(विभिन्न पार्टी कमेटियों के साथ का. विनोद मिश्र की बातचीत का सारांश, लिबरेशन, नवंबर 1986)
इस बात का खतरा है कि कहीं स्कूल की प्रणाली औपचारिक बनकर न रह जाए. आंकड़ों के लिहाज से तो क्लासों व पाठों की संख्या काफी अच्छी-खासी है, पर यही मुख्य बात नहीं है. मुख्य बात तो यह है कि विचारधारात्मक व राजनीतिक स्तर उन्नत हुआ है या नहीं. किसी भी अभियान में औपचारिकतावाद घुस ही जा सकता है. आपको इससे सतर्क रहने की जरूरत है
इन क्लासों के जरिए हमारा लक्ष्य है विभिन्न सामाजिक घटनाओं का, किन वर्गों का क्या आचरण होता है, वर्गहित किस प्रकार क्रियाशील होते हैं, इत्यादि का मार्क्सवादी-लेनिनवादी तरीके से अध्ययन-विश्लेषण करने की समझदारी विकसित करना.
उदाहरण के लिए, एक इलाके में, वहां के किसान सीपीआई(एम) के प्रभाव में थे. हमारे कामेरडों ने सीपीआई(एम) के संशोधनवाद, संसदवाद आदि के बारे में अमूर्त प्रचार चलाकर उन्हें अपने पक्ष में जीतने की कोशिश की, पर सफलता न मिली. आमतौर पर लोग अपने वर्ग हितों के अनुसार काम करते हैं और जब उन्हें लगता है यह या वह पार्टी उनके हितों का प्रतिनिधित्व करती है, तो वे उसका अनुसरण करते हैं. कोई आदमी जन्म से ही सीपीआई(एम), कांग्रेस या डिएमके नहीं होता. चूंकि सत्ता से चिपके रहने की एक लंबी प्रक्रिया में सीपीआई(एम) अब उन इलाकों में भूस्वामियों के साथ समझौता करने लगी और धनी किसान की ओर खिसकने लगी तो उसके पूर्व जनाधार में अंतर्विरोधतीव्र हो उठा. हमारे कामरे़डों ने, जिन्होंने पहले से ही अपना स्वतंत्र संगठन और आंदोलन खड़ा कर रखा था, इस अतंरविरोध को समझा, ऐसे मुद्दे व नारे सूत्रबद्ध किए जो व्यापक किसानों को प्रभावित करते हों और सीपीआई(एम) के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं एवं उनके प्रभाव में पड़ी जनता के साथ संयुक्त कार्यवाही शुरू की. इस बार वे सफल रहे. धीरे-धीरे जनता की निष्ठा टूटने लगी और वह हमारे साथ चली आई.
आप अक्सरहां पाएंगे कि इन दिनों बहुत सारे पेट्टिबुर्जुआ बुद्धिजीवी सीआरसी (सेंट्रल रीअर्गानाइजिंग कमेटी) और पीडब्ल्यू (पीपुल्स वार) जैसे ‘वामपंथी’ संगठनों की ओर ज्यादा आकर्षित हैं. इनमें ऐसे लोग भी अच्छी खासी संख्या में हैं जो सचमुच इमानदार और जुझारू हैं. ऐसा इसलिए है कि अपनी वर्ग स्थिति के चलते पेट्टिबुर्जुआ वर्ग अराजक, श्रमिक-संघवादी विचारों के प्रति ज्यादा झुकाव रखता है. अपनी प्रकृति के अनुसार मजदूर वर्ग और किसान समुदाय राजनीति से अरुचि नहीं रखते, क्योंकि वे वास्तविकता से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं. इसीलिए आप पाएंगे कि ऐसे ग्रुपों का मजदूर वर्ग और व्यापक किसान समुदाय के बीच कोई स्थाई प्रभाव या जनाधार इतनी आसानी से नहीं होता. यही हाल ग्रासरूटर्स का भी है. आप ऐसे ग्रुपों के दायरे से इन बुद्धिजीवियों के वाद-विवाद के जरिए अपनी ओर नहीं ला सकते. ये बुद्धिजीवी केवल तभी आपके पक्ष में आएंगे जब आपकी स्वतंत्र राजनीतिक पहलकदमी अधिकाधिक बढ़ती जाएगी और आप शक्तिशाली जनांदोलन खड़े कर पाएंगे.
