- दीपंकर भट्टाचार्य
कम्युनिस्ट पार्टी की परंपरा के मुताबिक पार्टी महाधिवेशन किसी भी निश्चित परिस्थिति में पार्टी की राह तैयार करने वाला सर्वोच्च समागम होता है. भारत की मौजूदा परिस्थिति कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए, और सच कहिए तो आजादी के बाद के भारत के लिए, सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण है. इस पृष्ठभूमि में पटना में आयोजित भाकपा-माले के ग्यारहवें महाधिवेशन ने पार्टी की सहजात शक्ति, फैलते संगठन और फासिस्ट मोदी हुकूमत व संघ ब्रिगेड के खिलाफ जन प्रतिरोध को धारदार बनाने के लिए उसकी बढ़ती राजनीतिक पहलकदमी व हस्तक्षेप का गतिशील प्रदर्शन किया. महाधिवेशन शुरू होने के ठीक पहले 15 फरवरी की ‘‘लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’’ रैली से लेकर 20 फरवरी की देर शाम में समापन सत्र तक यह ग्यारहवां महाधिवेशन आज के संकटपूर्ण मोड़ पर भाकपा-माले की महान क्रांतिकारी विरासत तथा संकल्पबद्ध शक्ति व क्षमता का सप्ताह भर का प्रदर्शन बन गया था.
महाधिवेशन में जितने किस्म के कार्यक्रम हुए और जितने व्यापक दायरे के प्रस्ताव ग्रहण किए गए, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि यह ग्यारहवां महाधिवेशन पार्टी के संपूर्ण व्यवहार के विविध आयामों और इसकी विकसित होती कार्यनीतिक दिशा के कार्यभार व प्राथमिकताओं का प्रतिनिधित्व कर रहा था. महाधिवेशन के ठीक पहले आयोजित रैली ने पार्टी की संगठनात्मक ताकत तथा नए-नए क्षेत्रों में इसकी फैलती मौजूदगी और जनता के नए-नए हिस्सों के बीच, शहरी बिहार में विभिन्न मध्यमवर्गीय तबकों समेत, पार्टी के बढ़ते प्रभाव को प्रदर्शित किया. साथ ही, उसने जनता के अधिकारों के लिए व्यापक दायरे के संघर्षों को आगे ले जाने की पार्टी की सतत प्रतिबद्धता को भी बुलंद किया, जबकि पार्टी बिहार में गैर-भाजपा महागठबंधन का एक घटक भी है और सरकार को बाहर से समर्थन भी कर रही है. पार्टी की शक्ति जन समुदाय के साथ इसके घनिष्ठ संबंध और उनके बीच उसके निरंतर कार्य में, तथा तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी जनता के बारंबार उभरने वाले संघर्षों में ही निहित है. पार्टी की इस मूलभूत शक्ति का संचय और इसकी दावेदारी ही फासीवाद-विरोधी प्रतिरोध में पार्टी की संकल्पबद्ध भूमिका और ऐसी कार्यनीतिक दिशा के अनुरूप व्यापक दायरे के कार्यभारों व पहलकदमियों की कुंजी है.
महाधिवेशन का औपचारिक कार्यक्रम वाम खेमे के अंदर घनिष्ठतर एकता और आपसी सहयोग के संदेशों से शुरू हुआ. सीपीआई-एम, सीपीआई, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक जैसी पार्टियों, जिनके साथ भाकपा-माले अखिल भारतीय समन्वय में जुड़ी हुई है, के साथ-साथ झारखंड के मार्क्सवादी समन्वय समिति, महाराष्ट्र की लाल निशान पार्टी तथा सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी और पंजाब के आरएमपीआई जैसे कम्युनिस्ट संगठनों, जो विभिन्न मोर्चों पर भाकपा-माले के लंबे समय के सहयोगी हैं, के प्रतिनिधिमंडलों ने भी उद्घाटन सत्र को संबोधित किया और एकता व एकजुटता का संदेश दिया.
