(देशब्रती विशेषांक, अक्टूबर 1994 से)
20 मई 1972 को सुबह सबेरे जब बहरमपुर सेन्ट्रल जेल का मुख्य दरवाजा खुला तो मुझे यकीन नहीं हुआ कि सचमुच हमें छोड़ा जा रहा है. पीवी ऐक्ट में बिना किसी मुकदमें के एक वर्ष तक जेल में कैद रखने की मियाद उसी दिन खत्म हो रही थी, लेकिन उन दिनों पश्चिम बंगाल में जंगल राज चल रहा था. जेल गेट से बाहर ही फिर से गिरफ्तार करके जेल में ठूंस देने की घटनाएं लगातार घटित हो रही थीं. गेट के सामने खड़ी काली वैन को देखकर हमारी वही आशंका बलवती हुई. हमने गेट से निकल कर जेल की दीवार से सटे रास्ते पर चलना शुरू किया. पीछे मुड़कर देखा – वो लोग हमारे पीछे नहीं आ रहे थे. हमने पैरों की गति बढ़ा दी.
इस विशाल ऊंची दिवार को अंदर से चढ़कर पार करने की योजना बनाते-बनाते चंद महीने पहले न जाने कितने युवा प्राणों ने अपनी आहुति दे दी थी और उस पूरी अवधि में हमें फांसी की सजा पाये कैदियों के लिये बनी 25 नम्बर की सेल में चौबीसों घंटे बंद रहना पड़ा था.
जेल में ही रह गये हमारे साथियों के बारे में सोचकर हमें बहुत बुरा लग रहा था. यद्यपि सेल में बंद रहने की स्थिति में हम एक दूसरे का मुहं नहीं देख पाते थे मगर बुलंदी से लगाये गये नारे, गाये गये गीत और राजनीतिक वार्तालाप के जरिये और सर्वोपरि, चाय की गाड़ी के जरिये – रस्सी से बंधे कटोरे के जरिए एक सेल से दूसरे सेल तक गिलास पहुंचाकर – हम सजीव सम्पर्क में बंधे रहते थे. उस जमाने में भांति-भांति के ग्रुप नहीं बने थे, हम सभी एक ही पार्टी के कामरेड, नक्सलपंथी बंदी थे.
स्वाधीनता के बाद से भारतीय जेलों में शायद ऐसे राजनीतिक बंदी पहली बार आये थे, जो अद्वितीय भी थे. पश्चिम बंगाल के जिलों में हजारों-हजार की तादात में वे कैद रहे हैं, उन्होंने चरम यातना भोगी है, जेल को उन्होंने विद्रोह के केंद्रों में बदला है और एक के बाद एक जेल तोड़ने का अभिनव दृष्टांत भी पेश किये हैं.
बहरमपुर में चंद घंटे गुजरने के बाद हमने उसी रात दुर्गापुर के लिये प्रस्थान किया. यहां हम से मेरा मतलब है मैं खुद और (कामरेड) काली. काली को हम इसी नाम से जानते थे और इसी नाम से उन्होंने अपना पूरा जेल जीवन गुजार दिया. लाख कोशिश के बावजूद पुलिस उनसे उनका असली नाम या पता नहीं उगलवा सकी. काली के साथ मेरा परिचय 1970 के दिसम्बर महीने में हुआ था -- उसी दिन, जिस दिन हम गिरफ्तार हुए थे. वह बर्धमान जिले के ग्रामीण क्षेत्र में काम करता था और मेरी ही तरह उसको भी जिला कमेटी में शामिल किया गया था. और उसी दिन हम जिला कमेटी की पहली बैठक में शामिल होने जा रहे थे. हमारे साथ जो अन्य लोग पकड़े गये थे, वे इधर-उधर बिखर गये थे. मैं और काली पुलिस की मार से हाथ-पैर तुड़ाकर आसनसोल अस्पताल में अगल-बगल के बिस्तरों में लेटे रहते थे, हमने एक ही हथकड़ी में बंधी हालत में दुर्गापुर कोर्ट में आना-जाना किया, नारे दिये और अगल-बगल के सेलों में जेल-जीवन गुजार था, और आज एक साथ छोड़े जाने के बाद एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा कर रहे हैं.