बहुत से लोग तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के प्रभाव के लिए रामचंद्रन के करिश्मे को श्रेय देते हैं. और भी गहराई से विश्लेषण करने पर पता चलेगा कि यदि गरीब व मध्यम वर्गों का एक बड़ा हिस्सा इस पार्टी का समर्थन करता है, तो वे जरूर ही यह महसूस करते हैं कि इससे उनके हितों की पूर्ति होती है या कम से कम वे यही आशा रखते हैं. दूसरी ओर, अन्ना द्रमुक की बुनियादी वर्ग स्थिति अपेक्षाकृत व्यापक सामाजिक आधार बरकरार रखने तथा उसे और भी विस्तृत करने की उसकी कोशिशों से मेल नहीं खातीं.
हमें इन वास्तविकताओं को समझना होगा और उसके अनुरूप नारे, कार्यनीतियां और आंदोलन विकसित करने होंगे. व्यावहारिक राजनीति में हमें इसी रास्ते पर कदम बढ़ाना चाहिए ताकि इन पार्टियों के सामाजिक आधार और उनकी बुनियादी वर्ग स्थिति के बीच का आंतरिक अंतर्विरोध तेज किया जा सके.
अगर आप केवल अपने दिल व भावनाओं के वशीभूत होकर काम करते हैं, तो आप ले-देकर इन पार्टियों की भर्त्सना करने में ही अपनी सारी शक्ति खर्च कर देंगे. और चूंकि भावनाएं ज्यादा समय तक नहीं टिकतीं, न ही वे भौतिक शक्ति में बदल पाती है, सो इसका हश्र यही होता है कि बाद में वे अपने-आपको ही कोसने लगते हैं. आपको अपने दिमाग से भी काम लेना होगा और ठोस नीतियां व कार्यनीतियां, नारे व शैली विकसित करनी होगी ताकि इन पार्टियों का ठोस शब्दों में पर्दाफाश किया जा सके और उन्हें छिन्न-भिन्न किया जा सके. इस तरह जनसमुदाय को अपने अनुभवों से सीखने में मदद मिलेगी और अंततः उसे अपने पक्ष में जीता जा सकेगा.
हमारे आंदोलन में शामिल अधिकांश लोग दिमाग से नहीं, दिल से काम लेते हैं. फल यह होता है कि वे क्रांतिकारी मुहावरों की रट लगाने में तो सबसे आगे रहते हैं, किंतु उनके पीछे जनता नदारद होती है. जनता प्रतिक्रियावादियों, सामाजिक जनवादियों और कट्टर आंचलिकतावादियों के प्रभाव में पड़ी रहती है. ज्यादा गंभीर बात तो यह है कि कुछ लोगों को इसकी जरा भी परवाह नहीं, वे अपने किसी भी नारे को बदलने को तैयार नहीं, भले ही जनता उनका अनुकरण करे या नहीं. लगता है ये लोग मान बैठे हैं कि क्रांति शब्दों से होती है, जनता से नहीं, इसे ही वाम लफ्फाजी कहते हैं. आत्मसात करने में मदद मिलेगी जो समाज को, वर्गों की सक्रियता एवं उनके संघर्ष को संचालित करते हैं.
इससे आपको आत्मगत आकांक्षाओं के बजाए वास्तविक स्थितियों के आधार पर अपने नारों, नीतियों व कार्यनीतियों का परिष्कार करने में मदद मिलेगी.
कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर जनवाद शब्द का मतलब वह नहीं होता जो आमतौर पर समझा जाता है. यहां जनवाद केंद्रीकृत मार्गदर्शन के मतहत होता है. पार्टी की केंद्रीय कमेटी ही यह निर्णय करती है कि कब और किस सवाल पर बहस की इजाजत दी जानी चाहिए. अन्यथा पार्टी वाद-विवाद सभा में बदलकर रह जाएगी. सीआरसी ग्रुप अतिजनवाद का सर्वोत्तम उदारहण है. ‘सांस्कृतिक क्रांति’ का सच्चा अनुयायी होने का दावा करते हुए वे अपने तथाकतित दो लाइनों के संघर्ष को अंतहीन ढंग से चलाते रहे और सबको बहस करने की नसीहत देते रहे. नतीजा क्या निकला? वे सैकड़ों गुटों में छिन्न भिन्न हो चुके हैं. अब तो उनमें से कुछ इस बात पर भी बहस कर रहे हैं कि मार्क्सवाद सही या नहीं, तो दूसरे यह कहते फिर रहे हैं कि ‘जनवादी केद्रीयता’ की लेनिनवादी अवधारणा गलत है. बहुत से लोग यह महसूस करते हैं कि सीआरसी अत्यंत जनवादी संगठन है. यह तर्क दोषपूर्ण है. अतिजनवाद ऐसी चीज है जिसे पेट्टिबुर्जुआ बुद्धिजीवी भले ही पसंद करते हों, मगर तब आप संगठन नहीं टिकाए रख सकते. केंद्रीयता के बैगर कोई संगठन नहीं चल सकता. 1970 के शुरूआत की बात है जब मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा था कि ‘व्यक्ति संगठन के मातहत’ और ‘अल्पमत बहुमत के मातहत’ की धारणा अत्यंत अपमानजनक है. उन्होंने दावा किया कि सांस्कृतिक क्रांति ने यह घोषित करके कि ‘सच्चाई प्रायः अल्पमत के भीतर छिपी रहती है’, उसका अंत कर दिया है. मैंने उन्हें जवाब दिया कि तब आप कोई संगठन नहीं चला सकते.
ये महाशय, जिन्होंने बाद में पार्टी छोड़ दी, अब एक ‘अंतरराष्ट्रीयतावादी केंद्र’ चलाते हैं. लेकिन अफसोस, वे अपने मिशन में अकेले हैं!
पार्टी लाइन पार्टी-कांग्रेस में तय की जाती है. उसके पहले पार्टी लाइन के तमाम पहलुओं पर बहस संचालित की जाती है. अब एक बार पार्टी कांग्रेस में निर्णय हो जाने के बाद समूची पार्टी को उन निर्णयों का अवश्य ही पालन करना चाहिए. कांग्रेस फिर होगी, फिर बहसें भी होंगी. बीच में भी, नई नीतियों व कार्यनीतियों के प्रश्न पर, जिन्हें प्रयोग का विषय माना जाता है, हमेशा ही बहस-मुबाहिसे संचालित किए जाते हैं और मत-सम्मत एकत्र किए जाते हैं. अल्पमत-बहुमत के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं और अल्पमत वालों को यह छूट रहती है कि वे अपना मत सुरक्षित रखें.
अब कुछ लोगों का कहना है आपकी पार्टी में पर्याप्त जनवाद नहीं है और यही कारण है कि आप में फूट नहीं पड़ी. आपकी निरंतर एकता यह साबित करती है कि आपलोग जनवादी नहीं हैं. सीआरसी, पीसीसी (अस्थाई केंद्रीय कमेटी) और दूसरे संगठन हमेशा टूटते जा रहे हैं क्यों वे जनवादी हैं. कुछ दूसरे लोग कहते हैं, आप इसीलिए एकताबद्ध हैं क्योंकि आप अपनी कतारों को अंधकार में रखते हैं, आप उन्हें दूसरों के साहित्य का अध्ययन करने नहीं देते या दूसरें के संपर्क में नहीं आने देते; और आपका नेतृत्व दो या संभवतः तीन गुटों की गैरउसूली एकता पर आधारित है जो अन्यथा बिलकुल भिन्न व विपरीत विचार रखते हैं.
