(चौथी कांग्रेस की राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट से – जनवरी, 1988)
अब हम राज्यों में सरकार बनाने की सीपीआई(एम) कार्यनीति तथा पश्चिम बंगाल में वाममोर्च सरकार के शास्त्रीय उदाहरण के संदर्भ में इस कार्यनीति पर अमल की चर्चा करेंगे.
ऐसी सरकारों के गठन के बारे में सीपीआई(एम) के कार्यक्रम में कहा गया है कि :
1. जन आंदोलनों से उत्पन्न स्थितियों में पार्टी के नेतृत्व में विभिन्न राज्यों में सरकारें बनाई जा सकती हैं. यह कार्यनीति संघर्ष का एक संक्रमणकालीन रूप है.
2. ऐसी सरकारें जनता की जीवन स्थितियों को उन्नत करने के लिए सुधार के कुछ कदम उठाएंगे. यह कार्यनीति बेहतर भविष्य के लिए संघर्षों में उठ खड़ा होने में जनता को मदद देगी.
3. ऐसी सरकार चलाने के अनुभवों के जरिए जनता बुर्जुआ-जोतदार व्यवस्था की सीमाओं के बारे में शिक्षित होगी.
जब इस कार्यक्रम को सूत्रबद्ध किया गया था, तब पार्टी इन सरकारों की स्थिरता के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं थी, इसीलिए कार्यक्रम में चंद कल्याणकारी कदमों का और उनके जरिए बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष में जनता को जागृत करने का ही जिक्र किया गया है. केंद्र में ऐसी सरकार के गठन की संभावना से इनकार किया गया है. सीपीआई से सीपीआई(एम) का यही एक बड़ा अंतर था. सीपीआई के लिए संसदीय रास्ता ही क्रांति का एकमात्र रास्ता था और ठोस रूप में कांग्रेस के प्रगतिशील हिस्सों के साथ मिलकर केंद्र में सरकार के गठन के जरिए उस क्रांति को संपन्न किया जाना था.
1977 के बाद सीपीआई (एम) ने अपने को एक अजीबोगरीब स्थिति में पाया. न सिर्फ वह पश्चिम बंगाल, केरल तथा त्रिपुरा में सरकार गठित करने में कामयाब हुई, बल्कि इस बार, 1967-69 की अवधि के विपरीत, पश्चिम बंगाल की सरकार पूरे एक दशक तक सत्ता में बनी रही और तीसरी दफा भी काफी अच्छे ढंग से चुनाव जीत गई और अगर कोई असाधारण घटना नहीं घटी, तो त्रिपुरा सरकार द्वारा भी तीसरी दफा बाजी मारलेना तय है, पांच वर्षों के अंतराल के बाद, केरल में फिर वाम-जनवादी सरकार आ गई है. 1977 के बाद से केंद्र सरकार या शासक वर्गों द्वारा इन सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए कोई गैर-संवैधानिक कदम नहीं उठाया गया, बल्कि कमोबेश संसदीय खेल के नियमों का ही पालन किया जा रहा है.
दस वर्षों से भी अधिक समय तक लगातार शासन ने संक्रमणकालीन सरकार पर अतिरिक्त बोझ डाल दिया है. बात अब चंद कल्याणकारी कदम उठाने तथा बुर्जुआ-जोतदार व्यवस्था के बारे में जनता को शिक्षित करने तक ही सीमित नहीं रह गई, बल्कि सीपीआई(एम) अब केंद्र से और अधिक धन तथा अधिकार हासिल करने, तथा केंद्र-राज्य संबंध के पुनर्गठन की मांग उठाने लगी. पिछले दस वर्षों से इस पार्टी का यही केंद्रीय नारा रहा है. यही तमाम राज्य सरकारों के संयुक्त मोर्चे की बुनियादी रणनीति रही है; चाहे उन सरकारों का राजनीतिक रंग जो भी रहा हो (ज्योति बसु अक्सर कांग्रेसी मुख्यमंत्रीयों से भी एकता कायम कर लेते हैं). जनता को यही शिक्षा दी गई है कि केंद्र खासकर पश्चिम बंगाल के साथ भेदभाव बरतता है और यदि राज्य सरकार को अधिक धन दिया जाए, उसे ज्यादा अधिकार प्राप्त हों तो वह जनता के लिए बहुत कुछ कर सकती है. यह प्रचार अक्सर इस राष्ट्रवादी प्रचार के करीब चला जाता है कि पश्चिम बंगाल तथा बंगाली लोग अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं. पश्चिम बंगाल के हितों के लिए केंद्र के खिलाफ एकताबद्ध संघर्ष में कांग्रेस(आइ) के सांसदों और विधायकों से भी सहयोग की मांग की जाती है. अशोक सेन के साथ हाल का संश्रय इसी का संकेत है.
