‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया?’ (1945) नामक किताब में अम्बेडकर ने चेतावनी दी थी कि--

“...आजादी के लिए कांग्रेस की यह लड़ाई अगर सफल हुई तो इसका मतलब होगा, ताकतवर और सशक्त लोगों को गरीब और वंचितों को दबाने की आजादी...” और साथ ही यह भी जोड़ा कि “गणतन्त्र और स्वराज्य तब तक असलियत में भारत में नहीं आ सकते जब तक आजादी पर सबके हक सुनिश्चित न हो जाएँ...”

अम्बेडकर के लिए, आजादी के समय हमें कोई बना बनाया ‘राष्ट्र’ नहीं मिल गया, जिसके लिए जश्न मनाया जाये. बजाय इसके अम्बेडकर का मानना था कि कड़ी मेहनत से, असमानता और शोषण के आधार को पहचानकर उसे ध्वस्त करते हुए, राष्ट्र का निर्माण करना होगा.

अब जरा संघ और भाजपा से बाबासाहब के इन विचारों की तुलना करिए जो मौजूदा भारतीय समाज की किसी भी आलोचना को, खासकर जातीय, लैंगिक और सांप्रदायिक भेदभाव की किसी भी आलोचना पर ‘देशद्रोही’ और ‘विभाजनकारी’ का ठप्पा लगाने को व्याकुल रहते हैं!

“हमें यह बात संज्ञान में लेते हुए ही बात शुरू करनी चाहिए कि भारतीय समाज में दो चीजों का सिरे से अभाव है. इनमें से एक है समानता. सामाजिक स्तर पर, भारत में हम एक श्रेणीबद्ध असमानता के सिद्धांतों पर आधारित समाज में रहते हैं... इनमें से कुछ के पास अकूत संपदा है, दूसरी तरफ वे लोग हैं जो भीषण गरीबी में दिन गुजारते हैं. 26 जनवरी, 1950 से हम अंतर्विरोधों के एक युग में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी, सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता. राजनीति में हम ‘हर व्यक्ति एक मत’ और ‘हर मत एक मूल्य’ के सिद्धांत को मानेंगे. अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं के कारण हम सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारना जारी रखेंगे. अंतर्विरोधों भरे इस जीवन के साथ हम कब तक जिएंगे?”

(अम्बेडकर, स्पीच इन द कांस्टीट्युएंट असेंबली आॅन एडाॅप्शन आॅफ द काॅन्स्टिट्यूशन, 25 नवंबर, 1949; जोर लेखक का)

 

नेहरू सरकार द्वारा हिन्दू कोड बिल को कमजोर किए जाने से खफा अम्बेडकर ने कैबिनेट से इस्तीफा दिया और कहा किः

“वर्गों व स्त्री-पुरुषों के बीच असमानता हिन्दू समाज की आत्मा है; इस असमानता को अनछुवा छोड़कर सिर्फ आर्थिक समस्याओं से संबन्धित कानून बनाना हमारे संविधान का मजाक बनाना है, गोबर की ढेरी पर महल खड़ा करना है.”

“जातियाँ राष्ट्र-विरोधी हैं”

क्या संघ बाबासाहब के इन निर्भीक शब्दों को ‘देश-द्रोही’ कहेगाः

“मेरी राय यह है कि यह मानते हुए कि हम एक राष्ट्र हैं, हम एक भरम पाल-पोस रहे हैं. हजारों जातियों में बंटे लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? दुनिया की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समझ से हम अभी तक एक राष्ट्र नहीं है, हम जितनी जल्दी इस बात को समझ लेंगे, हमारे लिए उतना ही बढ़िया होगा. क्योंकि सिर्फ तभी हम एक राष्ट्र बनाने की जरूरत महसूस कर सकेंगे और इस लक्ष्य को हासिल करने के रास्तों और माध्यमों पर गंभीरता से सोच पाएंगे. इस लक्ष्य का एहसास होना काफी कठिन होने जा रहा है...

जातियाँ राष्ट्र-विरोधी हैं. प्रथमतया इसलिए कि वे सामाजिक जीवन में अलगाव पैदा करती हैं. वे इसलिए भी राष्ट्र-विरोधी हैं, क्योंकि वे एक जाति से दूसरी जाति में ईष्र्या और विद्वेष पैदा करती हैं. पर अगर हमें असल में एक राष्ट्र बनाना है तो इन सारी मुश्किलों से पार पाना होगा.”

(अम्बेडकर, स्पीच इन द काॅन्स्टिट्युएण्ट असेंबली आॅन एडाॅप्शन आॅफ द काॅन्स्टिट्यूशन, 25 नवंबर, 1949)