(26 दिसंबर 1993, युवा केंद्र कलकत्ता में पश्चिम बंगाल कमेटी की ओर से माओ जन्म शताब्दी के उपलक्ष में आयोजित सेमिनार में दिया गया भाषण.)
माओ त्सेतुंग की जन्मशताब्दी के उपलक्ष में समूचे देश में काफी वाद-विवाद चल रहा है, ढेरों लेख लिखे जा रहे हैं और नाना प्रकार के आयोजन किए जा रहे हैं. माओं में यह नई दिलचस्पी बड़ी उम्मीदें जगा रही है. यहां तक कि जो लोग कल तक यह समझते थे कि पूंजीवाद के गर्भ से एक बार जन्म लेने के बाद समाजवाद फिर पूंजीवाद में वापस नहीं लौट सकता है, वह केवल विकसित समाजवाद और उसके बाद साम्यवाद की ओर ही बढ़ेगा; और जिन्होंने अतंरविरोध के बारे में माओ के अध्ययन की खिल्ली उड़ाई थी, आज वे भी अंतर्विरोधके बारे में माओ के विचारों की जयजयकार कर रहे हैं. निस्संदेह यह बहस, ये वाद-विवाद भारी अहमियत रखते हैं.
बेशक, कुछ लोग माओ और उनके चिंतन का अपने सामाजिक जनवादी प्रयोग के साथ तालमेल बिठाने की चेष्टा करेंगे तो कुछ लोग अपनी भाववादी अराजकतावादी धारणाओं के साथ. मगर, जो भी हो, यह वाद-विवाद, यह बहस ही आखिरकार माओ और उनकी विचारधारा के बारे में एक सुस्पष्ट और सही समझ कायम करने में मदद करेगी. माओ और उनकी विचारधारा के बारे में एक सही धारणा पर पहुंचना जरूरी है, क्योंकि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में माओ और उनकी विचारधारा हमेशा भारी वाद-विवाद का मुद्दा रहा है और इस पर एक सही व एकतावद्ध धारणा पर पहुंचे बगैर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन को अगली मंजिल में नहीं ले जाया जा सकता. इन्हीं कारणों से माओ को, उनकी विचारधारा को लेकर उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर जो बहस और वाद-विवाद शुरू हुआ है उसका मैं स्वागत करता हूं.
सत्तर के दशक की शुरूआत में कलकत्ता की दीवारें एक विलक्षण नारे से भर गई थीं – “चीन के चेयरमैन, हमारे भी चेयरमैन.” हजारों हजार नौजवानों ने इस नारे के क्रांतिकारी अवज्ञा के प्रतीक के बतौर गुंजाया. इस नारे को राष्ट्रीय भावना, देशभक्ति के खिलाफ बताकर इसकी कड़ी आलोचा हुई, कहा जाता है कि खुद माओ ने भी इस नारे से अपनी असहमति जताई थी.
बाद में हमारी पार्टी ने भी वह नारा वापस ले लिया. लेकिन एक सवाल रह ही जाता है – आखिर भारत के हजारों-हजार नौजवानों ने अपना क्रांतिकारी जोश-खरोश इस नारे के जरिए क्यों प्रकट करना पसंद किया? वे किसी से कम देशभक्त नहीं थे, उनकी राष्ट्रवादी भावना किसी से बाल बराबर भी कम नहीं थी. “मुक्त होगी प्रिय मातृभूमि” का स्वप्न आंखों में लिए हजारों की संख्या में उन्होंने अपने प्राण-न्यौछावर किए थे. फिर भी उन्होंने यह नारा क्यों लगाया? दूसरे शब्दों में कहूं तो चीन के चेयरमैन माओ भला कैसे विश्वक्रांति के नेता में रूपांतरित हो गए?
आखिर वे कैसे तमाम देशों के युवकों के और क्रांतिकारी जनता के स्वजन, उनकी आशा के प्रतीक बन गए? इसे समझने के लिए उस जमाने की ऐतिहासिक परिस्थिति को समझना जरूरी है.