फिर, पश्चिम बंगाल के ‘औद्योगीकरण’ की जिम्मेवारी भी सरकार के कंधों पर आ गई है. इसके लिए सरकार को देशी एकाधिकारी घरानों तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सहयोग लेना पड़ा है और इसी कारण हड़ताल तथा जुझारू मजदूर आंदोलनों को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता. यह जिम्मेवारी तो और भी महंगी पड़ गई, क्योंकि पश्चिम बंगाल औद्योगिक मोर्चे पर गंभीर संकट से गुजर रहा है. उद्योगों के बीमार होने की परिघटना इस राज्य में बड़ी तेजी से फैल रही है. मगर दुर्भाग्यवश, वर्तमान स्थितियों में मजदूर वर्ग तो औद्योगीकरण की जिम्मेवारी कत्तई अपने कंधों पर नहीं उठा सकता. यह कार्य केवल इजारेदार घरानों और बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा ही पूरा किया जा सकता है; लिहाजा ‘औद्योगिक शांति बनाए रखना ही समूचे संदेश की सारवस्तु बन गया है, और कहने की जरूरत नहीं कि इसके चलते पश्चिम बंगाल में सीटू का चरित्र गुणात्मक रूप से बदल गया है. जो मजदूर सीटू के इस आदेश की अवहेलना करते हैं उन्हें प्रायः सरकारी दमन का शिकार होना पड़ता है. इस पार्टी का मजदूर वर्ग से बड़ता अलगाव, जो क्रमिक चुनाव-परिणामों में अभिव्यक्त हुआ है, कुल मिलाकर इसी नीति का संचित परिणाम है. तथापि, पार्टी ने 1984 के संसदीय चुनाव में लगभग तमाम दिग्गज ट्रेड यूनियन नेताओं की हार के पीछे इंदिरा की हत्या के बाद की असाधारण लहर को जिम्मेवार ठहराया. इसी प्रकार 1987 में कतिपय मजदूर-बहुल चुनाव क्षेत्रों में अपनी पराजय का कारण यह पार्टी गैर-बंगाली मजदूरों की जातिवादी, सांप्रदायिक और हिंदी अंधराष्ट्रवादी भावनाओं में ढूंढ़ने लगी. अपने अस्तित्व की वस्तुगत स्थितियों से मजदूर होकर वाम मोर्चा सरकार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के प्रबंधकों की तरह बर्ताव करती जा रही है, इससे भी बुरी बात यह है कि उन्होंने संकटकालीन प्रबंधन का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया है.
प्रशासन व राज्य यंत्र की रहनुमाई करने तथा मजदूरों एवं किसानों के कुछ हिस्सों के अलावा समाज के विभिन्न असंतुष्ट वर्गों, जैसे जूनियर डाक्टरों, इंजीनियरों, राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों आदि के आंदोलनों से निपटने की जिम्मेदारी सरकार के कंधों पर आ पड़ी है. इस जिम्मेवारी से बाध्य होकर सरकार पुलिस प्रशासन को शक्तिशाली बनाने और पुलिस अफसरों तथा उनके काले कारनामों का बचाव करने जैसा अप्रिय रास्ता भी अपना रही है. जनआंदोलनों से निपटने के लिए उसने वही परंपरागत रुख अपनाया है. गोरखा आंदोलन को कुचलने के लिए उसने केंद्र से अधिक-से-अधिक सीआरपीएफ की मांग की है और हाल ही में अपने वायदे को तोड़ते हुए पश्चिम बंगाल में आतंकवाद विरोधी कानून लागू किया है.