इस अवधि में बाहर की स्थिति बदल चुकी थी. छात्र आंदोलन के उभार वाले उत्तेजनाप्रद दिन जैसे अचानक गायब हो चुके थे, ‘छापामार युद्ध’ के विस्तार और ‘वर्ग-दुश्मन सफाया अभियान’ की खबरें भी अब ज्यादा सुनाई नहीं पड़ती थीं. नेतागण एक के बाद एक गिरफ्तार या शहीद हो चुके थे. पार्टी में विभ्रांति और हताशा, दलत्याग और विश्वासघात का वातावरण छाया हुआ था.
दुर्गापुर में मेरे परिचित पुराने मजदूर कामरेड और उनके परिवारों से मुझे वही पुरानी अंतरंगता और प्यार मिला. मगर मेरे सहकर्मी, जो उन दिनों बर्धमान आंचलिक कमेटी के नेता बन गये थे, कोई मेरे साथ मुलाकात करने नहीं आये. बर्धमान आंचलिक कमेटी की सीमा बिहार के धानबाद जिले तक विस्तृत थी और धक्के के उस दौर में भी करीब सौ पूर्णकालिक कार्यकर्ता उसके अधीन कार्यरत थे.
इसी बीच एक दिन वज्राघात के समान समाचार मिला कि कामरेड चारु मजुमदार गिरफ्तार हो गये हैं और फिर उसके बाद उनकी मृत्यु की खबर आई.
काली तो काम करने बांकुड़ा की ओर चला गया और मैंने आंचलिक कमेटी के निर्देश पर एक टिन के बक्से में अपनी छोटी-मोटी जरूरत की चीजों को रखकर नवद्वीप की ओर प्रस्थान किया और वहां से मैं अग्रद्वीप के एक गांव में पहुंचा. मेरे अपने क्रांतिकारी जीवन का नया दौर यहीं से शुरू हुआ.
हमारे इलाके के प्रभारी कामरेड आंचलिक कमेटी के सदस्य का नाम अशोक मल्लिक था, आजकल वे सीओआई(एमएल) में कार्यरत हैं. वे खोका नाम से जाने जाते थे. नवद्वीप शहर में मध्यवर्गीय समर्थकों की एक बैठक में वे आ रहे हैं, ऐसा सुनकर मैं उनसे मुलाकात करने गया. उन्होंने बताया कि वे व्यस्त रहने के कारण मुलाकात नहीं कर सकेंगे, इसलिये मुझे घर के दरवाजे से ही लौट आना पड़ा. जरूर, चंद दिनों बाद उन महाशय ने मुझसे बातचीत की और ढेर सारे उपदेश भी दिये.
बीरभूम के बगल के बर्धमान जिले के भातार अंचल में 1969 में किसान संघर्ष एक स्तर तक आगे बढ़ा था. उसके बाद धक्का खाने पर, पुलिस द्वारा पीछा किये जाने के चलते इलाके के कई कामरेड इधर-उधर बिखर गये थे. उनमें से एक था कार्तिक, जो पूर्वस्थली इलाके में नये सिरे से संगठन का निर्माण करने की कोशिश कर रहा था. यहीं उसके साथ मेरा परिचय हुआ, और जल्द ही वह मेरा घनिष्ठ मित्र बन गया.
