(लिबरेशन, 1988)
रोजा लक्जेमबर्ग (1871-1919) ने पोलैंड और जर्मनी के मजदूर आंदोलन में अत्यंत विशिष्ट भूमिका निभाई थी. वे दूसरे इंटरनेशनल के वाम पक्ष की नेता थीं. वे जर्मनी में इंटरनेशनल ग्रुप के प्रायोजकों में से एक थीं. बाद में उनके इस ग्रुप का नामकरण हुआ स्पार्टाकस ग्रुप और अंत में स्पार्टाकस लीग. वे नवंबर 1918 की क्रांति के दौरान क्रांतिकारी जर्मन मजदूरों के नेताओं में से एक थीं. वे जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की उदघाटन कांग्रेस में शामिल हुई थीं. जनवरी 1919 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी हत्या कर दी गई.
रोजा और लेनिन के संबंध अत्यंत जटिल थे. रूसी क्रांति के ठोस सवालों पर उन्होंने आपस में तीखे राजनीतिक वाद-विवाद चालए, मगर अतंरराष्ट्रीय क्रांतिकारी सामाजिक जनवाद के मंच पर दोनों एक साथ मौजूद रहे. दोनों ही ने साम्राज्यवादी युद्ध के दौरान दूसरे अंतरराष्ट्रीय के गद्दारों के विरुद्ध दृढ़ता के साथ संघर्ष चलाया. लेनिन ने रोजा को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनका वर्णन ‘तीसरे इंटरनेशनल के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि’ के तौर पर किया है.
हाल में पश्चिमी मार्क्सवादी पंडितों के बीच रोजा लक्जेमबर्ग के विचारों पर फिर बहसें शुरू हो गई हैं. हमारे देश में भी विभिन्न प्रकार के विचारक अपनी धारणाओं के समर्थन में रोजा की रचनाओं का धड़ल्ले के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं. फार्मरों के आंदोलन के नेता शरद जोशी रोजा की कृति पूंजी का संचय का उल्लेख करते हैं. वे इसकी मदद से यह सिद्ध करना चाहते हैं कि औद्योगिक क्षेत्र में उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य केवल कृषि-क्षेत्र के आंतरिक औपनिवेशीकरण के जरिए ही संभव है.
कुछ समाजवादी लेखकों का कहना है कि सोवियत संघ में नौकरशाही विकृतियों का, जो कि गोर्बाचेव के सुधारों द्वारा सबसे ज्यादा स्पष्ट रूप में प्रकट हुईं, स्रोत रोजा द्वारा 1918 में जेल-प्रवास के दौरान लिखी गई पांडुलिपियों में प्रकट की गई शंकाओं के अनुसार बोल्शेविकों द्वारा नवंबर 1917 में अलोकतांत्रिक तरीके से सत्तादखल और केंद्रीयता पर जरूरत से ज्यादा जोर देने की लेनिनवादी पद्धति है.
फिर रोजा की बड़ाई पार्टी-निर्माण के बारे में लेनिन के ‘अतिकेंद्रीयतावादी’ रुख का विरोध के लिए भी की जाती है.
संक्षेप में, रोजा लक्जेमबर्ग के इस पुनर्जीवन के पीछे लेनिन के विरुद्ध रोजा को खड़ा करने की सचेत कोशिश नजर आती है. लिहाजा, हमें रोजा और लेनिन के बहुमुखी संबंधों पर – उनके तीखे मतभेदों और उनकी अतंरराष्ट्रवादी सर्वहारासुलभ एकता पर – एक नजर डाल लेनी चाहिए और अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन की विभिन्न मंजिलों में ये मतभेद और एकता किस प्रकार प्रकट हुए, इसे देखना चाहिए.
1. रोजा लक्जेमबर्ग ने 1913 में प्रकाशित अपनी सुप्रसिद्ध पूंजी का संचय में मार्क्स की मान्यता का विरोध किया है और इस सिद्धांत को सामने रखा है कि पूंजीवादी क्षेत्र में उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य पिछड़े क्षेत्रों और देशों के औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के जरिए प्राक्-पूंजीवादी क्षेत्र में हासिल किया जाता है.
आइए, हम देखें कि अतिरिक्त मूल्य उगाहने का मार्क्स ने कैसा चित्र प्रस्तुत किया है. मार्क्स के अनुसार किसी पूंजीवादी देश के कुल उत्पाद के तीन भाग होते हैं : (क) स्थिर पूंजी, (ख) चल पूंजी और (ग) अतिरिक्त मूल्य. इसके अतिरिक्त, मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन के दो प्रमुख विभागों के बीच फर्क किया है. ये दो विभाग हैं : (क) विभाग नं. 1, जिसमें उत्पादन के साधनों का उत्पादन होता है और (ख) विभाग नं. 2, जिसमें उपभोक्ता सामग्रियों का उत्पादन होता है.
