(1991 में प्रकाशित एक लोकप्रिय पुस्तिका)
कम्युनिस्ट-आंदोलन के भीतर अवसरवादी और क्रांतिकारी धाराओं के दीर्घकालीन संघर्ष के क्रम में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सन् 1964 में पहली बार विभाजित हुई और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के रूप में एक नई पार्टी अस्तित्व में आई. लेकिन बहुत कम समय में ही क्रांतिकारीयों ने यह महसूस कर लिया कि नई पार्टी के नेतृत्व पर भी मध्यमार्गी प्रवृत्ति ने कब्जा जमा लिया है और यह भी उसी पुरानी अवसरवादी लाइन पर चलने के लिए कटिबद्ध है. पूरी पार्टी में अंतःपार्टी संघर्ष फूट पड़ा. बहरहाल, यह चारु मजुमदार ही थे, जिन्होंने 1965 और 1966 के दरमियान लिखे गए अपने सुप्रसिद्ध आठ दस्तावेजों के जरिए इस संघर्ष को ठोस रूप से आगे बढ़ाया.
इसी दौर में, जबकि देशव्यापी जन आंदोलनों का ज्वार उमड़ा हुआ था, 1947 के बाद की भारतीय राजनीति में पहला महत्वपूर्ण मोड़ भी दिखाई पड़ा. पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) के वर्चस्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार को सत्ता मिल गई और इसके साथ ही नेतृत्व की अवसरवाद की ओर रणनीतिक यात्रा पूरी हो गई. इसके विरोधी पहलू के बतौर क्रांतिकारी धारा अंतःपार्टी संघर्ष की सीमाओं को लांघकर जन संघर्षों को, विशेषकर किसान संघर्षों को क्रांतिकारी रणनीतिक दिशा पर आगे बढ़ाने के प्रयासों में जुट गई. चारु मजुमदार के नेतृत्व वाले पार्टी धड़े द्वारा संगठित नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह ने पहली बार सीपीआई(एम) के भीतर दो रणनीतिक परिप्रेक्षों और दो कार्यनीतिक लाइनों के बीच लड़ाई को निर्णायक मुठभेड़ के मुकाम तक पहुंचा दिया.
सामाजिक जनवादियों की विश्वासघाती परंपरा के अनुरूप ही सत्ता पर काबिज पार्टी ने इसका जवाब गोलियों से दिया, और इसके साथ ही, पार्टी के अंदर सुलगता विद्रोह दावानल की तरह फैल गया. समूचे भारत में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के छोटे-छोटे उभरते केंद्र ऑल इंडिया कोआर्डिनेशन कमेटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज (एआइसीसीआर) के इर्द-गिर्द गोलबंद होने लगे और इसके साथ सीपीआई(एम) में पहली बड़ी फूट पड़ी. 22 अप्रैल, 1969 को सीपीआई(एमएल) की स्थापना ने, इस नए केंद्र को संगठित और केंद्रित आकार प्रदान किया, सीपीआई(एमएल) की पहली कांग्रेस मई 1970 में कलकत्ता में हुई और का. चारु मजुमदार 21-सदस्यीय केंद्रीय कमेटी के महासचिव निर्वाचित हुए.
इसके बाद अगले दो वर्षों का इतिहास बहादुराना बलिदानों की गौरव-गाथा है, जिसकी मिसाल भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में अन्यत्र नहीं मिलती. चीनी क्रांति की तर्ज पर चुनिंदा ग्रामीण इलाकों में छापामार युद्ध, लाल सेना और आधार क्षेत्र विकसित करने के गंभीर प्रयास किए गए, इसको बल प्रदान कर रहा था छात्र-युवा आंदोलन – खासकर पश्चिम बंगाल और कलकत्ता शहर में चलने वाला मजबूत छात्र-युवा आंदोलन. इस आंदोलन ने भारतीय शासक वर्गों की उस विचारधारा की चूलें हिला दीं, जिसने तथाकथित बंगाली पुनर्जागरण के आगमन के साथ आकार लेना शुरू किया था.
बहरहाल, आश्चर्यजनक क्रांतिकारी भावना और तीव्रता के बावजूद सीपीआई(एमएल) आंदोलन का यह पहला दौर भारतीय समाज के क्रांतिकारीकरण की जटिल समस्याओं का कोई विस्तृत और मुकम्मल हल पेश करने में सफल नहीं हो पाया. जल्दी ही आंदोलन को अभूतपूर्व सरकारी दमन के सामने गंभीर धक्का झेलना पड़ा.
1972 के मध्य तक पार्टी लगभग पूरी तरह गतिहीन हो चुकी थी. बची हुई पार्टी-शक्तियाँ बिखरी हुई अलग-थलग पड़ी थीं और पार्टी लाइन के सवाल पर चारों तरफ भ्रम छाया हुआ था.
