(जून 1994 के केंद्रीय पार्टी स्कूल में उदघाटन भाषण)
प्रिय कामरेडो,
केंद्रीय पार्टी स्कूल में मैं आप सबों का स्वागत करता हूं जैसा कि आप सबों को मालूम है, हमारी पार्टी ने इतने वर्षों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के समग्र व रचनात्मक अध्ययन की आदत विकसित की है, और 1980 के दशक में लगातार भूमिगत स्थितियों में काम करते हुए भी हमने केंद्रीय स्तर से लेकर जमीनी स्तर तक पार्टी स्कूलों का आयोजन किया. इस स्कूलों में शास्त्रीय मार्क्सवादी ग्रंथों के साथ-साथ भारत की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का भी अध्ययन किया जाता था. यह हमारी पार्टी के हाथों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की सार्वभौम सच्चाई को भारत की ठोस स्थितियों के साथ मिलाने का और इस प्रकार पार्टी लाइन को समृद्ध करके समूची पार्टी को उसके गिर्द एकतावद्ध करने का एक महत्वपूर्ण हथियार रहा है. हमारी पार्टी द्वारा किए जा रहे जबर्दस्त विचारधारात्मक-सैद्धांतिक कार्य के इस पहलू को हमारी पार्टी के बाहर के लोग नहीं जानते हैं. इसलिए जब हमारी पार्टी एक मंजिल से दूसरी मंजिल में बड़ी आसानी से पहुंच जाती है तो बाहरी प्रेक्षकों को दांतो तले उंगली दबा लेनी पड़ती है. बिरले ही लोग जानते हैं कि आईपीएफ के माध्यम से राजनीतिक गतिविधियां संचालित करने के दौरान भी पार्टी का ढांचा ऊपर से नीचे तक ज्यों का त्यों बना हुआ था. ऐसा केवल कार्य-विभाजन के मकसद से नहीं, बल्कि आंदोलन की समूची धारा का विचारधारात्मक-सैद्धांतिक मार्गदर्शन करने की खातिर किया गया था. जो यह समझते थे कि पार्टी को आईपीएफ की बलिवेदी पर कुर्बान कर दिया गया, वे आज की स्थिति समझ पाने में अक्षम हैं, जबकि पार्टी ने बेझिझक समूची राजनीतिक कमान खुद संभाल ली है.
लगभग एक माह पहले, मैं एमएल के एक धड़े के एक साथी से मिला. उन्होंने हमारी पार्टी की ढेर सारी आलोचनाएं कीं, लेकिन पार्टी निर्माण में हमारी दक्षता की उन्होंने काफी प्रशंसा की. वास्तव में यह न तो सांगठनिक दक्षता का प्रश्न है और न ही व्यक्तिगत तौर पर नेताओं का करिश्मा, बल्कि यह तो विचारधारात्मक-सैद्धांतिक कार्य को पार्टी निर्माण की कुंजी मानने का नतीजा है कि चौतरफा राजनीतिक दिग्भ्रम और संगठनात्मक दुरवस्था में पहुंच गए एमएल आंदोलन के बीच से हम पार्टी निर्माण के कार्य को आगे बढ़ा सके. यह एक ऐसी बात है जो हमारी पार्टी को औरों से अलग करती है, यह एक बेहतरीन परंपरा है जिसे हमें अवश्य सुरक्षित रखना चाहिए.
जैसा कि आपको पता है, सीपीआई में मार्क्सवाद का अध्ययन बहुत पहले ही छोड़ दिया गया है. सोवियत प्रचार सामग्री ही उनके यहां एकमात्र प्रचलित साहित्य थी. इसीलिए सोवियत विघटन के बाद सीपीआई का पूरा प्रचार-तंत्र ही भहरा गया. सीपीआई(एम) में हमेशा बंधा-बंधाया अध्ययन होता आया है जिसमें अधिभूतवाद की भारी खुराक मिली होती है. वहां न तो मार्क्सवाद के किसी स्वतंत्र और सृजनात्मक अध्ययन की जगह है और न ही पार्टी के भीतर विचारधारात्मक-सैद्धांतिक बहस की कोई गुंजाइश. अतिवामपंथी गुटों को मार्क्सवाद-लेनिनवाद से कोई लेना-देना ही नहीं है. जहां तक माओ के सिद्धांत पर उनकी निष्ठा का सवाल है, तो माओ के कुछ उद्धरणों को उनके चिंतन से पृथक करके वे उनकी व्याख्या अपने भाववादी अराजक चिंतन की सुविधा के अनुसार करते हैं.
इसके विपरीत हमारी स्थिति काफी बेहतर रही है, लेकिन मैं नहीं समझता कि हमारी पार्टी में भी सब कुछ ठीक-ठाक है. खासकर पिछले साल-दो-साल के दैरान विचारधारात्मक धरातल पर गिरावटें आई हैं और पार्टी का सैद्धांतिक स्तर आम तौर पर नीचे गया है. मैं समझता हूं कि यदि इस स्कूल में उपस्थित कामरेडों का सर्वे किया जाए तो संभवतः पाया जाएगा कि अधिकांश कामरेडों ने हाल में शास्त्रीय पुस्तकों को छुआ भी नहीं है और शायद उनमें से ज्यादातर इस बदहाली का कसूर अपने दिन-प्रतिदिन के कार्यों के दबावों पर मढ़ देंगे.
