(मार्च 1994 में साउथ एशिया सॉलिडैरिटी फोरम की कल्पना विल्सन द्वारा लिया गया साक्षात्कार)
प्रः सोवियत ध्वंस के बाद समाजवाद के मौजूदा तथाकथित संकट को आप किस रूप में देखते हैं?
वीएम : सारतः मैं सोचता हूं कि समाजवाद अपने-आप में कोई संपूर्ण या स्थायी प्रणाली नहीं है. समाजवाद का मतलब है पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच की एक संक्रमणशील प्रणाली. इसीलिए यह एक अत्यंत विशिष्ट परिघटना है. इसमें साम्यवाद – जिस समाज की स्थापना की जानी है – के भी कुछ गुण होते हैं और पूंजीवाद की भी कुछ विशेषता सारतः बरकरार रह जाती है, जिसे मार्क्स ने ‘वितरण का सिद्धांत’ कहा है, आर्थात् हर-एक को उसके काम के अनुसार, मसलन, समाजवादी व्यवस्था में, मान लीजिए एक कारखाना है जिसे माना जाता है कि वह जनता के स्वामित्व का प्रतिनिधित्व करता है. वहां एक मजदूर, एक ओर यह महसूस करता है कि वह जनता का अंग होने के नाते एक तरफ से कारखाना का मालिक भी है. दूसरी ओर चूंकि वह अपने काम के अनुसार पाता है, लिहाजा वह महसूस करता है कि मानो वह कोई दिहाड़ी मजदूर हो. इसीलिए, यह दुहरापन मजदूर की चेतना में काम करता है.
जहां तक स्वामित्व का सवाल है, तो एक ओर यह समूची जनता का स्वामित्व है; तो दूसरी ओर यह स्वामित्व राज्य-स्वामित्व के जरिए (क्योंकि समाजवादी समाज में भी राज्य मौजूद रहता है) और राज्य द्वारा नियुक्त अधिकारियों के द्वारा लागू किया जाता है. इसीलिए स्वामित्व के पहलू में भी दुहरापन है और नौकरशाही में इसके पतित हो जाने की भी गुंजाइश रहती है. मजदूर और स्वामित्व, दोनों में यह दुहरापन संक्रमणशील व्यवस्था की चारित्रिक विशेषता है.
यह भी एक तथ्य है कि हम विकसित पूंजीवादी देशों में नहीं, बल्कि पिछड़े मुल्कों में समाजवाद का प्रयोग चला रहे हैं. उत्पादन शक्तियां पिछड़ी अवस्था में हैं और आप फौरन स्वामित्व की कोई उच्चतर व्यवस्था स्थापित नहीं कर सकते हैं. विभिन्न प्रकार के स्वामित्व मौजूद हैं : जैसे, समूची जनता का स्वामित्व, सामूहिक स्वामित्व, छोटे निजी उद्यम ... आप धीरे-धीरे ही दूसरी मंजिल की ओर जा सकते हैं. समाजवादी समाज की, और खासकर पिछड़े देशों में समाजवाद की इस विशिष्टता के चलते समाजवाद में दोनों संभावनाएं रहती हैं – यह साम्यवाद की ओर भी आगे बढ़ सकता है और पूंजीवाद की ओर पीछे भी खिसक सकता है.
शुरू में यह धारणा थी कि समाजवादी समाज कायम होगा और कुछ समय बाद वह साम्यवाद में विकसित हो जाएगा. लेकिन बाद में मार्क्सवाद में सैद्धांतिक विकास हुए, लेनिन ने कहना शुरू किया कि इस संक्रमण में लंबा समय लगेगा, ओर फिर चीन में माओ ने कहा कि यह सवाल अभी तक हल नहीं हुआ है कि पूंजीवाद जीतेगा या समाजवाद, इसमें सैकड़ों वर्ष लग सकते हैं. समाजवाद को जिन स्थितियों में निर्मित किया जाना था उनकी विशिष्टता के चलते ही यह बदलाव आया और तब समाजवादी समाजवाद में वर्ग अंतरविरोध, वर्ग संघर्ष के अस्तित्व के बारे में भी सूत्रीकरण सामने आने लगे, जबकि मार्क्सवाद के आरंभिक प्रस्तावकों ने वर्गहीन समाज के बतौर समाजवाद की कल्पना की थी. इसलिए मैं महसूस करता हूं कि मार्क्स की मूल थीसिस एक सामान्य रूपरेखा भर देती है, क्योंकि पूरी अवधारणा पूंजीवादी समाज के विश्लेषण पर, और यह भी अमूर्त रूप में विशुद्ध पूंजीवादी समाज के विश्लेषण पर, आधारित