(लिबरेशन, जनवरी 1984 से)
अबतक यह सुविदित हो चुका है कि राष्ट्रीय पैमाने पर जनमोर्चे के निर्माण से संबंधित हमारी पार्टी लाइन को विलोपवादी और अराजकतावादी दोनों ही दृष्टिबिंदुओं के समान रूप से तीखे आक्रमण का सामना करना पड़ा रहा है. विलोपवादी दृष्टिबिंदु से इसका विरोध इस आधार पर किया जाता है कि यह मोर्चा इंदिरा गांधी द्वारा अमल में लाए जा रहे सर्वसत्तावाद/फासीवाद को चुनौती देने के अपने प्रयत्न में, दलाल बुर्जुआ के हिस्सों और संसदीय विपक्ष को अपने दायरे से बाहर ही रखना है; जबकि अराजकतावादी दृष्टिबिंदु वाले लोग, पुराने राज्य यंत्र को मटियामेट कर देने की ‘बुनियादी लाइन’ का झंड़ा बुलंद रखने के नाम पर अपने-आप में किसी भी राजनीतिक मोर्चे के निर्माण का ही विरोध करते हैं. मोर्चे के निर्माण के विचार का विरोध करने के क्रम में एक ही बिंदु पर पहुंचनेवाले इन दो ‘अतिवादी’ दृष्टिबिंदुओं के उदाहरण कुछ कम नहीं हैं. यहां हम एक पार्टी अंश सेंट्रल आर्गेनाइजिंग कमेटी (पार्टी यूनिटी) द्वारा उसके मुखपत्र ‘पार्टी-यूनिटी’ (अगस्त 1983 अंक) में की गई हमारी पार्टी लाइन की आलोचना पर विचार करेंगे. हम समझते हैं कि उनकी आलोचना अराजकतावादी दृष्टिबंदु से पैदा हुई है और हमें उम्मीद है कि उसकी आलोचनात्मक समीक्षा की प्रक्रिया में, जनमोर्चे के निर्माण का मार्गदर्शन करनेवाली सैद्धांतिक प्रस्थापनाओं की और विशद व्याख्या की जा सकेगी.
सीओसी-पीयू यह दावा करती है कि वह संकीर्ण स्थानीयतावाद से ऊपर उठ चुकी है, तथा वह इस बात से सहमत है कि राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक चरित्रवाले जनवादी जन आंदोलनों में जनसमुदाय को संगठित करने और नेतृत्व देने के लिए अस्थायी स्वरूप वाले विभिन्न राष्ट्रीय फोरमों का निर्माण किया जा सकता है और किया जाना चाहिए. (जोर हमारी तरफ से)
एक निश्चित हद तक वर्ग संघर्ष तीव्र हो जाने के बाद और जनता के जनवादी मोर्चे (पीडीएफ यानी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट) के लिए आवश्यक स्थितियां हासिल हो जाने पर ‘इन राष्ट्रीय फोरमों का क्या होगा’ – यह सवाल अनुत्तरित ही रह जाता है.
आइए, आगे बढ़ें. पीडीएफ ‘एक क्रांतिकारी कार्यक्रम के साथ संघर्ष के मुख्य रूप के बतौर हथियारबंद संघर्ष को लेकर कालक्रम में पैदा होता है’ तथा आगे वह ‘राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक संघर्षों का नेतृत्व करने के लिए एक फोरम के रूप में भी काम कर सकता है.’
पीडीएफ के निर्माण के सवाल पर सीओसी-पीयू का दावा है कि उन्होंने 1970 के दशक में अख्तियार की गई पार्टी लाइन का दो मामलों में शुद्धीकरण किया है. अव्वल तो उन्होंने ‘कम से कम देश के कुछेक इलाकों में लाल राजनीतिक सत्ता’ की कठोर शर्त को खारिज कर दिया है और उसकी जगह पर ‘देहातो में हथियारबंद संघर्ष के विस्तृत इलाके, जो हालांकि मुक्तांचल नहीं भी हो सकते हैं’ – की शर्त को ला बिठाया है. केवल परलोक के प्राणी ही इन दो शर्तों के बीच का फर्क समझ सकते हैं. अगर हमारे पास ‘हथियारबंद संघर्ष के विस्तृत इलाके’ मौजूद हैं, तो क्या यह कत्तई स्वाभाविक नहीं है कि उनमें से कुछ इलाके लाल क्षेत्रों में तब्दील हो जाएंगे, अथवा दूसरे शब्दों में कहिए तो, कुछेक लाल क्षेत्रों का विकास किए बिना क्या हथियारबंद संघर्ष को विस्तृत इलाकों तक फैलाना किसी भी तरह संभव है?
