‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर मोदी सरकार और संघ परिवार ने जेएनयू और हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय जैसे शिक्षण संस्थानों के खिलाफ सचमुच का युद्ध छेड़ा हुआ है. बहस, असहमति और लोकतंत्र को महत्व देने वाले इन और अन्य संस्थानों पर ये ‘राष्ट्रविरोधी मांद’ होने का आरोप लगाते हैं. संघ परिवार के सुर में न अलापने वाले नागरिकों पर इन्होंने ‘राजद्रोह’ के मुकदमे लाद कर पूरे देश को खुली जेल में तब्दील कर दिया है. इस तरह राष्ट्रवाद के नाम पर हमें औपनिवेशिक काल की गुलामी और अन्याय की ओर धकेल दिया गया है.
इतिहास की इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है? भारत में राष्ट्रवाद का उदय महान राष्ट्रीय जागरण और अंग्रेजी शासन से मुक्ति के प्रयासों के बीच हुआ था. आरएसएस ने इसे अपनी ऊर्जा की बर्बादी माना था, हिन्दू महासभा और संघ के नेताओं ने अपना समय अंग्रेजों की तारीफ करने में लगाया, अगर कभी जेल में बंद किये गये तो दया की भीख मांगने और पुलिस के लिए मुखबिर के बतौर काम करने में लगाया. भगत सिंह का साम्राज्यवाद विरोधी उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद और अन्य विचारधाराओं को मानने वाले स्वतंत्रता सेनानियों का राष्ट्रवाद सांप्रदायिक सौहार्द्र, धर्मनिरपेक्षता की वकालत करता था, देश की विविधता और बहुलतावाद से प्यार करता था और बहुरंगी भारत का उत्सव मनाता था. जबकि इसके एकदम विपरीत आरएसएस और हिन्दू महासभा ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का प्रचार करते थे, जो कि ‘बहुसंख्यक सांप्रदायिकता’ और ‘सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद’ के अलावा और कुछ भी नहीं है. यह अंग्रेज उपनिवेशकों को नहीं भारतीय मुसलमानों को अपना दुश्मन मानता था और भारत में अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक मानता था जो भारत में या तो हिन्दू संस्कृति को अपनाकर रह सकते थे या फिर ऐसे ‘मेहमानों’ की तरह जिन्हें भारतीय नागरिकों का कोई भी अधिकार न हो!
आजादी के आंदोलन ने भारत में लोकतंत्र का झंडा फहराया. संविधान की प्रस्तावना में लिखा है कि भारत के नागरिक भारत को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य मानेंगे और “सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना की स्वतंन्त्रता” प्रतिष्ठा और अवसरों की समानताय लोकतंत्र के आधार स्तंभ होंगे. यह ठीक है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द बाद में संशोधनों के जरिये जोड़े गये, लेकिन इन शब्दों की मूल भावना संशोधनों के पहले से संविधान में मौजूद थी. जबकि आरएसएस एकदम दूसरे छोर पर खड़ा था और शूद्रों, दलितों और महिलाओं की गुलामी के दस्तावेज मनुस्मृति को भारत का संविधान बनाना चाहता था. जब यह संभव न हो सका तो उन्होंने अम्बेडकर को आधुनिक मनु कहना शुरू कर दिया !
भगतसिंह और उनके साथी एक ऐसा स्वतंत्र भारत चाहते थे जहां एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति का और एक राष्ट्र के द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण (यह साम्राज्यवाद का मुख्य लक्षण है) अतीत की वस्तु बन जाये. सावरकर और गोलवलकर इस दृष्टिकोण के एकदम खिलाफ थे. वे हिटलर और मुसोलिनी से प्रेरणा प्राप्त कर रहे थे, फासिस्ट इटली और जर्मनी उनके आदर्श थे. आज सत्ता में बैठे हुए उनके वारिस देश के प्राकृतिक संसाधनों को बहुराष्ट्रीय पूंजी और अमेरिका की साम्राज्यवादी सैन्य ताकत के हवाले कर रहे हैं. ‘मेक इन इंडिया’ और अमेरिका के नेतृत्व में वैश्विक सैन्य गठबंधन में हिस्सेदारी के नाम पर एफडीआई की पूजा की जा रही है और आत्मनिर्भर स्वतंत्र विदेशनीति को तिलांजलि दे दी गयी है.