इस ग्यारहवें महाधिवेशन में वेनेजुएला व आस्ट्रेलिया जैसे सुदूर के देशों के साथ-साथ हमारे निकटतम पड़ोसी बंगलादेश व नेपाल से आए अतिथियों की मौजूदगी अंतरराष्ट्रीय एकजुटता की प्रेरणादायी अभिव्यक्ति थी. महाधिवेशन में भारत में शिक्षण कार्य कर रहे एक युक्रेनी प्रोफेसर और फिलिस्तीन पर इजरायली कब्जे का प्रतिरोध करने वाले बायकॉट, डाइवेस्टमेण्ट एण्ड सैंक्शन्स (बीडीएस) अभियान के प्रतिनिधि ने भी अपनी बातें रखीं. लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप और पड़ोसी मुल्कों जैसे श्रीलंका व पाकिस्तान में प्रगतिशील पार्टियों व आन्दोलनों की तरफ से अनेक वीडियो व लिखित संदेश भी भेजे गए थे. प्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधियों ने भी साम्राज्यवादी आक्रमणों और नव-फासीवादी शक्तियों के उत्थान के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय एकजुटता विकसित करने और साथ ही, दक्षिणपंथी हिंदुत्व की जहरीली साजिशों को चुनौती देने के अपने अनुभवों को साझा किया.
किसी कम्युनिस्ट पार्टी महाधिवेशन में संभवतः ऐसा पहली बार हुआ कि उसके कार्यक्रम को लेखिका व कार्यकर्ता अरुंधती रॉय समेत नागरिक समाज से आए अनेक अतिथियों और पत्रकारिता व शैक्षिक जगत के कई सदस्यों ने प्रत्यक्ष देखा और बारी-बारी से प्रतिनिधियों को संबोधित भी किया. हमारे कुछ अतिथि महाधिवेशन में चले समस्त विचार-विमर्श के दौरान मौजूद रहे- राजनीतिक प्रस्तावों और सांगठनिक समीक्षा रिपोर्ट के पारित होने, पर्यावरणीय चुनौतियों पर चर्चा और गुप्त मतदान के जरिए नई केंद्रीय कमेटी के चुनाव तक. 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से 1700 प्रतिनिधियों और पर्यवेक्षकों की मौजूदगी, सभी वक्ताओं के वक्तव्यों का कई भाषाओं में अनुवाद, आधा दर्जन प्रस्तावों और रिपोर्ट को अंतिम रूप देने के लिये 100 से भी अधिक साथियों द्वारा दिये गए सुझावों और संशोधनों पर चर्चा, और अंत में 82 नामों की सूची में से 76 केंद्रीय कमेटी सदस्यों (केंद्रीय कंट्रोल कमीशन का अध्यक्ष पदेन सदस्य होता है) का चुनाव- इन सब ने वास्तव में महाधिवेशन को अंत:पार्टी जनवाद की गहन कार्यवाही बना दिया.
साथ ही गैर-परंपरागत बात यह भी थी कि महाधिवेशन के मंच से एक ऐसा राजनीतिक कन्वेन्शन भी आयोजित किया गया जिसमें विपक्षी दलों के नेता शामिल थे. इस ‘‘लोकतंत्र बचाओ, भारत बचाओ’’ कन्वेन्शन में बिहार के मुख्यमंत्री व जद-यू के नेता नीतीश कुमार, उप-मुख्य मंत्री व राजद नेता तेजस्वी यादव, वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद और वीसीके अध्यक्ष व तमिलनाडु से सांसद श्री तिरुमावलवन की उपस्थिति, तथा झारखंड के मुख्यमंत्री व जेएमएम नेता हेमंत सोरेन का शुभकामना संदेश फासिस्ट मोदी निजाम और विध्वंसकारी संघ ब्रिगेड के चंगुल से भारत को बचाने के लिए मजबूत सर्व-समावेशी विपक्षी एकजुटता की फौरी जरूरत को रेखांकित कर रहे थे.
नीतीश कुमार और सलमान खुर्शीद ने अपने भाषणों में जाहिर तौर पर हंसते-मुस्कुराते हुए एक दूसरे को कुछ बातें भी कहीं, जब इन दोनों की ही संबंधित पार्टियां अखिल भारतीय स्तर पर विपक्षी एकता का कारगर विमर्श तैयार करने की चुनौती का सामना कर रही हैं. बहरहाल, सभी वक्ताओं के वक्तव्यों से एक गंभीर बात यह निकल कर सामने आई कि सब लोग विनाशकारी गुजरात मॉडल, जिसे मोदी पूरे भारत में लागू करने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं, के बरखिलाफ बिहार मॉडल की गूंज सुनाई दे रही है.