इसी मोड़ पर 28 जुलाई 1974 को कामरेड चारु मजुमदार की शहादत की दूसरी बरसी पर नई केंद्रीय कमेटी गठित की गई. कमेटी में केवल तीन लोग थे – महासचिव कामरेड जौहर, कामरेड विनोद मिश्र और कामरेड रघु. इस नई केंद्रीय कमेटी को भोजपुर और पटना जिले के अनेक प्रखंडों में विकासमान किसान संघर्षों का संचालन कर रही पुनर्गठित बिहार राज्य कमेटी, पार्टी को जिंदा रखने में जी-जान से जुटी नवगठित पश्चिम बंगाल राज्य नेतृत्वकारी कमेटी और पूर्वी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के कामरेडों से एक हिस्से का विश्वास हासिल था.
बहरहाल, जल्दी ही पार्टी को फिर एक बड़े धक्के का सामना करना पड़ा. बिहार में कई नेता, कार्यकर्ता और योद्धा पुलिस मुठभेड़ों में मारे गए. नवंबर 1974 में पार्टी के महासचिव कामरेड जौहर भी भोजपुर के एक गांव में दुश्मन के हमले का मुकाबला करते हुए शहीद हो गए. तब कामरेड वीएम ने महासचिव का पदभार ग्रहण किया और 1976 में बिहार के गया जिले के एक गांव में पार्टी की दूसरी कांग्रेस संपन्न हुई. कांग्रेस में ग्यारह सदस्यी केंद्रीय कमेटी का चुनाव हुआ और का. वीएम इसके महासचिव चुने गए. वही पार्टी आगे चल कर अपने अंग्रेजी मुखपत्र के नाम पर सीपीआई(एमएल) लिबरेशन ग्रुप के नाम से जानी गई.
1977 तक पार्टी पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों पर हथियारबंद छापामार आक्रमण चलाने और क्रांतिकारी कमेटियों के जरिए जनता की राजनीतिक सत्ता संगठित करने पर विशेष जोर देते हुए मूलतः पुरानी लाइन पर ही अमल करती रही. बिहार के भोजपुर और पटना जिलों, पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी और बांकुड़ा जिलों तथा उत्तर प्रदेश के गाजीपुर और बलिया जिलों में आंदोलन तेज करने के लिए एक-के-बाद-एक प्रयास किए गए. लेकिन वीरतापूर्ण कार्यवाहियों और महान बलिदानों के बावजूद, लाइन के मूलतः वाम-दुस्साहसवादी होने के कारण जन-पहलकदमी को किसी महत्वपूर्ण पैमाने तक उन्मुक्त नहीं किया जा सका और न ही पार्टी अपने गंभीर प्रयासों की उपलब्धियों को सुदृढ़ कर सकी.
सारे देश की जनता के लिए वे अंधकार के दिन थे, जब इमर्जेंसी के जरिए असीम दमन को संस्थाबद्ध कर दिया गया था. और ऐसे में हमारे बहादुराना प्रतिरोध, विशेषकर भोजपुर में, वस्तुतः इमर्जेंसी-विरोधी आंदोलन के अंग बन गए. सैद्धांतिक तौर पर भी, पार्टी कांग्रेस-विरोधी संयुक्त मोर्चे की अवधारणा पर अडिग तो थी, लेकिन इसे कोई अमली शक्ल नहीं दी जा सकी.
बहरहाल, जबकि सीपीआई ने खुद को कांग्रेस का दुमछल्ला बना रखा था, सीपीआई(एम) पूरी तरह से नाकारा हो गई थी और सीपीआई(एमएल) के अन्य खेमे मुकम्मल बिखराव की स्थिति में थे, उस दौर में समूचे वामपंथी खेमे में एकमात्र हमारे ग्रुप ने चरम दमन की उन परीक्षा भरी घड़ियों में भी लाल झंडे को ऊंचा उठाए रखा. स्वभावतः, 1977 में अंतिम रूप से पर्दा हटने ही भोजपुर के क्षितिज पर चमकते लाल सितारे और हमारे छोटे-से ग्रुप की ओर सारे देश के क्रांतिकारियों और नवजीवन से अनुप्राणित भारतीय मीडिया का भी ध्यान आकर्षित हुआ. इसी बीच असम और त्रिपुरा में भी पार्टी का काम फैला तथा आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु व केरल के कामरेड भी पार्टी में आ जुड़े. 1979 तक हमारी पार्टी ने एक अखिल भारतीय चरित्र ग्रहण कर लिया.
1978 में पार्टी ने एक शुद्धीकरण आंदोलन शुरू किया. शुरू तो यह महज कार्यशैली को दुरुस्त करने के सीमित उद्देश्य से हुआ था, लेकिन शुद्धीकरण की प्रबल भावना ने राजनीतिक लाइन को भी अपने दायरे में समेट लिया. पार्टी-लाइन और व्यवहार में विराट परिवर्तन होने लगे, जिन्हें अंततः जुलाई 1979 में भोजपुर जिले के एक गांव में संपन्न विशेष पार्टि-सम्मेलन में ठोस रूप से सूत्रबद्ध किया गया. सम्मेलन ने जन संगठनों के जरिए खुली जनकार्यवाही चलाने का निर्णय किया.
