आज हिंदू वर्चस्ववादियों के हाथ में भारत का शासन है, और वे भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिशों में मशगूल हैं. वे इस आन्दोलन की मुख्य शक्तियों की भूमिका को विकृत करने का भी प्रयास कर रहे हैं. इस अध्याय में हम दो सर्वप्रमुख हिंदू वर्चस्ववादी संगठनों, हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जन्म से लेकर भारत की आजादी और इसके ठीक बाद तक उनके गतिपथ की जांच-पड़ताल करेंगे.
पंजाब हिंदू महासभा का गठन 1909 में, और हिंदू महासभा का गठन 1915 में हुआ था. आरएसएस का गठन 1925 में किया गया था. जब देश आजादी के लिए लड़ रहा था; जब स्वतंत्रता सेनानी जेलों में लंबा समय काट रहे थे और अपनी जिंदगी न्योछावर कर रहे थे, तब उस समय ये ‘हिंदू’ संगठन और उनके कर्ता-धर्ता क्या कर रहे थे ?
‘महासभा’ और आरएसएस के नेताओं ने अपना लक्ष्य साफ-साफ सामने रखा है. इसीलिये, हम उनके अपने खुद के लेखों, और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले अन्य लोगों द्वारा किए गए इन संगठनों के मूल्यांकनों को ही अपना आधार बनाएंगे.
क्या हिंदू महासभा और आरएसएस ने कभी भी ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ाई का समर्थन किया था?
आरएसएस और हिंदू महासभा के नेताओं ने ब्रिटिश-विरोधी स्वतंत्रता संग्राम के प्रति बारंबार अपना तिरस्कार दिखाया था.
“ब्रिटिशवाद-विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद बताया गया. आजादी के आन्दोलन के समूचे दौर, इसके नेताओं और आम जनता पर इस प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण का विनाशकारी असर पड़ा था.” (एमएस गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स, 1996, पृ. 138)
“लड़ाई के बुरे नतीजे निकले हैं. 1920-21 आन्दोलन के बाद नौजवान लोग उग्रवादी बनने लगे. ... 1942 के बाद लोग अक्सरहां यह सोचने लगे कि कानून की परवाह करने की कोई जरूरत नहीं है...” – 1920-21 के असहयोग आन्दोलन और 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रभाव के बारे में गोलवलकर (श्री गुरुजी समग्र दर्शन, ग्रंथ 4, पृ. 41)
“1942 में भी अनेक लोगों के दिलों में प्रबल भावना मौजूद थी. उस समय भी ‘संघ’ का रोजमर्रा का काम जारी रहा. ‘संघ’ ने कोई सीधी कार्रवाई न करने का फैसला लिया था”. (1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के बारे में गोलवलकर, श्री गुरुजी समग्र दर्शन, ग्रंथ 4, पृ. 40)
मुखर्जी ने भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बंगाल में मिनिस्ट्री छोड़ने से इन्कार कर दिया था. इतना ही नहीं, 1942 में बंगाल सरकार में एक मंत्री के बतौर उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश हुक्मरानों को सक्रिय सहयोग और सलाह भी दिए थे. 1942 में उन्होंने लिखा:
“सवाल यह है कि बंगाल में इस आन्दोलन का मुकाबला कैसे किया जाए? इस प्रांत में शासन इस प्रकार चलाया जाए कि सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद ... यह आन्दोलन इस प्रांत में जड़ नहीं जमा सके.”