दूसरे, वे 1970 के दशक की पार्टी लाइन में प्रतिपादित ‘संकीर्ण नीति’ के विपरीत, संयुक्त मोर्चे की एक ‘सुविस्तृत नीति’ की वकालत करते हैं. इस सुविस्तार को इस तरह परिभाषित किया गया है; “एस्मा, एनएसए, प्रेस बिल, मूल्यवृद्धि, साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा थोपी गई अपमानपूर्ण शर्तों के सामने आत्मसमर्पण आदि के खिलाफ संघर्ष करने के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियों व शक्तियों के साथ, जिनमें संसदीय विपक्ष के खेमे से संबंधित पार्टियां व शक्तियां भी शामिल हों, एकताबद्ध होना.”
सारांश यह कि या तो आप राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक चरित्रवाले जनवादी जन आंदोलनों को संगठित करने और उन्हें नेतृत्व देने के लिए संसदीय विपक्ष को शामिल करते हुए राष्ट्रीय फोरमों का गठन करें, या फिर, हथियारबंद संघर्ष के विस्तृत इलाकों को आधार के रूप में लेकर पीडीएफ का निर्माण करें.
जहां तक पीडीएफ का ताल्लुक है, उनकी अपनी ही स्वीकृति के अनुसार, स्थितियां अभी तक परिपक्व नहीं हुई हैं और कोई व्यक्ति बिना किसी जोखिम के यह अंदाज लगा सकता है कि कम-से-कम निकट भविष्य में इनके परिपक्व होने की संभावना भी नहीं है. अब हमारी पार्टी ने ‘स्थितियां परिपक्व नहीं हुई हैं’ के बहाने स्तवःस्फूर्तता की पूजा करने से एकदम इनकार कर दिया है. उसने आर्थिक चरित्रवाले जनवादी जन आंदोलनों का नेतृत्व करने के लिए राष्ट्रीय फोरम के निर्माण से ही संतुष्ट हो जाने से भी इनकार कर दिया है. मूल बात यह है कि यद्यपि हमारे पास हथियारबंद संघर्ष के विस्तृत इलाकों का अभाव है, लेकिन हमने देश के विभिन्न भागों में कृषक प्रतिरोध के संघर्ष के कुछेक इलाके जरूर कायम किए हैं तथा भारतीय जनता के अनेक तबकों पर हमने भारी विचारधारात्मक व राजनीतिक प्रभाव डाला है. अगर हम, भारत की क्रांतिकारी व जनवादी शक्तियां, एकजुट होने का फैसला करें और राजनीतिक कार्यवाही का एक तत्काल आवश्यक कार्यक्रम सूत्रबद्ध करें तो हम सचमुच एक महत्वपूर्ण शक्ति बन सकते हैं. हम संशोधनवादियों सहित संसदीय विपक्ष को जनवादी संघर्षों की मुख्यधारा से अलगाव में डालने के लिए कारगर प्रयास चला सकते हैं; हम आम जनवादी आंदोलन पर एक क्रांतिकारी जनवादी छाप छोड़ सकते हैं; हम राष्ट्रीय राजनीति के ज्वलंत सवालों पर अपने वैकल्पिक विचार जोरदार ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं; और इस तरह हम पीडीएफ के निर्माण की दिशा में एक कदम बढ़ा सकते हैं. ध्यान दीजिए, पीडीएफ की दिशा में एक कदम, न कि खुद पीडीएफ! पीडीएफ का निर्माण करना एक प्रक्रिया है और फिलहाल हमारे पास जो कुछ साधन-स्रोत उपलब्ध हैं उन्हें लेकर, आइए, उस लक्ष्य की ओर पहला कदम बढ़ाएं. इस एक कदम को महज राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक चरित्रवाले जन आंदोलनों से ही संबंध नहीं रहना चाहिए. बल्कि इसे जनसमुदाय की स्वतंत्र राजनीतिक गोलबंदी और राष्ट्रव्यापी राजनीतिक संघर्षों पर जोर देना चाहिए.
अतीत से सीखते हुए और वर्तमान में जीते हुए, हमारी पार्टी ने भविष्य में एक कदम आगे बढ़ाने का फैसला लिया है और इसी एक कदम ने तमाम विवादों को जन्म दिया है. और, पीडीएफ के बारे में सारी लफ्फाजी के बावजूद, वर्तमान वास्तविक जीवन में कोई भी व्यक्ति बखूबी चिह्नित कर सकता है कि निरंकुशता विरोधी राजनीतिक पहलकदमी को बुर्जुआ विपक्ष के हवाले करके तथा राष्ट्रीय पैमाने पर आंशिक चरित्रवाले जनवादी जन-आंदोलनों को संगठित करने व उन्हें नेतृत्व देने के लिए संसदीय विपक्ष के साथ राष्ट्रीय स्तर के फोरमों के निर्माण से ही संतुष्ट होकर, विलोपवादी और अराजकतावादी दृष्टिकोण एक ही बिंदु पर मिल गए हैं.