आप जानते हैं यह सब बकवास है. दरअसल, ये लोग ऐसे स्वप्नलोक में इसलिए विचरण करते हैं ताकि वे अपने अराजकतावाद, जनवादी केंद्रीयता पर आधारित पार्टी का निर्माण करने में अपनी असफलता को उचित ठहरा सकें. ये सभी लोग केंद्रीयता से डरते हैं और अपने अराजकतावाद को ढकने के लिए ‘सांस्कृतिक क्रांति’ एवं माओ त्सेतुंग का ढाल के रूप में इस्तेमाल करते हैं.
कुछ लोग यह दावा करते हैं कि एसएन (सत्यनारायण सिंह) का बुनियादी योगदान यह था कि उन्होंने सीएम (चारु मजुमदार) के नौकरशाही सर्वसत्तावाद के खिलाफ जनवादी केंद्रीयता को बुलंद किया. अगर ऐसा ही था, तो वे एक एकताबद्ध पार्टी विकसित करने में इतनी बुरी तरह असफल क्यों रहे, क्यों जब भी कोई मुद्दा बहस के लिए उठा तो उनकी पीसीसी में फूट पड़ गई? और फिर भला यह क्योंकर संभव हुआ कि सीएम का साथ देनेवाले ही अंततः एकताबद्ध पार्टी बनाने में सफल हुए? दरअसल, एसएन जिस चीज के लिए लड़े वह था अतिजनवाद, और वे केंद्रीयता की बुनियादी प्रस्थापना पर वह भी उस अवधि में जब दमन अपनी चरम सीमा पर था. सीएम ने इस बात पर ठीक ही जोर दिया था कि जीवन-मृत्यु के संघर्ष में उलझी किसी पार्टी के लिए जनवाद कोई खिलौना नहीं है. श्वेत आतंक के समयों में केंद्रीयता पर जोर देना सही था, मेरा मतलब है, बुनियादी तौर पर वे सही थे. यह सही है कि केंद्रीयता पर जरूरत से ज्यादा जोर के कारण कुछ भटकाव पैदा हो गए थे. लेकिन इसके बावजूद, सच्चे और गंभीर क्रांतिकारियों ने सीएम का साथ नहीं छोड़ा तथा धीरे-धीरे इन भटकावों पर विजय पा लिया गया और परिस्थितियां बदलने पर जनवाद को पुनः पूरी तरह बहाल किया गया. लेकिन एसएन की असाधारण विफलता स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करती है कि वे मूलतः गलती पर थे और उनका संघर्ष जनवाद की खातिर नहीं, बल्कि केंद्रीयता के खिलाफ था.
जहां तक हमारा सवाल, कुल मिलाकर हम जनवादी केंद्रीयता स्थापित करने में सफल रहे हैं. तथापि अभी भी कुछ गलत प्रवृत्तियां हमारे संगठन में मौजूद हैं. जन संगठनों के मामले में हम उनकी स्वतंत्र भूमिका व क्रियाकलाप के पक्ष में हैं, और सांस्कृतिक संगठनों के संबंध में तो हम उनकी स्वायत्तता का भी समर्थन करते हैं. लेकिन इन संगठनों में कार्यरत पार्टी के कुछ लोग इस स्वतंत्रता व स्वायत्तता की गलत व्याख्या करते हैं. बल्कि, आप कह सकते हैं कि वे ‘अलगाववाद’ पसंद करते हैं. स्वतंत्रता व स्वायत्तता दो ऐसे साधन हैं जो ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ एकता कायम करने, अपने काम में सृजनत्मकता एवं दक्षता विकसित करने के लिए हैं. आप इस स्वतंत्रता को ‘आपेक्षिक स्वतंत्रता’ कह सकते हैं. लेकिन ‘अलगाववाद’ एक दूसरी ही चीज है – वह पार्टी लाइन, पार्टी के मार्गदर्शन और पार्टी अनुशासन का उल्लंघन करने के अधिकारों की मांग करता है.