थी. ठोस अर्थों में, अत्यंत ऊंचा विकसित पूंजीवादी समाज भी मार्क्स के आदर्श मानदंड पर खरा नहीं उतरता है. इसीलिए, आप यह भी नहीं कह सकते हैं कि पूंजीवाद का अध्ययन पूरा हो चुका है, क्योंकि पूंजीवाद अभी भी मौजूद है और यह काफी तेजी से आगे बढ़ा है, इसका दौर खत्म नहीं हुआ है. और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि समाजवाद और समाजवाद के आर्थिक नियमों का अध्ययन अभी भी शुरुआती और प्राथमिक अवस्था में ही है. इन सबके चलते मेरा विश्वास है कि अब अपने पुनरुत्थान के लिए मार्क्सवाद को उस सैद्धांतिक कृति की आवश्यकता है, जिसे मैं लोकप्रिय रूप में नई पूंजी कहता हूं. उसके लिए समय परिपक्व हो चुका है. बुनियादी बातें वही हैं और वे जारी रहेंगी, लेकिन पूंजीवाद का अध्ययन फिर भी अधूरा है. जब लेनिन इजारेदार पूंजीवाद का अध्ययन कर रहे थे, तब उनके मन में भी यही धारणा बनी कि वह पूंजीवाद की अंतिम मंजिल है और कि वह मरणासन्न है और वह ध्वस्त हो जाएगा. लेकिन आप देख सकते हैं कि इजारेदार पूंजीवाद ने नए आकार ग्रहण किए हैं और वह चल रहा है. इसलिए, नए अध्ययन की जरूरत है. फिर, रूस के 75 वर्षों और चीन के भी अनुभवों के साथ समाजवाद के आर्थिक नियमों के अध्ययन की भी जरूरत है. इसीलिए मैं महसूस करता हूं कि मार्क्सवाद को पूंजी के समतुल्य एक नई रचना की आवश्यकता है, खासकर इसलिए कि समाजवाद के निर्माण के सारे प्रयोग पिछड़े देशों में चल रहे हैं – चीन, वियतनाम इत्यादि में. अगर समाजवाद को सैकड़ों वर्ष तक एक संक्रमणशील समाज के रूप में जारी रहना है तो इसका मतलब हुआ कि माल, मुद्रा और बाजार को महज एक बोझ के रूप में आप नहीं देख सकते, और उन पर काबू पाने की ओर आगे नहीं बढ़ सकते, बल्कि समाजवादी समाज में भी उनके विकास की जरूरत होगी, खुद समाजवाद के हितों को आगे बढ़ाने के लिए उनके विशेष उपयोग की जरूरत होगी. यह ऐसी चीज नहीं है जिससे छुटकारा पा लिया जाए, या यह कोई आवश्यक बुराई भी नहीं है जिसे आप ढोते फिरेंगे. योजना (प्लानिंग) को एक समाजवादी परिघटना माना जाता है, लेकिन हमने देखा है कि पूंजीवादी समाज ने अपने साथ जुड़ी रहने वाली उत्पादन की अराजकता पर काबू पाने में योजना का उपयोग किया. उसी तरह, कम्युनिस्टों को भी सोचना होगा कि समाजवाद के निर्माण में माल, मुद्रा और बाजार का सकारात्मक इस्तेमाल कैसे किया जाए.
समाजवाद को एक संक्रमणकालीन प्रणाली कहते हुए मार्क्स ने एक और बात बताई है. उन्होंने कहा कि सर्वहारा अधिनायकत्व एक निरपेक्ष आवश्यकता है. इसलिए मैं महसूस करता हूं कि अगर सर्वहारा अधिनायकत्व कमजोर होगा तो इस संक्रमणशील प्रणाली के पूंजीवाद में वापस लौट जाने की संभवना भी साफ होगी. उदाहरण के लिए अगर हम सोवियत संघ को देखें तो हम पाते हैं कि इसके ध्वंस के पहले वहां का आर्थिक माडल कमोबेश परंपरागत समाजवादी माडल ही था. सब कुछ राजकीय क्षेत्र में था. निजीकरण और विदेशी पूंजी वस्तुतः अनुपस्थित थे. लेकिन ख्रुश्चेव के जमाने से ही वहां सर्वहारा अधिनायकत्व का ह्रास होने लगा और तभी से हम पाते हैं कि कहीं न कहीं पूंजीवाद के लिए दरवाजा खुल गया. इसके विपरीत मैं महसूस करता हूं कि समाजवाद के पूंजीवाद में वापस लौटने के खतरे का माओ ने अध्ययन किया. (उन्होंने देखा कि) इसकी वापसी की संभावना मौजूद है, जिससे रूसी लोग इनकार करते रहे थे.
