(लिबरेशन, अक्टूबर 1991)
यूरोप में साम्यवाद का अंतिम दुर्ग धराशायी हो गया है. सैनिक विद्रोह के जरिए इसे बचाने की निराशोन्मत्त कोशिशों से विध्वंस की प्रक्रिया और तेज ही हुई है.
एक समय था, जब साम्यवाद का भूत यूरोप को सताया करता था और अब यूरोप का भूत हर जगह साम्यवाद का पीछा कर रहा है. क्या यूरोप में साम्यवाद की मौत एशिया में भी साम्यवाद के भविष्य को प्रभावित करेगी? चीन कब तक पूंजीवादी आक्रमण का मुकाबला करता रहेगा? ये चीजें भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन को किस तरह प्रभावित करेंगी? ये सवाल और इस तरह के कई अन्य सवाल हमारे देश के कम्युनिस्टों और मार्क्सवादी बुद्धिजीविओं के दिल-दिमाग को मथ रहे हैं और आम चर्चा के मुख्य विषय बनते जा रहे हैं.
आइए, सोवियत संघ की घटनाओं से बात शुरू की जाए. प्रथम सफल सर्वहारा क्रांति के देश में, महान लेनिन के देश में समाजवाद को लगा यह धक्का कम्युनिस्टों के लिए सचमुच बहुत बड़ा आघात है. कमजोर दिलवाले कम्युनिस्टों को इससे पस्ती और पलायन का अच्छा आधार मिल जा सकता है. लेकिन मार्क्सवादी-लेनिनवादियों के सामने इससे यही जाहिर होता है कि अतंरराष्ट्रीय क्षेत्र में वर्ग संघर्ष – समाजवाद और पूंजीवाद के बीच का संघर्ष – कितना दीर्घकालिक और अपनी प्रकृति में कितना जटिल है.
अब इसके लिए अमेरिकी साम्राज्यवादी षड्यंत्र और गोर्बाचेव तथा येल्तसिन सरीखे व्यक्तियों को कोसने से कोई फायदा नहीं होगा. बुनियादी बात यह है कि जहां दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूंजीवाद ने अपने धक्के को संभालकर खुद को नए रूप में ढाल लिया, वहीं समाजवादी व्यवस्था अपने विकास की एक खास मंजिल के बाद लोगों को फायदा पहुंचाने में असफल होती गई और फिर अवरुद्ध हो गई. मजदूर वर्ग सहित आम जनता खुद ही इसे नकारने लगी थी. समाजवादी श्रृंखला भयंकर तनावों से गुजर रही थी और ठीक उस जगह विखंडित हो गई जहां विकृतियां अपनी चरम सीमा छू रही थीं – यानी, पहले पूर्वी यूरोप में और फिर सोवियत रूस में.
साम्राज्यवादी हमलों से समाजवादी सोवियत संघ की रक्षा करने के लिए बड़े-बड़े परमाणविक शस्त्रागार बनाए गए. सैन्य शक्ति में अमेरिका की बराबरी करना और वहां तक कि उससे आगे निकल जाना समाजवादी राज्य का एकमात्र उद्देश्य बन गया. इस प्रक्रिया में, समाजवादी आर्थिक आधार पर निर्मित, एक प्रभुत्ववादी अतिमहाशक्ति की परिघटना सामने आई. लेकिन विडंबना यह है कि जब संकट की घड़ी आई तो कहीं गोली तक नहीं दगी और सोवियत संघ का रूपांतरण ‘शांतिपूर्ण क्रमविकास’ का एक शास्त्रीय उदाहरण बन गया. साम्राज्यवाद और समाजवाद की दो व्यवस्थाओं के बीच के बुनियादी अंतर्विरोधको यांत्रिक रूप से मौजूदा स्थिति में दो खेमों के बीच का प्रधान अंतर्विरोधबना देने से महानायक, महापार्टी और महाशक्ति की परिघटना सामने आई और इसका बीज निश्चित रूप से स्तालिन काल में ही डाला जा चुका था. इन बेतुकी धारणाओं के स्वाभाविक नतीजे के बतौर समाजवादी खेमा विभाजित हो गया. माओ त्सेतुंग ने इसे सिद्धांत की हामी भरने से इनकार कर दिया और चीन सोवियत प्रभुत्व के सामने सर झुकाने को राजी नहीं हुआ. सोवियत अर्थतंत्र के सैन्यीकरण से प्राथमिक और बुनियादी जरूरतों के क्षेत्र में भारी कमी पैदा हो गई और झूठी आंकड़ेबाजी से लोग ऊब गए. समाजवादी जनवाद को विदाई दे दी गई; किसी भी किस्म के विक्षोभ को बर्दाश्त नहीं किया गया और इसके बदले, जनता को ‘साम्यवाद की प्राथमिक अवस्था’, ‘विकसित समाजवाद’ आदि के सुनहरे सब्जबाग दिखाये गये – उसके सामने सोवियत संघ के अतिमहाशक्ति होने का भ्रमजाल फैलाया गया, जो ले-देकर अतीत के विराट रूसी राष्ट्रीय अहंकारवाद का ही अवशेष था. इन सबकी आड़ में एक ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी और शासन प्रणाली विकसित हुई जो जनसमुदाय से अलग-थलग पड़ गई और भ्रष्ट व पतित हो गई.