हम जिस जनमोर्चे की धारणा प्रस्तुत करते हैं, उसकी शक्तियां सिर्फ नवजनवाद के सामाजिक आधार से ही आएंगी. यह उसूल का सवाल है. देशभक्ति और राष्ट्रीय एकता की पताका बड़े बुर्जुआ व बड़े जोतदारों की गिरफ्त से जनसमुदाय को छुड़ाकर अपने पक्ष में जीत लेने तथा जागृत जोतदारों और कुछ बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का भी समर्थन हासिल करने में मोर्चे की मदद ही करेगी.
बहरहाल बुर्जुआ और संशोधनवादी विपक्ष की पार्टियों और जनसंगठनों के साथ मुद्दा आधारित संयुक्त कार्यवाहियों से कभी भी इनकार नहीं किया जा सकता. ये कार्यवाहियां किन रूपों में स्वीकार होंगी; उन पार्टियों व संगठनों के अंतरविरोधों का कैसे इस्तेमाल किया जा सकेगा. उनके बीच कौन-सी दरारें डाली जा सकती हैं; कालांतर में अपेक्षाकृत छोटी पार्टियों और खास-खास व्यक्तिगत नेताओं की स्थिति में क्या-क्या परिवर्तन घटित होंगे – ये तमाम चीजें मार्चो द्वारा इनके संबंध में अख्तियार की जानेवाली कार्यनीतियों के जरिए ही तय होंगी. इस सिलसिले में हमारा अनुभव बहुत कम है और यह स्पष्ट है कि कुछ गलतियां भी होंगी. हमें उन गलतियों से सीखना होगा और अपनी नीतियों को पूर्ण करते जाना होगा.
नक्सलबाड़ी के समय से किसान संघर्षों के इतिहास की समीक्षा करते हुए, हम पाते हैं कि हथियारबंद किसान संघर्ष – चाहे नक्सलबाड़ी में हों या श्रीकाकुलाम में या बीरभूम में – एक या दो वर्षों से ज्यादा नहीं टिक सके. और 1976 तक शायद बिहार के भोजपुर को छोड़कर बाकी तमाम जगह किसान संघर्ष के इलाके को धक्कों का सामना करना पड़ा. केवल 1977के बाद ही, ऐसे इलाके विकसित करने के प्रयास नए सिरे से शुरू किए जा सके और पार्टी लाइन में संयोजनों की बदौलत किसान संघर्ष के इलाके अब अपेक्षाकृत लंबी अवधि तक टिके हुए हैं. बिहार की पटना-गया-भोजपुर पट्टी में किसी जगह अग्रगति के साथ और किसी जगह पीछे हटकर, कृषक प्रतिरोध संघर्षों को बरकरार रखा गया है; खासकर पटना-गया-नालंदा अंचल के किसान उभार ने हाल के वर्षों में अभूतपूर्व रूप धारण कर लिया है. ऐसे प्रयास हमारे द्वारा और अन्य पार्टी अंशों द्वारा भी देश के अन्य अनेक भागों में चलाए जा रहे हैं तथा इस लिहाज से महत्वपूर्ण सफलताएं भी प्राप्त हुई हैं.