अब, अतिरिक्त मूल्य का महज एक हिस्सा ही उपभोक्ता सामग्रियों में शामिल हैं बाकी हिस्सा उत्पादन के साधनों में मौजूद रहता है. उत्पादन के साधनों में मौजूद अतिरिक्त मूल्य का ‘उपभोग’ खुद पूंजीपति वर्ग करता है, जो (अतिरिक्त मूल्य) विस्तारित पुनरुत्पादन के लिए स्थिर पूंजी में बदल जाता है. पूंजीवादी उत्पादन-प्रणाली का यही सारतत्व है, जिसमें हर चक्र के अंत में स्थिर पूंजी बढ़ जाती है और उत्पादक शक्तियों का असीम विस्तार होता है. पूंजीवादी समाज में घरेलू बाजार उपभोक्ता सामग्रियों के चलते उतना विकसित नहीं होता, जितना कि उत्पादन के साधनों के कारण. इसे ही मार्क्स का उगाही का सिद्धांत कहते हैं.
विदेशी बाजारों का विकास ऐतिहासिक स्थितियों की उपज है जो पूंजीवाद के विकास के एक खास दौर में प्रकट हुआ है. विदेश व्यापार की भूमिका को हासिल करने का अर्थ सिर्फ एक देश के बदले कई पूंजीवादी देशों पर संयुक्त रूप से विचार करना है यह किसी भी तरह उगाही की आवश्यक प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करता है.
जहां तक किसानों द्वारा पूंजीवाद के लिए बाजार मुहैया करने की बात है, तो वे उसी हद तक ऐसा करते हैं जिस हद तक कि वे पूंजीवादी समाज के वर्गों, ग्रामीण पूंजीपतियों और ग्रामीण सर्वहारा में, बदल जाते हैं. यह वर्ग उसी पूंजीवादी समाज के अंग होते हैं. अगर पूंजीवादी कृषि-क्षेत्र का विकास औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में धीमी गति से होता है, और अगर औद्योगिक व कृषि-मालों के मूल्यों में फर्क होता है तो यह पूंजीवादी समाज की संरचना के सिद्धांत के साथ जुड़ा हुआ सवाल है; पूंजीवादी समाज में उत्पादन की उगाही के सिद्धांत से उसका कोई संबंध नहीं जुड़ता है.
लेनिन ने रोजा की पुस्तक की एक समीक्षा को, जो ब्रेमेर-बर्जर जाइटुंग में प्रकाशित हुई थी, उद्धत करते हुए उसके सम्पादक को लिखा, “यह देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है कि मुख्य बिंदुओं पर आप भी उसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, जिस पर चौदह वर्ष पहले तुगान-बैरनोव्सकी और वोल्क्सटम्लर के विरुद्ध राजनीतिक वाद-विवाद चलाते समय मैं पहुंचा था. अर्थात्, ‘विशुद्ध पूंजावादी’ समाज में भी अतिरिक्त मूल्य की उगाही संभव है. मैं अभी तक रोजा लक्जेमबर्ग की पुस्तक नहीं देखा पाया हूं, मगर आप सैद्धांतिक तौर पर इस बिंदु पर सही हैं. फिर भी मुझे लगता है कि आपने मार्क्स के एक महत्वपूर्ण अवतरण पर अधिक जोर नहीं दिया है, जहां मार्क्स कहते हैं कि वार्षिक तौर पर उत्पादित मूल्य का विश्लेषण करने में विदेश व्यापार को पूरी तरह छांट देना चाहिए. लक्जेमबर्ग का ‘द्वंद्ववाद’ मुझे (लीपजिगर वोल्केजाइटुंग में प्रकाशित लेख के आधार पर विचार करने से भी) सार संकलनवाद लगता है.” (कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-3, जनवरी 1913). एलबी कामनेव को एक पत्र में लेनिन ने फिर लिखा, “मैंने रोजा की नई पुस्तक पूंजी का संचय पढ़ी है. वह एक भारी दिग्भ्रम में फंस गई हैं. मुझे काफी खुशी है कि पान्नेकोएक, एक्सटीन और आटो बावेर, इन सबों ने एकजुट होकर उनकी भर्त्सना की है और उनके विरुद्ध वही कहा है जो मैने 1899 में नरोदवादियों के विरुद्ध कहा था.” (वही, खंड- 35).
2. रोजा लक्जेमबर्ग ने राष्ट्रीय प्रश्न और स्वायत्तता शीर्षक लेख में, जो 1908-09 में प्रकाशित हुआ था, राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार, अर्थात् अलग होने के अधिकार का विरोध किया था. काउत्सकी की मान्यता थी कि राष्ट्रीय राज्य वर्तमान परिस्थितियों के लिए सबसे उपयुक्त हैं ... और बहुराष्ट्रीय राज्य हमेशा ऐसे राज्य होते हैं जिनका आंतरिक गठन किसी न किसी कारण असामान्य अथवा अर्ध-विकसित रह गया है. रोजा ने इस विचार का खंड़न करते हुए लिखा, “यह ‘सर्वोत्तम’ राष्ट्रीय राज्य केवल एक अमूर्त धारणा है, जिसे सैद्धांतिक दृष्टि से विकसित करना तथा जिसके पक्ष में तर्क देना बहुत आसान है, परंतु जो वास्तविकता से मेल नहीं खाती.” उन्होंने इस आशय के भी तर्क रखे कि छोटे राष्ट्रों का ‘आत्मनिर्णय का अधिकार’ बड़ी-बड़ी पूंजीवादी ताकतों के विकास तथा साम्राज्यवाद के कारण एक भ्रम बनकर रह गया है.
