(छठे पार्टी-कांग्रेस की राजनीतिक-संगठनात्मक रिपोर्ट से)
सोवियत संघ के पतन और शीतयुद्ध की समाप्ति के फलस्वरूप एकध्रुवीय विश्व का उदय हुआ. इसका प्रतिबिंब दिखाई दिया खाड़ी युद्ध में, जब तमाम प्रमुख साम्राज्यवादी शक्तियां अमेरिका के इर्द-गिर्द एक महागठबंधन में गोलबंद हो गईं. तथापि, यह महागठबंधन अस्थाई साबित हुआ. जब अमेरिका ने सितंबर 1996 में खाड़ी युद्ध का दूसरा संस्करण आरंभ करना चाहा, तो इस गठबंधन में दरार पड़ गई. रूस ने खुलेआम अमेरिका की आलोचना की, फ्रांस ने अपना प्रतिवाद दर्ज कराया, चीन ने सद्दाम को अभिनंदन भेजा, जापान ने धैर्य रखने की सलाह दी, और यहां तक कि अमेरिका के अरब संश्रयकारी भी विपरीत दिशा में मुड़ गए.
नाटो के विस्तार के मसले पर उनके आंतरिक मतभेद साफ जाहिर हुए हैं. 1991 के बाद से, यानी शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद, फ्रांस और जर्मनी ने अखिल-यूरोपीय सुरक्षा व्यवस्था का विचार पेश किया. अमेरिका को अंदेशा है कि अगर एक बार जर्मनी अकेले या फिर फ्रांस के साथ मिलकर मध्य यूरोप में प्रभुत्व कायम कर लेता है, तो वह यूरेशिया से अमेरिका को बहिष्कृत करने के लिए रूस के साथ किसी समझौते पर पहुंच सकता है. युरोपीय देशों को किसी स्वतंत्र रणनीतिक समझोते में बंधने से रोकने के लिए, अमेरिका ने नाटो का पूरब की ओर विस्तार शुरू किया और वहां किस-किस देश को इसमें शामिल करना है, इसे तय करने में अपने एकतरफा निर्णयों को उन पर थोप दिया. नाटो का पूरब की ओर विस्तार, यूरोप को अमेरिका के साथ बांधे रखने और अमेरिका के एकध्रुवीय प्रभुत्व को कायम रखने का एक महत्वपूर्ण उपाय है. नाटो के इस विस्तार के खिलाफ रहते हुए भी मास्को को इस पर राजी होना पड़ा, क्योंकि बदले में उसे आर्थिक सुविधाएं मिली हैं और एक नाटो-रूस संयुक्त स्थाई परिषद का भी निर्माण किया गया है, जिसमें उसे वीटो अधिकार तो नहीं हासिल है लेकिन नाटो की निर्णय प्रक्रिया में अपना मत रखने की छूट है.
यद्यपि अमेरिका चीन के साथ ‘सकारात्मक अंतःक्रिया’ की बातें करता है, पर व्यवहार में वह चीन पर अंकुश रखने की नीति पर कट्टरता से अमल कर रहा है. चीन यूरोप में नाटो के विस्तार से और अपनी पश्चिमी सीमा को छूनेवाले मध्य एशिया में अमेरिका की बढ़ती रणनीतिक गतिविधियों से गंभीर रूप से चिंतित है. घेरेबंदी को तोड़कर निकलने के लिए अपनी नाभिकीय व पारंपरिक युद्ध क्षमता को सुदृढ़ करने के अलावा, चीन ने रूस से रणनीतिक सहयोग भी तेजी से बढ़ाया है. चीनी और रूसी नेताओं की शीर्ष बैठक के तुरंत बाद जारी संयुक्त विज्ञप्ति में समानता पर आधारित साझीदारी के निर्माण की शपथ ली गई, जिसका उद्देश्य 21वीं सदी में रणनीतिक अंतःक्रिया के जरिए बहुध्रुवीय विश्व का निर्माण करना है. यह विकास इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि पहली बार दो बड़ी शक्तियों ने खुलेआम अमेरिकी प्रभुत्व के खिलाफ सवाल उठाया है, और एक बहुध्रुवीय विश्व की बात उठाई है.