भातार से कालना तक विस्तृत अंचल में हमने टुटे-बिखरे संगठन को जोड़ने और किसान आंदोलन को पुनरुज्जीवित करने की कोशिश शुरू की. दुर्गापुर से परेश, तापस आकर जुड़ गये, विकास तो पहले से ही यहां था. कुछेक गांवों में नई पहलकदमी दिखाई पड़ने के बावजूद कांग्रेसी आतंक के जमाने में हमें खास सफलता नहीं मिल सकी. मगर पूरे जिले में शायद हमारे इलाके में ही नई पहलकदमी लेने की कठोर प्रचेष्टा चल रही थी.
आंचलिक कमेटी के नेतृत्वकारी लोग अमूर्त सैद्धांतिक बहसों में उलझे थे. उनके बीच एक अजीब बहस चल रही थी – चारु मजुमदार (सीएम) को केवल श्रद्धेय नेता कहना उचित है या फिर उन्हें श्रद्धेय और प्रिय नेता कामरेड चारु मजुमदार कहना चाहिये. अब इस सवाल को लेकर आंचलिक कमेटी के अंदर दो लाइन की लड़ाई चल रही थी. इन बातों का सिर-पैर कुछ मेरी समझ में नहीं आया और एक मीटिंग में केवल सीएम कहने के अपराध पर खोका बाबू मुझ पर काफी क्रोधित हो गये. कमेटी के सचिव ने मुझे कई दिनों तक समझाया कि क्यों श्रद्धेय और प्रिय नेता कामरेड चारु मजुमदार कहना उचित है. मगर मैं तो इस बात को नहीं समझ पाया और ईशनिंदा का महापातकी बना रहा. मुझे तो समझ में आया कि संगठन और आंदोलन को पुनर्गठित करने की कठिन-कठोर कोशिश से पीछे हटने के तर्क के रूप में ये लोग इस किस्म की वामपंथी लफ्फाजी का सहारा ले रहे हैं. मेरी समझ में आ गया कि “आज के दौर में दो लाइनों के बीच की लड़ाई ही वर्ग संघर्ष है” इस किस्म के उनके सूत्रीकरण की वास्तविक अंतर्वस्तु क्या है.
धीरे-धीरे आंचलिक कमेटी के नेतृत्व के खिलाफ पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच विक्षोभ बढ़ने लगा और दूसरी ओर हमारी संजीदगी भरी कोशिश सभी की नजरों में आने लगी. इसी बीच, कोलकाता के दो कामरेडों कमल और अग्नि की पार्टी के अंदर रहते हुए हत्या करने के षड्यंत्र में भागीदारी के सन्देह में आंचलिक कमेटी के दो सदस्यों – गौतम सेन और कौशिक बनर्जी – को कमेटी से निष्कासित कर दिया गया. वे इस फैसले को नहीं मान सके और उन्होंने माओ त्सेतुंग के कथन “सच्चाई अक्सर अल्पमत में ही निहित होती है” की दुहाई देकर एक समांतर केन्द्र खड़ा कर दिया. पहली बार ऐसा हुआ कि गौतम सेन – जो मेरा सहपाठी था – मेरे साथ मुलाकात करने आया. जरूर उसे उम्मीद थी कि मैं उसका समर्थन करूंगा. मैंने कहा कि मैं इस घटना के बारे में कुछ भी नहीं जानता, लेकिन तुम्हारे लिये उचित यही होगा कि कमेटी के फैसले को मानकर अपनी बात रखो. इस तरह विद्रोह करना पार्टी की सांगठनिक नियमावली के खिलाफ होगा. उसने मुझे समझाया कि “अल्पमत बहुमत के मातहत होता है” ऐसे नियम सांस्कृतिक क्रांति के दौर में खोटे साबित हो चुके हैं. सांस्कृतिक क्रांति ने इस बात को स्थापित किया है कि “सच्चाई अक्सर अल्पमत में ही निहित होती है” और “विद्रोह करना न्यायसंगत है”. मैंने कहा कि जिस रेड बुक को हाथ में लेकर सांस्कृतिक क्रांति सम्पन्न हुई, उसी रेड बुक में माओ ने इन नियमों का उल्लेख किया है और सबसे बड़ी बात यह है कि यदि इन नियमों को त्याग दिया जाय तो कोई भी संगठन भला कैसे चलेगा. मैंने गौतम से कहा कि तुम खुद जो संगठन बना रहे हो उसमें भी तो आज हो या कल, मतविरोध दिखलाई देंगे और वहां अगर लोग इसी तर्क के आधार पर विद्रोह कर देंगे तो तुम उन्हें कैसे रोक पाओगे? मगर उसको मेरी बातें पुरानमपंथी जैसी लगीं. मुझे दुःख हुआ, लेकिन गौतम अपनी काफी योग्यता और क्षमता के बावजूद कभी कोई संगठन नहीं खड़ा कर पाया.