सांस्कृतिक क्रांति की अवधारणा के जरिए माओ ने सर्वहारा अधिनायकत्व को ही मजबूत करना चाहा था – समाजवाद के आर्थिक नियमों के साथ छेड़छाड़ करने या पिछड़ी उत्पादक शक्तियों को दरकिनार करते हुए किसी तरह विकसित साम्यवादी उत्पादन-संबंध बनाने के लिए नहीं. और इसलिए भी कि सर्वहारा अधिनायकत्व 90 प्रतिशत लोगों के व्यापक जनवाद का ही दूसरा नाम है. और सांस्कृतिक क्रांति के जरिए उन्होंने यही बनाने की कोशिश की थी – कुछ लोगों पर अधिनायकत्व और 90 प्रतिशत लोगों के लिए जनवाद. सांस्कृतिक क्रांति का जोर भी यहीं था – बड़े-बड़े कैरेक्टर पोस्टर, जन-उत्साह आदि, रूस और पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों ने सर्वहारा अधिनायकत्व का मतलब केवल अधिनायकत्व ही समझ लिया. इसका दूसरा अंग, जिसका मतलब होता है 90 प्रतिशत लोगों के लिए जनवाद, समाजवादी जनवाद के इस प्रश्न को सर्वहारा अधिनायकत्व का अभिन्न अंग नहीं समझा जा सका. इसीलिए दूसरी तातकों ने जनवाद के सवाल को उठा लिया. चीन में भी, यह सवाल वहां हमेशा मौजूद रहा और माओ ने ही पहली बार प्रयास किया कि समाजवाद के अंतर्गत जनवाद को आम बनाया जाए. थ्येन आनमन में पुनः जनवाद की आकांक्षा ही प्रतिबिंवित हुई थी. और मैं सोचता हूं कि हर दस वर्ष पर या पांच-सात वर्षों में हम जनता का कोई बड़ा आंदोलन देख रहे हैं, और अगर आप समाजवादी ढांचे के अंदर से ही इसे ग्रहण नहीं करेंगे तो बुर्जुआ ढांचे के अंदर ले लिया जाएगा.
जो हो, सांस्कृतिक क्रांति इसी के साथ जुड़ा एक प्रयोग था. यह सही है कि कुछ निम्न-पूंजीवादी सामाजिक ताकतें उभरीं और पूरी की पूरी सांस्कृतिक क्रांति भटक गई, और कुछ लोग समाजवाद के बुनियादी आर्थिक नियमों के साथ छेड़छाड़ करने लगे, किसी किस्म के उच्चतर संबंध विकसित करने के प्रयास में लग गए. पार्टी भी, जो इसका जरिया बनी, विघटित होने लगी. इसलिए, अंततः वह असफल हो गई. लेकिन मेरा कहना यह है कि उसने समाजवादी जनवाद के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण सवालों को तो उठा ही दिया. उसने जनसमुदाय के अंदर व्यापक उत्सुकता पैदा कर ही, हालांकि इसे ठीक तरह से संगठित नहीं किया जा सका और यह समस्या रह ही गई.
अभी चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व अक्षुण्ण रखते हुए आर्थिक प्रयोग चलाए जा रहे हैं – यह एक ऐसी चीज है जिसकी मैं सराहना करता हूं और एक प्रयोग के बतौर यह गौर करने और अध्ययन करने योग्य चीज है. लेकिन दूसरा पहलू – जनवाद की आकांक्षा – भी वहां मौजूद है. चीन में एक बार फिर किसी किस्म का जनवादी आंदोलन दिखाई पड़ेगा. कोई देश महज आर्थिक आंकड़ों के आधार पर जीवित नहीं रह सकता है. और यहीं मैं सोचता हूं कि सांस्कृतिक क्रांति के सबक – कम से कम संदर्भ के लिए ही सही – एक बार फिर उपयोगी साबित होंगे. मैं तो समाजवाद के समूचे संकट या समाजवाद की समस्याओं को इसी तरह से देखता हूं.
प्रः भारतीय संदर्भ में बाजार के साथ जो प्रयोग चलाए जा रहे हैं उसे आप कैसे व्याख्यायित करेंगे? भाकपा(माले) इसे आगे बढ़ाने का कैसे प्रयास करेगी?
वीएम : चीन में आप देखिए कि जनवादी क्रांति की मंजिल में भी माओ ने बुर्जुआ को दो श्रेणीयों में बांटा था – दलाल और राष्ट्रीय बुर्जुआ, जिसके लिए उनकी काफी आलोचना भी हुई थी. उन्होंने इसे दलाल नौकरशाह पूंजी कहा था, वे क्रांति का एक निशाना थे. माओ ने दो चीजों पर प्रयोग किया – एक था किसानों के साथ संश्रय, और इस प्रक्रिया में उन्होंने किसानों को एक क्रांतिकारी ताकत में बदल दिया. यह मार्क्सवाद में, कम से कम क्रांति की रणनीति के लिहाज से, एक नया योगदान था. और दूसरा पहलू था राष्ट्रीय बुर्जुआ के साथ उनका संश्रय. जनवादी क्रांति के जरिए समाज का निर्माण करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय बुर्जुआ के रूपांतरण को कदम-ब-कदम होनेवाली एक दीर्घ प्रक्रिया के बतौर देखा. उनसे कुछ खींच लेने की बजाए उन्होंने उनका उपयोग करने और उन्हें बदलने का प्रयास किया. और इसके लिए उनकी भर्त्सना भी की गई, क्योंकि इसे सच्चे समाजवाद के बतौर नहीं देखा गया. लेकिन मेरे विचार से भारतीय स्थितियां में भी यह सवाल काफी महत्वपूर्ण होगा. चीन का राष्ट्रीय बुर्जुआ काफी कमजोर था और उतना महत्वपूर्ण भी नहीं था. भारत में जब क्रांति जीत की मंजिल में पहुंचेगी तो मैं समझता हूं कि यह काफी संभव है कि बुर्जुआ वर्ग विखंडित हो जाए और इसके एक हिस्से के साथ प्रतिद्वंद्विता करनी पड़े, जो राष्ट्रीय बुर्जुआ के रूप में तब्दील हो चुका होगा. और वह राष्ट्रीय बुर्जुआ ठोस भारतीय स्थितियों में एक अच्छी-खासी ताकत होगा. किसानों के साथ संश्रय में भी, मध्यम किसानों या फार्मरों के बीच एक बड़ा तबका उभरा है जिसके अंदर पूंजीवादी प्रवृत्तियां पनपी हैं. राजनीतिक मोर्चें पर समाजवादी रूपांतरण का प्रयास करते हुए इन ताकतों को संचालित करना और यहां तक कि समाजवाद की खातिर उनका इस्तेमाल करना – ये खास सवाल हैं, जिनका हम भारत में सामना कर रहे हैं.