ग्रामीण क्षेत्र में सीपीआई (एम) को अभी भी प्रबल जन-समर्थन प्राप्त है और उसने अपना सामाजिक आधार फैलाने में सफलता पाई है. उसने ऑपरेशन बर्गा, पंचायत, और विभिन्न राहत-उपायों के जरिए कतिपय भूमि-सुधारों को अंजाम दिया है तथा खासकर छोटी जोतों के लिए सरकारी मदद पर आधारित कृषि-विकास का प्रयोग किया है. वर्तमान आर्थिक संरचना में इन तमाम उपायों के असर से पूंजीवादी कृषि के विकास को थोड़ा आवेग अवश्य मिला है.
सीपीआई(एम) के एक सिद्धांतकार ने 1987 में देशहितैषी (पार्टी का राज्य मुखपत्र) के शारदीय अंक में उस राज्य के ग्रामीण परिदृश्य का मूल्यांकन करते हुए ये बातें कहीं :
1. ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक असमानता और आय के फर्क को घटाया नहीं जा सका है.
2. हर इलाके में ऐसा देखा जाता है कि बर्गादारों ने स्वेच्छापूर्वक अपनी जमीन खेतमालिकों को सौंप दी तथा जिन गरीब किसानों को पट्टा मिला था, उन्होंने वह जमीन मध्यम किसानों अथवा धनी किसानों के हाथों सालाना पट्टे पर उठा दिया.
3. किसानों द्वारा अपनी जमीन खोकर भूमिहीन बनते जाने की प्रक्रिया को नहीं रोका जा सका है, उल्टे इसने जलिट रूप ग्रहण कर लिया है.
4. भाड़े पर मजदूर रखने की प्रवृत्ति बढ़ी है. खेत मजदूरों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है तथा स्टेशनों पर व ग्रामीण बाजारों में अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए उनका नियमित रूप से इकट्ठा होना अब एक सुपरिचित दृश्य बन गया है.
ये सभी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विकास के लक्षण हैं. आधुनिक जोतदारों, धनी किसानों और पूंजीवादी फार्मरों की आय बढ़ी है और उनकी स्थिति पहले से ज्यादा सुदृढ़ हुई है. हमारे अपने अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि पुराने किस्म की जमींदारी और खेत मजदूरों की अर्ध-बंधुओं स्थितियां बहुत हद तक नष्ट हुई हैं और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिला है. सहकारी समितियों के कर्जों का काफी बड़ा भाग और ऋण व लागत की अन्य सुविधाएं पूंजीवादी फार्मरों द्वारा हड़प ली जाती हैं. ठोस रूप से कहा जाए तो सीपीआई(एम) का कृषि-कार्यक्रम धनी कृषक अर्थव्यवस्था के विकास की सहायता करने और समय-समय पर खेत मजदूरों की मजदूरी में थोड़ी वृद्धि कर देने के बीच संतुलन बनाए रखने की कसरत बन गया है. मध्यम कृषक अर्थव्यवस्था गतिरोध का सामना कर रही है. कुल मिलाकर, सीपीआई(एम) आजकल अखिल भारतीय स्तर पर धनी किसानों समेत तमाम किसानों की एकता और लाभकारी मूल्य की मांग पर ज्यादा जोर दे रही है.
