(केंद्रीय पार्टी स्कूल, अक्टूबर 1996, में समापन भाषण)
स्कूल खत्म होने जा रहा है. हालांकि ऐसे स्कूलों में पार्टी नीतियां नहीं तय की जाती हैं, लेकिन यहां जो बहसें होती है, नीतियों के सूत्रीकरण पर उसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. इस सिलसिले में यहां चंद महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए और उन पर बहसें की गईं. 1994 के पार्टी स्कूल में मैंने ‘मार्क्सवाद के संकट’ के बारे में कुछ विचार रखे थे और अभी मैं उसी के साथ अपनी शुरूआत कर रहा हूं.
लगभग 150 वर्षों के अपने इतिहास में मार्क्सवाद दो या तीन दौरों के संकट से गुजरा है, जब इसके मूलाधार पर ही सवाल खड़े किए गए, लेकिन हर बार मार्क्सवाद ने संकट पर काबू पाया और वह नए जोश-खरोश के साथ आगे बढ़ा. अब बीसवीं सदी के अंत में एक बार फिर इसके मौत की घोषणा की गई है. वास्तव में इस बार का संकट बड़ा गंभीर है, क्योंकि इसके साथ प्रथम विजयी समाजवादी क्रांति की भूमि, लेनिन की भूमि – सोवियत संघ का ध्वंस भी जुड़ गया है. सोवियत मॉडल को मार्क्सवाद का साकार रूप माना जाता था और इसीलिए इसके ध्वंस ने स्वभावतः पुराने विवादों को फिर से उभार दिया है. चीनी मॉडल, जिसे एक विकल्प के बतौर मान्यता दी गई थी, अनेके कारणों से अपनी चमक काफी खो चुका है और अन्य छोटे-मोटे समाजवादी राज्य कोई प्रेरणा नहीं जगा पा रहे हैं.
पहली बात ध्यान में यह रखनी चाहिए कि पूंजीवाद के अंतरविरोधों के विश्लेषण की प्रक्रिया में मार्क्सवाद पैदा हुआ था और इसी ने पूंजीवाद की विस्तृत और गहन आलोचना प्रस्तुत की थी. वर्ग संघर्ष का सिद्धांत होने के नाते मार्क्सवाद साम्यवाद के वर्गविहीन समाज में निश्चय ही अप्रासंगिक हो जाएगा, लेकिन उसके पहले तक तो यह पूंजीवादी दुनिया को बदलने और समाजवाद की विभिन्न संभावनाओं पर प्रयोग करने में मार्गनिर्देशक विचारधार बना ही रहेगा. एक खास अर्थ में, सोवियत संघ का ध्वंस वस्तुतः एक इतिहास के अंत को चिह्नित करता है, लेकिन हर अंत एक नई शुरूआत का भी प्रतीक होता है और यही वह संदर्भ है जिसमें हमने मार्क्सवाद की क्रांतिकारी आत्मा को पुनर्जीवित करने और इसके साथ ही विश्लेषण, आलोचना और परिवर्तन के अपने औजारों को ज्यादा पैना बनाने का संकल्प लिया है.
इस स्कूल में खास तौर से उत्तर-आधुनिकता पर काफी बहस हुई. उत्तर-आधुनिकता न केवल मार्क्सवाद या समाजवाद की वैधता पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि वह आधुनिकता के उस समस्त युग को ही खारिज कर देता है, जो आधुनिक वर्गों – पूंजिपति और सर्वहारा – के उदय के साथ शुरू हुआ था. वह संपूर्ण नवजागरण काल को और मानव जाति की मुक्ति की तमाम शानदार परियोजनाओं को खारिज कर देता है. वह इन परियोजनाओं को महावृत्तांत की संज्ञा देता है, जो समाज को पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों की ओर ले जाने का प्रयास करते-करते अंत में सर्वसत्तावादी राजनीतिक प्रणाली की स्थापना कर देता है. उत्तर-आधुनिकतावादी लोग नस्ल, लिंग, जाति नृतत्वता आदि के ‘कल्पित समुदायों’ से परे दूसरी किसी वर्गीय या मानवीय एकजुटता को मान्यता नहीं देते हैं.
यहां बहस के दौरान हमें हाल के वैज्ञानिक सिद्धांतों की भी जानकारी मिली. कुछ कारमेडों को उन्हें समझने में काफी दिक्कत हुई होगी. आप इसकी तफसील में न भी जाएं, मगर मार्क्सवादी होने के नाते नवीनतम वैज्ञानिक सिद्धांतों से वाकिफ रहना तो जरूरी है ही. क्वांटम मेकैनिक्स कहता है कि अंतः परमाणविक स्तर पर पदार्थ सामान्य यांत्रिक के नियमों का पालन नहीं करता और यहां तक कि उस स्तर पर पदार्थ के अस्तित्व के रूप भी बेहद उलझन भरे होते हैं. उसकी स्थिति, आवेग जैसे अनेक अभिलक्षणों का निर्धारण न केवल काफी अनिश्चित रहता है, बल्कि क्वांटम कण पर्यवेक्षण की क्रिया से प्रभावित भी हो जाते हैं.