कौशिक बाबू भी मुझसे मुलाकात करने आये. उन्होंने कहा कि आंचलिक कमेटी के नेतृत्व के खिलाफ आप लोगों में भी तो बहुत विक्षोभ है. इसके अलावा आपकी तो व्यक्तिगत रूप से भी काफी उपेक्षा की गई है, अपमान किया गया है. आप इस विद्रोह का नेतृत्व करें, समस्त कार्यकर्ता आपके पक्ष में खड़े होंगे, हम भी आपके साथ हैं. मैंने कहा माफ कीजिये, मैं आपकी तरह विद्रोही नहीं हूं. इतने दिनों तक मुझे जो पार्टी शिक्षा मिली है उसके अनुसार मैं संगठन के अंदर ही नीतिनिष्ठ तरीके से संघर्ष चलाने पर यकीन करता हूं.
इस घटना का उल्लेख मैंने यह बताने के लिये किया कि सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर उन दिनों इस किस्म की बहुतेरी धारणाएं और विचार हमारी पार्टी में फैल चुके था और उनसे पार्टी प्रणाली टूटकर तहस-नहस हो रही थी. मुझे लगता है कि बाद के अरसे में अनगिनत ग्रुपों का अस्तित्व में आना, छोटे-मोटे मतविरोध पैदा होना तथा पार्टी में एक के बाद एक विभाजन होना, इन चीजों के पीछे इन्हीं धारणाओं का हाथ है.
इधर सीएम की मृत्यु के बाद शर्मा-महादेव के केन्द्र का निर्माण हुआ. चंद ही दिनों में उसके दो टुकड़े हो गये. चारु मजुमदार का उत्तराधिकारी होने का दावा करके महादेव बाबू ने अजीब-अजीब किस्म की भाववादी धारणाएं फैलाना शुरू किया. हमारी आंचलिक कमेटी का नेतृत्व इसके खिलाफ कोई विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष चला पाने में पूर्णतः असमर्थ था. हमने अपनी इलाका कमेटी की ओर से महादेव लाइन के खिलाफ एक दस्तावेज तैयार करके आंचलिक नेतृत्व के पास भेजा. उन्होंने उस दस्तावेज को वितरित ही नहीं किया. मगर ऐसा लगता है कि पार्टी के पुनर्गठन के संघर्ष में वही सबसे पहला राजनीतिक दस्तावेज था.
नदिया जिला के कामरेड लोग, जो मेरे साथ घनिष्ठ सम्पर्क रखते थे, इस संघर्ष में हमारे साथ सहमत नहीं हो सके. यहां तक कि नवद्वीप में जिस काली दा के घर में मैं शेल्टर लेता था और जो सिलाई का काम करके दो-चार रुपये का रोजगार करते थे और उससे ही हम दोनों का खाना-पीना चलता था – वह काली दा भी पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गये और महादेव लाइन के प्रभाव में आकर शहीद हो गये.