इन दिनों बहुत सारे लोग पार्टी निर्णयों का उल्लंघन करते पाए जाते हैं. वे अपने-आपको विक्षुव्ध कहलाना पसंद करते हैं. वे यह बहाना बनाकर पार्टी नेतृत्व के प्रत्येक कदम, प्रत्येक विचार की आलोचना करते हैं कि उनसे सलाह-मशविरा नहीं किया गया. मैं कुछ ऐसे सदस्यों को जानता हूं जो चाहते हैं कि उन्हें एक पार्टी सदस्य के सभी अधिकार मिलें, पर जो संगठन द्वारा दी गई कोई भी जिम्मेवारी उठाने को तैयार नहीं हैं. यदि कोई चीज उनकी इच्छा के विरुद्ध चली जाए, तो वे उसका पालन नहीं करते.
सदस्यता के लिए यह प्राथमिक शर्त हैं कि आप संगठन द्वारा सौंपी गई जिम्मेंवारी अवश्य ही पूरी करते हों. निश्चय ही इस जिम्मेवारी को तय करते वक्त आपसे सलाह और आपकी स्वीकृति ली जानी चाहिए, किंतु एक बार तय हो जाने के बाद आपको उसे दिलोजान से पूरा करना चाहिए. यदि किसी में यह न्यूनतम पार्टी भावना भी नहीं है तो वह सदस्यता का पात्र नहीं और फलतः न ही पार्टी सदस्य के अधिकार पाने का.
ये अतिजनवाद की कुछेक अभिव्यक्तियां हैं. लेकिन हर समस्या को अतिजनवाद की अभिव्यक्ति नहीं करार देना चाहिए. कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि कठिन-कठोर काम न करना अतिजनवाद है. मुझे याद है जब हमने विलोपवाद के खिलाफ संघर्ष शुरू किया था तब एक रिपोर्ट ऐसी भी आई थी जिसमें मीटिंगों में देर से आने या गंभीर चर्चाओं के दौरान किसी के सो जाने को भी विलोपवाद बताया गया था. मुझे आशंका है ये सब बातें कहां तक सही हैं. यदि आप हर चीज को अतिजनवाद की संज्ञा देंगे, तो हो सकता है कि आप वास्तविक निशाना चूक जाएं.
बहरहाल, केंद्रीयता जनवाद पर आधारित होती है. यदि पार्टी के भीतर बहस-मुबाहिसों की इजाजत नहीं दी जाए, यदि उसमें विभिन्न मतों को इकट्ठा करने एवं विभिन्न व्यक्तियों के साथ सलाह-मशविरा करने की प्रणाली न हो, यदि जनसंगठनों के हर तरह के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप किया जाता रहे, तब केंद्रीयता नौकरशाही में बदल जाएगी.
फिर यदि आपके पास सही नीतियां न हों, यदि समय पर मार्गदर्शन न दिए जाएं, यदि कोई नियम न हो, काम का कोई उचित विभाजन न हो,तब भी केंद्रीयता व अनुशासन स्थापित नहीं किया जा सकता.