इस मोड़ पर आंदोलन के भीतर दो धाराओं का वाद-विवाद तीखा हो गया. एक के प्रतिनिधि हम थे, जबकि दूसरी तरफ था प्रोविजनल सेंट्रल कमेटी (पीसीसी) नाम का गुट. पीसीसी उनके गुटों का एक अवसरवादी गठबंधन था और अतीत की सारी गलतियों से पीछा छुड़ाने का शोर मचा कर काफी ख्याति और समर्थन अर्जित कर चुका था. इसकी केंद्रीय हस्ती श्री सत्यनारायण सिंह ने 1970 में ही आंदोलन से पल्ला झाड़ लिया था और वे बुर्जुआ नेताओं से सांठगांठ करने में व्यस्त हो गए थे. इमर्जेंसी में वे जयप्रकाश के पीछे-पीछे चलने की वकालत करते रहे; 1977 में तत्कालीन गृहमंत्री चरण सिंह के साथ उन्होंने एक समझौता किया, जिसके अनुसार हिंसा छोड़ देने की शपथ लेने पर नक्सली बंदियों को छोड़ा जाना था; और अंततः कांग्रेस-विरोधी कुलकों और बड़े बुर्जुआ के साथ एकता के पैरोकार के बतौर उन्होंने विदाई ली.
हमने शुरू में ही बता दिया था कि पीसीसी की समूची अवधारणा विलोपवादी है और इसकी असली मंशा दरअसल आंदोलन की मूल क्रांतिकारी आत्मा को ही ‘शुद्ध’ कर देने की है. हमने यह भी भविष्यवाणी की थी कि विभिन्न कुंठित गुटों का यह गठजोड़ ज्यादा दिन नहीं चलेगा. बहरहाल, पीसीसी ने एकता का जो आभास दिया और संघर्ष तथा संगठन के क्षेत्र में बहुप्रतीक्षित सुधारों की जो प्रक्रिया शुरू की, उसके चलते क्रांतिकारी शक्तियों की एक भारी संख्या को यह अपनी ओर आकर्षित करने में सफल तो रही; लेकिन जल्दी ही यह अपने स्वघोषित सिद्धांतकारों की बेतुकी अवधारणाओं के जाल में जा फंसी और जितने गुटों से मिलकर बनी थी उससे ज्यादा गुटों में बिखर गई.
इसी बीच, हमारी पार्टी द्वारा एकीकृत व संगठित ढंग से चलाये गये शुद्धीकरण अभियान के सुपरिणाम आने शुरू हो गए. जन-कार्यवाहियों के विभिन्न खुले रूपों को ग्रहण करने के चलते किसानों का जुझारू प्रतिरोध आंदोलन विस्तार और तीव्रता दोनों ही लिहाज से नई ऊंचाइयों को छूने लगा और पीसीसी से क्रांतिकारी तत्व हमारी पार्टी की तरफ आने लगे. इस तरह पीसीसी की चुनौती समाप्त हो गई.
दूसरी विलोपवादी कलाबाजी नक्सलबाड़ी के एक महत्वपूर्ण नेता कानू सान्याल ने दिखाई. वे सीपीआई(एमएल) और उसकी विरासत की खुली निंदा करते हुए सीपीआई(एमएल)-पूर्व कोऑर्डिनेशन युग की वापसी की दलीलें देने लगे. बहरहाल, वे बचे-खुचे तत्वों को ही गोलबंद कर सके और हमारे संगठन के लिए कभी कोई गंभीर चुनौती नहीं पेश कर सके.
इन विलोपवादी हमलों के खिलाफ संघर्ष करते हुए ही, हम अंततः सीपीआई(एमएल) के सबसे बड़े ग्रुप के रूप में उभरे.
अब तक पार्टी के अंदर राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में दावेदारी की आवश्यकता को शिद्दत के साथ महसूस किया जाने लगा था. केंद्र में पहले गैर-कांग्रेसी प्रयोग की असफलता और इंदिरा शासन की पुनर्वापसी के साथ राष्ट्रीय राजनीतिक विकल्प के सवाल पर राष्ट्रीय बहस की शुरूआत हो चुकी थी. इस जारी बहस में क्रांतिकारी जनवादी प्रस्थापना से हस्तक्षेप करने के लिए हमने एक जन राजनीतिक संगठन की स्थापना करने का निर्णय किया.
इस मंच के निर्माण में अन्य क्रांतिकारी संगठनों का सहयोग व उनकी भागीदारी हासिल करने के लिए द्विपक्षीय तथा बहुपक्षीय – सभी स्तरों पर गंभीर प्रयास चलाए गए. सभी महत्वपूर्ण गुटों समेत तेरह कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठनों की एक बैठक 1981 में हमारी पार्टी द्वारा बुलाई गई. यह प्रयास आंदोलन को एकताबद्ध करने का अब तक का पहला और अंतिम प्रयास रहा. इसी समय हमने गैर-पार्टी जन आंदोलनों की उभरती मध्यवर्ती शक्तियों के साथ बड़े पैमाने पर प्रारस्परिक क्रिया की शुरूआत की. इन सभी प्रयासों की परिणति इंडियन पीपुल्स फ्रंट के गठन में हुई – जो नई दिल्ली में 24 से 26 अप्रैल के दरमियान एक त्रिदिवसीय सम्मेलन के जरिए संपन्न हुआ.