फिर भी, बिहार के किसान संघर्ष के सर्वाधिक आगे बढ़े हुए इलाकों में भी, आप निकट भविष्य में उन इलाकों को आधार क्षेत्रों में तब्दील करने की कोशिश नहीं चला सकते. मध्यम व उच्च मध्यम तबकों के बड़े हिस्सों को जीत लेने के उद्देश्य से जातीय पूर्वाग्रहों पर विजय पाने के मामले में हम अभी तक कोई महत्वपूर्ण गतिरोध भंग नहीं कर सके हैं. हथियारबंद संघर्ष को उच्चतर अवस्था तक उठाने और आधार क्षेत्रों के निर्माण का कार्यभार हाथ में लेने से पहले हमें जनसमुदाय को राजनीतिक रूप से गोलबंद करने तथा वर्गीय व सामाजिक संतुलन को अपने पक्ष में करने के लिहाज से भी एक लंबा रास्ता तय करना है. यहां, इस बात को नोट करना उत्साहवर्द्धक होगा कि जहानाबाद में सीओसी(पीयू) ग्रुप के साथियों ने अपनी कुछेक बेहूदी धारणाओं से अपना पिंड छुड़ाने का निश्चय किया है और वे कुछ व्यावहारिक निष्कर्षों तक आ पहुंचे हैं. “पार्टी-युनिटी” के अक्टूबर 1982 अंक में प्रकाशित उनके एक सार-संकलन के अनुसार “हथियारबंद कार्यवाहियों के स्वरूप व स्तर को जनआंदोलनों को आगे बढ़ाने में सहायक होना चाहिए” और “फिलहाल आमतौर से आंदोलन आंशिक मुद्दों पर खड़ा किया जा रहा है. इसलिए इस मंजिल पर, कानूनी अवसरों का लाभ उठाते हुए तथा दुश्मन के खेमे में मौजूद विभिन्न अंतरविरोधों का दक्षतापूर्वक इस्तेमाल करते हुए व्यापक जनसमुदाय को गोलबंद करना निहायत जरूरी है.” अतः जहां तक और भी व्यापक क्षेत्रों तथा हथियारबंद संघर्ष के विस्तार का, अथवा दूसरे शब्दों में लाल क्षेत्रों के निर्माण की ओर निर्णायक कदम उठाने का सवाल है, वर्तमान समय तथा आनेवाले एक लंबे समय तक के लिए भी मांग यही है कि अपनी शक्तियों को सुरक्षित रखा जाए और संघर्ष के इलाकों में अपने पक्ष में वर्ग शक्तियों के संतुलन को बदलने में एक बड़े गतिरोध-भंग को अंजाम दिया जाए. यही एक बिंदु है जिस पर तमाम उकसावेबाजियों के बावजूद निशीथ-अजीजुल के रास्ते पर चलने से इनकार करनेवाले भारत के सभी गंभीर क्रांतिकारी समान विचार रखते थे.
बहरहाल, यह अनुभूति ही अपने-आप में काफी नहीं है. आधार क्षेत्रों के निर्माण या और भी व्यापक इलाकों तक हथियारबंद संघर्ष के विस्तार के लिए एक अनुकूल राष्ट्रीय परिस्थिति भी आपेक्षित है. चीन में जैसा कि अध्यक्ष माओ ने बताया था, शासक बर्गों के विभिन्न हिस्सों के बीच लगातार जारी संघर्षों और युद्ध ने लाल क्षेत्रों की मौजूदगी व विकास के लिए आधारभूत स्थिति मुहैया की थी. भारत में स्थितियां भिन्न हैं.
एक केंद्रीय औपनिवेशिक राज्य-तंत्र को विरासत में पाने के चलते भारतीय शासक वर्ग संसद के जरिए कुल मिलाकर अपने अंतरविरोधों को सीमा के अंदर रखने में सक्षम रहे हैं. सार्विक मताधिकार और बुर्जुआ जनवाद की औपचारिक संस्थाएं भी जन-विद्रोहों पर शमनकारी प्रभाव डालती हैं और सामाजिक जनवाद की पैदाइश के लिए उर्वर भूमि मुहैया करती हैं. विद्यमान राजनीतिक प्रणाली में समय-समय पर तीखे दबाव व तनाव पैदा होते रहे हैं और क्रांतिकारी व जनवादी शक्तियों ने ऐसी परिस्थिति का इस्तेमाल करने के लिए कदम बढ़ाया है. मौजूदा दौर में, शासक वर्गों के कतिपय हिस्सों के बीच संघात बढ़ रहे हैं. नई सामाजिक शक्तियां शक्ति संरचना में नए संतुलन की मांग कर रही हैं, पृथकतावाद के खिलाफ और राष्ट्रीय अखंडता के लिए चीख-पुकार मची है, राष्ट्रीय पार्टियों के आमने-सामने आंचलिकतावादी पार्टियां अपनी दावेदारी पेश कर रही हैं, और सांप्रदायिक व धार्मिक तनाव विकसित हो रहे हैं. विद्यमान संस्थाओं के ढांचे के अंदर विरोधों पर काबू रखना उत्तरोत्तर नामुमकिन होता जा रहा है तथा केंद्र-राज्य संबंध, राजसत्ता के एकात्मक बनाम संघीय चरित्र, अध्यक्षीय प्रणाली की सरकार की ओर संक्रमण आदि सवालों पर छिड़े हुए विवाद राजनीतिक संकट की विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं जो संवैधानिक संकट के रूप में आकार ग्रहण करती जा रही हैं.