फिर भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आखिरकार ये सरकारें इतने वर्षों तक सत्ता में टिकी हुई हैं; शासक वर्ग इतनी सहजता से इन सरकारों को जनता की चेतना व संगठन उन्नत करने और पूंजीवादी भूस्वामी व्यवस्था की सीमाओं के बारे में जनता को शिक्षित करने का मौका कैसे दे रहा है? सीपीआई(एम) के नेताओं के पास यही एक रटा-रटाया जवाब है कि पश्चिम बंगाल की जनता की जुझारू चेतना के चलते ही ऐसा संभव हो सका है. वे कहानी के दूसरे पहलू की, अर्थात्, ऐसी सरकारों को बरकरार रखने की शासक वर्गों की नई उन्नत कार्यनीति की कभी चर्चा नहीं करते हैं.
निस्संदेह, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे को जनसमर्थन हासिल है तथा कांग्रेस(आइ) अभी भी बदनाम और असंगठित है (हालांकि ध्यान रहे कि कांग्रेस को चुनाव में अकेले लगभग 40 प्रतिशत मत मिलते हैं और इसमें महज 5 प्रतिशत का परिवर्तन होने से पलड़ा उसके पक्ष में झुक जाएगा) और शासक वर्गों द्वारा इस सरकार को बरकरार रखने के पीछे यह एक महत्वपूर्ण कारण है. वाम मोर्चा सरकार अपने जन-समर्थन के कारण औद्योगिक शांति की गारंटी करने के लिए एक अच्छा मुहरा साबित हो रही है. जहां तक सवाल शासक वर्गों के प्रभुत्व को खतरा पहुंचने का है, तो इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि जनता की जीवन दशा को बेहतर बनाने के लिए कुछ कल्याणकारी उपाय अपनाने का नरमपंथी कार्यक्रम दरअसल भारत में सभी प्रकार की सरकारों का कार्यक्रम है. हां, फर्क केवल यत्र-तत्र इसे लागू करने की गति में निहित है. साथ ही, सीपीआई(एम) के उपदेशों में एक फर्क यह भी है कि वह जनता को पूंजीवादी-भूस्वामी व्यवस्था की सीमाबद्धताओं के बारे में शिक्षित करती है. शासक वर्ग सीमाबद्धताओं के बारे में इस शिक्षा से तनिक भी नहीं घबराता है. ऐसी सरकारों की लंबी कार्यविधि जनता को संसदीय जनवाद की असीम संभावनाओं के बारे में ही ज्यादा शिक्षित करती है. राज्य-व्यवस्था की सीमाबद्धताओं के बारे में शिक्षा पहले राज्य सरकारों की सीमित सत्ता और फिर राज्य सरकारों के सीमित राजकोष के बारे में शिक्षा में तब्दील हो गई है!
वर्तमान अवस्था में शासक वर्गों की रणनीति यह नहीं है कि इन सरकारों को गिरा देने के लिए षड्यंत्र रचा जाए, जैसा कि सीपीआई(एम) के नेता लोग जनसमुदाय को यकीन दिलाना चाहते हैं; उल्टे उनकी रणनीति है एक उत्तरदायी सरकार बन जाने के लिए उन पर दबाव डालना. संक्षेप में इस सवाल पर यही तमाम पूंजीवादी प्रचार की केंद्रीय विषयवस्तु रही है. उन्होंने अनुभव से सीखा है कि यह दबाव सीपीआई(एम) पर असर डालेगा. पूंजीवादी-भूस्वामी व्यवस्था के अंदर इतना लचीलापन मौजूद है कि वह कदम-ब-कदम वाम सरकार को अपने अंदर पचा ले तथा संक्षेप में, वाम मोर्चा सरकारों के साथ यही कुछ हो रहा है. यही वह बुनियादी सवाल है जिस पर सीपीआई(एम) कभी कोई चर्चा ही नहीं करती.