1982 के दिसंबर में बिहार के गिरिडीह जिले के एक गांव में पार्टी की तीसरी कांग्रेस संपन्न हुई. इस कांग्रेस का चरित्र काफी हद तक व्यापक प्रतिनिधित्व वाला था. कांग्रेस ने सत्रह पूर्ण एवं आठ वैकल्पिक सदस्यों वाली एक केंद्रीय कमेटी का चुनाव किया. केंद्रीय कमेटी ने का. वीएम को पुनः अपना महासचिव चुना. तीखी बहस के बाद कांग्रेस ने चुनाव में भाग लेने की कार्यनीति को हरी झंड़ी दिखा दी. तथापि, किसान प्रतिरोध के संघर्षों को मुख्य कड़ी के बतौर ग्रहण करने के निश्चय की पुनः पुष्टि करते हुए संसदीय कार्यवाहियों को गैर-संसदीय जनसंघर्षों के मातहत रखने का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया गया. 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव, पार्टी द्वारा लड़े गए पहले चुनाव थे – बेशक, आईपीएफ के बैनर तले.
आईपीएफ के गठन ने पार्टी के सामने राजनीतिक पहलकदमी और अग्रगति के नए द्वार खोल दिए, विभिन्न राज्यों की राजधानियों में लगभग तमाम महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर बड़ी-बड़ी रैलियां व प्रदर्शन आयोजित करना हमारे पार्टी-व्यवहार का अभिन्न अंग बन गया. मूर्तीकरण की दुनिया से राजनीतिक कार्यवाहियों की ठोस दुनिया में पार्टी ने अपना पहला महत्वपूर्ण कदम रखा और इस प्रक्रिया में अपने न्यूनतम कार्यक्रम पर आधारित राजनीतिक संघर्षों के आगोश में व्यापक जनसमुदाय को खींच लिया. जहां जन राजनीतिक संगठन में पार्टी के राजनीतिक दिशा-निर्देश और दृढ़ कम्युनिस्टों को इसके विभिन्न नेतृत्वकारी पदों पर भेजने के जरिए इसमें कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व की गारंटी की गई; वहीं जन-राजनीतिक संगठन ने सामाजिक एवं राजनीतिक शक्तियों की विभिन्न धाराओं के साथ व्यापक पारस्परिक क्रिया का अवसर मुहैया कराया, जिससे पार्टी को अपने सामाजिक आधार एवं प्रभाव के विस्तार में मदद मिली.
एक लोकप्रिय जन-क्रांतिकारी पार्टी की शक्ल में संयुक्त मोर्चे का विशिष्ट रूप आईपीएफ – सिद्धांत और व्यवहार दोनों लिहाज से भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में हमारी पार्टी की एक अन्यतम उपलब्धि है. भारतीय राजनीति में यह अपनी जगह बना चुका है और पार्टी की सारी व्यावहारिक राजनीतिक गतिविधियों को इसके जरिए अंजाम दिया जाता है.
चौथी पार्टी-कांग्रेस 1988 की जनवरी में बिहार के हजारीबाग जिले के एक गांव में संपन्न हुई. बदलती परिस्थितियों तथा अपनी विकसित समझदारी के अनुरूप, पार्टी ने पुराने पड़ चुके विचारों तथा घिसी-पिटी अवस्थितियों में आमूलचूल रद्दोबदल करके भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में प्रवेश करने और उसे बदल देने की राह खोल दी, कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों, यानी नक्सल गुटों के साथ एकता-प्रयासों के उबाऊ दौर को छोड़ते हुए पार्टी ने मुख्यधारा वामपंथी पार्टियों के साथ पारस्परिक क्रिया आरंभ करने का निश्चय किया तथा वाम-जनवादी महासंघ का आह्वान जारी किया. कांग्रेस ने 21 सदस्यीय केंद्रीय कमेटी का चुनाव किया और केंद्रीय कमेटी ने 7 सदस्यीय पॉलिट ब्यूरो तथा कामरेड वीएम को महासचिव निर्वाचित किया.
1970 के दशक का सीपीआई(एमएल) आंदोलन अब तक दो स्पष्ट धाराओं में विभाजित हो चुका था – एक वह, जिसका प्रतिनिधित्व हमारी पार्टी करती है, और जिसने सिद्धांत और व्यवहार दोनों क्षेत्रों में, अराजकतावादी भटकाव के खिलाफ सुसंगत और मुकम्मल संघर्ष के जरिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद को पुर्नस्थापित किया, तथा पार्टी को कम्युनिस्ट विरासत – क्रांतिकारी जन संघर्षों और सर्वांगीण राजनीतिक पहलकदमियों के रास्ते पर ला खड़ा किया; और दूसरे वह, जिसका प्रतिनिधित्व माओवादी कम्युनिस्ट केंद्र, सेकंड सेंट्रल कमेटी, पार्टी यूनिटी, पीपुल्सवार तथा पीसीसी के चंद गुटों जैसे ढेर सारे ग्रुप करते हैं और जिसने अराजकतावादी भटकावों को एक पूर्ण विकसित सैद्धांतिक जामा पहना दिया है. समग्र सीपीआई(एमएल) आंदोलन के भीतर इस अराजकतावादी प्रवृत्ति ने पिछले कुछ वर्षों में अपने-आपको सुदृढ़ कर लिया है और वह पार्टी की अग्रगति की राह में मुख्य चुनौती बनकर सामने आई है.
