(यहाँ हम बाॅम्बे असेंबली में इंडस्ट्रियल डिसप्यूट बिल के खिलाफ दिये गए अम्बेडकर के भाषण के कुछ अंश दे रहे हैं. यह विधेयक मजदूरों के स्वतंत्र संघ बनाने और हड़ताल के अधिकार को काटने-छांटने वाला था. इस विधेयक के खिलाफ संघर्ष के लिए टेक्सटाइल मिल मजदूरों को संगठित करने के लिए अम्बेडकर और कम्युनिस्ट मजदूर संघों ने एकता कायम की थी. मजदूरों के मूलभूत लोकतान्त्रिक अधिकारों के पक्ष में अम्बेडकर के जबर्दस्त तर्कों को आज की सरकारों द्वारा श्रम कानूनों पर दिये जाने वाले दलीलों की धज्जियां उड़ा देने वाले तर्कों की तरह पढ़ा जाना चाहिए.)

“महोदय! सेवा के अनुबंध के उल्लंघन के नतीजे में उत्पन्न वैधानिक स्थिति के संबंध में मैंने अब तक जो कुछ कहा है, उसकी समीक्षा के रूप में अब यह कहूँगा कि यह वर्जित शब्द ‘हड़ताल’ का लोकप्रिय वर्णन भर है. स्थिति क्या है ?

… मेरा उत्तर है कि भारतीय विधान-मण्डल सेवा के अनुबंध के उल्लंघन को इसलिए अपराध नहीं मानता क्योंकि वह सोचता है कि इसको अपराध मानने का अर्थ है -- किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करने के लिए बाध्य करना और उसको दास बनाना. इसलिए मेरा दावा है कि हड़ताल पर जुर्माना लगाना एक मजदूर को दास बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है.

… अगर सदस्य ‘हड़ताल’ शब्द के मेरे अर्थ को मानने को तैयार हैं, जो कि सेवा के अनुबंध के उल्लंघन के सिवाय और कुछ नहीं है, तब मैं निवेदन करूंगा कि हड़ताल, स्वतन्त्रता के अधिकार का दूसरा नाम है.”

 

मिस्टर जमनादास मेहता, एमएस शेष आयंगर, एससी मित्र और वीवी जोगिया की टिप्पणी से उद्धृत करते हुए अम्बेडकर ने कहाः

“हमें समझ में नहीं आता कि डाक तार या टेलीफोन विभाग या रेलवे की सेवा में हड़ताल को क्यों एक अपराध माना जाएगा. बिलाशक ऐसी हड़ताल असुविधाजनक है और हमारी आम सुविधाओं में खलल डालती है, लेकिन यह दावा करना बहुत बड़ी बात होगी कि अगर व्यक्तियों का कोई समूह हमारी सुविधाओं में सहायता करने से मना कर देता है, खासकर जब हड़ताली यह महसूस करें कि ये सुविधाएं और सहूलियतें केवल तभी जारी रखी जा सकती हैं, जब मजदूरों की हैसियत खत्म की जा रही हो या ये उन्हें निर्धनता में धकेल दे रही हों, तब उस मजदूर समूह को अपराधी बताने का दावा गलत है. क्या गंभीरतापूर्वक यह दावा किया जा सकता है कि फ्रंटियर मेल और उसी तरह की आरामदेह सेवाएँ समाज के लिए इतनी अति-आवश्यक हैं कि उन सेवाओं में हड़तालों को अवैध बना देना चाहिए?

… वह लोकतन्त्र, जो शिक्षा से वंचित, जीवन की जरूरतों से वंचित, संगठन की किसी भी शक्ति से वंचित अपने मजदूर वर्ग को दास बना लेता है, मेरे हिसाब से, वह लोकतंत्र नहीं, लोकतन्त्र का मजाक है।

… महोदय! इस विधेयक के तहत दो तरह के मजदूर-यूनियन ही मजदूरों की नुमाइंदगी करने का अधिकार रखते हैं. पहला ऐसा मजदूर यूनियन है... जिसमें कम से कम 20 फीसदी कामगार शामिल हों और मालिकान की मान्यता प्राप्त हो. दूसरा मजदूर यूनियन वह है जिसकी सदस्यता 50 फीसदी से ज्यादा हो. यही समझौते की प्रक्रिया में मजदूरों की नुमाइंदगी कर सकते हैं... खरी-खरी कहते हुए मेरा निवेदन यह है कि बिलाशक इस विधेयक में दो तरह के नुमाइंदे मजदूर यूनियन हैं पर ध्यान देने की महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें से एक मजदूर यूनियन बंधक है और दूसरा मुक्त. भाषा के साथ कोई तोड़-फोड़ या अतिशयोक्ति जैसा कुछ नहीं होगा अगर मैं यह कहूँ कि एक मजदूर यूनियन, जिसके पास अधिकार हों, जिसका वैधानिक अस्तित्व हो, नुमाइंदगी करने और अपनी बात रखने का जिसके पास अधिकार हो, लेकिन इस सब से पहले उसे मालिक की पूर्व स्वीकृति लेनी पड़े तो वह मजदूर यूनियन बंधक है, स्वतंत्र मजदूरों का यूनियन नहीं. ...

… निस्संदेह, अगर मेरे माननीय मित्र सोचते हैं कि मालिक की अनुमति के सिद्धान्त पर आधारित यूनियनवाद में कुछ गलत नहीं है, तो मेरा उनसे कोई झगड़ा नहीं है. यह उनका जीवन दर्शन है, मेरा नहीं. अगर वे सोचते हैं कि गुलाम बनाया गया आदमी, मुक्त आदमी है, तो यह उनकी राय है. अगर वे सोचते हैं कि उद्योगों में शांति के लिए कामगारों को अपने मालिक की जंजीरों में बंधा रहना चाहिए, तो यह उनकी सोच है, हो सकती है, मेरा कोई झगड़ा नहीं. पर मैं खुद इस स्थिति को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हूँ. हमें सिर्फ शांति ही नहीं चाहिए, और उस तरह की शांति को नकारता हूँ जैसी हमें स्वीकार करने के लिए कहा जा रहा है.

… बिलाशक यह कहा जा सकता है कि यह विधेयक कर्मचारी और नियोक्ता के साथ व्यवहार में समानता लाता है, क्योंकि जिस तरह यह विधेयक कर्मचारियों की हड़ताल पर दंड की व्यवस्था करता है, उसी तरह मालिकों द्वारा की गई तालाबंदी पर भी... जरूरी नहीं कि बराबरी का मतलब बराबरी की भागीदारी हो. समाज में बराबर की भागीदारी लाने के लिए, न्याय की स्थापना के लिए, अलग-अलग तरह के लोगों के साथ असमान व्यवहार करना होगा. अगर हम ताकतवर और कमजोर, धनी और गरीब, अज्ञानी और बुद्धिमान के साथ एक जैसा ही व्यवहार करेंगे तो बराबर की भागीदारी पैदा नहीं की जा सकती.

… मैं पूरे विश्वास से कह रहा हूँ कि इस विधेयक को इस रूप में पारित नहीं करना चाहिए. मजदूरों को यह केवल अपाहिज बना देता है. मजदूर शायद अभी नहीं जानते कि यह विधेयक क्या करेगा, पर जब यह लागू होगा तब वे सीधे इसके सामने अड़ते हुए इसे बुरा, खूनी और क्रूर कहेंगे. महोदय ! मैं इसका भागीदार नहीं बन सकता.”

(बाॅम्बे लेजिसलेटिव असेंबली डिबेट्स, भाग 4, पृष्ठ- 1330-59, 15 सितंबर, 1938)