रोजा के विरुद्ध दलीलें देते हुए लेनिन ने बतलाया, “पूंजीवादी समाज में राष्ट्रों के राजनीतिक आत्मनिर्णय और राज्यों के रूप में उनकी स्वाधीनता के प्रश्न के स्थान पर रोजा लक्जेमबर्ग ने उनकी आर्थिक स्वाधीनता के प्रश्न को लाकर रख दिया है.” (राष्ट्रों का आत्मनिर्णय का अधिकार, वही, खंड-20)
लेनिन ने एशिया का उल्लेख किया और दिखाया कि एशिया में एकमात्र ऐसा देश, जहां माल-उत्पादन के पूर्णतम विकास की परिस्थितियां पैदा हुई हैं, जापान है, जो कि एक स्वाधीन राष्ट्रीय राज्य है.
लेनिन ने कहा, “राष्ट्रीय राज्य पूंजीवाद का नियम तथा उसका ‘मानक’ है, बहुराष्ट्रीय राज्य या तो पिछड़ापन का द्योतक होता है अथवा अपवाद होता है.” (वही)
रोजा ने रूस से पोलैंड की स्वाधीनता की मांग पर आपत्ति की. उनका तर्क था कि चूंकि पोलैंड के तैयार माल रूस में बिकते थे, इसी कारण पोलैंड का तीव्र औद्योगिक विकास हुआ. उन्होंने पोलैंड के लिए आत्मनिर्णय के बदले स्वायत्तता की सिफारिश की, सो भी अपवादस्वरूप.
लेनिन ने कहा, “किसी ऐसे देश में, जहां की राज्य प्रणाली बहुत स्पष्ट रूप से प्राक्-पूंजीवादी ढंग की है, राष्ट्रीयता के तौर पर कोई अलग प्रदेश हो, जहां पूंजीवाद का विकास तीव्र गति से हो रहा हो, तो वहां पूंजीवाद जितनी ही तेज गति से आगे बढ़ेगा, पूंजीवादी तथा प्राक्-पूंजीवादी राज्य प्रणाली का अंतर्विरोधभी उतना ही जोरदार बनेगा, और उतनी ही अधिक इस बात की संभावना होगी कि अधिक प्रगतिशील प्रदेश पूरे देश से अलग हो जाएं, जिसके साथ वह प्रदेश ‘आधुनिक पूंजीवादी’ बंधनों से नहीं, बल्कि ‘एशियाई निरंकुशतावादी’ बंधनों से बंधा हुआ है.” (वही)
रोजा ने रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के कार्यक्रम में धारा 9 के शामिल किए जाने पर (जिसमें राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार के बारे में कहा गया था), आपत्ति प्रकट की. उनका कहना था कि धारा 9 “सर्वहारा वर्ग की दैनंदिन नीति के लिए कोई व्यावहारिक निर्देश नहीं देती, वह राष्ट्रों की समस्याओं का कोई व्यावहारिक हल नहीं बताती.”
‘व्यवहारिकता’ के प्रश्न पर लेनिन का कहना था, “पूंजीपति वर्ग अपनी राष्ट्रीय मांगों को सर्वदा सर्वोपरि स्थान देता है और ऐसा दो टूक ढंक से करता है. परंतु सर्वहारा वर्ग के लिए ये मांगें वर्ग संघर्ष के हितों के अधीन होती हैं. सिद्धांततः आप पहले से यह नहीं कह सकते कि किसी राष्ट्र के अलग हो जाने से या दूसरे राष्ट्र की तरह उसके बराबर अधिकार प्राप्त कर लेने से पूंजीवादी-जनवादी क्रांति समाप्त हो जाएगी; दोनों ही सूरतों में, सर्वहारा वर्ग के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपने वर्ग के विकास को सुनिश्चित बनाए ... यही कराण है कि किसी राष्ट्र को कोई गारंटी दिए बिना, किसी अन्य राष्ट्र के हितों की कीमत पर उसे कुछ देने की हामी भरे बिना सर्वहारा वर्ग, कहना चाहिए, अपने-आपको आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार करने की नकारात्मक मांग तक ही सीमित रखता है. संभव है कि यह मांग ‘व्यावहारिक’ हो, पर वास्तव में यह सभी संभव हलों में सबसे अधिक जनवादी हल प्राप्त करने की सबसे अच्छी गारंटी है.” (वही)
पोलैंड में राष्ट्रवाद के विरुद्ध संघर्ष की धारा में बहकर और पोलैंड के राष्ट्रवादी पूंजीपति वर्ग की ‘सहायता’ न करने की फिक्र में रोजा ने रूसी मार्क्सवादियों के कार्यक्रम में अलग हो जाने के अधिकार को अस्वीकार कर दिया. उनके अनुसार अलग हो जाने के अधिकार का समर्थन करना उत्पीड़ित राष्ट्रों के पूंजीवादी राष्ट्रवाद का समर्थन करना है.