इस वैज्ञानिक सिद्धांत की एक खास किस्म की दार्शनिक व्याख्या, जो आजकल पश्चिमी देशों में काफी लोकप्रिय हुई है, भौतिकवाद की बुनियाद पर – अर्थात् चेतना से स्वतंत्र पदार्थ या वस्तुगत दुनिया के अस्तित्व पर – ही प्रश्न खड़ा कर देती है. ‘आभासी यथार्थ’ की धारणा से लैस पश्चिमी दुनिया में पूरब के रहस्यवाद के प्रति, जो वस्तु-जगत को माया की संज्ञा देता है, नई रूचि पैदा होती दिखाई दे रही है. यूरोपीय नवजागरण के दौरान चर्च की सत्ता को चुनौती दी गई थी और विज्ञान के बढ़ते कदम से तथाकथित ईश्वरीय विधान पर गंभीर खतरा पैदा हो गया था. जब यूरोप अपने अंधकार युग से बाहर निकला और नवजागरण का काल शुरू हुआ तो 2000 वर्ष पुराने ग्रीक दार्शनिकों के द्वंद्ववाद को समृद्ध बनाया और बाद में मार्क्स ने उसे भौतिकवादी आधार प्रदान किया. विज्ञान की अग्रगति ने कुछ लोगों को एक बार फिर पुराने जमाने में दर्शन की जड़ें खोजने के लिए प्रेरित किया है, और विडंबना यह है कि उन्हें पूरब का रहस्यवाद ही हाथ लगा. इस स्कूल में हमने दर्शन के क्षेत्र में नव-भाववादी आक्रमण तथा समाज-विज्ञान के क्षेत्र में उत्तर-आधुनिकता के बीच संबंध तलाशने की कोशिश की है.
जैसा कि कुछ कामरेडों ने बताया, यह सही है कि ‘नए सामाजिक आंदोलन’, या आम तौर पर कहें तो तबकाई मुद्दों पर आंदोलन उत्तर-आधुनिकता के आने के पहले से ही मौजूद रहे हैं. वस्तुतः, उत्तर-आधुनिकता का महत्व इस तथ्य में निहित है कि इसने इन आंदोलनों को नया अर्थ और नया आधार प्रदान किया है. उत्तर-आधुनिकता उनके स्वायत्त विकास को बिलकुल निरपेक्ष बना देता है. ऐसा इसलिए, क्योंकि उत्तर-आधुनिकता के लिए एक प्रणाली के बतौर पूंजीवाद के विश्लेषण का एजेंडा बिलकुल बेतुका है.
मौजूदा दौर में ‘मार्क्सवाद के संकट’ के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सवाल पर विचार करने के पहले संकट के पुराने दौरों का भी उल्लेख कर देना उचित होगा. यहां मैं मार्क्सवाद के उस प्रथम संकट का जिक्र करना चाहूंगा जो 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरूआत में आया था और जिसने संशोधनवाद की परिघटना को जन्म दिया था.
19वीं सदी के अंत में पूंजीवाद चरम संकट के दौर से गुजर रहा था. संकट का चरित्र इस अर्थ में शास्त्रीय था कि संकट के तमाम लक्षण मार्क्सवादी परिकल्पना से शानदार ढंग से मेल खाते थे. इस अवधि में मजदूर वर्ग का आंदोलन भी बढ़ा था और सामाजिक जनवादी पार्टियां (उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टियां इसी नाम से जानी जाती थीं) भी विकसित हुई थीं. खासकर जर्मनी में पार्टी का बड़ा तेज विकास हुआ था.
समय बीतने के साथ, पूंजीवाद ने इस संकट पर धीरे-धीरे काबू पाया, लेकिन इस प्रक्रिया में उसने खुद को पूरी तरह बदल लिया. पहले यह मुक्त पूंजीवाद था जिसका आदर्श-वाक्य था खुली प्रतियोगिता. इसने उत्पादन की अराजकता को जन्म दिया. अब पूंजीपतियों ने आपस में समझौता कर लिया है और कार्टेल तथा ट्रस्ट आदि, जो मार्क्स के जीवन काल के दौरान भ्रूणावस्था में थे, आज पूरी तरह छा चुके हैं. पूंजीवाद ने स्थायित्व ग्रहण किया, मजदूरों की मजदूरी बढ़ी, और संसदीय लोकतंत्र फला-फूला, पूंजीवाद के आसन्न विनाश के बारे में मार्क्सवादियों के बीच जो उमंग शुरू में पैदा हुई थी, अब वह निराशा में बदल गयी. मार्क्सवादी लोग, जिसमें खुद मार्क्स भी शामिल थे, पूंजीवादी संकट के हर दौर में अति-आशावादियों के जैसा आचरण करने लगते थे. यह काफी स्वाभाविक है और इतिहास-निर्माण में इसकी अपनी गत्यात्मक भूमिका रही हैं. लेकिन कठोर वैज्ञानिक चिंतन-प्रक्रिया के नाते मार्क्सवाद ने केवल पूंजीवाद से समाजवाद में सामाजिक विकास की ऐतिहासिक प्रवृत्ति को ही चिह्नित किया. समाजवाद या नैतिक समाज-व्यवस्थाओं के अन्य काल्पनिक सिद्धांतों के विपरीत, मार्क्सवाद आत्मगत ढंग से कल्पित समाजवाद की किसी शानदार परियोजना के साथ शुरू करने और तब उस कल्पित माडल के अनुरूप समाज का – कहिए, किसी भी समाज का – पुनर्निर्माण करने का कोई प्रयास नहीं करता है.
इसके विपरीत, मार्क्सवादी समझ के अनुसार पूंजीवाद अपने खुद के अंतरविरोधों की गति के कारण ही समाजवाद की ओर बढ़ता है क्योंकि समाजवाद के अंतर्गत ही इन अतंरनिरोधों का अंतिम समाधान हो सकता है. पूंजीवाद इसकी (समाजवाद में रूपांतरण की) वस्तुगत स्थितियां भी तैयार कर देता है, मसलन – व्यापक पैमाने के उत्पादन का संकेंद्रित रूप, सर्वहारा वर्ग आदि. बहरहाल, इसका यह मतलब नहीं कि समाज खुद-ब-खुद स्वतःस्फूर्त रूप से, किसी सचेत आत्मगत प्रयास के बिना ही, समाजवाद की मंजिल में पहुंच जाएगा. मार्क्स ने यह प्रख्यात टिप्पणी की : “सवाल दुनिया को बदलने का है.”