इन दो मॉडलों के बीच फर्क सिर्फ इस तथ्य में निहित नहीं है कि जहां भाजपा गुजरात में पिछले तीन दशकों से सत्ता पर काबिज है, वहीं आज बिहार में खुद को सत्ता से बेदखल पा रही है. यह फर्क इन दो राज्यों में राजनीति के ऐतिहासिक विकास में ज्यादा गहराई से दिखाई देता है. गुजरात मॉडल के केंद्र में 2002 का गुजरात में मुसलमानों का जनसंहार है. जनसंहार की इस केंद्रीयता को हाल के गुजरात चुनावों के दौरान बारबार देखा गया, जब भारत की आजादी के 75वें सालगिरह के मौके पर बिल्किस बानो के बलात्कारियों व उसके परिजनों के हत्यारों को समय से पहले रिहा कर नायकों की तरह उनका स्वागत किया गया, और अमित शाह ने 2002 के जनसंहार को ‘दंगाइयों’ के लिए उपयुक्त ‘सीख’ बताया जिससे गुजरात में ‘स्थायी शांति’ पैदा हुई.
बिहार में भी क्रूर जनसंहारों का सिलसिला चला है. पूर्णिया के रूपसपुर चंदवा से लेकर अरवल में लक्ष्मणपुर-बाथे तक, बिहार में समय-समय पर दलितों और अन्य उत्पीड़ित लोगों का बर्बर जनसंहार होता रहा है. आजादी के बाद के भारत में भागलपुर दंगा सांप्रदायिक जनसंहार के सर्वाधिक पीड़ादायक हादसों में गिना जाता है. लेकिन बिहार ने कभी भी जातीय जनसंहार अथवा सांप्रदायिक हिंसा को राजनीतिक मॉडल के बतौर स्वीकार नहीं किया है. बिहार में अपने जन्मकाल से ही भाकपा-माले ने जिस दृढ़ता से सामंती हिंसा और राज्य दमन का सफलतापूर्वक मुकाबला किया है, उसे सच में बिहार माॅडल का प्रतीक चिन्ह माना जा सकता है. यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर उसकी जगह पर शानदार राम मंदिर बनाने के नाम पर आडवानी द्वारा चलाए गए सांप्रदायिक फासीवादी अभियान का सबसे मुखर विरोध बिहार में ही शुरू हुआ था. अगर जनसंहार का आतंक गुजरात माॅडल का केंद्रीय तत्व है, तो इसके बिल्कुल उलट बिहार माॅडल सामंती-सांप्रदायिक हिंसा को ठुकराने और इसका प्रतिरोध करने के इर्दगिर्द खड़ा हुआ है.
2002 के मुस्लिम जनसंहार की खौफनाक नींव पर संघ-भाजपा प्रतिष्ठान ने गुजरात मॉडल की गाथा लिखनी शुरू की, जिसमें मोदी और शाह राजनीतिक रंगमंच के नेता के बतौर उभरे और अडानी व अंबानी कॉरपोरेट महाधनाढ्यों के बतौर सामने आए. 2014 में गुजरात मॉडल दिल्ली तक चला आया और अब समूचा देश इस फासिस्ट मॉडल द्वारा थोपी जा रही आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक विनाशलीला से कराह रहा है. ‘अच्छे दिन’ और अब ‘अमृतकाल’ के रूप में प्रचारित विनाशकारी 9 साल के बाद, अब हम इस मॉडल को अंदर से फटते देख रहे हैं, जब अडानी साम्राज्य को करारा धक्का लगा है और बेनकाब हो चुके मोदी- अडानी गठजोड़ को पहले के किसी भी समय से ज्यादा चुनौतियां मिल रहीं हैं. पटना में आयोजित ग्यारहवें महाधिवेशन ने उस प्रत्याक्रमण की संभावना दिखाई है जो फटते-बिखरते गुजरात मॉडल के खिलाफ बिहार मॉडल खड़ा कर सकता है.