लेनिन ने बताया कि किसी उत्पीड़ित राष्ट्र के पूंजीवादी राष्ट्रवाद में एक आम जनवादी तत्व होता है, जो उत्पीड़ित के खिलाफ निर्देशित होता है, और हम इस तत्व का बिनाशर्त समर्थन करते हैं. साथ ही, लेनिन ने जोर दिया कि हमें राष्ट्रीय अलगाववाद की हर प्रवृत्ति का अवश्य विरोध करना चाहिए.
लेनिन ने आगे बतलाया, “इस बात को समझना कठिन नहीं है कि यदि संपूर्ण रूस के मार्क्सवादी और सर्वोपरि वृहत्तर रूसी मार्क्सवादी राष्ट्रों के अलग हो जाने के अधिकार को स्वीकार करते हैं, तो इसका मतलब किसी भी प्रकार यह नहीं होता कि किसी उत्पीड़ित राष्ट्र विशेष के मार्क्सवादियों को अलग हो जाने के खिलाफ आंदोलन चलाने का अधिकार नहीं रह जाता, बिलकुल वैसे ही, जैसे तलाक के अधिकार को स्वीकार करने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि किसी खास मामले में तलाक के खिलाफ आंदोलन ही न चलाया जाए.” (वही)
तथापि, लेनिन के लिए आत्मनिर्णय का अधिकार केंद्रीकरण के आम परिप्रेक्ष का अपवाद है. “प्रतिक्रियावादी वृहत्तर रूसी राष्ट्रवाद को मद्देनजर रखते हुए यह अपवाद निस्संदेह आवश्यक है, और इस अपवाद को अस्वीकार करना अवसरवाद है (जैसे कि रोजा लक्जेमबर्ग के मामले में); इसका अर्थ है प्रतिक्रियावादी वृहत्तर रूसी राष्ट्रवाद के हाथों में मूर्खता के मारे खिलौना बन जाना. मगर अपवाद को व्यापक तौर पर घटनेवाली घटना कभी नहीं बनाना चाहिए. इस मामले में, वह अलग होने के अधिकार से ज्यादा कुछ भी नहीं है और न होना चाहिए.” (एसजी शानमान को पत्र, कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-19)
लेनिन और रोजा, दोनों ही मार्क्सवादी होने के कारण इस बात पर एकमत थे कि पूंजीवादी समाज में सारे प्रमुख तथा महत्वपूर्ण आर्थिक और राजनीतिक प्रश्न पृथक-पृथक प्रदेशों की स्वायत्त विधानसभाओं द्वारा नहीं, अपितु पूरे संबंधित देश की केंद्रीय संसद द्वारा ही निबाटाए जाने चाहिए. लेनिन ने कहा, “मार्क्सवादी कभी भी किसी भी सूरत में न तो संघ के सिद्धांत का और न विकेंद्रीकरण का समर्थन करेंगे. बड़ा केंद्रीकृत राज्य मध्ययुगीन अनैक्यता से पूरे विश्व की भावी समाजवादी एकता की ओर एक विराट ऐतिहासिक कदम है और मात्र ऐसे ही राज्य (पूंजीवाद से अटूट रूप से जुड़े हुए) से होकर गुजरनेवाले मार्ग के अलावा समाजवाद का और दूसरा कोई मार्ग नहीं है और न हो सकता है.” (राष्ट्रों के प्रश्न पर आलोचनात्मक टीकाएं, वही खंड-20)
लेनिन ने जोर देते हुए कहा कि केंद्रीयता की वकालत करते समय मार्क्सवादी लोग एकमात्र जनवादी केंद्रीयता की वकालत करते हैं. जनवादी केंद्रीयता स्पष्टतः विशिष्ट आर्थिक तथा सामाजिक लक्षणों, आबादी के विशेष राष्ट्रीय गठन आदि वाले प्रदेशों के लिए स्वायत्तता समेत स्थानीय स्वशासन की मांग करता है.