बहरहाल, पार्टी के भीतर अराजकतावादी भटकाव के खिलाफ संघर्ष के दौरान हमें विलोपवाद के खिलाफ भी गंभीर लड़ाई छेड़नी पड़ी. चौथी कांग्रेस के फौरन बाद विलोपवादी प्रवृत्ति ने पार्टी के भीतर अपना सिर उठाया. दक्षिणपंथी आत्मसमर्पणवादी दृष्टिकोण से आरंभ करते हुए, इस प्रवृत्ति ने अवसरवादी वामपंथ से हमारी पार्टी के बुनियादी फर्क को ही मिटा देने की कोशिश की. यह प्रवृत्ति यहीं आकर नहीं रुकी, बल्कि जल्दी ही क्रांतिकारी और उदारवादी जनवाद के बीच के तमाम फर्क को मिटा देने की हद तक चली गई, सोवियत यूनियन तथा पूर्वी यूरोप की घटनाओं से प्रोत्साहन पाकर यह प्रवृत्ति मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट पार्टी को ही तिलांजलि देने की मांग करने लगी एवं घोर सुधारवादी कार्यक्रम की वकालत करने लगी, ताकि सरकारी और निजी एजेंसियों के विकास-कार्यक्रम की मदद के लिए एक सूचना-बैंक निर्मित किया जा सके.
हमारी पार्टी ने इस विलोपवादी प्रवृत्ति को दृढ़ता से पराजित किया तथा पार्टी में विभाजन पैदा करने के तमाम प्रयासों को नाकाम कर दिया, सच कहा जाए तो, चौथी पार्टी-कांग्रेस के बाद के वर्षों में हमारी पार्टी में गुणात्मक विकास हुआ है. 1989 के संसदीय चुनावों में हम पहला मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रतिनिधि संसद के अंदर भेजने में सफल रहे और 1990 के विधानसभा चुनावों में बिहार विधानसभा में अच्छा-खासा विधानसभाई ग्रुप निर्मित कर सके हैं.
आईपीएफ द्वारा राजधानी में आयोजित 8 अक्तूबर 1990 की राष्ट्रीय रैली हमारी सबसे उल्लेखनीय सफलता रही है. इसने क्रांतिकारी मार्क्सवाद की अमिट प्रासंगिकता को पुनःस्थापित किया तथा राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में क्रांतिकारी वामपंथ के बढ़ते कद को अभिव्यक्ति दी. लाखों लोगों के इस विशाल प्रदर्शन से वामपंथी खेमे में शक्तियों के पुनर्संयोजन की एक प्रक्रिया भी चल पड़ी है. इसने दो कार्यनीतिक लाइनों तथा वाम एकता की दो अवधारणाओं के बीच के संघर्ष को सतह पर ला दिया है कि क्या भारतीय समाज एवं राजनीतिक तंत्र के रूपांतरण के लिए वामपंथ को बुर्जुआ वर्ग और बुर्जुआ संस्थाओं पर भरोसा करना चाहिए?
बिहार, उत्तर प्रदेश तथा बंगाल में काफी बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट शक्तियां सीपीआई-सीपीआई(एम) छोड़कर क्रांतिकारी जनवाद के परचम तले एकजुट हो रही हैं; जबकि तकरीबन सभी प्रमुख वामपंथी पार्टियों के साथ औपचारिक संबंध विकसित किए जा रहे हैं तथा संयुक्त कार्यवाहियों व वाम-महासंघ के लिए सभी रास्तों की तलाश जारी है.
यहां पर हमारी पार्टी और सीपीआई(एम) के बीच के फर्क को दोहरा लेना उचित होगा. भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के अवसरवादी रास्ते की पहचान सर्वप्रथम भारतीय बुर्जुआ के चरित्र-निर्धारण से जुड़ी हुई है. वे लोग शब्दों और जुमलों की तरह-तरह की बाजीगरी की आड़ लेकर, मूलतः भारतीय बुर्जुआ के ‘राष्ट्रीय’ चरित्र पर ही जोर देते हैं और इसके जरिए उसके साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी संघर्षों का नेतृत्व करने तथा भारतीय समाज का रूपांतरण करने की क्षमता को रेखांकित करते हैं. इस सिद्धांत ने उन्हें सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के बीच के अंतरविरोधों को अत्यंत बढ़ा-चढ़ा कर देखने तथा विभिन्न बुर्जुआ-जोतदार पार्टियों का पिछलग्गू बनने की वकालत करने की हद तक पहुंचा दिया – कभी फासीवाद विरोधी मोर्चे के नाम पर, तो कभी जनवादी व धर्मनिरपेक्ष मोर्चे के नाम पर.