मार्क्स की मृत्यु के बाद एंगेल्स की मान्यता अत्यधिक बढ़ गई थी और बर्नस्टीन तथा काउत्सकी नामक दो जर्मन कम्युनिस्ट उनके काफी करीबी थे. अपने अंतिम लेखों में एंगेल्स ने कुछ आत्मलोचनाएं कीं. अपनी मृत्यु के कुछ ही महीनों पहले मार्च 1895 में एंगेल्स ने लिखा, “इतिहास ने हमें और हम जैसे सोचनेवाले तमाम लोगों को गलत साबित कर दिया है. इसने यह साफ दिखला दिया है कि इस महाद्वीप में उस समय आर्थिक विकास इस हद तक परिपक्व नहीं हुआ था कि पूंजीवादी उत्पादन का उन्मूलन किया जा सके. उस आर्थिक क्रांति ने इसे साबित कर दिया, जो 1848 के बाद से समूचे महाद्वीप में फैल गई है ... और जिसने जर्मनी को यकीनन पहली कतार का औद्योगिक देश बना दिया है ... इतिहास ने इससे भी ज्यादा किया है; उसने न केवल उस समय की हमारी गलत धारणाओं को धो-पोंछ दिया, बल्कि उन स्थितियों को भी पूरी तरह बदल दिया, जिनके तहत सर्वहारा को संघर्ष करना पड़ा है. 1848 के संघर्ष का तौर-तरीका आज हर मामले में पुराना पड़ चुका है और मौजूदा अवसर पर इस बात की और भी गहरी छानबीन की जानी चाहिए.”
एंगेल्स के अनुसार, आधुनिक सेना के विस्तार को देखते हुए सड़क-युद्ध और अकस्मात हमला वगैरह की पुरानी कार्यनीति अब पुरानी पड़ चुकी है. संसदीय चुनावों में जर्मन पार्टी की उपलब्धियों का आंकड़ा पेश करते हुए उन्होंने सार्विक मताधिकार के बुद्धिमत्तापूर्ण इस्तेमाल पर जोर दिया. एंगेल्स ने निष्कर्ष निकाला, “विश्व-इतिहास की विड़ंबना हर चीज को उलट-पुलट देती है. हम ‘क्रांतिकारी’, ‘उखाड़ फेंकनेवाले’ लोग गैर-कानूनी तरीकों और उखाड़ फेंकने जैसे तरीकों की अपेक्षा कानूनी तरीकों के सहारे कहीं बेहतर ढंग से फल-फूल रहे हैं. व्यवस्था पक्षधर पार्टियां, जैसा वे खुद को पुकारती हैं, अपने द्वारा पैदा की गई स्थितियों के अंतर्गत नष्ट हो रही हैं ... जबकि हमलोग इस कानूनी माहौल में मजबूत और भरे-पूरे बन रहे हैं और जीवन से ओत-प्रोत दिख रहे हैं.”
एंगेल्स ने यूरोप के विशिष्ट संदर्भ में और वहां पूंजीवादी विकास के एक खास दौर में कार्यनीतियां बदलने की वकालत की थी. बहरहाल, बर्नस्टीन ने इसी बात को पकड़कर खुद रणनीति में संशोधन की पैरवी कर डाली और इस प्रकार उन्हें सही तौर पर संशोधनवाद का जनक कहा गया.
बर्नस्टीन ने तर्क दिया कि मार्क्स की भविष्यवाणी के विपरीत उत्पादन का संकेंद्रण अत्यंत धीमी गति से आगे बढ़ा, और इसके अलावा बड़े पैमाने के उत्पादन ने छोटे-मंझोल उद्यमीं को नष्ट भी नहीं किया. इसके अतिरिक्त, कार्टेलों और ट्रस्टों के निर्माण के साथ ही पूंजीवाद ने स्वनियमन की प्रणाली विकसित कर ली है और इस प्रकार वह किसी चरम संकट को अपने पास नहीं फटकने देता है. उन्होंने आगे तर्क दिया कि दो विपरीत वर्ग-ध्रुवों में समाज का ध्रुवीकरण नहीं हो पाया है, और न केवल मंझोले तबके नष्ट नहीं हुए बल्कि पूंजीपतियों की, संपत्तिशालियों की और शेयरधारकों की संख्या में बढ़ोत्तरी ही हुई है.
उन्होंने महसूस किया कि आधुनिक राष्ट्रों की राजनीतिक संस्थाएं लोकतांत्रिक हो चुकी हैं, वहां पूंजी की शोषणकारी प्रवृत्ति पर रोक लगी है और वर्ग संघर्ष की बुनियाद खोखली पड़ती जा रही है. जिन देशों में संसदीय लोकतंत्र मजबूत है, वहां सत्ता को अब वर्ग-शासन का औजार नहीं माना जा सकता है. इसीलिए, बर्नस्टीन ने तर्क दिया कि मजदूरों को अब क्रांति के जरिए सत्ता-दखल का प्रयास नहीं करना चाहिए, इसके बजाए उन्हें सत्ता को सुधारने पर जोर देना जाहिए.
1895 मे फ्रांस में वर्ग सघर्ष की भूमिका लिखते हुए एंगेल्स ने उस सदी के अंत तक पूंजीवाद के तेज पतन की आशा की थी और उन्हें उम्मीद थी कि अपनी सत्ता के हित में पूंजीपति वर्ग ने जिन कानूनी उपकरणों का निर्माण किया है, मजदूर वर्ग बुर्जुआ सत्ता के खिलाफ उनका भी कारगर इस्तेमाल करने में सफल होगा.