इसी बीच मुझे और कार्तिक को आंचलिक कमेटी में शामिल करके सचिव ने अपने प्रति “आस्था के संकट” का समाधान करना चाहा. मैं आंचलिक कमेटी में गया, और कुछ ही समय के बाद मुझे सचिव की जिम्मेवारी लेनी पड़ी. कारण यह था कि अब पुराने सचिव सबका विश्वास खो चुके थे और इतने दिनों में वे खुद ही “श्रद्धेय और प्रिय नेता” के प्रति आस्था खो बैठे थे.
जो हो, पार्टी पुनर्गठन की प्रक्रिया आगे बढ़ती गई. जल्द ही बर्धमान, बांकुड़ा, नदिया, बीरभूम, कोलकाता और उत्तर बंगाल के संगठनों को लेकर एक राज्य लीडिंग टीम तैयार हुई. अब हम केंद्र की खोज में निकले और शर्मा के साथ सम्पर्क किया. उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के एक गांव में मुलाकात का इंतजाम हुआ. निर्धारित समय पर कोट-पैंट-टाई पहने शर्मा जी आये. उनकी ओर से पूरी बातचीत की रामनाथ ने, जो बाद में सीएलआई के नेता बने. सीएम के नाम पर अंट-शंट बोलने लगे. हमने प्रतिवाद किया. अंत में मीटिंग भंग हो गई और हमने बीच रात में वहा से निकलकर ट्रेन पकड़ी. लौटकर हमने अपना द्वितीय राजनीतिक दस्तावेज शर्मा लाइन के खिलाफ तैयार किया.
हमने इस दस्तावेज में जन संगठन और जन आंदोलन की आवश्यकता का उल्लेख किया. हमारी राज्य लीडिंग टीम के सदस्य शांत (सौमेन गुहा) ने जब अर्चना आदि को लेकर “बहादुर बहने” संगठन बनाने की योजना पेश की तो मैंने उसका स्वागत किया. मगर यह चिंतन प्रक्रिया कुछेक वर्षों के लिये बाधित हुई, जिसका मुख्य कारण छापामार संघर्ष को चलायमान युद्ध में उन्नत करने का परिप्रेक्ष था. बिहार के उभरते संघर्ष के इस दौर में शायद इस नई सम्भावना को भी जांच कर देखना जरूरी था.
शर्मा लाइन के खिलाफ उतरने पर यह स्पष्ट हुआ कि किसी पहले से तैयार केन्द्र की खोज करना व्यर्थ होगा. हमें नये सिरे से केन्द्र का निर्माण करना होगा. इसी प्रक्रिया में सीएम की मृत्यु के ठीक दो वर्ष बाद 28 जुलाई 1974 को कामरेड जौहर के नेतृत्व में पार्टी की नई केन्द्रीय कमेटी का निर्माण हुआ. अब पीछे मुड़कर देखने से उस दिन लिया गया हमारा दृढ़ निर्णय एक ऐतिहासिक कदम लगता है. कामरेड जौहर अत्यंत दृढ़ स्वभाव के, मगर साथ ही अत्यंत विनम्र, सच्चे कम्युनिस्ट थे. उन्होंने पश्चिम बंगाल में हमारे काम के इलाकों का कई बार दौरा किया. उन्होंने हमें यह कहकर उत्साहित किया कि बिहार का संघर्ष अभी भी पहले दौर में है, आपलोग पश्चिम बंगाल में उस दौर को पार कर चुके हैं और अब आपने चौतरफा धक्के के बाद पुनर्गठन का काम हाथ में लिया है. इस परिस्थिति में आपलोगों ने जो किसान आंदोलन का नये सिरे से निर्माण किया है, वह भले ही सीमित हो पर उसका महत्व असीम है. उनमें विश्लेषण करने की असाधारण क्षमता थी और वे एक नये प्रेरणास्रोत के रूप में ही हमारे सामने आये थे.
