(पुलिस गोलीकांड को जायज ठहराने वाली एक जांच रपट के खिलाफ अम्बेडकर ने बहस की थी. इस रपट ने आरोप लगाया था कि संघर्ष समिति-- खुद अम्बेडकर जिसके सदस्य थे, ने मजदूरों को भड़काया था. आज जिस तरह से सरकारें इशरत जहां की हिरासत में की गई हत्या को यह कह कर सही ठहराने में लगी हुई हैं कि वह आतंकवादी थी, जब एएफएसपीए का विरोध करने और हत्या या बलात्कार के आरोपी सेना के जवानों पर मुकदमा चलाने की मांग करने वाले को सरकारें देशद्रोही बता रहीं हैं, और जब सरकारें संघर्षरत मजदूरों/आदिवासियों/ ग्रामीणों पर ही दोषारोपण करते हुए जालियाँवाला बाग नुमा जनसंहारों को उचित ठहराने में लगी हुई हैं, तब इस मामले पर अम्बेडकर के विचार उनके खिलाफ एक जबर्दस्त अभियोग हैं. अगर भगत सिंह ने चेतावनी दी थी कि गोरे अंग्रेजों की जगह वैसे ही अन्यायी शासक गद्दी संभाल लेंगे तो अम्बेडकर ने भी यह चेताया कि औपनिवेशिक अंग्रेज सत्ता की तरह ही भारतीय शासक भी भारतीयों को गोली मारने की आजादी का लुत्फ उठाएंगे. आज भारतीय शासक वर्ग औपनिवेशिक समय के देशद्रोह और एएफएसपीए जैसे नृशंस कानूनों को इस्तेमाल करने की आजादी का लुत्फ उठा रहा है.)

“… इसलिए मैं माननीय गृहमंत्री से दूसरा सवाल पूछ रहा हूँ. क्या वे गोली चलाने में शरीक पुलिस अफसरों पर साधारण अदालत में मुकदमा चलाने को तैयार हैं, और क्या वे इस समिति की जांच रपट का किसी न्यायाधीश या ज्यूरी द्वारा अनुमोदन कराने के लिए राजी हैं? महोदय! मैं इस सदन को स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जहां तक कानून का मामला है, उसके सामने किसी पुलिस या सेना के अफसर और एक सामान्य नागरिक में कोई फर्क नहीं है. सदन के लाभ के लिए मैं एक बेहतरीन दस्तावेज़ से एक छोटा सा अंश पढ़ना चाहता हूँ. मुझे विश्वास है कि मेरे दोस्त माननीय गृहमंत्री दंगों पर फीदरस्टोन कमेटी की इस रपट से वाकिफ होंगे। इस रपट के एक अंश में कहा गया है कि:

“अधिकारियों और सैनिकों को कोई विशेषाधिकार हासिल नहीं है और न ही कानूनन उनका दायित्व कोई विशिष्ट है. नागरिक व्यवस्था स्थापित करने के उद्देश्य के लिए खास ढंग से हथियारबंद एक नागरिक ही सैनिक है. सैनिक होने के नाते उसे बेवजह किसी इंसान की जान लेने की छूट नहीं मिल जाती.”

... न्यायाधीश या ज्यूरी का फैसला हमारे सामने आने दीजिये. और मैं इसे ऐसे रखना चाहता हूँ कि अगर वह संघर्ष समिति के सदस्यों पर मुकदमा नहीं चलाते, अगर वह पुलिस अफसरों पर मुकदमा नहीं चलाते तो इस रपट का मोल टूली स्ट्रीट के तीन दर्जियों द्वारा लिखी गई किसी गल्प या उपन्यास से ज्यादा नहीं होगा.

… मैं स्वर्गीय माननीय एडवर्ड थामसन की गवाही की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा जो कुछ समय पंजाब के गवर्नर और कुछ समय बाद वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य रहे थे. सेवा निवृत्ति के बाद उन्होंने भारत को स्वशासन दिलाने का समर्थन करने के लिए इंग्लैंड में एक संस्था शुरू की। जैसा कि इस सदन के सभी सदस्यों को मालूम है, गोलमेज़ सम्मेलन हुआ और जो सिविलियन भारत से वापस इंग्लैंड चले गए थे, वे दो गुटों में बाँट गए. एक गुट भारत के स्वशासन के पक्ष में था और दूसरा उसका विरोधी. सर एडवर्ड थामसन भारतीय दावे का समर्थन करने वाले गुट के नेताओं में से एक थे. उस गुट के सदस्य के रूप में वे संयुक्त संसदीय समिति के सामने गवाही देने और भारत को स्वशासन क्यों मिलना चाहिए, इस संबंध में अपना दृष्टिकोण रखने आए. हम सब बहुत खुश थे कि कम से कम भारतीय सिविलियनों का एक भाग तो भारतीय उद्देश्य के समर्थन के लिए ईमानदारी से एवं पूरी तरह से सामने आया है. लेकिन साफ कह रहा हूँ कि मैं उनके द्वारा दिये गए तर्क से मैं भयभीत हो गया। उनका तर्क क्या था? उन्होंने कहा कि जिस बात ने मुझे आयरिश स्वशासन का समर्थन करने के लिए राजी किया, वह यह थी कि, जब तक विद्रोह चल रहा था, कोई भी अंग्रेज किसी भी आयरिश को, चाहे उसका काम जितना भी हिंसक क्यों न हो, गोली नहीं मार सकता था. कारण यह कि अगर कोई अंग्रेज किसी भी आयरिश को गोली मार देता तो पूरा आयरलैंड हथियार उठा लेता. उन्होंने कहा कि जैसे ही स्वशासन दिया गया, वैसे ही काॅसग्रेव ने आयरिश लोगों को भून दिया और इसके खिलाफ विद्रोह नहीं हुआ. उन्होने कहा कि भारत को स्वशासन देने से अंग्रेजों का एक फायदा यह होगा कि भारतीय मंत्री बेहिचक भारतीयों को गोली मार सकेंगे. ठीक यही हो रहा है. यह कोई पहला मौका नहीं है, जब उपद्रव हुआ है.