और अंतिम बात यह, जो किसी भी तरह कम महत्वपूर्ण नहीं है, कि केंद्रीयता व अनुशासन लागू होना इस बात से भी घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है कि पार्टी कतारों की नजर में नेतृत्व की क्या छवि है. यदि नीचे व्यापक असंतोष मौजूद हो, यदि भ्रम एवं विक्षोभ काफी अधिक हो, तो इसका मूल कारण निश्चित रूप से नेतृत्व में खोजा जाना चाहिए. यदि नेताओं के पास परिस्थिति एवं मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अच्छी समझ न हो; यदि उनकी जीवन शैली उनके रवैये से पतनशील बुर्जुआ संस्कृति का भान होता हो, यदि वे विनम्र, संतुलित और कठिन परिश्रमी न हों; यदि उन्हें कतारों का स्वतः प्यार और सम्मान प्राप्त न हो, तो महज पार्टी संगठन में ऊंचे पद पर आसीन हो जाने से कुछ लाभ न होगा. सांगठनिक अनुशासन लागू करना केवल तभी संभव हो सकेगा जब नेतृत्वकारी कोर परिपक्व व समर्पित हो और इसकी बदौलत ऊंची प्रतिष्ठा रखता हो. अन्यथा ऐसे सभी प्रयास उल्टा नतीजा देनेवाले ही साबित होंगे. इसलिए, सभी विक्षोभ को पार्टी विरोधी नहीं मान लेना चाहिए और हर जगह अनुशासन की छड़ी और कटु आलोचना के जरिए समस्या का समाधान करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. मैं खुद भी महसूस करता हूं कि किसी-किसी जगह पर कुछ नेताओं एवं पार्टी कमेटियों ने अच्छी-खासी हद तक अपनी प्रतिष्ठा खो दी है. और यह ऐसी बुनियादी समस्या है जिसे हमें इस सुदृढ़ीकरण अभियान के दौरान निश्चित रूप से सुलझा लेना है. यह पार्टी की केंद्रीयता को कमजोर नहीं करेगा, वरन वास्तव में उसे मजबूत बनाएगा. मैं केंद्रीयता पर जोर देता हूं, क्योंकि बहुत से नए कामरेड इसकी आवश्यकता को नहीं समझे और इसलिए भी, आपके चारों ओर अराजकतावादी ग्रुप केंद्रीयता को कमजोर करने पर तुले हुए हैं जिसे पार्टी ने इन तमाम वर्षों में कठिन प्रयासों की बदौलत हासिल किया है. इसके अलावा, एक भूमिगत पार्टी के लिए, जो कुछ इलाकों में अत्यधिक दमन की स्थितियों में काम कर रही है, और अन्य इलाकों में किसी भी समय ऐसी स्थिति आ सकती है, केंद्रीयता नितांत महत्वपूर्ण है.
सच कहा जाए तो निचले स्तर के पार्टी संगठन किसी प्रकार घिसट रहे हैं. यह ठीक है कि हमारे पास केद्रीय कमेटी है और कई केंद्रीय विभाग हैं. राज्य कमेटियां भी कमोबेश नियमित व स्थाई रूप से काम कर रही हैं. परंतु जहां तक आंचलिक या और भी निचले स्तर की कमेटियों, यूनिटों व सेलों का सवाल है, तो आप कोई नियमित व स्थाई उपयुक्त पार्टी प्रणाली नहीं पाएंगे. यह स्थिति भी निचले स्तर पर बहुत से दिग्भ्रम व अराजकता के लिए जिम्मेवार है, और दरअसल नेताओं के नौकरशाही रवैये, कुछ ही लोगों के हाथों में शक्ति के केंद्रीकरण और कुछेक लोगों द्वारा ही निर्णय लेने के लिए उर्वर भूमि मुहैया करती है.
इस स्थिति को बदलने के लिए, केंद्रीय कमेटी ने सीधा-सीधी आंचलिक कमेटियों को संबोधित करते हुए उन्हें सीधे केंद्रीय कमेटी के पास अपनी सावधिक प्रगति रिपोर्टें भेजने को कहा है. सुदृढ़ीकरण के प्रथम दौर में, हर जगह पार्टी सेल, यूनिट व कमेटियां बनाई गईं, किंतु अब तक उनमें से बहुत सारे पुनः मृतप्राय हो चुके हैं और हमारे कामरेड महसूस कर रहे हैं कि यह काम करने का औपचारिक तरीका है. अनुभव से सीखते हुए ये कामरेड अपने तरीके बदल रहे हैं. कई जगहों पर सेलों व यूनिटों के गठन को अध्ययन ग्रुपों का गठन करने की प्रक्रिया के साथ जोड़ दे रहे हैं. वे पहले संगठकों व न्युक्लियस तत्वों को विकसित करने पर जोर दे रहे हैं जिन्हें केंद्र कर निचले स्तर के पार्टी संगठनों का निर्माण किया जा सकेगा.
