर खारिज कर देती है कि उनके आलू 40-45 मि.मी. से छोटे आकार के हैं . अगर किसी किसान की फसल को खारिज कर दिया जाय तो वह हताशा में सस्ते दाम पर भी बिक्री के लिए राजी हो जायेगा.

इन तीन नये कानूनों के रहते यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी का एक चौथा कानून भी बना दिया जाय तो वह केवल एक बेअसर मीठी गोली की तरह होगा जो मूल बीमारी को दूर नहीं कर सकती. फसल की कुल लागत से डेढ़ गुना की दर से एमएसपी मिलने का कानूनी प्रावधान जरूरी है - लेकिन इन तीनों नये कानूनों को रद्द करके ही उसे हासिल किया जा सकेगा.

देश की खाद्य सुरक्षा और गरीबों की राशन वितरण प्रणाली पर इन कानूनों का क्या असर होगा?

सरकार का दावा है कि देश की खाद्य सुरक्षा और गरीबों की राशन वितरण प्रणाली पर इन कानूनों का कोई असर नहीं पड़ेगा. क्या यह सच है?

एसेन्शियल कमोडिटीज अमेण्डमेण्ट एक्ट कम्पनियों को मनमाफिक मात्रा में खाद्यान्न एवं अन्य वस्तुओं की जमाखोरी करने की छूट देता है. इसका सीधा मतलब है कि खाद्य सामग्री की कीमतों, जमाखोरी की सीमा और काला बाजारी पर अब कोई कन्ट्रोल नहीं रहेगा. बाजार पूरी तरह से बड़े कॉरपोरेशनों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नियंत्रण में आ जायेगा. इसका यह भी मतलब है कि पीडीएस योजना से लाभ उठाने वालों को अब डाइरेक्ट कैश ट्रान्सफर योजना में ले आया जायेगा. खाद्य सुरक्षा में डाइरेक्ट कैश ट्रान्सफर का लगातार विरोध हो रहा है, फिर भी अब पीडीएस से लाभ उठाने वाले गरीबों को सीधे खुले बाजार से खाद्यान्न खरीदने को मजबूर किया जायेगा.

इस कानून में साफ साफ लिखा है कि यह पीडीएस और टारगेटेड पीडीएस योजनाओं में ‘फिलहाल लागू नहीं किया जायेगा’. यहां ‘फिलहाल’ शब्द का चयन खतरे की घंटी का काम करता है - इसमें इस बात का इशारा है कि राशन (पीडीएस) व्यवस्था भी ‘फिलहाल’ के लिए ही है.

देश के गरीब किसानों की फसल की उचित मूल्य पर खरीद की गारंटी और आम गरीबों को सस्ता राशन उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से 1964 में संसद में एक कानून पारित कर 1965 में फूड कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया (एफ.सी.आई.) की स्थापना की गई थी. यह सरकारी कॉरपोरेशन आज भी भारत की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने का सबसे बड़ा इंजन है. मोदी सरकार निजी पूंजीपतियों के हितों को साधने के लिए एफसीआई को बरबाद करने पर तुली हुई है. इन तीन कानूनों ने तो एफसीआई का डेथ वारण्ट ही लिख दिया है.

  • पांच साल पहले, 22 जनवरी 2015 को मोदी सरकार ने एफसीआई को ‘पुर्नगठित’ करने के लिए एक हाई लेवल कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें एफसीआई का निजीकरण करने, गरीबों की जनवितरण प्रणाली का कवरेज घटाने और खाद्य राशन वितरण की जगह डाइरेक्ट कैश ट्रांसफर करने की सिफारिशें की गई थीं. इसके एक साल बाद ही एफसीआई के निजीकरण की प्रक्रिया को शुरू करने की दिशा में ‘प्राईवेट ऐन्टरप्रिन्योर गारंटी स्कीम’ (च्म्ळ ैबीमउम) लायी गई जिसके तहत अडानी की कृषि व्यापार कम्पनियों को खाद्यान्न के निजी गोदाम (ग्रेन साइलोज) बनाने की अनुमति दे दी गई. इतना ही नहीं, एफसीआई से कह दिया गया कि वह अडानी के निजी ग्रेन साइलोज का खाद्यान्न 10 साल तक खरीदने की गारंटी दे, बिना यह चिन्ता किये कि उनमें अनाज कितना रहेगा.
  • इन पांच सालों के दौरान मोदी सरकार की कारगुजारियों के चलते एफसीआई पर 2.65 लाख करोड़ रु. का कर्जा चढ़ गया है क्योंकि सरकार ने बजट में फूड सब्सिडी हेतु जरूरी पर्याप्त फण्ड एफसीआई के लिए जारी नहीं किये. इस कारण एफसीआई को बैंकों और नेशनल स्माल सेविंग्स फण्ड से पैसा उधार लेना पड़ा. एफसीआई पर इतना कर्ज चढ़ा दिया गया है कि अब मोदी सरकार घाटा दिखा कर आसानी से इसे बंद करने अथवा, यह भी सम्भव है, अपने क्रोनी पूंजीपतियों के हाथों सस्ते में बेचने की बात भी कर सकती है?

सरकारी दावा है कि किसानों की जमीनें सुरक्षित रहेंगी?

सरकार दावा कर रही है कि किसानों की जमीनों पर कॉरपोरेट कम्पनियों से कोई खतरा नहीं है. अतः किसानों को जरा भी डरने की जरूरत नहीं है.

जबकि आन्दोलनरत किसानों का कहना है कि नये कृषि कानूनों के कारण बड़ी कम्पनियां उनकी जमीनों पर भी कब्ज़ा कर लेंगी .

सरकार और शासक पार्टी भाजपा किसानों से सफेद झूठ बोल रहे हैं.

अगर फसल बरबाद होने के कारण किसान कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में कम्पनी की तय शर्तों को पूरा नहीं कर पाया तब क्या होगा?

कहने को तो कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग कानून की धारा 15 में लिख दिया गया है कि ‘किसान की कृषि भूमि से’ बकाया की कोई वसूली नहीं होगी. लेकिन इसी कानून की धारा 9 क्या कहती है? धारा 9 में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग एग्रीमेण्ट को बीमा की रकम या कर्ज से जोड़ दिया गया है. इसका सीधा मतलब हुआ कि किसान की जमीन को गिरवी रख कर किसी वित्तीय सेवा प्रदाता से कर्जा लिया जा सकता है और कर्ज न चुका पाने की स्थिति में हो सकता है कि जमीन की जब्ती हो या बेचनी पड़े.

कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग एग्रीमेण्ट में कम्पनी से बीज व अन्य लागत सामग्री खरीदनी पड़ती है, इसके लिए किसान कर्ज लेता है. फसल बर्बाद होने पर भी कम्पनी को लागत सामग्री का पेमेण्ट करना ही पड़ेगा जिसके लिए किसान के पास जमीन गिरवी रखने के अलावा और क्या रास्ता होगा? यह भी हो सकता है कि कम्पनी किसान की फसल को कम गुणवत्ता का बता कर नहीं खरीदे, फिर भी लागत सामग्री का पेमेण्ट करना ही होगा. घाटा होने की हालत में किसान के पास जमीन बेचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा. तब पूरी सम्भावना है कि कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग वाली कम्पनी ही जमीन खरीदने के लिए सबसे पहले आगे आये.

फसल बीमा की व्यवस्था पहले से ही बड़ी कम्पनियों के हाथ में दे दी गई है और किसानों को फसल नष्ट होने की स्थिति में समुचित मुआवजा नहीं मिल पाता है. इसके पीछे कारण यह है कि भारत में फसल बीमा की पूरी प्रणाली डब्लू.टी.ओ. के “एग्रीमेण्ट ऑन एग्रीकल्चर” (AoA) के हिसाब से बनायी जा चुकी है जिसमें बीमा क्षेत्र के बड़े कॉरपोरेट किसानों के हितों से खिलवाड़ कर अकूत मुनाफा कमा रहे हैं.

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क्या विकास के लिए निजीकरण जरूरी है?
किसानों को तो पहले से ही इतनी सब्सिडी मिलती है. सरकार को कृषि सब्सिडी और सरकारी नियंत्रण बंद नहीं कर देने चाहिए?

भारत में विशाल आबादी की आजीविका कृषि पर निर्भर है फिर भी 2011-12 और 2017-18 के बीच कृषि क्षेत्र में सरकार का निवेश कुल जीडीपी का 0.3% से 0.4% के बीच रहा है. इसकी तुलना में बड़े-बड़े धन्नासेठों की कॉरपोरेट कम्पनियों के लिए इसी दौरान टैक्स छूट व अन्य छूटें देने में जीडीपी का 6% खर्च हुआ. इसके अलावा उन्हें कर्ज माफी, सस्ते में जमीनें, पानी व अन्य प्राकृतिक संसाधन आदि अलग से दिये गये हैं. देश के टैक्स-पेयर्स को मांग करनी चाहिए कि उनके द्वारा चुकाये गये टैक्सों की रकम का इस्तेमाल किसानों के लाभ के लिए किया जाय, बड़ी कम्पनियों को देने के लिए नहीं.

खेती में किसानों का मुनाफा बहुत कम होता है. 2012-13 में भारत में एक किसान परिवार की औसत आमदनी रु. 6,427 प्रति माह थी. ऐसे में उन्हें अडानी और अम्बानी जैसे पूंजीपतियों - जिन्हें सरकार ने एकाधिकार जमाने वाली नीतियां और सरकारी संरक्षण भेंट में दे रखा है - के साथ खुले बाजार की प्रतिद्वंदिता में उतरने के लिए कहा जा रहा है!

अडानी और अम्बानी इलेक्टोरल बॉण्ड के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी को छुप कर पैसा देते हैं. बदले में भाजपा की सरकार किसानों की आजीविका और गरीबों की खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगा कर इनकी कम्पनियों का मुनाफा बढ़ाने वाली नीतियां बना रही है.

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भारत के किसानों पर चौतरफा हमला

जब किसान विरोधी कानूनों का विरोध चल रहा है, तब भी मोदी सरकार विभिन्न तरीकों से भारत के किसानों पर हमला जारी रखे हुए है. सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आयात शुल्क में रियायत देकर उनके अतिरिक्त विदेशी कृषि उत्पादों को भारत में लाने दे रही है. ऐसे उत्पाद जो हमारे देश में भी पैदा होते हैं और उनके आयात से भारतीय किसानों के बाजार व आय पर नकारात्मक असर होगा. जब किसान दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे, इसी बीच सरकार ने आयात शुल्क में 15% रियायत देकर रु. 3,200 प्रति कुंटल की दर से 5 लाख टन मक्का के आयात का आदेश दे दिया. जबकि भारत में एमएसपी पर यही सरकार अपने किसानों से मक्का रु. 1,850 प्रति कुंटल की दर पर खरीद रही है. हालात इतने खराब हैं कि बिहार में तो किसान अपनी मक्का की उपज को रु. 500 प्रति कुंटल पर बेचने को मजबूर हैं.

अमेरिका में ट्रम्प की सरकार वहां के कृषि क्षेत्र को 4,600 करोड़ डॉलर की सब्सिडी देती है. यह राशि वहां की समग्र कृषि आमदनी के लगभग 40% के बराबर है. वहां सब्सिडी सीधे कृषि क्षेत्र से जुड़ी कम्पनीयों व बैंकों के खाते में दी गईं. जितनी बड़ी कम्पनी उतनी ज्यादा सब्सिडी.

भारत की सरकार सब्सिडी क्यों नहीं बढ़ा सकती? और ऐसी फसलों के आयात पर रोक क्यों नहीं लगाती जिनका उत्पादन भारत में भी होता है? ऐसा कई मौकों पर यूरोपियन यूनियन के देशों ने किया है और तब डब्लू.टी.ओ. ने उनसे कुछ नहीं कहा और न ही नीतियों में बदलाव के लिए उन देशों पर कोई दबाव बनाया!

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इन कृषि कानूनों का तात्कालिक असर क्या रहा है?

इन तीन कृषि कानूनों के पारित होने के तुरन्त बाद से ही उनके खतरनाक परिणाम आने शुरू हो गये हैं. कई राज्यों की मण्डियों में धान का खरीद मूल्य एमएसपी से काफी नीचे चला गया. उत्तर प्रदेश की मण्डियों में 47% धान की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर बिकी. वहीं गुजरात में 83%, कर्नाटका में 63% और तेलंगाना में 60% धान की फसल एमएसपी से कम पर बिकी. छत्तीसगढ़ धान का बहुत बड़ा उत्पादक राज्य है जहां इस वर्ष कम से कम 4.4 लाख टन धान एमएसपी के नीचे की दरों पर बिका.

लेकिन सरकारी प्रोपेगैण्डा तो उल्टे आंकड़े दिखा रहा है! सरकार का कहना है कि इस साल खरीफ की फसल खरीद ‘बिल्कुल ठीक तरह से’ चली है और पिछले साल से 22.5% ज्यादा धान खरीद की गई है. यह कैसे सम्भव हुआ? इसका जवाब है कि प्राईवेट व्यापारी किसानों से कम दाम पर फसल खरीद कर रहे हैं और फिर उसे एफसीआई अथवा अन्य सरकारी एजेन्सियों को एमएसपी के रेट पर बेच रहे हैं. किसानों को कम कीमत मिल रही है और सरकार व्यापारियों को एमएसपी पर भुगतान कर रही है . कॉरपोरेट-परस्ती इसी को कहते हैं.

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जब ये कानून किसान विरोधी हैं तब मोदी सरकार उन्हें लागू कराने के लिए क्यों अड़ी हुई है?
कांग्रेस भी तो अपने राज में इसी तरह के कानून बनाना चाहती थी? अब कांग्रेस इनका विरोध क्यों कर रही है?

मोदी सरकार अमेरिकी प्रभुत्व वाले विश्व व्यापार संगठन (डब्लू.टी.ओ.) के दबाव में भारत की कृषि में ढांचागत बदलाव कर रही है. यही काम मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार भी कर रही थी. देश के किसान डब्लू.टी.ओ. के दबाव में नीतियां बनाने का विरोध कांग्रेस के राज में भी कर रहे थे और आज मोदीराज में भी कर रहे हैं. किसान आन्दोलन को इससे कोई मतलब नहीं कि पहले इन्हीं नीतियों का कांग्रेस समर्थन कर रही थी या नहीं. किसानों को तो अपने जीवन और अस्तित्व की लड़ाई लड़नी है. सभी पर्टियों को, चाहे वे शासन में हों या विपक्ष में, किसानों की मांगों को मान लेना चाहिए. आज विपक्ष की पार्टी के रूप में इन कानूनों को वापस लेने की मांग कर कांग्रेस कम से कम यह काम तो कर रही है. भाजपा को भी यही करना चाहिए था.

भारत सरकार हमेशा ही यह दावा करती रही है कि वह डब्लू.टी.ओ. में देश के किसानों के हितों की रक्षा कर रही है. सार्वजनिक रूप से तो यही कहा जाता है लेकिन पीछे के दरवाजे से सरकार डब्लू.टी.ओ. के आगे आत्मसमर्पण करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही. मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीनों कृषि कानून भारत की कृषि और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालने की डब्लू.टी.ओ. की साजिश का हिस्सा हैं ताकि बड़े कॉरपोरेटों का मुनाफा बढ़ सके.

दो साल पहले 2018 में मंदसौर में किसानों पर चलाई गई गोलियों के विरोध में देश के किसान सम्पूर्ण कर्ज माफी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर एमएसपी लागू करने की मांगों के साथ सड़कों पर आ गये. उस समय अमेरिका ने भारत का यह कह कर विरोध किया कि हमारे यहां ज्यादा सब्सिडी दी जा रही है, जो कि डब्लू.टी.ओ. द्वारा थोपी गयी सीमा, कुल उत्पादन का अधिकतम 10% से अधिक है. जबकि सच्चाई यह है कि अमेरिका में प्रति किसान सालाना सब्सिडी 61,286 डॉलर मिलती है और भारत में यह राशि मात्र 282 डॉलर ही है. अमेरिका दबाव बना रहा है कि भारत अपने किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूं व धान आदि खरीदना बंद करे. इससे अमेरिकी कम्पनियों को भारतीय बाजार में अपना अनाज बेचने का मौका मिलेगा. अमेरिका और आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसे अन्य कई ताकतवर पूंजीवादी देश चाहते हैं कि भारत मण्डियों में एमएसपी पर सरकारी खरीद की गारंटी देना बंद करे और गरीबों के राशन की गारंटी करने वाली जनवितरण प्रणाली को भी खत्म कर दे. इसीलिए डब्लू.टी.ओ. भारत में कृषि सब्सिडी और पीडीएस राशन दोनों की जगह डाइरेक्ट कैश ट्रांसफर देने के लिए दबाव बना रहा है. डब्लू.टी.ओ. का यह भी दबाव है कि भारत की सरकार कृषि के आधारभूत ढांचे के विकास में निवेश न करे और उसकी जगह कॉरपोरेट सेक्टर की फसल बीमा कम्पनियों को कृषि क्षेत्र में खेलने का पूरा मौका दे.

ऊपर से तो सरकार जनता को लगातार झूठे आश्वासन दे रही है, लेकिन अन्दरखाने वह डब्लू.टी.ओ. के हिसाब से कृषि नीतियों और कानूनी ढांचे में बदलाव कर रही है. इसकी तैयारियां बहुत पहले से चल रही हैं. 2019 में संसदीय चुनाव से पहले स्व. अरुण जेटली ने संकेत दिया था कि भारत की कृषि नीतियों को डब्लू.टी.ओ. के अनुरूप बदलने की दिशा में सब्सिडी की जगह कैश ट्रांसफर स्कीम को लाया जायेगा. तब एक सरकारी अधिकारी ने कहा था कि “डाइरेक्ट इनकम ट्रांसफर के वायदे की तार्किक परिणति कृषि सब्सिडी और अनाज की सरकारी खरीद को खत्म करने में होनी है, क्योंकि यह डब्लू.टी.ओ. के नियमों के अनुरूप नहीं है और उत्पाद मूल्य के 10% सब्सिडी की सीमा को हम जल्द ही पार कर जायेंगे जोकि भारी चिन्ता का विषय है.”

न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), सरकारी गल्ला खरीद, एपीएमसी मण्डियां और जनवितरण प्रणाली को इन तीन कृषि कानूनों के जरिए एक साथ खत्म करके और कृषि को कॉरपोरेटों के हवाले करके हमारी सरकार वास्तव में डब्लू.टी.ओ. की इच्छा पूरी कर रही है.

देश के किसान ऐसा न होने देने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यह लड़ाई केवल उनके अधिकारों के लिए ही नहीं है वरन् यह भारत की सम्प्रभुता, आजादी और खाद्य सुरक्षा को बचाने की लड़ाई है.

भारत की कृषि और किसानों पर कॉरपोरेट नियंत्रण कितना बन चुका है?

नब्बे के दशक से ही भारत की सरकारें कृषि और किसानों पर कॉरपोरेट शिकंजा मजबूत बनाने के लिए काम कर रही हैं.

  • आज भारत की कृषि में लगने वाले 70% से ज्यादा बीज, खाद, कीटनाशक आदि की सप्लाई के बाजार पर केवल चार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्ज़ा है : बायर-मॉन्सेटो (Bayer-Monsanto), केमचाइना-सिनजेन्टा (ChemChina-Syngenta), डाउ-ड्यूपॉन्ट (DOW-Dupont) और बीएएसएफ (BASF).
  • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एग्रोकेमिकल्स, फार्म मशीनरी, कृषि उत्पाद प्रसंस्करण, कमोडिटी ट्रेडिंग और खुदरा सुपरमार्केट आदि के उत्पादन व व्यापार पर मात्र चार दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनों का नियंत्रण है - ए.डी.एम. (ADM), बन्ज (Bunge), कारगिल (Cargill) और लुई ड्रेफस (Louis Dreyfus).
  • डाउ उसी यूनियन कार्बाइड का नया नाम है जिसने 1984 में भोपाल गैस जनसंहार किया था और बगैर कोई जिम्मेदारी लिए साफ बच कर भाग गई थी. इन दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनों का सरकारें कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं, भोपाल गैस जनसंहार इसका एक छोटा सा उदाहरण है. आज भारत की सरकार अपने किसानों को बचाने की बजाय, उन्हें इन हत्यारी कॉरपोरेशनों के हवाले करने जा रही है.
  • कृषि और खाद्य उत्पादन के कॉरपोरेटीकरण से आज पशुओं के फैक्ट्री फार्म बनने लगे हैं. अध्ययन बताते हैं कि इनके कारण दुनियां में नई बीमारियों और कोविड-19 जैसी महामारियों के फैलने का खतरा बढ़ गया है.
  • आज हमारे देश में कृषि और ग्रामीण भूमि पर कॉरपोरेट कब्ज़ा और किसानों का विस्थापन एक राष्ट्रीय परिघटना बन चुका है.
  • मोदी सरकार ने किसानों को लाभ पहुंचाने के नाम पर ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ शुरू कराई है, इससे केवल और केवल बीमा कम्पनियां और भ्रष्ट लोगों को ही फायदा पहुंचा है. किसानों को कुछ नहीं मिल सका. पिछले दो सालों में बीमा कम्पनियों ने इस योजना के तहत कुल रु. 15,795 करोड़ का मुनाफा बनाया. जबकि एक आरटीआई कार्यकर्ता की पहल पर पता चला कि इन्हीं दो सालों में इन कम्पनियों ने रु. 2,800 करोड़ के किसानों के क्लेम का भुगतान करने से मना कर दिया. इस योजना में मोदी सरकार ने कुल 18 कम्पनियों को लाइसेन्स दे रखा है, जिनमें 13 ने तो अकूत मुनाफा बटोरा.
  • भारत के किसान चारों तरफ से बरबाद हो रहे हैं. वे कर्ज में फंसे हुए है, यहां तक कि बड़ी संख्या में आत्महत्यायें कर रहे हैं. 2019 में हर रोज कृषि पर निर्भर 28 लोगों ने मजबूरी में आत्महत्यायें कीं. जबकि इस आंकड़े में उन महिला, दलित व आदिवासी किसानों की संख्या शामिल नहीं है जिन्हें किसान के रूप में मान्यता ही नहीं दी गई.

भारत के किसान केवल इन तीन कृषि कानूनों को रद्द करने की लड़ाई ही नहीं लड़ रहे. पिछले तीन दशकों में थोड़ा-थोड़ा करके सरकार ने कम्पनियों के पक्ष में बहुत से नीतिगत बदलाव कर दिये हैं, जो किसानों की बरबादी का कारण बन गये हैं. लेकिन इन तीन कानूनों के माध्यम से सरकार ने किसानों के ऊपर निस्संदेह अब तक का सबसे बड़ा और बर्बर हमला किया है. जब किसान इन कानूनों को रद्द कराने के संघर्ष को जीत लेंगे तब भी डब्लू.टी.ओ. निर्देशित व कॉरपोरेट परस्त नीतियों को सम्पूर्ण रूप में खारिज कराने के लिए उनका संघर्ष जारी रहेगा.

आज सम्पूर्ण देश को कृषि क्षेत्र में भारी पैमाने पर सरकारी निवेश के जरिए किसान हितों की रक्षा करने वाली कृषि नीतियों को लाने की मांग पर किसानों के संघर्ष में साथ देने की जरूरत है.

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बहकाए-भटकाए लोग
कहाँ-कहाँ से आए लोग
दिल्ली की बेरहम दीवारें,
दरवाजे खड़काए लोग

अच्छे दिन का घना अंधेरा
है किसान का ये संजोग
इनकी खेती, इनकी मेहनत
साहेब-शाह लगावें भोग

जिन फसलों से पेट भरें हम
उनकी कीमत गिरे धड़ाम
सेठों की बस रहे चकाचक
और बचे ना कोई काम
इसी रास्ते मुल्क हांकने
आया है अबकी कानून
चौपट खेती-बाड़ी करना
चाहे पड़े बहाना खून
अंगरेजों का लाल बहादुर
नाम सभी का लेता है,
इसको नक्सल, उसको चीनी
तमगा सबको देता है

इसी जुगत में लगे हैं तब से
सभी मीडिया और मिनिस्टर
गाँवों के गबरू पर मारें
पानी की बौछारें कसकर

सुना है मोदी जी की खातिर
बनने को है नया महल
नए इंडिया की गोदी में
खूब है कीचड़, खूब कमल

आर-पार की हुई लड़ाई
कमर बांध के आए लोग
खूब डटे हैं सर्दी में भी
जुमलों से झल्लाए लोग

- इण्टरनेट से मिली एक कविता.

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‘फासीवाद हराओ, लोकतंत्र बचाओ’ और ‘शहीदों के सपनों का भारत बनाओ!’ नारे के साथ भाकपा माले के 11वें पार्टी महाधिवेशन का आयोजन विनोद मिश्र नगर (पटना, बिहार) में 15 से 20 फरवरी के बीच किया गया. पार्टी महाधिवेशन के लिए, अपने दो महान नेताओं को श्रद्धांजलि देने के लिए पटना का नाम बदलकर विनोद मिश्र नगर और सभागार का नाम रामनरेश राम हॉल किया गया था. मंच कामरेड डीपी बख्शी, बीबी पांडे और एनके नटराजन की स्मृति को समर्पित था. ये तीनों पार्टी की केन्‍द्रीय कमेटी के सदस्‍य थे जिन्हें हमने मार्च 2018 में मानसा, पंजाब में आयोजित 10वें पार्टी महाधिवेशन के बाद खो दिया.

‘लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’ रैली

पार्टी महाधिवेशन की शुरुआत ‘लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’ रैली के साथ हुई. 15 फरवरी को गांधी मैदान में हुई इस विशाल रैली में ग्रामीण गरीबों और किसानों, महिलाओं, छात्रों, युवाओं और पार्टी कार्यकर्ताओं सहित हजारों लोग शामिल हुए. रैली में मजदूर वर्ग की भी बड़ी भागीदारी थी. रैली की शुरुआत गांधी मैदान में शहीद स्तंभ पर श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ हुई. रैली को भाकपा(माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने संबोधित किया.  उन्होंने कहा कि देश में फासीवाद को हराने के लिए विपक्षी एकता का निर्माण जरूरी है. “सबसे ज्‍यादा गरीब लोगों को लोकतंत्र की सबसे ज्यादा जरूरत है. लोग संघर्षों और जन आंदोलनों के माध्यम से सभी मोर्चों पर लोकतंत्र का निर्माण करते हैं. हम तभी लड़ पाएंगे जब लोकतंत्र होगा और सबके लिए होगा.’

कॉमरेड मंजू प्रकाश द्वारा पेश किये गये राजनीतिक प्रस्तावों को रैली में गृहीत किया गया. इसमें सभी प्रकार की घृणा और उत्पीड़न के साथ ही संघ परिवार के चौतरफा हमले के खिलाफ लड़ने का संकल्प लिया गया.

बिहार के राज्य सचिव कॉमरेड कुणाल ने रैली में भाग लेने आये लोगों का स्वागत किया और कॉमरेड धीरेंद्र झा ने कार्यवाही का संचालन किया. पोलित ब्यूरो सदस्य और बगोदर, झारखंड से विधायक कॉमरेड विनोद सिंह, बिहार विधानसभा में पार्टी विधायक दल के नेता और बलरामपुर के विधायक महबूब आलम, बिहार विधानसभा में भाकपा(माले) विधायक दल के उपनेता सत्यदेव राम, अगिआंव के विधायक मनोज मंजिल, पालीगंज के विधायक संदीप सौरव, ऐपवा की महासचिव मीना तिवारी, स्‍कीम वर्कर्स फेडरेशन की राष्ट्रीय संयोजक शशि यादव सहित कई नेताओं ने रैली को संबोधित किया. रैली में नेपाल, बांग्लादेश, ऑस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम के बिरादराना संगठनों के कॉमरेड मौजूद थे.

उद्घाटन सत्र

भाकपा माले के 11वें पार्टी महाधिवेशन का उद्घाटन सत्र 16 फरवरी को रामनरेशराम हॉल (एसके मेमोरियल हॉल, पटना) में शहीद वेदी पर कम्युनिस्ट झंडा फहराने और हमारे दिवंगत नेताओं और शहीद साथियों को श्रद्धांजलि देने के साथ शुरू हुआ. शहीद साथियों के बलिदान और क्रांतिकारी विरासत की याद में शहीद वेदी पर एक अमर ज्योति प्रज्वलित की गई.

खुले उद्घाटन सत्र की शुरुआत पार्टी के सांस्कृतिक मोर्चों के कामरेडों द्वारा गाये क्रांतिकारी गीतों से हुई. राजाराम सिंह ने उद्घाटन सत्र में आए प्रतिनिधियों और अतिथियों का स्वागत किया. कॉमरेड स्वदेश भट्टाचार्य ने सत्र की अध्यक्षता की और संचालन मीना तिवारी और वी शंकर ने किया.

11वें पार्टी महाधिवेशन की स्वागत समिति में प्रो. भारती एस कुमार, डॉ. ओपी जायसवाल और ग़ालिब खान जैसे कई जाने-माने बुद्धिजीवी शामिल थे. स्‍वागत समिति की ओर से डॉ. ओपी जायसवाल ने पार्टी महाधिवेशन के प्रतिनिधियों और अतिथियों का स्वागत किया.

अभिजीत मजूमदार ने 2018 में मानसा, पंजाब में आयोजित पार्टी के दसवें महाधिवेशन के बाद दिवंगत हुए देश-विदेश के सभी कामरेडों और प्रगतिशील हस्तियों को पार्टी की ओर से सम्मान और श्रद्धांजलि देते हुए शोक प्रस्ताव पढ़ा. उन्होंने कॉमरेड डी पी बख्शी, कॉमरेड बी बी पांडे, कॉमरेड एन के नटराजन, कॉमरेड क्षितिश बिस्वाल, कॉमरेड रामजतन शर्मा, कॉमरेड पवन शर्मा समेत सभी दिवंगत साथियों को श्रद्धांजलि दी.

शोक प्रस्ताव के बाद बिहार राज्य सचिव कॉमरेड कुणाल ने प्रतिनिधियों और अतिथियों का स्वागत किया. उन्होंने भारतीय वाम के विभिन्न बिरादराना वामपंथी पार्टियों के साथियों, अंतरराष्ट्रीय वामपंथी और प्रगतिशील आंदोलनों के मेहमानों, और देश भर से आये प्रतिनिधियों, मेहमानों, पर्यवेक्षकों, कार्यकर्ताओं, नागरिकों और प्रेस के प्रतिनिधियों का स्वागत किया. रूढ़िवादी दार्शनिक प्रवृत्तियों और धार्मिक प्राधिकारियों के खिलाफ विद्रोह की उर्वर जमीन और विभिन्न नास्तिक संप्रदायों के जन्मस्थान रहे बिहार के गौरवशाली इतिहास को याद करते हुए उन्होंने कहा कि “बिहार प्राचीन लोकतंत्र - लिच्छवि गणराज्य की जन्मस्थली भी है. समानता, भाईचारा और सामाजिक न्याय जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों को हासिल करने का संघर्ष और हर तरह के शोषण, लूट, दमन का घोर विरोध बिहार की पुरानी पहचान है.”

उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के योगदान को याद करते हुए कहा, ‘भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में वीर कुंवर सिंह के साथ पीर अली और जवाहिर रजवार का नाम भी प्रमुख नायकों में दर्ज है. यह बिहार के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्‍याय है.” उन्होंने कहा कि यह समृद्ध ऐतिहासिक विरासत पटना के गांधी मैदान में आयोजित ‘लोकतंत्र बचाओ-भारत बचाओ’ रैली में फिर से देखने को मिली, जहां फासीवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए एक मजबूत आवाज उठाई गई. उन्‍होंने यह कहते हुए अपनी बात समाप्‍त की कि “बिहार ने अतीत में भी पूरे देश को एक नया रास्ता दिखाया था”. बिहार में महागठबंधन ने बीजेपी को राज्य की सत्ता से दूर रखने का एक नया मॉडल दिया है और हम उम्मीद करते हैं कि आने वाले दिनों में पूरा देश इसी रास्ते पर आगे बढ़ेगा.

कॉमरेड  दीपंकर भट्टाचार्य ने इस महत्वपूर्ण मोड़ पर हमारे कार्यभारों को रेखांकित किया. उद्घाटन सत्र में आगामी लोकसभा चुनावों और उसके बाद भाजपा-आरएसएस के खिलाफ ठोस राजनीतिक-वैचारिक चुनौती की जरूरत पर बल दिया गया.

सीपीआई(एम) के पोलित ब्यूरो सदस्य कॉमरेड मो. सलीम ने उद्घाटन सत्र में अपनी बात रखते हुए कहा कि हिंदुत्व-कॉरपोरेट शासन से जो चुनौती मिल रही है उसके खिलाफ सभी लोकतांत्रिक ताकतों को एकजुट करके इसका मुकाबला करने में वामपंथियों की महत्वपूर्ण भूमिका है. उन्होंने कहा कि वाम विकल्प ही भाजपा हिंदुत्व शासन का वास्तविक विकल्प है.

सीपीआई के कॉमरेड पल्लब सेनगुप्ता ने कहा कि “आपकी पार्टी कांग्रेस का बहुत महत्व है क्योंकि यह विश्व इतिहास के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हो रही है. हम ऐसे मुद्दों का सामना कर रहे हैं जो मानवता के मूल सिद्धांतों को चुनौती दे रहे हैं, और हम मानते हैं कि कम्‍युनिस्‍ट एकता और कम्‍युनिस्‍ट ताकतों का अधिक से अधिक एकीकरण समय की मांग है.

मार्क्सवादी समन्वय समिति (एमसीसी) के कार्यवाहक अध्यक्ष कॉमरेड अरूप चटर्जी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी) के महासचिव मनोज भट्टाचार्य, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक से जी देवराजन, रिवोल्यूशनरी मार्क्सिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (आरएमपीआई) के महासचिव मंगत राम पासला और लाल निशान पार्टी के भीमराव बंसोड़ व आमंत्रित किये गये अन्‍य अतिथियों ने उद्घाटन सत्र को संबोधित किया. नेपाल के पूर्व उप प्रधानमंत्री और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के नेता कॉमरेड ईश्वर पोखरेल भी उद्घाटन सत्र में शामिल थे. स्वागत समिति के सदस्यों ने सभी अतिथियों का अभिनंदन किया.

सत्र के आरम्‍भ में राजाराम सिंह ने अतिथियों का स्वागत किया और धन्यवाद ज्ञापन के साथ समापन वक्‍तव्‍य दिया. 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 1700 से अधिक प्रतिनिधियों, पर्यवेक्षकों और अतिथियों के साथ, यह भाकपा(माले) के इतिहास में सबसे बड़ा पार्टी महाधिवेशन था.

अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता

17 फरवरी को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता सत्र में, कई देशों के बिरादराना संगठनों ने भारत में चल रहे जनसंघर्षों के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की और एक न्यायपूर्ण, लोकतांत्रिक और बहुलतावादी दुनिया के निर्माण के संघर्ष में अपना सहयोग और समर्थन जाहिर किया.

सीपीएन (यूएमएल), नेपाल के वरिष्ठ उपाध्यक्ष ईश्वर पोखरेल ने अपनी पार्टी के चार सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ 11वें महाधिवेशन के उद्घाटन सत्र में भाग लिया. उन्होंने उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि उनकी पार्टी को नेपाल के लोगों से जबरदस्त समर्थन मिला है. उनकी जीत हर चरण में पार्टी द्वारा लड़े गए लंबे संघर्षों को दर्शाती है. उन्होंने कहा कि “हमारी जिम्‍मेदारी उन प्रतिक्रियावादी ताकतों को हराने की है जो मजदूर वर्ग पर हमले जारी रखे हुए हैं. सभी जनविरोधी ढांचों और संस्थाओं को उखाड़ फेंकने की जरूरत है. केवल समाजवाद ही सभी को समानता और अधिकार की गारंटी देता है.”