… एकमात्र सवाल यह है कि क्या शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए हमें आजादी और स्वतन्त्रता का सम्मान करना छोड़ देना चाहिए? और जैसा मैं सोच रहा हूँ, अगर स्वशासन का इसके अलावा कोई मतलब नहीं है, तब इसका मतलब यही हुआ कि हमारे अपने मंत्री हमारे अपने लोगों को गोली मार सकते हैं. बाकी लोग इस पूरी घटना पर हंस भर दें या उस मंत्री का सिर्फ इसलिए समर्थन करें कि वह किसी खास पार्टी से है. ऐसी हालात में स्वशासन भारत के लिए एक अभिशाप ही है, कोई वरदान नहीं.”

(बाॅम्बे लेजिस्लेटिव असेंबली डिबेट्स, भाग 5, पृष्ठ- 1724-27, 17 मार्च, 1939)

 

मोदी सरकार और संघ-भाजपा गिरोह द्वारा संचालित फासीवादी हमले के खिलाफ मौजूदा संघर्ष में और सामाजिक दमन, आर्थिक शोषण तथा राजनैतिक आधिपत्य की संरचनाओं व ताकतों के खिलाफ बड़ी लड़ाई में अम्बेडकर और मार्क्स के विचारों को माननेवालों को जरूर एकजुट होना होगा.

1920 के उत्तरार्ध के उथल-पुथल भरे समय में माक्र्स और अम्बेडकर के विचारों ने भारत में लगभग एकसाथ अपनी प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज की लेकिन 1930 में हुई बाॅम्बे टेक्सटाइल मजदूर हड़ताल जैसे कुछ मौकों के अलावा दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से दोनों एक दूसरे से कटे ही रहे। अविभाजित भाकपा द्वारा 1952 के चुनाव में अम्बेडकर का समर्थन न करने जैसी गलतियों ने ऐसे हालात के पीछे बड़ी भूमिका निभायी.

भाकपा(माले) कृषि क्रान्ति को जनवादी क्रान्ति की धुरी मानती है. भाकपा(माले) ने जनवादी क्रांति में तथा सभी संरचनाओं और सम्बन्धों के सतत जनवादीकरण में भूमिहीन गरीबों की अगुवा भूमिका पर निर्णायक जोर दिया. ऐसा करते हुए भाकपा(माले) ने शुरू से ही वर्ग-संघर्ष का एक माॅडल विकसित किया जिसमें सामाजिक उत्पीड़न को खत्म करने का सवाल, सामाजिक भेदभाव और अन्याय को बढ़ावा देने वाले भौतिक आधारों को चुनौती देने और बदल देने के सवाल से गहरे जुड़ा हुआ है. भाकपा(माले) ने वंचित और शोषित जनता की स्वतंत्र राजनीतिक दावेदारी पर निर्णायक जोर दिया. इस तरह भाकपा(माले) ने पुरानी दुर्भाग्यपूर्ण दूरी को पाटने के रास्ते में कुछ कदम बढ़ाए और क्रांतिकारी आंदोलनों में शामिल जनता की साझा गोलबंदी और दावेदारी की सरहदों को व्यापक बनाया.

हैदराबाद और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयों की रणभूमि (जो कि निश्चित ही समूचे देश में फैल रही है) क्रांतिकारी वामपंथियों और अम्बेडकरवादियों को नजदीक ले आई है और उनके दोस्ताने को आगे बढ़ाने तथा गाढ़ा करने की जरूरत को रेखांकित किया है. यह समझ हमें लोकतान्त्रिक और समतावादी भारत के हमारे साझा सपने की दिशा में आगे ले जाएगी. इस चुनौतीभरे समय में उस महान द्रष्टा के लिए यही सबसे बेहतर श्रद्धांजलि होगी.

आज हम देख रहे हैं कि देश का युवा भगत सिंह, अम्बेडकर, पेरियार, फुले और सावित्रीबाई के विचारों की सान पर क्रान्ति की तलवार तेज कर रहा है. उनके होठों पर इंकलाब जिंदाबाद और जय भीम के नारे हैं. हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला और जेएनयू के चन्द्रशेखर प्रसाद की तरह वे समाज को बदलने के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान करने को तैयार हैं. संघी भारत माता की पूजा न करने वालों को अपमानित करने या जान से मारने से उलट वे कह रहे हैं-- ‘हम बहस करेंगे, असहमत होंगे, तर्क करेंगे.’ उनके लिए देश के लोग ही देशभक्ति की आत्मा और हृदय हैं. वे कह रहे हैं-- ‘जय हिन्द/ जय हिन्द निवासी, जय भारत/ जय भारत वासी’।