फैक्टरी, संस्था, ऑफिस और युनिवर्सिटि के आधार पर पार्टी कमेटियां विकसित करने की प्रणाली के मामले में ज्यादा प्रगति नहीं हुई है, न ही जनसंगठनों में पार्टी कोर स्थायित्व ग्रहण कर सके हैं. अभी भी मात्र इलाका आधारित पार्टी कमेटियों की प्राणाली ही प्रचलित है. नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं ने पार्टी-निर्माण के इस पहलू पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है और पुराना ढर्रा बदस्तूर जारी है. इसका कारण यह है कि बहुत से लोग हमारी पार्टी की गतिविधियों में हुए आमूल परिवर्तनों और विभिन्न मोर्चें पर उसके कामकाज के विस्तार के महत्व को पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं. पुराने ढर्रे पर चल रहा पार्टी ढांचा अब समूचे पार्टी कार्य पर नियंत्रण करने में सक्षम नहीं रह गया है : या तो पार्टी के काम की समूची धारा से कटा-छंटा रह जाता है या फिर कुछ नेता आदेश जारी करते और अनावश्यक हस्तक्षेप करते हुए हर जगह दौड़ते रहते हैं. अब बहुत सारा काम कानूनी दायरे में चल रहा है, बहुत से नए लोग पार्टी की ओर आकर्षित हो रहे हैं. पार्टी संगठन का पुराना ढांचा इन नए विकासों के साथ मेल नहीं खाता. नई बनावट ऐसी होनी चाहिए कि उसके केंद्र में एक पूरी तरह भूमिगत एवं गैरकानूनी न्युक्लियस हो जिसे घेरे हुए पार्टी यूनिटों, सेलों एवं ग्रुपों का एक विशाल जाल बिछा हो जिनमें से बहुत सारे तो अर्धकानूनी और यहां तक कि कानूनी स्थितियों में रहते हुए काम करेंगे. निचले स्तर के पार्टी संगठनों को सुदृढ़ करने का मतलब केवल और अधिक कमेटियां, यूनिट और सेल बनाना ही नहीं है, बल्कि इन निकायों को अपने-अपने क्षेत्र में एवं अपने क्रियाकलाप के रूपों में सक्रिय एवं कारगर बनाना भी इसका लक्ष्य है. यह पहलू अब तक पूरी तरह अछूता रहा है.
सवाल केवल इतना नहीं है कि निश्चित भौगलिक सीमाओं के भीतर काम केंद्रित कर दिया जाए. बल्कि यह एक खास कार्यशैली का, काम के सचेतन इलाके का सवाल है. ज्यादातर रिपोर्ट घटनाओं के पीछे भागने की स्वतःस्फूर्त कार्यशैली दर्शाते हैं. कहीं किसी मंदिर से गहने चोरी हो जाते हैं या कावेरी के जल से संबंधित कोई मुद्दा आ जाता है, और आप आंदोलन खड़ा करने के लिए दौड़ पड़ते हैं. यहां आप घटनाओं के पीछे दौड़ रहे हैं, और इस कार्यशैली के आधार पर विकसित सक्रिय तत्व मौके-बेमौके सक्रिय रहनेवाले आंशिक प्रकृति के होंगे. कोई बड़ी घटना घटने पर वे सक्रिय हो जाएंगे, दूसरे समयों में वे निष्क्रिय पड़े रहेंगे.
‘केंद्रित इलाकों’ को एक खास कार्यशैली के मॉडल के रूप में विकसित किया जाना चाहिए जहां आपके पास सचेतन योजना व कार्यक्रम, दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य, नीतियां व कार्यनीतियां हों. यह कार्यशैली ऐसी होनी चाहिए कि सक्रिय तत्व दिन प्रतिदिन जनकार्य करें. यदि आपके पास ऐसा ऊपरी ढांचा हो, तो आप घटनाओं में किसी भी आकस्मिक मोड़ के अनुरूप यथासमय पहलकदमी ले सकते हैं.