ठीक एक वर्ष बाद 1896 में बर्नस्टीन ने अंतिम लक्ष्य पर ही सवाल खड़ा कर दिया और खुद को सिर्फ ‘रोजमर्रा के आंदोलनों’ तक सीमित कर लिया. पूंजी में मार्क्स ने ज्वांइट स्टॉक कंपनी की परिघटना पर पिचार किया था और एंगेल्स ने कार्टेल तथा ट्रस्ट की परिघटना को दर्ज किया. कार्टेलों का निर्माण उच्चतर स्तर पर पूंजी के संकंद्रेण की पुष्टि करता है और पूंजीवाद के बुनियादी उसूल के बतौर खुली प्रतियोगिता के ‘दिवालियेपन’ को ही सिद्ध करता है. बर्नस्टीन ने जिसे पूंजी का विकेंद्रीकरण, स्वनियमन और जनवादीकरण कहा वह उच्चतम स्तर की इजारेदारी में रूपांतरित हो गया, जहां ‘स्वामित्व’ और ‘प्रबंधन’ के अलग हो जाने के साथ ही परजीवी बुर्जुआ का एक समूचा वर्ग पैदा हो गया जो सट्टेवाजी, आक्रामक औपनिवेशिक नीति और साम्राज्यवादी खेमों के बीच प्रतिद्वंद्विता के आधार पर फला-फूला और ठीक यही चीजें उन्हें पहली बार विश्वयुद्ध की परिघटना तक ले गईं. साम्राज्यावाद : पूंजीवाद की चरम अवस्था में लेनिन ने इन तमाम बातों का वर्णन किया है. छोटी और मंझोली पूंजी को हड़पना एक आम बात हो गई है, और वे बड़ी पूंजी की अनुषांगी बना दी जाती हैं. यह अनुषांगी पूंजी फिर नए क्षेत्रों और नई उत्पादन-प्रक्रियाओं में फलती-फूलती हैं, लेकिन फिर वे वहां भी एक समय के बाद बड़ी पूंजी की शिकार बन जाती हैं.
जहां तक कि संसदीय लोकतंत्र का सवाल है तो इसके बारे में यह समझ बिलकुल एकांगी होगी कि पूंजीपति वर्ग ने मजदूर वर्ग को बेवकूफ बनाने और उसे जाल में फंसाने के लिए ही धोखे की टट्टी के रूप में इसका ईजाद किया है. यह उतनी ही मूर्खतापूर्ण बात होगी जितना यह मानना कि पंडे-पुजारियों ने जनसमुदाय को बेवकूफ बनाने के लिए षड्यंत्र के बतौर धर्म का निर्माण किया है. मानव समाज के किसी अन्य काल-खंड में संसद का अस्तित्व नहीं रहा था. शासन का यह रूप पूंजीवाद के अंतर्गत ही उभरा और इस प्रकार यह बुर्जुआ शासन का एक विशिष्ट रूप है. सामंतवादी प्रणाली में शोषण गैर-आर्थिक उत्पीड़न की शक्ल में होता था और इसके अनुरूप राजनीतिक ऊपरी ढांचे में राजा और सामंती कुलीन वर्ग को विशेष अधिकार हासिल रहते थे. पूंजीवाद के अंतर्गत शोषण उत्पादन प्रक्रिया के जरिए और इसके अंदर से ही अतिरिक्त मूल्य के रूप में चला करता है. संसदीय लोकतंत्र का राजनीतिक ऊपरी ढांचा आदर्श पूंजीवाद के बिलकुल फिट बैठता है.
फ्रांस में वर्ग संघर्ष में मार्क्स ने लिखा, “बहरहाल, इस संविधान का व्यापक अंतर्विरोधइस रूप में मौजूद रहता है : यह संविधान उन वर्गों – सर्वहारा, किसान, पेट्टिबुर्जुआ – को सार्विक मताधिकार के जरिए राजनीतिक सत्ता के मातहत रखता है. और यह जिस वर्ग, अर्थात बुर्जुआ वर्ग के, पुराने सामाजिक प्रभुत्व को मान्यता देता है, उससे इस सत्ता की राजनीतिक गारंटी हासिल करता है.” यह बुर्जुआ संवैधानिक राज्य का मूलभूत अंतर्विरोधहै – जहां सार्विक मताधिकार के जरिए हर किसी को राजनीतिक जीवन में खींच लाया जाता है, वहीं आम जनता की यह संप्रभुता केवल औपचारिक है, वास्तविक स्वार्थ तो वर्ग-अंतरविरोधों के जरिए ही निर्देशित होते रहते हैं.
संशोधनवादियों के विपरीत, जो गणतंत्र में ही बुनियादी वर्ग-विरोध का समाधान देखते थे, लेनिन ने तर्क दिया कि उपरोक्त आत्म-अंतर्विरोधके चलते ही यह गणतंत्र खुले वर्गयुद्ध का सर्वोत्तम धरातल बन जाता है.
तो इसी प्रकार से संशोधनवाद के खिलाफ मार्क्सवाद का विवाद आगे बढ़ा और एक प्रक्रिया में मार्क्सवाद ने खुद को लेनिनवाद की शक्ल में पुनर्जिवित किया.