“जहां तक कि इंग्लैंड के प्रति भारत के रवैये का सवाल है, तो इस वक्त उनके साथ किसी भी किस्म की लड़ाई नहीं होनी चाहिए. ... सरकार को उनलोगों का प्रतिरोध करना होगा, जो आंतरिक विक्षोभ अथवा असुरक्षा पैदा करने के लिए जन-भावानाओं को भड़काते हैं...” (श्यामा प्रसाद मुखर्जी, ‘लीव्ज फ्रॉम अ डायरी’, 1993, पृ. 175-190)
गोलवलकर को लगा कि वे शहीद ‘असफल’ हो गए जिनकी कुर्बानियां ‘संपूर्ण राष्ट्रीय हितों’ को पूरा नहीं कर सकीं. गोलवलकर ने हमें यह सवाल करने को कहा कि “क्या उससे (शहादतों से) संपूर्ण राष्ट्रीय हितों की पूर्ति होती है ?” (बंच ऑफ थॉट्स, पृ. 61-62)
उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के बारे में लिखा: “इसमें कोई संदेह नहीं कि ये शहीद होने वाले ऐसे लोग महान नायक हैं. ... लेकिन साथ ही, ऐसे लोग हमारे समाज में आदर्श नहीं समझे जा सकते हैं. हम उनकी शहादतों को ऐसी उच्चतम महानता नहीं मानते हैं जो आम लोगों के लिए वांछित हो. क्योंकि, आखिरकार वे अपना आदर्श हासिल करने में विफल रहे, और विफलता का मतलब है कि उनमें कोई घातक किस्म की त्रुटि थी....” (बंच ऑफ थॉट्स, पृ. 283)
वीडी ने हिंदू महासभा में शामिल होने के काफी पहले और जेल की सजा होने के पूर्व ब्रिटिश शासन का विरोध किया था. फिर से गिरफ्तार होने और मुकदमा चलने के ठीक बाद, जब उन्हें 1911 में अंडमान ले जाया जा रहा था, वे ब्रिटिश शासकों के प्रति अपनी निष्ठा जताने लगे और अपनी रिहाई की भीख मांगते हुए कई ‘क्षमा याचिकाएं’ लिखीं. उनके शर्मनाक खाते में ऐसी कम से कम सात क्षमा याचिकाएं हैं जिसमें उन्होंने अपनी रिहाई के बदले अंग्रेजों का स्वामिभक्त बने रहने की शपथ ली थी.
24 नवंबर 1913 को लिखी एक चिट्ठी में उन्होंने अपनी रिहाई मांगते हुए फिर से याचिका लिखी और वादा किया कि वे अपना रास्ता बदल लेंगे और ‘सरकार के प्रति निष्ठा के .... सबसे मजबूत पैरोकार’ बन जाएंगे – “यह भटका हुआ बेटा पितृतुल्य सरकार के नहीं, तो और किसकी चौखट पर लौटेगा?”
जनवरी 1924 में अपनी रिहाई हासिल करने के लिए सावरकर ने रिहाई आदेश में निर्धारित शर्तों को किसी मलाल के बगैर स्वीकार कर लिया “कि वे सरकार की अनुमति के बिना सार्वजनिक तौर पर या अकेले भी किसी किस्म की राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेंगे.”
हाल के अपने एक भाषण में राजनाथ सिंह ने कहा कि सावरकर ने अपनी क्षमा याचिका इसीलिए लिखी, क्योंकि गांधी ने उन्हें ऐसा करने को कहा था. क्या यह सच है ?
तथ्य तो कुछ और कहते हैं:
सावरकर ने सात क्षमा याचिकाएं दी थीं, सबसे पहली याचिका 1911 में दी. उस वक्त गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे. वे 1915 में भारत लौटे थे. इसीलिए, जब सावरकर अपनी क्षमा याचिकाएं लिख रहे थे, तो उस समय गांधी का उनके साथ कोई संपर्क नहीं था.
1920 में गांधी ने सावरकर के छोटे भाई नारायण राव से कुछ कहा था, जब नारायण ने उनकी सलाह मांगी थी. गांधीजी ने एक चिट्ठी लिखकर कहा, “आपको सलाह देना मुश्किल है. बहरहाल, मेरी सलाह है कि इस मुकदमे के तथ्यों को एक संक्षिप्त याचिका में इस प्रकार समेटा जाए कि उससे यह स्पष्ट हो कि आपके भाई द्वारा किया गया जुर्म शुद्ध रूप से राजनीतिक किस्म का है.” इस प्रकार, गांधीजी ने सावरकर को अपना जुर्म कबूल करने को कहा; लेकिन यह भी बताया कि इसका मकसद राजनीतिक होना चाहिए, कोई अपराध नहीं. उन्होंने सावरकर को क्षमा मांगने की सलाह नहीं दी!
इतिहासकार राजमोहन गांधी, जो गांधीजी के पौत्र भी हैं, कहते हैं: “राजनाथ सिंह हमें यह विश्वास करने को कह रहे हैं कि सावरकर भाइयों के आग्रह पर गांधी ने 1920 में जो चिट्ठी लिखी थी, उसे 11 वर्ष पूर्व ही गांधी द्वारा दी गई सलाह के रूप में समझा जाए कि सावरकर को क्षमा याचिका देनी चाहिए. यह बात तो हद से ज्यादा बकवास है. यह बिल्कुल हास्यास्पद है.”