सीपीएन (यूनिफाइड सोशलिस्ट) के नेता और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री झालानाथ खनाल ने कहा कि नेपाल परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है. वहां भले ही कम्युनिस्ट पार्टियां एकजुट होकर चुनाव जीतने में सफल रही हैं लेकिन समाज में दक्षिणपंथी तत्व घुस रहे हैं और राजशाही को वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने अपनी पार्टी के तीन सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता सत्र में भाग लिया.

कामरेड बजलुर रशीद फ़िरोज़, महासचिव, बांग्लादेश समाजवादी दल (बांग्लादेश सोशलिस्ट पार्टी); सैफुल हक, महासचिव, बांग्लादेशी बिप्लबी वर्कर्स पार्टी (बांग्लादेश की रिवोल्यूशनरी वर्कर्स पार्टी); सैम वेनराइट, राष्ट्रीय सह-संयोजक सोशलिस्ट एलायंस ऑस्ट्रेलिया; रेमन ऑगस्टो लोबो, पार्लियामेंट्री फ्रेंडशिप ग्रुप के अध्यक्ष और यूनिफाइड सोशलिस्ट पार्टी ऑफ वेनेजुएला (पीएसयूवी) के सदस्य; अपूर्वा गौतम, बीडीएस आंदोलन फिलिस्तीन की एशिया-प्रशांत समन्वयक; सोशलिस्‍ट रुख, यूक्रेन के प्रतिनिधि; साउथ एशिया सॉलिडैरिटी ग्रुप (एसएएसजी) यूके की अमृत विल्सन, कल्पना विल्सन और सरबजीत जोहल ने अंतर्राष्‍ट्रीय एकजुटता सत्र को संबोधित किया.

भारत में क्यूबा के राजदूत अलेजांद्रो सीमांकास मारिन, एमएलपीडी जर्मनी, पार्टिडो कम्युनिस्टा इक्वाटोरियानो (इक्वाडोर), पार्टिडो मंगगागावा (लेबर पार्टी, फिलीपींस), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ स्वाजीलैंड, यूनियन ऑफ साइप्रियट्स (साइप्रस), से एकजुटता और बधाई के संदेश प्राप्त हुए. लेफ्ट रेडिकल ऑफ अफगानिस्तान (एलआरए), लाओ पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी (लाओस), डेनिश कम्युनिस्ट पार्टी (डेनमार्क) और यूके में स्थित एक फिलिस्तीन कार्यकर्ता शाहद अबुसलामा द्वारा प्राप्‍त एकजुटता संदेशों को 11वें महाधिवेशन में पढ़ा गया.

ईरान की कम्युनिस्ट पार्टी; अर्जेंटीना की कम्युनिस्ट पार्टी (असाधारण कांग्रेस); डाइ लिंके (जर्मनी) और लैंडलेस पीपुल्स मूवमेंट ऑफ नामीबिया ने भी भाकपा(माले) पार्टी महाधिवेशन को बधाई दी.

सोशलिस्ट पार्टी ऑफ मलेशिया के महासचिव शिवराजन अरुमुगम, श्रीलंका में वाणिज्यिक और औद्योगिक श्रमिक संघ की अध्यक्ष स्वास्तिका अरुलिंगम, बीडीएस मूवमेंट फिलिस्तीन के सह-संस्थापक उमर बरगौटी; कैटालोनिया की कम्युनिस्ट पार्टी के अंतर्राष्ट्रीय संबंध सचिव आरनो पिक़े और अवामी वर्कर्स पार्टी, पाकिस्तान के अध्‍यक्ष अख्तर हुसैन के वीडियो संदेश प्राप्‍त हुए.

सरबजीत जोहल ने उनके द्वारा चित्रित एक कलाकृति प्रस्तुत की, जो इस विचार का प्रतिनिधित्व करती है कि सामूहिक संघर्ष से हम एकजुट हो जाते हैं और हमारी कमजोरियां ताकत बन जाती हैं.

‘संविधान बचाओ, लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’ कन्वेंशन

भाकपा माले के 11वें महाधिवेशन के तीसरे दिन 18 फरवरी को ‘संविधान बचाओ, लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’ कन्‍वेंशन का आयोजन किया गया, जिसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, जद( यू) अध्यक्ष ललन सिंह, और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री सलमान खुर्शीद व संसद सदस्य और विदुतलाई चिरुतिगल कच्‍ची (लिबरेशन पैंथर्स पार्टी, तमिलनाडु) के अध्यक्ष तिरुमावलवन ने सम्मेलन में भाग लिया. फासीवाद विरोधी ताकतों के बीच बिहार में बन रही व्यापक एकता को जारी रखने के संदर्भ में यह सम्मेलन आयोजित किया गया था. बिहार ने पहले भी इस तरह के संघर्षों में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है. यह इस बार भी एक बड़े फासीवाद-विरोधी आंदोलन और एकजुटता को आगे बढ़ाने का रास्ता दिखाएगा. कन्‍वेंशन का संचालन राजाराम सिंह ने किया.

भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने सभी नेताओं का स्वागत करते हुए अपने आधार वक्‍तव्‍य में कहा कि “इस कन्‍वेंशन का मकसद बहुत स्पष्ट है - यदि संविधान और लोकतंत्र खतरे में हैं, तो उन्हें बचाने के लिए फासीवादी ताकतों से एक निर्णायक संघर्ष की आवश्यकता है और इसके लिए हमें एक बड़ी एकता की जरूरत है.” उन्होंने कहा कि बिहार ने बार-बार दिखाया है कि किस तरह सड़कों पर और चुनावी मोर्चे पर विपक्ष का निर्माण किया जाता है. महासचिव ने कहा कि 11वें महाधिवेशन के हिस्से के रूप में बुलाया गया यह कन्‍वेंशन देश में आपातकाल जैसे हालात के प्रतिरोध का आह्वान है.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि मौजूदा सरकार अपने हित में काम कर रही है और इसके खिलाफ लड़ने के लिए सात दलों ने देश हित में साथ दिया और हम (भाजपा के साथ) गठबंधन से बाहर हो गए. “हमने महागठबंधन के लिए जो फैसला लिया है, वह बिहार के लोगों के लिए अच्छा रहा है, इसलिए हम एक साथ काम करना जारी रखेंगे. लेकिन हमारी बिहार से बाहर भी एक जिम्मेदारी है और 2024 के चुनावों को देखते हुए, हमें एक साथ लड़ना चाहिए और मौजूदा शासन से छुटकारा पाना चाहिए.’ उन्होंने कहा कि ‘‘हम संघर्षों और भाकपा(माले) के लोगों के साथ रहे हैं और हम विश्वास दिलाते हैं कि भविष्य में भी साथ रहेंगे. हम साथ काम करना जारी रखेंगे."

उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा, “हमारे पास अंबानी-अडानी जैसे प्रायोजक नहीं हैं. हम विपक्ष पर नकेल कसने के लिए सरकारी संस्थानों का दुरुपयोग भी नहीं करते हैं, फिर भी हम पर हमलों के बावजूद हम बिहार में भाजपा को सबक सिखाने के लिए देशहित में एकजुट हुए हैं. उन्होंने कहा, “हमने बार-बार कहा है कि जहां क्षेत्रीय दल मजबूत हैं, वहां उन्हें ड्राइविंग सीट दी जानी चाहिए और जहां कांग्रेस और भाजपा के बीच दोतरफा लड़ाई है, हम कांग्रेस का समर्थन करेंगे."

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा, “आज हम फासीवादी शक्तियों का सामना कर रहे हैं, लेकिन वे कायर हैं. हमारी एकता से डरकर वे पीछे हटने के लिए मजबूर हो जायेंगे. उन्होंने कहा कि बीजेपी के नफरत वाले मॉडल के खिलाफ विपक्षी एकता का बिहार मॉडल आगे का रास्ता दिखाएगा. उन्होंने आश्वासन दिया कि वह कांग्रेस पार्टी में एकता के संदेश को आगे बढ़ाएंगे. कांग्रेस भी विपक्षी एकता बनाने के लिए तैयार है.

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पार्टी महाधिवेशन को एकजुटता संदेश भेजा और कहा कि आज संविधान पर खतरा मंडरा रहा है, जो बेहद चिंताजनक है. उन्होंने कहा, “यह महत्वपूर्ण है कि संविधान, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र में विश्वास करने वाले सभी एक साथ आएं."

तमिलनाडु के विदुतलाई चिरुतिगाल कच्‍ची के अध्यक्ष तिरुमावलवन ने कहा, “हमें बिना समझौता किए कट्टरता का विरोध करना चाहिए. फासीवाद भारतीय लोकतंत्र पर सुनामी की तरह प्रहार कर रहा है. फासीवाद यह सुनिश्चित करना चाहता है कि बहुमत वाली सरकार बहुसंख्यावादी सरकार के रूप में कार्य करे.”

अतिथि वक्ता

लेखिका और कार्यकर्ता अरुंधति रॉय ने फासीवाद-विरोधी संघर्षों और भाकपा(माले) के पार्टी महाधिवेशन के प्रति एकजुटता व्यक्त की. उन्होंने कहा कि फासीवाद का विरोध करने के लिए जाति-विरोधी और पूंजीवाद-विरोधी संघर्षों को साथ आना होगा. उन्होंने फासीवाद विरोधी विपक्ष बनाने के लिए विभिन्न राजनीतिक समूहों के एक साथ आने का स्वागत किया.

अन्य अतिथियों में, स्वतंत्र पत्रकार उर्मिलेश ने कहा कि “भारत के कम्युनिस्टों के पास अपार बलिदान और संघर्ष की विरासत है, और अगर हमें मौजूदा शासन को हराना है, तो कम्युनिस्टों को उत्पीड़ितों की एक बड़ी एकता के लिए आंदोलन का नेतृत्व करना चाहिए."

प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए आदित्य निगम ने कहा कि फासीवादी हमले के खिलाफ साहसिक विरोध के साथ-साथ हमें सामाजिक समानता और मानवीय गरिमा के लिए जाति-विरोधी पितृसत्ता-विरोधी संघर्षों की समृद्ध विरासत पर एक शक्तिशाली सांस्कृतिक प्रतिरोध बनाने और भारत के सांप्रदायिक सद्भाव, सामाजिक विविधता और सांस्कृतिक बहुलवाद को मजबूत करने पर भी ध्यान देना चाहिए.

दिल्ली में अम्बेडकर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कौस्तव बनर्जी ने कहा, “भाकपा(माले) एक ऐसी पार्टी है जिसका कृषि श्रमिकों के बीच जनाधार है. हाल के किसानों के आंदोलन को ध्‍यान में रखते हुए बदलते समय के साथ हमें कृषि को जलवायु संकट के साथ जोड़ने की जरूरत है. किसानों के आंदोलन ने हमें बुर्जुआ धारणा से परे कृषि कार्यक्रम को देखने का एक तरीका दिखाया है.” उन्होंने कहा कि क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए पितृसत्ता का विनाश जरूरी है और व्यापक स्तर पर जनता तक पहुंचने के लिए भाषाई विविधता को समान रूप से महत्वपूर्ण पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए.

पत्रकार और लेखक भाषा सिंह ने कहा कि हम देखते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर - लैटिन अमेरिका और यूरोप में - लोग लाल झंडे के नीचे उत्पीड़न से लड़ रहे हैं. भारत में भी लाल झंडा रास्ता दिखाएगा.

ऐपवा की राष्ट्रीय अध्यक्ष रति राव, एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट, पटना के प्रो. विद्यार्थी विकास और दिल्ली के पत्रकार अनिल चमडि़या ने भी प्रतिनिधियों के साथ अपने विचार साझा किए और पार्टी महाधिवेशन के साथ एकजुटता व्यक्त की. सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी, महाराष्ट्र के नेता किशोर धमाले ने भी 17 फरवरी को महाधिवेशन को संबोधित किया.

दिखी प्रतिरोध की सांस्कृतिक छटा

11वें महाधिवेशन में देश के विभिन्न राज्यों और विभिन्न भाषाओं में सृजित प्रतिरोधी नृत्य-संगीत की झलक देखने को मिली. महाधिवेशन में प. बंगाल, असम व  कार्बी, झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान आदि राज्यों से आये प्रतिनिधियों, जनगायकों और कलाकारों ने गायन और नृत्य की एकल व सामूहिक प्रस्तुतियां दीं.

पश्चिम बंग गण शिल्पी परिषद के कलाकारों ने नीतीश व बाबुनि दा की अगुआई में नक्सलबाड़ी विद्रोह के दौरान चर्चित गीत ‘मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि’ पर आधारित सामूहिक नृत्य की प्रस्तुति की. झारखंड की प्रीति भास्कर ने महिला आजादी की आकांक्षा और संघर्ष को अपने नृत्य के जरिए मूर्त किया. झारखंड संस्कृति मंच के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत सामूहिक नृत्य में ‘जल, जंगल, जमीन’ के लिए चल रहे संघर्ष को तेज करने का आह्वान था. असम के प्रतिनिधियों ने चाय बगान में उचित मजदूरी के लिए हो रहे संघर्ष से संबंधित गीत सुनाये.

बिहार जसम के गायकों – कृष्ण कुमार निर्मोही, राजन कुमार, अनिल अंशुमन, पुनीत कुमार, निर्मल नयन, राजू रंजन, कामता प्रसाद आदि ने कई गीतों की प्रस्तुति दी. हिरावल, पटना के संतोष झा के नेतृत्व में क्रांतिकारी वामपंथी धारा के प्रमुख कवि गोरख पांडेय को समर्पित कवि दिनेश शुक्ल की रचना ‘जाग मेरे मन मछंदर’, फैज़ अहमद फैज़ की मशहूर नज्म ‘हम देखेंगे’ और क्रांतिकारी कवि-गीतकार महेश्वर के गीत ‘सृष्टि बीज का नाश न हो’ की शानदार प्रस्तुतियां हुईं. कोरस, पटना के कलाकारों ने भी क्रांतिकारी गीत गाये.

आंध्र प्रदेश, असम व कार्बी आंग्‍लॉंग, पंजाब, तमिलनाडु और केरल के प्रतिनिधियों ने भी कई जोशीले गीत-नृत्यों की प्रस्तुतियां दीं. उत्तराखंड के मदनमोहन चमोली व इंद्रेश मैखुरी ने ‘उत्‍तराखण्‍ड आंदोलन’ के दौर का एक गीत ‘लड़ना है भाई, अभी लंबी लड़ाई है’ के समूह गान के जरिए आंदोलन की भावना को जीवंत कर दिया.

प्रतिनिधि सत्र

एक 15 सदस्यीय अध्‍यक्षमंडल ने प्रतिनिधि सत्र का संचालन किया. इसमें जनार्दन प्रसाद, विनोद सिंह, सुशीला तिग्गा, मीना तिवारी, राजेश साहनी, त्रिपति गोमांगो, इंद्रेश मैखुरी, प्रतिमा इंघीपी, अभिजित मजूमदार, गुरमीत सिंह बख्तपुरा, मैत्रेयी कृष्णन, कृष्णवेनी, पीएस अजय कुमार, आफताब आलम और फरहत बानो शामिल थे. 11वें पार्टी महाधिवेशन ने कई मसौदा दस्तावेजों पर विचार-विमर्श किया. दीपंकर भट्टाचार्य द्वारा निवर्तमान केंद्रीय समिति की ओर से पेश किए गए फासीवाद-विरोधी प्रतिरोध के परिप्रेक्ष्य, दिशा और कार्यभार; अभिजीत मजूमदार द्वारा प्रस्तुत अंतर्राष्ट्रीय स्थिति पर मसौदा प्रस्‍ताव; क्लिफ्टन डी’ रोज़ारियो द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रीय स्थिति पर मसौदा प्रस्‍ताव; सुचेता डे द्वारा पेश किया गया पर्यावरण और जलवायु संकट पर मसौदा प्रस्ताव; मनोज भक्त द्वारा प्रस्तुत पार्टी संगठन पर मसौदा रिपोर्ट; अरिंदम सेन द्वारा पेश किए गए सामान्य कार्यक्रम में प्रस्तावित संशोधन; और शुभेंदु सेन द्वारा; पार्टी संविधान में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया गया. सभी मसौदा दस्तावेजों को संबंधित सत्रों में प्रतिनिधियों द्वारा विचार-विमर्श के बाद गृहीत किया गया. विभिन्न सत्रों में सौ से अधिक प्रतिनिधियों ने वक्‍तव्‍य रखे, जबकि मसौदों पर बड़ी संख्या में लिखित सुझाव भी प्राप्त हुए. अध्‍यक्ष मंडल को कुल मिलाकर लगभग दो सौ सुझाव/प्रस्ताव/संशोधन प्राप्त हुए.

लैंगिक न्याय और संवेदीकरण प्रकोष्ठ के गठन के संबंध में पार्टी संविधान में संशोधन का प्रतिनिधियों ने व्यापक रूप से स्वागत किया.

फासीवाद-विरोधी प्रस्‍ताव ने फासीवाद को भारतीय इतिहास के वर्तमान मोड़ पर जनता और लोकतंत्र के लिए मुख्य खतरे के रूप में पहचाना. कॉरपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के रूप में फासीवाद की अभिव्यक्ति से भारतीय लोकतंत्र को खतरा है. अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति पर भाकपा(माले) ने स्पष्ट रूप से रूस में पुतिन शासन की यूक्रेन के प्रति आक्रामकता की निंदा की और युद्ध को समाप्त करने का आह्वान किया. पार्टी ने नाटो को अमेरिकी साम्राज्यवाद के एक वाहन के रूप में देखते हुए इसके विघटन का आह्वान किया. पार्टी ने यह भी कहा कि चीनी विशेषताओं के साथ समाजवाद के निर्माण का चीनी दावा तेजी से चीनी विशेषताओं वाले पूंजीवाद में तब्‍दील हो रहा है. इसने समाजवाद को बुनियादी कल्याणवाद तक सीमित कर दिया है जिसमें पूंजीवाद को राज्‍य के नियंत्रण में तो रखा गया है, लेकिन राजनीतिक स्वतंत्रता का घोर अभाव है. अफ्रीका, पाकिस्तान और अन्य देशों में चीनी पूंजीवाद की भूमिका को एक आलोचनात्मक नजरिये से देखने की जरूरत है.

फासीवाद-विरोधी मसविदा दस्‍तावेज और राष्ट्रीय स्थिति पर दस्‍तावेज पर बहस के जवाब में कॉमरेड दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा कि फासीवाद के बारे में उसके राजनीतिक स्वरूप के संदर्भ में ही बात की जाएगी, क्योंकि उत्पादन का कोई फासीवादी तरीका नहीं है. "यह पॉलिटिक्‍स इन कमांड (राजनीति पर पकड़) है जहां हम ‘ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण’ करते हैं. लोकतंत्र संघर्ष का एक मंच है और फासीवाद को ढीले ढंग से सामान्यीकृत नहीं किया जाना चाहिए”. अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर प्रस्ताव के जवाब में महासचिव ने कहा कि हम सिद्धांत रूप में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के पक्षधर हैं. हमारा मानना है कि लोकतंत्र के बिना समाजवाद नहीं हो सकता है. “भारत में समाजवाद को हमारे बहुदलीय लोकतंत्र के भीतर काम करना चाहिए और हमें एक टिकाऊ राजनीतिक ताने-बाने का निर्माण करना चाहिए जो सरकारों के आने और जाने के बावजूद समाजवादी आधार को बरकरार रखे. हम निश्चित रूप से बुर्जुआ लोकतंत्र का समर्थन नहीं करते हैं बल्कि सर्वहारा लोकतंत्र में विश्वास करते हैं. यह बुर्जुआ लोकतंत्र से बहुत अलग होगा."

केन्‍द्रीय कमेटी और केन्‍द्रीय कन्‍ट्रोल कमीशन का चुनाव

11वीं कांग्रेस के अंतिम दिन निवर्तमान केंद्रीय समिति की ओर से प्रभात कुमार ने संगठनात्मक स्थिति की रिपोर्ट के साथ-साथ वित्तीय स्थिति की रिपोर्ट पेश की. वीकेएस गौतम ने पार्टी कांग्रेस प्रतिनिधियों की क्रिडेंशियल्स रिपोर्ट प्रस्तुत की. निवर्तमान केन्द्रीय कन्‍ट्रोल कमीशन की रिपोर्ट उमा गुप्ता ने पेश की.

सदन ने पांच सदस्यीय चुनाव आयोग का चुनाव किया, जिसकी अध्यक्षता एसके शर्मा ने की. चुनाव आयोग ने केंद्रीय समिति और केंद्रीय कन्‍ट्रोल कमीशन के चुनाव की प्रक्रिया का संचालन किया. कॉमरेड राजा बहुगुणा, उमा गुप्ता, नक्षत्र सिंह खेवा, धीरज दास और कृष्णवेनी के पांच सदस्यीय केंद्रीय कन्‍ट्रोल कमीशन को सदन द्वारा सर्वसम्मति से चुना गया. केन्‍द्रीय कन्‍ट्रोल कमीशन ने राजा बहुगुणा को अपना चेयर पर्सन चुना.

कुल 1299 प्रतिनिधियों ने 82 उम्मीदवारों में से केंद्रीय समिति के 76 सदस्यों के लिए मतदान में भाग लिया. जिसमें से 76 सदस्यीय पैनल को निवर्तमान केंद्रीय समिति द्वारा प्रस्तावित किया गया था और 6 नामांकन प्रतिनिधियों के बीच से आए थे. प्रतिनिधियों ने छह मतदान केंद्रों पर अपना गुप्त मतदान किया. चुनाव आयोग की सहायता स्वयंसेवकों की एक टीम ने की, जिन्होंने कतारों और मतदाताओं की पहचान आदि के प्रबंधन में और चुनाव आयोग की देखरेख में मतों की गिनती में मदद की. चुनाव आयोग के गठन से लेकर चुनाव आयोग द्वारा नव निर्वाचित केन्‍द्रीय कमेटी के सदस्यों के नामों की घोषणा करने तक की इस पूरी प्रक्रिया में कुछ घंटे लगे. नयी केंद्रीय कमेटी ने तुरंत एक संक्षिप्त बैठक की और कॉमरेड दीपंकर भट्टाचार्य को महासचिव चुना. केंद्रीय कन्‍ट्रोल कमीशन के चेयरपर्सन केंद्रीय समिति के पदेन सदस्य होते हैं.

केंद्रीय समिति में चुने गए सदस्यों में कर्नाटक से कामरेड मैत्रेयी कृष्णन, उत्तराखंड से कैलाश पांडे और इंद्रेश मैखुरी, दिल्ली से श्‍वेता राज और नीरज कुमार, राजस्थान से फरहत बानो, पश्चिम बंगाल से इंद्राणी दत्ता और बिहार से मंजू प्रकाश, कुमार परवेज, नवीन कुमार, प्रकाश कुमार, सत्यदेव राम और संदीप सौरव हैं.

सदन ने केंद्रीय समिति में विशेष और स्थायी आमंत्रित सदस्‍यों को शामिल करने के लिए एक प्रस्ताव भी पारित किया.

11वें पार्टी महाधिवेशन का समापन

महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने नई केंद्रीय समिति की ओर से संक्षेप में सदन को संबोधित किया और इस ऐतिहासिक महाधिवेशन के सफल आयोजन के लिए बिहार पार्टी के साथियों को बधाई दी. उन्होंने इसके संदेश को पूरे जोश और नयी ऊर्जा के साथ आगे बढ़ाने का आह्वान किया. उन्होंने पार्टी महाधिवेशन को सफल बनाने के लिए महीनों मेहनत करने वाले दो सौ से अधिक स्वयंसेवकों को सम्मानित किया.

अंत में कामरेड स्वदेश भट्टाचार्य ने भाकपा(माले) के इस ऐतिहासिक पार्टी महाधिवेशन को सफल बनाने के लिए सभी प्रतिनिधियों और अतिथियों का क्रांतिकारी अभिवादन करते हुए कहा कि हमारे महाधिवेशन ने फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध खड़ा करने और हमारे देश की लोकतांत्रिक आवाजों की व्यापक एकता को साथ लाने की चुनौती को स्वीकार किया है. “हम जानते हैं कि भाकपा(माले) ने इतिहास और जन संघर्षों द्वारा पेश सभी चुनौतियों का सामना किया है. इस दौर में हम सभी को फासीवाद के खिलाफ लोकतंत्र की लड़ाई में अपनी क्षमताओं की सीमा से आगे बढ़कर संघर्ष करना होगा.

स्वदेश भट्टाचार्य ने आगे कहा कि “हम आशा करते हैं कि फासीवाद के खिलाफ एकजुट संघर्ष भाकपा(माले) को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगा और हमारी पार्टी को नई संभावनाओं के लिए मजबूत बनायेगा. हम सभी को इस महाधिवेशन के संदेश को अपने दैनिक जीवन और संघर्षों में उतारना चाहिए. हमें भाजपा से लड़ने में सक्षम सभी ताकतों को एक साथ लाना होगा. क्या हम फासीवाद के खिलाफ जन आंदोलनों की एक नई लहर देख सकते हैं, और क्या हम लोगों के उन आंदोलनों के बीच भाकपा(माले) के लाल झंडे को ऊंचा देख सकते हैं.

इस संदेश और अध्‍यक्षमण्‍डल के धन्यवाद ज्ञापन के साथ भाकपा(माले) का 11वॉं महाधिवेशन इंटरनेशनेल के गायन के साथ संपन्न हुआ!

जैसे ही प्रतिनिधि महाधिवेशन हॉल से बाहर निकले, पूरा परिसर क्रांतिकारी नारों से गुंजायमान हो गया.

कॉमरेड अध्यक्ष, प्रतिनिधि और पर्यवेक्षक साथियो, भारत के विभिन्न वामपंथी दलों के नेतागण, विदेश से आए बिरादराना संगठनों के नेता, मीडिया के मित्र और यहां एकत्रित पटना के प्रबुद्ध नागरिक बन्‍धुओ!

भाकपा(माले) की 11वीं कांग्रेस में आप सभी का स्वागत करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है. 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से इस कांग्रेस में भाग लेने वाले सत्रह सौ से अधिक प्रतिनिधियों और पर्यवेक्षकों के साथ, यह हमारी पार्टी के इतिहास की सबसे बड़ा महाधिवेशन है. हमने अपने दो महान नेताओं को श्रद्धांजलि देने के लिए पटना को विनोद मिश्र नगर और इस सभागार को रामनरेश राम हॉल का नाम दिया है. मंच कामरेड डीपी बख्शी, बीबी पांडे और एनके नटराजन की स्मृति को समर्पित है. ये तीनों हमारी केन्‍द्रीय कमेटी के सदस्‍य थे जिन्‍हें हमने मार्च 2018 में मानसा, पंजाब में आयोजित हमारी 10वीं पार्टी कांग्रेस के बाद से खो दिया.

बिहार के न्यायप्रिय प्रगतिशील लोगों द्वारा इस कांग्रेस के आयोजन को दिए गए हार्दिक समर्थन से हम बहुत प्रोत्साहित महसूस कर रहे हैं. यह गांधी मैदान में कल की ‘लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’ रैली की सफलता में भी दिखाई पड़ा. हम बिहार के लोगों के प्रेरणादायी प्रोत्‍साहन के प्रति अपनी गहरी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं.

साथी वाम दलों के नेताओं की उपस्थिति से हम बहुत सम्मानित महसूस कर रहे हैं - सीपीआई (एम) से कॉमरेड सलीम, सीपीआई से कॉमरेड पल्लब सेनगुप्ता, आरएसपी से कॉमरेड मनोज भट्टाचार्य, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक से कॉमरेड जी देवराजन, मार्क्सवादी समन्वय समिति से कॉमरेड हलधर महतो, लाल निशान पार्टी, महाराष्ट्र से कॉमरेड भीमराव बंसोडे, आरएमपीआई से कॉमरेड मंगतराम पासला और सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी, महाराष्ट्र से कॉमरेड किशोर धामले – महाधिवेशन  के इस उद्घाटन सत्र में उपस्थित हैं. आपकी उपस्थिति हमारे लिए बहुत मायने रखती है और यह निश्चित रूप से एकता की हमारी मौजूदा भावना और परस्‍पर सहयोगआधारित संबंधों को और मजबूत करने में मदद करेगी.

हम अपने पड़ोसी देशों जैसे नेपाल और बांग्लादेश और साथ ही ऑस्ट्रेलिया और वेनेजुएला जैसे देशों से प्रगतिशील दलों और संगठनों द्वारा व्यक्त की गई अंतर्राष्ट्रीयवादी एकजुटता से उत्‍साहित महसूस कर रहे हैं. श्रीलंका, पाकिस्तान और जर्मनी के कामरेड वीजा की समस्या के कारण नहीं आ सके, लेकिन एकजुटता के संदेश दुनिया के कोने-कोने से आए हैं और अभी भी पहुंच रहे हैं. महाधिवेशन को बधाई देने के लिए पटना पहुंच सकने वाले बिरादराना पार्टियों के मेहमानों और एकजुटता का संदेश भेजने वाले बिरादराना संगठनों के हम बहुत आभारी हैं. दुनिया भर में मेहनतकश लोगों पर थोपी गई तरह-तरह की कटौतियों, फासीवाद और निरंकुशतावाद के नए सिरे से उदय, युद्ध, कब्जे और छोटे व कमजोर देशों की संप्रभुता पर हमले और हमारे ग्रह के अस्तित्व को खतरे में डालने वाले जलवायु संकट समेत आज के सड़ते हुए पूंजीवाद द्वारा पैदा किये गये तमाम संकटों से दुनिया को मुक्त करने की लड़ाई को तेज करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता और सहयोग के अपने संबंधों को मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

कामरेड, जब हम पटना में इस उद्घाटन सत्र का आयोजन कर रहे हैं, लोग त्रिपुरा में राज्य में अगली विधानसभा और सरकार चुनने के लिए मतदान कर रहे हैं. पिछले पांच वर्षों से त्रिपुरा में लगातार लोकतंत्र पर हमले हुए हैं. विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं, समर्थकों और उनके कार्यालयों पर हमले हुए. जन अधिकारों की मांग करने वाले और विरोध की आवाज को बुलंद करने वाले वालों पर लगातार दमन हुआ है. हमें उम्मीद है कि त्रिपुरा के लोग बिना किसी डर के अपना वोट डालने में सक्षम होंगे और भाजपा द्वारा फैलाए गए इस आतंक के शासन को समाप्त करेंगे.

जैसे-जैसे फासीवादी मोदी सरकार की सभी मोर्चों पर घोर विफलता और विश्वासघात तेजी से उजागर हो रहा है वैसे-वैसे वह अधिक से अधिक झूठ बोलने और डराने-धमकाने का सहारा ले रही है. सरकार ने पहले बीबीसी द्वारा बनायी गई डॉक्‍यूमेंटरी को भारत के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रसारित होने से रोकने के लिए अपनी आपातकालीन शक्तियों का इस्‍तेमाल किया फिर दिल्ली और मुंबई में बीबीसी कार्यालयों पर आयकर विभाग ने छापे मारे. हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने अडानी समूह पर शेयर बाजार में हेरफेर, अकाउन्‍ट में धोखाधड़ी और मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप लगाया जिससे अदानी के शेयरों की कीमतों में अभूतपूर्व गिरावट आई. इससे अडानी की कुल संपत्ति में भारी गिरावट आई और वह दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में तीसरे स्‍थान से खिसककर बीसवें स्‍थान से भी नीचे पहुंच गया. मोदी सरकार की चुप्पी, जांच कराने से इंकार और भारत की नियामक प्रणाली की विफलता और मोदी और अडानी की सांठगांठ का ही नतीजा है. संसद में मोदी ने अडानी के सवाल पर जवाब देने से परहेज किया और लोगों इस नाम पर चुप रहने को कहा जा रहा है कि सरकार कथित तौर पर गरीबों को सस्ता भोजन, सब्सिडी वाला गैस सिलेंडर, पक्का घर जैसी खैरात दे रही है. यह बीबीसी की डॉक्‍यूमेंटरी को एक औपनिवेशिक साजिश के रूप में पेश किया गया और अडानी के बारे में हुए खुलासे को भारत पर हमले के रूप में पेश किया गया. भाजपा यह सब राष्‍ट्रवाद के नाम पर कर रही है जबकि असलियत में वह राष्‍ट्रवाद का मखौल बना रही है.

ऑक्सफैम की नयी रिपोर्ट ने एक बार फिर से भारत में बढ़ती आर्थिक असमानता की ओर ध्यान आकर्षित किया है. इस असमानता को कम करने के लिए अरबपतियों पर संपत्ति और विरासत करों की शुरुआत की जानी चाहिए. लेकिन सरकार ने बिल्‍कुल उल्‍टा कदम उठाते हुए इस साल के बजट में मनरेगा, सामाजिक सुरक्षा और अन्य सार्वजनिक सेवा व कल्याणकारी खर्च के लिए बजटीय प्रावधान को कम कर दिया और अरबपतियों के लिए कर में और भी कटौती की घोषणा कर दी.

जहां आम लोगों की बिगड़ती जीवन स्थितियों और आर्थिक मोर्चे पर सरकार की भारी विफलता के खिलाफ जनता का गुस्सा बढ़ रहा है. लेकिन मोदी सरकार लोगों का ध्यान भटकाना चाहती है और सामाजिक और आर्थिक संकट का इस्तेमाल अंधराष्ट्रवादी फासीवादी उन्माद फैलाने के लिए करना चाहती है. मुसलमानों को एक समुदाय के रूप में निशाना बनाने, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और सभी असहमति की आवाजों और न्याय व परिवर्तन के लिए लड़ने वाले सामाजिक समूहों को राष्ट्र-विरोधी बताकर घृणा व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करने की कोशिश कर रही है. सब के लिए घर, बिजली, शौचालय और पानी मुहैया कराने के झूठे वादों की जगह अब बुल्‍डोजर से लोगों के घरों को ढहाया जा रहा है. नफरती और छद्म आध्‍यात्मिक गुरुओं द्वारा तथाकथित धार्मिक सभाओं के मंचों से खुले तौर पर जनसंहार के आह्वान किए जा रहे हैं.

संवैधानिक शासन के सभी संस्थानों को नष्‍ट किया जा रहा है. कार्यपालिका खुले तौर पर विधायिका और न्यायपालिका के मामलों में हस्‍तक्षेप कर रही है. राज्यपालों के कार्यालयों, केन्‍द्र द्वारा नियुक्‍त संस्‍थाओं के प्रमुखों और केन्‍द्रीय जांच एजेंसियों को नियंत्रण के उपकरणों में बदल देने के जरिये केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को महिमामंडित नगरपालिकाओं में बदल देने की कोशिश की है. नागरिकता कानूनों, आरक्षण नीतियों में बदलाव और लोगों के विभिन्न वर्गों, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों, श्रमिक वर्ग, किसानों, छोटे व्यापारियों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और युवाओं के मौजूदा अधिकारों के क्षरण के साथ संविधान को ही खोखला और भीतर से कमजोर किया जा रहा है. जैसा कि केंद्रीय गृह मंत्री ने घोषणा की है लोकतंत्र और विविधता पर यह हमला 2023 में भारत के जी20 की अध्यक्षता ग्रहण करने से लेकर 1 जनवरी, 2024 को निर्धारित राम मंदिर के उद्घाटन के जश्न तक ढोल-नगाड़ों के साथ जारी रहेगा.