अब मैं उन चंद सवालों पर कुछ कहना चाहूंगा जो यहां बहस के दौरान सामने आए हैं. एक कामरेड का विचार था कि क्रांतिकारी आंदोलन की धीमी प्रगति के संदर्भ में क्रांतिकारी विरोध-पक्ष की कार्यनीति उपयुक्त नहीं होगी. यह कार्यनीति उभार की स्थितियों में लागू की जानी चाहिए. मेरे विचार से इस तर्क में एक वुनियादी गड़बड़ी है. ‘विरोध-पक्ष’ एक संसदीय श्रेणी (कैटेगरी) है और क्रांतिकारी विरोध-पक्ष एक विशिष्ट कार्यनीति है, जिसे क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी संसदीय संघर्षों के दौरान अपनाती है. क्रांतिकारी उभार के समयों में क्रांतिकारी विरोध-पक्ष नहीं, बल्कि खुद क्रांति ही पार्टी का फौरी एजेंडा बन जाती है. दूसरे शब्दों में, क्रांतिकारी उथल-पुथल के दौरान संसदीय संघर्ष अप्रासंगिक हो जा सकते हैं और काफी संभव है कि चुनाव बहिष्कार या यहां तक कि बुर्जुआ संसद को ध्वस्त करना ही पार्टी का ऐक्शन स्लोगान बन जाए. जाहिर है, जब संसदीय संघर्ष ही नहीं होंगे, संसद ही नहीं होगी, तब विरोध-पक्ष – चाहे क्रांतिकारी हो या अन्य कोई – की श्रेणी भी नहीं रहेगी. यह समझना काफी आसान है. मौजूदा स्थितियों में ही, जबकि संसदीय संघर्ष पार्टी की एक महत्वपूर्ण कार्यनीति बनी हुई है, क्रांतिकारी विरोध-पक्ष का सवाल सामने आता है और इसी से संसदीय संघर्षों मे पार्टी की बुनियादी दिशा निर्धारित होती है. इस मामले में किसी तरह का भ्रम नहीं रहना चाहिए. इसके क्रियान्वयन का मामला, बहरहाल,काफी जटिल है जिसके साथ पार्टी के चुनावी जनसमर्थन तथा संसदीय शक्ति में वृद्धि के मसले जुड़े होते हैं.
प्रचार-मंच के बतौर संसद का इस्तेमाल करना एक काफी प्रचलित बात है और इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है. लेकिन वास्तविक जीवन-स्थितियों में आपके सामने व्यावहारिक समस्याओं की एक पूरी श्रृंखला खड़ी हो जाती है. सीटों के तालमेल का सवाल और फिर ‘समान सोचवाली पार्टियों’ – यह एक दूसरा संसदीय शब्द है – के साथ चुनावी संश्रय के मसले सामने आते हैं. फिर, संसद के अंदर ब्लॉक बनाने का भी सवाल है. वहां हमारे प्रतिनिधियों को खास-खास मुद्दों और विधेयकों पर निश्चित स्थिति अपनानी पड़ती है और मतदान में भाग लेना पड़ता है. हमें संश्रयकारी खोजने होते हैं और विभिन्न बुर्जुआ पार्टियों के बीच फर्क करना पड़ता है. क्या हमारे प्रतिनिधि सिर्फ काम रोको प्रस्ताव लाने, वेल में कूद पड़ने, या बहिर्गमन कर जाने तक खुद को सीमित रखेंगे? या कि वे कुछ संजीदा बहसों में भी शामिल होंगे, संशोधन-प्रस्ताव लाएंगे, संवैधानिक सुधारों की मांग करेंगे और व्यक्तिगत विधेयकों के रूप में वैकल्पिक मसौदा भी पेश करेंगे? विभिन्न संसदीय समितियों तथा चुनाव-क्षेत्र स्तर की योजना और विकास निकायों के सदस्य की हैसियत से भी वे क्या करेंगे? ये सभी सुधारों के क्षेत्र में पड़ते हैं और क्रांतिकारी विरोध-पक्ष के दायरे में रहते हुए इन तमाम भूमिकाओं को निभाना मूल बात है. यह लाख टके का सवाल है, जिस पर पार्टी का समूचा भविष्य टिका हुआ है.
संसद के मूल बुर्जुआ चरित्र से इनकार करना और यह भूल जाना कि यह संसद पूंजीवादी समाज का राजनीतिक ऊपरी ढांचा मात्र है, वे बुनियादी गलतियां हैं जो कम्युनिस्ट पार्टियों को संसदीय बैनेपन के राजमार्ग पर, जिसे आम बोलचाल में पतन की राह कहा जाता है, ढकेल देती हैं. अगर आप संसद को महज एक धोखा समझेंगे, शोषकों के द्वारा जनसमुदाय को बेवकूफ बनाने के लिए निर्मित एक बनावटी माध्यम समझेंगे, तो आप दूसरों को नहीं, खुद को ही बेवकूफ बना रहे होंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि इस तरह के एकांगी विचार आपको पूंजीवादी समाज के गति-विज्ञान का अध्ययन और विश्लेषण करने तथा तदनुरूप विशिष्ट नारे और कार्यनीतियां सूत्रबद्ध करने से रोक देंगे. आप हद के हद कठोरतम लहजे में संसद को गाली-गलौज देंगे व खारिज करेंगे, पर उससे संसद की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. इस तरह की लफ्फाजियों को सही तौर पर बचकाना मर्ज कहा गया है.
दूसरी ओर, यह समझना और भी गंभीर भटकाव होगा कि संसद एक अवर्गीय या वर्गोपरि संस्था है, जहां सर्वहारा को बस प्रवेश करना है, उसमें बहुमत हासिल करना है और तब समाज के समाजवादी रूपांतरण में इसका इस्तेमाल कर लेना है. संसद पूंजीवादी संविधान के दायरे में ही काम करती है और पूंजी के हजार-हजार बंधनों से बंधी रहती है. सर्वहारा के लिए संसद में बहुमत हासिल करना लगभग असंभव है और हमने अपने अनुभवों से देखा है कि कैसे समूची चुनाव-प्रणाली शक्तिशाली सत्ता-समूहों और थैलीशाहों के पक्ष में झुकी रहती है, और यह भी देखा है कि क्रांतिकारी वामपंथ के लिए एक-एक सीट जीतना कितना मुश्किल होता है.