समाजवादी आर्थिक आधार अतिमहाशक्ति की संरचना को लंबे समय तक नहीं टिका पाया और 1980 के दशक का मध्य आते-आते सोवियत संघ के अंदर एक ज्वालामुखी सुलगने लगा. गोर्बाचेव ने इस स्थिति से उबरने के लिए सोवियत संघ में सुधारों की प्रक्रिया शुरू की, लेकिन तब तक पानी सर से ऊपर गुजर चुका था. उनके पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त ने पूर्वी यूरोप में दूरगामी परिवर्तनों को अंजाम दिया. सोवियत संघ के अंदर राष्ट्रीय आकांक्षाएं जागृत कीं, सोवियत समाज के अंदर विभिन्न किस्म की सामाजिक शक्तियों को मुक्त कर दिया और शीघ्र ही येल्तसिन को केंद्र कर एक ऐसा ध्रुवीकरण सामने आया जो पूंजीवाद की पूर्णरूपेण वापसी की मांग करने लगा. पश्चिमी शक्तियों को भी सोवियत संघ के आंतरिक मामलों में अपनी नाक घुसेड़ने का अच्छा मौका हाथ लगा. अपने ही हाथों मुक्त की गई शक्तियों को काबू में रखने के गोर्बाचेव के सारे प्रयास व्यर्थ साबित हुए और एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन बनाने की मिथ्या आशा में उन्हें लगातार अपनी स्थितियों से पीछे हटते जाना पड़ा. समाज का आर्थिक पुनरुद्धार एक बकवास बनकर रह गया और वास्तव में उन्हें पश्चिमी शक्तियों से सहायता की भीख मांगनी पड़ी, जिसके बदले में उन्हें उन शक्तियों को एक के बाद एक अनेक राजनीतिक छूटें देनी पड़ीं. कुल मिलाकर उनकी अपनी स्थिति कमजोर पड़ती गई और येल्तसिन की ताकत बढ़ती गई. तमाम राजनीतिक और संवैधानिक परिवर्तनों के जरिए कम्युनिस्ट पार्टी को पहले से दरकिनार किया जा चुका था. अपनी पुरानी संरचना के साथ वह बहुदलीय संसदीय जनवादी व्यवस्था के लिए कत्तई अनुपयुक्त हो गई. तब गोर्बाचेव ने एक सामाजिक जनवादी पार्टी की अवधारणा प्रस्तुत की और एक नई संघीय संधि का रास्ता चुन लिया.
वक्त के इसी मुकाम पर तख्तापलट की बेहद बदनाम घटना घटी. हमारे पास यह निर्णय करने के लिए पर्याप्त तथ्य नहीं हैं कि विद्रोही नेताओं को दरअसल किस चीज ने बगावत के लिए उकसाया और परदे के पीछे क्या चल रहा था.