गांधीजी ने मई 1920 में ‘यंग इंडिया’ में जरूर लिखा था कि सावरकर भाइयों के साथ-साथ अली बंधुओं – मौलाना शौकत अली और मौलाना मोहम्मद अली – की रिहाई होनी चाहिए. लेकिन वे उनके लिए “दया की भीख नहीं मांग रहे थे” – वे तमाम राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग कर रहे थे, और उनमें वे भी शामिल थे जिनके विचार और तरीकों से वे सहमत नहीं थे.
हो सकता है, सावरकर द्वारा क्षमा याचना उनकी कार्यनीति रही हो? लेकिन क्या रिहा होने के बाद वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे?
यहां आइये, हम सावरकर और हिंदू महासभा के बारे में दो स्वतंत्रता सेनानियों – गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस – के मतों पर विचार करते हैं.
मई 1920 के ‘यंग इंडिया’ के उस लेख में गांधीजी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे यह महसूस करते हैं कि सावरकर बंधुओं को दी गई कारावास की सजा अन्यायपूर्ण है, लेकिन वे स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे. गांधी ने लिखा, “सावरकर बंधु यह दो-टूक कहते हैं कि वे ब्रिटिशों के साथ जुड़ाव से आजादी नहीं चाहते हैं. इसके विपरीत वे महसूस करते हैं कि ब्रिटिशों के साथ जुड़े रह कर ही भारत का भाग्य संवर सकता है.”
सुभाष बोस जून 1940 में सावरकर से मिले थे. उन्होंने इस मुलाकात के बारे में लिखा, “ऐसा लगा कि श्रीमान सावरकर अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों से नावाकिफ हैं और वे सिर्फ यह सोच रहे थे कि भारत में ब्रिटिश सेना में शामिल होकर हिंदुओं को कैसे सैन्य प्रशिक्षण दिलाया जा सके.” उन्होंने यह भी पाया कि न तो जिन्ना को और न ही सावरकर को स्वतंत्रता संग्राम में कोई अभिरुचि है – “मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा, इनमें से किसी से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है.” (नेताजी, कलेक्टेड वर्क्स, ग्रंथ 2, ‘द इंडियन स्ट्रगल’)
अपनी डायरी में लिखते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने यह दर्ज किया कि सुभाष बोस ने उनसे कहा कि अगर हिंदू महासभा बंगाल में एक राजनीतिक संस्था बनने की कोशिश करेगी तो “वे (बोस), जरूरत पड़ी तो बलपूर्वक भी, यह देखेंगे कि सचमुच जन्म लेने के पहले ही वह विनष्ट हो जाए.” (श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लीव्ज फ्रॉम अ डायरी, 1993)
पत्रकार आयुष तिवारी ने विक्रम संपत द्वारा पेश किए गए एक उद्धरण की जांच करने की कोशिश की है जिसे संपत ने सुभाष बोस का वक्तव्य बताया है और जिसमें सावरकर की भरपूर प्रशंसा की गई है. आयुष ने इस उद्धरण को धनंजय कीर द्वारा लिखित सावरकर की जीवनी में पाया, लेकिन कीर ने इस उद्धरण के लिए किसी स्रोत का जिक्र नहीं किया है. आयुष ने कहा, “वस्तुतः, ऐसा कोई प्राथमिक स्रोत नहीं है जहां से यह उद्धरण लिया गया हो.” इस प्रकार संपत ने कीर के लेखन से ऐसे उद्धरण का इस्तेमाल किया है जिसका कोई प्रमाणिक स्रोत नहीं है और जिसकी कोई जांच-पड़ताल नहीं की गई ! जैसा कि हमने ऊपर देखा, नेताजी के अपने खुद के लेखों में सावरकर और हिंदू महासभा के बारे में अत्यंत नकारात्मक मूल्यांकन किया गया है.
आयुष ने आगे लिखा, “नेताजी के संघर्षों के लिए सावरकर को श्रेय देने की प्रवृत्ति काफी पुरानी है. वस्तुतः इस प्रवृत्ति की शुरूआत खुद सावरकर ने शुरू की थी, जब उन्होंने अपनी पुस्तक ‘तेजस्वी तारे’ में लिखा जो स्वतंत्रता के बाद प्रकाशित हुई थी.”