जापान ने अमेरिका के साथ हाल में जो सैनिक संश्रय किया है, उसकी परिधि से ताइवान को बाहर रखने के लिए चीन जापान पर बेइंतहा दबाव डाल रहा है और पूर्व एशियाई नेताओं की एक सभा में चीनी प्रधानमंत्री ने ‘असंगत पश्चिमी व्यवस्था’ के खिलाफ एक ‘नई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था’ के निर्माण की बात कही है. चीनीयों ने बड़े जोर-शोर से राष्ट्रीय मुद्दे को उछाला है तथा विश्व राजनीति में अधिक सक्रिय व मुखर भूमिका निभाना शुरू कर किया है. हांगकांग के एकीकरण ने चीन की आर्थिक शक्ति बढ़ाई है और उसके राष्ट्रीय मुद्दे को मजबूत किया है.
लेनिन ने कहा था कि “कुछ क्षेत्रों का शांतिपूर्ण बंटवारा करने के मकसद से साम्राज्यवादी देशों का संश्रय बंधना पूर्णतः संभव है.” “लेकिन क्या ऐसा संश्रय स्थाई होगा और वह हर किस्म के आपसी विवाद, झगड़ों व संघर्षों को खत्म कर सकेगा?”
“पूंजीवाद में प्रभाव-क्षेत्रों के बंटवारे इत्यादि का एकमात्र कल्पनीय आधार शक्ति का आकलन है और शक्ति तो समान हद तक बदलती नहीं, क्योंकि विभिन्न संस्थानों, ट्रस्टों इत्यादि का समान विकास असंभव है.”
“अतएव, सामान्यतः संश्रय युद्ध के दौरान होने वाली शांति-वार्ताओं के समान हैं. शांतिपूर्ण संश्रय युद्ध का आधार प्रस्तुत करते हैं और युद्ध से ही उपजते हैं, वे एक दूसरे के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकते.”
एकध्रुवीय विश्व, जमाने के साथ कत्तई मेल खाने वाली चीज नहीं है. वस्तुगत प्रक्रिया बहुध्रुवीय विश्व की ओर बढ़ रही है, जहां अमेरिका के अलावा यूरोप और चीन-रूस के ध्रुव, महत्वपूर्ण ध्रुवों के बतौर उभर सकते हैं.
अमेरिका समूची दुनिया पर अपना प्रभुत्व कायम करने पर तुला हुआ है. वह 1960 के दशक से शुरू हुई क्यूबा की आर्थिक नाकेबंदी, ईराक और ईरान के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध, तथा चीन, रूस व जापान पर धौंस-धमकी जमाने जैसी नीतियों पर अमल जारी रखे हुए है. वह यूरोपीय देशों के साथ व्यापार-युद्ध में लिप्त है. और वह भारत समेत कई देशों के अंदरूनी मामलों में टांग अड़ा रहा है. इन कार्यवाहियों के लिए वह अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व व्यापार संस्थाओं तथा संयुक्त राष्ट्र संघ का भी इस्तेमाल करता है, जो हाल में अमेरिकी नीतियों पर अमल करने का औजार बन गया है.
अतः वैश्वीकरण के इस युग में छोटे व दुर्बल देशों के लिए राष्ट्रीय प्रश्न अतिशय महत्वपूर्ण प्रश्न बना हुआ है.
अमेरिकी रणनीति में भारत को चीन के खिलाफ एक संतुलनकारी शक्ति माना जाता है. भारत की वैदेशिक नीति संबंधी प्रतिक्रिया इस सवाल पर बहुत स्पष्ट है. यद्यपि हाल में भारत-चीन संबंध काफी हद तक सुधर गए हैं. पर भारत में एक ऐसी शक्तिशाली अमेरिकापरस्त लाबी मौजूद है, जो चीनी विस्तारवादी साजिशों का हौवा खड़ी करती रहती है, तिब्बत के सवाल पर हो-हल्ला मचाती रहती है और चीन को व्यापार इत्यादि के क्षेत्र में भारत का मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनाकर पेश करती है.