बढ़ते हुए राजनीतिक संकट के इस दौर में निष्क्रिय प्रेक्षक बने रहने के बजाए, तीसरी पार्टी कांग्रेस ने क्रांति के पक्ष में सामाजिक शक्तियों के संतुलन को परिवर्तित करने के लिए राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में सक्रियतापूर्वक हस्तक्षेप करने का दृढ़ निश्चय किया तथा एक जनमोर्चे के निर्माण का विचार प्रतिपादित किया.
सीओसी(पीयू) के कामरेड इस बात से सहमत हैं कि पार्टी-कांग्रेस की रिपोर्ट में विवेचित दो धाराएं – किसान समुदाय के प्रतिरोध संघर्ष और भारतीय जनता के विभिन्न तबकों के जनवादी आंदोलन – समकालीन भारत में समानांतर रूप से चल रहे हैं. लेकिन जब पार्टी-कांग्रेस द्वारा यह घोषणा की जाती है कि इन दो धाराओं को अनिवार्यतः समन्वित किया जाना चाहिए, तो वे असहमत हो जाते हैं. अब, इस समन्वय का तात्पर्य क्या है? देहाती इलाकों में आधार क्षेत्रों का निर्माण हमारी पार्टी का केंद्रीय कार्यभार है और इस मामले में पार्टी एक पल के लिए भी अपने प्रयत्नों को हरगिज शिथिल नहीं होने देगी और जनमोर्चे को ठीक इसी कार्यभार को धुरी बनाकर चलना होगा. राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मोर्चे का निर्माण आधार क्षेत्रों के निर्माण से भटकाव नहीं है, बल्कि इसके विपरीत भारत की मौजूदा ठोस स्थितियों के अंतर्गत जनमोर्चे के जरिए एक चक्करदार मार्ग अख्तियार करना ही आधार क्षेत्रों के निर्माण को आगे बढ़ाने के लिए शायद एकमात्र रास्ता है.
जनमोर्चा अपने दूरगामी कार्यक्रम में निश्चित रूप से नव जनवाद के कार्यक्रम को समाविष्ट करता है (बशर्ते कि आपके पास बस इस चीज को देख पाने का पर्याप्त धैर्य हो और आप सिर्फ प्रामाणिक पठन के बाद ही आलोचना में उतरने का उसूल बना लें). मोर्चा ने गैर-संसदीय संघर्षों को संघर्ष का मुख्य रूप घोषित किया है और इसमें निश्चय ही हथियारबंद संघर्ष शामिल है. बहरहाल, चूंकि उसे अपनी यात्रा की शुरूआत अपने इर्द-गिर्द मौजूद स्थितियों में ही करनी है – उन स्थितियों में जो कि आपकी अपनी स्वीकृति के अनुसार परिपक्व नहीं हुई हैं. इसलिए फिलहाल उसे तात्कालिक राजनीतिक व आर्थिक सुधारों की खातिर राजनीतिक गोलबंदी पर जोर देना होगा, सरकारी रियायतों और उन्हें मुहैया करने के ऊपरी तौर से जनवादी मालूम पड़ने वाले रूपों के पाखंड के पर्दाफाश पर ध्यान केंद्रित करना होगा और यह घोषणा करनी होगी कि मोर्चा अपनी ओर से संघर्ष के शांतिपूर्ण तौर-तरीकों को ही प्राथमिकता देगा, लेकिन जन आंदोलन अंतिम रूप में कौन-सा रास्ता अख्तियार करेंगे – यह उन आंदोलनों के प्रति सरकार के रुख पर निर्भर करेगा. राष्ट्रीय पैमाने पर वर्ग शक्तियों के पारस्परिक संबंध से मोर्चा द्वारा पैदा किया गया कोई भी स्थानांतरण आधार क्षेत्रों के निर्माण के संघर्ष को एक नया आवेग प्रदान करेगा और बदली हुई स्थितियां अपनी बारी में मोर्चा से यह मांग करेंगी कि वह अपने अधिकतम कार्यक्रम पर ज्यादा से ज्यादा जोर डाले और उसे पूरा करने के लिए पुराने राज्य-यंत्र को चकनाचूर करने के मकसद से विद्रोहों एवं सशस्त्र संघर्षों का नेतृत्व करने की हद तक जुझारू उपाय अख्तियार करे. इस प्रक्रिया में जनमोर्चा खुद को सर्वांगीण रूप से जनता के जनवादी मोर्चे में रूपांतरित कर लेगा. हमारी पार्टी कांग्रेस के अनुसार मोर्चे की बुनियादी दिशा यही होगी.