कुछ लोग कहते हैं कि चूंकि भारत का शासक बुर्जुआ दलाल है, और दलाल का मतलब होता है साम्राज्यवाद का एजेंट, इसीलिए भारत की राज्य सत्ता साम्राज्यवाद के हाथ में है. जब भाकपा(माले) का निर्माण हो रहा था और इसका कार्यक्रम बनाया जा रहा था, 1969-70, में, तो हमलोग इस विचार से सहमत नहीं थे. हमने कहा कि यह गलत है. हमारे ख्याल से, भारतीय राजसत्ता भारतीय बुर्जुआ और भूस्वामियों के हाथ में है. सत्ता हस्तंतरण का यही पूरा सार है. यह महज तकनीकी मामला नहीं है. वर्गीय अर्थों में वे साम्राज्यवाद के ढांचे के अंतर्गत ही काम करते हैं, लेकिन राजसत्ता उन्हीं के पास है. जो लोग यह समझते हैं कि साम्राज्यवाद ही भारतीय राज्य का नियंत्रण करता है, उन्होंने यह सूत्रबद्ध किया कि भारत का प्रधान अंतर्विरोधसाम्राज्यवाद के साथ है. इसीलिए वे कहते हैं कि साम्राज्यवाद विरोधी व्यापक मोर्चे की आवश्यकता है. बेशक, साम्राज्यवाद के साथ हमारा एक बुनियादी अंतर्विरोधहै, लेकिन वह बाहरी अर्थ में है – राष्ट्र बनाम साम्राज्यवाद के रूप में. लेकिन आंतरिक रूप से हम इसे प्रधान अंतर्विरोधनहीं मानते हैं.
अब स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि इस दलाल बुर्जुआ का असली चरित्र क्या है? हमने कहा कि इस सवाल को भी नए तरीके से देखना होगा. अगर आप उन्हें कच्चे सूत्रीकरण के साथ सिर्फ एजेंट कह दें तो यह सही नहीं होगा. हमने कहा कि भारतीय बुर्जुआ एक वर्ग के बतौर काम करता है. इसके विभिन्न हिस्से विभिन्न देशों के साथ संपर्क रख सकते हैं, लेकिन वे एक साझे सूत्र में बंधे हुए हैं. भारतीय दलाल बुर्जुआ की एकल रणनीति है, और वे एक हद तक आपेक्षिक स्वतंत्रता का भी उपभोग करते हैं, जिसे विभिन्न साम्राज्यवादी देशों के बीच अंतर्विरोधका इस्तेमाल करके और सोवियत संघ के साथ संबंध बनाकर बरकरार रखा जाता है. यह निरपेक्ष अर्थ में स्वतंत्र नहीं है, और साम्राज्यवादी नियंत्रण से मुक्त नहीं है. लेकिन दलाल बुर्जुआ और भूस्वामियों के हाथ राजसत्ता को चिह्नित करके और मोलतोल करने अथवा एक तरह की स्वतंत्र स्थिति के अनुसार आचरण करने की उसकी क्षमता को स्वीकार करके हमारी पार्टी ने पुराने सूत्रीकरण से अलग हटकर खुद को वास्तविक परिस्थति के ज्यादा अनुरूप बनाने का प्रयत्न किया है.