1960 के दशक में सोवियत नेतृत्व ने अचानक कहना शुरू कर दिया – परमाणु बम के आविष्कार के बाद हर चीज बदल गई है. इसलिए अब हर चीज के बारे में नए सिरे से सोचना जरूरी है. साम्राज्यवादियों के पास आज इतनी ताकत है कि वे करोड़ों लोगों का सफाया कर सकते हैं, यहां तक कि समूची धरती का विनाश कर सकते हैं. लिहाजा, अब और वर्ग संघर्ष नहीं, और राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध नहीं, संक्षेप में, ऐसा कुछ भी नहीं जो साम्राज्यवादियों को उकसाए, इसके अतिरिक्त, उन्होंने इस ‘नए युग’ में, परमाणु युग में, मार्क्सवाद की नई परिभाषा गढ़ने का आह्वान किया. सोवियत संघ में आधुनिक संशोधनवाद का इसी तरह उदय हुआ. माओ ने क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की ओर से चुनौती स्वीकार की और घोषणा की कि कोई भी हथियार, चाहे उसकी विनाश क्षमता कितनी भी क्यों न हो, मानव समाज के बुनियादी नियमों को बदल नहीं सकता. विश्व इतिहास की चालक शक्ति जनता और केवल जनता है, परमाणु बम हरगिज नहीं. जब साम्राज्यवादी लोग परमाणु बम का हौवा खड़ा कर समूची दुनिया में क्रांतिकारी संघर्ष को रोक देना चाहते थे, उस समय माओ ने ही यह प्रसिद्ध घोषणा की थी – परमाणु बम केवल कागजी बाघ है. उस मोड़ पर माओ द्वारा कही गई इस साहसिक उक्ति ने हर जगह उत्पीड़ितों के मन में विश्वास जगाया था और उन्हें संघर्ष जारी रखने के लिए आवश्यक प्रेरणा दी थी. माओ ने यह भी कहा था कि एक छोटी ताकत धीरे-धीरे शक्ति संचित कर सकती है और एक बड़ी ताकत को पराजित कर सकती है. इस प्रकार जब संशोधनवाद के प्रभाव से मार्क्सवाद के अस्तित्व पर ही खतरा आ खड़ा हुआ था, उस समय माओ ने दुनिया के लोगों को ढाढ़स बंधाया और इस तरह वे चीन की सीमाओं के परे, एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और समूची दुनिया के क्रांतिकारी आशावाद के, क्रांतिकारी विचारधार के प्रतीक बन गए, उनके एकदम अपने बन गए.
माओ विचारधारा के उदय का भी एक इतिहास है. मार्क्स और एंगेल्स ने सर्वहारा क्रांति का सपना देखा था. उन्हें लगता था कि यह क्रांति विकसित पूंजीवादी देशों से शुरू होगी और उन देशों का विजयी सर्वहारा बाद में उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों की उत्पीड़ित जनता को मुक्त करेगा. लेकिन वस्तुतः क्रांति अपनी सीधी राह पर आगे नहीं बढ़ी. क्रांति पहले रूस में हुई. लेनिन ने भी शुरू में उम्मीद की थी कि रूसी क्रांति पश्चिम यूरोप के देशों में क्रांति की लपटें सुलगा देगी. यह भी नहीं हुआ. इसलिये लेनिन ने रूसी क्रांति और उपनिवेशों व अर्ध-उपनिवेशों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के बीच सजीव संपर्क पर जोर दिया. उन्होंने यह भलीभांति समझा कि क्रांति का केंद्र वस्तुगत रूप से एशिया की ओर मुड़ चुका है. उन्होंने पूरब के कम्युनिस्टों को सलाह दी कि आपको अपनी राह मार्क्सवादी किताबों में शायद ही मिले, बेहतर होगा कि अक्तूबर क्रांति के समृद्ध अनुभव की रोशनी में, कम्युनिज्म के आम सिद्धांतों की रोशनी मे, आप अपनी राह खुद तलाशें.