यही है विषय का सारमर्म, जिसे कुछ लोग – अपने अतीत का शिकार होने के चलते – समझने से कत्तई इनकार कर देते हैं.
हमारे पार्टी कार्यक्रम में ‘संसदीय संघर्ष’ शब्द के समावेश पर सीओसी(पीयू) के आलोचक महानुभाव ने अत्यंत उग्र आक्रमण किया है और यह भविष्यवाणी की गई है कि हमारी पार्टी निश्चित रूप से ‘संसदवाद के दलदल में डूब जाएगी.’ खैर, भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास पतन के ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है. और इस सिलसिले में, अगर जनता के मन में हमारी पार्टी के प्रति कोई आशंका है, तो इसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता तथा एक खास अर्थ में भी ऐसी आशंका है. लेकिन तब ऐसे खतरे को दूर कैसे किया जाए? व्यापक पैमाने पर छापामार कार्रवाइयों की ओर वापस लौटकर और रातोंरात क्रांतिकारी सरकारों की स्थापना करके? महादेव मुखर्जी ने चौतरफा छापामार कार्रवाइयां चलाई थीं और निशीथ ग्रुप में क्रांतिकारी सरकार बनाई थी -- फिर भी, इन चीजों ने महज बदतरीन किस्म के अवसरवाद के दलदल में उनके डूबने की गति ही तो बढ़ा दी. हम अतीत के गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ना चाहते, मगर यह एकदम जानी-पहचानी बात है कि आपकी हमदर्दी हमारे खिलाफ उपरोक्त सज्जनों के साथ है.
1970 के दशक में हमने ‘चुनाव बहिष्कार’ की महान पताका बुलंद की तथा परिणामतः हम सशस्त्र संघर्ष के विकास और लाल क्षेत्रों के निर्माण में संलग्न हो गए. उस विराट उभार ने, 1947 के बाद भारत में पहली बार, हमारे तथाकथित बुर्जुआ जनवाद की हर एक विद्यमान संस्था को उग्र चुनौती दी और जनसत्ता के वैकल्पिक केंद्र विकसित करने के लिए जोरदार प्रयास चलाए. यहां निहित है उस विराट उभार का महान महत्व और यह चीज ‘चुनाव बहिष्कार’ के नारे के बगैर कभी भी संभव नहीं हो सकती थी. इतिहास का यह हिस्सा हमारी पार्टी और शहीदों की गौरवशाली परंपरा का गवाह है और हमने इस परंपरा को हमेशा बुलंद रखा है – हमारी इस कार्रवाई ने उन गद्दारों को काफी संताप पहुंचाया है जो अतीत की गलतियों को सुधारने के नाम पर हमारी पार्टी की महान विरासत को कलंकित करते हैं.
बहरहाल, हमारी क्रांति को पराजय का सामना करना पड़ा और हम तमाम लोगों को, जिस समाज में हम रह रहे थे उनकी संस्थाओं के साथ तालमेल कायम करने पड़े. अब, हममें से कुछ लोग धक्के के प्रथम संकेतों को देखते ही तालमेल बिठाने के लिए दौड़ पड़े, उन्होंने क्रांतिकारी परंपराओं के नाम पर धब्बा लगाया, क्रांतिकारी शहीदों को अपमानित किया और यहां तक कि सीपीआई(एमएल) के महान लाल झंडे को उतार फेंका. वे लोग गद्दार हैं जो दुश्मन के समाने आत्मसमर्पण करने के लिए निर्लज्जतापूर्वक घुटने के बल रेंगने लगे. ‘गलतियों को सुधारने तथा उन्हें पूरी तरह और सर्वांगीण रूप से सुधारने में प्रथम’ होने के उनके तमाम दावों के बावजूद, हम सही तौर पर उनसे घृणा करते हैं. कुछ अन्य लोग हैं – ऐसे क्रांतिकारी जिन्होंने अंतिम दम तक संघर्ष किया, दुश्मन के सामने कभी भी आत्मसमर्पण नहीं किया, और लड़ते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. ये क्रांतिकारी अब खुद को भिन्न स्थितियों में पाते हैं और उन्हें समाज की विद्यमान संस्थाओं के साथ तालमेल बिठाने को बाध्य होना पड़ा रहा है. वे अब अपनी खोई हुई शक्तियों को पुनः गोलबंद कर रहे हैं और अंतिम आक्रमण के लिये इंतजार कर रहे हैं, वे यह काम हिचकिचाते हुए और कदम-ब-कदम कर रहे हैं और इसके लिए उन्हें विभिन्न खेमों के, जिनमें आपका खेमा भी शामिल है, कम उपहास का सामना नहीं करना पड़ता. उनकी वर्तमान कार्यनीतियां उनकी पुरानी कार्यनीतियों का जारी रूप और तार्किक विकास हैं.