हमने भारत के एनपीटी और सीटीबीटी पर दस्तखत नहीं करने का यकीनन स्वागत किया था, क्योंकि एक सार्वभौम देश के बतौर भारत को अपना फैसला खुद करने की स्वतंत्रता रहनी चाहिए, और उसे अमेरिकी निर्देशों के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए. लेकिन दक्षिण एशिया में जो नाभिकीय अस्त्रों की दौड़ गर्म हो रही है, उसका खतरा हमारे सामने मौजूद है. पड़ोसियों के साथ बेहतर संबंध कायम करने के गुजराल सिद्धांत और पाकिस्तान के साथ बातचीत की शुरूआत के बावजूद, कोई ठोस बात उभरने की उम्मीद नहीं है. कश्मीर-विवाद समेत, भारत और पाकिस्तान के बीच पहले से मौजूद तमाम समस्याओं को केवल सहयोग के व्यापक ढांचे में ही हल किया जा सकता है, जिसमें सार्क को एक शक्तिशाली क्षेत्रीय आर्थिक गुट के बतौर विकसित करना और पाकिस्तान के साथ द्विपाक्षिक एनपीटी पर दस्तखत करना शामिल है. बहुध्रुवीय विश्व की प्रक्रिया तीव्र करने के लिए भारत को चीन के साथ रणनीतिक सहयोग की संभावनाओं को भी खोजना चाहिए. लेकिन ऐसा बेहद नामुमकिन है कि भारत का वर्तमान शासक समुदाय, जो पश्चिम से अनगिनत प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बंधनों में बंधा है, इस रास्ते पर चले.
वैश्वीकरण का असर यूरोप में, जहां बेरोजगारी की दर 11 प्रतिशत तक पहुंच गई है (निरपेक्ष रूप से 2 करोड़ लोग बेरोजगार हैं), महसूस किया जाने लगा है. बेरोजगारी का यह आंकड़ा दूसरे विश्व युद्ध से पहले आई महामंदी के साथ तुलनीय है. इससे सबसे ज्यादा प्रभावित देश फ्रांस है, जहां बेरोजगारी की दर 12 प्रतिशत तक पहुंच गई है. इसके साथ ही सामाजिक कल्याण-कार्यों में भारी कटौती ने मिलकर फ्रांस में प्रतिवाद और हड़तालों की लहर को जन्म दिया है.
फ्रांस के चुनाव में वामपंथ की विजय अथवा कई अन्य पश्चिम यूरोपीय देशों में शासक पार्टियों का चुनाव में हारकर सत्ता से हटना अंतर्वस्तु में उदारीकरण और वैश्वीकरण के खिलाफ प्रतिक्रिया है. फ्रांस में हाल में समाजवादी संश्रय की विजय शायद सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है. यह अर्थतंत्र को थैचरवादी रास्ते पर ले जाने की संभावना तथा दक्षिणपंथी आप्रवासन-विरोधी नस्लवादी रूझानों के खिलाफ फ्रांसीसी मजदूर वर्ग के निर्णायक जन प्रतिरोध के फलस्वरूप हासिल हुई है. इसके विपरीत ब्रिटेन में न्यू लेबर की विजय में कोई समाजवादी अथवा सामाजिक-जनवादी पहलू नहीं छिपा हुआ है. दरअसल जिसे नव-रूढ़िवाद कहा जाना चाहिए था, उसको ही भ्रम फैलाने के लिए न्यू लेबर का सुनाम दे दिया गया है. अतः यूरोप में तथाकथित वामपंथी की ओर झुकाव की कोई सुखद धारणा पोसना पूर्णतः गलत है.
यूरोपीय मुद्रा समुदाय का गठन होने और आने वाली 1 जनवरी 1999 से एकल मुद्रा यूरो का प्रचलन होने की घोषणा से मजदूर वर्ग को कोई लाभ होगा, इसकी गुंजाइश नहीं है. इसके विपरीत, एकीकृत यूरोप में अपने लिए प्रतियोगिता की सुविधा हासिल करने के प्रयास में अलग-अलग देश अपने यहां मजदूरों की गर्दन पर कसे फंदे को और सख्त कर रहे हैं. इसी कारण मजदूर वर्ग इस एकीकरण की समूची प्रक्रिया के खिलाफ है और वह बड़े पैमाने पर प्रतिवाद संगठित कर रहा है.
