- कैशलेस हो जाने पर हम अपने पैसे को कैसे खर्च करेंगे यह कम्पनियों के नियम-कायदों के हिसाब से तय होगा, हमारी मर्जी से नहीं. इतना ही नहीं, सरकार के दबाव में कम्पनियां आन्दोलन करने वालों का पैसा रोक लेती हैं. कुछ साल पहले वीसा, मास्टरकार्ड जैसी कम्पनियों ने दुनिया के कई ताकतवर देशों के भ्रष्टाचार व अपराधें का खुलासा करने वाली वेबसाइट विकीलीक्स को चन्दा देने वाले दानदाताओं को पेमेण्ट करने से रोक दिया था.
- हमारा पैसा इस माध्यम से काॅरपोरेट धन्नासेठों के पास रहेगा तो भविष्य में किसी गम्भीर आर्थिक संकट या कम्पनी के दिवालिया हो जाने पर हमारे हाथ में कुछ नहीं होगा. इसके जानकार विनय श्रीनिवास का कहना है कि “हमें पता चल जाये कि बैंक घाटे में जा रही है तो दौड़ कर सबसे पहले अपना पैसा कैश करायेंगे. लेकिन डिजिटल पैसा कैसे कैश होगा? यदि बैंक ब्याज दरें घटा दें तो आज हमारे पास विकल्प है अपना पैसा कैश में वापस निकाल लें. कल को जब कैश की जगह इलेक्ट्रोनिक या डिजिटल मनी होेगा तो हो सकता है कि हमें कम ब्याज दरों (या यूरोप के कुछ देशों की तरह नकारात्मक ब्याज दर) से ही संतोष करना पड़े. पूरा पैसा इलेक्ट्रोनिक हो जाने के बाद सरकार को बड़े स्तर पर आर्थिक तिकड़में (मैक्रो-इकोनाॅमिक) करने की पूरी आजादी मिल जायेगी.”
हम इतने संवेदनाशून्य नहीं हैं कि प्रधानमंत्री के “अब तो भारत में भिखारी भी स्वाइप मशीन रखने लगे हैं” जैसे हास्यास्पद कथन को सच मान लें. जिसमें थोड़ी सी भी इंसानियत है वह जानता है कि भिखारियों को छोड़िये, फुटपाथ और मुहल्लों के छोटे दुकानदारों एवं किसानों के लिए भी ‘कैशलेस’ होना सम्भव नहीं है. फ्रांस की क्रांति के समय रोटी मांग रहे भूखे लोगों को देख कर वहां की रानी मारी अन्तुआनेत ने कहा था “अगर उनके पास रोटी नहीं है, तो केक क्यों नहीं खा लेते?” श्रीमान नरेन्द्र मोदी भारत के मारी अन्तुआनेत हो गये हैं इसीलिए वे भारत के गरीबों के बारे में कहते हैं कि “अगर उनके पास कैश नहीं है, तो कैशलेस क्यों नहीं हो जाते?” हमें मारी अन्तुआनेत या मोदी दोनों ही नहीं चाहिए. जबरन थोपी जा रही कैशलेस अर्थव्यवस्था गरीबों के खिलाफ एक युद्ध है और इसका हर हाल में प्रतिरोध करना होगा.