अब जबकि सोवियत संघ का ध्वंस हो गया है और भारतीय बुर्जुआ पश्चिमी देशों तथा आइएमएफ/विश्व बैंक के साथ घनिष्ठतर रिश्ता बना रहा है, तो एक बार फिर यह सुझाव आ रहा है कि भारत में अपनी आर्थिक और राजनीतिक संप्रभुता खो दी है; अब यह कमोबेश एक नव-उपनिवेश बन चुका है; राजसत्ता अब साम्राज्यवाद के हाथ में चली गई है; और इसीलिए साम्राज्यवाद और भारतीय राष्ट्र के बीच का अंतर्विरोधप्रधान अंतर्विरोधबन गया है. इसीलिए हमें इसके खिलाफ व्यापकतम संभव संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए. लोग कहने लगे हैं कि पहले सोवियत संघ एक संतुलनकारी भूमिका निभा रहा था और सोवियत संघ के साथ अपने संबंधों के आधार पर भारतीय बुर्जुआ पश्चिमी देशों के साथ मोलभाव कर लिया करता था, लेकिन अब जबकि सोवियत संघ समाप्त हो गया है, तो वह आगे ऐसा नही कर सकता है. सचमुच, परिस्थितियों में और भारतीय नीतियों में इन तमाम बदलावों के साथ, कुल मिलाकर साम्राज्यवादी घुसपैठ वस्तुतः गहरी हो गई है. लेकिन तब भी मैं सोचता हूं कि भारतीय बुर्जुआ के पास वह सापेक्षिक स्वतंत्रता मौजूद है. वह खत्म नहीं हुई है. किसी व्यापक साम्राज्यवाद-विरोथी मोर्चे में लोकप्रिय गोलबंदी की खातिर ‘भारतीय राजनीतिक संप्रभुता पर खतरा’, ‘आजादी पर खतरा’ जैसी बातें कही जा सकती हैं, लेकिन इसे बिलकुल इसके शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए. सोवियत संघ चला गया है, फिर भी साम्राज्यवादी देशों के बीच अंतर्विरोधमौजूद हैं. इसीलिए भारत एक भिन्न तरीके से अपने संबंधों को विविधता प्रदान कर सकता है. जहां तक संभव है, इन अंतरविरोधों का इस्तेमाल करने की कार्यनीति अभी बरकरार है. सोवियत संघ के साथ इसके संबंध किसी समाजवादी आदर्श पर आधारित नहीं थे; वह महज मोलभाव करने का एक औजार था. संभव हुआ तो रूस को लेकर भी वे ऐसा कर सकते हैं, और जापान या जर्मनी के लेकर भी; क्योंकि भारतीय बुर्जुआ के आर्थिक संबंध इतने विवधतापूर्ण हैं, और साम्राज्यवादियों के भी अपने अंतर्विरोधहैं, अपने संकट हैं, अपनी प्रतिद्वंद्विताएं हैं. इसीलिए यह हो सकता है कि मोलभाव करने की यह क्षमता, अंतरविरोधों का यह इस्तेमाल, यह आपेक्षिक स्वतंत्रता अब अधिक सीमित हो जाए, लेकिन मेरी समझ से यह खत्म नहीं हो गई है. राजसत्ता भारतीय बुर्जुआ के हाथों में ही है. इस बात को आत्मसात करना जरूरी है, क्योंकि ऐसा नहीं मानने से आंतरिक अंतर्विरोधउपेक्षित हो जाएगा.
मैं आपको, मान लीजिए यहां बिहार में, एक व्यावहारिक उदाहरण देता हूं बिहार एक पिछड़ा राज्य है – यहां ढेर सा सामंतवाद है और जमीन को लेकर संघर्ष है आदि-आदि. इसीलिए, हमलोग भूमि संघर्ष चला रहे हैं और यहां तक कि भाकपा और माकपा भी इन मुद्दों को उठा रही हैं. यहां की सरकार, लालू यादव की जनता दल सरकार, इस स्थिति में नहीं है कि वह भूमि सुधार करे. उसके पास राजनीतिक इच्छाशक्ति या वैसा ढांचा नहीं है. इसलिए, उसकी कार्यनीति क्या है? अचानक वे ‘डंकल’ के बारे में चिल्लाने लगे – कहने लगे कि डंकल बहुत खतरनाक चीज है, वह किसान-विरोधी है आदि. इसी तरह वे भाकपा और माकपा के साथ संबंध बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, भाकपा और माकपा भी इस स्थिति में नहीं हैं कि वे किसी गंभीर हद तक भूमि संघर्ष को ले जा सकें. क्योंकि जब आप गंभीरता से भूमि संघर्ष चलाते हैं तो बहुतेरे तनाव, हथियारबंद मुठभेड़ आदि पैदा होने लगते हैं. तब महज कानूनी तरीके से चीजों को हल करना आसान नहीं रह जाता. वे इस परिस्थिति से बचना चाहते हैं, लेकिन वे अपना क्रांतिकारी चेहरा भी बरकरार रखना चाहते हैं. ठीक तभी लालू जी डंकल के साथ सामने आते हैं और वे साम्राज्यवाद-विरोध के चैंपियन बन जाते हैं. लेकिन वे यह सब क्यों करते हैं? वह आदमी डंकल के बारे में कुछ नहीं समझता है – उसने सिर्फ यह कहा कि डंकल एक ‘डंकी’ (गधा) है, उसके पास गधों का एक झुंड है आदि-आदि! और बिहार के संदर्भ में मैं नहीं सोचता कि डंकल का कोई ज्यादा प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि यहां पूंजीवादी फार्मिंग विकसित नहीं हुई है. निश्चय ही, हमलोग भी इस सवाल को उठाने के पक्ष में हैं और यहां तक कि बिहार में भी हम इसे उठा रहे हैं. लेकिन जिस तरीके से वे लोग इसे ला रहे हैं, उसका पूरा मकसद ही है आंतरिक अंतर्विरोधको शिथिल कर देना. और भाकपा ने तो डंकल के सवाल पर जनता दल के साथ संयुक्त कार्यवाहियां भी शुरू कर दी हैं और भूमि संघर्ष को उसने छोड़ दिया है. इसी चीज से हमें सावधान रहना है. मेरा कहना है कि बेशक वह खतरा यहां है – और हम एक व्यापक मोर्चा के लिए प्रयत्न भी कर रहे हैं – लेकिन अगर आप इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत एक कठपुतली देश में बदल चुका है तो हम साम्राज्यवाद के साथ अंतर्विरोधको आंतरिक बना चुके होंगे, (तब) आंतरिक अंतरविरोधों का कोई महत्व नहीं रह जाएगा और हमें हर तरह के संश्रयों में जाना होगा और वही हमारे आचरण को निर्धारित करने लगेगा. मैं नहीं सोचता कि हमारे अपने संदर्भ में यह सही होगा.