यदि मुझे ठीक याद है तो पार्टी को खुला करने के पीछे के प्रमुख उद्देश्यों में से एक यह भी था कि मार्क्सवाद के सामने पेश नई पूंजीवादी चुनौती का पार्टी को सामना करना है. हम सभी संभवतः सहमत होंगे कि इस संदर्भ में जो कुछ किया गया है, वह दरपेश चुनौतियों की तुलना में बेहद कम है. अब जबकि पार्टी तेज विस्तार के मोड़ पर खड़ी है और हमने तमाम कम्युनिस्टों से सीपीआई(एमएल) के झंडे तले एकताबद्ध होने का आह्वान किया है, पार्टी का विचारधारात्मक-सैद्धांतिक सुदृढ़ीकरण एक नई फौरी अनिवार्यता बन गई है. फिर, एक ऐसे माहौल में जहां पार्टी व्यवहार की शाखाएं बढ़ते कार्यभार और पूर्णरूपेण पृथक ढांचे के साथ अधिकाधिक स्वतंत्र स्थिति प्राप्त करती जा रही हों, विचारधारात्मक-सैद्धांतिक कार्य की अवहेलना निश्चित रूप से एकांगी और अधिभूतवादी चिंतन को जन्म देगी. विचारधारात्मक-सैद्धांतिक कार्य किसी भी पार्टी का प्राणतत्व होता है जिसके अभाव में पार्टी एक मुर्दा शरीर की तरह हो जाएगी. यह पार्टी के जहाज का इंजन है, जिसके बगैर पार्टी का जहाज विशाल सागर में निरुद्देश्य तैरेगा, बिना इस बात की उम्मीद किए कि वह कभी किनारे पर पहुंचेगा भी. मुझे उम्मीद है कि यह केंद्रीय स्कूल इस संदर्भ में एक नई शुरूआत करेगा और आनेवाले महीनों में इस स्कूल व्यवस्था का विस्तार निचले स्तरों तक हो जाएगा.
हमारी पार्टी ने अपने जीवन के 25 वर्ष पूरे कर लिए हैं. सन् 1993 से, जब से हमारी पार्टी ने खुले तौर पर काम करना शुरू किया है, पार्टी का प्रभाव दूर-दराज तक फैला है और अब हम एक नए दौर में पहुंच गए हैं, बल्कि कहना होगा कि हम पार्टी विस्तार के निर्णायक दौर में पहुंच गए हैं. मैं इसे निर्णायक दौर कहता हूं क्योंकि आज दोनों, यानी सीपीआई(एम) के नेतृत्ववाली वाम मोर्चा सरकार की दक्षिणमुखी अवसरवादी कार्यनीति और पीपुल्सवार ग्रुप की वाम-अवसरवादी कार्यनीति एक बंद गली में फंस गई हैं तथा उसमें पतन और सड़न के निश्चित लक्षण साफ दिखने लगे हैं.
पश्चिम बंगाल में लगातार 17 वर्षों तक अस्तित्व में रहने के बाद भी वाम मोर्चा सरकार का प्रयोग न केवल देश की मजदूर-किसान जनता पर कोई प्रभाव डालने में, बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों की पुनर्रचना के अपने घोषित लक्ष्य को भी पूरा करने में असफल रहा है. वह वैकल्पिक आर्थिक नीतियां देने में और वाम-जनवादी-धर्मनिरपेक्ष विकल्प बनाने के लंबे-चौड़े दावों के बावजूद केंद्र में कांग्रेसी शासन को मजबूत होने से रोक पाने में असफल रहा है. नकारात्मक पक्ष से देखने पर वाम मोर्चा सरकार पश्चिम बंगाल में भारतीय शासकवर्गों के शासन को मजबूत करने का जरिया बन गया है. तथा उसने राष्ट्रीय स्तर पर हर किस्म के अवसरवादी सामाजिक-राजनीतिक गठजोड़ के दरवाजे पार्टी के लिए खोल दिए हैं. पश्चिम बंगाल में सत्ता के प्रति उसके मोह ने उसे अभी हाल में कांग्रेस(आइ) के साथ सांठगांठ कर चुनाव सुधार बिल का मुखर पैरोकार बना दिया है.
क्रांतिकारी वामपंथी खेमे की ओर से सिर्फ हमारी पार्टी ने वाम मोर्चा सरकार के सिद्धांत और व्यवहार की विस्तृत आलोचना विकसित की है. जहां हम सभी मोर्चों पर उसके जन विरोधी-जनवाद विरोधी कार्यों की आलोचना एवं विरोध करते हैं, वहीं हमने उसके ग्रामीण-सामाजिक जनाधार में स्पष्ट वर्गीय आधार पर दरारें डालने पर विशेष बल दिया है. करंदा की घटना साबित करती है कि यही उसका मर्मस्थल है. इसके अलावा, सरकार निर्माण के सामाजिक-जनवादी व्यवहार के द्वंद्वात्मक निषेध के माध्यम से हमने वर्ग संघर्ष के सच्चे औजार के बतौर वाम सरकार की भूमिका का प्रश्न खड़ा कर दिया है. यह समझना होगा कि प्रकृति और समाज की तमाम विभाजक रेखाओं की तरह ही मार्क्सवादी और संशोधनवादी कार्यनीति की विभाजक रेखाएं भी लगातार स्थानांतरित होती रहती हैं और यह स्थानांतरण ठोस स्थितियों के द्वारा निर्धारित होता है. आज की ठोस स्थितियों में सरकार निर्माण की कार्यनीति को उन्नत स्तर पर ले जाना ही सामाजिक जनवादियों को कड़ी चोट देने तथा उनके जनाधार और कतारों को जीत लेने का सबसे अच्छा तरीका है. बाकी सब कुछ महज जुमलेबाजी है जो सामाजिक-जनवादियों के प्रभाव क्षेत्र की बाहरी सीमाओं तक को भी छू नहीं सकती. यह महज संयोग नहीं है कि पश्चिम बंगाल में सीमित ताकत के बावजूद सारे एमएल ग्रुपों में एकमात्र हमारी ही पार्टी है जिसने पश्चिम बंगाल की राजनीति की मुख्यधारा में अपना स्थान बनाने में कामयाबी हासिल की है. तमाम दबावों को झेलते हुए हमने पश्चिम बंगाल सरकार का वाम-विपक्ष होने की अपनी सैद्धांतिक स्थिति को बरकरार रखा है और लगभग सभी मोर्चों पर हमने सीपीआई(एम) की अवसरवादी सैद्धांतिक एवं राजनीतिक स्थितियों का विरोध किया है.
भारतीय वामपंथी आंदोलन के भीतर हमें सीपीआई(एम) का विपरीत ध्रुव माना जाता है. हमने यह विशिष्टता वाम एकता के लक्ष्य को एक क्षण के लिए भी कुर्बान किए बगैर हासिल की है. सीपीआई(एम) के प्रति हमारी कार्यनीति सामाजिक जनवाद के खिलाफ ऐतिहासिक संघर्ष की निरंतरता का ही प्रतिनिधित्व करती है, अलबत्ता एक उच्चतर धरातल पर, हर गुजरते दिन के साथ अधिकाधिक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट हमारी कार्यनीति को सामाजिक जनवादी प्रयोग के रूबरू खड़ी एकमात्र योग्य, प्रभावी और व्यापक आधार वाली चुनौती के रूप में ग्रहण करने में समर्थ हुए हैं. आज की स्थितियों में, जहां सामाजिक जनवादी प्रयोग बंद गली में जा फंसा है, वहां हमारी पार्टी नई और साहसभरी पहलकदमियां लेने की स्थिति में हैं. मेरे विचार से यह उसका एक पहलू है; जब मैं कहता हूं कि हमारी पार्टी एक नए दौर में, अपने अग्रगति के निर्णायक दौर में, पहुंच चुकी है.
चूंकि 1980 के दशक के आरंभ में एमएल ग्रुपों के साथ आम तौर पर, और सीतारमैया के नेतृत्व वाले आंध्र गुट के साथ खास तौर पर, हमारे एकता प्रयास असफल रहे, लिहाजा पार्टी का पुनर्गठन दो भिन्न धाराओं में आगे बढ़ा. आंध्र ग्रुप ने, जो चारु मजुमदार और सफाया लाइन का कटु आलोचक था, कानूनी और जन-गतिविधियों पर अधिक बल दिया. तमिनलाडु और महाराष्ट्र में कार्यरत कुछ धड़ों को मिलाकर उसने संघीय चरित्र वाली एक केंद्रीय संस्था का गठन किया जो आमतौर पर सीपीआई(एमएल), पीपुल्सवार ग्रुप के नाम से जानी गई. उसने छात्रों और ग्रामीण गरीबों के शक्तिशाली जनसंगठनों का विकास करके एक आशाजनक शुरूआत की, लेकिन जल्दी ही वह पूर्णरूपेण दलम गतिविधियों में सिमट गई. उसकी सैद्धांतिक-राजनीतिक स्थितियां कभी स्पष्ट नहीं हो पाई और उसकी आम छवि मुख्यतः आदिवासी लोगों की शिकायतों को दूर करनेवाले हथियारबंद जुझारू दस्तों के रूप में बनती गई. मगर राजनीतिक-कार्यनीतिक धरातल पर उसकी गतिविधियों को लाल राजनीतिक सत्ता के आधार इलाके विकसित करने वाले प्रयास ही माना जा सकता है. यहां हम उसके अराजकतावादी ग्रुप के रूप में कायाकल्प की पूरी कहानी दुहराना नहीं चाहते. इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि फिलहाल यह ग्रुप गंभीर विचारधारात्मक भटकावों और सांगठनिक टूटों का शिकार है और रिपोर्टों से मालूम पड़ता है कि गतिरोध से स्वयं को बाहर निकालने के लिए इसका नेतृत्व कुछ बड़े कार्यनीतिक बदलावों की दिशा में सोच रहा है.
बहरहाल, 1970 के दशक के अंत तक हमारी पार्टी ने समझ लिया था कि सीधे क्रांतिकारी हमलों का पहला दौर समाप्त हो चुका है और इस समय हथियारबंद संघर्षों को नई ऊंचाइयों तक ले जाकर लाल सेना और आधार इलाकों का निर्माण करने का आह्वान करना और कुछ नहीं, बल्कि वाम दुस्साहसवाद होगा, हमने व्यापक किसान आंदोलन के विकास पर और जरूरत के मुताबिक हथियारबंद प्रतिरोध पर भी प्राथमिक जोर देना जारी रखा. साथ-ही-साथ व्यापक जनसमुदाय के बीच अपना प्रभाव विस्तार के लिए हमने कानूनी और यहां तक कि संसदीय अवसरों का भी भरपूर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया गया तथा भारतीय जनता के विभिन्न तबकों के बीच से नए मित्र तलाशने के लिए और शत्रू खेमे के अंतरविरोधों का इस्तेमाल करने की नीयत से संयुक्त मोर्चा कार्यवाहियों की शुरूआत की.
ठोस भारतीय स्थितियों के लिहाज से और क्रांतिकारी आंदोलन के खास चरण के मुताबिक समग्र कार्यनीति विकसित करते हुए हमें अपनी पार्टी के भीतर की उन विलोपवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा तथा कम्युनिस्ट पार्टी के परित्याग की और इनके स्थान पर एक गोलमटोल वाम विचारधारा और वाम संगठन के निर्माण की वकालत करती थीं. ये प्रवृत्तियां किसान आंदोलन के बुनियादी वर्गीय रुख के खिलाफ थीं और हमें वाम मोर्चा अथवा जनता दल सरीखी सरकारों का पिछलग्गू बना देना चाहती थीं. संसदीय बौनेपन के सभी रूपों के खिलाफ भी हमारी पार्टी को लगातार संघर्ष चलाना पड़ा. टटपुंजिया क्रांतिकारियों के पूरे हुजूम ने हमारी नीतियों का जबर्दस्त विरोध किया और हम पर क्रांतिद्रोही होने का आरोप लगाया और कभी-कभी तो हमें तंग श्यओफिंग का एजेंट और कभी-कभी सरकारी नक्सलवादी तक कहा गया. हमारी पार्टी ने मजबूत ढंग से इन अतिवामपंथी हमलों को शिकस्त दी और उन वाम अवसरवादियों को उनकी असली औकात बना दी. वे बाद में पूर्ण अराजकतावाद के गढ़े में जा गिरे और उन्होंने सबसे घटिया दर्जे के राजनीतिक अवसरवाद का नमूना पेश किया. उनमें से कुछ तो जनता और कम्युनिस्ट कतारों की निर्मम हत्याओं तक में संलग्न हो गए.
ऐतिहासिक अनुभवों को याद करते हुए आइए, इस फ्रांस में वर्ग संघर्ष की भूमिका से एंगेल्स के निम्नलिखित उद्धरण पर गौर करें “(1849 की पराजय के बाद) भोंड़े जनवाद को आशा थी कि क्रांति फिर किसी भी दिन भड़क सकती है. हमने 1850 की पतझड़ में ही ऐलान किया था कि क्रांतिकारी काल का कम-से-कम पहला अध्याय समाप्त हो चुका है और संकट जैसी कोई स्थिति नहीं है. यह कहने के लिए हमें क्रांति के प्रति उन्हीं लोगों द्वारा विश्वासघाती घोषित करके बहिष्कृत किया गया जिन्होंने बाद में प्रायः निरपवाद रूप से बिस्मार्क के साथ समझौता कर लिया – बिस्मार्क ने सिर्फ उनके साथ ही समझौता करने की तकलीफ गवारा की जिनको उसने गड़बड़ी पैदा करने में सक्षम समझा.”
नए दौर में संघर्ष के नए रूप के बारे में लिखते हुए एंगेल्स ने कहा, “और अगर सार्विक मताधिकार से इसके सिवा और कोई लाभ न होता तो भी उसने हमें हर तीसरे साल अपनी संख्या गिनने की सुविधा प्रदान की; कि हमारे वोटों की संख्या में बाकायदा निश्चित तथा अप्रत्याशित रूप से द्रुत वृद्धि के द्वारा उसने मजदूरों का अपनी विजय की निश्चितता में विश्वास तथा उनके विरोधियों में घबाराहट,दोनों को समान मात्रा में बढ़ा दिया और इस प्रकार वह हमारे प्रचार का सर्वश्रेष्ठ साधन बन गया; कि उसने हमें स्वयं अपनी शक्ति के बारे में और सभी विरोधी पार्टियों की शक्ति के बारे में सही सूचना दी, और इस प्रकार हमारी कार्यवाहियों में संतुलन के लिए एक अद्वितीय मानदंड प्रस्तुत किया और जैसे बेमौके की बुजदिली से, वैसे ही बेमौके की दुस्साहसिकता से हमारी रक्षा की – अगर मताधिकार से हमें एकमात्र यही लाभ हुआ होता, तो भी यह सर्वथा पर्याप्त होता. परंतु उसने हमें इससे कहीं अधिक लाभ दिया है. चुनाव प्रचार में उसने हमें जनसाधारण से, जहां वे अब भी हमसे दूर थे, संपर्क स्थापित करने का अद्वितीय साधन प्रदान किया; उसने हमारे हमलों के सामने सभी पार्टियों को समस्त जनता के सामने अपने विचारों और कार्यों की पैरवी करने को विवश करने का साधन प्रदान किया; इतना ही नहीं, उसने राइखस्टाग में हमारे प्रतिनिधियों को एक ऐसा मंच प्रदान किया, जिसमें वे संसद में अपने विरोधियों से और संसद के बाहर जनसाधारण से उस अधिकार और आजादी के साथ अपनी बात कह सकते थे, जो अखबारों और सभाओं में प्राप्त न थीं ...”
“सार्विक मताधिकार के इस सफल उपयोग के साथ सर्वहारा संघर्ष में एक बिलकुल ही नया तरीका चालू हुआ और यह तरीका बड़ी तेजी से और भी विकसित हुआ. यह देखा गया कि जिन राज्य-संस्थाओं में पूंजीपति वर्ग का शासन संगठित है, वे मजदूर वर्ग को इन्हीं संस्थाओं से संघर्ष करने की और भी अधिक सुविधाएं प्रदान करती हैं.”
यही बात रूस में भी हुई, जब 1905 की क्रांति की असफलता के बाद लेनिन ने कानूनी तथा खुली गतिविधियों तथा दूमा में भागीदारी के लिए पार्टी को पुनर्गठित किया. इस मौके पर रूसी पार्टी में भी वाम अवसरवादी प्रवृत्तियों ने सिर उठाया और लेनिन पर गद्दारी का आरोप लगाते हुए बोल्शेविकवाद को बहिष्कारवाद के समतुल्य बना दिया. लेनिन ने इन प्रवृत्तियों को बचकाना मर्ज करार देते हुए इनका खंडन किया और राज्य की संस्थाओं के साथ सावधानीपूर्वक समंजन की आवश्यकता पर जोर दिया.
चीन में वाम दुस्साहसवादी भूलों के कारण लगभग सारे आधार इलाके नष्ट हो गए, लाल सेना का एक बड़ा हिस्सा समाप्त हो गया और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को लंबा अभियान शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा. जब माओ ने जापानी साम्राज्यवाद के खिलाफ च्यांग काईशेक के साथ संयुक्त मोर्चा विकसित करने की लाइन अपनाई तब वाम अवसरवादियों ने माओ पर भी गद्दारी का आरोप लगाया था.
मैं इन ऐतिहासिक उदाहरणों का हवाला सिर्फ यह तथ्य दुहराने के लिए दे रहा हूं कि हर देश में क्रांतिकारी संघर्ष को उतार-चढ़ाव के विभिन्न दौरों से गुजरना पड़ता है और पार्टी की नीति और कार्यनीति को इसी के हिसाब से पुनर्संयोजन करना चाहिए. यही कार्यनीति के बारे में मार्क्सवादी चिंतन और नेतृत्व की कला की संपूर्ण अंतर्बस्तु है. कठमुल्लावादी ढंग से एक ऐसी कार्यनीति का अनुसरण करना जो बिलकुल भिन्न स्थितियों के अनुकूल हो और ऐसे समय में सीधे संघर्ष का आह्वान करना जबकि स्थितियां पार्टी के पुनर्गठन और शक्ति-संचय की मांग कर रही हों, सीधे दुश्मन के जाल में जा फंसना है.
हमारे लिए चीनी मॉडल के साथ शुरूआत करना बिलकुल सही था, क्योंकि अर्धसामंती-अर्धऔपनिवेशिक देशों में क्रांति के लिए वही एकमात्र उपलब्ध ब्लूप्रिंट था. लेकिन पिछले 25 वर्षों के अपने अनुभवों से सीखते हुए और भारतीय समाज के विशिष्ट पहलुओं की बेहतर समझदारी के साथ अब यह स्वाभाविक है कि चीनी माडल में जरूरी समायोजन और संशोधन करके हम आने वाले समय में भारतीय क्रांति का भारतीय रास्ता विकसित कर लें. चीनी रास्ते का कठमुल्लावादी ढंग से अनुसरण करना वस्तुतः माओ विचारधारा के सारतत्व का निषेध है. माओ को उन चीनी कठमुल्लावादियों के खिलाफ दृढ़ता के साथ संघर्ष चलाना पड़ा था जो भीषण नुकसान उठाने के बावजूद चीनी स्थितियों में रूसी माडल की अंधी नकल करने पर तुले हुए थे. मार्क्सवाद-लेनिनवाद की सार्वभौम सच्चाई को चीन की ठोस स्थितियों के साथ मिलाने का मशहूर सूत्रीकरण माओ ने इसी संघर्ष के दौरान विकसित किया था.
बहुतेरे लोग यह नहीं जानते कि इन्हीं वाम अवसरवादी प्रवृत्तियों से गंभीर संघर्ष चलाते हुए हमारी पार्टी की लाइन विकसित हुई है. जहां वाम अवसरवादियों की गतिविधियां उत्तरोत्तर दस्ता कार्रवाइयों तक सीमित होती गई, वहीं हमने किसानों के व्यापकतम क्रांतिकारी आंदोलन की संभावना और दायरे को लगातार बढ़ाया है और हथियारबंद प्रतिरोध दस्ते भी उन्हीं के अभिन्न अंग बनते गए हैं. अब जबकि पीडब्ल्यूजी द्वारा अपनाया गया अवसरवादी रास्ता अपने अंत की ओर बढ़ रहा है, वहां हमारी पार्टी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों को एक सही लाइन के इर्द-गिर्द एकताबद्ध करने के लिए मजबूत आधार पर खड़ी है. यह उसका दूसरा पहलू है जिसे मैं पार्टी के विकास का निर्णायक दौर कहता हूं.
मुझे लगता है कि आम तौर पर वाम आंदोलन के भीतर सामाजिक जनवाद हमारा मुख्य विचारधारात्मक शत्रु है, जिसका प्रतिनिधित्व सीपीआई(एम) करती है, जबकि खास तौर पर एमएल आंदोलन के भीतर अराजकतावाद हमारा मुख्य विचारधारात्मक शत्रु है, जिसका प्रतिनिधित्व पीडब्ल्यूजी करता है. भारत में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण करने के लिए इन दोनों प्रवृत्तियों के खिलाफ विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्षों का एक साहसी संयोजन आवश्यक है.
यहां मैं संसदीय संघर्ष के संबंध में अपनी कार्यनीति के बारे में कुछ कहना जरूरी समझता हूं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके साथ हमारे संगठन मे गंभीर अस्वास्थ्यकर बुर्जुआ प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है. लोगों को टिकटों के लिए झगड़ते, जोड-तोड़ कर जीतने के लिए तमाम किस्म के अवसरवादी संश्रयों मे शामिल होते, और तब अनेक निर्वाचित प्रतिनिधियों को पैसे, ख्याति तथा बुर्जुआ सुविधाओं के लिए हाथ-पैर मारते तथा अंततः इसमें से अनेक को अपने निजी हितों की खातिर पार्टी के साथ विश्वासघात करके शासक पार्टी में शामिल होते देखकर बड़ा आघात लगा. कम्युनिस्ट आचरण, पार्टी सिद्धांत तथा अनुशासन, सबको बेहद शर्मनाक ढंग से तिलांजलि दे दी गई. इससे पार्टी की प्रतिष्ठा पर अत्यंत बुरा असर पड़ा. इससे यह साबित होता है कि पार्टी की चुनावी कार्यनीति का महत्व पार्टी संगठन के अंदर अभी गहराई तक नहीं जा पाया है. इसके अलावा पार्टी संगठन संसदीय ग्रुप के ऊपर पार्टी अनुशासन लागू करने में काफी कमजोर साबित हुआ. पार्टी को ठोस भारतीय परिस्थिति में चुनाव तथा संसदीय संस्थाओं का इस्तेमाल करने की दिशा में अभी बहुत आगे जाना है. लेकिन यदि मौजूदा स्थिति बनी रही तो इस दिशा में अन्य प्रयोगों के गंभीर परिणाम होंगे. चुनाव प्लेटफार्म का इस्तेमाल करने के बारे में मैं पहले ही एंगेल्स का कथन आपके सामने रख चुका हूं. अब कम्युनिस्ट लीग की केंद्रीय समिति में रखे गए मार्क्स के इस वक्तव्य पर गौर कीजिए :