भूतपूर्व सोवियत संघ तथा पूर्व यूरोप के गणतंत्रों के संक्रमणकालीन अर्थतंत्र अपनी संक्रमणकालीन व्यथा-वेदना के शिकार हैं, और खतरा है कि यह एक किस्म के स्थायी लकवेपन में बदल सकती है. तथाकथित नव उदारवाद की सर्वरोगहर औषधि इस संकट को हल करने में बुरी तरह असफल सिद्ध हुई है. इस आर्थिक यथार्थ का राजनीतिक प्रतिबिंब इन देशों में मौजूद नई उत्तर-समाजवादी शासन व्यवस्थाओं के तहत हो रहे जनविक्षोभ हैं. इन देशों में सोवियत कठपुतली शासन-व्यवस्थाओं की जगह आई पश्चिम की कठपुतली सरकारें प्राथमिक तौर पर पतन का शिकार हो चुकी हैं, और कई देशों में भूतपूर्व कम्युनिस्ट, जो जमीन से अपेक्षाकृत ज्यादा गहराई से जुड़े प्रतीत होते हैं, कम्युनिस्ट तगमे के बिना सत्ता में वापस आ गए हैं.
इस साल रूस के करोड़ों क्षुब्ध मजदूरों ने बकाया वेतन और रोजगार हासिल करने तथा सामाजिक सेवाओं की फिर से बहाली के लिए सरकार से फौरी कदम उठाने की मांग पर प्रदर्शन किया. समाजवादी व्यवस्था के पतन के बाद होने वाले वर्ग आंदोलन की इस पहली हलचल के दौरान कोई एक करोड़ मजदूरों ने हड़तालों में भाग लिया.
नव-उदारवाद का संकट एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के एक के बाद दूसरे देशों में जाहिर हो रहा है. इसने खुद नवउदारवादी रूढ़िवाद के धर्मगुरूओं के बीच काफी विक्षोभ पैदा किया है और रिपोर्ट है कि जापान ने स्थूल-आर्थिक (मैक्रो-इकानामिक) स्थायित्व तथा ढांचागत समायोजन के नव-उदारवादी पुलिंदे की उपयोगिता पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है. नव-उदारवादी बहसों में राज्य की भूमिका को पुनर्परिभाषित करना ही इस वर्ष विश्व बैंक द्वारा जारी की गई वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट का केंद्रीय विषय बना – उसे अमेरिका और जापान के बीच इसी विषय पर मतभिन्नता का नतीजा बताया जा रहा है. अब दक्षिण-पूर्व एशिया में हाल के मुद्रा संकट के बाद यह मतभेद तीखा हो गया, और पुख्ता होकर खुले रूप में उभरा है. अब जापान मुद्रा की सट्टेबाजी पर अंकुश लगाने का आह्वान कर रहा है और उसने एशिया के लिए 100 अरब डालर का मुद्रा कोष बनाने का प्रस्ताव पेश किया है. हांगकांग में हाल में हुई अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की बैठक ने जापान के इन प्रस्तावों का कड़ा विरोध किया है, और वह शर्ते आरोपित करने वाला एकल स्रोत बने रहने के स्थिति पर अड़ा हुआ है.