उत्तरदायी राज्य सरकारें चलाते हुए सीपीआई(एम) को अपने भावी तर्कसंगत कदम के बतौर केंद्र में, जहां समस्त सत्ता निहित है, सरकार बनाने का कार्यक्रम लेना ही होगा. सीपीआई(एम) तीन राज्यों में सरकार का नेतृत्व कर रही है और राजीव सरकार का संकट दिनोंदिन गहराता जा रहा है. सीपीआई(एम) के लिए नए दौर की सैद्धांतिक कलाबाजियां करने के सुनहरे दिन आ गए हैं. पश्चिम बंगाल के प्रयोग के मुख्य कर्ताधर्ता और नई कार्यदिशा के प्रमुख निर्माता ज्योति बसु के इन शब्दों को सुनिए : “केंद्रीय कमेटी ने न सिर्फ राजीव सरकार के इस्तीफे की और नया चुनाव कराने की मांग की है, बल्कि उसने एक वैकल्पिक सरकार के निर्माण के बारे में भी चर्चा उठाई है. केंद्रीय कमेटी द्वारा गृहीत प्रस्ताव में ऐसी सरकार की प्रकृति के बारे में स्पष्ट रूप से इशारा किया गया है.”
तब वे केंद्रीय कमेटी के प्रस्ताव से उद्धरण देते हैं : “केंद्रीय कमेटी का मत है कि हमारे देश की जनता एक ऐसी सरकार चाहती है जिसका दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष हो; ऐसी सरकार जो संप्रदायवाद से लड़ने के लिए समर्पित हो जो सर्वसत्तावाद का मुकाबला करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो, जो जनवाद की रक्षा करे और भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंके; ऐसी सरकार जो उचित केंद्र-राज्य संबंध, गुट-निरपेक्षता और विश्वशांति के पक्ष में डटी रहे; ऐसी सरकार जो राष्ट्रीय एकता की रक्षा करे, अस्थिरता पैदा करनेवाली साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध करे; ऐसी सरकार जो लाभकारी मूल्य प्रदान करे तथा बेरोजगारों को तथा कम मजदूरी पानेवालों को राहत दे.”
और तब श्री ज्योति बसु घोषणा करते हैं, “हमारी पार्टी ऐसी सरकार के निर्माण में पूरा-पूरी मदद करेगी.”
धर्मनिरपेक्ष शक्तियों की यह एकता, “धर्मनिरपेक्ष मोर्चे” की यह सरकार श्री ज्योति बसु के अनुसार न तो “जनता का जनवादी मोर्चा है” और न ही “वाम और जनवादी मोर्चा.” और तब वे पार्टी सदस्यों को आश्वासन देते हैं कि “हम अपने बुनियादी लक्ष्य से (अर्थात जनता के जनवादी मोर्चे के निर्माण के लक्ष्य से) पथभ्रष्ट नहीं हुए हैं; इससे कभी भटकेंगे भी नहीं.”
फिर भी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह “धर्मनिरपेक्ष मोर्चा” सीपीआई(एम) की कार्यनीति में एक नया अवदान है. और जिस प्रकार वे वीपी सिंह के साथ विशेष सम्बंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं तथा जिस प्रकार वे कांग्रेसी सांसदों से और कांग्रेस के अंदर “मूक बहुमत” से धर्मनिरपेक्ष आदर्शों के लिए उठ खड़ा होने की लगातार अपीलें जारी कर रहे हैं और उनसे कांग्रेस छोड़ देने का आग्रह कर रहे हैं, उससे इस “धर्मनिरपेक्ष सरकार” की पूरी अंतर्वस्तु ही नष्ट हो जाती है. अब यह स्पष्ट हो गया है कि सीपीआई(एम) भी सीपीआई के बिलकुल करीब आ पुंची है – सीपीआई की भांति उसने भी संसदीय रास्ते पर चलते हुए कांग्रेस के प्रगतिशील (पढ़े धर्मनिरपेक्ष) हिस्से के साथ मिलकर केंद्र में सरकार बनाने की धारणा स्वीकार कर ली है. और इस तरह चक्र पूरा हो गया है.