संसद संबंधी हमारी कार्यनीति को संसद के चरित्र के आधार पर, यानी इस आधार पर निर्धारित करना कि संसद अर्ध-औपनिवेशिक है या स्वतंत्र बुर्जुआ देशों जैसी संसद है, बेकार की सैद्धांतिक कसरत है. आपकी संसद अर्ध-औपनिवेशिक है इस कारण संसद का भंडाफोड़ करने और उसे ध्वस्त करने से संबंधित आपका कार्यभार कत्तई कम महत्वपूर्ण नहीं हो जाता और खासकर इसलिए भी कि ऐसी संसद संशोधनवाद के विकास के लिए अनुकूल आत्मगत परिस्थिति मुहैया करती है. संसद के प्रति हमारी कार्यनीति का निर्धारण सिर्फ उभार की स्थितियों की उपस्थिति या अनुपस्थिति के आधार पर ही किया जा सकता है.
संसद के प्रति मार्क्सवादी रुख का सवाल बुनियादी तौर से एक कार्यनीतिक सवाल है. किसी अर्ध-औपनिवेशिक देश में इस सवाल को रणनीतिक आयाम से युक्त मान लिया गया है, जहां कल्पना की गई है कि तात्कालिक क्रांतिकारी परिस्थिति हमेशा मौजूद रहती है, जो कम्युनिस्टों को आधार क्षेत्रों के निर्माण में सक्षम बनाती है. बहरहाल, यह बात दिमाग में बिठा लेनी चाहिए कि चीनी क्रांति के बाद, न केवल क्रांतिकारियों ने बल्कि विश्व-साम्राज्यवाद ने भी सबक सीखे हैं. साम्राज्यवाद ने भारत को अपना शो-केस और प्रयोगशाला दोनों बना लिया है. भारतीय परिस्थिति की विशिष्टताओं से जुड़कर, साम्राज्यवाद के षड्यंत्र और समाजवादी रूस के सामाजिक-साम्राज्यवाद में पतन सहित अन्य अनेक कारकों ने संसद व इस तरह की अन्य संस्थाओं को तीसरी दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा भारत में ज्यादा लंबे समय तक बरकरार रहने की स्थिति में पहुंचा दिया है. बहरहाल, बुनियादी रास्ता मूलतः समान होते हुए भी अपनी बहुतेरी विशिष्ट कार्यनीतियों के लिहाज से भारतीय क्रांति चीनी क्रांति की नकल नहीं हो सकती, इसका एकमात्र सीधा-सादा कारण यह है कि हम 1980 के दशक के भारत में क्रांति कर रहे है, न कि 1940 के दशक के चीन में. इन तमाम कारकों पर और खासकर मौजूदा परिस्थिति पर, जिसके बारे में तमाम गंभीर क्रांतिकारी सहमत हैं कि वह तुरंत लाल क्षेत्रों के निर्माण के लिए चौतरफा प्रयास चलाने की परिस्थिति में नहीं हैं, विचार करते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि हम चुनाव संबंधी अपनी कार्यनीति पर पुनर्विचार करें. कम-से-कम, उसूली तौर पर तो इसे कार्यनीतिक सवाल मान ही लिया जाना चाहिए, बहरहाल, वास्तविक परिस्थिति के साथ संगतिपूर्ण ढंग से अपनी आम कार्यनीति को पुनर्संयोजित करते हुए हमें चाहिए कि चुनावों के प्रति विशिष्ट कार्यनीति तय करें. इस सिलसिले में, पश्चिमी संसद से वैषम्यपूर्ण भिन्नता रखने वाली भारतीय संसद की विशिष्ट किस्म को उचित महत्व देना लाजिमी है. चुनाव के मुद्दे को एक कार्यनीतिक सवाल के रूप में मान्यता देने का मतलब यह नहीं है कि तुरंत और हर जगह चुनाव के लिए भागदौड़ शुरू कर दी जाए तथा तमाम किस्म के गैर-उसूली समझौतों में मशगूल हुआ जाए. इस संदर्भ में अपने नकारात्मक उदाहरण से पीसीसी एक अच्छे शिक्षक की भूमिका निभाती है. नीति में संयोजन का मतलब क्रांतिकारी संघर्षों का परित्याग करना तथा पश्चिमी देशों की तरह, संसद के अंदर कार्य की नीति का अनुसरण करना और काफी लंबे समय तक राष्ट्रव्यापी विद्रोह के लिए तैयारी करते रहना, नहीं है.