तब अंग्रेजी उपनिवेशवाद और अब अमेरिकी साम्राज्यवाद व दूसरे पूंजीपति देशों के साथ नंगे गठजोड़ से लोगों का ध्यान हटाने के लिए आरएसएस-भाजपा-अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का राग अलापते रहे हैं. इसके जरिये वे अल्पसंख्यकों और विरोध की हर आवाज को ‘राष्ट्र के दुश्मन’ और अमेरिकी साम्राज्यवाद को सबसे अच्छा दोस्त और शुभचिंतक साबित करना चाहते हैं.
इसलिए आज आर्थिक अधिकारों और संवैधानिक आजादियों के लिए आम भारतीय नागरिक का संघर्ष मोदी सरकार के काॅरपोरेट-सांप्रदायिक चंगुल से भारत को मुक्त कराने और आरएसएस व इससे जुड़े संगठनों की फासीवादी व सांप्रदायिक विचारधारात्मक-राजनीतिक परियोजना से भारत को मुक्त कराने के देशभक्तिपूर्ण संघर्ष में बदल गया है. इस युद्ध में भगतसिंह और भीमराव अम्बेडकर के सपनों को पुनर्जीवित करना बहुत महत्वपूर्ण है. बीसवीं शताब्दी में भारत की धरती पर जन्म लेने वाले दोनों ही सेनानी बराबरी और लोकतंत्र के महान पैरोकार व दृष्टा थे. हमें भगतसिंह के देशभक्ति के झंडे और साम्राज्यवाद के खात्मे के उनके नारे को और अम्बेडकर के लोकतंत्र के झंडे और जाति के उन्मूलन के नारे को बुलंद करना होगा. भगवा शासक भगतसिंह और अम्बेडकर को विकृत करने व पचाने के लिए बेचैन हैं, साथ ही पूरे देश में भगतसिंह और अम्बेडकर के विचारों को प्रचारित करने के काम में लगे अध्यापकों, छात्रों और नागरिकों पर सरकार व संघ के गुंडे हमला कर रहे हैं.
इसलिए संघ ब्रिगेड के हर हमले का मुंहतोड़ जवाब देते हुए हमें भगत सिंह और अम्बेडकर के संदेश को नये जोश के साथ फैलाना चाहिए. आॅल इंडिया स्टूडेण्ट्स एसोसिएशन और रेवोल्युशनरी यूथ एसोसिएशन के साथियों ने भगतसिंह और अम्बेडकर के संदेश को देश के हर नुक्कड़-चैराहे तक ले जाने के लिए “उठो मेरे देश” नाम से देशव्यापी अभियान शुरू किया है. काॅमरेड अरिंदम सेन और कविता कृष्णन ने इस पुस्तिका में भगत सिंह और अम्बेडकर के कुछ केन्द्रीय विचारों को संकलित किया है. उम्मीद है कि यह संघ परिवार द्वारा फैलाये जा रहे झूठ से निपटने में मददगार होगी और हमें साहस, ताकत, ऊर्जा और दृढ़ता के साथ इस महत्वपूर्ण संघर्ष को जीतने में मदद करेगी.
दीपांकर भट्टाचार्य
महासचिव, भाकपा(माले)
चारु भवन, दिल्ली
23 मार्च 2016
“देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है. जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है कि समाजवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निमाण करें. जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण - जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात है - समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है...”
(भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा असेम्बली बम केस में 6 जून, 1929 को दिया गया बयान)
जमींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!
सब घुस आये भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर
- नागार्जुन, ‘सच ना बोलना’
भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की.
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की.
यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहाओगे.
बंब संब की छोड़ो भाषण दिया तो पकड़े जाओगे.