लेकिन उन्हें कट्टरपंथी और रुढ़िवादी करार देना गलत है. वे सब गोर्बाचेव के अपने ही चुने हुए लोग थे और उनके सुधारों की ही उपज और मुख्य स्तंभ थे. जब पूरा का पूरा मंत्रिमंडल ही राष्ट्रपति के साथ विश्वासघात करता पाया जा रहा हो तब ज्यादा तर्कसंगत व्याख्या यही प्रतीत होती है कि दरअसल लोगों ने राष्ट्रपति से जो उम्मीदें लगा रखी थीं, उनसे राष्ट्रपति ने विश्वासघात किया है. उन्हें उम्मीद थी कि गोर्बाचेव किसी न किसी मुकाम पर ठहर जायेंगे और फिसलन को रोकने के लिए अपनी उस इमर्जेंसी पावर का इस्तेमाल करेंगे जिसे उन्होंने खुद ही हासिल किया था. उन्हें महसूस हुआ कि कार्रवाई करने का समय आ गया है लेकिन अपनी ही करनी के शिकार गोर्बाचेव ने लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. रिश्तों में अकस्मात आई इस दरार के चलते लोगों के सामने सैनिक तख्तापलट के जरिए खुद सत्ता दखल करने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा. मगर इस तख्तापलट को तो असफल होना ही था क्योंकि गोर्बाचेव अभी भी पेरेस्त्रोइका समर्थक ताकतों के नेता बने हुए थे और तख्तापलट के नेता एकदम शुरू से ही दुलमुलपन और आपसी एकजुटता का अभाव प्रदर्शित कर रहे थे. येल्तसिन ने इस दरार को भांप लिया और उनके बहादुराना प्रतिरोध में उठ खड़े हुए. तख्तापलट धराशाली हो गया और जनसमुदाय अपने नए नायक येल्तसिन की ओर उमड़ पड़ा. थके-हारे गोर्बाचेव ने वापस लैटकर पाया कि उनका सामाजिक आधार तेजी से खिसकता जा रहा है और वे खुद येल्तसिन के आगे सर झुकाने को विवश हो गए हैं. केंद्रीय सत्ता के कमजोर होते ही विखंडन की प्रक्रिया तेज हो गई, तीन बाल्टिक गणराज्यों ने सोवियत संघ से व्यवहारतः खुद को अलग ही कर लिया. येल्तसिन ने कम्युनिस्ट विरोधी उन्माद भड़काने का ही काम किया. कुछ दिनों तक वस्तुतः येत्लसिन के ही मातहत रहने के बाद, गोर्बाचेव ने उनके मुकाबले अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के प्रयत्न शुरू कर दिए, कम्युनिस्ट पार्टी को भंग करने की उनकी कोशिश, दरअसल, एक सामाजिक जनवादी पार्टी खड़ी करने की उनकी जो मूल योजना थी, उसी को अब घुमावदार रास्ते से पूरा करने की तैयारी है. इतना तो तय है कि कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा हिस्सा गोर्बाचेव की इस योजना में शामिल हो जाएगा. आनेवाले दिनों में यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि मौजूदा सोवियत समाज के इन दो प्रतिनिधि शख्सियतों के बीच सहयोग और प्रतिद्वंद्विता कैसे आगे बढ़ती है.
हम नहीं जानते कि रूस के मार्क्सवादी-लेनिनवादी अपने को कैसे पुनर्संगठित करेंगे. हम यह भी नहीं जानते कि इस पर ‘कट्टरपंथियों और रूढ़िवादियों’ की क्या प्रतिक्रिया होगी और आगे किस किस्म की नाटकीय घटनाएं घटित होने वाली हैं. लेकिन हम तो इतना जरूर जानते हैं कि सोवियत संघ में नवंबर क्रांति के दूसरे संस्करण के लिए हमें काफी लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी.
पिछले सौ साल से कुछ ज्यादा अरसे में कम्युनिस्ट आंदोलन का केंद्र फ्रांस से जर्मनी से रूस होते हुए निर्णायक रूप से चीन की तरफ खिसक आया है और निस्संदेह भारत ही वह दूसरा देश है जिस पर लोगों की उत्सुक निगाहें लगी रहेंगी.