शानमान के नाम एक पत्र में लेनिन ने लिखा, “स्वायत्तता का अधिकार? आप फिर गलती कर रहे हैं. हम तो सभी क्षेत्रों के लिए स्वायत्तता के पक्षधर हैं; हम अलग होने के अधिकार के पक्ष में हैं, (मगर हम प्रत्येक के अलग होने के अधिकार का पक्षपोषण नहीं करते हैं.) स्वायत्तता हमारी योजना है जिससे हम एक जनवादी राज्य संगठित करेंगे. अलग होना मगर बिलकुल हमारी योजना नहीं है. हम अलग होने की वकालत नहीं करते हैं. आमतौर पर हम अलग होने का विरोध करते हैं.” (वही, खंड-19). लेनिन के अनुसार, “(स्थानीय तथा प्रादेशिक) स्वायत्तता केंद्रीयता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करती, जो पूंजीवाद के विकास के लिए अपरिहार्य है, बल्कि इसके विपरीत उसे नौकरशाही ढंग से नहीं अपितु जनवादी ढंग से लागू करती है. ऐसी स्वायत्तता के बिना जो देशव्यापी पैमाने पर पूंजी के संकेंद्रण, उत्पादक शक्तियों के विकास, पूंजीपति वर्ग की एकता और सर्वहारा वर्ग की एकता को सुगम बानाती है, पूंजीवाद का व्यापक, मुक्त तथा द्रुत विकास असंभव होगा या कम से कम बहुत बाधित होगा; इसलिए कि विशुद्ध स्थानीय (प्रादेशिक, राष्ट्रीय, आदि) प्रश्नों में नौकरशाही का हस्तक्षेप आम तौर पर आर्थिक तथा राजनीतिक विकास की और खासतौर पर गंभीर, महत्वपूर्ण तथा बुनियादी मामलों में केंद्रीयता की राह में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है.” (राष्ट्रों के प्रश्न पर आलोचनात्मक टीकाएं, वही, खंड-20).
इस परिप्रेक्ष में लेनिन ने स्वायत्तता की मांग को केवल पोलैंड पर और वह भी केवल अपवादस्वरूप लागू करने के दुराग्रह के लिए रोजा को फटकारा और उनसे पूछा, “न केवल पांच लाख की अपितु पचास हजार तक की आबादी वाले स्वायत्त राष्ट्रीय स्वायत्त राष्ट्रीय क्षेत्र क्यों नहीं हो सकते, ऐसे क्षेत्र विभिन्न आकारवाले पड़ोसी क्षेत्रों के साथ सर्वथा विविध तरीकों से एक ही स्वायत्त ‘क्षेत्र’ में क्यों नहीं एकताबद्ध हो सकते, यदि यह आर्थिक विनिमय के लिए सुविधाजनक या आवश्यक हो? ” (वही)
3. 1903 में रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी की दूसरी कांग्रेस के बाद एक ओर तो पार्टी औपचारिक तौर पर एकताबद्ध हुई, मगर दूसरी ओर, वह, ‘बहुमत’ (वोल्शेविक) और ‘अल्पमत’ (मेन्शेविक) में बंट गई. कांग्रेस के तुरंत बाद कोआप्शन पर तकरार खड़ा करके इस विभाजन में निहित उसूलों को धुंधला बना दिया गया. अल्पमत ने कहा कि जब तक तीन भूतपूर्व संपादकों को पुनः कोआप्ट नहीं किया जाता, तब तक वे केंद्रीय संस्थाओं के मातहत काम नहीं करेंगे. इस संघर्ष में, जो दो महीनों तक चला, ‘अल्पमत’ ने बहिष्कार करने और पार्टी के कामकाज में बाधा डालने के हथियार का इस्तेमाल किया. अल्पमत ने लेनिन और प्लेखानोव के इस प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया कि उन्हें पार्टी के मुखपत्र इस्क्रा में अपने मत को रखने दिया जाय, और वे केंद्रीय संस्थाओं के सदस्यों को निरंकुश, नौकरशाह, पुलिसवाला, झूठा, इत्यादि कहकर गालियां देने और व्यक्तिगत तौर पर लांछित करने पर उतर आये. उनपर व्यक्तिगत पहलकदमी का दमन करने और दासतापूर्ण अधीनता, अंधों की तरह आज्ञापालन जैसी चीजें लागू करने का आरोप लगाया गया. हालांकि प्लेखानोव ने अल्पमत के अराजकतावादी विचारों की निंदा की, तथापि उन्होंने क्या नहीं करना चाहिए शीर्षक एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि संशोधनवाद से संघर्ष करने का मतलब जरूरी नहीं कि संशोधनवादियों से भी लड़ा जाय. उन्होंने आगे कहा कि हमें रूसी क्रांतिकारीयों में इतनी गहराई तक पैठे अराजकतावादी व्यक्तिवाद के खिलाफ हमेसा ही नहीं छेड़ना चाहिए बल्कि कभी-कभी उसे शांत करने तथा पार्टी को फूट से बचाने के लिए कुछ रियायतें दे देना बेहतर तरीका होता है. लेनिन प्लेखानोव के विचारों से सहमत नहीं हो सके और उन्होंने संपादक मंडल से इस्तीफा दे दिया. अल्पमत के संपादकों को कोऑप्ट कर लिया गया. शांति स्थापना के लिए लेनिन का सुझाव था कि केंद्रीय मुखपत्र अल्पमत के कब्जे में रहे और केंद्रीय कमेटी बहुमत के, मगर उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया. अल्पमत वालों ने सारी लड़ाई नौकरशाही, अतिकेंद्रीयता, औपचारिकता, इत्यादि के विरुद्ध ‘उसूली’ संघर्ष के नाम पर लड़ी. इसी अवसर पर लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’ लिखी थी. उन्होंने कांग्रेस में हुए वाद-विवादों का विश्लेषण करके दिखलाया कि बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच का यह नया विभाजन पार्टी की सर्वहारा क्रांतिकारी और बुद्धिजीवी अवसरवादी शाखाओं के बीच के पुराने विभाजन का ही अन्य रूप मात्र है.