इस बढ़ते फासीवादी उन्माद और आक्रामकता का मुकाबला करने के लिए, हमें भारत भर में जुझारू लोगों की एकजुटता को मजबूत करने की जरूरत है. कोविड-19 महामारी से पहले नागरिकता आंदोलन और कोविड काल की कठोर परिस्थितियों को धता बताते हुए और मोदी सरकार को विनाशकारी कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए मजबूर करने वाले किसान आंदोलन में जिस तरह की एकता और उत्‍साह को हमने देखा था उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है. बेदखली, निजीकरण और सांप्रदायिक, जातिगत और पितृसत्तात्मक हिंसा के खिलाफ कई शक्तिशाली संघर्षों का निर्माण, और भोजन, आवास, शिक्षा और रोजगार, सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के सार्वभौमिक अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए नये ऊर्जावान आंदोलन खड़े करने की जरूरत है. फासीवाद को हराने, संविधान को बचाने और भारत के लोगों के लिए एक प्रगतिशील और समृद्ध भविष्य बनाने की लोकप्रिय राजनीतिक इच्छाशक्ति की नींव पर ही जनता की देशव्यापी एकजुटता विकसित और सफल हो सकती है.

हम सभी वामपंथियों को इस लोकप्रिय एकजुटता को कायम करने और एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संघीय भारत के एजेंडे को आगे बढ़ाने में केंद्रीय भूमिका निभानी होगी. 2023 के हमारे प्रयास 2024 में लोकतंत्र की निर्णायक जीत का मार्ग प्रशस्त करेंगे. हमें फासीवाद को हराने और लोकतंत्र की लड़ाई जीतने के लिए सभी वामपंथी ताकतों और व्यापक विपक्ष के बीच घनिष्ठ एकता और सहयोग की आवश्यकता है और हमें विश्वास है कि हम इस दिशा में आगे बढ़ सकेंगे.

हमारी 11वीं कांग्रेस फासीवाद के खिलाफ संघर्ष लिए पूरी तरह से समर्पित है. राजनीतिक प्रस्‍ताव और संगठनात्मक रिपोर्ट पर विचार-विमर्श के अलावा, हमारी 11वीं कांग्रेस के एजेंडे में दो अन्य विशिष्ट  प्रस्‍ताव भी शामिल हैं- एक, फासीवाद-विरोधी प्रतिरोध की दिशा, परिप्रेक्ष्य और हमारे कार्यभार और दूसरा, पर्यावरण संरक्षण और जलवायु न्याय प्रश्‍न पर. हम तहेदिल से भारतीय वामपंथी आंदोलन में अपने सभी साथियों और वैश्विक प्रगतिशील खेमे को आपके समर्थन और एकजुटता के लिए धन्यवाद देते हैं और उम्‍मीद करते हैं कि आने वाले दिनों में यह एकजुटता और सहयोग और भी घनिष्ठ होगा. फासिस्‍ट भारत की राज्य सत्ता से ही नहीं बल्कि दुनियाभर में दक्षिणपंथी ताकतों के उभार से भी अपनी ताकत हासिल कर रहे हैं. वे भारत की सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और राजनीतिक इतिहास के सभी प्रतिगामी पहलुओं से अपनी जीवनीशक्ति पा रहे हैं. हमें इस फासीवादी मंसूबे को विफल करने के लिए भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की प्रगतिशील विरासत और साम्राज्यवाद-विरोधी और फासीवाद-विरोध की परंपरा से ताकत हासिल करते हुए अंतरराष्ट्रीय एकजुटता के लिए बड़े संघर्षों के निर्माण की जरूरत है. हमें विश्वास है कि आपके सहयोग से 11वां महाधिवेशन इस यात्रा को आगे बढ़ायेगा.

दुनिया की प्रगतिशील ताकतों को मजबूत करो! आइए हम संघर्ष के लिए एकजुट हों और अपनी जीत होने तक लड़ें. इंकलाब जिंदाबाद! क्रांति अमर रहे!

- दीपंकर भट्टाचार्य

- दीपंकर भट्टाचार्य

कम्युनिस्ट पार्टी की परंपरा के मुताबिक पार्टी महाधिवेशन किसी भी निश्चित परिस्थिति में पार्टी की राह तैयार करने वाला सर्वोच्च समागम होता है. भारत की मौजूदा परिस्थिति कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए, और सच कहिए तो आजादी के बाद के भारत के लिए, सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण है. इस पृष्ठभूमि में पटना में आयोजित भाकपा-माले के ग्यारहवें महाधिवेशन ने पार्टी की सहजात शक्ति, फैलते संगठन और फासिस्ट मोदी हुकूमत व संघ ब्रिगेड के खिलाफ जन प्रतिरोध को धारदार बनाने के लिए उसकी बढ़ती राजनीतिक पहलकदमी व हस्तक्षेप का गतिशील प्रदर्शन किया. महाधिवेशन शुरू होने के ठीक पहले 15 फरवरी की ‘‘लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’’ रैली से लेकर 20 फरवरी की देर शाम में समापन सत्र तक यह ग्यारहवां महाधिवेशन आज के संकटपूर्ण मोड़ पर भाकपा-माले की महान क्रांतिकारी विरासत तथा संकल्पबद्ध शक्ति व क्षमता का सप्ताह भर का प्रदर्शन बन गया था.

महाधिवेशन में जितने किस्म के कार्यक्रम हुए और जितने व्यापक दायरे के प्रस्ताव ग्रहण किए गए, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि यह ग्यारहवां महाधिवेशन पार्टी के संपूर्ण व्यवहार के विविध आयामों और इसकी विकसित होती कार्यनीतिक दिशा के कार्यभार व प्राथमिकताओं का प्रतिनिधित्व कर रहा था. महाधिवेशन के ठीक पहले आयोजित रैली ने पार्टी की संगठनात्मक ताकत तथा नए-नए क्षेत्रों में इसकी फैलती मौजूदगी और जनता के नए-नए हिस्सों के बीच, शहरी बिहार में विभिन्न मध्यमवर्गीय तबकों समेत, पार्टी के बढ़ते प्रभाव को प्रदर्शित किया. साथ ही, उसने जनता के अधिकारों के लिए व्यापक दायरे के संघर्षों को आगे ले जाने की पार्टी की सतत प्रतिबद्धता को भी बुलंद किया, जबकि पार्टी बिहार में गैर-भाजपा महागठबंधन का एक घटक भी है और सरकार को बाहर से समर्थन भी कर रही है. पार्टी की शक्ति जन समुदाय के साथ इसके घनिष्ठ संबंध और उनके बीच उसके निरंतर कार्य में, तथा तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी जनता के बारंबार उभरने वाले संघर्षों में ही निहित है. पार्टी की इस मूलभूत शक्ति का संचय और इसकी दावेदारी ही फासीवाद-विरोधी प्रतिरोध में पार्टी की संकल्पबद्ध भूमिका और ऐसी कार्यनीतिक दिशा के अनुरूप व्यापक दायरे के कार्यभारों व पहलकदमियों की कुंजी है.

महाधिवेशन का औपचारिक कार्यक्रम वाम खेमे के अंदर घनिष्ठतर एकता और आपसी सहयोग के संदेशों से शुरू हुआ. सीपीआई-एम, सीपीआई, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक जैसी पार्टियों, जिनके साथ भाकपा-माले अखिल भारतीय समन्वय में जुड़ी हुई है, के साथ-साथ झारखंड के मार्क्‍सवादी समन्वय समिति, महाराष्ट्र की लाल निशान पार्टी तथा सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी और पंजाब के आरएमपीआई जैसे कम्युनिस्ट संगठनों, जो विभिन्न मोर्चों पर भाकपा-माले के लंबे समय के सहयोगी हैं, के प्रतिनिधिमंडलों ने भी उद्घाटन सत्र को संबोधित किया और एकता व एकजुटता का संदेश दिया.

इस ग्यारहवें महाधिवेशन में वेनेजुएला व आस्ट्रेलिया जैसे सुदूर के देशों के साथ-साथ हमारे निकटतम पड़ोसी बंगलादेश व नेपाल से आए अतिथियों की मौजूदगी अंतरराष्ट्रीय एकजुटता की प्रेरणादायी अभिव्‍यक्ति थी. महाधिवेशन में भारत में शिक्षण कार्य कर रहे एक युक्रेनी प्रोफेसर और फिलिस्तीन पर इजरायली कब्जे का प्रतिरोध करने वाले बायकॉट, डाइवेस्‍टमेण्‍ट एण्‍ड सैंक्‍शन्‍स (बीडीएस) अभियान के प्रतिनिधि ने भी अपनी बातें रखीं. लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप और पड़ोसी मुल्कों जैसे श्रीलंका व पाकिस्तान में प्रगतिशील पार्टियों व आन्दोलनों की तरफ से अनेक वीडियो व लिखित संदेश भी भेजे गए थे. प्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधियों ने भी साम्राज्यवादी आक्रमणों और नव-फासीवादी शक्तियों के उत्थान के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय एकजुटता विकसित करने और साथ ही, दक्षिणपंथी हिंदुत्व की जहरीली साजिशों को चुनौती देने के अपने अनुभवों को साझा किया.

किसी कम्युनिस्ट पार्टी महाधिवेशन में संभवतः ऐसा पहली बार हुआ कि उसके कार्यक्रम को लेखिका व कार्यकर्ता अरुंधती रॉय समेत नागरिक समाज से आए अनेक अतिथियों और पत्रकारिता व शैक्षिक जगत के कई सदस्यों ने प्रत्यक्ष देखा और बारी-बारी से प्रतिनिधियों को संबोधित भी किया. हमारे कुछ अतिथि महाधिवेशन में चले समस्त विचार-विमर्श के दौरान मौजूद रहे- राजनीतिक प्रस्तावों और सांगठनिक समीक्षा रिपोर्ट के पारित होने, पर्यावरणीय चुनौतियों पर चर्चा और गुप्त मतदान के जरिए नई केंद्रीय कमेटी के चुनाव तक. 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से 1700 प्रतिनिधियों और पर्यवेक्षकों की मौजूदगी, सभी वक्ताओं के वक्तव्यों का कई भाषाओं में अनुवाद, आधा दर्जन प्रस्तावों और रिपोर्ट को अंतिम रूप देने के लिये 100 से भी अधिक साथियों द्वारा दिये गए सुझावों और संशोधनों पर चर्चा, और अंत में 82 नामों की सूची में से 76 केंद्रीय कमेटी सदस्यों (केंद्रीय कंट्रोल कमीशन का अध्यक्ष पदेन सदस्य होता है) का चुनाव- इन सब ने वास्‍तव में महाधिवेशन को अंत:पार्टी जनवाद की गहन कार्यवाही बना दिया.

साथ ही गैर-परंपरागत बात यह भी थी कि महाधिवेशन के मंच से एक ऐसा राजनीतिक कन्वेन्शन भी आयोजित किया गया जिसमें विपक्षी दलों के नेता शामिल थे. इस ‘‘लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’’ कन्वेन्शन में बिहार के मुख्यमंत्री व जद-यू के नेता नीतीश कुमार, उप-मुख्य मंत्री व राजद नेता तेजस्वी यादव, वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद और वीसीके अध्यक्ष व तमिलनाडु से सांसद श्री तिरुमावलवन की उपस्थिति, तथा झारखंड के मुख्यमंत्री व जेएमएम नेता हेमंत सोरेन का शुभकामना संदेश फासिस्ट मोदी निजाम और विध्वंसकारी संघ ब्रिगेड के चंगुल से भारत को बचाने के लिए मजबूत सर्व-समावेशी विपक्षी एकजुटता की फौरी जरूरत को रेखांकित कर रहे थे.

नीतीश कुमार और सलमान खुर्शीद ने अपने भाषणों में जाहिर तौर पर हंसते-मुस्कुराते हुए एक दूसरे को कुछ बातें भी कहीं, जब इन दोनों की ही संबंधित पार्टियां अखिल भारतीय स्तर पर विपक्षी एकता का कारगर विमर्श तैयार करने की चुनौती का सामना कर रही हैं. बहरहाल, सभी वक्ताओं के वक्तव्यों से एक गंभीर बात यह निकल कर सामने आई कि सब लोग विनाशकारी गुजरात मॉडल, जिसे मोदी पूरे भारत में लागू करने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं, के बरखिलाफ बिहार मॉडल की गूंज सुनाई दे रही है.

इन दो मॉडलों के बीच फर्क सिर्फ इस तथ्य में निहित नहीं है कि जहां भाजपा गुजरात में पिछले तीन दशकों से सत्ता पर काबिज है, वहीं आज बिहार में खुद को सत्ता से बेदखल पा रही है. यह फर्क इन दो राज्यों में राजनीति के ऐतिहासिक विकास में ज्‍यादा गहराई से दिखाई देता है. गुजरात मॉडल के केंद्र में 2002 का गुजरात में मुसलमानों का जनसंहार है. जनसंहार की इस केंद्रीयता को हाल के गुजरात चुनावों के दौरान बारबार देखा गया, जब भारत की आजादी के 75वें सालगिरह के मौके पर बिल्किस बानो के बलात्कारियों व उसके परिजनों के हत्यारों को समय से पहले रिहा कर नायकों की तरह उनका स्वागत किया गया, और अमित शाह ने 2002 के जनसंहार को ‘दंगाइयों’ के लिए उपयुक्‍त ‘सीख’ बताया जिससे गुजरात में ‘स्थायी शांति’ पैदा हुई.

बिहार में भी क्रूर जनसंहारों का सिलसिला चला है. पूर्णिया के रूपसपुर चंदवा से लेकर अरवल में लक्ष्मणपुर-बाथे तक, बिहार में समय-समय पर दलितों और अन्‍य उत्पीड़ित लोगों का बर्बर जनसंहार होता रहा है. आजादी के बाद के भारत में भागलपुर दंगा सांप्रदायिक जनसंहार के सर्वाधिक पीड़ादायक हादसों में गिना जाता है. लेकिन बिहार ने कभी भी जातीय जनसंहार अथवा सांप्रदायिक हिंसा को राजनीतिक मॉडल के बतौर स्वीकार नहीं किया है. बिहार में अपने जन्मकाल से ही भाकपा-माले ने जिस दृढ़ता से सामंती हिंसा और राज्य दमन का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है, उसे सच में बिहार माॅडल का प्रतीक चिन्ह माना जा सकता है. यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर उसकी जगह पर शानदार राम मंदिर बनाने के नाम पर आडवानी द्वारा चलाए गए सांप्रदायिक फासीवादी अभियान का सबसे मुखर विरोध बिहार में ही शुरू हुआ था. अगर जनसंहार का आतंक गुजरात माॅडल का केंद्रीय तत्व है, तो इसके बिल्कुल उलट बिहार माॅडल सामंती-सांप्रदायिक हिंसा को ठुकराने और इसका प्रतिरोध करने के इर्दगिर्द खड़ा हुआ है.

2002 के मुस्लिम जनसंहार की खौफनाक नींव पर संघ-भाजपा प्रतिष्ठान ने गुजरात मॉडल की गाथा लिखनी शुरू की, जिसमें मोदी और शाह राजनीतिक रंगमंच के नेता के बतौर उभरे और अडानी व अंबानी कॉरपोरेट महाधनाढ्यों के बतौर सामने आए. 2014 में गुजरात मॉडल दिल्ली तक चला आया और अब समूचा देश इस फासिस्ट मॉडल द्वारा थोपी जा रही आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक विनाशलीला से कराह रहा है. ‘अच्छे दिन’ और अब ‘अमृतकाल’ के रूप में प्रचारित विनाशकारी 9 साल के बाद, अब हम इस मॉडल को अंदर से फटते देख रहे हैं, जब अडानी साम्राज्य को करारा धक्का लगा है और बेनकाब हो चुके मोदी- अडानी गठजोड़ को पहले के किसी भी समय से ज्यादा चुनौतियां मिल रहीं हैं. पटना में आयोजित ग्यारहवें महाधिवेशन ने उस प्रत्याक्रमण की संभावना दिखाई है जो फटते-बिखरते गुजरात मॉडल के खिलाफ बिहार मॉडल खड़ा कर सकता है.

जैसे-जैसे मोदी हुकूमत विपक्ष पर और संसदीय लोकतंत्र व संवैधानिक कानून के राज पर हमला तेज करती जा रही है, इसकी तुलनाएं निरंतर 1970-दशक के मध्य के आपात्कालीन दौर के साथ की जा रही है - वह एकमात्र दौर जब भारत को लोकतंत्र के ‘संवैधानिक’ निलंबन का सामना करना पड़ा था. उस वक्त भारत में भ्रष्टाचार और आसमान छूती कीमतों के खिलाफ नौजवानों का शक्तिशाली आन्दोलन फूट पड़ा था. गुजरात और बिहार इस नौजवान आन्दोलन के दो प्रमुख केंद्र थे. गुजरात आन्दोलन नवनिर्माण आन्दोलन के नाम से जाना जा रहा था, और जेपी के निर्देशन में बिहार आन्दोलन संपूर्ण क्रांति आन्दोलन के रूप में विख्यात हुआ. गुजरात में आरएसएस की छात्र शाखा एबीवीपी आन्दोलन के मुख्य संगठन के बतौर उभरा था, और बिहार में वह समाजवादी धारा का दोयम दर्जे का सहयोगी बना रहा. यह जनता पार्टी के गठन और जनता पार्टी सरकार के निर्माण की पूर्वपीठिका थी. गुजरात ने पहली बार मोरारजी देसाई के रूप में भारत को प्रधानमंत्री दिया, और आरएसएस को मुख्यधारा में शामिल होने, वैधता हासिल करने तथा अखिल भारतीय स्तर पर राज सत्ता तक पहुंचने का पहला मौका मिला.

जहां आरएसएस अपने पक्ष में संतुलन को झुकाने में कामयाब हुआ, वहीं संपूर्ण क्रांति आन्दोलन का विरोध करने और कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के सीपीआई के गलत फैसले के चलते बिहार में कम्युनिस्ट आन्दोलन को गहरा धक्का लगा. 1972 में अविभाजित बिहार विधानसभा में रेकॉर्ड 35 सीटें जीतने वाली सीपीआई अपनी जमीन खोने लगी. बहरहाल, जनता पार्टी प्रयोग भी अल्पकालिक साबित हुआ, क्योंकि आरएसएस इस पार्टी को अंदर से तोड़ने और इस पर काबिज होने का प्रयास कर रहा था, और समाजवादियों का एक हिस्सा पूर्व के जनसंघ सदस्यों का आरएसएस के साथ निरंतर जुड़ाव बरकरार रहने का विरोध कर रहे थे. आरएसएस ने जनता पार्टी के इस प्रयोग का इस्तेमाल करते हुए भाजपा का गठन किया, जबकि पुराना समाजवादी आन्दोलन जनता दल के रूप में पुनर्गठित हुआ और ओबीसी आरक्षण के बारे में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके उसने सापेक्षिक रूप से स्थायी राजनीतिक प्रभाव और सामाजिक आधार हासिल कर लिया.

हाल के दशकों में आंचलिक पार्टियों और पहचान-आधारित संगठनों के फैलाव के परे, ऐतिहासिक रूप से आजादी के बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य में हम चार प्रमुख प्रवृत्तियों को उभरते देखते हैं - कांग्रेस, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट और हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथ. कांग्रेस के वर्चस्व काल में हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथ कांग्रेसवाद-विरोध के माहौल का फायदा उठाकर कांग्रेस के खिलाफ हमलावर ध्रुव के बतौर विकसित हुआ. अपनी राजनीतिक विकास के बावजूद, सोशलिस्ट खेमे की संगठनात्मक एकता मंडल के बाद की अवधि में ना केवल आंचलिक लाइन पर टूटी, बल्कि उसकी एकता भाजपा के उत्थान के प्रति समाजवादी जवाब के प्रश्न पर भी भंग हुई. भाजपा ने अपने कुछ मूलभूत मुद्दों को कुछ समय के लिए परे हटाकर एनडीए के बैनर तले समाजवादियों के एक हिस्से को अपने साथ ले आने का रास्ता सहज बना लिया. 2014 आते-आते यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा को अब शुरूआती एनडीए काल के दिखावे अथवा कार्यनीतिक संयम को बनाए रखने की कोई जरूरत नहीं रही, और 2019 में लगातार दूसरी बार मोदी के सफल आगमन के साथ ही इस फासिस्ट निजाम ने तमाम शक्तियों को संकेंद्रित करने तथा भारत को विपक्ष-मुक्त गणतंत्र में तब्दील करने की मुहिम तेज कर दी. भाजपा नेता अब खुलेआम भारत को एकल-पार्टी राज्य बना देने और 50 वर्षों तक शासन करने की आकांक्षा जाहिर कर रहे हैं.

इस नए मोड़ पर कम्युनिस्टों, सोशलिस्टों, अंबेडकरवादियों, गांधीवादियों और नेहरूवादियों के लिए इन फासिस्टों के खिलाफ सम्मिलित प्रतिरोध में साथ आना और हाथ मिलाना जरूरी और संभव बन गया है. और इस ग्यारहवें महाधिवेशन ने स्पष्ट रूप से इस अनिवार्य आवश्यकता और उस प्रभाव को भी दिखलाया जो यह पैदा कर सकता है, अगर इसे क्रांतिकारी विचारधारा, पहलकदमी और संघर्षों का बल मिले जो बिहार जैसे राज्य में कम्युनिस्ट विरासत को रेखांकित करते हैं. महाधिवेशन ने 1970-दशक के मध्य के बिहार और आज के बिहार के बीच स्पष्ट फर्क को भी उजागर किया है. पचास साल पहले जब लालू प्रसाद और नीतीश कुमार पटना में उस समय के छात्र आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे, तब भाकपा-माले ग्रामीण बिहार के कुछ हिस्सों, खासकर पटना के करीब शाहाबाद और मगध अंचलों, में जुझारू क्रांतिकारी संघर्ष चला रही थी. फिर भी ये दो प्रवृत्तियां जमीन पर एक साथ नहीं आ सकी थीं, यह अलग बात है कि दोनों प्रवृत्तियों के कार्यकर्ता जेलों के अंदर प्रायः एक दूसरे से मिलते थे और ‘संपूर्ण क्रांति’ की आकांक्षा जेपी आन्दोलन के कार्यकताओं के एक हिस्से को भाकपा-माले में शामिल होने के लिए प्रेरित भी कर रही थी, खासकर जनता पार्टी और सरकार के अल्पकालिक प्रयोग के ध्वस्त होने से पैदा हुए मोहभंग के बाद.

1990 के दशक से भाकपा-माले ने चुनावी क्षेत्र में भी अपनी उपस्थिति महसूस करानी शुरू कर दी. शासन की बागडोर अब जेपी आन्दोलन के नाम पर उसके वारिसों के हाथ में चली गई, और भाजपा भी नीतीश कुमार के जद-यू के साथ फलदायी संश्रय कायम करके बिहार की एक शासक पार्टी बन गई; लेकिन भाकपा-माले बिहार विधानसभा में क्रांतिकारी विपक्ष का झंडा बुलंद करते हुए बिहार की सर्वाधिक उत्पीड़ित व वंचित जनता के हितों को आगे बढ़ाती रही. आज सामाजिक रूपांतरण और जनता के अधिकारों की लड़ाई को आगे बढ़ाते हुए भाकपा-माले जनता के विकास की राह में सबसे बड़ी रुकावट बन कर उभरे इस फासीवाद को शिकस्त देने की अपनी क्रांतिकारी जिम्मेदारी निभाने के लिए कृतसंकल्प है. इस प्रकार, स्थानीय प्रभुत्वशाली सामंती शक्तियों के खिलाफ जमीन, मजदूरी और मर्यादा की कल की लड़ाई लोकतंत्र की रक्षा करने और भारत को फासिस्ट लुटेरों के चंगुल से बचाने की आज की लड़ाई में बदल गई है.

भाकपा-माले के ग्यारहवें महाधिवेशन ने अपने लक्ष्यों को और उन तक पहुंचने के रास्तों को रेखांकित कर दिया है. अब समूची पार्टी के लिए जरूरी है कि वह मजबूती से खड़ी होकर जन प्रतिरोध की पूरी शक्ति और ऊर्जा को दिशाबद्ध करे और भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की गौरवशाली विरासत तथा भारतीय इतिहास के हर प्रगतिशील तत्व को लेकर आगे बढ़े.

 

भाकपा(माले) का 11वां महाधिवेशन:
चुनौतीपूर्ण राह पर  प्रेरणादायी यात्रा

 

 

 

अप्रैल 2023

 

 

 


संपादक : दीपंकर भट्टाचार्य

 

 

 

 

 

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विषय सूची

[स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर लिबरेशन पब्लिकेशंस द्वारा जुलाई 1997 में प्रकाशित दीपंकर भट्टाचार्य द्वारा लिखित पुस्तिका ‘भारत की आजादी की लड़ाई : दूसरा पहलू’ से उद्धृत व संपादित अंश]

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किसानों और आदिवासियों के विद्रोह

18वीं शताब्दी में किसानों और आदिवासियों के विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध की दो प्रमुख धाराएं है जो अक्सर परस्पर मिलती दिखती हैं. मानवशास्त्री कैथलीन गॉग ने ब्रिटिश काल में हुए कोई 77 किसान विद्रोहों की सूची तैयार की है.

बंगाल और बिहार के काफी बड़े इलाके में 18 वीं सदी के उत्तरार्ध में भड़का सन्यासी विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ उल्लेखनीय किसान विद्रोहों की एक प्रारम्भिक मिसाल था. 1793 में भूमि का स्थायी बंदोबस्त लागू होने के साथ ही दक्षिण भारत में भी तमिलनाडु के दक्षिणी इलाकों में किसान विद्रोह शुरू हो गया. वीरपंदया कट्टाबोम्मन के नेतृत्व में हुए इस विद्रोह का मूलकेन्द्र था तिरुनेलवेलि के नजदीक पलायनकोट्टै. कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों के टैक्स वसूलने के अधिकार पर ही सवाल खड़े किए : “आसमान हमें पानी और धरती अनाज देती है. फिर हम तुम्हें टैक्स क्यों दें?” बंगाल में तीतू मीर और उनके किसान साथियों के नेतृत्व में 1830 के दशक के शुरुआती वर्षों में हुए वहाबी विद्रोह में धार्मिक सुधार और किसान बगावत के पहलू मिले हैं. 1857 में आजादी की पहली लड़ाई की पूर्ववेला में बिहार-बंगाल सीमान्त के बीरभूम-राजमहल-भागलपुर क्षेत्र में पुलिस, जमींदार, साहूकार और कोर्ट के अधिकारियों के खिलाफ संथालों का विद्रोह फूट पड़ा. इस शानदार विद्रोह के दो किंवदती नायक सिद्धू और कान्हू को और इसके करीब सत्तर साल पहले भागलपुर में हुए संथाल विद्रोह के पहले दौर के नायक बाबा तिलका मांझी को आज भी पूर्वी भारत में आम जनता द्वारा श्रद्धा से याद किया जाता है.

हाल के शोध कार्यों और अध्ययन से यह स्थापित हो गया है कि 1857 में आजादी की पहली लड़ाई भी अन्तर्वस्तु में काफी हद तक किसान विद्रोह ही थी. ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने यह लड़ाई जीत ली और भारत पर राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से उनका कब्जा मजबूत हुआ. इसके बावजूद देश के बड़े हिस्से में किसानों और आदिवासियों के विद्रोह की आग सुलगती रही. केरल के मालाबार इलाके में 1836 और 1919 के बीच 28 बार मोपला विद्रोह भड़का. सतही तौर पर मजहबी बगावत दिखने पर भी दरअसल यह सवर्ण हिंदू जमींदारों और ब्रिटिश शासकों के खिलाफ मुसलमान बटाईदारों और भूमिहीन मजदूरों का विद्रोह था. ब्रिटिश मालिकों द्वारा नील की जबरिया खेती कराने के खिलाफ 1860 के दशक में बंगाल के किसानों का नील विद्रोह हुआ.


एक अमिट धब्बा

यह उन्नीसवीं सदी की किसी सभ्य फौज के लिये सचमुच बेहद शर्मनाक है : ब्रिटिश फौज ने जिस कदर अमानवीय अत्याचार किया, किसी अन्य फौज ने अगर उसका दसवां हिस्सा भी किया होता तो ब्रिटिश प्रेस ने खफा होकर उसकी इज्जत उतार ली होती. लेकिन चूंकि ये ब्रिटिश फौज की ही करतूतें हैं, इसलिये हमें बहलाया जा रहा है कि युद्ध में तो ऐसी चीजें आम तौर पर होती ही रहती हैं ... दरअसल, यूरोप और अमरीका में कोई भी फौज ब्रिटिश फौज जैसी निष्ठुर नहीं है. लूटमार, हिंसा कत्लेआम, ऐसी चीजें जो अन्य तमाम जगहों पर कड़ाई से और पूरी तरह निषिद्ध हो चुकी है, ब्रिटिश सैनिक का परम्परागत विशेषाधिकार, उसका निहित अधिकार बन चुकी है... बारह दिन और बारह रात तक लखनऊ में कोई ब्रिटिश फौज नहीं थी -- वह केवल उपद्रवी, शराबी पाशविक गुण्डों की  भीड़ थी जो उन सिपाहियों की तुलना में, जिन्हें वहां से खदेड़ा जा चुका था, कहीं ज्यादा उपद्रवी, हिंस्र और लालची डकैतों के जत्थों में तब्दील हो चुकी थी. 1858 में लखनऊ की लूटमार ब्रिटिश सेना के इतिहास में हमेशा के लिये एक अमिट धब्बा बन चुका है.

- 1857 में भारत में बिटिश सेना की भूमिका पर एंगेल्स


पूरी 19वीं सदी में आंध्र के गोदावरी एजेंसी क्षेत्र में विद्रोह भड़कते रहे. ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त मनसबदारों ने इस क्षेत्र में लगान बढ़ाने की कोशिश की तो उसके खिलाफ मार्च 1879 में लगभग 5,000 वर्गमील इलाके में भारी बगावत शुरू हो गई. मद्रास इन्फैंट्री की छ: रेजिमेंटों को झोंककर 1880 में जाकर इस पर काबू पाया जा सका. 19वीं और 20वीं सदी के संधिकाल में रांची के दक्षिणी इलाके में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में उलगुलान (भारी उथल-पुथल) छिड़ गया. इस ऐतिहासिक विद्रोह की वजह यह थी कि आदिवासी परंपरागत खुंटकट्टी (जमीन पर सामुदायिक स्वामित्व) अधिकारों की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए. वे बाहरी जमींदारी की बैठ-बेगारी करने को तैयार नहीं थे.

यह सच है कि किसानों और आदिवासियों के ये शुरुआती विद्रोह स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर हुए और इनका कोई देशव्यापी स्वरूप नहीं बन पाया. यह भी सच है कि इन विद्रोहों के पीछे आजाद और लोकतांत्रिक आधुनिक भारत बनाने का कोई बड़ा सपना या सचेत सिद्धान्त नहीं था. इन विद्रोहों की जड़ें ग्रामीण जनता की बदहाली -- लगातार अकाल जैसी स्थिति, घनघोर सामाजिक उत्पीड़न, सामंती जुल्म और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के संरक्षण में गांवों में पल रहे शक्तिशाली गठजोड़ द्वारा मचाई गई लूट खसोट में थी. इसलिए स्वाभाविक ही है कि इन आंदोलनों में धार्मिक परम्पराएं, आदिवासी रिवाज और जाति, इलाकाई और आदिम अस्मिता के कई पहलू जुड़े रहे. इसके बावजूद इन विद्रोहों में कोई ऐसी संजीदा और दमदार बात जरूर है, जो उसे बाद के वर्षों में व्यापारिक तबकों और उभरते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्सों की सांठगांठ की राजनीति और नपे-तुले विरोध से अलग करती है.

भारतीय मजदूर वर्ग का उदय

भारतीय मजदूर वर्ग के आगमन की पहली आहट 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में सुनाई पड़ी 1853 में रेलवे के आने की वजह से देश के विभिन्न हिस्सों में कपड़ा और जूट मिलें, कोयला खदानें और चाय बागान जैसे उद्योग कायम हुए और लगभग उसी समय से दमन-उत्पीड़न की स्थितियों के खिलाफ मजदूरों का संगठित होना तथा विद्रोह करना भी शुरु हो गया. 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में कहारों और सिर पर मैला ढोने वाले असंगठित गैर-औद्योगिक श्रमिकों की हड़तालें भी हुईं.

स्वाभाविक है कि ट्रेड यूनियनों के गठन से पूर्व मानवतावादी नागरिकों द्वारा बनाए गए कल्याणकारी संगठन सक्रिय हुए. जिस दौर में श्रमिक वर्ग का उदय हो रहा हो और ट्रेड यूनियनों तथा फैक्ट्री कानून या श्रम कानूनों की कोई परंपरा न हो तब विभिन्न प्रकार के संगठनों और उनकी मांगों की प्रकृति के बारे में अंतर कर पाना वाकई कठिन था. लेकिन चूंकि ज्यादातर मिल मालिक गोरे थे और नस्लवाद औपनिवेशिक व्यवस्था के कारण अपमान और नफरत का माहौल था, लिहाजा मजदूरों को संगठित करने या उनकी मांगों को उठाने के मामूली-से-मामूली प्रयास भी राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बन गए.

स्वदेशी मजदूर वर्ग के आंदोलन का पहला उभार

मजदूर वर्ग के आंदोलन का पहला उभार बंगाल के विभाजन और उसके बाद शुरू हुए स्वदेशी आंदोलन के दौरान देखने को मिला. कर्जन ने 19 जुलाई, 1905 को बंगाल के विभाजन की घोषणा की. देश के एक प्रमुख संवेदनशील राज्य में अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति का यह प्रयोग मानो अन्ततः 1947 में हुए देश के विभाजन का ही पूर्वाभास था. बंगाल के विभाजन का न सिर्फ बंगाल बल्कि सुदूर महाराष्ट्र तक में तीखा विरोध हुआ. यह लोकप्रिय राष्ट्रवादी भावनाओं के जोर पकड़ने का ठोस संकेत था.

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खुदीराम बोस

लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल (बहुचर्चित लाल-बाल-पाल त्रिमूर्ति) के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कथित गरमपंथी खेमे ने एक ओर ब्रिटिश माल के बहिष्कार और दूसरी ओर स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए लोगों का आह्वान किया. स्वदेशी का नारा देने वाले ज्यादातर नेताओं ने जनता को गोलबंद करने के लिए धार्मिक और पुनरुत्थानवादी प्रतीकों का सहारा लिया. तिलक ने गणेश और शिवाजी उत्सव मनाने की परंपरा शुरू की. इसी दौरान क्रांतिकारियों का भी जोर बढ़ने लगा. खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने 30 अप्रैल, 1908 को मुजफ्फरपुर में कुख्यात ब्रिटिश मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड पर बम से हमला किया. धार्मिक पुनरुत्थानवाद और क्रांतिकारी आतंकवाद के इस सम्मिश्रण के अलावा स्वदेशी आन्दोलन में मजदूर वर्ग का जुड़ाव भी निस्संदेह रूप से प्रबल था.


पूरा कलकत्ता शोक में

भारत में ब्रिटिश प्रशासन के इतिहास में कल एक सर्वाधिक स्मरणीय दिन था. वह दिन जब बंगाल के विभाजन की योजना लागू हुई. ... कलकत्ते के तमाम नर-नारियों ने, चाहे वे किसी भी राष्ट्रीयता, सामाजिक स्थिति या धर्म के क्यों न हों इसे शोक दिवस के बतौर मनाया. भोर से दोपहर तक बागबाजार से लेकर हावड़ा तक गंगा के किनारे एक अभूतपूर्व दृश्य था. लग रहा था कि मानवता का समुद्र उमड़ पड़ा है. कलकत्ते की सड़कों और गलियों का दृश्य अद्भुत था और शायद किसी भी भारतीय शहर में पहले ऐसा नहीं देखा गया था. तमाम मिलें बन्द थी और मजदूर सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे. बस केवल “वन्दे मातरम” की गूंज सुनाई पड़ रही थी.