इस प्रकार माओ विचारधारा का उदय कोई आकस्मिक घटना नहीं थी. चूंकि विश्व क्रांति का केंद्र एशिया की ओर, पूरब की ओर मुड़ गया था, इसलिए वहां से एक नए क्रांतिकारी सिद्धांत का उदय ऐतिहासिक अनिवार्यता बन गई थी – उसका उदय भारत अथवा चीन कहीं से भी हो सकता था. जो हो, उसका उदय चीन से हुआ और माओ इसी ऐतिहासिक जरूरत की उपज थे.
माओ ने चीन में, जो कि एक अर्धऔपनिवेशिक देश था, किसानों में क्रांतिकारी संभावना की तलाश की और क्रांति को पूरा करने के लिए एक लाल सेना का भी निर्माण किया. सर्वहारा के इतिहास में किसानों की यह भूमिका मार्क्सवाद के शस्त्रागार में एक विशिष्ट योगदान थी. राष्ट्रीय चेतना के आधार पर साम्राज्यवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चा का निर्माण माओ का अन्य प्रमुख योगदान था.
माओ को अपनी विचारधारा स्थापित करने के लिए खुद अपनी पार्टी के भीतर और कोमिन्टर्न के खिलाफ भी लड़ना पड़ा है. अंततः उन्होंने एक लंबे संघर्ष के जरिए अपनी लाइन, अपने मतादर्श और अपनी विचाराधारा को स्थापित किया.
माओ स्तालिन की बड़ी इज्जत करते थे. उन्होंने स्तालिन को महान क्रांतिकारी नेता कहा था. लेकिन साथ ही साथ उन्होंने और केवल उन्होंने ही, स्तालिन की गलतियों के विचारधारात्कम स्रोत की तलाश की. जब चारों ओर स्तालिन की निंदा का बाजार गरम था, जब उन्हें यहां तक कि अपराधी करार कर दिया जा रहा था, उस वक्त माओ ने समाजवाद के निर्माण में उनके योगदान को सामने रखा. माओ ने स्तालिन की गलतियों के विचारधारात्मक स्रोत की पहचान करते हुए बेहिचक कहा कि स्तालिन बड़ी मात्रा में अधिभूतवाद के, एकांगीपन के शिकार थे.
चीन में समाजवाद का निर्माण करते समय माओ ने आंखें मूंदकर सोवियत माडल की नकल करने का विरोध किया था. सोवियत पार्टी को सुपर पार्टी के बतौर लाद दिए जाने का, और सर्वोपरि, सोवियत संघ के एक अतिमहाशक्ति बन जाने का विरोध किया था. उन्होंने इस बात पर बार-बार जोर दिया था कि किसी समाजवादी देश को, चाहे वह जितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए, कभी भी अतिमहाशक्ति होने का अहंकार नहीं पालना चाहिए. अन्य देशों के भीतरी मामलों में कभी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और सेना उतारकर अन्य देशों पर कभी कब्जा नहीं करना चाहिए. सोवियत सेना जब समाजवाद की रक्षा करने के बहाने पूर्वी यूरोप से लेकर अफगानिस्तान तक धावे मार रही थी, उस समय माओ ने इस अतिमहाशक्ति सुलभ रुख का दृढ़ता के साथ विरोध किया और कहा कि कोई समाजवादी देश अगर एक अतिमहाशक्ति जैसा आचरण करता है तो वहां की समाजवादी व्यवस्था सच्ची समाजवादी व्यवस्था नहीं रह जाती.
माओ ने न केवल ख्रुश्चेवी संशोधनवाद का ही विरोध किया बल्कि उन्होंने स्तालिन के अधिभूतवाद की भी आलोचना की. हमारी पार्टी मानती है कि माओ विचारधारा की सामग्रिक समझ हासिल करने के लिए इन दोनों पहलुओं को समझना आवश्यक है.