फिर भी, यही मेरा मुख्य आशय नहीं है. तर्क की खातिर, अगर यह मान भी लिया जाए (किसी खास अपवादस्वरूप स्थिति में, हम इसे वास्तविक संभावना भी मान ले रहे हैं) कि सर्वहारा वर्ग संसद में बहुमत हासिल कर लेगा, तो भी यह सवाल बना ही रह जाता है कि क्या इसके जरिए सर्वहारा वर्ग की सामाजिक-आर्थिक गुलामी दूर हो जाएगी; या दूसरे शब्दों में, क्या पूंजीवादी समाज की बुनियाद को मौलिक रूप से बदला जा सकेगा? मार्क्सवाद तो इसका नकारात्मक जवाब ही देता है. नेक से नेक नीयत वाली बेहतरीन कम्युनिस्ट सरकारें भी पूंजीवादी प्रणाली में कुछ सुधार का काम कर सकती हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं. सर्वहारा वर्ग इस बनी-बनाई राज्य-मशीनरी का इस्तेमाल करके अपना लक्ष्य नहीं हासिल कर सकता है. पुराने राज्य को ध्वस्त करना होगा और नई राज्य-मशीनरी बनानी पड़ेगी. पेरिस कम्यून की कड़वी सीख के बाद, कम्युनिस्ट घोषणापत्र में दर्ज यह उदघोषणा, जिसे लेनिन ने राज्य और क्रांति में व्याख्यायित किया है, राज्य के मार्क्सवादी सिद्धांत की आधारशिला है. प्रसंगवश, समाजवादी समाज में भी – जहां हर किसी से उसकी क्षमता के अनुसार और हर किसी को उसके काम के अनुसार का सिद्धांत काम करता है – बुर्जुआ अधिकार का तत्व मौजूद रहता है. और लेनिन ने एक बार तो समाजवादी राज्य को बुर्जुआ के बगैर बुर्जुआ राज्य कह दिया था. हर एक से उसकी क्षमता के अनुसार और हर एक को उसकी जरूरत के अनुसार का सिद्धांत लागू हो जाने के बाद ही बुर्जुआ अधिकार से मुकम्मल छुटकारा पाया जा सकता है. लेकिन उसका मतलब होगा साम्यवादी समाज का उत्थान जहां राज्य खुद-ब-खुद विलुप्त हो जाएगा.
इस प्रकार क्रांति का संसदीय रास्ता बनाम गैर-संसदीय रास्ता का समूचा विवाद ही अप्रासंगिक हो जाता है, क्योंकि कोई संसदीय रास्ता मौजूद ही नहीं है. सर्वहारा क्रांति का बुनियादी मतलब है पूंजीवादी राज्य, जिसमें संसद भी शामिल है, का खात्मा. इसलिए जाहिर है, क्रांति का कोई संसदीय रास्ता नहीं हो सकता. क्रांति की सारवस्तु को ठुकरा कर ही रास्ते को मान्यता दी जा सकती है. सर्वहारा क्रांति सर्वहारा राज्य का निर्माण करती है, जिसमें उसकी अपनी प्रतिनिधि सभा होती है. यह प्रतिनिधि सभा राज्य के कामकाज में व्यापक जनसमुदाय की लोकतांत्रिक भागीदारी को सुनिश्चित करती है और राज्य के विधायिका तथा कार्यपालिका संबंधी कार्यों को एकल ढांचे में संयोजित करती है; संक्षेप में, यह नए समाज के अनुरूप एक नया राजनीतिक ऊपरी ढांचा होता है.
संसद के प्रति समूची कम्युनिस्ट कार्यनीति इस या उस हद तक उसका इस्तेमाल करने और इस प्रक्रिया में, गुणात्मक रूप से भिन्न एक नई प्रतिनिधि सभा के पक्ष में अंततः इसके निषेध के लिए स्थितियां तैयार करने के इर्द-गिर्द घूमती है.
मार्क्सवादी कार्यनीति के अंतर्गत शांतिपूर्ण बनाम हिंसक क्रांति के प्रश्न पर बेशक बहसें हुई हैं, लेकिन यह बिलकुल भिन्न सवाल है, जिसका तथाकथित संसदीय बनाम गैरसंसदीय रास्ता की बहस के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है. वर्ग शक्तियों के संतुलन की अत्यंत खासमखास परिस्थिति के अंतर्गत अपवादस्वरूप और दुर्लभ से दुर्लभतम संभावना के बतौर शांतिपूर्ण क्रांति के बारे में मार्क्सवादी क्रांति-सिद्धांत में पर्याप्त विचार किया गया है. मार्क्स ने अमेरिका में ऐसी संभावना की चर्चा की थी, जब वहां स्थाई सेना और नौकरशाही ने ठोस शक्ल अख्तियार नहीं की थी. लेनिन ने फरवरी क्रांति के दौरान ऐसी संभावना के बारे में सोचा था. चीन में भी जापान-विरोधी युद्ध की सफल समाप्ति के बाद ऐसी संभावना पैदा हुई थी और माओ ने गृहयुद्ध रोकने तथा च्यंग काईशेक के साथ मिली-जुली सरकार बनाने का प्रस्ताव पेश किया था. बहरहाल, इनमें से कोई भी संभावना हकीकत में नहीं बदल सकी. फिर भी, सिद्धांत के क्षेत्र में मार्क्सवाद इस संभावना को पूर्णरूपेण खारिज नहीं करता है.
