भगत सिंह के लिए देशप्रेम का अंत सिर्फ अंग्रेजी राज के खात्मे पर ही नहीं होता. बल्कि उनका मतलब था कि संघर्ष को तब तक जारी रखा जाये जब तक कि भारत के गरीब मजदूर और किसान देश के शासक न बन जायें.
भगत सिंह ने दिल्ली में “गोरे शासन की भूरे शासन से बदली” होने के खिलाफ चेतावनी दी थी और कहा था कि यदि ऐसा शासन स्थापित होता है तो इसके “तानाशाही में संस्थाबद्ध हो जाने” का खतरा है.
(युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं से, भगत सिंह)
भगत सिंह ने स्पष्ट किया कि उनका मकसद सिर्फ गोरे शासन की जगह भूरे शासन की स्थापना नहीं है, बल्कि वे और उनके साथी क्रांति से कम कुछ भी नहीं चाहतेः
“क्रांति बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है. क्रांति से हमारा अभिप्राय अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन है. समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं. दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने को मोहताज हैं. दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया कराने वाले बुनकर अपने तथा अपने बच्चों का तन ढंकने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है. सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर जाते हैं. इसके विपरीत समाज को चूसने वाले शोषक पूंजीपति जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं.”
(आसिफ अली द्वारा 6 जून, 1929 को अदालत में पढ़े गये भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान से)
भगत सिंह ने फरवरी 1931 में दिये “नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं को संदेश” में स्पष्ट किया कि वे जिस क्रांति की बात कर रहे थे वह समाजवादी क्रांति थीः
“हम समाजवादी क्रांति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी जरूरत राजनीतिक क्रांति की है. यही है जो हम चाहते हैं. राजनीतिक क्रांति का अर्थ राजसत्ता का अंग्रेजी हाथों में से भारतीय हाथों में आना है और वह भी उन भारतीयों के हाथों में, जिनका अंतिम लक्ष्य हमारे लक्ष्य से मिलता हो. और स्पष्टता से कहें तो राजसत्ता का सामान्य जनता की कोशिश से क्रांतिकारी पार्टी के हाथों में आना. इसके बाद पूरी संजीदगी से पूरे समाज को समाजवादी दिशा में ले जाने के लिए जुट जाना होगा.”
भगत सिंह का मतलब किस तरह की क्रांतिकारी पार्टी से था? भगत सिंह ने बहुत साफ लिखा कि वे जिस पार्टी को आजादी और क्रांति के लिए जरूरी मानते थे वह लेनिन द्वारा सूत्रबद्ध की गई कम्युनिस्ट पार्टी की धारणा थीः
“हमें लेनिन के प्रिय शब्द ‘पेशेवर क्रांतिकारी’ के प्रयोग की जरूरत है. ऐसे पूर्ण कालिक कार्यकर्ता जिनकी क्रांति के अलावा और कोई महत्वाकांक्षा या जीवन के कार्य नहीं हैं. ऐसी पार्टी का नाम ... कम्युनिस्ट पार्टी है. कड़े अनुशासन से बंधी राजनीतिक कार्यकर्ताओं की पार्टी को सारे आंदोलन संचालित करने चाहिए. इसे किसानों और मजदूरों की पार्टियों, मजदूर यूनियनों को संगठित करना होगा....”
(नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं को संदेश)
आज जो युवक और युवतियां भगत सिंह के रास्ते पर चलते हुए कम्युनिस्ट आंदोलन में हिस्सेदारी करते हैं, उन्हें भाजपा और आरएसएस के लोग देशद्रोही और राजद्रोही के रूप में प्रचारित कर रहे हैं!
भगत सिंह ने लाहौर हाई कोर्ट में कहा थाः
“बम और पिस्तौल इंकलाब नहीं लाते. इंकलाब की धार विचारों की सान पर तेज होती है.”
पंजाब के गवर्नर को अपनी आखिरी अर्जी में उन्होंने जोर दिया:
“हम कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि चंद शक्तिशाली परजीवियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर एकाधिकार कर रखा है. ऐसे व्यक्ति चाहे अंग्रेज हों या फिर शुद्ध भारतीय ही हों. ... इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. युद्ध जारी रहेगा... जब तक कि समाजवादी राज्य की स्थापना नहीं हो जाती और ...हर तरह के उत्पीड़न का अंत नहीं हो जाता और मानवता एक स्थायी और वास्तविक शांति के दौर में प्रवेश नहीं करती.”