सभी को मताधिकार और आरक्षण जैसे हथियारों से लैस कराने वाले, संविधान के मुख्य निर्माता की भूमिका में अम्बेडकर के ऐतिहासिक योगदान को भारत के लोग कभी भी नहीं भूलेंगे. इसके नाते ही वंचित समुदाय को धनी और ताकतवर लोगों के वर्चस्व और समाज में गहरे समाई हुई असमानता व अन्याय से संघर्ष करने का एक मंच हासिल हुआ.
इन जाने-पहचाने योगदानों के अलावा बाबा साहब अम्बेडकर अपने पीछे संक्षिप्त ही सही, बहुत से संभावनाशील विचार और अंतर्दृष्टियाँ छोड़ गए हैं. रूढ़िवाद, यथास्थितिवाद, असहिष्णुता, पितृसत्ता, धार्मिक, नस्लीय वर्चस्व और ऐसी तमाम चीजों के खिलाफ और वास्तविक स्वतन्त्रता, समता और भाईचारे पर आधारित जनता के लोकतन्त्र के लिए चलने वाले हमारे दीर्घकालीन संघर्षों में हमें अपनी स्थितियों के मुताबिक इन विचारों और अंतर्दृष्टियों को विकसित करते हुए राजनैतिक हथियार की तरह इनका इस्तेमाल करना होगा.
अम्बेडकर ने सामाजिक और संवैधानिक नैतिकता के बीच बेहद महत्त्वपूर्ण विभेद किया था। सामाजिक नैतिकता पुरानी, स्वतःस्फूर्त और सहज बोध पर आधारित वर्चस्वशाली तबकों की नैतिकता है, जो महिलाओं की सामाजिक और लैंगिक आजादी, एलजीबीटी अधिकारों, अंतरधार्मिक और अंतरजातीय विवाहों और गोमांस खाने आदि पर पिछड़ा हुआ नजरिया अपनाती है. दूसरी तरफ संवैधानिक नैतिकता आधुनिक, सोच-समझ कर विकसित की गई, समतावाद, सामाजिक न्याय और सेक्युलरवाद जैसे संविधान सम्मत सिद्धांतों पर आधारित है. जैसा कि अम्बेडकर ने चिन्हित किया था “संवैधानिक नैतिकता सामान्य भावना नहीं है. इसे रचना पड़ता है.”
(4 नवंबर 1948, काॅन्स्टिट्युएन्ट असेम्बली डिबेट्स, वाल्यूम-7)
तर्कवाद पर लगातार और संगठित हमलों के इस दौर में अम्बेडकर की विश्वदृष्टि की एक और चीज खासी महत्वपूर्ण हैः तार्किकता और वैज्ञानिक बोध के प्रति उनकी प्रतिबद्धता. बौद्ध धर्म के अन्वेषण, वाद-विवाद, द्वन्द्वात्मक पद्धति और प्रबोधन का नजरिया उन कारणों में से एक था, जिससे अम्बेडकर ने इस धर्म को अपनाया. बुद्ध की शिक्षाओं का सार-संक्षेप पेश करते हुए ‘बुद्ध और कार्ल मार्क्स’ किताब में अन्य चीजों के बीच अम्बेडकर ने लिखाः
“सीखने का अधिकार सबको है. सीखना मनुष्य-जीवन के लिए वैसे ही जरूरी है जैसे कि भोजन... कुछ भी अपरिहार्य नहीं है. हमेशा बाध्यकारी कुछ भी नहीं है. सब कुछ जांच और परख का विषय है.”