रोजा लक्जेमबर्ग की सहानुभूति पूरी तरह मेंशेविकों के साथ थी. उन्होंने लेनिन की आलोचना करते हुए उनकी पुस्तक को ‘कट्टर केंद्रीयतावादी’ विचारों की सुस्पष्ट और विस्तृत अभिव्यक्ति कहा. रोजा की समझ थी कि रूसी सामाजिक जनवादियों के बीच एकताबद्ध पार्टी की जरूरत पर कोई मतभेद नहीं था, समूचा विवाद केंद्रीयता की मात्रा पर था. उन्होंने ‘अतिकेंद्रीयता’ के पैरोकार होने के कारण लेनिन को फटकारा और जोर देकर कहा कि केंद्रीयता की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ाई जानी चाहिए.
लेनिन ने रोजा लक्जेमबर्ग को प्रत्युत्तर में कहा कि रूसी पार्टी के अंदर विवाद “प्रधानतः इस बात पर है कि केंद्रीय कमेटी और केंद्रीय मुखपत्र को पार्टी-कांग्रेस के बहुमत की प्रवृत्ति का प्रतिनिधि होना चाहिए अथवा नहीं ... आप क्या ऐसा समझती हैं कि पार्टी की केंद्रीय संस्थायों पर पार्टी-कांग्रेस के अल्पमत का हावी रहना ही आम बात है? आप क्या ऐसी कल्पना भी कर पाती हैं? आपने क्या किसी अन्य पार्टी के अंदर ऐसा होते देखा है?” (कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-7)
“का.लक्जेमबर्ग यह विचार मेरे मुंह में ठूंस दे रही हैं कि एक विशाल और अतिकेंद्रीयकृत पार्टी के निर्माण की सारी परिस्थितियां रूस में मौजूद हैं. फिर एक तथ्यात्मक गलती, मैंने अपनी किताब में इस विचार की वकालत करना तो दूर की बात है, इसका जिक्र भी नहीं किया है. मैंने उसमें जिस सिद्धांत को रखा है उससे दूसरा ही कुछ जाहिर होता है. मैंने इस पर जोर दिया था कि पार्टी-कांग्रेस के निर्णय लागू होंगे ऐसी उम्मीद करने की सारी स्थितियां मौजूद हैं तथा निजी मंडलियों द्वारा पार्टी संस्थाओं की जगह ले लेने का जमाना बीत चुका है. मैंने सबूत पेश किया कि हमारी पार्टी के कुछ विद्वान अस्थिर और ढुलमुल दिखे. उन्हें अपनी खुद की अनुशासनहीनता के लिए रूसी सर्वहारा को उत्तरदायी ठहराने का कोई हक नहीं है. रूसी मजदूरों ने बार-बार, विभिन्न अवसरों पर, पार्टी कांग्रेस के निर्णयों का पालन करने की घोषणा की है.” (वही)
लेनिन ने रोजा पर रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के अंदर चल रहे संघर्ष के ठोस तथ्यों की उपेक्षा करने तथा अमूर्तिकरण में डूब जाने का, और इस प्रकार, मार्क्सवादी द्वंद्ववाद को विकृत करने का, आरोप लगाया.
बाद में, बोल्शेविकों ने रोजा लक्जेमबर्ग और कार्ल काउत्सकी को अपने दृष्टिकोण के पक्ष में कर लिया. लेनिन ने 1909 में कहा, “वे बोल्शेविकों के पक्ष में आ गए. इस कारण नहीं कि बोल्शेविक लोग अपनी बातों पर, बेशक अपने उपदलीय सिद्धांत पर, डटे रहे, अपितु इसलिए कि बोल्शेविकों ने क्रांतिकारी सामाजिक जनवादी कार्यनीति की आम भावना और अर्थ को बुलंद किया.” (फैक्शन ऑफ सपोर्टर्स ऑफ ओट्जोविज्म एंड गॉड-बिल्डिंग, कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-6)
4. रूस में 1905 की क्रांति ने सोवियत सत्ता और सर्वहारा अधिनायकत्व के व्यावहारिक अनुभव को सतह पर ला दिया. मेंशेविकों के विपरीत, रोजा ने तुरंत इसके महत्व को समझा और सभाओं और प्रेस में इसका आलोचनात्मक विश्लेषण किया.