बहुत सारी रिपोर्टों में मुझे कोई नीति और काम की योजना दिखाई नहीं पड़ी. यदि आपके पास कुछ नीतियां हैं, तो पहली बात यह कि उनके कार्यान्वयन से आपको क्या-क्या अनुभव प्राप्त हुए? और दूसरे, क्या यह अनुभव उन नीतियों में किसी फेर बदल की जरूरत को सामने लाता है? इन सवालों पर अनेक रिपोर्टों में चुप्पी साध ली गई है, और यही चीज हमारी कार्यशैली में सबसे बड़ी बाधा है. बहुत सी जगहों पर या तो नीतियां व योजनाएं हैं ही नहीं, या वे केवल कागज पर हैं. आंखें मूंद कर काम करने का मतलब गलत नीतियों के आधार पर काम करना. यदि आपके पास कोई सही व सचेतन नीति नहीं है तो इसका अर्थ है कि आपके पास गलत नीतियां हैं, स्वतःस्फूर्त नीतियां हैं, और ऐसे रास्ते के खतरों की ओर से आप आंखें मूंद हुए हैं. किसी पार्टी कमेटी द्वारा बनाई गई नीतियां तथा उनका कार्यान्वयन एवं निरंतर शिक्षा ही उस कमेटी के सुदृढ़ीकरण की धुरी होती हैं. नेताओं ने इस पहलू पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है. उनका दायित्व है कि वे नीतियां विकसित करने, विशिष्ट मामलों का विश्लेषण करने, और इन अनुभवों की रोशनी में समूचे संगठन का मार्गदर्शन करने के लिए खास इलाकों या मोर्चों को केंद्रित करें.
जनता के स्वतःस्फूर्त संघर्ष को सचेतन रूप देना – यही कम्युनिस्ट पार्टी का उद्देश्य होता है, अन्यथा वह अपनी सार्थकता खो बैठेगी.
इन संगठनों के जरिए ही पार्टी जनसमुदाय के साथ सबसे घनिष्ठ एवं सजीव संबंध बनाए रखती है. जनता की सबसे प्राथमिक मांगों को उठाते हुए उसके साथ अपने संबंधों को दिन-ब-दिन विस्तृत करना इन संगठनों का कार्यभार है.
ऐसा देखा गया है कि स्वयं को राज्यस्तरीय या अखिल भारतीय स्तर का निकाय बनाने के चक्कर में इन संगठनों ने काफी हद तक अपनी गतिशीलता खो दी है और बुनियादी स्तर पर जनसमुदाय के साथ उनका संबंध भी कमजोर पड़ चुका है. आंशिक संघर्षों को तत्काल ही राजनीतिक संबंध में बदल देने की हमारी अतिउत्साही कोशिशो का परिणाम यह हुआ कि वे अनेक जगहों पर जनराजनीतिक संगठन का मात्र डमी बनकर रह गए हैं. एक ओर वर्गीय व तबकागत संगठनों तथा दूसरी ओर, जनराजनीतिक संगठन के बीच सही अंतर्सम्बंध बनाए रखना दोनों के विकास के लिए निर्णायक महत्व रखता है. दोनों को एक दूसरे की भरसक मदद करनी चाहिए. लेकिन इनमें से किसी को भी दूसरे की भूमिका अख्तियार करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. जहां जनराजनीतिक संगठन को सर्वप्रथम राष्ट्रीय और उसके बाद राज्य स्तर पर मजबूत करना जरूरी है, वहीं वर्गीय व तबकागत संगठनों के मामले में हमें चाहिए कि हम उन्हें सबसे पहले और सर्वप्रमुखता के साथ स्थानीय और आंचलिक स्तरों पर सुदृढ़ करें, उसके बाद राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर.