(लिबरेशन, जनवरी 1990, सबसे पहले पार्टी की बांग्ला पत्रिका देशब्रती के अक्टूबर 1989 के विशेषांक में प्रकाशित)
पार्टी की चौथी कांग्रेस में वाम शक्तियों के पुनरोदय को वर्तमान भारतीय राजनीति की एक अप्रतिम खूबी माना गया था और कांग्रेस विरोधी लड़ाई में पूंजीवादी विपक्ष के मुकाबले वामपंथी शक्तियों को एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा करने का कार्यभार तय किया गया था. साथ ही वामपंथी शक्तियों से यह आह्वान किया गया था कि वे पूंजीवादी विपक्ष की दुम अब न थामे रहें तथा इस संघर्ष में राजनीतिक नेतृत्व करने की चुनौती को स्वीकार करें. हमारी कांग्रेस ने वाम और जनवादी महासंघ का निर्माण करने का जो कार्यभार सूत्रबद्ध किया था, वह इसी दिशा में एक शक्तिशाली कदम था.
इस आह्वान ने और इस आह्वान से उपजे कार्यभार ने वामपंथी आंदोलन की दो अन्य मुख्य शक्तियों, सीपीआई और सीपीआई(एम) के साथ हमारे समागम और एकता का द्वार जिस प्रकार खोल दिया है उसी प्रकार उनके विरुद्ध हमारा संघर्ष भी एक नई मंजिल में आ पहुंचा है.
वाम महासंघ एक संयुक्त मोर्चा के अलावा और कुछ नहीं है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सीपीआई, सीपीआई(एम) और सीपीआई(एमएल) को ही इस संयुक्त मोर्चे का बुनियादी साझीदार माना गया है. इसलिए निष्कर्षतः राजनीतिक घटनाओं के घात-प्रतिघात के चलते इन तीनों पार्टियों की स्थिति में भी बदलाव आ सकता है, वे रूपांतरित हो जा सकती हैं, एक दूसरे के और नजदीक आ सकती हैं तथा 1964 और 1967 के विभाजनों का फिर से मूल्यांकन करने और भारत में एक ही कम्युनिस्ट पार्टी की पुनर्स्थापना करने का सवाल सामने आ सकता है. किंतु यह संभावना अभी भी कोसों दूर है, इसलिए आज ही इस पर माथापच्ची करने से हम विचारधारात्मक तौर पर निरपेक्षतावाद के गड्ढे में गिर सकते हैं और व्यवहार में हम अपने निर्दिष्ट कार्यों से भटक सकते हैं.
फिलहाल वाम महासंघ के निर्माण के इस नारे ने इन तीनों पार्टियों के बीच की प्रतिद्वंद्विता को एक नए धरातल पर ला खड़ा किया है. नया धरातल इसलिए कि यह पहली बार सामाजिक जनवाद विरोधी संघर्ष को निरपेक्षतावादी स्तर से नीचे ठोस राजनीतिक कार्यनीति के प्रश्न पर खींच लाया गया है और इसलिए भी कि यह प्रतिद्वंद्विता फिलहाल व्यापक सामगम और एकताबद्ध मोर्चे का निर्माण करने के लिए की जा रही है.
वाम महासंघ का नारा कुछ प्रश्नों के स्पष्ट जवाब की मांग करता है. वे प्रश्न हैं :
प्रारंभ में ही मैं यह बतलाए दे रहा हूं कि सामाजिक जनवादियों के ठोस राजनीतिक आचरण के बारे में अभी आखिरी बात नहीं कही जा सकती है. वे पूंजीवादी और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के एजेंट और जनसंघर्षों के दुश्मन हैं अथवा कम्युनिस्टों और जनसंघर्षों के स्वाभाविक मित्र, इस प्रश्न का उत्तर कहीं भी देना संभव नहीं है. इतिहास की विभिन्न मंजिलों में उन्होंने भिन्न-भिन्न भूमिकाएं निभाई हैं. यह निर्भर करता है ठोस स्थिति पर, राजनीतिक घटनाओं के विकास पर, उनके नेतृत्व के विभिन्न अंशों और स्तरों के शक्ति संतुलन पर और बाहर से कम्युनिस्टों के सचेत प्रयास पर.
हम यहां सीपीआई का उदाहरण ले सकते हैं. 1964 से 1977 तक उनके विकास की एक प्रक्रिया रही है जिसने उन्हें धीरे-धीरे कांग्रेस (आइ) के साथ जोड़ दिया. उन्होंने केरल में कांग्रेस के साथ मिलीजुली सरकार बनाई और वे इमर्जेन्सी के एकलौते समर्थक बन बैठे. दरअसल उन दिनों इंदिरा कांग्रेस और सीपीआई को अलग करके देखना ही मुश्किल हो गया था. ट्रेड यूनियन आंदोलन में मालिक वर्ग की दलाली करने से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के विरोध में वर्ग-दुश्मनों से हाथ मिलाना तक उसकी खूबियां बन गईं. 1977 की राजनीतिक घटनाओं के चलते उसके सामने अपने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया और उसके बाद से वह धीरे-धीरे अपनी पुरानी स्थिति में वापस लौटने लगी. इसके लिए उसे तीखे अंतःपार्टी संघर्ष से गुजरना पड़ा. डांगे, मोहित सेन और कल्याणसुंदरम को निकाल दिया गया. उसने कांग्रेस विरोधी स्थिति अपनाकर वामपंथ की मुख्य धारा में लौट आने का प्रयत्न किया. बुनियादी कार्यक्रम को लेकर भी अंदरूनी बहस शुरू हुई. वे जन आंदोलन के भी कुछ कार्यक्रम अपनाने का प्रयत्न कर रहे हैं. उन्होंने सीपीआई(एम) के विरोध को ठुकराते हुए आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम की सरकार के विरुद्ध आंदोलन करने का और वाम मोर्चा सरकार का साझीदार होने पर भी उसकी कुछ नीतियों का विरोध करने और जरूरत पड़ी तो उन पर आंदोलन करने का निर्णय किया है तथा वे हमारे साथ नियमित रूप से संपर्क स्थापित करने के लिए आगे आए हैं. उनके सिद्धांत और व्यवहार में अभी भी काफी कुछ ऐसा है जो उन्हें कांग्रेस(आइ) की ओर फिर ढकेल दे सकता है और वे हमारे साथ अपने संपर्क को वाम मोर्चा में सीपीआई(एम) से सौदेबाजी करने के लिए, संभवतः तास के पत्तों की तरह इस्तेमाल करना चाहते हों. इन सबके बावजूद सीपीआई की 1977 और 1989 की स्थितियों में जो महत्वपूर्ण फर्क है उसे शायद कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता.
सीपीआई के साथ हमारा समागम जो धीरे धीरे बढ़ रहा है, वह स्वभावतः हम दोनों के बीच के संपर्क को विभिन्न स्तरों पर संस्थाबद्ध करने की मांग कर रहा है. फिर दूसरी ओर वह सीपीआई(एम) के साथ पहले से ही एक घनिष्ठ संस्था में बंधी हुई है. सीपीआई ने जैसे एक ओर सीपीआई(एम) के विरोध को ठुकराते हुए हमारे साथ नियमित संघर्ष बनाने का निर्णय किया है, वैसे ही दूसरी ओर वह वाम मोर्चा सरकार के प्रति हमारे रुख को बदलने और उसमें शामिल होने के लिए लगातार दबाव डाल रही है. सचमुच यह बड़ा दर्शनीय होगा कि वे हमारे और सीपीआई(एम) के बीच मध्यस्थ की भूमिका अपनाने का जो प्रयत्न कर रहे हैं उसमें सचमुच सफल होंगे अथवा दो विपरीत दिशाओं के दबाव से और अधिक संकटों में फंस जाएंगे. उनके और हमारे बीच के संबंधों में कैसा विकास होगा, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि विवर्तन की इस प्रक्रिया में उनका अगला कदम क्या होगा.
सीपीआई(एम) सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी है और वह दो राज्यों में सरकार की प्रमुख है. इसी के बलबूते उसने फिलहाल राष्ट्रीय परिस्थिति में भी एक महत्वपूर्ण स्थिति पा ली है. वह अपने को वामपंथी शक्तियों का स्वाभाविक नेता मानती है और एकमात्र उसके नेतृत्व में संचालित वाम मोर्चा ही उनके लिए वाम एकता का ठोस रूप है. वाम मोर्चा द्वारा संचालित दो राज्य सरकारें उसकी कार्यनीतिक लाइन के केंद्रीय तत्व हैं और वह इन्हीं को केंद्र कर राष्ट्रीय राजनीति में एक नया ध्रुवीकरण करना चाहती है. उसकी ही जुबान में, इसी ध्रुवीकरण का ठोस रूप वाम, जनवादी और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का संयुक्त मोर्चा है.
पश्चिम बंगाल और केरल, जहां सीपीआई(एम) का नेतृत्व प्रतिष्ठित है, की बात अगर छोड़ दी जाए, तो राष्ट्रीय स्तर पर उसकी निजी शक्ति अत्यंत थोड़ी है और अगर खूब बढ़ा-चढ़ाकर भी आंका जाए तो वहां वह फकत एक प्रेशर ग्रुप का ही निर्माण कर सकती है. राष्ट्रीय स्तर पर संसदीय राजनीति में उसकी तकदीर एक विपक्षी पार्टी ही बने रहने की है. निस्संदेह संसदीय विपक्ष की इस स्थिति का पूरी तरह सदुपयोग करके वह एक देशव्यापी लहर पैदा करने की ओर बढ़ सकती थी, किंतु सीपीआई(एम) का इस क्रांतिकारी रास्ते पर आगे बढ़ने का कोई इरादा हीं नहीं है, अपितु उसने अपनी पार्टी की ताकत बढ़ाने का एक निराला ही रास्ता अपना रखा है.
वह आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम के साथ, तमिलनाडु में डीएमके साथ और हिंदी क्षेत्र में जनता दल के साथ राजनीतिक गठजोड़ कायम करके अपनी संसदीय शक्ति को बढ़ाना ही वामपंथ की ताकत को बढ़ाना बताती है. सीपीआई(एम) का नेतृत्व यह भलीभांति जानता है कि संसद और विधानसभा में इस तरह हासिल की गई हर सीट जनता की राजनीतिक चेतना को भ्रष्ट करने और क्रांतिकारी आंदोलनों में उसकी क्षमता को कमजोर करने के विनिमयस्वरूप ही मिलती है. बुर्जुआ विपक्ष की इन बड़ी-बड़ी शक्तियों के साथ, जो अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में उसी पूंजीपति-जमींदार संश्रय का प्रतिनिधित्व करते हैं, अपने दिन-ब-दिन बढ़ते गठजोड़ को संस्थाबद्ध करने के लिए ही उन्होंने वाम-जनवादी के साथ धर्मनिरपेक्ष शब्द को घोंट-घाटकर धर्मनिरपेक्ष मोर्चे का सिद्धांत हाजिर किया है; यह मानो सीपीआई के साथ कांग्रेस(आइ) के गठजोड़ की रस्म को ही बढ़चढकर दोहराना है.
इस धर्मनिरपेक्ष विकल्प में सीपीआई(एम) नेतृत्वकारी भूमिका में नहीं रहेगी, यह स्पष्ट है. लिहाजा, इस विकल्प में उसकी स्थिति क्या होगी और कांग्रेस को अपदस्थ कर इस विकल्प की सरकार बनने पर सीपीआई(एम) उसमें शामिल होगी अथवा बाहर से उसका समर्थन करेगी, यह उसकी अंदरूनी बहस का मसला है, किंतु जनता की जनवादी क्रांति के रास्ते पर, मौजूदा मंजिल में बुर्जुआ जनवाद की सीमाओं को बढ़ाने का उसका जो कार्यक्रम है, जिसका केंद्रीय मुद्दा ठोस रूप से केंद्र-राज्य संबंध का पुनर्विन्यास है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने बुर्जुआ विपक्ष को अपना स्वाभाविक नेता मान लिया है और वह खुद उनका स्वाभाविक संश्रयकारी बन गई है. इसलिए वर्तमान मंजिल में क्रांतिकारी जनवादी शक्तियों को – उन शक्तियों को जो बुर्जुआ विपक्ष में बुर्जुआ जनवाद के क्रांतिकारी विस्तार की कोई क्षमता नहीं देख पातीं, बल्कि इसके बजाय ग्रामांचलों के व्यापक गरीब और मेहनतकश किसान समुदाय पर अश्रित रहती हैं – सीपीआई(एम) के खाते में वामशक्ति माना ही नहीं जाता. इसके विपरीत, सीपीआई(एम) उन्हें ग्रामांचलों में ‘किसानों की एकता’ को तोड़ने वाली अराजकतावादी शक्ति ही मानती है. ऐसा मानना बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि ग्रामांचलों में हमारा संघर्ष अनिवार्य रूप से उनके धर्मनिपेक्ष बिरादरों के सामाजिक आधार पर ही चोट करता है.
वाम महासंघ का हमारा नारा कार्यनीतिक लाइन के प्रश्न पर उनके साथ हमारे वस्तुगत विरोध को ही प्रतिबिंबित करता है. इस स्थिति में उनके साथ हमारे संबंधों में संघर्ष ही प्रधान पहलू बना हुआ है. यह नारा उनके साथ हमारे राजनीतिक विवाद को ठोस करने और उसे तीखा बनाने में और इस आधार पर उनके कार्यकर्ताओं एवं प्रभावित जनता के साथ समागम बढ़ाने में भी निस्संदेह मदद करेगा. यह मानना ही होगा कि इस मंजिल में उनके साथ बड़े किस्म की कोई एकताबद्ध कार्यवाही चलाने की तथा उनके व हमारे बीच के संबंध को संस्थाबद्ध रूप देने की कोई फौरी संभावना नहीं है. तथापि बिहार में राज्य स्तर तक भी और कुछ अन्य राज्यों में स्थानीय स्तर पर एकताबद्ध कार्यवाहियां संचालित की जा सकी हैं. पश्चिम बंगाल में भी स्थानीय स्तर पर उनके कार्यकर्ताओं के साथ स्वाभाविक संबंध बनाया जा सकता है, और यहां तक कि थोड़ी बहुत संयुक्त कार्यवाहियां भी की जा सकती हैं, यह वहां के अनेक इलाकों के हाल के अनुभवों से प्रमाणित हुआ है. वह हर जगह हमें अलगाव में डालने अथवा जहां कहीं वह शक्तिशाली है वहां हमारे ऊपर आक्रमण करके हमसे मुठभेड़ करने के निराशोन्मत्त प्रयत्नों से ही प्रारंभ करती है मगर जहां-जहां हम राजनीतिक तौर पर इस प्रयत्न को असफल बनाते हुए टिक पाए हैं वहां बाद में उसका रुख बदला है और उसके साथ हमारा संबंध स्वाभाविक बन सका है. इस प्रक्रिया को कुछ और विकसित किया ही जा सकता है, किंतु उसकी मनोवृत्ति में किसी क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए हमें निस्संदेह राजनीतिक घटनाओं के भावी विकास का इंतजार करना होगा. आने वाले दिनों में इस बदले संबंध की शर्त आज का हमारा यह बुनियादी कार्य ही होगा. बुनियादी कार्य की इस कठिन-कठोर और लंबी प्रक्रिया को अंगूठा दिखाते हुए महज नारों और कार्यनीतिक नकेलों से सीपीआई(एम) जैसे परंपरागत प्रतिद्वंद्वी को नाथने की उम्मीद करना स्पष्टतः खयाली पुलाव पकाना है. और खासकर तब जबकि वह राजनीतिक चढ़ाव की मंजिल में है और उसका नेतृत्व अपनी कार्यनीतिक लाइन की सफलता के बारे में अपने कार्यकर्ताओं के अंदर भ्रम पैदा करने में समर्थ है.
दूसरे सवाल के जवाब में यह कहा जा सकता है कि संसदीय संघर्ष की प्रक्रिया में किसी-किसी राज्य में वामपंथी सरकार के निर्माण का प्रश्न उठ सकता है और हम उस मौके से फायदा उठा सकते हैं. हमारी चौथी पार्टी कांग्रेस ने हमारी कार्यनीतिक लाइन में यह अत्यंत महत्वपूर्ण संयोजन किया है.
कम्युनिस्ट क्रांतिकारीयों की मंडली में यह सवाल आज तक कुफ्र (टैबू) बना हुआ था. हमने जैसे ही यह सवाल उठाया चारों ओर हाय-तौबा मच गई और हमें भला-बुरा कहा जाने लगा – हाय, सामाजिक जनवादियों के साथ आखिरी विभाजन रेखा भी अब खत्म हो गई. और पार्टी के भीतर इसी आधार पर मगर अतिदक्षिणपंथी सिरे से सवाल उठा : हम वाम मोर्चा में शामिल क्यों नहीं हो जाते?
संसदीय संघर्ष के सर्वोच्च रूप के तौर पर कुछ राज्यों में सरकार बनाने का सवाल भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में 1957 से ही मौजूद रहा है. नक्सलबाड़ी आंदोलन के पहले भी क्रांतिकारी कम्युनिस्टों ने अंतःपार्टी संघर्ष में सरकार बनाने की कार्यनीति को नहीं ठुकराया था. दरअसल, जन आंदोलनों का विकास करने के लिए ऐसी सरकारों के इस्तेमाल की कार्यनीति के बारे में तब आम सहमति ही थी. झगड़ा तो तब हुआ जब सीपीआई(एम) के नेतृत्व ने संयुक्त मोर्चा सरकार का इस्तेमाल नक्सलबाड़ी आंदोलन का दमन करने के लिए किया. उसके बाद का दौर हमारे लिए प्रत्यक्ष क्रांतिकारी संघर्ष का दौर था, जबकि संसदीय संघर्ष फालतू चीज थी और फासिस्ट आतंक के उस दौर में सीपीआई(एम) को भी सरकार बनाने का मौका नहीं मिल सका.
हमें संघर्ष के इस विशेष क्षेत्र में अत्यंत सावधानी के साथ और कदम-ब-कदम आगे बढ़ना होगा. लिहाजा हमारी चौथी पार्टी-कांग्रेस ने इस संबंध में केवल आम मार्गदर्शक लाइन रखी है. इस प्रश्न को ठोस रूप में भावी मीमांसा के लिए ही छोड़ दिया गया है. क्रांतिकारी आंदोलन के विकास की किसी मंजिल में हम यह प्रश्न जरूर उठाएंगे. उदाहरण के लिए बिहार की आज की स्थिति में क्या सचमुच ऐसी कोई संभवना है? इस पर पार्टी के अंदर सलाह-मशविरा और बहस करने की शुरूआत की जानी चाहिए, तथापि चौथी कांग्रेस ने हमें निर्देश दिया है कि हम इस प्रश्न पर सीपीआई(एम) द्वारा संचालित वाम मोर्चा सरकार के द्वंद्वात्मक निषेध के आधार पर ही अपने व्यवहार में विकास करेंगे.
हां, यह बात जरूर सच है कि केंद्र की कांग्रेस सरकार का विरोध करने और समग्र रूप से भारतीय राज्य मशीनरी में, चाहे जितनी छोटी हो, एक दरार पैदा करने में विपक्ष के नेतृत्व में चलने वाली राज्य सरकारों की भी एक भूमिका होती है. किंतु ऐसी स्थितियां तो व्यापक जन जागरण की शर्त भी मुहैया करती हैं. गैर-वाम सरकारों द्वारा इस जन जागरण को आंचलिकता की खाई में डुबो देने का तर्क और उसकी जरूरत तो समझ में आती है, लेकिन अगर कोई वामपंथी सरकार भी उसी राह पर चलती है, तो हम उसका विरोध न करें, ऐसा नहीं हो सकता – उस पर लगे वामपंथी लेबुल के बावजूद.
इन कारणों से केंद्र विरोधी संघर्ष में वाम मोर्चा सरकारों का आलोचनात्मक समर्थन करना और राज्य के अंदरूनी मामलों में क्रांतिकारी विपक्ष की भूमिका निभाना – यही इस सवाल पर हमारी बुनियादी स्थिति हो सकती है.
अब हम तीसरे सवाल पर पहुंचते हैं. हमने वाम महासंघ की बात ठोस तौर पर ‘राजीव हटाओ’ आंदोलन के मद्देनजर कही है. एक ही नारा देने के बावजूद बुर्जुआ विपक्ष से वाम शक्तियों का रुख गुणात्मक तौर पर भिन्न है, वामपंथी लोग ‘राजीव हटाओ’ आंदोलन को जनता की बुनियादी मांगों पर होने वाले जन आंदोलनों के साथ जोड़ना चाहते हैं. बुर्जुआ विपक्ष के साथ वामपंथियों का संश्रय केवल मुद्दा आधारित और सामयिक होता है – बुर्जुआ विपक्ष के मुकाबले वामपंथ की इस स्वतंत्रता का इजहार करने के लिए ही वाम महासंघ की आवश्यकता है.
भाजपा के साथ संश्रय कायम किया जाए अथवा नहीं – वाम मोर्चा और नेशनल फ्रंट के बीच मतभेद को आम जनता के बीच केवल इसी रूप में देखा जा रहा है. इसने वामपंथ की स्वतंत्र पहचान को केवल साम्प्रदायिकता के प्रश्न तक सीमाबद्ध कर दिया है.
हमारे प्रचार की दिशा केवल यही हो सकती है कि इस महासंघ में सीपीआई(एम) के साथ हमारा संश्रय जरूर होगा, क्योंकि हमने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में वाम मोर्चा सरकारों की एक प्रासंगिकता मान ली है, क्योंकि हम इन सरकारों के केंद्र विरोधी संघर्षों का समर्थन करते हैं और क्योंकि इन सरकारों को भंग कर देने की केंद्रीय सरकार की हर साजिश के विरोध में उठ खड़ा होने के रास्ते में हमारे सामने कोई रूकावट नहीं है. पश्चिम बंगाल में इन सरकारों की जन विरोधी गतिविधियों का हमारे द्वारा किया जानेवाला विरोध अथवा दूसरी ओर बिहार के हमारे किसान संघर्ष का सीपीआई(एम) द्वारा किया जा रहा विरोध महासंघ के अंदरूनी बहस के मुद्दे हो सकते हैं. ये मतभेद धीरे धीरे और अधिक घटाए जा सकते हैं तथा महासंघ और अधिक सुदृढ़ बन सकता है. हमारे बीच जो थोड़े से साझे मुद्दे हैं, आइए आज उन्हीं से शुरू किया जाए; उनसे शुरू करना निश्चय ही संभव है.
बिहार में हमने यह देखा है कि वाम मोर्चा सरकारों के बारे में हमारे और हमारे किसान संघर्ष के बारे में सीपीआई(एम) के दृष्टिकोणों पर दोनों पक्षों द्वारा अडिग रहने पर भी राज्य के स्तर पर संयुक्त कार्यवाहियां की जा चुकी हैं यहां तक कि यह प्रस्ताव तीनों पार्टियों के बीच चर्चा का विषय बन चुका है कि बुर्जुआ विपक्ष के साथ संयुक्त कार्यवाही चलाते समय भी सीपीआई, सीपीआई(एम) और आईपीएफ जैसी वाम पार्टियों को अपने बीच एक अलग संस्थाबद्ध व्यवस्था कायम करनी चाहिए, बिहार में आज जो बीज बोया जा रहा है कल वही एक महासंघ का रूप ले सकता है.
निस्संदेह इस वाम महासंघ की पहलकदमी आमतौर पर हिंदी क्षेत्र में और खासकर बिहार में ली जाएगी. हमारी पार्टी ने आईपीएफ के जरिए जिस नई राजनीतिक पहलकदमी की शुरूआत आज से 7 वर्ष पहले की थी वह आज हिंदी क्षेत्र की ठोस स्थिति में वामपंथ के पुनरुत्थान का जो संदेश दे रहा है उसकी आहट मिलनी शुरू हो गई है. देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र और भारतीय राजनीति के नाड़ी केंद्र में, जहां अतीत में वामपंथी आंदोलन अपना लंगर तक नहीं डाल सका था, वहां आज नई हवा बहने लगी है. इसी क्षेत्र में वामपंथी आंदोलन की तीनों धाराओं का संगम संभव है. बिहार और उत्तर प्रदेश में सीपीआई और सीपीआई(एम) के कार्यकर्ताओं और उनसे प्रभावित जनसमुदाय का बड़ी संख्या में आईपीएफ में शामिल होना इसी संगम का एक रूप है. पहले सीपीआई के साथ और बाद में धीरे-धीरे सीपीआई(एम) के साथ संयुक्त कार्यवाहियों की शुरूआत इस संगम का दूसरा रूप है. यह धारा निस्संदेह विकसित होगी और इसी इलाके में राष्ट्रीय स्तर पर उस वाम महासंघ की नीव पड़ेगी जिससे हमारी स्वतंत्रता और पहलकदमी की गारंटी होगी.
स्वविरोधी लगने पर भी द्वंद्वात्मक सच्चाई यही है कि वाम महासंघ के निर्माण के इस प्रयास में पश्चिम बंगाल के क्रांतिकारी कामरेड अपना योगदान संपूर्णतः विपरीत ढंग से अर्थात् वाम मोर्चा सरकार की जनविरोधी नीतियों और कार्यवाहियों के विरुद्ध क्रांतिकारी विपक्ष की पताका बुलंद करके ही दे सकते हैं.