माओ ने यह बार-बार बतलाया कि पूंजीवाद और समाजवाद के बीच का अंतर्विरोधअभी तक हल नहीं हुआ है. यह संघर्ष लंबे अरसे तक, शायद कई सौ वर्षों तक जारी रहेगा और उस लड़ाई में कौन जीतेगा, इसका फैसला अभी नहीं हुआ है. सोवियत नेतृत्व का कहना था कि समाजवाद सिर्फ विकसित समाजवाद और उसके बाद साम्यवाद की ओर ही विकसित होगा. माओ ने कहा, ऐसा सोचना सही नहीं है. मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धांत के क्षेत्र में यह माओ का एक प्रमुख योगदान है.
उन्होंने यह भी बतलाया था कि ठीक किस प्रकार कोई समाजवादी देश पूंजीवादी देश में पुनःरूपांतरित हो जा सकता है. उनका कहना था कि एक समाजवादी देश में भी वर्ग संघर्ष चलता रहता है और वहां भी एक पूंजीपति वर्ग मौजूद रहता है. यह पूंजीपति वर्ग अपने को कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर ही संगठित करता हैं. पूंजीवाद के पथिक कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय से ही जन्म लेते हैं. बाद में सोवियत संघ में घटी घटनाओं ने इस विश्लेषण को सही ठहराया. समाजवाद से पूंजीवाद में लौट जाने और पूंजीवाद के पथिकों द्वारा पार्टी पर कब्जा कर लेने की बात उन्होंने ठीक जिस प्रकार कही थी रूस में वास्तव में वैसा हुआ. खासकर सोवियत संघ का पतन होने के बाद माओ विचारधारा की ओर बढ़ते आकर्षण का बुनियादी कारण यही है.
विभिन्न समाजवादी देशों के अनुभव का निचोड़ निकाल करके माओ ने सचमुच इस अहम समस्या का समाधान करने की कोशिश की. इसी कोशिश का नतीजा चीनी सांस्कृतिक क्रांति थी. सांस्कृतिक क्रांति असफल हो गई और अंत में उन लोगों ने पार्टी-सत्ता पर कब्जा कर लिया जिन्हें कम्युनिस्ट हरगिज नहीं कहा जा सकता. अंततः 1976 में माओ को सांस्कृतिक क्रांति को रोक देने की घोषणा करनी पड़ी और तेंग श्याओफिंग को वापस लाना पड़ा. प्राथमिक विश्लेषण में सांस्कृतिक क्रांति का लक्ष्य और उद्देश्य पूरा नहीं हो सका. उल्टे, अनेक मामलों में तो उसका उल्टा ही फल निकला.
बहरहाल, ये अनसुलझे सवाल माओ विचारधारा को और आगे ले जाने की शर्तों का निर्माण करते हैं. क्रांति के इतिहास में हर मंजिल में कई प्रश्न हल नहीं हो पाते. फलतः वे मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विकास की भावी शर्त बन जाते हैं. बार-बार विफलताओं के बाद ही सफलता मिलती है. सांस्कृतिक क्रांति पराजित हुई, मगर यह मुख्य बात नहीं है. महत्वपूर्ण बात तो यह है कि माओ ने वास्तविक सवालों को उठाया और उन्हें हल करने की कोशिश की. खतरा सचमुच है; यह साबित हो चुका है. भविष्य में मार्क्सवादी-लेनिनवादियों को इन सवालों को हल करने की कोशिश करते समय माओ की कोशिशों की अंतर्वस्तु पर बड़ी हद तक निर्भर करना होगा.
कई लोग आज माओ का मूल्यांकन कर रहे हैं. निस्संदेह, इसकी जरूरत है. लेकिन मुझे लगता है कि माओ के सामग्रिक मूल्यांकन के बारे में अंतिम तौर पर कुछ कहने का वक्त अभी नहीं आया है. स्तालिन के बारे में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने जो मूल्यांकन किया था उसे दुनिया के मार्क्सवादी-लेनिनवादियों ने मानने से इनकार कर दिया. इसी तरह, माओ के संबंध में चीनी पार्टी द्वारा किए गए मूल्यांकन को मैं आखिरी शब्द नहीं मानता. निस्संदेह, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का मूल्यांकन माओ के सामग्रिक मूल्यांकन का एक अंश है. लेकिन माओ केवल चीन के नहीं थे. लिहाजा, उनका मूल्यांकन समूची दुनिया के मार्क्सवादी-लेनिनवादी करेंगे. इस मूल्यांकन के लिए इतिहास को थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा.