यहां यह जरूर समझ लिया जाना चाहिए कि शांतिपूर्ण क्रांति और संसदीय तख्ता-पलट एक ही चीज नहीं हैं. शांतिपूर्ण क्रांति के लिए भी यह आवश्यक है कि पूंजीवादी राज्य के हर अंग को खत्म कर दिया जाए. अगर फरवरी में रूस की क्रांति शांतिपूर्ण ढंग से सफल हो गई होती, तो क्या इसका महत्व अक्टूबर क्रांति से जरा भी कम होता? इसके अलावा, अगर इसकी संभावना तनिक भी हो तो इसे साकार करने के लिए भी सर्वहारा को महत्तम हद तक तैयारी की स्थिति में जाना ही होगा, जिसमें उसकी हथियारबंद शक्ति भी शामिल है, ताकि किसी भी प्रतिक्रियावादी चुनौती से निपटा जा सके. इस तरह की तैयारी के बगैर शांतिपूर्ण क्रांति एक दिवास्वप्न ही होगी, जो सर्वहारा के और भी भयानक हत्याकांड को अंजाम देगा, जैसा कि इंडोनेशिया और चिली में देखा गया.
इसीलिए, जब हमारे पार्टी कार्यक्रम में अपवादस्वरूप संभावना के बतौर शांतिपूर्ण क्रांति की बात की गई है तो उसे न तो संसदीय रास्ता जैसी कोई चीज समझना चाहिए और न तैयारी की स्थिति में किसी ढिलाई के रूप में ही इसकी व्याख्या की जानी चाहिए. दरअसल, गैरशांतिपूर्ण विकल्प के लिए पार्टी जितना अधिक चौतरफ तैयारी करेगी, उतनी ही अच्छी तरह वह शांतिपूर्ण संक्रमण की किसी संभावित स्थिति का इस्तेमाल भी कर सकेगी. शांतिपूर्ण क्रांति का मतलब है बगैर किसी लड़ाई के शत्रु का आत्मसमर्पण, और आप सहज कल्पना कर सकते हैं कि यह कितना अपवादस्वरूप मामला होगा और हमारी तैयारी के किस स्तर में यह संभावना साकार हो सकती है.
अब कुछ लोग पहले तो शांतिपूर्ण क्रांति की अपवादस्वरूप संभावना को आम संभावना बना देते हैं और तब फिर शांतिपूर्ण क्रांति को संसदीय रास्ता का दर्जा दे देते हैं और यह भ्रम फैलाते हैं कि सर्वहारा वर्ग संसद में बहुमत पाकर पूंजीवादी समाज के मूलाधार को बदल दे सकता है और समाजवाद की शुरूआत कर सकता है. ये सब अनाप-शनाप की बकवास है और इसमें संशोधनवाद के सिवा कुछ नहीं है.
हमलोगों पर तथाकथित एमएल घड़ों की ओर से आलोचनाओं-आरोपों की यह बौछार की जाती है और कहा जाता है कि हमने एमएल की तमाम मौलिक स्थितियों को छोड़ दिया है और हम, उनके शब्दों में, नवसंशोधनवाद की ओर जा रहे हैं. उनका आरोप है कि हमने पार्टी-कार्यक्रम में अत्यधिक संशोधन करके उसे लगभग सीपीआई(एम) का कार्यक्रम बना दिया है. वे यह भी अटकल लगाते हैं कि हम सीपीआई(एम) में मिल जाने की तैयारी कर रहे हैं. कुछ लोग हम पर यह भी अभियोग लगाते हैं कि लूट में हिस्सेदारी के लिए हम वाममोर्चा में शामिल होने को लालायित हैं वे हमें सरकारी नक्सलाइट का नाम देते हैं. वे वर्षों से इन सब बातों की भविष्यवाणी कर रहे हैं, लेकिन आज क्या स्थिति है? न तो हमलोग वाममोर्चा में शामिल हुए और न सीपीआई(एम) में जाकर मिल गए. इसके विपरीत, हम लोगों ने राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को पुनर्जीवित किया है, वामपंथी आंदोलन में एक प्रमुख प्रवृत्ति के बतौर माले को पुनःप्रतिष्ठित किया है और हम वामपंथी खेमे में सीपीआई(एम) के प्रभुत्व के मुकाबले सर्वप्रमुख प्रतिद्वंद्वी के बतौर उभर गए हैं. और ये सब चीजें हमने हासिल की हैं ग्रामांचलों में ग्रामीण गरीबों के मजबूत आंदोलनों के बल पर, जिसके दौरान हमें सामंती शक्तियों, उनकी निजी सेनाओं, पुलिस, राजनीतिक प्रतिष्ठान और बीजेपी से लेकर सीपीआई(एम) तक के हमले झेलने पड़ते हैं, अधिकांश मामलों में प्रतिरोध संघर्ष व्यापक जनसमुदाय की भागीदारी के साथ जुझारू और हथियारबंद शक्ल ले लेता है. नक्सलबाड़ी की यही मूल भावना है, और मैं फिर कहता हूं, कि सिर्फ और सिर्फ हमारी पार्टी ही इसे आगे बढ़ा रही है.
बहरहाल, बदलते समयों और बदलते संदर्भों के साथ हमने अपनी कार्यनीतियों में अवश्य ही काफी संशोधन किए हैं. यह बिलकुल स्वाभाविक है और कहिए तो, एक जीवंत संचरना की निशानी भी है. हर सजीव संरचना बदलते वातावरण के अनुसार खुद को अनुकूलित करती है, ताकि वह जिंदा रह सके और बढ़ सके. मृत चीजें ही बदलते वातावरण के साथ नहीं बदलतीं, या दूसरे शब्दों में कहें तो जो सजीव वस्तु खुद को अनुकूलित नहीं कर पाती वह धीरे-धीरे विलुप्त हो जाती है.
मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि हमने अपने चंद नारों और कार्यनीतियों को ही संशोधित किया है लेकिन हमारी रणनीतिक समझदारी वही बनी हुई है. नक्सलबाड़ी ही हमें मार्गनिर्देशक प्रेरणा दे रही है और जो कुछ भी कार्यनीतिक बदलाव हम करते हैं, वे इसके क्रांतिकारी ढांचे के अंदर ही किए जाते हैं. हमने अपनी पार्टी-लाइन में कार्यनीतिक बदलाव अव्वल तो इसलिए किए हैं कि वस्तुगत स्थितियों ने उन्हें अनिवार्य बना दिया था और दूसरे इसलिए कि इससे सीपीआई(एम) के पाखंड का भंडाफोड़ करने का सुयोग हमें मिलता है. उदाहरण के लिए, चंद राज्यों में और खास स्थितियों में कम्युनिस्टों द्वारा राज्य सरकार बनाने की संभावना से इनकार करने के बजाए हमलोगों ने बहस को ऐसी सरकारों के दो संभावित उपयोगों के स्तर तक उठा दिया है. पहला (संभावित उपयोग) यह कि, ये सरकारें मजदूरों और किसानों की गोलबंदी का केंद्र बन जाएं, केंद्रीय सत्ता के मुकाबले क्रांतिकारी विरोध-पक्ष की भूमिका निभाएं और पूंजीवादी संसदीय प्रणाली के संकट को गहरा बना दें. और दूसरा यह कि, वे पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था में क्रमशः जज्ब हो जाएं जो कि सीपीआई(एम) का सामाजिक जनवादी रास्ता है. इस मोड़ पर, जबकि वाममोर्चा की सरकार अपने लंबे समय के वजूद के कारण अपनी चमक काफी हद तक खो चुकी है और अपना प्रतिक्रियावादी चरित्र लगातार उजागर करती जा रही है, यह कार्यनीतिक विवाद वामपंथी कतारों के अंदर एक नया ध्रुवीकरण पैदा करने के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है.
नक्सलबाड़ी ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के क्रांतिकारी और अवसरवादी हिस्सों के बीच बुनियादी विभाजन किया था. इस बुनियादी विभाजन को कोई मिटा नहीं सकता. लेकिन इन तमाम बातों को दुहराते रहने से ही हमें कोई फायदा नहीं होने वाला, बल्कि यह अमूर्त लफ्फाजी में ही पतित हो जा सकता है. हमारी पार्टी ने जो जरूरी कार्यनीतिक बदलाव किए हैं, उससे हमें एक लंबे अंतराल के बाद, जमीनी स्तर पर सामाजिक जनवाद के खिलाफ पुनः पहलकदमी लेने में मदद मिली है. सीपीआई(एम) का सामाजिक जनवादी व्यवहार एक बंद गली की ओर जा रहा है और उसके अंतर्विरोधलगातार सतह पर उभर रहे हैं. संयुक्त मोर्चा सरकार में शामिल होने के मुद्दे पर पार्टी नेतृत्व के अंदर गंभीर विभाजन का हाल का मामला लें, या संयुक्त मोर्चे के चरित्र-निर्धारण पर चल रहे विवाद को देखें या फिर बुर्जुआ पार्टियों के साथ संश्रय बनाने की पार्टी कार्यनीति पर, संसदीय मोर्चे पर पार्टी की गतिरुद्धता और हिंदीभाषी क्षेत्र में आगे बढ़ने में नाकामयाबी पर अथवा आंचलिक स्वायत्तता आंदोलनों के प्रति कार्यनीति वगैरह के सवाल पर पार्टी के अंदर होनेवाली बहसों को ही देख लीजिए; ये सभी चीजें पार्टी के अंदर गहराती दरारों की ओर ही इशारा कर रही हैं. ये सब बातें भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के क्रांतिकारी और अवसरवादी घड़ों के बीच चल रहे वाद-विवाद को नई ऊंचाइयों तक उठाने और इस प्रकार वामपंथी कतारों के बीच एक नए ध्रुवीकरण को अंजाम देने की मांग कर रही हैं. हमारी पार्टी ठीक यही काम कर रही है और हमारे कार्यनीतिक संशोधनों ने इस मामले में हमें काफी मदद पहुंचाई है.
मैं यह नहीं कहता कि यह कोई आसान मामला होने जा रहा है. सामाजिक जनवादी भी अपनी एकता कायम रखने और क्रांतिकारी पांतों को प्रभावित करने के लिए खुद को अनुकूलित करते रहते हैं. 1967 से जो संघर्ष शुरू हुआ है, वह इसी तरह आगे बढ़ रहा है और वह आनेवाले दिनों में नए-नए और जटिल रूप अपनाएगा तथा सीपीआई (एम) (या उसके अंदर के विभिन्न हिस्सों) के साथ हमारे संबंधों को निर्धारित करेगा. ये रिश्ते व्यवहार में कौन-सी शक्ल लेंगे यह अभी ही बताना मुश्किल है, लेकिन एक बात तो निश्चित है कि सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) भारतीय कम्युनिस्ट और वामपंथी आंदोलन में प्रमुख विचारधारात्मक प्रतिद्वंद्वी बनी रहेंगी और एक दूसरे को पीछे हटाने की कोशिश करती रहेंगी. मैं समझता हूं कि सामाजिक जनवाद के मुकाबले हमारी भविष्यदृष्टि का यही सारसंक्षेप है.