“हर जगह पूंजीवादी-जनवादी उम्मीदवारों के साथ मजदूरों के उम्मीदवार खड़े हों, जहां तक संभव हो उनमें अधिक से अधिक लीग के सदस्य हों, इनके चुनाव को हर संभव तरीके से बढ़ावा मिले. जिन जगहों में मजदूरों के चुने जाने की कोई संभवना न हो, वहां भी मजदूरों को अपने उम्मीदवार खड़े करने चाहिए, ताकि अपनी आजादी बरकरार रखी जा सके, अपनी शक्तियों की गणना की जा सके तथा इस सिलसिले में उन्हें जनवादियों के तर्कों के, उदारहणस्वरूप ऐसे तर्कों के बहकावे में नहीं आना चाहिए. कि इस तरह के काम से वे जनवादी पार्टी को तोड़ रहे हैं. और इस तरह प्रतिक्रियावादियों के लिए विजय प्राप्त करना संभव बना रहे हैं, ऐसे सारे शब्दजालों का वास्तविक इरादा सर्वहारा की आंखों में धूल झोंकना होता है. इस तरह की स्वतंत्र कार्रवाई से सर्वहारा पार्टी निश्चित रूप से जो अग्रगति हासिल करती है, वह उस हानि से असीम रूप से अधिक महत्वपूर्ण है जो प्रतिनिधित्वमूलक संस्था में चंद प्रतिक्रियावादियों की मौजूदगी से हो सकती है.” कामरेड लेनिन ने भी चुनाव में पूंजीवादी-जनवादी पार्टियों के समानांतर इस कम्युनिस्ट कार्यनीति पर बार-बार जोर दिया तथा कम्युनिस्टों की भूमिका को संसदीय क्षेत्र में क्रांतिकारी विपक्ष की भूमिका के बतौर परिभाषित किया. बेशक, यही हमारा प्रस्थान बिंदु होना चाहिए.
हमारी स्थितियों में सीटों पर लातमेल, चुनावी संश्रय और यहां तक कि राज्य पर सरकार में भागीदारी जैसे सारे सवाल संसदीय संघर्षों के दौरान सामने आएंगे. ऐसे, और इसी तरह के अन्य सवाल हर हाल में पार्टी की निरपेक्ष स्वतंत्रता को बुलंद करने और क्रांतिकारी जनसंघर्षों की गुंजाइश व दायरे को और व्यापक बनाने के आधार पर ही तय किए जाने चाहिए. यद्यपि भारत भी क्रांतिपूर्व चीन की तरह अर्ध सामंती-अर्ध औपनिवेशिक देश है, लेकिन भारतीय शासक वर्गों के शासन का ढांचा चीन से अत्यधिक भिन्न है. यही भिन्नता भारतीय संसदीय व्यवस्था के माध्यम से प्रतिबिंबित होती है, जाति, धर्म तथा क्षेत्र आधारित गोलबंदी की बढ़ती हुई परिघटना तथा विभिन्न स्तरों पर सत्ता की हिस्सेदारी में राजनीतिक ताकतों की बढ़ती हुई विविधता शासकवर्गों के विभिन्न तबकों के बीच सत्ता की हिस्सेदारी की व्यवस्था के अर्थ में संसदीय संस्थाओं के प्रतिनिधिमूलक चरित्र तथा स्वयं व्यवस्था के अंदर बढ़ते हुए तनावों की ओर इशारा करती हैं. यह स्थिति किसी न किसी हद तक क्रांतिकारी-जनवादी ताकतों के सामने व्यवस्था के अंदर दरार पैदा करने की संभवना भी हाजिर कर देती है. क्रांतिकारी जनवाद के लिए एक जनउभार पैदा करने में इस अवसर का भरपूर उपयोग अवश्य किया जाना चाहिए. हमारे आंदोलन के मौजूदा दौर में इस कार्यनीति का सचमुत कोई विकल्प नहीं है.
यह अवश्य समझा जाना चाहिए कि पार्टी की चुनावी कार्यनीति क्रांतिकारी जन आंदोलन विकसित करने की पार्टी की व्यापक कार्यनीति का अभिन्न अंग है. यह किसी भी हालत में निजी कैरियर बनाने का साधन नहीं हो सकती है. इसलिए पार्टी को इस कार्यनीति को सफलता की मंजिल तक ले जाने के लिए हर हाल में केवल खरे उतर चुके कामरेडों पर ही भरोसा करना चाहिए.
एक व्यापकतम जनवादी मोर्चे का निर्माण हमारी पार्टी का रणनीतिक कार्यभार है. हाल के दिनों में पूंजीवादी तथा निम्म-पूंजीवादी जनवादियों के कुछ हिस्सों के साथ हमारे संबंध विकसित हुए हैं. शायद यह संश्लेषण का युग है; आजादी की लड़ाई के दौर में सहयोग के पुराने इतिहास को आधार बनाते हुए तथा सोवियत संघ के बिखराव के बाद और उसके फलस्वरूप नए सिरे से शुरू किए गए साम्राज्यवादी हमले के जमाने में सहयोग के इस नए दौर पर जोर देते हुए हम क्रांतिकारी कम्युनिस्टों और रैडिकल सोशलिस्ट शक्तियों के बीच एकता के लिए एक सैद्धांतिक ढांचा विकसित करने का प्रयत्न कर रहे हैं. विडंबना है कि वाम महासंघ का हमारा आह्वान वामपंथी आंदोलन में सीपीआई(एम) की दादागीरी के खिलाफ संघर्ष में बदल गया है. हमारे साथ संयुक्त कार्यवाहियों की सीपीआई(एम) की अवधारणा, जैसा कि उसके कांग्रेस दस्तावेज में सूत्रबद्ध है, मूलतः हमारे द्वारा अपनी गलतियों को सुधारने, अर्थात् हमारे सीपीआई(एम) की स्थितियों के नजदीक बढ़ने और उसके प्रभुत्ववादी प्रभाव में चले जाने पर आधारित है. बाद की घटनाओं से जैसे ही उनकी ये आशाएं धूल में मिलीं वैसे ही वे पुनः हमें हर संभव तरीके से अलगाव में डालने की अपनी पुरानी लाइन पर लौट गए, मुझे लगता है कि अपने भ्रमों को त्याग देना और यथार्थ का सामना करना कभी नुकसानदेह नहीं होता है. सीपीआई(एम) जो हमारा जबर्दस्त विरोध कर रही है, हमें इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए. इसका भी हमारे विकास में सकारात्मक योगदान ही होगा. हमें खारिज करने और अलगाव में डालने की सीपीआई(एम) की अतीत की कोशिशें असफल रहीं. ऐसा करने की उनकी नई कोशिशों का भी यही अंजाम होगा. भविष्य में, घटनाचक्र में बदलाव आते ही, हमारे संबंध समानता के आधार पर और हमारे बीच के अंतर को कबूल करते हुए बनेंगे. केवल वही एकता एक स्वस्थ और उसूली एकता होगी. हमें परिस्थितियों में यह बदलाव लाने के लिए अवश्य ही धैर्यपूर्वक काम करना चाहिए.
अब कुछ शब्द अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के संबंध में, सोवियत खेमे के ध्वंस तथा चीन में होने वाले दूरगामी बदलाव ने अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के परिदृश्य को जबर्दस्त ढंग से बदल दिया. 1960 के दशक के महाविवाद की विरासत सोवियत-परस्त व चीन-परस्त पार्टियों के बीच का पुराना विभाजन अप्रासंगिक हो गया है. बहरहाल, सोवियत संघ के ध्वंस के फलस्वरूप कम्युनिस्ट पार्टियों एवं मंचों का रूस तथा कई पूर्वी यूरोपीय देशों में पुनर्गठन हो रहा है. ये पार्टियां अपने अतीत का, और खास तौर पर संशोधनवाद के नुकसानदेह प्रभाव के बारे में पुनर्मूल्यांकन कर रही हैं. इससे इन दोनों धाराओं की पार्टियों के और नजदीक आने की अनुकूल परिस्थितियां पैदा हुई हैं. अभी हाल ही में बेल्जियम की वर्कर्स पार्टी के तत्वावधान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में यह विशिष्ट परिघटना प्रतिबिंबित हुई, जिसमें अब तक की दोनों तरफ की धाराओं तथा ‘स्वतंत्र’ धाराओं से संबंधित 50 से ज्यादा पार्टियों और ग्रुपों ने भाग लिया. हमारी पार्टी ने भी उसमें भाग लिया और हमने करीब आने की इस प्रक्रिया का समर्थन किया.
हमारे विचार से अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की एकता की अवधारणा को केवल माओ विचारधारा और वह भी उसकी एक खास व्याख्या को मानने वाली एमएल पार्टियों की एकता तक सीमित कर देना अत्यंत संकीर्णतावादी दृष्टिकोण है और यह वर्तमान परिस्थितियों से मेल नहीं खाता.
मुझे लगता है कि चीन के प्रति अपने रुख को पुनः स्पष्ट करना जरूरी है, क्योंकि वह अभी भी विभ्रम तथा बहस का बहुत बड़ा स्रोत बना हुआ है. हमारी राय में संबंधित देश को उसकी ठोस स्थितियों तथा ठोस समय-काल से अलग कर अमूर्त ढंग से समाजवाद के निर्माण के बारे में नहीं सोचा जाना चाहिए. जब दुनिया में कुछेक छोटे समाजवादी देशों के अलावा कहीं और समाजवाद का अस्तित्व नहीं रह गया है तथा जब किसी विकसित पूंजीवादी देश में काफी लंबे समय तक किसी सर्वहारा क्रांति की कोई संभवना नहीं नजर आ रही है, तब चीन जैसे एक पिछड़े देश में समाजवाद का निर्माण एक विशिष्ट समस्या है. लिहाजा, बहस इस बात पर नहीं होनी चाहिए कि आम तौर पर समाजवाद का निर्माण कैसे किया जाए, बल्कि किसी बहस का सार्थक प्रस्थान बिंदु मौजूदा स्थितियों में चीन में समाजवाद के निर्माण के प्रश्न को ही बनाया जाना चाहिए. इस नजरिए से विचार करने पर ही हमें चीनी सुधारों की आम दिशा को समझने में मदद मिल सकती है. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी तथा चीनी सरकार के सभी कदमों का समर्थन करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता. आम दिशा के प्रति हमारे समर्थन का मतलब है इसके साथ निहित खतरों के प्रति हमारी गंभीर चिंता तथा उन नीतियों की आलोचना, जिन्हें हम समाजवाद के आम हितों तथा अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए हानिकारक समझते हैं.
हम न तो चीन अथवा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी केंद्रित किसी अंतरराष्ट्रीय खेमे के पक्ष में हैं और न ही किसी ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंच में शामिल होने के लिए उत्सुक हैं जिसने चीन की भर्त्सना को अपना केंद्रीय कार्य बना लिया हो. मुझे लगता है कि यह चीन तथा अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देता है.