पत्रकार आशुतोष भारद्वाज ने एक ऐसे भड़काऊ उद्धरण की जांच-परख की है जिसे संपत ने सी. राजगोपालाचारी (राजाजी) द्वारा लिखित बताया है और जिसमें यह दावा किया गया है कि राजाजी ने सावरकर की जीवनी (1926) लिखी है जो ‘चित्रगुप्त’ छद्मनाम से प्रकाशित हुई है.
लेकिन यह उद्धरण राजाजी की संग्रहीत रचनाओं में कहीं नहीं मिलता है. आशुतोष ने पाया कि संपत ने यह उद्धरण ‘हिंदू महासभा पर्व’ से लिया है, जिसे सावरकर के भाई बाबाराव सावरकर ने लिखा था. उस उद्धरण के लिए यह कोई प्राथमिक स्रोत नहीं है.
यह गौरतलब है कि वीर सावरकर प्रकाशन द्वारा 1986 में पुनः छापी गई 1926 वाली ‘जीवनी’ में जो प्राक्कथन है, उसमें साफ लिखा हुआ है कि “चित्रगुप्त और कोई नहीं, स्वयं वीर सावरकर हैं”.
विक्रम संपत और राजनाथ सिंह अब जोड़-तोड़ करके सावरकर के लिए विश्वसनीयता हासिल करना चाहते हैं. पर उनकी विश्वसनीयता अनेक क्षमा याचिकाओं और सांप्रदायिक व ब्रिटिश-परस्त नीतियों के चलते दागदार हो चुकी है. इसीलिए वे दावा करते हैं कि गांधीजी ने उन्हें क्षमा याचना करने को कहा था, कि बोस ने उनकी तारीफ की थी और कि राजाजी ने उनकी जीवनी लिखी है. लेकिन ये सब बातें मनगढ़ंत हैं जिसे खुद सावरकर और उनके भाइयों ने परोसा है !
यह स्पष्ट है कि कैद से रिहा होने के समय से लेकर अपने जीवन के अंत तक सावरकर ने अपनी क्षमा याचिकाओं में ब्रिटिश शासकों से किए गए अपने वादे को निभाते रहे. वे किसी भी रूप में आजादी की लड़ाई में कभी शामिल नहीं हुए. उन्होंने 1923 में अपना नफरत-भरा हिंदू वर्चस्ववादी घोषणापत्र हिंदुत्व लिखा, और पूरी जिंदगी सिर्फ हिंदू वर्चस्ववादी नीतियों के लिए काम करते रहे.
जैसा कि बोस ने पाया, सावरकर ने भारत छोड़ो आन्दोलन का समर्थन करने अथवा ब्रिटिश शासन के खिलाफ हथियारबंद प्रतिरोध खड़ा करने में कोई रुचि नहीं दिखाई. उनके दिमाग में सिर्फ यह बात भरी हुई थी कि ब्रिटिश सेना में कैसे हिंदुओं को घुसाया जाए और उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिलाया जाए, ताकि मुस्लिमों से लड़ाई लड़ी जा सके !
और, क्या हम यह भूल सकते हैं कि गांधीजी की हत्या के पीछे भी सावरकर ही मुख्य साजिशकर्ता थे?
नाथूराम गोडसे को गांधीजी की हत्या के लिए फांसी दी गई और उसके भाई को इस साजिश में शामिल होने के लिए जेल की सजा दी गई; लेकिन मुख्य साजिशकर्ता सावरकर किसी भी सजा से बच निकले. हालांकि हिंदू महासभा का सदस्य बडगे मुखबिर बन गया था और उसने गवाही दी थी कि आप्टे और गोडसे सावरकर से मिले थे, वहां से हथियार लेकर निकले और सावरकर ने उन दोनों को “यशस्वी होउंया” कहकर आशीर्वाद दिया. बडगे ने आगे कहा कि आप्टे ने उसे बताया कि सावरकर को यकीन था कि “गांधी के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं” और इसीलिए हत्या की कोशिश सफल होगी. लेकिन इसकी स्वतंत्र पुष्टि न हो पाने के कारण सावरकर को संदेह का लाभ मिला और वे सजा से बच गए.