- शैलेन्द्र
बाबा नागार्जुन और शैलेन्द्र जैसे कवियों ने इस बात की चेतावनी पहले ही दे दी थी कि आजाद भारत में हर तरह की लूट, शोषण, उत्पीड़न, हत्या स्वयं को ‘राष्ट्रवाद’ कहेगा, जबकि सच्चे देशभक्त राष्ट्रविरोधी कहकर जेलों में बंद किये जायेंगे.
नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से यह प्रवृत्ति अपने चरम पर पहुंच गयी है.
भाजपा और एबीवीपी के पितृसंगठन आरएसएस की आजादी की लड़ाई में कोई भूमिका नहीं थी. जब भगत सिंह और उनके साथी हंसते हुए फांसी के पफंदे पर चढ़ रहे थे, उस समय आरएसएस अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का सहयोगी बना हुआ था. यदि आरएसएस ने अंग्रेजों की सेवा की तो आज की भाजपा सरकार साम्राज्यवाद की सेवा में लगी हुयी है. यह भारतीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मदद करती है कि वे भारत की भूमि और संसाधनों को लूट सकें. इस लूट का विरोध करने वाले भारतीय नागरिकों का दमन करती है. ये अपनी नीतियां भारत के नागरिकों के भले के लिए नहीं, साम्राज्यवादी ताकतों और वैश्विक पूंजीवाद के हित में बनाती हैं. यह ‘राष्ट्रवाद’ को सांप्रदायिक घृणा के रूप में परिभाषित करती है न कि भारत के नागरिकों के अधिकार के रूप में.
आज जो भी लोग आरएसएस और भाजपा द्वारा भारत के हितों से गद्दारी, अंग्रेजी राज के साथ इनके अतीत के गठजोड़ और मौजूदा समय में साम्राज्यवादियों के साथ गठजोड़, इनकी सांप्रदायिक घृणा और हिंसा की राजनीति को उजागर करते हैं, उन्हें भाजपा ‘राष्ट्रविरोधी’ का तमगा दे देती है.
जब बाबा साहेब अम्बेडकर संविधान बना रहे थे, तब आरएसएस संविधान और तिरंगे झंडे का विरोध कर रहा था. लेकिन आज आरएसएस और भाजपा के लोग भगत सिंह और अम्बेडकर के उन अनुयायियों को राष्ट्रविरोधी बता रहे हैं जो, मजदूरों, किसानों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, जो समाज को बदलना चाहते हैं, जो शोषण को समाप्त करके आर्थिक बराबरी और लोकतंत्र लाना चाहते हैं.
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ऐसी शिक्षण संस्थायें हैं जो हर समय देश और संविधान की आत्मा को बचाने के संघर्ष में अगली कतार में रहे हैं और आज इन कैंपसों के छात्र और अध्यापक गिरफ्तारी झेल रहे हैं, उन पर शारीरिक हमले हो रहे हैं, उनका बर्बर दमन किया जा रहा है क्योंकि उन्होंने भगत सिंह और अम्बेडकर के सपनों को तिलांजलि देने से इंकार कर दिया है.
आज भारत के नागरिकों के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे एकजुट होकर कैंपसों के बचाव में खड़े हों, देश के बचाव में खड़े हों, संविधान के बचाव में खड़े हों, भगत सिंह और अम्बेडकर के सपनों का भारत बनाने के संघर्ष को मजबूत करें.
भगत सिंह के समय में आरएसएस ने अंग्रेजी राज की मदद के लिए काम किया. आज आरएसएस और भाजपा बहुराष्ट्रीय और भारतीय काॅरपोरेट लुटेरों के हाथ में देश की बहुमूल्य जमीन, संसाधन, शिक्षा और श्रम देने पर आमादा हैं. वे भारत के संविधान की बुनियाद पर ही हमला कर रहे हैं. भगत सिंह और अम्बेडकर ने दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों और बारबरी के लिए संघर्ष किया था, भाजपा उन अधिकारों पर ही हमला कर रही है.
आरएसएस और भाजपा, एबीवीपी आदि के ‘राष्ट्रवाद’ का विचार कैसा है? राष्ट्रवाद का प्रमाणपत्र बांटने का उन्हें क्या हक है? आइये उनके ही नेताओं के लेखों के जरिये इसका पता लगायें.