प्रः आप असली राष्ट्रीय बुर्जुआ के संभावित अभ्युदय की चर्चा कर रहे थे. वह कहां से पैदा होगा? और भारतीय बुर्जुआ के शेष हिस्से के साथ इसका अंतर्विरोधकिस प्रकार का होगा?
वीएम : राष्ट्रीय बुर्जाआ की खोज भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए काफी गंभीर समस्या रही है. क्योंकि बिलकुल आंरभ से ही सोवियत प्रभाव के तहत भाकपा ने कहना शुरू किया कि अब भारत में ऐसा राष्ट्रीय बुर्जुआ है जो एक साम्राज्यपाद विरोधी ताकत है. एक समय नेहरू को इस ताकत का प्रतिनिधि समझा जाता था, दूसरे समय में दूसरे लोगों को, नतीजतन, इस राष्ट्रीय बुर्जुआ के साथ संबंध बढ़ाने पर ही समूचा जोर खिसक गया और भाकपा कहने लगी कि वे लोग नेतृत्वकारी भूमिका अदा करेंगे. इससे कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर हुआ. हमारा दृष्टिकोण यह है कि पहले से ही उनकी तलाश करने और उनका प्रतिनिधि खोजने की बजाय इस सवाल को संघर्ष के दौर में हल होने दिया जाए. हमें अपने आंदोलनों के साथ – साम्राज्यपाद विरोधी आंदोलन और सामंतवाद विरोधी संघर्षों के साथ – आगे बढ़ना चाहिए, और तब हम देखें कि कौन सी ताकतें आखिरकार उभरती हैं और हमारे साथ हाथ मिलाती हैं. भाकपा(माले) ने शुरू से ही ऐसा किया है और सारतः मैं अभी भी इसी पर विश्वास करता हूं.
एक अर्थ में आप छोटे और मंझोले बुर्जुआ के रूप में राष्ट्रीय बुर्जुआ की निशानदेही कर सकते हैं : विचारधारात्मक रूप से उनमें कुछ भी राष्ट्रीय नहीं है, लेकिन वस्तुगत रूप से वे राष्ट्रीय के जैसा आचरण करने को बाध्य हो सकते हैं, क्योंकि साम्राज्यवाद के लिए सबको संतुष्ट करना संभव नहीं है. लेकिन अगर आप राष्ट्रीय बुर्जुआ के राजनीतिक प्रतिनिधियों को खोजने लगें तो आप इस निष्कर्ष पर भी पहुंच जा सकते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसा ही एक प्रतिनिधि है, क्योंकि यह ‘स्वदेशी’ के पक्ष में और डंकल के विरोध में आह्वान पेश करता है. यहां तक कि बंबई के व्यापारिक समूह के कुछ हिस्सों ने भी ‘गैट’ और डंकल तथा भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश का विरोध किया है.
लेकिन राष्ट्रीय बुर्जुआ ऐसा नहीं कि बस यहीं मौजूद है, आप उसे खोज लीजिये और वह मिल जायेगा. बल्कि हमने इस सूत्रीकरण से शुरू किया कि वे सभी दलाल हैं और हमें देखना है कि इन दलालों के बीच से, साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों के दौर में, क्या कोई राष्ट्रीय बुर्जुआ सचमुत उभरता है. इस अर्थ में राष्ट्रीय बुर्जुआ को पैदा करना है.
प्रः हमने जनवाद की चर्चा से अपनी बात शुरू की थी. इस संदर्भ में पार्टी का व्यवहार तथा पार्टी और जनसंगठनों के बीच का संबंध कैसा है?