हम एक ऐसे दौर में रह रहे हैं, जबकि मार्क्सवाद की तमाम बुनियाद प्रस्थापनाओं को चुनौती दी जा रही है तथा इतिहास के अंत की घोषणा की जा रही है. इस सिलसिले में मुझे मार्क्स की याद आती है जिन्होंने 150 वर्षों पूर्व अपने लेख दर्शन की दरिद्रता में कहा था, “वे जब कहते हैं कि आज के संबंध – पूंजीवादी उत्पादन संबंध – स्वाभाविक हैं, तो उससे अर्थशास्त्रियों का मतलब यह है कि ये वे संबंध हैं जिसमें, प्रकृति के नियमों की संगति में संपत्ति का सृजन तथा उत्पादक शक्तियों का विकाश हुआ है, अर्थात् ये संबंध काल के प्रभाव से स्वतंत्र खुद प्राकृतिक नियम है, ये शाश्वत नियम हैं जो समाज का हर हाल से नियमन करेंगे. इनका अतीत का इतिहास तो रहा है लेकिन वर्तमान में उसका कोई अस्तित्व नहीं है.”
अर्थात्, पूंजीवादी दार्शनिकों तथा अर्थशास्त्रियों ने काफी पहले ही इतिहास के अंत की घोषणा कर दी थी, लेकिन फिर भी इतिहास प्रगति करता रहा और मार्क्सवाद ने उसकी अग्रगति में मार्गदर्शक भूमिका निभाई. मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन संबंधों की शाश्वतता को चुनौती दी और एक दुर्लभ वैज्ञानिक अंतःदृष्टि के साथ यह दिखाया कि ये संबंध भी पुराने संबंधों की तरह ही संक्रमणकालीन प्रकृति के हैं. परिवर्तन की शाश्वतता मार्क्सवादी दर्शन का केंद्रबिंदु है. लिहाजा, भविष्य में भी दुनिया को बदलने के सभी प्रयास मार्क्सवाद से ही अपनी जीवन शक्ति हासिल कर सकते हैं. मार्क्स ने अपनी शानदार रचना पूंजी में पूंजीवादी उत्पादन-संबंधों के शोषणमूलक आधार का पर्दाफास किया. उन्होंने मजदूरी, श्रम तथा पूंजी में लिखा, “मजदूर वर्ग के लिए सर्वाधिक अनुकूल स्थितियां तथा पूंजी का सबसे तेज संभव विकास भी, चाहे उससे मजदूरों के भौतिक अस्तित्व में कितना भी सुधार हो, बुर्जुआ हितों, पूंजीपतियों के हितों तथा उसके अपने हितों के बीच के शत्रुतापूर्ण संबंधों को मिटा नहीं सकता. मुनाफा तथा मजदूरी हमेशा की तरह एक दूसरे के प्रतिलोम अनुपात में रहते हैं.”
“यदि पूंजी का तेजी से विकास हो रहा है तो मजदूरी बढ़ सकती है, मगर पूंजी का मुनाफा उससे अतुलनीय रूप से ज्यादा तेजी से बढ़ता है. मजदूर की भौतिक स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन उसकी सामाजिक स्थिति की कीमत पर. पूंजीपति और उनके बीच की सामाजिक खाई और चौड़ी हो गई है.”
उत्पादन के ढांचे और संगठन में हुए तमाम बदलावों के बावजूद बुर्जुआ उत्पादन संबंधों का शोषणमूलक आधार, आर्थात अतिरिक्त मूल्य की उगाही, बरकरार है और हर हाल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद तथा निर्भर देशों के बीच की खाई तथा दूसरी ओर विकसित पूंजीवादी दोशों में सर्वहारा एवं पूंजीपति वर्ग के बीच की सामाजिक खाई और चौड़ी हुई है. इसी कारण वह शत्रुता भी बनी हुई है जो इतिहास को अग्रगति देने वाली चालक शक्ति है.
फिर भी, सर्वहारा के संघर्ष को धक्के लगे हैं, दुनिया के एक बड़े हिस्से में निर्मित समाजवाद को पीछे लौटना पड़ा है. इसीलिए मार्क्सवाद में, सर्वहारा की विजय में, आस्था जताना की काफी नहीं है. मार्क्सवाद की रक्षा उसे समृद्ध करने से ही संभव है.
मार्क्स जब अपनी पूंजी की आधार-सामग्री के बतौर ब्रिटिश पूंजीवाद का, सबसे आदर्श ढंग से विकसित हुए पूंजीवादी देश का, अध्ययन संपन्न कर रहे थे, तो उस वक्त मुक्त प्रतियोगिता का स्थान इजारेदारी लेने लगी थी. वित्तीय पूंजी की, इजारेदार पूंजीवाद की मंजिल ने देश के भीतर की प्रतियोगिता के स्थान पर विश्व बाजार के लिए पूंजीवादी देशों के बीच प्रतियोगिता को स्थापित कर दिया. और इस तरह विश्वयुद्ध और सर्वहारा क्रांति जैसी परिघटनाएं उभर कर आई जिन्होंने साम्राज्यवाद की शृंखला को उस स्थान पर तोड़ दिया, जहां वह सबसे कमजोर थी. उसके बाद अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवाद के एकल आर्थिक, सैनिक तथा राजनीतिक ब्लाक का उदय हुआ है, और एक लंबे सीतयुद्ध के बाद समाजवाद की पराजय हुई और फिर उसका ध्वंस हुआ है.
पूंजीवादी उत्पादन में वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति के चलते हो रहे संरचनात्मक बदलावों की पृष्ठभूमि में और साथ ही समाजवादी अर्थव्यवस्था की पूर्ण जड़ता की स्थिति में इन अंतरसंबंधों को देखने से समूची दुनिया के मार्क्सवादी सिद्धांतकारों के लिए अध्ययन के नए स्रोत खुल जाते हैं. कम्युनिस्टों के सामने समाजवाद के निर्माण का पचहत्तर वर्षों का अनुभव है. हर कोई अपनी गलतियों से ही सीखता है और इसीलिए, जिस अध्ययन का मैंने ऊपर जिक्र किया, वह मूलतः समाजवाद के राजनीतिक अर्थशास्त्र का ही अध्ययन होगा और उसके आयाम उतने ही व्यापक होंगे जितने व्यापक खुद पूंजी के आयाम थे.