- अमृत बाजार पत्रिका का 17 अक्टूबर 1905


सरकारी छापाखानों में हड़ताल के दौरान 21 अक्तूबर 1905 को सही मायने में पहली ट्रेड यूनियन -- प्रिंटर्स यूनियन का गठन हुआ. जुलाई-सितंबर, 1906 के दौरान ईस्ट इंडियन रेलवे के बंगाल खंड के मजदूरों की कई हड़तालें हुईं. 27 अगस्त को जमालपुर रेलवे वर्कशॉप में मजदूरों का विशाल शक्ति प्रदर्शन हुआ. 1907 में मई और दिसंबर महीनों के बीच रेल  हड़तालों का सिलसिला व्यापक और तीखा होता गया. इसका असर आसनसोल, मुगलसराय, इलाहाबाद, कानपुर और अम्बाला तक पहुंच गया. बंगाल की जूट मिलों में भी 1905 से 1907 के बीच कई हड़तालें हुईं. मद्रास प्रांत के तूतीकोरिन में स्थित विदेशी स्वामित्व वाली कोरल कॉटन मिल के मजदूरों ने मार्च, 1908 में कामयाब हड़ताल की. कोरल मिल के मजदूरों पर दमन के खिलाफ न सिर्फ पालिका-कर्मियों, सफाई-कर्मचारियों और ठेला-चालकों ने हड़ताल की बल्कि लोगों ने तिरुनेलवेली में नगरपालिका कार्यालयों, अदालतों और थानों पर भी हमले किए.

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वदेशी के दौर में मजदूर वर्ग एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा. आजादी और लोकतंत्र की मांग को लेकर छात्रों और किसानों के साथ मजदूर भी सड़कों पर उतरे. थोड़े ही समय में सड़कों पर जुझारू संघर्ष की बात आम हो गयी. मई 1907 के पहले हफ्ते में रावलपिंडी वर्कशॉप के 3,000 मजदूरों ने दूसरी फैक्ट्रियों के मजदूरों के साथ मिल कर “पंजाबी” नाम की पत्रिका के संपादक को दंडित किए जाने के खिलाफ विशाल प्रदर्शन किया. आस-पास के गांव वालों ने भी उस उग्र रैली में हिस्सा लिया और अंग्रेजों से जुड़ी अमूमन तमाम चीजें उनके हमलों का शिकार बनीं.

लेनिन ने भारतीय मजदूरों में आई राजनीतिक जागृति का स्वागत किया:

इसी दौरान, हालांकि 1905 की रूसी क्रांति नाकाम हो चुकी थी, लेकिन इसने अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन को आम राजनीतिक हड़ताल के रुप में एक नया हथियार दे दिया. बिपिन चंद्र पाल की गिरफ्तारी पर कलकत्ता की पत्रिका ‘नव शक्ति’ ने 14 सितंबर, 1907 के अपने अंक में लिखाः “रूस के मजदूरों ने दुनिया को बताया है कि दमन के दौर में असरदार तरीके से प्रतिरोध कैसे किया जाता है -- क्या भारतीय मजदूर उनसे सबक नहीं सीखेंगे?”

यह शुभेच्छा बंबई में जल्द ही साकार हुई. 24 जून, 1908 को तिलक की गिरफ्तारी से न सिर्फ बंबई बल्कि नागपुर और शोलापुर जैसे औद्योगिक केन्द्रों में भी आंदोलन शुरू हो गया. एक ओर तिलक के खिलाफ अदालती कार्रवाई चल रही थी, वहीं दूसरी ओर मजदूर वर्ग पुलिस और सेना से टकरा रहा था. सड़कों पर हो रहे ऐसे ही संघर्षों के दौरान 18 जुलाई को कई मजदूरों की जानें गईं और सैकड़ों जख्मी हुए. अगले दिन करीब 60 मिलों के लगभग 65,000 मजदूरों ने हड़ताल कर दी. बंबई के गोदी मजदूर भी 21 जुलाई को आंदोलन में उतर पड़े. 22 जुलाई को तिलक को छह साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई. विरोधस्वरूप हड़ताली मजदूरों ने छः दिनों के लिए बंबई को युद्धक्षेत्र में तब्दील कर दिया.

लेनिन ने बम्‍बई के मजदूरों के इस बहादुराना संघर्ष को विश्‍व राजनीति में नया आवेग पैदा करने वाला बताया था: “… भारत में जनता वहां के लेखकों और राजनीतिक नेताओं के लिए सड़कों पर आ गई है. ब्रिटिश गीदड़ों द्वारा भारतीय लोकतांत्रिक नेता तिलक को सुनायी गयी सजा ... के विरोध में सड़कों पर प्रदर्शन और बम्‍बई में एक हड़ताल हुई है. भारत में भी सर्वहारा सचेत राजनीतिक जन संघर्ष के रास्‍ते पर बढ़ रहा है – तब, ऐसी हालत में, भारत में भी रूसी तर्ज के ब्रिटिश राज का अंत निकट है!”

स्वदेशी आंदोलन की आड़ में बंगाल में क्रांतिकारी उग्रवाद का काफी फैलाव हो चुका था. इस दौरान युगान्तर और अनुशीलन नाम के दो कांतिकारी केंद्र बन गए और 1911 में बंगाल के बंटवारे का फैसला वापस लिए जाने के बावजूद बंगाल के क्रांतिकारियों की शक्ति और लोकप्रियता बढ़ती गई. इस आंदोलन के शीर्ष नेता बाघा जतीन सितंबर 1915 में उड़ीसा तट पर बालासोर के पास पुलिस के साथ संघर्ष में वीरतापूर्वक शहीद हो गए.

क्रांतिकारी आंदोलन की लहर विदेशों, खासकर ब्रिटिश कोलंबिया और अमेरिका में बसे भारतीयों तक पहुंची और उनमें भी खासकर सिखों के बीच उसने जड़ जमा ली. सैन फ्रांसिस्को में 1913 में बहुचर्चित गदर आंदोलन शुरू हुआ. बंगाल के प्रारंभिक क्रांतिकारियों के हिंदूवादी तेवर के विपरीत गदर आंदोलन के लोग 1857 की हिंदू-मुस्लिम एकता की विरासत की बात करते थे. कई उग्रवादी और गदर आंदोलन के लोग आगे चलकर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता बने.

पहला विश्व युद्ध छिड़ने के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत में दमन तेज कर दिया. इस दौरान लोगों के बुनियादी अधिकार भी छीन लिए गये. युद्ध खत्म होने के बाद अंग्रेजों ने रॉलेट एक्ट लगाकर लोगों को अधिकारों से आगे भी वंचित रखना चाहा.

बर्बर दमन और मजदूर-किसान आन्दोलनों का उभार

प्रथम विश्व युद्ध के बाद आए व्यापक जन उभार को ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने दमन के जोर पर कुंद करने की भरसक कोशिश की. इस दौरान उत्पीड़न की सबसे बर्बर घटना 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जालियांवाला बाग जनसंहार के रूप में सामने आई. इस जनसंहार को अंजाम देने वाले कुख्यात जनरल डायर ने इसे सही ठहराते हुए तर्क दिया कि “वे लोगों को सबक सिखाना चाहते थे.” उन्हें तो अफसोस इस बात का था कि अगर उनकी टुकड़ी के पास और गोलियां होतीं तो वे और ज्यादा लोगों को मार पाते. सरकार द्वारा ढाए जा रहे निर्मम अत्याचार और गांधीवादी ढुलमुलपन के बीच भी अगर भारतीय जनता ब्रिटिश प्रशासन को “सबक सिखाने” में कामयाब रही तो इसका श्रेय मजदूर वर्ग की जोरदार पहल और किसानों के व्यापक असंतोष व आन्दोलनों को जाता है.

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जलिआवाला बाग़ नरसंहार

इस दौर के प्रभावशाली किसान आंदोलनों में उत्तर प्रदेश में अवध के तालुकेदारों द्वारा मनमानी लगान वसूली और उनके जुल्मों के खिलाफ हुआ किसान आंदोलन गौरतलब है. इस आंदोलन का प्रतापगढ़, रायबरेली, सुल्तानपुर, और फैजाबाद जिलों में मजबूत आधार था. एक समय फीजी में बंधुआ मजदूर रहे बाबा रामचंद्र इसके नेता थे. उन्होंने किसान एकता के नारों को रामायण के दोहों से जोड़ा और लेनिन को किसानों का प्रिय नेता भी बताया. राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में मोतीलाल तेजावत ने भीलों का दमदार आंदोलन छेड़ा. अगस्त 1921 में केरल का मालाबार क्षेत्र एक बार फिर मोपला विद्रोह से हिल उठा. 1920 के दशक के शुरूआती वर्षों में पंजाब के जाट सिख किसानों ने अकालियों के नेतृत्व में गुरुद्वारा सुधार आंदोलन छेड़ा. इस आंदोलन का लक्ष्य सिख धर्म स्थलों को अंग्रेजों के पिट्ठू भ्रष्ट महंतों के कब्जे से मुक्त कराना था. महाराष्ट्र के सतारा जिले में 1919 से 1921 के बीच सत्यशोधक नाना पाटील के नेतृत्व में जमींदारों और महाजनों के खिलाफ प्रभावशाली किसान आंदोलन हुआ. पाटील आगे चलकर राज्य के लोकप्रिय कम्युनिस्ट नेता के रूप में उभरे.

इन किसान आंदोलनों के साथ-साथ देश भर में मजबूत हड़तालों की लहर चल रही थी. 1923 के एक प्रकाशन में दिए गए आंकड़ों (अगले पृष्ठ पर तालिका देखिये, जिसे सुमित सरकार ने अपनी किताब ‘आधुनिक भारत’ में दिया है) पर एक नजर डालने से हड़ताल की उस लहर के असर का अंदाज मिलता है : 1920 दशक के उत्तरार्ध में अकेले बंगाल में 110 हड़तालें हुई थीं.


जल्लाद का बयान

मैने गोलियां चलवाई और तब तक चलवाई जब तक समूची भीड़ बिखर नहीं गयी, और मैं सोचता हूं कि यदि अपनी कार्रवाई को जायज ठहराना हो तो अपना कर्तव्य निभाने के लिये जिस किस्म का नैतिक दबाव और बड़े पैमाने का असर मुझे इस गोलीकांड के जरिए डालना था उसकी अपेक्षा तो न्यूनतम गोलियां चलवाई. अगर मेरे पास और बड़ा सैन्यदल होता तो और भी ज्यादा लोग मारे जाते. मेरा उद्देश्य सिर्फ भीड़ को तितर-बितर करना नहीं था बल्कि सैनिक दृष्टि से सिर्फ वहां मौजूद लोगों पर ही नहीं, समूचे पंजाब के लोगों पर काफी जोरदार नैतिक असर डालना था. अनावश्यक कठोरता का तो सवाल ही नहीं उठता. ...

- जनरल डायर की जनरल स्टाफ डिवीजन को भेजी गई रिपोर्ट, 25-8-1979


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1920 दशक के उत्तरार्ध में अके ले बंगाल में हुई प्रम खहड़तालें और उनमें शामिल मज़दूरों की संख्या

टैगोर ने प्रतिवाद में नाइट की पदवी वापस की

अभागे लोगों को जो जरूरत से ज्यादा कठोर सजा दी गई और जिस अन्दाज में दी गई, हमें यकीन है कि वह सभ्य सरकारों के इतिहास में ऐसी मिसाल नहीं है... मैं अपने देश के लिए कम-से-कम जो कर सकता हूं वह है कि अपने करोड़ों देशवासियों की ओर से ... प्रतिवाद का इजहार करूं. ... ऐसा समय आ गया है कि सम्मान के तमगे अपमान के संदर्भ में अप्रासंगिक होकर बेइन्तहा शर्मसार हो गए हैं और मैं चाहता हूँ कि तमाम विशिष्टताओं से स्वयं को वंचित कर लूं, अपने उन देशवासियों की पांत में खड़ा हो जाऊं जो अपनी तथाकथित तुच्छता के कारण पशुवत् अपमान सहने के लिये मजबूर है.

– वायसराय के नाम रवीन्द्रनाथ टैगोर का पत्र, 31-5-1919


मजदूर संगठन ने अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण किया

मजदूर वर्ग के इस जबर्दस्त उभार के दौरान ही भारतीय मजदूरों के पहले अखिल भारतीय संगठन का जन्म हुआ. 31 अक्तूबर 1920 को बंबई में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (ऐटक) का गठन हुआ. ऐटक के गठन के पीछे एक प्रमुख प्रेरणा स्रोत तिलक थे, लेकिन संगठन बनने से तीन महीने पहले अगस्त 1920 को उनका निधन हो गया.

ऐटक के उद्घाटन सत्र में सर्वहारा की नई पहचान और तेवर के सभी संकेत थे, लेकिन यह कांग्रेस के संवैधानिक सुधार के चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाया था. अपने अध्यक्षीय भाषण में लाला लाजपत राय ने पूंजीवाद और “उसकी जुड़वा संतानों सैन्यवाद और साम्राज्यवाद” पर लगाम लगाने में संगठित मजदूरों की भूमिका पर जोर दिया. उन्होंने “मजदूरों को संगठित करने और उनमें वर्ग-चेतना लाने” की बात का भी समर्थन किया लेकिन ब्रिटिश सरकार के संबंध में उन्होंने कहा कि “मजदूरों को न तो उनका समर्थन करना चाहिए न विरोध.”

ऐटक के पहले महासचिव दीवान चमन लाल ने इस मौके पर जारी किए गए “भारतीय मजदूरों के घोषणापत्र” में “भारत के मजदूरों” का आह्वान किया कि वे “अपने देश के भाग्य विधाता के रूप में अपने अधिकारों को हासिल करें.” घोषणापत्र में मजदूरों से कहा गया कि उन्हें राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा होना ही चाहिए और “सभी कमजोरियों पर जीत हासिल करते हुए सत्ता और स्वतंत्रता के रास्ते पर बढ़ना चाहिए.” वहीं ऐटक के उपाध्यक्ष जोसफ बपतिस्ता ने “साझेदारी के उच्च आदर्शों का बखान” करते हुए इस बात पर जोर दिया कि मिल मालिक और मजदूर “साझीदार और सहकर्मी हैं, न कि श्रम के क्रेता और विक्रेता.”  - बॉम्बे क्रानिकल, 4 नवम्बर 1920

ऐटक का दूसरा सम्मेलन बिहार में धनबाद जिले की झरिया कोयला नगरी में 30 नवम्बर से 2 दिसम्बर 1921 तक चला. (बीसीसीएल के अंधाधुंध और त्रुटिपूर्ण कोयला खनन के कारण मजदूर वर्ग के इस ऐतिहासिक केंद्र का अस्तित्व अब खतरे में पड़ चुका है. इसी शहर में 1928 को हुए ऐटक के नवें सम्मेलन में भारत को समाजवादी गणतंत्र बनाने का संकल्प लिया गया था). दूसरे सम्मेलन में भारतीय श्रमिकों और आम जनता के लक्ष्य के बारे में कहीं ज्यादा जोर देकर बातें रखी गई. सम्मेलन में ऐलान किया गया “समय आ गया है कि जनता को स्वराज हासिल हो.” झरिया अधिवेशन एक अभूतपूर्व घटना थी. मजदूरों के इस अभूतपूर्व शक्ति प्रदर्शन में करीब 50,000 लोग शरीक हुए. उनमें से ज्यादातर लोग आस-पास के कोयला खनिक या दूसरे उद्योगों के मजदूर और उनके परिजन थे.

मजदूर आन्दोलन कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर बढ़ा

मजदूर वर्ग के सभी बड़े केंद्रों में 1920 के दशक में राजनीतिक सक्रियता तेजी से बढ़ी. मजदूर आंदोलनों के नक्शे में नए-नए राज्य जुड़े. मई 1921 में असम के चाय बागानों में, खासकर सुरमा घाटी के चारगोला में मजदूरों का एक जबर्दस्त उभार नजर आया जिसके फलस्वरूप लगभग 8,000 मजदूर घाटी से बाहर चले गए. दरंग और शिवसागर जिले के चाय बगानों से भी दिसम्बर 1921 में छिटपुट संघर्षों की खबरें आती रही. बंबई, कलकत्ता और मद्रास के मजदूरों ने प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन के खिलाफ 17 नवंबर 1921 में हुई देशव्यापी हड़ताल को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसके पहले ही मद्रास के बकिंघम ऐंड कर्नाटक मिल्स में जुलाई से अक्टूबर तक चार महीने की हड़ताल चल चुकी थी. इस हड़ताल के खिलाफ पुलिस कार्रवाईयों में सात मजदूरों की जानें गई. मई 1923 को मद्रास के बुजुर्ग वकील और मजदूर नेता सिंगारवेलु चेट्टियार ने मद्रास समुद्र तट पर भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर मई दिवस समारोह आयोजित किया. गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन को बीच-बीच में रोकते जाना सिंगारवेलु को नापसंद था. वे आगे चलकर देश के शुरुआती कम्युनिस्ट नेताओं में से एक बने. अप्रैल से लेकर जून 1925 तक उत्तरी रेलवे में बड़ी हड़ताल हुई. बंबई में थोड़ी-थोड़ी अवधि के बाद कपड़ा मिलों में हड़तालें होती रहीं.

इसी दौरान भारतीय मजदूर वर्ग आंदोलन में कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रवेश होता है. भारतीय प्रवासियों के साथ ही देश के अंदर भी कम्युनिस्ट समूह काम करने लगे. 26 दिसंबर 1925 को देश में सक्रिय विभिन्न कम्यूनिस्ट समूहों के लोग कानपुर में जुटे और औपचारिक तौर पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ. 1920 के दशक में कम्युनिस्ट लोग कांग्रेस के अलावा मजदूर-किसान पार्टी जैसे संगठनों के जरिये काम करते रहे. ऐसी पार्टियां बंगाल, बम्बई, पंजाब, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में काफी सक्रिय और लोकप्रिय हुई. पंजाब में इस पार्टी का नाम किरती किसान पार्टी था, जिसका गठन अमृतसर के जलियांवाला बाग में, वहां हुए जघन्य जनसंहार की नवीं बरसी पर हुआ.

मजदूरों ने कहा ‘संपूर्ण आजादी चाहिए’

मजदूर वर्ग के आंदोलन की बढ़ती लहर पर काबू पाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1926 में एक ऐसा ट्रेड यूनियन ऐक्ट लागू किया जिसके जरिये मजदूर आन्दोलनों पर काफी पाबंदियां लगा दी गईं. मसलन सभी अपंजीकृत ट्रेड यूनियनों को एक तरह से अवैध करार दिया गया और यूनियनों पर राजनीतिक उद्देश्य के लिए चंदा इकट्ठा करने पर रोक लगा दी गई. विडबना यह है कि इसके ठीक उलट ब्रिटेन में ट्रेड यूनियनें ही लेबर पार्टी का आधार थीं और देश की राजनीति में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी. लेकिन यह प्रतिक्रियावादी और पाखंडी कानून भी मजदूर आंदोलनों के उमड़ते ज्वार को रोक नहीं पाया.

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स्ट्राइक ऑफ़ लेबर स्टेचू (मज़दूर संगठन नेता एम. सिंगारवेलु ने मई 1923 में मद्रास के मरीना बीच पर मज़दूरों को अधिकार देने की मांग पर
एक जनसभा का आयोजन किया, जो संभवतः भारत के इतिहास की सबसे पहली मई दिवस रै ली थी - फोटो: विकिमीडिआ कॉमन्स)

बंबई के 20,000 मजदूरों ने सिर्फ गोरे सदस्यों वाले साइमन कमीशन के खिलाफ फरवरी 1928 में सड़कों पर मोर्चा निकाला. 1928 में लिलुआ रेल वर्कशॉप के मजदूरों ने जनवरी से जुलाई तक एक बड़ा संघर्ष चलाया. 18 अप्रैल से सितम्बर 1928 तक टिस्को के मजदूर एक लम्बी हड़ताल पर रहे. अप्रैल से अक्तूबर 1928 तक बंबई में एक बार फिर कपड़ा मजदूरों की बड़ी लम्बी हड़ताल चली. जुलाई 1928 में दक्षिण भारतीय रेलवे में थोड़े समय के लिए लेकिन जोरदार हड़ताल हुई. इसके नेता सिंगारवेलु और मुकंदलाल सरकार को कैद की सजा हुई जबकि एक हड़ताली मजदूर पेरुमल को काला पानी भेज दिया गया. मजदूर वर्ग का सबसे शानदार हस्तक्षेप कलकत्ते में रहा, जब दिसंबर 1928 को बंगाल की मजदूर किसान पार्टी के नेतृत्व में हजारों मजदूर कांग्रेस अधिवेशन में प्रवेश कर दो घंटे तक पंडाल में जमे रहे और उन्होंने पूर्ण स्वराज की मांग का प्रस्ताव पारित किया.

अल्लूरि सीताराम राजू से भगत सिंह तक : इंकलाब जिन्दाबाद

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अल्लूरि सीताराम राजु

आंध्र प्रदेश में 1920 के दशक के प्रारंभ में किसान छापामार युद्ध की एक बेहतरीन मिसाल देखने को मिली. अगस्त 1922 से मई 1924 तक अल्लूरि सीताराम राजू और सैकड़ों आदिवासी किसान छापामार योद्धाओं ने गोदावरी एजेंसी क्षेत्र के करीब 2500 वर्ग मील पहाड़ी क्षेत्र में ब्रिटिश राज को प्रभावी चुनौती दी. सटीक हमलों और थानों पर कारगर छापामारी में सिद्धहस्त होने के कारण राजू को नाखुश अंग्रेज भी दमदार छापामार रणनीतिज्ञ मानते थे. इस विद्रोह को दबाने के लिए मद्रास सरकार ने 15 लाख रुपये खर्च किए और मालावार स्पेशल पुलिस और असम रायफल्स को अभियान में लगाया. राजू को आखिरकार तालाब में नहाते वक्त पकड़ लिया गया. ब्रिटिश प्रशासन ने भारी जुल्‍म ढाने के बाद 6 मई 1924 को इस महान योद्धा को गोली मार दी.

एक ओर जहां अल्लूरि सीताराम राजू आजादी के लिए ग्रामीण गरीबों द्वारा जुझारू हथियारबंद संघर्ष चलाने के साहस व क्षमता का प्रतीक बने, वही भगत सिंह ने ऐसी अर्थपूर्ण आजादी की उम्मीदें जगाई जो हमें हासिल हो सकती थी. सितंबर 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में अपने साथियों की एक मीटिंग में उन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एच.एस.आर.ए.) का गठन किया. अपनी शुरुआती कार्रवाई में एच.एस.आर.ए. ने दिसंबर 1928 में लाहौर में पुलिस अधिकारी सैंडर्स को गोली मारकर लाला लाजपत राय पर हुए जानलेवा हमले का बदला लिया. 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ हुए एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस की लाठियों से लाजपत राय गंभीर रूप से जख्मी हुए और 17 नवंबर को उन्होंने दम तोड़ दिया. भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को विधान सभा में बम फेंका. उस समय विधान सभा में मजदूर विरोधी ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल और एक अन्य विधेयक पर चर्चा चल रही थी, जिसमें ब्रिटिश कम्युनिस्टों और भारतीय स्वतंत्रता के दूसरे समर्थकों के भारत आने पर रोक लगाने का प्रावधान था.

एच.एस.आर.ए. के झंडे तले इन चुनिंदा सशस्त्र कार्रवाइयों के अलावा भगत सिंह और उनके साथियों ने खुलेआम काम करने वाले एक संगठन नौजवान भारत सभा का भी गठन किया. जेल में फांसी का इंतजार करते हुए भगत सिंह ने मार्क्सवाद का सिलसिलेवार ढंग से अध्ययन किया और “मैं नास्तिक क्यों हूं” समेत कई महत्वपूर्ण लेख लिखे. भगत सिंह के क्रांतिकारी आतंकवादी से मार्क्सवादी में रूपान्तरण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह रहा कि यह बदलाव महज विचारधारा के धरातल पर नहीं था बल्कि भारतीय समाज का गहन विश्लेषण करके उसके रूपान्तरण के लिये एक संपूर्ण क्रांतिकारी कार्यक्रम तैयार करने के तमाम लक्षण भी इस प्रक्रिया में दिखाई पड़े थे.

अगाध देशभक्ति, दृढ़ निश्चय, क्रांतिकारी वीरता और जबर्दस्त नेतृत्व क्षमता से लैस भगत सिंह में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का क्रांतिकारी ध्रुव बनने और गांधी-नेहरू के राजनीतिक वर्चस्व को जानदार चुनौती देने की क्षमता मौजूद थी. कांग्रेस ने इस महान क्रांतिकारी की जान बचाने के लिए महज नाम मात्र की कोशिश की, लेकिन जनता के दिलों में निर्विवाद रूप से भगत सिंह और उनके साथी चन्द्रशेखर आजाद का नाम भारत की आजादी की लड़ाई के दो महानतम किवदंती नायकों के बतौर सुरक्षित है. चन्द्रशेखर आजाद ने कई बार ब्रिटिश पुलिस को झांसा दिया मगर अन्ततः इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस के साथ हुई एक अचानक मुठभेड़ में उन्होंने शहीदों की मौत धारण की. भगत सिंह का नारा ‘इंकलाब जिंदाबाद’ इन्साफ, आजादी और लोकतंत्र के लिए भारत में चलने वाले हर संघर्ष का युद्धघोष बन गया है.


लाहौर अदालत में लेनिन दिवस

आज लाहौर षड़यंत्र केस की कार्रवाई शुरू होने से पहले अदालत में घुसते वक्त सभी अठारह आरोपी, जिन्होंने अपने गलों में लाल रूमाल बांधे हुए थे, “इंकलाब  जिन्दाबाद”, “कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल जिन्दाबाद”, “लेनिन अमर रहे”, “सर्वहारा जिन्दाबाद” और “साम्राज्यवाद मुर्दाबाद” के नारे लगाते हुए कठघरों में अपनी जगह पर पहुंचे.

भगत सिंह ने मेजिस्ट्रेट को सूचित किया कि वह और उनके साथ के अन्य आरोपी लेनिन दिवस मना रहे हैं. भगत सिंह ने उनसे अनुरोध किया कि वे अपने खर्च पर मास्को में तीसरे इन्टरनेशनल के अध्यक्ष के पास निम्नलिखित सन्देश भिजवा दें: लेनिन दिवस के उपलक्ष्य पर हम कामरेड लेनिन के उद्देश्य के विजयपूर्ण अभियान के प्रति बिरादराना अभिनन्दन व्यक्त करते हैं. हम सोवियत रूस द्वारा किये जा रहे महान प्रयोग की पूर्ण सफलता की कामना करते हैं. हम विश्व क्रांतिकारी आन्दोलन के साथ जुड़ने की आकांक्षा व्यक्त करते हैं. श्रमिक सैन्यदल की विजय हो. पूंजीपतियों का नाश हो. साम्राज्यवाद मुर्दाबाद.

- हिन्दुस्तान टाइम्स, 26 जनवरी 1930

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सुखदेव                                                                  भगत सिंह                                                                                                      राजगुरु

इंकलाब जिन्दाबाद

बहरों को सुनाने के लिये ऊंची आवाज की जरूरत होती है. ऐसे ही एक अवसर पर फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियें द्वारा कहे गए इन अमर शब्दों के साथ हम अपनी इस कार्रवाई को दृढ़ता से जायज ठहराते हैं.

पिछले दस वर्षों के अपमानजनक इतिहास को दोहराए बिना ... हम बार-बार यही देखते हैं कि जब साइमन कमीशन से चन्द और छोटे-मोटे सुधारों की उम्मीद लगाए लोग अपेक्षित लाभ के बंटवारे पर झगड़ रहे हैं, तो सरकार हम पर पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल जैसे नए-नए दमनकारी कानून लाद रही है, जबकि प्रेस सेडिशन बिल अगले सत्र के लिए सुरक्षित रखा गया है. खुले तौर पर काम कर रहे मजदूर नेताओं की निर्विचार गिरफ्तारी साफ दिखा रही है कि हवा का रुख किस ओर है. इन अत्यंत उत्तेजक स्थितियों में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी ने पूरी संजीदगी के साथ अपनी जिम्मेवारी को मुकम्मिल तौर पर समझते हुए अपने सेनादल को इस खास कार्रवाई को अंजाम देने का निर्देश दिया है जिससे इस अपमानजनक प्रहसन को बन्द किया जा सके. ...

जन प्रतिनिधि अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों में वापस लौटें और जनसमुदाय को आसन्न क्रांति के लिये तैयार करें, और सरकार को भी यह बता दिया जाय कि असहाय भारतीय जनता की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल के खिलाफ प्रतिवाद करते हुए तथा लाला लाजपत राय की निर्मम हत्या का विरोध करते हुए हम इतिहास द्वारा बार-बार दोहराए गए इस सबक पर जोर देना चाहते हैं कि किसी व्यक्ति को तो मार देना आसान है मगर इससे उस व्यक्ति के विचारों की आप हत्या नहीं कर सकते. बड़े-बड़े साम्राज्यवाद ढह चुके हैं, किन्तु विचार जीवित रहे हैं. ... बूर्बों राजवंशियों

और जारों का पतन हो गया, जबकि इन्कलाब का कारवां विजयपूर्वक उनके सिरों के ऊपर से गुजर गया ... इन्कलाब जिन्दावाद!

(8-4-1929 को लेजिस्लेटिव असेम्बली पर बम फेंकते समय भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा जारी किए गए पर्चें से संक्षिप्त अंश.) टाइम्‍स ऑफ इंडिया, 9 अप्रैल, 1929



मेरठ ‘षड्यंत्र’ केस

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 23 मार्च 1931 को फांसी पर लटका दिया गया. उसी दौरान 31 कम्युनिस्ट नेता और संगठक मेरठ षड्यंत्र कांड नाम का एक झूठा मुकदमा झेल रहे थे. गिरफ्तार किए गये नेताओं में ब्रिटेन के तीन कम्युनिस्ट -- बेंजामिन फ्रांसिस ब्रेडले, फिलिप स्प्रैट और लेस्टर हचिंसन भी शामिल थे. भारतीय मजदूर वर्ग को संगठित करने के साझा मिशन में भारतीय कामरेडों के साथ ये कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे थे. कम्युनिस्टों ने भारत में ब्रिटिश राज के असली रूप को उजागर करने और क्रांति तथा आजादी के कम्युनिस्ट लक्ष्य को प्रचारित करने के लिए इस मुकदमे की सुनवाई का बखूबी इस्तेमाल किया. इस मुकदमे का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विरोध हुआ और ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों तथा अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन के दबाव में हाईकोर्ट को निचली अदालतों द्वारा दी गयी लंबी कैद की सजाओं में कटौती करनी पड़ी.

बॉम्बे क्रानिकल, 21 मार्च 1929


शोलापुर कम्यून व चटगांव शस्त्रागार पर हमला

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प्रीतिलता वाडेदार

औद्योगिक मजदूरों और गांवों के भूमिहीनों के प्रति इस खास किस्म के गांधीवादी उपेक्षाभाव के बावजूद इन वर्गों के लोगों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में जमकर हिस्सा लिया. गांधी ने अपने आश्रम के 71 अनुयाइयों के साथ 12 मार्च से 6 अप्रैल तक बहुचर्चित दांडी मार्च सम्पन्न किया. नमक जैसा सीधा-सादा मुद्दा जनता की गोलबंदी का सशक्त आधार साबित हुआ और शीघ्र ही यह आन्दोलन देश भर में फैल गया. अप्रैल के मध्य में नेहरू की गिरफ्तारी के खिलाफ कलकत्ते के पास बजबज में पुलिस और जनता के बीच झड़पें हुईं. बंगाल के जूट मिल मजदूरों का जोश उन दिनों उफान पर था. महज एक साल पहले उन्होंने एक बेहद कामयाब हड़ताल के जरिये प्रति हफ्ते काम के घंटे 54 से बढ़ाकर 60 करने की मिल मालिकों की कोशिश को करारी शिकस्त दी थी. कलकत्ते के यातायात कर्मियों ने भी एक जूझारू आन्दोलन छेड़ा. उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत के पेशावर में भी बड़ा जन-उभार आया. 23 अप्रैल 1930 को खान अब्दुल गफ्फार खां (सीमान्त गांधी) और दूसरे नेताओं की गिरफ्तारी के खिलाफ पेशावर में 10 दिनों तक बलवा जारी रहा और आखिरकार 4 मई को मार्शल लॉ लगा दिया गया. चंद्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाल रेजिमेन्ट की टुकड़ी ने शान्तिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया. इस घटना ने लड़ाकू जनता और सशस्त्र फौजों के बीच एक नई एकता की राह खोल दी. कराची के बंदरगाह कर्मी और मद्रास के चूलई मिल के कर्मचारी भी आन्दोलन में उतर आए थे.

4 मई को गांधी की गिरफ्तारी के बाद इस उभार का चरम बिन्दु शोलापुर में देखने को मिला. वहां की तमाम कपड़ा मिलों के मजदूर 7 मई से हड़ताल पर चले गए. 16 मई को मार्शल लॉ लगाए जाने के पहले तक पूरा शहर एक तरह से मजदूरों के कब्जे में रहा. शराब की दुकानें फूंक दी गई और पुलिस चौकियों, अदालतों, पालिका भवनों और रेलवे स्टेशनों पर हमले हुए. शहर में एक किस्म की समानान्तर सरकार चली और पूरे देश में यह ‘शोलापुर के कम्यून’ के नाम से मशहूर हुआ.


सूर्य सेन की अपील

क्रांति के अजीज सिपाहियो,

भारत में क्रांति की जिम्मेवारी इण्डियन रिपब्लिकन आर्मी के कन्धों पर आ पड़ी है.
हम चटगांव के क्रांतिकारियों को अपने राष्ट्र की उम्मीदों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये क्रांति के देशभक्तिपूर्ण उद्देश्य की ओर कूच करने का सम्मान हासिल हुआ है.
मैं, इण्डियन रिपब्लिकन आर्मी की चटगांव शाखा का अध्यक्ष सूर्य सेन घोषणा करता हूँ कि रिपब्लिकन आर्मी की चटगांव में मौजूद परिषद अपने-आपको निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करने के लिए अस्थायी क्रांतिकारी सरकार के बतौर संगठित करती है.
1. आज हासिल विजय की रक्षा करना और उसे कायम रखना;
2. राष्ट्रीय मुक्ति के लिये सशस्त्र संघर्ष को तीव्र करना और उसका विस्तार करना;
3. अपने अन्दर मौजूद दुश्मन एजेंटों का दमन करना;
4. अपराधियों और लुटेरों पर अंकुश लगाना;
5. यह अस्थायी क्रांतिकारी सरकार बाद में जैसा निर्णय ले उसके अनुसार कार्रवाई करना.
यह अस्थायी क्रांतिकारी सरकार चटगांव के तमाम सच्चे सपूतों और सुपुत्रियों से पूर्ण आनुगत्व, वफादारी और सक्रिय सहयोग की आशा करती है और उसकी मांग करती है.
हमारे पवित्र मुक्तियुद्ध की विजय में पूर्ण विश्वास के साथ,
ब्रिटिश लुटेरों के प्रति कोई दया नहीं! गद्दारों और लुटेरों का नाश हो !
अस्थायी क्रांतिकारी सरकार जिन्दाबाद !