जैसे-जैसे मोदी हुकूमत विपक्ष पर और संसदीय लोकतंत्र व संवैधानिक कानून के राज पर हमला तेज करती जा रही है, इसकी तुलनाएं निरंतर 1970-दशक के मध्य के आपात्कालीन दौर के साथ की जा रही है - वह एकमात्र दौर जब भारत को लोकतंत्र के ‘संवैधानिक’ निलंबन का सामना करना पड़ा था. उस वक्त भारत में भ्रष्टाचार और आसमान छूती कीमतों के खिलाफ नौजवानों का शक्तिशाली आन्दोलन फूट पड़ा था. गुजरात और बिहार इस नौजवान आन्दोलन के दो प्रमुख केंद्र थे. गुजरात आन्दोलन नवनिर्माण आन्दोलन के नाम से जाना जा रहा था, और जेपी के निर्देशन में बिहार आन्दोलन संपूर्ण क्रांति आन्दोलन के रूप में विख्यात हुआ. गुजरात में आरएसएस की छात्र शाखा एबीवीपी आन्दोलन के मुख्य संगठन के बतौर उभरा था, और बिहार में वह समाजवादी धारा का दोयम दर्जे का सहयोगी बना रहा. यह जनता पार्टी के गठन और जनता पार्टी सरकार के निर्माण की पूर्वपीठिका थी. गुजरात ने पहली बार मोरारजी देसाई के रूप में भारत को प्रधानमंत्री दिया, और आरएसएस को मुख्यधारा में शामिल होने, वैधता हासिल करने तथा अखिल भारतीय स्तर पर राज सत्ता तक पहुंचने का पहला मौका मिला.
जहां आरएसएस अपने पक्ष में संतुलन को झुकाने में कामयाब हुआ, वहीं संपूर्ण क्रांति आन्दोलन का विरोध करने और कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के सीपीआई के गलत फैसले के चलते बिहार में कम्युनिस्ट आन्दोलन को गहरा धक्का लगा. 1972 में अविभाजित बिहार विधानसभा में रेकॉर्ड 35 सीटें जीतने वाली सीपीआई अपनी जमीन खोने लगी. बहरहाल, जनता पार्टी प्रयोग भी अल्पकालिक साबित हुआ, क्योंकि आरएसएस इस पार्टी को अंदर से तोड़ने और इस पर काबिज होने का प्रयास कर रहा था, और समाजवादियों का एक हिस्सा पूर्व के जनसंघ सदस्यों का आरएसएस के साथ निरंतर जुड़ाव बरकरार रहने का विरोध कर रहे थे. आरएसएस ने जनता पार्टी के इस प्रयोग का इस्तेमाल करते हुए भाजपा का गठन किया, जबकि पुराना समाजवादी आन्दोलन जनता दल के रूप में पुनर्गठित हुआ और ओबीसी आरक्षण के बारे में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके उसने सापेक्षिक रूप से स्थायी राजनीतिक प्रभाव और सामाजिक आधार हासिल कर लिया.
हाल के दशकों में आंचलिक पार्टियों और पहचान-आधारित संगठनों के फैलाव के परे, ऐतिहासिक रूप से आजादी के बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य में हम चार प्रमुख प्रवृत्तियों को उभरते देखते हैं - कांग्रेस, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट और हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथ. कांग्रेस के वर्चस्व काल में हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथ कांग्रेसवाद-विरोध के माहौल का फायदा उठाकर कांग्रेस के खिलाफ हमलावर ध्रुव के बतौर विकसित हुआ. अपनी राजनीतिक विकास के बावजूद, सोशलिस्ट खेमे की संगठनात्मक एकता मंडल के बाद की अवधि में ना केवल आंचलिक लाइन पर टूटी, बल्कि उसकी एकता भाजपा के उत्थान के प्रति समाजवादी जवाब के प्रश्न पर भी भंग हुई. भाजपा ने अपने कुछ मूलभूत मुद्दों को कुछ समय के लिए परे हटाकर एनडीए के बैनर तले समाजवादियों के एक हिस्से को अपने साथ ले आने का रास्ता सहज बना लिया. 2014 आते-आते यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा को अब शुरूआती एनडीए काल के दिखावे अथवा कार्यनीतिक संयम को बनाए रखने की कोई जरूरत नहीं रही, और 2019 में लगातार दूसरी बार मोदी के सफल आगमन के साथ ही इस फासिस्ट निजाम ने तमाम शक्तियों को संकेंद्रित करने तथा भारत को विपक्ष-मुक्त गणतंत्र में तब्दील करने की मुहिम तेज कर दी. भाजपा नेता अब खुलेआम भारत को एकल-पार्टी राज्य बना देने और 50 वर्षों तक शासन करने की आकांक्षा जाहिर कर रहे हैं.