5. 1913 में विलोपवादियों के प्रति रुख के प्रश्न पर रोजा और लेनिन फिर एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गए.
रोजा का मानना था कि रूसी पार्टी में जो कुछ हो रहा है, उसे दलीय कलह के कारण उत्पन्न दुरावस्था ही कहा जा सकता है. उन्होंने लेनिनवादी ग्रुप पर फूट को बढ़ावा देने में सबसे ज्यादा सक्रिय होने का आरोप लगाया. वे समझते थीं कि रूसी पार्टी के अंदर मौजूद मतभेदों ने संयुक्त कार्यवाहियों की संभावना को नष्ट नहीं कर दिया है तथा करारों और समझौतों के जरिए एकता की पुनर्स्थापना करना संभव है. उन्होंने दिसंबर 1913 में इस आशय का एक प्रस्ताव अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्ट ब्यूरो के पास भी भेजा था.
लेनिन का इससे तीखा मतभेद था. उन्होंने बार-बार कहा कि रूस में जो कुछ हो रहा है, उसे दलीय कलह से उत्पन्न अव्यवस्था नहीं कहा जा सकता है, वह तो विलोपवादियों के खिलाफ संघर्ष है. लेनिन ने दावा किया कि इसी संघर्ष के जरिए मजदूरों की सच्ची सामाजिक जनवादी पार्टी का निर्माण हो रहा है तथा वर्ग सचेत मजदूरों का भारी बहुमत, उनका अस्सी प्रतिशत, पार्टी लाइन के पक्ष में आ गया है.
ब्रुसेल्स कांफ्रेंस को पेश अपनी रिपोर्ट में लेनिन ने पार्टी के 1908 के एक प्रस्ताव से एक अंश उद्धृत किया था. इसमें विलोपवाद की परिभाषा के तौर पर कहा गया था, “पार्टी के कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के मौजूदा संगठन का विलोप कर देने और उसे हर कीमत पर, यहां तक कि पार्टी के कार्यक्रम, कार्यनीति और परंपराओं की खुल्लामखुल्ला तिलांजलि देकर भी, कानूनी सीमाओं के अंदर काम करनेवाले एक ढीले-ढाले संगठन में बदल देने का प्रयास है.” (वही, खंड-20)
लेनिन ने आगे कहा, “पश्चिम यूरोप में कहीं भी यह प्रश्न कभी नहीं उठा और न कभी उठ सकता है कि किसी व्यक्ति को अपनी पार्टी सदस्यता कायम रखने के साथ-साथ पार्टी को भंग करने, यह तर्क करने, कि पार्टी बेकार और गैर-जरूरी है और यह कि इसके बदले दूसरी पार्टी कायम की जाए की वकालत करने की इजाजत है अथवा नहीं. पश्चिमी यूरोप में कहीं भी पार्टी के अस्तित्व का प्रश्न इस तरह मौजूद नहीं है जिस तरह हमारे यहां मौजूद है अर्थात पार्टी रहे कि न रहे.
यह असहमति संगठन के प्रश्न पर असहमति नहीं है कि पार्टी निर्माण किस प्रकार होना चाहिए, अपितु असहमति पार्टी के अस्तित्व पर है. यहां सुलह-सफाई, राजीनामा और समझौते का कोई सवाल ही नहीं उठता है.” (वही)
6. साम्राज्यवादी युद्ध शुरू होते ही काउत्सकीपंथियों ने, जो कि दूसरे इंटरनेशनल व जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी पर हावी थे, सामाजिक अंधराष्ट्रवादी स्थिति अपना ली. उन्होंने इस लुटेरे युद्ध में अपने-अपने देशों के पूंजीपतियों का समर्थन करने की वकालत की. रोजा लक्जेमबर्ग ने इस लाइन का सख्त विरोध किया और सामाजिक जनवाद को ‘बदबूदार लाश’ की संज्ञा दी.
मेंशेविकों ने जब रूस में केरेंस्की के आक्रमण का समर्थन किया तो रोजा ने ‘रूसी क्रांति की अंतरराष्ट्रीय अंतर्वस्तु को कमजोर कर देने’ के कारण उनकी तीखी आलोचना की.
लेनिन ने रोजा का सम्मान करते हुए उन्हें महान अंतरराष्ट्रीयवादी कहा तथा दूसरे इंटरनेशनल के पतन के बाद एक नए इंटरनेशनल का निर्माण करने के लिए दोनों ने मिलजुलकर काम किया.
7. रोजा को 1917 की नवंबर क्रांति के बारे में, जबकि बोल्शेविकों ने सत्ता पर कब्जा किया था, कुछ शंकाएं थीं. सत्तादखल की प्रक्रिया के बारे में, जो उनके विचार से गैरजनवादी थी, और केंद्रीयता पर जरूरत से ज्यादा जोर डालने की लेनिनवादी पद्धति के बारे में उनके मत भिन्न थे. रोजा की समझ थी कि इससे नीचे से मजदूरों की पहलकदमी का गला घुट जाएगा और नैकरशाहाना विकृतियों का उदय होगा. ये विचार 1918 में उनकी जेल प्रवास के दौरान लिखित पांडुलिपियों में मिलते हैं.