-- 10 अप्रैल 1930 को चटगांव की सशस्त्र कार्रवाई के पहले दौर के बाद
सूर्य सेन द्वारा जारी की गई अपील


इस बीच बंगाल में क्रांतिकारी हथियारबंद संघर्ष नई ऊंचाइयां छू रहा था. “मास्टर-दा” सूर्यसेन के नेतृत्व में चटगांव के क्रांतिकारियों के एक जत्थे ने स्थानीय शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया. उन्होंने इण्डियन रिपब्लिकन आर्मी के नाम से स्वाधीनता की घोषणा भी जारी कर दी. चटगांव के क्रांतिकारियों में प्रीतिलता वाद्देदार और कल्पना दत्त सरीखी क्रांतिकारी युवतियों की भूमिका महत्वपूर्ण थीं. 8 दिसम्बर 1930 को विनय, बादल और दिनेश की मशहूर त्रिमूर्ति ने कलकत्ते की रायटर्स बिल्डिंग मुख्यालय पर हल्ला बोल दिया.

प्रांतों में कांग्रेसी शासनः पूत के पांव पालने में

प्रांतों में 27 महीने के कांग्रेसी शासन से स्पष्ट संकेत मिलने लगे कि उसके नेतृत्व वाले सामाजिक गठबंधन का चरित्र कितना अनुदारवादी है. इधर ऐटक और अखिल भारतीय किसान सभा (लखनऊ में अप्रैल 1936 को स्वामी सहजानन्द सरस्वती की अध्यक्षता में गठित) के अलावा कांग्रेस महासमिति के अधिवेशनों और बिहार तथा संयुक्त प्रांत की प्रदेश कांग्रेस समितियों में मजदूरों और किसानों के हित में कई लोकतांत्रिक मांगें पहले ही सूत्रबद्ध हो चुकी थीं. मिसाल के तौर पर अप्रैल 1936 के किसान घोषणापत्र में जमींदारी उन्मूलन, 500 रु. से अधिक की कृषि आमदनी पर क्रमबद्ध टैक्स, कर्जमाफी, लगान में 50 फीसदी की कटौती, सभी काश्तकारों को जमीन का मालिकाना हक, बेगारी की समाप्ति और वनों पर आदिवासियों को उनके पारंपरिक अधिकारों की वापसी जैसी मांगे पेश की गई थीं. लेकिन कांग्रेस की प्रान्तीय सरकारों ने इस दिशा में कोई भी महत्वपूर्ण कदम उठाने से इन्कार कर दिया. विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस के कृषि सम्बंधी विधेयकों की मुख्य खासियत ही यह थी कि उनमें “जमींदारों को खास कोई तकलीफ न हो” इसका पूरा खयाल रखा गया था.

जमींदारों द्वारा सितम्बर 1937 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन छेड़ने से बिहार सरकार के प्रस्तावित काश्तकारी विधेयक को काफी नरम बना दिया गया. तीन ही महीने के अन्दर मौलाना आजाद और राजेन्द्र प्रसाद ने पटना में जमींदारों के साथ गुप्त सन्धि कर ली. वैसे संयुक्त प्रांत के अवध क्षेत्र में वैधानिक काश्तकारों को पुश्तैनी दखलकार का दर्जा मिल गया. बिहार में बकाश्त भूमि से बेदखल कर दिए गए दखलकार रैयत को आंशिक तौर पर फिर पुराना दर्जा मिला. बम्बई में चरागाह शुल्क समाप्त कर दिया गया तथा मद्रास में उसमें कटौती कर दी गई.

कांग्रेस ने ये सीमित कृषि सुधार भी जबर्दस्त किसान आन्दोलन के दबाव में किए. बिहार में तो कांग्रेस मंत्रिमंडल के तहत विधान सभा के पहले सत्र में ही किसान प्रदर्शनकारी सदन के अन्दर चले आए और उन्होंने कुर्सियां घेर ली. सहजानन्द सरस्वती का वामपंथ की ओर झुकाव बढ़ता गया और ‘डंडा हमारा जिन्दाबाद’ जैसे नारों के माध्यम से उन्होंने उग्र आन्दोलन की वकालत की. किसान सभा ने अक्टूबर 1937 में लाल झण्डे को अपने बैनर के तौर पर स्वीकार किया. मई 1937 में कुमिल्ला अधिवेशन में किसान सभा ने गांधीवादी वर्ग समन्वय की नीति को खारिज कर दिया और कृषि क्रांति को अपना लक्ष्य घोषित कर दिया. अप्रैल 1939 में गया अधिवेशन में भूमिहीन मजदूरों के साथ एकता का आह्वान किया गया.

प्रान्तीय सरकारों की यह विश्वासघाती भूमिका मजदूर मोर्चे पर और भी स्पष्ट रूप में सामने आई. बंगाल में तो कांग्रेस कार्यसमिति ने मार्च से मई 1937 तक हड़ताल पर रहे जूट मिल मजदूरों के साथ एकजुटता प्रदर्शित की और दमनकारी नीतियों के लिए फजलुल हक की गैर-कांग्रेसी सरकार की निन्दा की. लेकिन दूसरे प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें ऐसी ही नीतियों पर खुल कर अमल करती रहीं. असम में ब्रिटिश स्वामित्व वाली असम ऑयल कम्पनी में 1939 में हुई हड़ताल के दौरान एन. सी. बरदोलोई के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने हड़ताल को कुचलने के लिये युद्धकाल के डिफेन्स ऑफ इण्डिया कानूनों का खुलकर इस्तेमाल होने दिया और बम्बई में कांग्रेसी सरकार ने नवम्बर 1938 में आनन-फानन में बाम्बे ट्रेड्स डिस्प्यूट्स ऐक्ट पारित कर दिया जो 1929 के कानून की अपेक्षा बदतर था. इसमें समझौता वार्ता को अनिवार्य बना दिया गया. इस तरह लगभग हर किस्म की हड़ताल को गैर-कानूनी बना दिया गया और गैर-कानूनी हड़तालों के लिए 3 महीने की जगह 6 महीने की कैद का प्रावधान कर दिया गया. बम्बई के गवर्नर ने इस ऐक्ट को “काबिले तारीफ” कहा. वहीं नेहरू को यह ऐक्ट “कुल मिलाकर ... अच्छा” लगा. अहमदाबाद के गांधीवादी मजदूर नेताओं के अलावा पूरे ट्रेड यूनियन आन्दोलन ने इस काले कानून का विरोध किया. 6 नवम्बर को बम्बई में 80,000 मजदूरों ने विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया. इसे एस. ए. डांगे, इंदुलाल याज्ञिक और अम्बेडकर ने सम्बोधित किया. दूसरे दिन पूरे प्रांत में आम हड़ताल रही.

1942 : भारत छोड़ो आन्दोलन और ऐतिहासिक देशव्यापी जन उभार

गांधी की पहल पर कांग्रेस कार्यसमिति ने 8 अगस्त 1942 को मशहूर ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित किया और “बड़े-से-बड़े पैमाने पर अहिंसक जन आन्दोलन” छेड़ने का आह्वान किया. कांग्रेस नेतृत्व की तत्काल गिरफ्तारी की आशंका को देखते हुए ही यह बात जोड़ दी गई कि “आजादी चाहने वाले हर भारतीय को खुद ही अपना मार्गदर्शक बनना होगा”. गांधी ने इस मौके पर चर्चित “करो या मरो” का नारा दिया और इस भाषण में यहां तक कहा कि “अगर आम हड़ताल की नौबत आ भी गई तो मैं पीछे नहीं हटूंगा”.

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भारत छोड़ो आन्दोलन, बम्बई, अगस्त 1942

तमाम कांग्रेसी नेताओं को 9 अगस्त की सुबह गिरफ्तार कर दूसरी जगहों में ले जाया गया. अंग्रेजों ने भारी दमन चक्र चलाया और प्रतिरोध में सारे देश में हिंसक संघर्ष शुरू हो गया. इससे जाहिर है कि आखिरकार जिस घटना को महान “भारत छोड़ो आन्दोलन” के बतौर जाना जाता है, वह मुख्यतः एक स्वतःस्फूर्त विस्फोट था, जिसका नेतृत्व कुछेक इलाकों में भूमिगत समाजवादी नेताओं ने तथा स्थानीय स्तर के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने संभाल रखा था. लगातार हड़तालों से बम्बई और कलकत्ता हिल उठे. दिल्ली में हड़ताली मजदूरों ने पुलिस से लोहा लिया और पटना में 11 अगस्त को सचिवालय के पास भारी झड़प के बाद दो दिनों के लिए शहर में अंग्रेजी राज का नियंत्रण समाप्त सा हो गया. टिस्को के मजदूरों ने राष्ट्रीय सरकार बनने तक काम पर जाने से मना कर दिया. 20 अगस्त से 13 दिनों तक टाटा स्टील में कामकाज ठप रहा. अहमदाबाद के कपड़ा मजदूरों ने साढ़े तीन महीने लम्बी हड़ताल की. मद्रास में पुलिस फायरिंग में बी एण्ड सी मिल्स के 11 मजदूर शहीद हो गए.

भारत छोड़ो आन्दोलन के दूसरे चरण में गतिविधियों का केन्द्र बने गांव. बड़ी संख्या में छात्रों ने गांवों की ओर रुख किया. बड़े पैमाने पर टेलीफोन और तार की लाइनों को काट दिया गया और शक्तिशाली किसान आन्दोलन के ज्वार के बीच कई जगहों पर “राष्ट्रीय सरकार” का गठन हुआ. इनमें बंगाल के मेदिनीपुर जिले का तमलूक, महाराष्ट्र में सतारा और उड़ीसा में तालचर प्रमुख हैं. सरकारी आंकड़ों से भी उस आन्दोलन की व्यापकता और तीव्रता का अन्दाजा लगाया जा सकता है. 1943 के अन्त तक 91,836 लोग गिरफ्तार किए जा चुके थे. पुलिस और सेना की फायरिंग में 1,060 लोग मारे गए, विद्रोह को दबाने के क्रम में 63 पुलिस कर्मियों की जानें गई और 216 पुलिसकर्मी आन्दोलनकारियों के साथ मिल गए, जिनमें लगभग सभी बिहार से थे. 208 पुलिस चौकियों, 332 रेलवे स्टेशनों, 945 डाकघरों को नष्ट या बुरी तरह तहस-नहस कर दिया गया. बम विस्फोट की 664 घटनाएं हुईं जिनमें अधिकतर बम्बई में ही थी.

उथल-पुथल भरा चौथा दशक

भारत छोड़ो आन्दोलन कांग्रेस का आखिरी जन आन्दोलन था. फासीवाद की हार के साथ ही दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ. नई स्थिति में ब्रिटिश उपनिवेशवाद काफी कमजोर पड़ चुका था. भारत छोड़ो आन्दोलन जैसे जन उभार का दुहराव रोकने और भारत में अपने दीर्घकालिक हितों की रक्षा के उद्देश्य से अंग्रेजों ने तुरंत ही सत्ता के हस्तांतरण के लिए बातचीत की प्रक्रिया शुरू कर दी. भारतीय पूंजीपति भी जल्द-से-जल्द सत्ता हथियाना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि इसमें जितनी देर होगी, आजाद भारत के शक्ति संतुलन में मजदूर वर्ग और कम्युनिस्टों का कद उतना ही ऊंचा हो आयेगा. ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और उनके भावी भारतीय उत्तराधिकारियों के लिये क्रांति एक वास्तविक खतरा बन चुकी थी.

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बंगाल में अकाल, जैनल अबेदीन के समकालीन रे खांकन 1943

1942 की भूल के कारण हुए अलगाव के बाद कम्युनिस्टों ने जल्द ही बड़े पैमाने पर आन्दोलनात्मक कार्यवाहियां शुरू कर दी. 1943 के भयंकर अकाल के दौरान कम्युनिस्ट पूरी लगन और निष्ठा के साथ राहत कार्यो में जुटे रहे. राहत कार्यों और बाद के आन्दोलनों में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों की संस्था भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की भूमिका शानदार रही.

साम्प्रदायिक तनाव के माहौल में जब लगभग तमाम जमे-जमाए नेता सत्ता में अपने हिस्से के लिए गिद्ध-दृष्टि जमाए थे तब लाल झण्डा थामे मेहनतकश अवाम ही साम्प्रदायिक सौहार्द तथा धर्मनिरपेक्षता, निस्वार्थ बलिदान और साम्राज्यवाद-विरोधी प्रगतिशील राष्ट्रवाद के उसूलों को बुलन्द किये हुए थी.

आई.एन.ए. मामले की सुनवाई और बम्बई का नौसेना विद्रोह

दूसरे विश्व युद्ध के अन्तिम चरण में 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष चन्द्र बोस ने जापानी नियन्त्रण वाले सिंगापुर से “दिल्ली चलो” का मशहूर नारा दिया. उन्होंने आजाद हिन्द सरकार और इण्डियन नेशनल आर्मी (आई.एन.ए.) की स्थापना की घोषणा की. जापान द्वारा कैदी बनाए गए 60,000 भारतीय युद्ध बन्दियों में से लगभग 20,000 को गोलबन्द करके आई.एन.ए. की स्थापना हुई. 1944 में मार्च और जून महीने के बीच आई.एन.ए. की टुकड़ियां जापानी फौज के साथ इम्फाल तक पहुंची. लेकिन यह अभियान सैनिक दृष्टि से असफल रहा, हालांकि आम भारतीय जन-मानस पर इसका जबर्दस्त असर पड़ा.

ब्रिटिश शासकों ने नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आई.एन.ए. के बन्दियों की सार्वजनिक सुनवाई शुरू की. कलकत्ता में इसका जोरदार विरोध शुरू हुआ. 20 नवम्बर को कलकत्ता के छात्रों ने आई.एन.ए. के बन्दियों को रिहाई की मांग पर रात भर प्रदर्शन किया. इस दौरान पुलिस फायरिंग में दो छात्र शहीद हुए. हजारों टैक्सी ड्राइवर और ट्राम तथा नगर-निगम के कर्मचारी छात्रों के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर सड़क पर उतर पड़े. 22-23 नवम्बर को कलकत्ता की सड़कों पर झड़पें होती रहीं. इस दौरान पुलिस की गोलियों से 33 लोगों की मुत्यु हुई. आई.एन.ए. के अब्दुल रशीद को सात साल सश्रम कारावास की सजा सुनाए जाने के विरोध में कलकत्ता में 11 से 13 फरवरी तक विरोध प्रदर्शन होते रहे. तीन दिनों तक सड़कों पर चले प्रदर्शन में 84 लोग मारे गए और 300 जख्मी हुए.

इधर कलकत्ते में आई.एन.ए. के बन्दियों की रिहाई के लिये आन्दोलन उभार पर था, उधर बम्बई में बहादुर नौसैनिकों ने विद्रोह शुरू कर दिया. इस विद्रोह का सिलसिला 1905 की रूसी क्रांति के दौरान काला सागर नौसैनिक बेड़े में हुए विद्रोह से काफी मिलता-जुलता है. उस विद्रोह पर रूसी फिल्मकार सर्गेई आइजेन्स्टीन ने बैटलशिप पोटेम्किन नामक सदाबहार क्लासिक फिल्म बनाई. भारत में हुए नौसैनिक विद्रोह पर कोई फिल्म तो नहीं बनी, पर नाटककार उत्पल दत्त ने साठ के दशक में रचित अपने प्रेरणादायक नाटक कल्लोल में महान नौसैनिक विद्रोहियों को श्रद्धांजलि दी है.

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आजाद हिंद फौज, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस तथा रानी झांसी रेजिमेंट की कमाण्डर कै प्टन लक्ष्‍मी स्वामीनाथन

‘तलवार’ नामक सिग्नलिंग स्कूल के नाविकों ने खराब भोजन और नस्लवादी आधार पर अपमान के खिलाफ 18 फरवरी 1946 को भूख हड़ताल कर दी. हड़ताल जल्द ही समुद्रतट पर स्थित कैसल और फोर्ट बैरक में तथा बम्बई के 22 जहाजों में फैल गई. हड़ताली नौसैनिकों ने जहाजों पर कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के झण्डे लहरा दिए. नौसेना केन्द्रीय हड़ताल समिति ने बेहतर भोजन और गोरे व भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन की मांग के साथ ही आई.एन.ए. और दूसरे राज-बन्दियों की रिहाई तथा इण्डोनेशिया में भारतीय सैनिकों की वापसी जैसी मांगे भी जोड़ दी.

कैसल बैरक में 21 फरवरी को नौसैनिकों ने घेराबंदी तोड़ने की कोशिश की तो लड़ाई छिड़ गई. 22 फरवरी तक देश के सभी नौसैनिक अड्डों में हड़ताल फैल चुकी थी. इसमें 78 जहाज, 20 तटीय ठिकाने और 20,000 नौसैनिक शामिल थे.

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नौसैनिकों ने विद्रोह नेशनल हेराल्ड, 18 फरवरी, 1946 बम्बई

अरुणा आसफ अली और अच्युत पटवर्धन जैसे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं के समर्थन से सीपीआई की बम्बई इकाई ने 22 फरवरी को आम हड़ताल का आह्वान किया. कांग्रेस और मुस्लिम लीग के विरोध के बावजूद 30,000 मजदूरों ने काम बन्द कर दिया. लगभग सभी मिलें ठप हो गईं और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सड़कों पर हुई झड़पों में 228 लोग मारे गए और 1046 जख्मी हुए. इस मोड़ पर वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने यदि हस्तक्षेप किया भी तो महज विद्रोह को दबाने के लिए. 23 फरवरी को पटेल ने नौसैनिकों को यह आश्वासन देकर हथियार डालने पर राजी करा लिया, कि उनकी मांगें मान ली जायेंगी और विद्रोह करने के लिए किसी को सजा नहीं दी जायेगी. लेकिन इस वादे को जल्द ही भुला दिया गया. पटेल ने कहा कि “सेना में अनुशासन के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा सकता.” नेहरू ने “हिंसा के अंधाधुंध विस्फोट” पर काबू पाने की जरूरत बताई और गांधी ने नौसैनिकों की निन्दा करते हुए कहा कि उन्होंने “भारत के लिये एक खराब और अशोभनीय मिसाल कायम कर दी है.”

जुलाई 1946 में मजदूर वर्ग की पहल

1946 में मजदूर वर्ग के आन्दोलन और किसान विद्रोह ने तमाम पिछले रिकार्ड तोड़ दिए. इस साल हड़तालों की उमड़ी लहर में 19,41,948 मजदूर शरीक हुए और काम ठप होने की 1,629 घटनाएं हुई. सरकारी कर्मचारियों के भी खुलकर संघर्ष में उतरने से हड़तालों का स्वरूप देशव्यापी होता चला गया. इस मायने में डाक-तार कर्मचारियों की जुलाई में हुई हड़ताल उल्लेखनीय है. पोस्टमैन लोअर ग्रेड स्टाफ यूनियन ने 11 जुलाई 1946 से हड़ताल कर दी. ऑल इण्डिया टेलीग्राफ यूनियन भी उसमें शामिल हो गई. 21 जुलाई तक बंगाल और असम के डाक-तार कर्मियों ने भी काम बंद कर दिया. इस हड़ताल के समर्थन में बम्बई में 22 जुलाई और मद्रास में 23 जुलाई को औद्योगिक हड़ताल हुई. 29 जुलाई को बंगाल और असम में आम हड़तालें आयोजित हुई.

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डाक कर्मचारियों की हड़ताल , बम्बई जुलई 1946

उसी दिन कलकत्ता की सड़कों पर जन-समुद्र उमड़ पड़ा. इतनी भारी स्वतःस्फूर्त जन-गोलबंदी उसके बाद फिर शायद बिरले ही कभी हुई हो. इस रैली में यह विश्वास व्यक्त किया गया कि “इस हड़ताल से देश के मजदूर आन्दोलन में एकता और लड़ाकू चेतना का नया अध्याय शुरू हो गया है”. हड़तालों की यह लहर 1947 में भी जारी रही. कलकत्ता के ट्राम मजदूरों ने 85 दिनों तक हड़ताल की. कानपुर, कोयम्बटूर और कराची जैसे शहर भी मजदूर वर्ग की कार्रवाई के महत्वपूर्ण केन्द्र के बतौर उभरे थे.

तेभागा, पुन्नाप्रा-वायलार, तेलंगाना ...

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तेभागा

कम्युनिस्टों के नेतृत्व में होने वाले किसान आन्दोलन का भी यह स्वर्णिम दौर था. कलकत्ते में साम्प्रदायिक कल्लेआम के तुरंत बाद किसान सभा की बंगाल इकाई ने बटाईदारों के लिये फसल के दो-तिहाई हिस्से की मांग पर सितम्बर 1946 में लोकप्रिय तेभागा विद्रोह छेड़ दिया. उत्तरी बंगाल इस जुझारू किसान उभार का केन्द्र बना. उत्तरी बंगाल में दिनाजपुर जिले के ठाकुरगांव सब-डिवीजन में और पास के जलपाईगुड़ी, रंगपुर और मालदा जिलों के अलावा यह आन्दोलन बंगाल के अन्य भागों मैमनसिंह (किशोरगंज), मेदिनीपुर (महिषादल, सुताहाटा और नंदीग्राम) तथा 24 परगना (काकद्वीप) में भी व्यापक रूप से फैल गया.

केरल के त्रावणकोर-कोचीन इलाके में कम्युनिस्टों ने नारियल के रेशों की फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों, मछुआरों, ताड़ी उतारने वालों और खेत मजदूरों के बीच मजबूत आधार तैयार कर लिया था. 1946 में इस रियासत के शासकों ने यहां अमेरिका की तर्ज पर राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने का इरादा जताया. इस पर कम्युनिस्टों ने कहा कि वे अमरीकी मॉडल को अरब सागर में फेंक देंगे. अलेप्पी क्षेत्र में कम्युनिस्टों पर जमकर जुल्म ढाए गए. इस पृष्ठभूमि में अलेप्पी-शेरतलाई इलाके में 22 अक्तूबर को राजनीतिक हड़ताल शुरू हुई और 24 अक्टूबर को पुन्नाप्रा थाने पर हमला किया गया, जिसमें आंशिक सफलता मिली. 25 अक्टूबर को इलाके में सैनिक शासन लागू कर दिया गया और सेना ने शेरतलाई के पास वायलार में आन्‍दोलन के मुख्यालय में भारी खून-खराबे के बाद प्रवेश किया. थोड़े ही समय तक चले पुन्नाप्रा-वायलार विद्रोह में कम-से-कम 800 लोग मारे गए.

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तेलंगाना

जहां पुन्नाप्रा-वायलार महज अल्प अवधि के लिये ही चल सका था, वहीं आंध्र प्रदेश के तेलंगाना में जुलाई 1946 से अक्टूबर 1951 तक विद्रोह टिका रहा. कम्युनिस्ट नेतृत्व में हुए दीर्घकालीन किसान छापामार युद्ध का यह एक आदर्श उदाहरण है. यह विद्रोह 4 जुलाई 1946 को तेलंगाना के सबसे बड़े और क्रूर जमींदारों के लठैतों द्वारा नालगोंडा जिले के जंगाव तालुक में ग्रामीण क्रांतिकारी डोड्डी कुमारैया की हत्या के बाद शुरू हुआ. कुमारैया एक गरीब धोबिन की जमीन को बचाने की कोशिश कर रहे थे. किसान प्रतिरोध की लपटों ने जल्द ही नालगोंडा के जंगाव, सुर्यपेट और हजूरनगर तालुकों के अलावा पास के वारंगल और खम्मम जिलों को भी अपनी चपेट में ले लिया.

बर्बर दमन का मुकाबला करने के लिये 1947 के प्रारंभ से ही हथियारबंद छापामार दस्तों का गठन होने लगा. अगस्त 1947 से सितम्बर 1948 तक यह विद्रोह चरम ऊंचाई पर जा पहुंचा था. इन दिनों विद्रोह का असर 16,000 वर्गमील इलाके में फैले 3,000 गांवों के तीस लाख से भी ज्यादा लोगों तक पहुंचा. ग्राम रक्षा दलों में 10,000 से ज्यादा स्वयंसेवक थे जबकि हथियारबंद दस्तों में 2,000 से ज्यादा स्थायी सैनिक थे. तेभागा की तरह तेलंगाना में भी महिलाओं की शानदार भागीदारी रही जो इस आन्दोलन के प्रभाव को बढ़ाने का एक उल्लेखनीय पहलू बना. तेलंगाना विद्रोह के महत्वपूर्ण नेताओं में से एक पी सुन्दरैय्या ने खासकर मुक्त क्षेत्रों में इस आन्दोलन के गहरे और बहुआयामी असर के बारे में लिखा है. इनमें बुनियादी भूमि सुधारों पर अमल और ग्रामीण गरीबों की बेहतरी से लेकर महिलाओं की हालत सुधारने के लिए किए गए कार्य तथा अन्य प्रगतिशील सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रसार शामिल है. लेकिन तेलंगाना की सबसे बड़ी उपलब्धि थी उसका महान क्रांतिकारी आवेग. यह भारत में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट रणनीति का पहला प्रमुख और व्यापक प्रयोग था.

punnapara
पुन्नाप्रा-वायलार

तेलंगाना ने 1947 में हुए सत्ता के हस्तांतरण के असली चेहरे को उजागर कर दिया, जबकि उत्पीड़ित किसान समुदाय सम्पूर्ण भूमि सुधार और सामंतवाद के खात्मे के लिये लड़ रहा था, जिसे पूरा किये बगैर भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में सच्ची आजादी आ ही नहीं सकती. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस की सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी पर पाबंदी लगा दी और  तेलंगाना विद्रोह को कुचलने के लिये सितम्बर 1948 में फौज भेज दी. एक अनुमान के अनुसार तेलंगाना के विद्रोह में कम-से-कम 4,000 कम्युनिस्ट कार्यकर्ता व किसान योद्धा मारे गए. 10,000 पर पाशविक जुल्म ढाया गया जिनमें से बहुतों की बाद में मौत हो गई, और कम-से-कम 50,000 किसान जनता को निर्मम यातनाएं दी गई.

देश को साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित होने देने के बाद आधुनिक भारत के “लौह पुरुष” सरदार पटेल ने विभाजित भारत के एकीकरण का जिम्मा संभाला. रियासतों में चल रहे जन आन्दोलनों और पुन्नाप्रा-वायलार तथा तेलंगाना जैसे विद्रोहों से 600 देशी रियासतों की बुनियाद हिल चुकी थी. पटेल ने अपने राज से “बेदखल” हो गए राजाओं और नवाबों को मोटी रकम का प्रिवीपर्स (privy purses) देकर देश के एकीकरण का कार्य पूरा किया. रजवाड़ों के कई सदस्यों को सत्ता के बंटवारे में हिस्सा दिया गया और उनमें से कई राज्यपाल, मंत्री, राजदूत आदि बनाए गए.

आज के भारत में मजदूर वर्ग और किसान

स्‍वतंत्रता के इन पचहत्‍तर सालों में भारत के मजदूर वर्ग और किसानों ने बहुत से संघर्ष किये हैं. इन संघर्षों के बल आज भारत में राज कर रहे पूंजीपतियों और जमीन्‍दारों के गठजोड़ पर दबाव बना कर उन्‍होंने कई अधिकार हासिल किये हैं. लेकिन आज जनसंघर्षों के बल पर हासिल किये गये प्रत्‍येक अधिकार पर वर्तमान शासकों द्वारा घातक हमला हो रहा है. वर्तमान शासक आरएसएस एवं हिन्‍दू महासभा के वंशज हैं, जिन संगठनों ने स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन के साथ गद्दारी कर तब ब्रिटिश शासकों की सेवा की थी. वे आज श्रम कानूनों, कार्यस्‍थल के हालातों, यूनियन नेताओं और मजदूर आन्‍दोलनों के व्‍यवहार आदि में उसी औपनिवेशिक ‘कम्‍पनी राज’ का अक्‍स देखना चाहते हैं, ताकि पूंजीपतियों की सेवा हो और मजदूरों को बलि पर चढ़ाया जा सके. मोदी राज ने भारत के सम्‍पूर्ण कृषि क्षेत्र को तीन कृषि कानून लाकर कॉरपोरेशनों के हवाले करने की कोशिश की, जिन्‍हें वापस करवाने के लिए किसानों ने साल भर से ज्‍यादा समय तक एक सफल लड़ाई लड़ी. वर्तमान शासन न केवल अंग्रेजों वाली ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर चल रहा है, बल्कि यह भारत के संवैधानिक लोकतंत्र और भारी कुर्बानियों व संघर्षों के बल पर मिली आजादी के टुकड़े-टुकड़े कर उसकी जगह ‘हिन्‍दू राष्‍ट्र’ की नकाब में देश पर ऐसा फासीवादी दमन थोपना चाहता है जो अमेरिकी साम्राज्‍यवाद का गुलाम हो.

स्‍वाधीनता के आन्‍दोलन के दौरान मजदूरों और किसानों ने विभाजनकारी साम्‍प्रदायिक राजनीति को बारम्‍बार शिकस्‍त दी और संगठित होकर औपनिवेशिक शासकों को कड़ा सबक सिखाया था. आज एक बार फिर भारत के मजदूरों और किसानों को इस चुनौती को स्‍वीकारना होगा, मुस्लिम विरोधी नफरत के जहर से जनता की एकता को तोड़ने वाली हर साजिश को नाकाम करना होगा और भारत के लोकतंत्र और आजादी को बचाने के लिए संगठित होना होगा.

इन्कलाब जिन्दाबाद!

वीर कुंवर सिंह

kunwar singh_hकुंवर सिंह का जन्म बिहार के तत्कालीन शाहाबाद (अभी, भोजपुर) जिले के जगदीशपुर में एक भूस्वामी परिवार में हुआ था. गौर करने की बात यह है कि उन्होंने 80 वर्ष की उम्र में अपने गिरते स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए 1857 के हथियारबंद विद्रोह का नेतृत्व किया था. जुबानी इतिहास में सुना जाता है कि वे कहते थे कि वे तो इस विद्रोह का इंतजार ही कर रहे थे, और उन्हें इस बात का दुख था कि यह विद्रोह तब हुआ, जब वे इतने बूढ़े हो गए थे. वे छापामार युद्ध में प्रवीण थे - अपने सैन्य चातुर्य से वे ब्रिटिश सेना की आंखों में हमेशा धूल झोंकते रहे - और 23 अप्रैल 1858 को उन्होंने शाहाबाद से बरतानवी फौज को खदेड़ बाहर किया. उसके चंद दिनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उसके पहले उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को अपनी जमीन से खत्म कर दिया था.

भोजपुरी के एक गीत में उन्हें इस तरह से याद किया जाता है :

अब छोड़ रे फिरंगिया हमार देसवा
लूटपाट कैले तुहूं
मजे उड़ैले कैलस
देस पर जुलुम जोर
सहर गांव लूटी फूंकी दिहिया फिरंगिया
सुनी सुनी कुंवर के हिरदया में लागल अगिया
अब छोड़ रे फिरंगिया हमार देसवा

जहानाबाद से 1857 के नेता काजी जुल्फिकार अली के साथ उनके पत्राचार से यह साफ पता चलता है कि वे दोनों बहुत अच्छे और घनिष्ठ मित्र थे. उनके बीच 1856 में हुए पत्राचार में उन दोनों ने मेरठ की तरफ कूच करने की योजना पर विचार-विमर्श किया था, 1857 में विद्रोह फूट पड़ने के पहले ही ! अपनी चिट्ठियों में उन्होंने स्वतंत्रता योद्धाओं की सेना को दो भागों में बांटने की योजना बनाई थी - एक हिस्सा कुंवर सिंह के नेतृत्व में, और दूसरा हिस्सा जुल्फिकार की कमान में.

बहरहाल, 23 अप्रैल 2022 को गृह मंत्री अमित शाह उपनिवेशवाद-विरोधी विमर्श के बजाय सांप्रदायिक विमर्श को आगे बढ़ाने की मंशा से जगदीशपुर में भाजपा द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल हुए. वहां भाजपा 1857 के गद्दार उसी डुमरांव महाराज की मूर्ति खड़ा कर रही है, जिसे अंगरेजों ने बाबू कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा पुरष्कार के रूप में दे दिया था. भाजपा स्वतंत्रता संग्राम के गद्दारों और शहीदों - डुमरांव महाराज और कुंवर सिंह; गोडसे और गांधी - को एक साथ सम्मान देने का नाटक नहीं कर सकती है.

विडंबना यह है कि जिस दिन अमित शाह कुंवर सिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर रहे थे, उसी दिन वहां के जिला प्रशासन ने कुंवर सिंह की पौत्र-वधू को उनके घर में ही बंद कर रखा था, ताकि कुंवर सिंह के पोते बबलू सिंह की हाल में हुई हत्या को ढंकने में पुलिस और प्रशासन की संलिप्तता के मुद्दे को उठाने से उन्हें रोका जा सके.

मौलवी अहमदुल्ला शाह

maulavi-hफैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला 1857 विद्रोह के असाधरण नेता थे. ब्रिटिश ऑफिसर थॉमस सीटन ने उन्हें ‘महान योग्यताओं से युक्त, अदम्य साहस वाला, दृढ़ संकल्प से भरा, और सर्वोपरि विद्रोहियों के बीच से बेहतरीन सैनिक’ बताया है. एक अन्य ब्रिटिश ऑफिसर जीबी मलेसन, जिन्होंने 1857 का इतिहास लिखा है, ने लिखा कि “मौलवी एक शानदार व्यक्ति थे. उनका नाम अहमदुल्ला था और वे मूलतः औध (अवध) में फैजाबाद के रहने वाले थे. वे लंबे, छरहरे और गठीले बदन के थे; उनकी बड़ी और गहरी आंखें थीं, तनी भंवें थीं, ऊंची मुड़ी नाक और मजबूत जबड़े थे. इसमें कोई शक नहीं कि 1857 विद्रोह की साजिश के पीछे मौलवी के दिमाग और प्रयासों की बड़ी भूमिका रही थी. अभियानों के दौरान रोटियों का वितरण - चपाती आन्दोलन - वास्तव में उनके ही दिमाग की उपज था.”

लड़ाई में मौलवी अहमदुल्ला की मौत को दर्ज करते हुए मलेसन ने उन्हें यह श्रद्धांजलि दी : “अगर कोई देशभक्त ऐसा आदमी है जो आजादी की योजना बनाता है और उसके लिए लड़ता है, और अपने देश के लिए गलत ढंग से खत्म कर दिया जाता है, तो बिल्कुल निश्चित तौर पर मौलवी एक सच्चे देशभक्त थे.”

सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने अयोध्‍या में आरएसएस और भाजपा के हिन्‍दुत्‍ववादियों द्वारा ढहाई 16वीं सदी की बाबरी मस्जिद के ऐवज में मुसलमानों को जो पांच एकड़ भूमि का प्‍लॉट दिया है, उस पर मौलवी अहमदुल्‍ला शाह फैजाबादी के नाम पर एक कॉम्‍पैक्‍स विकसित करने का निर्णय लिया गया है. इसमें मस्जिद, अस्‍पताल, संग्रहालय, शोध केन्‍द्र और गरीबों के लिए एक सामुदायिक रसोई भी होगी. एक नफरत भरे कृत्‍य और नफरती व हिंसक हमलावरों के पक्ष में आये अदालती फैसले के जवाब में मुसलमानों ने आजादी की पहली लड़ाई की यादगार के रूप में - जिसमें मुसलमानों और हिन्‍दुओं ने मिल कर भारत की नींव रखी थी - एक ऐसी इमारत व संस्‍थान के निर्माण का फैसला लिया है जो फैजाबाद और अयोध्‍या के सभी लोगों को लाभान्वित करेगा.