इस नए मोड़ पर कम्युनिस्टों, सोशलिस्टों, अंबेडकरवादियों, गांधीवादियों और नेहरूवादियों के लिए इन फासिस्टों के खिलाफ सम्मिलित प्रतिरोध में साथ आना और हाथ मिलाना जरूरी और संभव बन गया है. और इस ग्यारहवें महाधिवेशन ने स्पष्ट रूप से इस अनिवार्य आवश्यकता और उस प्रभाव को भी दिखलाया जो यह पैदा कर सकता है, अगर इसे क्रांतिकारी विचारधारा, पहलकदमी और संघर्षों का बल मिले जो बिहार जैसे राज्य में कम्युनिस्ट विरासत को रेखांकित करते हैं. महाधिवेशन ने 1970-दशक के मध्य के बिहार और आज के बिहार के बीच स्पष्ट फर्क को भी उजागर किया है. पचास साल पहले जब लालू प्रसाद और नीतीश कुमार पटना में उस समय के छात्र आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे, तब भाकपा-माले ग्रामीण बिहार के कुछ हिस्सों, खासकर पटना के करीब शाहाबाद और मगध अंचलों, में जुझारू क्रांतिकारी संघर्ष चला रही थी. फिर भी ये दो प्रवृत्तियां जमीन पर एक साथ नहीं आ सकी थीं, यह अलग बात है कि दोनों प्रवृत्तियों के कार्यकर्ता जेलों के अंदर प्रायः एक दूसरे से मिलते थे और ‘संपूर्ण क्रांति’ की आकांक्षा जेपी आन्दोलन के कार्यकताओं के एक हिस्से को भाकपा-माले में शामिल होने के लिए प्रेरित भी कर रही थी, खासकर जनता पार्टी और सरकार के अल्पकालिक प्रयोग के ध्वस्त होने से पैदा हुए मोहभंग के बाद.
1990 के दशक से भाकपा-माले ने चुनावी क्षेत्र में भी अपनी उपस्थिति महसूस करानी शुरू कर दी. शासन की बागडोर अब जेपी आन्दोलन के नाम पर उसके वारिसों के हाथ में चली गई, और भाजपा भी नीतीश कुमार के जद-यू के साथ फलदायी संश्रय कायम करके बिहार की एक शासक पार्टी बन गई; लेकिन भाकपा-माले बिहार विधानसभा में क्रांतिकारी विपक्ष का झंडा बुलंद करते हुए बिहार की सर्वाधिक उत्पीड़ित व वंचित जनता के हितों को आगे बढ़ाती रही. आज सामाजिक रूपांतरण और जनता के अधिकारों की लड़ाई को आगे बढ़ाते हुए भाकपा-माले जनता के विकास की राह में सबसे बड़ी रुकावट बन कर उभरे इस फासीवाद को शिकस्त देने की अपनी क्रांतिकारी जिम्मेदारी निभाने के लिए कृतसंकल्प है. इस प्रकार, स्थानीय प्रभुत्वशाली सामंती शक्तियों के खिलाफ जमीन, मजदूरी और मर्यादा की कल की लड़ाई लोकतंत्र की रक्षा करने और भारत को फासिस्ट लुटेरों के चंगुल से बचाने की आज की लड़ाई में बदल गई है.
भाकपा-माले के ग्यारहवें महाधिवेशन ने अपने लक्ष्यों को और उन तक पहुंचने के रास्तों को रेखांकित कर दिया है. अब समूची पार्टी के लिए जरूरी है कि वह मजबूती से खड़ी होकर जन प्रतिरोध की पूरी शक्ति और ऊर्जा को दिशाबद्ध करे और भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की गौरवशाली विरासत तथा भारतीय इतिहास के हर प्रगतिशील तत्व को लेकर आगे बढ़े.