वीएम : जहां तक जनसंगठनों का ताल्लुक है, हमने सोचा कि उन्हें महज पार्टी-खंड नहीं, उससे बढ़कर होना चाहिए. विभिन्न जनसंगठन अपनी खुद की विशिष्टताओं के साथ विभिन्न तबकों का प्रतिनिधित्व करते हैं. उदाहरण के लिए, छात्र/युवा संगठन की अपनी गत्यात्मकता है, काम करने का अपना तरीका है, अपना खुद का मनोभाव है. अगर पार्टी कुछ सूत्रीकरण कर देती है और उनसे कहा जाता है कि वे इसी के दायरे में काम करें, तो इससे उस संगठन की सारी जीवंतता, पहलकदमी और गत्यात्मकता मारी जा सकती है. उसी तरह, महिला संगठन के काम करने का अपना खास तरीका है, उन्हें अलग किस्म के उत्पीड़न झेलने होते हैं और इसीलिए उनकी अभिव्यक्ति का स्वरूप भी भिन्न होगा. इसीलिए उन्हें सापेक्षतः स्वतंत्र ढंग से काम करने की अनुमति देनी होगी. हमने महसूस किया है कि खासकर भाकपा के जनसंगठन पार्टी-खंड से ज्यादा मिलते-जुलते हैं और परंपरागत रूसी या यहां तक कि चीनी व्यवहार भी ऐसा ही रहा है. जनसंगठन महज कागजी संगठन बनकर रह गए. उनकी गिनती महज उनकी सदस्यता के अर्थ में होती है – 40 लाख, 50 लाख. उनके कार्यक्रमों में ढेर सारी दखलंदाजियां हैं. तो यह एक चीज है जिस पर हमने प्रयोग करने की कोशिश की है – उन्हें काफी आजादी देना, उनकी विशिष्टताएं स्वीकार करना और इस मामले में उन्हें उत्साहित करना. यह पहली बात है, और दूसरे, हमने यह भी सोचा कि एक द्वंद्वात्मक रिश्ता भी होना चाहिए. जहां एक ओर पार्टी उनका नेतृत्व करती है तो दूसरी ओर वे खुद पार्टी के लिए एक किस्म के पहरेदार की भूमिका निभाते हैं. आप जब सत्ता में नहीं होते हैं तब भी नौकरशाही जैसी चंद विकृतियां और प्रवृत्तियां पार्टी के अंदर पैदा हो ही जाती हैं.
अब, उदाहरण के लिए, मान लीजिए कोई पार्टी कार्यकर्ता किसी महिला के साथ बदसलूकी करता है, पार्टी कमेटी ने इस मामले पर बहस की और किसी प्रतिक्रिया के डर से उसने सारी चीजों को, बस, दबा दिया. महिला संगठन के पास यह शिकायत जाती है. वे इस मामले को हाथ में लेती है और पार्टी पर दबाव डालती हैं कि यह गलत हुआ है. हम इसे अच्छी बात समझते हैं, क्योंकि प्रायः पार्टी-प्रणाली के अंदर हो सकता है कि इन चीजों को महिला-दृष्टिकोण से नहीं देखा जाए, मामले से संबंधित वह महिला अपनी भावनाओं को सही ढंग से पेश करने, अन्याय के खिलाफ प्रतिवाद करने की स्थिति में नहीं भी हो सकती है. लेकिन अगर महिला संगठन मामले को अपने हाथ में लेता है, तब स्वाभाविक रूप से पार्टी पर दबाव पड़ेगा.
जिस किसी भी हद तक हमें सत्ता मिलती है, मसलन – कार्बी-आंग्लांग के जिला परिषद में, या हो सकता है कि भविष्य की कुछ सरकारों में – हम इस बात पर जोर देते हैं कि किसान संगठन और अन्य संगठनों को भी स्वतंत्रतापूर्वक काम करना चाहिए और उन्हें अधिकारियों पर, पार्टी पर दबाव डालना चाहिए. जनसंगठन के बारे में हमारी यही सोच है – एक ओर तो उनकी स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करना, ताकि वे जिस तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं उसकी विशिष्टताओं को सही ढंग से जाहिर कर सकें, जिससे उन्हें जीवंतता और गत्यात्मकता मिलेगी. पार्टी केवल उन्हें नेतृत्व प्रदान करने तक खुद को सीमित रखे. और दूसरी ओर जनसंगठन को पार्टी के लिए एक पहरूए की भूमिका अदा करनी चाहिए.
प्रः एक पहलकदमी जो काफी आश्चर्यजनक थी, वह थी इंडियन मुस्लिम कांफ्रेंस का निर्माण. यह पहली बार हुआ जब भारत की कोई वामपंथी पार्टी एक धार्मिक पहचान को संगठित करने के लिए तैयार हुई हो.