छोटानागपुर के आदिवासी

इतिहासकार शशांक सिन्हा लिखते हैं कि “संथाल (‘हुल’ अथवा विद्रोह के क्रूर दमन के बाद) जहां संथाल परगना के नए जिले के निर्माण से उस क्षेत्र के आसपास के संथालों को थोड़ी राहत जरूर मिली, लेकिन हजारीबाग और मानभूम (ये भूभाग भी हुल से प्रभावित थे) में रहने वाले उनके बिरादरों को कोई खास लाभ नहीं मिल सका.” नतीजतन, इन क्षेत्रों के संथाल सूदखोरों से हिसाब-किताब बराबर करने के लिए 1857 के विद्रोह में शामिल हो गए, और उन्होंने सैनिकों के साथ सक्रियतापूर्वक मिलकर उन सामंती शक्तियों पर हमला बोल दिया जो अंगरेजों के साथ सहयोग कर रहे थे.

सिन्हा लिखते हैं कि “चतरा की लड़ाई में उन सैनिकों की पराजय के बाद भी इन संथालों ने अपनी कार्रवाई जारी रखी. लगभग 10,000 लोगों ने एक थाना जला दिया, एसमिया चट्टी (हजारीबाग) को लूट लिया, और हजारीबाग तथा रांची के बीच के संचार माध्यमों को काट देने का प्रयास किया. बाद में, उनके एक ग्रुप ने गोमिया को लूटा और वहां के सरकारी भवनों और दस्तावेजों को जला डाला. संथालों की तरह, हजारीबाग जिले के उत्तरी हिस्से में विस्थापित भुइयां टिकैतों ने 1857 के विद्रोह में पुराने खरीदारों से अपनी जमीन वापस लेने का मौका पा लिया.”

सिन्हा ने यह भी बताया कि “हजारीबाग, सिंहभूम और पलामू जैसे इलाकों में, जहां आदिवासी लोग हिस्सा ले रहे थे, उन्होंने घिसेपिटे रास्ते पर चलना बंद कर दिया. गतिशील रहने के अलावा, हम उन आदिवासियों को अपने स्थानीय दुश्मनों और/अथवा साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ लड़ने के लिए गैर-आदिवासियों और स्थानीय कुलीन वर्गों के साथ भी एकजुट होते देख पाते हैं.” (‘1857 एंड द आदिवासीज ऑफ छोटानागपुर’, शशांक एस. सिन्हा, द ग्रेट रिबैलियन, पृष्ठ 16-31)

आंध्र प्रदेश में 1857 का विद्रोह

(‘द ग्रेट रिबैलियन’ में बी. रामा चंद्रन द्वारा लिखित अध्याय से उद्धृत)

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मौलवी अलाउद्दीन [विकिमीडिआ कॉमन्स]

अक्सरहां यह गलत तौर पर समझ लिया जाता है कि 1857 का विद्रोह उत्तर भारत तक ही सीमित रह गया था. वस्तुतः, वह आग फैलते हुए दक्षिण भारत में भी पहुंच गई थी.

रेड्डी लिखते हैं कि, “उस महान विद्रोह के ठीक पहले 28 फरवरी 1857 में विजयनगरम के ‘नैटिव (स्थानीय)’ सिपाहियों का विद्रोह हुआ था जो फर्स्ट रजिमेंट ‘नैटिव’ इन्फैंट्री के सिपाही थे.”

17 जुलाई 1857 को दो विद्रोहियों, तुराबाज खां और मौलवी अलाउद्दीन ने हैदराबाद में ब्रिटिश रेजिडेंसी पर हमले की अगुवाई की थी. लगभग 5000 लोगों की भीड़ उनका समर्थन कर रही थी जिसमें रोहिल्ला और आम नागरिक आबादी शामिल थी. उसके एक महीने के बाद फिर से कुडप्पन में 28 अगस्त 1857 को एक शेख पीर शाह ने ‘नैटिव’ अफसरों और 30वें रेजिमेंट ‘नैटिव’ इंन्‍फैंट्री के सैनिकों को ‘उकसाने’ की कोशिश की थी.

कोरुकोंडा सुब्बा रेड्डी, जो कोंडा रेड्डी कबीले से आते थे और गोदावरी नदी के किनारे बसे कोरातुर गांव के प्रधान थे, ने एक लंबा छापामार युद्ध चलाया और ब्रिटिश फौज को मजबूर किया कि वह उनका पीछा करते हुए मलेरिया-ग्रस्त पहाड़ी इलाके में चली आए. 7 अक्टूबर 1858 को आदिवासी विद्रोही नेताओं कोरुकोंडा सुब्बा रेड्डी और कोरला सीतारमैया को अंततः बुट्टैया गुडेम गांव में फांसी दे दी गई. कोरला वेंकट सुब्बा रेड्डी और गुरुगुंटला कोम्मी रेड्डी को पोलावरम गांव में तथा कोरुकोंडा तुम्मी रेड्डी को तुडिगुंटा गांव में फांसी दी गई.

मौखिक कथाओं के अनुसार, कोरुकोंडा सुब्बा रेड्डी के शव को अंगरेजों ने पहले तो लोहे के एक पिंजड़े में (जिसे कालांतर में ‘सुब्बा रेड्डी सांची’ कहा गया) रखा और फिर लंबे समय तक फांसी पर लटका छोड़ दिया, ताकि आम लोग उसे देख सकें और उनके दिमाग में यह आतंक फैल सके कि किसी विद्रोही की क्या नियति होती है.

गुडेम आदिवासी इलाके (विजाखापत्तनम जिला) में भी विद्रोह हुए थे.

अजीजन बाई

(अजीजन बाई और बेगम हजरत महल के बारे में ये अंश ‘द ग्रेट रिबैलियन’ में लता सिंह द्वारा लिखित अध्याय से उद्धृत हैं)

azeezumइस अध्याय में अधिकांश वर्णन ये है कि जब अजीजन उस विद्रोह में शामिल हुई तो वह कैसे पदकों (मेडल) से सुसज्जित पुरुष वेशभूषा में पिस्तौलों का पट्टा लटकाये घोड़े की पीठ पर सवारी करती रहती थी.

अजीजन कानपुर में उमराव बेगम के घर में लुरकी महल में रहती थी. उसकी मां लखनऊ की एक नाचने-गाने वाली बाई थी. जब अजीजन काफी छोटी थी, तभी उसकी मां की मृत्यु हो गई थी और तब एक बाई ने उसे लखनऊ में पाला-पोसा. इस प्रकार, अजीजन ने जरूर लखनऊ छोड़ा होगा और कानपुर में बस गई होगी. ...अजीजन के कानपुर जाने के पीछे एक संभावित कारण यह होगा कि उसके मन में आजादी की मजबूत चाहत उमड़ रही होगी. संभवतः उसे किसी के संरक्षण में रहना पसंद नहीं होगा - वह जिस किस्म की महिला थी उससे तो यही लगता है, और फिर 1857 के विद्रोह में उसने जैसी भूमिका निभाई उससे भी ऐसा ही प्रतीत होता है.

अजीजन दूसरी घुड़सवार टुकड़ी के साथ बेहद घुलमिल गई थी, जो प्रायः उसके घर आती रहती थी. खासकर, वह दूसरी घुड़सवार टुकड़ी के शमसुद्दीन के बेहद करीब थी. शमसुद्दीन ने कानपुर में 1857 के विद्रोह में काफी सक्रिय भूमिका अदा की थी. उसके घर में विद्रोहियों की बैठकें होती रहती थीं, जिसमें विद्रोह की योजना बनाई जाती थी. शमसुद्दीन भी अक्सरहां अजीजन के घर जाया करता था.

यह भी तथ्य है कि नाना साहब और अजीमुल्ला खां, दोनों लोग अजीजन को जानते थे और उसका घर सिपाहियों की बैठकों का गुप्त स्थल था. अजीजन को 1857 के विद्रोह की एक मुख्य साजिशकर्ता समझा जाता था. ऐसा लगता है कि उसे जानकारी थी कि कानपुर में 4 जून 1857 के दिन विद्रोह करने की योजना बनाई गई थी. उसकी भूमिका खुफियागीरी करने और संदेश लाने-ले जाने की समझी जाती है. कुछ जगहों पर यह भी वर्णन मिलता है कि अजीजन ने औरतों का एक दल बना रखा था, जो बिना किसी डर-भय के हथियारबंद सैनिकों का मनोरंजन करती थीं, उनके जख्मों का इलाज करती थीं और उनके बीच हथियार और गोली-बारूद वितरित करती थीं.

नानक चंद के अनुसार, ‘अजीजन का बड़ा साहस ही था कि वह हमेशा हथियार से लैस रहती थी और घुड़सवार टुकड़ी के साथ अपने लगाव के चलते वह हमेशा तोपखाने में ही मौजूद रहती थी’. एक अन्य प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा है कि ‘तोपखाने में भारी आग के बावजूद वह पिस्तौलौं से लैस वहां दिखाई पड़ जाती थी. वह अपने दोस्तों, दूसरी रेजिमेंट के घुड़सवारों, के बीच रहती थी, जिनके लिए वह खाना पकाती थी और गीत गाती थी.’

हालांकि इस अध्याय में हम 1857 के विद्रोह में अजीजन का भूमिका पर चर्चा कर रहे हैं, किंतु उस विद्रोह में उन जैसी बहुत सारी ऐसी महिलाओं की सैकड़ों कहानियां जरूर होंगी, जो अधिकांशतः इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हो पाईं. ऐसी लड़कियों के भी जिक्र मिलते हैं जो बरतानवी फौज के खिलाफ लड़ाइयों में सड़कों पर उतर पड़ी थीं. लगभग सभी ‘कोठे’ (बाइयों के घर) षड्यंत्र के केंद्र बन गए थे, और उनमें से अनेक औरतें 1857 के विद्रोह में सीधे तौर पर शामिल भी हो गई थीं. विद्रोह की कार्रवाइयों को गुप्त रूप से, लेकिन खुले हाथों धन देने की उनकी भूमिका लिखित रूप में दर्ज है. हालांकि ये महिलाएं प्रत्यक्ष तौर पर लड़ाई नहीं लड़ रही थीं, लेकिन तथाकथित रूप से लोगों को उकसाने और विद्रोहियों को पैसे से मदद करने के आरोप में उन्हें दंडित भी किया गया था. अंगरेज अधिकारी यह जानते थे कि उनके कोठों पर विद्रोहियों की बैठकें होती हैं, और इसीलिए राजनीतिक साजिशों के अड्डे के बतौर उन कोठों को हमेशा संदेह की नजर से देखा जाता था. वास्तव में, उनके खिलाफ बरतानवी हुकूमत ने जितनी उग्रता से दंड देने की कार्रवाइयां चलाईं, उससे विद्रोह में उनकी भूमिका को उचित तौर पर आंका जा सकता है. बड़े पैमाने पर उनकी संपत्ति को जब्त कर लिया गया. लखनऊ में, जो बाइयों का केंद्र था, 1857 के विद्रोह को कुचल देने के बाद ब्रिटिश शासकों ने शक्तिशाली कुलीन तबके के खिलाफ अपने आक्रोश को मोड़ दिया. 1857 में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विद्रोह में प्रमाणित भागीदारी के चलते ब्रिटिश अधिकारियों ने जिन लोगों की संपत्ति जब्त की थी, उनकी सूची में उनके नाम दर्ज थे.

बेगम हजरत महल

begum hazratबेगम हजरत महल एक महत्‍वपूर्ण राजनीतिक शख्सियत बन कर उभरीं, जिन्होंने बाई के रूप में अपना जीवन शुरू किया था. अवध के नवाब वाजिद अली शाह के साथ उनकी शादी हुई, और जब शाह को निर्वासित कर दिया गया तो हजरत महल ने स्वतंत्रता सेनानियों की इस सलाह को मान लिया कि वे अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कदर को नवाब और खुद को रेजिडेंट घोषित कर दें. रोचक बात यह है कि उनके पहले नवाब की अन्य बेगमों के पास यह प्रस्ताव पेश किया गया था, लेकिन कोई भी अपने पुत्र को नवाब बनाने के लिए तैयार नहीं हुई, क्योंकि उन्हें इसके नतीजे भुगतने का खौफ था. लंबे समय तक लखनऊ पर विद्रोहियों का कब्जा रहने के बाद ब्रिटिश फौज ने फिर से उसे अपने हाथ में ले लिया और हजरत महल को 1858 में पीछे हटना पड़ा. उन्होंने ब्रिटिश शासकों के द्वारा प्रस्तावित किसी भी पुरष्कार अथवा भत्ते को स्वीकार नहीं किया. उन्होंने अपने जीवन का बाकी समय नेपाल में बिताया.

तमिलनाडु में 1857 की धमक

(‘अपसर्ज इन साउथ’, एन. राजेंद्रन, फ्रंटलाइन, जून 2007 से उद्धृत)

veerapandiaअभी जिसे हम तमिलनाडु कहते हैं, वहां भारत के अन्य हिस्सों की तरह ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ विरोध की आरंभिक अभिव्यक्तियां स्थानीय बगावतों के रूप में सामने आईं. इनमें सर्वप्रमुख था ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ पलयकारों का विद्रोह. जिन पलयकारों ने मद्रास प्रेसिडेंसी के सुदूर दक्षिणी इलाके में विद्रोह का झंडा बुलंद किया था, उनमें मुख्य रूप से पुली तेवर, वीरा पांडिया कट्टाबोम्मन और शिवगंगा के मारुडु बंधु के नाम आते हैं. 18वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश हुकूमत ने पलयकारों के खिलाफ दो बड़े अभियान संचालित किए थे.

दो कार्यकर्ताओं गुलाम गौस और शेख मन्नू को ‘अत्यंत राजद्रोही चरित्र के’, अर्थात 1857 की क्रांति के पक्ष में, दीवाल पोस्टर लगाने और मद्रास के लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उठ खड़े होने की अपील करने के लिए फरवरी 1858 में गिरफ्तार किया गया था.

उस समय की रिपोर्ट के अनुसार, मद्रास और चिंगलपुट (चेंगलपेट) जैसे समुद्रतटीय इलाके और कोयंबटूर जैसे अंदरूनी इलाके 1857 की क्रांति के दौरान ‘अशांत’ क्षेत्र समझे जाते थे. दक्षिणी तमिलनाडु के तंजवुर में शेख इब्राहिम नामक एक क्रांतिकारी को मार्च 1858 में संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया गया और उनपर राजद्रोह का अभियोग लगाकर सजा दी गई.

उसी तरह, 1857 की क्रांति की संभावना देखते हुए उत्तरी अरकाट में जनवरी 1857 से ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ युद्ध संगठित करने के मकसद से योजनाएं बनाई जाने लगी थीं और गुप्त बैठकें चलने लगी थीं. यह तथ्य रेकॉर्ड में दर्ज है कि सैयद कुसा मोहम्मद और गुरजाह हुसैन ने उस संबंध में पुनगनूर (चित्तूर जिला, अब आंध्र प्रदेश में) और वेल्लौर के जमींदारों के साथ वार्ताएं की थीं. मार्च 1857 में सैयद कुसा को अंगरेजों ने गिरफ्तार कर लिया और उनसे जमानत मांगी गई.

1857 में ब्रिटिश सेना का एक रेजिमेंट वेल्लौर में पड़ाव डाले हुए था. नवंबर 1858 में उस रेजिमेंट के कुछ सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया. हथियारबंद मुठभेड़ में कैप्टन हार्ट और जेलर स्टैपफोर्ड मारे गए. चित्तूर के सेशन जज ने जानबूझकर की गई हत्या के आरोप में रेजिमेंट के एक सिपाही पर मुकदमा चलाया और उसे मौत की सजा सुनाई.

सलेम में 1857 विद्रोह शुरू होने की खबर सुनकर काफी शेरगुल मचा था, क्योंकि यह अफवाह थी कि देशभक्तों की सेना उस क्षेत्र में जल्द ही कूच करने वाली है. 1 अगस्त 1857 (शनिवार) की शाम में एक भीड़ पुतनूल सड़क पर अयम परमला चेरी के घर के पास इकट्ठा हुई जिसमें बड़ी संख्या में बुनकर लोग शामिल थे. भीड़ में शामिल लोग कह रहे थे कि भारतीय सैनिक आने वाले हैं और अंगरेजों का झंडा गिर जाएगा. थाना के अर्दली हैदर ने उस भीड़ को कहा कि, “उस दिन इसी समय मद्रास में (भारत का) झंडा फहराया जाएगा”.

विद्रोह के दौरान कोयंबटूर के निकट एक औद्योगिक शहर भवानी में मुलबगालू स्वामी नामक एक सन्यासी ने उपदेश देना शुरू किया कि ब्रिटिश हुकूमत को खत्म कर देना चाहिए. अपनी दैनंदिन की पूजा में वह अपने भक्तों को कहा करते थे, “सभी यूरोपियनों को नष्ट कर देना चाहिए और नाना साहब पेशवा की हुकूमत फैलनी चाहिए.” अंत में उस सन्यासी को अंगरेजों ने गिरफ्तार कर लिया और उसे कोयंबटूर ले आया गया.

विद्रोह फूटने के शुरूआती समय में चेंगलपेट गुप्त बैठकों का और क्रांतिकारी गतिविधियों का अड्डा बन गया था. जुलाई 1857 में सुलतान बख्श मद्रास से चेंगलपेट गया ताकि अपने सहयोि‍गयों की मदद से ब्रिटिश-विरोधी बगावत को संगठित किया जा सके. चेंगलपेट में उसके दो स्थानीय सहयोगी अरुआनागिरि और कृष्णा उस इलाके में पहले से ही विद्रोह की अगुवाई कर रहे थे.

31 जुलाई को चेंगलपेट इलाके में एक विद्रोह हुआ. वह आन्दोलन फैलता गया. 8 अगस्त 1857 को चेंगलपेट के मजिस्ट्रेट ने मद्रास सरकार को इस गंभीर बगावत की खबर दी. 

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मेरठ में 1857 का विद्रोह [इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज़, 1857 : विकिमीडिआ कॉमन्स ]

10 मई 1857 के दिन मेरठ में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ ऐतिहासिक विद्रोह शुरू किया था. कंपनी राज उसे ‘सिपाही विद्रोह’ कहता था, लेकिन इतिहास उसे भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में याद करता है. सचमुच, वह भारतीय राष्ट्रीय चेतना की पहली शुरूआत थी, जिसमें भारतीय उप-महाद्वीप की जनता पहली बार एक साझा दुश्मन के खिलाफ - औपनिवेशिक कंपनी राज के खिलाफ - धर्म, जाति, समुदाय अथवा भाषा की सीमा लांघते हुए एकताबद्ध हुए थे. उस विद्रोह में किसानों और कारीगरों की व्यापक भागीदारी ने उसे वास्तविक शक्ति प्रदान की और उसे लोकप्रिय विद्रोह का स्वरूप भी दिया. विद्रोही किसानों ने सूदखोर महाजनों और कुछ ब्रिटिश-परस्त जमींदारों, अंगरेजों द्वारा बनाई गई अदालतों, राजस्व कार्यालयों (तहसीलों) और थानों पर हमले किए.

आज भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने संगठन आरएसएस के हिंदू वर्चस्ववादी दृष्टिकोण के अनुसार ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के 75वें वर्ष के मौके का इस्तेमाल यह मिथ्या धारणा फैलाने के लिए कर रहे हैं कि हिंदू लोग हजारों साल तक ‘मुस्लिम शासन’ के गुलाम रहे थे. 1857 का विद्रोह इस मिथ्या विमर्श को चुनौती देता है: आखिरकार, मुस्लिम शासन के खिलाफ उस किस्म का कोई विद्रोह क्यों नहीं हुआ था?

1857 का विद्रोह ठीक इसलिए हुआ क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत मुगलों के अथवा पूर्व के किसी भी अन्य शासकों की हुकूमत से गुणात्मक रूप से काफी भिन्न थी. मुगल एक पृथक भूभाग से और अलग पहचान लेकर जरूर आए थे, लेकिन उनके शासन को ‘विदेशी’ शासन के बतौर कभी नहीं सोचा गया था. मुगल शासन के तहत भारतीय संपदा का भारी दोहन करके किसी अन्य देश में नहीं भेजा गया था. उनका शासन उनके पूर्व के विभिन्न हिंदू शासकों की तुलना में कम या ज्यादा उत्पीड़नकारी नहीं था. इसके अलावा, साधारण हिंदुओं और इस्लाम अपनाने वाले हिंदुओं की जिंदगी में कोई बड़ा फर्क भी नहीं था. और सर्वोपरि, उस समय ‘राष्ट्रीय’ पहचान का कोई बोध भी नहीं पैदा हुआ था (यहां तक कि ‘हिंदू’ पहचान का भी बोध नहीं था. भले ही कुछ राजाओं ने, जो हिंदू थे, मुगलों के साथ युद्ध किया था) लेकिन हिंदू राजा तो अन्य हिंदू राजाओं के साथ भी युद्ध किया करते थे. मुगल सेना में हिंदू सेनापति भी थे और हिंदू राजाओं की सेना में भी मुस्लिम सेनापति हुआ करते थे. उन विभिन्न शासकों के बीच युद्धों में कहीं यह साक्ष्य नहीं मिलता है कि उन युद्धों को राष्ट्र-के-बतौर (धर्मों के बीच के युद्ध की बात ही छोड़िये) राष्ट्रों के बीच भी युद्ध के बतौर समझा गया हो.

इसके ठीक उलट, हम 1857 विद्रोह के बुद्धिजीवियों में इस देश को अपना समझने और इस पर अपना मालिकाना जताने की, तथा विदेश से होने वाली लूट से अपनी जमीन को आजाद कराने की जरूरत सामने रखने की स्पष्ट प्रवृत्ति देख पाते हैं. इसका सबसे उम्दा उदाहरण वह तराना है जिसे हम आसानी से भारत का पहला राष्ट्रगान घोषित कर सकते हैं और जिसे 1857 के क्रांतिकारी अजीमुल्ला खां ने लिखा था :

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यह गीत आज भी ताजा और आधुनिक सुगंध बिखेरता है और इसमें साफ-साफ औपनिवेशिक शासक को दुश्मन चिन्हित किया गया है जो इस भूमि को लूट-खसोट रहे थे. इसमें ‘हम’, जिन्हें ‘प्‍यारा हिंदोस्तां’ का ‘मालिक’ घोषित किया गया है, ‘हिन्‍दू-मुस्लिम-सिख, भाई-भाई प्यारा’ हैं.

1857 का हौवा ब्रिटिश राज को सता रहा था...

इसमें आश्चर्य नहीं कि संकीर्णतावादी और सांप्रदायिक भावना से मुक्त यह स्पष्ट उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रीय चेतना अंगरेजों को भारत पर अपने पूरे शासन काल में सता रही था. इस वर्ष जालियांवाला बाग जनसंहार पर प्रकाशित एक पुस्तक (जालियांवाला बाग : एन एंपायर ऑफ फियर एंड द मेकिंग ऑफ द अमृतसर मैसेकर) के लेखक किम ए. वागनर ने पुस्तक के पहले अध्याय में ही लिखा है कि “ब्रिटिश औपनिवेशिक सोच में वह ‘गदर’ कभी खत्म नहीं हुआ. शासक वर्ग को हमेशा देशी विद्रोह के संभावित खतरों के बारे में संदेश मिलते रहते थे. ... वह ‘गदर’ उनके मन में सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना - निरंतर भय की वजह - के बतौर नहीं आती थी, बल्कि वह उनके लिए अनुकरणीय दंड और अंधाधुंध हिंसा के रूप में औपनिवेशिक नियंत्रण को बहाल रखने के ब्लूप्रिंट (खाका) के बतौर भी मौजूद रही.”

अप्रैल 1919 में अमृतसर में रामनवमी जुलूसों के दौरान हिंदुओं को शरबत पिलाते या उनके साथ नाचते-गाते हुए मुस्लिमों की मौजूदगी ही 1857 के हौवा को खड़ा कर देने के लिए काफी थी, जिस दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता ने खुद को उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रीय भावना के बतौर पहले-पहल जाहिर किया था, और अमृतसर के ब्रिटिश हुक्मरान मशीनगन व सेना जैसे सैन्य संसाधनों की मांग कर बैठे थे ताकि 1857 के बाद हुए भारतीयों के कत्लेआम को दुहराया जा सके. आज के समय में इस बात को याद करने का कितना महत्व है, जब रामनवमी के जुलूस मुस्लिम घरों और मस्जिदों के खिलाफ हिंदू वर्चस्ववादी नफरत और हिंसा के प्रदर्शन बन जा रहे हैं!

....जैसा कि वह मोदी राज को भी सता रहा है

कुछ दिन पहले ही मेरठ विश्वविद्यालय में 1857 विद्रोह के चंद नायकों - खान बहादुर खान रोहिल्ला और बहादुर शाह जफर - के दीवार पर लगे चित्रों पर हिंदू वर्चस्ववादियों ने कालिख पोत दी और लिख दिया ‘ये आजादी के योद्धा नहीं’.

ये रोहिल्ला सरदार खान बहादुर खान ही थे जिन्होंने बरेली को उस विद्रोह का प्रमुख केंद्र बनाया था, जहां लखनऊ पर अंगरेजों द्वारा फिर से कब्जा कर लेने के बाद नाना साहेब और अन्य नेताओं ने शरण ली थी. बरेली पर भी अंगरेजों द्वारा पुनः कब्जा कर लेने के बाद खान बहादुर खान नेपाल निकल गए थे जहां नेपाल नरेश ने उन्हें पकड़कर अंगरेजों के हवाले कर दिया. उन्हें मौत की सजा दी गई और 24 फरवरी 1860 को ‘कोतवाली’ (थाना, ढाका) में फांसी पर लटका दिया गया. यह शर्म की बात है कि आरएसएस के अनुयाई, जिन्होंने कभी भी स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा नहीं लिया, उनकी स्मृति का अपमान करें, सिर्फ इसलिये कि वे मुस्लिम थे.

1857 की विरासत कुछ ऐसी ही है कि जिसे हिंदू वर्चस्ववादी राजनीति जनता के स्मृति पटल से मिटा देना चाहेगी - लेकिन यह कर पाना आसान नहीं होगा, क्योंकि यह ऐसी विरासत है जिसे अंगरेज शासक लाख चाहने के बावजूद अपनी स्मृति से नहीं हटा पाए - आजादी की पहली लड़ाई के बारे में हर गांव की अपनी-अपनी विशिष्ट स्मृतियां हैं और ये स्मृतियां मौखिक विमर्श बनकर पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती चली आ रही हैं. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ने बुदेलखंड के कथावाचकों / गायकों के मौखिक विमर्श को अमर बना दिया कि कैसे रानी लक्ष्मीबाई ने आजादी के लिए लड़ने वाली सेना का नेतृत्व करते हुई मौत को गले लगा लिया था – “बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मरदानी वो तो झांसी वाली रानी थी.”

और फिर, 1857 की उस महागाथा से मुस्लिमों को भी मिटा पाना असंभव है : उन्हें हर स्तर पर आजादी के योद्धाओं के बीच पाया जा सकता है - राजा से लेकर आमजन और बुद्धिजीवियों तक.

1857 के विद्रोह ने समान रूप से हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच मजबूत एकता निर्मित की थी, और इस एकता को भंग करने में ब्रिटिश षड्यंत्रकारियों को लगभग सात दशक लग गए थे. 1857 के विद्रोहियों ने ‘हुकूमती अदालत’ का गठन किया था जिसमें छह लोग सेना से थे और चार नागरिकों के बीच से थे, और इसमें हिंदुओं और मुस्लिमों की बराबर की भागीदारी थी. विद्रोहियों की सरकार ने आम जनता के उपभोग की वस्तुओं पर लगे टैक्स खत्म कर दिए थे और जमाखोरी पर सजा मुकर्रर की थी. उसके चार्टर में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन भी शामिल था, जिसे ब्रिटिश शासकों ने लागू किया था. इस चार्टर में ‘जोतने वालों को जमीन’ का भी आह्वान किया गया था. ये सभी घोषणाएं लोकप्रिय भाषा में जारी की गई थीं. हिंदी और उर्दू में एक साथ ये घोषणाएं निकाली गई थीं. और, इन घोषणाओं को हिंदुओं और मुस्लिमों, दोनों के नाम से संयुक्त रूप से जारी किया गया था.                   

1857 को लेकर सावरकर की परेशानी

इतिहास में सावरकर का स्थान उनके दो राष्ट्र के सिद्धांत, हिंदू राष्ट्र के उनके सांप्रदायिक फासिस्ट दृष्टिकोण, अंगरेजों से मांगी गई उनकी कायरतापूर्ण माफियों और गांधी की हत्या में उनकी भूमिका के चलते कलंकित हो गया है. यही कारण है कि लाल कृष्ण अडवाणी ने भी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ के मौके पर 10 मई 2007 को सावरकर के बारे में लिखते हुए स्वीकार किया था कि “अपने जीवन के उत्तरार्ध में अनेक मुद्दों पर सावरकर के विचार समस्याग्रस्त थे.” बहरहाल, अडवाणी ने फिर तर्क दिया कि सावरकर को अपने प्रकाशन - 1857 का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम - के चलते ‘बदनामियों से’ मुक्ति मिल गई.

मार्क्स और एंगेल्स ने सिलसिलेवार ढंग से 1857 को दर्ज करते हुए उसे ‘राष्ट्रीय स्वाधीनता’ के लिए युद्ध बताया है. सैयद अहमद खां (1817-98) पहले भारतीय थे, जिन्होंने 1857 को ‘गदर’ नहीं, बल्कि ‘भारतीय विद्रोह’ की संज्ञा दी थी. विश्वमय पति ने कहा, ‘अहमद खां का दृष्टिकोण वह पहला भारतीय दृष्टिकोण था जिसमें साम्राज्यवाद और उसकी नीतियों को उस ‘विद्रोह’ का मूल कारण बताते हुए उसकी आलोचना की गई है.’

खान के बाद, सावरकर की पुस्तक शायद पहली भारतीय पुस्तक थी जिसमें ‘गदर’ शब्द को खारिज किया गया और 1857 को ‘स्वतंत्रता युद्ध’ बताया गया. और इस रूप में, ‘गदर पार्टी’ के लिए, भगत सिंह और मैडम कामा तथा अन्य लोगों के लिए वह पुस्तक सूचना और प्रेरणा का बड़ा स्रोत बनी.

लेकिन अपने जीवन के इस समय में भी हम सावरकर को इतिहास के वास्तविक तथ्यों के साथ अपने हिंदू वर्चस्ववादी दृष्टिकोण का तालमेल करने के लिए कड़ी मशक्कत करते देखते हैं - खासकर तब, जब 1857 विद्रोह को पूर्ण स्वरूप देने वाली हिंदू-मुस्लिम एकता का मामला उठता था.
यह सच है कि इस पुस्तक के ढेर सारे पन्नों में हम मुस्लिम देशभक्तों और योद्धाओं के साहसपूर्ण कारनामों का जिक्र होता पाते हैं - 1857 पर लिखी किसी भी किताब में इस तथ्य को नकारा भी नहीं जा सकता है. लेकिन 1857 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ इस हिंदू-मुस्लिम एकता के तथ्यों के साथ ‘बाहरी शक्तियों’, और खास तौर पर ‘विदेशी मुस्लिम शासकों’ के प्रति भारतीय (हिंदू) प्रतिरोध की लंबी गाथा के बतौर भारतीय इतिहास की अपनी सोच का तालमेल बिठाने के अपने प्रयासों में वे काफी उलझी और आरोपित व्याख्याएं भी देते हैं. और यह सूत्र उनकी समूची पुस्तक में यहां से वहां तक व्याप्त है. अपने लेखकीय प्राक्कथन में वे लिखते हैं, “शिवाजी के समय में मुस्लिमों के प्रति नफरत की भावना उचित थी और जरूरी भी थी; किंतु अगर अभी उस भावना को तूल दिया गया तो यह अनुचित और मूर्खता ही होगी. ...” (द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस : 1857, राजधानी ग्रंथागार, नई दिल्ली 1970).

उस पुस्तक में एक दूसरी जगह पर सावरकर को हम मुस्लिमों के साथ हिंदुओं के संबंध और राष्ट्र में मुस्लिमों के स्थान के सवाल पर गुत्थमगुत्था होते देखते हैं : “वे (नाना साहब) भी यह महसूस करते थे कि इसके बाद ‘हिंदुस्थान’ का मतलब इस्लाम और हिंदूवाद, दोनों के मानने वालों का संयुक्त राष्ट्र था. जब तक मुस्लिम लोग भारत में विदेशी शासकों की हैसियत में रहे, तब तक उनके साथ भाइयों जैसे रहने का मतलब राष्ट्रीय कमजोरी को स्वीकार करना होता.... सैकड़ों साल के संघर्ष के बाद हिंदू संप्रभुता ने मुसलमानों की हुकूमत को परास्त किया. ...अब मुसलमानों के साथ हाथ मिलाने में राष्ट्रीय शर्म जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि इसके विपरीत यह उदारता की कार्रवाई होगी. ...उनके बीच के वर्तमान संबंध शासक और शासितों, विदेशी और देशी, जैसे नहीं रह गए हैं; बल्कि सीधे भाइयों जैसे संबंध हो गए हैं, उनके बीच सिर्फ धर्म का फर्क रह गया है...” (वही, पृष्ठ 75-76).

1857 के किसी भी नायक को, यहां तक कि हिंदू नायकों को भी यह जरूरत नहीं महसूस हुई थी कि वे हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए ऐसी कोई रक्षात्मक व्याख्या पेश करें. 1857 के नायक नहीं, बल्कि ये सावरकर ही हैं जिनकी कल्पना मिथकीय ‘अतीत के नफरत’ से लबरेज है, और इसीलिए 1857 के उपनिवेशवाद-विरोधी एकता के ऐतिहासिक तथ्य के साथ अपनी इस कल्पना का तालमेल बिठाना उनके लिए इतना भारी पड़ रहा है.

सावरकर की इस परेशानी का स्रोत क्या है ? यह एक सैद्धांतिक विभ्रम से पैदा होती है - धर्म को राष्ट्र के साथ एकमेक करने की प्रवृत्ति से पैदा होती है. उनकी पुस्तक के पहले अध्याय का शीर्षक ही यह बता देता है – ‘स्‍वधर्म और स्वराज’, जिसमें वे पूछते हैं, ‘हमारे अलावा किस दूसरे इतिहास में अपने धर्म के प्रति प्रेम और अपने देश के प्रति प्रेम का उसूल इतनी उदारता के साथ अभिव्यक्त हुआ है ?’ लेकिन वे उपनिवेशवाद के बारे में और किसानों या आम जनता के जीवन पर उसके प्रभावों के बारे में कोई जिक्र नहीं करते हैं; उनके लिए ब्रिटिश हुकूमत का मतलब सिर्फ ‘विदेशी’ शासन का अपमान भर था.

और विदेशीपन का भी ज्यादा जुड़ाव धर्म से ही था - वे दावा करते हैं कि ‘प्राच्यों (एशिया के लोगों)’ के लिए स्‍वधर्म के बिना स्वराज घृणित है और स्वराज के बिना स्वधर्म शक्तिहीन’ (1857, पृष्ठ 9-10). सावरकर धर्मिक राष्ट्रवाद के अपने सिद्धांत को 1857 में भी खोजने की कोशिश करते हैं, और यही वह चीज है जो उनकी आंखों पर पट्टी चढ़ा देती है और उन्हें 1857 के असली महत्व और सारवस्तु को समझने से रोक देती है. सावरकर की टिप्पणी कि मुसलमानों के साथ भाइयों जैसा रहना ‘राष्ट्रीय कमजोरी’ थी, दिखाती है कि वे इसी प्राच्यवादी सिद्धांत पर चल रहे थे कि हिंदू लोग “कमजोर और स्त्रैण थे”, क्योंकि अपने अधिकांश समयों में मुस्लिमों के साथ भाइयों जैसा ही रहा करते थे. ‘हिन्‍दु-स्थान’ (इस शब्द का इस्तेमाल उन्होंने अपनी पूर्व की रचनाओं के साथ-साथ परवर्ती लेखों में भी किया है) की अपनी काल्पनिक सोच से भरे होने के चलते ही सावरकर उस हिदोस्तां को नहीं देख सके, जिसका सपना अजीमुल्ला खां और 1857 के योद्धाओं ने देखा था.