बहरहाल, अब कुछ बातें वादविवाद की. सीपीआई(एम) के सिद्धांतकार प्रकाश करात ने, सीपीएसयू की 28वीं कांग्रेस के बारे में हमारे सकारात्मक मूल्यांकन का हवाला देते हुए हम पर पहले की हमारी पूर्णतः सोवियत विरोधी स्थिति से पलटकर पूरी तरह गोर्वाचेव समर्थक, रूस समर्थक स्थिति अख्तियार कर लेने का आरोप लगाया है और वे एकदम शुरू से ही गोर्बाचेव की आलोचना करने का श्रेय लूटते फिर रहे हैं. लेकिन तथ्य अपनी कथा आप कहते हैं. महाविवाद में हमने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का डटकर समर्थन किया था और ख्रुश्चेव के सिद्धांत की आलोचना की थी. हमने कभी भी ‘समान दूरी के सिद्धांत’ पर यकीन नहीं किया और दृढ़तापूर्वक माओ त्सेतुंग और चीन का पक्ष लिया. हमने माओ स्तेतुंग विचारधारा को अपना मार्गदर्शक उसूल कबूल किया जो अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में किसी रहनुमा पार्टी की अवधारणा का विरोध करती थी, जिसने वर्तमान विश्व में तीसरी दुनिया और साम्राज्यवाद के बीच के अंतर्विरोधको प्रधान अंतर्विरोधके रूप में पेश किया, और जो सोवियत संघ की अतिमहाशक्ति वाली प्रभुत्ववादी स्थिति का विरोध करती थी. स्तालिन का अधिभूतवाद नहीं, बल्कि माओ का द्वंद्ववाद हमारा पथ-प्रदर्शक था और इसी से हमें यह समझने में मदद मिली कि समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष – और पूंजीवाद की पुनर्स्थापना का खतरा भी – मौजूद रहता है. हमसे गलतियां तो हुईं और कुछ अतियां भी हो गई, लेकिन हमारी मूलभूत प्रस्थापनाएं इतिहास की कसौटी पर खरी उतरी हैं. उधर सीपीआई(एम) है जिसने माओ के दार्शनिक विचारों की खिल्ली उड़ाई; सेवियत रूस की अतिमहाशक्ति वाली स्थिति की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा चेकोस्लोवाकिया, अफगानिस्तान और कंपूचिया पर सोवियत संघ के हमलों का जोरदार समर्थन किया. कुछेक गलतियों की कुछ सही आलोचना के बावजूद, सीपीआई(एम) की मूलभूत प्रस्थापनाएं मनोगतवादी ही साबित हुई हैं.
दिसंबर 1987 में अपनी पार्टी की चौथी कांग्रेस के दस्तावेज में हमने ही सबसे पहले गोर्बाचेव के दो अक्तूबर के भाषण की कड़े से कड़े शब्दों में आलोचना की थी, सीपीआई(एम) ने तो काफी बाद, मास्को से लौटने पर ही अपना मुंह खोला. तब से हम लगातार साम्राज्यवाद के प्रति गोर्बाचेव रवैये की कड़ी आलोचना करते रहे हैं. वर्ग संघर्ष आदि के बारे में गोर्बाचेव के विचारों को हमने महज ख्रुश्चेवी अवधारणाओं का एक परिष्कृत संस्करण ही बताया है. सोवियत रूस की अतिमहाशक्त वाली स्थिति को खत्म करने और चरम निरंकुश व्यवस्था के अंदर जनवादी सुधारों की प्रक्रिया शुरू करने के लिए गोर्बाचेव ने जो कदम उठाए, हमने उनका स्वागत किया. अगर सीपीआई(एम) ने अभी भी समाजवाद के ब्रेजनेवी माडल के बारे में भ्रम पाल रखा है, तो उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि यह माडल अपनी अंतिम अवस्था मे पहुंच चुका था और अब उसका विनाश अवश्यंभावी था. और, गोर्बाचेव ने तो महज इतिहास के उत्प्रेरक की भूमिका अदा की है, यह भी याद रखना चाहिए कि यह ब्रेजनेव शासन ही था, जिसने भारत में इमर्जेंसी और इंदिरा गांधी के निरंकुश राज का समर्थन किया था. जहां तक 28वीं कांग्रेस का सवाल है, तो सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर तत्कालीन शक्ति-संतुलन की स्थिति में हमने गोर्बाचेव का समर्थन येल्तेसिन के विरुद्ध किया था. इससे ज्यादा कुछ नहीं. हमें मालूम था कि आज कि सोवियत संघ में अपनी कल्पना के ‘सच्चे क्रांतिकारी कम्युनिस्टों’ की तलाश कोरा मनोगतवाद ही होगा. इसी फेर में सीपीआई(एम) ने लिगाचेव गुट पर अपनी उम्मीदें टिका रखी थीं, लेकिन 28वीं कांग्रेस ने दिखा दिया कि उनकी असली औकात क्या है.