यह अवसरवाद अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में (अमरीकी) साम्राज्यवाद और (रूसी) समाजवाद के बीच के अंतर्विरोधको प्रधान अंतर्विरोधमानता है. अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में यह प्रधान अंतर्विरोधदेश की अंदरूनी परिस्थिति में, भारतीय बुर्जुआ के तथाकथित साम्राज्यवाद-विरोधी चरित्र वाले सिद्धांत को जायज ठहराता है, क्योंकि भारतीय पूंजीपति वर्ग ने सोवियत ब्लाक के साथ हमेशा नजदीकी रिश्ते बरकरार रखे है.
तीसरे, और भारतीय बुर्जुआ के चरित्र-निर्धारण की उनकी समझ के स्वाभाविक अंग के बतौर, यह अवसरवादी धारा जनवादी रूपांतरण की मुख्य शक्ति के रूप में मेहनतकश किसानों के व्यापक जनसमुदाय को संगठित करने से मुकर जाती है. इसके विपरीत, कुलक लॉबी के साथ इसने एक समझदारी विकसित कर ली है – एक ऐसी समझदारी, जो विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों के साथ इसके स्थाई राजनीतिक रिश्तों का मुख्य आधार है.
अंत में, पहली तीन बातों के निष्कर्ष के बतौर ही, यह अवसरवादी धारा देश में आवश्यक सामाजिक सुधारों के लिए मौजूदा बुर्जुआ संस्थाओं पर भारी भरोसा करती है. इस निर्भरता ने अवसरवादी वामपंथ को उस मर्ज का शिकार बना दिया है, जिसे लेनिन संसदीय बौनापन कहा करते थे.
इसके विपरीत, क्रांतिकारी धारा ने भारतीय बुर्जुआ के दलाल चरित्र पर हमेशा जोर दिया है; अर्थात् इस बात पर जोर दिया है कि साम्राज्यवाद-विरोधी एवं सामंतवाद-विरोधी संघर्षों का नेतृत्व करना एकमात्र सर्वहारा का ही कार्यभार है और बुर्जुआ पर निर्भरता हमें कहीं का नहीं रखेगी. साम्राज्यवाद और तीसरी दुनिया के बीच के अंतर्विरोधकी प्रधानता की इसकी समझदारी ने इसे सोवियत ब्लॉक से नजदीकी के आधार पर नहीं, वरन् तीसरी दुनिया के हितों के साथ प्रतिबद्धता तथा क्षेत्रीय एकता की स्वतंत्र कसौटी पर भारतीय बुर्जुआ के ‘साम्राज्यवाद-विरोध’ को परखने में भी मदद पहुंचाई है. इसने कृषि क्रांति को जनवादी क्रांति की धुरी माना है तथा अपना मुख्य जोर खेतिहर मजदूरों व मेहनकश किसानों के जुझारू जनसंघर्षों को संगठित करने पर दिया है. संसदीय बौनेपन के ठीक विपरीत, इसने प्राथमिक रूप से गैर-संसदीय संघर्षों पर ही भरोसा किया है.
अवसरवादी और क्रांतिकारी धाराओं के बीच संघर्ष के ये अनिवार्य मापदंड हैं. हम इसे भारतीय परिस्थितियों में मेन्शेविक और बोल्शेविक कार्यनीतियों के बीच महाविवाद का जारी रूप कह सकते हैं.
1964 से आज तक का सीपीआई (एम) का विकास अवसरवादी रास्ते पर जारी उनकी यात्रा की गवाही दे रहा है. जबकि, सीपीआई द्वारा अपने अवस्थाओं में कुछ कार्यनीतिक समायोजन कर लेने, अंतरराष्ट्रीय मतभेदों के परदे के पीछे चले जाने, और लगभग सभी महत्वपूर्ण सवालों पर दोनों पार्टियों के मुश्तरका सफर के बाद, 1964 के विभाजन का समूचा तर्क ही आज सवालों के घेरे में आ गया है. दूसरी तरफ, सीपीआई(एम) आंतरिक विक्षोभ के एक नए दौर से गुजर रही है और पार्टी छोड़नेवाली लगभग सभी विक्षुब्ध ताकतें पार्टी-नेतृत्व पर 1964 के कार्यक्रम से भटकने एवं इस तरह 1964 के विभाजन को उसके राजनीतिक औचित्य से वंचित कर देने का आरोप लगा रही हैं.