सावरकर अपने हिंदू वर्चस्ववादी खाके में 1857 को इस तरह से समंजित किया कि वह एक अस्थायी शांति (युद्ध-विराम) जैसा प्रतीत हो, जैसा कि उनकी कल्पना में मातृभूमि ने आदेश दिया था. 1857 के पांच दिनों का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं, “हिंदुस्थान के इतिहास में ये पांच दिन एक अन्य कारण से हमेशा याद रखे जाएंगे. क्योंकि इन पांच दिनों ने... किसी भी कीमत पर तब तक के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के बीच निरंतर लड़ाई को रोकने की... उद्घोषणा की थी, जो गजनी के महमूद के आक्रमण के जमाने से चली आ रही थी. ...भारतमाता जो अतीत के समय में शिवाजी, प्रताप सिंह, छत्रसाल, प्रतापादित्य, गुरु गोविंद सिंह और महादजी सिंधिया के द्वारा मुसलमानों की बेड़ी से मुक्त करा ली गई थी - उस भारतमाता ने उस दिन यह पावन आदेश दिया था, ‘आज के बाद समान हो और भाई हो; मैं तुम दोनों की समान रूप से माता हूं.’ ...” (1857, पृष्ठ 126)

दिल्ली की गद्दी पर बहादुर शाह जफर की ताजपोशी के बारे में भी वे काफी असहाय महसूस करते हुए विकृत ढंग का स्पष्टीकरण देते हैं : “... पुराने जमाने का मुगल राजवंश इस देश की जनता द्वारा नहीं चुना गया था. वह बलपूर्वक भारत पर थोपा गया था - विदेशी आक्रांताओं और देशी लोभियों के मिलेजुले शक्तिशाली प्रयासों से लादा गया था. ... बहादुर शाह जफर की आज जो ताजपोशी की गई थी, वह पुरानी गद्दी नहीं थी. ...इसके पहले की तीन या चार शताब्दी के दौरान सैकड़ों हिंदू शहीदों ने जो अपना खून बहाया था, वह व्यर्थ चला जाता. ... पांच शताब्दी से भी ज्यादा समय से हिंदू सभ्यता अपने जन्मसिद्ध अधिकारों पर विदेशी अतिक्रमण के खिलाफ रक्षात्मक युद्ध लड़ती आई थी. ...विजेताओं पर विजय पाई गई, और भारत एक बार फिर मुक्त हुआ, दासता और पराजय का धब्‍बा मिटा दिया गया. हिंदू फिर से हिंदुओं की भूमि के स्वामी बन गए...” (1857, पृष्ठ 283-84).

1857 पर लिखी अपनी पुस्तक में सावरकर ने मुस्लिमों की साहसपूर्ण लड़ाइयों और कुर्बानियों को दर्ज किया है. लेकिन बाद में उन्होंने मुस्लिमों से रहित भारत के पक्ष में तर्क दिया, ठीक वैसे ही जैसे कि हिटलर ने जर्मनी से यहूदियों को खदेड़ बाहर किया था. 1944 में सावरकर ने अमेरिकी पत्रकार टॉम ट्रीनर को कहा कि भारत में मुस्लिमों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए “जैसे कि अमेरिका में नीग्रो के साथ किया जाता है” - अर्थात् अलग कर दिया गया समुदाय; बसों, स्कूलों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर ‘गोरों की जगहों’ पर पहुंचने से रोक दिया गया समुदाय, मताधिकार और अन्य नागरिक अधिकारों से सर्वथा वंचित समुदाय.

1857 के योद्धाओं का सपना सावरकर की कल्पना से यथासंभव हद तक दूर था. वे लोग महज राजाओं और राजकुमारों की पुरानी व्यवस्था को बहाल करने के लिए नहीं लड़ रहे थे : वे नए समाज का खाका तैयार कर रहे थे जिसमें किसानों और उत्पीड़ित व हाशिये पर धकेली गई विभिन्न जातियों के लोगों को मर्यादा और मान्यता हासिल हो.

एक लोकतांत्रिक क्रांति

जब 1857 के योद्धाओं ने सत्ता संभाली, तो उनका शासन कैसा दिखता था ? तलमिज खलदुन ने अपने  निबंध ‘द ग्रेट रिबैलियन’ (द 1857 रिबैलियन, बिस्मय पति द्वारा संपादित) में लिखा कि मुगल शासक वस्तुतः एक संवैधानिक बादशाह भर थे. उस विद्रोह का क्रांतिकारी लोकतांत्रिक चरित्र उसके दरबार (दिल्ली में उसकी सर्वोच्च निर्णयकारी निकाय) द्वारा लिए गए कदमों से स्पष्ट हो जाता है. खलदुन ने लिखा, “जरूरतों ने इस दरबार को भारी और मनमाने कर लगाने को विवश कर दिया था. लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि कराधान का यह बोझ लगभग पूरी तरह उन वर्गों पर पड़ा जो इसे वहन करने लायक थे. टैक्स के उपायों से सड़क-का-आदमी अछूता रहा था. इसके विपरीत, दरबार ने उसे राहत पहुंचाने की कोशिश की थी. उसने जमींदारी व्यवस्था को खत्म करने और वास्तविक काश्तकारों को संपत्ति अधिकार देने के आदेश जारी किए. दरबार द्वारा पारित आदेशों से स्पष्ट होता है कि उसमें राजस्व मूल्यांकन की प्रणाली को समग्रतः दुरुस्त करने की मंशा निहित थी. बहरहाल, वह शासन इतने कम दिनों तक टिका कि उसे ये कार्यभार पूरे करने का मौका ही नहीं मिला.” 

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1942 भारत छोड़ो आंदोलन के शहीदों कनकलता बरुआ और मुकुंद काकती का स्मारक गोहपुर, असम

आज हिंदू वर्चस्ववादियों के हाथ में भारत का शासन है, और वे भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिशों में मशगूल हैं. वे इस आन्दोलन की मुख्य शक्तियों की भूमिका को विकृत करने का भी प्रयास कर रहे हैं. इस अध्‍याय में हम दो सर्वप्रमुख हिंदू वर्चस्ववादी संगठनों, हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जन्म से लेकर भारत की आजादी और इसके ठीक बाद तक उनके गतिपथ की जांच-पड़ताल करेंगे.

पंजाब हिंदू महासभा का गठन 1909 में, और हिंदू महासभा का गठन 1915 में हुआ था. आरएसएस का गठन 1925 में किया गया था. जब देश आजादी के लिए लड़ रहा था; जब स्वतंत्रता सेनानी जेलों में लंबा समय काट रहे थे और अपनी जिंदगी न्योछावर कर रहे थे, तब उस समय ये ‘हिंदू’ संगठन और उनके कर्ता-धर्ता क्या कर रहे थे ?

‘महासभा’ और आरएसएस के नेताओं ने अपना लक्ष्य साफ-साफ सामने रखा है. इसीलिये, हम उनके अपने खुद के लेखों, और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले अन्य लोगों द्वारा किए गए इन संगठनों के मूल्यांकनों को ही अपना आधार बनाएंगे.

क्या हिंदू महासभा और आरएसएस ने कभी भी ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ाई का समर्थन किया था?

आरएसएस और हिंदू महासभा के नेताओं ने ब्रिटिश-विरोधी स्वतंत्रता संग्राम के प्रति बारंबार अपना तिरस्कार दिखाया था.

गोलवलकर ने स्वतंत्रता संग्राम को “विनाशकारी” बताकर उसकी भर्त्सना की

“ब्रिटिशवाद-विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद बताया गया. आजादी के आन्दोलन के समूचे दौर, इसके नेताओं और आम जनता पर इस प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण का विनाशकारी असर पड़ा था.” (एमएस गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स, 1996, पृ. 138)

“लड़ाई के बुरे नतीजे निकले हैं. 1920-21 आन्दोलन के बाद नौजवान लोग उग्रवादी बनने लगे. ... 1942 के बाद लोग अक्सरहां यह सोचने लगे कि कानून की परवाह करने की कोई जरूरत नहीं है...” – 1920-21 के असहयोग आन्दोलन और 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रभाव के बारे में गोलवलकर (श्री गुरुजी समग्र दर्शन, ग्रंथ 4, पृ. 41)

“1942 में भी अनेक लोगों के दिलों में प्रबल भावना मौजूद थी. उस समय भी ‘संघ’ का रोजमर्रा का काम जारी रहा. ‘संघ’ ने कोई सीधी कार्रवाई न करने का फैसला लिया था”. (1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के बारे में गोलवलकर, श्री गुरुजी समग्र दर्शन, ग्रंथ 4, पृ. 40)

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत छोड़ो आन्दोलन को कुचलने में ब्रिटिश हुकूमत की मदद की

मुखर्जी ने भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बंगाल में मिनिस्ट्री छोड़ने से इन्कार कर दिया था. इतना ही नहीं, 1942 में बंगाल सरकार में एक मंत्री के बतौर उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश हुक्मरानों को सक्रिय सहयोग और सलाह भी दिए थे. 1942 में उन्होंने लिखा:

“सवाल यह है कि बंगाल में इस आन्दोलन का मुकाबला कैसे किया जाए? इस प्रांत में शासन इस प्रकार चलाया जाए कि सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद ... यह आन्दोलन इस प्रांत में जड़ नहीं जमा सके.”

“जहां तक कि इंग्लैंड के प्रति भारत के रवैये का सवाल है, तो इस वक्त उनके साथ किसी भी किस्म की लड़ाई नहीं होनी चाहिए. ... सरकार को उनलोगों का प्रतिरोध करना होगा, जो आंतरिक विक्षोभ अथवा असुरक्षा पैदा करने के लिए जन-भावानाओं को भड़काते हैं...” (श्यामा प्रसाद मुखर्जी, ‘लीव्ज फ्रॉम अ डायरी’, 1993, पृ. 175-190)

गोलवलकर को लगा कि वे शहीद ‘असफल’ हो गए जिनकी कुर्बानियां ‘संपूर्ण राष्ट्रीय हितों’ को पूरा नहीं कर सकीं. गोलवलकर ने हमें यह सवाल करने को कहा कि “क्या उससे (शहादतों से) संपूर्ण राष्ट्रीय हितों की पूर्ति होती है ?” (बंच ऑफ थॉट्स, पृ. 61-62)

उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के बारे में लिखा: “इसमें कोई संदेह नहीं कि ये शहीद होने वाले ऐसे लोग महान नायक हैं. ... लेकिन साथ ही, ऐसे लोग हमारे समाज में आदर्श नहीं समझे जा सकते हैं. हम उनकी शहादतों को ऐसी उच्चतम महानता नहीं मानते हैं जो आम लोगों के लिए वांछित हो. क्योंकि, आखिरकार वे अपना आदर्श हासिल करने में विफल रहे, और विफलता का मतलब है कि उनमें कोई घातक किस्म की त्रुटि थी....” (बंच ऑफ थॉट्स, पृ. 283)

और, सावरकर? क्या उन्होंने क्षमा याचिकाएं लिखी थीं?

वीडी ने हिंदू महासभा में शामिल होने के काफी पहले और जेल की सजा होने के पूर्व ब्रिटिश शासन का विरोध किया था. फिर से गिरफ्तार होने और मुकदमा चलने के ठीक बाद, जब उन्हें 1911 में अंडमान ले जाया जा रहा था, वे ब्रिटिश शासकों के प्रति अपनी निष्ठा जताने लगे और अपनी रिहाई की भीख मांगते हुए कई ‘क्षमा याचिकाएं’ लिखीं. उनके शर्मनाक खाते में ऐसी कम से कम सात क्षमा याचिकाएं हैं जिसमें उन्होंने अपनी रिहाई के बदले अंग्रेजों का स्वामिभक्त बने रहने की शपथ ली थी.

24 नवंबर 1913 को लिखी एक चिट्ठी में उन्होंने अपनी रिहाई मांगते हुए फिर से याचिका लिखी और वादा किया कि वे अपना रास्ता बदल लेंगे और ‘सरकार के प्रति निष्ठा के .... सबसे मजबूत पैरोकार’ बन जाएंगे – “यह भटका हुआ बेटा पितृतुल्य सरकार के नहीं, तो और किसकी चौखट पर लौटेगा?”

जनवरी 1924 में अपनी रिहाई हासिल करने के लिए सावरकर ने रिहाई आदेश में निर्धारित शर्तों को किसी मलाल के बगैर स्वीकार कर लिया “कि वे सरकार की अनुमति के बिना सार्वजनिक तौर पर या अकेले भी किसी किस्म की राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे.”

लेकिन राजनाथ सिंह कहते हैं कि गांधी ने सावरकर को क्षमा मांगने की सलाह दी थी ?

हाल के अपने एक भाषण में राजनाथ सिंह ने कहा कि सावरकर ने अपनी क्षमा याचिका इसीलिए लिखी, क्योंकि गांधी ने उन्हें ऐसा करने को कहा था. क्या यह सच है ?

तथ्य तो कुछ और कहते हैं:

सावरकर ने सात क्षमा याचिकाएं दी थीं, सबसे पहली याचिका 1911 में दी. उस वक्त गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे. वे 1915 में भारत लौटे थे. इसीलिए, जब सावरकर अपनी क्षमा याचिकाएं लिख रहे थे, तो उस समय गांधी का उनके साथ कोई संपर्क नहीं था.

1920 में गांधी ने सावरकर के छोटे भाई नारायण राव से कुछ कहा था, जब नारायण ने उनकी सलाह मांगी थी. गांधीजी ने एक चिट्ठी लिखकर कहा, “आपको सलाह देना मुश्किल है. बहरहाल, मेरी सलाह है कि इस मुकदमे के तथ्यों को एक संक्षिप्त याचिका में इस प्रकार समेटा जाए कि उससे यह स्पष्ट हो कि आपके भाई द्वारा किया गया जुर्म शुद्ध रूप से राजनीतिक किस्म का है.” इस प्रकार, गांधीजी ने सावरकर को अपना जुर्म कबूल करने को कहा; लेकिन यह भी बताया कि इसका मकसद राजनीतिक होना चाहिए, कोई अपराध नहीं. उन्होंने सावरकर को क्षमा मांगने की सलाह नहीं दी!

इतिहासकार राजमोहन गांधी, जो गांधीजी के पौत्र भी हैं, कहते हैं: “राजनाथ सिंह हमें यह विश्वास करने को कह रहे हैं कि सावरकर भाइयों के आग्रह पर गांधी ने 1920 में जो चिट्ठी लिखी थी, उसे 11 वर्ष पूर्व ही गांधी द्वारा दी गई सलाह के रूप में समझा जाए कि सावरकर को क्षमा याचिका देनी चाहिए. यह बात तो हद से ज्यादा बकवास है. यह बिल्कुल हास्यास्पद है.”

गांधीजी ने मई 1920 में ‘यंग इंडिया’ में जरूर लिखा था कि सावरकर भाइयों के साथ-साथ अली बंधुओं – मौलाना शौकत अली और मौलाना मोहम्मद अली – की रिहाई होनी चाहिए. लेकिन वे उनके लिए “दया की भीख नहीं मांग रहे थे” – वे तमाम राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग कर रहे थे, और उनमें वे भी शामिल थे जिनके विचार और तरीकों से वे सहमत नहीं थे.

हो सकता है, सावरकर द्वारा क्षमा याचना उनकी कार्यनीति रही हो? लेकिन क्‍या रिहा होने के बाद वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे?

यहां आइये, हम सावरकर और हिंदू महासभा के बारे में दो स्वतंत्रता सेनानियों – गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस – के मतों पर विचार करते हैं.

मई 1920 के ‘यंग इंडिया’ के उस लेख में गांधीजी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे यह महसूस करते हैं कि सावरकर बंधुओं को दी गई कारावास की सजा अन्यायपूर्ण है, लेकिन वे स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे. गांधी ने लिखा, “सावरकर बंधु यह दो-टूक कहते हैं कि वे ब्रिटिशों के साथ जुड़ाव से आजादी नहीं चाहते हैं. इसके विपरीत वे महसूस करते हैं कि ब्रिटिशों के साथ जुड़े रह कर ही भारत का भाग्य संवर सकता है.”

सुभाष बोस जून 1940 में सावरकर से मिले थे. उन्होंने इस मुलाकात के बारे में लिखा, “ऐसा लगा कि श्रीमान सावरकर अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों से नावाकिफ हैं और वे सिर्फ यह सोच रहे थे कि भारत में ब्रिटिश सेना में शामिल होकर हिंदुओं को कैसे सैन्य प्रशिक्षण दिलाया जा सके.” उन्होंने यह भी पाया कि न तो जिन्ना को और न ही सावरकर को स्वतंत्रता संग्राम में कोई अभिरुचि है – “मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा, इनमें से किसी से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है.” (नेताजी, कलेक्टेड वर्क्स, ग्रंथ 2, ‘द इंडियन स्ट्रगल’)

अपनी डायरी में लिखते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने यह दर्ज किया कि सुभाष बोस ने उनसे कहा कि अगर हिंदू महासभा बंगाल में एक राजनीतिक संस्था बनने की कोशिश करेगी तो “वे (बोस), जरूरत पड़ी तो बलपूर्वक भी, यह देखेंगे कि सचमुच जन्म लेने के पहले ही वह विनष्ट हो जाए.” (श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लीव्ज फ्रॉम अ डायरी, 1993)

सावरकर के जीवनीकार विक्रम संपत का दावा है कि बोस ने सावरकर की सराहना की थी. क्‍या यह सच है?

पत्रकार आयुष तिवारी ने विक्रम संपत द्वारा पेश किए गए एक उद्धरण की जांच करने की कोशिश की है जिसे संपत ने सुभाष बोस का वक्तव्य बताया है और जिसमें सावरकर की भरपूर प्रशंसा की गई है. आयुष ने इस उद्धरण को धनंजय कीर द्वारा लिखित सावरकर की जीवनी में पाया, लेकिन कीर ने इस उद्धरण के लिए किसी स्रोत का जिक्र नहीं किया है. आयुष ने कहा, “वस्तुतः, ऐसा कोई प्राथमिक स्रोत नहीं है जहां से यह उद्धरण लिया गया हो.” इस प्रकार संपत ने कीर के लेखन से ऐसे उद्धरण का इस्तेमाल किया है जिसका कोई प्रमाणिक स्रोत नहीं है और जिसकी कोई जांच-पड़ताल नहीं की गई ! जैसा कि हमने ऊपर देखा, नेताजी के अपने खुद के लेखों में सावरकर और हिंदू महासभा के बारे में अत्यंत नकारात्मक मूल्यांकन किया गया है.

आयुष ने आगे लिखा, “नेताजी के संघर्षों के लिए सावरकर को श्रेय देने की प्रवृत्ति काफी पुरानी है. वस्तुतः इस प्रवृत्ति की शुरूआत खुद सावरकर ने शुरू की थी, जब उन्होंने अपनी पुस्तक ‘तेजस्वी तारे’ में लिखा जो स्वतंत्रता के बाद प्रकाशित हुई थी.”

क्या राजाजी ने सावरकर की जीवनी (1926) लिखी थी, जैसा कि संपत दावा करते हैं ?

पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने एक ऐसे भड़काऊ उद्धरण की जांच-परख की है जिसे संपत ने सी. राजगोपालाचारी (राजाजी) द्वारा लिखित बताया है और जिसमें यह दावा किया गया है कि राजाजी ने सावरकर की जीवनी (1926) लिखी है जो ‘चित्रगुप्त’ छद्मनाम से प्रकाशित हुई है.

लेकिन यह उद्धरण राजाजी की संग्रहीत रचनाओं में कहीं नहीं मिलता है. आशुतोष ने पाया कि संपत ने यह उद्धरण ‘हिंदू महासभा पर्व’ से लिया है, जिसे सावरकर के भाई बाबाराव सावरकर ने लिखा था. उस उद्धरण के लिए यह कोई प्राथमिक स्रोत नहीं है.

यह गौरतलब है कि वीर सावरकर प्रकाशन द्वारा 1986 में पुनः छापी गई 1926 वाली ‘जीवनी’ में जो प्राक्कथन है, उसमें साफ लिखा हुआ है कि “चित्रगुप्त और कोई नहीं, स्वयं वीर सावरकर हैं”.

गांधी, बोस या राजाजी से सावरकर के लिए प्रमाण लेने की कोशिशें क्यों?

विक्रम संपत और राजनाथ सिंह अब जोड़-तोड़ करके सावरकर के लिए विश्वसनीयता हासिल करना चाहते हैं. पर उनकी विश्‍वसनीयता अनेक क्षमा याचिकाओं और सांप्रदायिक व ब्रिटिश-परस्त नीतियों के चलते दागदार हो चुकी है. इसीलिए वे दावा करते हैं कि गांधीजी ने उन्हें क्षमा याचना करने को कहा था, कि बोस ने उनकी तारीफ की थी और कि राजाजी ने उनकी जीवनी लिखी है. लेकिन ये सब बातें मनगढ़ंत हैं जिसे खुद सावरकर और उनके भाइयों ने परोसा है !

अंडमान जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ने क्या किया?

यह स्पष्ट है कि कैद से रिहा होने के समय से लेकर अपने जीवन के अंत तक सावरकर ने अपनी क्षमा याचिकाओं में ब्रिटिश शासकों से किए गए अपने वादे को निभाते रहे. वे किसी भी रूप में आजादी की लड़ाई में कभी शामिल नहीं हुए. उन्होंने 1923 में अपना नफरत-भरा हिंदू वर्चस्ववादी घोषणापत्र हिंदुत्व लिखा, और पूरी जिंदगी सिर्फ हिंदू वर्चस्ववादी नीतियों के लिए काम करते रहे.

जैसा कि बोस ने पाया, सावरकर ने भारत छोड़ो आन्दोलन का समर्थन करने अथवा ब्रिटिश शासन के खिलाफ हथियारबंद प्रतिरोध खड़ा करने में कोई रुचि नहीं दिखाई. उनके दिमाग में सिर्फ यह बात भरी हुई थी कि ब्रिटिश सेना में कैसे हिंदुओं को घुसाया जाए और उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिलाया जाए, ताकि मुस्लिमों से लड़ाई लड़ी जा सके !

और, क्या हम यह भूल सकते हैं कि गांधीजी की हत्या के पीछे भी सावरकर ही मुख्य साजिशकर्ता थे?

गांधी की हत्या के लिए सावरकर को कभी सजा नहीं दी गई

gandhi murder_hनाथूराम गोडसे को गांधीजी की हत्या के लिए फांसी दी गई और उसके भाई को इस साजिश में शामिल होने के लिए जेल की सजा दी गई; लेकिन मुख्य साजिशकर्ता सावरकर किसी भी सजा से बच निकले. हालांकि हिंदू महासभा का सदस्य बडगे मुखबिर बन गया था और उसने गवाही दी थी कि आप्‍टे और गोडसे सावरकर से मिले थे, वहां से हथियार लेकर निकले और सावरकर ने उन दोनों को “यशस्वी होउंया” कहकर आशीर्वाद दिया. बडगे ने आगे कहा कि आप्टे ने उसे बताया कि सावरकर को यकीन था कि “गांधी के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं” और इसीलिए हत्या की कोशिश सफल होगी. लेकिन इसकी स्वतंत्र पुष्टि न हो पाने के कारण सावरकर को संदेह का लाभ मिला और वे सजा से बच गए.

बहरहाल, गृह मंत्री सरदार पटेल सावरकर के अपराध के बारे में आश्वस्त थे. 27 फरवरी 1948 को प्रधान मंत्री नेहरू को लिखी एक चिट्ठी में उन्होंने कहा, “यह सावरकर के सीधे नेतृत्व में चलने वाला हिंदू महासभा का एक उन्मादी धड़ा है, जिसने यह साजिश रची और इसे पूरा करवाया.”

सावरकर की मौत के बाद जस्टिस कपूर आयोग की जांच में अतिरिक्त प्रमाण पाए गए जिससे बडगे के बयान की पुष्टि होती है और यह भी संपुष्ट होता है कि सावरकर इस हत्या की साजिश के मुख्य रचयिता थे. 1968 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में कपूर आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि महात्मा गांधी की हत्या में जो लोग भी शामिल थे, वे सब जब-न-तब सावरकर सदन में इकट्ठे होते थे और सावरकर के साथ उनकी लंबी वार्ताएं होती थीं. ये तमाम तथ्य मिलकर केवल मात्र इसी सिद्धांत को पुष्ट करते हैं कि सावरकर और उसके ग्रुप ने ही हत्या की है.

पटेल ने आरएसएस को भारत के लिए खतरा बताया था

हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखी एक चिट्ठी (18 जुलाई 1958) में पटेल ने कहा:

“मेरे मन में कोई संदेह नहीं कि हिंदू महासभा का चरमपंथी धड़ा (गांधी की हत्या की) साजिश में शामिल था. आरएसएस की कार्रवाइयां स्पष्टतः सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा हैं. हमारी खबरें दिखाती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद ये कार्रवाइयां खत्म नहीं हुई हैं. बल्कि समय बीतते जाने के साथ आरएसएस की शाखाएं ज्यादा उद्धत होती जा रही हैं और वे विध्वंसक गतिविधियों में अधिकाधिक शामिल हो रही हैं.”

सितंबर 1948 में गोलवलकर को लिखे एक पत्र में पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने को कारणों को फिर से बताया:

“उनके भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे होते थे. ... इस जहर के अंतिम नतीजे के बतौर समूचे देश को गांधीजी के अमूल्य जीवन की कुर्बानी झेलनी पड़ी है. आरएसएस के प्रति सरकार अथवा जनता की लेशमात्र सहानुभूति नहीं रह गई है. ... गांधीजी की मृत्यु के बाद जब आरएसएस के लोगों ने खुशियां मनाईं और मिठाइयां बांटी तो उसके प्रति विरोध और ज्यादा प्रबल हो गया.”

निष्कर्ष:

आरएसएस और भाजपा के शीर्ष नेतागण जहां गोडसे से ‘शारीरिक दूरी’ बनाये रखते हैं, वहीं वे सावरकर का स्तुतिगान भी करते हैं. बहरहाल, ज्यों ज्यों भाजपा का चेहरा अधिक खुल रहा है और वह आश्वस्त बनती जा रही है, यह ‘दूरी’ भी क्रमशः मिटती जा रही है. भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर को लोकसभा का उम्मीदवार बनाने का मोदी का फैसला और उनका एलान कि “कोई हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता है” इस संदर्भ में विचारणीय हैं. प्रज्ञा ठाकुर (सावरकर के उत्तराधिकारियों द्वारा संचालित) ‘अभिनव भारत’ की आतंकी साजिशों का हिस्सा थीं. वे खुलेआम और बारंबार बोलती रहीं कि गांधीजी की हत्या करने वाला आतंकी गोडसे एक देशभक्त था! और सावरकर भले ही यह दावा करते हों कि उन्होंने गोडसे के हत्या प्रयासों को आशीर्वाद नहीं दिया था, लेकिन आज हिंदू महासभा गोडसे के मंदिर बनवाने की मंशा जाहिर कर रहा है.

यह बिल्कुल स्पष्ट है कि आरएसएस और हिंदू महासभा ने ब्रिटिश शासन के साथ सांठगांठ की थी और वे स्वतंत्रता आन्दोलन में कभी शामिल नहीं रहे थे. इसके बजाय वे सांप्रदायिक और आतंकवादी साजिशों में संलिप्त रहे थे – जिनमें सर्वाधिक जघन्य थी गांधीजी की हत्या की साजिश! और आज, वही ताकतें साम्राज्यवाद के साथ सांठगांठ कर रही हैं और सांप्रदायिक हिंसा तथा दाभोलकर, पनसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे लोगों की हत्या की साजिशों में संलिप्त हैं.

people march
15 अगस्त 1947 को दिल्ली में नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक पर जमा लोग - विकिमीडिआ कॉमन्स
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भारत विभाजन, 1947 - विकिमीडिआ कॉमन्स

भारत को इन अनुभवों से क्या सीखना चाहिए

मोदी सरकार ने चौदह अगस्त (पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस) को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया है. यह विभाजन की विभीषिका को हमारे देश के भीतर पुनर्जीवित करने और भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव बनाए रखने की कोशिश है.

मोदी सरकार चौहत्तर वर्षों की भारत की आजादी को विभाजन के खून सने अध्याय में सीमित क्यों कर देना चाहती है? इस विभाजन में सीमा के दोनों तरफ हिन्दू, मुसलमान और सिखों ने जनसंहार और बलात्कार झेले. यह संघ और हिंदुत्ववादी राजनीति द्वारा हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश है. स्वाधीनता के उस इतिहास को वे बदलना चाहते हैं, जिसका वे कभी हिस्सा ही नहीं थे.

आरएसएस हिन्दू वर्चस्ववाद की विचारधारा और परियोजना है जिसका सपना भारत को एक ऐसे राज्य में तब्दील करना है जहाँ कोई विपक्षी राजनीति न हो, जहाँ हिंदुओं के नाम पर आरएसएस का शासन चले और गैर-हिन्दू दूसरी श्रेणी के नागरिक बनें या फिर वे नागरिक ही न रहें. भारत के बारे में उनका यह दृष्टिकोण स्वाधीनता संघर्ष की मूल भावना के एकदम खिलाफ है. देश के सभी समुदायों ने स्वाधीनता के लिए समान रूप से संघर्ष किया और बलिदान दिया, इसलिए इस मुल्क पर सभी का बराबरी का हक है.

क्या भारतीय राष्ट्रवाद, यूरोपीय ढंग के राष्ट्रवाद से अलग है क्योंकि यह ‘आर्थिक’ न होकर ‘सांस्कृतिक’ है?

संघ के नेताओं द्वारा किया जाने वाला यह दावा बुरी तरह गलत है.

यूरोप में राष्ट्र-राज्य का उदय एक ‘कल्पित’ अस्मिता के बतौर पूँजीवाद के उभार के साथ हुआ. इसका मकसद पूँजीवाद के लिए एकल घरेलू बाजार बनाने की ऐतिहासिक जरूरत को पूरा करना था. साथ ही इसका मकसद एक नई तरह की सरकार के लिए एकता के सूत्र की तरह काम करना था जहाँ किसी राजा के प्रति ‘वफादारी’ को राष्ट्र-राज्य के प्रति वफादारी में बदल दिया गया. भाषा और धर्म को राष्ट्रवाद के आधार के रूप में पेश किया गया. इस तरह सोलहवीं से अट्ठारहवीं शताब्दी के बीच उभरते हुए पूँजीवाद की आर्थिक और राजनीतिक आकांक्षाएँ ही राष्ट्रवाद का सारतत्व थीं.

उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी और बीसवीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों में राष्ट्रवाद के एक नए दौर का आरंभ हुआ. इस दौर में पहली पीढ़ी के पूँजीवादी देशों द्वारा उपनिवेशित और उत्पीड़ित देशों के जनगण ने गुलामी से मुक्ति के आह्वान से राष्ट्रवाद में नया सारतत्व भर दिया. इस तरह साम्राज्यवादविरोध और संप्रभुता की आकांक्षा ने उपनिवेशित देशों में राष्ट्रवाद की अंतर्वस्तु निर्मित की. भारतीय राष्ट्रवाद एकताबद्ध करने वाले एक धर्म पर आधारित नहीं था, बल्कि इसका आधार औपनिवेशिक उत्पीड़कों से संघर्ष का साझा लक्ष्य था.

मुगलों से नहीं कंपनी राज से लड़ते हुए हुआ भारतीय राष्ट्रवाद का उदय

1857 में कंपनी राज (ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी) के खिलाफ हमारा पहला स्वाधीनता संग्राम उपनिवेशविरोधी राष्ट्रवाद और एक राष्ट्र के रूप में संगठित होने की पहली अभिव्यक्ति है. सिधो-कान्हू के महान संथाल-हूल विद्रोह की पृष्ठभूमि में धार्मिक संकीर्णता से ऊपर उठकर ‘वर्दीधारी किसान’ 1857 में उठ खड़े हुए और उन्होंने बतौर भारतीय, बतौर हिन्दुस्तानी, हिंदुस्तान के मालिक के बतौर अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी. उनकी जुबानों से अजीमुल्ला खान का लिखा कौमी तराना ‘हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा’ गूँज रहा था. इस तरह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पैदाइश के तीन दशक पहले ही सामंती रजवाड़ों के अलावा उत्पीड़ित जातियों और महिलाओं ने साम्राज्यवादविरोधी राष्ट्रवाद के जन्म की घोषणा कर दी थी.

1857 के पहले भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अनेक किसान और आदिवासी बगावतें हुईं. 1857 ऐसी पहली बगावत थी जिसने सबके हिन्दुस्तानी होने और लुटेरे फिरंगियों से अपने मुल्क की रक्षा करने का नारा बुलंद किया.

अंग्रेज 1857 में विभिन्न समुदायों द्वारा प्रदर्शित चट्टानी एकता से बौखलाए हुए थे. अंग्रेज अफसर थॉमस लो ने लिखा: “गाय मारने वाले और गाय की पूजा करने वाले, सूअर से नफरत करने वाले और उसे खाने वाले, अल्लाह को खुदा और मोहम्मद को पैगंबर मानने वाले तथा ब्रह्म के रहस्य के उपासक, इस एक मकसद के लिए संगठित हो गए थे.” बख्त खान, सिरधारी लाल, गौस मोहम्मद और हीरा सिंह, यानि मुसलमान, हिन्दू, सिख, सभी क्रांतिकारी सेना के कमांडर थे. रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने के सेनापति गुलाम गौस खान और पैदल सेना के सेनापति खुदा बक्श थे. उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा अधिकारी मुंदार, जो उनके साथ लड़ते हुए शहीद हुईं, एक मुस्लिम महिला थीं.

1857 में साथ-साथ लड़ते हुए हिन्दू-मुसलमानों के शहादत देने के अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं. 1857 के क्रूर दमन के बाद अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनायी और यह नीति मुसलमान समुदाय के खिलाफ विशेष रूप से नफरत भरी थी.

युद्ध शासकों के बीच था या धर्मों के बीच ?

आरएसएस दावा करता है कि मुगल शासन ‘विदेशी’ शासन था, हिन्दू उसके खिलाफ थे और उसका प्रतिरोध कर रहे थे. इसलिए सनातन काल से ही भारतीय राष्ट्रवाद का हिन्दू चरित्र था आगे भी इसे ही कायम रहना चाहिए. आरएसएस के सिद्धांतकार गोलवलकर उपनिवेशवादविरोधी राष्ट्रवाद की जगह ऐसे हिन्दू राष्ट्रवाद की स्थापना करना चाहते थे जो मुसलानों के प्रति घृणा पर आधारित हो. उन्होंने लिखा: “अंग्रेज विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के बराबर मान लिया गया था, इस प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण का भारत के पूरे स्वाधीनता संघर्ष, इसके नेताओं और जनसामान्य पर विनाशकारी असर हुआ.” (गोलवलकर, बंच ऑफ थाट्स)

आश्चर्य नहीं कि आरएसएस का यह दृष्टिकोण पूरी तरह अंग्रेज-परस्त है. सबसे पहले जेम्स मिल नामक अंग्रेज ने भारतीय इतिहास को “हिन्दू काल, मुसलमान काल और ब्रिटिश काल” में बाँटा था. जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि “मुगल शासन को याद करना गुलामी की मानसिकता का परिचायक है” तो वे अंग्रेजों के एक झूठ को ही फैला रहे होते हैं.