आज जरूरत है माओ विचारधारा की रोशनी में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का मूल्यांकन करने की – उन कारणों पर गौर करने की कि क्यों हम भारतीय क्रांति को आगे बढ़ाने में असफल रहे. अपनी खुद की पार्टी लाइन को सही मानने की कसौटी पर माओ का मूल्यांकन करने के बदले बेहतर होगा कि खुद अपनी पार्टी लाइन को माओ विचारधारा के तराजू पर तौला जाए.
माओ ने कोई गलती नहीं की, बात ऐसी नहीं है. जो क्रांति करने का सपना देखते हैं और क्रांतिकारी संघर्षों के जरिए उसे साकार करने की कोशिश करते हैं वे गलतियां कर ही सकते हैं. हां, जो कभी संघर्ष में उतरते ही नहीं, केवल वे ही यह दावा कर सकते हैं कि उन्होंने कभी कोई गलती नहीं की. मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन प्रत्येक ने गलतियां की थीं. लेकिन उनकी गलतियां महान क्रांतिकारियों की गलतियां थी. यहां तक कि वे अपनी गलतियों के जरिए भी जनता की क्रांतिकारी चेतना को ऊंचा उठाने में सफल हुए. माओ की गलतियों को भी केवल इस नजर से देखना होगा. जिन-जिन लोगों ने हमेशा सही होने का दावा किया है, इतिहास उन्हें भूल चुका है. इतिहास ने मार्क्स को याद रखा है – लासाल अथवा बर्नस्टीन को नहीं. इतिहास ने लेनिन को याद रखा है – प्लेखानोव को नहीं. इतिहास ने माओ को याद रखा है – ल्यू शाओची को नहीं.
1968 मे जब हमने कालेज जीवन में क्रांतिकारी राजनीति शुरू की थी, उस समय हमने कालेज की पत्रिका के संपादकीय में चेयरमैन माओ शब्द का इस्तेमाल किया था. उस समय हम केवल 4-5 लोग थे. प्रतिक्रियावादीयों ने कई विद्यार्थियों को गोलबंद किया और वैनगार्ड नामक हमारी पत्रिका को जला दिया. हमलोगों ने विरोध में नारा लगाया, ‘माओ त्सेतुंग विश्वक्रांति के महान नेता हैं.’ बाद में गिरफ्तार होने पर, साथ में माओ की किताबें रहने के कारण हमें निर्दयतापूर्वक पीटा गया. जेल में माओ की संकलित रचनाएं किसी तरह चोरी-छिपे मंगवाने में मैं सफल रहा. मैं उसे रोज खुद पढ़ता और जेल में बंद अन्य कामरेडों के हितार्थ उसका अनुवाद कर दिया करता. यह उन दिनों मेरा सबसे पसंदीदा कार्य था.
1979 में मैं जब पहाड़ो को पार कर चीन पहुंचा, उस समय वहां माओ को हटाने की प्रक्रिया अभी शुरू ही हुई थी. हमने चीनी क्रांति से संबंधित तमाम महत्वपूर्ण स्थानों की यात्रा की और वहां के प्रवीण किसान कामरेडों तथा अन्य अनेक व्यक्तियों के साथ बातचीत की. उस समय हमें महसूस हुआ था कि चीनी जनता और पार्टी की व्यापक कतारों के मन में माओ पर भारी आस्था और श्रद्धा है और माओ को चीन से कभी भी मिटाया नहीं जा सकता है.
माओ के मृत शरीर के सामने खड़ा होकर उस दिन मैंने अपने-आप से कहा, “चेयरमैन माओ, आप हमेशा हमारे चेयरमैन बने रहेंगे. हां चीन का चेयरमैन होने के नाते नहीं, बल्कि भारतीय क्रांति के हमारे मार्गदर्शक होने के नाते.”