अब, अगर हम इस तख्तापलट का समर्थन नहीं करते, तो सिर्फ इसलिए कि हम जानते हैं कि इससे हमारे मन को चाहे कितनी तसल्ली मिल जाए, रूस की मौजूदा स्थितियों में तख्तापलट को जनता का जरा भी समर्थन नहीं मिला. अगर हम रूस के आंतरिक मामलों में अमेरिकी प्रभाव के बारे में हायतौबा नहीं मचाते, अगर हम वहां कम्युनिस्ट पार्टी की मौत पर आंसू नहीं बहाते, तो ऐसा इसलिए कि खुद सोवियत संघ में इन सबके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठ रही है. हम समाजवाद के हिमायती हैं, मगर एक समाज-व्यवस्था के रूप में इसे किसी देश की जनता पर किसी भी तरह थोपा नहीं जा सकता. अगर समाजवाद के 74वर्षों के अनुभव के बाद सोवियत जनता इसे ठुकरा देने का फैसला करती है, तो हम सेना, केजीबी और मार्शल लॉ के जरिए इसके जबर्दस्ती थोपे जाने की पैरवी भला कैसे कर सकते हैं! जब फिसलन को रोकने का समय था, तब तो कुछ नहीं किया गया, और हर आलोचना को सोवियत नेतृत्व तथा भारत में उनके चाटुकारों द्वारा सीआइए-प्रेरित बताकर खारिज कर दिया गया. अब आज की ठोस स्थितियों में हम बदतर के मुकाबले बद का ही समर्थन कर सकते हैं, और घटनाओं की उस मोड़ का इंतजार कर सकते हैं, जहां कम्युनिस्ट फिर से पहलकदमी अपने हाथों में ले लेने के काबिल हो जाएंगे. मार्क्सवादी रवैया सिर्फ यही हो सकता है. बाकी सब तो उन्मादपूर्ण चीत्कार है – चरम हताशा से पैदा हुई चीख-पुकार.
चीन, खासकर अपनी मजबूत माओवादी विरासत के कारण, सोवियत संघ से कई मामलों में भिन्न है, वहां समाजवाद अपनी प्राथमिक अवस्था में ही सही, मगर जिंदा है और अपनी अनेक विकृतियों के बावजूद उसे जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त है. हमें चीन की सुनहरी तस्वीर दिखा कर समाजवाद पर जनता की आस्था टिकाए रखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए – जैसा कि सीपीआई(एम) अब बाकायदा करने जा रही है. यह तरीका न केवल तथ्यगत रूप से गलत है, बल्कि प्रतिकूल परिणामों तक पहुंचा देने वाला भी है. हमें लोगों को सच्चाई बतानी चाहिए तथा समाजवाद और पूंजीवाद के बीच संघर्ष के टेढ़े-मेढ़े रास्ते के बारे में उन्हें शिक्षित करना चाहिए.
जब सीपीआई(एमएल) ने अपनी यात्रा शुरू की थी, तो उसकी नजर में सिर्फ चीन और नन्हा-सा अल्बानिया ही समाजवादी देश हुआ करते थे, लेकिन इससे अपने देश के जनवादी और समाजवादी रूपांतरण के लिए खुद को उत्सर्ग कर देने की हमारी भावना जरा भी शिथिल नहीं पड़ी! भारत में, जहां पुरानी व्यवस्था के खिलाफ जनवाद की लड़ाई ही मुख्य कार्यभार है, कम्युनिस्ट आंदोलन का भविष्य उज्ज्वल है. चिंता की बात अगर है, तो वह पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के शासन को लेकर है, जहां प्रतिक्रियावादी शक्तियां वामपंथी सरकार की गड़बड़ियों का फायदा उठाकर कम्युनिस्ट-विरोधी उन्माद भड़काने की कोशिश कर सकती हैं. हम आशा करते हैं कि सीपीआई(एम) के नेतागण अपनी आलोचनाओं के प्रति ज्यादा सहिष्णुता बरतेंगे, अपना तौर-तरीका दुरुस्त करेंगे और मार्क्सवाद की रक्षा के सवाल पर तथा जन आंदोलनों में क्रांतिकारी कम्युनिस्टों से हाथ मिलाएंगे.