वीएम : हमने इस मामले को इसलिए हाथ में लिया, क्योंकि हाल के समय में देश को इस आधार पर बांट दिया गया – हिंदुत्व और इसके निशाने के बतौर मुस्लिम के बीच. वे कहने लगे कि हिंदुत्व धर्म से बढ़कर है, यह एक सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणी है. इसलिए वे कहते हैं कि मुसलमान भी हिंदुत्व का एक हिस्सा हैं क्योंकि वे भारत में रहते हैं – ऐतिहासिक रूप से और सांस्कृतिक रूप से भी. वे एक शब्द का प्रयोग करते हैं – ‘मुहम्मदिया हिंदू’, और कहते हैं कि मुसलमान भारत में रह सकते हैं अगर वे अपनी अलग पहचान छोड़ दे और एक व्यापक हिंदू ढांचे का अंग बन जाएं, तब हम उन्हें मुहम्मदिया हिंदू के बतौर स्वीकार करने को तैयार हैं. उन्होंने यह भी कहा कि सिख, जैन और बौद्ध भी हिंदू हैं. कुछ लोग ईश्वर की पूजा करते हैं – एक ईश्वर, दस ईश्वर, करोड़ों ईश्वर, या फिर कोई भगवान नहीं, फिर भी सब लोग हिंदू हैं! हिंदूवाद भारत में एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणी है और मुसलमान समेत सब लोगों को इसका हिस्सा बन जाना चाहिए. और ऐसा करने की उनकी स्वेच्छा ही उनकी देशभक्ति और राष्ट्रवाद की परीक्षा होगी. तो यही वह खास हमला था, मांग थी कि मुसलमानों को उनका अपना मजहब, संस्कृति और सामाजिक पहचान छोड़ देनी चाहिए. यह सिर्फ एक धर्म पर हमला नहीं था बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी हमला था. एक समुदाय के बतौर मुसलमानों पर खतरा पैदा हो गया था. स्वभावतः इसकी प्रतिक्रिया भी समुदाय के आधार पर ही सामने आई. अब इस मुस्लिम प्रतिक्रिया में एक रूढ़िवादी तत्व – भाजपा का प्रतिपक्ष – भी था, लेकिन अन्य मुसलमानों ने महसूस किया कि यह भारत जैसे देश में सही नहीं होगा, क्योंकि यहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं और 80-85 प्रतिशत लोग हिंदू हैं. इसीलिए भारत की स्थितियों में उन्होंने महसूस किया कि धर्मनिरपेक्षता ही बेहतर है.
ऐसी बात नहीं कि भारतीय मुसलमानों का पूंजीवादीकरण हो गया है और उस स्थिति पर खड़ा होकर वे धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे हैं. उनके धार्मिक विश्वास एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा के खिलाफ जाते हैं. लेकिन ठोस भारतीय स्थितियों ने उन्हें धर्मनिरपेक्षता की हिमायत करने को प्रेरित किया.
दूसरे, मुसलमानों का वामपंथ के साथ एक दोस्ताना संबंध भी विकसित हुआ है वे चुनावों की खातिर इस या उस बुर्जुआ पार्टी में रह सकते हैं, लेकिन आमतौर पर यह भावना उभरी है कि वामपंथी लोग सच्चे मायने में धर्मनिरपेक्ष होते हैं. पहले मुसलमानों का एक हिस्सा वामपंथ के साथ था, वे प्रगतिशील थे, कम्युनिस्ट थे. अनेक महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट मुसलमान थे और बहुतेरे मुस्लिम मजदूर एक वर्ग के बतौर शामिल हुए. फिर प्रगतिशील बुद्धिजीवी थे, अनके प्रगतिशील सांस्कृतिकर्मी थे. लेकिन समग्रतः एक समुदाय के लिए वामपंथ के प्रति यह सकारात्मक रुख एक नई चीज है. पहले भावना पाकिस्तान के पक्ष में काफी ज्यादा रहती थी. लेकिन अब देश के पुनर्विभाजन की कोई आकांक्षा नहीं है.
तो, ये सब बदलाव हुए. मुसलमानों पर एक समुदाय के बतौर हमला हो रहा था, फिर धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनका समर्थन हुआ और वामपंथ के प्रति एक दोस्ताना रिश्ता बना.
हम चाहते थे कि रिश्ता मजबूत बने. लेकिन इसे सांगठनिक स्वरूप कैसे दिया जाए, संस्थाबद्ध आकार कैसे दिया जाए? कुल मिलाकर यही वह विचार था जिसने इंकलाबी मुस्लिम कांफ्रेंस को जन्म दिया. समुदाय का पहलू और इंकलाबी पहलू – दोनों पर गौर करना जरूरी था. इसके पीछे खयाल यह नहीं था कि मुस्लिम पृथकता को मजबूत किया जाए, बल्कि यह था कि भाजपा आदि के खिलाफ मुस्लिम हित को कैसे साफ-साफ रखा जाए. मुस्लिम समुदाय के अंदर से सामाजिक बदलाव संगठित करने को ज्यादा महत्व दिया गया. इसलिए, इंकलाबी, भाजपा के खिलाफ इंकलाबी नहीं है, वह समुदाय के अंदर इंकलाबी है. यही वजह है कि हमने मुस्लिम महिलाओं की स्थिति का सवाल उठाने पर इतना ज्यादा जोर दिया. यह एक ऐसा सवाल था जो समुदाय के अंदर से उभरा था.