अमेरिका में बेरोजगारी 6 प्रतिशत की दर पर बनी रही, लेकिन इसमें निम्न वेतन वाले सेवा क्षेत्र की नौकरियों का अनुपात बढ़ गया है. रोजगार के अवसर पैदा किए जा रहे हैं, मगर इनमें कई नौकरियां तो अस्थाई हैं, जिनकी न कोई सुरक्षा है और न ही कोई भविष्य. अभी हाल तक जापान को आर्थिक प्रगति का नमूना बताया जाता था. जापानी मजदूरों के ‘सहयोगिता के दृष्टिकोण’ को दिखा-दिखा कर भारतीय पूंजीपति यहां के मजदूरों को उपदेश देने का कोई अवसर नहीं चूकते थे, कि इसी के चलते जापान ने कितने चमत्कार किए हैं. पर अब यह सब अपनी चमक कमोबेश खो चुका है. 1980 के दशक के वे दिन अब लद चुके हैं जब जापानी कंपनियां अप्रतिरोध्य लगती थीं. शेयर बाजार में आई तेजी के सात वर्ष बाद जापान अब गहरे संकट में जा फंसा है. मंदी पर काबू पाने के उसके तमाम प्रयासों का अगर असर हुआ भी तो बस थोड़ा सा, अमेरिका जापान पर लगातार दबाव डाल रहा है कि वह अपने अर्थतंत्र का नियंत्रण ढीला करे और अपने बाजारों को अमेरिकी मालों के लिए खोल दे. उधर जापान राजनीतिक अस्थिरता के दौर में जा घुसा है. वहां कम्युनिस्ट पार्टी ने पिछले चुनावों में अपनी स्थिति को उल्लेखनीय रूप से सुधारा है.
एशियाई ‘शेर’ अर्थतंत्र, जिन्हें बड़ी मशक्कत से विकासशील देशों के लिए माडल के बतौर उछाला गया था, अब संकट के मकड़जाल में फंस चुके हैं. दक्षिण कोरिया की विकास दर धीमी पड़ रही है, और उसका व्यापार संतुलन बिगड़ गया है. दक्षिण कोरिया में 37000 अमेरिकी सैनिकों की तैनाती के खिलाफ छात्रों के प्रतिवाद से देश पहले ही हिल उठा था. अब मजदूर भी सड़कों पर उतर आए हैं. दसियों हजार मजदूरों ने एक नए मजदूर कानून के खिलाफ, जो मालिकों के लिए मजदूरों को बर्खास्त करना आसान बना देता है, सियोल तथा अन्य शहरों की सड़कों पर मार्च किया. थाइलैंड का वैदेशिक ऋण बढ़कर 90 अरब हो गया है. उसका निर्यात घट गया है और चालू खाते में शेष ऋणात्मक हो गया है. इससे थाई मुद्रा बेलगाम गिर रही है, जिसके झटके बड़ी तेजी से दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, इंडोनेशिया और मलयेशिया तक पहुंच गए हैं. थाईलैंड को संकट से छूटकारा दिलाने के लिए मिलने वाले 16 अरब डालर के एक कर्ज की व्यवस्था आखिरकार आइएमएफ ने की. इसमें से एक अरब डालर चीन ने देने का वादा किया है, जो हो, इसके बावजूद समूचा एशियान क्षेत्र आजकल मुद्रा की उथल-पुथल के एक नए दौर की चपेट में आ गया है. अब ‘शेरों’ में थकान के लक्षण स्पष्ट दिखने लगे हैं. आने वाले वर्षों में इन देशों में मजदूर वर्ग की जुझारू कार्यवाहियां अनिवार्यतः तीव्र होंगी.
वास्तव में तीसरी दुनिया के देशों की मुद्रा का पलायन, जो पहली बार मेक्सिको के मुद्रा-पतन के मामले में काफी तीखा हो गया था, अब वैश्वीकरण के युग में तीसरी दुनिया के अर्थतंत्रों को संकट के सामने दुर्बल स्थिति में डाल देने की व्यापक परिघटना बन गया है. कुल मिलाकर, वैश्वीकरण के सात वर्षों में विश्व अर्थतंत्र के विकास का रिकार्ड बिलकुल फीका रहा है – इस अवधि में औसत विकास दर 1970 के दशक से भी कम रही है.
चीनी मुद्रा युवान अकेली ऐसी मुद्रा है, जो पूर्व एशिया में हाल में हुई उथल-पुथल के बीच भी अविचल खड़ी रही. यह तथ्य उसके आर्थिक मूलाधारों की शक्ति को तथा उस वित्तीय मैकेनिज्म को दिखलाता है, जो सटोरियों को कोई मौका ही नहीं देता. चीन का अर्थतंत्र औसतन 10 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से विकसित हो रहा है. चीन का व्यापार-लाभ 16 अरब डालर है, और उसका विदेशी मुद्रा-भंडार 200 अरब डालर की रेखा पार कर चुका है. विदेशी ऋण बेहद कम है. चीन ने विशाल मात्रा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित किया है – उसका लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा विदेश-स्थित चीनी आप्रवासियों से आया है.