आरएसएस की हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा से सहमत और जेम्स मिल के काल विभाजन को स्वीकार करने वाले इतिहासकार आर सी मजूमदार को भी स्वीकार करना पड़ा कि एक राष्ट्र के रूप में इंडिया या भारत का विचार ‘उन्नीसवीं शताब्दी के छठें और सातवें दशक से पहले वास्तविक राजनीति में कोई भूमिका नहीं रखता था’. इसलिए हिन्दू शासक और सिपाही न तो ‘भारत’ के चैंपियन थे और न ही मुस्लिम शासक और सिपाही ‘आक्रांता’ थे.

तथ्यों से जाहिर है कि मुगल काल के युद्ध, दो शासकों के बीच युद्ध हुआ करते थे, न कि दो धर्मों या समुदायों के बीच.

कुछ उदाहरण देखिए.

1576 में हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर के सेनापति आमेर के हिन्दू शासक मान सिंह थे और उनका मुकाबला महाराणा प्रताप की सेना से हुआ जिसके सेनापति हाकिम खान सूर, एक मुसलमान थे.

शिवाजी द्वारा अफजल खान को पराजित करने का उदाहरण भी हमारे सामने है. हमें यह कहानी पता है कि शिवाजी बिना किसी हथियार के अफजल खान से मिलने के लिए जा रहे थे लेकिन उनके अंगरक्षक ने उन्हें बघनखा साथ ले जाने की सलाह दी. जब अफजल खान ने शिवाजी पर हमला किया तो उन्होंने इसी बघनखे का इस्तेमाल करने खान की हत्या की. वह अंगरक्षक कौन था? उसका नाम था रुस्तम जवान, जोकि एक मुसलमान था. जब शिवाजी ने अफजल खान को मार दिया तो उसके सहायक कृष्णजी भास्कर कुलकर्णी [हिन्दू] ने अपने मालिक की हत्या का बदला लेने के लिए शिवाजी को मारने की कोशिश की.

तीसरा उदाहरण टीपू सुल्तान का है जोकि 1700 में मैसूर के शासक थे. उनके खिलाफ अंग्रेजों ने मराठा सेना नियुक्त की थी. अंग्रेजों के आदेश पर ‘हिन्दू’ मराठा सेना ने मैसूर के शृंगेरी मठ को बुरी तरह लूटा. टीपू ने इस लूटपाट के बाद न सिर्फ मूर्ति के उद्धार के लिए दान दिया बल्कि देवी को चढ़ावा भी भेजा. हिन्दू सेना ने मंदिर तबाह किया और एक मुसलमान शासक ने इसका उद्धार करने के लिए धन और संसाधन मुहैया करवाया.

भारतीय राष्ट्रवाद उपनिवेशकों, कंपनी राज के दमन और लूट के खिलाफ लड़ते हुए पैदा हुआ था, मुगल राज के खिलाफ नहीं. विभिन्न धर्मों, जातियों और समुदायों और एकता की बुनियाद पर यह राष्ट्रवाद खड़ा हुआ था.

मुगल राज के बारे में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का यह सटीक मूल्यांकन याद रखने लायक है कि “मुसलमानों के आगमन के साथ ही धीरे-धीरे एक नए तरह का मेल-जोल पैदा हुआ. हालांकि उन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार नहीं किया पर भारत को अपना घर बना लिया और यहाँ के लोगों के आम जन जीवन, उनकी खुशियों और तकलीफों के साझेदार बन गए. इस आपसी सहयोग से एक नई कला और नयी तहजीब का उदय  हुआ.”

भगत सिंह बनाम सावरकर: शहादत बनाम आत्म-समर्पण

आरएसएस के विचारक गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थाट्स’ के ‘शहीद, महान; पर आदर्श नहीं’ नामक लेख में लिखा कि “ऐसे लोग हमारे समाज के लिए आदर्श नहीं हो सकते. हम उनकी शहादत को महानता के ऐसे शिखर की तरह नहीं देख सकते जिनसे लोगों को प्रेरणा लेनी चाहिए क्योंकि वे अपने मकसद को हासिल करने में नाकाम रहे. यह नाकामी इस बात का सबूत है कि उनमें कुछ भयानक कमियाँ मौजूद थीं.” गोलवलकर ने देशवासियों को सलाह दी कि देश की आजादी के लिए अपनी शहादत देने के लिये तैयार रहना “पूरी तरह राष्ट्रहित” में नहीं है.

स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में गोलवलकर के ये विचार कोई अपवाद नहीं थे. आमतौर पर हिन्दू वर्चस्ववादी विचारक ऐसा ही सोचते थे. हिन्दुत्व के विचारक सावरकर को सजा सुनाए जाने के बाद का रुख और मृत्युदंड के सामने क्रांतिकारी भगत सिंह का रुख, दोनों विचारधाराओं के अंतर को हमारे सामने बखूबी रखता है.

पचास वर्ष की सजा पाकर अंडमान की सेलुलर जेल में कैद होकर पहुँचने वाले सावरकर ने अपनी जल्द रिहाई के लिए 1911 में ही अंग्रेजी हुकूमत से विनती शुरू कर दी थी. फिर 1913 से लेकर 1921 में दूसरी जेल में तबादला होने के पहले तक उन्होंने रिहाई के लिए कई प्रार्थना पत्र लिखे और आखिरकार 1924 में रिहा कर दिए गए. अपने प्रार्थना पत्रों में उन्होंने अंग्रेजों से विनती की कि उन्हें रिहा किया जाए, बदले में वे हमेशा अंग्रेजों के वफादार बने रहेंगे. उन्होंने वादा किया कि वे न केवल स्वाधीनता के लिए संघर्ष को छोड़ देंगे बल्कि ‘भटके हुए’ युवा स्वतंत्रता सेनानियों को फिर से अंग्रेजी हुकूमत का वफादार बनाने के लिए काम करेंगे. जेल में रहते हुए उन्होंने ‘साधारण कैदियों’ की तुलना में ‘बेहतर खाना’ न मिलने, और ‘विशेष व्यवहार’ न किए जाने की शिकायत की, जबकि उन्हें ‘डी’ श्रेणी के कैदी का दर्जा प्राप्त था. सावरकर ने घोषणा की कि “मैं अंग्रेजी  सरकार की वफादारी और संवैधानिक प्रगति का दृढ़ प्रचारक रहूँगा क्योंकि प्रगति का यही एकमात्र रास्ता है.”

इसके विपरीत औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ ‘युद्ध छेड़ने’ के इल्जाम में मृत्युदंड पाए भगत सिंह और उनके साथियों ने बहादुरीपूर्वक घोषित किया कि “हम युद्ध की घोषणा करते हैं. यह युद्ध जारी है और तब तक जारी रहेगा जब तक मुट्ठी भर परजीवी भारत की उत्पीड़ित जनता और इसके संसाधनों को लूटते रहेंगे.” उन्होंने आगे बढ़कर माँग की कि वे युद्धबंदी हैं और उनके साथ ‘युद्धबंदियों’ जैसा बरताव किया जाए. उन्होंने कहा “हम माँग करते हैं कि हमें फाँसी देने की जगह गोली से उड़ा दिया जाए.” उन्होंने अंत में लिखा “हम माँग करते हैं और यह उम्मीद करते हैं कि आप सेना की एक टुकड़ी भेजेंगे और हमारी हत्या को अंजाम देंगे.”

अंग्रेजपरस्त आरएसएस बनाम विभिन्न विचारधाराओं वाले स्वतंत्रता सेनानी

इस बात के पर्याप्त दस्तावेज हैं कि आरएसएस और हिन्दू महासभा ने स्वाधीनता संघर्ष में भागीदारी नहीं की बल्कि अंग्रेजों के साथ सांठ-गाँठ में लगे रहे. अब भाजपा और आरएसएस के नेता स्वाधीनता आंदोलन में संघ को ‘घुसाने’ की मूर्खतापूर्ण कोशिशों में मुबतिला हैं.

आरएसएस के प्रतिनिधि राकेश सिन्हा का हाल-फिलहाल का लेख ऐसी ही कोशिशों का एक नमूना है. 15 अगस्त 2021 को इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक लेख की शुरुआत ही भारत की स्वाधीनता के पचहत्तरवें वर्ष के समारोह में “स्वाधीनता संघर्ष और उससे जुड़ी घटनाओं और प्रतीकों के विकृत महिमामंडन” के खिलाफ चेतावनी देते हुए होती है. वे प्रतीक और घटनाएं कौन सी हैं जिनके ‘विकृत महिमामंडन’ का सिन्हा विरोध कर रहे हैं? आरएसएस की अतीत में गाँधी के प्रति घृणा और आज नेहरू के प्रति घृणा को देखते हुए इस बात का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है.

राकेश सिन्हा का तर्क है कि स्वाधीनता सेनानियों के बीच हिंसक और अहिंसक तरीकों या धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल करने या न करने के बारे में काफी मतभेद थे. यह कोई नया बिन्दु नहीं है. सिन्हा से पहले भी बहुत से लोग इस बारे में लिख चुके हैं.

राकेश सिन्हा का यह दावा कि आरएसएस भी स्वाधीनता आंदोलन की ऐसी प्रतिवादी धारा थी जिसके योगदान को अब तक नकारा गया है, पूरी तरह बकवास है. वे लिखते हैं कि “सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित फारवर्ड ब्लॉक और आजाद हिन्द फौज जैसी शक्तियाँ, संघ-परिवार और अन्य क्रांतिकारी अपने सामाजिक आर्थिक दृष्टिकोण में मतभिन्नता के बावजूद अंग्रेजी हुकूमत को समाप्त करने के लिए अभियान संचालित कर रहे थे और हिंसा को नैतिक मानते थे. ठीक उसी समय जनता को मुख्यधारा के नेतृत्व के द्वारा ऐसी विचारधारा और उसके कार्यक्रमों के खिलाफ समझाया जा रहा था.” इस तरह सिन्हा आजाद हिन्द फौज और फारवर्ड ब्लॉक तथा भगत सिंह के एचएसआरए जैसी ‘हिंसा’ का समर्थन करने वाली ताकतों के बीच बिना किसी प्रमाण के आरएसएस को घुसा देने की कोशिश करते हैं और इसके खिलाफ ‘अहिंसा’ की मुख्यधारा की राजनीति को खड़ा करते हैं. यह पूरी तरह हास्यास्पद है. आरएसएस ने केवल मुसलमानों के खिलाफ ही हिंसा दिखाई, अंग्रेजों के खिलाफ कभी नहीं. कभी भी किसी संघ के नेता ने अंग्रेजी शासन को खत्म करने की वकालत नहीं की बल्कि उन्होंने तो ‘अंग्रेज विरोध’ से बचने की सलाह दी और मुसलमानों के खिलाफ नफरत और हिंसा का प्रचार किया. बोस, भगतसिंह गाँधी, नेहरू और आजाद, सभी हिन्दू वर्चस्वववादी राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक राजनीति को खारिज करने के मामले में पूरी तरह एकमत थे.  

rss_quit indiaहिंसा और अहिंसा में स्वाधीनता संघर्ष को बाँटने का तरीका बहुत पुराना और जड़ हो चुका है. उनकी विचारधारात्मक प्रेरणाओं और रणनीतियों का अध्ययन करना इस तरह की फतवेबाजी से कहीं बेहतर तरीका होगा. हिंसा या अहिंसा का रास्ता अपनाना बहस का मुद्दा नहीं है. बहस का मुद्दा यह है कि उन्होंने सांप्रदायिक हिन्दू वर्चस्ववादी ‘राष्ट्रवाद’ को खारिज किया या नहीं. इस मामले में बोस, भगतसिंह, गाँधी, नेहरू और मौलाना आजाद, एक पक्ष में समझौताहीन ढंग से धर्मनिरपेक्ष दिखाई पड़ते हैं तो दूसरी तरफ लाजपत राय और तिलक जैसे नेता हैं जो हिन्दू वर्चस्ववादी विचारधारा के प्रति थोड़े आकर्षित जरूर हैं लेकिन अंग्रेजी शासन का दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध करने के पक्ष को कमजोर नहीं पड़ने देते. आरएसएस, इन दोनों से एकदम भिन्न है, उसका मूल चरित्र अंग्रेजी हुकूमत के साथ साठ-गाँठ और मुसलमानों के प्रति घृणा है. इसलिए आरएसएस भात के कंकड़ की तरह है जो आप की आँखों को धोखा देते हुए भात में छिप तो सकता है लेकिन आपके दाँत उसे महसूस कर लेते हैं.

1920 का दशक

कांग्रेस के 1921 के अहमदाबाद अधिवेशन में मौलाना हसरत मोहानी ने पहली बार पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पेश किया. गाँधी और पूरी कांग्रेस 1929 के पहले तक इस माँग से सहमत नहीं थी.

1920 के दशक में अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं कौन सी थीं? भारत की कम्युनिस्ट पार्टी और आरएसएस, दोनों ही 1925 में अस्तित्व में आए.

भाकपा की स्थापना मजदूर वर्ग के संघर्षों और 1922-23 के बीच चार कम्युनिस्ट समूहों के उभार की पृष्ठभूमि में हुई. 1917 की रूस की बोल्शेविक क्रांति के प्रेरणादायी असर और चौरी-चौरा की घटना के चलते गाँधी द्वारा असहयोग आंदोलन को विवादास्पद ढंग से बीच में ही वापस ले लेने की घटना वह पृष्ठभूमि निर्मित करती है जिसने भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

अरिंदम सेन ने अपनी लोकप्रिय पुस्तिका ‘स्वाधीनता संघर्ष में कम्युनिस्टों की भूमिका’ में लिखा कि “अंग्रेज शासकों ने कम्युनिस्टों को अपना सबसे खतरनाक दुश्मन माना. 1920 और 1930 के दशक के शुरुआती वर्षों में पेशावर, कानपुर, मेरठ समेत कई अन्य षड्यन्त्र केस इसका पुख्ता सबूत हैं. इनमें मेरठ षड्यन्त्र केस सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हुआ. मजदूर संघर्षों के उठते ज्वार, वर्कर्स पीजेन्ट्स पार्टी के तेज फैलाव, साइमन कमीशन के विरोध में साम्राज्यवाद विरोधी जन-आंदोलन के पुनर्जीवन, भगतसिंह और उनके साथियों की क्रांतिकारी गतिविधियों और राष्ट्रवादी नेताओं के एक धड़े के कम्युनिस्टों के करीब आने से अंग्रेज सरकार बुरी तरह बौखलाई हुई थी. 1929 में दमन चक्र चल पड़ा. इनमें सबसे महत्वपूर्ण थे मेरठ षड्यन्त्र केस, पब्लिक सेफ्टी बिल व ट्रेड डिसप्यूट बिल, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव पर मुकदमा तथा मृत्युदंड. मार्च 1929 में कलकत्ता, बॉम्बे और देश के अन्य हिस्सों से 31 मजदूर नेताओं (इनमें तीन अंग्रेज भी शामिल थे) को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें एक षड्यन्त्र मामले में मेरठ लाया गया. आरोपित कम्युनिस्टों ने अदालत का भरपूर इस्तेमाल अपनी विचारधारा और उद्देश्यों के प्रचार के लिए बखूबी किया. कम्युनिस्ट और राष्ट्रवादी नेताओं के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की कोशिश भी नाकाम रही. नेहरू, गाँधी व दूसरे नेताओं ने मेरठ जेल का दौरा किया और आरोपित कम्युनिस्टों ने भी विभिन्न जेलों में राजनीतिक कैदी का दर्जा प्राप्त करने के लिए संघर्षरत सत्याग्रहियों को एकता संदेश भेजे. शुरू से ही कम्युनिस्टों ने भारत में अंग्रेजी शासन के दोमुँहेपन और उनकी तथाकथित ‘सभ्य’ न्याय व्यवस्था का भंडाफोड़ किया. इस मुकदमे के खिलाफ न केवल दुनिया भर के मजदूरों ने आंदोलन किया बल्कि रोमाँ रोलाँ और अल्बर्ट आइन्स्टाइन जैसे लोगों ने भी इस मुकदमे के खिलाफ आवाज उठायी.”

कांग्रेस के भीतर पूर्ण स्वराज के लिए संघर्ष करने वालों, कम्युनिस्टों और क्रांतिकारियों द्वारा स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्षों व सामाजिक आर्थिक बदलाव के संघर्षों के बरक्स स्वाधीनता आंदोलन में भागीदारी के संदर्भ में आरएसएस के पास दिखाने लिए कुछ नहीं है.

अशफाकुल्लाह की चेतावनी

‘शुद्धि आंदोलन’ के जरिए मुसलमानों को ‘शुद्ध’ करने और उनका फिर से हिन्दू धर्म में धर्मांतरण करने के जरिए सांप्रदायिक जहर फैलाने की कोशिशों और इसके जवाब में इस्लाम का प्रसार करने के लिए ‘तबलीग’ आंदोलन के चलते मृत्युदंड की सजा पाए हुए काकोरी के शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्लाह खान, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशन सिंह काफी चिंतित थे. 19 दिसंबर 1927 को फाँसी पर चढ़ाए जाने के तीन दिन पहले अशफाक की चिट्ठी फैजाबाद जेल से चोरी से बाहर आई. इस चिट्ठी में उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों से अपील की कि ‘एकताबद्ध रहिए और प्यार से रहिए. नहीं तो आप इस मुल्क की लूट के लिए जिम्मेदार होंगे और आप भारत की गुलामी के लिए जिम्मेदार ठहराए जाएंगे.’ उन्होंने लिखा कि “ये झगड़े और बखेड़े मेटकर आपस में मिल जाओ/अबस तफरीक है तुममें ये हिन्दू औ मुसलमाँ की.”

नेताजी ने हथियारबंद प्रतिरोध का आगाज किया जबकि हिन्दू महासभा ने अंग्रेजी सेना में भर्ती का अभियान चलाया

हम सब जानते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजी हुकूमत को हथियारों के जरिए चुनौती देने के लिए आजाद हिन्द फौज की स्थापना की थी. जापान और फासीवादी जर्मनी के साथ गठजोड़ करने के लिए सुभाष चंद्र बोस की आलोचना की जा सकती है लेकिन उनके धर्मनिरपेक्ष होने पर कोई सवाल नहीं है.

कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में जून 1938 काे अपना भाषण देते ​हुए उन्होंने भारत काे 'हिन्दू राज' में बदलने के विचार का जाेरदार तरीके से खण्डन करते ​हुये क​हा, ''हमें हिन्दू राज की बातें सुनायी दे र​ही ​हैं, य​ह बिल्कुल निरर्थक सोच ​है. क्या सांप्रदायिक संगठन मजदूर वर्ग की एक भी समस्या का समाधान कर सकते ​हैं? क्या ऐसे एक भी संगठन के पास बेराेजगारी और गरीबी की समस्या का समाधान ​है?

rss‘आजाद भारत और इसकी समस्याएं’ नामक लेख में उन्होंने लिखा कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक तनाव अंग्रेजों द्वारा पैदा किया गया है और यह तभी समाप्त होगा जब अंग्रेज यहाँ से चले जाएंगे. उन्होंने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की जिसमें “व्यक्तियों और समूहों की धार्मिक और सांस्कृतिक आजादी” की गारंटी की जाएगी और कोई “राज्य धर्म” नहीं होगा. शाहनवाज खान, प्रेम सहगल, गुरुबक्श सिंह ढिल्लों, अब्दुल राशिद, सिंघाड़ा सिंह, फतेह खान और कैप्टन मलिक मुनव्वर खान अवाँ जैसे आजाद हिन्द फौज के नेताओं पर चला मुकदमा साम्राज्यवादविरोधी एकता के लिए बड़ा प्रेरणास्रोत बना तो सांप्रदायिक राजनीति के लिए बड़ा धक्का साबित हुआ.

इसके विपरीत हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के बतौर सावरकर ने दूसरे विश्वयुद्ध में भागीदारी के लिए अंग्रेजी सेना में सिपाही भर्ती करवाने का अभियान चलाया.

“जहाँ तक भारत की सुरक्षा का संबंध है, हिंदुओं को जिम्मेदार सहयोगी की तरह बेझिझक ढंग से भारतीय सरकार का सहयोग करना चाहिए क्योंकि यही हिंदुओं के हित में है. हिंदुओं को सेना, नौसेना, वायुसेना के साथ-साथ हथियार और गोला-बारूद व युद्ध के अन्य साजो-सामान बनाने वाले कारखानों में अधिकतम संभव तादात में भर्ती होना चाहिए... इसलिए हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं को खासकर बंगाल और असम के हिंदुओं को प्रेरित करना चाहिए कि बिना एक भी क्षण गँवाए वे सभी तरह की सेनाओं में बड़े पैमाने पर भर्ती हों.” (वी डी सावरकर, समग्र सावरकर वांगमय, हिन्दू राष्ट्र दर्शन, खंड 6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदूसभा, पूना, 1963, पृष्ठ 460)

हिन्दू महासभा के एक और कट्टर नेता और आरएसएस के नायक श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल सरकार में उस समय वित्तमंत्री हुआ करते थे. वे बंगाल के प्रधानमंत्री और मुस्लिम लीग के नेता फजलुल हक के बाद दूसरे सबसे वरिष्ठ मंत्री थे. सांप्रदायिक राजनीति में एक दूसरे के कट्टर विरोधी हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग युद्ध के दौर में अंग्रेजों की मदद के मामले में साथ-साथ थे. जब भारत छोड़ो आंदोलन के समर्थन में कांग्रेस के चुने हुए प्रतिनिधियों ने इस्तीफा दिया तो हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग, दोनों ने ही ऐसा करने से इनकार कर दिया. मुखर्जी ने 26 जुलाई 1942 को बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जॉन हर्बर्ट को लिख कर वादा किया कि “युद्ध के दौरान जो भी जन भावनाओं को भड़काने की कोशिश करेगा और विक्षोभ व असुरक्षा को बढ़ावा देगा, उसके खिलाफ इस दौर में काम कर रही सरकार को सख्त कार्यवाही करनी होगी.”

आरएसएस ने तिरंगे को अशुभ बताया: उसी दिन एक मुस्लिम जोड़े ने राष्ट्रीय झंडे का डिजाइन बनाया

14 अगस्त 1947 को आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने राष्ट्रीय तिरंगे झण्डे को अपमानित करते हुए लिखा कि “भाग्य के चलते सत्ता में आ गए लोग हमारे हाथों में तिरंगा पकड़ाएंगे लेकिन हिन्दू न तो इसे अपना मान सकते हैं और न ही इसका सम्मान कर सकते हैं. तीन अपने आप में अशुभ संख्या है और तीन रंगों वाला झण्डा लोगों पर बुरा मनोवैज्ञानिक असर छोड़ेगा. यह देश के लिए घातक है.”

आजादी की पूर्व संध्या पर तिरंगे झंडे को 28 साल की सुरैया तैयबजी और उनके पति बदरुद्दीन तैयबजी द्वारा डिजाइन करने के पीछे बड़ी रोचक कहानी है.

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सुरैय्या तैयबजी अपने पति
बदरुद्दीन तैयबजी के साथ

उनकी बेटी लैला तैयबजी लिखती हैं कि आजादी के कुछ महीने पहले ही नेहरू की गुजारिश पर उनके पिता बदरुद्दीन तैयबजी ने “एक झण्डा कमेटी गठित की जिसकी अध्यक्षता राजेन्द्र प्रसाद कर रहे थे. इस कमेटी ने सभी चित्रकला स्कूलों को खत लिखकर झंडे का डिजाइन तैयार करने का अनुरोध किया. सैकड़ों डिजाइन आए. सभी काफी खराब थे. इनमें से ज्यादातर अंग्रेजी राष्ट्र चिन्ह से प्रभावित थे और उन्होंने ब्रिटिश ताज के दोनों ओर बने शेर और यूनीकॉर्न के चिन्ह को हाथी और शेर या हिरण और हंस से बदल दिया था. ताज को कमल के फूल या कलश या ऐसी ही किसी और चीज से बदल दिया गया था.” समय बीतने के साथ-साथ नेहरू व अन्य सभी अधीर हो रहे थे. तभी उनके “माता-पिता को अशोक स्तम्भ के ऊपर शेर और चक्र का विचार आया. वे दोनों ही उस दौर की मूर्तिकला को पसंद करते थे. इसलिए मेरी माँ ने एक ग्राफिक संस्करण बनाया और वायसरीगल लॉज (मौजूद राष्ट्रपति निवास) के छापाखाने में उसके कुछ संस्करण तैयार किए गए और सब को पसंद आए. तब से ही अशोक स्तंभ के चार शेर हमारे राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में मौजूद हैं.”

तभी सुरैया और बदरुद्दीन ने मिल कर आज के भारत के झण्डे का डिज़ायन बनाया जोकि पिंगली वैंकय्या द्वारा बनाये गये कांग्रेस के तिरंगे झण्डे को बदल कर उसमें चरखा की जगह अशोक चक्र लगा कर बनाया गया.

लैला आगे लिखती हैं, ‘मेरे पिता ने उस पहले झण्डे को, जिसे मेरी मां की देखरेख में कनाट प्लेस के ‘एडी टेलर्स एण्ड ड्रेपर्स’ द्वारा बनाया गया था, रायसीना हिल्स पर फहराये जाते हुए देखा’. उनकी यही आत्मीयता और एक-एक बारीकी पर ध्यान देने के कारण राष्ट्रीय तिरंगा खास बन गया. लैला के शब्दों में ‘विभाजन के घावों के बावजूद तब एकता और सहभाजन था. आजादी की लड़ाई ने बहुत विविध तरह के लोगों को एक साथ जोड़ दिया था. लोग तब एक व्यापक पहचान से खुद को जोड़ते थे - जाति और समुदाय नहीं बल्कि भारतीयता की पहचान.’

किसने खोला विभाजन का रास्ता, और कौन इसके खिलाफ थे?

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भारत विभाजन, 1947 - विकिमीडिआ कॉमन्स

मोदी ने पाकिस्तान और मुसलमानों को विभाजन की विभीषिका के लिए जिम्मेदार ठहराने की निर्लज्ज कोशिश करते हुए 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ मनाने की घोषणा की. ताकि आज फिर मुसलमानों के खिलाफ उसी तरह की विभीषिका को अंजाम देने के लिए भारत के हिन्दुओं को उकसाया जा सके.

विभाजन और आजादी के समय आरएसएस और हिन्दू महासभा ने गांधीजी के खिलाफ यह कह कर नफरत भड़काई कि वे विभाजन के लिए जिम्मेदार हैं, और इसी नफरती प्रचार ने गोडसे के दिमाग में विष भरा व उसे गांधीजी की हत्या करने के लिए उकसाया. आज मोदी के राज में गांधीजी को तो ‘स्वच्छ’ शौचालय के प्रतीक में संकुचित कर दिया गया है. सरदार पटेल के बारे में यह झूठ दावा फैलाया जा रहा है कि वे विभाजन के ख़िलाफ़ थे, ताकि सिर्फ़ नेहरु को विभाजन के लिए जिम्मेदार बताकर उनके ख़िलाफ़ नफ़रत भड़कायी जा सके. सच यह है कि वे पटेल ही थे जो सबसे पहले माउण्टबेटन द्वारा लाये गये विभाजन के प्रस्ताव से सहमत हुए थे.

जिन्ना से भी पहले सावरकर ने दो राष्ट्रों का सिद्धांत दिया था

सावरकर ने 1937 में अखिल भारत हिन्दू महासभा के कर्णावती अहमदाबाद सम्मेलन में घोषणा की थी, "भारत को आज एक राष्ट्र नहीं माना सकता है — एकरूप व समरूप — बल्कि भारत में मुख्य रूप से हिन्दू व मुस्लिम दो राष्ट्र विद्यमान हैं". (समग्र सावरकर वांग्मय, वोल्यूम 6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिन्दूसभा पब्लिकेशन, 1963, पेज 296).

जबकि जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग और द्विराष्ट्र सिद्धांत 1940 में पेश किया था.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत विभाजन के लिए अभियान चलाया

जैसा कि इतिहासकार शम्शुल इस्लाम ने प्रमाणित किया है, "वास्तव में मुखर्जी ने 1944 से ही विभाजन का समर्थन किया था, और एक बार तो कलकत्ता की रैली में बंगाल को बांटने की वकालत करने के कारण जनता ने उनके ख़िलाफ़ हल्ला मचाकर चुप करवा दिया था. मुखर्जी ने 2 मई 1947 को वायसराय लुई माउण्टबेटन को गुप्त रूप में लिख कर उनसे मांग की थी कि अगर भारत अविभाजित रहता है, तब भी बंगाल का विभाजन कर दिया जाय. तब बंगाल के प्रधानमंत्री हुसैन सुहरावर्दी और कांग्रेस के दो प्रमुख नेताओं शरत चंद्र बोस (सुभास चंद्र बोस के बड़े भाई) एवं किरण शंकर रॉय द्वारा पेश की गई एक अविभाजित स्वतंत्र बंगाल की योजनाओं की भी मुखर्जी ने जोरदार मुखालफत की थी. मुखर्जी चाहते थे कि दो-राष्ट्र सिद्धांत के अनुसार साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का बंटबारा हो जाये."

भारत विभाजन के खिलाफ मुसलमान

एक ओर जहां हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खाई खड़ी कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर सुविख्यात प्रगतिशील मुसलमानों की कमी नहीं थी जो विभाजन के प्रस्ताव के खिलाफ पूरी शिद्दत से अभियान चला रहे थे.

उनमें सबसे अग्रणी थे मौलाना अबुल कलाम आजाद जिन्होंने इस प्रस्ताव को खारिज करने के लिए पटेल को हरसम्भव समझाने की कोशिश की. अपनी किताब ‘इण्डिया विन्स फ्रीडम’ में उन्होंने लिखा है, "मुझे यकीन था कि अगर इस आधार पर आजाद भारत का संविधान बनाया जाता और उस पर कुछ समय के लिए ईमानदारी से काम किया जाता तो साम्प्रदायिक दुविधायें एवं अविश्वास शीघ्र ही खत्म हो जाते. देश की असली समस्यायें आर्थिक थीं, साम्प्रदायिक नहीं. भेदभाव वर्गों के बीच थे, समूहों के बीच नहीं. जब भारत आजाद होगा तब हिन्दू, मुसलमान और सिख, सभी सामने मौजूद समस्याओं के असली चरित्र को समझेंगे और साम्प्रदायिक भेदभाव का समाधान हो जायेगा. मैंने देखा कि पटेल इस कदर विभाजन के पक्ष में थे कि वे अन्य किसी मत को सुनने के लिए तैयार ही नहीं थे. मैंने उनसे दो घण्टे से ज्यादा समय तक बहस की. मैंने कहा कि अगर हमने विभाजन स्वीकार कर लिया तो भारत के लिए एक स्थायी समस्या खड़ी हो सकती है. विभाजन से साम्प्रदायिक समस्या हल नहीं होगी, बल्कि यह देश का स्थायी लक्षण बन जायेगा."

मौलाना आजाद कैसे भविष्यदृष्टा थे आज हम समझ सकते हैं — आज आरएसएस, भाजपा, और मोदी राज विभाजन को एक चिरस्थायी घाव बना देने की कोशिश में लगे हैं. 17 जुलाई 1946 को आजाद ने जिस अनिष्ट की आशंका जताई थी, आज वह खतरनाक रूप से सच होने की ओर है: "एक दिन मुसलमान जब सो कर उठेंगे तो वे अचानक ही खुद को पराया और विदेशी; और औद्योगिक, शैक्षिक व आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ पायेंगे, जो एक विशुद्ध हिन्दू राज की दया पर रहने पर मजबूर होंगे.”

अल्लाह बख्श: "सम्प्रदायवादियों को पिंजड़े में बंद करो"

27 अप्रैल 1940 को दिल्ली में शुरू हुई ऐतिहासिक अखिल भारतीय आजाद मुस्लिम कांफ्रेंस की रिपोर्टिंग करते हुए अखबारों ने बताया उसमें 75000 से ज्यादा मुसलमानों ने भागीदारी की. सिंध से आये एक प्रमुख नेता अल्लाह बख्श ने मुस्लिम लीग के विभाजन के प्रस्ताव को खारिज करते हुए प्रेरणास्पद वक्तव्य दिया. उस दिन उन्होंने एक रिपोर्टर से बात करते हुए कहा, "बेहतर होगा कि सम्प्रदायवादियों को एक पिंजड़े में बंद कर दिया जाय ताकि वे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की बातें न फैला सकें."

सांप्रदायिक लोग "शासकों से केवल मीठी बातें करते हैं"

आज़मगढ़ में शिब्‍ली कॉलेज के संस्‍थापक शिब्‍ली नोमानी एकताबद्ध भारत के पैरोकार थे और मुस्लिम लीग की राजनीति का भंडाफोड़ करते रहते थे. मुस्लिम लीग के बारे में तंज करते हुए उन्‍होंने लिखा -  

है गवर्नमेंट की भी उसपर इनायत की निगाह
नज़्र-ए-लुत्‍फ-ए-रईसां खुश अंजाम भी है ....
जनाब-ए-लीग से मैंने कहा के ये हज़रत
कभी तो जा के हमारा भी ताजरा कहिए
दराज़ दस्‍ती-ए-पुलिस का कीजिए इज़हार
मुकद्दमात के हालात-ए-फित्‍ना ज़ा कहिए
गुज़र रही है जो कि काश्‍तकारों पर
ये दास्‍तान-ए-आलम-नाक वा ग़म फिज़ा कहिए
जनाब-ए-लीग ने सब कुछ ये सुन के फरमाया
मुझे तो खू है के जो कुछ कहूं बजा कहिए
ठीक यही बात हिंदू महासभा और आरएसएस के बारे में भी कही जा सकती है!

विभाजन के खिलाफ उर्दू कविता

उर्दू में मुसलमानों द्वारा ऐसी ढेरों कवितायें लिखी गईं जो हिंदुओं और मुसलमानों को बंटवारे के खिलाफ एकजुट करने का आह्वान करती थीं. शमीम करहानी ‘पाकिस्‍तान चाहने वालों’ से पूछते हैं कि "पाकिस्‍तान (पवित्र भूमि) का क्‍या मतलब है? क्‍या हम मुसलमान अभी जहां हैं ये जगह अपवित्र है?"

करहानी के ‘भारतीय योद्धा’ सांप्रदायिक घृणा के खिलाफ संघर्ष का आह्वान करते हैं ‘गाय और लाउडस्‍पीकर के झगड़े को दोजख भेजो’. ‘हमारा हिंदोस्‍तान’ में करहानी घोषणा करते हैं कि "अगर कोई मुझ मुसाफिर से पूछे कि मैं कहां से हूं, मैं फ़ख्र से हिंदोस्‍तान का नाम लूंगा." ऐसी बहुत सी कवितायें शम्‍सुल इस्‍लाम ने अपनी पुस्‍तक ‘मुस्लिम्‍स अगेन्‍स्‍ट पार्टीशन’ (बंटवारे के खिलाफ मुसलमान) में संकलित की हैं.

भारत की आजादी के 75 वें साल में यह जरूरी है कि हम सीमा के दोनों ओर के ऐसे लेखन और दस्‍तावेजों को इकट्ठा करें जिनमें बंटवारे के खिलाफ तकलीफ, गुस्‍सा और अपराधबोध दर्ज हैं. इन दस्‍तावेजों से भारत, पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश के लोग सबक लें ताकि सांप्रदायिक हिंसा, भेदभाव और युद्धोन्‍माद की आग में इस पूरे उपमहाद्वीप को फिर से झोंकने की इजाजत किसी को न दें.