दूसरी तरफ, क्रांतिकारी अवस्थिति को खींचकर इसके विपरीत ध्रुव पर पहुंचा दिया गया. भारतीय बुर्जुआ के दलाल चरित्र को इस कदर खींचा गया कि उसका मतलब बुर्जुआ के किसी भी हिस्से के साथ किसी भी तरह के कार्यनीतिक तालमेल का संपूर्ण नकार लगाया गया. तीन दुनिया के सिद्धांत के प्रति अंध-आस्था पैदा होने का संपूर्ण नकार लगाया गया. तीन दुनिया के सिद्धांत के प्रति अंध-आस्था पैदा होने के फलस्वरूप अंतरराष्ट्रीय नजरिया भी विकृति का शिकार हो गया और उसे सोवियत सामाजिक-साम्राज्यवाद के खिलाफ हर तरह की अमेरिकापरस्त शक्तियों और यहां तक कि कुछ विशेष परिस्थितियों में खुद अमेरिका के साथ गठजोड़ करके विश्वव्यापी मोर्चा बनाने की बेतुकी हद तक पहुंचा दिया गया. कृषि क्रांति की परिकल्पना हूबहू चीनी रास्ते पर की जाने लगी और गैर-संसदीय संघर्ष की प्राथमिकता का अर्थ संसदीय संघर्षों की समूची धारा का शाश्वत बहिष्कार मान लिया गया. यह समझ क्रांतिकारी उभार की परिस्थिति में तो कुछ हद तक भले ही काम कर गई, लेकिन आंदोलन की रक्षात्मक वापसी के बिलकुल बदले हुए दौर में भी जब इन नारों से चिपके रहने की हताश कोशिशें की गईं, तो कोरी अराजक लफ्फाजी के सिवा कुछ भी हासिल नहीं हुआ.
समाजवाद के इस संकट के दौर में, बुर्जुआ के नित नए आक्रमण से मार्क्सवाद-लेनिनवाद की रक्षा करने की चुनौती जब सामने आई, तो उसे स्वीकार करने के लिए 1990 की जुलाई में दिल्ली में किए गए अपने विशेष सम्मेलन के जरिए पार्टी ने लगभग 20 वर्षों बाद पुनः खुले रूप में काम करने का निर्णय लिया. तदनुरूप, इसके केंद्रीय व प्रांतीय मुखपत्रों का खुला प्रकाशन शुरू हो चुका है; पार्टी बैनर तले खुली रैलियां व प्रदर्शन हो रहे हैं; मार्क्सवाद की रक्षा में सेमिनार आयोजित किए जा रहे हैं और अधिकाधिक लोगों को बुनियादी मार्क्सवादी शिक्षा प्रदान करने तथा जनसंघर्षों से उभरे तत्वों की भारी संख्या को पार्टी में भर्ती करने के अभियान शुरू किए गए हैं.
पार्टी ने ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस (एक्टू) नाम से अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन की भी शुरूआत की है तथा वह अपनी राज्य-स्तरीय किसान सभाओं की गतिविधियों के संयोजन के लिए एक राष्ट्रीय निकाय के निर्माण की तैयारी कर रही है. छात्र मोर्चे पर ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के नाम से अखिल भारतीय संगठन की शुरूआत पहले ही की जा चुकी है; जबकि महिला एवं सांस्कृतिक मोर्चे पर अखिल भारतीय संगठनों का गठन करना आगामी वर्षों की विषय सूची में शामिल है.
अपने मुखपत्रों, आईपीएफ के मुखपत्रों तथा पटना से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक – समकालीन जनमत जैसी लोकप्रिय जनवादी पत्रिकाओं के जरिए पार्टी ने एक प्रचार-तंत्र भी निर्मित किया है. 1986 में इसने बिहार के धधकते खेत-खलिहानों की दास्तान – राज्य की बदलती कृषि एवं सामाजिक परिस्थितियों की रोशनी में बिहार के विकासमान क्रांतिकारी किसान आंदोलन की एक आलोचनात्मक समीक्षा – का प्रकाशन किया था. पुस्तक देश-विदेश के क्रांतिकारी व अकादमिक क्षेत्रों में व्यापक रूप से सराही गई थी. फिलहाल, पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास का एक गहन अध्ययन करने में लगी हुई है, जिसे पांच खंडों में प्रकाशित करने की योजना है.
पार्टी ने असम के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक क्षेत्र कार्बी आंग्लांग में ‘ऑटोनॉमस स्टेट डिमांड कमेटी’ के नाम से एक जनराजनीतिक संगठन का भी निर्माण किया है तथा स्वायत्त जिला प्रशासन समेत सभी महत्वपूर्ण गतिविधियों का वह दिशा-निर्देश करती है. हम राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की विशिष्ट समस्याओं पर विशेष गौर करते हैं तथा विभिन्न राष्ट्रीयताओं, दलितों, पिछड़ों, धार्मिक अल्पसंख्यकों की सभी न्यायोचित मांगों का सम्मान करते हैं; लेकिन हम आंदोलन को किसी आंशिक दायरे में सीमित कर देने के प्रयास के बिलकुल खिलाफ हैं; तथा भारतीय जनता की विशाल बहुसंख्या की एकता एवं देश के रूप में भारत की एकता के लिए कटिबद्ध हैं.