सामयिक तौर पर, जब अपने पास न तो जनसत्ता का वैकल्पिक माडल हो और नहीं आप तत्काल उसके लिए काम शुरू कर सकते हों, तब यदि आपको जनता की राजनीतिक चेतना को सत्ता दखल की राजनीति आत्मसात करने की हद तक उन्नत करना है तो नकारात्मक रास्ता भी अख्तियार करना पड़ सकता है और सिर्फ अपने जोखिम पर ही आप इस नकारात्मक रास्ते की उपेक्षा कर सकते हैं. आपके प्रतिनिधि दुश्मन की संसद में जाते हैं तथा उसके अंदर उनके भाषणों से और बाहर अन्य प्रचार कार्य के जरिए आप संसद का भंडाफोड़ करते हैं; यानी, जनसमुदाय के सामने यह स्पष्ट करते हैं कि शासक वर्गों का कौन-सा विशिष्ट गठजोड़ संसद के जरिए शासन चलाता है और किस तरह चलाता है. यह कार्यभार बाहर से बखूबी संपादित किया जा सकता है. फिर भी, अगर इसे उचित तरीके से संगठित किया जाए, तो अंदर से कम्युनिस्ट प्रतिनिधियों का कार्य भंडाफोड़ अभियान को विशेष रूप से पैना बना सकता है.
आप चुनाव-बहिष्कार का आह्वान बखूबी पेश कर सकते हैं, मगर यह आपसे तुरंत हथियारबंद संघर्ष के लिए, आधार क्षेत्रों के निर्माण के लिए चौतरफा प्रयास शुरू करने की मांग करता है. सिद्धांत में, आप अपने कल्पनालोक में विहार कर सकते हैं, लेकिन व्यावहारिक राजनीति में बीच का कोई रास्ता नहीं होता. अगर आप एक ओर जनता का चुनाव बहिष्कार करने के लिए आह्वान करते हैं और दूसरी ओर आंदोलन की मंजिल को आंशिक संघर्षों (चाहे वे जिस पैमाने पर हों) की मंजिल के रूप में चित्रित करते हैं तो आप निरे कुतर्कों के जाल में फंसकर अपने-आपको धोखा दे रहे हैं और इस मामले में आपका बहिष्कार-आह्वान महज निष्क्रिय आह्वान बनकर रह जाएगा और तमाम व्यावहारिक उद्देश्यों के लिहाज से, यह जनता को किसी न किसी बुर्जुआ पार्टी का अनुसरण करने के लिए विवश कर देगा.
कृषक प्रतिरोध संघर्ष के इलाकों के विकास पर अपनी शक्ति केंद्रित करनेवाली एक भूमिगत पार्टी, संघर्ष के मुख्य रूप के बतौर गैर-संसदीय रूप पर जोर डालने वाला एक जनमोर्चा, सरकार के रियायत व सुधार संबंधी कदमों के पीछे वास्तविक अभिप्रायों का भंडाफोड़ करने के एकमात्र उद्देश्य से ही चुनाव अभियानों का इस्तेमाल, चुनाव में तमाम किस्मों की भागीदारियों को जन आंदोलनों के विकास और जन-पहलकदमी खोलन के उद्देश्य के अधीन रखना – ये हैं वे स्थितियों जो संसदवाद के दलदल में किसी पार्टी के पतन को रोक सकती हैं. और कोई सरल-सुगम रास्ता नहीं है तथा वाम लफ्फाजी केवल इस पतन की गति को ही तेज करेगी.
महज ‘बुनियादी रास्ते’ का दुहराव आपको लक्ष्य के पास तक नहीं फटकने देगा. यह नए प्रयोगों का काल है और कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के बीच का स्वस्थ वाद-विवाद और वास्तविक अग्रगति ही आपके नाम के अनुरूप सच्ची पार्टी-युनिटी (पार्टी एकता) के लिए मार्ग प्रशस्त करेगी.
सीओसी(पीयू) के आदरणीय नेताओं! जब पटरियां बाढ़ के जल में डूब गई हों तो कभी-कभी उत्तर की ओर जाने के लिए आपको एक खास स्थान तक दक्षिण की ओर जाने वाली ट्रेन पर सवार होने को बाध्य होना पड़ता है. हमें नहीं मालूम की वाम लफ्फाजी और वामपंथी दिखावा (सीओसी-पीयू के आलोचक ने हम पर वामपंथी दिखावे का आरोप लगाया है, लेकिन हमें वाम लफ्फाजी के दोष से मुक्त बताया है) के बीच कोई गंभीर फर्क है या नहीं. अगर है, तो आप दोनों के ही दोषी हैं.