धीरे-धीरे हमारे कामकाज का मुख्य क्षेत्र दक्षिण बंगाल से हटकर उत्तर बंगाल जा पहुंचा. नक्सलबाड़ी में कार्यरत शांति पाल ग्रुप – जिसका नेता पहले दीपक विश्वास था, जिसने सीएम को पकड़वा दिया था – पुलिस दमन के दबाव में पूर्णिया की ओर खिसक गया और हम नक्सलबाड़ी इलाके में घुस गये. नक्सलबाड़ी को पुनरुज्जीवित करने की चुनौती लेकर हमने वहां अपनी सारी ताकत लगा दी. धक्के के बाद से ही वहां गुप्तचर विभाग ने गांव-गांव में अपने दलालों का भारी जाल फैला रखा था. फलस्वरूप हमें कदम-कदम पर धक्के का सामना करना पड़ा, हमने उसकी काफी कीमत भी चुकाई. मगर इसी प्रक्रिया में हमने एक विस्तृत इलाके में आम गरीब किसानों और चाय-मजदूरों के साथ सम्पर्क कायम किया, छापामार योद्धाओं के नये-नये दस्तों का निर्माण हुआ, यहां तक कि आदिवासी राजवंशी महिलाओं की सशस्त्र छापामार वाहिनी भी तैयार हुई. पुलिस के कैम्प पर हमला करके रायफल छीनने का साहसिक ऐक्शन भी हुआ. नक्सलबाड़ी की बात सोचने पर दो विशिष्ट चरित्रों की याद आती है. एक 18-19 वर्ष का युवक पटल, जो एक भीषण छापामार योद्धा था और पुलिस के लिये पूरी तरह आतंक बन चुका था. बहुतेरी कोशिशों के बाद, एक बहुत बड़ा जाल फैलाकर पुलिस ने उसकी हत्या कर दी और सीमा सुरक्षा बल के उस कान्स्टेबुल को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला. दूसरे थे एक वृद्ध कामरेड बुधुआ ओरांव, जिन्हें हम सब श्रद्धा से पिताजी कहकर पुकारते थे. उनके जरिये आदिवासी जनता से सघन सम्पर्क के बिना हमारे लिये इन इलाकों में टिक पाना बिलकुल नामुमकिन था.
बड़पथूजोत की घटना के बाद उत्तर बंगाल में हमारे केन्द्रीकरण का पटाक्षेप हुआ और धीरे-धीरे हमारे कामकाज का मुख्य केन्द्र दक्षिण बंगाल की ओर वापस लौट आया. मगर नक्सलबाड़ी आज भी अपने पुनरुज्जीवन का इंतजार कर रही है.
संक्षेप में पश्चिम बंगाल में 1972 से 1977 के दौर में यही है पार्टी और आंदोलन को पुनर्गठित करने की कोशिश का इतिहास. इस दौर के अनुभव का सार-संकलन करके 1977 के बाद शुद्धीकरण आंदोलन चलाया गया.
एक समय ऐसा था जब जितनी दूर तक देखो, अंधेरा ही दिखता था. कुछ लोग कहते थे कि पहले सही राह तय कर ली जाय, उसके बाद उस पर चलना अच्छा होगा. इतिहास का चक्र ऐसा चला कि वे लोग राह खो चुके हैं और खुद भी खो गये हैं. दूसरा हिस्सा कहता था कि चलते चलो, राह खुद मिलेगी और वे पक्के संकल्प के साथ राह पर चलते रहे. उन्नत समाज के निर्माण का सपना और शहीद साथियों के खून का कर्ज चुकाने की जिम्मेदारी ही उनकी प्रेरणा थी और एकताबद्ध एवं अनुशासनबद्ध पार्टी संगठन ही उनका हथियार था. अंतिम विश्लेषण में वे ही राह खोज पाये हैं, उन्होंने ही आंदोलन को पुनरुज्जीवित किया है और पार्टी के पुनर्गठन का काम सम्पन्न किया है. नये-नये कामरेड इन अनुभवों से सीख लेंगे, इसी उम्मीद से अतीत की यादें बता रहा हूं.