यद्यपि राज्य की मिल्कियत में चल रहे उद्यम 17 करोड़ की शहरी श्रमशक्ति में से अधिकांश को रोजगार देते हैं, पर सफल औद्योगिक उत्पाद में उनका हिस्सा जहां सुधार की शुरूआत के वक्त 1978 में लगभग तीन-चौथाई था, अब एक तिहाई से भी नीचे गिर गया है. राज्य की मिल्कियत में चलने वाले उद्यम गहरे संकट में हैं, और ऐसी रिपोर्ट हैं कि लाखों मजदूरो को महीनों तक वेतन नहीं मिलता है. बीमार राजकीय उद्यमों को राजकीय बैंकों द्वारा दी गई विशाल धनराशि की मात्रा पिछले साल 120 अरब डालर तक पहुंच गई थी. तथापि इस ऋण का अधिकांश केवल वेतन चुकाने में खर्च हो गया. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की हाल में हुई कांग्रेस का सर्वप्रधान एजेंडा था राजकीय क्षेत्र में सुधार. वहां पूंजीवादी क्षेत्र लंबे डग भरते हुए आगे बढ़ रहा है, और चीन एक चौहारे पर जा पहुंचा है. ढांचे में, यानी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन रहने, और योजना, वित्त इत्यादि पर राजकीय नियंत्रण रहने पर बाजार को निर्देशित व नियंत्रित किया जा सकता है, और समाजवाद के निर्माण के लिए उसे काम में लगाया जा सकता है. इसे वे समाजवाद की पहली मंजिल कहते हैं, जिसे अगले पचास वर्षों तक जारी रहना है, जब तक चीन मध्यम दर्जे के विकसित पूंजीवादी देशों के समतुल्य प्रति व्यक्ति आय का स्तर न हासिल कर ले. समाजवाद के शास्त्रीय मार्क्सवादी सिद्धांत में हुए इसी संशोधन को चीनी विशेषताओं वाले समाजवाद के निर्माण का तेंग श्याओफिंग का सिद्धांत कहा जाता है. इसकी उत्पत्ति 1950 के दशक से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर चले दो लाइनों के संघर्ष में खोजी जा सकती है.
हम किसी भी देश में, और वह भी एक पिछड़े एशियाई देश में, अकेले अपने बल-बूते पर समाजवाद के निर्माण कार्य में आनेवाली विराट कठिनाइयों को स्वीकार करते हैं.
हम इस पद्धति का भी खंडन करते हैं जिसमें समाजवाद का ऐसा आदर्श कल्पनावादी मॉडल माना जाता है, जिसे कहीं भी और किसी भी समय केवल इच्छाशक्ति के बल पर आरोपित किया जा सकता है, और इस तरह उसके निर्माण पर आमूर्त ढंग से चर्चा की जाती है. इसके बजाय, हम समाजवाद को एक ऐसे समाज के बतौर देखते हैं, जो पूंजीवाद के अंतरविरोधों से वस्तुगत प्रक्रिया के बतौर, इतिहास की स्वाभाविक प्रक्रिया के बतौर उभर रहा है, और इसीलिए भिन्न-भिन्न देशों में तथा भिन्न-भिन्न संदर्भों में अनगिनत रूप अपना रहा है.
फिर भी, समाजवादी बाजार अर्थतंत्र की अनुभूति बेहद विवादास्पद लगती है और फिर इन तथ्यों की रोशनी में कि चीनी अर्थतंत्र बहुलांश में पूंजीवादी बनता जा रहा है. वहां आंचलिक असंतुलन और गरीब-अमीर के बीच विभाजन बढ़ रहे हैं, नवधनाढ्यों का एक समूचा वर्ग उभर रहा है, और भ्रष्टाचार बेतहाशा फैल रहा है, हम चीनी समाजवाद के भविष्य के बारे में गंभीर रूप से चिंतित हुए बिना नहीं रह सकते.