संघ की ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा को अम्बेडकर ‘सबसे बड़ी विपत्ति’ की तरह देखते थे. आज हम डाॅक्टर भीमराव अम्बेडकर की 125वीं वर्षगांठ के साल में प्रवेश कर रहे हैं। और आज भारतीय समाज और राजनीति के बारे में उनकी आशंकायें किसी भी समय से ज्यादा सच साबित होती दिख रही हैं.
“अगर हिन्दू राज एक हकीकत बन गया तो”-- अपनी किताब ‘पाकिस्तान या भारत-विभाजन’ (1945) में उन्होने लिखा “निस्संदेह यह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ी विपत्ति होगा. यह स्वतन्त्रता, समता और भाईचारे के लिए खतरा है. इस लिए यह लोकतन्त्र के साथ चलने में अक्षम है. हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए.”
तकरीबन सत्तर साल पहले ही डाॅक्टर अम्बेडकर की दूरंदेश नजर ने ‘हिन्दू राष्ट्र’ के खतरे को चिन्हित कर लिया था. आज यही खतरा वस्तुतः काॅर्पोरेट-सांप्रदायिक मोदी राज का रूप लेकर हमारे सामने आ खड़ा हुआ है.
अम्बेडकर द्वारा तैयार संविधान पर सरकार और भाजपा द्वारा किए जाने वाले हर हमले के जबाव में उन्हीं का इस्तेमाल करना मोदी का प्रिय शगल है. उनकी सरकार रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के कटघरे में खड़ी है, मोदी के मंत्री अम्बेडकरवादी मार्क्सवादी छात्र कार्यकर्ताओं पर देशद्रोही का ठप्पा लगा रहे हैं, और इस बीच प्रधानमंत्री, अम्बेडकर को भाजपा के एजेंडे में फिट करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं.
भाजपा के वीके सिंह जैसे लोग दलितों को ‘कुत्ते’ कहते हैं. एक स्टिंग आॅपरेशन ने यह बात भी उघाड़ दी कि बिहार में दलितों का जनसंहार रचाने वाली दलित-विरोधी आतंकवादी रणवीर सेना को भाजपा के नेता पैसा देते थे.
दिल्ली में अम्बेडकर मेमोरियल का शिलान्यास करते हुए मोदी ने कहा कि डाॅक्टर अम्बेडकर ने श्रम कानूनों में बदलाव और औद्योगिकीकरण की बात की थी. असलियत तो यह है कि मजदूरों को गुलाम बनाने और दबा कर रखने के लिए औपनिवेशिक अंग्रेज़ सरकार द्वारा श्रम-कानूनों में हर बदलाव का बाबा साहब ने प्रबल विरोध किया था. आज उसी औपनिवेशिक अंग्रेज हुकूमत के नक्शे-कदम पर चलती हुई मोदी सरकार श्रम-कानूनों में सुधार ला रही है.
मोदी ने कहा कि अम्बेडकर ने महिला-अधिकारों के सवाल पर कांग्रेस सरकार की कैबिनेट से इस्तीफा दिया था. मामला हिन्दू कोड बिल का था, जिसका मसौदा अम्बेडकर ने तैयार किया था. तत्कालीन नेहरू सरकार ने इस मसौदे को बेहद सीमित और हल्का बना दिया था, अम्बेडकर इस कारण छला हुआ महसूस कर रहे थे. लेकिन मोदी यह बताना सुविधापूर्वक भूल गए कि अम्बेडकर के हिन्दू कोड बिल के मसौदे का सबसे प्रबल विरोध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने किया था और ‘हिन्दू कोड बिल विरोधी कमेटी’ का समर्थन किया था. इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के मुताबिक संघ ने दिल्ली के रामलीला मैदान में 11 दिसंबर, 1949 को एक सभा की, जिसमें “एक सिरे से वक्ताओं ने हिन्दू कोड बिल की निंदा की. एक वक्ता ने तो इसे ‘हिन्दू समाज पर एटम बम’ तक कहा.” (रामचन्द्र गुहा, ‘भागवत्स अम्बेडकर’, इंडियन एक्सप्रेस, 10 दिसंबर, 2015)
बाबासाहब ने जातिवाद और पितृसत्ता के प्रतीक के रूप में मनुस्मृति का दहन किया था, जबकि संघ, भाजपा और विद्यार्थी परिषद इस पोथी का बचाव करते रहते हैं. 2006 में गोलवलकर पर लिखे अपने एक आलेख में मोदी ने अम्बेडकर और मनुवाद में गोटी बैठाने के लिए बाबासाहब को ‘आधुनिक मनु’ कहने की ढिठाई की. वही मनुवाद, जिसके खात्मे के लिए अम्बेडकर दृढ़प्रतिज्ञ थे.
असलियत यह है कि अम्बेडकर सिर्फ विधि-प्रदाता या संविधान लेखक भर नहीं थे, वे एक राजनीतिक द्रष्टा और कार्यकर्ता-नेता थे. उनकी राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि और उनका बनाया गया संविधान, दोनों पर आज सांप्रदायिक-काॅर्पोरेट फासीवाद की तरफ से बदतरीन हमला हो रहा है.
अम्बेडकर मेमोरियल का शिलान्यास करते हुए भी मोदी अपने घमंड और आत्म-मुग्धता की आदत से बाज नहीं आए. इसके पत्थर पर मोदी का नाम दो जगह बड़े-बड़े हर्फों में दर्ज है, अम्बेडकर का छोटा सा. मोदी का दावा है कि बाबा साहब के सपनों को पूरा करने के लिए यह उनका ऐतिहासिक मिशन है. हकीकत तो यह है कि अपने लिए मेमोरियल बनवाना कभी भी बाबासाहब का सपना नहीं रहा, उनका सपना था जाति का खात्मा और एक लोकतान्त्रिक-समतावादी समाज में भारत का बदलाव.
अम्बेडकर का सपना एक ऐसा ‘आदर्श समाज’ था, जो ‘स्वतन्त्रता, समता और भाईचारे’ पर टिका हो, जहां ये तीनों एक ऐसी ‘जीवन-पद्धति’ और सरकार के स्वरूप में घुल गए हों जिसका नाम लोकतन्त्र हो. इस सपने को पूरा करने का कार्यभार, उन्होने जोर देकर कहा था, प्राथमिक रूप से दलित जनता के कंधों पर है. जिन्हें ‘शिक्षित बनो, आंदोलन करो, संगठित हो’ के हथियार के साथ ‘जाति के खात्मे’ का आंदोलन चलाना होगा. और इसी एक आधार पर भारत एक मजबूत संवैधानिक नैतिकता वाला आधुनिक मुल्क बन सकेगा.