बहरहाल, गृह मंत्री सरदार पटेल सावरकर के अपराध के बारे में आश्वस्त थे. 27 फरवरी 1948 को प्रधान मंत्री नेहरू को लिखी एक चिट्ठी में उन्होंने कहा, “यह सावरकर के सीधे नेतृत्व में चलने वाला हिंदू महासभा का एक उन्मादी धड़ा है, जिसने यह साजिश रची और इसे पूरा करवाया.”
सावरकर की मौत के बाद जस्टिस कपूर आयोग की जांच में अतिरिक्त प्रमाण पाए गए जिससे बडगे के बयान की पुष्टि होती है और यह भी संपुष्ट होता है कि सावरकर इस हत्या की साजिश के मुख्य रचयिता थे. 1968 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में कपूर आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि महात्मा गांधी की हत्या में जो लोग भी शामिल थे, वे सब जब-न-तब सावरकर सदन में इकट्ठे होते थे और सावरकर के साथ उनकी लंबी वार्ताएं होती थीं. ये तमाम तथ्य मिलकर केवल मात्र इसी सिद्धांत को पुष्ट करते हैं कि सावरकर और उसके ग्रुप ने ही हत्या की है.
हिंदू महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखी एक चिट्ठी (18 जुलाई 1958) में पटेल ने कहा:
“मेरे मन में कोई संदेह नहीं कि हिंदू महासभा का चरमपंथी धड़ा (गांधी की हत्या की) साजिश में शामिल था. आरएसएस की कार्रवाइयां स्पष्टतः सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा हैं. हमारी खबरें दिखाती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद ये कार्रवाइयां खत्म नहीं हुई हैं. बल्कि समय बीतते जाने के साथ आरएसएस की शाखाएं ज्यादा उद्धत होती जा रही हैं और वे विध्वंसक गतिविधियों में अधिकाधिक शामिल हो रही हैं.”
सितंबर 1948 में गोलवलकर को लिखे एक पत्र में पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने को कारणों को फिर से बताया:
“उनके भाषण सांप्रदायिक जहर से भरे होते थे. ... इस जहर के अंतिम नतीजे के बतौर समूचे देश को गांधीजी के अमूल्य जीवन की कुर्बानी झेलनी पड़ी है. आरएसएस के प्रति सरकार अथवा जनता की लेशमात्र सहानुभूति नहीं रह गई है. ... गांधीजी की मृत्यु के बाद जब आरएसएस के लोगों ने खुशियां मनाईं और मिठाइयां बांटी तो उसके प्रति विरोध और ज्यादा प्रबल हो गया.”
आरएसएस और भाजपा के शीर्ष नेतागण जहां गोडसे से ‘शारीरिक दूरी’ बनाये रखते हैं, वहीं वे सावरकर का स्तुतिगान भी करते हैं. बहरहाल, ज्यों ज्यों भाजपा का चेहरा अधिक खुल रहा है और वह आश्वस्त बनती जा रही है, यह ‘दूरी’ भी क्रमशः मिटती जा रही है. भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर को लोकसभा का उम्मीदवार बनाने का मोदी का फैसला और उनका एलान कि “कोई हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता है” इस संदर्भ में विचारणीय हैं. प्रज्ञा ठाकुर (सावरकर के उत्तराधिकारियों द्वारा संचालित) ‘अभिनव भारत’ की आतंकी साजिशों का हिस्सा थीं. वे खुलेआम और बारंबार बोलती रहीं कि गांधीजी की हत्या करने वाला आतंकी गोडसे एक देशभक्त था! और सावरकर भले ही यह दावा करते हों कि उन्होंने गोडसे के हत्या प्रयासों को आशीर्वाद नहीं दिया था, लेकिन आज हिंदू महासभा गोडसे के मंदिर बनवाने की मंशा जाहिर कर रहा है.
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि आरएसएस और हिंदू महासभा ने ब्रिटिश शासन के साथ सांठगांठ की थी और वे स्वतंत्रता आन्दोलन में कभी शामिल नहीं रहे थे. इसके बजाय वे सांप्रदायिक और आतंकवादी साजिशों में संलिप्त रहे थे – जिनमें सर्वाधिक जघन्य थी गांधीजी की हत्या की साजिश! और आज, वही ताकतें साम्राज्यवाद के साथ सांठगांठ कर रही हैं और सांप्रदायिक हिंसा तथा दाभोलकर, पनसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे लोगों की हत्या की साजिशों में संलिप्त हैं.