पार्टी क्रांतिकारी किसान-संघर्ष चलाने और जमींदारों, कुलकों की निजी सेनाओं तथा राज्य के आक्रमण के खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध संगठित करने को सर्वोच्च प्राथमिकता देना जारी रखे हुई है. हमारी पार्टी का ध्येय वाक्य है – बुनियादी स्तर पर जनसमुदाय की क्रांतिकारी चेतना, गोलबंदी और जुझारूपन को लगातार उन्नत करना – और यही हर तरह के अवसरवाद, सामाजिक जनवादी और नौकरशाही भटकाव के खिलाफ एकमात्र गारंटी है.
आत्मनिर्भरता एवं परस्पर-अहस्तक्षेप की नीतियों पर आधारित बिरादराना रिश्ते
1970 दशक के मध्य से ही नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) से हमारा घनिष्ठ बिरादराना संबंध रहा है. परस्पर सम्मान और एक दूसरे से सीखने की भावना, परस्पर अहस्तक्षेप की नीति का कड़ाई से पालन और भारतीय प्रभुत्ववाद की प्रत्येक अभिव्यक्ति का विरोध करने की हमारी प्रतिबद्धता – इन रिश्तों की बुनियाद है.
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के आमंत्रण पर पार्टी के दो शिष्टमंडल 1979 एवं 1980 में चीन की यात्रा पर गए. फिलीपींस तथा पेरू की कम्युनिस्ट पार्टीयों व जनवादी संगठनों के साथ भी हम कामरेडाना रिश्ते रखते आए हैं. दूसरे देशों के अपने मित्रों के साथ संबंध विस्तार की अब कहीं ज्यादा संभवनाएं हैं और हम दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों व क्रांतिकारी जनवादी आंदोलनों के साथ घनिष्ठ रिश्तों की अवश्य ही आकांक्षा रखते हैं.
फिर भी, आत्मनिर्भरता के उस बुनियादी सिद्धांत को, जिसे हमने अतीत में हमेशा बुलंद किया है, भविष्य में भी बुलंद करना जारी रखेंगे. हमने किसी भी विदेशी ताकत अथवा विदेशी धन से चालित-संपोषित घरेलू स्वयंसेवी संगठनों से किसी प्रकार के आर्थिक सहयोग की पेशकश को लगातार व सचेतन ढंग से ठुकरा दिया है और भविष्य में भी हम इसे ठुकराते रहेंगे. हम किसी भी पार्टी से निर्देशित होने से इनकार करते रहे हैं और हम-हमेशा भारतीय परिस्थितियों के अपने स्वतंत्र अध्ययन के आधार पर ही अपनी योजनाओं, नीतियों एवं कार्यवाहियों को तय करते रहे हैं.
इन तथ्यों की रोशनी में कि सीपीआई(एमएल) लिबरेशन ऐसा एकमात्र सीपीआई(एमएल) ग्रुप है जिसने :
1. 1974 में अपने पुनर्गठन के बाद से अपनी एकता व निरंतरता बरकरार रखी है;
2. जिसके पास असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, दक्षिणी उड़ीसा (कोरापुट-गंजाम क्षेत्र), तटीय आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दक्षिण केरल, बंगलौर, बंबई, छत्तीसगढ़, दिल्ली,पंजाब, उत्तर प्रदेश, तथा बिहार तक विस्तृत एक अखिल भारतीय सांगठनिक ढांचा है;
3. जिसने क्षेत्रीय व जिला स्तरों तक नियमित कांग्रेस व सम्मेलन किए हैं तथा जो विभिन्न स्तरों पर बाकायदा निर्वाचित निकायों द्वारा संचालित होता है;
4. पार्टी कतारों की चेतना उन्नत करने तथा विभिन्न पार्टी-गतिविधियों के संचालन में उनकी अधिकाधिक भागीदारी की गारंटी करने के लिए नियमित पार्टी-शिक्षा, शुद्धीकरण तथा सुदृढ़ीकरण अभियान संचालित किए हैं;
5. अंग्रेजी व हिंदी में केंद्रीय मुखपत्रों के साथ-साथ प्रांतीय मुखपत्र, पार्टी-प्रचार पुस्तिकाएं एवं विभिन्न पत्रिकाओं का नियमित प्रकाशन जारी रखा है;
6. जो संसदीय कार्यवाहियों से सशस्त्र संघर्षों तक, संघर्ष के तमाम रूपों पर अमल करता है और गुप्त एवं भूमिगत संगठनों से लेकर व्यापकतम संभव खुले संगठनों के समूह को संचालित करता है; सभी मोर्चों एवं जीवन के सभी क्षेत्रों में जन-कार्यवाहियां संचालित करता है तथा विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के साथ संयुक्त कार्यवाहियां करता है, और सर्वोपरि, इन सबको जन संघर्षों की एक विकासमान धारा के साथ जोड़ देता है; और
7. जो अनेक देशों के कम्युनिस्ट एवं जनवादी आंदोलनों के साथ बिरादराना एवं मैत्रीपूर्ण संबंध रखता है – अतः, हम आमतौर पर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन और खासकर सीपीआई(एमएल) की क्रांतिकारी धारा के सच्चे वारिस होने का दावा करते हैं – एक ऐसी पार्टी के रूप में, जो सीपीआई(एमएल) का प्रतिनिधित्व करती है और उसकी ओर से कार्य करती है.