तथापि क्लारा जेटकिन ने, जो रोजा को अत्यंत नजदीक से जानती थीं, साक्ष्य दिया था कि दिसंबर 1918 में जेल से रिहा होने के बाद रोजा लक्जेमबर्ग ने स्वीकार किया कि उनके विचार गलत और अधूरी सूचनाओं पर आधारित थे.
8. रोजा लक्जेमबर्ग और कार्ल लीब्नेख्त ने जर्मनी के सामाजिक जनवादी गद्दारों के विरुद्ध तीखा संघर्ष चलाया तथा जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी को पुनर्गठित किया और वे जर्मनी की नवंबर 1918 की क्रांति की अगली पंक्ति में डटे रहे.
15 जनवरी 1919 को सामाजिक जनवादियों की सरकार के गुपचुप समर्थन से श्वेत गार्डों ने रोजा और कार्ल लीब्नेख्त की ठंडे दिमाग से हत्या कर दी.
उनकी हत्या के उपरांत आयोजित एक विरोध रैली में लेनिन ने अपने वक्तव्य में कहा, “आज पूंजीपति लोग और सामाजिक जनवादी गद्दार बर्लिन में खुशियां मना रहे हैं, उन्हें कार्ल लीब्नेख्त और रोजा लक्जेमबर्ग की हत्या करने में सफलता मिली है. एलबर्ट और शीदेमान ने, जो लूट के स्वार्थ में चार वर्षों से मजदूरों का कत्लेआम करते आ रहे थे, अब सर्वहार नेताओं के खिलाफ कसाइयों की भूमिका ग्रहण कर ली है. जर्मन क्रांति का उदारहण सिद्ध करता है कि ‘जनवाद’ पूंजीवादी डकैती और सर्वाधिक बर्बरतापूर्ण हिंसा के लिए महज आड़ है. कसाइयों का नाश हो.”
1922 में जर्मन मेंशेविक पाल लेवी ने रोजा लक्जेमबर्ग की खासकर उन रचनाओं को पुनर्प्रकाशित करने की योजना बनाई जहां लेनिन के साथ उनका मतभेद था तो लेनिन ने टिप्पणी की कि लेवी की इच्छा पूंजीपतियों की और दूसरे व ढाईवें इंटरनेशनल के नेताओं की कृपादृष्टि प्राप्त करने की है.
लेनिन ने लिखा, “हम इसका जवाब एक रूसी कहावत की दो पंक्तियां उद्धृत करके देंगे, बाज कभी-कभी मुर्गियों से भी नीचे उड़ते हैं, मगर मुर्गियां बाजों की ऊंचाई तक कभी नहीं उड़ सकतीं. रोजा लक्जेमबर्ग ने पोलैंड की स्वाधीनता के सवाल पर गलती की, उन्हेंने 1903 में मेंशेविज्म का मूल्यांकन करने में गलती की, उन्होंने पूंजी के संचय के सिद्धांत के बारे में गलती की, जुलाई 1914 में, जब उन्होंने प्लेखानोव, वान्डरवार्ल्ड, काउत्सकी और अन्य लोगों के साथ मिलकर बोल्शेविकों और मेंशेविकों की एकता की वकालत की, तो वे गलती कर रही थीं, और 1918 में जेलप्रवास के दौरान उन्होंने जो कुछ लिखा उसे लिखकर गलती की. (उन्होंने जेल से छूटने के बाद 1918 की आखिर और 1919 की शुरूआत में अपनी अधिकांश गलतियों को सुधार लिया.) मगर अपनी गलतियों के बावजूद वे हमारे लिए बाज थीं और हैं. दुनिया के तमाम कम्युनिस्ट न केवल उन्हें हमेशा याद रखेंगे बल्कि उनकी जीवनी और उनका पूरा रचना संकलन कम्युनिस्टों की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित करने के उपयोगी ग्रंथ का काम करेंगे.
‘4 अगस्त 1914 से जर्मन सामाजिक जनवाद एक बदबूदार लाश में बदल गया है’ – इस वक्तव्य ने रोजा लक्जेमबर्ग को अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन में मशहूर कर दिया है और हां, मजदूर आंदोलन के पिछवाड़े में कचरे के ढेर पर पाल लेवी, शीदेमान, काउत्सकी जैसी मुर्गियां और उनके भाई बंधु इस महान कम्युनिस्ट द्वारा की गई गलतियों पर जरूर कुड़कुड़ाते रहेंगे.” (एक प्रकाशक का नोट, कलेक्टेड वर्क्स, लेनिन, खंड-33)
यह रोजा लक्जेमबर्ग की याद में सर्वोत्तम श्रद्धांजलि है और इसमें सारी चीजों का सार संक्षेप भी हो गया है.